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विलुप्त होती जड़ी-बूटियों को संरक्षित करेगा हिमाचल

मंडी ज़िले के भूलाह में राज्य का पहला जैव विविधता पार्क हुआ तैयार

दुनिया भर में भारत की जड़ी-बूटियों की पहचान रही है। देश में एक समय वैद्य जड़ी-बूटियों से ही इलाज कर लेते थे; लेकिन धीरे-धीरे अंतरराष्ट्रीय दवा निर्माता कम्पनियों के दबाव ने ऐसा जाल फैलाया कि अंग्रेजी दवाओं ने देसी और आयुर्वेदिक औषधियों की जगह ले ली। लेकिन हिमाचल प्रदेश सरकार ने जड़ी-बूटियों का महत्त्व समझते हुए इन्हें फिर सही जगह देने की कोशिश की है और प्रदेश का पहला जैव विविधता पार्क तैयार हो गया है।

यह जैव विविधता पार्क देश-विदेश के शोधकर्ताओं, पर्यटकों और हिमालय की विलुप्त होती जड़ी-बूटियों के संरक्षण में अपना योगदान देने के लिए तैयार है। मंडी ज़िले के जंजैहली घाटी के भूलाह (वादी-ए-भूलाह) में एक करोड़ की लागत से स्थापित किया गया प्रदेश का पहला बायोडायवर्सिटी पार्क (जैव विविधता उद्यान) हिमालय की विलुप्त होती जड़ी-बूटियों के संरक्षण के साथ-साथ शोधकर्ताओं व पर्यटकों के लिए भी वरदान साबित होगा।

पार्क में प्रदर्शन के लिए पहाड़ों में विलुप्त हो रही जड़ी-बूटियों की हर्बल नर्सरी तैयार की गयी है। इस नर्सरी में नाग छतरी, धूप, कडू, सर्पगंधा, चिरायता, टैक्स, बर्बरी, चैरा, पठानबेल, पत्थर चटा, भूतकेसी, न्यार, मुश्कवाला, वण, अजवायण, कूठ और वर्रे, संसरपाली, डोरी घास, रतन जोत, अतीश पतीश, वन ककड़ी, शिंगली मिगली, जगली लहसुन, डुंगतली इत्यादि जड़ी-बूटियाँ प्रदर्शित की गयी हैं।

यहाँ देश-विदेश का कोई भी शोधकर्ता इसके बारे में जानकारी प्राप्त कर अपना शोध कार्य कर सकता है। इसके अतिरिक्त हर उस जड़ी बूटी पर भी खोज कार्य किया जा सकेगी, जिनकी अभी तक कोई पहचान नहीं हो पायी है। इस हर्बल नर्सरी में विभिन्न प्रजातियों के लगभग 1,200 पौधे शोधकर्ताओं के लिए उपलब्ध है।  राज्य के पहले इस अनूठे पार्क को पाँच हेक्टेयर यानी 60 बीघा से अधिक भूमि पर तैयार किया गया है। यहाँ शोधकर्ताओं के लिए विभिन्न मूलभूत सुविधाएँ भी जुटायी गयी हैं। भूलाह की सुन्दर वादियों में स्थापित इस पार्क को चारो ओर से बाड़बंदी कर सुरक्षित बनाया गया है। एनएमएचएस प्रोजेक्ट के विभिन्न कार्य लगभग 15 हेक्टेयर भूमि पर किये गये हैं।

पार्क में आने वाली शोधकर्ताओं और पर्यटकों की सुविधा के लिए पार्क में एम्फी थियेटर भी बनाया गया है, जहाँ पहाड़ी क्षेत्रों में उगने वाली जड़ी-बूटियों के बारे में जानकारी हासिल की जा सकेगी। पार्क में देश-विदेश से आने वाले शोधकर्ताओं के लिए रहने खाने की व्यवस्था के लिए दो लॉग हट भी निर्मित किये गये है। इसके अलावा दो लॉग्स हट, वॉटर हार्वेस्टिंग स्ट्रक्चर, इंटरनल टैंक, पाँच किलोवॉट बिजली तैयार करने वाला प्रोजेक्ट, एम्फी थिएटर, पक्षियों के घोंसले, हर्बल नर्सरी, फुट ब्रिज और बिक्री केंद्र तैयार किया गया है।

पर्यटकों के लिए पार्क में दो ट्री-हट भी तैयार किये गये हैं, जहाँ से वे पार्क सहित अन्य रमणीक स्थलों को निहार सकते हैं। इसके अलावा लगभग दो किलोमीटर की दूरी तक नेचर ट्रेल्स बनायी गयी हैं। क़रीब 25 फीट ऊँची और 160 मीटर लम्बी ट्री-वॉक तैयार की गयी है। इसके अलावा सात फुट ब्रिज बनाये गये हैं। पार्क के साथ लगते टैक्सस के जंगल में शोधकर्ताओं के लिए इंटरनल ट्रैक बनाया गया है, जिसमें वे आसानी से घूमकर अपना रिसर्च कार्य कर सकते हैं।

सरकार की इस कोशिश का महत्त्व इसलिए भी ज़्यादा है, क्योंकि प्रदेश की जड़ी-बूटियों को केंद्रीय सूची में शामिल किया जा चुका है। इससे हिमाचल के जनजातीय क्षेत्रों के जंगलों में पायी जाने वाली बेशक़ीमती जड़ी-बूटियाँ औने-पौने दामों पर नहीं बिक सकेंगी। केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय के सूची माँगने के बाद तब हिमाचल ने जंगली लहसुन, सालम पंजा, पतीश, नाग छतरी, कुटकी और कुडी प्रजाति को केंद्रीय सूची में शामिल करने का प्रस्ताव केंद्र को भेजा था। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में प्रदेश में पैदा होने वाली पतीश का भाव 26,000 रुपये, नाग छतरी का भाव 16,000 रुपये, सालम पंजा का भाव 25,000 रुपये, जंगली लहसुन का भाव 24,000 रुपये, कुटकी और कुडी का भाव 14,000 रुपये प्रति किलो तक है।

इससे पहले हिमाचल की कोई भी जड़ी-बूटी केंद्रीय सूची में शामिल नहीं थी। हिमाचल ने केंद्र को पाँच जड़ी-बूटियों की सूची भेजकर इन्हें केंद्रीय सूची में शामिल करने की माँग उठायी थी। केंद्र इसके एवज़ में जो पैसा देता है, उसे इन्हें सहेजने पर ख़र्च किया जाता है। राज्य की वनस्पति सूची में 1,038 प्रजाति समूह और लगभग 3,400 प्रजातियाँ शामिल हैं। बहुत-सी प्रजातियाँ तो लुप्त होने के कगार पर हैं। अब उन्हें बचाने की कोशिश होगी, जो कि बहुत-ही अच्छी पहल है।

 

“राज्य के पहले जैव विविधता पार्क को वन विभाग ने नेशनल मिशन ऑन हिमालयन स्टडीज (एनएमएचएस) प्रोजेक्ट के तहत बनाया है। इसमें विलुप्त होती जड़ी-बूटियों को संरक्षित करने पर ज़ोर दिया गया है। पार्क को पयर्टन गतिविधियों से जोडऩे के साथ-साथ शोधकर्ताओं के लिए हिमालय में पायी जाने वाली विभिन्न औषधीय जड़ी-बूटियों (हर्बल प्लांट्स) पर शोध करने के नये मौक़े देने के लिए भी तैयार किया गया है, जो विलुप्त होने के कगार पर हैं।’’

जय राम ठाकुर

मुख्यमंत्री, हिमाचल

भाजपा की बहार

चार राज्यों में विपक्ष को बड़ा झटका, पंजाब में चली झाडू

पाँच राज्यों में विधानसभा के चुनाव नतीजे काफ़ी चौंकाने वाले रहे हैं। कड़े मुक़ाबले की स भावना के विपरीत चार राज्यों में (गोवा में एक सीट कम) भाजपा को और पंजाब में आम आदमी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला है। यह चुनाव 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा को मनोवैज्ञानिक बढ़त देने वाले साबित हो सकते हैं, भले सपा सहित विपक्ष के कुछ दलों ने इन चुनावों में धाँधली का आरोप लगाया है। उत्तर प्रदेश में योगी के नेतृत्व में पहली बार भाजपा ने लगातार दूसरी जीत दर्ज की, तो उत्तराखण्ड में भी भाजपा ने लगातार दो चुनाव जीतने का रिकॉर्ड बना दिया। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के बाद सभी दलों की सफ़ार्इ करते हुए पंजाब में ब पर जीत दर्ज करके नया इतिहास लिख दिया है। इस साल के आख़िर में अब गुजरात और हिमाचल जैसे राज्यों में विधानसभा के चुनाव हैं। ज़ाहिर है हारे हुए विपक्ष के सामने आगे भी चुनौतियाँ होंगी। फ़िलहाल पाँच राज्यों के नतीजों का राष्ट्रीय राजनीति पर क्या असर पड़ेगा? बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

पाँच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव नतीजे 2024 में किसी करिश्मे की उम्मीद कर रहे देश के पूरे विपक्ष के लिए बड़ा झटका हैं। भाजपा अब 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए बहुत ताक़त और भरोसे के साथ आगे बढ़ेगी, जबकि खंडित विपक्ष के सामने यह चुनौती होगी कि वह अब करे क्या? हाँ, पंजाब में जीत दर्ज करके विपक्ष की ही एक पार्टी अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) ने राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की जगह लेने का ख़त्म ठोंक दिया है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को अब तीसरे मोर्चे के लिए ज़्यादा मेहनत से काम करना होगा। यदि आने वाले महीनों में संगठन और नेतृत्व के मसले पर कांग्रेस ने वर्तमान स्थिति पर समझदारी और गहराई से अवलोकन नहीं किया, तो यह नतीजे कांग्रेस को और अँधेरे की तरफ़ ले जाने वाले साबित हो सकते हैं। हार के बाद विपक्ष ने इन चुनावों में बड़े पैमाने पर धाँधली के आरोप लगाये हैं। लेकिन एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या पाँच राज्यों में जीत की इस बढ़त के बूते ही भाजपा की नैया 2024 में पार लगेगी, या वह सिर्फ़ इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर विपक्ष पर मनोवैज्ञानिक दबाव बना रही है?

उत्तर प्रदेश में एग्जिट पोल से पहले कड़े मुक़ाबले के जो कयास थे, वो सभी ग़लत साबित हुए। भाजपा ने भले सन् 2017 के विधानसभा चुनाव से इस बार कम सीटें जीतीं; लेकिन फिर भी अपने बूते बहुमत हासिल कर उसने विपक्ष को पस्त कर दिया। समाजवादी पार्टी ने सीटों में काफ़ी बढ़ोतरी तो की; लेकिन इतनी नहीं कि सत्ता के द्वार पर पहुँच सके। अखिलेश यादव के लिए यह चुनाव निश्चित ही बड़ा झटका है। भले सपा में उनके नेतृत्व के लिए कोई चुनौती पैदा न हो; लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में उनकी दोबारा परीक्षा होगी। हाँ, उन्हें पार्टी के भीतर यह साबित करना होगा कि उनकी नेतृत्व क्षमता पिता मुलायम सिंह यादव से कमतर नहीं है।

इस चुनाव के बाद भाजपा के भीतर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एक मज़बूत नेता के रूप में उभरे हैं और भविष्य में निश्चित ही वह भाजपा में देश के प्रधानमंत्री पद के मज़बूत दावेदार होंगे, जो कि वह चाहते भी हैं। उत्तर प्रदेश चुनाव में जीत के बाद समर्थकों और सोशल मीडिया ने उन्हें इस तरह पेश भी किया है। ‘सैफरॉन मोंक’ और इस तरह के अन्य नाम देकर उनके समर्थकों ने उन्हें भाजपा और संघ के बड़े चेहरे के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की है। निश्चित ही आने वाले महीनों में योगी को राष्ट्रीय राजनीति में प्रोजेक्ट करने की कोशिश होगी। आख़िर प्रदेश में पहली बार उनके नेतृत्व में भाजपा ने लगातार दूसरी बार सरकार बनाने का रिकॉर्ड बनाया है। इन चुनाव नतीजों को भाजपा के भीतर मोदी-शाह समर्थकों ने ‘मोदी का करिश्मा बरक़रार है’ के रूप में पेश किया है। ज़ाहिर है मोदी समर्थक किसी भी सूरत में अगले चुनाव मोदी के नेतृत्व में ही लडऩा चाहते हैं। इन चुनावों में भाजपा की बड़ी जीत से उनके लिए उनके लिए ऐसा करना आसान हो गया है। नतीजों से यह साबित हो गया है कि भाजपा में मोदी एक चुनाव जिताने वाले नेता हैं और उनका कोई विकल्प फ़िलहाल नहीं। यहाँ तक कि चुनाव के दौरान जो भाजपा नेता सम्भावित हार-जीत को मोदी से जोडऩे से परहेज़ कर रहे थे, उन्होंने नतीजे आते ही इसे ‘मोदी की लोकप्रियता की जीत’ करार दिया।

उत्तराखण्ड में भले मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी अपनी सीट से हार गये, भाजपा ने एकतरफ़ा बहुमत हासिल करके कांग्रेस को करारा झटका दिया है। कांग्रेस को पूरी उम्मीद थी कि उत्तराखण्ड की सत्ता में उसकी वापसी हो रही है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और उसके मुख्यमंत्री पद के दावेदार दिग्गज नेता हरीश रावत तक अपनी सीट से हार गये, भले उनकी बेटी चुनाव जीत गयीं। उत्तराखण्ड में पहली बार हुआ है कि कोई पार्टी लगातार दूसरी बार विधानसभा का चुनाव जीती है। मुख्यमंत्री धामी के लिए निश्चित ही जीत के बावजूद यह नतीजा अफ़सोस वाला रहा; क्योंकि पार्टी ने उनके नेतृत्व में ही विधानसभा का चुनाव लड़ा था। यह वैसा ही हो गया, जैसा 2017 में हिमाचल के चुनाव में हुआ था, जब पार्टी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार प्रेम कुमार धूमल चुनाव हार गये थे।

पंजाब में आम आदमी पार्टी ने सत्तारूढ़ कांग्रेस ही नहीं पंजाब की राजनीति में स्थापित पंथक पार्टी अकाली दल (शिअद) को भी साफ़ करके रिकॉर्ड जीत हासिल की। कांग्रेस फिर भी कुछ सम्मानजनक 18 सीटें जीतने में सफल रही, अकाली दल और भाजपा के साथ-साथ कैप्टेन अमरिंदर सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस और किसानों की नयी-नवेली पार्टी का तो बँटाधार ही हो गया। कॉमेडी के सरताज रहे भगवंत सिंह मान अब पंजाब की राजनीति के नये सरताज हैं। उन्हें आम आदमी पार्टी के नेतृत्व ने खुलकर काम करने दिया, तो मान को ख़ुद को प्रमाणित करने का अवसर मिलेगा। लेकिन अगर कहीं आम आदमी पार्टी नेतृत्व ने उन्हें दिल्ली से चलाने की कोशिश की, तो अभी कहना कठिन है कि मान की क्या प्रतिक्रिया रहेगी? आम आदमी पार्टी की जीत से पंजाब में नये राजनीतिक युग की शुरुआत हुई है। अगले लोकसभा चुनाव में भी निश्चित ही इसका असर दिखेगा।

