Wednesday, September 10, 2025
Home Blog Page 108

भ्रम का उत्सव, छद्म नाम यंग महोत्सव

yangistan
िफल्म» यंगिस्तान
निर्देशक» सैयद अहमद अफजल
लेखक » सैयद अफजल, रमीज खान, मैत्रेय बाजपेयी
कलाकार » फारुख शेख, जैकी भगनानी, नेहा शर्मा

यंगिस्तान संपूर्णता में एक ईमानदार कोशिश हो सकती थी. कुछ हिस्सों में यह है भी. लेकिन फिल्म को जब दूसरे तिराहे से मुड़कर तीसरी पेचीदा गली में पहुंच पांचवे मकान से सटे नाले को पार कर अंदर की दुनिया में झांकने का मौका मिलता है तब उसे हाइवे याद आने लगता है. उसे हाइवे के सफर की ही आदत है. उसके आस-पास बसे सुंदर गांव देखने की. उसी हाइवे से ताजमहल जाने की, लुटियन दिल्ली के नार्थ-साउथ ब्लॉक पहुंचने की. ऐसे सफर पर निकली ‘यंगिस्तान’ राजनीति में डूबी हिंदुस्तान भर की सारी सामाजिक दिक्कतों का जवाब मोंटाज बना-बनाकर देती है जिसके पीछे संगीत उतनी ही मधुरता से चलता है जैसे छुआछूत मानने वालों के घाट से सटकर पवित्र गंगा.

फिल्म की कहानी 28 साल के जैकी भगनानी के प्रधानमंत्री बनने और उसके बाद देश और गर्लफ्रेंड को संभालने की हातिमताई कसरतों की लुका-छिपी है. और वैसे तो 28 साल के ऐसे युवा वंशवाद की राजनीति की चुनावी मुहर होते हैं, उत्तर कोरिया जैसे देशों को चलाने के शायद बढ़िया उम्मीदवार, लेकिन किसी डेमोक्रेसी के लिए उनका प्रधानमंत्री होना जॉनी लीवर के ‘प्यासा’ में लीड रोल करने जितना ही दुर्दांत है. फिल्म अपनी शुरूआत में यही करके विचलित करती है लेकिन धीमे से आप उसे नजरअंदाज कर दें तो फिल्म अपने पहले टुकड़े में आपको मुस्कुराने का मौका भी देती है और पॉपकार्न खाने का भी. उसके पास कुछ अच्छे दृश्य हैं जैकी और नेहा के. उनकी निजी और उन्मुक्त जिंदगी के पब्लिक स्फियर में आने की कसमसाहट के. उसका स्थितिजनित हास्य अच्छा भी लगता है और नया भी. लेकिन तभी ध्यान आता है कि यह फिल्म भी गोल-गोल-गोल घूमने वाली ही घुमक्कड़ी कर रही है. उसके पास अब मुख्य बात प्रधानमंत्री का अपनी गर्लफ्रेंड के साथ लिव-इन में रहना है जिसे भुना-भुनाकर वह काला कर देती है. जैकी के चेहरे के पास भी तीन ही एक्सप्रेशन रह जाते हैं. एक बार हंस दिए तो उस हंसी को अगले तीस सेकंड तक बरकरार रखने वाला, रोने वाला और तीसरा चेहरे से कुछ भी नहीं करने वाला. नेहा शर्मा अच्छी लगती हैं और पहले हिस्से में अभिनय भी खराब से दूर खड़े होकर ही करती हैं. कुछ-एक दृश्यों में उनके मेकअप का गाढ़ापन अभिनय से ज्यादा गहरा जरूर है लेकिन उससे ज्यादा ध्यान इस बात पर जाता है कि फिल्म अपने दूसरे टुकड़े में हीरोइन को बिजूका क्यों बना देती है, उसके पास करने के लिए मां बनने के अलावा कुछ और क्यों नहीं रहता. लेकिन हीरोइनों का शुरूआत में आग की लपट होना और धीरे-धीरे सिर्फ हीरो के बाग की चमक होना हमारी फिल्मों को लिखने के नियमों में न्यूटन के किसी नियम-सा स्थायी है.

यंगिस्तान भी जब कुछ जमीनी कहानी कहने के बोझ से चिंतामुक्त हो जाती है, तब से वो किसी पार्टी का मेनिफेस्टो बन जाती है. ढेर सारे बदलाव लाने के वायदे करती है और समझ आता है कि लेखक को ऐसी क्रांतिकारी बातें लिखने में उतना ही मजा आया होगा जितना पार्टियों के मेनिफेस्टों को लिखने वाले लेखको को सालों से आता रहा होगा. लेकिन सतह पर ब्रिस्क वॉक करती कहानियां भावुक नहीं करती, सिर्फ हंसाती हैं.

फिल्म छोड़ने के बाद दो चीजें नहीं छूटती. फारुख शेख और दाता दी दीवानी गीत. ‘कथा’ देखने का विचार भी.

यथा नाम तथा अंजाम

BABCOOFIYAN

हबीब फैजल कहानियां मजेदार लिखते हैं. असल जिंदगी के आस-पास. लेकिन उनकी कहानियों के कागज जब यशराज पहुंचते हैं तो पहले स्क्रिप्ट और बाद में फिल्म अलग-अलग प्लास्टिक आवरणों में लपेट कर असल से दूर कर दी जाती हैं. इसके बाद वे फिल्में हमारी जिंदगियों में उतना ही झांक पाती हैं जितना किसी ट्रैफिक सिग्नल पर खड़े होकर गुजरती-रुकती कारों में ताक-झांक कर कोई दुनिया जान पाता है. यही वजह है शायद, कि आज भी हबीब फैजल की लिखी-बनाई सबसे अच्छी फिल्म वह है जो यशराज की नहीं है. दो दूनी चार. और बेवकूफियां में हालांकि फैजल सिर्फ लेखक हैं लेकिन जितनी इज्जत से दो दूनी चार दिल्ली और उसके किरदारों का सर-पैर नापती है उसकी आठ-दस सूत इज्जत भी अगर ‘बेवकूफियां’ की निर्देशक नूपुर दिल्ली को दे इसे थोड़ा नाप लेती तो इस कहानी को परदे पर देखने में मजा जरूर आता.

