‘नई पार्टी का गठन रमन सिंह के गांव में इसलिए किया ताकि शेर की मांद में घुसकर उसका शिकार करूं’

सभी फोटो : तहलका आर्काइव
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तीस साल आपने कांग्रेस में बिताए फिर अचानक से पार्टी से मोहभंग होने का क्या कारण रहा?

किसी से कोई मोहभंग नहीं है. दो भावनात्मक कारणों से मैंने नया दल या नई राह पर चलने का फैसला किया. पहला कारण यह कि मुझे लगता है कि एक बेहद गरीब आदिवासी परिवार में पैदा होकर भी मुझे बहुत कुछ मिला. आईपीएस-आईएएस रहा, इंजीनियर, प्रोफेसर, वकील, राज्यसभा और लोकसभा सांसद रहने के अलावा कांग्रेस के अधिकांश बड़े पदों पर रहा. एक समय मैं पार्टी का इकलौता प्रवक्ता था. मुख्यमंत्री भी रहा. यह सब मुझे छत्तीसगढ़ की धरती से मिला. जहां मैं पैदा हुआ. जहां के लोगों ने मुझे इतना प्यार दिया तो जीवन के अंतिम कुछ वर्ष मैं छत्तीसगढ़वासियों को समर्पित करना चाहता हूं. इसलिए अखिल भारतीय भूमिका को छोड़कर केवल छत्तीसगढ़ पर ध्यान केंद्रित करने की ठानी है. यह तभी संभव था कि अपने नेतृत्व में एक आंचलिक दल का गठन किया जाए, जहां सारे निर्णय मैं ले सकूं और सत्ता हासिल करके वो सब किया जाए जो आज राज्य में नहीं हो रहा है. छत्तीसगढ़ के निर्णय छत्तीसगढ़ में नहीं लिए जाते. धान पैदा करने वाला प्रदेश है यह, एक ही उपज होती है लेकिन समर्थन मूल्य दिल्ली से तय होता है. राज्य की भाजपा सरकार ने घोषणा पत्र में तय किया था कि 2400 रुपये प्रति क्विंटल देंगे पर दिल्ली से 1450 रुपये का भाव तय हो गया. राज्य सरकार को मानना पड़ा. लेकिन जब एक आंचलिक सरकार होगी तो दिल्ली से चाहे जितना तय हो, हम राज्य के लिए जो उचित समझते हैं, अपने बजट से देंगे. इसके लिए जरूरी था कि कांग्रेस और भाजपा के अलावा कोई क्षेत्रीय विकल्प भी राज्य की जनता के सामने हो.

राज्य में एक बांध बन रहा है कोलावरम जिसका पूरा फायदा आंध्र प्रदेश को होगा. हमारे 40,000 आदिवासी विस्थापित होंगे, जिनमें दो ऐसी उपजातियां होंगी जो विलुप्त ही हो जाएंगी. इसका विरोध न भाजपा कर सकती है और न कांग्रेस क्योंकि केंद्र सरकार में रहते हुए दोनों ही दल इस बांध के निर्माण को स्वीकृति दे चुके हैं. लेकिन अगर राज्य में किसी तीसरे दल की सरकार होती तो विरोध कर सकती थी. ऐसे ही झारखंड में बन रहे कनहर बांध से छत्तीसगढ़ के 30-35 हजार आदिवासी प्रभावित होंगे. उसका भी हम विरोध नहीं कर सकते. ऐसे अनेकानेक उदाहरण हैं जिसमें राष्ट्रीय दल से बंधे होने के कारण इन दोनों दलों की स्थानीय सरकारें बहुत-सी चीजों का विरोध नहीं कर पातीं. इसी संदर्भ में नक्सलवाद को भी ले सकते हैं. मेरे कार्यकाल में छत्तीसगढ़ देश का सबसे कम नक्सल प्रभावित राज्य था पर आज सबसे अधिक नक्सली घटनाएं यहीं होती हैं. इन समस्याओं का समाधान कोई आंचलिक पार्टी की सरकार ही कर सकती है.

