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‘लेखकों को गप के लिए स्पेस ढूंढ़ना पड़ेगा’

वरिष्ठ कवि  राजेश जोशी ने साहित्य की हरेक विधा में अपना हाथ आजमाया और उसे बखूबी अंजाम तक भी पहुंचाया है. कविता के अलावा उन्होंने कहानी, नाटक, नुक्कड़ नाटक, आलोचना, नोटबुक भी लिखे हैं. बच्चों के लिए भी लिखा. वे 66 की उम्र में भी युवाओं की तरह परिवर्तन को स्वीकारते हैं. यही वजह है कि पाठकों को वे ‘किस्सा कोताह’ जैसी रचना दे पाने का माद्दा रखते हैं. ‘किस्सा कोताह’ में आत्मकथा है. परंपरा है. इतिहास है. अगर राजेश जोशी की मानें तो किताब को किसी विधा में शामिल करने के बजाय मुक्त आख्यान मान लेने में कोई हर्ज नहीं. इसी किताब के बहाने उनसे स्वतंत्र मिश्र की बातचीत.

 

 ‘किस्सा कोताह’  में आप कह रहे हैं कि विधा तय करने से क्या होगा, क्योंकि कोई विधा साबुत बची नहीं. कहानी, कहानी नहीं रही. उपन्यास, उपन्यास नहीं रहा. कविता तो खैर… टिप्पणी चाहूंगा.

हम ऐसे समाज में जी रहे हैं जहां चीजें बहुत तेजी से बदल रही हैं. हम औद्योगिक युग से निकल कर तकनीकी युग में पहुंच चुके हैं. बदलाव की वजह से बहुत सारी चीजें टूटती हैं और नए तरीके से आकार लेती हैं. एंटी नॉवल (18वीं-19वीं सदी में यूरोप में सामान्य परंपरा से हटकर उपन्यास लिखा जाने लगा जिसमें कोई कथा-सूत्र देखने को नहीं मिलता था) का भी दौर आया. भाषा में बदलाव आया. अकविता और अकहानी का भी दौर आया. नेहरू से लोगों का मोहभंग हुआ था. लोगों ने जेपी की बात सुननी शुरू कर दी. समाज में आए बदलाव का असर लेखन में भी दिखा. शिल्प में भी बदलाव आए. इसलिए विधा ही जब अपने मूल रूप में स्थायी नहीं रहती तब विधा तय करने का क्या मतलब? खासकर जब आप मुक्त आख्यान लिख रहे हैं तब आप विधा कैसे तय करेंगे.

क्या गपबाजी के लिए स्पेस कम हुआ है?

गप के लिए स्पेस बनाना होगा. दरअसल गप खुद में एक स्पेस है. भाषा में अगर स्पेस की बात करें तो यह जरूरी होगा कि आप कल्पना करें. गप कोई यथार्थ से परे नहीं है. लेकिन गप यथार्थ को अतिशयोक्ति में बदल देता है. गप कल्पनाशीलता के लिए एक स्पेस ढूंढ़ता है. वह उड़ान के लिए एक स्पेस ढूंढ़ता है.

शहर का किस्सा सुनाने वाले मनवा भांड के लिए आपने एक कविता लिखी है. क्या ऐसा लगता है कि मनवा भांड हमारे बीच से गायब-से हो गए हैं?

सच है कि मनवा भांड जैसे लोग हमारे बीच नहीं रहे. समाज जिस गति से बदल रहा है वह गप के दूसरे प्लेटफॉर्म ढूंढ़ लेगा. शहरों या गांवों में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो पटरियों पर बैठ कर तरह-तरह के किस्से सुनाते रहते हैं. अब लेखकों को गप के लिए स्पेस बनाना होगा. स्टोरी टेलिंग कहानी की एक शैली के तौर पर ही विकसित हो गई. यूरोप में स्टोरी टेलर मजमे वाली जगह जाकर  लोगों को किस्सा सुनाते हैं. भारत में भी इसकी परंपरा रही है. यहां अाल्हा-ऊदल, जात्रा, जट-जटिन जैसी स्टोरी टेलिंग की बड़े लोकप्रिय शैलियां रही हैं. आप देखेंगे कि स्टोरी टेलिंग में खूब सारी गप होती थी.

आल्हा-ऊदल जैसी परंपरा खत्म हो रही है तो क्या इससे नाटक को नुकसान पहुंचा है? 

समाज में बदलाव आएंगे तो उसका असर लेखन पर भी दिखेगा. पारंपरिक चीजों को तोड़ कर नई शैली में चीजें आपके सामने आने लगती हैं. कोई चीज गायब नहीं होती है बस उसका रूप बदलता रहता है. संयुक्त परिवार वाला सुकून अब एकल प्रथा के अस्तित्व में आने से गायब हो गया है. संयुक्त परिवार में एक किस्म का सुकून था. संयुक्त परिवार की कुछ अच्छाइयां थीं तो कुछ बुराइयां भी. संयुक्त परिवार की व्यवस्था व्यक्तिगत विकास और स्वतंत्रता को बाधित करती थी. इन्हीं वजहों से संयुक्त परिवार टूटा. लेकिन संयुक्त परिवार में साथ-साथ रहने से कई तरह की सुरक्षा भी मिलती है. मैंने बहुत पहले संयुक्त परिवार के लिए एक कविता लिखी थी. मैंने उसमें कहा था कि एकल परिवार की वजह से चोरों को ज्यादा सुविधा मिल गई है. एकल परिवार में सारे सदस्य बाजार या सिनेमा निकलते हैं तब चोरों को सूना घर मिल जाता है. ऐसा संयुक्त परिवार में नहीं होता. संयुक्त परिवार में मन की बातें आसानी से शेयर की जा सकती थीं. अब एकल परिवार में यह संभव नहीं हो पा रहा है जिससे तनाव बढ़ा है. संयुक्त परिवार में काम आपस में बंट जाने से सबको स्पेस मिल जाता था. आप दूसरों को काम देकर अपने लिए समय निकाल सकते थे.

आप लिखते हैं कि सतर्कता आदमी को चालाक बनाती है और बहक आदमी को सहज. बहक आदमी को अराजक भी तो बनाती है और पारिवारिक व्यवस्था में उससे खलल भी पैदा होता है.

बहक कई तरह की हो सकती है. सतर्कता भी कई तरह की हो सकती है. सतर्क होकर कई लोग अपने काम को अच्छी तरह अंजाम देते हैं. लेकिन जब कामकाज में जरूरत से ज्यादा सतर्क होते हैं तब आपके भीतर एक किस्म की चालाकी भी पनपने लगती है. इसी तरह बहक का भी मामला है कि आप किसलिए बहक रहे हैं. अपने को मुक्त करने के लिए बहक रहे हैं या दूसरों को परेशान करने के लिए. अगर आप दूसरे ढंग से बहकेंगे तो उससे अराजकता पैदा होगी. पर किताब में बहक का प्रयोग सतर्कता के विलोम में किया गया है. किताब में बहक का मतलब खुद को मुक्त करने से है. रचना का एक काम मुक्त करना भी है. आखिरकार आप अपने को मुक्त नहीं करेंगे तब बहुत सारी सूक्ष्म चीजों को आप नहीं समझ पाएंगे. कल्पनाशीलता को सतर्क होकर ज्यादा बांधने की कोशिश करेंगे तब कहीं-न-कहीं आप उड़ान को रोकने की कोशिश कर रहे हैं.

आज बच्चे पत्र-पत्रिकाओं से दूर होकर टेलीविजन में घुसते चले जा रहे हैं. ऐसे में बच्चों के लिए लिखने वालों को किन चुनौतियों से पार पाना होगा?

हमारे यहां खासकर बच्चों के लिए हिंदी में जो लेखन हो रहा है वह अपने स्वरूप में पारंपरिक ही बना हुआ है. बच्चों को एनीमेशन के जरिए कहानियां दिखाई जा रही हैं. उसकी भाषा बुरी है. बच्चों पर इसका गलत असर पड़ रहा है. यहां बनने वाली एनीमेशन फिल्मों का स्तर विश्वस्तरीय नहीं है. कार्टून का स्तर भी निम्न कोटि का है. पहले वर्ल्ड डिजनी शो आता था. उसका स्तर बहुत बढ़िया था. मीडिया (इलेक्ट्रॉनिक) का आकर्षण चाहे जितना बढ़ जाए लेकिन उससे प्रिंट मीडिया पूरी तौर पर खत्म नहीं होगा. इसलिए किताब या प्रिंटिंग वर्ल्ड की जरूरत हमेशा बनी रहेगी. अब आपकी चुनौती होगी कि किताब को इतना आकर्षक बनाया जाए कि वह रंगीन टीवी के सामने कुछ देर टिक सके. किताब को आकर्षक बनाकर ही आप बच्चों को स्क्रीन से हटा सकेंगे. नए समय की भाषा, नए समय के सवाल, नए समय के परिवर्तन के साथ जो कहानियां जुडेंगी, उसे ही बच्चे पढ़ेंगे. अब बच्चे मोबाइल और इंटरनेट को इतनी आसानी से हैंडल करते हैं कि उन्हें शेर और भालू की कहानियां कहां पसंद आएंगी. आपको नई तकनीक के बारे में कहानी गढ़नी पड़ेगी. आप नई भाषा में कहानी नहीं देंगे तब वे क्यों पढ़ेंगे. पहले के लेखकों ने शेर और भालू से कहानियां गढ़ीं वैसे ही आज के लेखकों को नए समय के हिसाब से कल्पनाएं गढ़नी होंगी.  गप यथार्थ को अतिशयोक्ति में बदलता है. गप कल्पनाशीलता और उड़ान के लिए एक स्पेस ढूंढ़ता है.

असम समझौता : राजीव गांधी

बांग्लादेशी नागरिकों को असम से बाहर निकालने के लिए किया गया समझौता जो कभी लागू नहीं हो पाया.

 भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में नीली दंगा अब तक की सबसे हिंसक घटनाओं में से है. 1983 के इस दंगे में 24 घंटों के दौरान ही लगभग 2,000 लोगों की हत्या कर दी गई थी. ये ज्यादातर बांग्लादेशी नागरिक थे. हालांकि असम में बांग्लादेशी नागरिकों के खिलाफ हिंसा की छिटपुट घटनाएं 80 के दशक से ही देखी जा रही थीं, लेकिन यह तब तक की सबसे भयावह घटना थी. इसको देखते हुए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने असम में आईएमडीटी (इलीगल इमीग्रेंट डिटरमिनेशन बाई ट्रिब्यूनल एक्ट) लागू कर दिया. इस कानून का मकसद राज्य में विदेशी नागरिकों की पहचान करना और उन्हें राज्य से बाहर निकालना था. लेकिन अपने मूल प्रावधान में यह कानून काफी विवादास्पद हो गया. इसके तहत किसी व्यक्ति पर विदेशी होने का आरोप लगाने वाले व्यक्ति को ही यह साबित करना पड़ता था कि आरोपित विदेशी है. जबकि भारत के बाकी हिस्सों में लागू विदेशी नागरिक कानून के तहत आरोपित व्यक्ति के ऊपर यह जिम्मेदारी होती है कि वह अपनी भारतीय नागरिकता साबित करे. 

आईएमडीटी कानून पारित होने के बाद असम में आंदोलन तेजी से भड़क उठा. ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (आसू) की अगुवाई में चल रहे इस आंदोलन के नेताओं का कहना था कि केंद्र और राज्य की कांग्रेस सरकार इस कानून के जरिए बांग्लादेशियों को स्थायी नागरिक बना रही है ताकि उसका वोटबैंक मजबूत बना रहे. 1984-85 में यह आंदोलन इतना उग्र हो गया कि राज्य में अराजकता की स्थिति पैदा हो गई. इन हालात में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व में केंद्र सरकार और आंदोलनकारियों के बीच 15 अगस्त, 1985 को एक समझौता हुआ.  इसे ही ‘असम समझौता’ कहते हैं. इसके तहत स्पष्ट प्रावधान किया गया था कि जनवरी, 1966 से पहले असम आए बांग्लादेशियों को  स्थायी नागरिक का दर्जा मिलेगा लेकिन इसके बाद मार्च, 1971 तक यहां आए लोग राज्य में रह तो सकते हैं लेकिन वे दस साल तक वोट नहीं दे पाएंगे. समझौते में प्रावधान था कि 1971 के बाद आए लोगों की पहचान करके उन्हें वापस बांग्लादेश भेज दिया जाएगा. असम समझौते के बाद राज्य में आंदोलन तो समाप्त हो गया लेकिन आसू से बनी असम गढ़ परिषद सहित कांग्रेस पार्टी के सत्ता में आने के बावजूद यह समझौता कभी जमीनी हकीकत नहीं बन पाया.

-पवन वर्मा

अन्हे घोड़े दा दान: 'आग न लगा दूं मैं इस दुनिया को..'

