‘मैं भी मरूंगा और भारत के भाग्य विधाता भी’

फाइल फोटो
फाइल फोटो
फाइल फोटो

कविता और वास्तविक जीवन दोनों में समान रूप से ‘विद्रोही’ और जनपक्षधर आवाज हमेशा के लिए खामोश हो गई. 58 वर्षीय कवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ ने 8 दिसंबर को इस दुनिया से अलविदा कह दिया. वे मंगलवार को पिछले डेढ़ माह से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के दफ्तर के सामने सरकार की शिक्षा नीतियों के विरोध में हो रहे धरना-प्रदर्शन में शामिल होने पहुंचे थे. दोपहर धरनास्थल पर अचानक उनके शरीर में कंपन हुआ और कुछ देर बाद उनकी सांसें थम गईं. डॉक्टरों ने मृत्यु का कारण ब्रेन डेथ (दिमाग का अचानक काम करना बंद कर देना) बताया है.

धरनास्थल पर मौजूद छात्रों के मुताबिक, कवि विद्रोही मंगलवार को छात्रों के सरकार विरोधी मार्च में शामिल होने पहुंचे थे लेकिन ​तबियत कुछ खराब लगी तो मार्च में शामिल न होकर धरनास्थल पर ही लेट गए. दोपहर दो बजे के आसपास उनके शरीर में अचानक कंपकंपी होने लगी. कुछ देर बाद ही उनकी नब्ज बंद हो गई. उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उनकी मृत्यु की पुष्टि की.

देर रात उनका शव एलएनजेपी अस्पताल के पीछे शवदाहगृह में रखवाया गया है. बुधवार को लोदी रोड​ स्थित शवदाहगृह में उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा. उनके परिजनों को सूचना दे दी गई है.
विद्रोही उपनाम से कविता लिखने वाले रमाशंकर यादव बीते दो दशकों से  जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) परिसर में ही रहते थे. जेएनयू के शोधार्थी ताराशंकर ने दुख व्यक्त करते हुए कहा, ‘विद्रोही हमारे समय के वास्तविक जनकवि थे. और देखिए ‘आसमान में धान बोने वाला’ ये निर्भीक कवि गया भी तो संघर्ष करते हुए.’
इस दौर में वे ऐसे कवि थे जो आजीवन सिर्फ कविता ‘कहता’ रहे. उन्होंने कभी अपनी कविताओं को लिपिबद्ध नहीं किया. अपनी सारी कविताएं उन्हें जुबानी याद थीं. यह फक्कड़ कवि जेएनयू के छात्रों और तमाम कविता प्रेमियों के बीच बेहद लोकप्रिय रहे.
उनकी एक प्रसिद्ध कविता-
मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा’