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क्या मोदी का वाइब्रेंट गुजरात वाजपेयी के इंडिया शाइनिंग की राह पर है?

पिछले कुछ सालों में अगर किसी एक विधानसभा चुनाव को बड़ी दिलचस्पी के साथ राष्ट्रीय स्तर पर देखा जा रहा है तो वह है गुजरात विधानसभा चुनाव. माना जा रहा है कि अगर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र दामोदरराव मोदी लगातार तीसरा चुनाव जीतकर चौथी बार सत्ता में आते हैं तो फिर वे राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय होने की कोशिश करेंगे. देश के प्रमुख विपक्षी दल भाजपा का एक बड़ा वर्ग भी उन्हें प्रधानमंत्री के संभावित और सशक्त उम्मीदवार के तौर पर देखता है. हालांकि, मोदी खुद दिल्ली की राजनीति में आने की संभावनाओं को बार-बार खारिज करते रहे हैं. लेकिन उनकी सक्रियता और खासतौर पर पिछले एक साल में जिस तरह से उन्होंने कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व पर हमला करना शुरू कर दिया है उससे संकेत मिलता है कि वे एक बार फिर गांधीनगर में भाजपा की सरकार बनवाकर दिल्ली की ओर कदम बढ़ाना चाहते हैं. उनके दिल्ली के सपने का क्या होगा, यह पूरी तरह से इस बात पर निर्भर है कि दिसंबर में दो चरणों में होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन कैसा रहता है. यह विधानसभा चुनाव कुछ ऐसा बन गया है कि इसके परिणाम के आधार पर राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय होने की बात की जा रही है. कहा जा रहा है कि अगर मोदी जीतते हैं और राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय होते हैं तो एक बार फिर से धर्म के आधार पर चुनावी ध्रुवीकरण होगा.

मोदी, भाजपा और खबरिया चैनलों के चुनावी सर्वेक्षण की मानें तो एक बार फिर गुजरात में भाजपा सरकार बनने वाली है. अहमदाबाद और आस-पास के इलाकों में आम लोगों से बातचीत करने से भी लगता है कि मोदी की वापसी को लेकर किसी को कोई संदेह नहीं. लेकिन न सिर्फ मोदी के विरोधी बल्कि लंबे समय तक गुजरात की राजनीति को देखने-समझने और दूर-दराज के इलाकों में काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं की मानें तो नरेंद्र मोदी की राह उतनी आसान भी नहीं. गुजरात चुनाव में भाजपा का चुनाव प्रचार मोदी पर केंद्रित है. हर तरफ यह बताया जा रहा है कि मोदी राज में राज्य की कितनी तरक्की हुई, कितनी सड़कें बनीं और कितने फ्लाइओवर तैयार किए गए. इन्हीं दावों के आधार पर ‘समृद्ध गुजरात’ और ‘गौरवशाली गुजरात’ जैसे जुमले मोदी सरकार ने उछाले हैं. लेकिन गुजरात को समझने वाले लोगों से बातचीत की जाए और खुद सरकारी दस्तावेजों में ही झांककर देखा जाए तो इन जुमलों के खोखले होने का भी अहसास होता है.

कुछ वैसी ही तस्वीर उभरती है जैसी 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के ‘भारत उदय’ जुमले के वक्त थी. उस वक्त भी भाजपा के नेता विकास के लंबे-चौड़े दावे करते घूम रहे थे और कह रहे थे कि हर भारतीय ‘फील गुड’ कर रहा है. कहा जाता है कि ये दोनों जुमले उस समय भाजपा में बेहद प्रभावी रहे प्रमोद महाजन की दिमाग की उपज थे. लेकिन इन जुमलों के खोखलेपन का अहसास उन सभी लोगों को हो रहा था जो देश को सड़कों की चकाचौंध से पार जाकर देखने की क्षमता रखते थे. बाद में जनादेश ने साबित कर दिया कि उसे न तो ‘फील गुड’ हो रहा था और न ही उसकी नजरों में ‘भारत उदय’ जैसी कोई चीज थी. भाजपा उस वक्त केंद्र की सत्ता से बेदखल हुई तो अब तक वापस आने का रास्ता नहीं तलाश पाई है.

दो दशक पहले भी गुजरात की विकास दर 12-13 फीसदी थी. उस वक्त राष्ट्रीय औसत 7 फीसदी था. लेकिन 2011 में गुजरात की विकास दर 11 फीसदी थी और राष्ट्रीय औसत 10 फीसदी

अगर सरकारी दस्तावेजों को खंगाला जाए तो पता चलता है कि मानव विकास के तकरीबन सभी मोर्चों पर गुजरात बुरी हालत में है. कुपोषण बढ़ रहा है. आदिवासियों को भरपेट भोजन नहीं मिल रहा है. सरकारी क्षेत्र में रोजगार के अवसर नहीं हैं. सिंचाई की सुविधा से अब भी प्रदेश के लाखों किसान महरूम हैं. लिंग अनुपात दर के मामले में प्रदेश की बुरी हालत है. लेकिन फिर भी भाजपा और नरेंद्र मोदी ‘समृद्ध गुजरात’ का राग लगातार अलाप रहे हैं. तो क्या यह मतलब निकाला जाए कि उनका यह दावा बिल्कुल खोखला है? अगर सरकारी दस्तावेजों को ही देखें और गुजरात के प्रमुख शहरों में जाएं तो पता चलता है कि गुजरात में समृद्धि सड़कों, फ्लाइओवरों, औद्योगिक प्रतिष्ठानों और अन्य इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के मामले में आई है. लंबे समय तक गुजरात में पत्रकारिता करने वाले और अभी गुजरात विश्वविद्यालय के एचके आर्ट्स कॉलेज में अर्थशास्त्र पढ़ाने वाले हेमंत कुमार शाह इस स्थिति को कुछ इस तरह से रखते हैं, ‘विकास को मोटे तौर पर दो हिस्सों में बांट सकते हैं. एक है उद्योग केंद्रित और दूसरा है मानव केंद्रित. जिस तरह का इन्फ्रास्ट्रक्चर मोदी ने गुजरात में विकसित किया है उसे आप पहली श्रेणी में ही रख सकते हैं. यानी सड़कें बनीं, फ्लाइओवर बने और उद्योग स्थापित हुए. लेकिन मानव केंद्रित विकास के पैमानों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, कुपोषण आदि के मोर्चों पर मोदी सरकार नाकाम साबित हुई है. मोदी ने विकास की चकाचौंध पैदा की है.’

जिस चकाचौंध की बात हेमंत कुमार शाह कर रहे हैं उसके नमूने न सिर्फ गुजरात की सड़कें और फ्लाइओवर हैं बल्कि और भी कई हैं. अहमदाबाद से 30 किलोमीटर की दूरी पर नरेंद्र मोदी सरकार, चीन के शंघाई की तर्ज पर बिल्कुल नया शहर बसा रही है. 886 एकड़ में विकसित किए जा रहे इस शहर का नाम गिफ्ट यानी गुजरात इंटरनेशनल फायनेंस टेक सिटी रखा गया है. इसे खास तौर पर कंपनियों को कामकाजी जगह देने के मकसद से विकसित किया जा रहा है. गुजरात सरकार ने यह काम शंघाई के बड़े हिस्से को डिजाइन करने वाले ईस्ट चाइना आर्किटेक्चरल डिजाइन ऐंड रिसर्च इंस्टीट्यूट को दिया है. इस परियोजना को 2017 तक पूरा किया जाना है. अभी यहां दूसरे चरण का काम चल रहा है.

­दूसरी तरफ जब कांग्रेस पार्टी यह घोषणा करती है कि वह सत्ता में आने के बाद गरीब महिलाओं को घर बनाकर देगी तो इसके लिए 38 लाख फॉर्म भरे जाते हैं. यह तथ्य इस बात को रेखांकित करता है कि गुजरात में विकास की आंखों को चुंधियाने वाली चकाचौंध किस तरह से पैदा की गई है.

मोदी अक्सर यह दावा करते हैं कि उन्होंने ‘वाइब्रेंट गुजरात’ निवेशक सम्मेलन के जरिए राज्य में भारी निवेश आकर्षित किया है. स्थिति को समझने के लिए जरूरी है कि सम्मेलन से संबंधित आंकड़ों की पड़ताल की जाए. 2011 में आयोजित इस सम्मेलन में 20.83 लाख करोड़ रुपये के 7,936 सहमति पत्रों पर दस्तखत हुए. लेकिन कई रिपोर्टों में यह बात सामने आई है कि इनमें से कुछ सहमति पत्रों पर ही अमल हो पा रहा है. 2005 के सम्मेलन में यह दावा किया गया कि इसमें 1.06 लाख करोड़ रुपये के निवेश के लिए सहमति बनी है. लेकिन सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी बताती है कि इसमें से सिर्फ 23.52 फीसदी यानी 24,998 करोड़ रुपये का निवेश गुजरात में हो पाया. खुद गुजरात सरकार की सामाजिक और आर्थिक समीक्षा कहती है कि 2003 से लेकर अब तक वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन में जितने निवेश की घोषणा हुई है उनमें से सिर्फ 6.13 फीसदी पर ही क्रियान्वयन हो पाया है. निवेश को लेकर मोदी के बड़े दावों के बावजूद तथ्य यह है कि गुजरात 2011 में विदेशी निवेश आकर्षित करने के मामले में दिल्ली, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश से पीछे रहा.

नरेंद्र मोदी और उनका दल भाजपा गुजरात के विकास के दावे करते हुए नहीं अघाते. अगर विकास दर को विकास का एक अहम पैमाना माना जाए तो दो दशक पहले भी गुजरात की विकास दर 12-13 फीसदी थी. उस वक्त राष्ट्रीय औसत 7 फीसदी था. लेकिन 2011 में गुजरात की विकास दर 11 फीसदी थी और राष्ट्रीय औसत 10 फीसदी. इस लिहाज से अगर देखा जाए तो मोदी सरकार गुजरात की पिछली सरकारों की तुलना में प्रदर्शन के लिहाज से कमजोर साबित हो रही है. आंकड़े यह प्रमाणित करते हैं कि गुजरात में विकास नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में ही नहीं शुरू हुआ बल्कि यह प्रदेश हमेशा से दूसरे राज्यों की तुलना में आगे रहा है. मोरारजी देसाई, चिमनभाई पटेल से लेकर माधव सिंह सोलंकी तक के समय में भी गुजरात की विकास दर अच्छी रही है. आठवीं पंचवर्षीय योजना यानी 1992-97 के दौरान गुजरात की विकास दर 12.9 फीसदी थी. जबकि पिछले पांच साल का औसत निकालें तो यह आंकड़ा 11.2 फीसदी का है.

इससे भी पीछे चलें तो गुजरात में कारोबारी माहौल पिछले कई सौ सालों से रहा है. 1498 में वास्कोडिगामा को भारत का रास्ता बताने का काम भी एक गुजराती कांजी मालम ने ही किया था. मालम कच्छ के रहने वाले थे और कपास व नील का कारोबार समुद्र के रास्ते से करते थे. उस वक्त तक गुजरात के कारोबारियों ने मलेशिया और इंडोनेशिया के साथ कारोबार करना शुरू कर दिया था. बाद में गुजरात एक ऐसे केंद्र के तौर पर विकसित हुआ जहां से अफ्रीका, अरब और अन्य देशों से आने वाले सामानों को भारत के अन्य हिस्सों में पहुंचाया जाता था.

मोदी सरकार पर एक आरोप यह भी लगता है कि उसने आम लोगों की कीमत पर गुजरात में कॉरपोरेट घरानों को कारोबार बढ़ाने का अवसर दिया. दो बार राज्य के मुख्यमंत्री रहे और गुजरात परिवर्तन पार्टी(जीपीपी) के अध्यक्ष केशुभाई पटेल कहते हैं कि सरकार ने टाटा को नैनो परियोजना के 22,000 करोड़ रुपये निवेश के बदले 33,000 करोड़ रुपये दे दिए हैं. वे कहते हैं, ‘कंपनी को 20 साल तक बिजली आधी कीमत पर दी जा रही है. पानी बिल्कुल मुफ्त दिया जा रहा है. टाटा को कर के तौर पर भुगतान की जाने वाली रकम को 20 साल तक रखने की सुविधा दी गई है. इसके बाद उससे इस पर 0.1 फीसदी का ब्याज लिया जाएगा. इससे सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ रहा है और अंततः आम आदमी को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है.’

कॉरपोरेट जगत को तमाम सुविधाएं देने का ही नतीजा है कि रतन टाटा से लेकर अंबानी बंधुओं तक देश के सभी प्रमुख उद्योगपति मोदी की प्रशंसा करते हुए दिखते हैं. इनमें से ज्यादातर मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर देखना चाहते हैं. कॉरपोरेट वर्ल्ड के चहेते बने मोदी कभी देश के प्रमुख उद्योगपतियों के निशाने पर थे. लेकिन उन्होंने जिस अंदाज में राजनीति की उसी अंदाज में उद्योग जगत के लोगों को भी अपने पाले में किया. साल 2003 की फरवरी में सीआईआई ने नई दिल्ली में नरेंद्र मोदी के अनुरोध पर उनका एक कार्यक्रम रखा था. इसमें कॉरपोरेट जगत की प्रमुख हस्तियां शामिल हुई थीं. 2002 के दंगों के बाद एचडीएफसी के दीपक पारेख, इन्फोसिस के नारायणमूर्ति, विप्रो के अजीम प्रेमजी जैसे लोगों ने मोदी की खुली आलोचना की थी. 2003 के आयोजन में मोदी के साथ मंच पर जमशेद गोदरेज और राहुल बजाज थे. संचालन सीआईआई के प्रमुख तरुण दास कर रहे थे. गोदरेज ने तो सधे शब्दों में मोदी की आलोचना की. लेकिन राहुल बजाज ने मोदी पर सीधा हमला बोला और 2002 को गुजरात पर एक दाग बताया. जब मोदी की बारी आई तो उन्होंने पलट कर बजाज को जवाब दिया कि अगर आप सच जानना चाहते हैं तो आप और आपके छद्म धर्मनिरपेक्ष दोस्त गुजरात आएं और वहां की जनता इसका जवाब देगी. वे यहीं नहीं रुके बल्कि गोदरेज और बजाज से यह भी पूछ डाला कि जो दूसरे लोग गुजरात की छवि खराब करते हैं, उनके निहित स्वार्थ हैं लेकिन आपका क्या स्वार्थ है.

