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क्या भारत में राष्ट्रपति के शासन करने का वक्त आ गया है?

नई दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में जारी उठापटक, खासकर संसद सदस्यों द्वारा सदन की मर्यादा लांघने और सारे नियमों को ताक पर रखकर उसे ठप करने की कोशिशों ने एक बार फिर से संसदीय व्यवस्था से जुड़ी बहस को जिंदा कर दिया है – क्या ब्रिटेन से उधार लिए हुए हमारे संसदीय तंत्र की उपयोगिता हमारे लिए खत्म हो चुकी है?

पिछले कुछ समय के दौरान इस तर्क के पक्ष में कुछ बातें स्पष्ट दिखाई दी हैं:  हमारी वर्तमान संसदीय प्रणाली ने हमें ऐसे सांसद और विधायक दिए हैं जिनमें से ज्यादातर कानून बनाने की योग्यता ही नहीं रखते. वे चुनाव या तो प्रशासनिक शक्तियों या उन्हें प्रभावित करने की क्षमता पाने के लिए लड़ते हैं. इस प्रणाली ने ऐसी सरकारों को बनवाया है जो नीतियों और अपने काम काज से ज्यादा राजनीति को तरजीह देती हैं. मतदाताओं की प्राथमिकताएं भी इससे बिगड़ी हैं. आज वे चुनाव के दौरान नीतियों की बजाय व्यक्ति विशेष को वरीयता देते हैं. इस प्रणाली ने ऐसे राजनीतिक दलों को जन्म दिया है जो विचारधारा और सिद्धांतों की बजाय निजी हितों के आधार पर एक से दूसरे गठबंधन में आते-जाते रहते हैं. इससे सरकारों को शासन की बजाय सत्ता बनाए रखने पर ज्यादा ध्यान देना पड़ता है. उसे ऐसी नीतियां बनानी पड़ती हैं जो गठबंधन में सभी को स्वीकार्य हों.

हर बार जब नारेबाजी से संसद ठप होती है तो नए चुनाव करवाने या इनसे बचने की बातें उठती हैं. लेकिन अगर इसमें होने वाले बहुत बड़े खर्चे को अलग रख भी दें तो भी ऐसा करने से क्या होने वाला है! क्या नए चुनावों से कोई चमत्कारी परिणाम की उम्मीद की जा सकती है? क्या हमें ऐसा महसूस नहीं होता कि समस्या खुद हमारी शासन प्रणाली में है?

भारत की कई समस्याओं के समाधान के लिए आज हमें एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की जरूरत है जो निर्णायक तरीके से काम करने की छूट देती हो. हमें ऐसी सरकार की जरूरत है जिसके नेता सत्ता में बने रहने की बजाय शासन करने पर ध्यान दें. हमारी संसदीय प्रणाली शुरुआत से ही भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल नहीं थी और यही हमारी सबसे बड़ी राजनीतिक समस्याओं के लिए जिम्मेदार भी है. इस मसले पर मैंने जितने भी राजनेताओं से चर्चा की उनमें से शायद ही कोई इस पर विचार तक करने को तैयार हुआ हो. असल में वे जानते हैं कि वर्तमान प्रणाली में कैसे काम करना है, इसलिए वे इसमें कोई बदलाव नहीं लाना चाहते.

जब किसी विधेयक को मतदान के लिए सदन में पेश किया जाता है तो उसके पक्ष में समर्थन व्यक्त करने के लिए आज भी सांसद सामूहिक रूप से ‘आय’ कहते हैं, न कि ‘यस’ या ‘हां’

भारत में ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली अपनाए जाने की वजहें हमारे इतिहास में छिपी हैं. दो शताब्दी पहले की अमेरिकी क्रांति की तरह ही भारतीय राष्ट्रवादियों का संघर्ष भी ‘ब्रिटेन के नागरिकों जैसे अधिकार ‘ हासिल करने के लिए था. उनकी सोच थी कि अंग्रेजी सदनों जैसी व्यवस्था से ऐसा हो जाएगा. जब ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने ब्रितानी संविधान आयोग के सदस्य के तौर पर हमारे नेताओं को अमेरिकी राष्ट्रपति प्रणाली अपनाने का सुझाव दिया तो उनका कहना था, ‘मुझे लगा कि वे सोच रहे थे मैं उन्हें शुद्ध घी की जगह वनस्पति घी का प्रस्ताव दे रहा हूं.’ हमारे कई बुजुर्ग संसद सदस्य – जिनमें से कइयों की शिक्षा ब्रिटेन में हुई थी और जो वहां की संसदीय प्रणाली के प्रशंसक थे – ब्रिटेन की संसदीय परंपराओं के पालन में गर्व महसूस करते थे. हमारे यहां आज भी सांसद किसी प्रस्ताव का अनुमोदन ताली बजाकर नहीं बल्कि ब्रितानी संसद की तरह अपनी मेजें थपथपा कर करते हैं. जब किसी विधेयक को मतदान के लिए सदन में पेश किया जाता है तो उसके पक्ष में समर्थन व्यक्त करने के लिए आज भी सांसद सामूहिक रूप से ‘आय’ कहते हैं, न कि ‘यस’ या ‘हिंदी में हां’.

हालांकि पिछले छह दशकों में कुछ बड़े बदलाव भी आए हैं. ब्रिटेन की संसदीय परंपराओं का असर जहां कम हुआ है वहीं कुछ उल्टी-पुल्टी नितांत भारतीय आदतें यहां हावी हुई हैं. हमारी कुछ विधानसभाओं में तो विधायकों द्वारा फर्नीचर व माइक्रोफोनों की तोड़-फोड़ और एक-दूसरे पर चप्पल फेंकने की घटनाएं तक हो चुकी हैं. अभी तक संसद इनसे बची हुई है, यहां सभी नये सदस्यों को आचार संहिता के बारे में बताया जाता है. लेकिन वे इसका नियमित रूप से उल्लंघन करते हैं और यह उनके लिए नियमों के पालन से ज्यादा सम्मान की बात बन चुकी है. अजीब बात है कि वे खुद जमकर नियमों को तोड़ते हैं जबकि उन्हें चुना ही इनका पालन सुनिश्चित करने के लिए जाता है.

भारतीय जनतंत्र के इतिहास में ऐसा भी समय रहा है जब सदन की मर्यादा का उल्लंघन करने पर बेहद कड़ाई से पेश आया जाता था. समाचारपत्रों में दिलचस्पी रखने वाले मेरी पीढ़ी के लोगों को आज भी वह घटना याद होगी जब पूर्व पहलवान और समाजवादी सांसद राज नारायण को चार मार्शलों ने उठाकर सदन के बाहर कर दिया था. राजनारायण अपनी बारी से पहले बोलने की कोशिश कर रहे थे और लोकसभा अध्यक्ष के रोकने के बावजूद अपनी सीट पर नहीं बैठ रहे थे. बाद में किसी सांसद को बाहर निकालने की बजाय सदन को स्थगित करने को तरजीह दी जाने लगी. पिछले साल राज्यसभा के सभापति के आगे आकर प्रदर्शन करने, उनका माइक्रोफोन खींचने और पेपर फाड़ने पर पांच सांसदों को सदन से निलंबित कर दिया गया था. बाद में कुछ महीनों बाद हल्की-फुलकी क्षमा-याचना के बाद उनकी सदस्यता बहाल कर दी गई.

सांसदों के अमर्यादित व्यवहार के अलावा भी संसदीय प्रणाली की आलोचना करने की कई बुनियादी वजहें हैं. यह प्रणाली मूल रूप से ब्रिटेन में विकसित हुई है जहां पहले प्रति सांसद मात्र कुछ हजार मतदाता हुआ करते थे. आज भी वहां एक चुनाव क्षेत्र में एक लाख से कम मतदाता हैं. इस प्रणाली में वहां की परिस्थितियों को ध्यान में रखा गया है जबकि भारतीय परिस्थितियां इससे बिलकुल भिन्न हैं. इस प्रणाली में ऐसे राजनीतिक दलों की जरूरत है जिनकी अपनी-अपनी स्पष्ट विचारधाराएं, नीतियां और प्राथमिकताएं हों जिनके आधार पर उन्हें एक-दूसरे से अलग पहचाना जा सके. इसके उलट भारत में राजनीतिक दलों में शामिल होना और उन्हें छोड़ना ऐसा है जैसे फिल्मी कलाकार अपने कपड़े बदलते हैं. हमारे यहां मुख्य पार्टियां चाहे वे ‘राष्ट्रीय’ हों या क्षेत्रीय, सभी की विचारधाराएं अस्पष्ट हैं . हर पार्टी किसी न किसी रूप में उसी मध्यमार्गी लोकप्रिय विचारधारा पर चलती है जो कमोबेश पंडित नेहरू के समाजवाद पर आधारित है. हमारे यहां चुनाव आयोग ने 44 पंजीकृत दलों को मान्यता दी है और 903 पंजीकृत मगर गैरमान्यताप्राप्त दल हैं. इनमें आदर्श लोकदल से लेकर भारतीय राष्ट्रीय महिलावादी दल तक शामिल हैं. भाजपा और वामपंथी दलों को छोड़ दें तो कांग्रेस से अलग सभी गंभीर राजनीतिक दल या तो चुनावी गणित की उपज हैं या क्षेत्रीय पहचान की. इनकी कोई अलग स्पष्ट राजनीतिक सोच नहीं है.

जनता उस व्यक्ति को सीधे वोट नहीं देती जिसे वह प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनाना चाहती है. वह उस प्रत्याशी को वोट देती है जिसकी जीत से उसकी पसंद का नेता प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बन सकता है

कुछ अपवादों को अगर छोड़ दें तो भारत के अधिकांश दल समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, मिश्रित अर्थव्यवस्था और गुट निरपेक्षता जैसे नारों से ही खुद को परिभाषित करते आए हैं. इसी कारण से वामदलों को यूपीए के पहले कार्यकाल में उसका समर्थन करने में कोई दिक्कत महसूस नहीं हुई. कथित बुर्जुआ साथियों द्वारा बनाए गए न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर दस्तखत करने में उन्हें किसी वैचारिक संकट का सामना नहीं करना पड़ा. 
भाजपा को इस मामले में एक अपवाद के तौर पर देखा जाता था. लेकिन अगर राष्ट्रीय पहचान जैसे भावनात्मक मुद्दों को छोड़ दें तो भाजपा भी अपने राजनीतिक आधार के विस्तार को ध्यान में रखते हुए अन्य पार्टियों जैसा ही व्यवहार कर रही है.

हमारे राजनीतिक दल किसी विचारधारा में गुंथे और किसी राजनीतिक सिद्धांत से बहुत बंधे हुए नहीं दिखते. यही कारण है कि अपनी पार्टी बदलने या फिर अपनी पार्टी का किसी दूसरी में विलय करते वक्त उन्हें कोई वैचारिक बाधा महसूस नहीं होती. हमारे यहां जब कोई नेता अपनी पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में जाता है या फिर अपनी अलग पार्टी बनाता है तो हमें कोई खास हैरानी नहीं होती. जबकि यही घटना अगर दुनिया के किसी दूसरे संसदीय लोकतंत्र में घटित हो तो वहां की राजनीतिक व्यवस्था में हलचल मच सकती है. (अगर मुझे ठीक याद है तो उत्तर प्रदेश के एक बड़े नेता ने पिछले कुछ दशकों में नौ बार पार्टियां बदली हैं. लेकिन उनके मतदाता हमेशा उनके साथ रहे. उनके लिए हमेशा उनका नेता प्रमुख रहा न कि वह दल जिसमें वे गए थे.)

एक उचित पार्टी व्यवस्था के अभाव में मतदाता अपना मत देते समय दो दलों के बीच चयन नहीं करता कि उसे इनमें से किसे वोट देना है. वह प्रत्याशी का चयन करता है. उसकी जाति, छवि तथा अन्य व्यक्तिगत विशेषताओं के आधार पर वोटर अपना मत देता है. यहां प्रत्याशी महत्वपूर्ण है पार्टी नहीं. लेकिन चूंकि चयनित प्रत्याशी उस बहुमत का एक हिस्सा है जिससे सरकार बनती है, ऐसे में पार्टी भी महत्वपूर्ण हो जाती है. मतदाता से कहा जाता है कि अगर वह इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री या फिर एमजीआर या एनटीआर को मुख्यमंत्री बनाना चाहता है तो वह उस प्रत्याशी को वोट दे जो इन नेताओं की पार्टियों से चुनाव लड़ रहा है. यानी जनता उस व्यक्ति को सीधे वोट नहीं देती जिसे वह प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनाना चाहती है. वह उस प्रत्याशी को वोट देती है जिसकी जीत से उसकी पसंद का नेता प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बन सकता है. यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसे सिर्फ ब्रिटिश ही तैयार कर सकते थे. जहां आप विधायिका को कानून बनाने के लिए नहीं बल्कि कार्यपालिका का निर्माण करने के लिए चुनते हैं.

छोटे एवं क्षेत्रीय दलों की अधिकता के कारण आज हमारी केंद्र सरकार में दर्जन भर राजनीतिक दल शामिल हैं. इनमें से कइयों के पास केवल मुट्ठीभर ही सांसद हैं. 1989 में राजीव गांधी की हार के बाद से अब तक संसद में किसी भी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिल सका है. हाल ही में खुदरा क्षेत्र में एफडीआई के मामले पर और तीन साल पहले भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के समय यह देखा गया कि किस तरह वर्तमान व्यवस्था में गठबंधन के सहयोगी दल जब चाहें तब सरकार की बांह मरोड़ सकते है. वर्तमान व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी यही है कि इसमें गठबंधन में शामिल हर दल को साथ लेकर चलना ही चलना है. इसमें किसी निर्णायक कार्रवाई की गुंजाइश लगभग ना के बराबर है.

भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की प्रतिष्ठा में जिस तरह की गिरावट आई है और जनता के मानस में राजनेताओं को लेकर जिस तरह का पूर्वाग्रह पनपा है उसकी जड़ें सीधे तौर पर संसदीय व्यवस्था की कार्यप्रणाली से भी जुड़ी हैं. जब कार्यपालिका अपने हिसाब से काम न कर सके और उसे गठबंधन के विभिन्न दलों के एजेंडों से बांध दिया जाए तब सरकार का अस्थिर होना स्वाभाविक ही है. गंभीर आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों से जूझने वाला भारत इस अस्थिरता को कैसे स्वीकार कर सकता है.यह तथ्य कि सरकारी ओहदा पाने के लिए ही लोग संसद में प्रवेश करते हैं, चार बड़ी समस्याओं को जन्म देता है…

पहली समस्या यह कि कार्यपालिका के पद या कहें कि मंत्रिपद उन लोगों तक सीमित हो जाते हैं जो योग्य नहीं बल्कि चुनाव जीतने के योग्य हों. प्रधानमंत्री की स्थिति ऐसी है कि वे अपनी पसंद की कैबिनेट का चयन नहीं कर सकते. अपनी पसंद के व्यक्ति को मंत्री नहीं बना सकते. गठबंधन के कारण उन्हें विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं की इच्छाओं का ध्यान रखना पड़ता है. काबिलियत नहीं बल्कि राजनीतिक दबाव उनके फैसलों को तय करता है. हालांकि राज्यसभा से लोगों को मंत्रिमंडल में शामिल करने का विकल्प उनके पास है, लेकिन वर्तमान में वहां भी पूर्णकालिक राजनेताओं की भरमार है. तो ऐसी हालत में प्रधानमंत्री के पास काबिल लोगों के ज्यादा विकल्प नहीं होते.

बुनियादी तौर पर संसदीय व्यवस्था भारतीय राजनीतिज्ञों को इसलिए पसंद है कि उन्हें इस व्यवस्था को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना आता है

दूसरी समस्या यह कि इससे नेताओं की खरीद-फरोख्त और दलबदल की घटनाओं में इजाफा होता है. दलबदल विरोधी अधिनियम 1985 के आने का कारण था कि कई राज्यों (1979 के बाद केंद्रीय स्तर पर भी) में पैसे और मंत्री के पद के लिए पाला बदलना एक आम बात हो गई थी. लेकिन आज अगर कोई नेता ऐसा करता है तो उसे अयोग्य घोषित किया जा सकता है. तो बदले माहौल में तरीका भी बदल गया है. अब व्यक्ति की जगह पूरी पार्टी ही पाला बदल लेती है. आज जो राजनीति के हालात हैं उसमें मैं यह सोचकर ही चिंतित हो जाता हूं कि तब क्या होगा जब अगले चुनाव में 30 राजनीतिक दल संसद में पहुंचते हैं और गुणा-भाग करते हैं कि किस गठबंधन में रहने पर उन्हें कितना फायदा होगा. तो ऐसे में कितनी स्थायी और प्रभावी सरकार का गठन होगा?

तीसरी एक और बड़ी गंभीर समस्या विधायी कार्यों के प्रभावित होने की है. अधिकांश कानूनों का ड्राफ्ट कार्यपालिका द्वारा तैयार किया जाता है जो व्यावहारिक तौर पर नौकरशाही तैयार करती है. इसमें संसदीय दखल बहुत कम होता है. और आज स्थिति यह है कि पांच मिनट की बहस के बाद ही विधेयक पारित हो जाते हैं. सत्तारूढ. गढबंधन बिना नागा अपने सदस्यों को पार्टी व्हिप जारी करता है जिससे कि बिना किसी अवरोध के बिल पास किया जा सके. चूंकि व्हिप का उल्लंघन करने पर अयोग्य ठहराए जाने का खतरा है, इसलिए सांसद वहीं वोट करते हैं जहां उनकी पार्टी चाहती है. संसदीय व्यवस्था कार्यपालिका से अलग जाने वाली विधायिका के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करती जो पूरी स्वतंत्रता के साथ देश के लिए कानून बनाने में अपनी पूरी ऊर्जा लगा सके.

चौथी, गौर करने लायक बात यह है कि जो दल सरकार में शामिल नहीं हो पाते और जिन्हें पता है कि संसद में ज्यादातर मतदानों आदि का क्या नतीजा निकलना है, उनके लिए संसद किसी गंभीर और जरूरी विषय पर विचार करने की जगह नहीं है. वे संसद को अपनी ताकत दिखाने के लिए इस्तेमाल करते हैं. इस वजह से आम तौर पर पवित्र समझा जाने वाला सदन का गर्भ गृह नारेबाजी के मंच में तब्दील हो जाता है. बेलगाम सांसदों की भीड़ तब तक गर्भ-गृह में तख्तियां लहराती है और तेज आवाज़ में नारेबाजी करती है, जब तक थक-हार कर स्पीकर सदन को स्थगित न कर दे. भारतीय संसद के ज्यादातर विपक्षी सदस्यों का हमेशा से यह मानना रहा है कि अपनी भावनाओं की तीव्रता को दर्शाने का सबसे अचूक तरीका किसी कानून के बनने की प्रक्रिया को ही बाधित कर देना है, न कि उस कानून पर वाद-विवाद करना. पिछले साल, संसद का एक पूरा सत्र ऐसी ही नारेबाजियों की भेंट चढ़ गया था. इस साल के शीतकालीन सत्र के दौरान यह सिलसिला लगभग दो हफ़्तों तक बदस्तूर जारी रहा.

वर्तमान व्यवस्था के पैरोकारों का तर्क है कि इस व्यवस्था ने भारत के राजनीतिक भाग्य को तय करने में हर भारतीय की हिस्सेदारी को सुनिश्चित किया है. साथ ही देश को एक सूत्र में पिरोए रखने में भी भूमिका निभाई है. पर असल में तो यह लोकतंत्र ने किया है, संसद ने नहीं. किसी भी प्रकार की असली लोकतांत्रिक व्यवस्था यही करती. आम लोगों की बहुतायत में भागीदारी और चुनावों के बीच जवाबदेही असली लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी तत्व हैं. पर भारत जिस बिंदु पर दूसरे लोकतांत्रिक देशों से पिछड़ता है वह है, प्रभावी प्रदर्शन.

अमेरिका या फ्रांस की राष्ट्रपति शासन प्रणाली की खूबियों के समर्थन के लिए वर्तमान से बेहतर समय नहीं हो सकता. सरसरी निगाह से देखें तो राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली विधायिका का फ्रांसीसी मॉडल हमें ज्यादा आकर्षक लग सकता है. अगर इस मॉडल में राष्ट्रपति और मंत्रिपरिषद के बीच के शक्ति संतुलन को उलट दिया जाए, तो यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था से काफी मिलता-जुलता है. ब्रितानी लोकतांत्रिक व्यवस्था को त्यागने के बाद श्रीलंका ने भी इसी मॉडल को अपनाया था. पर भारत की कई दलों में बुरी तरह से बंटी हुई राजनीति पर ध्यान दें तो वह इस तरह के राष्ट्रपति को पूरी तरह से पंगु बनाने की क्षमता रखती है. इसलिए शासन के अमेरिकी या लैटिन अमेरिकी मॉडल हमारे लिए ज्यादा उपयुक्त हैं जिनमें एक ही व्यक्ति सरकार और राष्ट्र,दोनों का मुखिया होता है. ये दोनों मॉडल विधायी कार्यों को कार्यपालिका के कार्यों से अलग रखते हैं. और सबसे महत्वपूर्ण, कार्यपालिका और उसके अस्तित्व की विधायिका पर निर्भरता को समाप्त कर देते हैं. इससे फायदा यह होगा कि दिल्ली में बैठा एक मुख्य कार्यकारी अधिकारी गठबंधन की रंग बदलती राजनीति पर निर्भर हुए बिना, स्थायित्व के साथ अपना काम कर पाएगा. उसका एक निश्चित कार्यकाल होगा और वह अपने मन के मुताबिक काबिल अधिकारियों की एक टीम खड़ी कर पाएगा. और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि वह और उसके साथी सिर्फ सरकार बचाने की बजाय अपनी पूरी शक्ति देश को बेहतर तरीके से शासित करने में लगा पाएंगे. भारतीय मतदाता सीधे उसी व्यक्ति को वोट देगा जिसके द्वारा वह शासित होना चाहता है. और राष्ट्रपति सही अर्थों में पूरे देश की आवाज बन सकेगा. इसके पांच साल बाद, जनता अपने जन प्रतिनिधियों का मूल्यांकन बेहतर प्रशासन के मापदंडों पर कर पाएगी.तो फिर, अध्यक्षीय शासन प्रणाली के सभी तर्कों को हमारे देश का राजनीतिक वर्ग सिरे से ख़ारिज क्यों कर देता है?

बुनियादी तौर पर संसदीय व्यवस्था को लेकर भारतीय राजनीतिज्ञों के आग्रह की वजह इस व्यवस्था का उनके लिए सुविधाजनक होना है. वे सभी इससे भलीभांति परिचित हैं और उन्हें इस  व्यवस्था को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना आता है.

कुछ लोगों की तरफ से यह तर्क भी दिया जाता है कि राष्ट्रपति प्रणाली के साथ तानाशाही का खतरा जुड़ा रहता है. वे इसमें एक अभिमानी राष्ट्रपति की छवि गढ़ते हैं जिसे हार-जीत की चिंता नहीं होती और जो जनता की राय का खयाल किए बिना हुक्म देकर देश चलाता है. आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी के कुछ नजदीकी लोगों ने संसदीय लोकतंत्र के स्थान पर अध्यक्षीय प्रणाली स्थापित करने का प्रयास किया था जिसकी वजह से भी यह व्यवस्था लोकतंत्र में आस्था रखने वाले कई भारतीयों की नजर में भरोसेमंद नहीं रही. लेकिन आपातकाल स्वयं इस भय का सबसे अच्छा जवाब है. यह दिखाता है कि संसदीय व्यवस्था को भी तो निरंकुश शासन में तब्दील किया जा सकता है.

राष्ट्रपति को सर्वशक्तिमान होने से बचाने के लिए राज्यों में भी प्रत्यक्ष रूप से एक मुख्यमंत्री या राज्यपाल चुना जाना चाहिए. ऐसा करना भारत जैसे बड़े देश के सही मायनों में विकेंद्रीकरण के लिए भी जरूरी है. और फिर राज्य भी उन्हीं समस्याओं से ही तो जूझ रहे हैं जो हमारी केंद्रीय व्यवस्था में हैं. जो लोग अध्यक्षीय व्यवस्था को तानाशाही के भय से खारिज करते हैं उन्हे इस बात के जरिए संतुष्ट किया जा सकता है कि राष्ट्रप्रमुख की शक्तियां राज्यों के सीधे चुने गए मुख्यमंत्रियों के होने पर संतुलित रहेंगी.

हमें मजबूत कार्यपालिका की जरूरत सिर्फ केंद्र या राज्यों में ही नहीं बल्कि स्थानीय स्तर पर भी है. यहां तक कि चीन जैसा साम्यवादी देश भी अपने स्थानीय निकायों को मजबूत करने के लिए उन्हें समुचित शक्तियां देता है. वहां अगर शहर में एक कारखाना लगाने के लिए किसी व्यवसायी और महापौर के बीच सहमति बन जाती है तो उसे इसके लिए ज़रूरी हर चीज – अनुमति, जमीन, पानी और करों में रियायत आदि अपने आप मिल जाती हैं. जबकि हमारे यहां महापौर एक कमेटी के चेयरमैन से कुछ ही ज्यादा हैसियत वाला लगता है. वास्तविक स्वशासन को अर्थपूर्ण बनाने के लिए हमें प्रत्यक्ष तौर पर चुने गए महापौरों, पंचायत अध्यक्षों और जिला अध्यक्षों की ज़रूरत है जिनके पास वास्तविक अधिकार और संसाधन हों ताकि वे अपने इलाकों में बेहतर प्रदर्शन कर सकें.

वर्तमान व्यवस्था के पैरोकारों को लगता है कि यह भारतीय लोगों की विविधता का प्रतिनिधित्व करने और सभी को साथ लेकर चलने के लिहाज से बेहतरीन है. ऐसा राष्ट्रपति प्रणाली में संभव नहीं. लेकिन राष्ट्रपति को भी एक निर्वाचित विधायिका के साथ काम करना होगा जो आज की तरह ही तब भी देश की विविधता का प्रतिनिधित्व करेगी. और कोई भी राष्ट्रपति, जिसकी लोकतंत्र में जरा भी निष्ठा होगी, ऐसे मंत्रिमंडल का गठन करेगा जिसमें भारत की विविधता झलकती हो. जैसा कि अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने कहा था कि मेरा मंत्रिमंडल अमेरिका जैसा दिखना चाहिए.

लोकतंत्र भारत के भविष्य के लिए बहुत जरूरी है. हमारी विविधता जो हम हैं उसका मूल है. लोकतंत्र अपने आप में ही एक उद्देश्य है और हमें इस पर गर्व भी है. लेकिन बहुत कम भारतीय ऐसे होंगे जिन्हें उस राजनीति पर गर्व होगा जिसे हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था ने हम पर थोप दिया है. राष्ट्रीय नेतृत्व के सामने दुनिया की 1/6 आबादी को मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने की चुनौती को देखते हुए हमें एक ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्था की जरूरत है जिससे प्रगति का लाभ आम आदमी तक पहुंच सके. संसदीय व्यवस्था का अध्यक्षीय प्रणाली में परिवर्तन इस उद्देश्य को पाने का सबसे बढ़िया उपाय है.

