‘तसल्ली तब हुई जब शाख़ पे एक फूल आया’

फोटोः एपी
फोटोः एपी

उनकी कविताएं- जानम, एक बूंद चांद, कुछ नज़्में, कुछ और नज्में, साइलेंसेस, पुखराज, चांद पुखराज का, आॅटम मून, त्रिवेणी, रात चांद और मैं, रात पश्मीने की, यार जुलाहे, पन्द्रह पांच पचहत्तर एवं प्लूटो में संकलित हैं. उन्होंने बच्चों के लिये ‘बोसकी का पंचतंत्र’ भी लिखा है. यही नहीं, मेरे अपने, आंधी, मौसम, कोशिश, खुशबू, किनारा, नमकीन, मीरा, परिचय, अंगूर, लेकिन, लिबास, इजाजत, माचिस और हू तू तू जैसी सार्थक फिल्मों के निर्देशन के अलावा गुलज़ार ने मिर्जा गालिब पर एक प्रामाणिक टीवी सीरियल भी बनाया है.

वे आॅस्कर अवाॅर्ड, ग्रैमी अॅवार्ड, पद्म भूषण, साहित्य अकादेमी पुरस्कार, इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ एडवांस स्टडीज, शिमला के प्रतिष्ठित लाइफ टाइम अचीवमेंट फेलोशिप सहित तमाम अन्य अलंकरणों से सम्मानित हैं. साथ ही 20 बार फिल्मफेयर पुरस्कार एवं सात बार नेशनल अवार्ड से विभूषित किए गए हैं. पेश है गुलज़ार से विशेष बातचीत.

भारतीय सिनेमा के लिए शिखर उपस्थिति रखने वाले दादा साहब फाल्के पुरस्कार की यात्रा में एक कलाकार के बतौर जीवन में कुछ सुस्त कदम रस्ते और कुछ तेज कदम राहें बार-बार आई होंगी. यहां पहुंचकर कैसा लगता है?
इसमें एक परिपूर्णता की बात है. मुझे लगता है कि मैंने सिनेमा की परिधि पर चलते हुए एक ऐसा वृत्त पूरा किया है, जो कहीं भीतर से पूर्णता और संतुष्टि का एहसास कराता है. यह इसलिये भी कि यह सम्मान किसी एक फिल्म या एक गाने या एक स्क्रिप्ट या एक किताब या एक किसी खास चीज के लिये नहीं है, बल्कि वह आपके पूरे सृजन को एक ही बड़े परिसर में समेटता हुआ पुरस्कार है. मतलब आपको आॅस्कर भी दो बार मिल सकता है, ग्रैमी भी तीन बार मिल सकता है, फिल्मफेयर भी बीस बार मिल सकता है, राष्ट्रीय पुरस्कार भी सात बार मिल सकता है, जो मुझे सौभाग्य से मिला भी है, मगर दादा साहब फाल्के पुरस्कार तो एक ही बार मिलता है. वह भी तब, जब आपके काम की समग्रता को पूरे जीवन के हासिल के तौर पर जांचा जाए. इसलिये यह महत्त्वपूर्ण है. ऐसा लगता है कि जब घर से निकले थे, तब मैखाने जाकर रुके और संकरी तंग गलियों से गुजरकर आखिरकार मंजिल तक पहुंच ही गए. आप भी एक शायर हैं, अगर मैं आपकी जबान में इसे कहूं तो यह कुछ ऐसा ही है- हरे पत्ते भी थे, सरसब्ज थी शादाब थी टहनी/तसल्ली तब हुई जब शाख पे एक फूल आया. यह पुरस्कार मेरे लिये, मेरे रचनात्मकता के हरे-भरे जीवन में फूल की तरह आया है.