फिल्म: अन्हे घोड़े दा दान

निर्देशक: गुरविंदर सिंह

अभिनेता : माल सिंह, समुएल, सरबजीत कौर, धरमिंदर कौर, कुलविंदर कौर, लखा सिंह और गुरविंदर मखना

यूं तो यह देखने की फ़िल्म ज़्यादा है, ज़्यादा इसके सन्नाटे को सुनने की, कभी रिक्शा के पहियों की और कभी आती हुई रेलगाड़ी की आवाज़ को सुनने की. और यह सोचने की कि कब-कब मरा जा सकता है और कब नहीं.  आप जब इस फ़िल्म में दाख़िल होते हैं तो वह ध्वस्त होने का दृश्य है. गाँव के किनारे पर एक मकान, जिसे आधी रात एक बुलडोजर ढहा रहा है. कैमरा स्थिर. उड़ती धूल कैमरे की आँखों में नहीं गिरती, पर आपकी आँखों में गिरती है. आप आँखें मल रहे हैं, लेकिन वहाँ वे बूढ़े, एक पुलिस अफ़सर के सामने खड़े हैं. तीन सरदार, जो सन ऑफ सरदार के सरदार नहीं हैं, जो सिंह इज किंग नहीं हैं, जो सरसों के खेतों में मोहब्बत के गाने गाते हुए कभी नहीं भागे, जो कनाडा नहीं गए और न ही जाना चाहते हैं, वे तीन बूढ़े सरदार एक पुलिस अफ़सर के सामने खड़े हैं, और वह उनमें से दो को जाने को कहता है, एक को अकेला छोड़कर, जिसका वह घर है. टूटा हुआ घर, जिसकी ज़मीन बताते हैं कि पंचायत की है. जैसे वे सब ज़मीनें, जिनमें से सोना निकलता है, या कोयला या अभ्रक, वे हिन्दुस्तान की हैं, और इस तरह उन हिन्दुस्तानियों की बिल्कुल नहीं, जो वहाँ रहते हैं, रहते आए हैं. यह कानून है कोई जिसे वे पुलिसवाले हमेशा कहते हैं – तू हमें सिखाएगा क्या?  जिसका वह घर है, जानते हैं कि वह क्या कहता है? कि वे दो साथी, जो उसके सुख-दुख में भाई जैसे थे, उन्हें भाग जाने को क्यों कहा गया और क्या है ऐसी बात, जो पुलिस वाला उससे अकेले में करना चाहता है. वह जो डर है उसकी आँखों में और उसे अभी अलग-अकेला जो कर दिया गया है, इसे आप बता नहीं सकते, बस भुगत सकते हैं.

 कैसे पकड़ती है यह फ़िल्म उस खालीपन को, उस आधे टूटे मकान को, जिसकी एक निकली हुई ईंट से बनी जगह में से कैमरा एक रेलगाड़ी को देखता है. रेलगाड़ियाँ बार-बार, गाँव में भी, फिर शहर में भी, फ़िल्म के सारे किरदार रेलगाड़ियों के रास्ते के पास ही रहते हैं. रेलगाड़ियों से कोयला आता है और लोहा और अभ्रक और सोना भी शायद, लेकिन जब वे वहाँ रुकती हैं, उनके आशियानों के पास, तो बस उदास लोग उतरते हैं. अब कारखाने भी उतरेंगे ना, और तुम्हें अमीर बनाएंगे भाइयों, तुम्हारे बेटों को नौकरियां देंगे और उन्हें रिक्शा नहीं चलानी पड़ेगी. बस वे रिक्शा यूनियन की हड़तालों की तरह यहाँ भी लाल झंडे न उठा लें. ऐसा किया तो वाज़िब कदम तो उठाना ही पड़ेगा. कानून भूल गए?

 उन तीन में से एक मल सिंह का बेटा मेलू सिंह शहर में रिक्शा चलाता है. हड़ताल के बीच उसके सिर पर एक चोट है, जिसे वह बताता है कि बैलेंस बिगड़ गया और दीवार से टकरा गया, और एक गाड़ी सड़क पर रिक्शों को उठाकर ले जा रही है. एक पूरी कतार जिसे देखते हुए आप मौत की दिशा में जमते जाते हैं. कहीं जादू है कोई अगर सिनेमा में, तो वह सत्य नागपॉल के कैमरे की नज़र में है और निर्देशक गुरविंदर सिंह की इस पूरी फ़िल्म में. उस ठहराव में, जिसमें वे बिना कुछ कहे फ़िल्म को गहरा बनाते जाते हैं, आपके दिमाग पर पक्के मार्कर से छापते जाते हैं. शुद्ध सिनेमा, जिसमें कहानी वहाँ है, जहाँ कैमरा देखता है, रुका रहता है, आपको रोके रखता है. कहीं कहीं तो आपको यह तक लगने लगता है कि अब शायद ऐसा कुछ नहीं, जो इस माध्यम में कहा नहीं जा सकता. जो कुछ भी फ़्रेम में है, वह आपको जानता है और आपसे बात करता है. गुरविंदर, सत्य और फ़िल्म के साउंड डिजाइनर मंदर कुलकर्णी ने पगडंडी की धूल और रेल के फाटक तक में साँसें डाल दी हैं. वे जब कुछ नहीं कहते, तब भी एक साथ इतना कुछ कहते जाते हैं.

 क्या अद्भुत दृश्य कि कहीं और जा रहा था मेलू सिंह का बाप और एक भीड़ आ रही है शोषितों की, दलितों की, जिनके पास उनका एका ही है, जो भी है, शक्ति तो कोई नहीं. कहीं और जा रहा था मेलू सिंह का बाप, लेकिन मुड़ता है और भीड़ में शामिल हो जाता है. उसकी आँखों में दिए बराबर भी रोशनी नहीं शायद लेकिन उसका खड़े रहना और फिर पलटकर सबके साथ होना दुनिया भर के सिनेमा के कमाल दृश्यों में से एक. एक संकरी गली, उसमें बस देर तक एक दृढ़ भीड़ के कदमों की आहट, जिसके पास न खोने को कुछ है, न पाने को. और देखिए, दर्ज़ी लगातार कपडे सिल रहा है, चक्की वाला आटा पीस रहा है, बस रुककर एक बार भीड़ को देखते हुए. इतने सारे लोग ख़ुशी-ख़ुशी चबूतरों पर खेल रहे हैं और भीड़ सरपंच के घर जाकर रुकती है. कौन है भीड़? खेतों के मज़दूर, जिनका कोई खेत नहीं? अब तो घर भी नहीं. और कहाँ था आपका सिनेमा अब तक, या वह, जिसे आप सिनेमा कहते हैं? शर्म नहीं आई उसे ‘दिल बोले हड़िप्पा’ या ‘सिंह इज किंग’ पर? कैसे करते हैं आप मोहब्बत, गर्व और विकास की बातें? कैसे गा लेते हैं पुत्त जट्टां दे ने गबरू? यही पुत्त, जो सरपंच के घर में बंदूक लेकर खड़े हैं और वहीं सरपंच का एक दलित चौकीदार, जो दुनिया का सबसे कमज़ोर इंसान लगता है. भीड़ आश्वासन के साथ वापस आती है और गोली का इंतज़ार करती रहती है. साथ में गालियाँ सुनकर, कि कैसे उनके बेपढ़े बच्चों की नौकरियां लग जाती हैं इस डेमोक्रेसी में.

 आप जो भी हैं, अगर आरक्षण के ख़िलाफ़ चिल्लाना अपना जन्मजात फर्ज़ समझते हैं, या इस कारखानों, नहरों, बाँधों और सड़कों के विकास के पाँव से लटककर आप अमेरिका बनना चाहते हैं तो आपको पंजाब (या जिस भी राज्य में आप हों) के उस गाँव में जाना चाहिए. न जा पाएँ तो यह फ़िल्म ज़रूर देखनी चाहिए. यह बहुत बड़ी कहानी है, जिसे गुरदयाल सिंह (उस उपन्यास के लेखक, जिस पर यह फ़िल्म बनी है) और गुरविंदर सिंह एक छोटे से गाँव के एक मकान और शहर में रिक्शा चला रहे मेलू सिंह के माध्यम से ही कह देते हैं. यह हम सबकी कहानी है. उन सबकी, जिन्हें इस ‘विकास’ ने उनके घरों से निकाल फेंका है. और बिना उनकी बात किए उन सबकी भी, जिनके लिए यह ‘विकास’ स्वर्ग लेकर आया है.

 शहर में फ़िल्म नहर के पास भी ठहरती है, जहाँ थककर मेलू सिंह कुछ खाता है (शायद खाता हो, हमें तो पानी पीते ही दिखाया बस) और फिर अपने रिक्शा पर सो जाता है. नहर भी रेलगाड़ी जैसी, जिससे ख़ुशहाली आनी थी, आई भी है शायद लेकिन जट्टों के घर में. मेलू सिंह की माँ दिन भर उनके खेतों से नरमा चुगकर आती है और लौटते हुए बकरियों के लिए थोड़ा सा चारा लाने पर गालियाँ सुनती है. वह याद करती है, वे अच्छे दिन, जब गरीब के असीस के लिए ख़ुशी से दिया करते थे लोग. क्या ऐसा था कभी या उसके दिमाग में कोई पुरानी कहानी है बस? यहाँ फ़िल्म सबसे ज़्यादा बात करती है, उस औरत के मुँह से, जो बाहर ही सो गई है, सर्दी में बाहर. फ़िल्म जहाँ जहाँ बोलती है, वहाँ इतने स्वाभाविक डायलॉग हैं, सजे हुए नहीं लेकिन फ़िर भी चीर डालने वाले. इतनी सारी बातें, जिन्हें पंजाबी में ही बेहतर कहा जा सकता था. लेकिन वह बाहर क्यों सो गई है? कोई वजह नहीं. पूछो तो कोई दुख नहीं. काँटा भी नहीं, जिसे बता दे और कोई निकाल ले. एक चुप किशोर बेटा, जिसे शायद किसी ज़मींदार के लड़के ने मारा है. उसके साथ बकरी को भी. एक बेटी, जो माँ हो गई है, जैसे ऐसे घरों की सब लड़कियाँ हो जाया करती हैं. बकरी को बुखार है और वह रात भर उसके पास बैठी है. क्या क्या कहा जाए अब? क्या मेलू सिंह के साथ रात को बठिंडा की सड़कों पर घूमा जाए, जब वह कोई दोस्त खोज रहा है जिसके घर में सर्दी की उस रात सोया जा सके? रिक्शा चलाने वाले उसके दूसरे उदास दोस्तों से कोई बात की जाए क्या, जो एक खंडहर किले की छत पर कुछ देर पहले उसके साथ पी रहे थे? क्या उखाड़ लिया मेलू सिंह तूने गाँव से यहाँ आकर? सात साल से रिक्शा चला रहा है..

 वह दोस्त यह सवाल ख़ुद से भी पूछ रहा है और बता रहा है कि जो वह कहना चाहता है, उसे बिना पिए समझा नहीं जा सकता. कितना कुछ है उसके भीतर! दुनिया भर की बेचैनी और विवशता. अभी रात है, लेकिन दिन में आपने देखा होगा, कि इस किले की छत से सामने किसी फ़ैक्ट्री की एक बड़ी सी चिमनी दिखती है. आप फ़िल्म में जहाँ भी जाएँ, वह चिमनी लगातार आपके सामने रहती है. उसी की ओर शायद रात में मेलू सिंह का वह दोस्त गुस्से में खाली बोतल फेंकता है और कहता है – ‘आग न लगा दूं मैं इस दुनिया को…’

 वह लड़की, जो बीमार बकरी को सहला रही है, जिसकी माँ अब अन्दर जाकर सो गई है, और पिता बेटे से मिलने शहर गए हैं – बेटी से बार-बार पूछकर कि वह एक बार मना कर दे तो शायद न जाएं – वह लड़की अचानक उठकर चल देती है. आधी रात उस गाँव की सुनसान गलियों में. कहाँ जाएगी वह लड़की, कोई नहीं जानता. कम से कम मैं तो नहीं. लेकिन सचमुच का एक बड़ा अँधेरा है, जिसे इसी फ़िल्म ने, सत्य के कैमरे ने ही जैसे डिस्कवर किया है. यह अद्भुत सिनेमेटोग्राफ़ी है और निर्देशन भी. अगर मैंने पहले यह नहीं कहा तो अब कहना चाहिए कि गुरविंदर सिंह उन फ़िल्मकारों में शामिल हो गए हैं, जिनकी फ़िल्मों का मैं बेसब्री से इंतज़ार करूंगा. उनमें, जिन्हें उठाकर हमें अपनी हथेलियों पर बिठा लेना चाहिए. फ़िल्म की शुरुआत में और आख़िर में भी, देर रात कोई अन्धे घोड़े का दान माँगता जाता है, कहता हुआ कि यह परम्परा है, और कोई उसे धमका रहा है कि अपने घर भाग जा. कौन डाँटता है दान या भीख माँगने वालों को सबसे ज़्यादा? ‘कर के कमाओ’, आप कहते हैं, और जो कमाते हैं, वे इस फ़िल्म में अपनी नज़रों में छुरियाँ लेकर आपका और मेरा इंतज़ार कर रहे हैं. वे गालियाँ सुन रहे हैं, अँधेरे में लालटेनें जाकर दो रोटी और साग खाते हुए, और अपने घरों को ढहते देखते हुए, पुलिस से पिटते हुए, महीनों-सालों के लिए जेलों में जाते हुए, यातनाएँ सहते हुए, रिक्शे चलाते और मार खाते हुए, और तब भी इंसानियत, भाईचारे और लोकतंत्र के वास्ते देकर आपसे गिड़गिड़ाकर शरण माँगते हुए – अपने ही घरों, खेतों और जंगलों में. यक़ीन मानिए, जिस दिन उनके पास माचिस होगी और थोड़ा मिट्टी का तेल, वे हमारी ‘विकासशील’ दुनिया में आग लगा देंगे. और आपको याद रखना चाहिए कि पहले उन्होंने पूरी विनम्रता से अपना हक़ माँगा था.

