Wednesday, September 10, 2025
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धर्म का धर्म

imh4जब भी हम धर्म पर विचार करते हैं तो किसी धर्म विशेष को उसके किसी मूर्त बिंदु जैसेकि कोई विशिष्ट व्यक्ति या विधि के हिसाब से देखने लगते हैं. लेकिन धर्म वास्तव में किसी व्यक्ति विशेष के क्रियाकलाप नहीं हैं और न ही किसी विधि विशेष का अनुसरण. ये तो उसके बाह्य स्वरूप मात्र हैं. किसी भी विचार या संकल्पना के बाह्य स्वरूप से उसे पूर्ण समग्रता के साथ परिभाषित नहीं किया जा सकता. जैसे जल का बाह्य स्वरूप तरल और शीतल है लेकिन उसका अंतस दो अत्यंत प्रज्वलनशील गैसों हाइड्रोजन और आॅक्सीजन की संधि का परिणाम है. मात्र इतना कह देना कि जल शीतल और तरल है, जल की आधी-अधूरी परिभाषा होगी. लोगों की अलग-अलग समझ है और इसलिए विशिष्ट व्यक्तियों और विधियों को देखने-समझने का उनका तरीका भी अलग है. इसलिए धर्म की कोई सार्वभौमिक, सर्वमान्य और समग्र परिभाषा नहीं होती. किसी एक समूह को कोई एक परिभाषा मान्य होती है जिसे अपनाकर वह अपना धर्म मान लेता है तो किसी दूसरे समूह को कोई दूसरी. जितने समूह उतने धर्म. धर्म का प्रचलित स्वरूप समाज के समूह विशेष की अस्मिता को परिभाषित करता है परिणामस्वरूप वह धर्म को एक ब्रांड के रूप में उपयोग में लाता है.

राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर और नानक किसी समूह विशेष के धर्म की स्थापना के लिए नहीं आए, वे आए थे शिथिल समाज को स्पंदित करने के लिए. परंतु समाज ने उन्हें अपनी अस्मिता हेतु अपने समूह का ब्रांड एंबेसडर बना दिया. गैर भारतीय समाजों में भी यही हुआ.

ज्ञान का प्रथम पाठ शंका है. शंका की कोख से ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है. शंका नहीं होगी तो अन्वेषण और चिंतन नहीं होगा और इनके न होते हुए ज्ञान अर्जित नहीं होगा. ज्ञान का केंद्र मस्तिष्क या बुद्धि है. लेकिन अध्यात्म इनपर आधारित नहीं होता तो वह कैसे परिभाषित होगा? मनुष्य इसे अनुभव करता है. ज्ञान से अध्यात्म अप्राप्य है.

क्या समाज का कोई सामूहिक अध्यात्म भी होता है? सरसरी तौर से सोचने पर लगता है कि शायद सामूहिक अध्यात्म का वजूद नहीं होता लेकिन थोड़ा गहराई से सोचें तो अन्य समाजों में न सही लेकिन भारतीय समाज के मानस में सामूहिक अध्यात्म एक अविभाज्य अंग रहा है.

जब धर्म संस्थागत होने लगता है तो वह समाज को अपनी जकड़न में बांधता है जबकि उसका उद्देश्य मनुष्य को मुक्त करना है. संस्थागत धर्म कभी-कभी प्रकृति के मूल नियमों के विरुद्ध चलने लगता है

यदि समाज का सामूहिक धर्म और अध्यात्म एक नहीं होते तो यह द्वंद्व की स्थिति है. भारतीय समाज ने इस द्वंद्व को बहुत ही सकारात्मक ढंग से जीना सीखा. इस समाज में धर्म और अध्यात्म का द्वंद्व उन दो धागों की तरह है जिसमें एक की गति ऊर्ध्वाधर (वर्टिकल) होती है तो दूसरा धागा उसे क्षैतिज (हॉरिजेंटल)दिशा से काटता है. जिस तरह वस्त्र का निर्माण ताने और बाने की परस्पर विरोधी दिशाचाल का परिणाम है उसी तरह धर्म और अध्यात्म के द्वंद्व के परिणामस्वरूप ही इस समाज का निरंतर निर्माण और विकास हुआ.

भारतीय समाज में दो मुख्य धर्म समूह – हिंदू और मुसलमान – कभी-कभी अपनी ही दिशा को सही दिशा मानने लगते हैं और दूसरे की दिशा और गति को रोकने का काम करते हैं. वे यह भूल जाते हैं कि इस जिद से तो इस समाज के विकास का ह्रास ही होगा. भले ही यह स्थिति एक छोटे कालखंड तक ही सीमित रहती है लेकिन अपना प्रभाव अवश्य छोड़ जाती है.

सन 1993 के बाद से उभरती इस जिद को दोनों भारतीय समाजों को घटनामात्र मानकर भूलना नहीं चाहिए. इसे भूलना एक बड़ी भूल होगी बल्कि उससे यह सबक लेना होगा कि विचारों की भिन्नता के पारस्परिक द्वंद्व का ह्रास इस संपूर्ण समाज के अस्तित्व के लिए घातक होगा.

दुनिया के अन्य समाजों के समकक्ष भारतीय समाज अत्यंत विशिष्ट है. यह समाज दुनिया की हर धर्म पद्धति, हर रंग और रूप के साझेपन को अपने में संजोए है. यह उसी समाज में संभव है जहां समाज की आध्यात्मिक चेतना उसके मानस में मौजूद हो. यह वही सामाजिक अध्यात्म है जिसने इस समाज को तरल और लचीला बनाया. जो समाज कठोर और खुश्क थे वे टूट गए. भले ही कभी बेहद सशक्त एवं विशाल क्यों न रहे हों. अल्लामा इक़बाल जब यह प्रश्न पूछते हैं कि:

यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा सब मिट गए जहां से,
अब तक मगर है बाकी नाम ओ निशां हमारा.
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़मां हमारा.

इक़बाल के प्रश्न का उत्तर इस समाज की तरलता और लचीलापन है जिसने उसकी हस्ती को बचाए रखा.

भारतीय समाज यह बखूबी जानता है कि आध्यात्मिकता हिंदू, बौद्ध या ईसाई नहीं होती. उस पर किसी धर्म का आवरण नहीं चढ़ सकता. यह समाज यदि लचीला न होता तो शिरडी के एक मुसलमान फकीर को हिंदू समाज, साईं का दर्जा न देता और अपना आराध्य न बनाता. और न ही मुसलमान अपनी पूजा पद्धति को नमाज की संज्ञा देते. कुरान के मुताबिक इस्लामी पूजा ‘सलात’ के नाम से जानी जाती है लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप का मुसलमान तो इसे नमाज कहकर अदा करते हैं. नमाज का उद्गम नम: शब्द सेे हुआ है.

समाज की धार्मिक अस्मिता और आध्यात्मिकता अलग-अलग रहकर शिथिल और निष्क्रिय ही रहेंगी.  आध्यात्मिकता के पास दृष्टि होती है किंतु गति नहीं और समाज की धार्मिक अस्मिता के पास गति तो है लेकिन दिशा ज्ञान नहीं. धर्म और आध्यात्मिकता का संगम दृष्टि एवं दिशा का मेल होगा. यदि यह समाज इस मिलाप के तारतम्य को समझ कर चलेगा तो इसके विकास और नवनिर्माण की क्रिया निर्बाध चलती रहेगी. यह इस समाज को समझना होगा कि अब तक इसी मिलाप और सामंजस्य के तहत विपरीत परिस्थितियों में भी इसका ह्रास नहीं हुआ. इसीलिए बहुतेरे समाज बने और बिगड़े लेकिन भारतीय समाज अब भी जिंदा और गतिशील है.

जब धर्म संस्थागत होने लगता है तो वह समाज को अपनी जकड़न में बांधता है जबकि उसका मूल उद्देश्य मनुष्य को मुक्त करना है. यह संस्थागत धर्म कभी-कभी तो प्रकृति के मूल नियमों के विरुद्ध आचरण करने लगता है. इस परिस्थिति में संस्था सर्वोच्च होने लगती है और धर्म गौण. ईसाई धर्म में जब चर्च और उसका पादरी सर्वोपरि हुआ तो वह गैलीलियो की मुक्त आवाज को जकड़ लेता है जिसने बाइबल के उस सिद्धांत को चुनौती दी जिसमें कहा गया था कि सूर्य पृथ्वी के इर्द-गिर्द घूमता है. जबकि गैलीलियो ने यह सिद्ध किया कि पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगाती है. गैलीलियो के इस विचार को धर्म विरुद्ध करार दिया और उससे कहा गया कि या तो वह माफी मांग ले और अपनी पुस्तक से वह अंश निकाल दे जो बाइबल और चर्च के खिलाफ है नहीं तो मृत्युदंड भुगतने के लिए तैयार रहे. गैलीलियो ने कहा कि वह अपनी पुस्तक से इस अंश को निकाल तो लेगा परंतु यह तो किसी भी हाल में लिखेगा कि गैलीलियो के माफी मांगने के बावजूद भी पृथ्वी ही सूर्य के चक्कर लगाएगी!

आज दुनिया के समस्त तथाकथित विकसित समाजों में बाजार नाम की संस्था सर्वोच्च बन रही है जो मनुष्य के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का केंद्र बन बैठी है और प्रकृति पर विजित होने का दंभ भरने लगी है. मानवीय मूल्यों और प्रकृति को बिकने वाली वस्तु बना दिया है. बाजार की मठाधीशी आज दुनिया का सबसे बड़ा संकट है और इस समय धर्म और अध्यात्म का यह कर्त्तव्य बन पड़ता है कि वह बाजार की संस्था को चुनौती दे और मानवीय मूल्यों और प्राकृतिक उपहारों को ‘माल’ में तब्दील कर उन्हें बेचने की प्रवृत्ति पर लगाम लगाए. धर्म का यह कर्त्तव्य बनता है कि वह प्रकृति के हर पदार्थ और जीव को उसका प्राकृतिक धर्म निभाने में सहायक सिद्ध हो. यही धर्म का धर्म है और उससे यही आशा भी है और विश्वास भी.

