वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में स्वयं को कहां फिट पाते हैं और अपनी जगह कहां बनाना चाहते हैं?
आज की राजनीतिक परिस्थितियों में किसी भी देशभक्त नागरिक के लिए लोकतांत्रिक राष्ट्र निर्माण के अधूरेपन को दूर करना सबसे बड़ा प्रश्न है. बिना जनतांत्रिक सुधारों के हमारी आजादी काले धन की गिरफ्त में फंसती चली जाएगी क्योंकि हमारी चुनाव प्रणाली के बढ़ते खर्च और दलों की घटती जनतांत्रिक व्यवस्था का दोहरा बोझ अब जनतंत्र के विस्तार को रोक चुका है. इसीलिए चुनाववाद या संसदवाद के खतरों को देश को बताना और सहभागी लोकतंत्र के लिए बेहतर चुनाव व्यवस्था और दल व्यवस्था के लिए काम करना हमारे जैसे लोगों की प्राथमिकता हो गई है.
आपको नई राजनीतिक पार्टी बनाने की जरूरत क्यों पड़ी?
हमें इस तथ्य को याद रखना चाहिए कि वोट देने का अधिकार, दल बनाने का अधिकार और चुनाव में हिस्सेदारी का मौका भारत के जनसाधारण के लिए स्वतंत्रता आंदोलन का एक बड़ा उपहार है लेकिन आज दल व्यवस्था जनसाधारण के लिए एक अबूझ पहेली बन गई है जिसमें व्यक्तिवाद और पैसावाद ही मूल तत्व हो गया है. जबकि दलों को प्रथम कर्तव्य हमारी जनता के बीच नागरिकता निर्माण, नेतृत्व निर्माण और राष्ट्र निर्माण के लिए क्षमता पैदा करना होना चाहिए था. आज ज्यादातर दल येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने की बीमारी से पीड़ित हैं. पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसा की भूलभुलैया में फंस गए हैं. इसलिए जनहित के सवालों पर जनहित की पहल पर जनहित की राजनीति के लिए एक नए दल की जरूरत है जो स्वराज की पूर्णता के लिए सहभागी लोकतंत्र के जरिए मुट्ठी भर नेता नहीं बल्कि लाखों सरोकारी जन पैदा कर सके.
यह पार्टी अरविंद केजरीवाल की पार्टी से कितनी अलग होगी और इसके एजेंडा क्या होगा?
अगर अरविंद केजरीवाल की पार्टी से आपका आशय आम आदमी पार्टी से है तो उसे कई लाख लोगों की शुभकामना और कई हजार वालंटियरों के निस्वार्थ समर्पण से बनाए गए एक संगठन के रूप में पहचानना चाहिए. इस संगठन में बेशुमार अच्छे लोगों के जुड़ने की संभावना भी थी लेकिन चुनावी विजय-पराजय को अत्यधिक महत्व देने की नासमझी ने इसे एक व्यक्ति मात्र की खूबी और खराबियों में समेट दिया है. आज आम आदमी पार्टी का पूरा ध्यान दिल्ली की सरकार के जरिए छवि बनाना और एक गिरोह को पूरी पार्टी का स्वामी बनाना हो गया है.
स्वराज अभियान भारतीय समाज में राजनीतिक, अार्थिक और व्यक्तिगत स्वराज को बढ़ाने के लिए समर्पित आदर्शवादी देशभक्तों का मंच है. इसने पिछले पंद्रह महीने में 26 स्वराज संवादों के जरिए 25 हजार लोगों की सदस्यता के आधार पर 18 प्रदेशों तक अपना दायरा बना लिया है. इसमें जय किसान आंदोलन, एंटी करप्शन टीम, शिक्षा स्वराज आंदोलन और अमन कमेटी का बड़ा योगदान रहा है. इस वैकल्पिक राजनीति के आधार पर हमने दो अक्टूबर तक अन्य आदर्शवादी और सक्रिय नागरिकों और संगठनों काे एकजुट करके एक चुनावी हस्तक्षेप के लिए सक्षम संगठन बनाने का निर्णय लिया है. हम चुनाव के महत्व को न तो बढ़ाकर और न ही घटाकर देखते हैं लेकिन चुनावों में हमारी हिस्सेदारी सहभागी लोकतंत्र की दिशा में परिवर्तन के लिए जरूरी जनमत निर्माण के लक्ष्य से होगी. अन्यथा येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने की राजनीति के लिए एक और दल बनाना गैर-जरूरी है.
