Home Blog Page 1507

फीकी पड़ती मनमोहनी चमक

जब 2004 में सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री का पद ठुकराकर पूर्व में वित्तमंत्री रहे मनमोहन सिंह को इस पद पर बैठाया था तो पूरे पंजाब में खुशियों की लहर दौड़ गई थी. लोगों को इस बात का बड़ा गर्व हुआ था कि उनके यहां का कोई नेता देश का प्रधानमंत्री बना है. देश के अन्य हिस्से में रहने वाले सिखों को भी मनमोहन का देश के सबसे बड़े राजनीतिक पद तक पहुंचना बहुत अच्छा लगा था. यही वजह थी कि बिहार के गया में रहने वाले सिखों की पगड़ी का रंग अचानक आसमानी हो गया था. इसी रंग की पगड़ी मनमोहन सिंह भी पहनते हैं. पंजाब में मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने का असर 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन के तौर पर भी दिखा. कांग्रेस ने प्रदेश की 13 लोकसभा सीटों में से आठ पर जीत दर्ज की थी. तब कांग्रेस यह कहते हुए पंजाब में वोट मांग रही थी कि एक पंजाबी को दोबारा प्रधानमंत्री पद पर देखना है तो कांग्रेस के पक्ष में मतदान करो. उस चुनाव के नतीजे यह साबित करते हैं कि पंजाब के लोगों ने कांग्रेस की इस अपील को माना और मनमोहन सिंह को दोबारा प्रधानमंत्री बनाने के मकसद से कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया.

लेकिन पिछले ढाई साल के दौरान पंजाब में काफी चीजें बदल गई हैं. विधानसभा चुनावों के प्रचार में उन्हीं मनमोहन सिंह की चमक फीकी पड़ती दिखी. कांग्रेस ने पंजाब में उनकी दो चुनावी रैलियां आयोजित करने की घोषणा की थी दो अमृतसर और लुधियाना में होनी थीं. लेकिन सिर्फ अमृतसर की रैली हो पाई और लुधियाना की रैली रद्द करनी पड़ी. पंजाब में मनमोहन सिंह से लोगों का किस कदर मोहभंग हो गया है, इसकी पुष्टि इससे होती है कि अमृतसर की रैली के लिए लगाई गई 10,000 कुर्सियों में से तकरीबन 7,000  खाली रहीं. इसके बाद लुधियाना की रैली रद्द कर दी गई.

कांग्रेस आधिकारिक तौर पर रैली रद्द करने के लिए मौसम को जिम्मेदार ठहरा रही है, लेकिन इन रैलियों के आयोजन से जुड़े कांग्रेस प्रचार समिति के वरिष्ठ लोग नाम नहीं छापने की शर्त पर बताते हैंैं कि ऐसा किए जाने की असली वजह मनमोहन सिंह की घटी हुई लोकप्रियता है. राज्य में कांग्रेस की सरकारों में मंत्री रहे और प्रचार समिति के एक वरिष्ठ नेता ‘तहलका’ को बताते हैं, ‘पंजाब के लोगों और खास तौर पर सिखों में मनमोहन सिंह का अब वह असर नहीं रहा जो 2009 में था. उस समय सिखों ने मनमोहन के नाम पर कांग्रेस को वोट दिया था. अब मनमोहन सिंह के नाम पर वोट देने की बात तो दूर उन्हें सुनने तक के लिए कोई तैयार नहीं है. यही वजह है कि अमृतसर की रैली में लोगों की संख्या काफी कम रही और लुधियाना की रैली रद्द करनी पड़ी.’

प्रधानमंत्री ने दो नेताओं को टिकट दिलाने के लिए पैरवी की थी, लेकिन इनमें से किसी को भी टिकट नहीं मिला

कांग्रेस की तरफ से लुधियाना की रैली रद्द करने के लिए मौसम को वजह बताने के सवाल पर वे कहते हैं कि अमृतसर और लुधियाना के मौसम में कोई फर्क तो है नहीं इसलिए मौसम के मसले को मनमोहन सिंह की नाकामी को छिपाने के लिए बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है. पंजाब के आम मतदाताओं में मनमोहन सिंह की घटी लोकप्रियता से चुनाव में उतरे उम्मीदवार भी वाकिफ हैं और पंजाब प्रदेश कांग्रेस समिति भी. यही वजह है कि उम्मीदवारों की तरफ से जिन स्टार प्रचारकों की मांग हुई उनमें मनमोहन सिंह का नाम शामिल नहीं था.

इस बात की पुष्टि खुद प्रदेश कांग्रेस समिति कार्यालय के एक पदाधिकारी करते हैं, ‘2009 में हर उम्मीदवार चाहता था कि उसके पक्ष में प्रचार करने एक बार मनमोहन सिंह आ जाएं. लेकिन इस बार के विधानसभा चुनाव में ऐसे उम्मीदवारों की संख्या बेहद कम रही.’ यह पूछे जाने पर कि लुधियाना रैली रद्द होने के बाद फिर से प्रधानमंत्री को पंजाब में जनसभा संबोधित करने के लिए क्योंं बुलाया गया, वे कहते हैं, ‘उम्मीदवारों की तरफ से प्रधानमंत्री की रैली के लिए अनुरोध आ नहीं रहे थे, इसलिए प्रधानमंत्री को किसी और चुनावी रैली के लिए पंजाब नहीं  बुलाया  गया.’ पंजाब में प्रधानमंत्री की घटती लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि राज्य में कांग्रेस के प्रचार के लिए जो पोस्टर-बैनर लगे उनमें सोनिया गांधी, राहुल गांधी, अमरिंदर सिंह तो दिखे लेकिन मनमोहन सिंह ज्यादातर पोस्टरों-बैनरों में गायब दिखे. जबकि 2009 के चुनावों में कांग्रेस के हर पोस्टर-बैनर पर मनमोहन सिंह दिख जाते थे.

अहम सवाल यह है कि आखिर मनमोहन सिंह से पंजाब के लोगों के मोहभंग की वजह क्या है? इस बारे में पूर्व कांग्रेसी मंत्री कहते हैं, ‘पहली बात तो यह कि पंजाब के लोगों को यह लगता है कि पिछले आठ साल से प्रधानमंत्री रहने के बावजूद मनमोहन सिंह ने सूबे के लिए कुछ नहीं किया. जब वे प्रधानमंत्री बने थे तो यहां के लोगों को लगा था कि अब प्रदेश की तसवीर बदलेगी. मनमोहन सिंह से मोहभंग की दूसरी बड़ी वजह यह है कि लोगों के बीच में यह धारणा बन गई है कि वे कहने को तो प्रधानमंत्री हैं लेकिन उनके हाथ में कुछ नहीं है और उन्हें हर फैसला सोनिया गांधी से पूछकर करना पड़ता है.

आठ साल में मनमोहन सिंह की अपनी एक अलग छवि नहीं बन पाने से यहां के लोगों पर उनका असर खत्म हुआ है. तीसरी वजह यह है कि पंजाब का समाज वैसे लोगों को पसंद करता आया है जो मजबूती से अपनी बात रखने के लिए जाने जाते हैं और हर मोर्चे पर मजबूत दिखते हैं. मनमोहन सिंह इस मामले में भी सफल नहीं दिखते.’ विपक्षी दल मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधानमंत्री कहकर राष्ट्रीय राजनीति में उन पर निशाना साधते हैं और विधानसभा चुनाव में  यही खेल पंजाब में चला. प्रधानमंत्री की रैली के एक दिन बाद ही भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेतली ने पंजाब में एक चुनावी रैली में कहा, ‘मनमोहन सिंह एक कमजोर प्रधानमंत्री हैं और इसी वजह से कांग्रेस भी कमजोर है. निर्णय प्रक्रिया में कांग्रेस और सहयोगी दलों ने बार-बार हस्तक्षेप करके प्रधानमंत्री पद की गरिमा को कम किया है.’ जेतली के बयान से साफ है कि मनमोहन को लेकर पंजाब के लोगों में जो धारणा बनी है उसे हवा देने का काम विपक्ष ने भी जमकर किया.

हालांकि, जब मनमोहन सिंह चुनावी रैली संबोधित करने अमृतसर पहुंचे तो उन्होंने यहां के लोगों का मन मोहने की पूरी कोशिश की. उन्होंने इस शहर में गुजारे दिनों को याद किया और स्थानीय लोगों को यह संदेश देने के लिए कि वे उनके बीच के ही हैं, अपना भाषण पंजाबी में दिया. उन्होंने केंद्र सरकार द्वारा पंजाब के लिए किए गए कार्यों को गिनाया. उन्होंने बताया कि वे चाहते थे कि अमृतसर में केंद्रीय विश्वविद्यालय बने लेकिन राज्य सरकार ने जमीन नहीं दी. प्रधानमंत्री ने कहा कि उन्होंने पंजाब के लिए कई योजनाओं को लागू कराने की कोशिश की लेकिन राज्य सरकार ने सहयोग नहीं किया. इसके बावजूद प्रदेश की राजनीति को जानने वाले लोग और खुद कांग्रेस के अंदर के लोग यह मानने को तैयार नहीं हैं कि प्रधानमंत्री की इन बातों ने 30 जनवरी को हुए चुनाव में मतदाताओं के मत डालने के निर्णय पर कोई असर डाला होगा.

कांग्रेस के लोग ही बताते हैं कि प्रधानमंत्री ने सुरिंदर सिंगला और राजबीर चौधरी को टिकट दिलाने के लिए पैरवी की थी लेकिन इनमें से किसी को भी टिकट नहीं मिला. सिंगला जालंधर कैंट या जालंधर सेंट्रल और चौधरी सुजानपुर से टिकट मांग रहे थे. प्रधानमंत्री की पैरवी के बावजूद टिकट नहीं दिए जाने पर जब अमरिंदर सिंह से सवाल पूछा गया तो उन्होंने न तो प्रधानमंत्री की पैरवी की पुष्टि की और न ही इसे खारिज किया. एक तरफ तो मनमोहन सिंह के कहने पर दो टिकट भी नहीं दिए गए वहीं राहुल गांधी की सिफारिश पर राज्य में छह उम्मीदवारों को टिकट मिला. इससे यह संकेत भी मिलता है कि मनमोहन सिंह ने न सिर्फ पंजाब के लोगों के बीच अपनी लोकप्रियता गंवाई है बल्कि प्रदेश के नेताओं के बीच भी उनका असर कम हुआ है.

‘बेहोश आदमी की देखभाल होश में रहकर करें’

आदमी अचानक ही बेहोश हो जाए तो उसके अासपास एक किस्म की अफरातफरी-सी मच जाती है. बेहोश आदमी के आसपास यदि दो आदमी भी मौजूद हों तो वे दो लोग ही मिलकर अनियंत्रित भीड़ बन जाते हैं.  ऐसे अवसर पर लोग कुछ भी करने लगते हैं – बेहोश आदमी को थपड़िया कर पूछने लग सकते हैं कि तुम कैसे हो. बेहोश आदमी को पानी पिलाने के प्रयास में उसके मुंह में पूरा ग्लास या लोटा भर पानी उंडेलकर उसकी सांस की नली को ‘चोक’ कर सकते हैं, उसे जूता सुंघा सकते हैं, उसका दिल न भी बंद हुआ हो तब भी उसकी छाती पर चढ़कर ऐसी जबरिया मालिश भी कर सकते हैं कि बेहाशी टूटने पर वह पाए कि महीनों तक टूटी पसलियां दर्द कर रही हैं और वह आगे कभी ‘बेहोश होने की हिम्मत’ भी न करे. और इसमें हमारी भी गलती नहीं. क्या करें? प्रायः हमें पता ही नहीं होता कि ऐसी स्थिति में क्या करें और क्या न करें. इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर मैं कुछ ऐसी छाेटी-छोटी बातें आपको बताने की कोशिश करूंगा जिनसे हम बेहोश आदमी को प्राथमिक सहायता पहुंचाकर फिर डॉक्टर के पास ले जा सकते हैं.

माना आपके जूते की गंध रासायनिक हथियारों से भी मारक है लेकित बेहोश आदमी को जूता सुंघाना कोई उपचार नहीं है 

तो पहली बात तो यही कि आप स्वयं न घबराएं. बेहोश आदमी के चारों तरफ तमाशबीनों की भीड़ न होने दें. उसे हवा आने दें. कोई एक या दो व्यक्ति ही बेहोश आदमी को हैंडल करें.फिर सबसे पहले तो यह देखें कि उसकी श्वास चल रही है कि नहीं. यदि श्वास ही नहीं चल रही है तब सर्वप्रथम हमें अपने मुंह द्वारा उसके मुंह में कृत्रिम श्वास देनी होगी. कैसे दें? वास्तव में इसका उत्तर अपने आप में एक पूरा लेख मंगाता है. इसकी बाकायदा ट्रेनिंग भी दी जाती है. मैं आगे कभी एक पूरा लेख इस पर आपके लिये लिखूंगा. अभी हम मानकर चल रहे हैं कि मरीज बेहोश भी हुआ है पर उसकी श्वास चल रही है. अभी इस बात का डर है कि बेहोश व्यक्ति थूक कर, खांस कर अपनी श्वास की नली साफ नहीं कर सकता है. डर है कि श्वास की नली कहीं थूक, गले में एकत्रित लार, बेहोश होते समय गिरकर चोट खाने से टूट गए दांत, चोट लगने से कट गई जीभ से निकल रहे खून, या नकली दांतों के सेट के खिसककर गले में फंस जाने से बंद तो नहीं हो रही? आप उसके कपड़े ढीले कर दें, टाई-वाई निकाल दें या ढीली कर दें और गर्दन को एक तरफ करके उंगली में रुमाल लपेटकर उंगली द्वारा मुंह साफ कर दें. रक्त बह रहा हो तो तुरंत मुंह साफ कर दें. नकली दांत लगे हों तो उन्हें निकाल दें. बस, किसी भी तरह उसकी श्वास ‘चोक’ न होने पाए, हमें यह देखना है.