आशाएं और आशंकाएं
31 जनवरी 2009

हर शै बदलती है

img12हर शै बदलती है : इस जुमले में एक निहायत भोला-सा विश्वास है कि आनेवाला समय जरूर बेहतर समय होगा. मन में कुछ उम्मीद जगाता, कुछ आश्वासन देता कभी यह जुमला मेरी एक कहानी का शीर्षक बनकर आया था. इस बार नए साल को लेकर सोचने पर लगता है कि अब इस जुमले पर भरोसा रखना मुश्किल हो चला है. यों इस समय हवा में एक नाउम्मीदी दुनिया की आर्थिक मंदी में हमारी लड़खड़ाहट और मुंबई हादसे में आतंकवाद के खूंखारपन से जूझने में हमारी व्यवस्था की नाकामी के कारण घुली हुई है. पर स्थितियों के बदलने या बेहतर होने के प्रति मन के अविश्वास का कारण कुछ अधिक गहरा है. आज हर आदर्श, हर विश्वास और हर प्रतिबद्घता शक के दायरे में है कि कहीं उसके पीछे मानव-विरोधी नफरत तो नहीं.

क्या हम एक ऐसे समय में प्रवेश करने जा रहे हैं जहां हमें कांटेदार बाड़ों के अंदर से दुनिया देखनी होगी? क्या हम इस घिरी हुई दुनिया के भीतर सुरक्षा-बोध के साथ जी सकेंगे या अपने को लगातार सिकुड़ता हुआ और भयभीत पाएंगे? यह सवाल मेरे मन में सिर्फ दुनिया में बढ़ते आतंकवाद या सांप्रदायिक उन्माद जैसी वृहत्तर समस्याओं को लेकर ही नहीं है, बल्कि एक लेखक और एक स्त्री या एक स्त्री-लेखिका होने की अपनी भूमिका को लेकर  भी है.

मुझे लगता है कि आज की दुनिया में हाशिए पर जीते तमाम लोगों, स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यक समुदायों को सुरक्षा देने के नाम पर या उनकी अपने दुख की विशेषज्ञता के नाम पर एक कांटेदार  बाड़ में ढकेला जा रहा है. उन पर अपनी पहचान के लेबल इस तरह चस्पा किए जा रहे हैं कि वे अपने ‘आइडेंटिटी कार्ड’ के बिना नामहीन, अस्तित्वहीन हो जाएं. हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहां बातें बहुलतावाद और व्यक्ति की बहु-अस्मिताओं या ‘मल्टीपल आइडेंटिटी’ की हैं, पर हकीकत में हर व्यक्ति को एक बिल्ला लगाकर एक कटघरा दिया जा रहा है. जहां तक स्त्रियों की अस्मिता या उनके सशक्तीकरण का सवाल है तो मुझे लगता है कि कुछ नई डिजाइन की आकर्षक बेड़ियां चलन में हैं, जिन्हें स्त्री शौक से पहन ले और उसे पता भी न चले कि ये उसके नए बंधन हैं. या वह इस भ्रम में जीती रहे कि वह किसी कांटेदार बाड़ से नहीं घिरी है.

मनोरंजन, समाचार और विज्ञापन की दुनिया में हर तबके की औरत की प्रतिभा, उसकी सुंदरता, उसके क्रोध और यहां तक कि उसकी आजादी और गुलामी का भी एक मूल्य है जैसे बाजार में किसी भी सामान का होता है

दिल्ली में हमारे मित्र, जो एक मुख्य टीवीन्यूज चैनल में काम करते हैं, हाल के विधान सभा चुनावों की रिपोर्टिंग के बारे में बता रहे थे. आम तौर पर 24 घंटों में 16 घंटे समाचार वाचिकाओं के चेहरे उनके चैनल पर नजर आते हैं. किन्तु जब चुनावों के बारे में समाचार आ रहे थे, तो वहां पुरुषों का वर्चस्व या कहें कि एकाधिकार नजर आ रहा था. यदि इसका अर्थ यह निकलता है चुनाव जैसे गंभीर और निर्णायक विषयों पर स्त्रियों में बोलने की काबिलियत नहीं है तो शायद हम मीडिया में स्त्रियों के सशक्तीकरण की बात को सच मानकर अपने को मुगालते में रख रहे हैं.

नए वर्ष से जुड़ी आशाओं और आशंकाओं के बारे में जब मुझे स्त्री-समस्याओं के संदर्भ में लिखने को कहा जाता है, तो मुझे अपनी बाड़ के कांटे चुभने लगते हैं. इसका आशय यह कतई नहीं है कि मुझे लगता है कि इक्कीसवीं सदी की स्त्री ने सारी समस्याओं का हल पा लिया है या जो स्त्रियां इस विषय पर लिख रही हैं, उनका लेखन किसी तरह से कमतर लेखन है. पर मुझे हर बार लगता है कि मुझे बताया जा रहा है कि तुम्हारी बाड़ के बाहर की दुनिया पर लिखने की कूवत तुम्हारी नहीं है या उससे बाहर उड़ने की तुम्हें कोई जरूरत नहीं है.

हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहां स्त्री की सजावटी सामान के तौर पर कीमत किसी भी और समय से ज्यादा है. जिस तरह बॉलीवुड की किसी फिल्म की कल्पना आप किसी परी चेहरे के बिना नहीं कर सकते, उसी तरह फिलहाल हमारी दुनिया की आधुनिकता के विमर्श में स्त्री का एक खास सजावटी मूल्य है. किसी लोकतंत्र की पार्लियामेंट या सीनेट में महिलाओं की संख्या अगर नहीं के बराबर है, तो संभावना यही है कि उसे एक पिछड़ा हुआ समाज या देश मान लिया जाएगा. आज स्त्री की स्वतंत्रता या कहें कि उसकी तथाकथित स्वतंत्रता आधुनिक होने का प्रमाण-पत्र बन चुकी है. दूसरे शब्दों में कहें, तो ‘मेन्स ओनली’ या ‘सिर्फ पुरुषों के लिए’ क्लब अब फैशन में नहीं हैं.

स्त्रियों का एक खास उपयोग टीवी के तरह-तरह के रियेलिटी शो और क्रिकेट में मन्दिरा बेदी तक नजर आ रहा है. यहां स्त्री मूर्ख नहीं है, अपने विषय की उसे जानकारी है, वह अपनी बात को कहने का तरीका जानती है, लेकिन उसकी एक तयशुदा जगह या स्तर है, जिससे ऊपर उठने की कोई अपेक्षा किसी को नहीं है. विडम्बना यह है कि ‘गृहशोभा’ से ‘मंच-शोभा’ के इस प्रोमोशन में स्त्री की अस्मिता का जो अवमूल्यन है, वह आसानी से नजर नहीं आता.

फिलहाल हमारा देश बहुत चाव से ‘बालिका वधू’ नाम का सीरियल देख रहा है, जो कि अनिवार्यत: खाए-पिए-अघाए उच्चवर्ग की कहानी होते हुए भी एक गरीब लड़की के बिक्री-खरीद का सामान होने की भी कथा है. कथानक दिलचस्प है, अभिनय बढ़िया है और ज्यादातर देखनेवाले आश्वस्त हैं कि उनकी लड़कियों को अपना बचपन इस तरह खोना नहीं पड़ेगा. पता नहीं कि जिन लड़कियों को बालिका-वधू बनना पड़ सकता है, उनमें से कितने मां-बाप इस सीरियल को देखकर इससे विरत होंगे.

बात शायद इतनी ही है कि औरत का शोषण मनोरंजन के विराट बाजार में एक बेहद बिकाऊ तत्व है. उतना ही बिकाऊ, जितनी कैटरीना कैफ की सुंदरता, जिसकी तस्वीर पिछले दिनों कोलकाता के अखबार ‘द स्टेट्समैन’ के पहले पन्ने को पूरी तरह घेरे हुए किसी गहने की कंपनी का विज्ञापन करती नजर आई. मानो यही देश की सबसे बड़ी खबर थी. मुंबई के आतंकी हमले का प्रतिवाद करती औरतों की लिपस्टिक और पाउडर ही कुछ लोगों को नजर आया; दूसरी ओर विडम्बना यह कि मीडिया ने इस हादसे पर मुंबइकरों की राय जमा करने में ‘पेज थ्री’ के लोगों को सबसे ज्यादा जगह दी.

मनोरंजन, समाचार और विज्ञापन की मिली-जुली दुनिया में गांव से लेकर महानगर की हर तबके की औरत की प्रतिभा, उसकी सुंदरता, उसका क्रोध और यहां तक कि उसकी आजादी और गुलामी का भी एक मूल्य है जैसे बाजार में किसी भी सामान का होता है. लेकिन उसकी अपनी अस्मिता या मनुष्य के रूप में उसकी उपस्थिति का यहां जो क्षय या अवमूल्यन है, वह इतना महीन और इतना मनोरंजक है कि आम तौर पर खुद उसे किसी तरह की शिकायत नहीं होती. अक्सर आप उसके चेहरे पर एक संतोष और एक गर्व का भी भाव देख सकते हैं.

भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश में नारी की स्थिति को आंके, तो सत्ता के सबसे ऊंचे गलियारों में औरतें हैं. भले बेनजीर भुट्टो और इन्दिरा गांधी- सोनिया गांधी और शेख हसीना को वंशानुगत लाभ के चलते सत्ता मिली, लेकिन  हमारे यहां नीचे से ऊपर उठी पिछड़ों की रहनुमा, हीरों से जगमगाती मायावती भी हैं. यह कहना मुश्किल है कि इनमें से किस महिला को महिला होने का कितना लाभ मिला या उसे महिला होने की क्या कीमत चुकानी पड़ी है.  अक्सर हमारे यहां आधुनिकता एक बेहद उलझा हुआ मामला नजर आता है, जिसमें वर्ग, लिंग, जाति और संप्रदाय के तत्व गड्डमड्ड रहते हैं. कोडोंलिजा राइस या हिलेरी क्लिंटन के साथ इस तरह की बातें भले न काम करती हों, पर अमेरिका में ही सारा पालिन का स्त्रीत्व उनके उत्थान-पतन में निर्णायक रहा है.

भारत में आधुनिक युग के अंदर और उसके समानांतर मध्ययुग चलता आया है. आनेवाले समय में स्त्री के स्थान को लेकर आशावादी होना मुश्किल है क्योंकि विश्वव्यापी मंदी के दौर में उपभोक्तावादी वृत्ति हमारे यहां कन्या-भू्रण की हत्या से लेकर दहेज की हत्याओं का सिलसिला बढ़ाने ही वाली है. मनोरंजन की मंडी में स्वस्थ, सुंदर और वाक्पटु औरत का इस्तेमाल ‘टीआरपी’ या मुनाफा बढ़ाने की सामग्री के तौर पर किया जाता रहेगा. साहित्य-राजनीति और दूसरे क्षेत्रों में स्त्रीत्व के बिल्ले के साथ उसकी जगह अपनी बाड़ में तय की जाती रहेगी.