-गौरव सोलंकी

जो जो बच्चन बने, वे नायक थे, लेकिन सबसे ज़्यादा जले भी वही : गैंग्स ऑफ वासेपुर

फ़िल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर 2

निर्देशक अनुराग कश्यप

लेखक जीशान कादरी, अखिलेश जायसवाल, सचिन के. लाडिया, अनुराग कश्यप

अभिनेता नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, तिग्मांशु धूलिया, रिचा चड्ढ़ा, हुमा कुरैशी, राजकुमार यादव, पंकज त्रिपाठी, जीशान कादरी

 

वह शुरू से जानता है कि वह पानी को मुट्ठी में पकड़ने की कोशिश कर रहा है और वह जितना कसके पकड़ता है, पानी उतना जल्दी छूटता जाता है और जीवन भी. जीवन, जिससे उसे मोहब्बत है, बिल्कुल शुरू से ही. बल्कि ज़िन्दगी से उस जितनी मोहब्बत पूरी फ़िल्म में किसी को नहीं. उसके अलावा किसी लड़ैया में इतना साहस नहीं कि अपने खूनी वर्तमान से पीछे जाकर देखे कि उसे तो नहीं करना था यह सब, और एक अलसुबह चौबारे पर खड़ा रोने लगे. कि कैसे वह शशि कपूर था अन्दर, या हो रहा था/होना चाहता था, और उसके मरते संजीव कुमार ने, या कोसती वहीदा रहमान ने, या पीठ में छुरा घोंपते प्राण ने उसे बच्चन बनाकर छोड़ा. जो जो बच्चन बने, वे नायक थे, लेकिन अन्दर से और बाहर से सबसे ज़्यादा जले भी वे ही.

वह लकड़बग्घों की ऐसी दुनिया में है, जहां उन गानों के लिए कोई जगह नहीं, जो उसकी मोहसिना उसे ज़िन्दा रखने के लिए गाती है, कभी उसे बांहों में भरकर, कभी फ़ोन पर. वहां नहीं मारना कायरता है और वह एक समय तक गांजे को चुनता है ताकि अपने बाहर की दुनिया से रिश्ता तोड़ ले. लेकिन बदला उसी को अपना आख़िरी हथियार चुनता है और जब बदला अन्दर हो, तब बाहर के बादल, बारिश और बच्चे नहीं दिखते. अपने बच्चे भी नहीं.

फ़ैज़ल ख़ान की हिंसा उसकी इच्छा से ज़्यादा उसका कवच है, भले ही वह ख़ुद इसे जानता है या नहीं. इसी कवच के कारण वह मारकर या मारते हुए अपने पिता जितने घृणित ढंग से नहीं हँस पाता. जश्न मनाने का उसके पास कोई कारण नहीं। उसके जैसे दो रूप हैं. लोहे के टेंडरों की बात कोई और करता है और मोहसिना से गाने कोई और सुनता है. वह पैसा कमाता है, शक्तिशाली बनता है लेकिन उसके बचपन से लेकर अंत तक उसके भीतर तक कुछ नहीं पहुंचता, सिनेमा और मोहसिना के सिवा. और दोनों के साथ ही वह रो रहा है.

इस हिस्से में फ़िल्म कहीं उभरकर पॉलिटिकल नहीं होती. अपने गानों में खूब होती है, शादी के गानों में भी. और इक्का-दुक्का जगह अपने डायलॉग्स में, जब यह शहाबुद्दीन की तरह चुनाव जीतकर खुला खेलने और गाय का दूध दुहकर मुख्यमंत्री बनने की बात करती है। लेकिन मुख्यत: यह व्यक्तिगत कहानी और कभी-कभी कविता कहने वाला शुद्ध सिनेमा है और आप और हम चाहें या न चाहें, इसे कोई क्रांति नहीं करनी। हां, हंसी के खोल में क्रूर परपेंडिकुलर देना है, जिसका मरना तसल्ली दे. अपने किरदारों के संजय दत्तीय और सलमान ख़ानी स्टाइलों और आपकी हंसी के बीच यह आपको मांस के लोथड़ों और खून की नालियों के रास्ते पर ले जाएगी और आपका हाल नहीं पूछेगी. आपको बुज़ुर्गाना सलाह नहीं देगी, सुधरने या बिगड़ने (आपके लिए इनके जो भी अर्थ हों) की सीख नहीं देगी, और भावुक नहीं करेगी, सन्न करेगी। आप जब बाहर निकलते हैं तो आप नहीं जानते कि आपको क्या करना चाहिए. बल्कि आप हैं कौन और क्या आपको भूख लगी है और क्या यह सही समय है कि आप कहीं चैन से बैठकर सब्जी-रोटी खा लें. क्या अब के बाद कोई भी सही समय होगा ऐसा? यह एक शानदार सिनेमाई दावत थी भीतर, अपने सारे खेलों और जादू के साथ, लेकिन आप इतने बेचैन क्यों हैं?

लेकिन बेचैनी की बात से पहले हमें उस सिनेमाई दावत की बात करनी चाहिए, जिसमें इतने लम्बे-लम्बे शॉट हैं (कभी कभी शायद उनके खूबसूरत भ्रम भी) कि कभी-कभी तो फिल्म का यथार्थ बाहर के यथार्थ से कुछ ग्राम ज्यादा विश्वसनीय होने लगता है. अनुराग और राजीव रवि इतनी खूबसूरती से अंधेरे और उजाले के बीच अपने लम्बे दृश्यों को तैरने देते हैं. ख़ासकर फ़ैज़ल के घर पर हमले के वक़्त उसका अपनी छत पर पहुंचना, घायल होना और फिर छतें फाँदते हुए उसका गिरना, घायल होना, ठहरना, फिर उठना – विजुअली यह पूरा सीक्वेंस दुनिया भर के सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ हिस्सों में से एक है. इसका ठहराव और एक समय के बाद पीछे शुरू हुआ संगीत इसे और कमाल बनाता है. बल्कि उससे पहले सुल्तान के अपने साथियों के साथ उसके घर पर हमला करने और तब फ़ैज़ल के ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ वाले कमरे से पूरे परिवार को सुरक्षित जगह तक ले जाने वाले हिस्से जिस तरह शूट किए गए हैं, वे इस फ़िल्म को अलग कतार में ले जाते हैं. हमारे सिनेमा में, और खासकर इस जॉनर और इस कहानी के सिनेमा में और वह भी इतने सारे किरदारों के दृश्यों में, इतने कम कट्स के साथ अपनी बात कहना बतौर फ़िल्मकार, अनुराग को भी बहुत ऊपर ले जाता है. फ़ज़लू को मारने के सीन से लेकर आख़िर में स्लो मोशन में ऊपर फ़ैज़ल तक बन्दूकें पहुंचा रहे टैन्जेंट और डेफ़िनेट तक बहुत सारे लाजवाब सीन हैं. लम्बे चेज़ सीक्वेंस हैं, जो बेचैन तो हैं ही, उससे ज़्यादा मज़ेदार हैं. ख़ासकर शमशाद का डेफ़िनेट का पीछा करने का सीक्वेंस बहुत अच्छा है. इस पूरे सीक्वेंस में राजकुमार यादव ने कमाल ऐक्टिंग की है.     

‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की एक और उपलब्धि यह है कि यह हमें अपने किरदारों की साधारण हिन्दुस्तानी ज़िन्दगियों में, बिना उनकी सादगी और ज़बान खोए, हंसने-मुस्कुराने की खूब सारी जगहें देती है. और ऐसा करने के लिए इसे बाहर से कुछ लाने या कुछ नया ‘क्रियेट’ करने की ज़रूरत नहीं पड़ती, बल्कि यह वह सब पकड़ती है, जो हर वासेपुर के हर मोड़ पर हम सब देखते आए हैं. वे कभी विडम्बनाएं हैं, कभी भोलापन या बेवकूफ़ी और कभी-कभी हमारे बीच की बेहद आम बात कि फ़िल्मी कलाकारों के ज़िक्र में एक बुज़ुर्ग कहते हैं कि वो नरगिस और सुनील दत्त का बेटा है ना. चार आदमियों के बीच बैठे एक आदमी को फ़ैज़ल ख़ान ने मार दिया है और फ़िल्म बाकी चारों के बाद के रिएक्शन पर ठहरती है, जब भौचक्के वे फिर से सिगरेट पीने और चने खाने लगे हैं. या यह कि मातम पर यशपाल शर्मा जिस बैंड पर चढ़कर ‘तेड़ी मेहड़बानियां’ या ‘याद तेड़ी आएगी’ गा रहे हैं, उसका नाम ‘आशा बैंड’ है. या यह कि एक-दूसरे की जान के प्यासे फ़िल्म के किरदार जिन गलियों से भाग रहे हैं, उनमें ‘मैंने प्यार किया’ या ‘दिल तो पागल है’ के पोस्टर लगे हैं. कहीं पीछे कैलेंडर है, जो पाप न करने की सीख दे रहा है. सुल्तान की हत्या करने निकले तीन लोग उसे घेरने के दौरान आपस में फ़ोन पर यह बात कर रहे हैं कि हैल्मेट लगाकर कितनी गर्मी लगती है और कटहल से क्या क्या किया जा सकता है. या चप्पलों के जो दृश्य हैं, कि दुकान लूटने घुसने लड़के बाहर चप्पल उतारकर घुसते हैं. फ़ैज़ल को उसके बाप के मरने की ख़बर मिली है और वह चला जाता है और फिर चप्पल पहनने लौटता है. या एक सीन में पीछे ऋचा समझा रही हैं कि वॉशिंग मशीन में रंगीन और सफेद कपड़े अलग-अलग धोने हैं.

यह ऐसी फ़िल्म है, जिसके इतने सारे ऐक्टर या लगभग सभी ऐक्टर अपनी ऊंचाइयां छूते हैं. तिग्मांशु धूलिया दूसरे हिस्से में पहले से भी आगे जाते हैं, ऋचा चड्ढ़ा भी। नवाज़ुद्दीन, जिन्होंने बेहद मुश्किल किरदार और पहले हिस्से से दूसरे में उसका बदलाव जिया है, जिसका बाहर का कवच लोहा है और अन्दर कहीं मोम. राजकुमार यादव, जिनका किरदार छोटा है, लेकिन प्रतिभा नहीं. ज़ीशान क़ादरी, पंकज त्रिपाठी, विनीत कुमार और बहुत सारे वे लोग, जिनके नाम यहां नहीं लिए जा सके। और क्या यह दोहराने की ज़रूरत है कि स्नेहा खानवलकर का संगीत (वरुण ग्रोवर और पीयूष मिश्रा  के बोल) और जी.वी. प्रकाश कुमार का बैकग्राउंड स्कोर फ़िल्म को कहां ले जाता है?

लेकिन यह बेचैन क्यों करती है? क्या उस बच्चे के लिए, जिसके लिए उसके अब्बू बस एक हलो छोड़कर गए हैं और बदले और मौत की विरासत, जिसे जो भूल सकेगा, वही बचेगा? या फ़िल्मों की दीवानी उसकी मां के लिए, जो आख़िर अपने हीरो की मौत लेकर फ़िल्मों के इस शहर आई है? या हमारे लिए, जिनके पास यह कोई रास्ता नहीं छोड़ती? न बदला, न गांजा. न बच्चन, न शशि कपूर. फ़िल्म के दौरान चलती हंसी के बाद आख़िर एक सन्नाटा. ऐसा डर, जो आख़िर निडर बनाता है और संत भी। या बस बेहतर इंसान, जिसे फिर से याद आया है कि रोटी चाँद से बड़ी है.

– गौरव सोलंकी

हो हरी

जाऊं कि न जाऊं! जाने पर खतरा है न जाने पर भी खतरा! करूं तो क्या करूं! जाने दो, छींटाकशी तो रोज की बात है. हां, मगर कल तो छेड़खानी हुई है, बाकायदा छेड़खानी. टच करने की कोशिश की है! अगर ऐसे ही चुप रही तो कल को बात और बढ़ जाएगी! तो फिर क्या करूं, चली जाऊं क्या?

क्या जाऊं! इस बात की क्या गारंटी कि वे भी इसे गंभीरता से लेंगे. आजकल छेड़खानी को कौन गंभीरता से लेता है. अगर लोग इसे गंभीरता से लेते तो ऐसी घटना आम नहीं होती. ऐसी घटनाओं पर जिम्मेदारों का तब तक ध्यान नहीं जाता है, जब तब वह वीभत्स रूप न ले ले या फिर जिसके साथ घटना हुई हो, वह कोई विशिष्ट हो. तो फिर न जाऊं! हाय राम! मैं ऐसा सोच भी कैसे सकती हूं! अकेले जाने का ख्याल आया भी तो आया कैसे! किसी को अपने साथ ले लेती हूं, मगर कौन चलेगा मेरे साथ. हर किसी को अपनी जान प्यारी होती है. कई तो मेरे जैसे होते हैं जिनको जान से ज्यादा अपनी इज्जत प्यारी होती है. फिर कोई वहां क्यों जाना चाहेगा? क्या करूं! अगर मैं वहां गई और मां-बाप को पता चल गया, तो मेरी घर वापसी का टिकट कटना तय है. घर वापस चली जाऊं! क्या रखा है यहां. दिन भर खटने के बाद आखिर मिलता ही कितना है. घर वापस जाकर करूंगी भी क्या. कैसा समाज है, कैसे लोग हैं. कल जब मैंने अपने साथ हुए दुर्व्यवहार का विरोध किया था, वहां कौन बोला था. अगर लोग बोलने लगे, तो हम जैसों को क्या जरूरत है, वहां जाने की. इत्ते बेवकूफ तो नहीं है हम कि बैल से कहें कि आ बैल मुझे मार!