यदि आदमी गिरकर न केवल बेहोश हुआ है बल्कि उसे झटके भी आ रहे हों (जिन्हें हम मिर्गी का दौरा कहते हैं) तो? झटके रोकने का जबरिया प्रयत्न न किया जाए. पकड़-धकड़ करके, आदमी को दबोचकर हम झटके नहीं रोक सकते. बस ये करें कि ‘झटका खा रहे’ बेहोश व्यक्ति के आसपास से ऐसी सभी चीजें हटा दें जिनसे टकराकर उसे चोट लग सकती हो. जूता सुंघाने न बैठ जाएं. माना कि आपका जूता ऐसा गंधाता होगा कि अच्छे-अच्छों की बेहोशी तोड़ दे परंतु यह टोटका यहां न आजमाएं.  मिर्गी के दौरे आम तौर पर एक निश्चित समय बाद निकल ही जाते हैं. मिर्गी की बेहोशी के बारे में एक बात और, मिर्गी के दौरान ‘दत्ती’ बंध जाती है अर्थात बेहोश आदमी जोर से दांत भींचे रहता है. कृपया ऐसे में दांतों को जबरन खोलने, मुंह खोलकर उसमें चम्मच आदि घुसेड़ने की कोशिश बिलकुल भी न करें. इसका कोई भी फायदा नहीं है. आप इस अनावश्यक कोशिश में उसके दांत अवश्य तोड़ सकते हैं, या मुंह में चोट तो पहुंचा ही देंगे.

बेहोश आदमी की नाड़ी भी जरूर देख लें. न आती हो तो सीख लें यह कोई कर्ण पिशाचनी मंत्र  नहीं है जिसे सिद्ध करना पड़ता हो. आसानी से इसे सीखा जा सकता है. बेहोश आदमी की यदि नाड़ी नहीं मिलती है तो मान लें कि यह आदमी हार्ट (दिल) बंद होने के कारण ही बेहोश हुआ है. ऐसे आदमी में तुरंत दिल वापस शुरू नहीं हुआ तो वह मिनटों में मर जाएगा. यह इमरजेंसी की स्थिति है. ऐसेे आदमी को तुरंत ‘दिल की मालिश’ (कार्डियक मसाज) की आवश्यकता होती है. यह कैसे करें? यह भी वास्तव में एक अलग ही लेख का विषय है. वह भी अगले किसी लेख में विस्तार से बताया जाएगा. अभी इतना जान लें कि इसके लिए आपको उसकी छाती को, बीचोबीच हथेली द्वारा तेज तेज दबाकर दिल को हर मिनट 60-70 बार दबाना पड़ता है. न आता हो तो न करें नाड़ी न मिलने की स्थिति में तुरंत पास के किसी डॉक्टर तक पहुंचा तो दें.

बेहोश व्यक्ति काे कभी भी खिलाने-पिलाने की कोशिश न करें. उसे तो होश नहीं है. खिलाई-पिलाई चीज उसके पेट की जगह फेफड़े में जाकर जानलेवा साबित हो सकती है. यहां एक प्रश्न उठ सकता है कि डायबिटीज के केस में क्या हो. डायबिटीज (मधुमेह) का मरीज बेहोश हो तो यह अचानक रक्त में ग्लूकोज का स्तर कम हो जाने के कारण हो सकता है. डायबिटीज का मरीज यदि बेहोश हो रहा हो अभी पूरा बेहोश न होकर बस गफलत में ही हो तो उसे कुछ मीठा खिलाने-पिलाने की कोशिश जरूर की जा सकती है. उसमें भी यदि ऐसा कुछ करने से ठसका लगे तो यह कोशिश तुरंत बंद कर दें. पूरा बेहोश हो तब तो कोशिश करें ही न.
तो कुल शिक्षा यह कि अगली बार किसी बेहोश आदमी को देखें तो अपना होश न खोेएं.   

शोर के बीच संसदीय चैनल

ऐसे समय में जब निजी चैनलों की चमक-दमक, भीड़-भाड़ और शोर-शराबे के बीच सार्वजनिक प्रसारण की भूमिका, प्रासंगिकता और जरूरत बढ़ती जा रही है, हमारे सार्वजनिक प्रसारक- दूरदर्शन और आकाशवाणी अपने ही कारणों से लोगों की पसंद और कल्पनाओं से बाहर होते जा रहे हैं. इनमें सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि वे सार्वजनिक प्रसारक कम और ऐसे सरकारी चैनल अधिक लगते हैं जिनकी कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता को नौकरशाही और निठल्लेपन की संस्कृति ने लील लिया है.

 इन दोनों ही चैनलों के सामने संसदीय बहसों और कार्रवाइयों की नियमित, तथ्यपूर्ण और  वस्तुनिष्ठ रिपोर्टिंग की चुनौती होगी  

ऐसे में, सार्वजनिक प्रसारण के क्षेत्र में दो नए संसदीय चैनलों-पहले लोकसभा और अब राज्यसभा चैनल के आगमन ने नई उम्मीद पैदा की है. निश्चय ही, यह एक नया प्रयोग है जिसकी शुरुआत कोई पांच साल पहले लोकसभा चैनल के साथ हुई. इस दौरान लोकसभा चैनल ने कई सीमाओं के बावजूद एक अलग पहचान बनाई है. एक संसदीय चैनल होने के नाते जाहिर है कि लोकसभा चैनल से गंभीर, खुली और बेबाक चर्चाओं की अपेक्षा की जाती है. अच्छी बात यह है कि चैनल निराश नहीं करता. आपको इस पर ऐसी बहुतेरी गंभीर बहसें, चर्चाएं और इंटरव्यू दिख जाएंगे जो आम तौर पर निजी चैनलों और यहां तक कि अपने सार्वजनिक प्रसारक दूरदर्शन पर भी नहीं दिखते. सबसे खास बात यह है कि यहां शोर-शराबा कम और गहराई व गंभीरता ज्यादा होती है. उस पर कई अनछुए विषयों और मुद्दों पर आपको ऐसे विशेषज्ञों से इंटरव्यू और चर्चाएं देखने-सुनने को मिल जाएंगी जो निजी चैनलों पर अपवाद की तरह हैं. इस चैनल पर आपको निजी चैनलों पर चमकने वाले बहुतेरे चेहरे नहीं दिखाई देंगे लेकिन  अच्छी बात है कि इस पर आपको ऐसे बहुत-से चर्चाकार दिख जाएंगे जिनके बाल सफेद हो चुके हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि उन्होंने अपने बाल धूप में सफेद नहीं किए हैं और यह चर्चाओं के स्तर से साबित भी होता है. 

लोकसभा चैनल की सफलता से प्रेरित होकर राज्यसभा चैनल ने भी बीते कुछ महीनों से 24 घंटे के चैनल के रूप में प्रसारण शुरू किया है. हालांकि इसे अभी कुछ ही महीने हुए हैं और यह उसके मूल्यांकन करने का उचित समय नहीं, लेकिन इसने इस मायने में उम्मीदें जगाई हैं कि इसमें एक नयापन है, अछूते विषयों को उठाने की तत्परता है और कई मामलों में यह लोकसभा चैनल से भी आगे जाता दिख रहा है. एक तो राज्यसभा चैनल का दायरा बड़ा है. वह समाचार से लेकर दैनिक चर्चाओं तक में और समसामयिक विषयों से लेकर कला/संगीत/सिनेमा/नृत्य पर कार्यक्रमों तक में झलक रहा है.  दूसरे, राज्यसभा चैनल का इस मौके पर शुरू होना इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि पिछले एक-डेढ़ वर्षों से लोकसभा चैनल में एक थकान और ठहराव सा दिख रहा है. यह अच्छी बात है कि इसमें एक स्थायित्व आया है लेकिन चिंता की बात यह है कि उसमें और बेहतर करने और अपने को नए सिरे से खोजते और गढ़ते रहने की बेचैनी नहीं दिख रही. ऐसे ही कारणों से दूरदर्शन धीरे-धीरे दर्शकों की नजर से उतर गया था. उम्मीद है कि राज्यसभा चैनल के आने के बाद दोनों संसदीय चैनलों और यहां तक कि उनके और दूरदर्शन के बीच भी एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा शुरू होगी. यह जरूरी भी है. आशा है कि ये चैनल वास्तविक अर्थों में सार्वजनिक  प्रसारक की भूमिका निभाएंगे और निजी चैनलों के लिए भी ऊंचे मानदंड बनाएंगे. इस अर्थ में, इन दोनों ही चैनलों के सामने संसदीय बहसों और कार्रवाइयों की नियमित, तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ रिपोर्टिंग की चुनौती होगी. इन दोनों ही चैनलों से सबसे ज्यादा अपेक्षा यह है कि वे देश को सार्वजनिक महत्व के मुद्दों पर संसद के भीतर-बाहर चल रही बहसों और चर्चाओं से रूबरू कराएं, उन चर्चाओं में देश के अंदर मौजूद विभिन्न लोकतांत्रिक अभिव्यक्तियों को जगह दें और संसद व आम लोगों के बीच संवाद के नए सेतु बनाएं. 

इसके  साथ ही उनसे यह भी अपेक्षा  है कि वे सार्वजनिक प्रसारक के बतौर उन मुद्दों पर अधिक ध्यान केंद्रित करें जिन्हें निजी प्रसारक व्यावसायिक कारणों से अनदेखा करते हैं. इस मायने में उन्हें निजी चैनलों के व्यावसायिक एजेंडे से इतर एक सार्वजनिक एजेंडा खड़ा करने और उसे आगे बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए. इसके लिए उन्हें याद रखना होगा कि वे सरकारी नहीं, संसदीय चैनल हैं और जनता की गाढ़ी कमाई के पैसे से चलते हैं. इसलिए जैसे संसद में राजनीति और विचारों के स्तर पर विविधता और बहुलता दिखाई देती है, उससे ज्यादा विविधता और बहुलता इन चैनलों में दिखाई पड़नी चाहिए. 

यह  बात इसलिए कहनी पड़ रही है कि राज्यसभा चैनल में कई बार सरकार और खासकर सत्तारूढ़ पार्टी के प्रति झुकाव दिखता है. यह एक ऐसी फिसलन है जिसके बाद संभलना बहुत मुश्किल हो जाता है. इन चैनलों को निजी चैनलों की नकल के लोभ से भी बचना होगा. ये दोनों ऐसे फंदे हैं जिनमें फंसकर दूरदर्शन और आकाशवाणी खत्म हो गए. दोनों संसदीय चैनलों के कर्ता-धर्ताओं को याद रखना होगा कि वास्तविक स्वतंत्रता और स्वायत्तता के बिना सृजनात्मकता संभव नहीं है.  इस मायने में आने वाले महीने दोनों चैनलों के लिए परीक्षा के होंगे कि वे नई राह बनाते हैं या दूरदर्शन की राह जाते हैं.     

रुश्दी और शैतानी आयतें पढ़कर भागे मुल्ला

जयपुर के ‘लिट फेस्ट’ यानी साहित्य समारोह में न सलमान रुश्दी आ सके और न ही उनका भाषण हो सका. लेकिन इस पूरे समारोह पर जैसे उनकी उपस्थिति छाई रही. पांच दिन के इस आयोजन के पहले से आखिरी दिन तक सबसे बड़ी खबर सलमान रुश्दी बनाते रहे- पहले उनके आने की खबर आई, फिर देवबंद के विरोध की खबर आई, फिर राजस्थान सरकार की हिचक की खबर आई, और अंत में आयोजक रोते हुए नजर आए- इस बात से मायूस कि कट्टरपंथी ताकतों के दबाव में कार्यक्रम में रुश्दी का भाषण तक नहीं हो सका.

अपने विश्वासों के लिए लेखकों का जेल जाना कोई अजूबा नहीं. एशिया की बड़ी आवाज फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने जेल भुगती थीइसका कुछ श्रेय तो उस मीडिया को भी जाता है जिसे इस आयोजन में सबसे जाना-पहचाना नाम सलमान रुश्दी का ही मिला और उसने बाकी कार्यक्रम छोड़कर उनकी मौजूदगी या गैरमौजूदगी को बड़ा मुद्दा बना डाला. लेकिन क्या खुद आयोजकों या इस कार्यक्रम में शामिल दूसरे लेखकों का रवैया भी ऐसा नहीं था कि रुश्दी का सवाल कार्यक्रम का सबसे बड़ा सवाल बन गया? असल में इस विवाद के कई अहम पहलुओं पर चर्चा अभी बाकी भी है और ज़रूरी भी, अगर इस प्रसंग का एक सिरा देश में बढ़ रहे कट्टरपंथ से जुड़ता है, तो दूसरा सिरा अभिव्यक्ति के सवाल पर सरकार के रवैये से. फिर एक तीसरा और छिपा हुआ सिरा भी है जिसका वास्ता जयपुर जैसे समारोहों के पीछे सक्रिय दृष्टि और मानसिकता से है.