पिछले साल गुजरात में 439 बलात्कार के मामले सामने आए. प्रदेश की 85 फीसदी आदिवासी महिलाएं कुपोषण की शिकार हैं. 18 से 20 साल के आयु वर्ग में हजार लड़कों पर 601 लड़कियां हैं

मोदी ने इस मामले को यहीं खत्म नहीं होने दिया बल्कि सीआईआई में शामिल गुजरात के कारोबारियों को यह समझाया कि गोदरेज, बजाज और सीआईआई ने मोदी का ही अपमान नहीं किया है बल्कि यह गुजरात का अपमान है. इसके बाद अदानी, कैडिला, निरमा समेत गुजरात के प्रमुख 100 औद्योगिक घरानों ने न सिर्फ सीआईआई से अलग होने की धमकी दी बल्कि अपना एक अलग संगठन रिसर्जेंट ग्रुप ऑफ गुजरात भी बना लिया. अब सीआईआई के सामने संकट पैदा हो गया. गुजरात के कारोबारियों के अलग होने का मतलब था कि पश्चिम भारत में सीआईआई खत्म. इधर दिल्ली में मोदी ने यह सुनिश्चित करवाया कि वाजपेयी सरकार के मंत्रियों तक सीआईआई सदस्यों की पहुंच मुश्किल हो जाए. मजबूर होकर सीआईआई को मोदी से लिखित माफी मांगनी पड़ी. इसके तीन महीने बाद सीआईआई ने ज्यूरिख में विश्व आर्थिक मंच के आयोजन के मौके पर मोदी के कहने पर गुजरात के निवेशकों की एक बैठक आयोजित की. जब गोदरेज और बजाज ने मोदी पर हल्ला बोला तो समझा गया कि पारसी कारोबारी मोदी के खिलाफ हैं. क्योंकि पारसी अल्पसंख्यकों में शामिल हैं और यह समुदाय मोदी के साथ सहज नहीं है. अल्पसंख्यक समुदाय के कारोबारियों को अपने पाले में लाने के लिए मोदी ने रतन टाटा से अपने रिश्ते ठीक किए. वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन में उन्हें उस समय के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों सम्मानित करवाया. गुजरात के एक कारोबारी जो कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ने की कोशिश कर रहे हैं, कहते हैं, ‘मोदी को तानाशाह कहा जा सकता है लेकिन लोगों के बीच उनकी अपील है. वे लोगों को प्रेरित करते हैं. वे सीईओ की तरह काम करते हैं. यही वजह है कि कारोबारी वर्ग उन्हें पसंद करता है. वे यह सुनिश्चित करते हैं कि कारोबारियों को कोई दिक्कत न हो.’

कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अर्जुन मोढवाडिया भी केशुभाई पटेल की तरह ही मानते हैं कि मोदी ने कॉरपोरेट जगत को आम लोगों पर तरजीह दी. वे कहते हैं, ‘अगर मोदी सही मायने में आम आदमी के हमदर्द होते तो पिछले दस साल में इतनी बड़ी संख्या में गुजरात में लोग आत्महत्या नहीं करते. पिछले दस साल में प्रदेश के 37,248 लोगों ने आत्महत्या की. इस दौरान देश में हुई कुल आत्महत्या में गुजरात की हिस्सेदारी 4.6 फीसदी रही. इनमें किसानों की संख्या 7,062 है. बेरोजगारी और आर्थिक दिक्कतों की वजह से आत्महत्या करने वालों की संख्या इस दौरान 11,681 रही. क्या इसे ही विकास कहते हैं?’ वे मोदी के विकास के मॉडल पर सवाल उठाते हुए कहते हैं, ‘अगर सही में प्रदेश का विकास हो रहा होता तो गुजरात का कर्ज बढ़ता नहीं जाता. अभी गुजरात पर 1.18 लाख करोड़ रुपये का कर्ज  है. गुजरात में हर बच्चा 19,352 रुपये के कर्ज के बोझ के साथ पैदा होता है. गुजरात पर बढ़ते कर्ज के बोझ की वजह यह है कि सरकार सामाजिक योजनाओं पर पैसे खर्च नहीं कर रही है और सरकारी खजाने का दुरुपयोग कर रही है.’

लंबे समय तक संघ के पदाधिकारी रहे और अभी जीपीपी में समन्वय का काम देख रहे वासुदेव पटेल कहते हैं, ‘युवाओं को रोजगार देने का कोई बंदोबस्त मोदी ने नहीं किया. ज्यादातर क्षेत्रों में काम के लिए नियमित की जगह अस्थाई लोगों की नियुक्तियां हो रही हंै. कई क्षेत्रों में मोदी ने सहायक योजना के तहत लोगों को न्यूनतम मजदूरी से भी कम दर पर सरकारी कार्यों में लगाया है. पटवारी सहायक की नियुक्ति 84 रुपये प्रति दिन पर हुई है. स्कूलों में पढ़ाने के लिए विद्या सहायक की नियुक्ति 123 रुपये प्रति दिन पर हुई है. पुलिस सहायक की नियुक्ति 117 रुपये प्रति दिन पर हुई है. इंजीनियर सहायक की नियुक्ति 150 रुपये प्रति दिन पर हुई है. कॉलेज अध्यापक सहायक की नियुक्ति 233 रुपये प्रति दिन पर हुई है. मिड-डे मील के तहत पहले 225 ग्राम का पैकेट मिलता था. मोदी ने इसे घटाकर 150 ग्राम कर दिया है.’ वे मोदी सरकार पर आगे आरोप लगाते हैं, ‘सरकारी संस्थानों के शुल्क में बढ़ोतरी कर दी गई. भुज मेडिकल कॉलेज अदानी को दे दिया गया. सड़क परियोजनाओं में काफी भ्रष्टाचार है. 40 फीसदी तक पैसा कमीशन के तौर पर जा रहा है. 4.5 लाख किसानों को बिजली का कनेक्शन नहीं मिल पाया है. कल्पसर परियोजना पर कोई प्रगति नहीं हो पाई. इससे सात लाख किसानों को पानी मिल सकता था. बिजली की दिक्कत खत्म हो सकती थी. इस परियोजना की प्राथमिक रिपोर्ट 10 साल पहले तैयार हो गई थी लेकिन उसके बाद इस पर काम ही आगे नहीं बढ़ाया मोदी सरकार ने.’

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण रिपोर्ट बताती है कि अस्थायी ग्रामीण मजदूरों को मजदूरी देने के मामले में देश के 20 बड़े राज्यों में गुजरात 14 वें स्थान पर है. अस्थायी शहरी मजदूरों को मजदूरी देने के मामले में गुजरात सातवें स्थान पर है. स्थायी ग्रामीण मजदूरों और स्थायी शहरी मजदूरों को मजदूरी देने के मामले में गुजरात क्रमशः 17वें और 18वें स्थान पर है. इसका मतलब यह है कि गुजरात में मजदूरों की हालत बुरी है. उनकी आमदनी कम होने की वजह से उनकी क्रय शक्ति कम है. अध्ययन बताते हैं कि ऐसे परिवारों में कुपोषण और अशिक्षा जैसी स्थितियां सामान्य होती हैं.

सरकारी रिपोर्टें बताती हैं कि शिशु मृत्यु दर के मामले में अच्छा प्रदर्शन करने वाले राज्यों में गुजरात सातवें स्थान पर है. अब भी यहां प्रति हजार नवजात बच्चों में से 50 काल के गाल में समा रहे हैं. औसत उम्र के मामले में गुजरात आठवें स्थान पर है. मातृ मृत्यु दर के मामले में भी प्रदेश आठवें स्थान पर है. लिंग अनुपात के मामले में भी गुजरात आठवें स्थान पर है और यहां 1,000 पुरुषों की तुलना में 886 महिलाएं ही हैं. गुजरात के शहरी इलाकों में जहां सबसे अधिक विकास की बात मोदी सरकार करती है, वहां यह औसत घटकर 856 पर पहुंच जाता है. चार साल से कम उम्र के बच्चों के आयु वर्ग में यह औसत घटकर 841 पर पहुंच जाता है. पहली से दसवीं कक्षा के बीच पढ़ाई छोड़ने के मामले में गुजरात का औसत 59.11 फीसदी है. यह 56.81 फीसदी के राष्ट्रीय औसत से थोड़ा ही बुरा है लेकिन इस मामले में 13 राज्यों का प्रदर्शन गुजरात से अच्छा है. घरों में पानी की आपूर्ति के मामले में गुजरात देश के सभी राज्यों में 14 वें स्थान पर है. यहां के 58 फीसदी घरों में ही नल के जरिए पानी पहुंचता है.

किसी समाज की तरक्की का एक अहम पैमाना यह भी होता है कि वहां महिलाओं की स्थिति कैसी है. अगर इस पैमाने पर देखा जाए तो मोदी के गुजरात की तरक्की के दावे खोखले दिखते हैं. इस बारे में लिंगानुपात के ऊपर लिखे आंकड़ों से आगे की कहानी इला पाठक बताती हैं. पाठक गुजरात महिला फेडरेशन की अध्यक्ष हैं और गुजरात विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्ति के बाद से लगातार प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में महिलाओं के बीच काम कर रही हैं. ‘पिछले साल गुजरात में 439 बलात्कार के मामले सामने आए. हालांकि, यह संख्या हरियाणा जैसे राज्य के मुकाबले में कम है लेकिन अगर गुजरात देश का नंबर एक राज्य होने का दावा करता है तो फिर इतने बलात्कार राज्य में नहीं होने चाहिए. प्रदेश की 85 फीसदी आदिवासी महिलाएं कुपोषण की शिकार हैं. मातृ मृत्यु दर 140 से 148 के बीच है. यह चिंता की बात है. बाल विवाह थमने का नाम नहीं ले रहा. 18 से 20 साल के आयु वर्ग में प्रति हजार लड़के पर प्रदेश में सिर्फ 601 लड़कियां हैं.’ वे कहती हैं, ‘प्रदेश में महिलाओं और स्वास्थ्य सेवाओं की बुरी हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हर रोज प्रदेश में 17 महिलाएं मर रही हैं. इनमें से ज्यादातर 13-30 साल आयु वर्ग की हैं. मोदी का विकास महिला केंद्रित नहीं है.’

गुजरात सरकार की रिपोर्ट बताती है कि 2003 से लेकर अब तक वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन में जितने निवेश की घोषणा हुई है उनमें से सिर्फ 6.13 फीसदी परियोजनाओं पर ही क्रियान्वयन हो पाया है

ऐसे में स्वाभाविक तौर पर यह सवाल उठता है कि मानव विकास के मोर्चों पर इतना बुरा प्रदर्शन करने वाली मोदी सरकार क्या यह चुनाव हार रही है? गुजरात के कई विधानसभा चुनाव कवर करने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, ‘आप अगर लोगों से बातचीत करें तो पता चलेगा कि इस प्रदेश के लोग विकास के नशे में हैं. हां, यह सच है कि मोदी ने काम किया है लेकिन यह काम उस तरह का भी नहीं है जिस तरह से दिखाया जा रहा है. कई मोर्चे हैं जिस पर मोदी सरकार ने वाकई बहुत अच्छा काम किया है लेकिन कई मोर्चे ऐसे हैं जहां अभी काफी कुछ करने की जरूरत है.’ वे कहते हैं, ‘जहां तक चुनाव जीतने की बात है तो शायद मोदी इस बार भी आ जाएं लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उनमें सिर्फ अच्छाइयां ही हैं.’

नरेंद्र मोदी के लिए इस बार का चुनाव जीतना उतना आसान नहीं होने जा रहा जितना बताया जा रहा है. इसकी बड़ी वजह कई तरफ से मोदी को मिल रही चुनौती हैं. केशुभाई पटेल अलग पार्टी बनाकर चुनौती दे रहे हैं तो कांग्रेस भी इस बार मुकाबले में खड़ी दिख रही है. वहीं कई ऐसे समूह भी हैं जो मोदी सरकार की नाकामियों को लोगों के सामने लाने का काम कर रहे हैं. जो लोग गुजरात की राजनीति को समझते हैं उनका मानना है कि अगर मोदी को एक बार फिर गांधीनगर में अपनी सरकार बनानी है तो मध्य गुजरात में भाजपा की हालत सुधारनी होगी. लंबे समय से गुजरात में रिपोर्टिंग कर रहे एबीपी न्यूज के ब्यूरो प्रमुख ब्रजेश कुमार सिंह कहते हैं, ‘मध्य गुजरात में पहले 43 सीटें थीं. परिसीमन के बाद 40 सीटें बची हैं. 2002 में भाजपा ने यहां 38 सीटों पर जीत हासिल की थी और कांग्रेस को पांच सीट मिली थीं. लेकिन 2007 में कांग्रेस ने यहां 22 सीटों पर जीत हासिल की और भाजपा को 20 सीटों का नुकसान हुआ और 18 सीटें उसके पास बचीं. दो सीटें एनसीपी और एक सीट निर्दलीय उम्मीदवार के खाते में गई. उत्तरी गुजरात और सौराष्ट में भाजपा के पास अधिकतम सीटें हैं. इसलिए इन क्षेत्रों में इससे आगे बढ़ने की गुंजाइश अब नहीं है. पार्टी ने सूझबूझ नहीं दिखाई तो इन क्षेत्रों में वह नीचे भी जा सकती है लेकिन अगर मध्य गुजरात को मोदी ने ठीक से साध लिया तो फिर उन्हें सरकार बनाने में बहुत दिक्कत नहीं होगी.’ इस बार गुजरात विधानसभा चुनाव नए परिसीमन के आधार पर हो रहा है. 60 से अधिक सीटों के क्षेत्रों में फेरबदल हुआ है.

नरोदा पटिया मामले में पूर्व मंत्री माया कोडनानी को जेल होने से मोदी की सरकार पर एक धब्बा लगा है. इस बारे में गांधीवादी कार्यकर्ता और अहमदाबाद में महिलाओं के बीच काम करने वाली नीता बेन कहती हैं, ‘इससे गुजरात सरकार के बारे में काफी कुछ पता चलता है. लेकिन मोदी इस मामले का भी फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं. वे अब यह कह रहे हैं कि जो भी गलत लोग हैं, मैं उन्हें सजा दिलवा रहा हूं इसलिए मुझे वोट दो. यही कह-कहकर वे अब मुसलमानों का वोट भी अपनी तरफ आकर्षित करना चाह रहे हैं. वे मुसलमानों को 2002 भूलकर आगे बढ़ने की सलाह दे रहे हैं.’