मगर ऐसा कितने दिनों तक चलेगा? वहां जाना तो पडे़गा ही. अरे कोई जबरदस्ती है क्या भाई! जाओ नहीं जाती. हां, मगर कल को फिर कोई ऐसी-वैसी घटना हो गई तो! तब मैं क्या करूंगी! कहीं कोई कांड हो गया, तो कल को लोग यही कहेंगे कि आप हमारे पास आई क्यों नहीं. सही बात है, तो चली जाती हूं. चली ही जाती हूं! वहां चली तो जाऊं, मगर न जाने कैसे-कैसे सवाल पूछेंगे. कैसे पूछेंगे! कैसी नजरों से देखेंगे! मेरे बारे में क्या सोचेंगे! वहां जा कर पछताना न पडे़! कहीं पूछताछ के बहाने बार-बार बुलाए न! यह भी हो सकता है कि पूछताछ के बहाने रात-बिरात घर ही आ धमके! कहीं वहां मेरे साथ ऐसा-वैसा कुछ हो गया तब! तब कहां जाऊंगी!

मैं आज की नारी हूं. अपने अधिकारों को अच्छी तरह से जानती हूं. मैं नहीं लडूंगी तो कौन लडे़गा. अगर वहां कुछ ऐसा-वैसा मेरे साथ हुआ, तो उन्हें मुंहतोड़ जवाब दूंगी. मगर ऐसी नौबत ही क्यों आए. जब यही करना है, तो वहां जाने की जरूरत ही क्या है! हां, तो वे अपनी तनख्वाह भी हमें दे, जब उनका भी काम हमें ही करना है! अरे यार, मैं वहां जाने की सोच ही क्यों रही हूं! ऐसा करती हूं बॉडी गार्ड रख लेती हूं. तब जाती हूं वहां पर. सेफ रहूंगी. या फिर ऐसा करती हूं कि पहले एक गन खरीदती हूं, फिर वहां जाती हूं. अरे यार कैसे-कैसे आइडिया आ रहे हैं! क्या करूं! अकेले जाऊं या किसी को साथ ले जाऊं ? पहले किसी से फोन करवा देती हूं. मगर किससे! मेरे जाने में इतने रुतबे वाला कौन है! छोड़ो! कल देखते हैं. कल अगर ऐसा हुआ तो चलेंगे थाने में रपट लिखाने. नहीं यार, कल छेड़खानी न हो जाए! रपट लिखाने जाऊं तो कहीं रपट ही न जाऊं! उफ! पता नहीं छेड़खानी समस्या है कि उसकी रपट लिखवाना!  वह न जाने कब से थाने जाने के बारे में सोच रही है और न जाने कब तक सोचती ही रहेगी…

-अनूप मणि त्रिपाठी

जाऊं कि न जाऊं!

जाऊं कि न जाऊं! जाने पर खतरा है न जाने पर भी खतरा! करूं तो क्या करूं! जाने दो, छींटाकशी तो रोज की बात है. हां, मगर कल तो छेड़खानी हुई है, बाकायदा छेड़खानी. टच करने की कोशिश की है! अगर ऐसे ही चुप रही तो कल को बात और बढ़ जाएगी! तो फिर क्या करूं, चली जाऊं क्या?

क्या जाऊं! इस बात की क्या गारंटी कि वे भी इसे गंभीरता से लेंगे. आजकल छेड़खानी को कौन गंभीरता से लेता है. अगर लोग इसे गंभीरता से लेते तो ऐसी घटना आम नहीं होती. ऐसी घटनाओं पर जिम्मेदारों का तब तक ध्यान नहीं जाता है, जब तब वह वीभत्स रूप न ले ले या फिर जिसके साथ घटना हुई हो, वह कोई विशिष्ट हो. तो फिर न जाऊं! हाय राम! मैं ऐसा सोच भी कैसे सकती हूं! अकेले जाने का ख्याल आया भी तो आया कैसे! किसी को अपने साथ ले लेती हूं, मगर कौन चलेगा मेरे साथ. हर किसी को अपनी जान प्यारी होती है. कई तो मेरे जैसे होते हैं जिनको जान से ज्यादा अपनी इज्जत प्यारी होती है. फिर कोई वहां क्यों जाना चाहेगा? क्या करूं! अगर मैं वहां गई और मां-बाप को पता चल गया, तो मेरी घर वापसी का टिकट कटना तय है. घर वापस चली जाऊं! क्या रखा है यहां. दिन भर खटने के बाद आखिर मिलता ही कितना है. घर वापस जाकर करूंगी भी क्या. कैसा समाज है, कैसे लोग हैं. कल जब मैंने अपने साथ हुए दुर्व्यवहार का विरोध किया था, वहां कौन बोला था. अगर लोग बोलने लगे, तो हम जैसों को क्या जरूरत है, वहां जाने की. इत्ते बेवकूफ तो नहीं है हम कि बैल से कहें कि आ बैल मुझे मार!

मगर ऐसा कितने दिनों तक चलेगा? वहां जाना तो पडे़गा ही. अरे कोई जबरदस्ती है क्या भाई! जाओ नहीं जाती. हां, मगर कल को फिर कोई ऐसी-वैसी घटना हो गई तो! तब मैं क्या करूंगी! कहीं कोई कांड हो गया, तो कल को लोग यही कहेंगे कि आप हमारे पास आई क्यों नहीं. सही बात है, तो चली जाती हूं. चली ही जाती हूं! वहां चली तो जाऊं, मगर न जाने कैसे-कैसे सवाल पूछेंगे. कैसे पूछेंगे! कैसी नजरों से देखेंगे! मेरे बारे में क्या सोचेंगे! वहां जा कर पछताना न पडे़! कहीं पूछताछ के बहाने बार-बार बुलाए न! यह भी हो सकता है कि पूछताछ के बहाने रात-बिरात घर ही आ धमके! कहीं वहां मेरे साथ ऐसा-वैसा कुछ हो गया तब! तब कहां जाऊंगी!

मैं आज की नारी हूं. अपने अधिकारों को अच्छी तरह से जानती हूं. मैं नहीं लडूंगी तो कौन लडे़गा. अगर वहां कुछ ऐसा-वैसा मेरे साथ हुआ, तो उन्हें मुंहतोड़ जवाब दूंगी. मगर ऐसी नौबत ही क्यों आए. जब यही करना है, तो वहां जाने की जरूरत ही क्या है! हां, तो वे अपनी तनख्वाह भी हमें दे, जब उनका भी काम हमें ही करना है! अरे यार, मैं वहां जाने की सोच ही क्यों रही हूं! ऐसा करती हूं बॉडी गार्ड रख लेती हूं. तब जाती हूं वहां पर. सेफ रहूंगी. या फिर ऐसा करती हूं कि पहले एक गन खरीदती हूं, फिर वहां जाती हूं. अरे यार कैसे-कैसे आइडिया आ रहे हैं! क्या करूं! अकेले जाऊं या किसी को साथ ले जाऊं ? पहले किसी से फोन करवा देती हूं. मगर किससे! मेरे जाने में इतने रुतबे वाला कौन है! छोड़ो! कल देखते हैं. कल अगर ऐसा हुआ तो चलेंगे थाने में रपट लिखाने. नहीं यार, कल छेड़खानी न हो जाए! रपट लिखाने जाऊं तो कहीं रपट ही न जाऊं! उफ! पता नहीं छेड़खानी समस्या है कि उसकी रपट लिखवाना!  वह न जाने कब से थाने जाने के बारे में सोच रही है और न जाने कब तक सोचती ही रहेगी…

-अनूप मणि त्रिपाठी

 

'मुझे नकल मर्डर बनानी पड़ी ताकि ओरिजिनल गैंगस्टर बना सकूं'

हम मलाड की एक बहुमंजिला इमारत की छत पर अनुराग बसु से मिले. भिलाई में पला-बढ़ा एक मध्यवर्गीय बंगाली लड़का, जो बीस से थोड़ा ही ऊपर होगा, जब उसने टीवी का मशहूर सीरियल तारा बनाया. बाद में और भी बहुत-से मशहूर धारावाहिक और फिल्में. लेकिन इतना ईमानदार कि यह कहने से पहले एक पल को भी नहीं झिझकता कि उसे ‘नकल’ मर्डर बनानी पड़ी ताकि अपनी असल गैंगस्टर बनाने को मिले. बाद में हमने समोसे खाए और बरफी  की बातें कीं. नि:स्वार्थ प्यार की, राम जैसे किरदारों के बोरिंग होने की, एक्यूट ल्यूकीमिया से उबरने के बाद उनके जीवन के बदलने की, राजकुमार हीरानी की फिल्मों के पहले दिन के शो के लिए उतावला रहने की, काइट्स  की, राकेश रोशन के लोकतंत्र की और महेश भट्ट की बातें, जो चाहते हैं कि उनके सब निर्देशक एक ही तरह की फिल्में बनाते रहें. अनुराग की फिल्मों की तरह ही उनकी बातों में भी दुर्लभ बेबाकी है, बेचैनी है, लेकिन एक व्यावहारिक संतुलन भी है. उनकी फिल्मों का अपना कोई एक अलग और स्पष्ट रंग भले ही न हो (और वे ऐसा चाहते भी हैं), लेकिन उनकी फिल्में हिंदी सिनेमा को उम्मीद का एक पक्का रंग देती हैं. हम उस प्यारे रंग को सीधे आपसे बात करने देते हैं.

फिल्म बनाते हुए यह मुझे सबसे महत्वपूर्ण लगता है कि आप फिल्म की खूबसूरती, उसकी ऐस्थेटिक्स भी बरकरार रखें और वह लोगों को भी अच्छी लग रही हो. फिल्म मनोरंजक हो, समांतर फिल्म न हो. हमारे यहां राजकुमार हीरानी ने ही इस फॉर्मूले को क्रैक किया है. वे ऐसी फिल्में बना रहे हैं, जिनकी आलोचक भी तारीफ करेगा, फिल्मकार भी, दर्शक भी. अपनी फिल्मों से मैं भी वही जगह ढूंढ़ रहा हूं. लेकिन पता नहीं कि मिलेगा क्या! जिस दौर में मैं इंडस्ट्री में आया, यहां लोग किसी विदेशी फिल्म की डीवीडी ही देते थे बनाने को. अगर आपको बनानी है तो कोई और विकल्प ही नहीं है. मेरे पास गैंगस्टर की स्क्रिप्ट थी पहले से और बनाना भी चाहता था, लेकिन गैंगस्टर को कोई निर्माता बना नहीं रहा था क्योंकि वो ओरिजिनल थी. उसे बनाने के लिए मुझे पहले एक नकल बनानी पड़ी, मर्डर. खुद को साबित किया मर्डर में, उसका ठप्पा लग गया, तब मैं अपनी ओरिजिनल फिल्में बना पाया. वह अजीब दौर था. लोग डंके की चोट पर नकल बना रहे थे. मैंने स्क्रीनप्ले लिखकर ‘मर्डर’ को मूल फिल्म से थोड़ा-बहुत अलग किया लेकिन बीज तो प्रेरित ही था.

‘मर्डर’, ‘गैंगस्टर’ के बाद ‘लाइफ इन अ मैट्रो’ लेकर भी मैं भट्ट साहब के पास ही गया था लेकिन वे एक ही तरह की फिल्में बनाना चाहते थे, उनसे हटना नहीं चाहते थे. उन्होंने खुद अलग अलग तरह की फिल्में बनाई हैं, लेकिन वे नहीं चाहते कि उनके निर्देशक अलग अलग तरह की फिल्में बनाएं. इसीलिए मैं ‘मैट्रो’ बाहर ले के गया. मैं उनके ढांचे में नहीं ढला. लेकिन उनसे सीखा बहुत कुछ. कोई भी फिल्म पूरी देखने के बाद जो वो समझते हैं ना फिल्म को, वो उनका एरियल व्यू कमाल का है. अब भी फिल्में बनाने के बाद मैं कई बार उनकी नजर से ही देखना चाहता हूं अपनी फिल्म को, उससे डीटैच होके. ‘काइट्स’ के बाद मीडिया ने जितना कहा, मैं उतना दुखी या असंतुष्ट नहीं था. ऐसी बातें बाहर आईं कि मैंने जैसे अपनी ही फिल्म को डिसऑन कर दिया है. ऐसी बात नहीं है. फिल्म मैंने ही बनाई है. किसी का कोई हस्तक्षेप हुआ है तो इसीलिए ना कि मैंने होने दिया है. जैसी भी बनी, जैसी भी प्रतिक्रियाएं आईं, लेकिन फिल्म तो वह मेरी ही है. मैं बहुत गरमदिमाग और जिद्दी इंसान हूं. मैं इससे नाखुश था कि जिस तरह से शुरू की थी, फिल्म वैसी नहीं रही और प्रमोशन में इतनी बड़ी बन गई.

बहरे-गूंगे की कहानी सुनते ही लगता है कि कोई डार्क फिल्म होगी लेकिन बरफी के साथ ऐसा नहीं है, यह जिंदगी का जश्न मनाने की कहानी है
फिल्म बरफी का एक दृश्यलेकिन ऐसा भी नहीं हुआ कि मेरे दो साल पूरे पानी में चले गए. मैंने बहुत कुछ पाया है उस फिल्म से. दुनिया में पहचान मिली. उससे पहले मुझे बाहर कोई नहीं जानता था. मैट्रो और गैंगस्टर की यहां आलोचकों ने बहुत तारीफ की लेकिन बाहर के अखबारों ने एक लाइन तक नहीं लिखी उनके बारे में. फिल्म रेटिंग की वेबसाइट ‘रोटन टॉमेटो’ में देखिए, अभी भी उसके 82 प्रतिशत वोट हैं. बड़े बड़े आलोचक, न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट वगैरा, जिनके आलोचकों के मैं रीव्यू पढ़ता हूं, उन्होंने अच्छा रीव्यू किया. मुझे उम्मीद नहीं थी इसकी, क्योंकि बीच की फिल्म थी वो. ना बॉलीवुड थी, न हॉलीवुड, बीच की खिचड़ी थी वो. ‘काइट्स’ के बाद जानबूझकर चुनिंदा रीव्यू पढ़े मैंने. स्टार कितने दिए हैं, यह पूछकर पढ़ता था. मैंने फिल्म के बारे में खराब चीजें पढ़ी ही नहीं, इसलिए डिप्रेशन नहीं हुआ. नकारात्मकता नहीं आने दी अपने अन्दर. क्योंकि जिस चीज पर आप इतनी मेहनत करते हैं, लोग उसे उड़ा देते हैं तो आप पर, आपके अगले काम पर उसका बहुत बुरा असर पड़ता है. मैं इसलिए नाराज था कि ‘काइट्स’ के बारे में हमने ठीक तरह से लोगों को पहले बताया नहीं. लोग कुछ और सोच कर आए और उन्हें कुछ और मिला. हमें तो पता था कि हम क्या बना रहे हैं. राकेश रोशन से बड़ा ‘मासी’ प्रोड्यूसर इस देश में नहीं है. इसलिए ऐसा नहीं है कि हमें पता नहीं था. लेकिन करते करते, जिस तरह से शुरू हुई थी, वो नहीं रही, पैन इंडिया बड़ी फिल्म बन गई और लोगों को भी वही बताया जाने लगा.

