आशा-निराशा वाला बजट

वित्त वर्ष 2022-23 के बजट को लेकर लोगों की मिलीजुली प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं। कुछ लोग सरकार के 25 साल बाद के प्रयास सराहनीय बता रहे हैं और इस बजट को अर्थ-व्यवस्था को मज़बूती प्रदान करने वाला मान रहे हैं। लेकिन रोज़गारपरक न होने से आम जनता के लिए यह बजट काफ़ी निराशाजनक है। बजट पर व्यापारियों, किसानों, युवाओं और गृहणियों ने ‘तहलका’ संवाददाता को अपने मन की बात बतायी। इनका कहना है कि बजट में लाखों-करोड़ों के आँकड़े पेश किये जाते हैं। कहा जाता है कि फलाँ-फलाँ क्षेत्र के लिए इतना / उतना धन दिया जा रहा है; लेकिन धरातल पर कुछ दिखता नहीं है। सिर्फ़ और सिर्फ़ आँकड़ों में ही बजट दिखता है।

दिल्ली के चाँदनी चौक के व्यापारी अमन सेठ का कहना है कि कोरोना-काल चल रहा है। कोरोना के चलते अर्थ-व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गयी है। इस बजट में उसे पटरी पर लाने का प्रयास किया गया है। लेकिन जीएसटी जैसे क़ानून जो थोपे गये हैं, उससे व्यापारियों के धन्धे पर काफ़ी असर पड़ा है। मंदी की मार एक ऐसी हक़ीक़त है, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। सरकार बजट को लेकर जितनी चाहे तारीफ़ कर ले और विपक्ष चाहे कितना भी विरोध कर ले; लेकिन इससे कुछ भी असर व्यापारियों पर नहीं पड़ता। व्यापारियों पर असर पड़ता है, तो जीएसटी जैसे क़ानून से। अमन सेठ का कहना है कि कोरोना-काल में व्यापारियों की माली हालत काफ़ी ख़राब हुई है। इस दौरान सरकार का दायित्व बनता है कि वह व्यापारियों को कुछ राहत देती। अगर ऐसा होता, तो बाज़ार हरा-भरा होता। लेकिन व्यापारियों के लिए इस बजट में कोई राहत नहीं दी गयी।

किसान नेता चौधरी बीरेन्द्र सिंह का कहना है कि जब 2021-22 का बजट पेश किया गया था, तब किसान कृषि क़ानून के विरोध में आन्दोलन कर रहे थे। इस बार जब 2022-23 का बजट पेश किया, तो किसानों को जो उम्मीद थी, वो नहीं मिला। क्योंकि इस बार सरकार द्वारा किसानों की माँगें माने जाने के बाद आन्दोलन स्थगित करके घरों-खेतों में थे। हालाँकि किसानों की माँगें अभी पूरी नहीं की गयी हैं। बजट में किसानों को जो सुविधाएँ देने की बात की गयी है, उससे ग़रीब किसानों को कोई लाभ मिलने वाला नहीं है। क्योंकि एक ओर तो महँगाई है और उस पर डीजल-पेट्रोल के दामों में इज़ाफ़ा। ऐसे में डीजल ख़रीदने के दौरान छोटे किसान को काफ़ी आर्थिक संकट का सामना करना पड़ता है। सरकार को छोटे और मँझोले किसानों के लिए अलग से कोई ऐसा बजट पेश करना चाहिए था, जिससे उन्हें विशेष लाभ मिलता। लेकिन बजट में ऐसा कुछ ख़ास नहीं हुआ है।

उनका कहना है कि भले यह बताया और पढ़ाया जाता है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है; लेकिन हक़ीक़त में यह देश पूँजीपतियों के हाथ की कठपुतली बनता जा रहा है। इस बार बजट पेश किया गया है, वो पूरी तरह पूँजीपतियों को ध्यान में रखकर पेश किया गया है।