सबसे पहली बात तो यही कि भारत जैसे देश में सलमान रुश्दी या किसी अन्य लेखक को आने-जाने और अपने विचार रखने की पूरी छूट होनी चाहिए. रुश्दी को भी यह छूट हासिल है. सैटेनिक वर्सेज़ को लेकर उठे विवाद और उस पर लगी पाबंदी के बाद सलमान रुश्दी कई बार भारत आकर सार्वजनिक कार्यक्रमों में हिस्सा ले चुके हैं. कभी उनके आगमन या भाषणों को लेकर कोई विवाद नहीं हुआ. सलमान रुश्दी ने भी भारत में कभी सैटेनिक वर्सेज के अंश पढ़ने चाहे, इसकी कोई सूचना नहीं है. लेकिन इस बार देवबंद ने अचानक रुश्दी की यात्रा का विरोध किया और उनको भारत आने से रोकने की मांग की. हो सकता है, इसके पीछे पांच राज्यों में चल रही चुनावी राजनीति की प्रेरणा भी रही हो या फिर कोई दूसरा तात्कालिक फितूर रहा हो, लेकिन मायूस करने वाली बात थी देवबंद की मांग पर सरकारों का रवैया. किसी ने देवबंद को सख्ती से नहीं कहा कि उसे ऐसी मांग करने का हक नहीं है. केंद्र सरकार सिर्फ यह बताती रही कि रुश्दी को रोकना उसके वश में नहीं है, जबकि राजस्थान सरकार ने तो बाकायदा रुश्दी का आगमन रोकने की कोशिश की. लेकिन इस प्रसंग को बिल्कुल दूसरे सिरे से देखें. एक तरफ सलमान रुश्दी का जितना सतही विरोध हो रहा था, दूसरी तरफ उनके उतने ही सतही समर्थन में कुछ जोशीले लेखक उठ खड़े हुए. समारोह में रुचिर जोशी, हरि कुंजरू, अमिताव कुमार और जीत थायिल ने रुश्दी की प्रतिबंधित किताब सैटेनिक वर्सेज के अंश पढ़े और इस पर लगी पाबंदी को चुनौती दी. लेकिन इसके बाद क्या हुआ? अभिव्यक्ति की आज़ादी का झंडा उठाने वाले इन लेखकों को जैसे ही पता चला कि उनके ख़िलाफ़ कानूनी कार्रवाई हो सकती है, वे सब भाग खड़े हुए. बताया जा रहा है कि आयोजकों ने भी उन्हें ऐसी ही सलाह दी. कार्यक्रम में शामिल और ऐसे आयोजनों के काफी करीब रहने वाली लेखिका नमिता गोखले ने अलग से चेतावनी दी कि कोई रुश्दी की विवादित किताब के अंश पढ़ने की कोशिश न करे, क्योंकि यह कानून के खिलाफ है और इसके लिए जेल हो सकती है.

लेकिन क्या रुश्दी की किताब का पाठ सिर्फ इसलिए नहीं होना चाहिए कि उससे कानून टूटता है? अपने विश्वासों के लिए लेखकों-पत्रकारों का जेल जाना कोई अजूबी बात नहीं है. एशिया की काफी बड़ी आवाज फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने जेल भुगती थी. नाज़िम हिकमत को कई बार जेल जाना पड़ा. भारत में भी रेणु और नागार्जुन जेल गए. आजादी की लड़ाई के दौर में माखनलाल चतुर्वेदी जेल गए. एक तरह से देखें तो भारत की पत्रकारिता और लेखन की परंपरा तो जेलखानों में ही बड़ी हुई है.
लेकिन लेखक जेल जाने से भी डरे और अभिव्यक्ति की आज़ादी का सवाल उठाते हुए कानून भी तोड़े- ये दोनों बातें नहीं चलेंगी. हालांकि इससे यह नतीजा निकालना ठीक नहीं कि जिन लेखकों ने रुश्दी की किताब के अंश पढ़े उनमें लेखक की आजादी की प्यास वाकई उतनी तीखी और सच्ची नहीं रही होगी जितनी होनी चाहिए. ऐसा मान कर हम इन लेखकों के साथ भी अन्याय करेंगे और अपने साथ भी, क्योंकि तब न इन लेखकों की नीयत ठीक से समझ पाएंगे और न ही इस समारोह की फितरत. सच तो यह है कि अगर इन लेखकों को आजादी का सवाल इतनी शिद्दत से नहीं सताता तो शायद ये जयपुर के आयोजन का उल्लास भंग करने की ऐसी कोशिश नहीं करते.  लेकिन फिर इस कोशिश की सीमा क्या है? दरअसल अभिव्यक्ति की आजादी या किसी भी दूसरे सवाल को बिल्कुल शून्य से नहीं उठाया जा सकता. उसमें सामाजिक परिप्रेक्ष्य भी शामिल होता है और लेखकीय संदर्भ भी. कुछ साल पहले डेनमार्क के एक कार्टूनिस्ट के कार्टूनों पर इसी तर्क से प्रतिबंध लगे और किसी ने उन्हें गलत नहीं माना. भारत जैसी बहुलतावादी संस्कृति के देश में भी अभिव्यक्ति की आज़ादी कई तरह की सामाजिक कसौटियों से छन कर ही हासिल हो सकती है. यह बात समझे बिना जो लोग किसी अपरिमित आजादी की कल्पना और मांग करते हैं, वे अंततः आजादी के सवाल को ही क्षतिग्रस्त करते हैं.

यह एक तरह से उस अंग्रेजी तबके का आयोजन है जो भारत में तो विशेषाधिकार-संपन्न है, लेकिन वैश्विक स्तर पर अपनेआप को विपन्न पाता हैइसका प्रमाण इन चार लोगों के रचना पाठ का नतीजा ही है. रुश्दी-साहित्य से परिचित लोगों की आम राय यही है कि रुश्दी की यह किताब उनके बाकी साहित्य के मुकाबले काफी हल्की है. जाहिर है, अभिव्यक्ति की आज़ादी के इन पैरोकारों ने असल में सैटेनिक वर्सेज़ इसीलिए चुनी कि वे कुछ लोगों को चिढ़ाना भर चाहते थे. अगर ये अंश नहीं पढ़े गए होते तो हो सकता है कि न रुश्दी का विवाद इतना बड़ा हुआ होता न उनके भाषण में ऐसा अड़ंगा आता. लेकिन यह मामला सिर्फ कुछ लेखकों की नादानी का नहीं है. यह ठीक से समझने की ज़रूरत है कि जयपुर का पूरा साहित्य समारोह जिस दृष्टि से प्रेरित और संचालित है, वहां ऐसे हादसे सहज मुमकिन हैं. यह एक तरह से उस अंग्रेजी तबके का आयोजन है जो भारत में तो विशेषाधिकार-संपन्न है, लेकिन वैश्विक स्तर पर अपने-आप को विपन्न पाता है. जयपुर जैसे आयोजन करके दरअसल वह अपनी यह विपन्नता दूर करता है और भारतीय या एशियाई अंग्रेजी लेखन को स्थापित करने की कोशिश करता है. बाकी दुनिया इस काम में उसकी मदद इसलिए भी करती है कि इन दिनों भारत अंग्रेजी प्रकाशनों का बहुत तेजी से बढ़ता हुआ बाजार है. इस बाजार को और बढ़ाने में ऐसे समारोह मददगार हो सकते हैं, इसलिए इस समारोह को पांच करोड़ देने वाले वैश्विक प्रायोजक मिल जाते हैं. भव्यता हासिल करने की भूख में यह समारोह पूंजी के इस वैश्विक चरित्र पर निगाह डालने और रुपये के रंग को पहचानने से इनकार करता है. लेकिन जैसा कि एक टीवी कार्यक्रम में एक समाजशास्त्री मनोज कुमार झा ने कहा, वैश्विक पूंजी का भी अपना एक स्वभाव होता है. वह हर चीज को एक तमाशे में बदलना चाहती है. उसके लिए आईपीएल, अण्णा का आंदोलन और जयपुर का समारोह लगभग एक जैसे तमाशे हैं. इस तमाशे में संजीदगी कम होती है, सेलेब्रिटी का खेल ज्यादा होता है. इसलिए भी जयपुर के इस समारोह में या तो सलमान रुश्दी छाए दिखते हैं या जावेद अख्तर, प्रसून जोशी या गुलजार जैसी फिल्मी हस्तियां. दरअसल यहां उसी हंसते-खेलते इंडिया का साहित्यिक तमाशा दिखता है जिसे हल्का-फुल्का मनोरंजन या दर्शन चाहिए. इसलिए यहां कई भगतनुमा लेखक उपदेश देते मिल जाते हैं और दीपक चोपड़ा भी लेखक की तरह ही बुलाए जाते हैं. यहां अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल भी जैसे एक तमाशे में बदल जाता है. इस तमाशे में अगर कुछ उदारता दिखाकर हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाएं शामिल की जाती हैं तो इसलिए कि तमाम दावों के बावजूद अंग्रेजी जानती है कि इन भाषाओं के बिना उस पर अखिल भारतीयता की मुहर नहीं लगेगी.  
 
बहरहाल, जयपुर के समारोह का ही नतीजा मानना चाहिए कि भारत में सलमान रुश्दी की किताब पर पाबंदी हटाने की मांग को लेकर एक ऑनलाइन याचिका नए सिरे से चल पड़ी है. दरअसल अगर सैटेनिक वर्सेज पर पाबंदी लगाने का फैसला निहायत बेतुका और नासमझी भरा था, तो अब इतने साल बाद उसे हटाने की मांग करने में भी कोई बहुत ज़्यादा समझदारी नहीं है. सैटेनिक वर्सेज के बाद भी भारत में- और सारी दुनिया में- किताबों पर पाबंदी लगी है, उन्हें जलाया गया है, चित्र बर्वाद किए गए हैं, नाटक रोके गए हैं और लेखकों-कलाकारों को जलावतन होना पड़ा है.लेकिन इन सारे प्रसंगों को भूल कर सिर्फ एक किताब की पाबंदी हटाने की मांग दरअसल फिर एक फैशनेबल किस्म की मांग है जो इस तथ्य की कुछ और उपेक्षा करती है कि पाबंदियों के बावजूद लेखक पढ़े जाते हैं, किताबें पढ़ी जाती हैं. आखिर सैटेनिक वर्सेज आज भी सलमान रुश्दी की सबसे महत्वपूर्ण कृति बनी हुई है तो इसलिए कि उस पर विवाद हुआ और पाबंदी लगाई गई. वरना इतने साल बाद किसी साहित्यिक समारोह में चार उत्साही लेखक उसका पाठ क्यों करते?

जहां तक अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल है, वह सिर्फ कानूनी नहीं, सामाजिक मसला भी है. इसे व्यक्तिगत अहंकार या भाषाई विशेषाधिकार से हल करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. अभिव्यक्ति की आजादी के लिए जोखिम भी उठाने पड़ते हैं और खुद को भी बदलना पड़ता है और समाज को भी. लेकिन इसके लिए सनसनीखेज रचना-पाठों से ज़्यादा संवेदनशील और सिलसिलेवार संघर्ष की जरूरत है.   

बल छीनते बागी

अतीत को देखते हुए उत्तराखंड में इस बार भले ही बारी स्वाभाविक रूप से कांग्रेस की लग रही हो पर उसी की रणनीतिक चूकें इस बार बागियों को भी एक ऐसी ताकत के रूप में खड़ा कर सकती हैं जिसकी उपेक्षा संभव न हो.
मनोज रावतमहिपाल कुंवर की रिपोर्ट

उत्तराखंड में अब तक हुए हर चुनाव का नतीजा बदलाव के रूप में दिखता रहा है. इस चलन की नजर से देखा जाए तो मतदाताओं का झुकाव इस बार स्वाभाविक रूप से कांग्रेस की तरफ दिख रहा है. लेकिन वहीं यह भी सच है कि टिकट बांटने से लेकर चुनाव के दिन तक हुई रणनीतिक गलतियों के कारण पार्टी का सामान्य बहुमत के आंकड़े यानी 36 विधायकों की संख्या तक पहुंचना मुश्किल लग रहा है. ऐसे में सरकार बनाने में इस समय निर्दलीय विधायकों या छोटे दलों की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है. जानकार संभावना जताते हैं कि इस बार उत्तराखंड रक्षा मोर्चा, उत्तराखंड क्रांति दल-पी और निर्दलीयों में से आठ से अधिक विधायक जीत कर आ सकते हैं. मतप्रतिशत के हिसाब से देखा जाए तो इस श्रेणी के विधायक कांग्रेस, भाजपा और बसपा के बाद राज्य में पहली बार एक बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में उभरेंगे. चुनाव जीतने की संभावना वाले इन निर्दलीयों में ज्यादातर कांग्रेस  और भाजपा का टिकट पाने में नाकामयाब जमीनी नेता हैं या फिर इन दलों के असंतुष्ट.

लैंसडाउन सीट से चुनाव लड़ रहे रक्षा मोर्चा के ले जनरल टीपीएस रावत को छोटे राजनैतिक दलों और निर्दलीय प्रत्याशियों में सबसे अच्छा समर्थन मिल रहा है. टीपीएस 2002 और 2007 में कांग्रेस के टिकट पर धूमाकोट से विधायक बने थे. लेकिन उन्होंने मुख्यमंत्री खंडूड़ी के लिए न केवल दो बार विधायक बनाने वाली पार्टी कांग्रेस को बल्कि विधायक पद को भी त्याग दिया था. भाजपा से उनकी गलबहियां अधिक दिनों तक नहीं चलीं. चार साल पार्टी में रहने के बाद वे भाजपा सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए बाहर निकल गए.

टीपीएस के मुकाबले में भाजपा उम्मीदवार लैंसडाउन के पूर्व विधायक भारत सिंह रावत के पुत्र दिलीप रावत हैं. उधर, कांग्रेस ने लैंसडाउन से युवक कांग्रेस की प्रदेश उपाध्यक्ष ज्योति रौतेला को उतारा है. ज्योति छात्र या पंचायत राजनीति से निकली जमीनी नेता नहीं हैं. जानकार बताते हैं कि नेता प्रतिपक्ष हरक सिंह रावत से नजदीकी और युवक कांग्रेस के नये चुनावी फॉर्मूले के कारण वे भले ही युवक कांग्रेस संगठन के पद तक पहुंचकर टिकट पाने में कामयाब हो गई हों लेकिन जनता में न तो उनकी पकड़ है और न ही जनता तक उनकी सार्थक पहुंच बन पाई है. धूमाकोट विधानसभा स्थित दिलकोट गांव के विनोद चतुर्वेदी बताते हैं, ‘टीपीएस का साधारण व्यवहार और गांव के लोगों से घुल-मिल जाना उन्हें जननेता बनाता है यही कारण है कि दोनों बड़े दलों के दिग्गज नेता उनके मुकाबले में उतरने से डरकर पलायन कर गए हैं.’ मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी जिस धूमाकोट सीट से विधायक हैं उसके सारे क्षेत्र परिसीमन के बाद लैंसडाउन में आ गए हैं. उधर प्रतिपक्ष के नेता हरक सिंह 2002 से अब तक लैंसडाउन सीट से ही विधायक रहे हैं. लेकिन ये दोनों दिग्गज टीपीएस के मुकाबले में उतरने का साहस नहीं कर पाए और अब दूसरी सीटों से चुनाव लड़ रहे हैं. नैनीडांडा विकास खंड के बैराठ गांव में लोगों को संबोधित करते हुए टीपीएस कहते हैं,‘ खंडूड़ी ने यहां विकास के नाम पर केवल विधायक निधि ही बांटी जो काम एक साधारण विधायक भी कर सकता था और इन पांच सालों में छह बार भी धूमाकोट नहीं आए हैं.’

