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सुप्रीम कोर्ट ने राजीव गांधी की हत्या के मामलें मे सजा काट रहे दोषी एजी पेरारिवलन को रिहा करने का दिया आदेश

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के मामले में सजा काट रहे एजी पेरारिवलन को रिहा करने का आदेश दे दिया है। यह फैसला अनुच्छेद 142 के तहत विशेषाधिकार के तहत दिया गया है। साथ ही पेरारिवलन की रिहाई की याचिका को मंजूरी देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, राज्य कैबिनेट का फैसला राज्यपाल पर बाध्यकारी है और सभी दोषियों की रिहाई के लिए रास्ता खुला हुआ है।

करीब 31 साल से जेल में बंद पेरारीवलन जमानत पर रिहा है उसने कोर्ट में याचिका डालकर रिहाई की गुहार लगाई थी और कहा था कि वह पिछले 31 सालों से जेल में बंद है और अब उसे रिहा किया जाना चाहिए।

आपको बता दे, वर्ष 2008 में तमिलनाडु कैबिनेट ने पेरारिवलन को रिहा करने का फैसला किया था किंतु राज्यपाल ने मामले को राष्ट्रपति के पास भेज दिया था और उसकी रिहाई का यह मामला तभी से लंबित था।

गुजरात: हार्दिक पटेल ने कांग्रेस से दिया इस्तीफा, जम्मू कश्मीर में धारा 370 हटाए जाने के साथ पत्र में कई मुद्दों का जिक्र

गुजरात में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस नेता व राज्य में पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष और पाटीदार नेता हार्दिक पटेल ने कांग्रेस पार्टी छोड़ने की घोषणा कर दी है। हार्दिक पटेल वर्ष 2019 में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस में शामिल हुए थे।

हार्दिक पटेल ने ट्वीट कर कहा कि, “आज मैं हिम्मत करके कांग्रेस पार्टी के पद और पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा देता हूं। मुझे विश्वास है कि मेरे इस निर्णय का स्वागत मेरी हर साथी और गुजरात की जनता करेगी। मैं मानता हूं कि मेरे इस कदम के बाद मैं भविष्य में गुजरात के लिए सच में सकारात्मक रूप से कार्य कर पहाऊंगा।“

आपको बता दे, सोनिया गांधी को लिखे पत्र में पटेल ने अयोध्या में राम मंदिर, नागरिकता कानून- एनआरसी का मुद्दा, जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाना, जीएसटी लागू करने का भी जिक्र किया है और लिखा है कि देश लंबे समय से इसका समाधान चाहता था किंतु कांग्रेस पार्टी इसमें सिर्फ बाधा बनने का कार्य ही करती रही।

काफी समय से गुजरात कांग्रेस ईकाई में नाराजगी के अटकले लगाई जा रही थी। हाल ही में पार्टी के उदयपुर में हुए चिंतन शिविर में भी हार्दिक पटेल नहीं पहुंचे थे। साथ ही यह भी अनुमान लगाए जा रहे है कि हार्दिक पटेल हफ्ते बाद भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में भी शामिल हो सकते है।

शी जिनपिंग फिर चुने जा सकते हैं नेता, नेतृत्व की आलोचना से बचने की सीसी ने दी हिदायत  

शी जिन पिंग को चीन के राष्ट्रपति के रूप में तीसरा कार्यकाल मिलने की संभावना है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाईना की पांच साल में एक बार होने वाली राष्ट्रीय कांग्रेस इसी साल होने वाली है, जिसमें इसका अनुमोदन किया जा सकता है। यदि ऐसा होता है तो पार्टी के संस्थापक माओत्से तुंग के बाद राष्ट्रपति के रूप में तीसरा कार्यकाल पाने वाले वह पहले नेता बन जाएंगे। दिलचस्प यह है कि शी के स्वास्थ्य को लेकर लग रही अटकलों के बीच कम्युनिस्ट पार्टी ने सेवानिवृत्त कार्यकर्ताओं को सख्त हिदायत दी है कि वे नेतृत्व की आलोचना न करें।

कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाईना की बीजिंग में नवंबर में होने वाली 20वीं राष्ट्रीय कांग्रेस से पहले पार्टी की केंद्रीय समिति (सीसी) ने ‘नए युग में सेवानिवृत्त कार्यकर्ताओं के बीच पार्टी निर्माण को मजबूत करना’ के नाम से नए नियम जारी किये हैं। इनमें सेवानिवृत्त कार्यकर्ताओं को नकारात्मक राजनीतिक भाषण (नेतृत्व की आलोचना सहित) देने पर सख्त रोक लगा दी गयी है।

राष्ट्रीय कांग्रेस के सम्मेलन में राष्ट्रपति शी जिनपिंग को तीसरा कार्यकाल मिलने की लगभग पक्की संभावना है। उन्हें इसमें सेक्रेटरी जनरल चुना जाएगा जो पार्टी का सर्वोच्च पद है। इस सम्मेलन में 2350 के करीब डेलीगेट और 85 मिलियन सदस्य हिस्सा लेंगे। इसमें नई केंद्रीय समिति चुनी जाएगी जो नए पोलित ब्यूरो और स्टैंडिंग कमिटी का गठन करेगी।

इस बीच चीन की सरकारी समाचार एजेंसी ‘शिन्हुआ’ ने एक रिपोर्ट में बताया है कि सीपीसी की केंद्रीय समिति के कार्यालय ने ‘नए युग में सेवानिवृत्त कार्यकर्ताओं के बीच पार्टी निर्माण को मजबूत करना’ शीर्षक से नियमों की एक सूची जारी की है। इसमें जोर देकर कहा गया है कि वे किसी सूरत में नेतृत्व की आलोचना या नकारात्मक भाषण न दें।

सेवानिवृत्त कार्यकर्ताओं को पार्टी और राजनीतिक मार्गदर्शन की मूल्यवान संपत्ति बताते हुए सूची में उनके आचरण की निगरानी बढ़ाने पर जोर दिया गया है। सीसी ने तमाम पार्टी उपविभागों से यह तय करने को कहा है कि सेवानिवृत्त काडर और पार्टी सदस्य पार्टी की नीतियों का पालन करते हुए उसकी बात सुनें।

सीसी ने सख्ती से चेतावनी दी है कि यदि अनुशासन का उल्लंघन होता है तो इसे गंभीरता से निपटा जाए। यह माना जाता है कि अनुशासन टूटने की कुछ घटनाओं के बाद सीसी ने यह यह दिशानिर्देश जारी किये हैं।

राष्ट्रपति शी जिनपिंग यदि राष्ट्रीय कांग्रेस में दोबारा सेक्रेटरी जनरल का पद पाते हैं तो राष्ट्रपति के रूप में तीसरा कार्यकाल हासिल करने वाले पार्टी संस्थापक माओत्से तुंग के बाद पहले चीनी नेता होंगे। याद रहे तुंग का 1976 में जब निधन हुआ था वे तीसरी बार चुने गए राष्ट्रपति थे।

शी जिनपिंग साल 2012 में राष्ट्रपति बने थे। उनके कार्यकाल में भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कार्रवाई हुई है भले उनपर कोविड-19 को बहुत सख्त तरीके से निपटने के आरोप लगे हैं, जिससे जनता पर ज्यादतियां किये जाने के आरोप हैं। चीन में राष्ट्रपति ही पार्टी का सर्वोच्च नेता और सैन्य प्रमुख होता है। भले पश्चिम के मीडिया में उनके तीसरे कार्यकाल के लिए चुने जाने को लेकर ‘आशंका’ व्यक्त की जा रही है, संभावना यही है कि वे रिकार्ड तीसरी बार चीन का सर्वोच्च पद हासिल कर सकते हैं।

अमेरिकी राष्ट्रपति सलाहकार आयोग का लंबित ग्रीन कार्ड मामले निपटाने का सुझाव

यदि अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन प्रेजिडेंट्स एडवाइजरी कमीशन ऑन एशियन अमेरिकन्स, नेटिव हवाईयन्स एंड पेसिफिक आईलैंडर (पीएसीईएनएचपीआई) के ग्रीन कार्ड या परमानेंट रेजिडेंस से जुड़े आवेदनों के मामले निपटाने के सुझाव को स्वीकार कर लेते हैं तो  लंबे समय से ग्रीन कार्ड के लिए इंतजार कर रहे सैकड़ों भारतीय-अमेरिकियों के लिए  बड़ी खुशखबरी आ सकती है।

पीएसीईएनएचपीआई (राष्ट्रपति सलाहकार आयोग) ने राष्ट्रपति जो बाइडेन को ग्रीन कार्ड या स्थायी निवास से जुड़े सभी आवेदनों का निपटारा छह महीने के भीतर करने वाले सुझाव को अपनी सर्वसम्मत मंजूरी दी है। गेंद अब राष्ट्रपति बाइडेन के पाले में है। आयोग की बैठक के दौरान भारतीय-अमेरिकी समुदाय के नेता अजय जैन भूटोरिया ने इस संबंध में एक प्रस्ताव रखा था, जिसे सभी 25 आयुक्तों ने सर्वसम्मति से पारित कर दिया।

रिपोर्ट्स के मुताबिक ग्रीन कार्ड के लंबित मामलों की संख्या कम करने के उद्देश्य से आयोग ने यूएस सिटिजनशिप एंड इमिग्रेशन सर्विसेज (यूएससीआईएस) को अपनी  प्रणालियों और नीतियों की समीक्षा करने, प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करके नया रूप देने, बिना बजह की देरी वाली प्रक्रिया ख़त्म करने, हरेक अनुमोदन को स्वचालित बनाने और प्रणाली में सुधार का सुझाव दिया है।

आयोग का मकसद परिवार आधारित ग्रीन कार्ड आवेदन, डेफर्ड एक्शन फॉर चाइल्डहुड अराईवल (डीएसीए) नीति का नवीनीकरण, अन्य सभी ग्रीन कार्ड आवेदनों पर गौर करने की प्रक्रिया में लगने वाले समय घटाना और आवेदन मिलने के छह महीने के भीतर इसका निपटारा करना है।