मौजूदा संसदीय व्यवस्था में हम लोग उत्तरोत्तर इसी संकीर्णता में बंधते जा रहे हैं. भारतीय की अपेक्षा मुसलमान, बोडो, यादव होना यहां ज्यादा महत्वपूर्ण है

कुछ लोग यह प्रश्न करते हैं कि क्या यह भारत के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज है. बाबा साहब ने संविधान सभा में यह कहा था कि संविधान निर्माताओं ने यह महसूस किया था कि संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली ‘जिम्मेदारी’ को ‘स्थिरता’ से ऊपर रखती है. जबकि राष्ट्रपति शासन इसका ठीक उलटा करता है. इससे प्रशासन की कार्यकुशलता और उसका प्रदर्शन बेहतर हो जाते हैं. तो आज जब हमारी वर्तमान व्यवस्था ने कथित तौर पर हमें एकता के सूत्र में मजबूती से बांधा हुआ है, क्या कार्यकुशलता और प्रदर्शन को हमारी व्यवस्था का पैमाना बनाए जाने की जरूरत है? मेरा जवाब है, हां! आजादी के साढ़े छह दशकों के बाद अब हम अपने लोकतंत्र और एकता को लेकर थोड़े निश्चित हो सकते हैं और अपने लोगों के लिए कुछ करने की दिशा में अपना ध्यान केंद्रित कर सकते हैं.

कुछ लोग यह प्रश्न करते हैं कि उस स्थिति में क्या होगा यदि राष्ट्राध्यक्ष और विधायिका में एक-दूसरे के विरोधी लोग चुने जाएंगे?  क्या इससे हमारी व्यवस्था की कुशलता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा? हां पड़ेगा जैसा, कि अभी हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ हुआ है. लेकिन आज हम गठबंधनों के दौर में रह रहे हैं जहां राष्ट्रपति के अलावा किसी एक दल को सदन में भारी बहुमत मिल जाए और वह राष्ट्रपति के काम में बाधा खड़ी करे इसकी संभावना बहुत क्षीण प्रतीत होती है. यदि ऐसी स्थिति आती भी है तो वह नेतृत्व की अग्निपरीक्षा होगी. और इसमें हानि ही क्या है?
राष्ट्रपति को चुनने के लिए आखिरकार कौन-सी पद्धति अपनाई जाएगी. हमें स्वीकार करना होगा कि हमारे देश में चुनाव प्रक्रिया कभी सीधी-सपाट नहीं रही है. भारतीय राजनीति को अमेरिकी राजनीति की तर्ज पर दो दलीय  व्यवस्था बनने में एक लंबा समय लगेगा. आज देश की राजनीति जिस तरह से तमाम राजनीतिक दलों में बंटी हुई है उसके चलते मैं राष्ट्रपति के चुनाव के लिए फ्रांसीसी चुनावी पद्धति को चुनूंगा.

फ्रांस की तरह ही हमें मतदान के दो चरण होंगे. पहले चरण में हर उम्मीदवार के नामांकन की योग्यता का पैमाना यह होगा कि उसके नामांकन पत्र पर कम से कम दस सांसदों या बीस विधायकों या फिर दोनों के दस्तखत होंगे. अगर ऐसा चमत्कार हो जाए कि पहले ही चरण में किसी उम्मीदवार को पचास प्रतिशत से ज्यादा मत मिल जाएं तो उसे राष्ट्रपति पद के लिए विजेता घोषित कर दिया जाएगा. लेकिन यह लगभग असंभव चीज है. इंदिरा गांधी को अपनी लोकप्रियता के चरम पर भी अधिकतम 47 फीसदी वोट ही मिले थे. ऐसा न होने पर पहले चरण में सर्वाधिक वोट पाने वाले शीर्ष दो उम्मीदवार दूसरे चरण के मतदान में राष्ट्रपति पद के लिए सीधा मुकाबला करेंगे. पहले चरण में बाहर हुए बाकी उम्मीदवार इनमें से किसी को भी अपना समर्थन दे सकते हैं. हमारे राजनेताओं का जो चरित्र है उस लिहाज से हो सकता है कि इस दौरान खूब लेन-देन और और कसमें -वादे किए जाएं, लेकिन अंत में जो व्यक्ति राष्ट्रपति चुना जाएगा उसके पक्ष में देश के मतदाताओं का असली बहुमत होगा.

क्या इस तरह की व्यवस्था में अधिकतम जनसंख्या वाले राज्यों को शर्तिया फायदा नहीं मिलेगा? मणिपुर या लक्षद्वीप जैसे छोटे राज्य कभी देश के बहुमत का नेता बन पाएंगे? किसी मुसलिम या दलित के राष्ट्रपति बनने की संभावना है क्या इसमें? ये कुछ वाजिब से सवाल हैं जिनका जवाब यह है कि मौजूदा व्यवस्था में इनकी जो दशा है नई व्यवस्था में उनके साथ उससे ज्यादा बुरा या अच्छा नहीं होने वाला. भारत के ग्यारह में से सात प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश के रहे हैं. शायद राष्ट्रपति प्रणाली में भी उत्तर प्रदेश का यही वर्चस्व देखने को मिले. मगर इससे क्या फर्क पड़ता है? ज्यादातर लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में बहुमत का ही बोलबाला होता है. 1789 से 2008 तक सभी अमेरिकी राष्ट्रपति गोरे ईसाई ही रहे और एक को छोड़कर सारे प्रोटेस्टेंट थे. इसी तरह अब तक सिर्फ वेल्स का निवासी ही ग्रेट ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बन सका है. लेकिन ओबामा की विजय ने यह बात साबित कर दी है कि बहुमत भी अपना नेता योग्यता के आधार पर चुन सकता है.

मैं पूरे यकीन से कह सकता हूं कि इस तरह से जो भी व्यक्ति राष्ट्रपति की दौड़ में शामिल होगा भले ही वह उत्तर प्रदेश का हो लेकिन उसे पूरे देश में अपनी पहचान और स्वीकार्यता सिद्ध करनी पड़ेगी. जबकि हमारी मौजूदा संसदीय व्यवस्था में जो व्यक्ति प्रधानमंत्री बनता है उसे सिर्फ अपने चुनाव क्षेत्र के लोगों के बीच ही खुद को साबित करना पड़ता है. इस तरह गठबंधन के जोड़-तोड़ से बने प्रधानमंत्री की बजाय सीधे जनता द्वारा चुने गए राष्ट्रपति की एक देशव्यापी छवि होगी. इसके साथ ही मैं अमेरिका के इलेक्टोरल कॉलेज वाले विचार को भी इसमें शामिल करना चाहूंगा ताकि हमारे कम जनसंख्या वाले राज्यों को राजनेता दरकिनार न कर सकें. विजेता को राज्यों के आधार पर भी बहुमत में आना अनिवार्य होगा, इससे अपने गढ़ में एकमुश्त वोट हासिल करना ही पर्याप्त नहीं होगा.

और फिर भारतीय मतदाताओं को बाकी दुनिया के लोगों से कम बुद्धिमान क्यों समझा जाए? 97 फीसदी अश्वेत आबादी वाले जमैका ने एक गोरे (एडवर्ड सीगा) को अपना प्रधानमंत्री चुना. केन्या के राष्ट्रपति डेनियल अरप मोई उस आदिवासी कबीले से आते हैं जो कुल आबादी का महज 11 फीसदी है. अर्जेंटीना ने दो बार यूरोप से संबंध रखने वाले कार्लोस सॉल मेनम को अपना नेता चुना. पेरू के पूर्व राष्ट्रपति अल्बर्टो फुजीमोरी जापान से ताल्लुक रखते हैं जिसकी आबादी पूरे देश में सिर्फ एक फीसदी है. कहने का अर्थ है कि अल्पसंख्यक समुदाय का योग्य व्यक्ति भी बहुसंख्यक तबके का विश्वास जीत सकता है.

राष्ट्रपति प्रणाली अपनाने की हालत में हमारे नेताओं को अपने तौर-तरीकों में तत्काल बदलाव की जरूरत पड़ेगी. हमारे राजनेता लंबे समय से मतदाताओं को अपनी ओर खींचने के लिए जाति, धर्म और क्षेत्र के संकीर्ण हथकंडे इस्तेमाल करते आए हैं. मौजूदा संसदीय व्यवस्था में हम लोग उत्तरोत्तर इसी संकीर्णता में बंधते जा रहे हैं. भारतीय की अपेक्षा मुसलमान, बोडो, यादव होना यहां ज्यादा महत्वपूर्ण है. हमारी राजनीति ने ऐसे विमर्श चलाए हैं कि यहां असम सिर्फ असमियों के लिए है, झारखंड झारखंडियों के लिए, महाराष्ट्र सिर्फ महाराष्ट्रियों के लिए है. राष्ट्रपति प्रणाली उम्मीदवारों पर यह दबाव बनाएगी कि वे भारत और भारतीयों की बात करें. जो भी राजनेता इस देश का राष्ट्रपति बनना चाहेगा उसे अपने हर दायरे से बाहर जाकर अपनी स्वीकार्यता साबित करनी पड़ेगी. इसके अलावा राष्ट्रपति के पास गठबंधन की मजबूरियों जैसा कोई बहाना भी नहीं रहेगा. तब वह अपने कार्यकाल की उपलब्धियों और असफलताओं के लिए पूरी तरह से और सीधे तौर पर खुद जिम्मेदार होगा.

इसी बात में राष्ट्रपति प्रणाली की अच्छाइयां निहित हैं.

नक्शे के बिना एक मुसाफिर

जटिल से जटिल विषय को भी सरल शब्दों में सजीवता से पाठकों तक कैसे पहुंचाया जाता है इसकी मिसाल हैं  वीएस नायपॉल. नोबेल पुरस्कार विजेता नायपॉल 30 साल की उम्र तक चार उपन्यास लिख चुके थे. इनमें अ हाउस फॉर मिस्टर बिश्वास भी शामिल है जिसे 20वीं सदी की सबसे उत्कृष्ट रचनाओं में गिना जाता है. हाल ही में तहलका के चर्चित आयोजन थिंकफेस्ट में शामिल होने वे भारत आए. इस दौरान तहलका के संपादक  तरुण तेजपाल ने उनसे लेखन की दुनिया और उनके रचनाकर्म पर विस्तृत बातचीत की. प्रस्तुत हैं उसी बातचीत के मुख्य अंश :

1950 के दशक में जब आपने लेखन शुरू किया तब अंग्रेजी साहित्य में औपनिवेशिक लेखन जैसी कोई चीज नहीं थी. आपको अपने लेखन के लिए सामग्री कैसे मिली?

इसकी एक वजह तो यही है कि मुझे इस बात के बारे में पता ही नहीं था. मैं तो बस किताबें लिखना चाहता था. सामग्री की समझ किताबें लिखने के बाद आई. इसके बाद बड़ी समस्या यह थी कि आगे कैसे बढ़ा जाए. कई लेखक हैं जो एक-दो किताबें लिखने के बाद शांत हो जाते हैं. मुझे बड़ी चिंता होती थी कि कहीं मेरे साथ भी ऐसा न हो. मुझे याद है कि 1960-61 में एक बड़ी किताब लिखने के बाद जब मैं पहली बार भारत आ रहा था तो मैं इसी समस्या को लेकर बड़ा परेशान था. सोच रहा था कि अब आगे कैसे बढ़ा जाए. मुझे लग रहा था जैसे मेरी आवाज चली गई है. यह बड़ी भयावह स्थिति होती है. अगर आप लेखक हैं तो एक किताब खत्म करने के बाद आपको दूसरी शुरू करनी होती है और उसके बाद तीसरी. यह सिलसिला कभी खत्म नहीं होता. आज मैं 80 साल का हो चुका हूं, लेकिन मुझे आज भी लगता है कि थोड़ा और आगे बढ़ा जाए. तो शायद कह सकते हैं कि लेखन की प्रकृति के मामले में बहुत-सी नई चीजें इसीलिए मेरे खाते में आईं कि मुझे हमेशा चलते रहने की जरूरत महसूस होती रही.

कभी आपने कहा था कि आप लेखन के क्षेत्र में इसलिए आए कि आपको यह एक कुलीन पेशा लगता था. क्या यह सच है?

चीजें बदलती रहती हैं. अब मुझे लगता है कि ऐसा इसलिए हुआ कि मुझे हमेशा चलते रहने की जरूरत महसूस होती थी.

आपकी ज्यादातर सामग्री, कम से कम नॉन-फिक्शन के मामले में तो, उस जगह से आती है जिसकी पड़ताल आप खुद करते हैं. उसमें विचारधारा का बोझ नहीं दिखता बल्कि आपका नजरिया पूरी तरह से वैज्ञानिक नजर आता है. यह आपका सहज गुण था या फिर यह अभ्यास से आया?

मैं कहूंगा कि यह अभ्यास से आया. मैं काफी पहले ही नॉनफिक्शन की तरफ मुड़ चुका था. इस दिशा में सबसे पहले मुझे मुझे त्रिनिदाद के प्रधानमंत्री ने धकेला जिन्होंने कैरेबियाई द्वीपों और ब्रिटिश साउथ अमेरिका की यात्रा करके यह देखने को कहा था कि दास समाजों में किस तरह के बदलाव आए हैं. मैं मुफ्त यात्रा के इस विचार से रोमांचित था और मैंने हामी भर दी. लेखन में गहरे डूबने के बाद ही मैं समझ सका कि नॉनफिक्शन लिखना फिक्शन लिखने से काफी अलग होता है. मेरा मानना है कि एक अच्छा यात्री होने के लिए जरूरी है कि आप जब किसी जगह पर जाएं तो उसके बारे में पहले से पढ़कर न जाएं. वहां बिल्कुल खाली होकर जाएं और धीरे-धीरे उस जगह का असर अपने पर पड़ने दें. फिर उस प्रभाव से अलग-अलग विषय तलाशें.

मैं आसानी से कह सकता हूं कि जिन भी लोगों को मैंने अब तक देखा है आप उन सबमें सबसे अच्छे श्रोता हैं. आप लोगों से कैसे मिलते हैं और उनसे वह सामग्री कैसे निकालते हैं जिसकी आपको जरूरत होती है?

मिलना संयोग होता है. आपके संपर्क होने चाहिए, मगर जब आप विदेश जा रहे हों तो आपको उन संपर्कों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए. मेरे पास दो छोटी नोटबुकें होती थीं. एक कमीज की जेब में और दूसरी बगल की जेब में. मैं पहले लोगों से बात शुरू करता था. उस समय मैं नोट्स नहीं लेता था. अगर मुझे कुछ दिलचस्प लगता तो मैं उस व्यक्ति से कहता कि आप जो कह रहे हैं वह मुझे काफी दिलचस्प लग रहा है मगर मैंने कोई नोट्स नहीं बनाए हैं. मैं वापस आकर एक बार फिर आपसे बतियाना चाहूंगा. फिर क्या होता था कि दूसरी मुलाकात में मैं विस्तार से लिखता. मुझे शॉर्टहैंड नहीं आती थी और न ही मेरे पास टेपरिकॉर्डर होता था. ऐसे में सामने वाला व्यक्ति बहुत धीरे-धीरे बात करना शुरू करता. दिलचस्प बात यह थी कि उस समय भले ही यह बहुत कृत्रिम होता था मगर बाद में उस मुलाकात में हुई हर बात में वास्तविकता का पुट होता. ऐसा लगता जैसे वह व्यक्ति वास्तव में पहली बार उस चीज के बारे में बता रहा हो. यह एक चीज है जो मैंने सीखी. 
एक बात और, आपको यह महसूस करना चाहिए कि जो आप लिख रहे हैं वह 20 साल बाद दिलचस्प होगा. आप अपने दिमाग में यह बात बिठा लीजिए. इससे आपको यह जानने में मदद मिलती है कि क्या महत्वपूर्ण है और क्या नहीं. दरअसल टिप्स देना आसान नहीं है. आपको अपने सहज ज्ञान पर भरोसा करना पड़ता है.

फिक्शन से नॉनफिक्शन की तरफ आप कैसे मुड़े?

बहुत शुरुआत में ही मुझे महसूस हो गया था कि सामग्री के संदर्भ में जो कुछ भी मेरे अपने भीतर है, उसके मैं आखिर तक पहुंचने वाला हूं. मेरा मतलब है बचपन की बातें, जिस परिदृश्य में मैं पैदा हुआ वगैरह वगैरह. बतौर लेखक मैं सिर्फ एक किताब नहीं लिखना चाहता था. मैं चाहता था कि मेरा नाम बहुत सी किताबों पर लिखा हो. यह इच्छा चलते रहने के उस पुराने विचार से आई. अगर मैं चलता नहीं रहता तो मैं लेखक नहीं होता.

आपने भारत पर भी तीन किताबें लिखी हैं. 1964 में एन एरिया ऑफ डार्कनेस, 1977 में इंडिया :अ वुंडेड सिविलाइजेशन और 1989 में आई इंडिया : अ मिलियन म्यूटिनीज. हर किताब का अनुभव कैसा था?

लोगों को लगता है कि किताबें किसी देश की यात्रा के चरण हैं जबकि वास्तव में वे एक लेखक की जीवनयात्रा के चरण थे. अगर आप एक किताब लिखते हैं तो आप उस जगह पर फिर से जाते हैं जहां लगभग वही सामग्री होती है. फिर दोहराव का लालच काफी मजबूत होता है. मगर मुझे खुद को दोहराना कभी पसंद नहीं था. इसलिए मैंने हमेशा कोशिश की कि चलता रहूं और कुछ और करूं. इसलिए कुछ समीक्षक कहते कि पहली किताब वाले भारत का क्या हुआ. वह सारी कड़वाहट कहां गई? मैं कहता कि मैं बार-बार वही नहीं कर सकता. मैं सौभाग्यशाली रहा हूं कि इन किताबों के बारे में अब भी बात हो रही है. भारत के बारे में पहली किताब जल्द ही 50 साल पुरानी हो जाएगी.

हमें इंडिया : अ मिलियन म्यूटिनीज के बारे में बताएं. उस अनुभव के बारे में जब आप भांप गए थे कि भारत में बड़ा बदलाव आने वाला है. इतना साफ आपको कैसे लगा था?

छोटी-छोटी चीजें थीं. जैसे यह देखना कि मेरे परिचितों के यहां जो नौकर थे उनके बच्चे पढ़-लिख रहे थे. शिक्षा का एक संचयी प्रभाव होता है. यह तुरंत घटित नहीं होता मगर यह बूंद-बूंद कर इकट्ठा होता रहता है और फिर एक दिन बाढ़ आ जाती है. मैंने इसे देख लिया था.

जहां तक मुझे याद आता है 30 साल पहले आपने कहा था कि भविष्य में श्रेष्ठ प्रतिभाएं लेखन नहीं बल्कि सिनेमा के क्षेत्र में जाएंगी.

हां, मैं उस समय बहुत नाखुश महसूस कर रहा था क्योंकि मैं तब गोवा नहीं जा पाया था और इसकी बजाय उन लोगों से जल रहा था जो फिल्में बनाने के इस अपेक्षाकृत ज्यादा रोमांचकारी धंधे में थे. मुझे लगता है कि ऐसा संभव है. संभव है कि कागज पर शब्द उतारकर उन्हें छपवाना अब उतना अहम नहीं है जितना फिल्में बनाने का समकालीन चलन.

क्या आप इसे एक बड़े नुकसान के तौर पर देखते हैं? मेरा मतलब लंबे-लंबे आख्यानों के खत्म होते जाने को. सभ्यता के संदर्भ में देखें तो क्या यह एक बड़ा नुकसान है?

नहीं, नहीं. साहित्य और कला की सभी विधाओं की बात करें तो यह विकास की प्रक्रिया का ही हिस्सा है. उपन्यास के लंबे आख्यानों की आप बात कर रहे हैं तो इसकी शुरुआत 1836 में डिकेंस के साथ हुई थी. 100 साल बाद आप डिंकेस की तरह नहीं लिख सकते थे. आपको दूसरी चीजें करनी होती थीं और मुझे नहीं लगता कि भारत में भी कोई डिकेंस की तरह कुछ लिखना चाहेगा.

आपकी उन लोगों में बहुत दिलचस्पी रहती है जो हाथों से काम करते हैं. मैंने खुद अपने घर में आपको ऐसे लोगों के साथ बातचीत में मशगूल देखा है. इस पर क्या कहेंगे?

मैं लेखक हूं. मेरी दिलचस्पी हर आदमी और हर चीज में रहती है. और मुझे दूसरे लोगों के जरिए दुनिया देखना और उसे महसूस करना पसंद है. यह मैं तब से करता रहा हूं जब मैं बच्चा था. मैंने दुनिया को उस आदमी या औरत की आंखों के जरिये देखने की कोशिश की है जिसके साथ मैं होता था.

मर्ज भगाने के लिए खर्च जरूरी है

अन्ना हजारे और सरकार के बीच जो टकराव चल रहा है उससे एक स्वाभाविक-सा सवाल उठता है कि आखिर देश की जनता और देश की सरकार के बीच इतनी बड़ी खाई क्यों पैदा हो गई है. क्यों यह माना जा रहा है कि सरकार एक ऐसी दुश्मन है जिसे काबू करना जरूरी है?

इसका छोटा-सा जवाब यह है कि 15 लोकसभा चुनावों और 300 से भी ज्यादा विधानसभा चुनावों के बाद भी लोकतंत्र सही मायने में भारत के लोगों का सशक्तीकरण नहीं कर पाया है. इसकी बजाय इसने एक ऐसा शासक वर्ग पैदा किया है जिसकी प्रवृत्ति आम लोगों का खून चूसने वाली रही है. अन्ना के आंदोलन को इन्हीं आम लोगों से ताकत मिल रही है जो कह रहे हैं कि बस बहुत हो चुका, अब और नहीं सह सकते.

लोकतंत्र से असंतोष कोई नई बात नहीं है. नेहरू का दौर सशक्तीकरण का दौर था. सरकार ईमानदार थी. उसने गरीबी खत्म करने के लिए बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाईं. लोगों में उम्मीद जगी. लेकिन यह उम्मीद लंबे समय तक कायम नहीं रह पाई. 1967 में जब आम चुनाव हुआ तो पहली बार मोहभंग के लक्षण साफ-साफ दिखे. कई राज्यों में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा.

1980 के दशक में इस असंतोष ने व्यापक रूप धारण कर लिया. मतदाता सत्तासीन पार्टी को इस निरंतरता से खारिज करने लगे कि सत्ता विरोधी लहर जैसा जुमला चलन में आ गया. हालांकि यह जुमला ऐसा ही था जैसे आप लक्षण को ही बीमारी समझ लें. फिर जल्द ही लोगों को यह भी समझ में आ गया कि सरकारें बदलने से उनकी जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आने वाला. धीरे-धीरे कुछ सरोकारी नागरिकों को महसूस होने लगा कि बदलाव के लिए उन्हें संसद के बाहर से दबाव की रणनीति बनानी होगी. जिसे हम आज सिविल सोसायटी कह रहे हैं वह आंदोलनकारी वर्ग इसी समय वजूद में आया.

अन्ना कह चुके हैं कि उनका अगला लक्ष्य चुनावी सुधार होगा. इससे उनका आशय मतदाताओं को अपने चुने हुए प्रतिनिधि वापस बुलाने का अधिकार देना है. लेकिन न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे में लाने की मांग की तरह उनकी यह मांग भी असल सुधार की राह का रोड़ा साबित हो सकती है. इससे इस पूरे आंदोलन के एक बनिस्बत छोटे उद्देश्य के लिए खप जाने का खतरा है. दरअसल मजबूत से मजबूत लोकपाल से भी नौकरशाही में भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता. चीन को ही देखिए. जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने से भ्रष्टाचार या सदन में अपराधियों के आने पर अंकुश नहीं लगने वाला.

कांग्रेस सरकार ने कॉरपोरेट चंदे पर रोक लगा दी ताकि मजबूत होते विपक्ष की हालत जल बिन मछली जैसी हो जाए

दरअसल भ्रष्टाचार और अपराध जैसी जो बुराइयां भारतीय व्यवस्था में गहरे तक घुस गई हैं वे तभी खत्म की जा सकती हैं जब हम उनकी जड़ों के बारे में पूरी तरह से जान लें. इनका मूल 1950 में लागू हुए भारतीय संविधान की दो गहरी खामियों में तलाशा जा सकता है. पहली तो यह कि संविधान में इसकी कोई व्यवस्था नहीं है कि लोकतंत्र को चलाने का खर्च कहां से आएगा यानी जनप्रतिनिधि के सदन तक पहुंचने की पूरी प्रक्रिया में लगने वाला पैसा. दूसरी खामी यह थी कि संविधान में वे प्रावधान भी नहीं रखे गए जिनसे एक सदी तक जनता को अपना गुलाम समझने की घुट्टी पीती रही नौकरशाही को यह समझ में आता कि वह असल में जनता की सेवक है.

पहली खामी की वजह थी बिना सोचे-समझे ब्रिटिश परंपरा का अनुकरण. संविधान सभा के सदस्य भूल गए कि ब्रिटेन में एक निर्वाचन क्षेत्र का आकार औसतन 375 वर्ग किमी होता है जिसमें आज करीब औसतन 60,000 मतदाता होते हैं. जबकि भारत में यह आंकड़ा करीब 6,000 वर्ग किमी और 12 लाख वोटरों का है. ब्रिटेन में सांसद का कोई भी उम्मीदवार सुबह कार में बैठकर दो-तीन कस्बे या गांव घूमकर रात को घर वापस आ सकता है. मगर भारत में उसके किसी समकक्ष के लिए उसका निर्वाचन क्षेत्र कभी-कभी तो 1,000 से भी ज्यादा गांवों से मिलकर बनता है. हजार-बारह सौ पोलिंग बूथों पर किसी भी गंभीर उम्मीदवार को चुनाव के दिन कम से कम 8,000 लोग रखने होंगे. इस पर आने वाला खर्च स्वाभाविक है कि बहुत ज्यादा होता है. संविधान सभा यह क्यों नहीं समझ पाई कि निर्वाचन क्षेत्र के आकार में इतने विशाल फर्क के चलते ब्रिटेन के मॉडल को हूबहू भारत में लागू करना बिल्कुल संभव नहीं है, यह सोचकर हैरानी होती है.

लेकिन अगर संविधान सभा से यह बात नजरअंदाज हो गई थी तो इसे बाद में एक संवैधानिक संशोधन के जरिए ठीक किया जा सकता था. लेकिन बाद में इंदिरा गांधी देश को उलटी दिशा में ले गईं. उन्होंने राजनीतिक पार्टियों के लिए धन के उस अकेले वैध स्रोत को बंद कर दिया जो इस दौरान उभरा था. यह स्रोत था कॉरपोरेट कंपनियों द्वारा दिया जाने वाला चंदा. और यह तब हुआ जब कम्युनिस्टों के अलावा सभी दल इस पैसे पर निर्भर होने लगे थे.