दूसरा कारण है कि छत्तीसगढ़ संसाधनों की दृष्टि से देश का सबसे धनाढ्य प्रदेश है. खनिज संपदाओं का भंडार और समृद्ध वनक्षेत्र है यहां. छत्तीसगढ़ ‘धान का कटोरा’ भी कहलाता है. बावजूद इसके लाभ विकास के सबसे निचले पायदान पर खड़े गरीब आदिवासी तबके तक नहीं पहुंच रहा है. हमारे संसाधनों की खुली लूट मची है. लोहा, पानी, बिजली, सीमेंट, स्टोन सब कुछ राज्य के बाहर जा रहा है पर हम जहां के तहां हैं. अब यह अडानी ले जाए या कोई और ले जाए, हमको क्या फायदा? अडानी ले जाए कोई दिक्कत नहीं पर वो कुछ ऐसा भी तो करे कि प्रदेश के ढाई करोड़ लोगों का जीवनस्तर सुधरे. कहते हैं कि हमारी जीडीपी बढ़ रही है पर वास्तविकता ये है कि उच्च तबके के 200-300 लोगों को छोड़ दें तो निचले तबके के लोग वहीं के वहीं हैं. नीचे के लोग वहीं के वहीं कायम हैं. सोनिया गांधी को यही दो कारण बताकर मैं कांग्रेस से स्वतंत्र हो गया. इसलिए मोहभंग जैसी स्थिति नहीं है.

आपकी पत्नी रेणु जोगी कांग्रेस से सदन में विपक्ष की उपनेता हैं. क्या ऐसा इसलिए ताकि कांग्रेस में वापसी के रास्ते खुले रहें?

मैं छत्तीसगढ़ के बाहर देखना ही नहीं चाहता. इसलिए किसी भी अखिल भारतीय भूमिका में नहीं रहना चाहता था. नतीजतन मैंने खुद को कांग्रेस से अलग किया. अब वापसी का कोई सवाल ही नहीं उठता. रहा सवाल मेरी पत्नी का तो यह मेरा फैसला है, उनका नहीं. उन्हें तो अाखिर तक मेरे इस फैसले की भनक तक नहीं थी. बाद में इस पर हमारे बीच बहस भी हुई.

सलवा जुडूम तो एक जन विरोधी फैसला था. ये एक बड़ी गलती थी जिसके कारण माओवाद ने राज्य में विकराल रूप धारण कर लिया, यह गांव-गांव तक फैल गया. आज हर गांव में कुछ नक्सली हैं

प्रदेश में नक्सलवाद एक बड़ी समस्या है. इससे निपटने का आपके पास क्या रोडमैप है?

तीन मोर्चों पर नक्सलवाद से एक साथ लड़ना होगा जो वर्तमान सरकार आज नहीं कर रही. पहला है, सामाजिक-आर्थिक मोर्चा. बस्तर का आदिवासी आज इस हालत में है कि वहां सड़क, पानी, बिजली कुछ नहीं है. स्कूल है पर शिक्षक नहीं हैं. अस्पताल है तो डॉक्टर नहीं. मुख्यधारा से वे कोसों दूर हैं. उन्हें लगता है कि वे भारत का अंग ही नहीं हैं. बेरोजगारी और अशिक्षा के चलते अतिवाद तो अपने पैर पसारेगा ही. इसलिए जब नक्सली आते हैं और उन्हें हालात सुधारने का आश्वासन देते हैं तो वे उनकी तरफ आकर्षित हो जाते हैं. पहले तो इस मोर्चे पर जमकर लड़ाई लड़नी होगी. मेरे मुख्यमंत्री रहते हुए सरकार की हर गांव तक पहुंच थी. मैं खुद वहां जाता था. इससे उनका विश्वास बनता था. समाज के लोगों को महसूस होना चाहिए कि वे मुख्यधारा के अंग हैं. लेकिन वर्तमान में आदिवासी ऐसा महसूस नहीं करता. वर्तमान सरकार इस ओर ध्यान न देकर बस बंदूक का मुकाबला बंदूक से करना चाहती है.

दूसरा मोर्चा है- राजनीतिक मोर्चा. नेपाल इसका उदाहरण है. वहां माओवादियों से राजनीतिक स्तर पर चर्चा करके समस्या का समाधान खोजा गया. माओवादी आज वहां प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन रहे हैं. हमारे यहां ऐसी राजनीतिक पहल कतई नहीं होती, न बातचीत की और न ही नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में किसी दूसरी विचारधारा को लाने की. वहां के आदिवासी को एक ही विचारधारा प्रभावित कर रही है, एक्सट्रीमिस्ट लेफ्ट या माओवाद की विचारधारा. उसको कोई ऐसी विचारधारा प्रभावित नहीं कर रही कि लोकतांत्रिक तरीके से भी आगे बढ़ा जा सकता है. ये विचारधारा वहां स्थापित की जाए और संभव हो तो बातचीत के दरवाजे खोले जाएं.