जाहिर है कहानी कागज पर अच्छी है. सच्ची भी. लड़के के पास नौकरी है, गाड़ी है, विकास है. लड़की के पास भी यह सब कुछ है. क्रेडिट कार्ड प्लेटिनम है और लड़के के पास गोल्ड. लड़की चाहती है कि लड़का उसके पिता को इंप्रेस करे और लड़की के पिता जी नहीं चाहते कि वे इंप्रेस हों. तीनों आपस में खो-खो जैसा कुछ खेल ही रहे होते हैं कि अचानक से हवाई जहाज वालों के लिए रिसेशन आ जाता है, और लड़के के पास कुछ नहीं बचता. लड़की के पास अब भी सब कुछ बचा रहता है और संग पिता भी रहते हैं. लड़के को पिता जी का दिल जीतना है और बिल भी भरना है. ऐसे वक्त में बेरोजगार लड़के के लिए लड़की एटीएम बनती है और कहानी का यही वो हिस्सा है जो फिल्म को बहुत शानदार बना सकता था, अपने अनुभव हमसे बांट सकता था, हमारे अनुभव परदे पर जीवित कर सकता था. अगर आपने अपनी गर्लफ्रेंड के पैसों पर कभी बेरोजगारी के दिन काटे हों, उसके पैसों पर फिल्में देखी हों, शहर घूमा हो, तो आप समझ सकते हैं कि कितनी घटनाएं होती हैं जो बेरोजगारी में भी जीवन को दिलचस्प बना देती हैं. लेकिन ऐसी दिलचस्पी के लिए प्यार चाहिए और सोनम-आयुष्मान जो परदे पर दिख सके, ऐसा प्यार कर नहीं सके. वे लड़ते भी हैं तो इतना जम कर नहीं लड़ते जितना दो दीवाने शहर में लड़ते हैं, प्यार करते हैं तो बचकाने लगते हैं, लगता है कोई इनके बीच खड़ा है जिसे देख इन्हें शर्म आ रही है. आयुष्मान खुराना अपने किरदार के लिए मेहनत भी करते हैं मगर वे धनुष नहीं है जो सोनम के साधारण अभिनय को अपनी तीव्रता में छिपा ले जाएं. सोनम जाहिर है अच्छा अभिनय नहीं करतीं और कपड़े अच्छे पहनती हैं. ऋषि कपूर अभिनय खूब सारा करते हैं लेकिन तारीफ के काबिल कुछ नहीं करते. इसके अलावा किरदारों में कार, इमारतें और क्रेडिट कार्ड हैं जिनका अभिनय पढ़ना अभी हमने नहीं सीखा है.

हमारे यहां की मसाला फिल्में अपने अंत के साथ भी जोखिम नहीं लेती. उसके सभी किरदार आखिर में पाक-साफ हो जाते हैं, कोई किरदार अपनी गलतियों के साथ सारी जिंदगी जीने को तैयार नहीं होता और अभी तक जो सारे सवाल फिल्म ने उठाए थे उसके जवाब अभी नहीं अगले सेमेस्टर की परीक्षा में आप लोगों को देने है का अदृश्य साइनबोर्ड दिखा फिल्म सच में बेवकूफियां करने लगती है. ‘बेवकूफियां’ भी यही करती है.

एलबमः बेवकूफियां

bewakoogiyaanएलबमः बेवकूफियां
गीतकार  » अंविता दत्त, हबीब फैजल
संगीतकार  » रघु दीक्षित

रघु दीक्षित बढ़िया गाते हैं. बढ़िया लिखते हैं, बढ़िया ही संगीत देते हैं. उनके ‘मस्ती की बस्ती’, ‘हे भगवान’, ‘मैसूर से आई’ और ‘अंबर’ आज भी ताजे हैं. लेकिन ऐसा तभी होता है जब वे ‘इंडी’ नाम के गोवर्धन के नीचे अपने संगीत संग रहें. यशराज की छांव में उनका संगीत अपना रंग छोड़ श्वेत-श्याम हो जाता है. और ऐसा होना नहीं चाहिए था.

‘बेवकूफियां’ में रघु दीक्षित विशाल-शेखर ज्यादा हैं हालांकि एलबम के दो अच्छे गीतों में से एक विशाल ही गाते हैं. ‘हे जिगड़ा’ विशाल की खराश आवाज में बेहद अच्छा लगता है जिसका संगीत भी रघु दीक्षित के घर का है. इसके बाद के दो गाने वे विशाल-शेखर के घर जाकर बनाते हैं. गुलछर्रे और रूमानी सा. आप जो गुलछर्रे उड़ाते है उन्हें जेबों में भरने वाला गीत ‘गुलछर्रे’ लिखते हुए अन्विता दत्त को मजा आया होगा, पता चलता है. सुनते हुए हमें भी आना था. नहीं आया. वहीं ‘रूमानी सा’ लिखा अच्छा है, गाया साधारण हैं और संगीत पुराना है. यानी पूरेपन में बेकार गीत. इसके बाद वाला ‘खामखां’ मकानमालिक-किरायेदार की प्रेम भरी तकरार ज्यादा बन गया है, प्रेमियों की कम. ठीक से मुखड़े पर हबीब फैजल के कुछ अंतरे हास्यास्पद हैं, और भला हो नीति मोहन और बांसुरी का, कि हम फिर भी सुनते हैं. एलबम का दूसरा अच्छा गीत अतिसामान्य लिखा ‘बेवकूफियां’ है जिसे रघु दीक्षित अपनी अंबर जैसी विशाल आवाज में शानदार गाते हैं और इसे हम ज्यादा दिनों तक नहीं सुनेंगे, पता है, फिर भी बेवकूफियां शब्द का उच्चारण ‘पैसा वसूल’ जैसी भावना के समकक्ष गाने को ले आता है. आखिरी गीत ‘ओ हीरिए’ आयुष्मान खुराना का है और बेकार है.

‘बेवकूफियां’ के बहाने रघु दीक्षित का पहला एलबम सुनना बेहतर है. और कुछ वक्त पहले आया ‘जग चंगा’ भी.

रेत के बहाने जीवन की कविता

पुस्तक ः रेत में आकृततयां लेखक ः श्रीप्रकाश शुक्ल मूल्य ः 120 रुपये पृ ः 106 प्रकाशन ः भारतीय ्ानपीठ, नई तिल्ली
पुस्तक ः रेत में आकृततयां लेखक ः श्रीप्रकाश शुक्ल मूल्य ः 120 रुपये पृ ः 106 प्रकाशन ः भारतीय ्ानपीठ, नई तिल्ली
पुस्तक ः रेत में आकृततयां
लेखक ः श्रीप्रकाश शुक्ल
मूल्य ः 120 रुपये
पृ ः 106
प्रकाशन ः भारतीय ्ानपीठ, नई तिल्ली

हाल के वर्षों में आए कविता संग्रहों में श्रीप्रकाश शुक्ल का यह संग्रह इस दृष्टि से विशिष्ट है कि इसमें केवल नदी और रेत को लेकर कविताएं हैं. वैसे तो नदी में पसरे रेत को विषय बनाकर कुछ छिट-पुट कविताएं हिंदी में मिल जाती हैं पर रेत की इतनी बहुविध अर्थ छवियां पहली बार श्रीप्रकाश शुक्ल के इस संग्रह में ही दिखाई देती है. संग्रह की कविताओं को पढ़कर आश्चर्य होता है कि रेत जैसी शुष्क और नीरस चीज भी कविता में आकर इतनी जीवंत कैसे बन जाती है? कविताओं में रेत न सिर्फ तमाम तरह की मानवीय भावनाओं का आलंबन है बल्कि वह प्रकृति की गति के साथ गतिशील और परिवर्तनशील भी है. जड़ को चेतन में बदलना ही कवि कर्म की सार्थकता है. कवि जितना समर्थ होगा उसमें यह क्षमता उतनी ही अधिक होगी. रेत का सर्वाधिक बेहतरीन उपयोग मूर्तिकला में होता आया है. एक नए कला माध्यम यानी कि कविता के लिए रेत को संदर्भवान बनाना कवि की निजी उपलब्धि है.