आशाएं और आशंकाएं
31 जनवरी 2009

आशंकाओं का हथौड़ा

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बात जब न्यायपालिका से जुड़ी आशाओं और आशंकाओं की हो तो पहले यह जानना जरूरी हो जाता है कि न्यायपालिका से इस देश में किस तरह की भूमिका निभाने की अपेक्षा की जाती है. न्यायपालिका का काम है कि वह किसी मामले को उस तक लेकर आए अलग-अलग पक्षों को न्याय दे. इसके अलावा उससे यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह संविधान और नागरिकों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा करेगी और यह भी सुनिश्चित करेगी कि कानून का पालन हो. इसका मतलब यह है कि उस पर अनुच्छेद 14 (बराबरी का अधिकार), 19 (अभिव्यक्ति, देश में कहीं भी आने-जाने और अपनी मर्जी का पेशा चुनने की स्वतंत्रता), 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) जैसे नागरिक अधिकारों की रक्षा करने की जिम्मेदारी है, न सिर्फ इनके शाब्दिक अर्थों के संदर्भ में बल्कि इनके पीछे छिपे व्यापक उद्देश्य के संदर्भ में भी जिसके तहत खुद सुप्रीम कोर्ट ने इन अधिकारों की व्याख्या की है.

इसलिए न्यायपालिका से यह अपेक्षा की जाती है कि देश के हर आम नागरिक को एक स्वतंत्र और गरिमापूर्ण जीवन के जो अधिकार मिले हुए हैं और जिनके तहत उसे रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि जैसी बुनियादी सुविधाओं का हक है, वह उनकी सुरक्षा करे. उससे यह सुनिश्चित करने की अपेक्षा भी की जाती है कि विधायिका और कार्यपालिका अपने अधिकारों की हद में रहकर ही काम करें और उनके किसी भी काम से लोगों के बुनियादी अधिकारों का अतिक्रमण न हो.

इन मानदंडों के नजरिए से देखा जाए तो बीते साल न्यायपालिका का प्रदर्शन निराशा जगाता है. जहां तक व्यक्तिगत मामलों में न्याय का सवाल है तो इस मोर्चे पर न्यायपालिका काफी हद तक एक निष्क्रिय संस्था नजर आती है. देश के अधिकांश नागरिकों की तो इस तक पहुंच ही नहीं है. जिनकी है उनमें से भी ज्यादातर के लिए न्याय व्यवस्था की शरण लेना बेकार की कवायद साबित होता है. ऐसे लोगों की संख्या दो फीसदी से ज्यादा नहीं होगी जो वर्तमान न्यायिक व्यवस्था से सार्थक न्याय पाने की आशा रखते हैं. गरीब के लिए अदालत की शरण लेना मुमकिन नहीं होता क्योंकि वह वकील की फीस नहीं दे सकता. जो किसी तरह ऐसा करने के साधन जुटा भी लेता है वह सालों तक अदालतों के चक्कर काटता है और आखिर में जब उसे न्याय मिलता है तो तब तक उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता.

न्यायपालिका से यह अपेक्षा की जाती है कि हर आम नागरिक को  गरिमापूर्ण जीवन के जो अधिकार मिले हुए हैं और जिनके तहत उसे रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं का हक है, वह उनकी सुरक्षा करे

पारदर्शिता और जवाबदेही न होने के चलते न्यायपालिका में फैले भ्रष्टाचार को देखा जाए तो वर्तमान न्यायिक व्यवस्था से न्याय की आशा रखना ज्यादातर लोगों के लिए मृगतृष्णा से ज्यादा कुछ नहीं.

विधि आयोग ने कई बार अदालतों और जजों की संख्या बढ़ाने की सिफारिश की है. सुप्रीम कोर्ट भी इस आशय के निर्देश दे चुका है मगर सरकार ने लगातार उसकी अवमानना की है. शीर्ष अदालत खुद भी अपने निर्देशों का पालन करवाने के प्रति गंभीर नहीं है. संख्या बढ़ाना तो दूर की बात है, अलग-अलग अदालतों में कई पद वर्तमान में खाली पड़े हैं और उन पर नियुक्तियां नहीं की जा रहीं.

हालांकि सब कुछ बुरा ही हो ऐसा नहीं है.

आशंकाओं के साए के साथ उम्मीदों की कुछ किरणें भी हैं. हाल ही में बना ग्राम न्यायालय कानून इसका उदाहरण है जिसके तहत ब्लॉक और तहसील स्तर पर और भी ज्यादा अदालतों की स्थापना की जानी है. इन अदालतों के कामकाज में अमूमन पाई जाने वाली जटिलताएं नहीं होंगी और वकीलों की मदद के बिना भी आम नागरिक को न्याय मिल सकेगा. अगर इन्हें तरीके से चलाया जाए तो यह ग्राम न्यायालय कम से कम छोटे-मोटे विवादों और अपराधों के मामले में तो आम आदमी को समय से न्याय दे सकेंगे.

हालांकि ग्राम न्यायालय की योजना तो अच्छी है मगर चुस्त न्याय व्यवस्था सुनिश्चित करने की दिशा में सरकार की सनातन सुस्ती को देखते हुए इसके समुचित क्रियान्वयन के लिए जनप्रतिनिधियों पर काफी दबाव बनाने की जरूरत होगी.

जहां तक दूसरे मोर्चे यानी संविधान के संरक्षक की जिम्मेदारी निभाने की बात आती है तो यहां पर भी न्यायपालिका का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है. कुछेक अपवादों को छोड़ दिया जाए तो हम पाते हैं कि लोगों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा करने में न्यायपालिका काफी हद तक असफल रही है. यहां तक कि जब विधायिका और कार्यपालिका ने इनका अतिक्रमण भी कर दिया तो भी यह स्थिति में हस्तक्षेप करने में नाकाम रही. अदालतों ने पोटा और सशस्त्र बल विशेष अधिकार जैसे बर्बर कानूनों की वैधता कायम रखी है. न्याय व्यवस्था की इस कमी के चलते इन कानूनों के तहत बिनायक सेन और दूसरे कई ऐसे बेकसूरों को जेल की यातनाएं झेलनी पड़ रही हैं जो निस्वार्थ और समर्पित भाव से अपना काम कर रहे थे. यहां तक कि जब निहित स्वार्थों के चलते सबूतों के साथ छेड़छाड़ करके बेगुनाह लोगों को सताया गया तब भी न्यायपालिका ने इसके लिए जिम्मेदार पुलिस अधिकारियों को दंड देने के लिए कोई कदम नहीं उठाया. इसका नतीजा यह हुआ है कि पुलिस की निरंकुशता बढ़ी है.

हाल ही में आतंकवाद, मानवाधिकार और कानून के विषय पर हुए एक सम्मेलन के दौरान भारत के मुख्य न्यायाधीश के जी बालकृष्णन ने कहा कि अंधराष्ट्रवाद के इस दौर में भी अदालतों का यह दायित्व है कि तथाकथित आतंकवादियों के नागरिक अधिकारों का आदर किया जाए. उम्मीद की जानी चाहिए कि अदालतें नागरिक अधिकारों खासकर सामाजिक कार्यकर्ताओं के बुनियादी अधिकारों से संबंधित मामलों में फैसला करते हुए इन शब्दों में छिपी भावना का सम्मान करेंगी.

दुर्भाग्य से गरीबों के लिए एक गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार के मामले में भी अदालतों की भूमिका अब मिसाल नहीं रही. बीते साल के दौरान देशी-विदेशी कंपनियों के व्यावसायिक हितों के लिए सरकार द्वारा गरीबों की जमीन और दूसरे संसाधनों के छीने जाने की घटनाओं में तेजी आई. गरीबों के संसाधन अमीरों को दिए जाने को रोकना तो दूर, अदालतें उल्टे इस लूट को प्रोत्साहन और मदद देती नजर आईं. इसका उदाहरण है पॉस्को और स्टरलाइट जैसी कंपनियों को उन जंगलों में खनन की अनुमति जो हजारों आदिवासियों का सब कुछ हैं. सरकार की नीतियों के फलस्वरूप संसाधनों की लूट, इतने बड़े पैमाने पर गरीबों के विस्थापन और खेती के सिमटते दायरे का नतीजा यह हुआ है कि कई जिंदगियां असमय कालकवलित हो रही हैं और हजारों लोग मजबूरी में शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं जहां उन्हें बेहद अमानवीय परिस्थितियों में रहना पड़ रहा है. उनके लिए समुचित आवास की सुविधा सुनिश्चित करवाना तो दूर अदालतें उल्टे उनके साथ किसी पॉकेटमार जैसा सुलूक कर रही हैं. अक्सर बिना कोई नोटिस दिए अदालतें उनकी झुग्गियां गिरा दी जाती हैं. इस सबसे गरीब तबके में सरकार और अदालतों के खिलाफ गुस्सा बढ़ता जा रहा है. हैरत नहीं कि नक्सलियों को और भी बड़ी संख्या में रंगरूट मिल रहे हैं और देश में उनका दायरा बढ़ता जा रहा है.

गरीबों के प्रति न्यायपालिका की इस संवेदनहीनता की एक वजह वह प्रक्रिया भी है जिसके तहत जजों का चुनाव और उनकी नियुक्ति होती है. इसमें मनमानी, पारदर्शिता और भाई-भतीजावाद हो रहा है. यही वजह है कि न्यायपालिका का शीर्ष स्तर कुछ चुनिंदा लोगों की बपौती बनकर रह गया है जिससे बदलाव सही मायने में नहीं आ पा रहा. यहां तक कि कुछ मामलों में यह पाए जाने पर भी कि नियुक्तियां वरिष्ठ जजों के से परामर्श (जो कि अनिवार्य है) लिए बिना की गईं, सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें रद्द नहीं किया. जज लगातार एक स्वतंत्र विधि आयोग बनाए जाने पर एतराज करते रहे हैं. अगर यह आयोग बन जाए तो जजों की नियुक्तियों में कुछ तो पारदर्शिता बरते जाने की आशा तो की जा सकती है.