तीन में से सिर्फ एक मोर्चा खुला है, वह है- कानून और व्यवस्था यानी बंदूक का मोर्चा. मेरा मानना है कि यह मोर्चा भी जरूरी है. अगर वो बंदूक में विश्वास रखते हैं तो उसका जवाब तो देना पड़ेगा. पर इसमें भी विफल इसलिए हो रहे हैं कि वहां सुरक्षा बलों को स्थानीय निवासियों का सहयोग नहीं मिल रहा. अगर उत्तर में नक्सली डेरा डाले हुए हैं तो दक्षिण बताया जाता है क्योंकि लोगों में उनके प्रति सहानुभूति है. इसलिए ये मोर्चा खुला रहे पर स्थानीय लोगों का विश्वास भी हासिल करना चाहिए. तब सफलता हाथ लगेगी. जब इन तीनों मोर्चों पर लड़ेंगे तभी स्थितियां बदलेंगी.

सरकार तो कहती है कि सलवा जुडूम नक्सलवाद के खिलाफ स्थानीय लोगों का ही कार्यक्रम था और आप कह रहे हैं कि स्थानीय लोग सुरक्षा बलों की मदद को आगे नहीं आते?

देखिए, सलवा जुडूम का तो मैंने पहले ही दिन से विरोध किया था. कांग्रेस के महेंद्र कर्मा जिन्होंने भाजपा के शासनकाल में सलवा जुडूम की नींव रखी, वे मेरे कार्यकाल में मंत्री हुआ करते थे. मेरे समक्ष उन्होंने कई बार एक नक्सल विरोधी सशस्त्र जनांदोलन चलाने का प्रस्ताव रखा पर मैंने हमेशा उसे खारिज कर दिया. इसी कारण कि आम आदिवासी को एके 47 थमाकर नक्सलवादियों का सामना करने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता. उन्हीं महेंद्र कर्मा ने कम्युनिस्ट पार्टी में रहते हुए ऐसा ही एक जनांदोलन चलाया था. उसके आंकड़े मैंने उन्हें दिखाए कि उस जनांदोलन से जुड़ा कोई भी नेता नक्सलियों ने जीवित नहीं छोड़ा. मैंने समझाया था कि सलवा जुडूम का भी यही हश्र होगा और वही हुआ. मेरे ख्याल से सलवा जुडूम को समर्थन देने वाले 25 प्रतिशत ही नेता जीवित बचे होंगे. इसलिए मैंने छत्तीसगढ़ से लेकर दिल्ली तक उसका विरोध किया था. पी. चिदंबरम तब हमारे गृहमंत्री थे. उनके साथ व्यक्तिगत मनमुटाव तक की स्थिति आ गई थी.

सलवा जुडूम के कारण 900 आदिवासी गांवों में कोई इंसानी वजूद नहीं रहा. जो आदिवासी सलवा जुडूम का हिस्सा बने, उन पर नक्सली घात लगाकर वार करते थे. पुलिस तो पूरे 900 गांवों में 24 घंटे रह नहीं सकती. इसलिए सरकार को ज्यादा मुफीद गांव खाली कराना लगा. करीब 900 गांवों के 77 हजार लोगों को विभिन्न कैंपों में बसा दिया. उनसे उनका जल, जंगल और जमीन छिन गया और वे युद्धबंदियों की तरह कैंपों में बसा दिए गए. इसलिए सलवा जुडूम तो एक जन विरोधी फैसला था. अगर सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप न होता तो अब भी यह जारी रहता. भाजपा सरकार कांग्रेसी महेंद्र कर्मा के कंधे पर बंदूक रखकर चला रही थी और खुद को पाक-साफ बताने में लगी थी. महेंद्र कर्मा भी खुश था, ये भी खुश थे. मरता तो बस आदिवासी था. मानवाधिकारों की जमकर अनदेखी हुई. सलवा जुडूम वो बड़ी गलती थी जिसके कारण माओवाद ने राज्य में विकराल रूप धारण कर लिया, गांव-गांव तक वह फैल गया. आज हर गांव में कुछ न कुछ ग्रामवासी नक्सली हैं. शायद ही कोई गांव ऐसा हो जहां इस विचारधारा के लोग न हों.