‘रेत में आकृतियां’ स्वयं श्रीप्रकाश शुक्ल के कवि-कर्म में एक प्रस्थान बिंदु है. भूमंडलीकरण की निर्मम प्रक्रिया में खत्म हो रहे लोक की चिंता ही उनकी कविताओं का मुख्य स्वर रहा है. ‘बाली बात’ कविता संग्रह इसका मुखर प्रमाण है. पर अपने इस तीसरे संग्रह में वे अपनी मूल जमीन से कुछ दूर जाते दिखाई दे रहे हैं. हालांकि वे इस बात को लेकर बहुत सचेत हैं कि उनके इस प्रयास को ‘कलावाद’ के दायरे में न देखा जाए. संग्रह की भूमिका में वे स्पष्ट कहते हैं, ‘कला यहां केवल मानवीय सृजन की इच्छा का परिणाम है और सृजन की इच्छा अनिवार्यत: सामाजिक हुआ करती है.’ संग्रह की कविताओं से कवि की इस बात की पुष्टि: होती है. कवि के लिए रेत में बनने वाली आकृतियां सिर्फ सौंदर्य बोध की चीज न होकर इस घनघोर अमानवीय समय में मनुष्यता की आवाज है. इसीलिए वह कहता है, ‘जब कभी उदासी के गहन अंधकार के बीच/ बाहर निकलने की बात उठेगी-/ जो कि उठेगी ही/ बहुत याद आएंगे ये कलाकार.’ क्योंकि, ‘यह जो आकृतियां हैं/ महज आकृतियां नहीं हैं/ ये इनके अरमान हैं/ जो फूट पड़ने को बेताब हैं.’ सामाजिक सरोकार और दृष्टि कविताओं में अंतर्धारा के रूप में सर्वत्र विद्यमान है. शायद इसीलिए ये कविताएं प्रत्यक्ष रूप से रेत पर होते हुए भी सिर्फ रेत की कविताएं नहीं हैं बल्कि हमारे जीवन की कविताएं हैं.

कांग्रेस का महाभारत जोगी के जौहर

jhoshiछत्तीसगढ़ में कांग्रेस और जोगी का साथ कुछ ऐसा है कि वे ज्यादा समय एक दूसरे के साथ कदमताल नहीं कर पाते लेकिन एकदूसरे से अलग होने में भी उन्हें जोखिम लगता है. छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में मुंह की खा चुकी कांग्रेस अब यहां लोकसभा चुनाव की तैयारी में लगी हुई है और इसके साथ ही पार्टी के वरिष्ठ नेता अजीत जोगी एक बार फिर इस तैयारी का केंद्र बनने लगे हैं.

कांग्रेस के भीतर लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए योग्य उम्मीदवारों के चयन का काम जब से शुरू हुआ है तब से एक नया बखेड़ा खड़ा हो गया है. यहां अफवाहों के लिए कुख्यात इस पार्टी में पहले यह बात फैलाई गई कि जोगी कोरबा लोकसभा सीट से चुनाव लड़ना चाहते हैं. दिल्ली दरबार से उड़ी यह अफवाह जब रायपुर पहुंची तो पार्टी के कई खेमों में घमासान शुरू हो गया. सबसे पहले महंत गुट में बेचैनी फैली. कोरबा से ही चरणदास महंत का बयान भी आ गया कि यह केवल अफवाह है, जोगी जी कोरबा से चुनाव लड़ना नहीं चाहते बल्कि वे तो महासमुंद सीट से चुनाव लड़ने के इच्छुक हैं. दरअसल महंत कोरबा लोकसभा सीट से ही कांग्रेस के सांसद हैं और केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री हैं. 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ की 11 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस ने सिर्फ इसी सीट पर जीत दर्ज की थी. बाकी 10 सीट भाजपा के खाते में चली गई थीं. महंत इस बार भी अपनी इसी परपरांगत सीट से लड़ने के इच्छुक हैं. लेकिन कोरबा सीट से अजीत जोगी के चुनाव लड़ने की बात फैलने के बाद आई महंत की प्रतिक्रिया से शुक्ल खेमे की नाराजगी बढ़ गई है. इसका कारण यह है कि चाहे श्यामाचरण शुक्ल का परिवार हो या वीसी शुक्ल का, दोनों के ही सदस्य महासमुंद को अपनी पारिवारिक सीट मानते हैं. इस सीट से फिलहाल शुक्ल परिवार के तीन सदस्य टिकट के लिए दावा भी कर रहे हैं. मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल के बेटे अमितेश शुक्ल, अमितेश के बेटे भवानी शुक्ल और पूर्व केंद्रीय मंत्री वीसी शुक्ल की बेटी प्रतिभा पांडे महासमुंद से टिकट मांग रहे हैं. ऐसे में जोगी यदि महासमुंद जाते हैं तो सबसे ज्यादा नुकसान शुक्ल परिवार को ही होगा. इसके बाद एक खबर यह आई कि कांग्रेस अजीत जोगी को बिलासपुर सीट से भी चुनाव लड़वाना चाहती है. भाजपा सांसद दिलीप सिंह जूदेव ने 2009 में इसी सीट पर अजीत जोगी की धर्मपत्नी रेणु जोगी को पराजित किया था. हालांकि जब ये खबरें अच्छे से राजनीतिक गलियारों में चल गईं. उन पर महत्वपूर्ण प्रतिक्रियाएं आने लगीं तब अजीत जोगी बार-बार ये ऐलान करने लगे कि उन्हें कहीं से चुनाव नहीं लड़ना. पूर्व मुख्यमंत्री जोगी का कहना है, ‘मैं तो हमेशा पार्टी के हित में काम करना चाहता हूं. पार्टी यदि जोर देगी तो चुनाव भी लड़ूंगा. लेकिन फिलहाल तो मेरी इच्छा संगठन को मजबूत करने की है. सीट विशेष को लेकर मंैने कभी कोई मांग नहीं की.’