राष्ट्रवाद के बजाय देशप्रेम हमारा मार्गदर्शक होगा. हम भारत की सांस्कृतिक विशिष्टता व विरासत के प्रति गर्व का भाव महसूस करते हैं क्योंकि यह वसुधैव कुटुंबकम की आधारशिला पर कई हजार सालों से प्रवाहमान है
उत्तर प्रदेश, पंजाब, गुजरात, गोवा समेत कुछ राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं. क्या आपकी पार्टी इन राज्यों में चुनाव लड़ेगी?
स्वराज अभियान के काम करने के तरीके में विकेंद्रीकरण और सदस्यों की राय का बुनियादी महत्व है. नए दल में भी आतंरिक लोकतंत्र, जवाबदेही और पारदर्शिता की बुनियादी भूमिका रहेगी. इसलिए चुनावों में हिस्सा लेना या न लेना मूलत: जिला और राज्य की समितियों के निर्णय और राष्ट्रीय संगठन के मूल्यांकन के आधार पर होगा. हम हर एक चुनाव को लोकशक्ति का उत्सव मानते हैं, लेकिन बिना जनशक्ति और जनसंगठन के चुनाव लड़ना जाति, संप्रदाय, मीडिया और पैसे का खेल बन जाता है. यह हमें पता है.
स्वराज अभियान से आप क्या नहीं पूरा कर पा रहे थे जिसके लिए आपको राजनीतिक दल बनाने की जरूरत पड़ी?
स्वराज अभियान मूलत: वैकल्पिक राजनीति के प्रति समर्पित पार्टियों का मंच है. इसमें राजनीतिक पार्टी बनाने के लिए हमारे स्थापना सम्मेलन में ही कम से कम एक चौथाई सदस्यों ने खुला आग्रह किया था लेकिन हम वैकल्पिक राजनीति के मुद्दों को देश में प्रस्तुत किए बिना और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से जुड़ी जनशक्ति से स्थानीय और प्रादेशिक स्तर पर संवाद किए बिना इन दिशा में कोई फैसला नहीं करना चाहते थे. पंद्रह महीने की सक्रियता और संवाद के बाद यह एक उचित कदम बन चुका है. आज भी साधारण नागरिकों के बीच राजनीति का अर्थ दलों से रिश्ता और चुनाव में सक्रियता है. यह हमारे जनतांत्रीकरण की मौजूदा दशा का प्रतिबिंब है. इसकी हम अनदेखी करके राजनीतिक सुधार के जरिए राष्ट्र निर्माण के अपने सपने को कैसे पूरा कर सकते हैं?
क्या समाजसेवी अन्ना हजारे भी इस नई राजनीतिक पार्टी को समर्थन दे रहे हैं?
अन्ना हजारे देश की लोकशक्ति के प्रबल प्रेरणास्रोत हैं. उन्होंने महर्षि दधीिच की तरह अपनी देह देश के लिए गला दी है. जनलोकपाल बिल से जुड़े आंदोलन का अपनी पूरी क्षमता से नेतृत्व करने के बाद अब उनका शरीर किसी नए राष्ट्रव्यापी अभियान के लिए असमर्थ है. उनका आशीर्वाद पर्याप्त मानना चाहिए. इससे ज्यादा उनको सक्रिय बनाना उनकी आयु और शरीर को देखते हुए ज्यादती ही होगी लेकिन हमारी एंटी-करप्शन टीम को अन्ना आंदोलन से जुड़े अनेक राष्ट्र नायकों का मार्गदर्शन प्राप्त है. इसी तरह से जय किसान आंदोलन, स्वराज शिक्षा अभियान और अमन कमेटी के अनेक नायकों और वालंटियरों का भरपूर सहयोग मिला है.
क्या गैर-राजनीतिक या गैर-चुनावी संगठनों का दौर खत्म हो गया है?
नहीं, भारतीय राजनीति में अभी जनतंत्रीकरण आधा-अधूरा है. राजनीति की व्यापक परिभाषा में चुनाव से जुड़े दलों की भूमिका सीमित होती है. राजनीति को अगर हम युगधर्म मानें या नागरिक धर्म मानें तो वह चुनावों और दलों के दायरे के बाहर सक्रिय नागरिकता के लिए अनेक भूमिकाओं का लगातार निर्माण करता रहता है. भारत में भी जल, जंगल, जमीन, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार से लेकर संस्कृति और सभ्यता के सैकड़ों मोर्चों पर हजारों हस्तक्षेपों के लिए लाखों संगठनों की जरूरत है. फिर भी चुनाव और दलों की एक अरसे तक अनिवार्यता और केंद्रीयता का सच भी है. हमें याद रखना चाहिए कि गांधी और जेपी ने अपने सार्वजनिक जीवन का बड़ा हिस्सा दलों के दायरे से ऊपर लगाया. चुनाव तो कभी लड़े ही नहीं. फिर भी बदलती परिस्थितियों के संदर्भ में दलों और चुनावों का सदुपयोग करने से नहीं चूके. यही रास्ता अरविंद, टैगोर, नायकर, आंबेडकर, एमएन रॉय से लेकर राम मनोहर लोहिया तक ने भी अपनाया. अभी हाल ही में विश्व में सबसे लंबा अनशन करने वाली सत्याग्रही इरोम शर्मिला ने भी अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए, सेना और पुलिस को नागरिकों के प्रति जवाबदेह बनाने वाले कानूनी बदलाव के लिए चुनाव में हिस्सा लेने और बहुमत के आधार पर मणिपुर का मुख्यमंत्री बनने में दिलचस्पी दिखाई है.
उग्र राष्ट्रवाद, कश्मीर, नक्सल, दलित जैसे मसलों पर पार्टी का स्टैंड क्या होगा?
स्वराज अभियान की तरफ से बनने वाली राजनीतिक पार्टी से यह आशा करना अस्वाभाविक नहीं होगा कि वह अन्य सहयोगियों के विचारों और सुझावों का स्वागत करने के साथ ही भारतीय संविधान के आधार दर्शन के प्रति पूर्ण निष्ठा रखने वालों का दल होगा. हमारे संविधान में राष्ट्रीय एकता और प्रत्येक नागरिक के अधिकारों की रक्षा का दोहरा संकल्प है. हम इसी संकल्प के आधार पर विभिन्न कारणों से देश के अलग-अलग हिस्सों में राजसत्ता से टकरा रही राजनीतिक जमातों को और उसके सवालों को संबोधित करना चाहेंगे. राष्ट्रवाद के बजाय देशप्रेम हमारा मार्गदर्शक होगा. हम भारत की सांस्कृतिक विशिष्टता और विरासत के प्रति गर्व का भाव महसूस करते हैं क्योंकि यह वसुधैव कुटुंबकम् की आधारशिला पर पिछले कई हजार सालों से प्रवाहमान है और स्वतंत्रता आंदोलन की सफलता के बाद हमारे ऊपर पूर्ण स्वराज के प्रकाश को हर घर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी है. इसमें विराट वंचित भारत की अनदेखी करना और उनके प्रश्नों का पुलिस और फौज के बल पर मुट्ठी भर लंगोटिया पूंजीपतियों की रक्षा के लिए दमन करना राष्ट्र के विघटन का आत्मघाती रास्ता है.
अधिकांश दलों ने परिवारवाद और पैसावाद की ताकतों के आगे घुटने टेक दिए हैं. बड़े सपनों को तिलांजलि दे दी गई है. इसके सामानांतर नई पीढ़ी के भारतीयों में समाज के प्रति सरोकार बढ़ा है
क्या आपको लगता है कि देश की जनता एक नए राजनीतिक दल के लिए तैयार है?