मैंने इन गांवों में समय बिताया है इसलिए कह सकता हूं कि सुरक्षा बलों के लिए ये पहचानना कि ‘क’ नक्सली है और ‘ख’ नक्सली नहीं, असंभव है. गांववाले भी कुछ नहीं बताते. आदिवासी और नक्सली में भेद ही नहीं कर सकते इसीलिए मारने दो को जाते हैं और मार बीस को आते हैं. इस तरह मानवाधिकार नाम की तो वहां कोई चीज ही नहीं है. हमें लोगों में विश्वास बहाली की जरूरत है ताकि वे नक्सलियों की पहचान में मदद करें. वर्तमान में बस आदिवासी पिस रहा है. नक्सली आकर बोलता है, ‘मुझे खाना खिलाओ’ तो उसे खाना खिलाना पड़ेगा. खाना खाकर जब नक्सली आगे बढ़ जाता है तो पुलिस आती है और पूछती है, ‘उसे क्यों खाना खिलाया?’ अब पुलिस गोली मारेगी. अगर नक्सली को मना करेगा तो वो गोली मारेगा. आदिवासी तो दोनों तरफ से मरा न.

ये लुटेरों और भ्रष्टाचारियों की सरकार है. पिछले 13 साल में प्राकृतिक संसाधनों की बेतहाशा लूट हुई है. भ्रष्टाचार चरम पर है. सड़क, बिजली, पानी जैसी सुविधाएं तक दिखाई नहीं देतीं 

राज्य में आदिवासियों के अधिकारों का जमकर उल्लंघन होता है. उनकी एफआईआर तक नहीं लिखी जाती हैं.

पहली बात तो आदिवासी पुलिस के पास जाने की हिम्मत ही नहीं करता. पुलिस के पास जाएगा तो वह उल्टा मारेगी और नक्सलियों के पास जाएगा तो भी पुलिस आकर मारेगी. नक्सलियों की शिकायत पुलिस से करेगा तो भी नक्सली मारेंगे. वो तो हर क्षण अपनी जान को हथेली पर रखकर जी रहा है. और वही मैंने कहा कि सरकार सिर्फ बंदूक की लड़ाई लड़ रही है, बाकी उसे कुछ नहीं दिख रहा.

छत्तीसगढ़ में पहले भी कई क्षेत्रीय दल बन चुके हैं लेकिन किसी को कोई खास सफलता नहीं मिली.

तब के नेतृत्व और परिस्थितियों में आज के हिसाब से बहुत अंतर है. डॉ. खूबचंद बघेल ने ‘छत्तीसगढ़ भ्रातृ संघ’ बनाया. ठाकुर प्यारेलाल सिंह और पंडित सुंदरलाल शर्मा ने भी ऐसे ही प्रयास किए. और भी ऐसे कई विफल प्रयास हुए. कारण यह रहा कि लंबे समय तक कांग्रेस के साथ आजादी के आंदोलन का माहौल था. कांग्रेस खाली बिजली का एक खंभा खड़ा करके भी जीत सकती थी. इसलिए उस समय क्षेत्रीय दलों के उभरने की संभावना नगण्य थी. एक कोशिश विद्याचरण शुक्ल ने भी की. उन्हें इसलिए विफलता हाथ लगी कि चुनाव के महज छह महीने पहले उन्होंने पार्टी बनाई. छह महीने में क्या होता है, तीन महीने तो टिकट बांटने में लग जाते हैं. उन्होंने एक राष्ट्रीय दल छोड़ दूसरा दल भी राष्ट्रीय बनाया. क्षेत्रीय दल बनाते तो कुछ संभावना बनती. क्षेत्रीयता लोगों को लुभाती है. मैंने चुनाव के ढाई साल पहले पार्टी बनाई है ताकि उसे मजबूत करने के लिए पर्याप्त समय मिले.

नई पार्टी के नाम की घोषणा करने के लिए आपने मुख्यमंत्री रमन सिंह के गांव ठाठापुर काे ही क्यों चुना?

