बजट रे बजट, तेरा रंग कैसा!

The Union Minister for Finance and Corporate Affairs, Smt. Nirmala Sitharaman delivering the keynote address at the Maximum India Conclave 2021, organised by the Indian Private Equity and Venture Capital Association (IVCA), through video conferencing, in New Delhi on October 06, 2021.

इस बार के बजट को आम आदमी को अँगूठा दिखाने वाला माना गया

भारत में कहा जाता है कि देश का बजट जनता के लिए कम, राजनीति के लिए ज़्यादा बनाया जाता है। या कभी-कभी चुनाव के लिए भी। लेकिन इस बार का बजट इनमें से किसी भी खाँचे में नहीं बैठता। साल भर के किसान आन्दोलन को रोकने के लिए तीन कृषि क़ानून वापस लेने की घोषणा के दो महीने बाद यह बजट आया। लेकिन किसान इससे क़तर्इ ख़ुश नहीं हैं।

मध्यम वर्ग, जिसने सन् 2014 और सन् 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा, खासकर नरेंद्र मोदी पर भरोसा करके उन्हें प्रधानमंत्री चुनने के उद्देश्य से भाजपा के पक्ष में बहुमत के साथ मतदान किया; उसे इस बजट से नाउम्मीदी मिली। युवाओं के लिए बजट में 60 लाख नौकरियाँ र्इज़ाद करने की ओर काम करने की बात कही गयी है। लेकिन मोदी सरकार का रोज़गार देने के मामले में रिकॉर्ड बहुत बेहतर नहीं है। ऊपर से हाल के दो वर्षों में कोरोना महामारी के बार-बार फैलते संक्रमण और पिछले समय में दो बार हुई तालाबंदी के कारण जिन करोड़ों लोगों का रोज़गार गया, उनमें से आधे से ज़्यादा आज तक घरों में बेकार बैठे हैं। क्योंकि सरकार ने पाबंदियाँ तो लगा दीं; लेकिन उनके रोज़गार की कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की थी। इस बार के बजट को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अगले 25 साल का आईना बताया है। प्रधानमंत्री मोदी ने इसे आत्मनिर्भरता की तरफ़ एक और बड़ा क़दम बताया है। लेकिन बेहद कमज़ोर अर्थ-व्यवस्था के इस दौर में जब आम आदमी को राहत की ज़रूरत है; क्या उस वर्ग को नज़रअंदाज़ करके इस बजट को आत्मनिर्भरता वाला और 25 साल के लिए आईना वाला बजट माना जा सकता है? भविष्य की ज़रूरतों के नाम पर क्या आम आदमी की वर्तमान ज़रूरतों की बलि दी जा सकती है? भारत के कल्याणकारी राज्य होने की अवधारणा के विपरीत जाकर इस तरह के बजट को कैसे आकांक्षाओं को पूरा करने वाला बजट कहा जा सकता है? यहाँ तक कि आयकर की सीमा (स्लैब) भी नहीं बढ़ायी गयी, जिससे आम आदमी निराश है।

कोरोना-काल के पिछले दो साल आज़ादी के बाद भारत की सबसे बुरी तस्वीर दिखाने वाले रहे हैं। दुनिया ने भारत के गाँवों से शहरों में नौकरियों के लिए आये करोड़ों ग़रीब और निम्न-माध्यम वर्ग के लोगों को छोटे-छोटे बच्चों के साथ कच्ची-पक्की सडक़ों पर 500 से 2,000 किलोमीटर तक या उससे भी अधिक पैदल जाते देखा है। ऐसे देश में बजट किस पर फोकस होना चाहिए? इस पर ही कई सवाल हैं। कई आर्थिक जानकार मानते हैं कि देश का बजट किसी भी रूप में बहुसंख्यक आबादी का प्रतिनिधित्व नहीं करता। इसका एक कारण यह भी है कि इन लोगों की आवाज़ नक्कारखाने में तूती (भीड़ के शोर-शराबे में कही गयी बात) जैसी है।

तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता डेरेक ओब्रायन बजट पर कहते हैं- ‘बजट से साबित होता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसानों, $गरीबों और मध्य वर्ग की परवाह नहीं करते। हीरे (कॉर्पोरेट लोग) सरकार के सबसे अच्छे मित्र हैं। किसानों, मध्य वर्ग, दिहाड़ी मज़दूरों, बेरोज़गारों की प्रधानमंत्री कोई परवाह नहीं करते।’