भारतीय-अमेरिकी समुदाय के नेता अजय जैन भूटोरिया ने जो दस्तावेज पेश किये हैं उनके मुताबिक माली साल 2021 के लिए उपलब्ध 2,26,000 ग्रीन कार्ड में से परिवार आधारित केवल 65,452 ग्रीन कार्ड जारी किए गए थे जबकि अप्रैल 2022 में इस संबंध में 421,358 लोगों के इंटरव्यू लंबित थे। बता दें मार्च में यह संख्या 436,700 थी।

कांग्रेस सांसद कार्ति चिदंबरम पर सीबीआई की छापेमारी

सीबीआई ने मंगलवार को पूर्व वित्त मंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम के सांसद बेटे कार्ति चिदंबरम के मुंबई, चेन्नई, ओडिशा और तमिलनाडु के शिवगंगा स्थित परिसरों पर छापे मारे हैं। सीबीआई ने यह छापेमारी कार्ति चिदंबरम के खिलाफ कथित तौर पर चीन के 250 नागरिकों को वीजा दिलवाने के लिए 50 लाख रुपये की रिश्वत लेने के आरोप में की है। उनके खिलाफ कथित विदेशी लेन-देन का मामला दर्ज किया है जिसके तहत यह छापेमारी की गयी है।

जानकारी के मुताबिक सीबीआई अधिकारियों ने आज सुबह चेन्नई और देश के अन्य शहरों में स्थित कार्ति चिदंबरम के नौ ठिकानों पर छापेमारी की। यह छापे चेन्नई, मुम्बई, तमिलनाडु, पंजाब, ओडिशा में कुल 9 जगह मारे गए हैं।

सीबीआई ने उनके दिल्ली स्थित आवास से भी सुबह कुछ दस्तावेज लिए हैं। सीबीआई ने चेन्नई और मुंबई में तीन-तीन जबकि कर्नाटक, पंजाब, ओडिशा में एक-एक जगह छापेमारी की।

जांच एजेंसी की तरफ से कार्ति पर आरोप है कि उन्होंने कथित तौर पर पैसे लेकर करीब 250 चीनियों को गलत तरीके से वीजा इश्यू करवाया। मामला पंजाब में एक बिजली परियोजना से जुड़ा है, जिसमें वीजा जारी कराए गए थे। सीबीआई ने इसमें नया मामला दर्ज किया है। सीबीआई ने कार्ति चिदंबरम के खिलाफ 2010-14 के बीच हुए कथित विदेशी लेन-देन को लेकर एक नया मामला दर्ज किया है और इसी के तहत छापेमारी की गई है।

लोकप्रियता के फ़र्ज़ी ठिकाने

‘तहलका’ के पिछले अंक में हमने ख़ुलासा किया था कि कैसे एक पुरानी आदिवासी ‘नाता प्रथा’ का अभी भी कुछ राज्यों में बिना किसी रोक-टोक के लिव-इन रिलेशनशिप के लिए एक बहाने के रूप में दुरुपयोग किया जा रहा था। इस प्रथा में महिलाओं से पैदा हुए बच्चों को व्यावहारिक रूप से बिना किसी अधिकार के गम्भीर स्थितियाँ झेलने के लिए छोड़ दिया जाता है। इस अंक में हमारा ध्यान एक महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर है कि कैसे मशहूर हस्तियाँ और नामी लोग सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफाम्र्स पर व्यूज, लाइक, कमेंट और फॉलोअर्स की संख्या बढ़ाते हैं और ब्रांड एंडोर्समेंट हासिल करते हैं। आज के ज़माने में हम सूचना और अधिकांश सवालों के जवाब के लिए सर्च इंजन की ओर रुख़ करते हैं। यह वो जगह है, जहाँ सोशल मीडिया पर फ़र्ज़ी लोकप्रियता और बदनामी का नये युग का व्यवसाय प्रचलन में आया है। इसके साथ ही एसईओ (सर्च इंजन ऑप्टिमाइजेशन) की अवधारणा है अर्थात् आपकी सामग्री को आसानी से खोजने योग्य बनाना और खोज परिणामों में उच्च स्तर पर दिखाने का कारोबार। इसमें अधिकांश मामलों में पैसे से संदिग्ध उपकरणों का उपयोग करते हुए लोकप्रियता को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है। सम्भावित ग्राहकों के रूप में सच्चाई का पता लगाने के लिए ‘तहलका’ ने इसकी जाँच की और चौंकाने वाले ख़ुलासे हुए। यह पाया गया कि ऐसी कंसल्टेंसी कम्पनियाँ हैं, जो पूर्व निर्धारित राशि के आधार पर फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब और इंस्टाग्राम जैसी लोकप्रिय सोशल मीडिया साइट्स पर फॉलोअर्स, फ़र्ज़ी व्यूज, कमेंट और लाइक प्रदान करने का दावा करती हैं। अपने पाठकों के लिए हम अपनी कवर स्टोरी में झूठ के इस कारोबार को नाकाम करने के लिए ऐसी परामर्श कम्पनियों के साथ हमारी विशेष जाँच टीम (एसआईटी) की बातचीत भी दे रहे हैं।

जो इंटरनेट पर सर्च इंजन रोबोट का उपयोग करते हैं, वेब पेजों को क्रॉल करते हैं, ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि उनमें कौन-सी सामग्री है। अधिक जानकारी इकट्ठी करने के लिए बोट कोड को लिखित मैटर, फोटो, वीडियो और जो वेब पेजों पर दिखायी देता है, उससे स्कैन करते हैं। एक बार जब प्रत्येक पृष्ठ पर जानकारी उपलब्ध करा दी जाती है और यह निर्धारित कर लिया जाता है कि यह सामग्री उनके खोजकर्ताओं के लिए उपयोगी होगी, तो वे सम्भावित खोजकर्ताओं के लिए इन पृष्ठों को अपनी अनुक्रमणिका में जोड़ देते हैं। जब कोई सर्च करता है, तो उनका एल्गोरिदम उपयोगकर्ता की खोज क्वेरी से उनके अनुक्रमणिका में प्रासंगिक जानकारी से मेल खाता है। इस प्रक्रिया में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म प्रत्येक खोजकर्ता के लिए सामग्री प्रदर्शित होने के क्रम को प्रबंधित करने के लिए संकेतों का उपयोग करते हैं। साइट्स पर ट्रैफिक लाने के लिए ऑन-पेज और ऑफ-पेज एसईओ दोनों का उपयोग किया जाता है।

विडंबना है कि सोशल मीडिया अकाउंट्स के लिए लाइक, कमेंट, व्यूज और फॉलोअर्स ख़रीदना आसान है। गूगल सर्च में बस ‘भारत में फॉलोअर्स ख़रीदें’ डालने भर से इस व्यवसाय में शामिल साइट्स की एक बड़ी संख्या सामने आ जाती है। एक बार जब आप एक फोमो बनाने में सफल हो जाते हैं या गीत, फ़िल्म, किसी उत्पाद या एक सेलिब्रिटी के बारे में फ़र्ज़ी चर्चा बनाकर ‘ग़ायब होने का डर’ बनाने में सक्षम हो जाते हैं, तो आप अपना लक्ष्य सही से साध रहे होते हैं। इसी तरह आप सोशल मीडिया प्लेटफाम्र्स के ज़रिये इन सभी के बारे में नकारात्मक राय बना सकते हैं। हाल में यहाँ तक कि राजनीतिक दल और उनके नेता भी इन रणनीतियों का उपयोग प्रसिद्धि पाने या किसी की बदनामी करने के लिए कर रहे हैं। वैसे कोई क़ानूनी प्रावधान नहीं है, जो इस तरह के कृत्य को सीधे प्रतिबंधित या मुक़दमा चलाने लायक बनाता हो। और इसका परिणाम यह है कि फ़र्ज़ी प्रसिद्धि और बदनामी का व्यवसाय फल-फूल रहा है। निश्चित ही इस ऑनलाइन झूठ और हेराफेरी से निपटने के लिए एक क़ानून की दरकार है।

 

दंगों पर राजनीति हावी

इस देश की विडंबना रही है कि जब-जब धार्मिक मुद्दे उठे हैं। उन पर राजनीति के सिवाय किसी भी सियासी दल ने पानी डालने की नहीं, बल्कि उसको धधकाने की कोशिश की है। ऐसा लगता है कि जब तक हिंसा भड़क नहीं जाती, राजनीतिक लोगों के कलेजे में ठंडक नहीं पड़ती। कहा जाता है कि हिन्दुस्तान में पहले धर्म की राजनीति होती थी; लेकिन अब धर्म पर राजनीति होती है। यही वजह है कि अब कोई-न-कोई धार्मिक मुद्दा गर्म रहता है और जिन नेताओं को देश के विकास के लिए राजनीति करनी चाहिए, वे देश में फूट डालो और राज करो वाली राजनीति करते हैं। इन दिनों मस्जिदों में लाउडस्पीकरों को लेकर शुरू हुई राजनीति ने देश में अराजकता के माहौल को जन्म दिया हुआ है। इसमें कोई शक नहीं है कि पूजा-पाठ और अज़ान आदि के लिए लाउडस्पीकर की ज़रूरत नहीं है; लेकिन इसके लिए राजनीति करने के बजाय समान रूप से क़ानून लाकर इस पर रोक लगायी जा सकती है। क्योंकि राजनीति करने से विवादों के सिवाय कोई हल निकलने वाला नहीं। पिछले एक दशक में हिन्दुस्तान की एक बड़ी आबादी इसी तरह के धार्मिक विवादों उलझी है। आज जहाँ भी दंगे होते हैं, उन पर राजनीति हावी रहती है। किसी को चिन्ता नहीं है कि महँगाई, बेरोज़गारी की दर कहाँ पहुँच गयी है, लगातार अवसाद और आत्महत्याओं के मामले और अपराध बढ़ते जा रहे हैं।