बीते साल में कई न्यायिक घोटालों का विस्फोट देखने को भी मिला. इन मामलों ने एक संवैधानिक न्यायिक शिकायत आयोग की जरूरत को रेखांकित किया है जो जजों के खिलाफ लगने वाले आरोपों की जांच कर उनके खिलाफ कार्रवाई कर सके. मगर न्यायपालिका की तरफ से इसका लगातार विरोध हो रहा है जो चाहती है कि शिकायतों की जांच सिर्फ इसके द्वारा बनाई गई जजों की कोई संस्था ही करे. इस दबाव के आगे झुकते हुए  सरकार ने जज जांच सुधार विधेयक पेश किया है जिसके तहत न्यायपालिका में शीर्ष स्तर पर बैठे जजों के खिलाफ शिकायतों की जांच के लिए कार्यरत जजों की ही एक न्यायिक काउंसिल बनाए जाने का प्रावधान है. मगर प्रश्न यह है कि कौन ऐसी काउंसिल के सामने जजों की शिकायत करने की हिम्मत करेगा.

हालांकि उम्मीद की एक किरण यह भी है कि मीडिया ने आखिरकार न्यायपालिका की अवमानना के अपने डर को उतार फेंका है और न्यायव्यवस्था में फैले भ्रष्टाचार की अब बेझिझक रिपोर्टिंग होने लगी है. हालांकि इसका नकारात्मक पक्ष यह है कि कभी-कभी मीडिया सिर्फ आरोपों के आधार पर ही बात का बतंगड़ बना देता है और इससे दूसरे पक्ष की बात सुने जाने या फिर सच्चाई के सामने आने से पहले ही निर्दोष जजों की छवि प्रभावित होने का भी खतरा होता है. वैसे यह बात जरूर है कि मीडिया की नजर और न्यायिक जवाबदेही पर जनता में आ रही जागरूकता ने इस मुद्दे को सामने लाकर इसके तुरंत हल के लिए सरकार और न्यायपालिका पर दबाव बना दिया है जिसका वे ज्यादा दिन तक विरोध नहीं कर सकते. वह दिन दूर नहीं जब जजों के खिलाफ शिकायतों की जांच और यथोचित कार्रवाई करने के लिए एक स्वतंत्र न्यायिक शिकायत आयोग की स्थापना हो जाएगी.

आशाएं और आशंकाएं
31 जनवरी 2009

ओसामा से मेरी तीन मुलाकातें

करीब एक दशक पहले दक्षिणी अफगानिस्तान के धूसर और बीहड़ पहाड़ों में बनी एक गुफा में मैंने जिस शख्स से हाथ मिलाया था उसके व्यक्तित्व की कोमलता मुझे आज भी याद है. उसके हाथों में वह मुलायमियत थी जो किसी कलाकार के हाथ में होती है. उन्हें देखकर कहना मुश्किल था कि ये एक ऐसे दुर्दांत आतंकवादी के हाथ हैं जो बाद में अपनी कारगुजारियों से पूरी दुनिया को हैरान करने वाला है. यह शख्स था ओसामा बिन लादेन. मुझे उसकी बातचीत का नम्र लहजा ध्यान आता है और यह भी कि कैसे वह थोड़ी-थोड़ी देर के बाद लगातार पानी पी रहा था क्योंकि उसकी दोनों किडनियां जवाब दे चुकी थीं. पश्चिमी देशों में अपनी छवि के विपरीत लादेन विनम्र और सभ्य तरीके से बात करने वाला एक बौद्धिक व्यक्ति दिखता था. उसमें वह उग्र और भड़काऊ लहजा नहीं था जो उसके ज्यादातर अनुयायियों में दिखता है. उसकी शख्सियत में एक तरह का शर्मीलापन भी था जिसके चलते उसने मुझे कई बार अपनी फोटो खींचने से मना किया

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ओसामा ने अमेरिका और इजरायल के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए मई, 1998 में इंटरनेशनल इस्लामिक फ्रंट फॉर जिहाद के गठन की घोषणा की थी. इसी अवसर पर मुझे अफगानिस्तान पहुंचने का आमंत्रण मिला. यहां पहली बार ओसामा से मेरा आमना-सामना हुआ. हालांकि तालिबान नये फ्रंट के गठन के विचार से सहमत नहीं था और नाराज भी था. तालिबान नेता मुल्ला मोहम्मद ओमर ने तो गुस्से में यह तक कह दिया था कि अफगानिस्तान में सिर्फ एक ही शासक हो सकता है- ओसामा या फिर वह खुद. ओसामा ने इसके बाद माफी मांगी थी और वह इस बात को लेकर निश्चिंत था कि उसे तालिबान की सहमति मिल जाएगी.

खोस्त में हुई उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में ओसामा ने यहूदियों और मुसलिम विरोधियों के खिलाफ इंटरनेशनल इस्लामिक फ्रंट फॉर जिहाद बनाने की घोषणा की थी. उसने यह आरोप भी लगाया था कि दुनिया भर में मुसलमानों की तकलीफों के पीछे अमेरिका और इजरायल का हाथ है.

अमेरिकी हमले के एक घंटे बाद अयमान अल जवाहिरी ने मुझे बताया कि ओसामा बच गया है, वह उस समय काफी गुस्से में था

अगली बार अगस्त 1998 में मिस्र के जिहादी नेता अयमान अल जवाहिरी ने मुझे बुलाया. वह मौका था जब अमेरिका ने अफ्रीका में अपने दूतावास पर बमबारी के बदले में कार्रवाई की थी. ओसामा उसके करीब ही बैठा था. अल जवाहिरी ने इस बात पर जोर दिया कि वह बम हमले में शामिल नहीं था. अमेरिका के हमले के एक घंटे बाद उसने दोबारा मुझे बुलाकर यह बताया था कि हमले में ओसामा बच गया है. वह गुस्से में था और उसने घोषणा की कि वह युद्ध के लिए तैयार है. जवाहिरी से मेरी चार घंटे तक बात हुई. पूरी रात हम चाय पीते रहे. बातचीत के दौरान वह सावधानी से यह बताता रहा कि अमेरिकी दूतावास पर बम हमले में उसका हाथ नहीं था हालांकि उसे इस बात की खुशी थी. उसने यह भी बताया कि इस तरह हमलों की योजना बनाना और करवाना उसका काम नहीं है बल्कि उसका काम यह है कि वह अमेरिका द्वारा मुसलमानों की प्रति की जा रही नाइंसाफी के खिलाफ लोगों को जागरूक करे और उन्हें अमेरिका के खिलाफ उकसाए. जवाहिरी को इस बात की खुशी थी कि उसका संदेश काम कर रहा है.

उसने मुझे यह भी बताया कि वह सऊदी अरब में अमेरिकी फौज की मौजूदगी से नाराज है. उसे लगता था कि अमेरिकी मक्का के बिलकुल नजदीक हैं और यह पूरे मुसलिम जगत को उकसाने के लिए की जा रही कार्रवाई है. जवाहिरी का मानना था कि इजरायल अमेरिकी पैसों और हथियारों के जरिए फििलस्तीनी जनता को सजा दे रहा है.

उसी साल दिसंबर में दूसरी बार उसने मुझे बुलाया. तब उसने लड़ाई में शहादत की अपनी इच्छा जाहिर की थी. उसका यह भी कहना था कि वह अपने पकड़े जाने तक अमेरिका के खिलाफ लड़ेगा और जेहाद के लिए जान दे देगा.

ओसामा से मेरी तीसरी मुलाकात और इंटरव्यू बेहद नाटकीय परिस्थितियों में हुआ. मैं अपने ऑफिस में बैठा हुआ था और मुझे अफगानिस्तान के दक्षिण-पश्चिम में स्थित कंधार पहुंचने का संदेश मिला. यहां छह घंटे के इंतजार के बाद मेरा जिम्मा कुछ अरबी लोगों के एक समूह ने संभाला. इससे पहले मैं पहले सड़क के रास्ते पेशावर से इस्लामाबाद और फिर संयुक्त राष्ट्र के एक विमान से जलालाबाद व हेरात होते हुए कंधार पहुंचा था. यह बड़ी लंबी फ्लाइट थी और इस दौरान मैं पूरी रात नहीं सो पाया था. जब मैं कंधार पहुंचा तो दोपहर हो रही थी. उन दिनों रमजान चल रहा था और मेरे रोजे थे. काफी थका हुआ होने की वजह से मैंने इच्छा जाहिर की कि ओसामा का इंटरव्यू सुबह तक के लिए टल जाए ताकि मैं कुछ देर सो सकूं.

ओसामा के साथ इंटरव्यू की इजाजत मुझे मुल्ला उमर से मिली थी क्योंकि अलकायदा प्रमुख तक उसी की पहुंच थी. अरबी लोगों का जो समूह हमारे साथ था उसमें अल जवाहिरी और मिस्र का एक पुलिस अधिकारी शेख तासीर अब्दुल्ला भी था. 26 मई, 1998 को ओसामा ने अफगानिस्तान के खोस्त सूबे स्थित झावर के अल बद्र कैंप में जो प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी उसमें उसने अब्दुल्ला का परिचय अपने दाहिने हाथ के रूप में करवाया था. उसे मोहम्मद अतेफ और अबु हफ्स के नाम से भी जाना जाता था (बाद में अमेरिकी हमले में अब्दुल्ला की मौत के बाद जवाहिरी ने उसकी जगह ले ली). जवाहिरी चूंकि अच्छी अंग्रेजी जानता था इसलिए वह मेरे और ओसामा के बीच दुभाषिए का काम करने वाला था.

कंधार-हेरात रोड पर दो घंटे दौड़ने के बाद हमारी लैंडक्रूजर एक धूल भरे कच्चे रास्ते पर उतर गई. गाड़ी अब्दुल्ला चला रहा था. ऐसा लग रहा था कि हम शायद हेलमंद सूबे में हैं. रास्ते में अब्दुल्ला और अल जवाहिरी की मुझसे बात होती रही. उनका दावा था कि वे न तो मौत से डरते हैं न ही अमेरिका से. उनका कहना था कि यदि अमेरिका िफिलस्तीन पर इजरायल के कब्जे को समर्थन देना और इस्लामी देशों में हस्तक्षेप बंद कर दे तो उसे मुसलमानों के विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा.