निर्दलीयों में ज्यादातर कांग्रेस  और भाजपा का टिकट पाने में नाकामयाब जमीनी नेता हैं या फिर इन दलों के असंतुष्ट

टीपीएस रावत के अलावा पौड़ी की चौबट्टाखाल सीट से चुनाव लड़ रहे निर्दलीय यशपाल बेनाम भी अपनी अच्छी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं. राज्य आंदोलनकारी और पौड़ी नगरपालिका के अध्यक्ष रहे बेनाम अभी पौड़ी विधानसभा से विधायक हैं. परिसीमन में पौड़ी सीट आरक्षित होने के कारण वे चौबट्टाखाल से चुनाव लड़ रहे है. यहां से कांग्रेस के प्रत्याशी, युवा कांग्रेसी राजपाल बिष्ट हैं और भाजपा के तीरथ सिंह रावत. दिल्ली में युवा कांग्रेस संगठन की राजनीति करने वाले राजपाल बिष्ट के लिए पहाड़ की यह विधानसभा नयी है. चुनावों में यहां के कांग्रेसी खास सक्रियता नहीं दिखा रहे हैं. अनमने ढंग से काम कर रहे कांग्रेसियों के बल पर यदि राजपाल चुनाव जीतते हैं तो यह एक चमत्कार ही होगा. यही हाल भाजपा का भी है. भाजपा ने इस सीट पर खंडूड़ी के खास तीरथ सिंह रावत को टिकट दिया है. उनका भी चौबट्टाखाल से कम ही नाता रहा है. राष्ट्रीय पार्टियों के प्रत्याशियों से उलट बेनाम दो साल से चौबट्टखाल में पसीना बहा रहे हैं. उनकी यह मेहनत उन्हें एक बार फिर निर्दलीय के रूप में विधानसभा तक पंहुचा सकती है. बेनाम कहते हैं, ‘मुझे कोई चिंता ही नहीं है कि मेरी  टक्कर में कौन है?’

पौड़ी के अलावा गढ़वाल लोकसभा के चमोली जिले की बदरीनाथ विधानसभा से रक्षा मोर्चे के टिकट पर चुनाव लड़ रहे भाजपा के पूर्व विधायक और पूर्व मंत्री केदार सिंह फोनिया भी अच्छी स्थिति में हैं. मुख्यमंत्री खंडूड़ी के बाल सखा रहे फोनिया अपनी ईमानदार और अच्छी छवि के कारण मतदाताओं की पसंद बन रहे हैं. इस सीट पर निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ रहे दशोली के पूर्व प्रमुख और कांग्रेस के बागी नंदन सिंह बिष्ट भी अपनी अच्छी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं. इन दोनों उम्मीदवारों के कारण बदरीनाथ सीट पर हाल तक भाजपा सरकार में मंत्री रहे और अब कांग्रेस के उम्मीदवार राजेंद्र भंडारी, भाजपा के प्रेम बल्लभ भट्ट, फोनिया व बिष्ट के बीच चतुष्कोणीय मुकाबला हो रहा है. ऐसे में जनता के बीच अच्छी पकड़, टिकट न मिलने की सहानुभूति और ईमानदारी के मुद्दे पर फोनिया या नंदन विष्ट कुछ भी अप्रत्याशित नतीजा ला सकते हैं.

चमोली की ही कर्णप्रयाग विधानसभा से कांग्रेस के बागी बन कर चुनाव लड़ रहे गैरसैंण के पूर्व प्रमुख सुरेंद्र सिंह नेगी भी दमदार निर्दलीयों में से एक हैं. इस सीट पर कांग्रेस ने पिछला विधानसभा चुनाव बदरीनाथ विधानसभा से चुनाव हारे अनुसूया प्रसाद मैखुरी पर दांव खेला है. भाजपा ने भी दो बार के विधायक रहे अनिल नौटियाल का टिकट काट कर अधिवक्ता हरीश पुजारी को टिकट दिया है. अनिल नौटियाल भी निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं और उनका जनाधार भी अच्छा माना जाता है. जानकार बताते हैं कि प्रबल प्रत्याशी होने के बावजूद नेगी को 2002 और 2007 में कांग्रेस का टिकट नहीं दिया गया. इसलिए उन्हें मिल रही सहानुभूति और उनके पक्ष में दिख रहे जातीय समीकरण उन्हें जीत के रूप में लाभ पहुंचा सकते हैं.

एक साथ कई कद्दावर बागियों के मैदान में उतरने से बहुत सी सीटों पर मुकाबला बहुकोणीय हो गया है

ऋषिकेश विधानसभा से  चुनाव लड़ रहे निर्दलीय और वर्तमान नगर-पालिका अध्यक्ष दीप शर्मा भी अच्छी स्थिति में दिख रहे हैं. वे पहले भी एक बार नगरपालिका अध्यक्ष रहे हैं. इन्हें जीत के लिए अपने परंपरागत मतदाताओं के अलावा भाजपा के असंतुष्ट गुट का भी भरोसा है. इस सीट पर हो रहे त्रिकोणीय मुकाबले में दीप शर्मा की टक्कर में कांग्रेस के राजपाल खरोला और भाजपा के वर्तमान विधायक प्रेमचंद्र अग्रवाल हैं. यमनोत्री सीट पर त्रिकोणीय मुकाबले में उक्रांद-पी के प्रत्याशी और पूर्व विधायक प्रीतम सिंह पंवार के प्रति मतदाताओं का अच्छा रुझान दिख रहा है. टिहरी जिले की छह सीटों में से टिहरी, धनोल्टी, देवप्रयाग और प्रतापनगर विधानसभाओं में निर्दलीय भाजपा और कांग्रेस के साथ त्रिकोणीय मुकाबले में हैं. कांग्रेस के बागी और धनोल्टी से लड़ रहे जोत सिंह बिष्ट और देवप्रयाग से मंत्री प्रसाद नैथानी किसी भी तरह का उलट-फेर करने का माद्दा रखते हैं. प्रताप नगर विधानसभा से भाजपा के विद्रोही राजेश्वर पैन्यूली क्षेत्रीय और जातीय समीकरणों के दम पर विधानसभा पहुंच सकते हैं. टिहरी से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे पूर्व नगरपालिका अध्यक्ष दिनेश धनाई भी अच्छी स्थिति में हैं.

कुमाऊं में धारचूला सीट पर उक्रांद-पी के वरिष्ठ नेता काशी सिंह ऐरी चुनाव लड़ रहे हैं. ऐरी की छवि भी आम और अच्छे नेताओं में है. इसका लाभ उन्हें मिलना तय है. कुमायूं के नैनीताल जिले की लालकुआं सीट पर कांग्रेस के बागी प्रत्याशी और पूर्व विधायक हरीश दुर्गापाल लगातार अच्छी पकड़ बनाए हुए हैं. यह बुजुर्ग गांधीवादी कांग्रेसी अपनी पकड़ को जीत में बदलने की पूरी क्षमता रखता है. नैनीताल जिले की ही कालाढ़ूंगी सीट पर कांग्रेस के बागी महेश शर्मा पूरे दमखम के साथ चुनाव लड़ रहे हैं. प्रचार और आम जन पर पकड़ के मामले में उन्हें कांग्रेस के प्रकाश जोशी और भाजपा के वंशीधर भगत से आगे बताया जाता है.

दिग्गज माने जाने वाले कई नेताओं के इस चुनाव में पसीने छूट रहे हैं. प्रतिपक्ष के नेता हरक सिंह रावत भी उनमें से एक हैं

अभी तक राज्य में हुए दो चुनावों को देखा जाए तो 2002 में सामान्य बहुमत से कांग्रेस की सरकार बनी थी. 2007 में निर्दलीयों और उक्रांद की मदद से भाजपा की सरकार बनी. तब 69 विधानसभा क्षेत्रों में हुए चुनावों के समय भाजपा को 34 सीटें मिली थीं.

सुरक्षित नहीं हैं दिग्गज

पौड़ी जिले का भाभर यानी मैदानी इलाका है कोटद्वार. यह कस्बा गढ़वाल का प्रवेश द्वार भी है और सबसे बड़ा व्यापारिक केंद्र भी. यहीं से उत्तराखंड के मुख्यमंत्री मेजर जनरल (रिटायर्ड) भुवन चंद्र खंडूड़ी चुनाव लड़ रहे हैं. कोटद्वार-भाभर के  मूल निवासी कभी बोक्सा जनजाति के सीधे-सादे लोग हुआ करते थे, पर अब वे झंडी चौड, हल्दूखाता और मोटाढाक जैसे कुछ गांवों में सिमट गए हैं. अब कोटद्वार में बहुसंख्यक लोगों में गढ़वाल राइफल्स के पूर्व सैनिक अधिक हैं. गढ़वाल से पलायन कर गए काफी लोगों ने भी कोटद्वार को अपना घर बना लिया है. कोटद्वार में खंडूड़ी का सीधा मुकाबला कांग्रेस के सुरेंद्र सिंह नेगी से है. नेगी भी पूर्व सैनिक हैं. 1985 में नेगी उत्तर प्रदेश की लैंसडाउन विधानसभा से विधायक चुने गए थे. 1991 में वे निर्दलीय विधायक बने. राज्य बनने के बाद 2002 और 2005 में कांग्रेस के टिकट पर विधायक चुने गए नेगी लगभग ढाई साल तक तिवारी सरकार में मंत्री रहे. 2007 में वे भाजपा के शैलेंद्र रावत से कोटद्वार में और उसी साल धूमाकोट उपचूनाव में मुख्यमंत्री से चुनाव हार गए थे. नेगी जमीन से जुड़े नेता हैं और कोटद्वार उनकी राजनैतिक कर्मभूमि है. जबकि मुख्यमंत्री खंडूड़ी का गृह क्षेत्र पौड़ी जिले में पड़ता है. कई बार सांसद रह चुके खंडूड़ी ने मुख्यमंत्री बनने के बाद विधानसभा चुनाव धूमाकोट से लड़ा, इसलिए उन्हें कांग्रेसी बाहरी प्रत्याशी बता रहे हैं. नेगी कांग्रेस सरकार के कार्यकाल की उपलब्धियां गिनाते हुए बताते हैं, ‘सत्ता में आने के बाद पहली ही कैबिनेट की बैठक में हमने प्रदेश में बेरोजगारी दूर करने और हर गांव में शुद्ध पेयजल की आपूर्ति करने का निर्णय लिया था. हमारी सरकार ने पांच साल में इन दोनों संकल्पों को पूरा करने का भरपूर प्रयास किया.’ वे लोगों को यह बताना भी नहीं भूलते कि उनके समय में कोटद्वार में 1400 करोड़ की लागत से राष्ट्रीय ग्राम्य विकास संस्थान खुलना था जिसके लिए बाद की भाजपा सरकार ने जमीन तक उपलब्ध नहीं कराई नतीजा यह हुआ कि अब वह संस्थान राजस्थान में खुला है. खंडूड़ी पर कटाक्ष करते हुए वे कहते हैं, ‘उन्होंने पिछला चुनाव धूमाकोट से लड़ा था. वहां भी उन्होंने जनता से मुख्यमंत्री के रूप में वोट मांगा था और तब वादा किया था कि वे धूमाकोट को प्रदेश ही नहीं पूरे देश की सबसे अच्छी विधानसभा बना देंगे. अब वे धूमाकोट छोड़ कर क्यों आ गए? क्या उनकी अपने क्षेत्र की जनता के लिए कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं है.’

दूसरी ओर स्टार प्रचारक होने के कारण खंडूड़ी राज्य के अन्य हिस्सों में चुनावी जनसभाएं करने के बाद दोपहर के बाद कोटद्वार पहुंचते हैं. अपने भाषणों में वे वोटरों से अपील करते हैं कि वे अपना उम्मीदवार चुनते समय उसके चरित्र और पार्टी की कार्यशैली जैसी कुछ बुनियादी बातों का ध्यान जरूर रखें. एक भाषण के दौरान वे जनता को उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दिनों हुए अत्याचारों की याद दिलाते हुए कहते हैं,‘उस समय भले ही राज्य में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी पर उसे समर्थन तो कांग्रेस पार्टी का था.’ वे कांग्रेस की सरकार के पांच साल के कार्यकाल को भ्रष्टाचार युग बताते हुए दावा करते हैं कि उन्होंने जनता की भलाई के लिए अपने अधिकारों को सीमित किया. मुख्यमंत्री केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री रहते हुए उनके द्वारा बनाए गए सात पुलों का जिक्र करते हैं. वे कांग्रेस के सुरेंद्र सिंह नेगी को चुनौती देते हैं कि वे भी ढाई साल मंत्री रहे हैं इसलिए अपने किए काम भी दिखाएं. बाहरी होने और धूमाकोट छोड़ कर आने के आरोप के जवाब में खंडूड़ी बताते हैं, ‘मैंने जो भी चुनाव लड़ा उसमें मैंने कोशिश की कि मैं जनता के भरोसे पर खरा उतरूं.’