गुजरात में मुसलमानों की आबादी करीब दस फीसदी है और इनके 87 समुदाय हैं. अहमदाबाद, कच्छ और भरूच जैसे इलाकों में मुस्लिम आबादी 16-17 फीसदी है. गुजरात के मुसलमानों में कुछ वर्ग ऐसे भी हैं जो मोदी के पक्ष में मतदान करते हैं. यह ऐसा वर्ग है जो कारोबार में है. इनमें बोहरा, अगाखानी और मेमन प्रमुख हैं. बोहरा मोदी का समर्थन इसलिए भी करते हैं कि उनके नेता सैय्यदना मोहम्मद बुरहानुद्दीन ने हाल ही में मोदी को समर्थन देने की घोषणा की. बाकी के बारे में कहा जाता है कि वे मोदी का विरोध करते हैं. मोदी मुसलमानों को अपनी ओर आकर्षित करना चाहते हैं और इसलिए लगातार उनके आयोजनों में जा रहे हैं. जानकार बताते हैं कि मोदी अपने मिशन प्रधानमंत्री को ध्यान में रखकर यह काम कर रहे हैं. उनकी योजना यह है कि गुजरात चुनाव जीतने के बाद प्रदेश के मुसलमानों को देश के अलग-अलग हिस्सों में भेजकर यह संदेश दिलवाया जाए कि मोदी राज में मुसलमान बेहद सुरक्षित हैं. गुजरात में मोदी को लेकर संघ और विश्व हिंदू परिषद की नाराजगी की एक वजह यह भी है जो मोदी के लिए मुश्किलें पैदा कर रही है.

 ‘मोदी को पता है कि संघ की अहमियत क्या है. वे खुद संघ की डोर पकड़कर ही आगे बढ़े हैं. यही वजह है कि जब गुजरात संघ ने मोदी का विरोध करने और केशुभाई के समर्थन का फैसला किया तो मोदी इसकी शिकायत सरसंघचालक मोहनराव भागवत से करने नागपुर पहुंचे. लेकिन वहां मोदी को यह साफ-साफ कह दिया गया कि राजनीति को छोड़कर अन्य सभी विषयों पर हम लोग बातचीत कर सकते हैं’ संघ के एक पदाधिकारी कहते हैं,, ‘हिंदुओं के हितैषी होने का मोदी का पाखंड लोग समझ चुके हैं. जितने मंदिर मोदी के राज में टूटे उतने पहले कभी नहीं टूटे. मोदी के राज में जिस तरह से गौहत्या बढ़ी उसने साबित किया कि हिंदुत्व के मसलों को लेकर वे कितने गंभीर हैं. गौचर भूमि लेकर उद्योगपतियों को देने का काम सबसे अधिक मोदी ने किया. अब मुसलमानों को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं. मुसलमानों का समर्थन हासिल करने के लिए गौहत्या के खिलाफ कानून के क्रियान्वयन में ढील दे दी गई. गौ-मांस कारोबार में लगे कारोबारियों को मोदी सरकार ने खुली छूट दे दी. इस वजह से अहमदाबाद और पूरे गुजरात में गायों की चोरी बढ़ी.’

संघ के प्रांत प्रचारक रहे लालजी भाई पटेल कहते हैं, ‘नरेंद्र मोदी ने हर जगह से लीडरशीप को खत्म किया. इसके लिए उन्होंने लागवग की पद्धति अपनाई. इसका मतलब यह होता है कि पैसे और पैरवी को आधार बनाकर काम करना. मोदी ने संघ के सभी संगठनों को बर्बाद करने की कोशिश की. संघ के विचारों की बार-बार अवहेलना की. जिस रास्ते बढ़े, उसी रास्ते को बर्बाद करने लगे.’ वे आगे कहते हैं, ‘जितनी गौहत्या नरेंद्र मोदी के समय में गुजरात में हुई उतनी पहले कभी नहीं हुई.’

संघ के पदाधिकारियों के मुताबिक आज गुजरात में जिस संघ और उसके सहयोगी संगठनों की कब्र खोदने का काम मोदी कर रहे हैं, कभी उस संघ की डोर पकड़कर मोदी आज इस ऊंचाई तक पहुंचे हैं. संघ कार्यकर्ता के तौर पर काफी छोटी उम्र से संघ के जिस पदाधिकारी के घर नरेंद्र मोदी का आना-जाना रहा है, वे बताते हैं, ‘संघ में मोदी का उभार बहुत निचले स्तर से हुआ है. बचपन में बाल स्वयंसेवक के तौर पर संघ के साथ जुड़ने वाले मोदी अहमदाबाद में संघ कार्यालय के सामने चाय बेचते थे. संघ की अपनी पृष्ठभूमि और चाय बेचने के क्रम में संघ के कुछ पदाधिकारियों से बने संपर्क के आधार पर मोदी संघ कार्यालय में काम करने लगे. यहां मोदी ने खाना बनाने से लेकर पोंछा लगाने तक का काम भी किया. बाद में उन्होंने संघ के प्रशिक्षण कार्यक्रमों में हिस्सा लिया और तरक्की करते गए. 1987 में संघ ने उन्हें सीधे तौर पर राजनीतिक कार्य में लगाया. उन्हें गुजरात में संगठन मंत्री बनाया गया. यानी संघ और भाजपा के बीच सामंजस्य की जिम्मेदारी मोदी को दी गई.’ वे कहते हैं, ‘1991 में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी की एकता यात्रा के संयोजन की जिम्मेदारी नरेंद्र मोदी को दी गई. यह केंद्र में मोदी की पहली जिम्मेदारी थी. बाद में उन्हें पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़, हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर का प्रभारी बना दिया गया. जब 2001 में भाजपा दो उपचुनाव और स्थानीय निकायों के चुनाव हार गई तो इसके लिए केशुभाई पटेल को जिम्मेदार ठहराकर नरेंद्र मोदी को 7 अक्टूबर, 2001 को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाया गया.’

इस बार के चुनाव में नरेंद्र मोदी को केशुभाई पटेल भी अपनी नई पार्टी जीपीपी के जरिए चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं. उनके साथ मोदी सरकार में गृह मंत्री रहे गोर्धन जडाफिया, राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री सुरेश पटेल, पूर्व केंद्रीय मंत्री एके पटेल भी हैं. इनके अलावा भी जीपीपी में कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने कभी-न-कभी गुजरात की राजनीति में अहम भूमिका निभाई है. लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या गुजरात की जनता 84 साल के केशुभाई पटेल में भरोसा दिखाकर उनकी पार्टी को वोट देगी. पीटीआई के लिए अहमदाबाद में काम कर रहे संजीव पांडेय कहते हैं, ‘पटेलों के बीच केशुभाई का प्रभाव तो है लेकिन यह वोट में कितना तब्दील होगा, यह कहना अभी मुश्किल है. गुजरात में भाजपा के उभार के लिए केशुभाई को जिम्मेदार माना जाता है और उनके समय में पटेल बहुल सीटों में से अधिकांश पर भाजपा जीती है. लेकिन भाजपा से अलग होने के बाद पटेल कितना उनके साथ रहते हैं, यह देखना अभी बाकी है.’ ब्रजेश कुमार सिंह कहते हैं, ‘गुजरात में पटेल दो हिस्सों में बंटे हुए हैं. लहुआ और करुआ. इनमें से लहुआ प्रभावी हैं और इनके बीच केशुभाई का प्रभाव है. लेकिन अब तक यह देखा गया है कि ये उसे ही वोट देते हैं जो जीत रहा होता है. ऐसे में कहना मुश्किल है कि ये केशुभाई के उम्मीदवारों के लिए ही वोट करेंगे. क्योंकि ऐसी कम सीटें होंगी जहां इन्हें लगेगा कि केशुभाई के उम्मीदवार जीत हासिल कर सकते हैं.’

‘केशुभाई की जनसभाओं में काफी भीड़ उमड़ रही है. अहमदाबाद की सभा में डेढ़ लाख से अधिक लोग थे. सूरत और राजकोट की सभा में भी बड़ी संख्या में लोग आए थे. गांवों में भी उनकी काफी स्वीकृति है. युवाओं की अच्छी-खासी संख्या भी उनकी सभाओं में आ रही है. युवाओं के आकर्षण का एक बड़ा कारण यह भी है कि जीपीपी ने बड़ी संख्या में युवाओं को टिकट दिए हैं’ वासुदेव पटेल दावा करते हैं, ‘भाजपा और कांग्रेस केशुभाई के बारे में कुछ नहीं बोल रही हैं. उन्हें पता है कि अगर वे एक शब्द भी केशुभाई के खिलाफ बोलेंगे तो गुजरात के लोग एक तरफ होकर केशुभाई के लिए वोट करेंगे. क्योंकि लोगों में केशुभाई की काफी प्रतिष्ठा है. उन्होंने प्रदेश के आम लोगों के लिए काफी काम किया है.’

गुजरात की राजनीति को जानने-समझने वाले लोग यह मानते हैं कि कई चुनावों के बाद इस बार कांग्रेस भी गंभीर दिख रही है और उसे लग रहा है कि वह मोदी को सत्ता से बेदखल कर सकती है. अगर इस बार भी भाजपा गुजरात में जीतती है तो यह प्रदेश विधानसभा में भाजपा की लगातार पांचवी जीत होगी. गुजरात कुछ वैसा ही बन गया है जैसा वाम दलों के लिए कभी पश्चिम बंगाल बन गया था. प्रदेश में ऐसी 58 सीटें हैं जिन्हें भाजपा लगातार चार बार से जीत रही है. कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती इसी किले में सेंध लगाने की है. हेमंत कुमार शाह कहते हैं, ‘कांग्रेस इस बार जोर लगा रही है. उसे भी यह महसूस हो रहा है कि कुछ समय पहले तक मोदी के खिलाफ एक शब्द भी सुनने को तैयार नहीं रहने वाले लोग आज मोदी के खिलाफ बात कर रहे हैं और मोदी का मजाक उड़ा रहे हैं. इसलिए अगर जोर लगाया जाए तो बात बन सकती है.’ वे कहते हैं, ‘कांग्रेस इतनी सीटें तो नहीं ला पाएगी कि वह सरकार बना पाए लेकिन कांग्रेस और जीपीपी मोदी को बहुमत से पहले रोक सकते हैं. मुझे लगता है कि गुजरात विधानसभा चुनाव त्रिकोणीय संघर्ष की ओर बढ़ रहा है और किसी को बहुमत नहीं मिलने वाला है.’ हालांकि, अर्जुन मोढवाडिया यह दावा करते हैं कि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनेगी. लेकिन जानकारों के मुताबिक खुद कांग्रेस ने जो आंतरिक सर्वेक्षण करवाया है उसमें प्रदेश में कांग्रेस को 182 में से 57 सीटें मिलने की उम्मीद जताई गई है.

कांग्रेस दो मामलों में कमजोर दिख रही है. पहली बात तो यह कि मोदी सरकार की नाकामियों को वह सही ढंग से नहीं उठा पा रही है और दूसरा टिकट बंटवारे को लेकर कांग्रेस में बगावत का माहौल हकांग्रेस दो मामलों में कमजोर दिख रही है. पहली बात तो यह कि मोदी सरकार की नाकामियों को वह सही ढंग से नहीं उठा पा रही है और दूसरा टिकट बंटवारे को लेकर कांग्रेस में बगावत का माहौल है. इस बारे में कांग्रेस के प्रदेश प्रवक्ता मनीष दोषी कहते हैं, ‘कांग्रेस मोदी की आक्रामकता के सामने लोकतांत्रिक मूल्यों को मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही है. मोदी प्रचार पर अनाप-शनाप पैसा खर्च कर रहे हैं. हम ऐसा नहीं करना चाहते. हम गांव-गांव और छोटी जगहों पर जाकर छोटी सभाओं के जरिए लोगों को समझा रहे हैं कि मोदी ने किस तरह से लोगों को ठगने का काम किया है.’ वे कहते हैं, ‘हम जनता के बीच लगातार काम कर रहे हैं. कांग्रेस ने कई यात्राएं निकाली हैं. हिसाब दो, जवाब दो यात्रा के जरिए भाजपा सरकार से हिसाब मांगा गया. सरदार संदेश यात्रा के जरिए कांग्रेस ने खुद को सरदार वल्लभ भाई पटेल से जोड़ने की कोशिश की. आदिवासी अधिकार यात्रा से आदिवासियों के अधिकारों के मसले को उठाया. किनारो बचाओ यात्रा के जरिए मछली पालन करने वालों के मुद्दों को कांग्रेस ने उठाया.’

टिकट बंटवारे को लेकर उपजे असंतोष के बारे में अर्जुन मोडवाडिया कहते हैं, ‘हमारे पास हर सीट पर एक से ज्यादा अच्छे उम्मीदवार हैं. इसलिए संघर्ष स्वाभाविक है. लेकिन यह कुछ दिनों की बात है. सब मिलकर लड़ेंगे और चुनाव जीतेंेगे.’ कई संभावित उम्मीदवारों और उनके समर्थकों द्वारा प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में घुसकर प्रदेश के प्रमुख कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ मुर्दाबाद के नारे लगाने को मनीष दोषी आंतरिक लोकतंत्र का प्रकटीकरण बताते हैं. वे कहते हैं, ‘आपसे जब मैं बातचीत कर रहा था उसी वक्त बारी-बारी से दो असंतुष्ट नेता अपने समर्थकों के साथ नारेबाजी करते हुए आए. लेकिन आपने देखा कि मैंने उन्हें समझाया. चाय-नाश्ता कराके विदा कर दिया. कांग्रेस में हर किसी की बात सुनी जाती है और इससे पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र का पता चलता है. इससे पार्टी की चुनावी संभावनाओं पर कोई बुरा असर नहीं पड़ेगा.’

लेकिन प्रदेश के भावनगर जिले की बोटाद सीट से टिकट मांग रहे मनहर पटेल मानते हैं कि इससे प्रदेश में कांग्रेस की संभावनाओं पर बुरा असर पड़ेगा. वे कहते हैं, ‘पहले चरण में जिन 58 सीटों पर चुनाव होना है उनमें से 15 सीटों पर असंतुष्ट हैं. इनमें जूनागढ़, लिमड़ी, पालितामा, सुरेंद्र नगर खास, दोराजी, केशोड़, तलाला, जामखमारिया प्रमुख हैं. कांग्रेस ने अगर इस पर ध्यान नहीं दिया तो सीटें बढ़ने के बजाय घट सकती हैं और इसका फायदा केशुभाई को मिल सकता है.’ वे कहते हैं, ‘मैं पिछले तीन चुनावों से टिकट मांग रहा हूं. लेकिन मेरी सीट पर राजकोट के सांसद कुंवरजी बावलिया को टिकट दे दिया गया. वे कोली हैं जबकि यहां से अक्सर पटेल ही जीतता है. फिर भी कांग्रेस ने मुझे टिकट नहीं दिया. ऐसे समीकरणों को दरकिनार करके कांग्रेस ने कई सीटों पर टिकट बांटे हैं.’