दौड़ में केंद्रीय मंत्री चरणदास महंत और प्रततभा पांडे तिन लोकसभा सीटों से चुनाव लड़ना चाहते हैं, िोगी की उनपर भी निर है
दौड़ में केंद्रीय मंत्री चरणदास महंत और प्रततभा पांडे
तिन लोकसभा सीटों से चुनाव लड़ना चाहते हैं, िोगी
की उनपर भी निर है

हालांकि जोगी के ऐलान के बाद भी पार्टी उन्हें छत्तीसगढ़ की किसी एक सीट से चुनाव लड़वाना चाहती है. पार्टी के भीतरखानों से मिली जानकारी के मुताबिक कांग्रेस आलाकमान को लगता है कि अजीत जोगी को चुनाव लड़वाने का मतलब हर हाल में अपने लिए एक सीट में इजाफा करना होगा. जहां तक जोगी के चुनाव लड़ने और सीट चयन पर वरिष्ठ नेताओं के बीच आपसी खींचतान की बात है तो पार्टी इससे इनकार करती है. प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष भूपेश बघेल कहते हैं, ‘ पार्टी के लिए हरेक नेता महत्वपूर्ण है.चाहे वह जोगी जी हों या चरणदास महंत. शुक्ल परिवार की भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका है. किसी में किसी सीट को लेकर कोई नाराजगी नहीं है. पार्टी भी हर सीट पर नेताओं के प्रभाव को ध्यान में रखकर टिकट देगी.’

कांग्रेस के लिए इस वक्त जोगी इसलिए जरूरी हैं क्योंकि वे सीधे 51 प्रतिशत मतदाताओं को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. जोगी का गणित सतनामी (16%), आदिवासी (32%) और ईसाई (3%) मतदाताओं के इर्द गिर्द घूम रहा है. यानि वे कुल 51 फीसदी वोट साधने की कुंजी हैं. फिर वे साम दाम दंड भेद की नीति के सही खिलाड़ी भी माने जाते हैं. जोगी बार-बार साबित भी करते रहे हैं कि छत्तीसगढ़ की राजनीति के नक्षत्र उनके मुताबिक चलते रहे हैं. (2009 लोकसभा चुनाव में रेणु जोगी की हार को वे अपवाद बताते हैं). हर विधानसभा चुनाव में पूरे प्रदेश में सबसे ज्यादा लीड लेने नेता साबित होते रहे हैं. वहीं उनके बेटे अमित जोगी ने भी अपने पहले चुनाव में यह मिसाल कायम रखी है. हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में अमित जोगी को 82 हजार 865 मत मिले थे और उन्होंने प्रदेश के किसी भी उम्मीदवार की तुलना में कहीं ज्यादा अंतर से अपने प्रतिद्वंदी को हराया था. अमित ने भाजपा की उम्मीदवार समीरा पैकरा (36,605 मत) को 46 हजार 260 वोट से हराया था. इसके श्रेय भी अजीत जोगी की रणनीति को ही दिया गया. कांग्रेस के लिए इस लोकसभा चुनाव में जोगी का महत्व इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि बस्तर की 12 सीटों में 8 जीतकर भाजपा से पिछला हिसाब चुकाने वाली कांग्रेस यह जानती है कि 8 में चार विधायक जोगी के करीबी माने जाते हैं. जबकि अमूमन हर लोकसभा सीट पर भी उनके समर्थक विधायकों की संख्या दूसरे नेताओं से ज्यादा है. ऐसे में पिछले कुछ समय से हाशिए पर पड़े अजीत जोगी में एक बार अपनी ही पार्टी कांग्रेस से मोलभाव करने की स्थिति में आ गए हैं और कांग्रेस भी उन्हें भाव देने की मजबूरी में.

नन्हे हाथ बड़ी करामात

गहरी खुदाई जोरहाट जजले के जििाबोर में यंग फामर्सर् क्लब से जुड़े छात्र काम करिे हुए
गहरी खुदाई जोरहाट जजले के जििाबोर में यंग फामर्सर् क्लब से जुड़े छात्र काम करिे हुए

पुबाली और सुनती सैकिया के चेहरे की खुशी आज देखते ही बनती है. 13 साल की पुबाली टमाटर तोड़ रही है और लगभग उसकी ही उम्र की सुनती बींस की फलियां इकट्ठा करने में लगी है. एक ही क्लास में पढ़ने वाली इन दोनों सहेलियों का उत्साह स्वाभाविक भी है. आखिर यह उनकी जिंदगी की पहली उपज जो है. ऊपरी असम मेंे जोरहाट जिले के तिताबोर उपखंड में इन दिनों ऐसे कई उदाहरण देखने को मिल जाएंगे. दरअसल इस इलाके के कई प्राथमिक विद्यालयों में ऑर्गेनिक खेती (रसायनों के इस्तेमाल से रहित जैविक खेती) की एक अनूठी पहल शुरू हुई है. इसके तहत बच्चों को औपचारिक शिक्षा के साथ खेती-किसानी से सफल उद्यमी बनने का पाठ भी पढ़ाया जाता है. फार्मप्रेन्योर नाम से शुरू हुई यह पहल ग्रामीण इलाकों के खेतिहर परिवारों के बच्चों पर केंद्रित है.

पुबाली और सुनती एक 20 सदस्यीय युवा किसान समूह की सदस्य हैं. यह समूह तिताबोर के रायदंगजुरी नागाबात प्राथमिक विद्यालय में बना है. सभी बच्चे अपने स्कूल में ही बने और 2,500 वर्ग फुट में फैले किचन गार्डन में सब्जियां उगाते हैं. इन बच्चों ने जैविक खेती के सबक का इस्तेमाल करके गाजर, मूली, टमाटर, सेम, मिर्च और पालक जैसी सब्जियां सफलता से उगाई हैं. इन सब्जियों का इस्तेमाल स्कूल में मध्याह्न भोजन पकाने के लिए किया जाता है. पुबाली कहती है, ‘हमारा किसान क्लब हमें बहुत अच्छा लगता है. मैं बचपन से ही सब्जियां उगाने में अपने पिता की मदद करती आई हूं. लेकिन वे खेत में कैमिकल खाद का इस्तेमाल करते हैं. जब मैंने अपने स्कूल के किसान क्लब के साथ काम करना शुरू किया तब मुझे पता चला कि ऑर्गेनिक खेती क्या होती है. अब हमें पता है कि वर्मीकंपोस्ट खाद (कूड़े-कचरे और कीड़ों से बनने वाली खाद) कैसे बनाई जाती है. हमें सिखाया जा रहा है कि खेती को एक कारोबार के रूप में भी अपनाया जा सकता है और यह भी कि हम खेती को बैंकिंग से जोड़ सकते हैं. बैंक में हम सबके बचत खाते खुले हुए हैं.’