इस मौके पर, जब आपने उत्कृष्टता के स्वीकार का सर्वोच्च छू लिया है, अपने गुरु विमल राॅय को किस तरह याद करना चाहेंगे?
इस मुकाम तक पहुंचाने के लिये विमल दा ही पूरी तरह जिम्मेदार हैं. अभी स्टेट्समैन के किसी पत्रकार ने भी मुझसे यही पूछा था कि क्या आप इस पुरस्कार को अपने पिता को समर्पित करना चाहेंगे. उस समय मैंने उनसे यही कहा कि मैं इसे पिता को या परिवार में किसी को अर्पित करके उन सबको किसी तरह के धोखे में नहीं रखना चाहता, क्योंकि यह पुरस्कार तो आज इसीलिये मेरे पास तक आया है कि अगर मेरे गुरु विमल राॅय न होते, तो मैं यहां न होता. वे ही थे, जो मोटर गैराज से निकालकर मेरा हाथ पकड़कर अपने स्टूडियो लेकर आए और मुझसे कहा कि तुम कविता और गीत वगैरह लिखते रहो, मगर तुम्हें दुबारा लौटकर वहां नहीं जाना है, वह तुम्हारी जगह नहीं है, न ही तुम्हें अपनी जिंदगी को इस तरह जाया करना है. तुम यहीं रहकर सिनेमा की भाषा और उसका काम सीखो और इस माध्यम को अपनाओ, जो तुम्हारे शायर को भी एक नयी अभिव्यक्ति दे सकता है. मुझे याद है कि किस तरह इस बात पर मैं फूट-फूटकर रोया था. अब आप बताइए, ऐसे गुरु का हाथ पकड़कर जबरन फिल्मों में प्रवेश करने की हिमाकत, जिसने मेरी बाकी की पूरी जिंदगी का मानी और शायरी का किरदार ही बदलकर रख दिया, उससे अलग फाल्के या किसी भी पुरस्कार का श्रेय मैं किसको दे सकता हूं?

आपसे पहले जिन अन्य हिंदी फिल्म-निर्देशकों को यह पुरस्कार मिला, उनमें राजकपूर, बीआर चोपड़ा, ऋषिकेश मुखर्जी, श्याम बेनेगल और यश चोपड़ा जैसे मूर्धन्य शामिल हैं. इनमें से आप खुद को किस तरह अलग करके देखते हैं?
मैं इन सारे बड़े और नामचीन लोगों को पूरे आदर के साथ देखता हूं, लेकिन इसी में एक शख्स ऐसा भी है, जिसको बड़ी चाहत से देखता रहा हूं. वे हैं कवि पं. प्रदीप जी. उनकी यात्रा देखिए. उन्होंने ही सबसे पहले कहा था- ‘दूर हटो ऐ दुनियावालों हिन्दुस्तान हमारा है’ और अपने यात्रा के अन्तिम पड़ाव तक आते हुए वे ही यह लिख पाये- ‘ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी’. यह कितनी बड़ी बात है कि आजादी से पहले और बाद की दो परिस्थितियों को उन्होंने जिस तरह देखा व भोगा था, उसे अपनी कलम से इस तरह दो विभिन्न दशाओं में जाकर उतनी ही शिद्दत से महसूस और व्यक्त भी किया. यह कमाल की बात लगती है और उनकी यात्रा भी शायद इसीलिये एक महान यात्रा है. उनको मिला हुआ फाल्के पुरस्कार मुझे इसीलिये बेहद अपील करता है कि वह सिनेमा को ऊंचाई पर ले जाने वाले एक कवि का सम्मान है.

इस मुकाम पर पहुंचकर सिनेमाई अभिव्यक्ति के क्षेत्र में वे कौन सी दरारें और खरोंचे हैं, जो अभी भी आपको एक कलाकार के बतर्ज कचोटती हैं?
किसी भी क्रिएटिव प्रोसेस में दरारें नहीं होतीं बल्कि जैसे-जैसे हम बढ़ते जाते हैं या अपने फन में बढ़त लेते हैं, वो गैप नजर आता है जो पहले नहीं दिखता था. वह किसी तरीके से कोई निगेटिव बात नहीं होती, न ही किसी भी तरह का नकार होता है. उसे हम अपने बढ़ते जाने के दौरान थोड़ा परिपक्व होने के रूप में ले सकते हैं कि हमारी समझ का दायरा थोड़ा फैला है या कि हम उन्हीं बातों को तमाम दूसरे कोणों से भी देख और सोच सकते हैं. एक तरीके से वह रचनात्मक उपज होती है, जो कोई भी फनकार समय के साथ धीरे-धीरे विकसित करता है. सिनेमा कला का रोज-रोज विकसित होने वाला माध्यम है. हम जब फिल्मों में आये थे, तब से लेकर अब तक भाषा, जुबान, तकनीकी, मुहावरा, रेकार्डिंग, सेट और पूरा फिल्मांकन सब कुछ न सिर्फ बदल गया है, बल्कि देखते-देखते तमाम नयी और बेहतर चीजों को अपने दायरे में समेट चुका है. ऐसे में सिर्फ खुद को विकसित करते चलने में ही तमाम दरारों और खरोचों को बेमानी किया जा सकता है. यह कुछ-कुछ उसी तरह का काम होगा, जैसे कोई माली किसी पेड़ को सुंदर और लुभावना बनाने के लिये लगातार उसकी काट-छांट, तराश और सिंचाई करते हुए खुद की कला को भी निखारता रहे, जिससे उसका लगाया हुआ पेड़ एक दिन चलकर मुकम्मल और मजबूत दरख्त के रूप में नजर आए.