मानव विकास के मामले में नाकामी, केशुभाई की चुनौती, संघ व सहयोगी संगठनों की नाराजगी और कांग्रेस के पूरा जोर लगाने के बावजूद अगर मोदी पूरी तरह से जीत जाते हैं तो फिर इसका क्या मतलब निकाला जाए? क्या यह कि मोदी के विकास के मॉडल को ही गुजरात की जनता पसंद करती है? या फिर मानव विकास का चुनावी राजनीति में कोई महत्व नहीं है? इस बारे में हेमंत कुमार शाह कहते हैं, ‘अगर मोदी फिर से जीतकर आ जाते हैं तो इसका मतलब यह निकला जाना चाहिए कि मोदी ने जिस तरह से विकास की चकाचौंध पैदा की है उससे यहां के लोगों की आंखें चुंधिया गई हैं. लोग मोदी के मायाजाल में फंस गए हैं.’ इस बारे में इला पाठक कहती हैं, ‘मैं गुजरात विरोधी करार दिए जाने के जोखिम के बावजूद यह कहना चाहूंगी कि यहां के लोग हल्की बातों को पसंद करते हैं. मोदी ने जब शशि थरूर की पत्नी के बारे में बयान दिया तो यहां के लोगों ने उसे खूब पसंद किया. जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए था. वहीं यहां के लोग ऐसे व्यक्ति को पसंद करते हैं जो उनके अंदर सुरक्षा का भाव पैदा करे. गुजरात के कारोबारी वर्ग को लगता है कि मोदी रहेंगे तो वे सुरक्षित रहेंगे. इसलिए संभव है कि वे इस बार भी जीत जाएं लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं निकाला जाना चाहिए कि वे विकास पुरुष हैं या उनके राज में गुजरात काफी तरक्की कर रहा है.’   

प्रचार का मोदी स्टाइल
नरेंद्र मोदी के जनसंपर्क का काम अमेरिकी एजेंसी एप्को वर्ल्डवाइड करती है. वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन को सफलतापूर्वक कराने की वजह से इसे अब तक दो अंतरराष्ट्रीय अवार्ड मिल चुके हैं. इस एजेंसी ने मोदी को विकास पुरुष के तौर पर स्थापित करने के लिए जरूरी सारे कदम उठाए. इसी अमेरिकी कंपनी ने बराका ओबामा के पहले चुनाव में उनके प्रचार का काम संभाला था. इसके अलावा और भी दुनिया के कई नेताओं के चुनाव प्रचार का काम यह संभाल चुकी है. चुनाव प्रचार के मामले में मोदी को हाईटेक बनाने के पीछे भी इसी एजेंसी की भूमिका बताई जाती है. 3-डी चुनाव प्रचार का आइडिया भी इसी एजेंसी का था. गूगल प्लस से लेकर तमाम सोशल नेटवर्किंग साइटों पर मोदी को मजबूती देने की रणनीति भी इसी एजेंसी के रणनीतिकारों के दिमाग की उपज मानी जा रही है. हालांकि, इस बार मोदी का 3-डी प्रयोग सफल नहीं रहा है. गूगल प्लस पर अजय देवगन के साथ चैट-शो के दौरान भी कई तकनीकी दिक्कतों का सामना करना पड़ा था.

गुजरात चुनाव कवर करने वाले कई स्थानीय पत्रकार बताते हैं कि मोदी के इस बार के प्रयोगों को लेकर जनता में उतना उत्साह नहीं है. वे यह भी बताते हैं कि 2007 में मोदी का मुखौटे का प्रयोग बेहद सफल रहा था. उस वक्त भाजपा के उम्मीदवार भी मोदी मुखौटा पहनकर ही चुनाव प्रचार करते थे. इसके जरिए मोदी ने संदेश दिया था कि चुनाव कोई उम्मीदवार नहीं बल्कि खुद वे लड़ रहे हैं. इसका परिणाम अच्छे चुनावी नतीजों के रूप में सामने आया था. कुछ लोग यह मानते हैं कि प्रचार के नए-नए तरीके तलाशना मोदी की मजबूरी है क्योंकि मुख्यधारा का मीडिया दंगों के बाद से लगातार उनके खिलाफ हमलावर रहा है इसलिए अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए उन्हें नए तौर-तरीकों की जरूरत रही है. मुखौटे जैसे सफल प्रयोग मोदी ने किए भी हैं. भले ही इस बार 3-डी और गूगल प्लस का मोदी का प्रयोग उतना सफल नहीं हुआ हो लेकिन इसी बहाने मोदी दो-तीन दिन तक क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मीडिया में छाए रहे. मोदी के इन प्रयोगों को भले ही अपेक्षित सफलता नहीं मिली हो लेकिन नमो टीवी को औसत सफलता जरूर मिली है. इसे गुजरात के लोग भी देख रहे हैं और खास तौर पर गुजरात के बाहर और देश के बाहर रहने वाले लोग इसके जरिए मोदी के भाषणों को सुन पा रहे हैं.

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‘मोदी ईमानदार हैं तो लोकायुक्त की नियुक्ति क्यों नहीं कर रहे’

आप गुजरात के पुराने नेता हैं, लेकिन आपकी पार्टी की उम्र चार महीने से थोड़ी ही अधिक है. ऐसे में यह 11 साल से सत्ता में जमे नरेंद्र मोदी को कितनी चुनौती दे पाएगी?
बतौर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के पास अब आखिरी के कुछ दिन बचे हैं. अभी वे लंबे-चौड़े दावे कर रहे हैं लेकिन 20 दिसंबर को उन्हें और उनके पक्ष में अभियान चलाने वाले सभी लोगों को पता चल जाएगा कि गुजरात पर राज करने के उनके दिन अब गए. मैं अपने लंबे राजनीतिक अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि भाजपा यह चुनाव हार रही है और नरेंद्र मोदी अब गुजरात के मुख्यमंत्री नहीं रहेंगे.
लेकिन सारे चुनाव सर्वेक्षणों और आम लोगों से हो रही बातचीत के आधार पर तो यही लग रहा है कि नरेंद्र मोदी एक बार फिर जीतने वाले हैं.
चुनाव सर्वेक्षण के नतीजे कैसे तय किए जाते हैं, यह हम जैसे राजनीतिक व्यक्ति को भी पता है और मीडिया में काम करने वाले आप जैसे लोगों को भी. इस पर मैं ज्यादा विस्तार से नहीं बोलूंगा. लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि इस तरह के सर्वेक्षण से गुजरात की जनता गुमराह नहीं होने वाली है. रही बात आम लोगों की तो उनमें मोदी सरकार को लेकर काफी गुस्सा है. आज हर तरफ सवाल उठ रहे हैं. अगर इतना ही भाजपा और मोदी को समर्थन मिल रहा होता तो भाजपा की रैलियों में इतनी कम संख्या क्यों दिख रही है.

तो आपके हिसाब से इस बार गुजरात चुनाव के नतीजे चौंकाने वाले होंगे?
निश्चित तौर पर. हम लोग पूरे प्रदेश में घूम रहे हैं और लोगों में गुस्सा साफ तौर पर देख रहे हैं. प्रदेश में ऐसे मतदाताओं की बड़ी संख्या है जो मोदी से मुक्ति तो चाहते थे लेकिन कांग्रेस के पाले में भी नहीं जाना चाहते थे. अब उनके पास गुजरात परिवर्तन पार्टी का विकल्प है. इसलिए नतीजे चौंकाने वाले होंगे.

लेकिन लोग तो यह मानते हैं कि मोदी ने प्रदेश का काफी विकास किया है. फिर वे आपको क्यों वोट देंगे?
मोदी को मैं बहुत लंबे समय से जानता हूं. वे किसी भी चीज को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने में माहिर हैं. उन्होंने अपने कार्यों का प्रचार अपने ढंग से कराने के मकसद से सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च किए हैं. इसलिए हर तरफ यह कहा जाता है कि मोदी ने काफी विकास किया है. लेकिन अगर आप बड़े शहरों से निकलकर आदिवासी और ग्रामीण इलाकों में जाएं तो हकीकत का आपको अहसास हो जाएगा. आदिवासी इलाकों में कुपोषण आज भी एक बहुत बड़ी समस्या है. किसी ने अध्ययन करके बताया है कि इस वजह से उन इलाकों के लोगों की औसत आयु दस साल घट गई है. दरअसल, मोदी ने आम आदमी की कीमत पर औद्योगिक विकास किया है. इसका फायदा बड़े कॉरपोरेट घरानों को मिला है. छोटे व्यापारी भी परेशान हैं. छोटे व्यापारियों से इस चुनाव में धनदान के नाम पर 550 करोड़ रुपये की वसूली भाजपा ने की है.

नरेंद्र मोदी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने गुजरात को भ्रष्टाचार मुक्त प्रदेश बनाया है. तो फिर जनता उन्हें ही क्यों न एक बार फिर प्रदेश की बागडोर सौंपे?
मैंने आपको बताया कि ये सब बातें नरेंद्र मोदी के कुशल प्रचार प्रबंधन की वजह से की जाती हैं. मोदी के राज में भ्रष्टाचार घटने के बजाय बढ़ा है. जिस सीएजी की रिपोर्ट पर भाजपा संसद नहीं चलने देती और केंद्रीय मंत्रियों के इस्तीफे की मांग करती है उसी सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि गुजरात में 46,000 करोड़ रुपये की गड़बड़ी हुई. नरेंद्र मोदी ने बड़ी चतुराई से इस रिपोर्ट को आखिरी विधानसभा सत्र के अंतिम दिन सदन के पटल पर रखा. उन्हें पता था कि विधानसभा अब मिलने वाली नहीं इसलिए उन्होंने ऐसा किया. इस मसले पर मोदी सफाई क्यों नहीं दे रहे हैं? अगर मोदी और उनकी सरकार इतनी ही ईमानदार होती तो पिछले नौ साल से गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति क्यों नहीं हुई. जब मैं मुख्यमंत्री था तो लोकायुक्त के पास मेरे खिलाफ शिकायत गई थी जो जांच के बाद बेबुनियाद निकली. लेकिन मोदी में तो जांच का सामना करने की भी हिम्मत नहीं, इसलिए वे लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं कर रहे.

भाजपा के नेता ऑफ द रिकॉर्ड यह कहते हैं कि केशुभाई अपनी पार्टी को तो जीता नहीं पाएंगे लेकिन कुछ सीटों पर भाजपा का खेल खराब कर देंगे. तो क्या आप जीतने के लिए नहीं खेल बिगाड़ने के लिए मैदान में हैं?
नहीं, ऐसा नहीं है. हम जीतने के लिए चुनाव में उतरे हैं. भाजपा के जो नेता यह कह रहे हैं कि गुजरात परिवर्तन पार्टी सीटें नहीं जीतेगी, वे जमीनी हकीकत से अनजान हैं. जब रेलगाड़ी चलती है तो फिर यह नहीं देखती कि पटरी पर कौन है. वह चलती ही जाती है.

क्या चुनाव के बाद कांग्रेस से किसी तरह के तालमेल की कोई संभावना है?
नहीं. गुजरात परिवर्तन पार्टी खुद अपने बूते बहुमत हासिल करेगी.

यह सिर्फ दावा है या फिर जमीनी हकीकत से इसका कोई मेल है?
मैंने आपको पहले ही बताया कि आखिर क्यों गुजरात के लोग मोदी से नाराज हैं. हमने जहां-जहां सभा की वहां भारी संख्या में लोग आए. अहमदाबाद की सभा में डेढ़ लाख से अधिक लोग आए. ये लोग सिर्फ आ नहीं रहे बल्कि हमें वोट भी देंगे.

चमक के पीछे

किसी फिल्मस्टार से किसी रिपोर्टर की मुलाकात कैसे होगी, इसके कई तरीके हैं. हर तरीका इस पर निर्भर करता है कि वह स्टार कामयाबी की कौन-सी सीढ़ी तक पहुंच गया है. जैसे अगर वह नया है तो पूरी संभावना है कि वह अपना फोन खुद ही उठाए. अगर वह महत्वाकांक्षी है तो फोन उसका कोई एजेंट उठाएगा जो अक्सर यह दिखाने की कोशिश करता है कि सर या मैडम के पास इतना काम है कि उन्हें फोन उठाने की फुर्सत नहीं. होशियार स्टारों के पास पब्लिसिस्ट होते हैं जो आपको बातचीत के लिए न्योता देते हैं. यह अलग बात है कि उनकी इस बातचीत में ज्यादातर वही बातें होती हैं जो उनके लिए उस समय के हिसाब से जरूरी और प्रासंगिक होती हैं. और इनके इतर एक वर्ग ऐसा होता है जो मिलने के लिए आने का हुक्म देता है.

करीना कपूर से तहलका की पहली मुलाकात दो साल पहले हुई थी. गोलमाल रिटर्न्स नाम की फिल्म के सेट पर हुई इस मुलाकात के वक्त करीना इंडस्ट्री की सबसे बड़ी हीरोइनों में शुमार थीं. हमें एसएमएस मिला था जिसमें हमसे हैदराबाद आने को कहा गया था. तब से लेकर अब तक काफी कुछ बदल चुका है. करीना दर्जन भर और फिल्मों में अभिनय कर चुकी हैं. इनमें से तीन थ्री इडियट्स, बॉडीगार्ड और रा वन दशक की सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्में थीं. दो साल पहले की तुलना में आज वे दोगुने ब्रांड्स के विज्ञापन कर रही हैं. बॉलीवुड में सबसे ज्यादा मेहनताना वसूलने वाली यह हीरोइन तब से लेकर अब तक सभी बड़े खान सितारों के साथ एक बार और काम कर चुकी है. उनमें से एक के साथ तो करीना की शादी भी हो चुकी है.

कई साल पहले सिमी ग्रेवाल के एक टीवी शो में फिल्मकार करण जौहर ने उस घटना का जिक्र किया था जब उन्हें पहली बार करीना के स्टार होने का अहसास हुआ था. जौहर की फिल्म कभी खुशी कभी गम की शूटिंग का एक दृश्य था जिसमें करीना शाहरुख खान का परिचय हृतिक रोशन से करवा रही हैं. यह करीब 12 साल पहले की बात है. स्क्रीन पर दोनों बड़े स्टार थे और उनके साथ करीना. मगर सिमी ग्रेवाल के उस शो में कहे गए जौहर के शब्दों पर यकीन करें तो बाजी करीना मार ले गईं. इस सीन को मॉनीटर पर देख रहे जौहर का कहना था, ‘वे इंडस्ट्री के सबसे बड़े सितारों में से दो के साथ खड़ी थीं और हाल यह था कि मैं उन पर से अपनी नजरें नहीं हटा पा रहा था.’