हाल ही में राजस्थान के दो शहरों करोली और फिर जोधपुर में भड़की हिंसा और हिमाचल में इस तरह की कोशिश पर हो रही राजनीति इस बात का सुबूत है कि नेताओं को जनता की परेशानियों से कोई सरोकार नहीं है। देखने वाली बात यह है कि देश के किसी कोने में जब-जब हिंसा भड़कती है, जो आड़ धार्मिकता की ली जाती है। राजस्थान के करौली में हिंसा भी हिन्दू त्योहार पर हुई और दोबारा जोधपुर में ईद से एक दिन पहले। करौली में क़रीब एक महीने पहले हिन्दू नव संवत्सर के दिन साम्प्रदायिक हिंसा भड़कती है, जिसके ठीक पहले पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) की ओर से इसकी चेतावनी दी जाती है। पीएफआई यह चेतावनी प्रदेश के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और डीजीपी एमएल लाठर को बाक़ायदा चिट्ठी लिखकर देता है। पहली बार हिंसा के बाद सरकार रामनवमी और हनुमान जयंती पर पूरे राजस्थान में धारा-144 लगा देती है। लेकिन दूसरी बार ईद से ठीक पहले रात में जोधपुर में हिंसा भड़क जाती है। सवाल यह है कि जब राज्य में अशान्ति और दंगों की साज़िश का माहौल था, तो फिर मुसलमानों के इस सबसे बड़े त्योहार पर पुलिस का बंदोबस्त क्यों नहीं किया गया? क्यों दंगे की रात के बाद दिन में दोपहर तक न कोई पुलिस कार्रवाई हुई और न ही शहर में धारा-144 लगायी गयी? विपक्ष और स्थानीय लोगों को आरोप है कि अगर सरकार समय रहते कर्फ़्यू लगाती, तो हिंसा नहीं भड़कती। राजस्थान सरकार और राज्य की पुलिस की नाकामी पर बड़ा सवाल यह उठता है कि क्यों उसने दंगाइयों को चिह्नित नहीं किया?

यह आम जनता का दुर्भाग्य और सरकारों की नाकामी है कि देश में कई ऐसी संस्थाएँ और संगठन हैं, जो हिंसा और दंगों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं। इतने पर भी इनके प्रमुखों से किनारा करने के बजाय पार्टियाँ उन्हें संरक्षण देती हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या यह संस्थाएँ और संगठन राजनीतिक दलों द्वारा ही खड़ी जाते हैं? क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता, तो इन संस्थाओं और संगठनों पर कार्रवाही ज़रूर होती।

इस दंगे में एक निजी न्यूज चैनल के एक पत्रकार का नाम सामने आया। कुछ लोग कह रहे हैं कि पत्रकार के पीछे राजस्थान सरकार पड़ी है। राजस्थान की पुलिस ने पत्रकार के घर के बाहर अरेस्ट वारंट लगाकर उसकी गिरफ़्तारी के लिए डेरा डाला तो, उत्तर प्रदेश पुलिस भी वहाँ पहुँच गयी, ताकि राजस्थान पुलिस इस पत्रकार पर कोई कार्रवाई न कर सके। हालाँकि दो राज्यों के पुलिस टकराव के बाद पत्रकार की गिरफ़्तारी मुमकिन नहीं हो सकी। बाद में जोधपुर उच्च न्यायालय ने पत्रकार की गिरफ़्तारी पर रोक लगा दी। न्यायालय ने यह फ़ैसला पत्रकार के ख़िलाफ़ डूंगरपुर के बिछवाड़ा थाने में दर्ज की गयी एफआईआर के ख़िलाफ़ दी गयी याचिका पर दिया। बिछीवाड़ा थाने की पुलिस ने 23 अप्रैल 2022 को पत्रकार के ख़िलाफ़ आईपीसी और आईटी की धारा के तहत प्राथमिकी दर्ज की थी। बताते हैं कि इस पत्रकार ने अपने शो में कथित तौर पर दावा किया था कि नई दिल्ली के जहाँगीरपुरी दंगे मामले का बदला लेने के लिए राजस्थान के अलवर में एक सदियों पुराना मन्दिर तोड़ा गया है।

ख़ैर, अब मामला पत्रकार की गिरफ़्तारी से ज़्यादा राजस्थान और उत्तर प्रदेश के बीच टकराव का बन गया। हालाँकि यह कोई पहला मामला नहीं है, पहले भी ऐसे कई मामलों में दो राज्यों की पुलिस में टकराव हुआ है, जिसके पीछे भी राजनीतिक दलों का ही हाथ रहा है। अभी हाल ही में पंजाब पुलिस द्वारा दिल्ली से भाजपा नेता तजिंदर पाल बग्गा को गिरफ़्तार करके ले जा रही थी; लेकिन रास्ते में ही हरियाणा पुलिस और दिल्ली पुलिस ने उन्हें छुड़वा लिया। हालाँकि इस घटना पर कहा गया कि जब पंजाब पुलिस दिल्ली से तेजिंदर सिंह बग्गा को गिरफ़्तार करके ले गयी थी, तब दिल्ली पुलिस कहाँ थी?

बहरहाल यह मामला तो राज्यों के टकराव का है, जो दो राज्यों में अलग-अलग पार्टियों की सरकारें होने पर होता ही है। लेकिन अगर हिंसा की बात करें, तो हर राज्य में साम्प्रदायिक हिंसा भड़कती रही है और हिंसा होने के वक़्त केंद्र से लेकर राज्य की सरकारें कान में तेल डाले बैठी रही हैं। फ़िलहाल अगर मैं कांग्रेस शासन के पिछले तीन साल के दौरान राजस्थान में अब तक साम्प्रदायिक हिंसा की बात करूँ, तो अब तक वहाँ छ: बार हिंसा भड़क चुकी है। पहली बार 8 अप्रैल, 2019 को टोंक में, दूसरी बार 24 सितंबर 2020 डूंगरपुर में, तीसरी बार 11 अप्रैल 2021 को बारां में, चौथी बार 19 जुलाई 2021 झालावाड़ में, 2 अप्रैल 2022 को करौली में और 2 मई 2022 को जोधपुर के जालोरी गेट चौराहे पर। ऐसी हिंसाओं के लिए सबसे पहले स्थानीय प्रशासन और पुलिस और उसके बाद राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है। लेकिन केंद्र सरकार को भी चाहिए कि वह ऐसी हिंसक घटनाओं में हस्तक्षेप करे और उन्हें आइंदा न भड़कने देने की दिशा में ठोस क़दम उठाये। हिंसा फैलाने वाले किसी भी संगठन के हों, किसी भी धर्म के हों; लेकिन उनके ख़िलाफ़ कड़ी-से-कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। इससे हिंसा करने और कराने वालों का मनोबल टूटेगा और देश में शान्ति का माहौल बनेगा, जिसकी आज हिन्दुस्तान के हर कोने में ज़रूरत है।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

नफ़रतों की पाठशाला

देश भर में धार्मिक उन्माद फैलाकर हिंसा को बढ़ावा देने से बढ़ रहा समाज के बिखरने का ख़तरा

हाल के महीनों में देश को एक बार फिर धार्मिक उन्माद में धकलने की कोशिश हो रही है। देश में धर्म विशेष को लेकर नफ़रती माहौल बनाकर और सड़कों पर भौंडा प्रदर्शन करके समुदायों को साम्प्रदायिक स्तर पर एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा किया जा रहा है। यह इसलिए भी चिन्ता की बात है कि इसे साल मार्च में दुनिया भर में लोकतंत्र की स्थिति पर वी-डेम (वेराइटीज ऑफ डेमोक्रेसी) संस्थान की रिपोर्ट में भारत को लेकर काफ़ी नकारात्मक टिप्पणी की गयी है।

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत दुनिया के उन शीर्ष 10 देशों में शुमार हो गया है, जहाँ निरंकुश राज्यसत्ता का शासन है। निश्चित ही यह डरावना है, क्योंकि भारत जिस संस्कृति के लिए जाना जाता रहा है, यह चीज़ें उसके विपरीत हैं। ख़ुद देश में बुद्धिजीवी इस ख़राब होती जा रही स्थिति से काफ़ी चिन्तित हैं, जो इस बात से ज़ाहिर होता है कि हाल में 150 के क़रीब पूर्व नौकरशाहों के एक समूह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर उम्मीद जतायी कि प्रधानमंत्री मोदी भाजपा की सत्ता वाली सरकारों की तरफ़ से कथित तौर पर पूरी लगन के साथ चलायी जा रही घृणा की राजनीति ख़त्म करेंगे।

हाल के महीनों में देश भर में बुलडोजर से लेकर लाउडस्पीकर तक के ज़रिये घृणा का यह माहौल ज़ोर पकड़ रहा है। यह आरोप हैं कि क़ानून के कंधे पर बन्दूक रखकर धर्म विशेष के लोगों को अवैध क़ब्ज़ों के नाम पर प्रताडि़त किया जा रहा है। ख़ालिस्तान के नारे लिखवाकर समुदायों में नफ़रत के बीज बोये जा रहे हैं। उधर जो चीज़ें धर्म की धरोहर थीं, उन्हें एक-दूसरे के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। हाल में देश के कई हिस्सों में अचानक धर्म के नाम पर उन्माद पैदा करने की घृणित कोशिश हुई है और राजनीति के ताक़तवर इसे परदे के पीछे समर्थन देते दिख रहे हैं।

देश में यह माहौल बनता जा रहा है कि आने वाले समय में घृणा की इस राजनीति के भयावह नतीजे दिखेंगे। धर्म के आधार पर समुदायों का टकराव हो सकता है। अब यह बातें खुले में कही जा रही हैं कि देश हिन्दुओं का है। ज़ाहिर है ऐसा कहकर अल्पसंख्यकों में भय का माहौल बनाया जा रहा है। बुद्धिजीवियों का कहना है कि यह अच्छी स्थिति नहीं है। ऐसे में सरकार को आगे आकर जनता के मन में पैदा हो रहे भय को ख़त्म करना चाहिए। उनका यह भी कहना है कि चिन्ता की बात यह है कि लोगों के बीच यह धारणा बन रही है कि देश की सत्ता पर क़ाबिज़ पार्टी ही इन चीज़ों को बढ़ावा दे रही है। जो मीडिया देश में जनता की आवाज़ रहा है और ऐसी परिस्थितियों के ख़िलाफ़ मज़बूत आवाज़ था, वह ख़ामोश करके बैठा दिया गया है। निश्चित ही सत्ता की इसमें सबसे बड़ी भूमिका है। जो बोल रहा है, उसे देशद्रोही और ग़द्दार कहा जा रहा है।