आपने जैसी फिल्म बनाई है, उसे उस तरह से लाने की हिम्मत होनी चाहिए. जो बनाई है, उसी तरह से उसी फिल्म को प्रमोट करने की, लेकिन प्रमोशन के टाइम पे लोग डर जाते हैं – ‘नहीं यार, इसे और तरीके से पेश करते हैं ताकि लोग और देखने आएं.’ और जब आपकी फिल्म महंगी खरीदी बेची जाती है तब आपका मुख्य लक्ष्य पहले 3 दिन के दर्शक होते हैं. तब आप ऐसे प्रोमो बनाते हैं ताकि कुछ भी करके कमाल की ओपनिंग लग जाए. लेकिन मेरा हमेशा यही मानना है कि आप फिल्म के लिए सच्चे रहो. जैसी फिल्म है, वैसा ही ट्रेलर और प्रमोशन होना चाहिए. ‘काइट्स’ का विषय राकेश जी ने मुझे दिया था. कहानी से ही फिल्म तय हो जाती है. निर्देशक का काम है उसे निखारना. मैंने और राकेश जी ने, सबने मिलके स्क्रीनप्ले लिखा. उस कहानी को जितना रोचक बनाया जा सकता था, बनाया. और डायरेक्शन में कोई हस्तक्षेप नहीं था. शूटिंग में ऐसा नहीं था कि राकेश जी पूरे समय पीछे बैठे रहते थे. वह फिल्म बहुत लोकतांत्रिक ढंग से बनी है. इस तरह के लोकतांत्रिक वातावरण में मैंने इससे पहले काम नहीं किया था जहां 3-4 लोग बैठ के फैसले लेते हों. लेकिन यह सब स्क्रिप्ट के लेवल तक ही था.

हां, जिस तरह की आजादी मैंने भट्ट साहब के यहां इंजॉय की थी, कि आप ही लिखें, डायरेक्ट करें, कैसे भी बनाएं, यहां ऐसा नहीं था. यह भी नहीं था कि राकेश जी के यहां काम के ढंग का मुझे पता नहीं था और बनते-बनते पता चला. मुझे पता था कि वहां इस तरीके से ही फिल्म बनेगी, इसलिए मैंने भी उसी तरीके से बनाई. लेकिन उसके बाद मैंने यह भी तय किया कि अगली बार से हमेशा अपने मन से ही काम करूंगा, ऐसे सिस्टम में नहीं करूंगा. फिल्म डेमोक्रेटिक ढंग से नहीं बन सकती, उसमें तानाशाही ही चलती है. एक के दिमाग से ही काम हो पाता है. यह लोकतांत्रिक सेटअप खराब नहीं है. यशराज में, विधु के यहां भी ऐसे ही बनती हैं फिल्में, लेकिन मैं इसमें फिट नहीं बैठता. मुझे लगता है कि मेरे किरदार अपने रिश्तों में, प्रोफेशन में, या जीवन में ठीक से परिभाषित नहीं रहते क्योंकि मैं खुद ही ठीक से परिभाषित नहीं हूं. मेरे आसपास के लोग भी नहीं हैं, हम सब कनफ्यूज्ड हैं. मैं जब बारहवीं में पढ़ रहा था, मुझे पता नहीं था कि बम्बई आऊंगा, ग्रेजुएशन किया तो मुझे पता नहीं था कि डायरेक्टर बनना है. मैं रिलेशनशिप में भी यहां से वहां बहुत पहले से गुलाटी मारता था. वह मेरा व्यक्तित्व दिखता है शायद. सबमें कमियां या ऐब होते हैं, मैं उन्हें छिपाना नहीं चाहता. मैं अपनी फिल्मों में राम की कहानी नहीं दिखाना चाहता. ऐसे किरदार मुझे बोरिंग लगते हैं.

मर्डर से पहले मैं एक एक्स्ट्रामैरिटल अफेयर से गुजरा था. उसी ने मुझे जोड़ा उस कहानी से. जैसा जीवन आप जी रहे होते हैं, आप वैसी ही कहानियां चुनते हैं अपने आसपास से. इसीलिए अब बरफी बन रही है. उस वक्त मैं कभी बरफी न बनाता. बीमारी के बाद मेरा फोकस बदल गया, पहले प्राथमिकताओं का क्रम था – पैसा, काम, घर, परिवार, प्यार. अब काम अंत में आ गया, पैसा भी. पहले परिवार और घर. हालांकि अब पैसा ज्यादा कमा रहा हूं. पैसे के पीछे भागो तो कभी हाथ में नहीं आता. नहीं भागो तो अपने आप आता है. लेकिन सिर्फ ये प्राथमिकताएं ही बदली हैं. बाकी कुछ नहीं बदला. बाकी तो आज भी कभी कभार सिगरेट पी लेता हूं. नहीं पीनी चाहिए मुझे.

इन दिनों बरफी की कहानी के बारे में इस डर से नहीं बताना चाह रहा कि कहीं मैं सारी कहानी, या अन्दरूनी परतें न बता दूं कहते कहते. उसमें आपस में जुड़े हुए हुक हैं. उस कहानी का आपको पता न हो, तभी देखने का मज़ा आएगा. बहरे गूंगे से डार्क फिल्म लगती है, क्योंकि आमतौर पर ऐसे किरदारों की ऐसी ही फिल्में बनती हैं, लेकिन यह फिल्म जिन्दगी का जश्न मनाने की कहानी है. हमें वे बेचारे लगते हैं, लेकिन उन्हें नहीं लगता कि वे बेचारे हैं. पहले कुछ छोटी कहानियां लिखी थीं. उनसे इश्क हो गया मुझे. काइट्स के बाद उन्होंने फिल्म का शेप लिया. कहानी से मिलते जुलते किरदारों से मैं मिला हूं. बीमार पड़ने से पहले तक मैं बहुत स्वार्थी था, पैसे के पीछे भागता था. लेकिन बीमारी के बाद कुछ बदलाव आया, कुछ एनजीओज़ से जुड़ा. नज़रिया बदला. मैं न बदलता तो शायद यह कहानी मेरे दिमाग में नहीं आती. मुस्कान नाम का डिसएबिलिटी स्कूल है भिलाई में. वहां गया था. वहीं से मेरा मुख्य किरदार निकला.

मरफी रेडियो का एक विज्ञापन था ना, उसमें जो बच्चा था. फिल्म में मेरे मुख्य किरदार की मां वैसा ही बच्चा चाहती है – मरफी बेबी. जो बच्चा होता है, उसका नाम मरफी रखा जाता है. त्रासदी यह कि उसकी मां रेडियो से शॉक लगने से ही मरती है. मरफी ठीक से बोल नहीं पाता और अपने अस्पष्ट उच्चारण में जब अपना नाम बोलता है तो वह बरफी जैसा सुनता है. धीरे-धीरे सारा शहर उसे बरफी ही कहने लगता है. हम सबमें इतना कपट भर गया है, निस्वार्थ प्यार तो चला ही गया है. भिलाई के उस स्कूल में मैंने देखा कि उनके बीच में वह निस्वार्थ प्यार है. मुट्ठी भर धूप और आसमान के साथ वे जी लेते हैं. इतनी शुद्ध प्रेमकहानी हम करते नहीं. इससे पहले मैंने भी कहां की है? बरफी मेरी पिछली फिल्मों से इतनी अलग है कि काइट्स से बरफी के सैट पर आने के बाद चार पांच दिन मुझे बहुत दिक्कत हुई. समझ ही नहीं आ रहा था कि कैमरा एंगल कैसे लगाऊं मैं.

जिस दिन रणबीर का आखिरी शॉट था और मैंने शॉट से पहले घोषणा की कि यह आखिरी शॉट है तो सारी यूनिट भावुक हो गई थी. ऐसा मैंने इससे पहले कभी किसी फिल्म में नहीं देखा. लोगों की आंखों में आंसू आ गए थे. पता न अहीं ये रणबीर ने किया है या किरदार ने, लेकिन वो पूरी यूनिट का लाड़ला बन गया था. जहां तक प्रियंका की बात है, बरफी की शुरुआत में ही आप भूल जाएंगे कि यह लड़की प्रियंका चोपड़ा है. यह करना बहुत बड़ी बात है. इलियाना शुरू में डर रही थी कि दो बड़े सितारों के साथ लान्च होके वो छिप न जाए. लेकिन धीरे-धीरे उसका डर चला गया. मेरे सेट पर थियेटर जैसा माहौल होता है. कोई बड़े छोटे का क्रम नहीं है. हम तो मेकअप वैन्स पर भी अभिनेताओं का नाम नहीं लिखते. रणबीर कपूर का नाम नहीं, किरदार का नाम लिखते हैं. बाहर आप कोई भी हों लेकिन जब आप सेट पर आएंगे तो सबके बराबर ही होंगे.

 

‘फासीवादी विचारों से टकरा कर ही अच्छा लेखन संभव हो पाता है’

आलोचना के शिखर पुरुष कहे जाने वाले नामवर सिंह सात दशक से भी ज्यादा समय से साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय हैं. ‘कविता के नए प्रतिमान’ ,‘दूसरी परंपरा की खोज’, ‘कहानी- नई कहानी’, ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां’, ‘छायावाद’ ‘इतिहास और आलोचना’ और ‘हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग’ उनकी महत्वपूर्ण रचनाएं हैं. ‘कविता के नए प्रतिमान’ और ‘दूसरी परंपरा की खोज’ का पाठ हिंदी साहित्य के छात्र अनिवार्य संदर्भ ग्रंथ की तरह करते हैं. ‘कविता के नए प्रतिमान’ के लिए उन्हें 1971 में साहित्य अकादेमी सम्मान मिला था. वे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में भारतीय भाषा विभाग के संस्थापक अध्यक्ष हुए और वहां कई दशकों तक अध्यापन का कार्य भी किया. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलाधिपति होने का गौरव भी उन्हें प्राप्त है. वे राजकमल प्रकाशन समूह से निकलने वाली त्रैमासिक पत्रिका ‘आलोचना’ का लंबे समय से संपादन कर रहे हैं. पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से उन्होंने कलम नहीं चलाई है. लेकिन उनके कहे का भी वजन इतना है कि मौखिक साहित्य की परंपरा को भी उन्होंने समृद्ध करने में कोई कोर कसर नहीं रखी है. हालांकि वे मौखिक साहित्य को साहित्य नहीं मानते. 28 जुलाई को नामवर सिंह ने 86 साल पूरे किए. उनसे स्वतंत्र मिश्र की बातचीत.

आप आलोचना के शिखर पुरुष हैं. क्या उम्र के इस पड़ाव में आपको लगता है कि कुछ करना रह गया? 

देखिए, आकांक्षाओं पर कोई लगाम नहीं लगा सकता, लेकिन उम्र के इस पड़ाव में आकर पढ़ने-लिखने की क्षमता में कमी आ जाती है. एक अरसे से लिखना छूट गया है. अब बोलना ज्यादा होता है जिसे हम मौखिक साहित्य कहते हैं. लेकिन मैं व्यक्तिगत तौर पर इसे साहित्य नहीं मानता. मेरे श्रद्धेय रामविलास शर्मा ने प्रतिज्ञा की थी कि वे सभा, गोष्ठियों में नहीं जाएंगे. उन्होंने इसे जीवन के अंतिम दिनों तक निभाया भी. वे आसन मार कर लिखते रहे. बाद के दिनों में वे लिख नहीं पाते थे. वे तैयारी करके रखते और कोई जाता और उनके कहे को कागज पर उतार लेता. मैं उन दिनों जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में था. मैंने उनके लिए यह व्यवस्था की थी. बाद की बहुत सारी किताबें उन्होंने बोलकर ही लिखवाई है. मैं ऐसा नहीं कर पाया. मुझे इसका अभ्यास भी नहीं है. मैं दिनभर पढ़ने-पढ़ाने, मिलने-मिलाने और सभा-गोष्ठियों में व्यस्त रहता और फिर रात को खाना खाकर दस बजे रात से लेकर सुबह के चार-पांच बजे तक रोज लिखने का काम करता. मैंने ‘दूसरी परंपरा की खोज’ सात या आठ दिन में लिखी थी. ‘कविता के नए प्रतिमान’ मैंने एक महीने में पूरी की थी. पिछले 11-12 साल से दिन भर की व्यस्तताओं के बाद अब रात को सिर्फ पढ़ने का काम हो पाता है. 