गोवा के नतीजे भी पूर्व अनुमानों के बिलकुल विपरीत रहे। वहाँ कांग्रेस को पक्की उम्मीद थी कि उसकी सरकार बनेगी। लेकिन नतीजों ने उसके उत्साह पर बर्फ़ डाल दी। वहाँ भाजपा बहुमत के क़रीब पहुँच गयी। पिछले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस सबसे बड़ा दल थी; लेकिन भाजपा ने जुगाड़ करके अपनी सरकार बना ली थी। गोवा में टीएमसी कोई बड़ी जीत हासिल नहीं कर पायी; लेकिन केजरीवाल की आम आदमी पार्टी का सत्ता हासिल करने का सपना एक बार फिर टूट गया। गोवा में पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर के भाजपा से बाग़ी हुए बेटे भी चुनाव हार गये।

उत्तर पूर्व के राज्य मणिपुर में आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट (अफ्सपा) की ज़ोरदार माँग थी और ऐसा लग रहा था कि वहाँ भाजपा को इसका नुक़सान होगा; लेकिन भाजपा ने सत्ता में वापसी की। वहाँ कांग्रेस पहले भाजपा को टक्कर देती दिख रही थी; लेकिन उसे चौथे नंबर से सन्तोष करना पड़ा। पिछले चुनाव में उसने कहीं बेहतर प्रदर्शन किया था। मणिपुर में कांग्रेस से बेहतर प्रदर्शन तो क्षेत्रीय दलों ने किया, जिनमें एनपीपी शामिल है।

भाजपा का लक्ष्य

उत्तर प्रदेश में आसान जीत दर्ज करके भाजपा ने 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल कर ली है। यदि भाजपा कुछ राज्यों में चुनाव हारती या उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में उसे बहुमत न मिला होता, तो विपक्ष के पास मुस्कुराने की वजह होती। भाजपा का लक्ष्य निश्चित ही अब 2024 है और इस मिशन के लिए वह पूरी ताक़त से मैदान में जुट जाएगी। भाजपा की चार राज्यों में जीत के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि देश की जनता ने उनकी सरकारों के काम पर मुहर लगायी है। भले विपक्ष इन चुनावों में बड़े पैमाने पर धाँधली के आरोप लगाये हों; लेकिन मोदी बेफ़िक्र दिखते हैं और उनका कहना है कि हार के बाद जनता की समझदारी पर सवाल उठाना विपक्ष की पुरानी आदत है।

भले उत्तर प्रदेश में भाजपा की सीटें पिछली बार से कम हुई हैं; लेकिन इसके बावजूद सरकार बना लेने का लाभ उसे लोकसभा के चुनाव में भी मिलेगा। समाजवादी पार्टी की सीटें बढऩे के बाद भी लोकसभा चुनाव तक उसे अपनी स्थिति बेहतर करने के लिए बहुत मेहनत करनी होगी। कारण यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व के मामले में प्रधानमंत्री मोदी को आज की तारीख़ में कोई बड़ी चुनौती नहीं है।

कांग्रेस किसे अध्यक्ष बनाती है और तीसरे मोर्चे से कौन उन्हें चुनौती देने सामने आता है? यह देखना दिलचस्प होगा। ज़्यादातर राजनीतिक जानकार मानते हैं कि भले आज स्थितियाँ भाजपा के हक़ में हों, राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता है। वह राहुल गाँधी की दावेदारी को भी ख़ारिज़ नहीं करते; क्योंकि उनका कहना है कि वक्त अस्थायी रूप से ख़राब हो सकता है। लेकिन यदि कांग्रेस के दिन फिरे, तो राहुल गाँधी ही प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती के रूप में सामने होंगे।

इन विधानसभा चुनावों से पहले भाजपा की नज़र 2022 में ही होने वाले राष्ट्रपति पर भी थी। वह हर हालत में उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में जीतना चाहती थी, क्योंकि ऐसा न होने पर उसे राष्ट्रपति चुनाव में दिक़्क़त आ सकती थी। अब शायद ऐसा न हो। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का कार्यकाल इस साल नवंबर में पूरा हो जाएगा। यह भी हो सकता है कि भाजपा उन्हें फिर से अपना उम्मीदवार बना दे या किसी नये चेहरे को सामने ले आये।

भाजपा के नेता बार-बार कहते हैं कि पार्टी की सरकार 2040 तक रहेगी। कांग्रेस मुक्त भारत भी भाजपा का नारा है। राज्यों में कांग्रेस को योजनाबद्ध तरीक़े से किनारे करके भाजपा ने निश्चित ही राष्ट्रीय स्तर पर अपने लिए चुनौती कम की है। लेकिन इन दो वर्षों में देश के सामने कई चुनौतियाँ होंगी। महँगाई, अर्थ-व्यवस्था, बेरोज़गारी जिस स्तर पर हैं; उनसे मोदी सरकार को निपटना होगा।

मोदी बनाम योगी

भाजपा में 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए अब कोई कशमकश होगी, इसकी फ़िलहाल तो कम ही सम्भावना है। लेकिन इसमें कोई दो-राय नहीं कि लगातार दूसरी जीत के बाद योगी भाजपा में नये शक्ति केंद्र के रूप में उभरे हैं। उनके समर्थकों की भाजपा और भाजपा से बाहर बड़ी फ़ौज है, जो उन्हें हिन्दुत्व के नये और कट्टर चेहरे के रूप में देखती है। मोदी के विपरीत योगी खुले रूप से हिन्दुत्व की बात करते हैं। ऐसे में उनकी लोकप्रियता हिन्दुत्व के समर्थकों में मोदी से कहीं ज़्यादा है। उत्तर प्रदेश में भाजपा की लगातार दूसरी जीत के बाद सोशल मीडिया पर जो सन्देश चलाये गये, उनमें से 80 फ़ीसदी योगी के समर्थन में थे और मोदी के समर्थन में महज़ 20 फ़ीसदी। आरएसएस के लोगों ने बड़ी संख्या में अपने ग्रुप्स में ‘प्रो-योगी’ सन्देशों को फैलाया। दिल्ली के राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर हिन्दुत्व समर्थक राहुल श्रीवास्तव ने इस संवाददाता से बातचीत में कहा- ‘निश्चित ही हिन्दू धर्म की रक्षा पर फोकस करने की ज़रूरत है। योगी से बेहतर यह काम और कोई नहीं सकता। उत्तर प्रदेश के चीफ मिनिस्टर के तौर पर उन्होंने प्रशासन भी चलाया और हिन्दुत्व की रक्षा का काम भी किया। हमें ऐसा ही नेता चाहिए।’

हालाँकि हिन्दुत्व के एजेंडे को विकास में बाधा मानने वालीं आईटी सेक्टर में काम कर रहीं मालिनी चक्रवर्ती ने कहा- ‘मुझे नहीं मालूम कौन उन्हें (योगी को) बहुत बेहतर प्रशासक मानता है? क्या आप भूल गये कि कोरोना महामारी की दूसरी लहर के समय उत्तर प्रदेश की नदियों में लोगों के शव के तैरते हुए मिले थे। लोगों के पास रोजगार नहीं और यह लोग ख़ामख़्वाह के मुद्दों में जनता को फँसाये हुए हैं।’ भले बहुत-से लोग राहुल की बात से असहमत हों, इसमें कोई दो-राय नहीं कि भाजपा से बाहर आम जनता में भी योगी के समर्थकों की कमी नहीं। यह चर्चा अभी से शुरू हो गयी है कि क्या अगले लोकसभा चुनाव तक योगी भाजपा के भीतर मोदी के लिए चुनौती बनेंगे? देश की राजनीति पर पकड़ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार एसपी शर्मा कहते हैं कि निश्चित ही योगी भाजपा के भीतर हिन्दुत्व का आज सबसे बड़ा चेहरा हैं। मोदी और शाह से भी बड़ा चेहरा। आरएसएस का उन्हें पूरा समर्थन है। ऐसे में आने वाले समय में वह प्रधानमंत्री पद के दावेदार तो रहेंगे ही। मोदी दो बार प्रधानमंत्री बन चुके हैं। हो सकता है कि आरएसएस उन्हें अब आराम देना चाहे। राजनीतिक गलियारों में यह बहुत चर्चा रही है कि मोदी-शाह की जोड़ी योगी को एक सीमा तक सीमित रखने की कोशिश करती रही है।

पता नहीं इसमें कितनी सच्चाई है। लेकिन कुछ महीने पहले स्थानीय निकाय के चुनाव नतीजों के बाद भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व और योगी में तल्खी की ख़बरें सामने आयी थीं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि भाजपा में अभी भी मोदी सबसे लोकप्रिय नेता हैं और चुनाव जिता सकने की उनकी क्षमता का लोहा पार्टी के नेता मानते हैं। लेकिन भाजपा में सब कुछ भाजपा के हिसाब से नहीं चलता। आरएसएस का दख़ल टालने की हिम्मत भाजपा में कोई नहीं दिखा सकता। ऐसे में योगी के सिर पर आरएसएस का हाथ है, तो कुछ भी हो सकता है।

 

कांग्रेस के लिए संकट की घड़ी

देश में भाजपा के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के लिए यह विकट संकट की घड़ी है। उसके पास उम्रदराज़ हो रहीं सोनिया गाँधी का नेतृत्व है, और इसी साल के मध्य में उसे नया अध्यक्ष चुनना है। इन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को कुछ राज्यों में जीत मिली होती, तो राहुल गाँधी के अध्यक्ष बनने का रास्ता साफ़ हो जाता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। प्रियंका गाँधी ने निश्चित ही उत्तर प्रदेश में बहुत मेहनत की पर कांग्रेस को वहाँ पिछली बार से कम सीटें मिलीं। कांग्रेस के संकट का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि नतीजे आने के अगले ही दिन जी23 के नेताओं ने वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आज़ाद के निवास पर बैठक करके चुनाव नतीजों को लेकर चिन्ता जतायी। वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने तो राहुल गाँधी के नेतृत्व पर ही सवाल उठा दिया। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, इस बैठक में नेताओं ने सचिन पायलट को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने की माँग उठायी।

कांग्रेस के भीतर राहुल गाँधी को अध्यक्ष नहीं बनाने का समर्थन करने वाले भी प्रियंका गाँधी को अध्यक्ष बनाने के हक़ में दिखते थे। लेकिन उत्तर प्रदेश के नतीजों से उन्हें झटका लगा है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि उत्तर प्रदेश में प्रियंका गाँधी ने बहुत ज़्यादा मेहनत की। एक नेता के रूप में उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं को एकजुट भी किया। प्रियंका ने कितनी मेहनत की यह इस बात से साबित हो जाता है कि उन्होंने राज्य के कुल 403 विधानसभा क्षेत्रों में से 370 में प्रचार किया। प्रियंका का यह प्रचार मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से भी ज़्यादा था। लेकिन कांग्रेस को इसका फल नहीं मिला और इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि चुनाव शुरू होते ही यह भाजपा बनाम सपा हो गया था। ऐसे में कांग्रेस के पास यही विकल्प था कि वह उन सीटों पर पूरी ताक़त झोंक दे, जहाँ उसकी स्थिति मज़बूत थी। लेकिन माना जाता है कि प्रियंका गाँधी का लक्ष्य विधानसभा चुनाव थे ही नहीं और उनकी कोशिश पूरे प्रदेश में पहुँचकर 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए ज़मीन तैयार करना था। नतीजों से ज़ाहिर होता है कि कांग्रेस के वोट बैंक में कोई इज़ाफ़ा नहीं हुआ है। राहुल गाँधी उत्तर प्रदेश में बहुत ज़्यादा सक्रिय नहीं रहे। सारा दारोमदार प्रियंका गाँधी और उनकी टीम पर था। लेकिन पिछले दो विधानसभा चुनाव जीतने वाले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय लल्लू इस बार चुनाव हार गये। निश्चित ही लल्लू ऐसे नेता थे, जो योगी सरकार के पाँच साल के शासन के दौरान सबसे ज़्यादा सक्रिय रहे थे। उन्हें योगी सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करते हुए प्रशासन ने कई बार जेल में डाला। कहा जाता है कि इस दौरान उन्हें 100 से ज़्यादा बार जेल में डाला गया। यदि ज़्यादा सीटें न जीतने के बावजूद कांग्रेस का वोट बैंक बढ़ा होता, तो निश्चित ही प्रियंका गाँधी की मेहनत सफल होती।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, इस कमज़ोर प्रदर्शन के बावजूद प्रियंका गाँधी उत्तर प्रदेश में सक्रियता जारी रखने का फ़ैसला कर चुकी हैं। प्रदेश में भविष्य में उनके कार्यक्रम बनाने की तैयारी चुनाव नतीजे आने से पहली हो चुकी थी। इन कार्यक्रमों में उनका लक्ष्य संगठन को मज़बूत करना था। वह उत्तर प्रदेश में संगठन में बड़ा फेरबदल करना चाहती थीं। अब ऐसा होगा या नहीं, पता नहीं; लेकिन यदि वह सक्रिय रहती हैं और संगठन पर फोकस करती हैं, तो 2024 के चुनाव में पार्टी को बेहतर स्थिति में पहुँचा सकती हैं।

कांग्रेस में एक और बड़ी समस्या हाल के महीनों में दिखी है। आम जनता में अनजाने में यह सन्देश गया है कि राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी के रूप में कांग्रेस के भीतर दो ख़ेमे हैं। सार्वजनिक मंचों पर प्रियंका गाँधी राहुल गाँधी को बतौर अध्यक्ष पूरा सम्मान देती रही हैं। लगता नहीं कि वह पार्टी के भीतर कोई समांनातर शक्ति केंद्र बनना चाहती हैं। राहुल गाँधी ने ही बतौर अध्यक्ष प्रियंका गाँधी को उत्तर प्रदेश कांग्रेस का प्रभारी बनाया था। लेकिन यह सम्भव है कि दोनों के साथ जुड़े अलग-अलग नेता राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी को कुछ इस तरह पेश करते हों और इससे यह सन्देश जाता हो मानों दोनों में नेतृत्व का मुक़ाबला है।

पार्टी के लिए आने वाला समय बहुत चुनौतीपूर्ण रहने वाला है। उसे इसी साल नया अध्यक्ष चुनना है। संगठन के चुनाव का कार्यक्रम तय हो चुका है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि नये अध्यक्ष के लिए अब जी-23 समूह के नेता भी आवाज़ बुलंद करेंगे। वे पहले से ही गाँधी परिवार से बाहर का अध्यक्ष चुनने की बात दबे अंदाज़ में कहते रहे हैं, भले अभी भी कांग्रेस का बड़ा बहुमत गाँधी परिवार के साथ ही जाना चाहे। इन चुनाव नतीजों से निश्चित ही कांग्रेस कार्यकर्ताओं में निराशा फैली है। भले उत्तर प्रदेश और मणिपुर को छोडक़र बाक़ी राज्यों में अभी भी कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही है। राहुल गाँधी अध्यक्ष पद फिर सँभालना चाहते हैं या नहीं? इस पर भी अभी सवालिया निशान है। ख़ुद राहुल गाँधी ने पिछले साल मंशा जतायी थी कि गाँधी परिवार से बाहर किसी नेता को अध्यक्ष बनाना चाहिए। निश्चित ही अगस्त या सितंबर में जब भी कांग्रेस नये अध्यक्ष का चुनाव करेगी, यह काफ़ी गहमागहमी वाला होगा। यह तय है कि गाँधी परिवार से बाहर अध्यक्ष बनाना कांग्रेस के लिए आसान काम नहीं होगा। इसका कारण है- किसी एक नेता के नाम पर सहमति बनाना। पार्टी के भीतर आज भी बहुमत गाँधी के साथ है। ऐसे में यही हो सकता है कि राहुल गाँधी के चुनाव में खड़े में होने की स्थिति में विरोधी ख़ेमा अपना उम्मीदवार उतारे। जैसा कि सोनिया गाँधी के सामने 9 नवंबर, 2000 के अध्यक्ष चुनाव में जितेंद्र प्रसाद खड़े हुए थे। हालाँकि उन्हें हार झेलनी पड़ी थी।