‘जिसे लोग मेरा अतिआत्मविश्वास समझते हैं, वह मेरे लिए बचाव की रणनीति है. मुझे मालूम था कि मेरे पास सफल होने के अलावा और कोई विकल्प है ही नहीं’

सबका ध्यान खींचने की उनकी यही खासियत मधुर भंडारकर द्वारा निर्देशित उनकी पिछली फिल्म हीरोइन में भी दिखाई दी. समीक्षकों ने फिल्म की भले ही आलोचना की हो मगर ढलान के दौर और एक मानसिक बीमारी से गुजर रही माही अरोड़ा के चरित्र को जिस खूबसूरती से करीना ने पर्दे पर निभाया उसके लिए उनकी खूब तारीफ हुई.

करीना से हमारी पिछली मुलाकात बड़ी दौड़भाग के बीच हुई थी. शूटिंग शेड्यूल काफी व्यस्त था और हर तीन-चार टेक के बाद करीना को कपड़े बदलने पड़ रहे थे. इस दौरान वे लगातार सेल फोन पर आ रहे संदेशों का जवाब दे रही थीं. इस बार की मुलाकात में ऐसी कोई हड़बड़ी नहीं है. 32 वर्षीया करीना शांत हैं. उनके चेहरे की चमक पहले से बढ़ी हुई लग रही है. वे हंसते हुए कहती हैं, ‘इन दिनों पत्रकार, एक्टर, प्रोड्यूसर, फैन सबको चिंता है कि शादी के बाद मेरे करियर का क्या होगा. मैं इस घर में पांच साल से रह रही हूं और इंडस्ट्री में शायद मैं इकलौती एक्टर हूं जिसने कभी यह छिपाने की कोशिश नहीं की कि मैं यहां अपने पार्टनर के साथ लिव इन में रह रही हूं.’

करीना के साथ बात करने में एक समस्या यह भी है. अपने स्टारडम को लेकर वे इतनी सहज हैं कि यकीन नहीं होता. उन्हें पता है कि हर कोई उनसे यानी एक स्टार के साथ बात करने की इच्छा इसलिए रखता है ताकि वह उनके बारे में कुछ जान सके. इसीलिए एक स्टार के पीछे छिपी करीना नाम की महिला से बात करना बहुत मुश्किल हो जाता है. दूसरे फिल्म स्टारों के उलट उनमें इस बात को लेकर कोई ओढ़ी हुई नम्रता नहीं दिखती कि नियति ने उन्हें चुना. वे उस परिवार से आती हैं जो भारतीय सिनेमा की पिछली एक सदी के आठ दशक के दौरान मजबूती से अपनी मौजूदगी दर्ज कराता रहा है. अपने इसी इतिहास में वे एलान के साथ अपना एक अध्याय रच रही हैं.’जब से होश संभाला तब से मैं बस यही चाहती रही कि हिंदी फिल्म की हीरोइन बनूं’, शब्दों पर जोर देते हुए करीना कहती हैं, ‘मैं भी वह सब रोमांस और रोना-धोना करना चाहती थी. मैं कोई दिखावा नहीं कर रही. मैं ऐसी ही हूं.’

एक पल के लिए इस बात के संदर्भ में करीना को देखा जाए तो समझ में आ जाता है कि जब उन्हें घमंडी करार दिया जाता है तो उन्हें हैरानी क्यों होती है. वे खुद को स्मार्ट नहीं दिखाना चाहतीं लेकिन अपने बारे में इस तरह बात करना उनकी शख्सियत का ही हिस्सा है. फिल्म पत्रकार इंदु मिरानी को याद है कि कैसे कई साल पहले एक बार उनकी मुलाकात 15 साल की करीना से हुई थी जो अपनी बड़ी बहन करिश्मा के साथ एक फिल्म के सेट पर आई थी. करीना ने मिरानी से कहा था कि वे उस दिन का इंतजार कर रही हैं जब मिरानी उनका इंटरव्यू लेंगी.  करीना बताती हैं, ‘स्टार बनने से पहले मैं पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करती थी, मगर तब भी हर कोई मुझे पहचान लेता था. लोगों को पता चल जाता था कि मैं कपूर खानदान से हूं, करिश्मा मेरी बड़ी बहन है.’ उनमें यह अपील कहां से आती है, यह पूछने पर वे कहती हैं, ‘मेरी खूबसूरती, मेरा स्टार होना और मेरा काम, इससे ही मेरी अपील बनती है. न कि इससे कि मेरी शादी किसके साथ हुई है या फिर मैं कितने साल की हूं.’ देव से लेकर टशन तक इतनी अलग-अलग तरह की फिल्में वे कैसे चुनती हैं, इस सवाल पर करीना टशन के बॉक्स ऑफिस पर प्रदर्शन के आंकड़ों और साइज जीरो को लेकर हुई दीवानगी का जिक्र करने लगती हैं. और सैफ के साथ अपनी पहली मुलाकात का भी.

इन किस्सों, अपने बढ़िया काम, बॉक्स ऑफिस के आंकड़ों और विज्ञापनों का जिक्र धीरे-धीरे असली करीना की झलक देने लगता है. फिल्म उद्योग में अपने शुरुआती दिनों में ही करीना ने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘यह जगह बहुत खूबसूरत है. लेकिन यह बर्दाश्त के बाहर भी हो सकती है. कभी-कभी मैं खुद को 50 साल की महसूस करती हूं.’ अपनी बहन करिश्मा की तरह करीना भी मानती हैं कि उनके करियर में सबसे बड़ी बाधा अपेक्षाओं का वह बोझ ही रहा है जो कपूर खानदान का कोई सदस्य अपने साथ लेकर चलता है. हालांकि अपनी बेटियों को अभिनय के क्षेत्र में जाने के लिए उनकी मां बबीता को बगावती रुख अख्तियार करना पड़ा, फिर भी करीना मानती हैं कि अगर वे किसी छोटे कस्बे से आई लड़की होतीं तो उनके लिए लड़ाई बनिस्बत आसान ही होती. वे कहती हैं, ‘उन लोगों के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है जो चुनौतियों का सामना करते हुए ऊपर आए हैं. लेकिन जिसे लोग मेरा अतिआत्मविश्वास समझते हैं वह मेरे लिए दरअसल बचाव की रणनीति है. मुझे हमेशा से मालूम था कि मेरे पास सफल होने के अलावा और कोई विकल्प है ही नहीं.’

करीना की पहली फिल्म रिफ्यूजी को समीक्षकों ने काफी सराहा था. इसके बाद करीना को इस फिल्म जैसी ही भूमिकाओं के प्रस्ताव आने लगे. वे बताती हैं, ‘वह एक अलग वक्त था. मेरी कोशिश थी कि जितनी तरह के हो सके, अलग-अलग एक्टरों और निर्देशकों के साथ काम करूं. मुझे जितना हो सके, दिखते रहना था. आंकड़े जरूरी थे.’ आज भले ही वे दावा करें कि वे साल में एक फिल्म करके ही संतुष्ट हैं, लेकिन उन्हें फिर भी चिंता होती है कि जितनी विविधता भरी भूमिकाएं हॉलीवुड में किसी ए ग्रेड हीरोइन को मिलती हैं वैसी भूमिकाएं मुंबई फिल्म उद्योग उन्हें नहीं दे पाएगा. वे कहती हैं, ‘क्या आप कल्पना कर सकती हैं कि लॉस एंजल्स में कोई इसकी चर्चा करता होगा कि एंजेलीना के छह बच्चे हैं तो इसका उसकी फिल्म पर क्या असर पड़ेगा? हमारी इंडस्ट्री इतने पुराने दौर में जी रही है. हम आज भी अपनी हीरोइनों को 16 साल की और 20 इंच कमर वाली बनाए रखना चाहते हैं.’

करीना यह भी मानती हैं कि कोई भी अभिनेत्री स्क्रिप्ट देखकर शाहरुख या सलमान खान के साथ फिल्म साइन नहीं करती. वह सिर्फ एक स्टार के साथ काम करने के लिए ऐसा करती है. यानी यह एक फॉर्मूला है. लेकिन उनकी हालिया फिल्म हीरोइन भी क्या रटे-रटाए फॉर्मूलों पर आधारित नहीं थी, यह पूछने पर वे कहती हैं, ‘मैं मधुर के साथ काम करना चाहती थी. और इसमें फैशन जैसा कोई खुलासा नहीं हो रहा था. हीरोइन एक निजी कहानी थी और मैं भी एक फिल्म चाहती थी जिसमें मेरे लिए कुछ सीन और तीन गानों से ज्यादा कुछ हो.’

हीरोइन में करीना का चरित्र एक बार फैसला करता है कि वह छोटे बजट की एक फिल्म में वेश्या की भूमिका करके अपने बारे में इंडस्ट्री की धारणा बदल देगा. अभिनय को लेकर अपने आम तरीके से अलग रुख अपनाते हुए माही अरोड़ा एक दोस्त के साथ एक कोठे पर जाती है और एक वेश्या के साथ वक्त बिताती है. 2004 में करीना ने भी अपनी छवि तोड़ने का फैसला लिया था. वे चाहती थीं कि चुलबुली हीरोइन के इतर उन्हें एक गंभीर अभिनेत्री भी समझा जाए. सुधीर मिश्रा की फिल्म चमेली में उन्होंने एक वेश्या का किरदार निभाया. फिल्म रिलीज हुई तो करीना की इस भूमिका की काफी तारीफ हुई. तो क्या उन्होंने इस रोल के लिए भी वैसी ही तैयारी की थी जैसी उनका चरित्र हीरोइन में करता है? नहीं. दरअसल अभिनय का उनका तरीका अलग है. वे कहती हैं, ‘मुझे पता नहीं होता कि कल मैं कौन-सा सीन  करने जा रही हूं और ऐसा ही मुझे पसंद भी है. मेरे लिए अभिनय का मतलब है उस क्षण विशेष पर मेरी प्रतिक्रिया. मुझे वह भाव कल फिल्म के सेट पर महसूस करना है, मैं उसे अभी क्यों महसूस करूं? एक मृत व्यक्ति का अभिनय करने के लिए मुझे सच में मरने की क्या जरूरत है?’ चमेली में उनके साथ रहे अभिनेता राहुल बोस भी मानते हैं कि करीना मेथॉडिकल एक्टिंग में यकीन नहीं रखतीं और इसकी भरपाई वे अपनी सहज समझ से कर देती हैं. बोस कहते हैं, ‘वैसे तो सारे अभिनय को ही एक प्रतिक्रिया कहा जा सकता है, लेकिन करीना में एक सहज ज्ञान और बहाव है.’  करीना को लगता है कि कैमरा ही सिर्फ अकेला जरिया है जो उनकी आत्मा में झांक सकता है. वे कहती हैं, ‘जिस क्षण कैमरा रोल होना शुरू होता है वही मेरे लिए दिन का सबसे ईमानदार लम्हा होता है.’

‘मेरे लिए अभिनय का मतलब है उस क्षण विशेष पर मेरी प्रतिक्रिया.  मुझे वह भाव कल फिल्म के सेट पर महसूस करना है, मैं उसे अभी क्यों महसूस करूं?’करीना कपूर को यह बात भी खास बनाती है कि कपूर खानदान की विरासत से होने के बावजूद उन्होंने अपने संबंधों, अपने परिवार या अपनी असफलताओं के बारे में बात करने पर कोई संकोच नहीं दिखाया. मुंबई के एक टेबलॉयड ने एक बार एक साक्षात्कार के दौरान उनसे काफी तीखे सवाल पूछे थे. मसलन, आप शादी क्यों नहीं कर रहीं? क्या आप बस मस्ती करना चाहती हैं? शाहिद के साथ क्या गड़बड़ हुई? क्या आपने उन्हें इसलिए छोड़ दिया क्योंकि वे उतने कामयाब नहीं थे? क्या आप शाहिद के साथ रहते हुए उन्हें धोखा दे रही थीं? आखिरी सवाल तो बहुत ही तीखा था. अभिषेक ने आपकी बहन को क्यों छोड़ दिया? लेकिन करीना ने बिना संतुलन खोए हुए उतनी ही जानकारी साझा की जितनी उनके हिसाब से जरूरी थी. कई साल पहले टीवी पर उन्होंने अपनी किसी भी सफलता के लिए अपने पिता रणधीर कपूर का शुक्रिया अदा करने से इनकार कर दिया था. इसके बावजूद वे बार-बार कहती हैं कि कपूर परिवार उनकी सफलता की वजह रहा है और आज भी यह करीब से जुड़ा हुआ परिवार है. हम उन्हें थोड़ा और कुरेदते हैं और वे कहती हैं, ‘मुझे लगता है कि मेरे प्रशंसक जानते हैं अगर मैं किसी सवाल पर खामोश हूं तो उस सवाल में पूछी गई बात सच नहीं है.’

सफलता के शिखर पर बैठी करीना किसी तरह की असुरक्षा के भाव से इनकार करती हैं. वे कहती हैं कि उन्हें ऐसी कोई रात याद नहीं आती जब वे चिंता के मारे सोई न हों, न ही कोई ऐसा क्षण जब उन्होंने खुद को असुरक्षित महसूस किया हो. उन्होंने किसी भी तरह की सोशल नेटवर्किंग से खुद को दूर रखा है. उनका मानना है कि यह एक अतिरिक्त जिम्मेदारी हो जाती है. करीना कहती हैं, ‘मेरे पास 22 ब्रांड हैं. एक एक्टिंग करियर है और एक रिश्ता है जिसका मुझे ख्याल रखना है; इन दिनों वे विश्व इतिहास पर आधारित एक किताब पढ़ रही हैं जो उनके मुताबिक सैफ ने उन्हें यह कहते हुए सुझाई है, ‘यह अच्छी बात है कि तुममें उत्सुकता है और तुम जानना चाहती हो. कभी भी इस बात के लिए झिझकना नहीं. न इसे छिपाना.’

शायद यह सैफ के साथ बिताए पांच साल के दौरान आई भीतर की समृद्धि भी है जिसने करीना को यह खास चमक दी है. एक परिवार और दूसरे मायनों में सांस्कृतिक रूप से इतनी विविध जड़ों से जुड़ने का अहसास ही शायद उस आनंद की वजह है जो उनके चेहरे पर नजर आ रहा है. इससे भी अहम यह है कि इस नए रिश्ते ने उन्हें कपूर खानदान से इतर भी एक पहचान दी है. अब करीना कपूर खान जानती हैं कि फिल्मों के सेट के परे भी एक दुनिया है और  उनके चेहरे की खुशी बता रही है कि उन्हें यह दुनिया भा रही है.