हाल में 100 से ज़्यादा पूर्व नौकरशाहों के एक समूह ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर घृणा की राजनीति पर प्रधानमंत्री मोदी की चुप्पी पर सवाल उठाया, वहीं उन्हें उनकी तरफ़ से दिया गया ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ वाला मंत्र भी याद दिलाया। इस खुले पत्र में पूर्व नौकरशाहों के इस समूह ने कहा कि देश में नफ़रत से भरा विनाश का उन्माद साफ़ दिखा रहा है, जहाँ बलि की वेदी पर न केवल मुस्लिम और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के सदस्य हैं, बल्कि स्वयं संविधान भी है। यह चिट्ठी लिखने वालों में पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन, पूर्व विदेश सचिव सुजाता सिंह, पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग, पूर्व गृह सचिव जी.के. पिल्लै जैसे बड़े नौकरशाह शामिल हैं।

चिट्ठी में उन्होंने लिखा है- ‘पूर्व सिविल सर्वेंट होने के नाते यह सामान्य नहीं है कि हमें अपनी भावनाओं को इस तरह पेश करना पड़ रहा है; लेकिन जिस तेज़ गति से हमारे संस्थापकों की बनायी संवैधानिक संरचना को नष्ट किया जा रहा है, वह हमें बोलने,  अपना ग़ुस्सा और पीड़ा ज़ाहिर करने के लिए मजबूर कर रही है। अल्पसंख्यक समुदाय, ख़ासतौर पर मुस्लिमों के ख़िलाफ़ पिछले कुछ साल और महीनों में हिंसा बढ़ी है। यह हिंसा असम, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक और उत्तराखण्ड समेत उन सभी राज्यों में जहाँ भाजपा सत्ता में है, भयावह रूप ले चुकी है।’

दिलचस्प यह है कि इस पत्र के कुछ दिन बाद ऐसे ही पूर्व नौकरशाहों और अन्य ने एक पत्र सरकार को लिखा, जिसमें उसके काम के प्रति भरोसा जताया गया था। ज़ाहिर है कि इसका मक़सद पहले वाले वाले पत्र की काट करना था। देश में अब यही हो रहा है। सरकार का बॉलीवुड, स्पोट्र्स, सेलिब्रिटी, ब्यूरोक्रेसी में एक समर्थक समूह है, जो समय-समय पर इस हेट पॉलिटिक्स का झण्डा उठाकर सोशल मीडिया में सक्रिय हो जाता है और संवेदनशील मुद्दों पर बेहद ग़ैर-संवेदनशील रवैया दिखाता है।

उन्माद का माहौल

हाल के दो महीनों में देश के कई हिस्सों में धार्मिक उन्माद फैलाने की सोची-समझी साज़िश हुई है। दक्षिण के स्कूल-कॉलेजों में बुर्क़ा पहनने से शुरू हुई नफ़रत की रेल चलते-चलते देश के कई हिस्सों और कई रूपों में पहुँच गयी- बुलडोजर, लाउडस्पीकर, ज्ञानवापी मस्जिद, लाल र्क़िले के कमरों की जाँच आदि के रूप में। और अब तो ख़ालिस्तान के नाम भी राजनीतिक षड्यंत्र शुरू हो गये हैं। हिमाचल प्रदेश जैसे अपेक्षाकृत शान्त प्रदेश में सुरक्षा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील विधानसभा परिसर के मुख्य द्वार की दीवार पर शरारती तत्त्व ‘ख़ालिस्तान ज़िंदाबाद’ के नारे लिखकर चले गये और किसी को कानोंकान ख़बर ही नहीं हुई। लोगों को आश्चर्य है कि ऐसे संवेदनशील स्थल पर ऐसे भड़काऊ नारे कोई कैसे लिख गया?

एमएनएस के प्रमुख राज ठाकरे भी अचानक बहित सक्रीय हो गये हैं। गुड़ी पड़वा के मौक़े पर अज़ान का मामला जब उन्होंने उठाया, तो इसके बाद उनकी ‘सेना’ सक्रिय हो गये। राज ठाकरे ने अज़ान के लिए लाउडस्पीकर का प्रयोग बन्द करने की माँग की। राज ठाकरे के कहने के बाद उनके कार्यकर्ताओं ने कई जगह मस्जिदों के बाहर लाउडस्पीकर से भजन गाने शुरू कर दिये।

इसके बाद भाजपा नेता मोहित कंबोज भी इस विवाद में कूद गये और मन्दिरों में मुफ़्त लाउडस्पीकर की पेशकश कर माहौल को और गर्म कर दिया। मस्जिदों से लाउडस्पीकर हटाने के लिए राज ठाकरे ने उद्धव सरकार को 3 मई तक का अल्टीमेटम दे दिया। हालाँकि राज ठाकरे के अल्टीमेटम पर शरद पवार ने कहा कि वह तीन महीने में एक बार जागते हैं। उन्होंने भाजपा पर देश में  धार्मिक उन्माद फैलाने का आरोप लगाते हुए उसकी कटु आलोचना की।

राज ठाकरे की राजनीति काफ़ी समय से ‘ठंडी’ पड़ी हुई है। विरोधी यह आरोप लगा रहे हैं कि राज ठाकरे को जगाने के पीछे भाजपा का हाथ है। भाजपा से अलग होकर कांग्रेस-एनसीपी के साथ महाराष्ट्र सरकार चला रही शिवसेना के बड़े नेता संजय राउत ने सवाल उठाया है कि भाजपा शासित किस राज्य में अज़ान बन्द हुई? उनका भी यही आरोप है कि भाजपा नफ़रत की राजनीति करके सत्ता को बचाना चाहती है, जो बहुत घातक साबित होगा।

महाराष्ट्र में उन्माद की इस राजनीति के बाद देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश भी अछूता नहीं रहा। सबसे पहले वाराणसी में अज़ान के व$क्त लाउडस्पीकर पर हनुमान चालीसा पढऩे का काम शुरू हुआ और वाराणसी में श्रीकाशी ज्ञानवापी मुक्ति आन्दोलन के सदस्यों ने विवाद हो हवा दी। हनुमान चालीसा पढऩे को लेकर उनका तर्क है कि अज़ान से नींद में ख़लल पड़ता है। इसके बाद अलीगढ़ में भाजपा के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) से जुड़े छात्रों ने विवाद को हवा देनी शुरू कर दी। इस हिन्दूवादी छात्र संगठन ने अलीगढ़ के 21 चौराहों पर लाउडस्पीकर लगाने की इजाज़त माँगी। हालाँकि प्रशासन ने इससे इन्कार कर दिया।

लाउडस्पीकर का हल्ला चल ही रहा था कि बुलडोजर कहानी में आ गया। इसमें कोई दो-राय नहीं कि ग़ैर-क़ानूनी तौर पर सरकारी ज़मीनों पर किये क़ब्ज़े हटने चाहिए। लेकिन यहाँ यह सवाल भी है कि प्रशासन की नाक के नीचे यह क़ब्ज़े हो कैसे जाते हैं? उन अधिकारियों-कर्मचारियों पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं होती, जो ये क़ब्ज़े होने के लिए ज़िम्मेदार हैं?

दिल्ली में जब बुलडोजर चलने लगा, तो इस पर हो-हल्ला भी हुआ। मामला न्यायालय में भी पहुँचा है। आरोप है कि धार्मिक आधार पर चिह्नित किये गये अवैध निर्माण ही बुलडोजर के निशाने पर आ रहे हैं। इसे निश्चित ही किसी भी रूप में न्यायिक फ़ैसला नहीं कहा जा सकता।

दुनिया में फ़ज़ीहत

भारत के भीतर धार्मिक स्तर पर उभर रहे तनावों को लेकर सिर्फ़ देश में ही चिन्ता नहीं है, विश्व स्तर पर भी हमारी छवि को बट्टा लगाने वाली रिपोर्ट सामने आ रही हैं। दुनिया भर में लोकतंत्र की स्थिति पर वी-डेम (वेराइटीज ऑफ डेमोक्रेसी) संस्थान की इसी साल मार्च में आयी रिपोर्ट में भारत को दुनिया के उन टॉप 10 देशों में शामिल किया गया है, जहाँ शासन में निरंकुश राज्यसत्ता है। चिन्ता की बात यह है कि जिन देशों के साथ हमें शामिल किया गया है, उनमें अल सल्वाडोर, तुर्की और हंगरी जैसे देश शामिल हैं। रिपोर्ट में चिन्ताजनक बात यह कही गयी है कि भविष्य के संकेत भी बेहतर नहीं, क्योंकि इसमें भारत में लोकतंत्र की स्थिति और बिगडऩे की बात कही गयी है।

पिछले साल की रिपोर्ट में भारत को ‘चुनावी तानाशाही’ वाले देश के रूप में वर्गीकृत किया गया था। हालाँकि अब यह स्थिति और ख़राब दिशा की तरफ़ बढ़ती दिखायी गयी है। नयी रिपोर्ट में भारत लोकतंत्र के मामले में सूची में नीचे के 40 से 50 फ़ीसदी देशों में पहुँच गया है। दिलचस्प यह है कि भारत में लोकतंत्र के स्तर में यह गिरावट सन् 2014 में भाजपा (नरेंद्र मोदी) के सत्ता में आने के बाद ज़्यादा हुई है।