भाजपा उत्तराखंड में चुनाव ही खंडूड़ी के नाम पर लड़ रही है. खंडूड़ी है जरुरी स्लोगन भाजपा की हर चुनाव सामग्री का हिस्सा है. कोटद्वार के क्षेत्रीय और जातीय समीकरण उनके विपरीत हैं फिर भी मुख्यमंत्री के रूप में चुनाव लड़ने का खंडूड़ी को हर रूप में फायदा मिल रहा है. हालांकि यह बात भी गौर करने वाली है कि उत्तराखंड में ही वर्ष 2002 और 2007 में पूर्व मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी भी चुनाव हार चुके हैं. यदि ऐसा फिर हुआ तो सारा चुनाव खंडूड़ी पर केंद्रित कर चुकी भाजपा के लिए जवाब देना मुश्किल हो जाएगा. देखना होगा कि सिपाही और जनरल की लड़ाई के साथ-साथ बाहरी और भीतरी की जंग में मैदान कौन मारता है.

अगर खंडूड़ी नहीं जीते तो सारा चुनाव उन पर केंद्रित कर चुकी भाजपा के लिए जवाब देना मुश्किल हो जाएगा

उधर, छाया मुख्यमंत्री यानी प्रतिपक्ष के नेता हरक सिंह रावत भी अपने चुनाव क्षेत्र रुद्रप्रयाग में सुरक्षित नहीं हैं. वे भी पौड़ी की लैंसडाउन सीट को त्याग कर चुनाव से ऐन पहले रुद्रप्रयाग पहुंचे थे. उनके शब्दों में, ‘पार्टी के कुछ बड़े नेताओं ने उनकी राजनैतिक हत्या करने के लिए उन्हें रुद्रप्रयाग भेजा. रुद्रप्रयाग में उनके मुकाबले में उनके खास साढू और मंत्री मातबर सिंह कंडारी भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं. 10 साल से लगातार विधायक रहे कंडारी भी पहले प्रतिपक्ष के नेता के पद पर रह चुके हैं.

हरक सिंह अब रुद्रप्रयाग को ही अपनी नियति मानते हुए पूरा दम लगा कर चुनाव लड़ रहे हैं. उनका मुकाबला कंडारी जैसे जमीनी नेता से तो है ही, उनकी नींद कांग्रेस के बागी चौधरी और बीरेंद्र बिष्ट ने भी उड़ा रखी है. चौधरी पिछले पांच साल से रुद्रप्रयाग विधानसभा से चुनावी तैयारी कर रहे थे मगर उन्हें पार्टी का टिकट नहीं मिला. वे कहते हैं, ‘मैं रुद्रप्रयाग जिले के स्वाभिमान के मुद्दे पर चुनाव लड़ रहा हूं. हरक सिंह पौड़ी जिले के हैं और भाजपा के मातबर सिंह कंडारी टिहरी जिले के निवासी. उधर, कंडारी कहते हैं, ‘मैं रुद्रप्रयाग के जखोली क्षेत्र में ही पहले से राजनीति करता रहा हूं, इसलिए मुझे बाहरी कहना गलत है.’ उधर हरक सिंह कहते हैं, ‘मैंने बसपा में रहते हुए रुद्रप्रयाग जिले का निर्माण कराया था. इस जिले को जन्म देने वाला व्यक्ति कैसे बाहरी हो सकता है.’ कांग्रेस ने भले ही मुख्यमंत्री पद के लिए किसी भी नेता का नाम घोषित नहीं किया हो पर हरक सिंह लोगों को बताते हैं कि चुनाव जीतते ही वे ही कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री होंगे.

अन्य दिग्गजों के अलावा विधानसभा अध्यक्ष हरबंस कपूर, पिथौरागढ़ से भाजपा प्रत्याशी और मंत्री प्रकाश पंत, रुद्रपुर से कांग्रेस के दिग्गज और पूर्व मंत्री तिलक राज बेहड़ और हरिद्वार से चुनाव लड़ रहे मंत्री मदन कौशिक को उनके परंपरागत और सुरक्षित विधानसभा क्षेत्रों में कड़े मुकाबले का सामना करना पड़ रहा है. हरिद्वार से कांग्रेस के एकमात्र विधायक कुंवर प्रणव सिंह ‘चैंपियन’ भी दस साल से लक्सर से विधायक रहे हैं. परिसीमन के बाद अब खानपुर से चुनाव लड़ रहे चैंपियन के लिए वहां से जीतना उतना आसान नहीं.

पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की राह भी डोईवाला सीट से इतनी आसान नहीं लग रही. प्रतिपक्ष के नेता हरक सिंह रावत पिछले कई महीनों से डोईवाला सीट से चुनाव लड़ने की हुंकार भर रहे थे. मगर ऐन वक्त पर जब उन्हें रुद्रप्रयाग रवाना किया गया तो इस सीट पर निशंक का विजय रथ दौड़ने लगा था. कांग्रेस ने इस क्षेत्र से रायपुर से कांग्रेस का टिकट मांग रहे देहरादून के दिग्गज कांग्रेसी नेता और पूर्व मंत्री हीरा सिंह बिष्ट को उतारा. बिष्ट डोईवाला से चुनाव लड़ने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं थे. ऐसे में निशंक के लिए चुनाव जीतना निरापद लग रहा था. लेकिन चुनाव की तिथि आते-आते स्थिति बदलती लग रही है. निशंक की जीत में सबसे बड़ी बाधा उनकी छवि बन रही है. हाल ही में टीम अन्ना भी उन्हें निशाना बना कर गई.

यह सब देखते हुए हो सकता है कि राज्य में इस बार चौथे खेमे की ताकत भी देखने को मिले.

उमा की उम्मीदवारी, भाजपा की मजबूरी

बात कुल सात माह पुरानी है. जून 2011 में भाजपा से निष्कासन के बाद उमा भारती एक बार फिर से पार्टी में शामिल कर ली गई थीं. उस वक्त उनके गृह प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हाईकमान के सामने शर्त रखी थी कि उन्हें मध्य प्रदेश से दूर रखा जाएगा. पार्टी ने चुनावी जरूरतों के चलते बीच का रास्ता निकाला और फायरब्रांड संन्यासिन का रुख उत्तर प्रदेश की ओर मोड़ दिया.

उमा को उस वक्त आधिकारिक तौर पर उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी देने की बात तो कही गई थी लेकिन प्रदेश में उनके प्रति असंतोष के चलते यहां की राजनीति में उनकी भूमिका स्पष्ट नहीं हो पा रही थी. लेकिन पिछले दो-तीन सप्ताह के दौरान उमा उत्तर प्रदेश की सियासत में बेहद महत्वपूर्ण हो गईं हैं. पार्टी ने न केवल उन्हें बुंदेलखंड की चरखारी विधानसभा सीट से चुनाव लड़ाने का फैसला किया है बल्कि उन्हें प्रदेश के मुख्यमंत्री पद का दावेदार भी बताया जा रहा है. हालांकि कुछ समय पहले तक राज्य के सभी बड़े नेता इस बात को दोहराते थे कि उमा न तो प्रदेश में चुनाव लड़ेंगी और न ही वे यहां के मुख्यमंत्री पद की ही दावेदार हैं.

मूलत: अगड़ों के प्रभाव वाली भाजपा के साथ एक विचित्र विरोधाभास यह जुड़ा हुआ है कि उत्तर प्रदेश (कल्याण सिंह) से लेकर मध्य प्रदेश (उमा और अब शिवराज) और महाराष्ट्र (गोपीनाथ मुंडे) तक उसकी सूबाई सियासत के चमकदार अध्याय पिछड़ों के नाम ही रहे हैं. इस विरोधाभास ने ही पार्टी अध्यक्ष गडकरी को उमा की तरफ झुकाने में अहम भूमिका निभाई है. नतीजतन राजनाथ सिंह और कलराज मिश्र जैसे सवर्ण नेताओं की मौजूदगी में भी भाजपा बाहरी और पिछड़ी जाति की उमा पर दांव लगाने का फैसला कर चुकी है. इस सच्चाई को प्रदेश इकाई के एक बड़े नेता खुले शब्दों में नहीं स्वीकारते लेकिन घुमा-फिरा कर जो बातें होती हैं उसमें उनका दर्द छलक जाता है.

पिछले करीब एक साल से पार्टी कांग्रेस व बसपा की तर्ज पर ब्राह्मण चेहरों को तवज्जो दे रही थी. उसकी नजर में मायावती की दलित -ब्राह्मणों वाली सोशल इंजीनियरिंग से हासिल 2007 की मायावी सफलता थी  तो कांग्रेस की ब्राह्मण अध्यक्ष रीता जोशी भी उसे इसके लिए मजबूर कर रही थीं. लिहाजा भाजपा ने भी कलराज मिश्र को आगे कर दिया था.

जल्द ही भाजपा को इस बात का अहसास हो गया कि सिर्फ ब्राह्मण चेहरे से काम चलने वाला नहीं है. उत्तर प्रदेश में ओबीसी वर्ग उत्तर प्रदेश की सियासत की एक महत्वपूर्ण धुरी है. मंदिर आंदोलन के दौर में जब भाजपा की सरकार पूर्ण बहुमत से प्रदेश में बनी थी उस समय पार्टी में कई बड़े ओबीसी चेहरे मौजूद थे, जैसे कल्याण सिंह, विनय कटियार, ओम प्रकाश सिंह आदि. आज कल्याण पार्टी छोड़ चुके हैं तो विनय कटियार केंद्र में रमे हुए हैं जबकि ओम प्रकाश सिंह हाशिये पर चले गए हैं. ऐसे में जब कांग्रेस ने ओबीसी आरक्षण की साढ़े चार फीसदी सीटों पर छुरी चलाई तो भाजपा को एक मजबूत ओबीसी चेहरे की जरूरत महसूस हुई.

कहने को मुलायम सिंह भी पिछड़ों की ही राजनीति करते हैं लेकिन उनके लिए अन्य पिछड़ा वर्ग का मतलब सिर्फ यादव ही हैं. ओबीसी की बाकी जातियों में इसे लेकर लंबे समय से असंतुष्टि का भाव पनप रहा है. भाजपा इसी असंतोष को भुनाने की फिराक में है और उमा जैसी कुशल वक्ता इस काम को बखूबी अंजाम दे सकती हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले पार्टी के एक नेता बताते हैं, ‘उमा का कद बढ़ने की एक वजह कुशवाहा प्रकरण भी रहा. कुशवाहा के पार्टी में शामिल होने का पूरे समाज में गलत संदेश गया. इससे हुए नुकसान की भरपाई के लिए उमा को आगे करना पार्टी को जरूरी लगने लगा था.’

जब से उमा ने उत्तर प्रदेश का रुख किया है, यहां के स्थानीय नेताओं ने इसका खुलकर भले ही विरोध न किया हो लेकिन भितरखाने में खलबली जोरों पर है. पार्टी के ही एक नेता कहते हैं, ‘पार्टी हाईकमान को जब उमा जी पर इतना ही भरोसा है तो पूरे प्रदेश में कहीं से भी चुनाव लड़ सकती थीं, चरखारी ही क्यों.’ इसका जवाब वे खुद देते हुए कहते हैं, ‘एक तो चरखारी में लोध बिरादरी का वोट सबसे अधिक है जिससे उमा ताल्लुक रखती हैं. दूसरा उनका घर भी मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में ही है.’उमा भारती को अचानक खास तवज्जो दिए जाने पर कलराज मिश्र कहते हैं, ‘चुनाव के बाद ही तय होगा कि सीएम कौन बनेगा. पार्टी नेतृत्व ने अभी किसी को भी सीएम तय नहीं किया है.’ जबकि पार्टी के दूसरे बड़े नेता व सांसद लालजी टंडन साफ कहते हैं, ‘उमा जी यहां सीएम बनने नहीं आई हैं.’

हालांकि भाजपा की जो हालत है उसमें सत्ता दूर की नहीं बल्कि चांद पर पड़ी कौड़ी लगती है. लेकिन प्रदेश के नेता खुद को बयानबाजी से रोक नहीं पा रहे हैं. चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश भाजपा की हालत ‘सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठमलट्ठ’ वाली हो गई है.

‘मोहन सिंह के साथ गलत हुआ, यह दुखद है’

सपा के वरिष्ठ नेता आजम खान के एक बार फिर से मुलायम सिंह से नाराज होने की अटकलें लगाई जा रही हैं. अखिलेश यादव के साथ कुछ मुद्दों पर उनकी असहमति जगजाहिर हो चुकी है. साथ ही पार्टी में दागी और ईमानदार नेता के दायरे को लेकर भी एक कशमकश चल रही है. इन तमाम मुद्दों पर हिमांशु बाजपेयी की आजम खान से बातचीत

समाजवादी पार्टी के घोषणापत्र जारी होने के कार्यक्रम से आपके गैर-हाज़िर रहने को लेकर तमाम तरह की चर्चाएं हो रही हैं, कार्यक्रम में न आने की क्या वजह थी ?

घोषणापत्र तैयार करने में मेरी पूरी-पूरी हिस्सेदारी थी. इसके जारी होने के कार्यक्रम में भी मुझे रहना था. लेकिन उस दिन सुबह कोहरा बहुत ज्यादा था, इसलिए जहाज बहुत देर से आया जिस कारण मैं उस कार्यक्रम में शिरकत नहीं कर सका.

यही वजह है या फिर आप किसी कारण से नाराज हैं?

अगर नाराजगी वजह होती तो मैं उसके बाद के किसी कार्यक्रम में दिखाई नहीं देता. मैं लगातार सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि दूसरे सूबों में भी जाकर वोट मांग रहा हूं. पार्टी को जहां मेरी जरूरत होती है वहां मैं जाता हूं. इस वक्त सपा को जितवाना मेरे लिए सबसे ऊपर है. इसलिए नाराजगी की चर्चाओं को मै संजीदगी से नहीं ले रहा.