इंदिरा गांधी ने यह फैसला 1967 के आम चुनावों के कुछ ही हफ्ते बाद लिया. जैसा कि जिक्र हो चुका है इन आम चुनावों में कांग्रेस को पहली बार अहसास हुआ था कि उसके पांवों के नीचे से जमीन सरक रही है. न सिर्फ लोकसभा में उसकी सीटों का आंकड़ा 353 से गिरकर 282 तक आ गया था बल्कि पहली बार यह छह बड़े राज्यों में भी अपनी सत्ता खो बैठी थी. कांग्रेस सरकार ने पहले तो राजनीतिक पार्टियों को दिए जाने वाले चंदे पर आयकर में मिलने वाली छूट खत्म की और फिर इस चंदे पर पूरी तरह से रोक ही लगा दी. ऐसा करते हुए इंदिरा गांधी ने जानबूझकर इसका कोई विकल्प नहीं रखा कि चंदे के रूप में पैसा नहीं आएगा तो राजनीतिक दलों का खर्च कैसे चलेगा.

इस फैसले के पीछे कांग्रेस का तर्क था कि नीतियां बनाने में कॉरपोरेट घरानों की दखलअंदाजी बढ़ रही है और ऐसा उनके प्रभाव को घटाने के लिए किया गया. मगर सच यह है कि यह काम 1956 में बना औद्योगिक नीति प्रस्ताव पहले ही कर चुका था. यानी कॉरपोरेट फंडिंग बंद करने का सीधा मकसद यह था कि विपक्ष का दम घुट जाए. 1967 में सी राजगोपालाचारी की स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ ने मिलकर चुनाव लड़ा था और यह गठबंधन तीन राज्यों में कांग्रेस के लिए बड़ा खतरा बनकर उभरा था. मध्य प्रदेश में जनसंघ ने 296 में से 78 सीटें जीती थीं. गुजरात में स्वतंत्र पार्टी ने 168 में से 66 सीटें जीती थीं और राजस्थान में 72 सीटें जीतकर उसने कांग्रेस को पीछे धकेल दिया था.

जाहिर है कांग्रेस चिंतित थी. उसे लग रहा था कि आगे ये पार्टियां कई और छोटी पार्टियों और निर्दलीयों को अपनी तरफ खींच सकती हैं. उस वक्त ऐसा लगने लगा था कि एक की बजाय दो पार्टियों या गठबंधन के विकल्प वाली राजनीतिक व्यवस्था का जन्म होने वाला है. कांग्रेस को यह बात हजम नहीं हो रही थी. इसलिए उसने कॉरपोरेट चंदे पर रोक वाला कानून बना दिया ताकि विपक्ष की हालत जल बिन मछली जैसी हो जाए. चूंकि पार्टी खुद सत्ता में थी इसलिए वह तो इस कानून का बिना डर उल्लंघन कर सकती थी. इस रोक का मतलब था चुनाव लड़ने के लिए ईमानदारी और पारदर्शिता से मिलने वाले वित्तीय स्रोत का खत्म होना. इस अवसरवादी फैसले से राजनीतिक दलों के लिए ईमानदार रहकर अपनी गाड़ी खींचना असंभव हो गया. यहीं से राजनीति की नदी में अपराध और काले धन का कीचड़ घुलना शुरू हुआ. लगभग आधी सदी बाद इस कीचड़ ने नदी को नाले में तब्दील कर दिया है.

इस फैसले का पहला घातक असर तो यह हुआ कि इसने भारतीय राजनीति में मध्यमार्गी विपक्ष की संभावना को खत्म कर दिया और उन शक्तियों को मजबूत किया जो विचारधारा के लिहाज से अतिवादी थीं. बाजारवाद की समर्थक स्वतंत्र पार्टी को जब नए कानून के चलते कॉरपोरेट घरानों से मिलने वाला चंदा बंद हो गया तो इसके ज्यादातर सदस्य जनसंघ में शामिल हो गए. समाजवाद में यकीन रखने वाली प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का तेजी से क्षरण हुआ. फिर इन दोनों का विलय हो गया. इसके बाद 1977 में इन्होंने जनता पार्टी से हाथ मिलाया और आखिर में पूरी तरह गायब हो गईं. उनके जाने से पैदा हुई खाली जगह को जाति और क्षेत्रवादी राजनीति करने वाली उन पार्टियों ने कब्जा लिया जिन्हें हम आज के राजनीतिक परिदृश्य में देखते हैं. जनसंघ और दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां इस दौर में बचे रहने में सफल रहीं. 1970 के दशक का आखिर आते-आते यह सपना धराशाई हो चुका था कि एक दिन भारत में ब्रिटेन जैसी द्विध्रुवीय राजनीतिक व्यवस्था आ जाएगी.

केंद्रीय नेतृत्व के कमजोर होने की वजह से देशहित में कठिन फैसले लेने की राष्ट्रीय नेताओं की क्षमता घटी

इसका दूसरा और ज्यादा गंभीर नतीजा यह हुआ कि पार्टियों के भीतर का लोकतंत्र खत्म हो गया. कंपनियों से मिलने वाले चंदे पर रोक के बाद कांग्रेस के लिए भी पैसे जुटाना मुश्किल हो गया था. दरअसल इसके मैनेजरों ने चुनावी चंदा जुटाने के लिए एक नई वैकल्पिक व्यवस्था बनाई थी. जहां पहले चंदा कुछ लोगों द्वारा बड़ी राशि के रूप में आता था वहां अब बड़ी संख्या में बिखरे लोग हो गए जो चंदे के रूप में छोटी-छोटी राशियां देते थे. चूंकि हर बार एक ऐसी नई व्यवस्था बनाना बनाने वालों को झंझट का काम लगता था, इसलिए बनिस्बत छोटे दानदाताओं से बना यह नेटवर्क स्थायी रूप से जम गया. लेकिन उसे भी इसके बदले में कुछ फायदा चाहिए था. तो धीरे-धीरे ऐसा होने लगा कि यह नेटवर्क पार्टी और खास तौर से अपने क्षेत्र से चुने जाने वाले पार्टी उम्मीदवार से यह फायदा लेने लगा. आपसी लेन-देन की राजनीति की जड़ यही है.

ऐसे नेटवर्क का नुकसान यह होता है कि सत्ता का दायरा एक वर्ग विशेष तक सीमित हो जाता है. इसलिए क्योंकि ऊंचे संपर्कों तक पहुंच के जरिए नेटवर्क को चलाने वाले तत्व यह सुनिश्चित करते हैं कि जिस उम्मीदवार से उन्हें फायदा हो रहा है उसका कोई प्रतिद्वंद्वी न पनपने पाए. यानी राजनीति में बदलाव लाने की इच्छा रखने वाले नए लोगों के लिए इस तंत्र में घुसना बहुत मुश्किल होता है, कम से कम तब तक जब तक वे खुद इसका हिस्सा बनने को तैयार नहीं हो जाते. साफ है कि भारतीय लोकतंत्र जितना परिपक्व होता गया है उतना ही यह सुनिश्चित हुआ है कि एक दायरे से बाहर के नए लोग राजनीति में न आ सकें. नजर दौड़ाने पर आप पाएंगे कि भारतीय राजनीति में नेताओं की एक दूसरी पीढ़ी ने अपनी कुर्सी विरासत में हासिल की है. पश्चिमी लोकतंत्रों में जब संसद, नेशनल असेंबली या फिर कांग्रेस के किसी बुजुर्ग सदस्य का निधन होता है तो राजनीतिक दल हमेशा उसका उत्तराधिकारी इस आधार पर चुनता है कि अपने निर्वाचन क्षेत्र में उसका वजन कितना है. भारत में इसका उल्टा है. यहां किसी बुजुर्ग नेता का निधन होते ही उसके नेटवर्क को चलाने वाले (जो तब तक पार्टी में शामिल हो चुके होते हैं) यह सुनिश्चित करने के लिए तुरंत दिल्ली की दौड़ लगाते हैं कि खाली हुई सीट पर किसी योग्य उम्मीदवार को नहीं बल्कि दिवंगत नेता की पत्नी, बेटे या बेटी को स्थापित किया जाए. भावनाओं को छोड़ दें तो ऐसा इसीलिए किया जाता है कि नेटवर्क में कोई बदलाव न हो. चर्चित लेखक पैट्रिक फ्रेंज ने 2009 की लोकसभा का एक अध्ययन किया था जो बताता है कि इसमें 156 यानी 28.5 फीसदी सांसद ऐसे थे जिन्हें यह कुर्सी अपने पारिवारिक संपर्कों की वजह से मिली थी. इनमें से 78 सांसद कांग्रेस के थे. अध्ययन के मुताबिक 50 या इससे कम उम्र के सांसदों में से आधे ऐसे थे जिन्हें उस सीट पर चुनाव लड़ने के लिए इस वजह से चुना गया था कि वे राजनेताओं की संतान हैं. सबसे कम उम्र के 38 सांसदों में 33 और 35 से कम उम्र के कांग्रेस के हर सांसद को टिकट मुख्य रूप से इसीलिए मिला था क्योंकि वह एक खास परिवार में पैदा हुआ.

इस तसवीर की भयावहता को फ्रेंच ने कुछ इस तरह व्यक्त किया, ‘अगर आपका संबंध किसी स्थापित सत्ताधारी परिवार से नहीं है तो आपके लिए राष्ट्रीय राजनीति में आगे बढ़ने के अवसर तब तक न के बराबर हैं जब तक आप भाजपा या माकपा जैसी विचारधारा आधारित पार्टी में शामिल नहीं होते.’

इसका तीसरा परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस सहित सभी पार्टियों का राष्ट्रीय नेतृत्व कमजोर पड़ा. जब चंदा वैध रूप से लिया जाता था तो आम तौर पर इसके जरिए आने वाली रकम या तो सीधे पार्टी अध्यक्ष के पास आती थी या फिर कोषाध्यक्ष के पास. इससे यह सुनिश्चित होता था कि आर्थिक ताकत उस नेता के हाथ में रहे जिसे लोग जानते हों और जिसे इस चंदे के संग्रह और खर्च के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता हो. लेकिन जब चंदे के लिए गोपनीय रूप से काम होने लगा तो आर्थिक ताकत उन गुमनाम लोगों के हाथ में चली गई जो किसी के प्रति जवाबदेह नहीं थे. पैसा जुटाने वाले ऐसे लोगों पर केंद्रीय नेतृत्व का नियंत्रण भी हटता गया और उनकी नकेल प्रदेश के नेताओं के हाथ में चली गई. समय के साथ पैसा जुटाने वाले इन लोगों या कहें तो फंडरेजरों की मांगें बढ़ती गईं. नतीजा यह हुआ कि उम्मीदवारों के चयन और नीतियों के निर्धारण के मामले में चुने हुए नेताओं का असर घटता गया. इस बदलाव की सबसे पहली शिकार बनीं इंदिरा गांधी. जानकारों ने इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल के दिनों में सत्ता को अपने आसपास केंद्रित करने की जमकर आलोचना की थी, लेकिन हकीकत में तो यह एक सुरक्षात्मक कदम था. क्योंकि इंदिरा गांधी को यह अहसास हो गया था कि पार्टी पर उनकी कमान ढीली पड़ती जा रही है. 70 के दशक के मध्य इंदिरा गांधी के हाथ से कई कांग्रेसी मुख्यमंत्री निकल गए. इनमें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमवतीनंदन बहुगुणा और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री वीपी नाइक शामिल थे. वैसे तो दोनों ही, लेकिन खास तौर पर बहुगुणा बड़े योग्य प्रशासक थे. उन्होंने उत्तर प्रदेश को लंबे अंतराल के बाद सक्षम प्रशासन दिया था. इंदिरा गांधी ने उनका समर्थन करना इसलिए छोड़ा क्योंकि वे केंद्र के निर्देश नहीं मान रहे थे. 1975 से 1977 के दौरान इंदिरा गांधी ने कांग्रेस शासित राज्यों में 15 बार मुख्यमंत्री बदले. यह उन्होंने 21 महीने के आपातकाल के दौरान किया. यह वह दौर था जब माना जाता था कि इंदिरा गांधी ताकत के मामले में शिखर पर थीं. इससे पता चलता है कि पार्टी के आंतरिक बदलावों की वजह से केंद्रीय नेतृत्व किस कदर कमजोर हो रहा था.

कांग्रेस में केंद्रीय नेतृत्व के कमजोर होने की वजह से देशहित में कठिन फैसले लेने की राष्ट्रीय नेताओं की क्षमता घटी. 1967 में इंदिरा गांधी ने असम के ताकतवर मुख्यमंत्री बीपी चलिहा के प्रतिरोध की परवाह नहीं करते हुए असम को बांटकर अलग राज्य मेघालय बना दिया था. वही इंदिरा 16 साल बाद पंजाब कांग्रेस को नियंत्रित करने में नाकाम रहीं जिसके नतीजे में खलिस्तान की मांग पर विद्रोह फूटा. कांग्रेस की पंजाब इकाई जरनैल सिंह भिंडरावाला को बढ़ाने के लिए ही जिम्मेदार नहीं थी. इंदिरा गांधी और संत लोंगोंवाल के बीच 1983 में हुई तीन बैठकों के बावजूद लंबे समय से लटकी चार मांगों पर सहमति नहीं बन पाई तो इसके पीछे भी उसका ही हाथ था. अगर ऐसा हो जाता तो अलगाववादी आंदोलन खत्म हो जाता. लेकिन राज्य के नेताओं को लगता था कि अगर मांगंे मान ली गईं तो अकाली चुनाव में इसका फायदा उठा सकते हैं. इंदिरा उन्हें मनाने में नाकाम रहीं. इस नाकामी की कीमत देश ने 10 साल की हिंसा और 61,000 लोगों की मौत के साथ चुकाई. जो लोग मरे उनमें से दो तिहाई सिख थे.
कॉरपोरेट फंडिंग बंद होने का चौथा परिणाम यह हुआ कि राजनीति में अपराधियों का प्रवेश होने लगा. मौजूदा संसद के 29 फीसदी सदस्यों पर हत्या, बलात्कार, अपहरण और डकैती जैसे संगीन अपराधों में शामिल होने का आरोप है. बिहार विधानसभा में ऐसे लोगों की संख्या 44 फीसदी है और पश्चिम बंगाल विधानसभा में 35.1 फीसदी.

इस पूरी प्रक्रिया का सबसे बुरा नतीजा इस धारणा के रूप में सामने आया कि व्यवस्था तो बिकने के लिए खड़ी है

आपसी फायदे की राजनीति के इस तंत्र को और मजबूत करने और बाहरी लोगों के लिए व्यवस्था तक पहुंचने का रास्ता रोकने के लिए आखिरी कदम यह उठाया गया कि सांसदों और विधायकों को क्रमशः सांसद विकास निधि और विधायक विकास निधि के तहत विकास कार्यों पर पैसा खर्च करने के लिए एक कोष दे दिया गया. इसके इस्तेमाल का फैसला सांसदों और विधायकों के विवेक पर छोड़ दिया गया. कागजी तौर पर तो इस योजना में कई ऐसे उपाय किए गए हैं जिससे कि पैसे का दुरुपयोग न हो. लेकिन व्यावहारिक तौर पर देखें तो कोई भी ऐसा निगरानी तंत्र नहीं है जिससे यह पता चल सके कि कितना पैसा विकास कार्यों पर खर्च हुआ और कितना सांसद व विधायक की जेब में वापस चला गया. इस योजना ने निर्वाचन क्षेत्रों को जमींदारी वाले इलाकों में तब्दील कर दिया है. लेकिन जब 2जी विवाद के बीच में सांसदों के कोष को सालाना दो करोड़ से बढ़ाकर पांच करोड़ रुपये और विधायकों के कोष को एक करोड़ से बढ़ाकर दो करोड़ रुपये करने का फैसला किया गया तो किसी ने भी इस पर कुछ नहीं बोला.

अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

कॉरपोरेट फंडिंग के खत्म होने का सबसे भयावह नतीजा यह हुआ कि इसने राज्य व्यवस्था को भक्षक के रूप में ला खड़ा किया. यह काम चार चरणों में हुआ. जब कंपनी डोनेशन को प्रतिबंधित किया गया तो उसके बाद कांग्रेस के लिए पैसे जुटाने वालों के लिए भी यह समस्या खड़ी हो गई कि चुनाव लड़ने के लिए पैसे कहां से लाएं. इसलिए 1971 के लोकसभा चुनावों और 1972 के विधानसभा चुनाव में ये लोग उन्हीं कंपनियों और कारोबारी संगठनों के पास गए जिनसे पहले वे कर छूट वाले चेक लेते थे. अब उनसे नकद पैसे की मांग की गई. ज्यादातर कारोबारियों ने न चाहते हुए भी इस मांग को मान लिया. इस प्रतिबंध ने चुनाव के लिए पैसे जुटाने का काम बेहद मुश्किल बना दिया और जो खालीपन पैदा हुआ उसे छोटे या मंझोले कारोबारियों, दुकानदारों, साहूकारों, अमीर किसानों आदि ने भरा.

लेकिन इसके बदले में छोटे कारोबारियों को कारोबार फैलाना था और अमीर किसानों को सब्सिडी चाहिए थी. पहले वर्ग ने इंदिरा गांधी को वह कारण दिया जिसका तर्क देकर उन्होंने 1970 से 1973 के बीच बड़े कारोबारियों पर समाजवादी नियंत्रण का दूसरा दौर चलाया. उधर किसानों को फायदा समर्थन मूल्य के रूप में मिला. इससे राजनीतिक ताकत रखने वाला एक छोटा-सा मध्य वर्ग वजूद में आया. इसकी वजह से न सिर्फ जीडीपी दर और गिरी बल्कि 1991 तक अर्थव्यवस्था लाइसेंस राज में रही.

आपातकाल के बाद 1977 के चुनावों में कांग्रेस की हार ने पार्टी में केंद्रीय स्तर पर तो माली हालत बिगाड़ दी थी लेकिन आधे से ज्यादा इसके राज्यों पर इसका कोई असर नहीं हुआ था. इसका परिणाम यह हुआ कि जब 1980 में कांग्रेस वापस सत्ता में आई तो राज्य व्यवस्था के भक्षक बनने के दूसरे चरण की शुरुआत हुई. सत्ता में लौटते ही इंदिरा गांधी की पहली प्राथमिकता पार्टी की आर्थिक स्थिति को सुधारना और केंद्रीय नेतृत्व को फिर से महत्वपूर्ण बनाना बन गई. विदेशी ठेकों खास तौर पर इन्फ्रास्ट्रक्चर और रक्षा से संबंधित ठेकों के बदले कमीशन लेने के काम को संस्थागत रूप देकर कांग्रेस ने इस लक्ष्य को हासिल भी कर लिया.

ठेके के बदले पैसे के इस संस्थागत खेल का भंडाफोड़ तब हुआ जब स्वीडन के एक अखबार ने 1987 में बोफोर्स कांड उजागर किया. अखबार के मुताबिक 1.3 अरब डॉलर के इस ठेके में कुल रकम का 17 फीसदी हिस्सा तीन स्तर पर रिश्वत के तौर पर दिया गया. इस कांड ने देश में भूचाल ला दिया था.

कमीशन के इस खेल में सिर्फ पैसे की बर्बादी ही नहीं होती. सौदेबाजी में समय लगने की वजह से न सिर्फ किसी ऑर्डर की लागत बढ़ती है बल्कि कीमती वक्त भी बर्बाद होता है. रक्षा क्षेत्र के ठेकों में घूसखोरी की वजह से देश के लिए हमेशा खतरा बना रहता है. इस कुप्रथा का एक नतीजा यह भी हुआ है कि रूटीन खरीदारी का काम भी रक्षा मंत्रालय के असैन्य अधिकारियों के हाथों में केंद्रित होता चला गया. आज सेना के बड़े अधिकारी खुलेआम कहते हैं कि उनकी मांगों को पूरा करने में कम से कम तीन साल का वक्त लगता है. रिश्वत के इस संस्थागत स्वरूप का नतीजा यह भी हुआ कि ज्यादातर मौकों पर ठेके उन्हें नहीं मिले जिनकी योग्यता सबसे ज्यादा  थी.

इस पूरी गड़बड़ी का सबसे बुरा नतीजा यह हुआ कि व्यवस्था को बिकाऊ मान लिया गया क्योंकि रिश्वत लेकर किसी को ठेका देते ही सत्ता प्रतिष्ठान एक ऐसा पक्ष बन गया जिसे उस हर काम में शामिल होना है जिससे घूस देने वाले की लागत निकले. इसके साथ ही व्यवस्था जनता की नजरों से गिरने लगी.

फिर यहीं से कई बुराइयां व्यवस्था में घर करती चली गईं. पहले से तय किए गए ठेकेदार को ठेका दिलाने के लिए कई तरह के अनैतिक काम किए जाने लगे. सरकारी विभागों को यह लगने लगा कि स्वतंत्र कंसल्टेंट की मौजूदगी की वजह से ठेके देने में अनियमितता करने पर जोखिम बना रहेगा. इसलिए इन विभागों ने योजनाओं को तैयार करने और क्रियान्वयन में इन कंसल्टेंट की सेवा लेने की बजाय यह काम खुद ही करना शुरू कर दिया. इससे न सिर्फ भ्रष्टाचार को रोक सकने वाली आखिरी व्यवस्था खत्म हो गई बल्कि इसने भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने का ही काम किया.

राज्य सरकारों ने इसका फायदा लेते हुए प्रतिस्पर्धा बनाए रखने के नाम पर बड़ी परियोजनाओं को छोटे-छोटे हिस्सों में बांटा और अलग-अलग ठेके देने शुरू कर दिए. इसका नतीजा यह हुआ कि मंत्री और अधिकारी उन छोटी कंपनियों को ठेका देने लगे जिनके पास न तो पूंजी आधार था और जिनका काम करने का कोई अनुभव भी नहीं था. लेकिन इन कंपनियों के पास एक चीज यह थी कि ये ठेके के बदले संबंधित मंत्री या अधिकारी को कुछ भी देने को तैयार थे. इससे परियोजनाओं की लागत बढ़ी, गुणवत्ता घटी और काम लटकने लगा. इसका सबसे अच्छा उदाहरण है मुंबई, दिल्ली, कोलकाता और चेन्नई को जोड़ने और देश की अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए 1999 में उस समय के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा शुरू की गई स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क परियोजना. इस परियोजना को 2004 में पूरा होना था लेकिन 2011 तक इसका आधा काम भी नहीं हो पाया है.

तीन दशक से अधिक समय से घूस के पैसे का इस्तेमाल पार्टियों को चलाने के लिए हो रहा है. तब से रिश्वत की प्रवृत्ति देश के हर कोने में और सरकार के हर स्तर पर फैल चुकी है. आज शायद ही कोई छोटा से छोटा ठेका बगैर रिश्वत लिए दिया जा रहा हो. समय के साथ नई दिल्ली के सचिवालय से लेकर प्रखंड स्तर पर काम करने वाले अधिकारी ने यह जान लिया कि वही काम वे अपने लिए कानून से कहीं अधिक बेखौफ होकर कर सकते हैं जिस काम की अपेक्षा उनके राजनीतिक आका उनसे अपनी पार्टी के लिए करते हैं.

व्यवस्था को भक्षक की भूमिका में लाने का तीसरा चरण 1991 में आर्थिक उदारीकरण के साथ शुरू हुआ. कंपनी डोनेशन पर से आखिरकार 2003 में पाबंदी हटा दी गई. लेकिन तब तक पैसे की जरूरत इतनी बढ़ गई थी जितना देने के लिए कारोबारी तैयार नहीं थे. इंदिरा राजारमन के मुताबिक 2009-10 में बड़े और छोटे उद्योगपतियों ने मिलाकर सिर्फ 130 करोड़ रुपये का चंदा राजनीतिक पार्टियों को दिया. इस दौरान उद्योगपतियों ने फैसलों को प्रभावित करने के नए रास्ते ईजाद किए. इनमें निर्णय लेने वालों को सीधे ही खरीद लेना शामिल है. यही वजह है कि 90 के दशक और नई सदी के पहले दशक में कई घोटाले सामने आए.

और चौथा चरण तब शुरू हुआ जब यह तय हो गया कि केंद्र में अब गठबंधन सरकार ही बनेगी. 1996 से लेकर अब तक केंद्र में बनी पांच सरकारों में राष्ट्रीय पार्टियों (भाजपा और कांग्रेस) ने रक्षा, गृह और विदेश जैसे ताकतवर विभाग तो अपने पास रखे लेकिन पैसे वाले कई विभाग क्षेत्रीय सहयोगी दलों के खाते में चले गए. 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले की जड़ में यही है, लेकिन यह घोटाला तो उस मौजूदा कार्यप्रणाली का चरम है जिसके जरिए आज हर काम हो रहा है.

टीम अन्ना अगर यह सोचती है कि लोकपाल इस भ्रष्ट व्यवस्था पर हल्की चोट पहुंचाने के अलावा और कुछ कर सकेगा तो वह सपनों की दुनिया में जी रही है. तब तक कुछ नहीं बदलेगा जब तक राजनीतिक दलों को उस भार से मुक्त नहीं किया जाए जिसके लिए वे कानून तोड़ने को मजबूर हैं. बदलाव के लिए राजनीतिक दलों को फिर से ईमानदार होने का अवसर देना होगा. ऐसा करने का एकमात्र रास्ता यही है कि मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के चुनावी खर्चे सरकार उठाना शुरू करे. इसके लिए चुनाव आयोग को और मजबूत बनाने की जरूरत होगी. आयोग में ताकतवर ऑडिटिंग विभाग जोड़ना होगा और राजनीतिक दलों को मान्यता देने की प्रक्रिया को कठोर और पारदर्शी बनाना होगा. दूसरे सुधार इसी बुनियाद पर
आगे बढ़ेंगे.

ऐसा किए बगैर सभी दूसरी कोशिशें नाकामी में ही तब्दील होंगी.

यह शहर नहीं दिल्ली है

डार्विन का कहना था कि प्रकृति में वही जिएगा, जो सबसे काबिल होगा. प्रकृति के बारे में डार्विन कितना जानते थे, इस पर तो वैज्ञानिक बेहतर बात करेंगे लेकिन कम से कम दिल्ली को वे ठीक से जानते थे. दिल्ली पहले आपको चूसती है और फिर चाहती है तो इनाम भी देती है. भारत में तो दिल्ली बाधा दौड़ की उस बाधा की तरह है कि इसे जो लांघ गया वह आखिर तक दौड़ में रहेगा.