इसी तरह भाकपा नेता अतुल कुमार का कहना है- ‘एक तरफ़ ग्रामीण भारत और आम लोगों को बजट में कोई राहत नहीं। दूसरी ओर कारपोरेट कर कम करके देश के सम्पन्न लोगों को सहूलियत दी गयी है। किसानों, युवाओं के लिए कुछ नहीं किया। सरकार देश की आर्थिक प्रगति की गाड़ी को पटरी पर लाने में विफल साबित हुई है।’

राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े बजट पर कहते हैं- ‘सरकार के वादे एक के एक बाद झूठ साबित होते जा रहे हैं। राजकोषीय घाटा बहुत ही ज़्यादा है। कॉरपोरेट कर घटाया; लेकिन आम लोगों को राहत नहीं दी। मैं तो यही कहूँगा कि यह द्रोणाचार्य और अर्जुन का बजट है। एकलव्य का बजट नहीं है।’

किसान देश का बड़ा मुद्दा हैं। उनका आन्दोलन हुआ, तो दुनिया भर के मीडिया में इसकी चर्चा हुई और किसानों की दुर्दशा पर चिन्ता जताने वाले सम्पादकीय लिखे गये और ख़बरें छपती रहीं। लेकिन देश के मीडिया का प्रभावशाली वर्ग (गोदी मीडिया) किसानों को ख़ालिस्तानी, आतंकवादी और दलाल ठहराने की कोशिश करता रहा। बजट पर किसान संघर्ष समिति के अध्यक्ष राकेश टिकैत ने कहा- ‘आम बजट में मोदी सरकार ने एमएसपी का बजट पिछले साल के मुक़ाबले कम कर दिया है। पिछले बजट (2021-22) के बजट में एमएसपी की ख़रीदी पर बजट 2,48,000 करोड़ रुपये था, जिसे वित्त वर्ष 2022-23 के बजट में घटाकर 2,37,000 करोड़ रुपये कर दिया गया है। यह भी सिर्फ़ धान और गेहूँ की ख़रीदी के लिए है। इसे लगता है कि सरकार दूसरी फ़सलों की ख़रीदी एमएसपी पर करना ही नहीं चाहती।’

टिकैत का यह भी आरोप है कि किसानों की आय दोगुनी करने, सम्मान निधि देने और दो करोड़ रोज़गार देने की बात नहीं हुई। एमएसपी, खाद-बीज, डीजल और कीटनाशक पर कोई राहत नहीं दी गयी है। इससे ज़ाहिर होता है कि सरकार किसानों के साथ धोखा कर रही है। युवाओं को 60 लाख रोज़गार देने का वादा बजट में है। लेकिन हक़ीक़त यह है कि हाल के वर्षों में इस मोर्चे पर बहुत कमज़ोर हुआ है। दिल्ली के अतुल चौक में एक युवा अग्रिम कपूर ने कहा- ‘काहे का रोज़गार मिलेगा? पहली बार बजट थोड़ी आया है। पिछले बजटों में रोज़गार के जो वादे किये थे इन्होंने; क्या वो पूरे हुए? आप मीडिया वाले भी यह बातें नहीं उठाते।’ हालाँकि मोदी सरकार वरिष्ठ मंत्री नितिन गडकरी- ‘यह बजट एक विजन पेश करता है कि इस साल और आने वाले वर्षों में देश की अर्थ-व्यवस्था की रफ़्तार कैसी रहेगी।’

बेरोज़गारी बड़ा मुद्दा

यह बजट संसद में पेश में होने के ठीक एक हफ़्ते बाद 9 फरवरी को राज्यसभा में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद रॉय ने एक सवाल का जवाब में बताया कि सन् 2018 से सन् 2020 के बीच 25,231 से ज़्यादा लोगों ने बेरोज़गारी और क़र्ज़ा में डूबने के कारण आत्महत्या की है। केंद्रीय मंत्री ने बताया कि इसमें से 9,140 लोगों ने बेरोज़गारी के कारण, तो वहीं 16,091 लोगों ने क़र्ज़ा से दु:खी होकर आत्महत्या की। ये आँकड़े राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने उपलब्ध कराये हैं। नित्यानंद रॉय के बयान से समझा जा सकता है कि देश में बेरोज़गारी की क्या हालत है?