असल में दल निर्माण दोहरी जरूरतों के प्रत्युत्तर में होता है. दल निर्माण और दल विघटन लोकतंत्र व समाज के बदलते रुझानों से तय होता है. इधर पिछले दो दशकों में स्थापित दलों और नागरिकों के बीच की परस्पर दूरी बढ़ी है. अधिकांश दलों ने परिवारवाद और पैसावाद की ताकतों के आगे घुटने टेक दिए हैं. बड़े सपनों को तिलांजलि दे दी गई है. इसके समानांतर नागरिकों में विशेष तौर पर नई पीढ़ी के भारतीयों में समाज के प्रति सरोकार बढ़ा है. स्थानीय आंदोलनों से लेकर आरटीआई और सोशल मीडिया ने चारों तरफ छोटे-छोटे प्रकाश केंद्र बनाए हैं लेकिन व्यक्ति, जाति और संप्रदाय की राजनीति से बने वोट बैंक के भरोसे गठबंधन की राजनीति में विषयों का चुनाव जारी है. फिर वैकल्पिक राजनीति के लिए खुद को सुधारने की क्या जरूरत है. इस हठधर्मिता का जनांदोलनों के बढ़ते दायरों से समाधान करने की कोशिश हो रही है. इस प्रक्रिया में चुनाव के मोर्चे को खाली नहीं छोड़ा जा सकता. इसलिए चुनाव की भूमिका को स्वीकारते हुए, नागरिकों की सतत सक्रियता को प्राथमिकता देने वाला दल इस दौर की जरूरत है. अब इसके आगे बढ़ने और प्रभावशाली बनने में चार तत्वों का उचित मात्रा में संयोग बड़ी शर्त है. कार्यक्रम, कार्यकर्ता, कोष और कार्यालय. स्वराज अभियान अभी नई पहल में इसके बारे में पूरी तरह से सचेत है.
दिल्ली में राज्य और केंद्र में दो पार्टियों की सरकार है. इन दोनों पार्टियों को बड़ा जनसमर्थन मिला है. इनके कामकाज को आप किस तरह से देखते हैं?
दिल्ली की जनता ने लोकसभा और विधानसभा दोनों में दो अलग-अलग दलों के पक्ष में एकतरफा निर्णय दिया था. क्योंकि देश में डाॅ. मनमोहन सिंह व सोनिया गांधी की दस साल की सरकार और राज्य में शीला दीक्षित की सरकार ने व्यापक मोहभंग पैदा किया था. लेकिन यह ताज्जुब की बात है कि उसी मतदाता ने दिल्ली प्रदेश की समस्याओं के समाधान के लिए नरेंद्र मोदी के अथक प्रयासों के बावजूद साल भर के भीतर ही भाजपा को अपनी आशाओं का केंद्र बनाने से इनकार किया क्योंकि स्थानीय प्रशासन में महापालिकाओं के जरिए और प्रदेश के विकास में उपराज्यपाल के जरिए भाजपा की तरफ से कोई आकर्षक पहल नहीं थी. अब दोनों ही सरकारें कसौटी पर हैं. यह अफसोस की बात है कि सहयोगी संघवाद की दुहाई देने के बावजूद नरेंद्र मोदी की सरकार दिल्ली की प्रादेशिक सरकार के साथ समन्वय और संवाद में असफल रही है.
दूसरी तरफ, दिल्ली की प्रादेशिक सरकार के चाल-चलन में आशा से ज्यादा निराशा दिखाई पड़ती है. एक तिहाई मंत्रियों और एक चौथाई विधायकों पर गैर-जिम्मेदाराना हरकतों के आरोप लग चुके हैं. शिक्षालय के बजाय मदिरालय की प्राथमिकता जगजाहिर हो चुकी है. पानी और बिजली के घोटालों के आरोपों के बारे में दोषियों की सजा के लिए दिल्ली इंतजार कर रही है. इसी बीच सत्ता की वासना का आवेग इतना बढ़ गया है कि बगैर दिल्ली में स्वराज का वादा पूरा किए पंजाब से लेकर गुजरात और गोवा तक चुनावों में कूद गए हैं. इससे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री दोनों के ही प्रति जनसाधारण में अविश्वास बढ़ रहा है. साख का संकट आ गया है. इसलिए धीरज घट रहा है. दोनों ही सरकारों को लोगों के बिगड़ते मूड को सम्मान देते हुए अपने वादों को पूरा करने की तरफ लौटना चाहिए.