इंजीनियरिंग का कोर्स करने वाले मुकेश पचौरी का कहना है कि इस बार का बजट पूरी तरह से पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव को देखकर पेश किया गया है कि चुनाव में बजट से क्या-क्या सियासी लाभ मिल सकता है। मुकेश का कहना है कि कोई भी बजट हो, उसका तात्कालिक लाभ तो जनमानस को मिलता नहीं है। लेकिन लोग अनुमान ज़रूर लगने लगते हैं कि सरकार की मंशा क्या है? वह क्या चाहती है? इस बजट से यह बात तो साफ़ है कि सरकार बजट में दूरगामी लक्ष्यों पर निशाना साधा है, जिसका जनता को कोई सीधा लाभ फ़िलहाल मिलने वाला नहीं है। इस बजट में बेरोज़गारों के लिए नौकरियों में नयी भर्ती की जो रूप ख़ाका बनाया गया है, उससे कब लाभ मिलता है? यह भी आने वाला समय ही बताएगा।

दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के प्रोफेसर डॉक्टर हरीश कुमार का कहना है कि बजट में जिस प्रकार शिक्षा को डिजिटल बनाने के लिए प्रधानमंत्री ई-विद्या योजना से टीवी के माध्यम से बच्चों को पढ़ाई की सुविधा उपलब्ध होगी। इस लिहाज़ से तो बजट अच्छा है।

कम्प्यूटर की दुकान चलाने वाले राजदीप का कहना है कि जिस प्रकार से पढ़ाई से लेकर लेन-देन में डिजिटलाइजेशन किया जा रहा है, उससे तकनीकी क्षेत्र को काफ़ी लाभ मिलेगा। इस बजट का मूल आधार ही स्वदेशी अर्थ-व्यवस्था को गति देना है। व्यापार, निर्माण, रक्षा उपकरण एवं आयुध, सहकारिता, जल संरक्षण, कृषि, सडक़, रेल आदि के विस्तार के लिए काफ़ी धन दिया गया है। राजदीप ने बताया कि जब बजट पेश किया जा रहा था, उसी दौरान से कम्प्यूटर और तकनीकी क्षेत्र से जुड़े व्यापार में काफ़ी उछाल देखा गया था। यानी सरकार का आने वाले दिनों में हर क्षेत्र में डिजिटलाइजेशन पर ज़ोर होगा।

बुन्देलखण्ड के निवासी पदम सिंह का कहना है कि जिस प्रकार से बजट को आत्मनिर्भरता की ओर बताया गया है। लेकिन मनरेगा में कटौती करके मज़दूरों और ग़रीबों के बीच निराशा पनपी है। उनका कहना कि जो बजट में बताया जा रहा कि आने वाले दिनों में बजट का लाभ मिलेगा, उससे ज़रूर आशा है। लेकिन यह कम है। इतना ज़रूर है कि प्रधानमंत्री आवास योजना, केन-बेतवा नदी जोड़ो अभियान जैसे प्रवाधान बजट में किये गये हैं। इससे बुन्देलखण्डवासियों को ज़रूर लाभ मिलेगा। शिक्षा और स्वास्थ्य हर किसी के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है।

कोरोना विरोधी अभियान से जुड़े डॉक्टर एम.सी. शर्मा का कहना है कि बजट लोक-लुभावन नहीं है। लेकिन इतना ज़रूर है कि बजट में मानसिक सेहत को प्राथमिकता दी गयी है। उनका कहना है कि किसी भी देश का विकास उसके स्वास्थ्य और शिक्षा पर टिका होता है। ऐसे में सरकार को शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए अतिरिक्त बजट का प्रावधान करना था। जैसे कोरोना जैसी महामारी से निपटा जाए। साथ ही कोरोना के चलते जो अन्य बीमारियों का उपचार नहीं हो सका है, उनके रोगियों को बेहतर इलाज मिल सके; इस ओर ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है।

