आशंकाओं का हथौड़ा

Untitled-7

बात जब न्यायपालिका से जुड़ी आशाओं और आशंकाओं की हो तो पहले यह जानना जरूरी हो जाता है कि न्यायपालिका से इस देश में किस तरह की भूमिका निभाने की अपेक्षा की जाती है. न्यायपालिका का काम है कि वह किसी मामले को उस तक लेकर आए अलग-अलग पक्षों को न्याय दे. इसके अलावा उससे यह भी अपेक्षा की जाती है कि वह संविधान और नागरिकों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा करेगी और यह भी सुनिश्चित करेगी कि कानून का पालन हो. इसका मतलब यह है कि उस पर अनुच्छेद 14 (बराबरी का अधिकार), 19 (अभिव्यक्ति, देश में कहीं भी आने-जाने और अपनी मर्जी का पेशा चुनने की स्वतंत्रता), 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) जैसे नागरिक अधिकारों की रक्षा करने की जिम्मेदारी है, न सिर्फ इनके शाब्दिक अर्थों के संदर्भ में बल्कि इनके पीछे छिपे व्यापक उद्देश्य के संदर्भ में भी जिसके तहत खुद सुप्रीम कोर्ट ने इन अधिकारों की व्याख्या की है.

इसलिए न्यायपालिका से यह अपेक्षा की जाती है कि देश के हर आम नागरिक को एक स्वतंत्र और गरिमापूर्ण जीवन के जो अधिकार मिले हुए हैं और जिनके तहत उसे रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि जैसी बुनियादी सुविधाओं का हक है, वह उनकी सुरक्षा करे. उससे यह सुनिश्चित करने की अपेक्षा भी की जाती है कि विधायिका और कार्यपालिका अपने अधिकारों की हद में रहकर ही काम करें और उनके किसी भी काम से लोगों के बुनियादी अधिकारों का अतिक्रमण न हो.

इन मानदंडों के नजरिए से देखा जाए तो बीते साल न्यायपालिका का प्रदर्शन निराशा जगाता है. जहां तक व्यक्तिगत मामलों में न्याय का सवाल है तो इस मोर्चे पर न्यायपालिका काफी हद तक एक निष्क्रिय संस्था नजर आती है. देश के अधिकांश नागरिकों की तो इस तक पहुंच ही नहीं है. जिनकी है उनमें से भी ज्यादातर के लिए न्याय व्यवस्था की शरण लेना बेकार की कवायद साबित होता है. ऐसे लोगों की संख्या दो फीसदी से ज्यादा नहीं होगी जो वर्तमान न्यायिक व्यवस्था से सार्थक न्याय पाने की आशा रखते हैं. गरीब के लिए अदालत की शरण लेना मुमकिन नहीं होता क्योंकि वह वकील की फीस नहीं दे सकता. जो किसी तरह ऐसा करने के साधन जुटा भी लेता है वह सालों तक अदालतों के चक्कर काटता है और आखिर में जब उसे न्याय मिलता है तो तब तक उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता.

न्यायपालिका से यह अपेक्षा की जाती है कि हर आम नागरिक को  गरिमापूर्ण जीवन के जो अधिकार मिले हुए हैं और जिनके तहत उसे रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं का हक है, वह उनकी सुरक्षा करे

पारदर्शिता और जवाबदेही न होने के चलते न्यायपालिका में फैले भ्रष्टाचार को देखा जाए तो वर्तमान न्यायिक व्यवस्था से न्याय की आशा रखना ज्यादातर लोगों के लिए मृगतृष्णा से ज्यादा कुछ नहीं.

विधि आयोग ने कई बार अदालतों और जजों की संख्या बढ़ाने की सिफारिश की है. सुप्रीम कोर्ट भी इस आशय के निर्देश दे चुका है मगर सरकार ने लगातार उसकी अवमानना की है. शीर्ष अदालत खुद भी अपने निर्देशों का पालन करवाने के प्रति गंभीर नहीं है. संख्या बढ़ाना तो दूर की बात है, अलग-अलग अदालतों में कई पद वर्तमान में खाली पड़े हैं और उन पर नियुक्तियां नहीं की जा रहीं.