कुल मिलाकर कांग्रेस के लिए चुनौती का समय है और देखना दिलचस्प होगा कि वह कैसे इसका सामना करती है? फ़िलहाल तो उसे पाँच राज्यों के चुनाव में हार पर सीडब्ल्यूसी की बैठक बुलाकर इस पर मंथन करने की ज़रूरत है। पाँच राज्यों में पार्टी की हार के कारण बने दबाव के बाद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक 13 मार्च को हुई, तो ख़ुद सोनिया गाँधी के, और राहुल गाँधी व प्रियंका गाँधी वाड्रा के कांग्रेस छोड़ देने की पेशकश ने वहाँ उपस्थित नेताओं को सन्न कर दिया। सोनिया गाँधी की इस पेशकश का विरोध करने के लिए अपनी सीट से जो नेता सबसे पहले उठा, वह और कोई नहीं, गुलाम नबी आज़ाद थे। फ़िलहाल तय है कि कांग्रेस संगठन-चुनाव तक गाँधी परिवार की छत्रछाया में ही रहेगी।

 

यूपीए, तीसरा मोर्चा और आम आदमी पार्टी

देश के राजनीतिक पटल पर नज़र दौड़ाएँ, तो ज़ाहिर होता है कि हाल के महीनों में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ग़ैर-कांग्रेस तीसरा मोर्चा बनाने की क़वायद में दिखी हैं। उन्होंने इसे गम्भीरता से लिया है और वह देश के बड़े विपक्षी नेताओं, जिनमें शरद पवार और कुछ क्षेत्रीय क्षत्रप शामिल हैं; से मिली हैं। ममता चाहती हैं कि ग़ैर-कांग्रेस विपक्षी दलों को एकजुट करके भाजपा का मुक़ाबला किया जाए। अभी तक इसमें बहुत ज़्यादा ठोस कुछ सामने नहीं आया है: लेकिन इसमें दो-राय नहीं कि देश में कई विपक्षी दल इस तरह के गठबंधन को ज़रूरी मानते हैं।

हालाँकि पाँच विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद पंजाब में बम्पर बहुमत हासिल करने वाली अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी का उदय हुआ है, उससे विपक्ष के ख़ेमे में दरार पड़ सकती है। कारण यह है कि पंजाब में जीत के तुरन्त बाद केजरीवाल के सिपहसालारों ने कहा कि पार्टी अब केजरीवाल को प्रधानमंत्री बनाने की लड़ाई लड़ेगी और देश भर में संगठन को फैलाएगी। ज़ाहिर है आम आदमी पार्टी ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री के रूप में किसी और नेता को आगे बढ़ाने का समर्थन क्यों करेंगी? पंजाब में विधानसभा चुनाव जीतकर आम आदमी पार्टी कांग्रेस को छोडक़र विपक्षी दलों में देश की तीसरी पार्टी बन गयी है, जिसकी एक से ज़्यादा राज्यों में सरकार है।

इन पाँच में से उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, गोवा और पंजाब में आम आदमी पार्टी ने चुनाव लड़ा और पंजाब में सरकार बनायी। दूसरे राज्यों में भी वह अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में सफल रही। ऐसे में ज़ाहिर है आम आदमी पार्टी अब साल के आख़िर में कुछ और विधानसभा चुनावों में अपनी क़िस्मत आजमाएगी। इनमें हिमाचल और गुजरात पर उसकी ख़ास नज़र है। आम आदमी पार्टी की ताक़त और बढ़ी, तो ज़ाहिर है उसका दावा 2024 के लोकसभा चुनाव उसका ग़ैर-कांग्रेस विपक्ष में प्रधानमंत्री पद का दावा मज़बूत हो जाएगा।

ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या ममता बनर्जी या दूसरे ग़ैर-कांग्रेसी वरिष्ठ नेता केजरीवाल को अपना अगुवा मानने को तैयार होंगे? यह बात ममता बनर्जी के मामले में नहीं कही जा सकती है, जिन्हें शरद पवार सहित अन्य बड़े नेताओं का समर्थन रहा है। हालाँकि उनके ख़ेमे में भी कुछ राजनीतिक दल हैं, जो यह मानते हैं कि कांग्रेस के बिना राष्ट्रीय विपक्षी गठबंधन नहीं बनाया जा सकता। लेकिन कांग्रेस ख़ुद ऐसे किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनेगी, जिसमें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कांग्रेस के अलावा कोई और हो।

वैसे भी कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए अस्तित्व में है और कुछ राज्यों में उसके सहयोगी दलों की सरकारों भी हैं। इस तरह मिलकर देखा जाए, तो भाजपा गठबंधन के बाद देश में सबसे ज़्यादा राज्यों में कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए की सरकारें हैं। हालाँकि भविष्य में भी इन सहयोगी दलों को अपने साथ बनाये रखने के लिए कांग्रेस को निश्चित ही मशक़्क़त करनी होगी। वैसे तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने हाल में संकेत दिये हैं कि वह यूपीए के साथ जा सकते हैं। चूँकि कांग्रेस पूरे देश में आधार रखती है। ऐसे में अगर 2024 तक उसकी स्थिति में परिवर्तन आता है और वह लोकसभा चुनाव में 100 के पार चली जाती है, तो निश्चित ही उसका दावा मज़बूत हो जाएगा।

ज़ाहिर है पंजाब में आम आदमी पार्टी की जीत के बाद विपक्षी गठबंधन के तीन केंद्र बन गये हैं। इनमें से एक कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए है, जिसकी काफ़ी राज्यों में सरकारें हैं। ममता बनर्जी वाला सम्भावित गठबंधन है, जिसका अभी कुछ ख़ास नहीं हुआ है। अगर यह गठबंधन बना, तो ज़ाहिर है कि इस गठबंधन का नेतृत्व ममता बनर्जी करेंगी। यह बात टीएमसी के दिग्गज नेता पहले ही साफ़ कर चुके हैं। तीसरा सम्भावित गठबंधन आम आदमी पार्टी के नेतृत्व में बन सकता है। हालाँकि फ़िलहाल इसकी कोई चर्चा नहीं है और इस गठबंधन की कल्पना ही की जा सकती है। क्योंकि आम आदमी पार्टी अकेली ऐसी पार्टी है, जो दो राज्यों में फैल चुकी है और बाक़ी कुछ राज्यों में जमीन तैयार कर रही है। उसका देश के किसी राज्य में किसी अन्य दल से गठबंधन नहीं है। आम आदमी पार्टी अरविन्द केजरीवाल को केंद्र में रखकर उन्हें भविष्य के प्रधानमंत्री उम्मीदवार की तरह आगे बढऩा चाहती है। इसके लिए वह ज़्यादा-से-ज़्यादा राज्यों में अपना विस्तार करना चाहती है। ज़ाहिर है जब तीन शक्ति केंद्र विपक्ष में होंगे, तो उनका साथ आना सम्भव कैसे होगा।

 

कई मंत्री, मुख्यमंत्री धराशायी

उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव कई बड़े नेताओं पर भारी पड़े। भाजपा, कांग्रेस और अन्य दलों के कई दिग्गजों को हार का सामना करना पड़ा। पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी, उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत, पंजाब के दो पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और प्रकाश सिंह बादल, उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य जैसे नेता चुनाव हार गये।

“पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू अमृतसर पूर्व सीट से चुनाव हार गये। उन्हें आम आदमी पार्टी की उम्मीदवार जीवन ज्योत कौर ने हराया। सिद्धू के राजनीतिक करियर का यह पहला चुनाव है, जिसमें उन्हें हार झेलनी पड़ी।”

नवजोत सिंह सिद्धू

 

“चरणजीत सिंह चन्नी दो सीटों से लड़े; लेकिन दोनों पर ही हार गये। भदौड़ और चमकौर साहिब से वह मैदान में थे।”

चरणजीत सिंह चन्नी पंजाब के मुख्यमंत्री (अब पूर्व)

 

“पिछले पाँच महीने कैप्टन अमरिंदर सिंह पर बहुत भारी रहे हैं। चुनाव से ऐन पहले पंजाब लोक कांग्रेस बनाने वाले कैप्टन पटियाला सीट से चुनाव में हारे। भाजपा के दोस्ती भी उन्हें नहीं बचा पायी। आम आदमी पार्टी के अजीत पाल सिंह कोहली ने उन्हें क़रीब 19,000 मतों से मात दी।”

                                     कैप्टन अमरिंदर सिंह

 

“पंजाब के दिग्गज नेता और पाँच बार मुख्यमंत्री रहे प्रकाश सिंह बादल का अपने मज़बूत गढ़ लम्बी में हार गये। बादल को आम आदमी पार्टी के गुरमीत सिंह खुडिय़ा ने 11,000 वोट से हराया।”

                                   प्रकाश सिंह बादल

 

“पिता की तरह बेटे को भी हार झेलनी पड़ी। शिअद के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल को जलालाबाद सीट पर आम आदमी पार्टी के जगदीप कम्बोज ने 29,024 के बड़े अन्तर से हराया।”

सुखबीर बादल

 

“उत्तर प्रदेश में चुनाव से ऐन पहले मंत्री पद छोड़ सपा में जाने वाले स्वामी प्रसाद मौर्या फ़ाज़िलनगर सीट से हार गये। केशव प्रसाद मौर्य योगी सरकार में उप मुख्यमंत्री (अब पूर्व) केशव प्रसाद मौर्य सिराथू विधानसभा सीट से सपा की पल्लवी पटेल से हार गये।”

स्वामी प्रसाद मौर्य

 

“उत्तर प्रदेश विधानसभा में विपक्ष के नेता रामगोविंद चौधरी भी चुनाव हार गये। चौधरी बलिया की बांसडीह सीट से मैदान में थे। उन्हें भाजपा की केतकी सिंह ने हराया।”

रामगोविंद चौधरी

 

 

 

“उत्तराखण्ड में ही कांग्रेस चुनाव अभियान के चेयरमैन पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत अपनी सीट नहीं बचा पाये। रावत लालकुआँ सीट से कांग्रेस प्रत्याशी थे।”

  हरीश रावत

 

 

“गोवा में उप मुख्यमंत्री  रहे चंद्रकांत कवलेकर हार गये। उन्हें केपे सीट से कांग्रेस के एलटन डी. कोस्ता ने 3,601 वोटों से हराया।”

चंद्रकांत कवलेकर

 

“उत्तराखण्ड में भाजपा तो अच्छे बहुमत से जीत गयी; लेकिन खटीमा सीट पर पार्टी के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी चुनाव हार गये। धामी को कांग्रेस के भुवनचंद्र कापड़ी ने हराया। धामी इस चुनाव में भी भाजपा के मुख्यमंत्री चेहरा थे।”

पुष्कर धामी

 

“भाजपा को मिली जीत ऐतिहासिक है। यह मतदाताओं की जागरूकता की जीत है। एक दिन ऐसा आएगा, जब देश में जनता परिवारवादी राजनीति का सूर्यास्त करेगी।’’

नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री (नतीजों के बाद)

 

“पार्टी इन चुनाव परिणामों से सबक़ लेगी और वह देश की जनता के लिए काम करती रहेगी। ये नतीजे हमारी अपेक्षा के विपरीत हैं और पार्टी इसको लेकर अंतर्-मंथन करेगी।’’

राहुल गाँधी

कांग्रेस नेता

 

“पंजाब में पार्टी की जीत ऐतिहासिक है। यह दिल्ली में केजरीवाल मॉडल सरकार की सफलता है और इसी के आधार जनता ने जनादेश दिया है।’’

 राघव चड्ढा

आप नेता

उत्तर प्रदेश में हारे कई दिग्गज!

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 के परिणामों ने हर किसी को चौंका दिया है। कुछ लोग इसे ईवीएम में गड़बड़ी का खेल बता रहे हैं, तो कुछ योगी-मोदी का जलवा। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) इस चुनाव में अपने 300 पार के लक्ष्य को तो हासिल नहीं कर सकी, मगर अपने सहयोगियों के मामूली सहयोग से 273 सीटों के प्रचंड बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब रही।

योगी की जीत ने गोरखपुर के उन आँकड़ों को पलट दिया है, जो उनके ख़िलाफ़ जा रहे थे। वहीं उनके कई ऐसे मंत्री, विधायक धरासायी हो गये हैं, जिन्हें अपनी हार की उम्मीद भी नहीं थी। दूसरे दलों में भी यही स्थिति सामने आयी है। कई दिग्गज जो यह मानकर चलते थे कि उन्हें तो कोई हरा ही नहीं सकता, बुरी तरह हारे हैं। अगर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पूर्व मंत्रियों और विधायकों के हारने की बात करें, तो सबसे बड़ी बात यह रही कि उप मुख्यमंत्री रहे मज़बूत नेता केशव प्रसाद मौर्य को सिराथू विधानसभा सीट पर समाजवादी पार्टी की पल्लवी पटेल ने 7,000 से अधिक वोटों से हरा दिया। इस सीट पर पहले केशव प्रसाद मौर्य जीतने लगे थे, मगर ईवीएम में गड़बड़ी की शिकायत को लेकर वहाँ ख़ूब हंगामा हुआ, जिसके बाद पल्लवी पटेल मौक़े पर पहुँच गयीं और वोटों की दोबारा गिनती कराने की माँग की। काफ़ी देर तक यहाँ गिनती रोक दी गयी और जब दोबारा गिनती हुई, तो यहाँ बाज़ी पलट गयी और पल्लवी पटेल जीत गयीं। यहाँ बताना ज़रूरी है कि पल्लवी पटेल केंद्रीय मंत्री और अपना दल की प्रमुख अनुप्रिया पटेल की बहन है। अनुप्रिया पटेल भाजपा की समर्थित पार्टी अपना दल (सोनेलाल) की अध्यक्ष हैं। सिद्धार्थनगर ज़िले की इटावा सीट से विधायक रहे योगी आदित्यनाथ सरकार-एक में बेसिक शिक्षा मंत्री रहे डॉ. सतीश चंद द्विवेदी सपा प्रत्याशी व पूर्व विधान सभा अध्यक्ष माताप्रसाद पांडेय के हाथों इस बार लगभग 3,000 वोटों से हार गये। इस विधानसभा सीट से माताप्रसाद पांडेय छ: बार विधायक रह चुके हैं, मगर 2017 में हार गये थे।