यही नहीं, स्वीडिश संस्थान की डेमोक्रेसी रिपोर्ट-2022 ‘ऑटोक्रेटाइजेशन चेंजिंग नेचर’ में भी कुछ ऐसे ही संकेत उभरकर आये हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर के 15 देशों में लोकतंत्रीकरण की एक नयी लहर देखी जा रही है, जबकि 32 देश तानाशाही के अधीन हैं। देशों को वी-डेम के उदार लोकतंत्र सूचकांक (एलडीआई) के आधार पर वर्गीकृत किया गया है, जिसमें लोकतंत्र के चुनावी और उदार दोनों पहलुओं को शामिल किया जाता है और लोकतंत्र का निम्नतम स्तर शून्य (0) और उच्चतम स्तर एक (1) माना जाता है।

इस रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि पिछले एक दशक में एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, कंबोडिया, हांगकांग, थाईलैंड और फिलीपींस के साथ भारत में तानाशाही रवैये की स्थिति बदतर हुई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि तानाशाही के मामले में शीर्ष देशों में से कम से कम छ: देशों में बहुलतावाद का विरोध करने वाले दल शासन चला रहे हैं। ये छ: देश हैं- ब्राजील, हंगरी, भारत, पोलेंड, सार्बिया और तुर्की।

रिपोर्ट में कहा गया है कि बहुलतावाद का विरोध करने वाले दल और उनके नेताओं में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति प्रतिबद्धता की कमी है, अल्पसंख्यकों के मौलिक अधिकारों के प्रति असम्मान की भावना है, राजनीतिक विरोधियों को दबाने को बढ़ावा देते हैं और राजनीतिक हिंसा का समर्थन करते हैं। ये सत्तारूढ़ दल राष्ट्रवादी-प्रतिक्रियावादी होते हैं और उन्होंने तानाशाही के एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए सरकारी शक्ति का इस्तेमाल किया है।

भारत के चुनावी तानाशाही वाले देशों में तब्दील होने का जुड़ाव नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा और उसके हिन्दू-राष्ट्रवादी एजेंडा को लागू करने से है। पिछले साल की रिपोर्ट में भी यही बताया गया था। सन् 2021 की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में 2014 में भाजपा की मोदी सरकार आने के बाद से और उनके द्वारा हिन्दू-राष्ट्रीय एजेंडा के प्रचार के बाद से लोकतंत्र के स्तर में अधिक गिरावट देखी गयी है।

सन् 2013 के मुक़ाबले सन् 2020 में 0.23 अंकों की गिरावट देखी गयी है; जबकि सन् 2013 में भारत में लोकतंत्र का स्तर अपने चरम पर (0.57) पर था, जो कि 2020 में 0.34 रह गया। पिछले 10 साल में विश्व के किसी भी देश में यह सबसे बड़ा उतार-चढ़ाव था। मीडिया की भी बुरी गत देश में हो रहे इस परिवर्तन का असर मीडिया पड़ा है। दुनिया 3 मई को जब ‘वल्र्ड प्रेस फ्रीडम डे’ मना रही थी, एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट में भारत में प्रेस इंडेक्स को लेकर चौंकाने वाला आँकड़ा सामने आया। ‘रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स’ की नयी रिपोर्ट में  प्रेस की आज़ादी के इंडेक्स में भारत दुनिया के 180 देशों में 150वें स्थान पर पहुँच गया है।

‘रिपोर्टर्स विदआउट बॉर्डर्स’ ने यह सर्वे व्यापक स्तर पर किया और इसमें दुनिया के नौ प्रतिष्ठित मानवाधिकार सगठनों टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स, फ्रीडम हाउस, पेन अमेरिका, इन्टरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स, सिविकस, असेस नाऊ, इन्टरनेशनल कमीशन ऑफ जुरिस्ट्स, एमनेस्टी इन्टरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वाचको साथ जोड़कर किया। उसकी वेबसाइट पर प्रकाशित आलेख ‘इंडिया- मीडिया फ्रीडम अंडर थ्रेट’ में बताया गया है कि भारत में प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वास्तविक स्थिति क्या है।

आलेख के अनुसार, सरकारी स्तर पर पत्रकारों को प्रताडि़त करने और सरकारी नीतियों का विरोध करने वालों पर झूठे आरोप मढ़कर कार्रवाई करने के कारण हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन, जिन्हें सरकारी संरक्षण हासिल है, बिना किसी भय के ऐसे पत्रकारों को ऑनलाइन या ऑफलाइन धमकाने, प्रताडि़त करने, दुव्र्यवहार करने या फिर शारीरिक तौर पर हमले करने के लिए धमकाते हैं। दुर्भाग्य से इन तत्त्वों पर कोई कार्रवाई नहीं होती। उसके मुताबिक, सच कहने की हिम्मत करने वाले पत्रकारों या मीडिया संस्थानों पर शिकंजा कस दिया जाता है। उनके ख़िलाफ़ झूठे मामले बनाये जाते हैं और अधिकारी उन्हें आतंकवाद और देशद्रोह जैसे मामलों में फँसा देते हैं। स्वतंत्र मीडिया संस्थानों की वित्तीय संस्थाओं से जाँच करवाकर उन्हें प्रताडि़त किया जाता है या सरकार की भाषा बोलने का दबाव उनपर बनाया जाता है।

कई मामलों में इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट 2021 के तहत कार्रवाई हुई है। हाल में यह ख़ुलासा हुआ था कि भारतीय अधिकारियों ने निष्पक्ष पत्रकारों के फोन की जासूसी इजरायली स्पाईवेयर पेगासस से की। सरकार ने इन्टरनेट बंदी को भी पत्रकारों और सूचना के प्रसार के विरुद्ध एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है। भारतीय जनता पार्टी के सरकार बनने के बाद से निष्पक्ष पत्रकारों, स्वतंत्र मीडिया संस्थानों और सिविल सोसायटी पर सरकारी हमले तेज़ हुए हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि अप्रैल, 2022 में हिन्दू कट्टरवादियों ने दिल्ली में एक समारोह की रिपोर्टिंग करने गये 5 पत्रकारों पर हमला कर दिया। पुलिस ने हमलावरों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की जगह कार्यवाही करने के बदले इनमें से एक पत्रकार, मीर फ़ैज़ल, पर मुक़दमा दजऱ् कर दिया। उस पर आरोप लगाया गया कि उसने एक ट्वीट में यह लिख दिया कि समारोह में दो पत्रकारों पर हमला इसलिए हुआ; क्योंकि वे मुस्लिम हैं। एक और संस्था ‘कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स’ के अनुसार, राणा अय्यूब समेत कम-से-कम 20 मुस्लिम महिला पत्रकारों के चित्रों को एक नीलामी वाली वेबसाइट पर इसलिए डाला गया, ताकि उन्हें प्रताडि़त और बदनाम किया जा सके।

देश में अकसर यह आरोप लगता है कि सरकार के ख़िलाफ़ लिखने वाले पत्रकारों को कई ज़रियों से धमकियाँ दी जाती हैं। महिला पत्रकारों को बलात्कार और हत्या की धमकियाँ दी जाती हैं। सोशल मीडिया पर भी ऐसी धमकियाँ देने वाले लोग किसी-न-किसी रूप में हिन्दूवादी संगठनों से जुड़े होते हैं। रिपोट्र्स के मुताबिक, सन् 2017 में उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद 66 पत्रकारों पर आपराधिक मुक़दमे दायर किये गये, जबकि 48 पत्रकारों पर शारीरिक हमले हुए। अगस्त, 2019 में जम्मू-कश्मीर में धारा-370 ख़त्म होने के बाद वहाँ पत्रकारों से सरकारी सुविधा वापस ली गयी है और 40 के क़रीब पत्रकारों पर आपराधिक मामले दर्ज किये गये हैं।

 

लाउडस्पीकर और ध्वनि प्रदूषण क़ानून

इन दिनों देश भर में लाउडस्पीकर की भी चर्चा है। लेकिन लाउडस्पीकर पर चर्चा से पहले यह जानना ज़रूरी है कि आख़िर देश में ध्वनि प्रदूषण का क़ानून क्या है? यह क़ानून ध्वनि प्रदूषण क़ानून-2000 है, जिसमें निम्नलिखित प्रावधान हैं। सार्वजनिक स्थलों पर लाउडस्पीकर बजाने के लिए लिखित अनुमति लेना ज़रूरी है। रात 10:00 बजे से सुबह 6:00 बजे तक लाउडस्पीकर बजाने पर रोक है। बन्द कमरों, जगहों पर ही रात में लाउडस्पीकर बजाने की इजाज़त है। विशेष परिस्थितियों में राज्य सरकार रात 12:00 बजे तक की इसकी इजाज़त दे सकती है। राज्य सरकार अस्पताल, शैक्षिक, व्यावसायिक संस्थानों के आसपास साइलेंस जोन बना सकती है। साइलेंस जोन के 100 मीटर के दायरे में लाउडस्पीकर नहीं बजाया जा सकता। इस क़ानून में यह भी बताया गया है कि कहाँ, कितनी ध्वनि-सीमा होनी चाहिए। इसके मुताबिक, रिहायशी क्षेत्र में सुबह 6:00 बजे से बजे से रात 10:00 बजे तक 55 डेसीबल, व्यावसायिक क्षेत्र में सुबह 6:00 बजे से रात 10:00 बजे तक 65 डेसीबल, व्यावसायिक क्षेत्र में रात 10:00 बजे से सुबह 6:00 बजे तक 55 डेसीबल, शान्त क्षेत्र (पीसफुल जोन) सुबह 6:00 बजे से रात 10:00  बजे तक 50 डेसीबल और शान्त क्षेत्र में रात 10:00 बजे से सुबह 6:00 बजे तक 40 डेसीबल की सीमा निर्धारित है।

 

नागरिकता के 10,365 आवेदन लम्बित

एक तरफ़ देश में हिन्दुओं को ख़तरे में बताकर नफ़रत पैदा की जा रही हैं, दूसरी तरफ़ भारत की नागरिकता पाने की आस में पाकिस्तान से भारत आये 800 पाकिस्तानी हिन्दू नागरिक न बन पाने की निराशा में वापस पाकिस्तान लौट गये। यह राजस्थान में रह रहे थे और उम्मीद कर रहे थे कि उन्हें सीएए के चलते भारत की नागरिकता मिल जाएगी।