पिछले दिनों आप पर  ‘जेएनयू में नामवर’ किताब आई. हाल ही में राजकमल से भी चार किताबें प्रकाशित हुई हैं. सामयिक प्रकाशन से भी प्रेम भारद्वाज के संपादन में आप पर एक किताब आई है. आप इसे कैसे देखते हैं?

सच पूछिए तो मुझे आशीष त्रिपाठी की किताबों के प्रकाशन से खुशी मिली है. आशीष बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं. अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं में मेरे छपे लेखों को वे संकलित करने का काम कर रहे हैं. मेरी आठ पुस्तकें राजकमल से छप चुकी हैं जबकि चार पुस्तकें अभी प्रकाशित होनी हैं. आशीष की इस योजना के अंतगर्त दो साल के भीतर कुल बारह खंडों में इसे समेटने की योजना है. इससे लोगों को यह पता चलेगा कि मैंने बोलने से ज्यादा लिखने का काम किया है. ये साहित्य से संबंधित मेरे अलग-अलग विषयों पर लिखे गए लेख हैं. बहुत सारे लोग अपने भाषण तक का रिकॉर्ड भी रखते हैं. यह कला मुझे नहीं आती और मुझे यह थोड़ा अहंवादी भी लगता है. अज्ञेय जी शुरू से ही अपने साथ एक छोटा-सा टेप रिकॉर्डर लेकर चलते थे. इसलिए अज्ञेय जी का बोला हुआ कुछ भी लुप्त नहीं हुआ है. मैंने ऐसा कभी नहीं किया. मुझे लगता है कि ऐसा करने से आदमी आत्मचेतस हो जाता है. मुक्त होकर बोलने का अपना मजा है. 

राजेंद्र यादव ने बहुत लंबे अरसे से कहानी लिखनी बंद कर दी है. वे कहते हैं कि मुझे बड़े दायरे तक अपनी बात पहुंचानी है इसलिए मैंने वैचारिक लेखन का सहारा लेना शुरू कर दिया है. आप क्या सोचते हैं?

वे ठीक कर रहे हैं. यह समझदारी का सूचक है. उन्हें लगा कि मैं अब कहानी या उपन्यास नहीं लिख सकता हूं तब उन्होंने छोड़ दिया. वे जिस स्तर का लेखन चाह रहे होंगे नहीं लिख पा रहे होंगे. और ‘हंस’ के संपादक के तौर पर लिखना तो हो ही रहा था. सच है कि उन्होंने ‘हंस’ में अपनी लेखनी के बूते कई जरूरी बहसों को भी जन्म दिया है. उनका लेखन महत्वपूर्ण है. उन्होंने इन लेखों का संकलन भी तैयार करवाया है. 

लेकिन मेरा सवाल यह है कि क्या कहानी या उपन्यास की तुलना में वैचारिक लेखन की पहुंच ज्यादा लोगों तक होती है? 

वैचारिक लेखन अपने विचार के प्रचार के लिए होता है, जबकि रचनात्मक साहित्यिक लेखन आस्वाद के लिए. दोनों के कार्य अलग-अलग होते हैं. इस समय राजेंद्र यादव का वैचारिक लेखन ज्यादा लोगों तक पहुंच रहा है लेकिन एक समय था जब उनकी कहानियां बड़े दायरे तक पहुंच रही थीं. तात्कालिक समस्याओं पर उन्होंने खुलकर बहुत जोरदार ढंग से लिखा है. उनके वैचारिक लेखन को लोग नहीं भूल पाएंगे. 

पिछले दिनों आपने  ‘तद्भव’  पत्रिका के कार्यक्रम में साहित्य को सत्ता की कांता यानी जोरू कहा था. क्या आपको लगता है कि साहित्य सत्ता की जकड़ से बाहर हो पाया है? 

मुझे बिल्कुल याद नहीं आ रहा है कि मैंने ऐसा कुछ कहा है. साहित्य सत्ता को चुनौती देने का काम करता है. लेकिन सत्ता लोकतांत्रिक है और यदि वह कोई काम लोक हित में करती हो तब उसकी आलोचना करने का कोई मतलब नहीं. लेकिन यदि कोई फासीवादी सरकार सत्ता में आती है तो वह मुक्त विचारों पर प्रतिबंध लगाती है. ऐसी स्थिति में सत्ता से टकरा कर ही अच्छा लेखन हो सकता है.

पिछले दिनों आपके भाई काशीनाथ सिंह को ‘रेहन पर रघ्घू’  के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार से नवाजा गया. उन्होंने  ‘तहलका’ को दिए इंटरव्यू में कहा था कि अगर उन्हें ‘काशी का अस्सी’  किताब के लिए पुरस्कृत किया गया होता तो ज्यादा खुशी मिलती. उन्होंने यह भी कहा था कि साहित्य अकादेमी ने ज्यादातर मौकों पर लेखकों को उनकी श्रेष्ठ रचना को पुरस्कृत करने के बजाय उनकी दूसरी कृति को सम्मानित किया है.

काशी की ‘काशी का अस्सी’ मुझे भी प्रिय है. काशी ने बिल्कुल ठीक कहा है. साहित्य अकादेमी की पुरस्कार देने की प्रक्रिया में ही खामियां हैं. पंत जी को उनकी बड़ी कमजोर किताब के लिए पुरस्कृत किया गया. उन्हें बहुत देर से पुरस्कार दिया गया. यशपाल और रेणु के साथ भी अकादेमी ने यही किया. रेणु को सर्वश्रेष्ठ कृति ‘मैला आंचल’ के लिए पुरस्कार नहीं दिया गया. जैनेंद्र जी को उनकी सबसे कमजोर किताब के लिए पुरस्कृत किया गया. उन्हें बहुत देर से पुरस्कृत किया गया. उदय प्रकाश के साथ भी ऐसा ही हुआ है. साहित्य अकादेमी ही नहीं बल्कि ज्ञानपीठ पुरस्कार भी लोगों को अच्छी किताबों के लिए नहीं दिया गया है. कुंवर नारायण को ज्ञानपीठ बहुत देर से मिला. निर्मल वर्मा को ज्ञानपीठ उनकी बहुत कमजोर किताब के लिए मिला है. पुरस्कार देने की प्रक्रिया में ही समस्या है जिसकी वजह से ऐसा होता आया है.उसकी राजनीति ही अलग है. इसलिए पुरस्कार किसी कृति या कृतिकार के श्रेष्ठ होने का मानदंड नहीं है. कई लेखकों के साथ ऐसा हुआ है. इसलिए काशी के साथ भी ऐसा हुआ है तो उससे काशी का लेखन छोटा नहीं होगा बल्कि पुरस्कार देने की प्रक्रिया पर ही सवाल उठेगा. 

पत्रिका  ‘फॉरवर्ड प्रेस’  में प्रेम कुमार मणि ने लिखा है कि गोदान में प्रेमचंद का गांव दूर से दिखता है जबकि रेणु का गांव भोगा हुआ गांव है. वे रेणु को बड़ा करने के लिए प्रेमचंद को छोटा बता रहे हैं. आपकी टिप्पणी चाहूंगा.

पहली बात यह कि रेणु और प्रेमचंद की तुलना नहीं होनी चाहिए. तुलना समसामयिक लेखकों की ही होनी चाहिए. रेणु की तुलना उनके युग के लेखकों से की जानी चाहिए. प्रेमचंद से रेणु की तुलना कैसे हो सकती है. प्रेमचंद का ऐतिहासिक महत्व है. प्रेमचंद की तुलना में रेणु ने बहुत कम लिखा है. प्रेमचंद ने तीन सौ से ज्यादा कहानियां लिखी हैं. उनसे कई गुना बड़े उपन्यास लिखे हैं. प्रेमचंद के कथा-साहित्य की दुनिया बहुत बड़ी है. महत्वपूर्ण बात तो यह है कि उन्होंने स्वाधीनता संघर्ष के दौर में अपना लेखन किया. इसलिए उनकी जगह कोई नहीं ले सकता है. अलग-अलग दौर में बहुत बड़े साहित्यकार हो सकते हैं लेकिन वे प्रेमचंद नहीं हो सकते. 

दलित साहित्य और स्त्री लेखन के बारे में आप क्या सोचते हैं? 

दलित लेखन बड़ी मात्रा में हो रहा है, यह बहुत अच्छी बात है. लेकिन स्त्रियों के मुकाबले दलित लेखन कम हो रहा है. गुणवत्ता के दृष्टिकोण से अगर देखें तो दलित लेखन के मुकाबले स्त्रियों का लेखन ज्यादा मजबूत भी है. दलित लेखन में कुछ ही लोग बहुत अच्छा लिख रहे हैं. दलित विमर्श की तुलना में स्त्री विमर्श पर केंद्रित पत्रिकाएं कम हैं. लेकिन स्त्री विमर्श पर पुस्तकों की संख्या ज्यादा है. संख्या की दृष्टि से नहीं गुणवत्ता के आधार पर साहित्य को देखने की दरकार है. पश्चिमी देशों में वुमेन स्टडीज (स्त्रियों द्वारा रचे गए साहित्य का अध्ययन) और ब्लैक स्टडीज (अश्वेत समुदाय द्वारा रचे गए साहित्य का अध्ययन) के नतीजों को अनुपात और गुणवत्ता के आधार पर देखा जाए तो बहुत अच्छा ब्लैक लिटरेचर लिखा गया है. ब्लैक लिटरेचर अफ्रीका, अमेरिका और यूरोप सभी जगह लिखा जा रहा है. उस लिहाज से हमारे यहां दलित साहित्य कम है. ब्लैक लिटरेचर 19वीं शताब्दी से ही मिलना शुरू हो जाता है. हमारे यहां बाबा साहब आंबेडकर के बाद दलित लेखन की शुरुआत हुई. शायद देर से शुरू होने की वजह से दलित लेखन का स्तर गुणवत्ता के लिहाज से कमजोर है. 

साहित्य में नई पौध के बारे में क्या सोचते हैं?

देखिए, नए लोग हम लोगों से बेहतर स्थिति में हैं और बहुत ही अच्छा लिख रहे हैं. कविता और कहानियां अच्छी आ रही हैं. आम तौर पर उपन्यास उतने अच्छे नहीं आ रहे हैं. आलोचनात्मक लेखन का स्तर बहुत बढ़िया है. अब बहुत सारी पत्रिकाएं प्रकाशित होने लगी हैं और हर पत्रिका में युवा कहानीकार और युवा कवि छप रहे हैं. कुछ समय पहले ‘कथादेश’ का कहानी विशेषांक आया था. उसमें युवाओं की बहुत अच्छी कहानियां पढ़ने को मिलीं. दूरदर्शन पर एक कार्यक्रम आता है जिसमें मुझे नई किताबों पर बात करनी होती है. पिछले चार साल से यह कार्यक्रम प्रसारित हो रहा है. इस कार्यक्रम को करने के दौरान मुझे अंदाजा हुआ कि अच्छी कविता, कहानियां और आलोचना की गंभीर पुस्तकें लिखी जा रही हैं.

पूरी रात यही कशमकश थी कि जाऊं या फिर इस नई पहचान से हार मान लूं’

 

मैं उत्तर प्रदेश के एक छोटे-से कस्बे से ताल्लुक रखती हूं. वहां जिंदगी के गुजारे कई सालों में मैंने हमेशा यह अनुभव किया कि इंसानियत सभी धर्मों से बड़ी होती है. हमारे यहां आपसी रिश्तों की जगह भगवान या अल्लाह से पहले थी. लेकिन मेरी इंसानियत से परे एक दूसरी पहचान भी है यह मुझे दिल्ली में हुए बटला हाउस एनकाउंटर के बाद महसूस हुआ. वह थी मेरी धार्मिक पहचान. तब तक मैं भी दिल्ली आ चुकी थी और इस जगह के पास ही रहती थी. अब हर रोज घर से  बाहर जाते हुए यह पहचान भी मेरे साथ चलती थी जिसे ढोने की अब आदत-सी पड़ती जा रही थी. मैं अपने गैरमुस्लिम दोस्तो के बीच रोज अपनी पहचान को खड़ा करने की जद्दोजहद करती. उनसे किसी भी ऐसी बहस करने से खुद को रोज बचाने की नाकाम कोशिश करती जो मेरी नई पहचान से जुड़ी थी.

 उन दिनों कहीं न कहीं मेरे मन में यह बात घर करने लगी थी कि अगर इसी तरह का माहौल रहा तो फिजा बद से बदतर होती जाएगी ओर अन्य धर्मों के लोग मुसलमानों से सच में नफरत करने लगेंगे. शायद इसके कुछ बीज पड़ने भी लगे थे जब मेरी एक सहपाठी ने मुंह बनाकर कहा था कि मुसलमान तो लड़ने ओर खाने में ही आगे होते हैं बस. लेकिन कहते हैं न कि हालात आपकी सोच पर कितना भी असर क्यों न डालें, कभी-कभी आपके साथ कुछ ऐसा भी हो जाता है जो फिर से आपकी सकारात्मक सोच को और पुख्ता बना देता है. मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ. इसके बाद मैं दोबारा यह सोचने लगी कि इंसानी रिश्तों की बुनियाद धर्म से कहीं ज्यादा मजबूत होती है. शायद मेरे लिए इस बात को अब कभी भी भुला पाना संभव नहीं होगा.