अपने घर में तो कोई भी भीड़ जमा कर सकता है. लोगों में संदेश तब जाता जब मैं मुख्यमंत्री के घर में अपनी लोकप्रियता साबित करूं. शेर की मांद में घुसकर शेर का शिकार करूं. रमन सिंह मेरे ठाठापुर जाने की खबर से सकपका गए. पंद्रह सालों में उन्होंने पहली बार वहां रात बिताई. आसपास के गांववालों से मेरी सभा में न जाने का आग्रह किया. फिर भी अभूतपूर्व भीड़ आई जिससे पूरे राज्य को संदेश गया कि अजीत जोगी, रमन सिंह के घर में सभा करके भी हजारों की भीड़ जुटा सकता है.

वर्तमान में कांग्रेस के कितने विधायकों का आपको समर्थन है?

संख्या तो मैं अभी उजागर नहीं करना चाहता. पर छत्तीसगढ़ का ट्रेंड है कि सिटिंग एमएलए नहीं जीतते. पिछले तीन चुनावों में साठ से सत्तर प्रतिशत सिटिंग एमएलए हारे हैं. पिछले चुनाव में 35 सिटिंग एमएलए को कांग्रेस ने टिकट दिया, 27 हार गए. जो आठ जीते उनमें से दो जोगी थे, वो पार्टी से लड़ें या न लड़ते, उनकी जीत तय थी. मतलब 35 में से केवल छह जीते. इसीलिए विधायकों को मैं खास महत्व नहीं देना चाहता. मैंने विधायकों से साफ कर दिया था कि मैं पार्टी का गठन सरकार बनाने के उद्देश्य से कर रहा हूं और एक भी सीट खोने का जोखिम नहीं लूंगा. इसलिए आपको टिकट मिलने की गारंटी नहीं देता. मुझे जब अंत के छह महीनों में आपके क्षेत्र में आपकी स्थिति मजबूत दिखेगी तभी मैं आपको टिकट दूंगा. वरना निष्कलंक, ईमानदार, लोकप्रिय, उत्साही नए चेहरों पर दांव लगाऊंगा.

अगर राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की बात करें तो आप वर्तमान में उसे कहां खड़ा पाते हैं? उसकी दुर्गति के पीछे क्या कारण रहे?

मैं अब छत्तीसगढ़ के बाहर न देखता हूं, न सुनता हूं, इसलिए कोई टिप्पणी नहीं करना चाहूंगा. बस इतना जरूर कहूंगा कि तथ्यों को देखिए. उसी से स्थिति स्पष्ट हो जाएगी. आज लोकसभा में केवल 44 सीटें हैं. देश की महज सात प्रतिशत आबादी पर कांग्रेस का राज है, 93 प्रतिशत पर नहीं. इसके बाद पूछने या बताने लायक कुछ रह ही नहीं जाता.

राहुल गांधी की कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर ताजपोशी की बातें होती हैं. आपको लगता है कि वे कांग्रेस को उसका खोया वजूद लौटाने में सक्षम हैं?

मैं किसी पर व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं करना चाहूंगा. इसलिए कोई ऐसी बात नहीं कहना चाहता जिससे लगे कि कोई कड़वापन मेरे मन में है. मैं व्यक्ति विशेष से जुड़े किसी भी प्रश्न पर प्रतिक्रिया देने में असमर्थ हूं. यही कहूंगा कि यह उनका पारिवारिक मामला है, वही लोग तय करें कि क्या सही है.

छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भूपेश बघेल राज्य में पिछले तीन विधानसभा चुनावों में पार्टी की हार का कारण आपको बताते हैं. उनके अनुसार आपके जाने से प्रदेश कांग्रेस मजबूत होगी. आपको क्या लगता है?