पुबाली के पिता लीलाकांत सैकिया (47) ने सारी जिंदगी खेती ही की है. वे बहुत उत्सुकता से अपनी बेटी के स्कूल से वापस आने की प्रतीक्षा करते हैं. लीलाकांत कहते हैं, ‘मैं चौथी पीढ़ी का किसान हूं. हमारा पूरा गांव खेती से ही अपना पेट पालता है. खेती के बारे में जो भी जानकारी है वह हमें अपने पुरखों से मिली है, लेकिन हम रासायनिक खाद के बुरे असर से अब तक अनजान थे. मेरी बेटी ने मुझे जैविक खेती करना सिखाया, उसने मुझे वर्मीकंपोस्ट बनाना भी सिखाया. बच्चों के इस किसान क्लब ने सारे गांव को जैविक खेती करने के लिए प्रेरित किया है.’

अकेले इस सीजन में ही इस छोटे-से क्लब ने 32 किलो सब्जियां उगाई हैं. इसका अधिकांश हिस्सा स्कूल में दिन का भोजन बनाने में इस्तेमाल हुआ. बची सब्जियों को उन्होंने स्थानीय बाजार में बेचकर 320 रुपये भी कमाए. वर्मीकंपोस्ट खाद की पहले ही स्थानीय किसानों के बीच अच्छी-खासी मांग हो चुकी है. बच्चों के क्लब ने इस खाद की बिक्री करके भी 650 रुपये कमाए. इस पैसे को सबमें बराबर-बराबर बांट कर नए खुले बैंक खातों में जमा कर दिया गया.

सुनती कहती है, ‘मैंने देखा है कि मेरे पिता खेत में बहुत मेहनत करते हैं, लेकिन उसके हिसाब से पैदावार नहीं होती. मुझे नहीं लगता था कि मैं खेती से जुड़ी रहूंगी. लेकिन फार्मप्रेन्योर ने सब कुछ बदल दिया. अब हम उद्यमी किसान बनना चाहते हैं.’

इस पहल की नींव मार्च, 2013 में पड़ी थी. तब फार्म2फूड फाउंडेशन और धरित्री नामक दो स्वयंसेवी संगठनों ने एक मंच पर आकर इस पहल की शुरुआत की. फार्म2फूड फाउंडेशन के संस्थापक गौरव गोगोई कहते हैं, ‘फार्मप्रेन्योर के विचार के पीछे दरअसल खेती की प्रतिष्ठा को स्थापित करने की भावना है. इसके अलावा ग्रामीण इलाके के युवाओं को यह दिखाना है कि कैसे उनके पुरखों का पेशा आज भी कमाल कर सकता है. हमारा ध्यान इस बात पर केंद्रित है कि युवाओं के मन से यह धारणा निकाल दी जाए कि किसान गरीब और अशिक्षित होते हैं. हम उनको यह सिखाना चाहते हैं कि खेती के काम में विज्ञान, वाणिज्य और तकनीक के ज्ञान की जरूरत होती है. हमें लगता है कि यही रास्ता भारत की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है.’

फार्मप्रेन्योर योजना की शुरुआत तिताबोर उपखंड के 10 प्राथमिक विद्यालयों के साथ हुई. हर स्कूल में 20 बच्चों का एक क्लब बनाया गया. चुन गए छात्रों को ऑर्गेनिक खेती के तौर-तरीके सिखाए गए. परियोजना के निदेशक दीपज्योति सोनू ब्रह्मा कहते हैं, ‘हमने स्कूलों के चयन में सर्व शिक्षा अभियान की मदद ली. हमने बच्चों को ऑर्गेनिक खेती के बारे में जानकारी दी. हर बच्चे को एक डिब्बा दिया ताकि वे उसमें अपना वर्मीकंपोस्ट रखें. हमने उन्हें विशेषज्ञों तथा उन मॉडल किसानों से भी मिलवाया जिन्होंने जैविक खेती का इस्तेमाल करके कामयाबी पाई है.’

बच्चों के लिए इसी बात को ध्यान में रखते हुए किताबें भी तैयार की गईं. बच्चों द्वारा उपजाई गई चीजों की प्रदर्शनी लगाई जा रही है और इसके जरिए उन्हें  सिखाया जा रहा है कि फसलों की कीमत कैसे तय की जाए. ब्रह्मा कहते हैं, ‘इससे कई मकसद पूरे हुए. पहला, बच्चे खेती में अपना भविष्य देख सकते हैं. अब तक रासायनिक खाद पर निर्भर रहे इस इलाके में वे जैविक खेती के अगुआ बन गए हैं. उन्हें यह भी समझ में आ गया है कि अपने बचत के पैसे को बैंक में कैसे रखा जाता है. इसके अलावा उन्हें कृषि ऋण और अपने उत्पाद की मार्केटिंग जैसी चीजों का भी ज्ञान हो रहा है.’

अभी प्रयोग के तौर पर चल रही इस परियोजना को सर्व शिक्षा अभियान आर्थिक मदद मुहैया करा रहा है. उसकी तरफ से फाउंडेशन को किताबें और कुछ और शैक्षिक सहायता दी जा रही है. तिताबोर के ही निवासी 70 वर्षीय तंकेश्वर बोरा कहते हैं, ‘सरकार को इससे सीखना चाहिए. यह सबक है कि कैसे बहुत कम खर्च वाले किसी विचार पर भी अगर ईमानदारी और गंभीरता से काम किया जाए तो वह नई पीढ़ी के मन में खेती के बीज बो सकता है. और अगर मार्केटिंग और बैंकिंग को भी इसमें जोड़ दिया जाए तो भविष्य के लिए उम्मीदों का एक भंडार बन सकता है. ये बच्चे यह भी सीख रहे हैं कि वे कैसे बिचौलियों और जमाखोरों से बच सकते हैं.’

यह परियोजना कई मायनों में सफल की जा सकती है. किताबी पढ़ाई के अलावा बच्चे नियमित कार्यशालाओं में भाग लेते हैं. दिलचस्प बात यह भी है कि इस पूरे कार्यक्रम को बेहद सावधानी के साथ बच्चों के पाठ्यक्रम से भी जोड़ा गया है. उदाहरण के लिए, परियोजना से जुड़े एक अधिकारी समीर बोरदोलोई कहते हैं, ‘कक्षा आठ में विज्ञान विषय का पहला ही अध्याय कृषि उत्पादन और उसके प्रबंधन से जुड़ा है. इसी तरह गणित में बच्चे यह हिसाब लगाते हैं कि जमीन के एक खास माप के हिस्से में कितनी उपज पैदा की जा सकती है. वे यह भी सीखते हैं कि पौधों के बढ़ने का चार्ट कैसे बनाया जाए. इसी तरह वित्तीय साक्षरता के क्रम में उनको मूल्य तय करना, बेचना, ऋण लेना और बचत खातों में पैसा जमा करना आदि सिखाया जाता है. यानी उद्यमिता की मूलभूत तैयारी.’