दिल्ली को देश की राजधानी बने 100 साल पूरे हो गए हैं और ऐसे में यह देखना और भी जरूरी हो जाता है कि दिल्ली आखिर है क्या और है किसकी. क्या यह साकेत के किसी मल्टीप्लेक्स में ‘नो वन किल्ड जेसिका’ देखकर देश की हालत पर रोती उन लड़कियों की है जिनका प्लान है कि वहां से निकलकर पीजा खाएं और फिर किसी डिस्क में जाएं या बवाना में दिन भर पैरों से शीशे तोड़ती और उनमें से गोल शीशे छांटती शकुंतला की, जिसे इस काम के शाम को 40 रुपये मिलेंगे? क्या दिल्ली उस दलाल की भी है जो अभी-अभी एक आलीशान घर दिखाने आपको लाया है या सिर्फ उस घर के मालिक की ही? क्या यह सवाल भी पूछने लायक है कि क्या दिल्ली उस औरत की भी है जो उस घर का फर्श चमका रही है? या उसके पति की, जो अभी कुछ देर पहले एक मोड़ पर गुब्बारे बेच रहा था? या उससे कुछ पहले एक व्यस्त चौराहे पर आपकी कार की खिड़की से ऐसी अंग्रेजी पत्रिकाएं दिखाने वाले उसके साल साल के बेटे की जिनमें से एक पर ऐश्वर्या राय का खुशी से दमकता चेहरा था? इनमें से कुछ पत्रिकाओं की एक प्रति की कीमत उसकी दिन भर की अधिकतम कमाई से कई गुना है. क्या दिल्ली उन आपराधिक करतूतों के मुकदमों की भी है जिनमें रोज गवाह मुकरते हैं और ज्यादातर सफेदपोश मुस्कुराते हुए अदालत से बाहर आते हैं? या दो-चार इंच दिल्ली निठारी के उन बच्चों की भी है जो गुस्सैल शिक्षकों वाले किसी सरकारी स्कूल में हर सुबह प्रार्थना गाया करते थे और सोचते थे कि दुनिया अच्छी है?

जो भी हो, दिल्ली पहली बार देखने पर या खबरें सुनकर जितनी डरावनी और तेज लगती है, बाद में उतनी नहीं रहती. यह धीरे-धीरे आपको अपनी गति समझाती है और उसके हिसाब से ढलने के नियम. यदि आप उन्हें समझ गए तो यह आपमें उम्मीद भी भरने लगती है. सब बड़े शहरों की तरह इसकी भी अच्छी बात है कि यह सबको अपने में खपा लेती है और सबमें खप जाती है, लेकिन अपनी शर्तों पर ही. कभी-कभी यह आपसे प्यार भी करने लगती है और तब अगर आपने इससे सच्चा इश्क किया तो हो सकता है कि एक दिन यह आपके कदमों में बिछी हो.

दिल्ली में दर-ब-दर

यह महरौली से हौज खास की तरफ आने वाली सड़क का किनारा है. इसी किनारे पर जैसे-तैसे बनाया गया एक आवरण है, जिसे आप झोपड़ी भी कह सकते हैं. दिन ढले का समय है. पति को देखकर लगता है कि वह अभी काम से लौटा है और इतना थका है कि जैसे अब कभी काम नहीं कर पाएगा. चार बच्चे इधर-उधर दौड़ रहे हैं, रो रहे हैं. उनकी मां, जिसने ईंटों से एक चूल्हा बनाकर उस पर दाल का पतीला चढ़ा रखा है, बच्चों को रोक नहीं रही जबकि मुश्किल से दस कदम दूर दिल्ली की व्यस्ततम सड़कों में से एक है और समय भी ज्यादा ट्रैफिक वाला है. एफएम वाले सबसे हिट गाने भी इसी वक्त बजाते हैं क्योंकि महानगरों की संस्कृति में रेडियो अलग से नहीं बल्कि सफर में ही सुना जाता है.

इस थकान और खाने के दृश्य में खलल डालने मोटरसाइकिल पर दो पुलिसवाले आते हैं. उनमें से एक सरदार जी हैं और एक हरियाणवी. उनके आते ही घर (यदि आप इसे घर मानें) का मुखिया हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर खड़ा हो जाता है. वे गालियां देते हुए उनसे कहते हैं कि अभी कहीं चले जाएं, यहां झोपड़ी नहीं बनाई जा सकती. बच्चे अपनी मां के पीछे छिप जाते हैं. औरत सर्दी और छोटे बच्चों का हवाला देते हुए एक दिन की मोहलत मांगती है जो सौ रुपये खर्च करने के बाद मिलती है. पुलिसवाले अगली शाम आने का कहकर चले जाते हैं.

दिल्ली हर दिन करीब 8000 टन ठोस कचरा अपने घरों से बाहर ऐसे फेंक देती है जैसे यह आसमान में उड़ जाएगा. लेकिन वह आसमान में नहीं उड़ता

झोपड़ी से बमुश्किल दस कदम दूर आईआईटी दिल्ली की दीवार है, जिसके उस पार भारत की सारी उम्मीदें हैं. वे लड़के-लड़कियां हैं जो साल-दो साल में उस दीवार से बाहर आएंगे और महरौली से आगे गुड़गांव को जाने वाली इसी सड़क से उस शहर में पहुंच जाएंगे जहां घर नहीं हैं, सिर्फ महल और झुग्गियां हैं.

दक्षिणी दिल्ली के शाहपुर जाट में पार्किंग स्पेस पर निर्देश लिखा है कि यह सीमित पार्किंग की जगह डीडीए स्टाफ के लिए है. उसी के नीचे किसी ने और बड़े अक्षरों में लिखा है- और झुग्गियों के लिए कोई जगह नहीं?

आधुनिक दिल्ली (यदि आप उसमें नोएडा, गुड़गांव, गाजियाबाद और फरीदाबाद को जोड़ लें या न भी जोड़ें) का यही सबसे नया यथार्थ है. अभी-अभी जो बिहारी परिवार इतना उदास हो गया है कि बनी हुई दाल को भी नहीं खा पा रहा, वह आईआईटी के बारे में नहीं जानता. वह नहीं जानता कि एशिया की सबसे बड़ी कॉलोनी द्वारका में बसाई जा रही है, कि लुटियन दिल्ली को क्या से क्या बनाना चाहता था. वह नहीं जानता कि दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश का अश्वेत राष्ट्रपति जब इस शहर में आया था तब हम नहीं चाहते थे कि शहरनुमा चांद के काले दाग उसे दिखें. वह राष्ट्रमंडल खेलों और दिल्ली मेट्रो के बारे में जानता है, लेकिन आपकी और हमारी तरह नहीं. जब आप चाहते हैं कि मेट्रो का काम जल्द से जल्द खत्म हो और हम जापान बन जाएं, तब वह चाहता है कि यह काम हमेशा चलता रहे. सुरंग की गर्मी में रोज़ बारह घंटे खुद को झोंकने पर भी वह यह चाहता है. वह चाहता है कि राष्ट्रमंडल खेल जैसे आयोजन कभी न हों, बस उनकी तैयारी चलती रहे क्योंकि वही उसे रोटी देती है और खेल का आयोजन उसे एक धक्का देता है, जिसमें खेलों की अवधि के दौरान हजारों लोगों को जबरदस्ती दिल्ली से बाहर भेज दिया जाता है, वापस बिहार, यूपी और बंगाल के उन कस्बों और गांवों में, जहां से वे भाग कर यहां आए थे. इस हिदायत के साथ कि खेल खत्म होने से पहले इस शहर को तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है.

जैसा लुटियन ने नक्शा बनाया था कि जिनकी जमीन लेकर नई दिल्ली बसाई गई, जिन्होंने उसकी भव्य इमारतें बनाने में पसीना बहाया, उन्हें ही उस नई दिल्ली में जगह नहीं दी गई. बिल्कुल वही आज की दिल्ली में भी हो रहा है. 1961 में ही दिल्ली की दो तिहाई से भी अधिक आबादी इस स्थिति में नहीं थी कि वह दिल्ली में एक कमरे से ज्यादा का घर खरीद सके. नई दिल्ली को बसाने की सारी योजना ही शायद इस आधार पर टिकी है कि बागों, खाली-चौड़ी सड़कों, बड़े घरों का एक शहर इतना महंगा कर दिया जाए कि आम आदमी उसके दायरे में घुसने तक के बारे में नहीं सोचे. उस दायरे के बाहर की दिल्ली यहां आने की लोगों की मजबूरी के कारण लगातार बढ़ती रही. वह और ज्यादा घनी होती गई. मगर इससे प्रत्येक आदमी के हिस्से में आने वाली हवा यहां कम होती गई. उस हवा को स्वस्थ बनाने के लिए आयोग तो समय-समय पर कई बैठे पर ऐसा कभी कुछ नहीं हुआ जो दिखा हो. एक बारिश में लोदी रोड की एक सड़क को सुंदर बनाने के लिए 18.6 करोड़ रुपये खर्च किए गए, जबकि शहर की पुरानी इमारतें गिर रही थीं और उनके नीचे दबकर दर्जनों लोग मर रहे थे.

आपातकाल का फायदा उठाकर केंद्रीय दिल्ली में से करीब डेढ़ लाख लोगों की झुग्गियों को उखाड़कर उन्हें दिल्ली की सीमा पर फेंक दिया गया था. 1976 में तुर्कमान गेट पर अपने घरों को बचाने के लिए आंदोलन कर रही भीड़ पर हुई गोलीबारी में जो बारह लोग मारे गए थे वे दिल्ली की याददाश्त में भी नहीं हैं. दिल्ली के सामान्य ज्ञान में यह आंकड़ा भी नहीं है कि इस शहर में रोज कम से कम 10 बेघर लोग सड़क पर मरते हैं. सर्दियों में यह संख्या और भी बढ़ जाती है. 2005 में ऐसे बेघरों के लिए आश्रय बनाने के लिए पूरे देश के लिए जो बजट रखा गया था वह चार करोड़ रुपये का था. जबकि अकेली दिल्ली में ही ऐसे लोगों की संख्या एक लाख से अधिक है. ऐसे 250 से भी अधिक परिवार हर रात निजामुद्दीन के एक पार्क में सोते हैं. उनमें से काफी संख्या ऐसे हताश लोगों की है जो ऐसी परिस्थितियों में जिंदा रहने के लिए नशे का सहारा लेते हैं. आप यह भी पूछ सकते हैं कि उनके लिए जिंदा रहना इतना जरूरी क्यों है. लेकिन यह प्रश्न आपका अपना नहीं है. बिल्कुल यही सवाल तो दिल्ली का श्रेष्ठि वर्ग और दिल्ली की सरकार इतने बरसों से उनसे पूछ रही है.

बड़े शहरों की तरह दिल्ली की भी अच्छी बात यह है कि यह सबको अपने में खपा लेती है और सबमें खप जाती है, लेकिन अपनी शर्तों पर ही

झुग्गियों को खत्म करने की जो संस्कृति आपातकाल में शुरू हुई थी, आपातकाल हटने और इंदिरा गांधी की सरकार गिरने के बाद गरीब के साथ दिखने के चक्कर में कुछ सालों तक पीछे छिपकर बैठी रही. लेकिन 1997 से झुग्गियों को हटाने का जो सिलसिला चल रहा है उसमें ज़्यादातर बार अदालत ने ऐसा करने के आदेश दिए हैं. ये या तो अदालत ने अपनी पहल पर दिए हैं या किसी कॉलोनी के मध्यवर्ग की ऐसी याचिका पर जिसमें वे उन झुग्गियों को अपने आस-पास बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे. उन पर इल्जाम है कि वे वातावरण को प्रदूषित कर रहे हैं, जबकि है इसका ठीक उल्टा. वातावरण को प्रदूषित करने में उनका सबसे कम योगदान है, लेकिन वे उसका सबसे ज्यादा असर झेलते हैं. अब भी वे जिन परिस्थितियों में और जिन सीमांत इलाकों में रह रहे हैं, वहां से उन्हें अपने काम की जगहों तक जाने के लिए रोज कई घंटे और एक तिहाई कमाई खर्च करनी पड़ती है. इस चक्कर में उनमें से अधिकतर हफ्ते के हफ्ते अपने घर लौटते हैं.

1998 से 2010 तक दिल्ली में करीब 10 लाख लोगों को एक विश्वस्तरीय शहर बनाने के लिए विस्थापित किया गया है. विडंबना यह है कि इस शहर को तथाकथित विश्वस्तरीय बनाने में सबसे ज़्यादा योगदान इन्हीं 10 लाख लोगों का है.

तमाम काम

भव्य इमारतों और गाड़ियों के साथ-साथ इस शहर को मैकडॉनाल्ड, कैफे कॉफी डे, बड़ी कंपनियों और उनके कॉल सेंटरों की जरूरत है. अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप उसके किस तरह काम आते हैं. आप किसी रेस्तरां में वेटर भी बन सकते हैं और किसी सॉफ्टवेयर कंपनी में मैनेजर भी. आप बिहार से दिल्ली, सड़कें बनाने भी आ सकते हैं और आईएएस बनने भी. आप यहां ऑटो भी चला सकते हैं और रात के वक्त किसी सुनसान ज़गह पर अपनी सवारियों को लूट भी सकते हैं. आप कनॉट प्लेस में घूमते जोड़ों को पच्चीस रुपये का चश्मा हज़ार का बताकर तीन सौ रुपये में भी बेच सकते हैं और अगर आपको यह रास्ता पसंद नहीं तो आप राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर बाढ़ की तरह उतरने वाली भीड़ में से किसी बेखबर सज्जन का मोबाइल भी पार कर सकते हैं. आप किसी नेता के अहाते में जैसे-तैसे शरण पाकर प्रधानमंत्री बनने का सपना भी पाल सकते हैं और किसी न्यूज चैनल में नौकरी करके देशवासियों को नई-नई किस्म के ‘प्रलयों’ से रोज डरा सकते हैं. आप कई तरह की ‘कोशिशें’ करके किसी सरकारी दफ्तर में क्लर्क बन सकते हैं या हमेशा आपके साथ रहने वाली दिल्ली पुलिस में भी भर्ती हो सकते हैं. तब आप मोबाइल पार करने वाले को खोज रहें हो, यह जरूरी नहीं. जरूरत के किसी दिन आप किसी बाइकवाले को रोककर बाइक के पेपर से पहले पैसे भी मांग सकते हैं.

एक जिम्मेदार पुलिसवाले ने मुझे एक दफ़ा बताया था कि हर दिन ही जरूरत का दिन होता है. इसी तरह एक जिम्मेदार कचरा उठाने वाले ने मुझे बताया कि वह और उसके कुछ साथी मिलकर हर दिन करीब पांच टन कचरा इकट्ठा करते हैं और उसे रीसाइकल करने के लिए भेजते हैं. आपको मालूम न हो तो जान लीजिए कि दिल्ली हर दिन करीब 8000 टन ठोस कचरा अपने घरों से बाहर ऐसे फेंक देती है जैसे यह आसमान में उड़ जाएगा. वह आसमान में नहीं उड़ता. उसे हम जैसे ही हाड़-मांस वाले कुछ लोग, जो अकल्पनीय रूप से अमानवीय परिस्थितियों में काम करते हैं, अलग-अलग हिस्सों में बांटते हैं. जो रीसाइकल हो सकता है, उसे फैक्ट्ररियों में भेजा जाता है और बाकी को शहर के बाहर फेंक दिया जाता है. इसमें से अधिकतर किसी न किसी रूप में यमुना के हिस्से आता है. 380 करोड़ लीटर द्रव कचरा इससे अलग है, जो हर दिन यमुना में शरण पाता है. अधिकांश दिल्लीवालों की तरह जो यमुना के बारे में जानकर भी नहीं जानते, उन्हें यहां बताते चलें कि यमुना एक नदी थी जिसे देश की राजधानी ने नदी नहीं रहने दिया. वही राजधानी जिसके लोगों को सामान लाने के लिए घर से थैला अपने साथ ले जाना अपनी तौहीन लगती थी, चाहे पॉलीथिन उनकी सांस की राह में ही क्यों न आ रही हो.

हर सुबह किसी पॉश कॉलोनी के किसी घर की मालकिन की मालिश के लिए जाती एक बूढ़ी कुपोषित औरत से लेकर रिक्शावालों, कामवाली बाइयों, धोबियों, प्रेस करने वालों, बिजली मैकेनिक या सड़क किनारे 15-20 रुपये में ‘घर जैसी थाली’ देने वालों तक एक बड़ी आबादी है, जो दिल्ली को चला रही है लेकिन कोई श्रेय नहीं पा रही. छोटे-मोटे काम करने वाले तीन लाख लोग दिल्ली की अर्थव्यवस्था को हर साल 500 करोड़ देते हैं. उनमें से 20 प्रतिशत स्ट्रीट फूड बेचने वाले हैं.

दिल्ली के आधे ट्रैफिक जाम इस वजह से होते हैं कि एक साहब की गाड़ी को दूसरे की गाड़ी छूने वाली ही होती है, हालांकि छूती नहीं. लेकिन ऐसी संभावना भर से उनका खून खौल उठता है

बड़े शहरों की तरह दिल्ली के बारे में भी चलते-फिरते लोग कह देते हैं कि यहां कोई भूखा नहीं सोता, सब अपने लायक काम ढूंढ़ ही लेते हैं. यह अपने आपको सुकून देने वाला कथन हो सकता है. लेकिन कैब में बेल्ट से गला घोंट देने वाले, यूपी-हरियाणा के सीमांत जिलों के युवा अपराधियों से लेकर सुबह-सुबह मोटर साइकिलों और कारों की सफाई करने वालों तक, दिल्ली में आने वाले लोगों ने अपनी क्षमता और शहर की जरूरत के मुताबिक नए-नए काम खोज ही लिए हैं.

ऐसा भी हो सकता है कि किसी शाम आपको कोई फ़ोन करके कहे कि साल के 400 रुपये देने पर उनकी कंपनी आपको एक खास तरह का बीमा देगी जिसमें रात को आपकी गाड़ी पंक्चर होने पर या तेल खत्म होने पर एक फोन कॉल पर उनका मैकेनिक पंद्रह मिनट में पहुंच जाएगा. या फिर आप किसी मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने जाएं तो बाहर आपको एक स्टॉल मिले, जहां आप अपना बैग छोड़कर और फोन चार्जिंग पर लगाकर आराम से फिल्म देख सकते हैं. या किसी शाम आपके दरवाजे पर आपकी रसोई गैस की कंपनी से मिलते जुलते नाम की कंपनी का आईकार्ड लिए कोई युवक दस्तक दे. आप उस पर भरोसा करके अपना सिलेंडर चेक करवाएं और तब वह आपकी अच्छी ट्यूब को दो सौ रुपये लेकर अपनी खराब ट्यूब से बदल जाए. संयोग यह भी हो सकता है कि एक महीने बाद उसी कंपनी के नाम से एक दूसरा लड़का आपके दरवाजे पर दस्तक दे और वही बातें दोहराए. आप ठगी के आरोप में उसे पकड़ लें, पुलिस में देने की धमकी दें तब वह रुआंसा होकर आपको बताए कि वह भी रोहतक रोड की किसी दुमंजिला इमारत में चल रही यह फर्जी कंपनी छोड़ना चाहता है लेकिन उसके पास कोई और काम ही नहीं है. वह दसवीं पास है, अंग्रेजी बोल लेने का उसे आत्मविश्वास है लेकिन लिख नहीं सकता. उसे गोरखपुर के किसी गांव में रह रहे अपने परिवार को पैसे भेजने होते हैं. वह बताता है कि वह तीन हजार रुपये किराये वाले एक कमरे में दो और लड़कों के साथ रहता है. वह ड्राइवरी सीख रहा है और जल्दी ही यह नौकरी छोड़कर आपसे ड्राइवर बनने का वादा करता है. आप भावुक हो जाते हैं. हो सकता है कि उसकी कहानी सच हो लेकिन दिल्ली अक्सर यहीं वार करती है. आप लोगों पर आसानी से भरोसा कर लेते हैं तो हो सकता है कि किसी दिन करोलबाग के एक चौराहे पर आपको मध्य प्रदेश का एक परिवार मिले, जिसमें पति-पत्नी, दो बच्चे और दो भरे हुए सूटकेस हों. वे आपको अपने दिल्ली आने का टिकट दिखाकर कहें कि वे यहां काम के लिए आए थे लेकिन काम तो मिला नहीं और लुट अलग से गए. इतने कि अब उनके पास लौटने के भी पैसे नहीं हैं. वे स्टेशन जाकर अपने गांव भाग जाने के लिए उतावले दिखेंगे और आप उन्हें पचास-सौ रुपये भी दे देंगे लेकिन महीने भर बाद भी किसी दिन वे वहीं आपका रास्ता रोककर अपनी परेशानी दोहराएंगे.

वह परिवार चाहे मध्य प्रदेश का हो या उड़ीसा का, लेकिन दिल्ली के बारे में यह भी कहा जाता है कि यहां सब बाहरवाले हैं और दिल्लीवाला जैसे कोई है ही नहीं. फर्क सिर्फ इतना है कि कौन राजस्थान से 2004 में आया और किसके दादा 1947 में पंजाब से शरणार्थी बनकर आए थे. उससे पुराने दिल्लीवाले अक्सर दिल्ली को भ्रष्ट करने के लिए बाहर के लोगों को जिम्मेदार मानते हैं और दुखी भी रहते हैं. दिल्ली में दिल्ली से बाहर का होना इतना आम है कि दो अनजान लोग पहली बार मिलने पर यह अक्सर पूछते हैं कि आप हैं कहां से. यदि संयोगवश सामने वाला दिल्ली का निकलता है तो थोड़ी निराशा होती है. इसके बाद वह सामने वाला चाह सकता है कि काश वह कहीं और का होता तो अपने ही शहर में इस तरह अल्पसंख्यक न होता.

सड़कें, बाजार, घर और कार

दिल्ली की सड़कों, वाहनों और बाजारों के बारे में बात किए बिना दिल्ली की कोई भी बात पूरी नहीं कही जा सकती. दिल्ली में रोज 38 गाड़ियां चोरी होती हैं और हर रोज करीब 1000 नए वाहन सड़कों पर उतरते हैं. ट्रैफिक नियमों की अनदेखी करने में दिल्ली सबसे बदनाम महानगर है. यह अतिशयोक्ति नहीं है कि दिल्ली के आधे ट्रैफिक जाम इस वजह से होते हैं कि एक साहब की गाड़ी को दूसरे साहब की गाड़ी छूने वाली ही होती है, हालांकि छूती नहीं. लेकिन ऐसी संभावना भर से दोनों का उत्तरभारतीय खून खौल उठता है और वे अपना गालियों का शब्दकोश बीच सड़क में अपनी-अपनी गाड़ियां रोककर कम से कम आधे घंटे तक लुटाते हैं. जब तक एक पक्ष ज्यादा कमजोर न हो, तब तक यह हिंसा शाब्दिक ही रहती है. यह भी शायद बड़ी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि दिल्ली में गाड़ियां बच्चों से भी ज्यादा तेजी से बढ़ती जा रही हैं. इसलिए आधी लड़ाइयां पार्किंग के लिए भी होती हैं. किसी के घर के सामने आपने गाड़ी खड़ी कर दी, यह उसके घर के सामने कचरा डालने से बड़ा अपराध है. इतना बड़ा कि यदि तृतीय विश्वयुद्ध दिल्ली से शुरू हुआ तो वह पार्किंग को लेकर ही होगा. लेकिन जो गाड़ी खरीद सकते हैं वे इस समस्या को समस्या तक नहीं मानते. नतीजा यह होता है कि वे गलियां, जहां लोग थोड़े आराम से गुजर सकते थे, उनकी गाड़ियां घेर लेती हैं और चूंकि गाड़ियां हैं तो इधर-उधर जाएंगी भी, इसलिए शहर की जाने कितनी जमीन पार्किंग बनाने में चली गई है. अब दिल्ली के लिए पार्किंग ज्यादा जरूरी है, इसलिए इसके लिए दर्जनों पार्कों का नामोनिशान मिटा दिया गया है. जो बचे भी हैं उनके छोटे-से क्षेत्रफल में भारी जनसंख्या देखकर विश्वास ही नहीं होता कि जरा-जरा से पौधे कुछ खास काम कर पा रहे होंगे. जगह इतनी ही होती है कि बच्चों को क्रिकेट भी खेलना हो तो यह बहुत मुश्किल है कि दो मैचों की पिचें आपस में टकरा न रही हों. आप दिल्ली सरकार के बड़े-बड़े स्पॉर्ट्स कॉम्प्लेक्सों को देखकर उत्साहित तो हो सकते हैं, लेकिन वहां खेलने की फीस भरना उनके लिए बहुत मुश्किल है जिनके पास कारें नहीं हैं.

दिल्ली के 20 प्रतिशत क्षेत्रफल पर सड़कें हैं और हम या हमारी कारें यह नहीं देखतीं. नई नौकरियां पैदा हो रही हैं और बैंक आपके घर आकर लोन देने को तैयार बैठे हैं. तो किसे पड़ी है कि बसों में धक्के खाए. कारें, ऑटो रिक्शा और दुपहिया वाहन दिल्ली के ट्रैफिक का 90 प्रतिशत हैं और 15 प्रतिशत लोग उनसे फायदा पाते हैं, जबकि बसें 2-2.5 प्रतिशत जगह लेती हैं और 60 प्रतिशत लोगों के काम आती हैं. इसके बावजूद दिल्ली की नैतिक शिक्षा में ऐसा कोई पाठ नहीं जो पब्लिक ट्रांसपोर्ट का ज्यादा इस्तेमाल करने की शिक्षा दे. और तो और, बीआरटी जैसा सिस्टम, जिसमें बसों के लिए अलग कॉरीडोर की व्यवस्था की गई है और उससे उनकी गति पर भी काफी फर्क पड़ा है, उसे भी मीडिया के विरोध का सामना करना पड़ा क्योंकि यह कारों में सफर कर रहे उसके शक्तिशाली हिस्से को नुकसान पहुंचा रहा था. दिल्ली के नक्शे की तरह दिल्ली की सड़कें भी लोकतांत्रिक होने को तैयार नहीं हैं.

चूंकि दिल्ली पुलिस उन्हें बरसों से सावधान करती रही है कि कोई भी नौकर या किराएदार आतंकवादी हो सकता है, इसलिए कई आपको आतंकवादी मानकर ही बात शुरू करते हैं

मेट्रो के आने का भी दिल्ली के गरीब को कोई खास फायदा नहीं हुआ क्योंकि उसकी जेब उसे उसमें चढ़ने की इजाजत नहीं देती. माना कि हर साल नए फ्लाईओवर बन रहे हैं लेकिन ऐसी कम ही जगहें हैं जहां इनसे ट्रैफिक कुछ आसान हुआ हो. फ्लाईओवरों ने रिंग रोड को सिगनल फ्री तो बना दिया है लेकिन रुकावट फ्री नहीं. नतीजा यह कि दिल्ली के ज्यादातर लोग जब एक मुश्किल सफर करके शाम को अपने घर लौटते हैं तो ऐसा लगता है जैसे युद्ध हारकर आए हों.

घरों की बात आई है तो यह कहावत भी महत्वपूर्ण है कि दिल्ली में आपको भगवान मिल सकता है लेकिन आप घर में आंगन मांग रहे हैं तो आप पिछड़े हुए कस्बाई तो हैं ही, बहुत डिमांडिंग भी हैं. आप यह बात किसी प्रॉपर्टी डीलर को कहिए तो सबसे पहले उसके चेहरे पर हंसी आएगी और फिर उसके दिमाग में यह बात कि आप नए-नए बाहर से आए हैं इसलिए आपके साथ ज्यादा लूटने वाली रस्म निभाई जाए.