इसी तरह प्रतापगढ़ ज़िले की पट्टी विधानसभा से भाजपा विधायक रहे पूर्व ग्राम्य विकास मंत्री राजेंद्र प्रताप उर्फ़ मोती सिंह को सपा प्रत्याशी राम सिंह पटेल ने हरा दिया। यह मंत्री महोदय भी लगभग 3,000 वोटों से ही हारे हैं। राम सिंह दस्यु ददुआ के भतीजे हैं और 2017 में केवल 1400 वोटों से हार गये थे। इसी तरह बलिया ज़िले की फेफना विधानसभा सीट से योगी आदित्यनाथ सरकार-एक में विधायक रहे पूर्व युवा व खेल मंत्री उपेंद्र तिवारी को सपा नेता संग्राम सिंह यादव ने बहुत ही बुरी तरह 19,000 वोटों से अधिक से हराया है। इसी तरह शामली ज़िले की थानाभवन सीट से भाजपा सरकार-एक में विधायक रहे पूर्व गन्ना मंत्री सुरेश राणा की भी सपा नेता अशरफ़ अली ख़ान के हाथों 10,000 से ज़्यादा वोटों से बुरी तरह हार हुई है।

वहीं मेरठ की सरधना विधानसभा सीट से भाजपा प्रत्याशी संगीत सोम भी सपा नेता अतुल प्रधान के हाथों हार गये। संगीत सोम उत्तर प्रदेश की 16वीं विधानसभा में विधायक बने थे। अमेठी से भाजपा प्रत्याशी और पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय सिंह भी सपा नेता और पूर्व मंत्री गायत्री प्रसाद प्रजापति की पत्नी से हार गये। इसी प्रकार भाजपा की योगी आदित्यनाथ सरकार-एक में कबीना मंत्री रहे राजेंद्र प्रताप सिंह मोती सिंह पट्टी विधानसभा में सपा नेता राम सिंह पटेल से बुरी तरह 25,000 से अधिक वोटों से हारे हैं।

रानीगंज विधानसभा सीट पर भी भाजपा के विधायक रहे धीरज ओझा को सपा नेता डॉ. आर.के. वर्मा ने विश्वनाथगंज की सीट से हरा दिया। डॉ. आर.के. वर्मा अपना दल (एस) के विधायक भी रह चुके हैं। इस बार वो सपा के लिए लड़ रहे थे। इसी प्रकार ग़ाज़ीपुर की जहूराबाद सीट से भाजपा से रूठे सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) प्रमुख ओमप्रकाश राजभर सपा के गठबंधन में भी भाजपा नेता कालीचरण को लगभग 45,000 से अधिक वोटों से हराकर जीत गये हैं। भाजपा का दामन छोडक़र सपा में जाने वाले दारा सिंह चौहान ने घोसी सीट पर भाजपा नेता विजय कुमार राजभर को 4,000 वोटों से हरा दिया है।

अब अगर सपा के दिग्गजों की बात करें, तो इस पार्टी के भी वे नेता हार गये हैं, जो भाजपा से दलबदल करके हाल ही में अखिलेश यादव के साथ आ खड़े हुए थे। इन नेताओं में स्वामी प्रसाद मौर्य, बृजेश प्रजापति, धर्म सिंह सैनी शामिल हैं। भाजपा सरकार में श्रम मंत्री रहे स्वामी प्रसाद मौर्य इस बार सपा में शामिल हुए थे और कुशीनगर ज़िले की फ़ाज़िलनगर सीट से सपा की ओर से मैदान में थे और भाजपा प्रत्याशी सुरेंद्र सिंह से 26,000 से अधिक वोटों से बुरी तरह हार गये। स्वामी प्रसाद के साथ पाला बदलने वाले बाँदा ज़िले की तिंदवारी से विधायक रहे सपा प्रत्याशी बृजेश प्रजापति की भी हार हुई है। वहीं सहारनपुर की नकुड़ विधानसभा सीट से भाजपा की योगी आदित्यनाथ सरकार-एक में आयुष मंत्री रहे धर्म सिंह सैनी ने इस बार सपा का दामन थामा था, मगर वो भाजपा नेता मुकेश चौधरी से हार गये।

इसी प्रकार बलिया ज़िले की बांसडीह सीट से आठ बार के विधायक रहे सपा नेता रामगोविंद चौधरी भाजपा गठबंधन की निषाद पार्टी की नेता केतकी सिंह से 3,000 से अधिक वोटों से हार गये। पिछली बार केतकी इनके हाथों भारी वोटों से हार गयी थीं। इसी प्रकार गोरखपुर की चिल्लूपार विधानसभा सीट से सपा प्रत्याशी विनय शंकर तिवारी भाजपा नेता राजेश त्रिपाठी से हार गये। प्रयागराज की करछना विधानसभा सीट से कई बार विधायक रहे उज्ज्वल रमण सिंह को भी भाजपा के पीयूष रंजन निषाद ने हरा दिया। इधर आज़ाद समाज पार्टी (एएसपी) और भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर आज़ाद रावण और ओवैसी की प्रदेश में करारी हार हुई है। शेखर आज़ाद रावण को मात्र 6,069 वोट मिले, जिससे उनका मनोबल अवश्य टूटा होगा। इतने बड़े-बड़े दिग्गज इस बार क्यों हारे? यह तो कोई नहीं बता रहा है, मगर इन दिग्गजों का यह भ्रम अवश्य टूट गया है कि वो हारेंगे नहीं।

बुन्देलखण्ड में भाजपा से सपा ने छीनीं तीन सीटें

उत्तर प्रदेश की सियासत में उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुन्देलखण्ड की सियासत का अपना अलग ही मिजाज़ है। इस लिहाज़ से बुन्देलखण्ड की राजनीति को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। बताते चलें कि बुन्देलखण्ड में 19 विधानसभा सीटें हैं। सन् 2017 में वहाँ की सभी 19 सीटों पर भाजपा ने ऐतिहासिक जीत हासिल की थी। लेकिन इस बार 2022 के चुनाव में भाजपा को 19 में से 16 सीटों पर ही जीत मिली है। तीन सीटें इस बार समाजवादी पार्टी (सपा) ने भाजपा से छीन लीं।

दरअसल बुन्देलखण्ड की राजनीति में जातीय और धार्मिक समीकरण के बनने-बिगडऩे में देर नहीं लगती है। ऐसा ही इस बार हुआ है। जो तीन सीटें भाजपा से छिटककर सपा में चली गयीं, उसकी वजह जातीय और धार्मिक समीकरणों का ही मामला है। उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुन्देलखण्ड में सात ज़िले झाँसी, ललितपुर, जालौन, बाँदा, हमीरपुर, चित्रकूट और महोबा हैं।

झाँसी ज़िले में चार विधानसभा सीटें हैं, जिनमें झाँसी विधानसभा सीट से भाजपा प्रत्याशी रवि शर्मा, गरौठा विधानसभा सीट से भी भाजपा प्रत्याशी जवाहर सिंह राजपूत, बबीना विधानसभा सीट से भाजपा प्रत्याशी राजीव सिंह पारीक्षा और मऊरानीपुर सुरक्षित सीट से भाजपा की गठबंधन पार्टी अपना दल की प्रत्याशी डॉ. रश्मि आर्या ने जीत हासिल की है। ललितपुर ज़िले में दो विधान सभा सीटें हैं, जिनमें ललितपुर विधानसभा सीट से भाजपा के प्रत्याशी रामरतन कुशवाहा और महरौनी विधानसभा सीट से भाजपा प्रत्याशी मनोहर लाल पंथ ने जीत हासिल की है। हमीरपुर ज़िले की दोनों सीटों पर भाजपा का दबदबा क़ायम रहा है। इनमें हमीरपुर विधानसभा सीट से भाजपा के मनोज प्रजापति और राठ विधानसभा सीट से भाजपा की मनीषा अनुरागी ने जीत हासिल की है। महोबा ज़िले में दो विधानसभा सीटें हैं, जिनमें महोबा सीट से भाजपा प्रत्याशी राकेश गोस्वामी और चरखारी विधानसभा सीट से भाजपा प्रत्याशी बृजभूषण राजपूत ने जीत हासिल की है। जालौन ज़िले में तीन विधानसभा सीटें हैं- उरई, माधौगढ़ और कालपी। इनमें माधौगढ़ और उरई में तो भाजपा के प्रत्याशी मूलचंद्र निरंजन और गौरी शंकर वर्मा ने जीत हासिल की है। जबकि कालपी में सपा के प्रत्याशी विनोद चतुर्वेदी ने जीत हासिल की है। इसी तरह बाँदा में चार विधानसभा सीटें हैं। बाँदा से भाजपा के प्रत्याशी प्रकाश द्विवेदी, नरैनी से भाजपा प्रत्याशी ओममणि वर्मा तिन्दवारी से भाजपा प्रत्याशी रामकेश निषाद ने जीत हासिल की है। वहीं बबेरू विधानसभा सीट से सपा प्रत्याशी विशंभर सिंह यादव ने जीत हासिल की है। चित्रकूट ज़िले में दो सीटें हैं। इनमें चित्रकूट विधानसभा सीट से सपा के प्रत्याशी अनिल प्रधान ने जीत हासिल की है, जबकि मानिकपुर विधानसभा सीट से अविनाश चन्द्र द्विवेदी ने अपना दल-भाजपा गठबंधन से जीत हासिल की है।

बुन्देलखण्ड के लोगों ने बताया कि चुनाव के पूर्व जो भाजपा और सपा के बीच काँटे का मुक़ाबला दिखाये जाने का जो माहौल बनाया गया था, वह सिर्फ़ माहौल था; धरातल पर कुछ नहीं था। क्योंकि भाजपा अपनी राजनीति अपने तरीक़े से कर रही थी। भाजपा यह मानती थी कि कुछ सीटों पर हार हो सकती है। लेकिन ज़्यादातर सीटों पर जीत उसी की होगी और भाजपा ही सरकार बनाएगी। भाजपा अपने परम्परागत वोटों को साधने में लगी रही और कामयाब भी हुई है। जबकि सपा का जो परम्परागत वोट बैंक है, वही वोट बैंक बसपा और कांग्रेस का भी रहा है। इधर सपा से वोट कटकर बसपा और कांग्रेस में भी गया है। मामूली स्तर पर ओवैसी ने भी सपा का वोट काटा। इसी का लाभ भाजपा को बड़ी आसानी से मिल गया।

बुन्देलखण्ड में एम-वाई फैक्टर भाजपा और सपा के बीच जमकर चला है। यहाँ पर सपा के लिए एम-वाई का मतलब मुस्लिम और यादव था, तो भाजपा के लिए मोदी और योगी था। बुन्देलखण्ड की राजनीति के जानकार जे.के. द्विवेदी ने बताया कि चुनाव के पूर्व जो माहौल बनाया गया था, उसकी हक़ीक़त को सपा जान नहीं पायी। क्योंकि कुछ नेता जो सपा के स्थानीय स्तर के बड़े नेता हैं, वे भाजपा में चुनाव से 2-4 दिन पहले शामिल हो रहे थे। जो सपा का वोट काटने में सक्षम थे। वहीं भाजपा के राष्ट्रीय स्तर से लेकर स्थानीय नेता एक मिशन के तहत काम कर रहे थे और परिवारवाद की राजनीति के विरोध में माहौल बना रहे थे, जबकि सपा के नेता इस भ्रम थे। उनको लगा कि जनता ख़ुद प्रदेश में बदलाब के मूड में थी कि भाजपा का विकल्प ही सपा है, सो सपा जीतेगी। यानी अत्याधिक आत्मविश्वास सपा के हारने का कारण बना है। दूसरा सपा के मुखिया अखिलेश यादव ही चुनाव प्रचार की कमान अकेले साधे हुए थे, सो वह जनता के बीच ज़्यादा प्रचार नहीं कर पाये। वहीं भाजपा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह कई केंद्रीय मंत्री और प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनके मंत्रियों, विधायकों सहित कई राज्यों के मुख्यमंत्री भाजपा के लिए वोट माँग रहे थे। इसका सीधा लाभ भाजपा को हुआ है। सपा के वरिष्ठ नेता रामखिलावन यादव का कहना है कि बुन्देलखण्ड में भाजपा ने इस बार दो सीटों पर अपना दल से गठबंधन किया है। इसमें मऊरानीपुर और मानिकपुर विधानसभा सीटें हैं। इन दोनों सीटों पर भाजपा-अपना दल के गठबंधन का काफ़ी असर पड़ा है। क्योंकि अपना दल का पटेलों का जो वोट बैंक है, वो पूरा-का-पूरा भाजपा में गया है। पिछले चुनावों में यह वोट सपा और बसपा में चला जाता था। मऊरानीपुर सुरक्षित सीट से अपना दल की प्रत्याशी डॉ. रश्मि आर्या थीं। उन्होंने सपा के प्रत्याशी तिलकचंद्र अहिरवार को लगभग 59,000 वोटों से पराजित किया है। वहीं मानिकपुर सामान्य सीट पर अपना दल के प्रत्याशी अविनाशचन्द्र द्विवेदी ने सपा के प्रत्याशी वीर सिंह पटेल को पराजित किया है। इस बार भाजपा और अपना दल गठबंधन का लाभ भाजपा को मिला है।

प्रदेश और बुन्देलखण्ड की राजनीति के जानकार रामदास पटेल का कहना है कि चुनाव के पहले तो लग रहा था कि इस बार सपा काफ़ी बढ़त लेगी, क्योंकि सपा ने रालोद और ओमप्रकाश राजभर की पार्टी से गठबंधन किया है। लेकिन जनता के बीच यह सन्देश भी गया था कि अंतत: सरकार भाजपा की ही बनेगी। इस वजह से भी रातोंरात मतदाताओं की सोच में जो बदलाव देखने को मिला, उससे ही लगने लगा था कि चुनाव परिणाम चौंकाने वाले ही साबित होंगे। भाजपा ने चुनाव पूर्व जो सर्वे कराया था, उसके आधार पर तैयारी भी की। वहीं उसने ऐसे प्रत्याशियों पर दाँव नहीं लगाया, जिनकी पहले ही हार दिख रही थी। इधर सपा ने कई सिफ़ारिशी प्रत्याशियों को टिकट दे दिया, जिसके कारण सपा को हार का सामना करना पड़ा। रामदास पटेल का कहना है कि सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने उन प्रत्याशियों को टिकट दिये, जिनका जनता से कोई सीधा सम्पर्क नहीं था। इनमें से ज़्यादातर प्रत्याशी मुलायम सिंह यादव के ज़माने से ही टिकट पाते आ रहे थे।

कुल मिलाकर बुन्देलखण्ड के चुनावी नतीजों ने बता दिया है कि अब भाजपा की एकतरफ़ा जीत आसान नहीं है, क्योंकि 2017 वाला दबदबा 2022 में नहीं दिखा। ऐसे में आने वाले समय में सपा फिर बुन्देलखण्ड ही नहीं पूरे उत्तर प्रदेश में विकल्प बन सकती है, क्योंकि उसके बहुत प्रत्याशियों की मामूली वोटों से हार हुई है।

विश्व युद्ध के बादल!