कहा जा रहा है कि मुलायम सिंह जिस तरह अपने परिवार के लोगों खासकर अखिलेश यादव को आगे बढ़ा रहे हैं उससे पार्टी के वरिष्ठ नेता नाराज हैं और आपको भी यह बात अखर रही है.

दूसरों का तो मुझे नहीं पता लेकिन मुझे तो ऐसी कोई बात नहीं दिखाई देती. पार्टी में जिसकी जैसी सलाहियत होती है उसे वैसा मौका मिलता है. पार्टी में वापसी के बाद से ही मैं सबसे आगे-आगे रहा हूं. इसलिए मुझे ऐसा नहीं महसूस होता कि नेता जी के परिवार की वजह से मुझे मौका नहीं मिल रहा.

डीपी यादव की पार्टी में आमद को लेकर आपकी बात अखिलेश यादव ने काट दी और एक दूसरे वरिष्ठ नेता मोहन सिंह को उनसे इतर राय रखने की वजह से प्रवक्ता पद से हाथ धोना पड़ा. इसके बाद भी आप यह बात कह रहे हैं ?

पार्टी में आना या न आना, यह फैसला पार्टी नेतृत्व का होता है, इसलिए अपने स्तर पर मैं उस बारे में ज्यादा नहीं कह सकता लेकिन जहां तक मोहन सिंह जी की बात है वे हमारे सबसे वरिष्ठ नेताओं में हैं और मेरे हिसाब से उनके साथ जो हुआ वह गलत था, दुखद था. मैंने उस दिन भी यही महसूस किया और कहा था.

इस तरह क्या पुत्रमोह-परिवारवाद के हावी होने की वजह से समाजवादी पार्टी में नेतृत्व की लड़ाई में वरिष्ठ नेता हाशिये पर जाते नहीं दिख रहे ?

देखिए, कुछ चीजें आज की सियासत की सच्चाई हैं. इस दौर में हर राजनीतिक पार्टी के चलन में हैं. आजादी के बाद से ही राजनीति का यही तौर रहा है, इसलिए मुझे अकेले इस मामले में क्रांतिकारी बनने की कोई दिलचस्पी नहीं है. मुझे अपने स्तर पर पार्टी में जितना सम्मान और अहमियत हासिल है वह ठीक-ठाक राजनीति करने के लिए बहुत है.

2007 के चुनाव में समाजवादी पार्टी अपराध-व्यवस्था के मुद्दे पर ही चुनाव हार गई थी. इस बार फिर सपा की टिकट सूची में कई दागी शामिल हैं. क्या यह ठीक तरह की राजनीति है ?

टिकट सूची तैयार करते हुए समाजवादी पार्टी ने पूरी-पूरी कोशिश की है कि दागियों से बचा जाए. कुछेक जगह जिन लोगों को टिकट मिला भी  है तो वे लोग पहले ही लोगों के द्वारा चुने जाते रहे हैं, वे टीम अन्ना की तरह स्वयंभू जनता के नुमाइंदे नहीं बन गए. लोकतंत्र में जनता की आवाज को खुदा का नगाड़ा माना जाता है. फिर भी समाजवादी पार्टी ऐसे लोगों से काफी बची है.

चर्चा यह भी है कि बागियों की वजह से रामपुर की अपनी सीट पर ही आपको मुश्किल पेश आ रही है. इसलिए आप दूसरी जगहों पर प्रचार से बच रहे हैं?

मै तो लगातार दूसरी सीटों ही नहीं बल्कि दूसरे राज्यों में भी प्रचार के लिए जा रहा हूं. लेकिन अपनी सीट पर भी पूरा ध्यान है जिस पर दल्ले महाराज (अमर सिंह) मुझे हराने के लिए  पूरा जोर लगाए हुए हैं. कुछ रोज पहले रामपुर में एक सभा में कह भी गए कि मै तन-मन-धन से मुखालफत करूंगा, अपना धन-बल वे दिखा भी रहे हैं पर इलेक्शन कमीशन इसका संज्ञान नहीं ले रहा. इसके बावजूद मेरी सीट निकलेगी और पहले से अच्छी निकलेगी.

मुसलिम आरक्षण को लेकर कांग्रेस को आप पानी पी-पीकर कोस रहे हैं ?  चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए उन्हीं से हाथ मिलाते तो नहीं दिखेंगे ?

कांग्रेस ने आरक्षण के नाम पर मुसलमानों के साथ जो धोखा किया है उसकी जितनी निंदा की जाए कम है. रही बात हाथ मिलाने की तो उसकी जरूरत नहीं पड़ेगी. हम अकेले ही सरकार बनाएंगे.

उत्तर प्रदेश की पुरवा बयार

पूर्वांचल इलाके की राजनीति कभी उत्तर प्रदेश की राजनीति का केंद्र हुआ करती थी. पिछले दो दशकों में इसने अपने लिए कुछ नए उपमान गढ़े, कुछ पुरानी पहचानों को त्यागा और अपने सही महत्व को खोया भी. यहां की राजनीति की विशेषताओं और विवशताओं पर निराला की रिपोर्ट

जाति के दो पीछे जाति, जाति के दो आगे जाति

हिंदी के मशहूर कहानीकार काशीनाथ सिंह राजनीति पर ज्यादा बात करने से बचते हैं. जब हम उनके घर से चलने को होते हैं तब वे कहते हैं, ‘अबहीं तो कुछ पता नहीं चल रहा, कुछ दिन बाद चुनावी रंग जमने दो, तबै बात सामने आएगी लेकिन यह तय मानो कि अब उत्तर प्रदेश में भी जाति की राजनीति विदाई की बेला में है. बिहार से ही यहां जाति की राजनीति की लत लगी थी. जब वहां के लोग जाति के खोल से निकलने लगे हैं तो यहां भी उसका असर होगा.’ आखिर में अपने अनुभव और अनुमान का पूरा बल लगाते हुए काशीनाथ सिंह कहते हैं, ‘यह संभव है कि जाति के आधार पर लड़ा जाने वाला उत्तर प्रदेश का आखिरी चुनाव देख रहे हो…!’

काशीनाथ सिंह एक समय में राजनीति से वास्ता रखने वाले नागरिक रहे हैं और उनके रचे साहित्य से यह भी साफ है कि समाज की नब्ज को समझने में भी वे माहिर हैं. लेकिन उनके घर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित बनारस कचहरी परिसर में आते-आते उनकी धारणा को जुग्गन मियां जैसे वकील एक सिरे से ध्वस्त करने की कोशिश करते हैं.

अपने चैंबर में तरह-तरह के मुवक्किलों से घिरे मेराज फारूकी जुग्गन सभी मुवक्किलों को थोड़ी देर के लिए बाहर कर फटाफट पांच-दस मिनट में हमें पूर्वांचल की जातिगत राजनीति का ककहरा समझाते हैं. राजनीतिक तौर पर बसपा से जुड़े जुग्गन कहते हैं, ‘आप बनारस में घूमेंगे तो सभी अंसारी आपको अंसारी ही नजर आएंगे. आप उसी के आधार पर अंसारी मतों का गुणा-गणित समझने की कोशिश करेंगे, लेकिन आपका आकलन गलत होगा, आपको यह समझना होगा कि यहां अंसारी एक नहीं दो तरह के हैं. एक मऊ वाले, दूसरे बनारसी. मऊवाले वे जिनके पूर्वज एक जमाने में मऊ से बनारस आकर बसे थे और फिर धीरे-धीरे अपनी धाक जमाकर मूल अंसारियों पर हावी हो गए. बनारसी अंसारी वे जो मूल रूप से बनारस के ही हैं. आप यह समझें कि अंसारी की इन दोनों प्रजातियों में इतना अलगाव है कि बनारसी कभी किसी मऊवाले को प्रतिनिधि नहीं बनने देना चाहता, वह इसके लिए किसी गैर-मुसलिम प्रत्याशी के पक्ष में भी जा सकता है. यही मनोदशा मऊवाले भी बनारसी अंसारी के लिए  रखते हैं.’

अंसारियों का गुणा-गणित समझाने के बाद जुग्गन कहते हैं कि यह दलदल अभी और बढ़ाने की कोशिश जारी है. बकौल जुग्गन उत्तर प्रदेश के दलितों में सबसे बड़ी संख्या वाली जाति चमारों के वोट पर मायावती और बसपा का करीब-करीब एकाधिकार समझा जाता है. उस अभेद किले में सेंध लगाने के लिए दूसरे दल चमारों को भी धुसिया, उरील, अहीरवार आदि में बांटने की कोशिश में हैं लेकिन मायावती और बसपा के आगे उनकी यह कोशिश कभी सफल नहीं होगी.

जुग्गन या काशीनाथ सिंह में किसका आकलन ठीक है, किसका नहीं, इसे फिलहाल परे कर दें और समूचे प्रदेश की बजाय पूर्वांचल की ही बात करें तो यहां चुनाव में जातिगत राजनीति के लिए आजादी के पूर्व ही गढ़ा गया एक नारा ‘खून का रंग पानी से ज्यादा गाढ़ा होता है’ उफान मार रहा है. इसी फॉर्मूले को साधने के फेर में कई छोटे-छोटे दल खेल को बहुकोणीय बनाने में लगे हुए हैं. उदाहरण के लिए राजभरों की पार्टी भारतीय समाज पार्टी, बिंदों के बीच आधार वाली प्रगतिशील मानव समाज पार्टी, पटेलों वाला अपना दल या फिर मुख्तार-अफजाल ब्रदर्स के कौमी एकता दल के नाम लिए जा सकते हैं. इनमें से कई जाति के साथ अपराध के गठजोड़ से भी अपनी संभावनाएं बढ़ाने की फिराक में हैं.

अपराधियों को राजनेता बनाने की फैक्टरी

‘अपना दल’ सोनेलाल पटेल के जमाने से ही पटेल मतदाताओं के ध्रुवीकरण की कोशिश में रहा है. इस बार उनकी बेटी अनुप्रिया पटेल खुद बनारस के रोहनियां से मैदान में हैं और पार्टी के स्तर पर बहुत हद तक पुरानी राह पर चलकर कुछ और कदम आगे बढ़ा चुकी हैं. कभी ‘अपना दल’ बबलू श्रीवास्तव और अतीक अहमद को टिकट देकर चर्चे में आ चुका है. इस बार उसने कुख्यात शूटर मुन्ना बजरंगी को चंदौली के मड़ियाहुं से मैदान में उतारा है. पार्टी की महासचिव अनुप्रिया कहती हैं कि सुप्रीम कोर्ट भी मानता है कि जब तक अपराध सिद्ध न हो जाए तब तक किसी को अपराधी नहीं कहा जा सकता. अभी मुन्ना बजरंगी पर अपराध सिद्ध होना बाकी है.

प्रगतिशील मानव समाज पार्टी का नाम भी इस बार चर्चा में है. वैसे तो यह दल मूलतः बिंदों के मतों के ध्रुवीकरण पर आश्रित रहा है लेकिन इस बार बाहुबली बृजेश सिंह को सैयदराजा से टिकट देने के कारण सुर्खियों में है. पार्टी के महासचिव शिवकुमार बिंद उस अंदाज में जवाब देते हैं जिस अंदाज में भाजपा ने बाबू सिंह कुशवाहा का बचाव किया था, ‘बृजेश सुधरना चाहते हैं तो हम उन्हें टिकट देकर यह मौका दे रहे हैं.’ मुन्ना बजरंगी जेल में हैं और बृजेश भी. मुन्ना बजरंगी की जीत के लिए ठाकुर और पटेलों का कॉकटेल बनाया जा रहा है तो बृजेश सिंह के कार्यकर्ता बिंद और ठाकुरों का नया जादुई रसायन ईजाद करने में लगे हुए हैं.

2001 की जनगणना बताती है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में करीब 30 लाख मुसलिम मतदाता बुनकरी के काम में लगा हुआ है

सबसे अजीबोगरीब तर्क अतहर जमाल लारी देते हैं जो तीसरे ध्रुव पर खड़ी मुख्तार अंसारी ऐंड ब्रदर्स की पार्टी कौमी एकता दल से ताल्लुक रखते हैं. वे बनारस दक्षिण के प्रत्याशी भी हैं. लारी के मुताबिक जेल जाना राजनीति का जरूरी पड़ाव है और इस देश में गांधी भी जेल में रहे, नेहरू भी जेल में रहे हैं. लारी एक समय में मुख्तार जैसे नेताओं के जेल में रहने की खुलकर मुखालफत करते थे, अब उनके रहमोकरम पर चुनाव लड़ रहे हैं तो भद्दे तर्क गढ़ रहे हैं. मुख्तार का प्रभाव बनारस, मऊ, गाजीपुर के अलावा थोड़ा-बहुत आजमगढ़, चंदौली, और जौनपुर में भी है. मुख्तार ने खुद मऊ और घोसी से परचा भरा है तो उनके बड़े भाई शिफाउतुल्ला गाजीपुर के मोहम्मदाबाद से मैदान में हैं. बड़े भाई अफजाल ने, जो पूर्व सांसद हैं, अपने दोनों भाइयों को लड़वाने के साथ ही पार्टी की कमान भी अपने हाथों में ले रखी हैं. उनके नेतृत्व में कौमी एकता दल गैर-ठाकुर सवर्णों और मुसलमानों को एक करने में लगा हुआ है, इस तर्क के साथ कि ठेके-पट्टे आदि में यदि बृजेश-मुन्ना बजरंगी जैसे ठाकुरों की दबंगई से निजात पानी है तो मुख्तार ही एकमात्र विकल्प हैं.