बात दो साल पहले की है. मुझे अपने कुछ साथियों के साथ एक विश्वास बहाली संवाद प्रकिया (इंटर फेथ डायलॉग) में हिस्सा लेने के लिए मथुरा जाने का निमंत्रण मिला. हमें दिल्ली से मथुरा के लिए अगली सुबह निकलना था, अगले ही दिन बाबरी मस्जिद पर भी फैसला आना था इसलिए वह रात मेरे लिए अहम थी. देश के बहुत सारे राजनेताओं, मौलवियों और धर्म गुरुओं के लिए भी वह रात अहम थी जो कई सालों से लोगों की भावनाओं से सियासी रोटियां सेंक रहे थे. हर आम इंसान की तरह मेरे परिवार वाले भी चिन्तित थे. उन के मन में एक अजीब-सा डर भी था. उन्हें लग रहा था कि मथुरा तो हिंदू बहुल इलाका है और इसलिए मेरा वहां जाना ठीक नहीं है. उन्होंने मुझे बहुत समझाया कि मैं इस सेमिनार में ना जाऊं क्योंकि अपने ग्रुप में मैं अकेली मुसलिम छात्रा थी. मैंने उन्हें काफी समझाया मगर परिवार वालों की मुखालफत पुरजोर तरीके से जारी रही. 

‘मुझे लग रहा था कि अगर मैं इस आयोजन में न आती तो मेरे मन की गलतफहमियां शायद ही कभी दूर हो पातीं’

उस दिन मुझे रह-रह कर यही अफसोस हुआ कि आखिर कब तक धर्म की यह राजनीति चलेगी. पहली बार उन टेलीविजन चैनलों पर भी बहुत गुस्सा आया जो मेरी मां की परेशानी को अपने नाटकीय अन्दाज में और बढ़ाने पर तुले हुऐ थे. इस अंदाज में कि दंगा न भी होता तो पक्का करवा देते. पूरी रात मैं इसी कशमकश में रही कि जाऊं या फिर इस नई पहचान से हार मान लूं. सुबह होते-होते मैं अपनी नई पहचान से जीत चुकी थी. मैं अपने मन के फैसले पर अडिग रही और घरवालों को बिना इत्तिला दिए कृष्ण की नगरी मथुरा पहुंच गई.

मथुरा पहुंचने पर हमारा गर्मजोशी के साथ स्वागत किया गया. हमारे ठहरने का इंतजाम एक स्थानीय आश्रम में किया गया था. यह जगह मेरी कल्पनाओं से बिल्कुल अलग थी. यहां बहुत सारे मंदिरों की घंटियां समवेत होकर मधुर ध्वनि उत्पन्न कर रही थीं जो बहुत सुकून दे रही थी. हम लोग मथुरा में पांच दिन रहे. आश्रम के गुरु से लेकर आम सेवक तक ने हमें बहुत आदर व सम्मान दिया. मैं भी और साथियों के साथ बैठकर प्रवचन सुनती थी. मैंने एक दिन भी यह महसूस नहीं किया कि मेरी पहचान वहां मौजूद लोगों से अलग है.

फिर एक दिन मैंने हिम्मत जुटा कर आश्रम के गुरू जी, जिनका नाम मुझे याद नहीं आ रहा, से अयोध्या फैसले पर बात की. मैंने उनसे पूछा कि क्या वजह है जो साथ-साथ रहने वाले हिंदू-मुसलमान इतने दूर होते जा रहे हैं. उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रख कर सिर्फ इतना कहा कि मंदिर-मस्जिद को लेकर होने वाली सियासत से वह अब ऊब चुके हैं. उन्होंने आगे यह भी जोड़ा कि मंदिर-मस्जिद से ज्यादा उनके लिए मानवता अहमियत रखती है.  

मथुरा से वापस दिल्ली लौटते समय इंटर फेथफुल डायलॉग में जाने के फैसले को लेकर मेरे मन में एक आत्मसंतुष्टि का भाव था. मुझे लग रहा था कि अगर मैं वहां नहीं जाती तो मेरे मन में जो गलतफहमियां घर करने लगी थीं वह शायद ही कभी दूर हो पातीं. मानवीयता के इस रूप के दर्शन से भी मैं वंचित रह जाती. थोड़े-से भटकाव के शिकार लोगों की सोच को मैं आम लोगों की सोच मानती रहती और मानवता पर शर्मसार होती रहती.  आखिर धर्म के नाम पर आम आदमी को लड़वाकर उससे सियासी फायदा लेने का यह खेल कब रुकेगा?

 

सरकार को गरियाने वाले अपना काम तो ठीक से करें

दुनिया में कोई भी ऐसा लोकतंत्र नहीं है जहां की सरकार को लेकर वहां के मीडिया और विपक्ष टिप्पणी नहीं करते. यह लोकतंत्र का एक स्वाभाविक लक्षण है. लेकिन यह भी सच है कि किसी पर टिप्पणी करना बहुत आसान होता है और हकीकत को सही संदर्भों में देखना बहुत मुश्किल. विपक्ष आरोप लगा रहा है कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यह दूसरी सरकार बेहद नाकाम है. अगर सचमुच ऐसा है तो विपक्ष की कामयाबी क्यों नहीं दिख रही है. उन्हें कई बार सरकार को घेरने के मौके मिले लेकिन किसी भी मौके पर वे कामयाब नहीं हुए. इसलिए उनके पास यह नैतिक अधिकार नहीं है कि वे मनमोहन सिंह की सरकार पर तरह-तरह के आरोप लगाएं.

2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) बनवाने को लेकर विपक्ष ने संसद को तकरीबन एक साल तक ठप किए रखा. अब जेपीसी की जांच के बारे में जो खबरें आ रही हैं उनके आधार पर क्या यह कहा जा सकता है कि कसूरवार की पहचान की जा सकेगी? हमने पहले भी कहा था कि इस मामले पर भारत के महालेखा परीक्षक एवं नियंत्रक (सीएजी) की रिपोर्ट को पीएसी में भेजना ही पड़ेगा. इस समिति की अध्यक्षता भाजपा के ही वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी कर रहे हैं. लेकिन वे नहीं माने. अब तक सबूत के साथ कोई आरोप ठोस तौर पर किसी के खिलाफ तय नहीं हो पा रहा है. अन्य कई मामले हैं जिनमें विपक्ष जमकर हो-हल्ला करता है लेकिन जब उनसे यह पूछा जाता है कि रास्ता बताइए तो वे इधर-उधर झांकने लगते हैं. राष्ट्रमंडल खेलों को लेकर भी विपक्ष ने बड़े आरोप लगाए थे. लेकिन अब जब जांच चल रही है तो सरकार के अलावा कोई भी उसमें दिलचस्पी लेकर दूध का दूध और पानी का पानी करवाने की कोशिश नहीं कर रहा. ऐसे में विपक्ष से मुझे निराशा होती है. वे एक घोटाले का मुद्दा उठाते हैं और उसमें जांच का आदेश होते ही अगले घोटाले के इंतजार में पुराने को भूल जाते हैं. कायदे से होना यह चाहिए कि जब किसी घोटाले की जांच चल रही हो तो विपक्ष के पास जितने सबूत हैं वे पेश करें. अगर जांच सही ढंग से आगे नहीं बढ़ती तो इसके लिए सरकार जितनी कसूरवार है उससे कम विपक्ष भी नहीं है.

अभी जिन घोटालों की बात हो रही है अगर वे सही में घोटाले हैं तो उनकी जड़ तो संप्रग-1 में है. जहां तक मेरी जानकारी है उसके मुताबिक संप्रग-2 के कार्यकाल में कुछ ऐसा नहीं हुआ है जिसे घोटाला कहा जा सके. अब लोग कहते हैं कि संप्रग-1 के कार्यकाल में सब अच्छा था और संप्रग-2 में सब खराब है. जबकि सच्चाई यह है कि संप्रग-2 की सारी दिक्कतें संप्रग-1 से होकर ही आई हैं. जो भी लोग आरोप लगाते हैं, उन्हें बेसिरपैर की बात करने के बजाय वे ठोस मुद्दे उठाने चाहिए जिनमें दम हो. विपक्ष इस बात को बड़ा भारी मुद्दा बना देती है कि टाइम पत्रिका ने प्रधानमंत्री को ‘अंडरअचीवर’ बता दिया इसलिए वे ऐसे ही हैं. वे इस बात पर दिमाग ही नहीं लगाते कि किसी पत्रिका के कह देने से कोई कामयाब या नाकामयाब नहीं होता. अगर टाइम की बात अंतिम सच्चाई है तो फिर उसने 2002 में तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में काफी बुरा-भला लिखा था. इस पर भाजपा की बोलती बंद हो जाती है. विपक्ष सिर्फ हंगामा करना चाहता है. उसे लगता है कि हंगामा करने से कांग्रेस की यह दीवार गिर जाएगी. लेकिन ऐसा होने वाला नहीं है. भाजपा एक धक्का लगाकर मस्जिद तो तोड़ सकती है लेकिन कांग्रेस को नहीं तोड़ सकती.

विपक्ष एक घोटाले का मुद्दा उठाता है और उसमें जांच का आदेश होते ही अगले घोटाले के इंतजार में पुराने को भूल जाता है

अगर देश में एक मजबूत विपक्ष होता तो उनके पास अपनी ताकत दिखाने का सबसे अच्छा मौका राष्ट्रपति चुनाव था. इस चुनाव के बारे में सबको बहुत पहले से पता था. अगर विपक्ष एकजुट होकर हमारे उम्मीदवार को हरा देता तो हम बहुत ही दिक्कत में पड़ते. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं करके अपनी कमजोरी को खुद ही सार्वजनिक कर दिया. विपक्ष की ओर से जिन अब्दुल कलाम का नाम आगे किया जा रहा था उनसे पूछा भी नहीं गया था कि आप चुनाव में खड़ा होना चाहते हैं या नहीं. सरकार को गाली देने वाला राजनीतिक वर्ग खुद तो सही प्रतिपक्ष बनना नहीं चाहता लेकिन सरकार पर दिन-रात नए-नए आरोप लगाता रहता है. विपक्ष की नाकामी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे खुद को देश की जनता के सामने विकल्प के तौर पर पेश करने में कामयाब नहीं हो रहे. भाजपा में तो इस बात पर आपसी सहमति नहीं है कि कौन उनका नेतृत्व करेगा. ऐसे में मुझे यह नहीं लगता कि प्रतिपक्ष से इस सरकार को किसी तरह का कोई खतरा है. 

सरकार पर जो भी लोग आरोप लगा रहे हैं उन्हें यह समझना चाहिए कि जब वैश्विक स्तर पर अनिश्चितता होती है तो उस वक्त किसी भी सरकार के लिए काम करना मुश्किल होता है. जब वैश्विक स्तर पर अनिश्चितता का माहौल नहीं था तो इन्हीं मनमोहन सिंह की सरकार ने बढ़िया विकास दर बनाए रखी थी. मनमोहन सिंह ने हमेशा यह साबित किया है कि वे बतौर वित्त मंत्री या प्रधानमंत्री देश को अच्छे ढंग से चला सकते हैं. मैं ऐसा इसलिए भी मानता हूं कि भाजपा के बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी ने  2009 के आम चुनाव में कोशिश की थी कि झगड़ा मनमोहन सिंह बनाम आडवाणी बन जाए. लेकिन नतीजा क्या हुआ? मनमोहन सिंह को जनादेश मिला और आडवाणी को देश की जनता ने नकार दिया. मुझे लगता है कि इस सरकार के कार्यकाल में जो दो साल का वक्त बचा हुआ है उसमें मनमोहन सिंह वैसे कदम उठाएंगे जिससे इस सरकार की छवि और अच्छी हो. मैं ऐसा इसलिए भी मानता हूं कि दो साल पहले कोई यह नहीं कह सकता था कि इस सरकार को लेकर इतने तरह के सवाल उठाए जाएंगे. राजनीति में दो साल बहुत लंबा वक्त होता है. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री हैरल्ड विल्सन कहते थे कि राजनीति में एक हफ्ता भी बहुत लंबा समय है. मुझे भरोसा है कि जो कमियां अभी दिख रही हैं उन्हें अगले दो साल में दूर कर लिया जाएगा.

आज अर्थव्यवस्था की हालत को लेकर सरकार पर तरह-तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं. लेकिन अर्थव्यवस्था की कमजोरियों को दूर करने के लिए दो साल का वक्त बहुत होता है. मनमोहन सिंह के बारे में ही यह कहा जाता है कि यह उन्हीं का बनाया हुआ आर्थिक कार्यक्रम है जिस पर चलते हुए देश ने नौ फीसदी तक की विकास दर हासिल की. इसलिए भरोसे के साथ यह कहा जा सकता है कि अभी जो स्थिति थोड़ी गड़बड़ हुई है उसे वे वापस अच्छे स्तर पर ले जा सकते हैं. माइकल औशियन नाम के एक अमेरिकी पत्रकार हैं. उन्होंने अपने एक हालिया लेख में जानकारी दी है कि औपचारिक तौर पर चीन ने यह स्वीकार किया है कि इस साल उसके आर्थिक विकास की दर मात्र 7.5 फीसदी होगी. इसका मतलब यह हुआ कि चीन और भारत की विकास दर में अब कोई फर्क नहीं रहा. इस बात को कोई नकार नहीं सकता है कि दुनिया में जो अभी की आर्थिक स्थिति है वह किसी के लिए भी अच्छी नहीं है. भारत भी इसका अपवाद नहीं है. लेकिन मनमोहन सिंह ने कभी नहीं कहा कि आज की हमारी हालत दुनिया की वजह से ही है. वे अपने हिसाब से स्थिति सुधारने का काम कर रहे हैं. जहां तक आर्थिक वृद्धि को गति देने का मामला है तो इस बारे में मनमोहन सिंह से अधिक जानकार व्यक्ति देश में कोई नहीं है. उन्होंने पहले भी ऐसा किया है और इसे एक बार फिर से साबित करेंगे. 