ख़तरनाक दिशा की तरफ़ दिख रहा रूस-यूक्रेन का युद्ध

रूस ने जब यूक्रेन के ‘अमेरिका से फंड किये’ बायोलैब का मामला संयुक्त राष्ट्र में खींचा, जिसमें पड़ोसी देश में जैविक हथियार बनाने का आरोप था; तो अमेरिका के उप विदेश मंत्री विक्टोरिया नूलैंड ने एक बयान एक तरह से रूस की बात पर सहमति ही जता दी। ज़ाहिर है इससे यूक्रेन में जैविक उपस्थिति का मसला और गम्भीर रूख़ ले गया। तो क्या रूस-यूक्रेन के वर्तमान हालात दुनिया को विश्व युद्ध की तरफ़ धकेल रहे हैं? रूस का दावा है कि यूक्रेन में अपने सैन्य ऑपरेशन के दौरान उसे वहाँ जैविक हथियार बनाने के मज़बूत सुबूत मिले हैं।

नूलैंड के बयान के बाद रूस इस मसले पर और हमलावर हो गया और उसने आरोप लगाया कि अपने देश की सुरक्षा को लेकर उसने जो आशंकाएँ जतायी, वो ग़लत नहीं थीं। रूस का आरोप रहा है कि यूक्रेन के ज़रिये पश्चिम देश उसकी सुरक्षा के लिए ख़तरा बन रहे हैं। यही कारण था कि रूस ने यूक्रेन के नाटो का सदस्य बनने का पुरज़ोर विरोध किया है। अब न्यूलैंड की स्वीकरोक्ति कि जैविक हथियार रूस पर ख़तरा बढ़ाने का ज़रिया है, जिसे पेंटागन वित्तीय मदद दे रहा था; से रूस के आरोपों पर मुहर लग गयी है। रूस इसके बाद लगातार अमेरिका पर हमले कर रहा है। रूस का दावा है कि अमेरिका युद्ध में रासायनिक और जैविक हथियारों का इस्तेमाल करने की तैयारी कर रहा है।

विशेषज्ञ मानते हैं कि यदि अमेरिका और नाटो देश रूस-यूक्रेन युद्ध में हिस्सेदारी कर लेते हैं, तो इससे विश्व युद्ध का रास्ता खुल जाएगा और यह रासायनिक और जैविक युद्ध में तब्दील हो सकता है। दुनिया दुआ कर रही है कि ऐसा न हो और दुनिया युद्ध की विभीषिका से बच जाए।

युद्ध के 20 दिन के बाद रूस-यूक्रेन की तरफ़ से इन्फॉर्मेशन वॉर काफ़ी तेज़ हो गयी है। पश्चिमी देशों का दावा है कि रूस के सबसे पॉपुलर टीवी चैनल पर रूस के लोगों ने ही राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को कटघरे में खड़ा कर दिया। पश्चिम देश यह सन्देश देना चाहते हैं कि रूस के ही लोग यूक्रेन पर हमले के कारण पुतिन के साथ नहीं हैं। इससे जुड़े इक्का-दुक्का वीडियो भी सोशल मीडिया के ज़रिये सामने आये हैं। रूस में बग़ावत की ख़बरें पश्चिमी देशों का प्रोपेगैंडा है, ये बताने के लिए व्लादिमीर पुतिन ने अपने रक्षा मंत्रालय का एक प्रस्ताव पास कर कहा कि मिडिल ईस्ट के 16,000 लड़ाके ऐसे हैं, जो यूक्रेन जाकर रूस की सेना की मदद करना चाहते हैं। रूस ने यूक्रेन में सैन्य कार्रवाई के दौरान दावा किया कि वहाँ ख़तरनाक वायरस स्टोर किये गये हैं, जिन्हें अमेरिका हथियारों के तौर पर इस्तेमाल कर सकता है।

रूस का दावा है कि वालंटियर के तौर पर युद्ध में शामिल होने के लिए हज़ारों विदेशी लोगों ने रूस सरकार से आवेदन किया है। रूस के रक्षा मंत्री का कहना है कि 16,000 विदेशी वालंटियर्स डोनेस्क और लुगांस्क में लडऩे के लिए तैयार हैं, ताकि डोनबास क्षेत्र के लोगों को यूक्रेन की ओर से हो रहे नरसंहार से बचाया जा सके। पुतिन ने इस प्रस्ताव का समर्थन करके पश्चिम देशों को यह सन्देश दिया है कि उनके मिशन में देश के ही लोग नहीं, बल्कि विदेश से भी समर्थन मिल रहा है।

यूक्रेन पर रूस के हमले के समर्थन में 13 मार्च को कई कारें सर्बिया की राजधानी बेलग्रेड से होकर गुज़रीं। कार में सवार लोगों ने रूसी और सर्बियाई झण्डे लहराये, हॉर्न बजाया और पुतिन (रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन) समर्थक नारे लगाये। सर्बिया ने औपचारिक रूप से यूरोपीय संघ की सदस्यता की माँग करने और मास्को की आक्रामकता की निंदा करने वाले संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के पक्ष में मतदान करने के बावजूद अपने सहयोगी रूस के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों में शामिल होने से इन्कार कर दिया है।

रूस-चीन भाई-भाई

कभी यह नारा नेहरू युग में भारत-चीन की दोस्ती के नारे ‘हिन्दी चीनी-भाई भाई’ जैसा लगता है। हालाँकि यह सच है कि अमेरिका पर जैविक हथियारों के इस्तेमाल पर रूस को अब खुले तौर पर चीन का साथ मिल गया है। चीन के विदेश मंत्रालय ने बाक़ायदा एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के ज़रिये ये दावा किया कि अमेरिका, यूक्रेन में जैविक हथियारों का निर्माण कर रहा है। निश्चित ही रूस और चीन एक सी बोली बोल रहे हैं। दोनों मिलकर यूक्रेन के ज़रिये अमेरिका पर जैविक हथियारों के इस्तेमाल का आरोप लगा रहे हैं। हालाँकि यूक्रेन के राष्ट्रपति इसे रूस की साज़िश बताकर यूक्रेन पर हमला करने की नयी तरकीब बता रहे हैं।

यूक्रेन निश्चित ही बर्बादी की तरफ़ बढ़ रहा है। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक रूस-यूक्रेन जंग जारी है। रूस यूक्रेन के शहरों पर बमबारी कर उन्हें बर्बाद कर रहा है। कई शहरों पर रूस का क़ब्ज़ा हो चुका है। ख़ुद जेलेंस्की स्वीकार कर चुके हैं कि रूस यूक्रेन की राजधानी कीव पर कभी भी क़ब्ज़ा कर लेगा। फ़िलहाल रूस यूक्रेन के दक्षिण में मारियुपोल पर शिकंजा और कसते हुए राजधानी कीव के बाहरी इलाक़ों में पहुँच चुका है। यूक्रेन की सैटेलाइट से ली गयी, जो तस्वीरें दुनिया के सामने आयी हैं; उनसे ज़ाहिर होता कि उसके शहर रूस की बमबारी में तबाह हो चुके हैं। वहाँ जली और तबाह हुई इमारतें, वाहन, सडक़ें दिखती हैं। पेड़-पौधे तक ख़त्म हो गये हैं। सडक़ें सुनसान हैं और वहाँ लोग नहीं दिखते। रिपोट्र्स के मुताबिक, यूक्रेन के सामने भोजन, पानी और दवा की उपलब्धता नहीं है। अब तक हज़ारों लोग मारे गये हैं।

झुक रहा है यूक्रेन

हाल के 10 दिनों में यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की चार बार रूस से बातचीत का आग्रह कर चुके हैं। हाल में तुर्की ने दावा किया था कि रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोडिमिर जेलेंस्की के साथ बातचीत करने को राजी हैं। रूसी सेना लगातार राजधानी कीव की घेराबंदी कर रही है। रूसी सेना ने कीव को नो फ्लाइंग जोन बना दिया है, जिससे राजधानी से बाकी दुनिया का हवाई सम्पर्क लगभग ख़त्म हो गया है। यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की ने 13 मार्च को कहा था कि वह इजरायल की मध्यस्थता में रूस के साथ बात करने को तैयार हैं। हालाँकि रूस की तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया नहीं दी गयी।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कार्यालय का कहना है कि यूक्रेन में युद्ध शुरू होने से लेकर अब तक 596 नागरिकों (13 मार्च तक) की मौत हो चुकी है और कम-से-कम 1,067 लोग घायल हुए हैं। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय की ओर से जारी बयान के मुताबिक, मारे गये लोगों में से 43 और घायलों में 57 बच्चे हैं। कार्यालय ने बताया कि ज़्यादातर नागरिकों की मौत भारी गोलाबारी और मिसाइल हमले के कारण हुईं।

संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों ने यूक्रेन में स्वास्थ्यकर्मियों और चिकित्सकीय सुविधाओं पर हमले तत्काल बन्द करने की अपील की है। एजेंसियों ने कहा है कि चिकित्सा कर्मियों पर हमले तत्काल बन्द हों और युद्धविराम किया जाए। रूस के हमले में यूक्रेन में कई चिकित्साकर्मी मारे गये हैं। संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों ने इसे बेहोश क्रूरता बताया है।

यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोडिमिर जेलेंस्की ने भी 13 मार्च को नाटो से अपील की थी कि वह उनके देश को नो फ्लाई जोन घोषित करे। जेलेंस्की ने चेतावनी दी है कि अगर नाटो ऐसा नहीं करता है, तो वह उसके सदस्य देशों पर रूस की ओर से हमला होते हुए देखे। जेलेंस्की ने एक वीडियो जारी करते हुए कहा कि अगर आप हमारे आकाश को बन्द नहीं करते हैं, तो किसी भी समय रूसी रॉकेट आपके क्षेत्र में या नाटो के क्षेत्र में गिरेगा। अमेरिका यूक्रेन के सैन्य ठिकाने पर रूसी मिसाइल हमले की निंदा कर रहा है। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने कहा  कि हम पोलैंड से सटी यूक्रेन की सीमा के क़रीब यवोरिव में इंटरनेशनल सेंटर फॉर पीसकीपिंग ऐंड सिक्योरिटी पर रूस के मिसाइल हमले की निंदा करते हैं। यह क्रूरता बन्द होनी चाहिए।

उधर रूसी मीडिया स्पुतनिक ने उप विदेश मंत्री सर्गेई वार्शिनी के हवाले से कहा कि रूस अमेरिका और यूरोपीय संघ के सदस्य देशों से प्रतिबंध हटाने के लिए नहीं कहेगा, क्योंकि पश्चिम और दुनिया भर के दबाव से मॉस्को का रूख़ नहीं बदलने वाला है।

 

रूस का आरोप

अमेरिका के पास 30 देशों में 336 जैविक अनुसंधान लैब हैं, जिनमें 26 लैब अकेले यूक्रेन में हैं। अमेरिका को इन लैब के बारे में अपने देश और विदेश में अपनी जैविक सैन्य गतिविधियों की पूरी जानकारी देनी चाहिए।’’

शिक्षा का दबाव बढ़ा रहा तनाव

बेरोज़गारी, शिक्षा में आ रही परेशानियों के चलते बढ़ रहे आत्महत्या के मामले

किसी समय विश्व गुरु के नाम से मशहूर भारत आज शिक्षा के उस दौर से गुज़र रहा है, जब पीढिय़ों के अनपढ़ रहने का ख़तरा मँडराता नज़र आ रहा है। इसकी एक वजह कोरोना महामारी के चलते पढ़ाई का ठप होना है, तो दूसरी वजह महँगी होती शिक्षा है। हाल ही में रूस और यूक्रेन में छिड़े भीषण युद्ध के चलते यूक्रेन में फँसे भारतीय छात्रों की पीड़ा सुनकर किसका दिल नहीं पसीजा होगा? लेकिन केंद्र की मोदी सरकार ने कुछ विद्यार्थियों को देरी करते हुए वहाँ से निकाला भी, तो उसे चुनावों में भुनाने का मौक़ा नहीं गँवाया। सवाल यह है कि यूक्रेन में फँसे विद्यार्थियों और जो जैसे-तैसे निकलकर आ गये हैं, उनकी भविष्य की चिन्ता के तनाव को कितने लोग समझ सकेंगे?

पिछले दो साल में देखा गया है कि लाखों छात्रों की पढ़ाई प्रभावित रही है, जिससे एक पीढ़ी के अनपढ़ रहने का ख़तरा देश में मँडरा रहा है। देश में स्कूल और कॉलेज अभी भी ठीक से नहीं खुले हैं, जिससे अभिभावकों की चिन्ता और भी बढ़ी हुई है। पढ़ाई ठप होने का सबसे ज़्यादा असर ग़रीब, निम्न मध्यम और मध्यम वर्ग पर पड़ रहा है। स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाई ठप होने के चलते बहुत-से लोगों ने अपने बच्चों को कोचिंग संस्थानों के सहारे छोड़ दिया है। कहना होगा कि कोचिंग संस्थानों ने देश में शिक्षा को महँगा करके ठगी का जो धंधा दो-तीन दशक से शुरू किया है, वह बहुत घातक होता जा रहा है। हालत यह है कि निजी स्कूल तो स्कूल फीस में भी कोचिंग फीस जोडक़र लेने लगे हैं। आज देश में पढऩे बच्चों को ज़्यादा अंक (माक्र्स) लाने की होड़ में लगा दिया गया है, जिसके चलते देश में पढऩे वाले कोचिंग कक्षा लेने को मजबूर हैं और क़रीब 70 फ़ीसदी से ज़्यादा बच्चे कोचिंग कक्षाएँ ले रहे हैं।

दिल दहला देने वाली आत्महत्या अभी कुछ दिन पहले राजस्थान के कोटा में एक कृति नाम की छात्रा ने आत्महत्या कर ली। छात्रा कृति ने अपने सुसाइड नोट में लिखा- ‘‘मैं भारत सरकार और मानव संसाधन मंत्रालय (मंत्री) से कहना चाहती हूँ कि अगर वे चाहते हैं कि कोई बच्चा न मरे, तो जितनी जल्दी हो सके इन कोचिंग संस्थानों को बन्द करवा दें। ये कोचिंग संस्थान छात्रों को खोखला कर देते हैं। पढऩे का इतना दबाव होता है कि बच्चे बोझ तले दब जाते हैं।’’

कृति ने आगे लिखा है- ‘वह कोटा में कई छात्रों को डिप्रेशन और स्ट्रेस से बाहर निकालकर सुसाइड करने से रोकने में सफल हुई; लेकिन ख़ुद को नहीं रोक सकी। बहुत लोगों को विश्वास नहीं होगा कि मेरे जैसी लडक़ी जिसके 90+ माक्र्स हों, वह सुसाइड भी कर सकती है। लेकिन मैं आप लोगों को समझा नहीं सकती कि मेरे दिमाग़ और दिल में कितनी नफ़रत भरी है।’

अपनी माँ के लिए कृति ने लिखा- ‘आपने मेरे बचपन और बच्चा होने का फ़ायदा उठाया और मुझे विज्ञान पसन्द करने के लिए मजबूर करती रहीं। मैं भी विज्ञान पढ़ती रही, ताकि आपको ख़ुश रख सकूँ। मैं क्वांटम फिजिक्स और एस्ट्रोफिजिक्स जैसे विषयों को पसन्द करने लगी और उसमें ही बीएससी करना चाहती थी। लेकिन मैं आपको बता दूँ कि मुझे आज भी अंग्रेजी साहित्य और इतिहास बहुत अच्छा लगता है; क्योंकि ये मुझे मेरे अंधकार के वक़्त में मुझे बाहर निकालते हैं।’