आपकी साहित्यिक और सिनेमाई यात्रा में चांद हमसफर की तरह मौजूद रहा है. वह आपका दोस्त भी है, नज्मों का किरदार भी और आपका सवाली भी. कभी सूरज से दोस्ती करने का मन नहीं हुआ?
(हंसते हुए) सूरज की ओर जब भी देखा, तो उसने आंखें चुंधिया दीं. इसीलिये उसको देखने के लिये हर बार आईने की जरूरत पड़ी. मैंने आईने में ही सूरज का पूरा अक्स देखा होगा. ठीक वैसे ही, जैसे खिलजी ने आईने में पद्मिनी के सौंदर्य को देखा था. मैं सूरज की आभा को चांद के माध्यम से ही देखता हूं.

आज इस मौके पर, अपने मित्रों खासकर शैलेंद्र, आरडी बर्मन, किशोर कुमार और संजीव कुमार की अनुपस्थिति का कितना अभाव महसूस करते हैं?
वह तो अब तक महसूस करता हूं. इस मौके पर ही नहीं, हमेशा ही इन सब की कमी खलती है. शैलेंद्र जिसने फिल्मों की ओर भेजा और डांटा था, विमल दा, जिन्होंने हाथ पकड़ा था. पंचम जिसने हमेशा साथ निभाया और एक व्यक्ति देबू सेन जो हाथ पकड़कर विमल दा के पास मुझे लेकर गया था. जब इस पुरस्कार की घोषणा हुई, तो उसका फोन आया और वह खुशी से हंस रहा था. उसने कहा, ‘यार मुझे याद है कि मैं तेरा हाथ पकड़कर दादा के पास ले गया था और तुमने आज वह ऊंचाई छू ली है, जिसकी शायद तुमने तमन्ना भी न की थी, जब फिल्मों हम दोस्तों के दबाव के कारण आए थे. आज सचमुच बहुत अच्छा लग रहा है.’ और यह शायद मेरे लिये सबसे बड़ा काॅम्पलीमेण्ट और प्यार है, जो मेरे दोस्त मुझे दे सकते थे. फिर हरी भाई (संजीव कुमार) को भी कैसे भुला सकता हूं जो मेरी कोई भी फिल्म करने के लिये तैयार रहते थे और किशोर दा, जिन्होंने मेरे गीतों को गाकर अमर बनाया.

क्या आप मीनाकुमारी जी की जिंदगी पर रोशनी डालने वाली किसी फिल्म का निर्माण करने की तमन्ना रखते हैं? आप ही वह व्यक्ति हैं, जो मीना जी की शखि़्सयत का सबसे मकबूल चेहरा हमारे सामने लाकर रख सकते हैं?
जिस तरह का माहौल आज हो गया है, उसमें बड़े एहतियात की जरूरत है कि हम किसी ऐसे बड़े किरदार के बारे में कुछ सोचें या बनाएं तो उस पर किस तरह की प्रतिक्रिया सामने आएगी. वे जिस तरह की पाकीजा शख्सियत थीं और महान अदाकारा, उनके प्रति कुछ भी बनाने से पहले बहुत सम्मान से सोचने और उसी तरह के सम्मानजनक परिवेश को टटोलने की आवश्यकता महसूस होती है. मुझे लगता है कि आज चीजों को मिसइण्टरप्रेट करने का जो चलन चल पड़ा है, ऐसी महान हस्ती को उसमें पड़ने से बचाना चाहिए और फिल्म नहीं बनानी चाहिए. मेरी जिंदगी में वे एक बड़ी रूह की तरह मौजूद रही हैं और उस संजीदगी व पवित्रता को आज के समय में सिनेमा की शर्तों पर ले जाने का काम मैं नहीं कर सकता.