प्रॉपर्टी डीलर से याद आया कि दिल्लीवालों का पहला प्रिय व्यवसाय मकान-मालिकी है और दूसरा, प्रॉपर्टी डीलर बनना. आपका अपना घर है तो उसे किराए पर देकर आप मजे की जिंदगी जी सकते हैं और नहीं है, तब आप ‘सेल पर्चेज रेंट’ का बोर्ड लगाकर उन दुकानों में शामिल हो सकते हैं जो दिल्ली के हर इलाके में इफरात में मिलती हैं. आप किराए का मकान तलाशते हुए उनसे पहली बार मिलेंगे तो यह एक अविस्मरणीय अनुभव होगा. आप उन्हें अपने खर्च का स्तर बताएंगे तो वे अपने पंजाबी या हरियाणवी लहजे में यह जरूर कहेंगे कि इससे एक हजार ज्यादा से ही थोड़े ठीक-ठाक घर मिलने शुरू होंगे. वे आपको आपकी तंगहाली के लिए हिकारत से देखेंगे और आप अपने आप ही अपने खर्च का स्तर बढ़ा लेंगे. लेकिन दिल्ली के कई मकान मालिक भी इन मध्यस्थों से कम नहीं हैं. चूंकि दिल्ली पुलिस उन्हें बरसों से सावधान करती रही है कि कोई भी नौकर या किराएदार आतंकवादी हो सकता है, इसलिए उनमें से कई पहली नजर में आपको आतंकवादी मानकर ही बातचीत शुरू करते हैं. मकानों के किराए तेजी से बढ़ने से ऐसा एक मकान-मालिक-वर्ग बना है जिसका पारिवारिक व्यवसाय ही मकान किराए पर देना है.

वैसे तो पैदल चलने वालों के लिए दिल्ली की सड़कें ही मौत के कुएं की तरह हैं क्योंकि ज्यादातर जगह उनके और साइकिल वालों के लिए कोई अलग लेन ही नहीं है और जहां है भी वहां जल्दबाज मोटरसाइकिल वाले उन्हें नहीं बख्शते. आप ऊपर तक लदे हुए किसी रिक्शे के मालिक को किसी चौराहे को पार करते देखेंगे तो शायद समझेंगे कि वह सही-सलामत अपने घर पहुंचता होगा तो इसी भर से उसे कितनी तसल्ली होती होगी. लेकिन पार करना तो दूर, सड़क पर चलते हुए किसी से रास्ता पूछना भी नुकसानदायक हो सकता है. अगर कोई रास्ता नहीं जानता होगा तो यह उसे अपने अपमान की तरह लगेगा और अपमान इस शहर में किसी को बर्दाश्त नहीं है, इसलिए वह आपको पूरे आत्मविश्वास से किसी न किसी दिशा में जरूर भेज देगा. हां, ऑटोवाले रास्ता हमेशा सही बताएंगे.

दिल्ली के आधे ऑटोरिक्शों के पीछे ‘डैडी कोच’ या ‘मेरा भारत महान’ लिखा होता है और बाकी आधे शिव खेड़ा की कोई ‘जागो भारत जागो’ शैली की पंक्तियां लिखे रखते हैं. फिर भी वे बदनाम हैं. दूसरे शहरों से आने वाले लोगों को उनके अनुभवी शुभचिंतक यह जरूर कहकर भेजते हैं कि दिल्ली के ऑटोवालों से सावधान रहना, वे दोनों तरह से लूट सकते हैं – कंपनियों की शैली में चार किलोमीटर को बीस बताकर और डाकुओं की शैली में चाकू दिखाकर भी. हालांकि यह कोई नहीं बताता कि उनका एक बड़ा वर्ग रात को अपने ऑटो में ही सोता है. आप किसी आधी रात दरियागंज की सड़क पर पहुंचिए तो कतार में रिक्शों पर सो रहे रिक्शावाले आपको दिल्ली की मुझसे कहीं बेहतर परिभाषा बताएंगे. सरकार बेघरों के लिए कोई इंतजाम नहीं कर पाती, इसलिए जामा मस्जिद के आसपास एक नया इंतजाम कुछ लोगों ने किया है. वे एक रात के लिए 10 रुपये में रजाई देते हैं और 10 और रुपये में सोने को चटाई भी. पूरी कमाई में से एक हिस्सा पुलिस को भी जाता है, जो इस हिस्से के बाद उनकी नींद को लाठियों से नहीं तोड़ती.

यहां छोटे शहरों की तरह यह नहीं होगा कि आप दुकानदार को काम के न लगें, तब भी वह आपको दो मिनट बैठने दे. यहां आप सामान लेकर पैसे देते ही भूतपूर्व ग्राहक हो चुके होते हैं

फिर भी उनकी नींद और जागने से बेखबर दिल्ली में मॉल वैसे ही उल्लास से बन रहे हैं जैसे 80 के दशक में चाणक्य सिनेमा कॉम्प्लेक्स में निरूला का फास्ट फूड आउटलेट था- वहां आने वाले खास लोगों के लिए मस्ती की जगह. मॉल भी बाजार से ज्यादा, लोगों के मिलने की जगह बन गए हैं. लड़के-लड़कियों के लिए डेट पर जाने की और कुछ गर्मी के मारों के लिए ठंडी हवा खाने की भी. दिल्ली में मध्य वर्ग और उच्च वर्ग के लिए वह समय लगभग जा चुका है जब मिलना किसी एक पक्ष के घर में होता था. अब मिलने के लिए मॉल या बरिस्ता हैं.

मॉल के अलावा दिल्ली में कई तरह की दुकानें, दुकानदार और बाजार मिलेंगे. दिल्ली हाट, प्रगति मैदान और जनपथ की प्रादेशिक हस्तकला की दुकानों के बारे में तो आपको स्कूल की किताबें या पर्यटन विभाग ही बहुत कुछ बता देगा और मॉल- मल्टीप्लेक्स के बारे में हिंदी फिल्में, लेकिन वे आपको सरोजिनी नगर, लाजपत नगर, चांदनी चौक और कमला नगर के भीड़ भरे बाजारों या ग्रेटर कैलाश और साउथ एक्सटेंशन जैसे इलाकों के रईस बाजारों के बारे में उतना नहीं बता पाएंगे. नए बाजार कम्युनिटी सेंटर भी कहलाते हैं. ऐसे सामुदायिक केंद्र जहां कोई समुदाय नहीं दिखता. इसी तरह अनजान लोग जान लें कि मुनीरका या ढाका गांव, गांव नहीं हैं.

वैसे महंगे बाजारों और सस्ते बाजारों में एक मूल अंतर यह भी है कि महंगे बाजार पैसे ज्यादा लेंगे और इज्जत भी ज्यादा देंगे. सस्ते बाजार पैसे कम लेंगे और इज्जत भी कम देंगे. यहां छोटे शहरों की तरह यह नहीं होगा कि आप दुकानदार को अपने काम के न लगें, तब भी वह आपको दो मिनट बैठने दे. यहां आप सामान लेकर पैसे देते ही भूतपूर्व ग्राहक हो चुके होते हैं और दुकान की सामने की दीवार पर लगा ‘फैशन के दौर में गारंटी की इच्छा न करें’ या ‘बिका हुआ सामान वापस नहीं होगा’ का बोर्ड आपके लिए ही होता है. ‘आप कौन हैं’ का एक अदृश्य बोर्ड भी.
खैर, मान लेते हैं कि सरोजिनी नगर या पहाड़गंज के बारे में कोई बता भी दे, लेकिन कोई आपको लाल किले के पीछे के उस कबाड़ी बाजार के बारे में नहीं बताएगा जहां अमीरों के फेंके हुए सामान में से काम के सामान छांटकर या उनको काम का बनाकर बेचा जाता था- मुख्यत: जूते, कोट, जैकेट, सजावट की चीजें. उसे हटवा दिया गया ताकि वहां साफ-सुथरा पार्क रह सके. सालों बाद उन्हें एक श्मशान के पास छोटी-सी जगह दी गई. वहां इतनी दुर्गंध है कि ग्राहक आते नहीं और दुकानदारों की सांसें कम होती जा रही हैं.

यही हाल महरौली, चांदनी चौक और बाबा खड़ग सिंह मार्ग के फूलों के तीनों बड़े बाजारों का है, जिन्हें पूर्वी दिल्ली के गाजीपुर में ले जाने की योजना है (चिकन और मछली के बड़े बाजार के लिए मशहूर). जबकि वे पार्किंग की जगह का रात में इस्तेमाल करते हैं और सुबह नौ बजे बंद हो जाते हैं.
दिल्ली को ‘विश्वस्तरीय’ बनाने के लिए कई बाजारों का रूप ही बिल्कुल बदल दिया गया है और वहां अब कुछ खरीद पाना उनके पुराने ग्राहकों के सपनों के भी बाहर की चीज है. ऐसा ही खान मार्केट के साथ हुआ है. जो लोग वहां से किताबें खरीदते थे, चाट खाते थे या दांत के डॉक्टर के पास जाते थे, अब वह उनके लिए बंद सा ही है. खाने के लिए उनके पास हल्दीराम या बीकानेरवाला जैसे विकल्प ही हैं और कुछ खरीदना चाहें तो 70,000 रुपये में एक कुत्ता जरूर खरीद सकते हैं.

महिलाएं अपनी सुरक्षा की खुद जिम्मेदार हैं

जिस राज्य की विधानसभा के 70 सदस्यों में से केवल तीन महिलाएं हों, जिसकी पुलिस में सात प्रतिशत महिलाएं हों, जहां हर हज़ार आदमियों पर औरतें केवल 821 हों, देश के महानगरों में होने वाले हर तीन बलात्कारों में से एक बलात्कार जिस शहर में होता हो, उसे शहर भी कहना एक तरह से वहां की औरतों का अपमान करना ही है.

मान लीजिए कि आप दिल्ली की आम औरत हैं और आप कुछ ज्यादा नहीं मांगतीं. बस इतना ही कि आप अपने काम पर जाएं तो बस में चढ़ते हुए और सफर करते हुए डरी न रहें, किसी ठेले पर अकेली खड़ी होकर भी बेपरवाही से खा सकें, कहीं-कहीं ही सही लेकिन एक साफ-सुथरा टॉयलेट मिल जाए और कहीं भी व्यस्त हों तो अंधेरा होते ही घर भागने की जल्दी न करनी पड़े. क्या कहा? आप इतना कुछ मांग रही हैं? आप आखिर खुद को समझती क्या हैं? माफ कीजिए मैडम लेकिन यह शहर आपको इनमें से एक भी नहीं दे सकता. यह शहर आपको भीड़ भरी वे बसें जरूर दे सकता है जिनमें कोई भी मर्द आपको कभी भी, कहीं भी छू सके और आप अपने आप में और सिमटती जाएं. यह शहर आपको सड़क पर अकेले खड़े होने की अनुमति भी तब दे सकता है जब आपमें इतनी हिम्मत हो कि गुजरने वाली लगभग हर कार के आपके पास आने पर धीमा होने को आप बर्दाश्त कर सकें और उसमें से फेंके जाने वाले ऐसे किसी वाक्य को भी जिसका लगभग अर्थ यह होगा कि आप कितने पैसे लेंगी. और आप अपने लिए पब्लिक टॉयलेट चाहती हैं तो इतना कर दिया गया है कि हर 100 टॉयलेट में से चार औरतों के लिए भी हैं. अब आपको नहीं लगता कि उन्हें साफ मांगना कुछ ज्यादा है? और जो आखिरी बात आपने कही है कि आप चाहती हैं कि अँधेरा होने पर भी घर से बाहर रह सकें और यह शहर आपकी सुरक्षा की गारंटी ले तो यह शहर इस पर हंसने के अलावा कुछ और नहीं कर सकता. क्या आपने सौम्या विश्वनाथन और जिगिशा घोष के बारे में नहीं सुना, जो एक ऐसी ही रात अपने काम से घर लौटना चाह रही थीं लेकिन कभी लौट नहीं सकीं? क्या आप रोज सुबह टीवी पर पिछली रात हुए बलात्कारों के बारे में नहीं सुनतीं? क्या आप दिन में भी भीड़ भरे बाजारों से अकेली निश्चिंत होकर गुजर सकती हैं? क्या ऐसा एक भी दिन बीता है जब आपने सड़क पर एक भी फिकरा न सुना हो, कोई अनचाही छुअन न झेली हो?

दिल्ली की किसी सड़क पर किसी अकेली लड़की या औरत का किसी के इंतजार में खड़ा होना ही उसे पुरुष राहगीरों के लिए वेश्या के समकक्ष ला खड़ा कर सकता है

जैसा हमने कहा, दिल्ली की किसी सड़क पर किसी अकेली लड़की या औरत का किसी के इंतजार में खड़ा होना ही उसे पुरुष राहगीरों के लिए वेश्या के समकक्ष ला खड़ा कर सकता है. इसलिए वे बस में न भी जाने वाली हों, तब भी बस स्टॉप पर ही किसी का इंतजार करती हैं. आप उन्हें समूह में तो किसी पार्क में बैठा फिर भी देख लेंगे, लेकिन अकेले नहीं. यह सब आम कामकाजी लड़कियों-औरतों के लिए है, जिन्हें बचपन से ही सिखाया गया है कि सड़क पर चलते हुए अपने आसपास ध्यान रखो, हर आदमी को शक से देखो, तेज चलो, सुरक्षा के लिए कुछ साथ रखो. लेकिन आप थोड़ी संपन्न हैं और आपको बस स्टॉप पर खड़े होने और बस में जाने की जरूरत नहीं है तो जीवन थोड़ा आसान जरूर हो जाता है. तब आप किसी कॉफी शॉप या मॉल में बैठ सकती हैं और अपनी कार में थोड़ी देर से भी लौट सकती हैं, लेकिन तब भी आपको याद रहेगा कि सौम्या विश्वनाथन भी अपनी कार से ही लौट रही थीं.

आप कुछ अलग हैं या गरीब हैं तो आपके लिए खतरा कई गुना बढ़ जाता है. उत्तर-पूर्व की बहुत सारी लड़कियां, जिन्हें चिंकी कहकर पुकारा जाता है, दिल्ली में पढ़ती या काम करती हैं और अपने चेहरे और स्टाइल के कारण अलग से पहचान में आती हैं. उन्हें दिल्ली के शिकारी पुरुष आसान शिकार मानते हैं.

दिल्ली की एक बड़ी आबादी शौच के लिए बाहर जाती है और निश्चित रूप से उसमें औरतें भी हैं. तो जो दिल्ली बस में शालीनता से बैठी औरत को नहीं बख्शती वह उस कमजोर औरत के साथ क्या-क्या कर सकती है, यह आप सोच सकते हैं? दिल्ली की जो बेघर आबादी है उसमें से 10 प्रतिशत औरतें हैं (यमुना पुस्ता में इन महिलाओं के लिए जो दिल्ली की इकलौती शरणगाह थी वह 2007 में बंद कर दी गई) और उन्हें भी नींद आती है, इसलिए वे हर रात खुले में सोती हैं, तब दिल्ली उनके साथ कैसा सुलूक करती होगी, यह ठीक से बताना मुश्किल है. इतना जरूर कहा जा सकता है कि बिना मर्द के इस तरह शहर के जंगल में रहना उनके लिए असंभव हो जाता है और इसलिए वे किसी पुरुष की छत्रछाया में जाती हैं. वह उनके शरीर और आत्मा को छीलकर और गोद में बच्चा थमाकर गायब हो जाता है. फिर वे नया पुरुष ढूंढ़ती हैं और फिर खोती हैं क्योंकि एक जानवर का शिकार बनना कई जानवरों का शिकार बनने से हमेशा बेहतर विकल्प है.

न जाने कितने लड़के-लड़कियां हर रोज दिल्ली आते हैं, यह सोचकर कि उन कस्बों-गांवों में कभी नहीं लौटेंगे जहां अवसरों के नाम पर शादी या एक पैतृक दुकान थीमगर आशावादी लोगों की मानें तो कुछ मुश्किलें कम भी हुई हैं. मेट्रो ने महिलाओं के लिए अलग डिब्बा आरक्षित करके कम से कम उनके सफर को तो काफी बेहतर किया है. बाकी चीजें सुधर नहीं रहीं या कम से कम सुधरती दिख तो नहीं रहीं. इसी साल जब सारी दुनिया महिला दिवस मना रही थी, धौलाकुआं के पास एक भीड़ भरे पुल पर चल रही 20 साल की राधिका तंवर को एक लड़के ने गोली मार दी और गायब हो गया, जैसे लड़कियों के सब हत्यारे गायब हो जाते हैं. जैसे एक समय तक जेसिका लाल को किसी ने नहीं मारा था, जैसे आरुषि तलवार को किसी ने नहीं मारा.
लेकिन फिर भी आप गौर कीजिए कि वे इस इंतजार में घर नहीं बैठीं कि आप उनके लिए बेहतर शहर बनाएंगे. ऐसी एक भी जगह नहीं है, जहां किसी डर से दिल्ली की औरतों ने जाना छोड़ दिया हो. हर सुबह वे उसी उत्साह से इस शहर की सड़कों पर निकलती हैं, अपने स्कूल-कॉलेज, सिनेमाघरों, डिस्को और दफ्तरों को जाती हुई, मौका मिलते ही छू लेने वालों को कभी-कभी मां-बहन की जबरदस्त गालियाँ देती हुईं, काम ढूंढ़ती और पाती हुई, उन क्षेत्रों में घुसती हुई जिन्हें पुरुष अपनी बपौती समझते थे, साइकिलों पर काम पर जाती हुई क्योंकि आप बसों में उन्हें आसानी से नहीं जाने देते. सड़क पर अपने कानों पर ईयरफोन लगाए जैसे वे पूरे समाज पर थूकती हुई, जिसे वे सुनना भी नहीं चाहतीं.

सपनों की दिल्ली

हो सकता है कि फलां-फलां किताब या अखबार आपको यह बताएं कि हर दिन मुंबई में कितने हजार लोग ऐक्टर बनने आते हैं इसलिए वह सपनों का शहर है या फिर मायानगरी, लेकिन कोई आपको दिल्ली के बारे में ऐसा आंकड़ा नहीं बताता. जबकि पूरे उत्तर भारत से न जाने कितने लड़के-लड़कियां हर रोज दिल्ली आते हैं, यह सोचकर कि उन कस्बों-गांवों में कभी नहीं लौटेंगे जहां अवसरों के नाम पर शादी या एक पैतृक दुकान थी. वे दिल्ली में पढ़ने आते हैं और साहब, पढ़ना किसी का उद्देश्य नहीं होता, वह बस एक जरिया होता है, कुछ बन जाने का या उन विद्यार्थियों की भाषा में कहें तो वे कुछ न कुछ फोड़ने दिल्ली में आते हैं. हर दिन जब वे मेट्रो में खड़े होकर किसी कोचिंग इंस्टीट्यूट या अपने कॉलेज जा रहे होते हैं और पचास बार सुनते हैं कि ‘सहयात्रियों को धक्का न दें’ तो उनका एक ही सपना होता है कि वे इन सब सहयात्रियों को धक्का देकर किसी सबसे ऊंची मीनार पर पहुंच जाएं. हालांकि आप बहुत-से समय उन्हें मोमबत्ती लेकर इंडिया गेट पर बैठे देखते होंगे क्योंकि एक तो यह लेटेस्ट फैशन है जिसे अन्ना के आंदोलन ने और भी उत्साह दे दिया है और दूसरा, दिल्ली में हर दिन कोई न कोई ऐसा बेकसूर मारा ही जाता है जिसे न्याय देने को कोई तैयार नहीं होता. आपमें से कुछ लोग उन्हें प्रकाश की गति से भी तेज गति से देश भर में पहुंचने वाले एमएमएस स्कैंडलों में भी देखते होंगे और हो सकता है कि यह भी सोच लेते हों कि ये सब लड़के-लड़कियां यही करते हैं. लेकिन ऐसा है नहीं. न वे सब दिन भर मोमबत्ती जलाकर आंदोलन करते हैं, न एमएमएस बनाते हैं और न ही पालिका बाजार की तथाकथित जन्नत के चक्कर लगाते हैं. जब एडमिशन के दिनों में सब न्यूज चैनल और अखबार दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों की मेरिट लिस्ट की ऊंचाई बताते हैं तो आप समझ सकते हैं कि दिल्ली में सपनों के स्कूल या कॉलेज में पढ़ना क्या चीज है! आपको दिल्ली के मध्यवर्गीय माता-पिता इस बात पर हमेशा उदास दिखेंगे कि फलां स्कूल में उनके बच्चे का नर्सरी में एडमिशन नहीं हो पाया और वे चाह रहे होंगे कि आप इसी को दिल्ली की सबसे बड़ी समस्या मानें. यह बात और है कि वे अपने बच्चों को दिल्ली सरकार के उन स्कूलों में कभी नहीं पढ़ाना चाहेंगे जिनमें भी पढ़ना एक बड़े वर्ग के लिए सौभाग्य जैसा है.

जैसे दिल्ली का एक हिस्सा देश के सब बड़े नेताओं की मौजूदगी के कारण भ्रष्ट व्यक्तियों के घनत्व में देश में पहले स्थान पर है, उसी तरह दिल्ली के कई हिस्सों का बुद्धि घनत्व अकल्पनीय है. आधिकारिक रूप से वे हिस्से आईआईटी, एम्स या जेएनयू हो सकते हैं लेकिन अनाधिकारिक रूप से वे बेर सराय, जिया सराय या मुखर्जी नगर जैसी जगहें हैं, जहां पहुंचकर आप एक अलग समय में दाखिल होंगे. ऐसे लोगों के बीच जिनकी जीवनशैली को आपको प्रेरित करना चाहिए था, लेकिन अब वह डराती ज्यादा है.

जैसे दिल्ली का एक हिस्सा देश के सब बड़े नेताओं की मौजूदगी के कारण भ्रष्ट व्यक्तियों के घनत्व में पहले स्थान पर है, उसी तरह दिल्ली के कई हिस्सों का बुद्धि घनत्व अकल्पनीय है

बाहर से इन इलाकों का विकास कमोबेश बाकी औसत दिल्ली जैसा ही है, लेकिन आप उनकी तंगतम गलियों के घरों में कतार में बने उन कमरों में जाइए जिनका आकार 6 बाई 8 से ज्यादा नहीं होगा और जिनमें आमने-सामने बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान या उड़ीसा से आए दो जुनूनी लड़कों के पलंग बिछे होंगे, जो सिविल सर्विस की परीक्षा या ऐसा ही कुछ बड़ा मटका फोड़ने आए हैं. कमरे में बाकी जितनी जगह बची होगी उसमें से अधिकतम जगह में किताबें, अखबार और पत्रिकाएं होंगी. आप उनसे बात करेंगे तो पाएंगे कि पौराणिक कथाओं से बाहर कहीं तपस्या होती होगी तो लगभग ऐसी ही होती होगी. सामान्य अध्ययन को पढ़ते-पढ़ते वे सामान्य दुनिया को भुलाए हुए मिलेंगे. कितने ही ऐसे लड़के जो तीन-चार साल से अपने घर तक नहीं गए, जिन्हें यह तो पता है कि कमरे से बाहर निकलकर बाईं तरफ को जाने वाली सड़क उनकी कोचिंग तक जाएगी, लेकिन दाईं तरफ का उन्हें बिल्कुल अंदाजा नहीं. उनमें जो जितना पुराना होगा (मतलब जितनी बार असफल हो चुका होगा), बहुत संभावना है कि वह उतना ही हताश मिलेगा और आत्मघाती रूप से अपने जीवन के बाकी अधिकांश विकल्प खत्म कर चुका होगा. उसकी हताशा बारहवीं पास करके मेडिकल या इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहे छात्र से बहुत गहरी होगी क्योंकि उसकी उम्र 26 साल है और जब भी वह घर से पैसे मांगता है, उसे बुरा लगता है. उसके आसपास अपना कोई कैंपस भी नहीं है, न उसका कोई ढाबा या कैंटीन, जहां वह अपने हमउम्र दिल्लीवालों की तरह मस्ती कर सके. वह तीन-चार साल से घर नहीं गया और न ही दिल्ली का हो सका. उसकी भाषा ही यह बात आपको बता देगी. उसकी मेज के ऊपर जो टाइमटेबल लगा होगा वह बता रहा होगा कि सुबह सात से 12 तक डेढ़ घंटे के ब्रेक के अलावा उसे खुद से पढ़ना है या ऐसे किसी टीचर की क्लास में जाना हो जो खुद इस जंग को कई बार हार चुका है लेकिन इसी चक्कर में उसने जीतने का कोई सूत्र पा लिया है.

कुछ दूसरी तरह से जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय आपको पूरी दिल्ली या पूरे देश से अलग समय और संस्कृति में ले जाएगा. यह अपनी बौद्धिक बहसों की संस्कृति के कारण देश के बाकी संस्थानों से अलग है. इतना अलग कि इसके अंदर और बाहर के कुछ लोगों का तो यह भी मानना है कि जेएनयू असल में एक द्वीप है और मार्क्स का यूटोपियन समाज अगर दुनिया में कहीं है तो वह यहीं है. इसी तरह कुछ दूर आईआईटी का लगभग उतने ही आईक्यू वाला समाज है, लेकिन उसके जीवन में अपने बाहर के समाज के बारे में ऐसी बहसों के लिए कोई समय नहीं है.  
जो भी हो, दिल्ली की अच्छी बात यह है कि आप चाहे कितने भी कट्टर हों, कितने भी उदार, कितने भी आत्मकेन्द्रित हों, कितने भी सामाजिक चिंतक, यह आपको आपके जैसे कुछ साथी जरूर देगी और कभी-कभी अपनी बात कहने के मौके भी. जब कुछ नहीं देगी तो सपने पालने का हौसला तो देगी ही, चाहे सोने के लिए छत न दे सके. (दिल्ली से प्यार करने वाले अनेक शोधकर्ताओं को आभार सहित)

अपशब्दों का सत्र

अंग्रेजी लेखक जॉन लिली ने कहा था कि प्रेम और युद्ध में सब जायज है. करीब पांच सदी पहले जब उन्होंने इस कहावत की शुरुआत की तब उनके लिए ये दोनों शब्द ठीक अपने मूल अर्थ में ही थे. राजनीति तब आज के स्वरूप में नहीं थी. यदि होती तो निश्चित है कि लिली प्रेम के साथ राजनीति की बात कर रहे होते और तब उनके जेहन में कहीं-न-कहीं भारतीय राजनीति जरूर होती. फिलहाल हम बात कर रहे हैं मध्य प्रदेश विधानसभा के हाल ही में संपन्न हुए शीतकालीन सत्र की. पूरे भारत में प्रदेश की विधानसभा उन गिनी-चुनी लोकतांत्रिक संस्थाओं में से है जहां संसदीय मर्यादाएं तोड़ने की परंपरा हाल के महीनों तक नहीं देखी गई थी, लेकिन ताजा शीतकालीन सत्र की कार्रवाई कुछ इस तर्ज पर चली है कि शायद अगली बार यहां जूते-चप्पल भी चलें तो किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए.