कुछ देर बाद हमें दूर कुछ धुंधलाती रोशनी दिखाई दी. काफी थके होने के चलते यह मेरे लिए राहत की बात थी क्योंकि हम अपनी मंजिल के करीब थे. रेगिस्तान में तीन बड़े तंबू लगे हुए थे और उनके आसपास अलाव जल रहे थे जिन पर रात के खाने के लिए कुछ पक रहा था. ओसामा के तंबू के बाहर एक जेनरेटर चल रहा था.

जिस तंबू के भीतर मेरी ओसामा से मुलाकात होनी थी वह काफी बड़ा था और आरामदेह भी क्योंकि उसमें घुसते ही मुझे बाहर की चिलचिलाती ठंड से राहत महसूस हुई. थोड़ी ही देर बाद कुछ हलचल हुई और ओसामा दाखिल हुआ. वहां मौजूद सभी लोग उसके सम्मान में खड़े हो गए. वह एक छड़ी के सहारे चल रहा था. यह देखकर मुझे याद आया कि खोस्त में हुई पिछली कॉन्फ्रेंस में उसके सहयोगियों ने उसके पीठ दर्द के बारे में बताया था जिसकी वजह से उसे छड़ी लेकर चलना पड़ता है.

तालिबान विदेश मंत्रालय के दो अधिकारी, जो कंधार से ही हमारे साथ चले थे, के अलावा ओसामा के एक दर्जन साथी और उसका बेटा मोहम्मद पूरे इंटरव्यू के दौरान ओसामा की बात बड़े ध्यान से सुनते रहे (बॉक्स देखें). ओसामा मुझसे दोबारा मिलकर खुश था. उसे इस बात की भी खुशी थी कि उसका इंटरव्यू टाइम मैगजीन, एबीसी न्यूज, बीबीसी और द न्यूज जैसी जगहों पर प्रकाशित होगा. साफ है कि वह चाहता था कि उसकी बात ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे और इसीलिए उसने मुझे चुना था.

इंटरव्यू के दौरान तीन घंटे ओसामा लगातार ग्रीन टी की चुस्कियां लेता रहा. वह हर सवाल का जवाब बेहद आराम से दे रहा था. उसका हर वाक्य  अल्लाह और पैगंबर मोहम्मद की तारीफ से शुरू होता.

रात ढलने से थोड़ी ही देर पहले हम अपनी वापसी की यात्रा पर रवाना हो गए. अलजवाहिरी ने बताया कि उसने इंटरव्यू रात में इसलिए करवाया ताकि ओसामा पानी और चाय पीता रहे क्योंकि दिन में वह रोजे के कारण यह नहीं कर सकता था. मैं चाहता था कि इंटरव्यू दिन में हो और ओसामा की अच्छी फोटो खींच पाऊं. हालांकि मेरी समस्या का समाधान वहां एक व्यक्ति ने कर दिया था. उसने दो वैन की हेडलाइटें जला दीं जिससे मुझे फोटो खींचने में आसानी हो गई.

उस इंटरव्यू में ओसामा पहली बार अप्रत्यक्ष रूप से नैरोबी और दार-ए-सलाम (कीनिया की राजधानी में हुए इस हमले में 212 लोग मारे गए थे और तंजानिया के बम धमाके में 11 लोगों की मौत हुई थी) में हुए हमलों की जिम्मेदारी लेता दिखा. उसका कहना था कि यहूदियों और मुसलिम विरोधियों के खिलाफ बने उसके इंटरनेशनल इस्लामिक फ्रंट फॉर जिहाद ने एक फतवा जारी किया है. इसमें उम्मा (मुसलिम जगत) से मुसलिम देशों, जिनमें फिलिस्तीन की पवित्र भूमि भी शामिल है, को आजाद करवाने के लिए जिहाद करने का आह्वान किया गया था. उसने यह भी दावा किया कि पूरी दुनिया के मुसलमानों ने उसके फ्रंट के प्रति उत्साह दिखाया है.

ओसामा का कहना था, ‘यदि अल अक्सा मस्जिद और काबा को यहूदियों और अमेरिकियों के कब्जे से छुड़ाना जुर्म है तो ठीक है, इतिहास की नजरों में मुझे मुजरिम होने में कोई अफसोस नहीं है.’

हालांकि इस पूरी बातचीत का एक अहम पहलू यह भी था कि ओसामा ने अमेरिका में मौजूद स्वतंत्रता, अधिकार और संपन्नता के बारे में कुछ भी नहीं कहा. उसके हिसाब से अमेरिका की विदेश नीति इस्लाम की सबसे बड़ी दुश्मन थी. अपने हित साधने के लिए इस्लामी देशों की तानाशाही सरकारों को समर्थन देने के पश्चिमी रवैये की उसने जरूर आलोचना की थी.

आतंकवाद
31 मई 2011

सजग प्रयास का ‘मंतव्य’

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पत्रिका ः मंतव्य (प्रथम अंक)
संपादक ः हरेप्रकाश उपाध्याय
मूल्य ः 100 रुपये
पृष्ठ ः 236
प्रकाशन ः मंतव्य, लखनऊ

कवि-उपन्यासकार हरेप्रकाश उपाध्याय ने लखनऊ से ‘मंतव्य’ नामक नयी साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया है. देश में लघु पत्रिकाओं का बाजार काफी भीड़ भरा है, खुद लखनऊ से अखिलेश के संपादन में तद्भव जैसी नामी पत्रिका निकलती है ऐसे में निश्चित तौर पर इस साहसी प्रयास के पीछे उन्होंने लंबे समय तक सोच-विचार किया होगा. अपने संपादकीय में वह कहते भी हैं, ‘दुनिया जितनी आधुनिक और विकसित होती जा रही है, मनुष्य के सामाजिक और वैयक्तिक जीवन के संकट भी कम विकसित नहीं हो रहे…एक निष्ठुर व मायावी दुनिया में साहित्य की चुनौती व प्रासंगिकता दोनों बढ़ जाती हंै.’

अनुमानत: हरेप्रकाश उपाध्याय देश के सबसे कम उम्र साहित्य संपादकों में से एक हैं. ऐसी पत्रिका को लेकर उत्सुकता होना स्वाभाविक है. अपने पूरे तेवर और कलेवर में पत्रिका बतौर पाठक-समीक्षक काफी आकर्षक लगी. आवरण पृष्ठ का चित्र और आखिरी पन्ने पर निर्मला पुतुल की कविता दोनों मानीखेज हैं और उन्हें देकर पूरा यकीन हो जाता है कि इन दोनों पन्नों के बीच जो भी पाठ्य सामग्री होगी उसकी गुणवत्ता पर संदेह नहीं किया जा सकता.

पत्रिका क्रमश: कथा खंड, कविता खंड, मर्म मीमांसा, खास किताब, मील का पत्थर, भूली बिसरी, रंग भूमि और जीवन की राहों में आदि श्रेणियों में बंटी हुई है. खास बात यह है कि कथा खंड में कहानियां न देकर तेजिंदर, भगवानदास मोरवाल, भालचंद्र जोशी और केशव के उपन्यास अंश दिए गए हैं. जो अपने आप में एक मुकम्मल कहानी प्रतीत होते हैं.

श्रीकांत दुबे का मैक्सिको यात्रा वृतांत ‘दुनिया के उस तरफ’ और गीताश्री का हिमाचल यात्रा पर लिखा ‘एक अचरज से सीधी मुलाकात’ खास तौर पर पठनीय हैं. कविता खंड में निरंजन श्रोतिय, अरुण देव, पीयूष दईया, मोनिका कुमार, अविनाश मिश्रा आदि की पठनीय कविताएं हैं. वैभव सिंह द्वारा मार्खेज पर लिखे आलेख का जिक्र किए बिना बात पूरी न होगी. कुलमिलाकर मंतव्य लघु पत्रिकाओं के भीड़ भरे समय में एक आश्वस्त करती शुरुआत है. यह एक गंभीर प्रयास है जिसने हिंदी साहित्य के पाठकों की उम्मीदें अचानक बढ़ा दी हैं. अब पत्रिका के स्तर को बरकरार रखने की उनकी जिम्मेदारी और गंभीर हो गई है.

सियासत का सिक्का

मनीषा यादव
मनीषा यादव
मनीषा यादव

पांच साल पहले दद्दा का साक्षत्कार-
‘दद्दा आप के राज में ट्रेन दुर्घटना बहुत हो रही हंै? एक महीने में यह तीसरी घटना है. आप क्या कहेंगे?’ ‘विरोधी पार्टी करवा रही है सब!’ ‘तो क्या सिग्नल भी उसी ने खराब किए?’ ‘बिल्कुल’ ‘पटरी के नट-बोल्ट निकले हुए थे!’ ‘विरोधियों ने निकाले हैं.’ ‘आप इतने यकीन से कैसे कह सकते हंै?’ ‘हम सरकार हैं भई’ ‘मगर ट्रेन की रफ्तार बहुत अधिक थी…’  ‘यह विरोधी जो न करवाए सो कम है.’ ‘अब इसमें विरोधी कहां से आ गए!’ ‘बात को समझो! उन्होंने जरूर कुछ दे-दिवा के ड्राइवर को तेज चलाने के लिए उकसाया होगा.’ ‘दद्दा शायद आपको मालूम नहीं कि ड्राइवर तो शराब पिये हुए था’ ‘अच्छा… संभव है, विरोधियों ने ही पिलाई हो!’ ‘यानी आप श्योर नहीं है!’ ‘100 परसैंट श्योर हूं. पक्का! पक्का! पक्का! विरोधियों ने ही पिलाई है.’ ‘मगर आप ऐसा कैसे कह सकते हैं? वह भी बिना सबूत के! कोई सबूत है आपके पास?’ ‘वे हमारे धुर विरोधी हंै और यह बात सारी दुनिया जानती है. इससे पुख्ता सबूत और क्या होगा!’ ‘मेरी समझ में नहीं आता, वे ऐसा क्यों करेंगे? यह देश तो आखिर उनका भी उतना ही है जितना आप का सब का है!’ ‘कारण तो साफ है न भई! मगर तुम देखना ही नहीं चाहते!’ ‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं है! आप बताए!’ ‘सत्ताच्युत होकर विपक्षी मानसिक संतुलन खो बैठे हैं. बौखलाए हुए हैं, इसलिए ऐसा कर रहे हैं और आगे भी करवाते रहेंगे देखना!’ ‘एक बात और सुनो!’ ‘क्या!’ ‘देश उसका जिसकी सत्ता, ऐसा वे सोचते है हम नहीं!’ ‘मगर दद्दा इतनी सारी संभावनाएं एक साथ संभव कैसे हो सकती हंै! यह तो असंभव है!’ ‘हा, हा, हा…’ ‘आप हंस क्यों रहे हैं?’ ‘तुम्हारी अज्ञानता पर!’ ‘अज्ञानता…’ ‘सियासत में कुछ भी अंसभव नहीं है. सब कुछ संभव है भई! संभव है! संभव है! संभव है!’