इस बार के बजट सत्र में कांग्रेस सहित पूरे विपक्ष ने बेरोज़गारी के मुद्दे पर सरकार को ख़ूब घेरा। विपक्ष का आरोप था कि कोरोना-काल में सरकार की नीतियों ने बेरोज़गारी को और बढ़ाया है। दिलचस्प यह रहा कि बेरोज़गारी को लेकर सरकार ने राज्यसभा में कुछ महत्त्वपूर्व जानकारियाँ एक सवाल के जवाब में प्रस्तुत कीं। सरकार ख़ुद कह रही है कि सन् 2018 से सन् 2020 के बीच 25,000 से अधिक भारतीयों ने बेरोज़गारी और क़र्ज़ा से दु:खी होकर आत्महत्या की है।

सरकार के आँकड़ों के मुताबिक, 2018 के मुक़ाबले 2020 में बेरोज़गारी से होने वाली मौतों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। सन् 2018 में बेरोज़गारी के कारण जान देने वाले लोगों की संख्या 2,741 थी; लेकिन सन् 2020 में यह संख्या 3,548 तक पहुँच गयी। सन् 2019 में 2,851 भारतीयों ने रोज़गार नहीं होने की वजह से आत्महत्या की। वहीं क़र्ज़ा से दु:खी होकर आत्महत्या करने वालों की संख्या में उतार-चढ़ाव देखने को मिला। सन् 2018 में दिवालियापन और क़र्ज़ा के कारण आत्महत्या करने वाले लोगों की संख्या 4,970 थी, जबकि सन् 2019 में यह आँकड़ा बढक़र 5,908 हो गया। सन् 2020 में यह घटकर 5,213 हो गया। लेकिन ग़रीब व्यक्ति की मौत भी सरकारी आँकड़ों और आलमारियों में सजने भर की चीज़ रह गयी है। ऐसे में बजट को अगले 25 साल का आईना बताकर परोसा जाता है और आम आदमी को इसमें अँगूठा दिखा दिया जाता है।

 

“बजट 2022 से देश को आधुनिकता की तरफ़ ले जाया जाएगा। भारत का आत्मनिर्भर बनने के साथ-साथ, इसकी नींव पर ही आधुनिक भारत का निर्माण करना ज़रूरी है।’’

नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री

 

“मोदी सरकार के बजट में कुछ नहीं है। मध्यम वर्ग, वेतनभोगी वर्ग, ग़रीब और वंचित वर्ग, युवाओं, किसानों और एमएसएमई के लिए कुछ नहीं है।’’

राहुल गाँधी

कांग्रेस नेता

 

“बेरोज़गारी और महँगाई से पिस रहे आम लोगों के लिए बजट में कुछ नहीं है। बड़ी-बड़ी बातें हैं और हक़ीक़त में कुछ नहीं है। यह पेगासस स्पिन बजट है।’’

ममता बनर्जी

मुख्यमंत्री, पश्चिम बंगाल

 

“बजट किसके लिए है? सबसे अमीर 10 फ़ीसदी भारतीय देश की कुल सम्पत्ति के 75 फ़ीसदी के स्वामी हैं। महामारी के दौरान सबसे अधिक मुनाफ़ा कमाने वालों पर अधिक कर क्यों नहीं लगाया गया?’’

सीताराम येचुरी

महासचिव, माकपा

 

“केंद्रीय बजट नये वादों के साथ जनता को लुभाने के लिए लाया गया है केंद्र बढ़ती ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई और किसानों की आत्महत्या जैसी गम्भीर चिन्ताओं से मुक्त क्यों है?’’

मायावती

बसपा प्रमुख

 

“करोना-काल में लोगों को बजट से बहुत उम्मीद थी। बजट ने लोगों को मायूस किया है। आम जनता के लिए बजट में कुछ नहीं है। महँगाई कम करने के लिए कुछ नहीं है।’’

अरविंद केजरीवाल

मुख्यमंत्री, दिल्ली

 

“बजट में ग्रामीण भारत और आम लोगों को कोई राहत नहीं है। किसानों, युवाओं के लिए कुछ नहीं किया गया।’’

अतुल कुमार अंजान

भाकपा नेता