दस दिन चला विधानसभा का शीतकालीन सत्र इस मायने में ऐतिहासिक साबित होने जा रहा था कि भाजपा के पिछले आठ साल के कार्यकाल में पहली बार कांग्रेस अविश्वास प्रस्ताव लाई थी. 2003 में दिग्विजय सिंह सरकार के सत्ता से बाहर होने के बाद से लेकर अब तक कांग्रेस की विपक्ष के रूप में भूमिका लगभग दयनीय ही रही है. हालांकि कुछ समय पहले पार्टी में हुए नेतृत्व परिवर्तन के बाद से ऐसी संभावनाएं दिखने लगी थीं कि शायद कांग्रेस अपनी मरणासन्न हालत से उबर जाए. कांतिलाल भूरिया को पार्टी अध्यक्ष और अजय सिंह (स्व. अर्जुन सिंह के बेटे) को प्रतिपक्ष का नेता बनवाकर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह कृष्ण की भूमिका में आ गए थे. ऐसे में भूरिया के साथ अजय सिंह के सामने यह विधानसभा सत्र खुद को स्थापित करने के साथ ही भाजपा सरकार को घेरने का सबसे अच्छा मौका था. दूसरी तरफ पिछले दिनों कई विधानसभा उपचुनावों में कांग्रेस को पटखनी देने वाली भाजपा के लिए जीत से जुड़ा उन्माद छिटकने और भ्रष्टाचार के मसलों पर खुद की छवि पाक-साफ बताने का अवसर था. लेकिन पूरे सत्र के दौरान प्रदेश के विधायकों ने जिस तरह जरूरी मसलों से इतर एक-दूसरे की मां, भाई, बहन और सगे संबंधियों से जुड़ी अमर्यादित बातें कीं उसने साबित कर दिया कि उनके लिए विधानसभा सत्र सामूहिक गाली-गलौज के एक सरकारी आयोजन से ज्यादा कुछ नहीं था. यहां हम विधानसभा के शीतकालीन सत्र में हुई ऐसी ही घटनाओं की बानगी दे रहे हैं.

अविश्वास प्रस्ताव पर लगातार चार दिन तक 25 घंटे 20 मिनट तक चली चर्चा की शुरुआत सदन में प्रतिपक्ष के नेता अजय सिंह ने की. प्रतिपक्ष के नेता के रूप में सदन में उनका यह पहला भाषण था. अपने भाषण की शुरुआत उन्होंने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की उन कथित अच्छाइयों से की जो उनके मुताबिक शिवराज में अब नहीं रहीं. इस समय तक सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था. लेकिन शायद यह तूफान आने के पहले की शांति थी. थोड़े समय बाद ही प्रतिपक्ष के नेता ने अपनी सीट पर रखे फाइलों के उस पुलिंदे में से एक-एक कर फाइलें निकालनी शुरू की और उस पर बोलना आरंभ किया. अजय सिंह ने कथित तथ्यों (जिन्हें भाजपा गलत मानती है) के आधार पर भाजपा सरकार के कथित तौर पर भ्रष्ट मंत्रियों पर हमला शुरू कर दिया.  सरकार विपक्ष के हमले से चिंतित तो थी ही कि एकाएक अपने एक वाक्य से अजय सिंह ने सरकार के मुखिया शिवराज सिंह चौहान को परेशान कर दिया और सदन में सन्नाटा फैला दिया.

भ्रष्टाचार के एक मामले का उल्लेख करते हुए प्रतिपक्ष के नेता ने एक शख्स का उल्लेख करते हुए कहा कि मैं जिस आदमी की बात कर रहा हूं उसे भले ही सदन न जानता हो लेकिन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान उसे बहुत अच्छी तरह जानते हैं. क्योंकि वे शिवराज सिंह के भाई हैं. यहां तक तो ठीक था लेकिन भरे सदन में अजय सिंह ने इसके बाद जो कहा उसने मुख्यमंत्री के चेहरे को पीड़ा और दुख की अनगिनत रेखाओं से पाट दिया. अजय ने कहा, ‘ मैं जिस भाई की बात कर रहा हूं वह मुख्यमंत्री जी की दूसरी मां के पुत्र हैं.’ अभी तक प्रदेश में इस तथ्य से बहुत कम लोग परिचित थे. शिवराज सिंह ने भी कल्पना नहीं कि थी कि राजनीति की इस लड़ाई में बात यहां तक पहुंच जाएगी. भाजपा के विधायकों ने मुख्यमंत्री की पीड़ा को भांप लिया और फिर विपक्ष पर हमला करने की अपनी नई रणनीति तय की जिसने आने वाले दिनों में चर्चा का स्तर इतना गिरा दिया कि हर दूसरी लाइन पर स्पीकर को ‘ इसे विलोपित कर दें ‘ बोलना पड़ता था.

चर्चा जब गाली-गलौज में बदल गई तो कांग्रेस की एक विधायक लोकायुक्त की एक फर्जी तस्वीर सदन में लहराने लगीं

अजय सिंह के भाषण के बाद दूसरे दिन प्रदेश के उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने सरकार पर हमले का जवाब देना शुरू किया और इसी कड़ी में मामला उस प्रसंग पर पहुंचा जिसमें अजय सिंह ने मुख्यमंत्री की मां का जिक्र किया था. नहले पर दहले की तर्ज मिलाते हुए उनका कहना था, ‘हमें भी पता है कि आपकी (अजय सिंह) अपनी मां के साथ संबंध कैसे हैं, अपने पिता के साथ संबंध कैसे थे, बहन और भाई के साथ कैसे हैं लेकिन हमने आज तक इस बारे में एक शब्द नहीं बोला क्योंकि हमें सदन की गरिमा का ध्यान है…’ सत्ता पक्ष के साथ ही विपक्ष के लोग भी सदन की गरिमा और नेताओं के आचरण और भाषा में आ रही गिरावट संबंधी कैलाश विजयवर्गीय के भाषण को बड़ी गंभीरता से सुन ही रहे थे कि अचानक वे बोल पड़े, ‘हमें भी पता है कि आपका बेटा (फिल्म अभिनेता अरुणोदय सिंह) मुंबई में जाकर चूमाचाटी कर रहा है.’

कैलाश के इतना बोलते ही कांग्रेसी विधायक अपने शब्दों और हाव-भाव से उन पर टूट पड़े. पूरा सदन कांग्रेसी और भाजपा विधायकों के शोर में डूब गया. विधानसभा स्पीकर ईश्वरदास रोहाणी ने बीच-बचाव करते हुए इस वक्तव्य को विलोपित करने का आदेश दिया. लेकिन प्रतिपक्ष के नेता अजय सिंह इससे सहमत नहीं हुए. कांग्रेसी विधायकों ने मांग की कि इस लाइन को रिकॉर्ड में रहने दिया जाए जिससे आने वाली पीढि़यों को पता चले कि संस्कृति का भाषण देने वाले कैलाश की सांस्कृतिक समझ कैसी है.
कैलाश के अलावा एक अन्य भाजपा विधायक ने भी अजय सिंह के पूरे परिवार को घेरा. सदन में जहां अजय सिंह के परिवार की कथित तौर पर अवैध भूमि चर्चा का विषय रही वहीं उनके दादा जी से लेकर उनके पिता अर्जुन सिंह तथा चाचा एवं अन्य रिश्तेदार भी सदन में चर्चा में रहे. ऐसी परंपरा है कि जो व्यक्ति सदन में अपना पक्ष रखने के लिए उपस्थित न हों या फिर इस दुनिया में ही ना हो उस पर आरोप न लगाए जाएं लेकिन इसके बाद भी प्रतिपक्ष के नेता के सगे-संबंधी सत्तापक्ष की तरफ से निशाना बनते रहे. जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा वैसे-वैसे सदन की पूरी कार्यवाही अश्लील और आपत्तिजनक होती चली गई. सदन में एक ऐसा वाकया भी सामने आया जिसमें बहुजन समाज पार्टी के एक विधायक कांग्रेस की विधायक इमरती देवी को जातिसूचक शब्द कहने और गाली देने से नहीं चूके. वहीं सदन के सबसे वरिष्ठ सदस्यों में से एक पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर को भी कई बार अपमान का घूंट पीना पड़ा.

भोपाल से कांग्रेस के एकमात्र विधायक आरिफ अकील ने न केवल पूर्व मुख्यमंत्री के चरित्र को लेकर टिप्पणी की बल्कि इसके साथ ही वे एक फोटो सदन में लहराते दिखाई दिए जिसमें कथित तौर पर गौर के साथ एक महिला मौजूद थी. आरिफ अकील के अलावा भी कई अन्य विधायकों ने गौर पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कई आपत्तिजनक, अश्लील और चरित्रहनन करने वाली टिप्पणियां कीं.
ऐसा नहीं है कि सदन में सिर्फ पुरुष सदस्य ही कीचड़ उछाल और चरित्र हनन की प्रतियोगिता  में शामिल थे. कांग्रेस की आक्रामक महिला विधायक कल्पना परुलेकर ने भी इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. विधानसभा अध्यक्ष ईश्वरदास रोहाणी को मुख्यमंत्री का गुलाम ठहराते हुए उन्होंने कहा कि जिस विधानसभा का अध्यक्ष भ्रष्ट हो उस विधानसभा का कोई औचित्य नहीं है. ऐसी विधानसभा पर तो ताला डाल देना चाहिए.  इस मामले पर बवाल मचाने के साथ ही परुलेकर ने मध्य प्रदेश के लोकायुक्त जस्टिस पीपी नावलेकर का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गणवेश में फोटो दिखाकर सदन में सनसनी फैला दी. अगले दिन सरकार ने कहा कि फोटो फर्जी था. और संघ प्रमुख मोहन भागवत के फोटो से छेड़छाड़ करके भागवत के चेहरे की जगह नावलेकर का चेहरा लगा दिया गया है. इस मामले पर पारुलेकर की बहुत किरकिरी हुई. हालाकि अंत तक उन्होंने यह स्वीकार नहीं किया कि फोटो फर्जी था. कल्पना के अलावा और भी कई कांग्रेसी विधायक सदन के दौरान स्पीकर का अपमान करने से नहीं चूके. कांग्रेसी विधायक गोविंद सिंह और रोहाणी के बीच की तकरार को देखकर ऐसा लग रहा था मानो कांग्रेसी विधायक स्पीकर से नहीं बल्कि किसी भाजपा विधायक से लड़ रहे हों.
सदन के इस शीतकालीन सत्र में नेताओं के व्यवहार पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से लेकर विधानसभा अध्यक्ष ईश्वरदास रोहाणी तथा प्रतिपक्ष के नेता समेत अधिकांश नेताओं ने दुख प्रकट किया. सभी ने इस बात को स्वीकार किया कि वर्तमान सत्र में संसदीय परंपराओं, संवैधानिक संस्थाओं तथा मर्यादाओं का पालन नहीं हुआ और कुछ ऐसा हुआ जो न सिर्फ प्रदेश की राजनीतिक सेहत के लिए नकारात्मक है बल्कि उसने प्रदेश की राजनीतिक संस्कृति को कलंकित किया है.

लेकिन इस सामूहिक विलाप में समस्या यह है कि सभी को लग रहा है कि वे और उनकी पार्टी सही थे. उन्होंने संसदीय परंपरा और मर्यादा का पूरा ध्यान रखा. अश्लीलता तो सामने वाले ने फैलाई. ऐसे में भविष्य में क्या सुधार होगा इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं.

काली कमाई से उपजी क्रांति

पिछले कुछ वर्षों के दौरान बिहार के शहरी इलाकों में जमीन और मकान की कीमतें 700 फीसदी तक उछली हैं. रियल एस्टेट के क्षेत्र में आई इस क्रांति में एक बड़ा हाथ मलाईदार पदों पर तैनात सरकारी सेवकों की काली पूंजी का भी है. इर्शादुल हक की रिपोर्ट

यह 19 नवंबर की बात है. पटना हाई कोर्ट के आदेश के बाद जिला प्रशासन ने कोषागार के क्लर्क गिरीश कुमार के भवन को जब्त कर लिया. प्रशासन द्वारा जब्त किए इस मकान में जल्द ही बच्चे पढ़ाई करते नजर आएंगे. इससे पहले सितंबर में निलंबित आईएएस अधिकारी शिव शंकर वर्मा के आलीशान भवन को प्रशासन ने जब्त करके उसमें गरीब बच्चों के लिए एक स्कूल खोल दिया था. इन दोनों सरकारी सेवकों ने अपने ज्ञात स्रोतों से ज्यादा धन अर्जित किया था. दोनों ने अपने काले धन का निवेश जमीन और मकान खरीदने में किया था.

भले ही शिव शंकर वर्मा और गिरीश कुमार कानून के शिकंजे में आ गए हों लेकिन इसमें तनिक भी शक नहीं कि ऐसे हजारों सरकारी सेवक और भी हैं जिन्होंने अपने ज्ञात स्रोतों से ज्यादा धन अर्जित कर रखा है और वे किसी न किसी तरह से कानून के शिकंजे से अब तक बचते आ रहे हैं. पटना स्थित आयकर विभाग के एक दस्तावेज से इस सच्चाई से पर्दा उठ जाता है. इस दस्तावेज से यह साबित होता है कि राजधानी पटना में आसमान छूती कीमतों वाली जमीन, मकान और फ्लैटों के 60 प्रतिशत खरीददार सरकारी सेवक ही हैं. दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि रियलिटी सेक्टर में 60 प्रतिशत तक का निवेश काले धन का हो रहा है.

आयकर विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी गोपनीयता की शर्त पर इस दस्तावेज का हवाला देते हुए तहलका को बताते हैं कि काले धन के इन निवेशकों में वैसे अधिकारी हैं जो आम तौर पर सरकारी योजनाओं को जनता के हित में लागू करने का अधिकार रखते हैं. इन पदों पर लाखों-करोड़ों रुपये भ्रष्ट तरीके से उगाहने के अवसर होते हैं. आयकर द्वारा कराए गए इस गुप्त सर्वे के मुताबिक इन सरकारी सेवकों में प्रखंड विकास अधिकारी, बाल विकास पदाधिकारी, सर्कल अधिकारी, रजिस्ट्रार, पुलिस महकमे से जुड़े अधिकारी, पंचायतों के विकास में लगे अधिकारी व कर्मचारी, पंचायतों से जुड़े जन प्रतिनिधियों के अलावा और भी अनेक पदों पर काम करने वाले लोग शामिल हैं.

मकसद यह जानना था कि रियल एस्टेट में बेतहाशा निवेश के बावजूद आयकर में कोई इजाफा क्यों नहीं हो रहा

जाहिर तौर पर आयकर विभाग के इस सर्वे का मकसद यह पता लगाना था कि रियल एस्टेट क्षेत्र में हो रहे बेतहाशा निवेश के बावजूद आयकर के राजस्व में कोई इजाफा क्यों नहीं हो रहा. विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी अपनी चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं, ‘बिहार (झारखंड समेत) सर्कल के आयकर राजस्व का योगदान 2004-05 के स्तर पर ही रुका हुआ है. वह भी तब जब बिहार के पटना, भागलपुर और गया जैसे बड़े शहरों में पिछले चार-पांच सालों में रियल एस्टेट सेक्टर का कारोबार 500 से बढ़ कर 2000 करोड़ तक पहुंच चुका है. यह हैरान करने वाली बात है और आयकर विभाग के लिए गंभीर चुनौती भी.’

गौर करें कि 2000 करोड़ रुपये का यह अनुमानित कारोबार सिर्फ रजिस्टर्ड बिल्डरों द्वारा बनाए जा रहे अपार्टमेंटों तक सीमित है. इसमें निजी तौर पर खरीदी जा रही जमीनें और मकान शामिल नहीं हैं. माना जाता है कि पटना जैसे बड़े शहरों में निजी तौर पर खरीदी जा रही जमीनों और मकानों में किया जाने वाला निवेश अपार्टमेंटों में किए जाने वाले निवेश से कहीं ज्यादा है. इस बात की पुष्टि अपना आवास कंस्ट्रक्शन्स के प्रबंध निदेशक प्रभात सिंह भी करते हैं. वे कहते हैं, ‘निजी स्तर पर खरीदी जाने वाली जमीन और मकान का बाजार रजिस्टर्ड बिल्डरों के बाजार से काफी बड़ा है.’
पिछले कुछ वर्षो में जमीन, मकान और फ्लैटों की खरीददारी में आई तेजी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2007-08, 2010-11 के दौरान इनकी कीमतों में 600 से 700 प्रतिशत का विशाल इजाफा हो चुका है. यह इजाफा नोएडा, गाजियाबाद, गुड़गांव और हैदराबाद जैसे शहरों से भी ज्यादा है. साकार कंस्ट्रक्शन्स के प्रबंध निदेशक सुदीप कुमार स्वीकार करते हैं कि पटना में फिलहाल चार से साढ़े चार हजार रुपये प्रति वर्ग फुट तक फ्लैट का दाम लग रहा है.

अब सवाल यह है कि कुछ लोगों के पास इस तेज रफ्तार से धन कहां से आ रहा है कि वे एक अदद फ्लैट, जमीन के एक टुकड़े या मकान के लिए औसतन 40-70 लाख रुपये तक निवेश कर रहे हैं जबकि इस बढ़ती आमदनी पर दिए जाने वाले आयकर में सरकार के खाते में कोई बढ़ोतरी नहीं हो रही है. वरिष्ठ समाजशास्त्री आरएन शर्मा कहते हैं, ‘पिछले पांच साल में बिहार सरकार का योजना आकार 1600 करोड़ रुपये से बढ़ कर 24 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है. पहले की तुलना में 15 गुना ज्यादा. ऐसे में सरकारी धन की लूट में भी 15 गुना की वृद्धि तो हुई ही होगी. इसका मतलब साफ है कि आम आदमी तक जितना विकास पहुंचना चाहिए वह नहीं पहुंच पाया और विकास के पैसे की सरकारी अधिकारियों ने मिलकर बंदरबांट कर ली है?

शर्मा की बातें भले ही काल्पनिक लगें पर आयकर विभाग के कमिश्नर अजय कुमार भी कुछ इसी तरह का आकलन करते हुए दिखते हैं. वे कहते हैं,  ‘मैं अपने प्रशासनिक अनुभव से कह सकता हूं कि काले धन का सुरक्षित निवेश धन को जमीन में गाड़ देना ही माना जाता है.’ यहां धन को जमीन में गाड़ने का कुमार का स्पष्ट इशारा रियल एस्टेट सेक्टर में निवेश से ही है. हालांकि एक वर्ग का मानना है कि ऐसा कहना पूरी तरह से सही नहीं है कि रियल एस्टेट सेक्टर में सिर्फ काला धन निवेश किया जा रहा है क्योंकि फ्लैटों की खरीददारी करने वालों में निजी या सरकारी क्षेत्र के ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है जो अपने घर का सपना साकार करने के लिए बैंकों से कर्ज लेते हैं और इन पैसों को किस्तों में चुकाते हैं. अपना आवास कंस्ट्रक्शन्स के प्रभात सिंह कहते हैं, ‘नौकरीपेशा लोग घर खरीदने के लिए बैंकों से कर्ज लेते हैं. यह लेन-देन काफी पारदर्शी होता है.’ हालांकि कई अन्य बिल्डर स्वीकार करते हैं कि गड़बड़ी की गुंजाइश हर खरीद पर बनी ही रहती है.

पिछले कुछ सालों में रियल एस्टेट क्षेत्र में आए जबरदस्त उछाल का नजारा पटना, गया और भागलपुर जैसे शहरों में देखने को मिलता है. पिछले चार-पांच सालों में अपार्टमेंटों ने तो पटना की सूरत ही बदल कर रख दी है जहां हजारों अपार्टमेंट वजूद में आ चुके हैं. अंधाधुंध कमाई के लालच में दूसरे क्षेत्रों के कारोबारी अपना कारोबार छोड़ कर इस क्षेत्र में कूद पड़े हैं. एक अनुमान के मुताबिक सिर्फ राजधानी पटना में ऐसे 200 से अधिक कारोबारी हैं जिन्होंने इस क्षेत्र में अपने पुराने कारोबार को छोड़ कर प्रवेश किया है. प्रभात सिंह कहते हैं, ‘जो लोग पहले जमीनों की दलाली करते थे, बिल्डिंग मैटेरियल सप्लाई करते थे या अन्य कारोबार में लगे थे वे भी इस क्षेत्र में आ धमके हैं.’ रियल स्टेट के दिग्गजों का तो यह भी कहना है कि इस क्षेत्र में राजनेता भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कूद पड़े हैं. इसमें सत्ताधारियों के साथ-साथ विरोधी पार्टियों के नेता भी शामिल हैं. जेडीयू के बागी नेता ललन सिंह से लेकर नागमणि और हरिनारायण सिंह जैसे नेता भी किसी न किसी रूप में इस कारोबार से जुड़े बताए जाते हैं.

इससे सवाल उठता है कि आखिर पारंपरिक रूप से दूसरे क्षेत्रों में रहे लोगों के इस कारोबार में कूदने का क्या असर हुआ है. प्रभात सिंह का मानना है कि ऐसे लोगों के काम करने का तरीका पेशेवर नहीं होता. वे कहते हैं, ‘ऐसे ही लोगों ने इस सेक्टर की विश्वसनीयता को कमजोर किया है, जिसके कारण खरीददारों और प्रोफेशनल बिल्डरों दोनों को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है.’ वे आगे कहते हैं, ‘ब्रोकर या जमीन के दलालों ने अफवाह के सहारे जमीन की कीमतें आसमान पर पहुंचा दी हैं. नतीजतन फ्लैटों के दाम भी आसमान छूने लगे हैं.’ पिछले दस साल से जमीन व मकान की खरीद-फरोख्त से जुड़े़ और अब अपने साथियों के साथ मिल कर अपार्टमेंट बनाने और बेचने का काम कर रहे शैलेश सिंह कहते हैं, ‘राजधानी में जिस अनुपात में जमीन और मकान के खरीददार बढ़ रहे हैं उस अनुपात में यहां जमीन है ही नहीं. इस कारण हर दूसरे दिन जमीन की कीमत में इजाफा हो रहा है’. शैलेश भी स्वीकार करते हैं कि जमीन-मकान का बाजार पूरी तरह से अफवाही बाजार है जहां कीमतें मांग और आपूर्ति के सिद्धांत की बजाय बाजार में फैलाए गए अफवाह के पंखों के सहारे आसमानी उड़ान भरती हैं. वे कहते हैं, ‘आश्चर्य तो इस बात पर है कि लगातार बढ़ती कीमतों के बावजूद खरीददारों में लगातार मांग बनी हुई है.’

हालांकि पिछले छह महीने के दौरान इस मुद्दे में एक नया पहलू भी जुड़ा है. भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े तेवर दिखाती सरकार ने भ्रष्ट अधिकारियों की अचल संपत्ति को भी जब्त करके उसे सरकारी संपत्ति घोषित करने का विधेयक भी बना डाला है. ऐसी हालत में भ्रष्ट सरकारी सेवकों का मनोबल गिरा है. पिछले चार महीने में कुछ भ्रष्ट सरकारी सेवकों के मकानों में स्कूल खोलने के फैसले के बाद माना जा रहा है कि भ्रष्ट लोग अपनी पूंजी को जमीन और मकानों में निवेश करने से बचने लगे हैं. विभाग के एक बड़े अधिकारी बताते हैं कि ऐसे में स्वाभाविक तौर पर यह पैसा दूसरी दिशा, जैसे सोना आदि पर निवेश किया जा सकता है. विभागीय सूत्रों का कहना है कि काले धन के इस तरह के निवेश की जानकारी के बावजूद उस पर नकेल कसने में सबसे बड़ी बाधा राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है. उन्हें उम्मीद है कि जैसे-जैसे स्थितियां बदलेंगी काले धन का यह तिलिस्म भी टूटेगा.

‘आप गलतफहमी के शिकार हैं. हमने भूमि सुधारों को बैकबर्नर पर नहीं डाला है’

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से बात करना आसान नहीं. उन्हें केंद्र और राज्य दोनों तरह की सरकारों में काम करने का खासा अनुभव है. वे हिंदीभाषी प्रदेशों के उन गिने-चुने नेताओं में  से हैं जो बढ़िया वक्ता हैं. काफी पढ़े-लिखे हैं और राजनीति के उथल-पुथल वाले 70 और 80 के दशक में उन्होंने आजादी के बाद के, कांग्रेस से अलग धारा में काम करने वाले कई प्रमुख नेताओं के करीब रहकर काम किया है. प्रदेश में आज क्या हो रहा है इसके छोटे से छोटे बिंदु की भी उन्हें गहरी से गहरी जानकारी है. इसके चलते जब वे रौ में अपनी बात कहते हैं और समय की कमी भी आड़े आती है तो सामने वाले के लिए अपनी बात रखने और उनसे कुछ पूछने के मौके काफी सीमित हो जाते हैं.

ऐसा नहीं है कि आज बिहार में सभी कुछ हरा-हरा है. तमाम सवाल हैं जिन्हें तहलका समय-समय पर उठाता रहा है. कई मुद्दों पर कदम आगे बढ़ाने के बाद नीतीश कुमार द्वारा उन्हें पीछे खींच लेने का मसला है. विशेष राज्य के दर्जे पर उनके चलाए अभियान के अलावा भी कई सवाल हैं जिन पर उस मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है जिसमें पूरा देश नये दौर की राजनीति का मॉडल पुरुष बनने की संभावनाएं तलाश रहा हो. ऐसे ही कुछ सवालों पर नीतीश कुमार की संजय दुबे और निराला के साथ बातचीत के अंश

आप सेवा यात्रा पर हैं. कैसी प्रतिक्रिया मिल रही है?

हम तो यात्रा करते ही रहते हैं, हर यात्रा का रिस्पांस अच्छा ही मिलता है. हर जगह बदलाव की कामना के साथ जनसैलाब उमड़ रहा है.

अखबारों में आया है कि आपने देश से अपना अशोक चक्र वापस देने को कहा है.

(हंसते हैं) अरे नहीं, अशोक चक्र की मांग की बात तो हमने मजाक में कही थी, उसे दूसरे ही तरीके से प्रस्तुत कर दिया गया.

‘न्याय यात्रा के दौरान हम अरवल में थे, देखा कि शाम के बाद सड़कें वीरान हैं. लोगों ने बताया कि यहां यही नियति है. अब देखिए कहीं भी शाम के बाद सड़कें सूनी नहीं रहती’

हाल ही में आप पर एक किताब आई है. आपके पिता जी पहले कांग्रेस में रहे…

(बात बीच में काटकर) मैं उस किताब पर कोई बात नहीं करूंगा. अब हमारे बारे में किसी ने लिखा है तो उस पर क्यों बात करें. वह अच्छा लिखनेवाला है, अच्छा ही लिखा होगा. हम तो उस किताब को पढ़ने भी नहीं जाएंगे. उन्होंने कहा हमें किताब लिखनी है, हम उनको जानते हैं, उन्हें हमारे यहां सभी लोग जानते हैं. हमने किताब में उनकी मदद भी की, उनके पास सभी जानकारी है. उन्होंने लिखा है तो ठीक है, अब उस पर क्या बहस करें. बस इतना जानिए कि वे लिखने के लिए हमारी ओर से अधिकृत थे.

कई उपलब्धियों के बीच कौन-सी है जो आपको सबसे ज्यादा सुकून देती है?