जेलवासी नेताओं का चुनावी भविष्य क्या होगा, अभी से इसका अनुमान लगाना थोड़ा मुश्किल है लेकिन यह साफ है कि पूर्वांचल के इलाके में अपराध और राजनीति के घालमेल वाले इस खेल में अब ऊब की बजाय रोमांच की तलाश की जा रही है. समाजवादी पार्टी के नेता व राज्य के पूर्व मंत्री शतरूद्र प्रसाद कहते हैं, ‘यह एक दिन की देन नहीं है. पूर्वांचल में इसकी शुरुआत दो दशक पहले हरिशंकर तिवारी और विरेंद्र शाही के बीच चली गैंगवार से हुई. गोरखपुर के इलाके में ये दोनों आपस में भिड़ते रहे और इनकी लड़ाइयों का फायदा बाद में राजनीतिक दलों ने ठाकुरों और भूमिहारों के बीच दूरी बढ़ाकर उठाया. इसका एक्सटेंशन बाद में गाजीपुर-बनारस के इलाके में मुख्तार अंसारी और बृजेश सिंह के बीच गैंगवार के रूप में देखा गया. इसे ठाकुरों और मुसलमानों के बीच की जंग मानकर राजनीति की बिसात बिछाई गई.’ शतरूद्र आगे कहते हैं कि आप यह नहीं कह सकते कि पूर्वांचल वाले इसकी परवाह नहीं करते. यहां हरिशंकर तिवारी के बेटे, अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी भी चुनाव हार चुके हैं, इसलिए अभी कुछ नहीं कह सकते. शतरूद्र कहते हैं कि असल चुनौती यह है कि उत्तर प्रदेश और देश की राजनीति में पूर्वांचल हाशिये पर चला गया है.

शतरूद्र की बात बहुत हद तक ठीक भी लगती है. कभी पूर्वांचल की राजनीति उत्तर प्रदेश की राजनीति का मुख्य केंद्र हुआ करती थी. संपूर्णानंद, त्रिभुवन नारायण सिंह, कमलापति त्रिपाठी, रामनरेश यादव, वीपी सिंह, वीर बहादुर सिंह राजनाथ सिंह आदि इसी पूर्वांचल की राजनीति करते हुए राज्य के मुख्यमंत्री बने. चंद्रशेखर और वीपी सिंह, प्रधानमंत्री भी बने. लेकिन करीब पिछले दो दशक में पूर्वांचल का एक भी नेता राष्ट्रीय राजनीति में उभर नहीं सका है. इस इलाके की पूरी राजनीतिक आकांक्षा आज जाति और अपराध के जरिये अपना मुकाम तलाशने में लगी हुई है. वैसे कहने को तो भाजपा में राजनाथ सिंह चंदौली-मिर्जापुर से ही राजनीति करके पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का सफर तय कर चुके हैं लेकिन राजनाथ को अब अपने इस इलाके से कोई मतलब नहीं रहता वे सांसद भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के आखिरी छोर पर बसे गाजियाबाद से हैं. भाजपा के ही दूसरे नेता मुरली मनोहर जोशी भी फिलहाल बनारस के सांसद हैं, लेकिन उनकी छवि हमेशा से बाहरी की रही है और कोई भी उन्हें पूर्वांचली नहीं मानता. सपा और बसपा में स्थानीय स्तर पर बड़ा और प्रभाव वाला नेता होने न होने का कोई मतलब नहीं है. इस तरह देखें तो यह दौर राजनीति के शीर्ष नेतृत्व में पूर्वांचलियों के अकाल वाला दौर है.

मसालों के बीच गुम होते मसले

पूर्वांचल को उत्तर प्रदेश का सबसे टफ जोन माना जाता है. कई रूपों में. राजनीति ने पूर्वांचल की नई-नई परिधियां बनाई हैं. अपने-अपने हिसाब से दायरे तय किए हैंः बनारस, गोरखपुर, बलिया, गाजीपुर, देवरिया, जौनपुर, सोनभद्र, कुशीनगर, पडरौना, मऊ, आजमगढ़, भदोही, मिर्जापुर, चंदौली आदि इसके मुख्य हिस्से हैं. एक बड़ा वर्ग इलाहाबाद को भी इसी में मानता है. यह मजदूरों का सबसे बड़ा गढ़ है. खेतिहर मजदूर, आदिवासी, बुनकर और खनन मजदूरों का गढ़, जिनके लिए रोजी, रोटी और गुरबत ही सबसे अहम सवाल हैं. बलिया, गाजीपुर आदि जैसे दियारा क्षेत्र में बसे इलाकों की मुख्य समस्या यह है कि यहां हर साल सरयू, गंगा की कटान से जिंदगियां बेहाल होती हैं. जिंदगियां पानी से जार-जार तो होती ही हैं, खेती-बाड़ी भी उसी की भेंट चढ़ जाती है. लेकिन यह पीड़ा चुनाव में कोई मसला  ही नहीं है.

सोनभद्र भी पूर्वांचल का ही हिस्सा है. छत्तीसगढ़, झारखंड से सटा इलाका है इसलिए नक्सलियों से प्रभावित भी है. यहां पहाड़ों का सीना काटकर कुछ लोगों ने तिजोरियां भरी और खाकपति से करोड़पति बन गए. जबकि यहां के आदिवासी विस्थापन की मार झेलते रहते हैं. गरीबी और पिछड़ापन इस कदर है कि हर साल तमाम मौतें मलेरिया की वजह से होती हैं जो कभी सियासी मसला नहीं बनतीं. सोनभद्र को काफी करीब से जाननेवाले पत्रकार आवेश तिवारी कहते हैं इस इलाके में हर साल दो हजार के करीब मौतें होती हैं लेकिन प्रशासन की डायरी में अज्ञात और रहस्यमयी बीमारी से मौत बताकर उनकी जिंदगी का खाता-बही बंद कर दिया जाता है. सोनभद्र के अलावा चंदौली वह इलाका है, जहां नक्सलियों की धमक सुनाई देती रहती है.

चुनावी आंखों के तारे बुनकर

पूर्वांचल की सबसे बड़ी पहचान यहां की बुनकरी है. बनारस की साड़ी, भदोही का कालीन, मऊ का हैंडलूम, राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिप्राप्त हैं. वर्षों से उपेक्षा की मार झेलते- झेलते बुनकर पहले दिहाड़ी मजदूर बने और बाद में रिक्शा-ठेला चलाने वाले समूह में तब्दील हो गए. हालांकि बुनकरी के कारोबार में कई अन्य जातियों के लोग भी शामिल रहे हैं, लेकिन मुख्य रूप से इसमें मुसलिम आबादी ही लगी हुई है. उत्तर प्रदेश में तो वैसे भी मुसलिम मतों का अपना महत्व  है, पूर्वांचल के इलाके में तो यहां का सियासी रुख ही इन पर निर्भर करता है. 2001 की जनगणना को आधार बनाकर देखें तो करीब 36.3 प्रतिशत मुसलिम पूर्वी उत्तर प्रदेश में रहते हैं. एक अनुमान के मुताबिक पूर्वी उत्तर प्रदेश में करीब 30 लाख मत सिर्फ बुनकरों का ही है. गोरखपुर, संतकबीर नगर, सिद्धार्थनगर और मऊ की कई सीटों पर बुनकरों की संख्या निर्णायक मानी जाती है. नए परिसीमन के बाद बनारस की आठ सीटों में से भी तीन पर ये निर्णायक होंगे. लेकिन बुनकरों के असल मुद्दे इस चुनाव में भी नदारद है. कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने इन्हें लुभाने के लिए सबसे पहला और ठोस पासा फेंका लेकिन वह भी पेंच में फंस गया और अब सबकुछ धुंधलके में चला गया है. कांग्रेस ने बुनकरों को लुभाने के लिए नवंबर 2011 में 6253 करोड़ रुपये का आर्थिक पैकेज देने का ऐलान किया लेकिन चुनावी आचार संहिता लागू होने के चलते यह पैकेज बीच में ही फंस गया. कांग्रेस पिछड़े वर्ग के 27 प्रतिशत आरक्षण में से 4.5 प्रतिशत मुसलमानों को देने की बात भी कर रही है. सपा मुसलमानों को 18 प्रतिशत आरक्षण की कभी न पूरी हो सकने वाली चाल चल चुकी है. ऐसी ही चालें सभी दल चल रहे हैं.

लेकिन इस बार बुनकर मतदाता खामोश है. अंदर ही अंदर उन्हें कई खंडों में बांट देने की कोशिशें भी जारी है. बनारस के मदनपुरा में मिले एक बुनकर निजाम अंसारी कहते हैं, ‘हम तेल देख रहे हैं और तेल की धार भी. बुनकरों को पैकेज मिलेगा तो उसका लाभ सीधे बुनकरों को थोड़े ही होना है. अब तो बुनकरी के धंधे में दलाल ही बुनकर बन बैठे हैं, मजदूर बुनकर तो दिन भर की मेहनत पर भी 100 रुपये नहीं कमा पाता, उसकी बात कौन कर रहा है.’

एक अपुष्ट आंकड़े के मुताबिक पिछले कुछ सालों में 50 प्रतिशत से अधिक बुनकर पारंपरिक हुनर को त्याग कर दूसरे धंधों में लग गए हैं. हाल के वर्षों में मनरेगा ने भी बुनकर मजदूरों को करघा और लूम से दूर किया है. बुनकर मिट रहे हैं, बुनकरी खत्म हो रही है, सियासी आवाजें उनकी संख्या बढ़ा-बढ़ाकर उन्हें बुनकर के रूप में जिंदा रखने की कोशिश में हैं लेकिन पूर्वांचल की यह सांस्कृतिक पहचान बनी रहे और समृद्ध भी हो, इसके लिए सही तरह से कोशिश कोई दल करता हुआ नहीं दिखता. 

'अब लोग भूल चुके हैं कि मार्च लूट क्या होती है’

बिहार के वित्त मंत्री और उपमुख्यमंत्री  सुशील कुमार मोदी, इर्शादुल हक से बातचीत में विपक्ष के इन आरोपों को खारिज करते हैं कि पैसों के इस्तेमाल में सरकारी मशीनरी पूरी तरह नाकारा साबित हुई है

विपक्ष का आरोप है कि सरकार सुनियोजित तरीके से मार्च लूट (वित्त वर्ष समाप्ति से ठीक पहले सभी विभागों द्वारा अपने बजट और व्यय आदि को पूरी तरह से दुरुस्त करने की कवायद)पर आमादा है. इस पर आप क्या कहेंगे?

ऐसे आरोप वही लोग लगा रहे हैं जिनकी सरकार में मार्च लूट की परंपरा थी. पिछले छह वर्षों से हमारी सरकार है, मार्च लूट की संस्कृति हमने खत्म कर दी है. अब तो हाल यह है कि नई पीढ़ी के लोगों को पता भी नहीं कि मार्च लूट क्या होती है? जबकि उनके दौर में 31 मार्च को सचिवालय रात भर खुला रहता था और सरकार पैसों को अलग-अलग मदों में खर्च दिखाने की कोशिश में लगी रहती थी.

विपक्ष के नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी कहते हैं कि सरकारी मशीनरी पूरी तरह नाकारा है, वह पैसे खर्च ही नहीं कर पा रही है.

उन्हें अपना दौर याद आ रहा होगा. उस दौर में कुल बजट का 50 से 60 प्रतिशत धन ही खर्च होता था. हमारे सामने तो स्थितियां ऐसी हो चुकी हैं कि हम जितना खर्च करने की स्थिति में हैं उतनी राशि हमारे पास उपलब्ध ही नहीं हो पाती.

विपक्ष का यह भी आरोप है कि बजट के पैसे इसलिए खर्च नहीं हो पाए कि नौकरशाही और कई मंत्री पहले ही अपना कमीशन तय कर लेते हैं. इस कारण काम करने वाली एजेंसियां हाथ खड़े कर लेती हैं.

भ्रष्टाचार बीते जमाने की बात है. जहां तक पैसे के खर्च में देरी का मामला है तो यह सिर्फ बिहार की बात नहीं है. तमाम राज्यों में दिसंबर तक की प्रगति एक जैसी होती है क्योंकि जुलाई से मध्य नवंबर तक बरसात के कारण काम नहीं हो पाता. 15 नवंबर से फरवरी मार्च तक ही ज्यादातर काम होते हैं. पैसों का खर्च भी इन्हीं महीनों में होता है. आप ही बताइए, जब काम ही रुका रहेगा तो पैसे कहां से खर्च
हो पाएंगे.

कई विभागों ने तो अब तक एक पैसा भी खर्च नहीं किया.

पहले बात को समझिए, जो हम कह रहे हैं. हम बजट का प्रावधान सभी विभागों के लिए करते हैं. लेकिन इनमें वित्त, वाणिज्य कर और निबंधन जैसे विभाग भी हैं जहां पैसे खर्च नहीं हुए या बहुत कम हुए. पर ध्यान देने की बात है कि ये विभाग पैसे जुटाने वाले हैं. यहां खर्च करने की संभावनाएं बहुत ही सीमित होती हैं. इसलिए इन विभागों में खर्च नहीं हुआ तो यह कोई बुरी बात नहीं है. बल्कि यह तो अच्छा है कि हम इन विभागों से पैसा लेकर दूसरे विभागों को पैसे देकर उसका उपयोग करते हैं. इनमें सड़क और भवन निर्माण जैसे विभाग शामिल हैं.

लेकिन भवन, पथ निर्माण या शिक्षा जैसे विभागों में भी जो खर्च का प्रतिशत है वह भी तो संतोषजनक नहीं है.

मैंने कहा न कि दिसंबर से फरवरी, मार्च के महीनों में ही ज्यादातर निर्माण कार्य होते हैं. इसलिए हम इन विभागों में अभी भी काफी तेजी से काम कर रहे हैं.

क्या 31 मार्च तक सरकार बाकी 70 प्रतिशत पैसों का इस्तेमाल कर लेगी?

हां, बिल्कुल कर लेगी. हमारी कोशिश यह है कि खर्च न कर सकने वाले विभागों के पैसे भी, एक विशेष प्रावधान के तहत, दूसरे कामकाजी विभागों में इस्तेमाल हो जाएं. कला-संस्कृति, वन एवं पर्यावरण और निबंधन जैसे विभागों से पैसे लेने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है.