कृति अपनी माँ को चेतावनी देती है कि ‘इस तरह की चालाकी और मजबूर करने वाली हरकत 11वीं क्लास में पढऩे वाली छोटी बहन से मत करना, वह जो बनना चाहती है और जो पढऩा चाहती है, उसे वो करने देना। क्योंकि वह उस काम में सबसे अच्छा कर सकती है, जिससे वह प्यार करती है।’

कृति के इस सुसाइड नोट को पढक़र मेरा मन भी विचलित हो गया कि बच्चों को आगे निकालने की इस होड़ में कितने ही माँ-बाप अपने बच्चों के सपनों को छीन रहे हैं। आज लोग अपने बच्चों को इस प्रतिस्पर्धा में धकेलने लगे हैं कि फलाँ के बेटा-बेटी, आईएएस, आईपीएस, डॉक्टर, इंजीनियर बन गये, तो अपने बच्चों को भी आईएएस, आईपीएस, डॉक्टर और इंजीनियर ही बनाना है। फलाँ के बेटी-बेटा जयपुर सीकर और कोटा हॉस्टल में हैं, तो हमारे बच्चों को भी वहीं पढ़ाएँगे, चाहे उस बच्चे के सपने कुछ भी हों; लेकिन हम उन पर अपने सपने थोप रहे हैं।

तनाव बढ़ाते कोचिंग संस्थान

आज हमारे स्कूल और कोचिंग संस्थान बच्चों को पारिवारिक रिश्तों का महत्त्व नहीं सिखा पा रहे हैं; उन्हें असफलताओं या समस्याओं से लडऩा नहीं सिखा पा रहे हैं। उनके ज़ेहन में सिर्फ़ एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा के भाव भरे जा रहे हैं, जो जहर बनकर उनकी ज़िन्दगियाँ निगल रहा है। क्योंकि जो कमज़ोर हैं या जिनका मन उस जबरदस्ती थमाये विषय में नहीं लग रहा है, वे आत्महत्या कर रहे हैं। कृति ने भी यही किया। जो थोड़े मज़बूत हैं, वो तनाव से बचने के चक्कर में नशे की ओर बढ़ रहे हैं।

अभिभावकों से अपील

जब हमारे बच्चे असफलताओं से टूट जाते हैं, तो वे तनाव के चलते यह भी नहीं समझ पाते कि इससे कैसे निपटा जाए? माँ-बाप से इसलिए बात नहीं कर पाते; क्योंकि वे उनकी बात समझने के बजाय उन्हें डाँटने लगते हैं। इसीलिए कहा गया है कि बच्चे जब छोटे हों, तो उनकी हर गतिविधि पर नज़र रखनी चाहिए और उन्हें यह बताना चाहिए कि कौन-सा रास्ता उनके लिए सही है और कौन-सा ग़लत। लेकिन जब बच्चे बड़े हो जाएँ, तो माँ-बाप को उनका दोस्त बन जाना चाहिए, ताकि वे किसी भी तरह की परेशानी आने पर अपने मन की बात सहजता से माँ-बाप से कह सकें। ऐसा न होने पर उनका कोमल हृदय नाकामी और परेशानी से बहुत जल्दी टूट जाता है, जिसके चलते वे आत्महत्या कर बैठते हैं। अभिभावकों से निवेदन है कि आप अपने बच्चों की असफलता को उनकी कमज़ोरी न बनने दें। ज़िन्दगी बहुत क़ीमती हैं, जिसमें पढ़ाई-लिखाई जीविकोपार्जन के लिए मात्र कुछ फ़ीसदी भूमिका निभाती हैं।

विद्यार्थियों की आत्महत्या के आँकड़े

संसद में पिछले साल पेश किये गये राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों से पता चलता है कि साल 2017 से 2019 के बीच 14-18 आयु वर्ग के क़रीब 24,568 बच्चों ने आत्महत्या की थी, जिनमें 13,325 लड़कियाँ शामिल थीं। एनसीआरबी के यह आँकड़े बताते हैं कि साल 2017 में 14-18 आयु वर्ग के कऱीब 8,000 से ज़्यादा बच्चों ने आत्महत्या की। साल 2018 में 8,162 बच्चों ने आत्महत्या की। साल 2019 में 8,377 बच्चों ने आत्महत्या की। आत्महत्या के पीछे पढ़ाई का तनाव, फेल होना, प्रेम प्रसंग, नशा, प्रियजन की मौत, अच्छे नंबर न ला पाना, सामाजिक प्रतिष्ठा धूमिल होना, बेरोज़गारी, ग़रीबी के चलते पढ़ाई न कर पाना, स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ होना, माँ-बाप को क़र्ज़ करके पढ़ाने से उपजी समस्याओं से दु:खी होना, शौक़ पूरे न होना आदि वजहें रहीं।

एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में हर साल क़रीब आठ लाख लोग आत्महत्या करते हैं, जिनमें तक़रीबन 17 फ़ीसदी यानी 1,35,000 भारतीय होते हैं। इनमें से क़रीब 35 फ़ीसदी विद्यार्थी होते हैं, जबकि सबसे ज़्यादा 45 फ़ीसदी किसान होते हैं। हालाँकि सरकार को आजकल देश में आत्महत्या के आँकड़े प्रदर्शित करने से गुरेज़ है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आँकड़े बताते हैं कि भारत में महिलाओं की अपेक्षा पुरुष ज़्यादा आत्महत्या करते हैं। अभी हाल ही में एक जवान ने अपने पाँच साथियों की गोली मारकर हत्या कर दी, यह भी तनाव का ही एक कारण है। मेरा मानना यह है कि चाहे वो आत्महत्या का मामला हो, या हत्या का, उसके पीछे कहीं-न-कहीं हम, हमारा समाज, हमारी सरकारें और आसपास के लोग ज़िम्मेदार होते हैं। यहाँ तक कि अपराधी बनाने में भी इन्हीं में से कोई-न-कोई वजह होती है। क्योंकि अपराधी माँ की कोख से नहीं, समाज में फैले वातावरण से पैदा होते हैं।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

चिकित्सा विद्यार्थियों का भविष्य दाँव पर

विदेशों में मेडिकल की पढ़ाई करने के लिए क्यों मजबूर हैं विद्यार्थी?

यूक्रेन में भारतीय चिकित्सा विद्यार्थियों (छात्र-छात्राओं) के फँसने से एक सवाल उठा है कि क्या चिकित्सीय शिक्षा (मेडिकल एजुकेशन) के लिए विदेशों में जाना भारतीय छात्रों की मजबूरी है? भारत में चिकित्सीय शिक्षा के लिए बड़ी प्रतिस्पर्धा है। देश में हर साल चिकित्सा की तक़रीबन एक लाख सीटों के लिए 17 लाख विद्यार्थी आवेदन करते हैं। इनमें से 16 लाख विद्यार्थियों को मेडिकल कॉलेजों (चिकित्सा महाविद्यालयों) में दाख़िला नहीं मिल पाता है। देश में डॉक्टर बनने की चाह रखने वाला छात्र सरकारी मेडिकल कॉलेजों में दाख़िला लेना चाहता है। लेकिन इन कॉलेजों की योग्यता सूची (मेरिट लिस्ट) में बहुत कम विद्यार्थियों का ही नंबर आता है। अगर कोई छात्र किसी भी विशेष संकाय (डिपार्टमेंट) में दाख़िला लेना चाहता है, तो उसे टॉप लिस्ट (उच्चचम सूची) में जगह बनानी होती है। इस तरह की शर्तों से विद्यार्थी चिकित्सा की पढ़ाई करने के लिए विदेशों का रूख़ करते हैं।

विदेशों में चिकित्सीय शिक्षा प्राप्त करने के लिए ऐसा नहीं है। यूक्रेन की बात करें, तो वहाँ कट ऑफ मायने नहीं रखती है। वहाँ चिकित्सीय शिक्षा के लिए भारत की तरह परीक्षा भी नहीं होती है। केवल हमारे यहाँ की नीट परीक्षा को पास करने के बाद ही यूक्रेन के मेडिकल कॉलेजों में दाख़िला मिल जाता है। यूक्रेन में यह नहीं देखा जाता कि परीक्षा में कितने अंक आये हैं। सिर्फ़ पाठ्यक्रम (कोर्स) करना ही बहुत है। यूक्रेन में पढ़ाई करने का यह भी फ़ायदा है कि वहाँ की चिकित्सीय डिग्री की मान्यता भारत के साथ-साथ डब्ल्यूएचओ, यूरोप और ब्रिटेन में भी है। यूक्रेन से मेडिकल कोर्स करने वाले विद्यार्थी दुनिया के किसी भी हिस्से में अभ्यास (प्रैक्टिस) कर सकते हैं।

भारत में प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में पढ़ाई का ख़र्च 50 लाख से एक करोड़ रुपये तक होता है। वहीं क्योंकि यूक्रेन में मेडिकल की पढ़ाई का ख़र्च भारत की तुलना में आधे से कम है। ऐसे में जिन विद्यार्थियों की आर्थिक स्थिति थोड़ी कमज़ोर है, वे ऐसे देशों में मेडिकल की पढ़ाई करने इसलिए भी जाते हैं; क्योंकि वहाँ पार्ट टाइम काम करने की सुविधा भी रहती है। यूक्रेन में एमबीबीएस की पढ़ाई की फीस सालाना दो से चार लाख रुपये के बीच होती है। यानी पाँच साल की पूरी पढ़ाई का ख़र्च तक़रीबन 25 से 30 लाख रुपये तक पड़ता है। भारत में नीट की परीक्षा देने वाले सैकड़ों छात्र ऐसे भी होते हैं, जो परीक्षा (पेपर) तो पास (क्वॉलीफाई) कर लेते हैं; लेकिन वे सरकारी कॉलेजों और प्राइवेट कॉलेजों में दाख़िला नहीं ले पाते हैं। इसके लिए उन्हें यहाँ भी नीट की परीक्षा पास करनी पड़ती है। अभी हाल ही में इसे लेकर जूनियर डॉक्टरों ने विरोध-प्रदर्शन भी किया है।

रूस और यूक्रेन के बीच छिड़ी जंग ने हज़ारों विद्यार्थियों का भविष्य दाँव पर है। तक़रीबन 18,000 विद्यार्थी हैं, जो यूक्रेन छोडक़र मजबूरन भारत आ रहे हैं। किसी छात्र ने मेडिकल कोर्स की दो साल की पढ़ाई पूरी की है, किसी के चार साल पूरे हो चुके हैं। यूक्रेन से लौटे मेडिकल विद्यार्थियों को राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग यानी नेशनल मेडिकल कमीशन ने राहत दी है। अब विद्यार्थियों को एक साल की बाध्यकारी इंटर्नशिप देश में करने की अनुमति दी है। लेकिन एक शर्त यह जोड़ दी है कि छात्रों को फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट एग्जामिनेशन (एफएमजीई) की परीक्षा पास करनी होगी।

राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने 18 नवंबर, 2021 को राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (विदेशी चिकित्सा स्नातक लाइसेंसधारी) विनियम, 2021 प्रकाशित किया था, जिसमें पंजीकरण और विदेशी चिकित्सा स्नातकों (फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट्स) को मान्यता देने के मानदण्डों का ज़िक्र है। इनके अनुसार, कोई भी विदेशी चिकित्सा स्नातक भारत में तब तक प्रैक्टिस नहीं करेगा, जब तक उसे स्थायी रजिस्ट्रेशन नहीं दिया जाता। इस रजिस्ट्रेशन के लिए विदेशी चिकित्सा स्नातक को कम-से-कम 54 महीने के पाठ्यक्रम वाली डिग्री और 12 महीने की इंटर्नशिप करना अनिवार्य है। यह विनियम उन विदेशी मेडिकल स्नातकों पर लागू नहीं होगा, जिन्होंने राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (विदेशी चिकित्सा स्नातक लाइसेंसधारी) विनियम, 2021 के लागू होने से पहले विदेशी मेडिकल डिग्री या प्राथमिक योग्यता हासिल कर ली है। दरअसल राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने सन् 2021 में विदेशों में पढ़ाई करने वाले विद्यार्थियों के लिए नियमों में बदलाव किया। आयोग ने यह व्यवस्था लागू कर दी कि विद्यार्थियों को मेडिकल की पढ़ाई एक ही विश्वविद्यालय से पूरी करनी होगी। लेकिन जब फिलीपींस और कुछ कैरेबियाई देशों में इस क़ानून की अनदेखी करनी शुरू कर दी, तो केंद्र सरकार ने उन पर रोक लगा दी। मेडिकल की पढ़ाई करने के लिए सिर्फ़ यूक्रेन ही छात्रों की पंसदीदा जगह नहीं है। क़ज़ाकिस्तान, किर्गिस्तान, नेपाल और रोमानिया में भी हज़ारों भारतीय विद्यार्थी मेडिकल की पढ़ाई के लिए जाते हैं। इन देशों में भी मेडिकल की पढ़ाई का ख़र्च भी तक़रीबन यूक्रेन जितना ही है। पिछले कुछ समय से उज्बेकिस्तान भी मेडिकल विद्यार्थियों के लिए पसंदीदा देश बन गया है। पिछले तीन-चार साल में कई मेडिकल यूनिवर्सिटी खुली है। देश के कई मेडिकल कॉलेजों ने भी उज्बेकिस्तान में अपने कैंपस खोले हैं। अलग-अलग देशों में एक लाख से  अधिक भारतीय छात्र मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं। अकेले यूक्रेन में क़रीब 18,000 बच्चे हैं। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के फाइंनेस सेक्रेटरी डॉक्टर अनिल गोयल बताते हैं कि भारत में मेडिकल की क़रीब एक लाख सीटें हैं। विदेशों से मेडिकल की पढ़ाई करने वाले सिर्फ़ 15 फ़ीसदी विद्यार्थी ही देश में फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट एग्जामिनेशन पास कर पाते हैं। देश में क़रीब 88,000 एमबीबीएस की सीटें हैं, जिसके लिए तक़रीबन आठ लाख बच्चे परीक्षा देते हैं। एबीबीएस की इन सीटों में 50 फ़ीसदी सीटें निजी क्षेत्र में चलने वाले मेडिकल कॉलेजों के हिस्से में आती है। देश में किसी भी निजी एमबीबीएस की सीट पर एडमिशन का ख़र्चा 70 लाख से एक करोड़ रुपये तक है। यही वजह है कि प्रत्येक वर्ष हज़ारों छात्र अलग-अलग देशों में मेडिकल की पढ़ाई के लिए जाते हैं। विदेश से मेडिकल की पढ़ाई ख़त्म करने के बाद बच्चों को फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट एग्जामिनेशन की परीक्षा देनी होती है। इस परीक्षा को पास करने के बाद ही देश में डॉक्टरी करने का लाइसेंस मिलता है। यह परीक्षा 300 नंबर की होती है। इसे उतीर्ण करने के लिए 150 अंक लाना आवश्यक होता है। यही कारण है कि विदेश से मेडिकल की डिग्री के बाद भी बच्चे देश में डॉक्टरी की पढ़ाई नहीं कर पाते है। जहाँ तक यूक्रेन से मेडिकल की पढ़ाई करने वाले विद्यार्थियों की बात है, तो उनमें से 15 फ़ीसदी छात्र ही फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट की परीक्षा पास कर पाये हैं।