लोगों के नजरिये में बदलाव. बिहार को लेकर एक अजीब किस्म का नजरिया विकसित हुआ था. खुद बिहारियों के मन में भी और बाहरवालों के मन में भी. बिहार तो पहले से ही खस्ताहाल था, ऊपर से 2000 में झारखंड का बंटवारा हुआ तो करेला नीम पर चढ़ गया. अब कम से कम यह स्थिति हुई है कि एक आत्मविश्वास जगा है कि बिहार भी बहुत कुछ कर सकता है और सब कुछ निराशाजनक नहीं है. और यह भाव जगा तो देखिए कि दूसरे राज्यों की क्या हालत होने लगी है. पंजाब में मजदूर नहीं मिल रहे, सुखबीर सिंह बादल मिले थे तो बता रहे थे. बीच में केरल के रहनेवाले आरएल भाटिया बिहार के राज्यपाल बनकर आए तो उन्होंने भी ऐसा ही कहा. लोगों ने सोचना ही बंद कर दिया था.

जब सत्ता में आए तो कथित तौर पर एक फेल्ड स्टेट मिला. नीतीश कुमार को सबसे ज्यादा किस मोर्चे पर मुकाबला करना पड़ा

शासन में आने के पहले तो लोग बैड गवर्नेंस की बात करते थे. जब हम सत्ता में आए तो देखा यहां तो ‘एबसेंस ऑफ गवर्नेंस’ का मामला है. इसलिए मैंने कभी ‘जंगलराज’ शब्द का प्रयोग नहीं किया, बल्कि आतंकराज कहता था. हमने सबसे पहले यह तय किया कि कानून का शासन हो. न्याय यात्रा के दौरान हम अरवल में घूम रहे थे, देखा कि शाम के बाद सड़कें वीरान हैं. पूछा तो बताया गया कि यहां यही नियति बन चुकी है. अब जाकर देखिए, कहीं भी शाम ढलते ही सड़कें सूनी नहीं होतीं. सरकारी अस्पताल में मरीज जाना ही नहीं चाहते थे. अब देखिए सरकारी अस्पतालों में भीड़. खेती पर शुरू से ध्यान देना शुरू किया. आज देखिए कि बिहार का एक गांव 190 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन कर दुनिया का रिकॉर्ड तोड़ रहा है. अब तो 17 विभागों के आपसी समन्वय से कृषि कैबिनेट का भी गठन हुआ है. 2012 से अगले दस साल तक का प्लान तैयार हुआ है. कई फ्रंट पर लड़ते-लड़ते आज हम कुछ करने की स्थिति में पहुंचे हैं.

देश में इस समय बहस चल रही है कि लोकपाल के दायरे में ग्रुप सी कर्मचारी और प्रधानमंत्री आने चाहिए या नहीं आने चाहिए. आपकी राय?

क्यों नहीं ग्रुप सी के कर्मचारियों को जांच के दायरे में आना चाहिए? बिल्कुल आना चाहिए. आप बताइए कि आज देश के कानून में इम्यूनिटी है क्या…राष्ट्रपति को छोड़ कर… प्रधानमंत्री के बारे में कोई भी शिकायत ऐसे ही कर देगा और लोकपाल जांच करना शुरू कर देगा… शिकायत में कितना दम है ये लोकपाल भी देखेगा…प्रधानमंत्री के बारे में ऐसे ही कोई ऊलजुलूल लिख देगा और लोकपाल जांच शुरु कर देगा? अगर आरोप में दम है तो संस्था उन आरोपों को भी देख लेगी तो क्या गुनाह हो जाएगा? हां, कुछ महत्वपूर्ण राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विषयों पर कोई भी देश भक्त नहीं चाहेगा कि प्रधानमंत्री को बिला वजह घसीटा जाए.

सत्ता पक्ष का कहना है कि लोकपाल का दुरुपयोग किया जा सकता है.

‘ हर आदमी के पैर में एक ही साइज का जूता आएगा? ये अप्रोच ही गलत है. ये तो एनडीसी के अनेक बार लिए गए फैसलों के खिलाफ चलते हैं ‘

देखिए, देश में संस्थाएं बनती हैं तो मेच्योर भी होती हैं. जब भी कोई नई चीज आती है तो उससे जुड़े कुछ खतरे भी होते हैं. उसके लिए घबराने की जरूरत नहीं. शुरू में कुछ उथल-पुथल तो होती ही है. उसके लिए तैयार रहना चाहिए. आज देश में विश्वसनीयता का संकट आ गया है. आप किसी के बारे में कुछ बोल दें तो 10 लोग मानने को तैयार हो जाएंगे. शासन में पारदर्शिता आए इसमें क्या दिक्कत है. कोई-न-कोई सख्त कदम तो उठाना ही पड़ेगा. मूल बीमारी को दूर करने के लिए थोड़ा साइड इफेक्ट तो होगा ही, इसके लिए तैयार रहना चाहिए. कल कुछ और होता है तो और सोचा जाएगा.

रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश के बारे में क्या सोचते हैं?

इस पर तो हम पहले ही दिन अपना सख्त विरोध जता चुके हैं. बिहार का सिर्फ एक ही शहर पटना उसके स्वरूप के अनुसार फिट बैठता है. हम जानते हैं कि हमारे 90 प्रतिशत लोग तो वैसी विदेशी दुकानों में जाने की हिम्मत ही नहीं जुटा सकेंगे और फिर देर-सबेर जो छोटे-छोटे कारोबारी हैं उन पर असर पड़ेगा. मैंने सड़क किनारे दुकान लगानेवालों को नहीं हटने दिया. पांच सौ रुपये की पूंजी लगाकर शाम होते-होते दो-तीन सौ कमाकर घर-परिवार चलाने वाले हजारों उद्यमियों पर जान-बूझकर संकट नहीं आने दे सकता. रही बात विदेशी कंपनियों की तो हमने केंद्र सरकार के सीड बिल का भी विरोध किया. हम स्पेशल इकोनॉमिक जोन के भी खिलाफ हैं. हम ऐसे उद्योगों के पक्षधर हैं जिनसे उत्पादकता बढ़े और रोजगार का भी सृजन हो.

मगर घरेलू कंपनियां तो बिहार में आ ही नहीं रहीं!

चीजें धीरे-धीरे पटरी पर आ रही हैं, लेकिन केंद्र सरकार हमें सहयोग ही नहीं कर रही. पहले तो केंद्र यह कह सकता था कि बिहार में तो कुछ हो ही नहीं रहा, कोई संभावना की किरण ही नहीं दिख रही तो क्या करें. लेकिन अब जब बिहार अपने बूते संभावनाओं से भरा राज्य बन गया है, स्थितियां अनुकूल हैं तब तो सहयोग करना चाहिए. टैक्स में छूट चाहिए, और भी सुविधाएं चाहिए. इन्हीं सारी बातों काे ध्यान में रखकर हम विशेष राज्य का दर्जा मांग रहे हैं. लेकिन फिलहाल केंद्र में जो सरकार है, पूर्वाग्रह से ग्रस्त उस तरह की सरकार आज तक तो हुई ही नहीं. जबान मीठी और कर्म कड़वा. यह कहेंगे कि बिहार में अच्छा काम हो रहा है, लेकिन सहयोग की बारी आएगी तो नहीं करेंगे.

बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने के लिए आपने और आपकी पार्टी ने अभियान चला रखा है. इसके बारे में कुछ बताएं.

हमारे पास उपजाऊ जमीन है, पर हम हर साल बाढ़ से तबाह होते हैं. बिहार के पास उसका कोई उपाय है? उपाय अंतरराष्ट्रीय सीमाओं के पार है. ये तो भारत सरकार बातचीत करे और दूसरा देश तैयार हो तो फ्लड मॉडरेशन हो सकता है. हमारी सीमाओं में जो कुछ है उसमें गुंजाइश बहुत कम है. तो जब हमारी जो समस्याएं हैं उनका समाधान मेरे हाथ में नहीं है और समस्याओं की जड़ हमारे राज्य की सीमा के अंदर नहीं  है, तो आखिर विशेष परिस्थिति है या नहीं है?

दूसरी बात पर अब आइए. आजादी जब मिली तो एग्रीकल्चर में पूर्वी क्षेत्र सबसे आगे था. आज सबसे पिछड़ क्यों गया साहब! आजादी के पहले गन्ना मिलें ईस्टर्न यूपी और बिहार में ज्यादा थीं. बिहार में देश के कुल शुगर उत्पादन का 25 प्रतिशत होता था. अभी केवल दो फीसदी ही शेयर है हमारा. हमारी जमीन और आबोहवा ऐसी है कि बिना इरिगेशन के भी गन्ना होता है. आपने गन्ना वहां प्रमोट किया जहां 29 इरिगेशन की जरूरत होती है. ये कौन-सी नीति है? दूसरा पूर्वी क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधन काफी थे तो आपने उस समय फ्रेट इक्वलाइजेशन पॉलिसी शुरू कर दी कि भाई कारखाने देश के किसी भी हिस्से में लगें कच्चा माल अगर यहां से जाएगा तो रेल का जो भाड़ा लगेगा उस पर सरकार सब्सिडी देगी. तो जो एडवांटेज पूर्वी क्षेत्र का था उसको तो आपने खत्म कर दिया. कच्चा माल यहां से गया और औद्योगीकरण दूसरी जगह हो गया. ये आखिर जो भेदभाव हुआ जब तक उल्टा नहीं होगा तब तक कैसे ठीक होगा. तो कालांतर में जब हम पिछड़ गए तो इसका क्या नतीजा हुआ? हमारी प्रतिव्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत की एक तिहाई है. प्रतिव्यक्ति प्लैंड इनवेस्टमेंट में हम सबसे पीछे हैं. और प्राइवेट इनवेस्टमेंट तो स्वाभाविक है कि वहीं होता है जहां हब होता है. रही-सही कसर पूरी हो गई जो प्राकृतिक संसाधन वगैरह थे वे कटकर दूसरे राज्य में चले गए. तो इसको दूर कैसे करेंगे? एक तो प्लांड इनवेस्टमेंट बढ़ाना होगा, रोजगार बढ़ाने के लिए निजी निवेश की भी जरूरत है. पर कौन आएगा यहां? अन्य जगहों की अपेक्षा फायदा होगा तभी न आएगा. विशेष दर्जा इसीलिए हम मांगते हैं कि एक तरफ प्लांड इनवेस्टमेंट बढ़ेगा और दूसरी तरफ टैक्स में रियायत मिलेगी तो प्राइवेट इनवेस्टमेंट आएगा. हमारे यहां भी निवेश होगा और हमारी ग्रोथ होगी.

यह राजनीतिक निर्णय है, सरकार चाहे तो ले सकती है पर कुछ लोग मानते हैं कि बिहार विशेष राज्य के परंपरागत ढांचे में फिट ही नहीं बैठता है.

क्या बात करते हैं! (विशेष राज्य का दर्जा देने के) पांच आधार हैं तो पांचों पूरे करने की जरूरत थोड़े ही है. अंतरराष्ट्रीय सीमा तो है ही. इतनी गरीबी है. पहाड़ी इलाका नहीं है पर दुर्गम क्षेत्र तो है ही. जिस समय बाढ़ आती है क्या होता है? कुछ इलाकों में सूखा तो कुछ में बाढ़ रहती है. यहां वर्षा न भी हो पर नेपाल में हो रही है तो पानी कहां जाएगा? इसके लिए हम लोगों ने एक-एक बिंदु को ध्यान में रखकर इनको मेमोरेंडम दिया है. एक कहावत है Show me the person I will show you the rule. नहीं मानना है तो चार बहाने हैं. मानना है तो 10 कारण निकाल लेंगे. ये तो इनकी इच्छा पर है. लेकिन पूरा बिहार आंदोलित है साहब… . आप इतने बड़े राज्य की अनदेखी करके कौन-सी इंक्लूसिव ग्रोथ लाएंगे.

आपको लगता है कि राज्य के साथ सौतेला व्यवहार हो रहा है?

यह तो बहुत ही माइल्ड आरोप है. अन्यायपूर्ण व्यवहार है. और ये पूरे तौर पर राजनीतिक भावना से ग्रसित हैं. और भावना क्या दुर्भावना प्रेरित हैं. अभी जो इनका राजनीतिक गठबंधन है उसकी इंटरनल केमिस्ट्री है उसके हिसाब से दूसरे राज्यों के लिए हो रहा है. बिहार के लिए नहीं हो रहा है.

दिल्ली में हमारी कुछ लोगों से बात हुई है. उनका कहना है कि बिहार में जो पैसा जाता है कुछ मदों में वही पूरी तरह से उपयोग नहीं हो पाता..

(बीच में बात काटते हुए) फालतू बात है…वो किस जमाने में जी रहे हैं. उनको कहिए बिहार में जा कर देखें. जो ऐसी बातें करते हैं वे कागज पर बैठे रहते हैं. यहां से उनकी जितनी नीतियां हैं उनमें हम रचनात्मक सुझाव देते रहते हैं. उनमें जो कमी है उसको हम बताते रहते हैं. ये तो वहां से बैठ कर हमारे संविधान की भावना को, संघीय ढांचे को तोड़ते रहते हैं. इतनी ज्यादा पक्षपातपूर्ण भावना से काम करने वाला शासन तो आज तक आया ही नहीं. बोली में मिठास है, कर्म में तीखापन…बातचीत करेंगे कि ठीक काम हो रहा है. ठीक हो रहा है तो अभी तो मदद करने का समय है. आज जिन चीजों को लेकर बिहार ने एक अलग पहचान बनाई है उसमें उनकी कोई सहायता है क्या? ये तो हमलोगों का अपना कुछ नवाचारी कार्यक्रम है. उसके चलते ऐसा हुआ है. बाकी जितनी भी सेंट्रल स्पॉन्सर्ड  स्कीम हैं उसके हम सख्त खिलाफ हैं. ये तो राज्यों के पैसे पर छापा मारा जा रहा है. जो हिस्सा राज्यों को मिलना चाहिए और उनकी जरूरत के हिसाब से उन्हें अपनी योजनाएं बनाने का अधिकार मिलना चाहिए, वो ये अपने तरह से कर रहे हैं. हर आदमी के पैर में एक ही साइज का जूता आएगा? ये अप्रोच गलत है. ये तो एनडीसी के अनेक बार लिए गए फैसलों के खिलाफ चलते हैं. बात होती है केंद्र प्रायोजित योजनाओं की संख्या कम की जाए और उसकी संख्या बढ़ा देते हैं. दिल्ली को करना क्या है? दिल्ली की जो जिम्मेदारी है कम्यूनिकेशन, रेलवे की है. इस देश की सुरक्षा की है. विदेशी मामलों की है. देश को एक रखने की है. लेकिन  ये रोजमर्रा के काम. अब बताइए साहब हरेक ब्लॉक हेडक्वार्टर में हाईस्कूल खोलेंगे? क्या ये दिल्ली का काम है. हर राज्य को अपने ढंग से करने दीजिए. इनकी योजनाओं में राज्य का भी पैसा लगता है. बहुत कम स्कीम हैं जिनमें टोटल यही पैसा देते हैं.

आज रेलवे के बारे में क्या राय है? आप जब रेल मंत्री थे तो बहुत सारी नई-नई चीजें शुरू हुईं. तत्काल भी शायद…

(बीच में काटते हुए) नहीं तत्काल पहले से था…संख्या बहुत कम थी. हां, कंप्यूटराइजेशन का दौर आया और काफी जो डिब्बे हैं, वैगन हैं इन सभी में सुधार हुआ. रेलवे तो बहुत ही बुरे हाल में था. दुर्घटनाएं बहुत हो रही थीं. एक्सीडेंट क्यों होते हैं इस पर कई विशेषज्ञों की रिपोर्टें थीं. सबको देख कर क्या करना चहिए वह किया गया. और उसी का फायदा हुआ कि पांच साल लोगों ने चैन से बिताए. हमने जो कॉरपोरेट सेफ्टी प्लान बनाया था उस पर यूपीए वन के समय में अमल नहीं हुआ. उसका अंजाम अब भुगतना पड़ रहा है. पहले फोरव्हील वैगंस थे जो मोड़ पर पलट जाते थे…सभी को हमने हटवा दिया…सारे सिग्नल सिस्टम, एंटी कोलिजिन डिवाइस को फाइनलाइज किया. जिसका इंप्लीटेशन कारगर रहा. हमलोगों के जमाने में कुछ साधारण चीजों को प्रयोग में लाकर उस तरह की दुर्घटनाओं की तो गुंजाइश ही खत्म कर दी गई थी. पिछले पांच वर्षों में फिर से कोताही बरती जा रही थी जिसके चलते सब गड़बड़ हो गया है.

आपने रेल मंत्रालय से लेकर बिहार तक काफी नए प्रयोग किए. पर कुछ चीजों को राज्य में आपने शुरू करने की बात कह कर बैकबर्नर पर रख दिया है, जैसे बंदोपाध्याय कमेटी की सिफारिशों को.

कोई बैकबर्नर पर नहीं डाला है. आप गलतफहमी के शिकार हैं. कमेटी हमने बनाई थी. उसकी रिपोर्ट आई और कई बातें स्वीकार करके लागू भी कर दी गई हैं.

कुछ उदाहरण दे सकते हों तो…

एक नहीं कई हैं. चूंकि आपकी दिलचस्पी है तो थोड़ा वक्त ज्यादा लगेगा. उसमें कई चीजों को लागू कर दिया गया है. भूदान के बारे में, दाखिल खारिज के बारे में. हम दाखिल खारिज के लिए अलग से कानून ला रहे हैं. कई प्रकार की चीजें जैसे सीलिंग की सिफारिश को हमारी सरकार ने अस्वीकार कर दिया. कई ऐसी चीजें हैं जिनको अस्वीकार या स्वीकार करके लागू कर दिया गया है. एक प्रश्न बटाईदारी का था जिसके बारे में समाज में बहुत सारी गलतफहमी पैदा हो गई. अभी जो हम लोग कर रहे हैं… जमीन की उससे भी मूल समस्या का समाधान कर रहे हैं. इसी सत्र में हम लोग विधेयक ला रहे हैं. तीन साल के अंदर सर्वेक्षण का काम होगा. लैंड रिकाॅर्ड अपडेट करने की बात हम कर रहे हैं. सर्वे करना एक बहुत बड़ा काम है. उसको तीन साल में पूरा करने के लिए और इसके लिए जिस तकनीक का प्रयोग होगा उसकी गुंजाइश बनाने के लिए और टाइम फ्रेम में सारी आपत्तियों का निपटारा हो और अपील वगैरह की गुंजाइश रहे, उसके लिए कानून ला रहे हैं. ये काम पूरा करेंगे तो हम कंसोलिडेशन पर भी जाएंगे. लैंड रिफाॅर्म कोई एक चीज नहीं है. इसके बहुत बड़े आयाम हैं. हम रात-दिन कर रहे हैं. सबसे मूल चीज है कि हमारे पास रिकाॅर्ड कहां है ठीक से. समाज में अगर कोई भी चीज हम लागू करेंगे तो सबको विश्वास में लेकर करेंगे. ठीक है, सब लोग साथ नहीं होंगे. मगर इरादा तो होना चाहिए.

एक और चीज थी. आपने कॉमन स्कूल सिस्टम लागू करने की भी बात की थी.

‘ मैं दिल्ली जाना चाहता हूं, लेकिन आजकल दिल्ली में जो लोग बैठे हुए हैं उनमें कई हमारे साथ काम किए हुए हैं. लेकिन आजकल वे कुछ ज्यादा ही मुगालते में रहते हैं. ‘

कॉमन स्कूल सिस्टम हम लोग अपने स्तर पर कर रहे हैं. कॉमन स्कूल सिस्टम के खिलाफ तो केंद्र सरकार है. अभी हमको कहा कि हम मॉडल स्कूल बना रहे हैं. हमने उनको कहा कि भाई हमें बाकी स्कूलों को ठीक करना है. हमको पैसा दीजिए इतने में हम अपने चार स्कूल ठीक करेंगे. कॉमन स्कूल सिस्टम तो पूरे देश के लिए होगा न. जब तक केंद्र तैयार नहीं होगा तब तक आप क्या करेंगे? हम हर जिले में एक मॉडल स्कूल खोलने की सोच रहे थे केंद्र सरकार तो हर ब्लॉक में खोलने की बात करती है…ब्लॉक में बाकी स्कूलों की स्थिति क्या होगी सोचती ही नहीं. ‘टेक इट ऑर लीव इट’ ये उनका नारा है. उनके लिए नैतिक दबाब नाम की कोई चीज ही नहीं है. वे सिर्फ सहयोगियों के राजनीतिक दवाब को समझते हैं…एफडीआई में क्या हुआ? एलाइज का पॉलिटिकल प्रेशर पड़ा तो निर्णय वापस ले लिया. हमारी बात कौन सुनता है.

तो कई स्तर पर चुनौतियां हैं

तो चुनौतियों से घबराया थोड़े जाता है. आपको चुनौतियां इसलिए दिख रही हैं कि आप  वैसे ही सवाल पूछ रहे हैं. इस जहां में करने को बहुत कुछ है. जहां गुंजाइश है वहीं करते रहते हैं. जहां हाथ बंधे हुए हैं वहां बंधे हैं. जहां नहीं बंधे हुए हैं वहां काम करते हैं. गवर्नेंस का मुद्दा हो या सोशल सेक्टर का मुद्दा हो.उसी का इंपैक्ट है. लेकिन बाकी जो पॉलिसी इश्यूज हैं उसको तो अगर आप छेड़ रहे हैं तो… इसलिए इंटरव्यू भी एक तरह का डीबेट होता है. एकदम भागते रहते हैं. इंटरव्यू का मतलब क्या होता है हम आपके ट्रैप में हैं.

अपने ही घर में प्रदेश के मुख्यमंत्री को कोई कैसे ट्रैप कर सकता है….लेकिन मिलने से कई भ्रांतियां भी दूर होती हैं

हमारे स्वभाव में एक कमजोरी है. हम अपना काम करने के भागी हैं. अगर हमारे काम के बारे में भ्रांतियां भी फैलती हैं तो हम उस तरफ ध्यान देंगे तो काम क्या करेंगे.

आपने कहा कि आप दिल्ली नहीं जाना चाहते. राष्ट्रीय राजनीति में दखल नहीं देना चाहते.

नहीं, मैं ऐसा नहीं कह रहा. मेरे कहने का मतलब दूसरा है. आपने गलत समझा. दिल्ली नहीं जाना चाहता, यह इसलिए कहा क्योंकि आजकल जो दिल्ली में बैठे हुए हैं उनमें कई हमारे साथ काम किए हुए लोग हैं लेकिन आजकल वे कुछ ज्यादा ही मुगालते में रहने लगे हैं.

खनन पर भारी अनशन

हरिद्वार में पवित्र गंगा में खनन हो या नहीं, इसे लेकर एक संत और सरकार के बीच हुई लड़ाई में संत जीत गया. मातृ सदन आश्रम के स्वामी शिवानंद गंगा की मुख्य धारा पर खनन बंद कराने की मांग को लेकर 25 नवंबर से आमरण अनशन पर बैठे थे. कई नाटकीय घटनाक्रमों के बाद सरकार को अनशन के 11वें दिन झुकना पड़ा. सरकार ने फिलहाल केंद्र की जांच रिपोर्ट आने तक गंगा पर पूरी तरह खनन रोक दिया है.

पिछले महीने उत्तराखंड सरकार ने गंगा नदी पर पड़ने वाले तीन घाट खनन के लिए खोल दिए थे. इसके बाद स्वामी शिवानंद खनन बंद कराने की मांग को लेकर अनशन पर बैठ गए. इन तीन घाटों में से दस नंबर घाट कुंभ मेला क्षेत्र की सीमा के भीतर आता था. राज्य सरकार के पहले के शासनादेशों और नैनीताल उच्च न्यायालय के 26 मई के निर्णय के अनुसार कुंभ मेला क्षेत्र के भीतर किसी भी हालत में खनन या स्टोन क्रैशिंग का काम नहीं हो सकता. इनके अलावा राज्य सरकार ने गंगा की मुख्य धारा पर पड़ने वाले दो और घाट विशनपुर-कुंडी और भोगपुर भी खनन के लिए खोले थे. शिवानंद के विरोध के बाद और दस नंबर घाट के कुंभ मेला क्षेत्र में पड़ने की पुष्टि होने पर जिला प्रशासन ने इस घाट पर चलने वाला खनन कुछ ही दिनों में बंद करा दिया था. परंतु बिशनपुर-कुंडी और भोगपुर के घाटों पर खनन चलता रहा.

स्वामी शिवानंद की मांग थी कि गंगा पर फिर से खनन के लिए खोले गए इन दोनों घाटों सहित हरिद्वार में गंगा की मुख्य धारा पर कहीं भी खनन न हो. उनकी यह भी मांग थी कि गंगा में किसी भी तरह की खुदाई करने वाली बड़ी मशीनों और वाहनों की आवाजाही पूर्णतया प्रतिबंधित हो जाए. यह तभी संभव है जब गंगा पर खनन के लिए कोई भी घाट खुला न हो. उधर, राज्य सरकार किसी भी हालत में इन दोनों घाटों को खनन के लिए बंद नहीं करना चाहती थी. इन दो घाटों के अलावा भी हरिद्वार में गंगा की सहायक नदियों पर पड़ने वाले 21 घाट खनन के लिए खोले गए हैं. शिवानंद के अनशन पर बैठने के बाद मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी ने हरिद्वार में मीडिया को बताया कि राज्य में हो रहे विकास और निर्माण कार्यों की जरूरतें पूरी करने के लिए इन खनन क्षेत्रों का खुला रहना आवश्यक है. उधर शिवानंद का तर्क था कि वे केवल गंगा की मुख्य धारा पर खनन बंद करने की मांग कर रहे हैं और सहायक धाराओं में स्थानीय जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त खनन सामग्री है.

स्वामी शिवानंद की मांग थी कि इन दोनों घाटों सहित हरिद्वार में गंगा की मुख्य धारा पर कहीं भी खनन न हो

इसके बाद राज्य के राजस्व मंत्री और उक्रांद नेता दिवाकर भट्ट ने तीन दिसंबर को मुख्यमंत्री के बयान का समर्थन करते हुए धमकी दी कि यदि शिवानंद अपना अनशन नहीं तोड़ते तो वे भी छह दिसंबर से अनशन शुरू करेंगे. भट्ट का कहना था, ‘खनन पर रोक लगने से हरिद्वार और उत्तराखंड में भवन निर्माण सामग्री राज्य के बाहर से तक आ रही है जिससे इसका मूल्य अंधाधुंध बढ़ गया है और आम आदमी को घर बनाने में मुश्किल हो रही है.’ खनन को रोजगार से जोड़ते हुए उनका कहना था, ‘खनन से जुड़ी गतिविधियों से हजारों लोगों को रोजगार भी मिलता है.’ उन्होंने यह भी कहा कि वे राज्य के हितों से खिलवाड़ नहीं होने देंगे इसलिए मजबूरी में उन्हें हरिद्वार में खनन खोलने की मांग को लेकर अनशन पर बैठना पड़ रहा है. उन्होंने कहा कि इससे पहले उन्हें नियमानुसार मंत्री पद त्यागना पड़ेगा.