माना जा रहा है कि यह योजना युवाओं में कृषि को बढ़ावा देने के लिहाज से आगे एक लंबा सफर तय कर सकती है. अगली पीढ़ी के लिए यह एक शुभ संकेत है. दूसरी तरफ, यह देश के खाद्य सुरक्षा लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में भी एक छोटा-सा कदम साबित हो सकता है.  राज्य की 2.52 करोड़ की आबादी यानी 52 लाख परिवार इसके दायरे में आएंगे. राज्य के नागरिक आपूर्ति मंत्री नजरुल इस्लाम कहते हैं, ‘हम ग्रामीण इलाकों की 84 और शहरी इलाकों की 60 फीसदी आबादी को इस योजना के दायरे में लाने की सोच रहे हैं.’

2013 में इस परियोजना में 17 स्कूलों के 340 छात्र शामिल थे. इस साल लक्ष्य 63 स्कूलों में 1,260 फार्मप्रेन्योर तैयार करने का है. तिताबोर के इस स्कूल के प्राध्यापक रवींद्रनाथ गोगोई कहते हैं, ‘हालांकि यंग फार्मर्स क्लब के लिए केवल 20 छात्रों का ही चयन किया जा सकता है, लेकिन समूचा स्कूल इससे जुड़ा रहता है. इसने मध्याह्न भोजना योजना के तहत बच्चों को ताजा और अच्छी गुणवत्ता वाला भोजन उपलब्ध कराने की हमारी समस्या दूर कर दी है. सबसे अच्छी बात यह है कि बच्चे खुद सब्जी उगा रहे हैं और उसे बेचकर लाभ भी कमा रहे हैं.’

पुबाली कहती है, ‘पहले मैं डॉक्टर बनना चाहती थी, लेकिन अब किसान बनना चाहती हूं. अपने पिता जैसी छोटी किसान नहीं. मेरा सपना है कि मैं बैंक से लोन लूं, और ज्यादा खेत खरीदूं और उस पर ऐसी जैविक खेती करूं कि ज्यादा से ज्यादा फसल हो.’

साफ है कि यह पहल सही दिशा में जा रही है.

घुन लगी गुंडाई और सौ किलो शोर

gunday
िफल्म » गुंडे
निदेर्शक» अली अब्बास जफर
लेखक » अली अब्बास जफर, संजय मासूम
कलाकार » रणवीर नसंह, अजुर्ि कपूर, नियंका चोपड़ा,
इरफाि खाि, सौरभ शुक्ला

अतिनाटकीयता और मेलोड्रामा का पता नहीं कौन-सा ग्रंथ है जिसका कुछ खास तरह की मसाला फिल्में बनाने वाले रोज पाठ करते हैं. यही अतिनाटकीयता / मेलोड्रामा ‘भाग मिल्खा भाग’ की समस्या थी, और वैसे तो ‘गुंडे’ किसी भी स्तर पर भाग मिल्खा भाग का नाखून भी नहीं छू पाती, लेकिन समस्या के स्तर पर दोनों गले में हाथ डाल कर खड़ी हैं. ‘गुंडे’ देखने वालों के लिए फिल्म तभी खत्म होना शुरू हो जाती है जब शुरुआत में दो छोटे-छोटे बच्चों से ‘गुस्से को पालना सीख, बड़े काम की चीज है’ और ‘गोली से तो बच गए, लेकिन भूख मार देगी यार’ जैसे बातें उगलवाई जाती हैं, उन्हें उड़ा कर चलती ट्रेन की कोयले से भरी बोगियों में पहुंचवाया जाता है और ‘तुम दोनों हिंदुस्तानी नहीं बांग्लादेशी शरणार्थी हो’ जैसे ट्रैजिक संवादों से बेवकूफियों को जायज ठहराया जाता है. फिल्म में कभी भी चुप न होने वाला बैकग्राउंड स्कोर, गाने, मार-धाड़ और दोनों नायकों की बावलों वाली हंसी मिलकर इतना शोर पैदा करती है कि एक क्विंटल बोझ सह रहा सर सजदे में है, ऐसा दुष्यंत कुमार वाला ही धोखा हमें भी होता है.

कहानी सत्तर-अस्सी के दशक के कलकत्ता की है, कोयले के चारों तरफ घूमती गुंडाई की, लेकिन चश्मे आज के हैं और अर्जुन कपूर की हेयर स्टाइल भी. कलकत्ता में रहकर दोनों नायक हिंदी प्रदेश वाली हिंदी बोलते हैं, और रेडियो में जब हिंदी गाने बजते हैं तो वे किशोर कुमार के न होकर रफी के होते हैं. इसीलिए शायद यह पहली हिंदी फिल्म है, धारा के विपरीत जाने वाली, जिसमें बंगाल में लोग सिर्फ किशोर कुमार को नहीं सुनते हैं! लेकिन जब कहानी की धारा के विपरीत एक नायक बहने या दौड़ने लगता है तो दूसरा नायक, अच्छा, भी फिल्म को नहीं बचा पाता. अर्जुन कपूर अभिनय भूले हुए वो नायक हैं जो रणबीर कपूर वाली पीढ़ी के तुषार कपूर न बन जाएं, डर लगता है. दूसरा नायक जो ऊर्जा का गोला है और अच्छा अभिनेता भी, रणवीर सिंह, अर्जुन कपूर की संगत में खुद भी खराब हो जाता है. दोनों की दोस्ती के आगे हालांकि कलकत्ता के लाल झंडे भी झुकते हैं, लेकिन दोस्ती के लिए दो नायकों के बीच जो संगत, जो लय-ताल होनी चाहिए उसे फिल्म बैकग्राउंड स्कोर की तीव्रता और मौला टाइप गानों से भरने की खराब कोशिश करती है. इन दो नायकों के बीच प्रियंका वही करती हैं जो वे इस तरह की फिल्मों में आसानी से करती रही हैं, और बुरा नहीं करतीं, लेकिन अच्छे का अवसर उन्हें फिल्म नहीं देती.