भारत में पाकिस्तानी अल्पसंख्यक प्रवासियों के हक़ की लड़ाई लडऩे वाले सीमांत लोक संगठन (एसएलएस) के मुताबिक, इन लोगों ने नागरिकता के लिए आवेदन किया था; लेकिन इस मामले में कोई प्रगति होते न देख बड़ी संख्या में प्रवासी हिन्दू 2021 में पाकिस्तान या आसपास के देशों को वापस लौट गये। सीमांत लोक संगठन के मुताबिक, इनमें कुछ लोग पाकिस्तान के अलावा दूसरे देशों से भी थे। एसएलएस के मुताबिक, ऐसे लोग जो पाकिस्तान लौट गये उन्हें वहाँ भारत के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार करने में इस्तेमाल किया जाता है। इन मामलों में ऐसा हुआ। इन लोगों में से कुछ को पाकिस्तानी मीडिया के सामने लाकर भारत के ख़िलाफ़ बुलवाया गया। उन पर दबाव डालकर उनके मुँह से आरोप लगवाया गया कि भारत में उनके साथ ख़राब व्यवहार हुआ। याद रहे सन् 2011 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने पाकिस्तान में धार्मिक उत्पीडऩ के कारण भारत में शरण लेने पहुँचे सैकड़ों हिन्दुओं और सिखों को लम्बी अवधि का वीजा (एलटीवी) या तार्थयात्री वीजा देने का निर्णय किया था।

एलटीवी पाँच साल के लिए दिये जाते हैं और नागरिकता पाने में इसकी बड़ी भूमिका होती है। अकेले राजस्थान में ही 2,500 पाकिस्तानी हिन्दू हैं, जो नागरिकता मिलने का इंतज़ार कर रहे हैं। इनमें से कुछ तो बीते दो दशक से इंतज़ार में हैं। कई लोगों ने ऑफलाइन आवेदन किया है। देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनने के बाद सन् 2015 में गृह मंत्रालय ने नागरिकता क़ानून में बदलाव किया और दिसंबर, 2014 या उससे पहले धार्मिक उत्पीडऩ की वजह से भारत आने वाले विदेशी प्रवासियों के प्रवास को वैध करार देते हुए उन्हें पासपोर्ट अधिनियम और विदेशी अधिनियम के प्रावधानों से छूट दी; क्योंकि उनके पासपोर्ट की मियाद ख़त्म हो चुकी थी।

गृह मंत्रालय ने सन् 2018 में नागरिकता आवेदन की ऑनलाइन प्रक्रिया शुरू की और सात राज्यों में 16 कलेक्टरों को यह ज़िम्मेदारी दी कि वे पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश से आये हिन्दुओं, ईसाइयों, सिखों, पारसियों, जैनों और बौद्धों को नागरिकता देने के लिए ऑनलाइन आवेदन स्वीकार करें। मई, 2021 में गृह मंत्रालय ने गुजरात, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा और पंजाब के 13 अन्य ज़िला अधिकारियों को छ: समुदायों के प्रवासियों को नागरिकता क़ानून-1955 की धारा-5 और छ: के तहत नागरिकता प्रमाण-पत्र देने की शक्ति प्रदान की थी। इसकी पूरी प्रक्रिया ऑनलाइन है; लेकिन पोर्टल उन पाकिस्तानी पासपोट्र्स को स्वीकार नहीं करता है, जिनकी अवधि ख़त्म हो चुकी है। यही कारण है कि शरणार्थियों को पासपोर्ट रिन्यू कराने के लिए दिल्ली में पाकिस्तान के उच्चायोग जाकर वहाँ अच्छी-ख़ासी रक़म अदा करनी होती है।

सीमांत लोक संगठन का आरोप है कि यदि किसी परिवार में 10 सदस्य हैं, तो उन्हें पाकिस्तानी उच्चायोग में पासपोर्ट रिन्यू कराने के लिए एक लाख रुपये जमा कराने होते हैं। अब जो लोग ख़स्ताहाल होकर भारत आये हों, वे भला इतनी बड़ी राशि कैसे जुटाएँ। ऑनलाइन आवेदन होने के बावजूद एक आवेदक को कलेक्टर के पास भी हार्ड कॉपी जमा करानी होती है, जो कसरत का काम है। गृह मंत्रालय ने 22 दिसंबर, 2021 को राज्यसभा में एक लिखित जवाब में बताया था कि ऑनलाइन मॉड्यूल के अनुसार मंत्रालय के पास भारतीय नागरिकता के 10,365 आवेदन लम्बित हैं। ये आँकड़े 14 दिसंबर, 2021 तक के हैं, जिनमें से 7,306 आवेदक पाकिस्तान के थे।

‘तहलका’ द्वारा जुटायी गयी जानकारी के मुताबिक, तीर्थ यात्रा वीजा पर आये कई लोग पासपोर्ट की मियाद ख़त्म होने के बाद भी भारत में रहते रहे हैं। सन् 2011 से 2014 के बीच 14,726 पाकिस्तानी हिन्दुओं को एलटीवी दिया गया। गृह मंत्रालय के आँकड़े देखें तो नवंबर, 2021 से लेकर फरवरी, 2022 तक पाकिस्तानी हिन्दुओं को 600 एलटीवी दिये गये। सरकार को सन् 2018, 2019, 2020 और 2021 में पड़ोसी देशों के छ: समुदायों से नागरिकता के लिए 8,244 आवेदन मिले। वैसे पाककिस्तान में उत्पीडि़त होने वाले पाकिस्तानी हिन्दू अकसर किसी-न-किसी तरीक़े से भारत आते रहते हैं।

कई पाकिस्तानी हिन्दू भारतीय नागरिकता की उम्मीद में सीमावर्ती इलाक़ों से सरहद पार करते हैं या फिर वैध तरीक़े से आने पर नागरिकता की कोशिश करते हैं। हाल में पाकिस्तान के मीरपुर ख़ास के पाकिस्तानी नागरिक राजेश मेघवाल का मामला सामने आया है। मेघवाल परिवार के 10 सदस्यों के साथ बिना वीजा के दुबई से नेपाल होते हुए भारत पहुँच गये। हर परिवार, जिसमें महिलाएँ और बच्चे भी हैं; कुछ समय लखनऊ और जोधपुर में रुकने के बाद राजस्थान के बाड़मेर में अपने रिश्तेदारों के पास आ गये। उनके पास भारत का वीजा तक नहीं है। इन लोगों के मामले में गृह मंत्रालय से सलाह माँगी गयी है। ख़ुफ़िया एजेंसियों के लोग भी इन परिवारों से पूछताछ कर चुके हैं और किसी को भी संदिग्ध नहीं पाया गया। उनके रिश्तेदार पहले से ही भारत में हैं।

“इस विशाल सामाजिक ख़तरे के सामने आपकी चुप्पी इसे दबाने वाली है। हम आपकी अंतरात्मा से अपने वादे ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ को दिल से लागू करने की अपील करते हैं। हमें आशा है कि इस ‘आज़ादी के अमृत महोत्सव’ में पक्षपात वाले विचारों से ऊपर उठकर आप उस हेट पॉलिटिक्स के अन्त की अपील करेंगे, जिस पर आपकी पार्टी के कंट्रोल वाले राज्यों की सरकारें पूरी लगन से चल रही हैं।’’

प्रधानमंत्री को लिखे 108 पूर्व नौकरशाहों के पत्र में

महँगाई खा रही सारी कमायी

लगातार बढ़ती महँगाई निम्न-मध्यम वर्ग के लिए अब असहनीय होती जा रही है। गैस से लेकर खाद्यान्न तक सब कुछ कई-कई गुना महँगा हो चुका है। बढ़ती महँगाई को कैसे क़ाबू किया जाए? इसे लेकर आर्थिक मामलों के जानकारों से बातचीत के आधार पर ‘तहलका’ के विशेष संवाददाता राजीव दुबे की रिपोर्ट:-

देश में पिछले छ:-सात साल से महँगाई लगातार बढ़ रही है। सरकार महँगाई पर जवाब देने से बचने के लिए यूक्रेन-रूस युद्ध को ज़िम्मेदार ठहरा रही है। लेकिन वास्तविकता यह है कि बढ़ी जीएसटी, वैट, जीएसटी और जमाख़ोरी करके मुनाफ़ा कमाने की पूँजीपतियों की चाहत इसके लिए ज़िम्मेदार है। इस सबके लिए हमारा सरकारी तंत्र ज़िम्मेदार है, जो पूरी तरह अव्यवस्था के दौर से गुज़र रहा है। जनता से सच छिपाया जा रहा है। जो भी आँकड़े बताये जा रहे हैं, वो सही नहीं हैं। बढ़ती महँगाई को लेकर मध्यम और ग़रीब तबक़ा परेशान है। जानकारों का कहना है कि अगर समय रहते महँगाई पर क़ाबू नहीं पाया गया, तो आने वाले दिनों में यह और भी बढ़ेगी, जिससे अपराध बढ़ेंगे।

आर्थिक मामलों के जानकार पीयूष जैन का कहना है कि महँगाई तो 2020 के कोरोना के आने के दौरान से तेज़ी से बढ़ रही है। लेकिन सरकार ने बढ़ती महँगाई के लिए कोरोना को दोषी ठहराकर अपना पल्ला छाड़ लिया था। तब लोगों ने भी कोरोना को वैश्विक महामारी समझकर महँगाई के दंश को स्वीकार कर लिया था। लेकिन अब सरकार ने रूस और यूक्रेन युद्ध को महँगाई के लिए ज़िम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया है। ऐसे में जब सरकार ही अपनी ज़िम्मेदारी से बचेगी, तो महँगाई पर कैसे क़ाबू पाया जा सकता है? पीयूष जैन का कहना है कि देश के कुछ चंद पूँजीपतियों ने जिस तरह से बाज़ार पर अपना क़ब्ज़ा किया है, उसे देखकर तो नहीं लगता है कि महँगाई पर जल्द क़ाबू पाया जा सकता है। आटा, दाल और चावल के साथ खाद्य तेल का कारोबार चंद पूँजीपतियों के हाथों में है। ये लोग सरकार की अनदेखी कर अपनी इच्छानुसार चीज़ों के भाव तय करके जमकर पैसा कमाने में लगे हैं। क्योंकि सरकार का अप्रत्यक्ष रूप से इनके ऊपर हाथ है। यही वजह है कि महँगाई अनियंत्रित होती जा रही है।