गृहणी सरिता सुमन का कहना है कि बजट संतुलित है या असंतुलित है; ये बातें तो बहस के लिए अच्छी लगती हैं। लेकिन गृहणियों को घर-परिवार चलाना पड़ता है। ऐसे में उन्हें सही मायने में आटे-दाल का भाव मालूम होता है। किस प्रकार एक महीने का ख़र्चा बमुश्किल चलाया जाता है, यह हमसे पूछो। सरिता सुमन का कहना है कि सर्दी का मौसम सब्ज़ियों के लिए जाना जाता है; लेकिन इस बार सब्ज़ियों के दाम आसमान पर हैं। सब्ज़ियों में इज़ाफ़े की मूल वजह डीजल-पेट्रोल के महँगे होने से किराया-भाड़ा बढऩा है। वहीं गैस के दाम भी आये दिन बढ़ रहे हैं। ऐसे में ग़रीब और मध्यम परिवारों को ख़र्चा चलाना मुश्किल हो गया है।

आर्थिक मामलों के जानकार दीपक सिंघल का कहना है कि बजट तो प्रक्रिया यानी एक परम्परा है। सरकार सालाना अपना लेखा-जोखा पेश करती है कि फलाँ-फलाँ क्षेत्र में इतना बजट दिया जा रहा है। इस बजट से पता चलता है कि किस क्षेत्र को कितनी राहत दी गयी है? इस बजट की सच्चाई जो भी हो। लेकिन बजट से हटकर सरकार ने जनता के लिए क्या किया है? असल में तो बजट में क्या होना चाहिए? इस बात पर ज़ोर देने की ज़रूरत है। अन्यथा बजट पर कुछ दिनों तक बहस करते रहो, कुछ हासिल नहीं होने वाला है। मौज़ूदा दौर में सरकार को चाहिए कि गाँवों से पलायन रुके। गाँव वालों को गाँव में ही रोज़गार मिले। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। कहने को तो गाँवों में मनरेगा जैसी योजनाएँ हैं; लेकिन उसमें युवाओं को रोज़गार कम मिल रहा है, दलाली ज़्यादा हो रही है। इस पर सरकार को ठोस क़दम उठाने होंगे।

दीपक सिंघल का कहना है कि कोरोना-काल में जब अफ़रा-तफ़री का माहौल था, उस दौरान शहरों से लोगों ने अपने घरों के लिए गाँवों की ओर जो पलायन किया था, वो लोग अभी तक शहरों में नहीं आये हैं। न ही उनको गाँव में रोज़गार मिला है। वे लोग गाँवों में बेरोज़गार बैठे हैं। ऐसे में सरकार को इस दिशा में काम करना चाहिए कि उन लोगों को कैसे रोज़गार मिले? गाँव में मनरेगा की तरह शहर के युवाओं को भी रोज़गार की गारंटी मिले, तब जाकर कोई बजट देश का असली और अच्छा बजट माना जाएगा। इस बजट में मध्यम वर्ग भी निराश हुआ है। क्योंकि आयकर दरों में कोई छूट नहीं दी गयी है। दीपक सिंघल का कहना है कि यह बजट आत्मनिर्भरता की ओर है। क्योंकि सरकार ने किसानों, सूचना तकनीक एवं रक्षा के क्षेत्र में सराहनीय कार्य किये हैं। सरकार का लक्ष्य कृषि साख बढ़ाने वाला है, जिससे कृषि के क्षेत्र में बढ़ावा मिल सकता है।

बजट को लेकर अधिकतर लोगों का कहना है कि कोरोना के चलते बड़े लोगों की नौकरी जा चुकी है, तो ज़्यादातर लोगों की आमदनी कम हुई है। कोरोना की पहली लहर ने शहरों में, तो दूसरी लहर ने शहरों-गाँवों में बड़ी तबाही मचायी है। इससे छोटे-बड़े व्यापारियों के साथ-साथ किसानों-मज़दूरों और निजी क्षेत्रों में नौकरीपेशा लोगों ने बड़ी मार सहन की है। ऐसे में बजट में कोरोना की मार से पीडि़त को कोई ख़ास राहत नहीं दी गयी है। इससे बड़ी संख्या में निराशा पनपी है। ऐसे में इस समय इस निराशा को समाप्त करने की ज़रूरत थी। लोगों को अभी ज़रूरत है कि कम-से-कम उनका घर ठीक से चल सके। ज़रूरतमंद आदमी 25 साल बाद के सपने को पालकर कैसे बैठ सकता है? 25 साल में तो पीढिय़ाँ बदल जाती हैं।