‘गुंडे’ में कुछ वक्त गुजारते ही आप समझ जाते हैं कि इसे लगातार देखते रहने की एकमात्र वजह इरफान खान को ही होना है. लेकिन वे पुलिस अफसर के रोल में पान सिंह तोमर की तरह प्रवचनी करते हैं, और हमें बुरा लगता है, लेकिन फिर भी वे पसंद आते हैं क्योंकि हम डूबते को तिनके का सहारा नाम की कहावत को गंभीरता से लेते हैं. फिल्म दूसरे अच्छे अभिनेताओं को भी कम अवसर देती है. उसके लिए पंकज त्रिपाठी और मनु ऋषि से ज्यादा जरूरी हावड़ा ब्रिज का फ्रेम में रहना है.

फिल्म उस वक्त का कलकत्ता खूबसूरत रचती है जिस वक्त की यह कहानी है. लेकिन कहानी दमदार गुंडे नहीं रचती. उसे घुन लगी चीजों से प्यार है और हमारे साथ समस्या यह है कि हमें घुन को धुनने वालों की दरकार है.

सुर्खियों की शोखी

मनीषा यादव
मनीषा यादव

अखबार के कार्यालय का दृश्य. संपादक महोदय किसी बात पर भड़के हुए थे. कमरे के बाहर उनके बोलों के दहकते शोले उड़ रहे थे. अभी मैं संपादक महोदय के केबिन तक पहुंचा ही था कि उनकी गरजदार आवाज मेरे कानों से टकराई, ‘तुमने पत्रकारिता का कोर्स किया है कि घास काटी है!’

बहरहाल, मेरी इंट्री उनके चैंबर में हुई. मुझे देखते हुए उन्होंने आंखों से बैठने का इशारा किया. अभी मैं सीट पर जमा भी नहीं था कि वे फटे, नहीं-नहीं फूटे, ‘यार, इस खबर में ऐसा क्या है कि प्रथम पृष्ठ पर लीड होनी चाहिए.’ संपादक महोदय जिससे मुखातिब थे वह प्रथम पेज का प्रभारी था. वह बोला, ‘सर, किसान ने खुदकुशी की है.’ संपादक महोदय तपाक से बोले, ‘अरे यार! यहां तो रोज ही किसान मरते रहते हंै.’ ‘पर सर! उसने पूरे परिवार के साथ आत्महत्या की है!’ ‘तो!’ ‘सर, उसके साथ उसकी बीवी, एक पांच साल की बच्ची, एक दो साल का बच्चा भी था!’ ‘कहां किसान और कहां नेताजी की बीवी! लगता है तुम्हें पत्रकारिता का अलिफ बे फिर से पढ़ाना पड़ेगा!’ वह चुप रहा. मैं भी चुपचाप मेज पर फैले हुए अखबार में मुंह गड़ाए पढ़ने का अभिनय कर रहा था.

संपादक महोदय बोले, ‘यार, यहां एक नेताजी की बीवी ने खुदकुशी की है. यही लीड बननी चाहिए न!’ ‘सर, किसान अपने पूरे परिवार के साथ रेल के आगे कट गया…’ ‘क्या फितूर है! किसान की लाश क्या फाइव स्टार में मिली है! क्या उसके नाम से लोग परिचित हंै! क्या किसान कोई सेलिब्रेटी है!’ ‘सर, कोई खुद को तो मार सकता है, मगर अपने परिवार को… वो भी अपने छोटे-से दुधमुंहे बच्चों को भी मार दे, तो मुझे लगता है कि यह एक गंभीर और महत्वपूर्ण खबर है…’ ‘लोग सनसनी पढ़ना चाहते है!’ ‘सर, इस खबर से मेरे रोंगटे खड़े हो गए! रूह कांप गई!’ ‘रूह, यू मीन टू से… आत्मा!’ ‘यस सर!’ ‘उंहू! भावुकता का पत्रकारिता में कोई काम नहीं. जाओ साहित्यकार बनो!’ जिस खबर में रहस्य, उत्सुकता, रोमांच हो उसे प्राथमिकता देनी चाहिए कि नहीं! हैं! फिर इसमें लव, सेक्स, धोखा वाला एंगल भी है. नेताजी की दिवंगत पत्नी ने मरने से पहले उन पर बेवफाई का इल्जाम लगाया था. पता है न!’

‘ऐसे नहीं चलेगा! सोचता हूं तुमको चिट्ठी-पत्री वाले काम में लगा दिया जाए. तुमसे नहीं होगा.’ संपादक महोदय कड़केे. ‘माफ कीजिए सर, नेताजी की पत्नी की खुदकुशी वाली खबर को किसान की आत्महत्या से अधिक कैसे तरजीह दी सकती है! वह भी जब उसने परिवार सहित…’ ‘तुम्हें समझाना मुश्किल है!’ ‘सर, विद ड्यू रिस्पेक्ट… नेताजी की दिवगंत पत्नी ने क्या महिलाओं के अधिकार के लिए कोई काम वगैरह किया था?’ ‘बहुत खूब! अब तुम मुझको पत्रकारिता करना सिखाओगे! पूरी उम्र गुजर गई है इसमें.’  संपादक महोदय अभिनय करते हुए बोले. ‘नहीं सर, मैं तो बस यह कह रहा था कि… उस किसान का सपरिवार आत्महत्या करना बहुत विचारणीय और गंभीर मुद्दा है. सर, कृषिप्रधान देश में किसान को ब्लैक में खाद खरीदनी पड़ती है. उसके लिए लाठी खानी पड़ती है. इसने भी खरीदा था. इसने भी लाठी खाई थी. कर्ज लेना पड़ता है, इसने भी लिया था. वह भी अधिकतर बैंक से नहीं स्थानीय महाजन से लेते हंै, इसने भी ऐसा किया था…’ संपादक महोदय रुक कर फिर बोले, ‘तुम्हारी बुद्धि पर तरस आता है! एक तरफ व्यवस्था है… व्यवस्थापक की खबर है और दूसरी तरफ व्यवस्था के भोगी की! यह बात समझो!’

संपादक का मित्र होने के बाद भी इस गरमागरम बहस के बीच मैंने वहां से निकलने में ही भलाई समझी. आज भोर से ही अखबार का इंतजार कर रहा हूं. देखना है खबर की मौत होगी या मौत की खबर! फिलहाल अखबार अभी मेरे हाथ नहीं आया..