आर्थिक मामलों के जानकार एवं कर विशेषज्ञ (टैक्स एक्सपर्ट) ध्रुव अग्रवाल का कहना है कि सरकार अपना ख़ज़ाना भरने के लिए ग़रीबों की जेबें ख़ाली करने में लगी है। जिस तरीक़े से मई के पहले सप्ताह में ही घरेलू गैस के सिलेंडर के दाम एक मुश्त 50 रुपये बढ़ाये हैं, उससे देश के ग़रीब और मध्यम वर्ग के लोगों को करारा झटका लगा है। उन्होंने बताया कि खुदरा महँगाई दर तो क़रीब सात फ़ीसदी के आस-पास है, जबकि थोक महँगाई दर पिछले एक साल से दो-दहाई अंकों पर पहुँच चुकी है, जो अपने आप में सामान्य बात नहीं है। उनका कहना है कि कोरोना के कारण देश के लोग बढ़ती आर्थिक परेशानियों से उबरे नहीं थे कि यूक्रेन और रूस के लम्बे खिंचते युद्ध की वजह से कच्चे तेल और अनाज के साथ खाद्य तेल के दाम बढ़ते ही जा रहे हैं।

दिल्ली के चाँदनी चौक के व्यापारी विजय प्रकाश जैन का कहना है कि पटरी से उतरी अर्थ-व्यवस्था सुचारू रूप से पटरी पर लाने के लिए बड़ी सूझबूझ और मेहनत की आवश्यकता होती है। अगर व्यवस्था में पारदर्शिता न हो, तो वह ठीक नहीं हो सकती। हमारे यहाँ कुछ भी ठीक नहीं है, यही वजह है कि व्यवस्था सुधरने की जगह बिगड़ती जा रही है। जैसा कि मौज़ूदा समय में हो रहा है। उनका कहना है कि सन् 2020 में जब कोरोना के चलते जिन लोगों की नौकरियाँ गयीं, उनकी अभी तक पूर्ण रूप से वापसी नहीं हुई है। जिन्हें नौकरी मिल गयी, उनमें से बहुतों को पूरा और योग्यतानुसार वेतन नहीं मिल रहा है। इससे देश में बड़े तबक़े की आर्थिक स्थिति बिगड़ चुकी है। सरकार इस ओर भी कोई ध्यान नहीं दे रही है। विजय प्रकाश जैन का कहना है कि आँकड़े बताते है कि सन् 2020 से ही देश में लगभग 20 करोड़ से ज़्यादा लोग ग़रीबी रेखा के नीचे चले गये हैं। ऐसे में सरकार को ठोस और कारगर क़दम उठाने की ज़रूरत है, ताकि को लोगों को रोज़गार मिल सके। साथ ही बढ़ती महँगाई पर क़ाबू पाने के लिए भी सरकार को बेहतर क़दम उठाने पड़ेंगे। सरकार को अपनी मनमानी को रोकना होगा। अन्यथा पड़ोसी देशों जैसे हालात बनने में देर नहीं लगेगी। क्योंकि देश का बड़ा तबक़ा महँगाई की चौतरफ़ा मार से कराह रहा है।

दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रो. एस. राज सुमन का कहना है कि जब कोरोना महामारी चरम पर थी, तब और जब देश में पाँच राज्यों में चुनाव चल रहे थे, तब महँगाई का मुद्दा दबा रहा। जैसे ही पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम घोषित हुए, महँगाई बढ़ी भी और लोगों का ध्यान भी इसने खींचा। अब यूक्रेन-रूस का युद्ध चल रहा था, तब भी महँगाई की चर्चा दबाने की कोशिश हो रही है। उन्होंने बताया कि हाल ही में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की रिपोर्ट में यूक्रेन संकट की वजह से चालू वित्त वर्ष 2022-23 में सारी दुनिया में व्यापारिक घाटा बढ़ा है। इसके मद्देनज़र वैश्विक व्यापार लगभग 4.7 से घटकर तीन फ़ीसदी तक रह गया है। ऐसे में भारत जैसे देश में आशंका जतायी जा रही है कि महँगाई अभी और बढ़ेगी। उनका कहना है कि हमारी सरकार को महँगाई पर क़ाबू पाने के लिए सही-सही आँकड़े सार्वजनिक करने होंगे। साथ ही कोरोना-काल में गयी युवाओं की नौकरी को वापस दिलाने का प्रयास करना होगा। जमाख़ोरी पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाना होगा और कर (टैक्स) कम करना होगा। अन्यथा महँगाई सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती ही जाएगी। उनका कहना है कि देश में महँगाई बढऩे के पीछे सबसे बड़ा कारण अगर कोई है, तो वो है देश में पूँजीपतियों की विस्तारवादी सोच। क्योंकि वे जमकर जमाख़ोरी करने और चीज़ों के मनमाने दाम वसूलने में लगे हैं। पूँजीपतियों ने अभी से जमाख़ोरी करके आटे-दाल के साथ-साथ खाद्य तेलों के दाम बढ़ा दिये हैं। किसानों की फ़सल को ख़रीदने वाले पूँजीपतियों द्वारा जमाख़ोरी करने की आदत पर रोक लगनी चाहिए। व्यवस्था की कमी और ख़ामी के चलते ये लोग मौक़े का फ़ायदा उठाते जा रहे हैं। कोरोना और युद्ध भी कारण हैं; लेकिन वो दूसरे और अलग कारण हैं। लेकिन आंतरिक कारण जमाख़ोरी और चीज़ों के मनमाने दाम वसूलने की आदत ही हैं।

दिल्ली के कई अन्य छोटे-बड़े व्यापारियों ने साफ़ कहा कि सरकार की नीयत में खोट है। उनका कहना है कि हमारी सरकार को भलीभाँति मालूम है कि कोरोना महामारी के चलते लोगों का रोज़गार छिना है और कामधंधा मंदा हुआ है। परिवार-के-परिवार कोरोना के चलते उजड़ गये हैं। ऐसे में पेट्रोल, डीजल, ट्रांसपोर्ट, गैस, खाद्य तेल, खाद्यान्न महँगे करना; कर (टैक्स) बढ़ाना और कई तरह की वसूली प्रथा को बढ़ावा देना ठीक नहीं है। कई राज्यों में तो गैस सिलेंडर 1,000 रुपये से ज़्यादा का मिल रहा है। देश का किसान गेहूँ, धान (चावल), सब्ज़ी, खाद्यान्न तेल की फ़सलें और दालें पैदा करता है; लेकिन उसे सही दाम कभी नहीं मिलते। उसे अधिकतर मुनाफ़े की जगह घाटा होता है; लेकिन बाज़ार में इन्हीं वस्तुओं के दाम में कई-कई गुना मुनाफ़े पर बिकती हैं। मतलब साफ़ है कि यह महँगाई सुनियोजित है; जबकि इस पर बड़े आराम से क़ाबू किया जा सकता है।

दिल्ली के छोटे व्यापारियों का कहना है कि उपभोक्ताओं को बड़े-बड़े व्यापारी ठगने में लगे हैं। वे कम तोल की पैकिंग करके पुराने रेट पर बेचकर मोटा मुनाफ़ा कमा रहे हैं। हाल यह है कि महँगाई हर रोज़ बढ़ रही है। विपक्षी पार्टियाँ विरोध तक नहीं कर रही हैं; जिसका नतीजा यह है कि सरकार चैन से है और महँगाई बेलगाम होती जा रही है।

ट्रांसपोर्टर रमेश अग्रवाल का कहना है कि पेट्रोल-डीजल के दाम 20 से 30 फ़ीसदी तक बढ़ गये; लेकिन भाड़ा ज्यों-का-त्यों है, या उस अनुपात में नहीं बढ़ा है। ऐसे में लोगों को महँगाई के नाम पर जो लूटा जा रहा है, वो वास्तविकता से दूर है। उनका कहना है कि केंद्र सरकार को जाँच करनी चाहिए कि वे लोग कौन हैं, जो मनमानी कर रहे हैं। छोटे से लेकर बड़ा व्यापारी तक ईंधन के बढ़े दामों का हवाला देकर उपभोक्ताओं को जमकर लूटने में लगा है। लेकिन जाँच कौन करे? सरकारी तंत्र बीमार है और जनता लाचार है।

दिल्ली के शकरपुर की बीना चौधरी कहती हैं कि महँगाई सारी कमायी खा रही है। अब पहले की तरह पति द्वारा दिये गये ख़र्च में से वह बचत नहीं कर पाती हैं। बल्कि अब तो जो ख़र्च मिलता है, वह भी कम पड़ जाता है। कमायी बढऩे के बजाय घटी है और ख़र्चे बढ़े हैं।

जम्मू-कश्मीर में परिसीमन के बाद चुनाव कब?