यदि मैं आपके गीतों से मेटाफर उधार लेकर एक प्रश्न पूछूँ, तो आपके वे कुछ सामान किसके लिए हैं? किसकी ख़ातिर भीगे से खत लिखे गए हैं? और उनसे लिपटी कितनी रातें हैं, जो आपके पास लौटने के लिये बार-बार अपने शायर का चेहरा देखती हैं?
वह कोई एक चेहरा या एक किरदार नहीं होता जिसके लिये शायर कुछ सोचने के लिये मजबूर होता है. एक चेहरे के पीछे पूरी कायनात होती है या आप उसे पूरी कायनात के चेहरे के रूप में देख सकते हैं. अब यदि हम ‘हमने देखी है इन आंखों की महकती खुशबू’ कहें, तो उसमें ही यह लाइन आती है- ‘नूर की बूंद है सदियों से बहा करती है’. आंखों की महकती खुशबू से होते हुए नूर की बूंद तक पहुंचना और उसका सदियों से बहते हुए देखा जाना, यह कैसे संभव हो पाता है? इसका मतलब है कि कविता में कोई भी चीज एक ही चेहरे, किरदार या समय के पीछे नहीं होती, बल्कि उसमें पूरी जिंदगी और पूरे कायनात का चेहरा मिला होता है. तो ये सारे भीगे हुए खत, ढेरों रातें और सावन की बूंदें सभी कुछ पूरे कायनात में फैले हुए ढेरों चेहरों और किरदारों से मुखातिब हैं.

फोटोः त्रिलोचन कालरा
फोटोः त्रिलोचन कालरा

जिस तरह मोमिन के एक शेर पर फिदा होकर गालिब ने अपना पूरा दीवान ही उनको नजर करना चाहा था, ठीक उसी तर्ज पर वह कौन सा ऐसा फिल्म-गीत है, जो आपके वरिष्ठ गीतकार, समवयसी मित्र या नये शायर ने लिखा होगा, जिसके लिए आप अपने गीतों को उसके सजदे में डालना चाहेंगे?
कोई एक नाम नहीं है, बल्कि कई आवाजें हैं. इनमें से शैलेंद्र को मैं सबसे ऊपर रखता हूं, जो हल्के-फुल्के ढंग से यह कहते हुए ‘मेरा जूता है जापानी यह पतलून इंग्लिस्तानी’ के साथ अचानक से यह कह डालता है ‘होंगे राजे राज कुंवर हम बिगड़े दिल शहजादे, हम सिंहासन पर जा बैठें, जब-जब करें इरादे’ तब उसकी सोच की बुलंदी को देखकर आश्चर्य होता है. एक आम आदमी के जज्बे का इतना बड़ा फलसफा हैरानी में डालता है. फिल्मों की आम सिचुएशन में इतने बड़े इरादों की बात कह देने वाला शैलेंद्र है, जो बार-बार आपको पढ़ने और सोचने के लिये मजबूर करता है. आजकल चुनावों का मौसम है और आप देखें कि आम आदमी की जो बात और जद्दोजहद है, उसे पचासों साल पहले किस तरह एक फिल्म गीत में ढालकर शैलेंद्र अवाम तक पहुंचा चुके हैं. दूसरी तरफ साहिर लुधियानवी हैं, जिन्होंने फिल्म माध्यम को नहीं अपनाया, बल्कि फिल्म माध्यम ने ही उनकी शर्तों पर उनको स्वीकार करके अपना बनाया. आप उनके एक गाने का टुकड़ा देखिए- ‘पेड़ों की शाखों पे सोयी-सोयी चांदनी/और थोड़ी देर में थक के लौट जाएगी’. यह देखने वाली बात है कि चांदनी का थकना और लौट जाना किसी भी शायर ने मेरी जानकारी में आज तक नहीं लिखा है. मैं ऐसे बड़े और संजीदा गीतकारों, शायरों का एहतराम करता हूं और आप दीवान की बात कह रहे हैं, मैं तो इन लोगों और इनके गीतों पर अपनी पूरी दीवानगी न्यौछावर करने को तैयार हूं.

कोई कमी, अधूरापन, अभाव, रिक्तता या छूट जाने का भाव बचा है आपके रचनात्मक जीवन में, जिसे पूरा कर लेने की हसरत मन में अभी भी पल रही हो?
मुझे लगता है कि जिंदगी और कला दोनों में ही हासिल किया हुआ कम है और छूट ज्यादा गया है. एक आदमी के जीवन में जो जान लिया गया है, उससे ज्यादा अनजाना रहता है, जो ज्ञान बटोर लिया है उससे कहीं अधिक अज्ञान की बंजर जमीन भी अंदर मौजूद रहती है. यह मैं जरूर कहूंगा कि मुझे मिला बहुत है, मगर उससे ज़्यादा सीखने को भी बाकी रह गया है. अगर यह कहूं कि मैं समझदार हो गया हूं, तो वह गलत होगा अभी बहुत कुछ ऐसा बचा है, जिसे समझना और पाना बाकी है.