‘दिल्ली के लेखक सत्ता के पिछलग्गू हैं ’

आप एक समर्थ रचनाकार थे. आपकी रचनाओं का हिंदी समाज ने पर्याप्त नोटिस भी लिया है. फिर लेखन को स्थगित करके आप पत्रिका की तरफ क्यों मुड़ गए?
इसका मूल कारण यह है कि हिंदी समाज में अब लेखक के लिए कोई स्थान नहीं बचा है. लेखक की अब कोई हैसियत नहीं रही. कोई भी लेखक के तौर पर समाज में हस्तक्षेपकारी भूमिका नहीं निभा सकता. अत्यंत छोटे-से दायरे में ही उसकी पहुंच और पहचान है. यह स्थिति चाहे जितनी दुखद हो पर यही हिंदी समाज का सच है. अगर हमें समाज में कोई हस्तक्षेपकारी भूमिका निभानी है तो हमें लेखक से इतर भूमिका का चयन करना ही होगा. समाज में हस्तक्षेप करने की मेरी इच्छा शुरू से ही रही. उसी ने मुझे पत्रिका निकालने को प्रेरित किया.

लेकिन ऐसा लगता है कि लेखक से संपादक की भूमिका में आने का असल कारण आपकी रचनात्मकता का चुक जाना था. इसका एक बड़ा प्रमाण 2009 में आया आपका उपन्यास  ‘पंखवाली नाव’  है. इसकी कोई चर्चा नहीं हुई, जबकि आपकी पूर्ववर्ती रचनाओं का व्यापक स्वागत हुआ था.
सरकारी नौकरी छोड़ते समय मैं  ‘आजकल’ का संपादक ही था. मैंने नौकरी अपने उत्कृष्ट दौर में छोड़ी. नई भूमिका में आकर सिर्फ संपादकी करना होता तो वहां क्या बुरा था? मेरे अंदर एक बेचैनी थी कि कुछ ऐसा किया जाए जिससे समाज में हस्तक्षेप हो. यह काम न तो मैं सिर्फ लेखक के रूप में कर सकता था और न ही सरकारी पत्रिका की संपादकी द्वारा. इसीलिए मैंने अपनी पत्रिका निकालने का निर्णय लिया. रचनात्मकता चुकने जैसी कोई बात नहीं है. जहां तक ‘पंखवाली नाव’ का सवाल है तो यह उपन्यास संवेदनशील मानवीय त्रासदी पर है. साहित्य के सत्ता केंद्रों से जुड़े लोग मुझे पसंद नहीं करते. इसलिए उपन्यास भी उपेक्षित हो गया.

क्या यह विचित्र बात नहीं कि जो पंकज बिष्ट व्यापक सरोकारों की बात करते हैं, समाज में हस्तक्षेप की बात करते हैं, वे जब उपन्यास लिखते हैं तो समलैंगिकता को विषय बनाते हैं?
देखिए, किसी रचना का महत्व और मूल्यांकन विषय से नहीं होता, प्रस्तुति और सरोकार से होता है. रचना का संबंध मानवीय मूल्यों से होता है और इसी अर्थ में वह व्यापक प्रश्नों से जुड़ता है. कला से यह अपेक्षा करना कि उसमें यथार्थ सीधे-सीधे अभिव्यक्त हो, गलत है. ‘पंखवाली नाव’ के नायक की जो स्थिति है, उसका एक सामाजिक संदर्भ है. इस उपन्यास में ही नहीं बल्कि मेरी किसी भी रचना में सीधे-सीधे क्रांतिकारिता अभिव्यक्त नहीं हुई है.

आप पर सबसे बड़ा आरोप पहाड़वाद का है. पहाड़ के लोगों का संदर्भ आते ही आपकी सारी प्रतिबद्धताएं किनारे हो जाती हैं. नामवर सिंह द्वारा जसवंत सिंह की पुस्तक का लोकार्पण करने या एक पारिवारिक आयोजन में उदय प्रकाश का आदित्य नाथ के हाथों पुरस्कार लेने पर आप हाय-तौबा मचाते हैं पर वहीं मंगलेश डबराल के आरएसएस के संस्थान में जाकर भाषण देने से आपको कोई समस्या नहीं होती. बल्कि आप उल्टे उनका बचाव करते हैं. आप हिंदी अकादेमी का विरोध करते रहे हैं लेकिन जैसे ही हरि सुमन बिष्ट सचिव बने, अकादमी ठीक हो गई?
मंगलेश डबराल वहां गए और इसके लिए उन्होंने माफी भी मांग ली. मैंने उनका नहीं ‘लेफ्ट’ का बचाव किया. ओम थानवी ने ‘आवाजाही के हक में’ शीर्षक से जो लेख लिखा वह गलत नीयत से लिखा था. वे इसके बहाने लोगों से बदला ले रहे थे और पूरे वामपंथ को कटघरे में खड़ा कर रहे थे. मैं नहीं कहता कि मंगलेश का वहां जाना सही था, पर नामवर सिंह और उदय प्रकाश का मामला बिल्कुल अलग है. नामवर सिंह जसवंत सिंह के पुस्तक लोकार्पण में सिर्फ जातिवादी कारण से गए. दूसरी बात नामवर सिंह हिंदी के बड़े ‘फिगर’ हैं. उनके आचरण का असर नीचे तक होता है. इसलिए भी उनके गलत आचरण का मुखर विरोध जरूरी हो जाता है. इसी तरह उदय प्रकाश और आदित्य नाथ वाला आयोजन भी विशुद्ध पारिवारिक आयोजन नहीं था जैसा कि प्रचारित किया गया. वह एक प्रायोजित पुरस्कार था. उस समय साहित्य अकादमी में हिंदी के कन्विनर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी थे जो गोरखपुर के ही हैं. यह अकारण नहीं है कि अगला साहित्य अकादेमी पुरस्कार उदय प्रकाश को मिला. रही बात अकादेमी से मेरे संबंध की तो मैंने संस्थाओं का अंधविरोध कभी नहीं किया. हमेशा यही चाहा कि संस्थाओं में अच्छे व्यक्ति आएं. हिंदी अकादेमी से भी मेरा विरोध व्यक्ति यानी अशोक चक्रधर से था.

कई बार ऐसा लगता है कि आपकी प्रतिबद्धताएं और सरोकार चयनित हैं. आप लेखकों की सत्तापरस्ती का हमेशा विरोध करते हैं, लेकिन रामशरण जोशी के विरुद्ध आपने समयांतर में एक लाइन भी नहीं लिखी जबकि अर्जुन सिंह से उनके बहुत करीबी संबंध रहे और उसका उन्हें लाभ भी मिला. यह चयनित पक्षधरता क्यों?
पहले तो मैं आपको बता दूं कि रामशरण जोशी पहाड़ी नहीं हैं. इसलिए मुझ पर पहाड़वाद का जो पहले आरोप आपने लगाया है वह गलत है. रामशरण जोशी मेरे मित्र हैं और वे समयांतर में नियमित लिखते रहते हैं. आप मुझे यह बताएं कि अर्जुन सिंह से जुड़ने के कारण उन्होंने कोई प्रतिक्रियावादी काम या लेखन किया है क्या? अगर नहीं तो फिर विरोध किस चीज का किया जाए?

आपकी पत्रिका समयांतर को चटखारे और चाट की तरह लिया जाता है. लोग दरबारी लाल का दिल्ली मेल पढ़ते हैं और पत्रिका को रख देते हैं. इस पर आपका क्या कहना है?
यह बात केवल दिल्ली वालों पर लागू होती है. यहां के बुद्धिजीवी और लेखक सत्ता के पिछलग्गू हैं और दिन-रात जोड़-तोड़ की राजनीति में लगे रहते हैं, इसलिए उनकी दिलचस्पी दिल्ली मेल में होती है वरना बिहार, बंगाल, आंध्र प्रदेश की जेलों में बंद राजनीतिक कैदी तक समयांतर के पाठक हैं. महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, पंजाब, हरियाणा से लेकर पूर्वोत्तर तक समयांतर के ऐसे प्रतिबद्ध पाठक हैं जो एक अंक नहीं मिलने पर भी परेशान हो जाते हैं.

अभी हिंदी में लघु पत्रिकाओं का स्वर्ण युग है. नई पत्रिकाओं का निकलना जारी है. विज्ञापन भरपूर मिल रहे हैं. बावजूद इसके आप समयांतर को लेकर आर्थिक तंगी की बात करते रहते हैं. क्यों?
आप जिस स्वर्ण युग की बात कर रहे हैं वह साहित्यिक लघु पत्रिकाओं के लिए है. इन पत्रिकाओं के पीछे सरकारी लोग हैं जो विज्ञापन दिलाते हैं और बदले में अपनी रचनाएं छपवाकर साहित्यिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करते हैं. दिक्कत तब होती है जब आप समयांतर जैसी प्रतिबद्ध राजनीतिक पत्रिका निकालते हैं जो सत्ता विरोधी चरित्र के कारण सरकारी संस्थानों को सूट नहीं करती है. इसलिए हमें विज्ञापन नहीं मिलते.
वामपंथ के प्रति आपकी पक्षधरता जगजाहिर है, पर लेखक संगठनों के बारे में आप क्या सोचते हैं? उनकी हस्तक्षेपकारी भूमिका अब समाप्त हो गई है.
मेरा शुरू से यह कहना रहा है कि लेखक संगठनों को ट्रेड यूनियन की तरह काम करना चाहिए और लेखकों कें हितों की लड़ाई लड़नी चाहिए. बड़े-बड़े साहित्यिक समारोहों में लेखक संगठनों की कोई भूमिका नहीं होती. लेखक संगठन अपने को पंजीकृत नहीं करवा रहे हैं. उन्हें डर है कि पंजीकरण के बाद साल भर का हिसाब-किताब देने सहित सरकारी नियंत्रण और कई तरह के दूसरे झमेले न बढ़ जाएं. उन्हें कोई बड़ी भूमिका निभानी है तो ट्रेड यूनियन की तर्ज पर ही काम करना होगा. दूसरी बात यह है कि पूरी हिंदी पट्टी में वामपंथी पार्टियों की भूमिका खत्म हो गई है तो उनसे जुड़े लेखक संगठन कोई बड़ी भूमिका कैसे निभा पाएंगे.

आपने सरकारी नौकरी छोड़कर एक मिशन के रूप में समयांतर का प्रकाशन शुरू किया. क्या आप समयांतर की स्थिति से संतुष्ट हैं?
समयांतर से मैं संतुष्ट हूं कि मुझे पाठकों का प्यार मिला. हमने समयांतर के माध्यम से लेखकों और पत्रकारों की एक नई पीढ़ी तैयार की. हम समाज में जो हस्तक्षेप करना चाहते थे वह भी कर रहे हैं. हमने पेड न्यूज पर पहले पहल प्रेस काउंसिल की रिपोर्ट छापी. मैं सोचता हूं कि मैं नौकरी करता तो मुझे क्या मिलता आज श्रीनगर से केरल तक समयांतर के पाठक मिलेंगे.

‘कमरदर्द को अनदेखा न करें’

‘कमरदर्द’ इतना आम माना जाता है कि हम इस पर खास तवज्जो नहीं देते. कमरदर्द हो रहा हो तो हम  आम तौर पर स्वयं को यह कहकर आश्वस्त करने की कोशिश करते है कि शायद गलत वजन उठा लिया होगा या शायद गद्दा या बिस्तर ठीक नहीं है या हम गलत मुद्रा में बैठकर टीवी देखे थे. ऐसी के ठीक सामने हमारी कुर्सी है न इसलिए कमरदर्द है शायद. इसमें भी औरतों के कमरदर्द को तो हम किसी गिनती में ही नहीं लाते. औरतों को तो कमरदर्द होता ही रहता है, साहब. घर के इतने काम, उठाधरी, झुकना, झुकाना, माहवारी वाले वे कठिन दिन. उनको तो इनमें से किसी भी कारण से कमरदर्द हो सकता है. इसमें क्या ध्यान देना? प्रायः यही सोच होती है हमारी.

परंतु याद रहे कि कमरदर्द इतनी आसान-सी समस्या भी नहीं है. बड़े पेच हैं इसमें. सामान्य-सा प्रतीत होता कमरदर्द भी किसी बड़ी मुसीबत का संदेशवाहक सिद्ध हो सकता है. यह आपको जीवन भर के लिए विकलांग तक बना सकता है, बिस्तर से लगा सकता है. कमरदर्द  की जड़ कमर में न होकर अन्यत्र किसी और बीमारी में हो सकती है. मुसीबत यह है कि प्रायः डॉक्टर भी इसे इतनी गहनता से ध्यान देने लायक बीमारी तक नहीं मानते जब तक कि पानी पहले ही सर से ऊपर न निकल चुका हो. मैं अपने एक रोचक केस का उदाहरण देकर समझाने की कोशिश करता हूं. कोशिश करने में कोई बुराई नहीं है. वैसे, कमरदर्द को समझा पाना अपने आप में एक सिरदर्द है.

मेरे पड़ोसी की पत्नी को तीन माह से कमरदर्द था. अस्पताल में मेरे चेंबर के ठीक बगल में ऑर्थोपेडिक सर्जन का चेंबर था. मैं निकला तो भाभी जी को वहां इंतजार करता पाया. बहुत-से एक्स-रे तथा अन्य जांचों का बंडल लादे जिसे देर तक उठाकर रखो तो उसी से कमरदर्द हो जाए. पूछा तो बताया कि तीन माह से परेशान हैं. कमरदर्द है, जांघों तक जाता है. इलाज से उन्नीस-बीस का फर्क ही पड़ा है बस. अच्छे ऑर्थोपेडिक डॉक्टर देख रहे थे उन्हें. मैंने कहा कि आप पहले गायनी चेकअप और अल्ट्रासाउंड करा लें. वे बहुत आश्वस्त तो नहीं थे पर कहा तो करा लाए. उन्हें वास्तव में ओवरी (अंडाशय) का कैंसर ट्यूमर था जो कमर की नसों को दबा रहा था. ये नसें (नर्वस) पांवों में भी जाती हैं.