नेशनल बोर्ड ऑफ एग्जामिनेशन द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार, 2015 से लेकर 2018 तक फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट एग्जामिनेशन के नतीजे बताते हैं कि पिछले चार वर्षों में चीन के 95 मेडिकल संस्थानों से मेडिकल की पढ़ाई करने वाले 20,314 विद्यार्थियों में महज़ 2,370 विद्यार्थी उतीर्ण हुए। इसी तरह रूस के 66 संस्थानों में मेडिकल की पढ़ाई पूरी करके 11,724 विद्यार्थियों ने परीक्षा दी, जिसमें 1,512 विद्यार्थी ही सफल हुए। यूक्रेन के विभिन्न 32 संस्थानों से 8,130 विद्यार्थियों ने मेडिकल की पढ़ाई की, जिसमें 1,224 विद्यार्थी ही सफल रहे, नेपाल के 24 संस्थानों से 5,894 विद्यार्थियों ने मेडिकल की ड्रिगी प्राप्त की, जिसमें 1,042 विद्यार्थी ही सफल हुए इसी तरह किर्गिस्तान से 5,335 विद्यार्थियों ने मेडिकल की पढ़ाई पूरी की, मगर सफल 589 ही हुए। फिलीपींस के 21 संस्थानों से 1,421 विद्यार्थियों ने मेडिकल की ड्रिगी प्राप्त की और सफल मात्र 370 हुए। यूक्रेन में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे विद्यार्थियों के अनुसार, वहाँ पहले तीन साल तक थ्योरी पढ़ाई जाती है और चौथे साल में अभ्यास शुरू होता है। विद्यार्थियों को हॉस्पिटल में जाकर डॉक्टरी का काम सीखना होता है।

विरोध-प्रदर्शनों की चपेट में झारखण्ड

स्थानीयता और भाषा को लेकर बढ़ रहा तनाव, लोगों और नेताओं के बीच बढ़ रहे मतभेद

मशहूर शायर राहत इंदौरी के एक चर्चित शे’र है- ‘लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में, यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है।’

इस शे’र को झारखण्ड में हाल के दिनों में एक बार फिर स्थानीयता और भाषा को लेकर शुरू हुए विवाद से जोड़ा जा सकता है। पिछले कुछ महीनों से इन दोनों मुद्दों पर विवाद बढ़ता जा रहा है। समाज का पूरा का पूरा हिस्सा दो भागों में बँटता जा रहा है। आन्दोलन करने वाले आमने-सामने आ रहे हैं।

नतीजतन टकराव का अंदेशा बढ़ता जा रहा है। इस टकराव में किसी एक वर्ग को नफ़ा-नुक़सान नहीं होगा। दोनों तरफ़ ही इसका असर होगा। इन दोनों मुद्दों को समय रहते सुलझाने की ज़रूरत है; क्योंकि यह राज्य के विकास के लिए एक बड़ा रोड़ा है। इसका ख़ामियाज़ा सबसे अधिक युवा वर्ग को हो रहा है।

सन् 2020 में हुए राज्य के गठन के समय से ही स्थानीयता का मुद्दा चल रहा है। भाषा का मुद्दा पिछले कुछ महीनों से सामने आया है। अब इन दोनों ही मुद्दों पर राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए समय-समय पर हवा देने के चलते अब यह यह आम लोगों से अधिक राजनीतिक मुद्दा बन गया है। प्रसिद्ध ब्रिटिश समाज वैज्ञानिक कार्ल पॉपर ने कहा था कि यदि किसी समाज को विकास की दौड़ में पीछे धकेलना हो, तो उसके भीतर धर्म, भाषा और संस्कृति जैसे विषयों पर विवाद खड़ा कर देना चाहिए। क्योंकि ये तीनों समाज के लिए उस नशे के समान होती हैं, जिससे हुए नुक़सान का अंदाज़ा नशा ख़त्म होने के बाद लगता है। पिछले कुछ दिनों से झारखण्ड में भी इन्हीं चीज़ें पर विवाद खड़ा किया जा रहा है। इन विवादों की वजह से झारखण्ड में दूसरी किसी भी समस्या की तरफ़ न समाज का ध्यान गया और सियासतदान तो यह चाहते ही नहीं। लेकिन यह बात कोई नहीं समझ रहा कि इससे राज्य और राज्य के लोगों का नुक़सान ही होगा।

नौकरियों पर असर

राज्य में तीसरी और चौथी श्रेणी की नौकरियाँ दो वर्गों में बाँटी गयी हैं। पहली राज्य स्तरीय और दूसरी ज़िलास्तरीय। सरकार ने झारखण्ड राज्य कर्मचारी चयन आयोग (जेएसएससी) के ज़रिये ली जाने वाली राज्य स्तरीय तीसरी और चौथी श्रेणी वाली नौकरियों की परीक्षाओं के लिए क्षेत्रीय भाषाओं की सूची से मगही, मैथिली, भोजपुरी और अंगिका को बाहर रखा है। दूसरे वर्ग यानी ज़िला स्तरीय तीसरी और चौथी श्रेणी की नौकरियों के लिए ज़िला स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं की अलग सूची है, जिसमें कुछ ज़िलों में भोजपुरी, मगही और अंगिका को शामिल रखा गया है। तीसरी और चौथी श्रेणी की नौकरी स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित की गयी हैं। ऐसे में स्थानीयता और भाषा विवाद के कारण नियुक्तियाँ लटक रही हैं। युवाओं को रोज़गार का अवसर नहीं मिल पा रहा है।

राजनीतिक मतभेद

इन दिनों पूरा झारखण्ड स्थानीय नीति और भाषा विवाद को लेकर उलझा हुआ है। राज्य में जगह-जगह राज्य में जगह-जगह प्रदर्शन हो रहे हैं। कहीं पुतले फूँके जा रहे हैं, तो कहीं मानव शृंखलाएँ बनायी जा रही हैं। कहीं लोग सडक़ों पर उतर रहे हैं, तो कहीं विधानसभा के घेराव का ऐलान हो रहा है। इन दिनों विधानसभा का बजट सत्र चल रहा है। स्थानीयता और भाषा विवाद का शोर सदन के अन्दर से बाहर तक सुनायी दे रहा है।

इन दोनों मुद्दों पर राजनीतिक दलों के भीतर भी दो गुट बने हुए हैं। इन विवाद की आँच में सभी अपनी-अपनी खिचड़ी पका रहे हैं। $खास बात यह है कि राज्य की तीनों प्रमुख पार्टियाँ- झामुमो, कांग्रेस और भाजपा के नेता भी अलग-अलग बँटे हुए हैं। वहीं विभिन्न संगठन भी आमने-सामने हैं। स्थानीयता को फिर से परिभाषित करने की माँग की जा रही है। इसमें सन् 1932 के खतियान को आधार बनाये जाने की माँग है। वहीं एक पक्ष पूर्ववर्ती भाजपा सरकार द्वारा परिभाषित स्थानीयता को ही सही मान रहा है, जिसमें सन् 1985 के कट ऑफ को माना गया है। इसी तरह अंगिका, भोजपुरी, मगही, मैथिली भाषा को क्षेत्रीय भाषा में रखने और हटाने के पैरोकार आमने-सामने हैं।

विपक्ष के साथ-साथ सत्ताधारी दल के कुछ विधायक भी स्थानीयता और भाषा के मुद्दे ज़ोरशोर से उठा रहे हैं। संसदीय कार्य मंत्री आलमगीर आलम स्थानीय नीति में संशोधन के लिए जल्द ही त्रिसदस्यीय मंत्रिमंडल उप समिति बनाने को कह चुके हैं। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन इस मुद्दे पर प्रश्नकाल में जवाब दे चुके हैं। उनका कहना है कि सरकार न्यायालय के निर्णय का अध्ययन कर रही है, इसके बाद इस मुद्दे पर निर्णय लेगी। मगर मामला शान्त नहीं हो रहा है।

झारखण्ड का यह दुर्भाग्य है कि यहाँ के लगभग हर फैसले को बाहरी-भीतरी के दृष्टिकोण से देखा जाता रहा है। प्राकृतिक संसाधनों के मामले में देश के सर्वाधिक समृद्ध राज्यों में शुमार झारखण्ड के पिछड़ेपन का यह एक प्रमुख कारण है। नियुक्ति से लेकर सामाजिक जीवन के दूसरे क्षेत्रों में हर मुद्दे को विवादित बनाकर झारखण्ड को उलझाना यहाँ की सियासत का अचूक हथियार माना जाता है। स्थानीयता और भाषा का विवाद इसका उदाहरण है।

अब जब सत्ता में आ गयी है, तो 1932 के खतियान को लागू करवाने के पक्षधर आन्दोलनरत हैं। सरकार इस मामले को आसानी से सुलझा नहीं सकती। क्योंकि इसी मुद्दे पर एक बार झारखण्ड जल चुका है। अगर इस बार फिर सही तरीक़े से परिभाषित नहीं हुआ, तो यह क्या रूप लेगा? इसका अनुमान लगाना आसान नहीं है।

 

क्या है स्थानीयता का विवाद?

स्थानीयता का विवाद यह है कि यहाँ का स्थानीय नागरिक कौन है? इसे लेकर आज भी भ्रम की स्थितियाँ हैं। राज्य गठन के तत्काल बाद जब इसे परिभाषित करने का प्रयास किया गया, तो काफ़ी हंगामा हुआ। आन्दोलन हुए। मामला न्यायालय तक गया। इसके बाद से लगातार इस मुद्दे को लेकर राजनीति होती रही। पूर्ववर्ती रघुवर सरकार ने स्थानीयता को परिभाषित किया। इसमें सन् 1985 से राज्य में रहने वालों को स्थानीय माना गया। इसके साथ ही कई अन्य बातों इसमें जोडक़र स्थानीयता को परिभाषित किया गया, जो वर्तमान में लागू है। मौज़ूदा हेमंत सरकार उस वक़्त विपक्ष में थी। सत्ता में आते ही उनकी सरकार ने नयी नीति लाने की घोषणा की थी। राज्य के कई नेता और संगठन 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीय नीति लागू करने की माँग कर रहे हैं। इससे पहले सभी नियुक्ति पर रोक लगाने की भी माँग की जा रही है।

 

भाषा का विवाद क्या है?

झारखण्ड सरकार के कार्मिक, प्रशासनिक सुधार व राजभाषा विभाग ने 24 दिसंबर 2021 को भाषा को लेकर एक नोटिफिकेशन जारी किया। इसके बाद से ही क्षेत्रीय भाषाओं की सूची पर विरोध और समर्थन की सियासत तेज़ है। उर्दू को राज्य के सभी 24 ज़िलों में क्षेत्रीय भाषा का दर्जा दिया गया है। राज्य के 11 ज़िलों में स्थानीय स्तर की नियुक्तियों के लिए भोजपुरी, मगही और अंगिका को क्षेत्रीय भाषाओं की सूची में जगह दी। इस पर एक पक्ष का विरोध हुआ। विभाग ने 18 फरवरी 2022 को संशोधित अधिसूचना निकाली। इसमें बोकारो और धनबाद ज़िले की क्षेत्रीय भाषाओं की सूची से भोजपुरी और मगही को बाहर कर दिया गया। अब इसे निकाले जाने से दूसरा पक्ष नाराज़ है। दोनों पक्षों की अपनी-अपनी दलील है। दोनों पक्ष आमने-सामने हैं। दोनों पक्षों के पैरोकार धरना-प्रदर्शन, विरोध बयानबाज़ी कर रहे हैं।

मौत के मुँह से निकलकर अँधकार में करियर

रूस हमले के बाद यूक्रेन में फँसे हज़ारों भारतीय छात्र-छात्राओं की ऑपरेशन गंगा से सकुशल घर वापसी परिजनों के लिए वरदान जैसी है। बमबारी और गोलीबारी के बीच जिन हालातों में इन छात्र-छात्राओं ने यूक्रेन की सीमा पार कर रोमानिया, पौलेंड और स्लोवाकिया की सीमा में प्रवेश कर ही राहत की साँस ली। भारत सरकार ने देर-सबेर अभियान को सफलता से अंजाम तो दे दिया; लेकिन यह सब 26 फरवरी के पहले हमले से पहले भी चलाया जा सकता था। ऐसा करने पर उन हज़ारों युवाओं को भयावह मंज़र से नहीं गज़रना पड़ता और न ही उनके परिजनों की साँसें अटकी रहतीं।

सफल अभियान से देश की अस्मिता बढ़ी वहीं प्रभावितों को जैसे नयी ज़िन्दगी मिली पर अब कई अनुपूरक सवाल भी पैदा हो गये हैं, जिनके जवाब तलाशे जाने की ज़रूरत है। भविष्य में ऐसा न हो, इसके लिए भारत सरकार को गम्भीरता से विचार करने की ज़रूरत है। सवाल यह कि सुदूर यूक्रेन, रूस या आसपास के अन्य देशों में एमबीबीएस की पढ़ाई के लिए हर वर्ष हज़ारों की संख्या में भारतीय क्यों जाते हैं? इनमें बड़ी संख्या उत्तर भारत के हरियाणा, पंजाब, चंडीगढ़ और राजस्थान के युवाओं की भी है। यूक्रेन पर रूस के हमले से पहले घर पहुँचे एक युवा ने बताया, उसकी तो यहाँ निजी मेडिकल कॉलेज में सीट थी; लेकिन विदेश में पढ़ाई करने की इच्छा उन्हें वहाँ ले गयी। अब न वहाँ के रहे, न यहाँ के। भविष्य में क्या होगा? इसे लेकर चिन्ता होने लगी है।

विदेश से एमबीबीएस की डिग्री हासिल करने की बड़ी वजह वहाँ आसानी से प्रवेश और देश के मुक़ाबले कम ख़र्च में डिग्री हासिल करना है। भारत में नेशनल एलिजीबिलेटी कम एंट्रस टेस्ट (एनईईटी-नीट) के माध्यम से एमबीबीएस में प्रवेश पाया जा सकता है। मैरिट में आने वाले देश के सरकारी या निजी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश लेते हैं, जबकि डॉक्टर बनने की इच्छा रखने वाले काफ़ी विदेशों का रूख़ करते हैं। वहाँ प्रवेश के लिए केवल नीट परीक्षा को पास करना ही काफ़ी है।

हज़ारों की संख्या में ऐसे प्रतिभागी होते हैं, जिनकी इच्छा इस डिग्री को पाने की होती है। जब यहाँ प्रवेश नहीं मिल पाता, तो परिवार की आर्थिक स्थिति के अनुसार बाहर का रूख़ करते हैं। भारतीय विदेश मंत्रालय के वर्ष 2021 के आँकड़ों के अनुसार, यूक्रेन में पढऩे वाले छात्र-छात्राओं की संख्या 18,000 के आसपास थी। यूक्रेन की मिनिस्ट्री ऑफ एजुकेशन एंड साइस के अनुसार, यह संख्या 18,095 थी। इस घटना के बाद इस संख्या में कुछ कमी आ सकती है; लेकिन हालात में सुधार के बाद सिलसिला पहले जैसा ही हो जाएगा। इस सिलसिले को रोका जा सकता है। भारत सरकार को इस दिशा में गम्भीरता से प्रयास करने की ज़रूरत है, ताकि भविष्य में मौत के मुँह से बचाने के लिए ऑपरेशन गंगा जैसा अभियान चलाने की ज़रूरत न पड़े। देश में सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों की संख्या और बढ़ाने की ज़रूरत है, ताकि युवा यहीं रहकर डिग्री हासिल कर सके। देश में डॉक्टरों की माँग बढ़ रही है। सरकारें अपने तौर पर मेडिकल कॉलेजों को खोलती भी है; लेकिन यह संख्या अभी पर्याप्त नहीं है।