पांच साल बाद दद्दा का पुन:साक्षात्कार-
‘दद्दा, आप धरना-प्रदर्शन क्यों कर रहे हैं?’ ‘मौजूदा सरकार निकम्मी है, लापरवाह है. जनविरोधी है. इसे हटाना होगा.’ ‘आप यह कैसे कह सकते हैं?’ ‘देखते नहीं, एक महीने में यह तीसरी रेल दुर्घटना हुई है.’ ‘वह तो सिग्नल में खराबी आ गई थी.’ ‘फालतू बात… इस लापरवाही… घोर लापरवाही के लिए सरकार जिम्मेवार है.’ ‘मगर सरकार कह रही है कि यह सब आप लोगों का किया-धरा है.’ ‘तो क्या भई तेज रफ्तार गाड़ी हम चला रहे थे?’ ‘आप लोग तो नहीं चला रहे थे, मगर ड्राइवर को ऐसा करने के लिए आप लोगों ने ही उकसाया है…’ ‘हैंयऽऽऽ’ ‘दद्दा, ये हम नहीं सरकार कह रही है…’ ‘तो फिर सरकार यह भी कह रही होगी कि पटरी के नट-बोल्ट भी हमीं लोगों ने निकाले हैं!’ ‘जी, बिल्कुल सही, ऐसा ही कह रही है वह.’ ‘भला हम लोग ऐसा राष्ट्रद्रोह वाला काम क्यों करेंगे! ये देश जितना उनका है उतना हमारा भी है भई!’ ‘अब आप लोगों की सत्ता जो नहीं रही!’ ‘मौजूदा सरकार अपना मानसिक संतुलन खो बैठी है, और कुछ नहीं.’ ‘मगर यही आरोप तो सरकार आप लोगों पर लगा रही है!’ ‘अब तुम ही कहो, जिसे सत्ता का सुख भोगे सालों हो गए हों, और उसे अचानक सत्ता मिल जाए, ऐसे में तो वह पगला ही जाएगा न!’ ‘सरकार के रुख को देखकर लगता है कि वे किसी ठोस आधार पर ही ऐसा कह रही है!’ ‘काहे का ठोस आधार! एक बात तुम और तुम्हारी सरकार भूल रहे हो!’ ‘वह क्या?’ ‘देखा नहीं, घटनास्थल पर ड्राइवर नशे में धुत्त पाया गया है!’ ‘सरकार का कहना है कि आप लोगों ने ही उसे जमकर पिलाई है.’ ‘हा, हा, हा..’ ‘आप हंस क्यों रहे हैं?’ ‘तुम्हारी अज्ञानता पर!’ ‘अज्ञानता…’ ‘तुम्हीं कहो, ऐसा कहीं संभव है भला! सरकार सरासर झूठ बोल रही है.’ ‘अंतिम रूप से इस सब पर आप का क्या कहना है?’ ‘सियासत के चक्कर में सरकार उन सभी बातों को संभव बता रही है जो असंभव हैं. नितांत असंभव! असंभव! असंभव!’

काशी, कृष्ण और प्रश्न

upsankarठेठ बनारसी और वामपंथी काशीनाथ सिंह कृष्ण की द्वारिका में पहुंच गए हैं. 21वीं सदी से महाभारत या कहें कि यथार्थ से मिथक तक की उनकी यह यात्रा लेखक के रूप में उनका और मानव के रूप में ईश्वर का एक अलग पक्ष दिखाती है. कृष्ण सच थे या मिथक, इस पर भले ही राय दो खेमों में बंटी रही हो, लेकिन इस पर सब एकमत रहे हैं कि वे भारत की सांस्कृतिक गाथा के उन सबसे शक्तिशाली चरित्रों में से एक हैं जिन्होंने लोक मानस को बहुत गहराई से प्रभावित किया है. बाल लीला से लेकर महाभारत में अर्जुन का सारथी बनने तक की उनकी कथा हमारी सामाजिक स्मृति में रची-बसी है. लेकिन महाभारत का युद्ध खत्म होने के बाद कृष्ण जब द्वारका लौटे तो उनके जीवन के बाकी 36 साल कैसे बीते, यह एक ऐसा पक्ष है जिस पर उतनी ज्यादा बात नहीं होती. उपसंहार में काशीनाथ सिंह ने कृष्ण के इन्हीं अंतिम दिनों की कथा कही है.

इस उत्तर कथा में वह है जो पूर्व कथा में नहीं है. इसमें सर्वशक्तिमान कृष्ण की विवशता है और खुशहाल द्वारका का पराभव. उपसंहार अच्छाई और बुराई के सनातन सवाल को भी टटोलने की कोशिश करता है और बताता है कि धर्म और अधर्म की परिभाषा उतनी सपाट नहीं होती जितनी वह दिखती है. एक प्रसंग देखें जिसमें फुर्सत के पल में भीम और दुर्योधन के युद्ध पर चर्चा करते बलराम कृष्ण से कह रहे हैं.

‘…कहकर गए थे द्वारका से कि यह अधर्म के विरुद्ध धर्मयुद्ध है, धर्म की स्थापना करनी है. किस धर्म को स्थापित किया? न्याय को? ईमानदारी को? भाईचारे को? प्रेम को? किसको? प्रेमयोग का ज्ञान देते घूम रहे हो और दादा को पोते से, मित्र को मित्र से, गुरु को शिष्य से और भाई को भाई से मार रहे हो! पूरे आर्यावर्त में घूमकर देखा मैंने, ब्राह्मणों, महिलाओं और बच्चों को छोड़कर कोई नहीं बचा है. इसे किस धर्म की स्थापना कहेंगे?’

कुछ इसी तरह के सवाल टटोलता उपसंहार एक दिलचस्प उपन्यास है. इस दौर में, जब भावनाएं आसानी से आहत हो जा रही हैं, धर्म या राम और कृष्ण जैसे महत्वपूर्ण चरित्र पूरी तरह से उन शक्तियों के हवाले हो गए दिखते हैं जिनमें इन्हें समय के हिसाब से पुनर्परिभाषित करने की कोई इच्छा नहीं दिखती. इस मायने में उपसंहार एक स्वागतयोग्य दस्तक है. एक बात थोड़ी-सी अखरती है कि कहीं-कहीं पर इसका यथार्थवादी वर्णन अचानक अति मिथकीय हो जाता है. लेकिन कुल मिलाकर यह एक ऐसी कृति है जिसका होना एक तरह की आश्वस्ति जगाता है.

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‘वामपंथी उग्रवाद’ का नया प्रतिवाद!

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इलस्ट्रेशनः आनंद नॉरम

बस्तर में इन दिनों अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ है. कई दिनों से न तो पुलिस-नक्सली मुठभेड़ हुई है, न ही नक्सलियों ने एंबुश लगाकर सुरक्षाबल के जवानों को निशाना बनाया है. केंद्र में नई सरकार बनने के कुछ दिनों पहले से ये हालात इन क्षेत्रों में दिखाई दे रहे हैं. कहा जा रहा है कि माओवादी बगैर किसी गतिविधि को अंजाम दिए इस समय केवल सरकार के मंसूबों को भांपने में लगे हैं. दूसरी तरफ राज्य सरकार भी अपनी शक्ति बढ़ानें में जुटी हुई है. दोनों तरफ की यह शांति बस्तरवासियों को बेचैन किए हुए है.

सूत्रों से मिली जानकारी पर विश्वास किया जाए तो इस शांति के पीछे असल कहानी यह है कि नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ समेत सभी राज्यों में बड़े संयुक्त नक्सल विरोधी ऑपरेशन की तैयारी की जा रही है. इस ऑपरेशन की खासियत यह होगी कि इसमें केंद्र और राज्यों के सभी विभाग मिलकर काम करेंगे. गृह मंत्रालय इस ऑपरेशन की नोडल एजेंसी होगा. बस्तर में पुलिस विभाग में बड़े फेरबदल के साथ इसकी भूमिका बननी शुरू हो चुकी है. केंद्र सरकार ने भी बस्तर में तैनात करने के लिए अर्द्धसैनिक बलों की अतिरिक्त 10 बटालियन देने के साथ ऑपरेशन को हरी झंडी दिखा दी है.

बस्तर में नए सिरे से नक्सल विरोधी ऑपरेशन शुरू होने से पहले केंद्र सरकार ने माओवाद को एक नया आधिकारिक नाम ‘वामपंथी उग्रवाद’ भी दे दिया है. इस नए नाम से ही जाहिर है कि केंद्र सरकार नक्सलवाद के खिलाफ कड़ा रुख अपना चुकी है और इससे आतंकवाद की तरह पेश आने की तैयारी कर रही है. पुलिस के खुफिया सूत्र बता रहे हैं कि इस वक्त माओवादी भी थोड़े कमजोर पड़े हैं. उनके कैडर में भर्ती होने वाले नए रंगरूटों की संख्या तेजी से कम हुई है. लोगों का विश्वास भी उनके प्रति थोड़ा कम हुआ है.

राज्य सरकार इस अवसर का पूरा फायदा उठाने के लिए तैयार दिख रही है. इसी रणनीति पर आगे बढ़ते हुए उसने बस्तर संभाग के सात जिलों में से पांच में पुलिस कप्तान बदल दिए हैं. छत्तीसगढ़ सरकार ने आईपीएस एसआरपी कल्लूरी को आईजी बनाकर बस्तर भेजा है. कल्लूरी को नक्सल मोर्चे का विशेषज्ञ माना जाता है. वे नक्सल मोर्चे पर सीधी लड़ाई के पैरोकार रहे हैं. सरगुजा को नक्सलमुक्त इलाका बनाने का श्रेय भी कल्लूरी को ही दिया जाता है. यह बात अलग है कि कल्लूरी धुर नक्सली इलाके ताड़मेटला, मोरपल्ली गांवों में तीन सौ घरों में आगजनी के मामले को लेकर जांच के घेरे में भी रहे हैं. ताड़मेटला जाते वक्त स्वामी अग्निवेश पर हुए हमले का जिम्मेदार भी उन्हें ही ठहराया गया था. लेकिन उनकी पोस्टिंग बस्तर में किए जाने को राज्य सरकार के इस संकेत के रूप में देखा जा रहा है कि माओवादी मोर्चे पर कुछ नीतिगत बदलाव किए गए हैं.

अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक आरके विज तहलका को बताते हैं, ‘ हमने इस समय बस्तर में ज्यादा अनुभवी अधिकारियों की तैनाती की है. यह भी सच है कि हमने नक्सलवाद से निपटने के लिए नए सिरे से एक ठोस रणनीति बनाई है. लेकिन हमारी योजना में विकास का भी उतना ही महत्व है जितना की पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों के उपयोग का. हम चाहते हैं कि नक्सलियों को पीछे खदेड़ने के साथ हम विकास भी करते चलें ताकि उन्हें दोबारा पनपने का मौका ही न मिल पाए. यही कारण है कि हमारे एक्शन प्लान में न केवल पुलिस बल्कि पीडब्ल्यूडी, शिक्षा, पेयजल, दूरसंचार जैसे दूसरे विभागों की भी जिम्मेदारी तय की जा रही है.’

इस हफ्ते की शुरुआत में नई दिल्ली में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह के साथ हुई एक बैठक में मुख्यमंत्री रमन सिंह का भी कहना था कि देश से वामपंथी उग्रवाद को समाप्त करने के लिए सबसे बड़ी लड़ाई बस्तर में लड़नी होगी. रमन सिंह ने अपनी बात रखते हुए यह भी कहा कि एक बार अगर हम बस्तर के सभी हिस्सों में शिक्षा, स्वास्थ्य, संचार, रोजगार और अधोसंरचना का जाल फैलाने में कामयाब हो गए तो फिर माओवादी आम लोगों को गुमराह नहीं कर पाएंगे और इस समस्या का स्थाई हल निकाला जा सकेगा. रमन सिंह ने बैठक में केंद्र से सुरक्षा बलों की अतिरिक्त 26 बटालियन भी मांगी. हालांकि केंद्र ने फिलहाल छत्तीसगढ़ को 10 बटालियन देने को मंजूरी दी है.

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अब तक का नुकसान
राज्य बनने के बाद से लेकर 2014 तक 14 सालों में नक्सलियों ने हर विभाग को नुकसान पहुंचाया है. अब तक नक्सलियों द्वारा 119 सड़क और पुलियों को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया गया है. वहीं आम लोगों के 739 वाहन भी उनका निशाना बने हैं. बैंक में लूट और नुकसान की 19 घटनाएं नक्सलियों के नाम दर्ज हैं. वन विभाग के डिपो और भवनों को नुकसान पहुंचाने का आंकड़ा 77 है. इन सालों में नक्लवादियों ने 113 स्कूलों को बम लगाकर उड़ाया है तो वहीं 75 सांस्कृति भवनों को भी ध्वस्त किया है. दर्जनों अस्पताल व 34 सार्वजनिक वितरण प्रणाली की इकाइयां भी नक्सल आंदोलन के निशाने पर आई हैं.

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इस वक्त पूरे छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ, आईटीबीपी जैसे सुरक्षा बलों की 36 बटालियन तैनात हैं. इनमें से दो सरगुजा में और पांच राजनांदगांव, धमतरी और गरियाबंद में कैंप बनाकर तैनात हैं. वहीं 29 बटालियन अकेले बस्तर में लगाई गई हैं. केंद्र सरकार जो 10 बटालियन भेजने पर राजी हुई है वे भी सीधे बस्तर भेजी जाएंगी. यानी बस्तर में 39 बटालियन हो जाएंगी. एक बटालियन में 780 जवान होते हैं, लेकिन मोर्चे पर लड़ने के लिए 400 से 450 जवान ही मौजूद होते हैं. कहने का मतलब यह की आने वाले दिनों में बस्तर को 5,000 अतिरिक्त जवान मिलेंगे. पहले से तैनात जवानों की संख्या 18 से 20 हजार के आसपास है. अब जवानों की कुल संख्या लगभग 25 हजार हो जाएगी. जबकि छत्तीसगढ़ में करीब 40 सक्रिय माओवादी संगठन हैं. इनमें करीब 50 हजार सशस्त्र माओवादी शामिल हैं और एक अनुमान के मुताबिक इसमें 44 प्रतिशत के आसपास महिलाएं हैं. ये सभी प्रशिक्षित लड़ाके हैं, जिन्हें छापामार लड़ाई के लिए तैयार किया गया है. माओवादी लड़ाके अपनी जान पर खेलने के लिए तैयार रहते हैं. ऐसे में राज्य सरकार की योजना नक्सलवादियों की अपेक्षा लगभग आधे जवानों के भरोसे कितनी सफल हो पाएगी इस पर संदेह उठना लाजिमी है. इस बारे में साउथ एशिया टेरेरिज्म पोर्टल और इंस्टीट्यूट ऑफ कॉनफ्लिक्ट मैनेजमेंट के एक्जीक्यूटीव डायरेक्टर अजय साहनी कहते हैं, ‘छत्तीसगढ़ को त्रिपुरा से सीखना चाहिए. हर बार यह कह देना की जवानों की संख्या कम है, इसलिए हम नक्सल मोर्चे पर विफल हैं, ठीक बात नहीं है. त्रिपुरा में उग्रवादियों से निपटने के लिए ऐसी रणनीति बनाई गई थी कि कम जवान भी हर बार दुश्मन पर भारी पड़ते थे. त्रिपुरा के जंगल छत्तीसगढ़ से ज्यादा घने थे लेकिन समस्या के मूल को समझकर सही रणनीति बनाने से ही सफलता मिल सकती है.’ साहनी एक अहम बात यह भी बताते हैं, ‘ नक्सलवाद से निपटने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें नए सिरे से सक्रिय हो रही हैं, यह अच्छी बात है. लेकिन मैं इतना जरूर कहना चाहूंगा कि पहले सही रणनीति बनाई जाए, फिर टारगेट तय किया जाए. अब तक छत्तीसगढ़ में इसके उलट होता आया है. पहले टारगेट तय किया जाता है फिर उसे पाने के लिए सच्चे-झूठे तरीके अपनाए जाते हैं. अगर नक्सलवाद से निपटने की रणनीति को हम लक्ष्य केंद्रित बना देंगे तो लक्ष्य प्राप्ति दिखाने के लिए सही और गलत तरीके अपनाए ही जाएंगे. इसे रोका नहीं जा सकता. इसलिए छत्तीसगढ़ को पंजाब, आंध्र प्रदेश, त्रिपुरा से सीखना चाहिए कि किस तरह अपनी समस्या को सही तरीके से समझकर फिर कारगर योजना बनानी चाहिए. केवल फोर्स लगा देने से नक्सलवाद खत्म नहीं हो सकता.’

केंद्र और राज्य सरकार की नक्सलविरोधी नई रणनीति पर पुलिस महकमे का एक तबका काफी संतुष्ट नजर आ रहा है. नाम न छापने की शर्त पर पुलिस मुख्यालय में पदस्थ एक अधिकारी बताते हैं, ‘अब नक्सलवाद से जिस तरह हम निपटना चाहते हैं, वैसा कर सकेंगे. केंद्र की नई सरकार कम से कम हमारी बात को धैर्य से सुन रही है. पहले दस तरह के सवाल किए जाते थे, लेकिन इस बार की पहली ही बैठक में हमें न केवल सुना गया बल्कि हमारी कई मांगों पर हाथों हाथ अनुमति दे दी गई.’

माओवादी भी केंद्र सरकार के रुख को समझ रहे हैं. यही कारण है कि नक्सलियों ने केंद्र सरकार पर सवाल उठाना शुरू कर दिए हैं. भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की सेंट्रल कमेटी के प्रवक्ता अभय की तरफ से जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है, ‘अच्छे दिन आ गए हैं, यह सुनकर लोग इस भ्रम में है कि यह सुशासन की शुरुआत है और नरेंद्र मोदी कुछ परिवर्तन लाएंगे. यह सरकार विकास के नहीं हिंदू फासीवादी एजेंडे पर चलेगी और जन आंदोलन को कुचलेगी..’ प्रेस विज्ञप्ति में यह भी आरोप लगाया गया है कि अकेले नरेंद्र मोदी की छवि चमकाने के लिए कॉर्पोरेट मीडिया में 30 हजार करोड़ रुपया खर्च किया गया.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि माओवाद छत्तीसगढ़ के लिए विकास अवरोधक की भूमिका निभाता आया है. बस्तर के पिछड़ेपन को इसी बात से समझा जा सकता है कि इस इलाके के राष्ट्रीय राजमार्ग भी खस्ताहाल हैं. जगदलपुर से कोंटा और गीदम से भोपालपटनम जाने वाले दो राष्ट्रीय राजमार्गों पर सड़क आपको ढूंढे से नहीं मिलेगी. इसके अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पेयजल जैसी मूलभूत सुविधाएं भी बस्तर के रहवासियों की पहुंच से बाहर हैं. खुद पुलिस या सुरक्षा बलों के जवानों के लिए बस्तर में एक जगह से दूसरी जगह पहुंचना आसान नहीं होता. यही कारण है कि केंद्र सरकार राज्य को चार हैलीकॉप्टर देने को भी राजी हो गई है. एडीजी नक्सल ऑपरेशन आरके विज कहते हैं, ‘ हम नक्लसियों पर कोई हवाई अटैक नहीं करने जा रहे. लेकिन हमें अतिरिक्त हेलीकॉप्टर चाहिए थे क्योंकि हम पुलिस और सुरक्षा बलों के मूवमेंट को आसान बनाना चाहते हैं. किसी भी इमरजैंसी में हम कम से कम समय पर मौके पर पहुंचे, इसके लिए हमें हैलीकॉप्टर की जरूरत पड़ती है. अब अगर में हम नक्सलवाद को जड़ से खत्म करने की दिशा में बढ़ रहे हैं तो इसमें किसी को कोई आपत्ति क्यों है. इस बार हम रिजल्ट चाहते हैं, इसलिए हर वह कदम उठाएंगे, जो जरूरी होगा.