हालांकि सब कुछ बुरा ही हो ऐसा नहीं है.

आशंकाओं के साए के साथ उम्मीदों की कुछ किरणें भी हैं. हाल ही में बना ग्राम न्यायालय कानून इसका उदाहरण है जिसके तहत ब्लॉक और तहसील स्तर पर और भी ज्यादा अदालतों की स्थापना की जानी है. इन अदालतों के कामकाज में अमूमन पाई जाने वाली जटिलताएं नहीं होंगी और वकीलों की मदद के बिना भी आम नागरिक को न्याय मिल सकेगा. अगर इन्हें तरीके से चलाया जाए तो यह ग्राम न्यायालय कम से कम छोटे-मोटे विवादों और अपराधों के मामले में तो आम आदमी को समय से न्याय दे सकेंगे.

हालांकि ग्राम न्यायालय की योजना तो अच्छी है मगर चुस्त न्याय व्यवस्था सुनिश्चित करने की दिशा में सरकार की सनातन सुस्ती को देखते हुए इसके समुचित क्रियान्वयन के लिए जनप्रतिनिधियों पर काफी दबाव बनाने की जरूरत होगी.

जहां तक दूसरे मोर्चे यानी संविधान के संरक्षक की जिम्मेदारी निभाने की बात आती है तो यहां पर भी न्यायपालिका का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है. कुछेक अपवादों को छोड़ दिया जाए तो हम पाते हैं कि लोगों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा करने में न्यायपालिका काफी हद तक असफल रही है. यहां तक कि जब विधायिका और कार्यपालिका ने इनका अतिक्रमण भी कर दिया तो भी यह स्थिति में हस्तक्षेप करने में नाकाम रही. अदालतों ने पोटा और सशस्त्र बल विशेष अधिकार जैसे बर्बर कानूनों की वैधता कायम रखी है. न्याय व्यवस्था की इस कमी के चलते इन कानूनों के तहत बिनायक सेन और दूसरे कई ऐसे बेकसूरों को जेल की यातनाएं झेलनी पड़ रही हैं जो निस्वार्थ और समर्पित भाव से अपना काम कर रहे थे. यहां तक कि जब निहित स्वार्थों के चलते सबूतों के साथ छेड़छाड़ करके बेगुनाह लोगों को सताया गया तब भी न्यायपालिका ने इसके लिए जिम्मेदार पुलिस अधिकारियों को दंड देने के लिए कोई कदम नहीं उठाया. इसका नतीजा यह हुआ है कि पुलिस की निरंकुशता बढ़ी है.

हाल ही में आतंकवाद, मानवाधिकार और कानून के विषय पर हुए एक सम्मेलन के दौरान भारत के मुख्य न्यायाधीश के जी बालकृष्णन ने कहा कि अंधराष्ट्रवाद के इस दौर में भी अदालतों का यह दायित्व है कि तथाकथित आतंकवादियों के नागरिक अधिकारों का आदर किया जाए. उम्मीद की जानी चाहिए कि अदालतें नागरिक अधिकारों खासकर सामाजिक कार्यकर्ताओं के बुनियादी अधिकारों से संबंधित मामलों में फैसला करते हुए इन शब्दों में छिपी भावना का सम्मान करेंगी.

दुर्भाग्य से गरीबों के लिए एक गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार के मामले में भी अदालतों की भूमिका अब मिसाल नहीं रही. बीते साल के दौरान देशी-विदेशी कंपनियों के व्यावसायिक हितों के लिए सरकार द्वारा गरीबों की जमीन और दूसरे संसाधनों के छीने जाने की घटनाओं में तेजी आई. गरीबों के संसाधन अमीरों को दिए जाने को रोकना तो दूर, अदालतें उल्टे इस लूट को प्रोत्साहन और मदद देती नजर आईं. इसका उदाहरण है पॉस्को और स्टरलाइट जैसी कंपनियों को उन जंगलों में खनन की अनुमति जो हजारों आदिवासियों का सब कुछ हैं. सरकार की नीतियों के फलस्वरूप संसाधनों की लूट, इतने बड़े पैमाने पर गरीबों के विस्थापन और खेती के सिमटते दायरे का नतीजा यह हुआ है कि कई जिंदगियां असमय कालकवलित हो रही हैं और हजारों लोग मजबूरी में शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं जहां उन्हें बेहद अमानवीय परिस्थितियों में रहना पड़ रहा है. उनके लिए समुचित आवास की सुविधा सुनिश्चित करवाना तो दूर अदालतें उल्टे उनके साथ किसी पॉकेटमार जैसा सुलूक कर रही हैं. अक्सर बिना कोई नोटिस दिए अदालतें उनकी झुग्गियां गिरा दी जाती हैं. इस सबसे गरीब तबके में सरकार और अदालतों के खिलाफ गुस्सा बढ़ता जा रहा है. हैरत नहीं कि नक्सलियों को और भी बड़ी संख्या में रंगरूट मिल रहे हैं और देश में उनका दायरा बढ़ता जा रहा है.