यूक्रेन से मौत के मुँह से बचकर आये एक छात्र के मुताबिक, भारत सरकार को हमें निकालने की कार्रवाई युद्ध से पहले करनी चाहिए थी। फरवरी के शुरू से ही सीमा पर तनाव और रूस की कार्रवाई की बातें सुनने को मिल रही थी। उसी दौरान हमें वहाँ से निकालने का कोई अभियान चलाया जाना चाहिए था। बंकरों में भूखे प्यासे आख़िर कितना समय गुज़ारा जा सकता है। ख़तरे में साये में रहना मौत जैसा ही है। कब, कहाँ कोई मिसाइल या बम का धमाका हो जाए, कुछ पता नहीं था। एडवाइजरी जारी होने के बाद हम लोग वहाँ दूतावास के सम्पर्क में रहे; लेकिन सतर्कता बरतने के अलावा हमें वहाँ से निकलने आदि के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गयी।

तीन दिन तो हम सभी ने जैसे मौत के साये में गुज़ारे। यूक्रेन की पुलिस और सेना का कोई सहयोग नहीं मिला। हमारे कुछ साथियों की पिटाई भी हुई। गनीमत यह रही कि जान बची रही। यूक्रेन की सीमा से बाहर निकलने पर ही लगा जैसे हम जिन्दा बच गये, वरना रास्ते में गोलाबारी के बीच बचने की उम्मीद ही खो चुके थे। सकुशल वापसी के बाद अब हमारे करियर का क्या होगा? यूक्रेन के हालात तो बद-से-बदतर हो गये हैं। वहाँ क्या होगा? हमारे जैसे हज़ारों युवाओं का क्या होगा? किसी को कुछ भी पता नहीं है।

भारत सरकार पाँच वर्ष का कोर्स पूरा करने के बाद इंटर्नशिप के लिए तो काम कर रही है; लेकिन पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे वर्ष वालों के भविष्य का क्या होगा? सूमी से 600 से ज़्यादा छात्र-छात्राओं की वापसी के बाद कहा जा सकता है कि अभियान कमोबेश सफल रहा। अगर 26 फरवरी के हमले से पहले भारत सरकार यह अभियान शरू कर देती, तो कर्नाटक के नवीन की मौत नहीं होती। बंकर से बाहर किसी काम के लिए बाहर गये नवीन की गोलियाँ लगने से मौत हो गयी। मौत से पहले उसने परिजनों से बात की थी; लेकिन उसके बाद विदेश मंत्रालय की ओर से मौत की सूचना ही मिली।

छतरपुर के हरजोत सिंह को तीन गोलियाँ लगीं, उन्हें वहाँ अस्पताल में ही होश आया। रोज़ दो बार घर फोन करने वाले हरजोत के दो दिन तक फोन न आने से परिजनों को अनहोनी की आशंका हो चली थी। सूचना मिलने के बाद वही साबित हुआ। परिजनों को सन्तोष है कि आख़िर हरजोत सलामत है। हर देश की सरकार का अपने नागरिकों को बचाने का दायित्व होता है। युद्ध या अन्य किसी प्राकृतिक आपदा में सरकारें ऐसा करती रही हैं; लेकिन यूक्रेन में फँसे छात्र-छात्राओं को भारत सरकार ने जिस सूझ-बूझ से युद्ध के बीच में निकाला, उसकी प्रशंसा पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी हुई है। भारतीय तिरंगे की शान विश्व के लोगों ने देखी। जिस तरह से बसों के आगे लगे तिरंगा ध्वज जैसे सुरक्षा की पूरी गारंटी है। ऐसा हुआ भी, पाकिस्तान और बांग्लादेश के युवा भी इसी तिरंगे से अपने घरों को सुरक्षित पहुँच सके।

 

साहिल और सुंडू की दास्ताँ

हरियाणा और पंजाब के दो हज़ार से ज़्यादा युवा यूक्रेन में मेडिकल शिक्षा हासिल कर रहे थे। इनमें से ज़्यादातर घर पहुँच चुके हैं। इनमें रोहतक (हरियाणा) के एक युवा साहिल भी हैं, जिन्होंने न केवल राज्य का, बल्कि देश का नाम ऊँचा किया। साहिल यूक्रेन में किसी की मदद के लिए रुक गया, जबकि उसने अपने कुत्ते (सुंडू) को अपने दोस्त के साथ भारत भिजवा दिया। परिजन चाहते थे कि साहिल भी अन्य छात्र-छात्राओं के दल के साथ ही घर आ जाए; लेकिन जब उसने रुकने का उद्देश्य बताया, तो उन्होंने भी सहमति दे दी। सुंडू अब साहिल के रोहतक स्थित आवास पर है। उसका पूरा ध्यान रखा जा रहा है। सुंडू अब तक तीन-चार देशों की यात्रा कर चुका है। यह उनके परिवार का सदस्य जैसा बन गया है। उनके पिता ने बताया बेटे से बात हो चुकी है, वह बिल्कुल ठीक है और जल्द ही घर आ जाएगा। साहिल की पढ़ाई लगभग पूरी हो चुकी है। कुछ समय बाद उसकी इंटर्नशिप शुरू होने वाली थी; लेकिन युद्ध ने उस जैसे हज़ारों युवाओं के भविष्य पर सवालिया निशान लगा दिया है। अब आगे इंटर्नशिप का क्या होगा? इसे लेकर परिजन चिन्ता में हैं। भारत सरकार ने इसके लिए योजना तैयार की है। जिनकी पढ़ाई अभी अधूरी है, उनके बारे में भी कुछ करने की ज़रूरत है। इस दिशा में भी कुछ सोचने की ज़रूरत है, क्योंकि यह संख्या भी हज़ारों में है।

एनएसई का असली खिलाड़ी कौन?

जब कोई घोटाला करके उस घोटाले की रोचक कहानी बनाकर हमारे तंत्र को गुमराह करता है, तब आम जनता के लिए रहस्य और शक दोनों गहरे हो जाते हैं। ऐसे रहस्य अनेक रहस्यों को जन्म देते हैं और परत-दर-परत खुलते हैं। जैसा कि नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) की पूर्व सीईओ व पूर्व एमडी चित्रा रामकृष्ण की सीबीआई द्वारा गिरफ़्तारी के बाद रहस्यों की परतें खुल रही हैं। चौंकाने वाली बात यह रही कि चित्रा रामकृष्ण एक गुमनाम योगी से एक्सचेंज की गोपनीय जानकारियाँ साझा करती रही हैं। लेकिन 11 फरवरी को भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) की रिपोर्ट में कहा गया कि एनएसई में पायी गयी वित्तीय अनियमितताओं की जाँच के बाद शेयर बाज़ार की पूर्व मुख्य अधिकारी चित्रा रामकृष्ण ही घोटाले में लिप्त पायी गयी थीं। उसके बाद से उनके बयानों में ही तमाम ख़ुलासे से हुए हैं। इन्हीं तमाम पहलुओं पर एनएसई से जुड़े जानकारों ने ‘तहलका’ संवाददाता को बताया कि बिना सियासी खेल के इतना बड़ा खेल नहीं हो सकता। गुमनामी बाबा (अदृश्य योगी) का नाम गुमराह करने के लिए है। अगर गहराई से जाँच हो, तो इसमें सियासी लोगों के नाम सामने आ सकते हैं।

एनएसई से जुड़े कुमार राजेश ने बताया कि जिस प्रकार सेबी को चित्रा रामकृष्ण ने बताया कि योगी हिमायल पर रहता है। न ही उसका आकार है। न ही शरीर है। न कभी वह बात करता है और न कभी शोर करता है। जब वह चाहे चित्रा के सामने आसानी से उपस्थित होने की क्षमता रखता है। और तो और, चित्रा ने योगी की सलाह पर ही सीओओ पद पर आनंद सुब्रमण्यम को नियुक्त किया था। इस तरह 15 लाख सलाना वेतन पाने वाला आनंद पाँच करोड़ पाने लगा। कुमार राजेश का कहना है कि एनएसई में इतना बड़ा खेल चलता रहा और किसी को कानोंकान ख़बर ही न लगी हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। क्योंकि देश के कुल बजट से लगभग आठ गुना अधिक धनराशि वाले एनएसई में करोड़ों लोगों की पूँजी जुड़ी होती है।

बताते चलें कि बातों को तब तक गोपनीय रखा जाता है, जब तक घटना न घट जाए। घटना घट जाने पर फिर वही लीपा-पोती होती है। क्योंकि घटनाओं के माध्यम से घपलों को अंजाम दिया जाता है। ऐसा ही चित्रा ने किया है। 6 मार्च को चित्रा को गिरफ़्तार करने के बाद सीबीआई उनसे पूछताछ कर रही है। लेकिन सीबीआई को भी चित्रा लगातार गुमराह कर रही है। इसके पहले सीबीआई ने इसी मामले में 24 फरवरी को एनएसई के पूर्व ग्रुप ऑपरेटिंग ऑफिसर आनंद सुब्रमण्यम को गिरफ़्तार किया था। चित्रा ने आनंद को कथित योगी के कहने पर नियुक्ति की थी। इस सारे खेल के पीछे जो भी बड़े-बड़े मगरमच्छ हैं, फ़िलहाल उनका नाम जब तक सामने नहीं आ जाता, तब तक एनएसई की साख संदिग्ध बनी रहेगी। केवल चित्रा की गिरफ़्तारी के कोई मायने नहीं निकलते। क्योंकि यह घोटाला सालोंसाल से चलता आ रहा था। शेयर बाज़ार से जुड़े और आर्थिक मामलों के जानकार डॉ. संदीप कुमार ने बताया कि मई, 2018 से दर्ज इस मामले की सीबीआई जाँच कर रही है। मगर उसने सक्रियता तब दिखायी, जब सेबी ने चित्रा रामकृष्ण सहित इस मामले में जुड़े अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की।

संदीप का कहना है कि जब 1990 के दशक में हर्षत मेहता ने शेयर बाज़ार में बड़ा घोटाला किया था, तब देश में घोटाला को लेकर बड़ा हो-हल्ला मचा था। शेयर बाज़ार, जिसमें जनता का पैसा लगा हो, उसमें किसी प्रकार के कोई घोटाले न हो सके इसी के लिए एनएसई जैसी संस्था की स्थापना की गयी थी। इसका मुख्य उद्देश्य यही था कि पूँजी बाज़ार से जुड़े लोगों के हित सुरक्षित रहें और लोगों का भरोसा बना रहे। लेकिन 32 साल भी उसी तरह के घोटाले सामने आ रहे हैं। संदीप ने बताया कि एनएसई द्वारा प्रदान की जाने वाली को-लोकेशन सुविधा में ब्रोकर अपने सर्वर को स्टॉक एक्सचेंज परिसर के भीतर रख सकते हैं, जिससे उनकी बाज़ारों तक तेज़ी से पहुँच हो सके। इसी तरह की सुविधा का फ़ायदा उठाकर चित्रा रामकृष्ण के परिचितों ने जमकर लाभ कमाया है। इसी तरह के कथित आरोप चित्रा रामकृष्ण पर लग भी रहे हैं। 2014-15 के दौरान सेबी को एक शिकायत पर पता चला कि एनएसई के कुछ अधिकारियों की आपसी साँठ-गाँठ से शेयर बाज़ार के दलाल जमकर नियमों की धज्जियाँ उड़ाकर अनुचित लाभ उठा रहे हैं। इसके बाद ही जाँच हुई और दिसंबर, 2016 में चित्रा रामकृष्ण को एनएसई से हटना पड़ा। जाँच के बाद सेबी ने एनएसई पर 687 करोड़ का ज़ुर्माना भी लगाया था।

आर्थिक मामलों के जानकार डॉ. हरीश खन्ना का कहना है कि देश में घोटाले आये दिन सामने आते रहते हैं। कार्रवाई के नाम पर गिरफ़्तारी और पूछताछ होती है। कुछ दिनों तक मामला मीडिया में सुर्खियों में रहता है, फिर अचानक दब जाता है। इसी तरह घोटालेबाज़ अपने काम को अंजाम देते रहते हैं। जब तक इस तरह के घोटालों में संलिप्त लोगों से बड़ी वसूली नहीं की जाएगी, तब तक इस तरह के घोटाले होते रहेंगे। बड़े-बड़े घोटालेबाज़ सरकारी पैसा लूटकर रातों-रात देश छोडक़र भाग गये। जिस तरह सीबीआई की पूछताछ की जानकारी तो यह भी कहती है कि चित्रा रामकृष्ण और आनंद सुब्रमण्यम दोनों एक-दूसरे से पहचानने से इन्कार कर रहे हैं। जबकि दोनों ने कभी एक-दूसरे को 2,500 से अधिक ई-मेल किये हैं। चित्रा ने ही आनंद की तरक़्क़ी की। अब चित्रा सीबीआई से कह रही हैं कि उन्होंने तो घोटाले रुकवाने के प्रयास किये। असल में मुख्य आरोपी अभी सामने नहीं है।

एनएसई से जुड़े दस्तावेज़ और सॉफ्टवेयर से साफ होता है कि कोई तीसरा आदमी पर्दे के पीछे सारा खेल खेलता रहा। जब तक अदृश्य बाबा का पता नहीं लगता, तब तक असली खेल का पता नहीं चल सकता। लेकिन हमारा तंत्र ही ऐसा है कि सब कुछ इशारों पर होता है। सर्वविदित है कि एनएसई में करोड़ों लोगों की क़िस्मत सँवरती और बिगड़ती है। फिर भी करोड़ों लोगों से जुड़ी संस्था एनएसई में घोटाले होते रहे हैं। हैरानी है कि सरकार इससे अनजान रही है। क्या ऐसा सम्भव है?

मौज़ूदा दौर में देश की सियासतदानों का और आर्थिक मामलों से जुड़ी गतिविधियों का ऐसा गठजोड़ है कि कुछ भी हो जाता है। सियासतदान तो आसानी से अदृश्य बाबा के रूप में ग़ायब हो जाते हैं। फँस वे जाते हैं, जो सरकारी तंत्र के हिस्से के रूप में उनकी साज़िश का मोहरा होते हैं। क्योंकि हर काम में उनके हस्ताक्षर होते हैं। ऐसे में जाँच एजेंसियाँ ही ईमानदारी से जाँच करके असली दोषियों को पकडऩे के लिए दिन-रात एक करती हैं।

एनएसई की पूर्व सीईओ चित्रा रामकृष्ण के कार्यकाल में जिस तरह की वित्तीय हेरा-फेरी हुई है, उसमें गिरफ़्तारी और ज़ूर्माना ही काफ़ी नहीं है, बल्कि असली आरोपी को बेनक़ाब करके उसके ख़िलाफ़ भी कार्रवाई करने की ज़रूरत है।