कश्मीर में रिपोर्ट को लेकर नाराज़गी और विरोध, जम्मू में ख़ुशी

रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच दक्षिण एशिया में उभरते तनावों और पाकिस्तान में शहबाज़ शरीफ़ के नेतृत्व में नयी सरकार बनने के बाद जम्मू-कश्मीर में विधानसभा और लोकसभा सीटों के परिसीमन वाली अन्तिम रिपोर्ट प्रकाशित हो गयी है। घाटी के राजनीतिक दलों ने इस रिपोर्ट की सिफ़ारिशों पर गहरा ऐतराज़ जताया है। यहाँ सवाल यह है कि क्या भारतीय लोकतंत्र जम्मू-कश्मीर को लेकर सामने खड़ी चुनौतियों को परिसीमन के इस तरीक़े से और मुश्किल नहीं कर रहा? घाटी के राजनीतिक दलों ने परिसीमन रिपोर्ट को सिरे से ख़ारिज़ कर दिया है और इसे लोगों से धोखा बताया है।

जून, 2018 में पीडीपी-भाजपा सरकार टूटने के बाद राज्य के लोग अपने मताधिकार का उपयोग नहीं कर पाये हैं। हालाँकि इस बीच 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर का विभाजन करके दो केंद्र शासित प्रदेश बना दिये गये थे। केंद्र सरकार अब इस साल कुछ राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के साथ जम्मू-कश्मीर में भी चुनाव करवा सकती है। आरम्भ से चुनावी राजनीति में पले-बड़े जम्मू कश्मीर के लोग बहुत शिद्दत से महसूस कर रहे हैं कि जनता के चुने प्रतिनिधि सत्ता सँभालें। लोगों का कहना है कि केंद्र के नियुक्त लेफ्टिनेंट गवर्नर और अफ़सरशाही से जनता वैसा सीधा संवाद नहीं कर सकती, जैसा चुने प्रतिनिधियों के साथ हो सकता है। लिहाज़ा उनकी समस्यायों के निदान के लिए चुनाव होने ज़रूरी हैं। वैसे परिसीमन की रिपोर्ट में विधानसभा और लोकसभा हलक़ो को लेकर जो बदलाव किये गये हैं, उन्हें लेकर कश्मीर की राजनीतिक दलों में नाराज़गी है।

जम्मू-कश्मीर में पाँच लोकसभा सीटों बारामूला, श्रीनगर, अनंतनाग-राजौरी, उधमपुर और जम्मू को बरक़रार रखते हुए इनकी सीमाओं को पुनर्निर्धारित किया गया है। जम्मू के पीर पंजाल क्षेत्र को अब कश्मीर की अनंतनाग सीट में डाला गया है। पीर पंजाल में पुंछ और राजौरी ज़िले आते हैं, जो पहले जम्मू संसदीय सीट का हिस्सा थे। श्रीनगर संसदीय क्षेत्र के एक शिया बहुल क्षेत्र को बारामूला संसदीय सीट में जोड़ दिया गया है।

घाटी में नाराज़गी

धारा-370 हटाते समय जिस तरह जम्मू-कश्मीर के लोगों को भरोसे में नहीं लिया गया था, उससे उनमें नाराज़गी थी। अब परिसीमन में विधानसभा हलक़ो के बँटवारे पर भी ख़ासकर कश्मीर में नाराज़गी है और उनका आरोप है कि परिसीमन एकतरफ़ा है और इसमें राजनीति की गयी है।

‘तहल$का’ से फोन पर बातचीत में फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने कहा- ‘ऐसी चालबाज़ियाँ सूबे में ज़मीनी हक़ीक़त को नहीं बदल सकतीं। परिसीमन आयोग के सहारे तो बिलकुल भी नहीं। मरहम लगाने की जगह ज़ख़्म दिये जा रहे हैं। हम सब (कश्मीर के राजनीतिक दल) मिलकर बैठेंगे और इस मसले पर चर्चा करेंगे।’

कांग्रेस ने भी सवाल उठाया है कि जब पूरे देश के बाक़ी निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन पर साल 2026 तक रोक लगी है, तो फिर जम्मू-कश्मीर के लिए अलग से परिसीमन क्यों हो रहा है? देखा जाए, तो जम्मू-कश्मीर का परिसीमन और इसका विरोध दोनों ही राजनीतिक हैं। विरोध जनसंख्या के लिहाज़ से ज़्यादा आबादी वाले मुस्लिम बहुल कश्मीर में कम सीटें बढ़ाने और कम आबादी वाले हिन्दू बहुल जम्मू में ज़्यादा सीटें बढ़ाने का हो रहा है। पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) प्रमुख महबूबा मुफ़्ती ने इस मसले पर कहा- ‘यह बहुत फ़िक्र की बात है कि परिसीमन में जनसंख्या की पूरी तरह अनदेखी की और आयोग ने मनमर्ज़ी का फ़ैसला किया। हमें इस रिपोर्ट पर बिलकुल भरोसा नहीं। रिपोर्ट का मक़सद जम्मू-कश्मीर के लोगों को उनके अधिकारों से वंचित करना है। दिल्ली ने एक बार फिर हमारे संविधान की अनदेखी की है और चुनावी बहुमत को अल्पमत में बदल दिया।’

घाटी के राजनीतिक दलों का आरोप है कि परिसीमन के बहाने भाजपा हिन्दू बहुल जम्मू में अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकना चाहती है। जम्मू-कश्मीर के मुस्लिम बहुल कश्मीर में परिसीमन के बाद एक सीट बढ़कर 47 सीटें हुई हैं, जबकि हिन्दू बहुल जम्मू में छ: बढ़कर अब 43 हो गयी हैं। कुल 90 विधानसभा सीटों में बहुमत के लिए 46 सीटें चाहिए। यदि कश्मीरी पंडितों के दो नामित सदस्यों को पुडुचेरी की तर्ज पर वोट का अधिकार मिल जाता है, तो यह दो वोट अतिरिक्त हो जाएँगे।

उधर तीन साल पहले तक सत्ता में भाजपा की सहयोगी रही पीपुल्स कॉन्फ्रेंस (पीसी) के नेता सज्जाद लोन ने कहा- ‘अतीत से कोई सबक़ नहीं सीखते हुए उसे दोहराया गया है। कश्मीर के साथ भेदभाव हुआ है। आबादी के लिहाज़ से बदलाव नहीं हुए और यहाँ के आवाम को निराशा हुई है। भाजपा और उसके सहयोगी राजनीतिक फ़ायदे से ऊपर नहीं सोच रहे।’ इन बदलावों के बाद जम्मू की 44 फ़ीसदी आबादी 48 फ़ीसदी सीटों के लिए वोट डालेगी, जबकि कश्मीर की 56 फ़ीसदी आबादी 52 फ़ीसदी सीटों के लिए। परिसीमन से पहले कश्मीर के 56 फ़ीसदी लोग 55.4 फ़ीसदी सीटों के लिए, जबकि जम्मू के 43.8 फ़ीसदी लोग 44.5 फ़ीसदी सीटों के लिए वोट डालते थे। अविभाजित जम्मू-कश्मीर में लेह और कारगिल की सीटें भी शामिल थीं। कश्मीर के राजनीतिक दलों का आरोप है कि भाजपा जम्मू में परिसीमन के ज़रिये सीटें बढ़ाकर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करना चाहती है।

इस साल कश्मीर में पर्यटकों की शानदार आमद रही है। लोग उम्मीद कर रहे हैं कि विधानसभा चुनाव हों, तो उन्हें अपने कामों के लिए सरकारी दफ़्तरों में भटकना नहीं पड़ेगा। हालाँकि परिसीमन की इस सारी क़वायद में कई जानकार भविष्य के ख़तरे भी देखते हैं। उन्हें लगता है कि परिसीमन के बहाने कश्मीर की जनता में यह बात घर कर गयी है कि नई दिल्ली उनके साथ न्याय नहीं कर रही। धारा-370 से लेकर परिसीमन तक घाटी में यह निराशा और गहरी हुई है। फ़िलहाल अब जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव का इंतज़ार सभी को है। वहाँ राजनीतिक प्रक्रिया बहाल करने की माँग तमाम राजनीतिक दल कर रहे हैं। भले परिसीमन रिपोर्ट का कश्मीर में जबरदस्त विरोध है, जम्मू में भी लोग चुनाव चाहते हैं। कारण यह है कि राज्यपाल शासन में उनकी समस्याएँ बढ़ी हैं। बिजली की जितनी ख़राब हालत लोगों को जम्मू में अब झेलनी पड़ी है, उतनी पिछले वर्षों में नहीं रही। शायद जम्मू-कश्मीर में अक्टूबर तक चुनाव हों।

परिसीमन रिपोर्ट में क्या है? 

जम्मू-कश्मीर के लिए परिसीमन आयोग के अन्तिम आदेश में कश्मीरी प्रवासियों (केपी) और पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर से विस्थापित लोगों के लिए अतिरिक्त सीटों की सिफ़ारिश है। इसके लिए गजट अधिसूचना भी प्रकाशित कर दी गयी है और यह आदेश केंद्र सरकार द्वारा घोषित तारीख़ से प्रभावी होगा। केंद्र शासित प्रदेश की कुल 90 विधानसभा सीटों में से 43 जम्मू क्षेत्र और 47 कश्मीर क्षेत्र में होंगी। अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए पहली बार नौ सीटें आरक्षित की गयी हैं, जिनमें जम्मू में छ: और कश्मीर में तीन सीटें होंगी। सात सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित की गयी हैं। तत्कालीन जम्मू और कश्मीर राज्य के संविधान में विधानसभा में अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटों के आरक्षण का प्रावधान नहीं था। सभी पाँच लोकसभा सीटों में पहली बार समान संख्या में विधानसभा सीटें होंगी। परिसीमन के उद्देश्य से जम्मू और कश्मीर को एक इकाई के रूप में माना गया है।

एक संसदीय क्षेत्र कश्मीर के अनंतनाग और जम्मू के राजौरी और पुंछ को मिलाकर बनाया गया है। इस पुनर्गठन से प्रत्येक संसदीय क्षेत्र में 18 विधानसभा क्षेत्रों की समान संख्या होगी। माँग को देखते हुए कुछ विधानसभा हलक़ो के नाम बदले गये हैं। पटवार सर्कल में कोई फेरबदल नहीं किया गया है। सभी विधानसभा सीटें सम्बन्धित ज़िले की सीमा में रहेंगी। आयोग ने विधानसभा में कश्मीरी प्रवासियों (केपी समुदाय) के कम-से-कम दो सदस्यों (एक महिला) की सिफ़ारिश की है। ऐसे सदस्यों को केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी की विधानसभा के मनोनीत सदस्यों की तरह शक्ति देने की सिफ़ारिश की गयी है। आयोग ने कहा कि केंद्र सरकार पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले जम्मू-कश्मीर से विस्थापित लोगों को मनोनयन के ज़रिये जम्मू-कश्मीर विधानसभा में प्रतिनिधित्व देने पर विचार कर सकती है।