दक्कन का दुख

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मुश्किल में हार केबाद मुख्यमंत्री सिि‍ारमैय्या पाटीर् में अपनेसिरोसियों के सनशाने पर हैं. फोटोः केपीएन

साल भर भी नहीं हुआ जब कांग्रेस ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव में शानदार जीत दर्ज करते हुए भाजपा को सत्ता से बाहर कर दिया था. लेकिन भाजपा ने साल भर के भीतर ही लोकसभा चुनाव में जबर्दस्त वापसी करते हुए राज्य की 28 में से 17 सीटें जीत ली हंै.

ज्यादा वक्त नहीं हुआ जब भाजपा राज्य में भयंकर भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझ रही थी. खनन  और जमीन घोटालों के अलावा पार्टी की गुटबाजी और कर्नाटक में उसके सबसे बड़े नेता बीएस येदियुरप्पा उसके लिए किरकिरी की वजह बने हुए थे. इसके बावजूद यह चमत्कार कैसे हुआ? इस सवाल का जवाब भाजपा की बजाय कांग्रेस के खेमे में मिलता है.

जब से पार्टी लोकसभा का चुनाव हारी है कांग्रेस की कर्नाटक इकाई के भीतर घमासान है. कई जूनियर मंत्री और विधायक वरिष्ठ मंत्रियों और मुख्यमंत्री सिद्धारामैय्या के खिलाफ विद्रोह का झंडा उठाए हुए हैं. जूनियर मंत्रियों का अपने वरिष्ठों से मोहभंग हो चला है क्योंकि इस हार का ठीकरा उनके सिर फोड़ा जा रहा है. पार्टी को सिर्फ नौ लोकसभा सीटें हासिल हुई हैं. जूनियर मंत्रियों का आरोप है कि जब कांग्रेस विधायक दल की बैठक में उन्होंने पार्टी की चुनावी रणनीतियों की खामियों की तरफ ध्यान खींचने की कोशिश की थी तो मुख्यमंत्री का रवैया बेहद उदासीन था.

पार्टी के भीतर तमाम नेताओं का मानना है कि चुनाव से ठीक पहले आत्महत्या करने वाले एक किसान को लेकर मुख्यमंत्री सिद्धारामैय्या द्वारा दिया गया गैर जिम्मेदाराना बयान पार्टी को भारी पड़ा है. इसके अलावा यह बात भी है कि सरकार ने गन्ना किसानों की समस्याओं को दूर करने का कोई प्रयास नहीं किया. इसके नतीजे में पार्टी का प्रदेश की गन्ना पट्टी (बेलगाम, बगलकोट, बीडर, दावांगेरे, मंड्या और मैसूर) से पूरी तरह सफाया हो गया.

सिद्धारामैय्या के विरोधियों का एक आरोप है कि आहिंदा (पिछड़े, दलित और मुसलमान समुदाय के लिए संयुक्त रूप से इस्तेमाल होने वाला कन्नड़ शब्द) की तरफ हद से ज्यादा ध्यान देकर उन्होंने राज्य की दो प्रभावशाली जातियों लिंगायत और वोक्कालिगा को नाराज कर दिया. एक आरोप यह भी है कि उन्होंने इस दौरान शहरी वोटरों को पूरी तरह से नजरअंदाज किया, विशेषकर बंगलुरू को.

पार्टी में मची उठापटक अब साफ दिखने लगी है. लोकसभा का चुनाव हार गए तमाम उम्मीदवारों ने खुलेआम पार्टी के ही नेताओं को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया है. उदाहरण के तौर पर मैसूर से चुनाव हारे एएच विश्वनाथ और हावेरी से चुनाव हारे सलीम अहमद ने राज्य के वरिष्ठ नेताओं को अपनी हार का जिम्मेदार ठहराया है. अहमद का आरोप है कि राज्य के ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्री एचके पाटिल उनकी हार के लिए जिम्मेदार हैं. अहमद का कहना था, ‘मंत्री हमारे क्षेत्र के विधायकों के साथ मिलकर सामंजस्य बिठाने और राजनीतिक रणनीति बना पाने में बिल्कुल असफल रहे. इसकी वजह से मेरी हार हुई. अगर उन्होंने थोड़ी सी मेहनत की होती और खुद को प्रचार अभियान में लगाया होता तो मेरी हार नहीं होती,’ उनके सैकड़ों समर्थकों ने बंगलुरू स्थित पार्टी कार्यालय पर भी विरोध प्रदर्शन किया.

प्रमुख चीनी व्यवसायी और राज्य के  बागवानी मंत्री एस शिवशंकरप्पा ने तहलका को बताया कि अगर पार्टी उनके बेटे मल्लिकार्जुन की हार का जिम्मेदार उन्हें ठहराएगी तो वे पार्टी छोड़कर दूसरा रास्ता अख्तियार करने के लिए तैयार हैं. उनकी ही तरह तमाम दूसरे वरिष्ठ मंत्री भी दूसरा रास्ता पकड़ने की फिराक में हैं.

कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता मानते हैं कि उनसे चूक हुई. वे कहते हैं, ‘पूरे चुनाव के दौरान हमने मुसलिम और ग्रामीण मतदाताओं पर ध्यान ही नहीं दिया. हमारे नेता चूक गए. उन्हें असलियत का अंदाजा ही

नहीं था.’

कुछ का यह भी मानना है कि मुख्यमंत्री सिद्धारमैय्या ने प्रदेश अध्यक्ष जी परमेश्वर को उपमुख्यमंत्री न बनाकर दलितों के मन में भी नाराजगी पैदा कर दी थी. चुनावों में मात खाने के बाद अब एक बार फिर से परमेश्वर के समर्थक उन्हें उपमुख्यमंत्री के पद पर बिठाए जाने की मांग कर रहे हैं. इसके परिणामस्वरूप राज्य के मुख्यमंत्री और पार्टी प्रमुख के बीच फिर टकराव पैदा हो गया है.

स्वाभाविक ही है कि पार्टी के भीतर उपजे विद्रोह के निशाने पर सिद्धरमैय्या हैं. ऊर्जामंत्री और राज्य के प्रभावशाली वोक्कालिगा समुदाय से ताल्लुक रखने वाले नेता डॉ. शिव कुमार के नेतत्व में पार्टी के पुराने नेता गोलबंद होकर सिद्धारमैय्या को मुख्यमंत्री पद से हटाने की मांग कर रहे हैं. हालांकि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने अब तक इस मांग को गंभीरता से नहीं लिया है, लेकिन विरोधियों को पूरी उम्मीद है कि आने वाले दिनों में वे अपनी बात मनवा लेंगे.

दिल्ली में एक कांग्रेस नेता अपना नाम न छापने की शर्त पर इस बात की पुष्टि करते हैं कि इतनी बड़ी हार के बाद तमाम राज्य इकाइयों में अंदरूनी कलह मच गई है. वे बताते हैं, ‘नौ सीटों पर पहले ही हमारी हार तय हो चुकी थी. हमने नंदन निलेकणी जैसे गौड़ सारस्वत ब्राह्मण को ऐसी सीट से टिकट क्यों दिया जहां ब्राह्मण मतदाता सिर्फ एक फीसदी है?’ वे बेलगाम, सिमोगा, मंगलोर समेत उन सीटों की पूरी सूची गिनाने लगते हैं जिन पर सिर्फ सावधानी से उम्मीदवार का चयन करके जीत हासिल की जा सकती थी. वे कहते हैं, ‘मंगलोर की सीट प्राइमरी सिस्टम की असफलता का उदाहरण है. सदस्यों ने स्वामिभक्ति का परिचय दिया और जनार्दन पुजारी प्राइमरी जीत गए, जबकि हमें वहां से किसी युवा नेता को चुनना चाहिए था. शिमोगा में हमने येदियुरप्पा के सामने एक बंट समुदाय के नेता को टिकट थमा दिया जबकि वह सीट इडीगा, वोक्कालिगा, लिंगायत और मुसलिम अधिकता वाली है. बंट बहुत कम हैं वहां पर. इसी तरह कोप्पल में पिछड़ा जाति के कुरुबा को उम्मीदवार बनाया जबकि वहां से किसी लिंगायत को टिकट देना चाहिए था.’

इधर, कांग्रेस अपने जख्मों को सहलाने में लगी हुई है और दूसरी तरफ भाजपा के नेताओं को अपने शीर्ष नेतृत्व की ओर से एक महत्वाकांक्षी संदेश भेजा गया है. संदेश की बाबत भाजपा के एक नेता कहते हैं, ‘हमारा लक्ष्य स्पष्ट है- कांग्रेस मुक्त कर्नाटक. हमंे इसके लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी है. कांग्रेस खुद ही टूट रही है. समय आने पर हम निर्णायक प्रहार करेंगे.’

भाजपा नेता इसके अलावा तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में पार्टी की पहुंच बढ़ाने की जरूरत भी बताते हैं. गौरतलब है कि इन राज्यों में भी भाजपा ने पहली बार ठीकठाक प्रदर्शन किया है. अगर भाजपा के इस नेता पर यकीन करें तो आने वाले समय में पार्टी इन राज्यों में अपनी पैठ मजबूत करने के लिए बड़ी मात्रा में संसाधन झोंकने जा रही है. खुद के लिए या अपने नजदीकियों के लिए कोई मंत्रीपद न पाने के बावजूद येदियुरप्पा की नाराजगी फिलहाल दूर हो गई है क्योंकि मोदी ने खुद उन्हें पार्टी की बेहतरी का काम सौंपा है.

इस बीच 26 मई को बीजापुर में भाजपा समर्थकों की एक विजय रैली दंगे में परिवर्तित हो गई. कहा जा रहा है कि भाजपा कार्यकर्ताओं ने अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के ऊपर गुलाल फेंकना शुरू कर दिया था. इस मामले में भाजपा नेता बी पाटिल यतनाल और उनके 26 समर्थकों पर गैर जमानती धाराओं में मामला दर्ज करके गिरफ्तार कर लिया गया है. यतनाल पिछली एनडीए सरकार में केंद्रीय मंत्री थे.

कांग्रेस की जो हालत है उसमें कर्नाटक का फिर से भगवा किले में तब्दील होना लगभग तय है.