दर्द का कारण कहीं और था परंतु इलाज कराते रहते तो कैंसर दूर तक फैल जाता, जान पर बन आती. ओवरी ऑपरेशन हुआ. अब वे पिछले दस साल से एकदम ठीक हैं. इस कहानी से शिक्षा?
शिक्षा यह कि कमरदर्द केवल कमर की हड्डी या नस में किसी बीमारी के कारण हो रहा हो यह जरूरी नहीं. कमरदर्द के कई कारण हो सकते हैं. डिस्क खिसक जाना, स्पोंडिलाइटिस, कमर की हड्डी की चोट के कारण या यूं ही बैठे टूट जाना, कमर की हड्डी (मेरुदंड या बर्टीबा) के पैदाइशी डिफेक्ट, उम्र के साथ इन हड्डियों का कमजोर हो जाना (ऑस्टोपोडोसिस), वहां कोई इन्फेक्शन हो जाना आदि बहुत-से कारण तो वे हैं जो सीधे मेरुदंड की बीमारी से ताल्लुक रखते हैं. परंतु शरीर में कहीं दूर बैठा कैंसर भी ऐसा दर्द पैदा कर सकता है. प्रॉस्टेट, ब्रेस्ट, फेफड़ों, आंतों आदि के कैंसर के बारे में पहली बार तब ही पता चला सकते हैं, जब वे दूरदराज फैलकर इन हड्डियों में फैल जाएं. कैल्शियम मेटाबॉलिज्म का नियंत्रण करने वाले सिस्टम (पैराथायरायड/ विटामिन डी/ किडनी आदि) की गड़बड़ी भी हड्डियों को कमजोर करके कमरदर्द कर सकती है.

फिर? हम क्या करें, डॉक्टर साहब? आपने तो डरा भी दिया और भ्रमित भी कर दिया. हां, मैंने किया. कई बार डराना और उचित भ्रम पैदा करना भी आवश्यक होता है ताकि हम जानें कि बीमारी ऐसी भी नहीं है कि हम उसे नजरअंदाज करें. कमरदर्द में निम्नलिखित बातों का अवश्य ध्यान रखें.

  • कमरदर्द यदि अचानक तथा बहुत तेज हुआ हो, किसी भारी सामान को उठाने में हुआ हो या ऊंची जगह से फिसलने से हुआ हो तो इसे कतई नजरअंदाज न करें. स्वयं दर्द की दवाएं खरीदकर खाते न बैठ जाएं. डॉक्टर को  जाकर दिखाएं.
  • यदि कमरदर्द कई सप्ताह या माह से चल रहा हो, चाहे कितता भी हल्का हो उसके इतना तेज हो जाने के लिए न बैठे रहें जब झक मारकर डॉक्टर को दिखाना पड़े.
  • यदि आप स्त्री हैं और आपको कमरदर्द परेशान करता है तो ऑर्थोपेडिक के अलावा अपना गायनी चेकअप भी अवश्य कराएं. यूटरेस आदि पेल्विस की बीमारियां कमरदर्द पैदा कर सकती हैं.
  • कमरदर्द के साथ बुखार भी आता है तो तुरंत ही (बहुत-सी) जांचों की आवश्यकता हो सकती है. यह टीबी, आस्ट्रिरियोमाईलाइटिस से लगाकर कमर के (मेरुदंड) जोड़ों की आर्थ्राइटिस तक निकल सकता है. बुखार हल्का भी हो तो नजरअंदाज न करें.
  • कमरदर्द यदि लगातार हो, लेटने या आराम करने से भी ठीक न हो तो पूरी जांच की आवश्यकता है क्योंकि कमरदर्द के सामान्य कारणों में प्रायः आराम कर लो तो दर्द कम हो जाता है.
  • कमरदर्द चलने पर हो परंतु आगे थोड़ा झुककर चलें या साइकिलिंग करें तो न हो तो यह लंबर केनाल स्टीनोसिस नामक बीमारी हो सकती है जिसका इलाज ऑपरेशन है.
  • यदि सिटी स्कैन या एक्स-रे में कमर की हड्डी या डिस्क में कोई खराबी दिखे तो जरूरी नहीं कि आपके कमरदर्द का कारण यही हो. कई बार यह होता है कि सिटी या एमआरआई में डिस्क खिसकी तो साफ दिख रही है या हड्डी बढ़ी दिख रही है, या कोई पुराना फ्रैक्चर ही दिख रहा है परंतु कमरदर्द किसी और कारण से हो रहा हो. ऐसे लोग कई बार ऑपरेशन तक करा लेते हैं पर दर्द ठीक नहीं होता तो केवल जांच रिपोर्ट पर न जाएं.
  • कमरदर्द के साथ यदि पांवों में या किसी उंगली, अंगुठे आदि में झुनझुनी हो या वह हिस्सा सुन्न हो जाए या उसमें ताकत कम लगे तो इसे इमरजेंसी मानें, तुरंत डॉक्टर को बताएं. कमरदर्द के साथ इनका होना खतरनाक है.
  • कमरदर्द कई बार कूल्हे की बीमारी से भी हो सकता है. ऐसे में कमर की जांच कुछ नहीं बता सकेगी.

तो लब्बोलुआब यह है कि यदि कमर में दर्द है, बना हुआ है तो उठें और किसी अच्छे डॉक्टर की सलाह अवश्य लें.                                               

‘कहां से आएगा गलत को गलत कहने का साहस?’

रोजमर्रा की जिंदगी में कुछ ऐसी घटनाएं घटती हैं जो होती तो एकदम आम हैं लेकिन याद रह जाती हैं और साथ छोड़ जाती हैं कुछ सवाल. अभी कुछ ही दिन पहले की बात है, ऑफिस से घर जाने के लिए 540 नंबर की बस में सवार हुआ. शाम का वक्त होने के कारण बस में ज्यादातर वही लोग थे जो अपने-अपने ऑफिस से घर जा रहे थे. कुछ के चेहरे पर सुकून था तो कई अन्य बेहद जल्दी में नजर आ रहे थे. दिल्ली के ट्रैफिक का हाल तो किसी से छिपा नहीं है. बस चल क्या रही थी लगभग रेंग रही थी. बस सावित्री सिनेमा के करीब पहुंची ही थी कि एक पुलिसवाले ने बस को रुकने का इशारा किया हालांकि वहां कोई बस स्टॉप नजर नहीं आ रहा था.

बसवाले ने वर्दी के रुआब में या फिर शायद पुरानी जान पहचान के चलते बस रोक दी. बस का रुकना था कि उसके पीछे तेज गति से आ रहे एक ऑटो चालक ने चीखते हुए ब्रेक लगाया. शायद उसे एहसास नहीं था कि बस यूं अचानक रुक जाएगी. जो पुलिसवाला  बस में चढ़ने जा रहा था, वह न जाने ऑटो चालक की किस गलती पर खफा हो गया. उसने आव देखा न ताव लगा, ऑटोवाले को थप्पड़ों से पीटने. इस बीच वह अपने संस्कारी होने का भी पूरा परिचय दे रहा था. एक से एक गंदी गाली. गालियां देने में वह ऐसी अद्भुत कल्पनाशीलता का प्रयोग कर रहा था कि बड़े-बड़े दिग्गज शरमा जाएं.

ऑटो चालक शायद दूर देश से खाने-कमाने आया कोई परदेसी था और चूंकि उसकी कोई गलती नहीं थी इसलिए उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह इस पूरी घटना पर आखिर कैसे रिएक्ट करे. ऑटो में एक लड़की बैठी थी और पुलिसवाले ने गालियां देते वक्त एक क्षण के लिए उसका भी लिहाज नहीं किया. वह पुलिसवाले से ‘सॉरी सर, सॉरी ‘सर’ की रट लगाए बैठी थी. जबकि उसकी या ऑटो चालक की कोई गलती थी ही नहीं.

इस बीच बसवाला चुपचाप बस रोके खड़ा रहा मानो पुलिसवाला देश हित का कोई बहुत जरूरी काम निपटा रहा हो. लेकिन शायद पुलिसवाले को ही जाने की जल्दी थी. उसने ऑटो को किनारे खड़ा करवाया और पास ही मौजूद बूथ से एक दूसरे पुलिसवाले को बुलाया. अब पहला पुलिसवाला बस में आ चुका था, जबकि दूसरा वापस वही पुरानी कहानी दोहराने में लग गया था. ऐसा लग रहा था मानो वे दोनों एक ही शख्स हैं बस उनकी शक्लें बदल गई हैं.

इलश्ट्रेशन:मनीषा यादव

पुलिसवाला जब तक नीचे अपना राक्षसी हुनर दिखा रहा था तब तक बस में सवार तमाम लोग पुलिसवालों के जुल्मों के किस्से याद कर रहे थे लेकिन जैसे ही वह पुलिसवाला बस में सवार हुआ, सारे लोगों की निष्ठा एक क्षण में बदल गई. अब दिल्ली की सड़कों पर चलने वाले ऑटो चालक दुनिया के सबसे बदतमीज, लुटेरे और डकैत हो चले थे. वे पुलिसवाले को यह कह कर उसका मन बढ़ा रहे थे कि भाई साहब आपने बिल्कुल ठीक किया और अब यह कुछ समय तक आदमी की तरह रहेगा वगैरह…वगैरह.

ऐसा नहीं था कि मैंने इस पूरे घटनाक्रम में कोई हस्तक्षेप किया या फिर किसी तरह का प्रतिरोध दिखाया लेकिन फिर भी मैं पुलिसवाले के साथ-साथ अपने सहयात्रियों के व्यवहार से भी बुरी तरह हतप्रभ था. बस अगले चौराहे से बाएं घूम गई जहां एक बड़े-से होर्डिंग पर दिल्ली पुलिस का विज्ञापन लगा हुआ था- दिल्ली पुलिस सदैव आपके साथ! क्या पुलिस के उच्चाधिकारियों के कानों तक कभी यह खबर पहुंचती होगी कि उनके कर्मचारी किस तरह लोगों के साथ बेजा हरकतें करते हैं या फिर पूरे कुएं में ही भांग घुली हुई है?

पुलिसवाला तो खैर पुलिसवाला ही था… लेकिन मेरे मन में एक सवाल यह भी उठ रहा है कि बस में सवार तमाम लोगों (मुझ समेत) के सामने ऐसी कौन-सी मजबूरी थी कि इतने लोगों में से एक ने भी गलत को गलत कहने का साहस नहीं दिखाया. यह वर्दी का खौफ था या नौकरीपेशा लोगों के खून में समा गई कायरता और चापलूसी का नमूना?

अराफात का शव परीक्षण

यासिर अराफात की मौत पर क्यों विवाद हो रहा है?
1996 में फिलिस्तीनी प्राधिकरण के प्रथम राष्ट्रपति रहे यासिर अराफात ने 35 वर्षों तक फिलिस्तीन मुक्ति संगठन का नेतृत्व किया. फिलिस्तीन के इस लोकप्रिय नेता को 1994 में नोबेल शांति पुरस्कार से भी नवाजा गया था. फिलिस्तीनियों के हितों के लिए लड़ने वाले अराफात को 2001 में इजरायल द्वारा उनके ही मुख्यालय में नजरबंद कर दिया गया था. अक्टूबर, 2004 में अचानक उनकी तबीयत काफी बिगड़ गई जिसके चलते उन्हें इलाज के लिए पेरिस के एक सैन्य अस्पताल में भर्ती करवाया गया. वहीं कुछ दिनों बाद उनकी मौत हो गई. उनकी मौत का कारण हमेशा ही विवादों में घिरा रहा. कई लोगों का मानना था कि उनकी मौत के पीछे इजरायल का ही हाथ है.

मौत के आठ साल बाद उनके शव का परीक्षण करने की जरूरत क्यों आन पड़ी?
अरब के समाचार चैनल अल जजीरा द्वारा एक डॉक्यूमेंट्री बनाने के दौरान यासिर अराफात के कपड़ों और अन्य वस्तुओं की जांच में रेडियोधर्मी पोलोनियम 210 पाया गया. स्विट्जरलैंड के विशेषज्ञों द्वारा की गई इस जांच से अराफात की मौत पर सवाल खड़े हो गए. इसी साल अगस्त में फ्रांस ने इस मामले में नए सिरे से हत्या की जांच शुरू कर दी. अराफात की पत्नी सोहा अराफात के आग्रह पर फिलिस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने जांच के लिए अराफात के शव के पुन:परीक्षण की अनुमति दे दी है.

कौन करेगा शव का पुन:परीक्षण?
27 नवंबर को फिलिस्तीन के रमल्लाह नगर स्थित अराफात की कब्र से उनका शव निकाले जाने के बाद इसके नमूने फ्रांस, स्विट्जरलैंड और रूस के वैज्ञानिकों को दिए गए हैं. इन तीनों दलों द्वारा शव के नमूनों की स्वतंत्र रूप से जांच की जानी है. निष्पक्ष जांच हेतु रूस को विशेष रूप से इस जांच में शामिल किया गया है. कई लोगों का मानना है कि अराफात की हत्या इजरायल द्वारा इसलिए की गई कि वे शांति स्थापित करने में बाधा बन रहे थे. हालांकि इजरायल इस मामले में किसी भी तरह की संलिप्तता से इनकार कर चुका है.
-राहुल कोटियाल

इंडियन पोस्टल बिल : ज्ञानी जैल सिंह

भारत में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के बीच विवाद का ऐतिहासिक दौर.

1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो इसमें कांग्रेस पार्टी से ज्यादा  महत्वपूर्ण भूमिका तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल ने निभाई थी. जैल सिंह तब यमन से लौट रहे थे और हवाई जहाज में ही उन्होंने पत्रकारों को बता दिया था कि वे राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाने जा रहे हैं.

लेकिन राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही राष्ट्रपति से उनके रिश्ते बिगड़ने शुरू हो गए. दरअसल दिल्ली और देश के दूसरे हिस्सों में चल रहे सिख विरोधी दंगे रोकने में सरकार के सुस्त रवैये पर जैल सिंह काफी नाराज थे और यह संदेश उन्होंने प्रधानमंत्री तक पहुंचा दिया था.  आने वाले दिनों में देश के शीर्ष पद पर बैठे इन दो लोगों के बीच टकराव बढ़ता ही गया.

प्रधानमंत्री जब विदेश यात्रा पर जाते हैं तो उसके पहले और आने के बाद वे औपचारिक रूप से राष्ट्रपति को इसका विवरण देते हैं लेकिन उस समय यह परंपरा भी तोड़ दी गई. इधर राष्ट्रपति ने भी सरकार के प्रति यही रुख अपना लिया. उन्होंने अपने गृहराज्य पंजाब में सरकार के आग्रह के बाद भी दखल देने से मना कर दिया. यहां तक कि 1985 में जब राजीव गांधी और अकाली दल के लोंगोवाला के बीच संधि हुई तब भी इसमें जैल सिंह की भूमिका कहीं नहीं थी. इसी समय एसएस बरनाला पंजाब के मुख्यमंत्री बने तो सरकार ने संसद में राष्ट्रपति को भाषण देने के लिए आमंत्रित किया लेकिन जैल सिंह ने यह आमंत्रण ठुकरा दिया.

