‘दिल्ली के लेखक सत्ता के पिछलग्गू हैं ’

आप एक समर्थ रचनाकार थे. आपकी रचनाओं का हिंदी समाज ने पर्याप्त नोटिस भी लिया है. फिर लेखन को स्थगित करके आप पत्रिका की तरफ क्यों मुड़ गए?
इसका मूल कारण यह है कि हिंदी समाज में अब लेखक के लिए कोई स्थान नहीं बचा है. लेखक की अब कोई हैसियत नहीं रही. कोई भी लेखक के तौर पर समाज में हस्तक्षेपकारी भूमिका नहीं निभा सकता. अत्यंत छोटे-से दायरे में ही उसकी पहुंच और पहचान है. यह स्थिति चाहे जितनी दुखद हो पर यही हिंदी समाज का सच है. अगर हमें समाज में कोई हस्तक्षेपकारी भूमिका निभानी है तो हमें लेखक से इतर भूमिका का चयन करना ही होगा. समाज में हस्तक्षेप करने की मेरी इच्छा शुरू से ही रही. उसी ने मुझे पत्रिका निकालने को प्रेरित किया.

लेकिन ऐसा लगता है कि लेखक से संपादक की भूमिका में आने का असल कारण आपकी रचनात्मकता का चुक जाना था. इसका एक बड़ा प्रमाण 2009 में आया आपका उपन्यास  ‘पंखवाली नाव’  है. इसकी कोई चर्चा नहीं हुई, जबकि आपकी पूर्ववर्ती रचनाओं का व्यापक स्वागत हुआ था.
सरकारी नौकरी छोड़ते समय मैं  ‘आजकल’ का संपादक ही था. मैंने नौकरी अपने उत्कृष्ट दौर में छोड़ी. नई भूमिका में आकर सिर्फ संपादकी करना होता तो वहां क्या बुरा था? मेरे अंदर एक बेचैनी थी कि कुछ ऐसा किया जाए जिससे समाज में हस्तक्षेप हो. यह काम न तो मैं सिर्फ लेखक के रूप में कर सकता था और न ही सरकारी पत्रिका की संपादकी द्वारा. इसीलिए मैंने अपनी पत्रिका निकालने का निर्णय लिया. रचनात्मकता चुकने जैसी कोई बात नहीं है. जहां तक ‘पंखवाली नाव’ का सवाल है तो यह उपन्यास संवेदनशील मानवीय त्रासदी पर है. साहित्य के सत्ता केंद्रों से जुड़े लोग मुझे पसंद नहीं करते. इसलिए उपन्यास भी उपेक्षित हो गया.

क्या यह विचित्र बात नहीं कि जो पंकज बिष्ट व्यापक सरोकारों की बात करते हैं, समाज में हस्तक्षेप की बात करते हैं, वे जब उपन्यास लिखते हैं तो समलैंगिकता को विषय बनाते हैं?
देखिए, किसी रचना का महत्व और मूल्यांकन विषय से नहीं होता, प्रस्तुति और सरोकार से होता है. रचना का संबंध मानवीय मूल्यों से होता है और इसी अर्थ में वह व्यापक प्रश्नों से जुड़ता है. कला से यह अपेक्षा करना कि उसमें यथार्थ सीधे-सीधे अभिव्यक्त हो, गलत है. ‘पंखवाली नाव’ के नायक की जो स्थिति है, उसका एक सामाजिक संदर्भ है. इस उपन्यास में ही नहीं बल्कि मेरी किसी भी रचना में सीधे-सीधे क्रांतिकारिता अभिव्यक्त नहीं हुई है.

आप पर सबसे बड़ा आरोप पहाड़वाद का है. पहाड़ के लोगों का संदर्भ आते ही आपकी सारी प्रतिबद्धताएं किनारे हो जाती हैं. नामवर सिंह द्वारा जसवंत सिंह की पुस्तक का लोकार्पण करने या एक पारिवारिक आयोजन में उदय प्रकाश का आदित्य नाथ के हाथों पुरस्कार लेने पर आप हाय-तौबा मचाते हैं पर वहीं मंगलेश डबराल के आरएसएस के संस्थान में जाकर भाषण देने से आपको कोई समस्या नहीं होती. बल्कि आप उल्टे उनका बचाव करते हैं. आप हिंदी अकादेमी का विरोध करते रहे हैं लेकिन जैसे ही हरि सुमन बिष्ट सचिव बने, अकादमी ठीक हो गई?
मंगलेश डबराल वहां गए और इसके लिए उन्होंने माफी भी मांग ली. मैंने उनका नहीं ‘लेफ्ट’ का बचाव किया. ओम थानवी ने ‘आवाजाही के हक में’ शीर्षक से जो लेख लिखा वह गलत नीयत से लिखा था. वे इसके बहाने लोगों से बदला ले रहे थे और पूरे वामपंथ को कटघरे में खड़ा कर रहे थे. मैं नहीं कहता कि मंगलेश का वहां जाना सही था, पर नामवर सिंह और उदय प्रकाश का मामला बिल्कुल अलग है. नामवर सिंह जसवंत सिंह के पुस्तक लोकार्पण में सिर्फ जातिवादी कारण से गए. दूसरी बात नामवर सिंह हिंदी के बड़े ‘फिगर’ हैं. उनके आचरण का असर नीचे तक होता है. इसलिए भी उनके गलत आचरण का मुखर विरोध जरूरी हो जाता है. इसी तरह उदय प्रकाश और आदित्य नाथ वाला आयोजन भी विशुद्ध पारिवारिक आयोजन नहीं था जैसा कि प्रचारित किया गया. वह एक प्रायोजित पुरस्कार था. उस समय साहित्य अकादमी में हिंदी के कन्विनर विश्वनाथ प्रसाद तिवारी थे जो गोरखपुर के ही हैं. यह अकारण नहीं है कि अगला साहित्य अकादेमी पुरस्कार उदय प्रकाश को मिला. रही बात अकादेमी से मेरे संबंध की तो मैंने संस्थाओं का अंधविरोध कभी नहीं किया. हमेशा यही चाहा कि संस्थाओं में अच्छे व्यक्ति आएं. हिंदी अकादेमी से भी मेरा विरोध व्यक्ति यानी अशोक चक्रधर से था.