आपकी सरकार केंद्र सरकार पर आरोप लगाती है कि वह राज्य सरकार के हिस्से की राशि आवंटित नहीं कर रही है. जबकि अभी तक राज्य सरकार कुल बजट का मात्र 30 प्रतिशत ही खर्च कर पाई है जबकि वित्त वर्ष समाप्त होने की कगार पर है.

सर्व शिक्षा अभियान पर हमें केंद्र सरकार ने साढ़े सात हजार करोड़ रुपये आवंटित किए. पर हमें दिए मात्र 1400 करोड़. मुझे लगता है कि सरकार हमें और मात्र एक हजार करोड़ रुपये ही दे पाएगी. केंद्र सरकार ने तमाम राज्यों  के लिए सर्व शिक्षा अभियान के लिए 38 हजार करोड़ का बजट बनाया पर उसने राज्यों को दिए महज 21 हजार करोड़ रुपये (हालांकि सुशील मोदी का यह दावा संदिग्ध है, वित्तमंत्री के बजट भाषण में भी 21 हजार करोड़ का ही जिक्र है). इस प्रकार 17 हजार करोड़ रुपये का गैप हो गया. ऐसी स्थिति में हम स्वाभाविक तौर पर बजट में किए गए प्रावधान के अनुसार खर्च नहीं कर पाएंगे. इसी तरह की स्थिति ग्रामीण सड़कों की भी है. इन क्षेत्रों में भी हमें  तयशुदा पैसे नहीं मिल पा रहे हैं.

पैसा पूरा, खर्च अधूरा

विकास के रास्ते पर बढ़ते बिहार का शीर्ष नेतृत्व अकसर पैसों का रोना रोता है. लेकिन दूसरी तरफ वह अभी तक अपने कुल बजट का सिर्फ एक तिहाई खर्च कर सका है. मार्च में वित्त वर्ष खत्म होना है, मगर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे अहम क्षेत्रों में सरकार मात्र आधे धन का उपयोग कर पाई है. उद्योग और कुछ दूसरे विभागों में तो एक पैसे का भी इस्तेमाल नहीं किया गया है. इर्शादुल हक की रिपोर्ट

हाल ही में योजना आयोग के सलाहकार एनसी सक्सेना बिहार दौरे पर आए थे. बिहार विधानसभा के सभागार में संसदीय बजट प्रणाली पर अपनी बात रखते हुए उन्होंने जो बातें कही थीं वे पैसों की कमी का रोना रोने वाले बिहार के कुछ नेताओं को भौचक करने वाली थीं. सक्सेना ने कहा था कि अगर राज्य सरकार केंद्रीय राशि का निर्धारित समय पर सही उपयोग कर पाती तो उसे केंद्र से 10 से 12 हजार करोड़ रुपये अतिरिक्त मिल चुके होते. पर बिहार सरकार ऐसा करने में नाकाम रही. सक्सेना ने लगे हाथों यह भी जोड़ा कि बिहार सरकार को केंद्र की वित्तीय सहायता का उपयोग व प्रबंधन और सक्षम बनाने की जरूरत है.

यह वाकया इसी वित्त वर्ष का है. अब इस वित्त वर्ष को समाप्त होने में सिर्फ दो महीने बाकी हैं. यानी 31 मार्च, 2012 को राज्य सरकार को अपने बजटीय प्रावधान के सारे पैसों का सदुपयोग करके केंद्र सरकार को हिसाब देना है. सवाल यह है कि जो बातें सक्सेना ने कुछ महीने पहले कही थीं उनका असर राज्य सरकार पर क्या हुआ.

दरअसल इस बार भी अपने स्वभाव के अनुरूप राज्य सरकार चुप ही रही जैसा कि ऐसे फंसने वाले मुद्दों पर वह अकसर करती है. लेकिन मुद्दों की तलाश में आम तौर पर गच्चा खाते रहने का आदी हो चुका विपक्ष इस बार चुप नहीं बैठा.  विपक्ष के नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी ने चार जनवरी को एक प्रेस कांफ्रेंस बुलवाई और आंकड़ों के आधार पर गिनवाना शुरू किया कि कैसे बिहार सरकार 30 नवंबर तक अपने कुल बजट का मात्र 30 प्रतिशत उपयोग कर सकी है. सरकार पर हमलावर होते हुए उन्होंने इसे वित्तीय कुप्रबंधन का सबूत बताया. उन्होंने यह भी जोड़ा कि नीतीश सरकार के सुशासन का फीका रंग साफ दिखने लगा है.

ध्यान देने की बात है कि इस वित्त वर्ष के लिए राज्य का बजट आकार 27,365 करोड़ रुपये का है. पर सरकार एक दिसंबर, 2011 तक मात्र 10 हजार करोड़ रुपये का उपयोग कर सकी है. मतलब साफ है, उसके सामने 31 मार्च, 2012 तक 17 हजार करोड़ रुपये से अधिक का उपयोग करने की चुनौती है. अब सवाल यह है कि क्या सरकार ऐसा कर सकेगी. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जितनी रकम वह पिछले 9-10 महीने में उपयोग कर सकी है क्या उससे लगभग तीन गुना राशि वह तीन महीने में इस्तेमाल कर सकेगी? सवाल यह भी है कि क्या सचमुच सरकार की मशीनरी इतनी नाकारा और वित्तीय प्रबंधन इतना लचर है, जैसा कि विपक्ष के नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी आरोप लगाते हैं. ये सारे सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि राज्य के वित्तमंत्री सुशील कुमार मोदी 18 जनवरी को दिल्ली गए थे जहां बजट पूर्व बैठक में वे वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी से वर्ष 2012-13 में सूबे के लिए अतिरिक्त चार हजार करोड़ रुपये की मांग रख आए, जबकि राज्य सरकार मौजूदा वित्त वर्ष के पैसे का ही उपयोग नहीं कर पाई है.
सिद्दीकी सरकार पर वित्तीय कुप्रबंधन का आरोप लगाकर ही नहीं रुकते. वे कहते हैं, ‘सरकार 31 मार्च तक अफरातफरी में बाकी बचे 70 प्रतिशत धन का उपयोग भी कर देगी, क्योंकि वह ऐसा पिछले साल भी कर चुकी है.’ वे आगे कहते हैं, ‘अफरातफरी में धन खर्च करने के तीन ही हश्र हो सकते हैं- पहला इस धन की मार्च लूट होगी, दूसरा इस धन का बड़ा हिस्सा निगमों या प्राधिकारों में पार्क कर दिया जाएगा. और तीसरी संभावना यह हो सकती है कि उपयोग न करने की स्थिति में ये राशि लैप्स हो जाएगी.’

सिद्दीकी के मुताबिक सरकार की यह आदत हो गई है कि वह हर वित्त वर्ष के पहले नौ महीने में मात्र 30 प्रतिशत राशि खर्च करती है और बाकी के तीन महीने में 70 प्रतिशत रकम की बंदरबांट हो जाती है. वे कहते हैं, ‘केंद्र प्रायोजित योजनाओं जैसे मनरेगा, सर्वशिक्षा अभियान और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन जैसे कार्यक्रमों में सुनियोजित लूट मचाने के लिए ऐसा किया जाता है जिसका फायदा सरकार में शामिल कुछ रसूखदार मंत्री और अधिकारी उठाते हैं.’

उधर, अर्थशास्त्री शैवाल गुप्ता धन के खर्च किए जाने के कुछ तकनीकी मुद्दों का जिक्र करते हुए सरकार का बचाव करते हैं. शैवाल कहते हैं, ‘यह कहना कि सरकार पैसों का उपयोग नहीं कर पाई है, उचित नहीं है. अकसर होता यह है कि विभिन्न मदों में काम करा लिया जाता है पर उस काम के बदले किया जाने वाला भुगतान सरकार मौजूदा वित्त वर्ष के अंत तक यानी 31 मार्च तक कर देती है.’ शैवाल आगे कहते हैं कि कई बार बजट प्रावधान में केंद्र अपने हिस्से की राशि समय पर नहीं भेजता जिसके कारण भी पैसों का उपयोग कभी-कभी समय पर नहीं हो पाता.

सिद्दीकी के आरोप लगाने के बाद दूसरे दिन ही उपमुख्यमंत्री और वित्त मामलों के मंत्री सुशील कुमार मोदी ने अखबारों में अपनी प्रतिक्रिया देते हुए केंद्र सरकार पर आरोप लगाया था कि उसने सर्वशिक्षा अभियान के लिए तयशुदा राशि में से छह हजार करोड़ रुपये अभी तक नहीं दिए हैं. मोदी का यह बयान सिद्दीकी द्वारा पैसे नहीं खर्च कर पाने के राज्य सरकार पर लगाए आरोप के जवाब के रूप में देखा गया. हालांकि मोदी ने अपने बयान में कहीं भी सिद्दीकी या विपक्ष का जिक्र नहीं किया. मोदी के इस बयान की तरफ सिद्दीकी का ध्यान दिलाने पर उनका जवाब आता है, ‘यह सच हो सकता है कि केंद्र ने सर्वशिक्षा अभियान के पैसे रोक लिए हों पर एक आम आदमी भी यह जानता है कि पहले से खर्च किए गए पैसे का उपयोगिता प्रमाण पत्र देने के बाद ही केंद्र सरकार बाकी राशि की अगली किस्त जारी करती है.’ सिद्दीकी आगे कहते हैं, ‘यह राज्य सरकार की जिम्मेदारी है कि वह उपयोगिता प्रमाण पत्र केंद्र को भेजती. राज्य सरकार ने उपयोगिता प्रमाण केंद्र को क्यों नहीं दिया और अगर दिया तो मोदी जी को इस बात का उल्लेख करना चाहिए कि केंद्र ने उपयोगिता प्रमाण पत्र देने के बावजूद बाकी पैसे नहीं दिए.’

पक्ष और विपक्ष के तर्क-वितर्क को कुछ देर के लिए किनारे भी रख दें तो भी योजना एवं विकास विभाग के आंकड़े सरकार के खिलाफ आरोपों को मजबूती प्रदान करते लगते हैं. आंकड़े बताते हैं कि गरीबों तक रोटी पहुंचाने वाला खाद्य एवं आपूर्ति विभाग अपने कुल हिस्से के 31,983.97 लाख रुपये में से मात्र 344.33 लाख रुपये ही खर्च कर पाया है. यानी मात्र 1.08 प्रतिशत. इतना ही नहीं, इस विभाग के सामने 31 मार्च से पहले किसानों से धान खरीदने की बड़ी चुनौती है, पर किसानों का आरोप है कि धान खरीद में बिचौलियों का बोलबाला है जिसके कारण उन्हें उनके अनाज के पैसों का भुगतान भी नहीं हो पा रहा है. जबकि खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री श्याम रजक बार-बार दावा करते रहे हैं कि सरकार हर हाल में किसानों को वाजिब दाम देने के अपने वादे पर कायम है. इसी प्रकार बजट के उपयोग के मामले में शिक्षा और स्वास्थ्य विभाग, जो सरकार के एजेंडे पर प्रमुख हैं, क्रमश: 43 और 32 प्रतिशत राशि का ही उपयोग कर सके हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण विभागों में अगर सरकार आवंटित धनराशि का अधिकतम उपयोग कर पाती तो जाहिर है कि इससे आम जनता के लिए ज्यादा से ज्यादा कल्याणकारी योजनाओं का क्रियान्वयन हुआ होता.

इसी प्रकार राज्य सरकार सूबे के विकास के लिए उद्योग पर बहुत जोर देती है क्योंकि उसका मानना है कि राज्य का विकास तभी संभव है जब यहां उद्योगों का विकास हो. पर आंकड़े चौंकाते हैं. उद्योग विभाग द्वारा पैसे के उपयोग की स्थिति तो सबसे दयनीय है. उद्योग पर सरकार ने 47,245 लाख रुपये जुटाए थे. पर इसमें से एक नये पैसे का उपयोग भी वह नहीं कर सकी. यही हाल निबंधन, उत्पाद एवं मद्यनिषेध और वाणिज्य कर विभाग का भी है.

पटना विश्वविद्यालय के वरिष्ठ अर्थशास्त्री प्रोफेसर नवल किशोर चौधरी इन आंकड़ों को देखते हुए अपनी चिंता और नाराजगी जताते हुए कहते हैं, ‘राज्य सरकार अपनी जिम्मेदारियों से यह कह कर नहीं बच सकती कि उसे केंद्र ने अपने हिस्से का पैसा समय पर नहीं दिया. क्योंकि राज्य सरकार अपने बजट का प्रावधान सिर्फ केंद्र के भरोसे नहीं करती. वह ज्यादातर विभागों में कम से कम आधा पैसा अपने स्तर पर जुटाती है. इसलिए अगर वह अभी तक कुल बजट का आधा उपयोग भी कर चुकी होती तो उसका यह बहाना कुछ हद तक स्वीकार्य हो सकता था. पर उसने तो मात्र एक तिहाई राशि का ही उपयोग किया.’ सिद्दीकी की बातों से सहमति जताते हुए चौधरी भी कहते हैं कि सरकारी मशीनरी में फैले भ्रष्टाचार के चलते सरकार बजट के पैसों का उपयोग नहीं कर पाती, क्योंकि लालफीताशाही पैसों को खर्च करने से पहले ही अपना कमीशन तय कर लेना चाहती है. नतीजा यह होता है कि पैसों का समय पर उपयोग नहीं हो पाता. और जब वित्त वर्ष समाप्ति पर आता है तो उसका परिणाम मार्च लूट के रूप में देखने
को मिलता है.

बिहार में पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से विकास की गति तेज हुई है उसका असर राज्य में देखने को तो मिल रहा है. पर सरकार अपने बजट प्रावधानों का शत-प्रतिशत उपयोग करने में अगर सफल रहती तो संभव था कि राज्य की जनता को न सिर्फ कल्याणकारी योजनाओं का और अधिक लाभ हुआ होता बल्कि विकास की रफ्तार और भी तेज होती.