गरीबों के प्रति न्यायपालिका की इस संवेदनहीनता की एक वजह वह प्रक्रिया भी है जिसके तहत जजों का चुनाव और उनकी नियुक्ति होती है. इसमें मनमानी, पारदर्शिता और भाई-भतीजावाद हो रहा है. यही वजह है कि न्यायपालिका का शीर्ष स्तर कुछ चुनिंदा लोगों की बपौती बनकर रह गया है जिससे बदलाव सही मायने में नहीं आ पा रहा. यहां तक कि कुछ मामलों में यह पाए जाने पर भी कि नियुक्तियां वरिष्ठ जजों के से परामर्श (जो कि अनिवार्य है) लिए बिना की गईं, सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें रद्द नहीं किया. जज लगातार एक स्वतंत्र विधि आयोग बनाए जाने पर एतराज करते रहे हैं. अगर यह आयोग बन जाए तो जजों की नियुक्तियों में कुछ तो पारदर्शिता बरते जाने की आशा तो की जा सकती है.

बीते साल में कई न्यायिक घोटालों का विस्फोट देखने को भी मिला. इन मामलों ने एक संवैधानिक न्यायिक शिकायत आयोग की जरूरत को रेखांकित किया है जो जजों के खिलाफ लगने वाले आरोपों की जांच कर उनके खिलाफ कार्रवाई कर सके. मगर न्यायपालिका की तरफ से इसका लगातार विरोध हो रहा है जो चाहती है कि शिकायतों की जांच सिर्फ इसके द्वारा बनाई गई जजों की कोई संस्था ही करे. इस दबाव के आगे झुकते हुए  सरकार ने जज जांच सुधार विधेयक पेश किया है जिसके तहत न्यायपालिका में शीर्ष स्तर पर बैठे जजों के खिलाफ शिकायतों की जांच के लिए कार्यरत जजों की ही एक न्यायिक काउंसिल बनाए जाने का प्रावधान है. मगर प्रश्न यह है कि कौन ऐसी काउंसिल के सामने जजों की शिकायत करने की हिम्मत करेगा.

हालांकि उम्मीद की एक किरण यह भी है कि मीडिया ने आखिरकार न्यायपालिका की अवमानना के अपने डर को उतार फेंका है और न्यायव्यवस्था में फैले भ्रष्टाचार की अब बेझिझक रिपोर्टिंग होने लगी है. हालांकि इसका नकारात्मक पक्ष यह है कि कभी-कभी मीडिया सिर्फ आरोपों के आधार पर ही बात का बतंगड़ बना देता है और इससे दूसरे पक्ष की बात सुने जाने या फिर सच्चाई के सामने आने से पहले ही निर्दोष जजों की छवि प्रभावित होने का भी खतरा होता है. वैसे यह बात जरूर है कि मीडिया की नजर और न्यायिक जवाबदेही पर जनता में आ रही जागरूकता ने इस मुद्दे को सामने लाकर इसके तुरंत हल के लिए सरकार और न्यायपालिका पर दबाव बना दिया है जिसका वे ज्यादा दिन तक विरोध नहीं कर सकते. वह दिन दूर नहीं जब जजों के खिलाफ शिकायतों की जांच और यथोचित कार्रवाई करने के लिए एक स्वतंत्र न्यायिक शिकायत आयोग की स्थापना हो जाएगी.

आशाएं और आशंकाएं
31 जनवरी 2009