कई बार ऐसा लगता है कि आपकी प्रतिबद्धताएं और सरोकार चयनित हैं. आप लेखकों की सत्तापरस्ती का हमेशा विरोध करते हैं, लेकिन रामशरण जोशी के विरुद्ध आपने समयांतर में एक लाइन भी नहीं लिखी जबकि अर्जुन सिंह से उनके बहुत करीबी संबंध रहे और उसका उन्हें लाभ भी मिला. यह चयनित पक्षधरता क्यों?
पहले तो मैं आपको बता दूं कि रामशरण जोशी पहाड़ी नहीं हैं. इसलिए मुझ पर पहाड़वाद का जो पहले आरोप आपने लगाया है वह गलत है. रामशरण जोशी मेरे मित्र हैं और वे समयांतर में नियमित लिखते रहते हैं. आप मुझे यह बताएं कि अर्जुन सिंह से जुड़ने के कारण उन्होंने कोई प्रतिक्रियावादी काम या लेखन किया है क्या? अगर नहीं तो फिर विरोध किस चीज का किया जाए?

आपकी पत्रिका समयांतर को चटखारे और चाट की तरह लिया जाता है. लोग दरबारी लाल का दिल्ली मेल पढ़ते हैं और पत्रिका को रख देते हैं. इस पर आपका क्या कहना है?
यह बात केवल दिल्ली वालों पर लागू होती है. यहां के बुद्धिजीवी और लेखक सत्ता के पिछलग्गू हैं और दिन-रात जोड़-तोड़ की राजनीति में लगे रहते हैं, इसलिए उनकी दिलचस्पी दिल्ली मेल में होती है वरना बिहार, बंगाल, आंध्र प्रदेश की जेलों में बंद राजनीतिक कैदी तक समयांतर के पाठक हैं. महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, पंजाब, हरियाणा से लेकर पूर्वोत्तर तक समयांतर के ऐसे प्रतिबद्ध पाठक हैं जो एक अंक नहीं मिलने पर भी परेशान हो जाते हैं.

अभी हिंदी में लघु पत्रिकाओं का स्वर्ण युग है. नई पत्रिकाओं का निकलना जारी है. विज्ञापन भरपूर मिल रहे हैं. बावजूद इसके आप समयांतर को लेकर आर्थिक तंगी की बात करते रहते हैं. क्यों?
आप जिस स्वर्ण युग की बात कर रहे हैं वह साहित्यिक लघु पत्रिकाओं के लिए है. इन पत्रिकाओं के पीछे सरकारी लोग हैं जो विज्ञापन दिलाते हैं और बदले में अपनी रचनाएं छपवाकर साहित्यिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करते हैं. दिक्कत तब होती है जब आप समयांतर जैसी प्रतिबद्ध राजनीतिक पत्रिका निकालते हैं जो सत्ता विरोधी चरित्र के कारण सरकारी संस्थानों को सूट नहीं करती है. इसलिए हमें विज्ञापन नहीं मिलते.
वामपंथ के प्रति आपकी पक्षधरता जगजाहिर है, पर लेखक संगठनों के बारे में आप क्या सोचते हैं? उनकी हस्तक्षेपकारी भूमिका अब समाप्त हो गई है.
मेरा शुरू से यह कहना रहा है कि लेखक संगठनों को ट्रेड यूनियन की तरह काम करना चाहिए और लेखकों कें हितों की लड़ाई लड़नी चाहिए. बड़े-बड़े साहित्यिक समारोहों में लेखक संगठनों की कोई भूमिका नहीं होती. लेखक संगठन अपने को पंजीकृत नहीं करवा रहे हैं. उन्हें डर है कि पंजीकरण के बाद साल भर का हिसाब-किताब देने सहित सरकारी नियंत्रण और कई तरह के दूसरे झमेले न बढ़ जाएं. उन्हें कोई बड़ी भूमिका निभानी है तो ट्रेड यूनियन की तर्ज पर ही काम करना होगा. दूसरी बात यह है कि पूरी हिंदी पट्टी में वामपंथी पार्टियों की भूमिका खत्म हो गई है तो उनसे जुड़े लेखक संगठन कोई बड़ी भूमिका कैसे निभा पाएंगे.

आपने सरकारी नौकरी छोड़कर एक मिशन के रूप में समयांतर का प्रकाशन शुरू किया. क्या आप समयांतर की स्थिति से संतुष्ट हैं?
समयांतर से मैं संतुष्ट हूं कि मुझे पाठकों का प्यार मिला. हमने समयांतर के माध्यम से लेखकों और पत्रकारों की एक नई पीढ़ी तैयार की. हम समाज में जो हस्तक्षेप करना चाहते थे वह भी कर रहे हैं. हमने पेड न्यूज पर पहले पहल प्रेस काउंसिल की रिपोर्ट छापी. मैं सोचता हूं कि मैं नौकरी करता तो मुझे क्या मिलता आज श्रीनगर से केरल तक समयांतर के पाठक मिलेंगे.