तीनों बार हार के कारण अलग रहे और कांग्रेस कभी अन्य राज्यों की तरह भारी अंतर से नहीं हारी. एक प्रतिशत या इससे भी कम वोटों के प्रतिशत से हारी होगी. पिछले चुनाव में 30-35 सिटिंग एमएलए को टिकट नहीं देते तो स्थिति अलग होती. तब मैंने विरोध भी किया था. उन्हें पिछले दो चुनावों के नतीजे भी बताए. फिर पार्टी में जैसे फैसले होते हैं, सबने मिलकर फैसला कर लिया और मेरी बात नहीं सुनी गई. 2003 में जरूर मेरी जवाबदारी थी क्योंकि मैं मुख्यमंत्री था. लेकिन तब पार्टी इसलिए हारी कि नक्सलियों ने 12 विधानसभा सीटों पर मतदाताओं को धमकी दे दी कि अगर वोट डालने गए तो हाथ काट देंगे. लोग वोट डालने नहीं आए फिर भी वहां 75 प्रतिशत वोटिंग हो गई. वास्तव में वोटिंग 30-35 प्रतिशत ही हुई थी. भाजपा ने धांधली की थी. केंद्र में तब उनकी सरकार थी. प्रदेश में केंद्रीय बलों की तैनाती का फायदा उठाकर उन्होंने बाजी मार ली. 90 सीटों का राज्य है, अगर 12 सीटें चली जाएंगी तो आप कैसे जीतोगे?

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कहा जा रहा है कि रमन सिंह और आप साथ हैं और पार्टी का गठन आपने भाजपा को फायदा पहुंचाने और कांग्रेस का वोट काटने के लिए किया है.

रमन सिंह और मेरा नाता जान लीजिए. 2007 में रमन सिंह के निर्वाचन क्षेत्र राजनांदगांव में लोकसभा उपचुनाव था. मैंने अपने प्रत्याशी की बढ़त बना ली थी. प्रचार के दौरान रमन सिंह के इशारे पर एनसीपी नेता राम अवतार जग्गी की हत्या के फर्जी मुकदमे में पुलिस ने मुझे गिरफ्तार कर लिया. राजनांदगांव से रायपुर लाते तब तक अदालत ने मुझे दोषमुक्त कर दिया. एक अन्य मामले में रमन सिंह ने मुझ पर डकैती का आरोप लगवाया. एफआईआर तो दर्ज हो गई. पर जब चार्जशीट फाइल करने से पहले गवाहों को सुना गया तो दूध का दूध और पानी का पानी हो गया.

ऐसा ही एक फर्जी विवाद मेरी जाति को लेकर भी है. मैं आईएएस था, तब मेरी जाति पर किसी ने बात नहीं की. 1986 में कांग्रेस से जुड़ा तो हाई कोर्ट में मेरे खिलाफ याचिका लगाई गई कि मैं आदिवासी नहीं हूं. उसका फैसला मेरे पक्ष में आया. भाजपा फिर जबलपुर हाई कोर्ट पहुंची. पहले सिंगल बेंच ने फिर डबल बेंच ने भी फैसला मेरे पक्ष में सुनाया. 2003 विधानसभा चुनाव के ऐन वक्त आदिवासी आयोग ने मुझे गैर-आदिवासी घोषित कर दिया. आयोग के अध्यक्ष तब भाजपा सांसद दिलीप सिंह भूरिया थे. यह रमन सिंह के इशारे पर हुआ था. मैं इसके खिलाफ अदालत पहुंचा. तब भी फैसला मेरे पक्ष में ही हुआ. रमन सिंह ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. फिर मेरी जीत हुई. मेरे बेटे अमित जोगी पर भी हत्या का एक झूठा मुकदमा चलाया. वह निचली अदालत से बरी हुआ तो रमन सिंह हाई कोर्ट पहुंच गए, वहां से भी बरी हुआ तो सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए. अब भी कहेंगे कि मेरे और उनके बीच सांठ-गांठ है! अगर भाजपा से मेरी दोस्ती होती तो देखिए मुझसे कितना प्यार करते हैं.

हाल ही में मैंने अगस्ता वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर घोटाले की जांच कर रहे ईडी और सीबीआई को चिट्ठी लिखी है. रमन सिंह ने भी वही हेलीकॉप्टर खरीदे हैं और उसी आरोपी शख्स से खरीदे हैं. इसके सबूत देते हुए मैंने रमन सिंह व उनके बेटे को घोटाले में अभियुक्त बनाने की मांग की है. यह किसी दोस्ती का प्रमाण नहीं है. अगर दोस्ती का प्रमाण चाहिए तो छत्तीसगढ़ सदन में विपक्ष के कांग्रेसी नेता टीएस सिंहदेव, भूपेश बघेल और रमन सिंह की दोस्ती के लीजिए. 2003 से भूपेश बघेल पर भ्रष्टाचार के चार मुकदमे चल रहे हैं. अब तक रमन सरकार ने एक में भी चार्जशीट दाखिल नहीं की. वहीं टीएस सिंहदेव को अंबिकापुर में 150 से 200 करोड़ रुपये की 53 एकड़ जमीन गलत तरीके से आवंटित की गई है. ये मिले-जुले हैं या हम लोग मिले-जुले हैं?