महंगाई को लेकर इस सरकार की काफी आलोचना हो रही है. हमें यह समझना होगा कि हर साल का कुछ समय ऐसा होता है जब खाने-पीने की चीजें महंगी होती हैं और कुछ समय ऐसा होता है जब इनकी कीमतों में कमी आती है. कई बार सरकार को वैसी नीतियां अपनानी पड़ती हैं जिससे महंगाई तो घटती है लेकिन इसका बुरा असर औद्योगिक मोर्चे पर होता है. भारतीय रिजर्व बैंक ने ब्याज दर ऊंचे रखे तो इसका अच्छा असर तो यह हुआ कि कीमतें नहीं बढ़ीं लेकिन औद्योगिक विकास पर इसका बुरा असर इस तरह से पड़ा कि उद्योगपति कर्ज नहीं ले पाए. इन बातों को देखते हुए कई बार सरकार महंगाई को कम करने वाले कदम नहीं उठा पाती. ऐसा नहीं है कि सरकार को नहीं पता है कि महंगाई कम करने के लिए क्या कदम उठाने होंगे. लेकिन सरकार को यह भी पता है कि उन कदमों का दूसरे क्षेत्रों पर क्या असर पड़ेगा. मनमोहन सिंह इन दोनों के बीच संतुलन साधते हुए चल रहे हैं. महंगाई एक समस्या है और इसको लेकर सरकार की संवेदनशीलता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि तकरीबन हर संसद सत्र में इस पर चर्चा की जाती है. विपक्ष के लोग जब महंगाई को लेकर हो-हल्ला मचाते हैं तो मुझे सबसे अधिक अफसोस इस बात का होता है कि इसे रोकने के लिए एक भी रचनात्मक सुझाव अब तक न तो लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने दिया है और न ही राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेतली ने. जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी तो उस वक्त भी महंगाई दर काफी ऊंची थी. अगर विपक्ष में इतने ही जानकार लोग हैं तो उस वक्त उन लोगों ने महंगाई को काबू में करने के लिए कोई कदम क्यों नहीं उठाया था. यह समझने वाली बात है कि एक विकासशील देश में थोड़ी-बहुत महंगाई की जरूरत होती है लेकिन ज्यादा महंगाई की स्थिति पैदा होने से रोकना भी उतना ही जरूरी है. मनमोहन सिंह इस बात को समझते हैं और इसलिए वे इन दोनों बातों में संतुलन साधते हुए चल रहे हैं.

आज सरकार पर यह आरोप भी लग रहा है कि नीतियों के स्तर पर गाड़ी आगे नहीं बढ़ रही है. मेरी राय इस मामले में थोड़ी अलग है. जिन नीतियों को आगे बढ़ाने की बात विपक्ष कर रहा है, उनमें ज्यादातर तो मध्य वर्ग की जेबें भरने वाली हैं. गरीबों की बात कोई नहीं कर रहा है. मेरा मानना है कि सबसे ज्यादा अगर किसी नीति को लेकर गाड़ी आगे नहीं बढ़ रही तो वह है पंचायती राज. लेकिन इसकी बात कोई नहीं कर रहा है. हर कोई उन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाने की बात कर रहा है जिससे पूंजीपतियों का भला हो. आज विपक्ष के लोग इस बात को लेकर सरकार पर निशाना साध रहे हैं कि खुदरा में विदेशी निवेश को लेकर सरकार ने सही रवैया नहीं अपनाया. लेकिन वे इस बात को भूल जाते हैं कि जब उनकी सरकार थी तो उन्होंने क्या किया. खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश का पक्ष लेने और विरोध करने वालों के पास अपने-अपने तर्क हैं. किसी भी पक्ष के तर्कों को सिरे से खारिज करना समस्या का समाधान नहीं है. लेकिन इस मामले में एक रास्ता यह हो सकता है कि केंद्र सरकार यह तय करे कि खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश आए और राज्य सरकारें यह तय करें कि वे ऐसे स्टोर अपने राज्य में चाहती हैं या नहीं. मेरे मन में भी खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को लेकर कुछ शंका है. खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश का पक्ष लेने वाले यह तर्क देते हैं कि वे कोल्ड स्टोरेज बनाएंगे. मेरे समझ में यह नहीं आता कि कोल्ड स्टोरेज भारत सरकार क्यों नहीं बना सकती. सरकार ऐसे गोदाम बनाए और इसके प्रबंधन की जिम्मेदारी पंचायतों को दी जाए. 

दो साल में मनमोहन सिंह कोई ऐसा चमत्कार करेंगे कि भारत-पाकिस्तान के रिश्ते सुधरेंगे और तीस्ता का विवाद भी सुलझ जाएगा

इस सरकार पर विपक्ष के लोग यह आरोप भी लगाते हैं कि विदेश नीति के मामले में यह बहुत अधिक अमेरिकापरस्त हो गई है. आरोप यह भी है कि अमेरिका के चक्कर में हमने ईरान को भी नाराज कर दिया है. लेकिन वास्तविकता यह है कि अब भी हम सबसे ज्यादा तेल ईरान से ही खरीदते हैं. हां, पहले की तुलना में थोड़ी कमी आई है. अमेरिका तो चाहता है कि हम ईरान से तेल खरीदना बंद कर दें लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार ने तो ऐसा नहीं किया. ईरान को तेल का भुगतान करने को लेकर जब अमेरिका ने प्रतिबंध का रास्ता अपनाया तो हमने अपने रास्ते निकाले. भारत की कंपनियां वहां जाकर कारोबार कर रही हैं और हम ईरान को तेल का भुगतान अब रुपये में भी कर रहे हैं. अमेरिका चाह रहा था कि भारत की फौज अफगानिस्तान जाए लेकिन भारत सरकार ने इसे नहीं स्वीकारा. अमेरिका हमारे जवानों को ईराक भेजना चाह रहा था लेकिन हमने यह भी नहीं माना. लीबिया को लेकर भी अमेरिका के उलट हमारा रुख रहा. अमेरिका ने पूरी कोशिश कि चीन के खिलाफ उनका जो अभियान है उसमें भारत उनका साथ दे. लेकिन भारत सरकार ने अमेरिका को यह साफ-साफ बता दिया कि हम चीन से दोस्ती चाहते हैं न कि दुश्मनी. यह सच है कि अभी रुस के साथ उतना करीब का रिश्ता भारत का नहीं है जितना सोवियत संघ के जमाने में था लेकिन अब भी हम उनके करीब हैं और यह रिश्ता आगे बढ़ रहा है. कभी-कभार मेरे मन में भी यह शंका पैदा होती है कि कहीं भारत अमेरिकापरस्त तो नहीं होता जा रहा लेकिन मैं जब इन उदाहरणों को देखता हूं तो मुझे यह जवाब मिलता है कि ऐसा नहीं हुआ है. मनमोहन सिंह सरकार की विदेश नीति की सबसे अच्छी बात यह है कि पाकिस्तान के साथ दोस्ती के लिए जिस तरह के कदम इस सरकार ने उठाए उतने कदम शायद किसी सरकार ने नहीं उठाए. राजीव गांधी ने कई कदम इस दिशा में उठाए थे और बेनजीर भुट्टो के साथ वे इस दिशा में बढ़ भी रहे थे लेकिन वीपी सिंह की सरकार सत्ता में आ गई और यह काम पूरा नहीं हो पाया. मुझे ऐसा लगता है कि अगले दो साल में मनमोहन सिंह कोई ऐसा चमत्कार करेंगे कि भारत-पाकिस्तान के रिश्ते अच्छे हो जाएंगे और बांग्लादेश के साथ तीस्ता का विवाद भी सुलझ जाएगा. 

मनमोहन सिंह की इस सरकार पर सीबीआई के दुरुपयोग का आरोप कुछ लोग लगाते हैं. लेकिन ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि सीबीआई तब भी थी जब वीपी सिंह, चंद्रशेखर और अटल बिहारी वाजपेयी समेत अन्य गैरकांग्रेसी सरकारें केंद्र की सत्ता पर काबिज थीं. अगर सीबीआई एक ऐसी घटिया एजेंसी है जिसका राजनीतिक दुरुपयोग हो सकता है तो गैरकांग्रेसी सरकारों ने इसे ठीक क्यों नहीं किया? किसी गैरकांग्रेसी सरकार ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जिससे सीबीआई के कामकाज में या संचालन में कोई बड़ा बदलाव हुआ हो. यह कहना बड़ा आसान है कि केंद्र सरकार सीबीआई का दुरुपयोग करती है. लेकिन दूसरी तरफ हम यह भी देखते हैं कि राज्य सरकारें जब दिक्कत में पड़ जाती हैं तो फिर वे खुद ही कहती हैं कि इस मामले की सीबीआई जांच हो. अगर सीबीआई का इस्तेमाल केंद्र सरकार अपने हिसाब से ही करती तो फिर राज्य सरकारें कई मामले सीबीआई के हाथ में नहीं देतीं. इसलिए जो लोग केंद्र पर इस तरह के आरोप लगा रहे हैं वे सुविधा की राजनीति कर रहे हैं. 

इस सरकार पर विपक्ष का एक बड़ा आरोप है कि कहने को मनमोहन सिंह सरकार के मुखिया हैं लेकिन नियंत्रण कहीं और है इसलिए वे खुलकर काम नहीं कर पा रहे हैं. अब इसमें देखने वाली बात यह है कि अगर मनमोहन सिंह राय-मशविरा नहीं करें तो उन पर यह इल्जाम लगेगा कि वे विचार-विमर्श नहीं करते. अगर वे विभिन्न मामलों को लेकर राय-सलाह करते हैं तो उन पर विपक्ष के लोग यह आरोप लगाते हैं कि ये तो बलहीन प्रधानमंत्री हैं. तो आखिर मनमोहन सिंह करें क्या? हम सबको यह समझना चाहिए कि यह सरकार न तो मनमोहन सिंह की है और न ही कांग्रेस की. यह संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की मिली-जुली सरकार है जिसमें कई पार्टियां शामिल हैं. ऐसे सरकार में सभी घटकों की बातों को सुनने की आवश्यकता होती है. अगर गठबंधन सरकार में सबको साथ लेकर नहीं चला जाए तो कोई न कोई दिक्कत रास्ते में निश्चित तौर पर आएगी. जो लोग मनमोहन सिंह की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाते हैं उन्हें यह देखना चाहिए कि जब भी सरकार पर खतरा मंडराया तो उन्होंने किस तरह की राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया. 2008 में जब परमाणु समझौते को लेकर वाम दलों ने सरकार का साथ छोड़ दिया तो लगा कि अब तो यह सरकार आगे नहीं बढ़ पाएगी. लेकिन मनमोहन सिंह ने समाजवादी पार्टी को साथ लिया. इसके बाद उन्होंने परमाणु समझौता भी किया और न सिर्फ कार्यकाल पूरा किया बल्कि दोबारा जीतकर भी आए. लोकपाल के हंगामे के दौरान भी लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि अब इस सरकार के गिने-चुने दिन बचे हैं. इसके बावजूद मनमोहन सिंह की सरकार मजबूती के साथ आगे बढ़ती रही.

लोग तो यह भी आरोप लगाते हैं कि हम घटक दलों को साथ लेकर नहीं चलते. अगर यह आरोप सही होता तो मनमोहन सिंह की सरकार आठ साल तक नहीं चल पाती. एक गठबंधन के अलग-अलग दलों के बीच मतभेद रहना स्वाभाविक है. यदि ममता बनर्जी और कांग्रेस में कोई अंतर नहीं होता तो फिर वे कांग्रेस में या कांग्रेस के लोग उनकी पार्टी में क्यों नहीं होते? हमें यह समझना होगा कि इस गठबंधन सरकार में अलग-अलग पार्टियां हैं और उनकी अलग-अलग राजनीति है. इसलिए इस तरह की सरकार को चलाने में थोड़ी मुश्किल होती है और कई बार मतभेद सतह पर आते दिखते हैं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कांग्रेस अपने सहयोगियों को साथ लेकर नहीं चलती है. सबको साथ लेकर चलने की कला को अटल बिहारी वाजपेयी ‘गठबंधन धर्म’ कहते थे और कांग्रेस इसका पालन बहुत अच्छे से करती है. कांग्रेस इस गठबंधन सरकार को चलाते हुए इस बात को सही ढंग से समझती है कि बाएं हाथ और दाएं हाथ के मिलने से ही नमस्ते बनता है. एक हाथ से यह काम नहीं हो सकता. 

दो बहुत बुनियादी सुधार 1990-91 में हुए. मनमोहन सिंह ने आर्थिक नीतियों के स्तर पर जो बदलाव किए उन्हें आर्थिक सुधार कहा गया. इसके पहले राजीव गांधी के समय में पंचायती राज को लेकर सुधार की शुरुआत हुई थी जिसके लिए जरूरी संविधान संशोधन दो तिहाई बहुमत में पांच वोट कम पड़ जाने से नहीं हो पाया था. 1992 में नरसिंह राव के कार्यकाल में 73वां और 74वां संविधान संशोधन करके प्रशासनिक सुधारों का रास्ता साफ किया गया. उस समय यह धारणा बनी कि हम जो बदलाव रूपी रथ चलाना चाहते हैं उसका एक पहिया है आर्थिक सुधार और दूसरा है प्रशासनिक सुधार. लेकिन एक पहिया बहुत आगे बढ़ गया है और दूसरा घिसटते हुए बहुत धीमी गति से आगे बढ़ रहा है. मेरी समझ से देश की बुनियादी समस्या यह है. अगर इन दोनों का समन्वय यह सरकार सही ढंग से करे तो मैं इस बात का भरोसा दिला सकता हूं कि अगले आम चुनाव में कांग्रेस को न सिर्फ 200 से अधिक सीटें बल्कि अपने बूते बहुमत हासिल होगा.