जिस नफासत से तोड़ते हैं आप दरवाजे… जय हो!

jaiho
जय हो
िफल्म » जय हो
निदेर्शक» सोहेल खाि
लेखक » एआर मुरुगदॉस, नदलीप शुक्ला
कलाकार » सलमाि खाि

कहानियां भी कैसे-कैसे सफर तय करती हैं. एक विकसित देश में उपन्यास लिखा गया, पे इट फारवर्ड, जिस पर फिल्म भी बनी इसी नाम की. ग्यारह साल के लड़के की कहानी, जिसे सामाजिक विज्ञान की क्लास में एक ऐसा प्लान बनाने का असाइनमेंट मिला जिससे दुनिया में बदलाव आ सके. सातवीं के लड़के ने प्लान बनाया, अगर किसी को कोई बड़ी मदद मिले तो वह तीन और लोगों की मदद करके उसे मिली मदद का शुक्रिया अदा करे. 320 पन्नों की यह कहानी जब कुछ समंदर पार कर हिंद पहुंची तो दक्खिन के रास्ते दाखिल हुई और वहां गजनी बनाने वाले एआर मुरुगदॉस की नजरों ने इसे तौला. समंदरों की यात्रा ने ढेर सारा नमक मिला कहानी को नमकीन बना दिया था, और दक्खिन में मसालों की कोई कमी नहीं थी. इस तरह 2006 में ग्यारह साल के लड़के की कहानी में चिरंजीवी, राजनीति, बदला और ऐक्शन आ गए और एक मसाला फिल्म बनी, ‘स्तालिन’. कुछ तालाब, नदी, नहरें पार करके फिर वह कहानी, जो अब स्तालिन थी, चंद साल बाद मुंबई पहुंची. इस बार नजर पड़ी भाई की, और उसके बाद सबसे पहले कहानी को वापस उसके पुराने देश भेजा गया और भाई के भाई सोहेल खान ने बिना कहानी के उसी कहानी पर फिल्म बनाई, ‘जय हो’.

इन ब्योरों से भरी फिल्म समीक्षा लिखने की वजह छोटी-सी जागृति फैलाना है.‘जय हो’ इतनी बार ‘थैंक्स मत बोलिए, तीन और लोगों की मदद कीजिए’ बोलती है कि इस आइडिया को आप बीइंग ह्यूमन में रचे-बसे सलमान की उपज न मान लें, डर लगता है. अब जब आप जान गए हैं, यह बताना आसान हो जाता है कि फिल्म आम लोगों को साथ लाने की बातें करती है, उससे जुड़ी भावुकता पैदा करती है, लेकिन शुरू से आखिर तक सिर्फ वन मैन शो रहती है. फिल्म को यह फैसला करने में बहुत दिक्कत होती है कि उसे असल कहानी के हिसाब से दिलों को छूता एक मानवीय ड्रामा बनना है, या सलमान के हिसाब से, दरवाजे-हड्डियां तोड़ते दक्खिनी एक्शन के कई सारे मोंटाज का छायागीत.

‘जय हो’ का सलमान देसी भीम और विदेशी हल्क के दिव्य रूप में एक आम आदमी है. असल में एक ऐनार्किस्ट, जिसका किरदार ‘तेरे नाम’ के राधे-सा है, बस प्यार इस बार उसे देश से होता है. राधे-सी ही अव्यवस्थित मानसिक अवस्था यहां भी है जो कभी उसे शेर बना देती है, और वह काटने-फाड़ने लग जाता है, तो कभी माइकल जैक्सन. फॉरन लोकेशन पर नाचते हुए टक्सिडो और साड़ी का तरल मिश्रण है, ढेर सारी मुक्का-लात है, लेकिन फिल्म के ज्यादातर हिस्से में बंदूकें नहीं हंै, जो इस फिल्म को हथियारों के विरोध में खड़ी आवाजों का नया नायक बनाती है. कृपया इस बात पर हमारा यकीन जरूर करें! फिल्म में महेश ठाकुर भी हैं, सूरज बड़जात्या वाली सौम्यता का स्पर्श देने के लिए. तब्बू हैं, क्यों हैं, पता नहीं, बस हैं. डेविड-रोहित-प्रभुदेवा वाली फिल्मों का एक-सा टेंपलेट है, जिसमें एक खास तरह के गाने और साइड-किरदार होते हैं, और जानी लीवर वाला हास्य होता है. इधर, काव्य सा हास्य सुनील शेट्टी पैदा करते हैं, सलमान की खातिर शहर के हाइवे पर ‘पर्सनल’ मिलिट्री टैंक लाकर.

‘जय हो’ अपने एक गाने की प्रथम पंक्ति को जीती है, नसों में घोलती है, किरदारों में भरती है और स्क्रिप्ट में रचती है, ‘अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता’. जय हो!

हंसी तो फंसी

imविशाल-शेखर ने नई धुनें और नए गाने बनाना लगभग बंद कर दिया है. विशाल शेखर संगीत प्राइवेट लिमिटेड में अब नए गिफ्ट रैप में पुराना सामान ही मिलता है. आपको भी पता है, यह उस युग की बात है जिसमें सामान से महंगा गिफ्ट रैप बिकता है. एक ने दूसरे दिन कहा, लोग अब घरों में रहते नहीं हैं, कहीं ठहरते नहीं हैं, इसलिए गानों में भी ठहराव रहा नहीं. गाने भी जल्दी में हैं, आपके साथ वे भी जल्दी-जल्दी शादियों और पबों में पहुंचना चाहते हैं. ‘हंसी तो फंसी’ में बैंड-बाजे वाले शुरुआती तीन गाने इसी जल्दी के गीत हैं. ये गाने करण जौहर की ही ‘गोरी तेरे प्यार में’ भी हो सकते थे, ‘ये जवानी है दिवानी में’ भी, और अगर बच जाते तो आने वाली ‘टू स्टेट्स’ में भी. ‘पंजाबी वेडिंग सांग’ और ‘शेक इट लाइक शम्मी’ के लिए अमिताभ भी सूत भर मेहनत नहीं करते, नहीं तो वे अक्सर खराब और सामान्य गीतों को जिंदा रहने लायक बनाते रहे हैं. ‘ड्रामा क्वीन’ को भी उनके लिखे ‘बड़ी-बड़ी आंखें हैं, आंसुओं की टंकी है’ की वजह से ही एक बार सुनने वाला जीवनकाल मिल पाता है. बाकी बचे तीन गीत मेलोडी की सेफ जेब्रा क्रॉसिंग वाले हैं. उसमें भी शफकत का ‘मनचला’ विशाल-शेखर के पुराने शफकत वाले गीतों जैसा ही हो कर साधारण हो जाता है.

आखिरी दो गीत बढ़िया हैं. नए नहीं. ‘इश्क बुलावा’ पुराने वक्त की नजाकत को सनम पुरी की आवाज में प्यारा बनाता है, और वक्त का हिसाब लगाने की क्रिया रोकता है. ‘तितली’ वाली चिन्मयी ‘जहनसीब’ बेहद कमाल गाती हैं और शेखर भी काफी वक्त बाद बढ़िया. इसी गाने को सुनकर लगता है कि संगीतकार विशाल-शेखर लौटेंगे जरूर. देर-सवेर सही.