इन सभी घटनाओं के बीच एक ऐसी घटना भी हुई जिसने प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के बीच तनाव को चरम पर पहुंचा दिया. राजीव गांधी सरकार ने दिसंबर, 1986 में राष्ट्रपति को उनकी मंजूरी के लिए इंडियन पोस्टल एक्ट- 1898 (संशोधित) बिल भेजा था. इसमें प्रावधान था कि सरकार आम लोगों के पत्राचार की जब चाहे जांच करा सकती है. जैल सिंह के मुताबिक यह आम लोगों की निजता में दखल था इसलिए उन्होंने इस बिल को मंजूरी नहीं दी, साथ ही उन्होंने इसे वापस सरकार के पास पुनर्विचार के लिए भी नहीं भेजा.

इस घटना के बाद राजीव गांधी और जैल सिंह के बीच चल रहा टकराव इतना खुलकर सामने आ गया कि मीडिया में आए दिन ये खबरें चलनी लगीं कि राष्ट्रपति राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद से हटाने के बारे में सोच रहे हैं और सरकार जैल सिंह पर महाभियोग चलाने के लिए कानूनी विशेषज्ञों की मदद ले रही है. हालांकि ये सारे विवाद बहुत समय तक नहीं चल पाए क्योंकि जुलाई, 1987 में जैल सिंह का कार्यकाल समाप्त हो गया फिर भी इस पूरे दौर को प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के बीच टकराव के लिए आज भी याद किया जाता है.
-पवन वर्मा

डॉ. राजेंद्र प्रसाद का एक पत्र…

संदर्भ: भारत के पहले राष्ट्रपति, संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद सादगी और ईमानदारी की प्रतिमूर्ति थे. यहां हम एक चिट्ठी प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसे  राजेंद्र बाबू के  पुत्र व पूर्व राज्यसभा सांसद मृत्युंजय प्रसाद ने अपनी किताब ‘पुण्य स्मरण’ में संकलित किया था. मूल रूप से यह चिट्ठी भोजपुरी भाषा और कैथी लिपि में है, क्योंकि राजेंद्र प्रसाद अपनी पत्नी राजवंशी देवी को इसी भाषा में पत्र लिखा करते थे. यह एक निहायत ही निजी पत्र है लेकिन इसका सार्वजनिक महत्व है. राजेंद्र बाबू ने गांव में रह रही अपनी पत्नी को यह चिट्ठी तब लिखी थी, जब वह वकालत के शानदार कैरियर के विकल्प को छोड़कर राष्ट्रसेवा में खुद को समर्पित करने की तैयार कर रहे थे.

इस चिट्ठी के तथ्यों पर गौर करने के साथ ही इस बात पर भी गौर करने की जरूरत है कि राजेंद्र बाबू यह फैसला लेने के पहले अपनी पत्नी को सूचित  करते हैं और उनका मशविरा भी मांगते हैं. इस चिट्ठी के जरिये हम उन नेताओं के जीवन मूल्य को एक बार फिर से याद कर सकते हैं, जिन्होंने इस राष्ट्र के मूल्य गढ़ने में महती भूमिका निभायी थी.

आशीर्वाद,

मैं कुशलपूर्वक हूं और वहां की कुशलता चाहता हूं. बहुत दिनों से वहां का कोई समाचार नहीं मिला,इससे मन में चिंता है. आज मैं पहली बार अपने मन की बात खुलकर लिखना चाहता हूं. मैं चाहता हूं कि तुम ध्यानपूर्वक इसको पढ़ो और इस पर विचार कर के मुझे उत्तर दो. 

सभी जानते हैं कि मैंने बहुत पढ़ा, बहुत नाम हुआ,इसलिए मैं बहुत धन कमाउंगा. सबों को मुझसे उम्मीद है कि मेरा पढ़ना-लिखना सिर्फ रूपया कमाने के लिए है. तुम्हारे मन में क्या है? तुम मुझसे सिर्फ रूपया कमाने की अपेक्षा करती हो या कुछ और कमाने की, लिखना. बचपन से ही मेरा मन धनोपार्जन से विमुख हो गया था. जब पढ़ने-लिखने में मेरा नाम हुआ तो मैं यह कभी नहीं सोचा, न आशा की कि यह सब पढ़ना-लिखना सिर्फ रूपया कमाने के लिए है, इसलिए मैं तुमसे पूछना चाहता हूं कि यदि मैं धनोपार्जन न करूं तो क्या तुम गरीबी में मेरे साथ निर्वाह कर लोगी. मेरा-तुम्हारा जन्म भर का संबंध है. मैं रूपया कमाउं या नहीं, दोनों स्थितियों में तुम मेरा साथ दोगी किंतु मैं यह जानना चाहता हूं कि यदि मैं अर्थोपार्जन न करूं तो क्या तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट होगा? 

मेरा चित्त अर्थ लाभ के लिए काम करने से बिल्कुल हट गया है. मैं धनोपार्जन नहीं करना चाहता हूं. मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि तुम्हें यह बात कैसी लगती है? यदि मैं धन नहीं कमाउं तो तुम्हें मेरे साथ निर्धन की तरह रहना होगा. गरीबों का भोजन, गरीबों का पहनावा और गरीब ह्रदय से जीना होगा. मैंने इस पर विचार किया है और इस निश्चय पर पहुंचा हूं कि मुझे इसमें कोई कष्ट न होगा, किंतु मैं तुम्हारे मन की बात जानना चाहता हूं. मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी स्त्री सीताजी की भांति, जिस हाल में मैं रहूंगा, मेरे साथ रहेगी-सुख में, दुख में, सब में मेरा साथ देना ही अपना धर्म, अपना सुख और अपनी खुशी समझेगी. 

इस दुनिया में अमीर, गरीब सब धन के लोभ में मरे जा रहे हैं. यह सब कष्ट क्यों? किस लिए? जिसको संतोष है, वही सुख से दिन काट रहा है. सुख-दुख रुपया कमाने से या नहीं कमाने से नहीं मिलता. जो भाग्य में लिखा है, वही होता है. 

अब मैं लिखना चाहता हूं कि यदि मैं रूपया न कमाउं तो क्या करूंगा. सबसे पहले तो वकालत छोड़ दूंगा, परीक्षा नहीं दूंगा, वकालत नहीं करूंगा. मैं अपना सारा समय देश सेवा में लगाउंगा. देश के लिए जीना, देश हित की बात सोचना, देश सेवा करना, यही मेरा काम रहेगा. अपने स्वार्थ का न सोचना, न कराना, पूरी तरह साधु का जीवन जीना होगा.

तुमसे, मां से या परिवार से अलग नहीं रहूंगा, घर-परिवार में ही रहकर भी मैं अर्थोपार्जन नहीं करूंगा, संन्यास नहीं लूंगा, बल्कि घर में ही रहकर यथाशक्ति देश की सेवा करूंगा.कुछ ही दिनों में मैं धर आउंगा तो सारी बातें कहूंगा. यह पत्र तुम किसी को नही दिखलाना, किंतु इस पर विचार कर यथाशीघ्र उत्तर लिखो. मैं तुम्हारे उत्तर की व्यग्रता से प्रतीक्षा करूंगा. फिलहाल ओर अधिक नहीं लिखूंगा.

 राजेंद्र

18 मिरजापुर स्ट्रीट, कलकत्ता

 (भोजपुरी में लिखे गए पत्र का हिंदी में अनुवाद निराला ने किया)

बद-नामधारी!

सुखदेव सिंह नामधारी का अतीत मौका और दस्तूर के हिसाब से पाला बदलने का रहा है. उन्हें जानने वाले बताते हैं कि उनकी इस कला ने ही उन्हें मामूली ट्रक ड्राइवर से उत्तराखंड अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष जैसे संवैधानिक पद तक पहुंचा दिया. नामधारी हाई प्रोफाइल पोंटी चड्ढा-हरदीप सिंह हत्याकांड की महत्वपूर्ण कड़ी हैं.

नामधारी के बारे में कहा जाता है कि वे जिस सीढ़ी से ऊपर चढ़ते थे सबसे पहले उसे ही खत्म करते थे. यही कारण है कि आज उनके कस्बे बाजपुर में उनसे सहानुभूति रखने वाला एक भी व्यक्ति नहीं मिलता.  उत्तराखंड में उधम सिंह नगर जिले के बाजपुर कस्बे के एक व्यापारी नामधारी के परिवार के बारे में विस्तार से बताते हैं, ‘बाजपुर थाने के मुंडिया मनी गांव के निवासी नामधारी के पिता किसानी करते थे. घर की महिलाएं कोल्हू में गुड़ बनाती थीं और पुरुष उसे बाजार ले जाकर बेचते थे. धीरे -धीरे उनका परिवार किसानी के साथ-साथ मंडी समिति में अनाज की ढुलाई और ट्रांसपोर्ट के काम में लग गया.’ 

पंजाब में जब आतंकवाद का जोर था तो उसका असर उत्तराखंड की तराई में भी पड़ रहा था. उस दौर में तराई के बड़े नेता थे पं. गुरुबचन लाल शर्मा जिनकी छवि आतंकवादियों से टक्कर लेने वाले की बन गई थी. बताते हैं कि उन दिनों गुरुबचन लाल और तब के अकाली दल नेता व वर्तमान में भाजपा विधायक हरभजन सिंह चीमा के बीच टकराव चलता था. दोनों गुटों के साथ दंबगों की फौज थी. इस गैंगवार में कई हत्याएं भी हुईं. उस दौर में नामधारी और उनका भाई बलदेव सिंह, चीमा के सुरक्षा गार्ड बन गए थे. कहने को दोनों भाई सुरक्षा गार्ड थे लेकिन वास्तव में उन्होंने अपने मामा के साथ मिलकर अपना एक गुट बना रखा था. चीमा पर इस गुट को संरक्षण देने का आरोप लगता था. इलाके के लोग बताते हैं कि धीरे-धीरे इस गुट ने पैसे लेकर उत्तराखंड और उसके बाहर भी उगाही और संपत्तियों पर कब्जा करने का धंधा शुरू कर दिया.

1994 में गुरुबचन लाल शर्मा की हत्या हो गई. पहली बार नामधारी का नाम इसी अपराध के सिलसिले में सामने आया. बाद में नामधारी इस मामले से बरी हो गए. लेकिन उनकी और चीमा की दोस्ती अधिक दिनों तक नहीं चली. नामधारी ने इलाका बदल लिया. वे पंजाब के कांग्रेसी सांसद राणा गुरजीत के शागिर्द बन गए. राणा गुरजीत का नामदारी के कस्बे बाजपुर में फार्म था. नामधारी यह साथ भी ज्यादा दिनों तक निभा नहीं पाए. कुछ ही दिनों बाद उन्होंने भाजपा विधायक अरविंद पांडे से नाता जोड़ लिया. कहा जाता है कि पांडे के साथ ने नामधारी के भीतर राजनीतिक महत्वाकांक्षा पैदा की.

भाजपा से मिली थोड़ी-सी राजनीतिक ताकत और अपने बाहुबल के जरिए नामधारी की धाक उत्तराखंड के तराई इलाके में जम गई थी. 2001-02 में नया राज्य बनने के साथ ही राज्य में बड़े पैमाने पर खनन के पट्टे दिए गए. पोंटी चड्ढा इसमें सबसे बड़े लाभार्थी थे. बताते हैं कि यह मौका पोंटी और नामधारी को करीब लाने में मददगार सिद्ध हुआ. हालांकि नामधारी कुमाऊं के बागेश्वर में पोंटी का खनन का धंधा पहले से ही देखते आ रहे थे, लेकिन नया राज्य बनने के बाद दोनों का काम बड़े पैमाने पर फैला और साथ ही दोनों की नजदीकी भी बढ़ गई. अपनी राजनीतिक पहुंच का इस्तेमाल करते हुए नामधारी ने खनन के कई पट्टे हासिल किए.  पिछली भाजपा सरकार में उधम सिंह नगर के कई खनन पट्टों में नामधारी का हिस्सा था. पोंटी से निकटता और खनन पट्टों में हिस्सेदारी के बाद आई समृद्धि नामधारी के किलेनुमा मकान से झलकती है. अपने चरित्र के अनुकूल नामधारी पांडे से भी अपने रिश्ते कायम नहीं रख सके. उनकी महत्वाकांक्षा उड़ान भर रही थी. फरवरी, 2010 में वे राज्य अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष जैसे संवैधानिक पद पर जा पहुंचे. दबी जुबान में सरकारी अधिकारी इसे पोंटी का आशीर्वाद बताते हैं.

उधम सिंह नगर के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक एएस ताकवाले बताते हैं, ‘नामधारी पर जिले में 12 मुकदमे दर्ज हुए जिनमें से पांच में थाने से ही फाइनल रिपोर्ट लगी और छह में वे न्यायालय से बरी हुए. केवल एक मामले में चार्जशीट दाखिल हो सकी है.’ उत्तराखंड कैडर के एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि नामधारी राज्य में कई हत्याकांडों में शामिल रहे हैं लेकिन उनके सियासी रसूख और दबंगई के कारण किसी भी मामले में एफआईआर तक दर्ज नहीं हुई. पोंटी चड्ढा के साथ नाम जुड़ने के बाद भी कई संगीन मामलों में उनका नाम उछला लेकिन वे किसी में नामजद नहीं हुए. इनमें से एक अफजलगढ़ थाना क्षेत्र में अरविंद सिंह हत्याकांड है. इस हत्याकांड में भी नामधारी के शूटरों का नाम आया था. यह हत्या करोड़ों की भूमि पर कब्जा जमाने के लिए हुई थी. बाद में इस जमीन पर नामधारी के गुर्गों ने कब्जा कर लिया.

उत्तराखंड आबकारी विभाग के अधिकारियों की मानें तो पिछले कुछ समय से पोंटी राज्य के शराब व्यापार में घुसने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए थे. शराब के ठेके हासिल करने के लिए जरूरी पात्रता पाने के लिए पिछले पांच-छह साल में उन्होंने नामधारी और उनके परिजनों के नाम पर उत्तराखंड में जमकर जमीनें खरीदी हैं. आज ये सारी जमीनें नामधारी परिवार के कब्जे में हैं.

पोंटी चड्ढा हत्याकांड के बाद नामधारी को लेकर उत्तराखंड में भाजपा की भी कलई खुल गई है. बदलते घटनाक्रम के साथ पार्टी नेताओं के बयान बदलते रहे. पहले नामधारी के राजनीतिक उत्पीड़न की संभावना जताई गई. फिर बयान आया कि वे भाजपा के सदस्य ही नहीं हैं. अब उन्हें भाजपा से निष्कासित कर दिया गया है. नामधारी के पुराने साथी रहे भाजपा के एक नेता बताते हैं, ‘नामधारी छोटे-से फायदे के लिए किसी का बड़े से बड़ा नुकसान करने में संकोच नहीं करते हैं.’