इससे पहले भी कई मौकों और मुद्दों पर इस्तीफा देने की घोषणा करने के बाद भट्ट बाद में पलट गए थे. इसलिए इस घोषणा को किसी ने संजीदगी के साथ नहीं लिया. इस्तीफे का एलान करके फंस गए भट्ट ने बीच का रास्ता निकाला और स्वामी शिवानंद को मनाने खुद चार नवंबर को मातृ सदन पहुंचे. लेकिन शिवानंद अपनी मांग पर अड़े रहे और दो घंटे चली बातचीत बेनतीजा रही. भट्ट एक बार फिर पांच दिसंबर को मातृ सदन गए, पर बात बनी नहीं. आखिरकार सरकार को झुकना पड़ा और आदेश हुआ कि हरिद्वार में गंगा पर केंद्र के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की पर्यावरणीय प्रभाव समीक्षा रिपोर्ट आने के बाद ही इन घाटों पर खनन होने या न होने का निर्णय लिया जाएगा.

1997 में मातृ सदन आश्रम की स्थापना के बाद से इस आश्रम के संन्यासियों द्वारा किया जा रहा यह 32वां अनशन था. मातृ सदन द्वारा पहले किए गए लगभग सारे सत्याग्रह कुंभ मेला क्षेत्र में गंगा पर हो रहे खनन  या नियम विरुद्ध चल रहे स्टोन क्रैशरों को बंद कराने के लिए किए गए हैं. इसी साल जून में जगजीतपुर गांव में चल रहे हिमालय स्टोन क्रैशर का विरोध करते हुए मातृ सदन के संत निगमानंद की 68 दिन के अनशन के बाद मृत्यु हो गई थी.  स्वामी शिवानंद बताते हैं, ‘मातृ सदन आश्रम की शुरुआत करने के बाद से ही मैं खनन के कारण गंगा, उसके आस-पास के टापुओं और तटों की बिगड़ती हालत से व्यथित था.’ 1998 के महाकुंभ से गंगा को खनन मुक्त करने की मांग को लेकर शुरू हुई इन संतों के अनशनों की श्रृंखला 13वें साल में पहुंच गई है. हर बार सरकार के तर्कों और जिद पर संतों का अनशन भारी पड़ता है. इस बार भी यही हुआ.खनन को स्थानीय लोगों के रोजगार से जोड़ने के दिवाकर भट्ट के तर्क को विजेंद्र चौहान हवा में उड़ाते हुए कहते हैं, ‘गंगा में खनन और स्टोन क्रैशिंग के व्यवसाय में उत्तराखंड से बाहर का माफिया हावी है.’ हरिद्वार के 41 क्रैशरों में से गंगा के किनारे वाले इन गांवों में 35 के लगभग क्रैशर लगे हैं. मात ृसदन के पास ही मिस्सरपुर गांव के निवासी और गुरुकुल महाविद्यालय के उपाध्यक्ष चौहान बताते हैं, ‘ये माफिया अधिकतर काम मशीनों से करते हैं. जब कभी प्रशासन का दबाव पड़ता है तब बोगीवालों और हाथ से काम करने वाले मजदूरों को काम मिल पाता है.’ उनका दावा है कि स्थानीय गांवों के मूल निवासी इस खनन व्यवसाय में केवल मजदूरी पा रहे हैं जबकि माफियाओं द्वारा संचालित क्रैशर हर साल पांच से लेकर 20 करोड़ रुपये तक की कमाई कर रहे हैं.’ चौहान कहते हैं, ‘हरिद्वार के नेताओं और अधिकारियों को उत्तराखंड के लोगों के रोजगार से अधिक इन माफियाओं को होने वाले नुकसान की चिंता है.’ उनके अनुसार हर साल अकेले हरिद्वार से खनन माफिया और क्रैशर मालिक कम से कम 200 करोड़ रु के राजस्व की चोरी कर रहे हैं जबकि खनन के जरिए पूरे राज्य से मिलने वाला राजस्व 93 करोड़ रु है. स्थानीय लोगों का यह भी आरोप है कि नेताओं और अधिकारियों के लिए खनन दुधारू गाय है इसलिए वे मुख्यमंत्री को अंधेरे में रख रहे हैं. चौहान बताते हैं, ‘गंगा पर हो रहे खनन पर देश-विदेश का मीडिया चाहे कितना भी बवाल कर रहा हो पर पिछले 15 वर्षों से किसी जिलास्तरीय अधिकारी तक ने इन क्षेत्रों की हालत देखने की जहमत नहीं उठाई है.’ सरकारी अधिकारी भी स्वीकार करते हैं कि अभी तक इन क्षेत्रों में हो रहे खनन का कोई विस्तृत पर्यावरणीय अध्ययन भी नहीं हुआ है.

‘गंगा में हो रहे खनन और स्टोन क्रशिंग के व्यवसाय में उत्तराखंड से बाहर का माफिया हावी है’

लोगों की मानें तो गंगा में पड़े पत्थरों और पहाड़ों से बहकर आने वाले बोल्डरों को क्रैशरों के लिए इस्तेमाल करने से गंगा पर बने द्वीप खत्म हो गए हैं और इन अर्धजलीय क्षेत्रों में रहने वाले जानवर और पादपों की प्रजातियां खत्म हो रही हैं. अब इस क्षेत्र में कछुए और खोह जैसे जीव नहीं दिखते जिनका नजर आना पहले आम बात थी. खनन से गंगा पर पड़ते प्रभाव का अध्ययन करने वाले चौहान बताते हैं कि इन्हीं पत्थरों के नीचे मछलियां अंडे देती हैं और छिपने के लिए स्थान बनाती हैं. गंगा पर खनन चलते रहने देने के समर्थक तर्क देते हैं कि खनन न होने से नदियों का तल बढ़ता जाता है और बाढ़ आने की संभावना बढ़ती है. चौहान उनके इस दावे को नकारते हुए कहते हैं कि उत्तराखंड राज्य के गठन के बाद खनन खुलने के बाद बाढ़ से अधिक नुकसान हुआ है. हरिद्वार के मोतीचूर, रायवाला, बाघरो जैसे इलाकों में वर्ष 1995 में खनन बंद हो गया था. पिछले 15 वर्षों के दौरान इन इलाकों में बाढ़ नहीं आई. जबकि मातृ सदन से नीचे मिस्सरपुर, अजीतपुर, बिशनपुर टांडी और भोगपुर जहां पिछले साल तक खनन हुआ है, में नदी के तटों पर कटाव होने के कारण हर साल नुकसान होता रहता है. अजीतपुर से बिशनपुर और टांडा-भागमल के बीच में वर्ष 1986 में 14किमी लंबा बना बांध पिछले ही साल खनन के कारण ही टूटा हैै. लोगों का आरोप है कि खनन माफिया ने बांध की बुनियाद तक का खनन कर दिया था.

मिस्सरपुर के ही किसान जीतेंद्र सैनी बताते हैं कि बरसात में पहाड़ों से बहकर पोषक तत्वों से युक्त मिट्टी आती है जो पहले मैदानी इलाके में आते ही बढ़ते जल स्तर के साथ खेतों में भर जाती थी. मिट्टी के भरने की प्रक्रिया को किसान ‘पांगी चढ़ना’ कहते हैं. किसान बताते हैं कि खनन होने पर नदियों का पानी सीधे आगे बढ़ जाता है और पोषक तत्वों का फायदा उत्तराखंड के किसानों को नहीं मिलता है. सैनी कहते हैं, ‘किसानों के नुकसान की किसी को परवाह नहीं. यहां तो राजनेताओं और अधिकारियों को आसानी से और बिना कुछ लगाए मिलने वाले धन की चिंता है.’                     

सोनकब्र!

उत्तर प्रदेश में सोनभद्र जिले के कई गांव एक महीने के भीतर 100 से भी ज्यादा बच्चों की मौत देख चुके हैं, लेकिन शासन यह मानने के लिए तैयार नहीं. और जाहिर सी बात है कि जब मानेगा ही नहीं तो कुछ करेगा भी क्यों? हिमांशु बाजपेयी की रिपोर्ट

सोनभद्र में हालात उससे कहीं ज्यादा बुरे हैं जितना सोचकर आप लखनऊ या दिल्ली से यहां आते हैं. महज कुछ घंटे यहां गुजारने के बाद ही सोनभद्र आपको सोनकब्र लगने लगता है. देश की सबसे विद्रूप इंसानी कब्रगाह, जहां जिंदगी के प्यादे को हर रोज पीटने के बाद भी मौत की बाजी खत्म नहीं होती. यह ऐसी जगह है जहां आकर आपको ‘हो रहा भारत निर्माण और सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय’ के नारे गाली से भी ज्यादा बुरे लगते हैं.  तंत्र द्वारा किए जा रहे इंसानी अस्तित्व के अपमान के बेशुमार नमूने यहां बिखरे पड़े हैं.

जिले के म्योरपुर ब्लॉक में एक रहस्यमय किस्म की बीमारी से पिछले एक महीने में 25 से ज्यादा निरीह बच्चों की मौतें हुई हैं (तहलका सभी परिवारों से मिला है और मृतकों की लिस्ट उसके पास है). रहस्यमय इसलिए कि शासन के अनुसार यहां कोई बीमारी ही नहीं है. शासन तो यहां तक कहता है कि कोई मौत भी नहीं हुई. लेकिन सच्चाई का पता ब्लाॅक के किसी भी गांव में घुसकर आसानी से लगाया जा सकता है. रिहंद बांध के किनारे बसे दो गांवों दधियरा और स्योढ़ों में ही शासन के दावों की असलियत सामने आ जाती है. इन गांवों में अभी भी हर घर में कोई न कोई बीमार जरूर है जिसकी तस्दीक महामाया सचल अस्पताल सेवा के वाहन के पास लगी भीड़ भी करती है.

यहीं हमारी मुलाकात गोंड जनजाति के राम प्यारे से होती है जिनकी सात साल की बेटी मंजू की मौत हमारे सोनभद्र पहुंचने के दो दिन पहले ही बुखार और एनीमिया के चलते हुई है. आज रामप्यारे एक और बीमार बच्चे के लिए दवा लेने आए हैं. बेटी की मौत के दो दिन बाद ही तहलका की मुलाकात राम प्यारे से हो जाती है लेकिन नवंबर से इस गांव के तीन दौरों का दावा करने वाले जिले के सीएमओ के मुताबिक उन्हें एक भी परिवार ऐसा नहीं मिला जहां किसी की मौत हुई हो. जबकि मंजू की मौत के दिन भी वे गांव के दौरे पर थे. उनका दावा है कि इलाके में एक भी अस्वाभाविक मौत नहीं हुई है.

तहलका ने 80 साल के एक बुजुर्ग से फॉगिंग के बारे में पूछा तो वे बोले कि पिछली बार यह जवाहरलाल के जमाने में हुई थी जब डैम बना था

लेकिन जब हम म्योरपुर के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के अधीक्षक उदयनाथ गौतम से बात करते हैं तो सच्चाई सामने आ जाती है. गौतम कहते हैं, ‘इन मौतों की वजह अलग-अलग है. कुछ को बुखार हुआ था, कुछ को पीलिया और निमोनिया की शिकायत थी तो कुछ के पेट में कीड़े थे. लेकिन मौत की बड़ी वजह सीवियर एनीमिया थी. यहां ब्लड बैंक की गंभीर समस्या है जिसके चलते भी कई मरीजों की जान चली जाती है.’ फिलहाल इन गांवों में मरीजों को राहत देने के लिए यहां महामाया सचल अस्पताल सेवा वाहन तैनात कर दिया गया है, लेकिन इससे भी मरीजों का ज्यादा भला नहीं होने वाला क्योंकि इनका सिर्फ नाम ही अस्पताल है जिसमें इलाज की मूलभूत सुविधाओं का भी अभाव है. दधियरा गांव में तैनात सचल अस्पताल सेवा के डाॅक्टर अनुराग केसरवानी कहते हैं, ‘हम बुखार के रोगियों को पैरासीटामाल जैसी बुनियादी दवाइयां दे रहे हैं. गंभीर बीमारी की आशंका पर हम उन्हें दूसरे अस्पताल में रेफर  कर देते हैं क्योंकि हमारे पास सुविधाएं नहीं हैं.’ इस बारे में सवाल पूछे जाने पर सीएमओ डॉ कुरील पहले तो इन वाहनों के सभी उपचार सुविधाओं से लैस होने का दावा करते हैं लेकिन जल्द ही कहते हैं कि असल में ये सेवा प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप पर आधारित है जिसकी व्यवस्था एक एनजीओ के माध्यम से देखी जाती है इसलिए कई दिक्कतें आती हैं.

मौत के कुचक्र में फंसे दधियरा और स्योढ़ो अकेले गांव नहीं हैं. न ही म्योरपुर अकेला ब्लॉक है. जिले में बेशतर जगह ऐसे ही हालात हैं. नमेना ग्रामसभा में भी आठ से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं. हरिहरपुर में भी कालचक्र जारी है. चोपन ब्लॉक में भी बुखार के चलते लगातार मौतंे हो रही हैं. बुखार कौन-सा है इस बारे में अभी तक कोई एक राय नहीं बन सकी है क्योंकि वह तो तब बनेगी जब सरकारी लोग यह मानंेगे कि यहां मौतें हुई भी हैं. वैसे सोनभद्र मलेरिया के प्रभाव वाला क्षेत्र  है, इसलिए यह आशंका जताई जा रही है कि यह बुखार मलेरिया का भी हो सकता है लेकिन सरकारी अमला इसे मानने को तैयार नहीं. म्योरपुर के पास स्थित बनवासी सेवाश्रम की रागिनी बहन कहती हैं, ‘जिस तरह से लगातार इतनी बड़ी संख्या में मौतें हो रही हैं उससे तो यही लगता है कि यह मलेरिया का प्रभाव है. आश्रम की तरफ से पहले भी क्षेत्र में कराई गई जांचों के बाद यह बात साबित हुई है. वह भी फेल्सीफेरम मलेरिया. जब हमने पहले इस बात को जांच में पाया था तब भी सरकारी लोगों ने इसे मानने से साफ इनकार कर दिया था. अगर यह बुखार मलेरिया न भी हो तब भी इन गांवों में जो हालात हैं उससे यहां मलेरिया होना तय है क्योंकि मलेरिया संभावित होने के बाद भी यहां दशकों से फॉगिंग नहीं हुई है.’ एक गांव थाड़ पाथर में जब तहलका ने 80 साल के महेंद्र से पूछा कि आपके गांव में फागिंग होती है तो वे बोले नहीं. फिर हमने पूछा आखिरी बार कब हुई थी तो उनका जवाब था, ‘जवाहरलाल के जमाने में जब डैम बना था.’ इस बारे में म्योरपुर के अधीक्षक का कहना है, ‘फाॅगिंग की मुहिम केंद्र और राज्य सरकार के पचड़े में फंस कर रुक जाती है, लेकिन फिर भी हम अपने स्तर पर कुछ गांवों में इसे करवा रहे हैं.’

म्योरपुर की तरह चौपन ब्लॉक में भी पिछले दो-तीन महीनों में मौत ने जी भर कर तांडव किया है. यहां की सिर्फ दो ग्रामसभाओं जुगैल और कुलडोमरी में पिछले दो महीनों में 100 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं. यहां इतनी बड़ी तादाद में मौतों की वजह यह है कि रेणुका पार का यह इलाका इतना दुर्गम है कि इसे स्थानीय बोलचाल में काला पानी भी कहा जाता है. बीमार होने की दशा में यहां के लोगों को पहाड़ी रास्तों पर से पैदल ओबरा तक आना पड़ता है जो यहां से तकरीबन तीस किलोमीटर की दूरी पर है. ओबरा तक पहुंचने का और कोई साधन नहीं है. अक्सर मरीज की रास्ते में ही मौत हो जाती है. बनवासी सेवाश्रम से जुड़े जगत विश्वकर्मा कहते हैं, ‘रेणुका पार क्षेत्र में उतनी ही मौतें पता चल पाती हैं जितनी हम जैसे लोग जा कर पता कर पाते हैं. यहां पिछले दो महीनों से 60 से ज्यादा मौतों का आंकड़ा हमारे पास है. यह भी सिर्फ पांच गांवों का है. इस पूरे क्षेत्र में 300 के लगभग गांव हैं. तकरीबन 50 गांव तो सिर्फ एक ग्रामसभा जुगैल में हंै. आप अंदाजा लगा सकते हैं कि स्थिति कितनी गंभीर है.’ विडंबना यह भी है कि मरने वालों में 95 फीसदी आदिवासी हैं.

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और स्वास्थ्य विभाग बांध का पानी जहरीला बता चुके हैं, पर प्रदूषण रोकने के लिए वे कुछ नहीं करते

अगर इतनी बड़ी संख्या में यहां मौतें हुई हैं तो इसकी एक वजह और भी है. चौदह लाख की आबादी वाले सोनभद्र जिले में अभी तक सिर्फ एक सरकारी ब्लड बैंक है. राबर्ट्सगंज स्थित जिला अस्पताल में. हाल-फिलहाल जो भी मौतें हो रही हैं उनकी बड़ी वजह सीवियर एनीमिया थी यह बात डाक्टर भी मानते हैं, ऐसे में अगर रेनूकूट के पास किसी मरीज को खून चढ़ना है तो वहां से रॉबर्ट्सगंज आने में तकरीबन चार घंटे लग जाते हैं. इतना समय किसी मरणासन्न की जिंदगी के लिए बेहद कीमती होता है. सीएमओ का रोना है कि ब्लड बैंक हमारे स्तर का मामला नहीं है.

अब जरा सोनभद्र में हो रही बीमारियों के एक दूसरे और बड़े पहलू पर गौर कीजिए. म्योरपुर ब्लॉक में ज्यादातर मौतें रिहंद बांध के किनारे स्थित गांवों में हुई हैं. यही हाल चोपन और जुगैल के तटवर्ती गांवों का भी है. इन सभी क्षेत्रों में औद्योगिक कारखानों से निकलने वाले कचरे का निपटान सीधा रिहंद बांध या रेणु नदी में किया जा रहा है. इसके चलते बांध और नदी का पानी बुरी तरह से प्रदूषित हो चुका है. रेनूकूट में कनोरिया कैमिकल्स फैक्टरी, जो अब आदित्य बिरला ग्रुप की हो गई है, से निकलने वाला बेहद जहरीला रसायन सीधे-सीधे बांध के पानी में बहाया जा रहा है. यह कचरा इतना खतरनाक है कि अगर इसे कुछ देर के लिए हाथ में लिया जाए तो हाथ में घाव हो जाता है. डैम के पानी को प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और स्वास्थ्य विभाग दोनों जहरीला और पीने के लिए अयोग्य बता चुके हैं, पर इसका प्रदूषण रोकने की दिशा में वे कुछ नहीं करते. इधर ओबरा में बने थर्मल विद्युतगृह की सैकड़ों लीटर राख सीधे-सीधे रेणु नदी में बहाई जा रही है, जिसकी वजह से नदी में जमाव-सा हो गया है. रिहंद जलाशय ही आसपास के हजारों गांवों की जलापूर्ति का स्रोत रहा है. ग्रामीण और पशु दोनों इसी पर निर्भर हैं. लेकिन अब इसका पानी शरीर में धीमे जहर की तरह काम करता है. डाॅक्टरों के मुताबिक इससे प्रतिरोधक क्षमता कम होती है. पीलिया, टीबी, सिल्कोसिस, दस्त वगैरह आम बात हैं.

म्योरपुर ब्लॉक में गांववालों की तरफ से वाटर ट्रीटमेंट प्लांट के लिए आंदोलन भी चलाया जा रहा है. जनसंघर्ष मोर्चा की तरफ से आंदोलन का नेतृत्व कर रहे दिनकर कपूर कहते हैं, ‘जब तक कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है, गांववालों को मजबूरी में जहरीला पानी पीना ही होगा, इसलिए हमारी मांग है कि जल्द से जल्द गांवों में एक ट्रीटमेंट प्लांट लगवाया जाए.’

बांध में जा रहे इस प्रदूषण के बारे में जब हमने राज्य प्रदूषण बोर्ड के सोनभद्र में तैनात अफसर कालिका सिंह से बात की तो उनका जवाब था, ‘ओबरा और कनोरिया को कुछ वक्त की मोहलत दी गई है, जिसके अंदर इन्हें अपना कचरा रोकना होगा. इसके बाद हम कार्रवाई करेंगें.’ दिलचस्प बात है कि करीब दो साल पहले सोनभद्र पर तहलका द्वारा की गई एक स्टोरी के दौरान बात करते वक्त भी कालिका सिंह का यही जवाब था. आलम यह है कि रेणुकूट के आसपास का इलाका बड़ी रसायन कंपनियों की फैक्टरियों से अटा पड़ा है. रेणुकूट में अपना निजी अस्पताल चलाने वाले डॉ विनोद राय तहलका से बातचीत में एक गंभीर खतरे की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि भविष्य में कभी भी यहां यूनियन कार्बाइड जैसी स्थिति हो सकती है क्योंकि इन फैक्टरियों में खतरनाक उत्पाद बनते हैं और सुरक्षा उपाय के नाम पर इन कंपनियों की तैयारी खस्ताहाल है.

‘ हमारा लोकपाल अलग-अलग मसौदों की खिचड़ी नहीं है ’

अतुल चौरसिया और रेवती लॉल के साथ बातचीत में लोकपाल मसौदा तैयार करने वाली स्थायी संसदीय समिति के अध्यक्ष अभिषेक मनु सिंघवी उन तमाम मसलों पर अपना पक्ष स्पष्ट कर रहे हैं जिन्हें लेकर टीम अन्ना को आपत्ति है

आपने लोकपाल का मसौदा बनाते वक्त किन चीजों का ध्यान रखा?

दो-तीन मुख्य बिंदु हैं जिन्हें समझने की जरूरत है. पहला तो है इसका समयांतराल- महज ढाई महीने. इस दौरान 15-16 बैठकें हुईं, लगभग 40 घंटों की बैठक में 10 घंटे सिर्फ टीम अन्ना के साथ बीते. 25 से ज्यादा मुद्दों पर विचार करना था. यह राजनीति, कानून, तकनीक और 14 राजनीतिक पार्टियों के 31 प्रतिनिधियों का एक जटिल मिश्रण था. इस लिहाज से यह ड्राफ्ट एक बड़ी उपलब्धि है. हमारा मानना है कि यह अब तक की सबसे मजबूत रिपोर्ट है. यह सरकारी, जनलोकपाल और एनसीपीआरआई के मसौदे की मिली-जुली खिचड़ी नहीं है.
लोकतंत्र में किसी प्रक्रिया को रबरस्टैंप की तरह इस्तेमाल करने की सोच बहुत गलत है. आप हर दूसरे दिन धमकी दे रहे हैं, हर तीसरे दिन कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं. संसद का सत्र अभी दो हफ्ते चलना है. आप 22 तक इंतजार क्यों नहीं करते. अगर आप फिर से अनशन शुरू करते हैं तो फिर संसदीय समिति के होने न होने का क्या मतलब है? अपनी बात रखने के दूसरे तरीके हो सकते हैं. जिन मुद्दों पर हमारे विचार आपस में नहीं मिलते उन पर आम सहमति की प्रक्रिया अपनानी चाहिए.

आपकी बातों में विरोधाभास है. एक तरफ आप कह रहे हैं कि अन्ना को संसद सत्र खत्म होने का इंतजार करना चाहिए, दूसरी तरफ आप यह भी कह रहे हैं कि आप उनकी बातों को मानने के लिए मजबूर नहीं हैं.

विरोधाभास नहीं है. हम यहां किसी को खुश करने के लिए नहीं हैं. हम सिर्फ संसद, देश की जनता और खुद के प्रति उत्तरदायी हैं.

टीम अन्ना के साथ आपकी बैठक कैसी रही?

बेहद आत्मीय माहौल में उनके साथ गहन और व्यापक बैठकें हुईं. सभी मुद्दों पर उनके साथ विस्तार से चर्चा हुई. टीम के सभी सदस्यों ने इसमें हिस्सा लिया. अन्ना भी आए थे, अरविंद भी थे, दोनों भूषण भी थे.

टीम अन्ना की दलील है कि अगस्त में संसद ने सदन की जिस भावना की बात कही थी अब उससे मुकरने का काम हो रहा है.

संसद में जो बहस हुई थी उसे प्रणब मुखर्जी ने पांच लाइनों में समेट कर बताया था. उनके मुताबिक ‘सेंस ऑफ हाउस को उपयुक्त प्रावधानों के साथ ही लागू किया जा सकता है.’ हम उस बात पर कायम हैं. हमने ऐसा कोई ड्राफ्ट नहीं बनाया है जो सेंस ऑफ हाउस को प्रतिध्वनित नहीं करता. संसद की संसदीय समिति का काम जनलोकपाल टीम की इच्छाओं और अनिच्छाओं को पूरा करना नहीं है.

सदन की जिस भावना के बाद अन्ना ने अपना अनशन खत्म किया था उसमें लोअर ब्यूरोक्रेसी और सिटिजन चार्टर को लोकपाल में शामिल करने की बात कही गई थी. लेकिन आपके ड्राफ्ट में उन्हें सीवीसी के तहत रखने का सुझाव है.

नोट में साफ कहा गया है कि इसके लिए उपयुक्त प्रावधान किए जाएंगे. आप बताइए, सदन की भावना में कहां कहा गया है कि लोअर ब्यूरोक्रेसी को हर हाल में लोकपाल के दायरे में शामिल करना है? लोगों को  इस मामले में गलतफहमी है.

सीबीआई को लोकपाल के दायरे में लाने के प्रति कई गलतफहमियां हैं. न तो इसे पूरी तरह लोकपाल के तहत रखा गया है न ही पूरी तरह बाहर रखा गया है.

ड्राफ्ट में इस मुद्दे पर आपको एक नई किस्म की रचनात्मकता देखने को मिलेगी. ड्राफ्ट में सीबीआई को स्वतंत्र बनाने के लिए एक स्पष्ट धारा का प्रावधान है. ऐसा देश के इतिहास में पहली बार हुआ है. इसके अलावा हमने एक ऐसा तंत्र बनाया है जिसके जरिए लोकपाल की जांच और अभियोजन प्रक्रिया बेहद प्रभावशाली हो जाएगी.

जनता के बीच ऐसा संदेश है कि लोकपाल को लेकर पार्टी के भीतर ही कई विचार हैं. मसलन प्रधानमंत्री को शामिल करने का मुद्दा ही ले लें.

प्रधानमंत्री तो एक व्यक्ति मात्र हैं जबकि यह एक सांस्थानिक मुद्दा है. भविष्य में क्या चीज अस्थिरता पैदा कर सकती है, इस बारे में सांस्थानिक नजरिये से ही सोचना पड़ेगा. जहां तक प्रधानमंत्री जी का सवाल है तो उन्होंने एक बार हल्के-फुल्के अंदाज में कह दिया था कि मेरी कैबिनेट फैसला लेने के लिए मुक्त है.

आपके पिता एलएम सिंघवी ने 1963 में सबसे पहले लोकपाल शब्द ईजाद किया था. इस लिहाज से यह बिल आपके लिए क्या मायने रखता है?

यह एक दिलचस्प संयोग है. सालों पहले किसी व्यक्ति ने एक शब्द ईजाद किया था बाद में उसके बेटे को उसका मसौदा तैयार करने का मौका मिला है. यह एक दैवी संयोग है और स्वाभाविक रूप से इसका कुछ भार मेरे मन पर है.