वादा है कि सारे फैसले रायपुर से होंगे. केंद्र के फैसले हम खुद पर नहीं लादने देंगे. संसाधनों की लूट को रोकेंगे. संसाधन बाहर जा रहे हैं तो उसका लाभ प्रदेश को हो, ऐसा सुनिश्चित करेंगे

रमन सिंह से आपकी साठ-गांठ साबित करने के लिए अंतागढ़ उपचुनाव के टेपकांड की दलील दी जाती है.

जिस टेप का उल्लेख ये लोग करते हैं, उसमें जिस व्यक्ति से बातचीत है उसी व्यक्ति से भूपेश बघेल की बातचीत का एक और टेप है जिसमें भूपेश कह रहा है कि अजीत जोगी का इस तरह का टेप बनाकर दो, मैं तुम्हें दो करोड़ रुपये दूंगा और कांग्रेस पार्टी में महामंत्री बनाऊंगा. ये टेप हमारे तथाकथित टेप से पहले का टेप है. भूपेश बघेल ने भी स्वीकारा है कि टेप में उन्हीं की आवाज है. मैंने मामले में खुलासा करने वाले अंग्रेजी अखबार के खिलाफ अदालत में अवमानना का मुकदमा किया है. वो केस तो हम जीतेंगे ही, साथ ही अब भूपेश बघेल को भी मामले में अभियुक्त बनाने की अर्जी दी है. पहले कांग्रेस का हिस्सा होने के कारण मेरे हाथ बंधे थे, वह प्रदेश अध्यक्ष था.

वर्तमान राज्य सरकार के कामकाज को किस तरह देखते हैं?

ये लुटेरों और भ्रष्टाचारियों की सरकार है. पिछले 13 साल में प्राकृतिक संसाधनों की बेतहाशा लूट हुई है. भ्रष्टाचार चरम पर है. मेरे समय में 4 हजार करोड़ के सालाना बजट में सरकार चल रही थी, आज 73 हजार करोड़ का बजट है. फिर भी सड़क, बिजली, पानी जैसी सुविधाएं तक दिखाई नहीं देतीं. शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं. किसी को परवाह नहीं. सब अपना हिस्सा बटोरने में लगे हैं. इसलिए ये नए दल के गठन का सबसे उचित समय था. जनता का मन बन गया है इस सरकार को उखाड़कर फेंकने का. पर उन्हें कोई विकल्प नहीं दिख रहा था, अब हमारी पार्टी ही विकल्प है.

कहा जा रहा है कि आपने पार्टी का गठन कांग्रेस से निष्कासित अपने बेटे अमित जोगी को स्थापित करने के लिए किया है.

निष्कासित तो वो बहुत पहले हो गया था और मैं चाहता तो वो बहाल भी हो जाता. मुझे बार-बार कांग्रेस की अंतरिम कमेटी के सामने उसे बुलाने को कहा भी गया. पर मैं ही तैयार नहीं हुआ. प्रश्न स्वाभिमान का था. प्रदेश कांग्रेस ने अमित का पक्ष जाने बिना ही उसे पार्टी से निकाला तो बिना बुलाए ही वापस लेना था. मेरी पार्टी के गठन का अमित से कोई लेना-देना नहीं है.

एक नई पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर जनता से क्या वादे करते हैं?

फिलहाल दो ही वादे करूंगा. पहला, राज्य के सारे फैसले रायपुर से होंगे. केंद्र के फैसले हम खुद पर नहीं लादने देंगे. संसाधनों की लूट को रोकेंगे. अगर हमारे संसाधन बाहर जा रहे हैं तो उसका लाभ प्रदेश की ढाई करोड़ आबादी को हो, ये सुनिश्चित करेंगे. देश की सबसे अमीर धरती के लोगों का सबसे गरीब होना विरोधाभास है.