‘कहां से आएगा गलत को गलत कहने का साहस?’

रोजमर्रा की जिंदगी में कुछ ऐसी घटनाएं घटती हैं जो होती तो एकदम आम हैं लेकिन याद रह जाती हैं और साथ छोड़ जाती हैं कुछ सवाल. अभी कुछ ही दिन पहले की बात है, ऑफिस से घर जाने के लिए 540 नंबर की बस में सवार हुआ. शाम का वक्त होने के कारण बस में ज्यादातर वही लोग थे जो अपने-अपने ऑफिस से घर जा रहे थे. कुछ के चेहरे पर सुकून था तो कई अन्य बेहद जल्दी में नजर आ रहे थे. दिल्ली के ट्रैफिक का हाल तो किसी से छिपा नहीं है. बस चल क्या रही थी लगभग रेंग रही थी. बस सावित्री सिनेमा के करीब पहुंची ही थी कि एक पुलिसवाले ने बस को रुकने का इशारा किया हालांकि वहां कोई बस स्टॉप नजर नहीं आ रहा था.

बसवाले ने वर्दी के रुआब में या फिर शायद पुरानी जान पहचान के चलते बस रोक दी. बस का रुकना था कि उसके पीछे तेज गति से आ रहे एक ऑटो चालक ने चीखते हुए ब्रेक लगाया. शायद उसे एहसास नहीं था कि बस यूं अचानक रुक जाएगी. जो पुलिसवाला  बस में चढ़ने जा रहा था, वह न जाने ऑटो चालक की किस गलती पर खफा हो गया. उसने आव देखा न ताव लगा, ऑटोवाले को थप्पड़ों से पीटने. इस बीच वह अपने संस्कारी होने का भी पूरा परिचय दे रहा था. एक से एक गंदी गाली. गालियां देने में वह ऐसी अद्भुत कल्पनाशीलता का प्रयोग कर रहा था कि बड़े-बड़े दिग्गज शरमा जाएं.

ऑटो चालक शायद दूर देश से खाने-कमाने आया कोई परदेसी था और चूंकि उसकी कोई गलती नहीं थी इसलिए उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह इस पूरी घटना पर आखिर कैसे रिएक्ट करे. ऑटो में एक लड़की बैठी थी और पुलिसवाले ने गालियां देते वक्त एक क्षण के लिए उसका भी लिहाज नहीं किया. वह पुलिसवाले से ‘सॉरी सर, सॉरी ‘सर’ की रट लगाए बैठी थी. जबकि उसकी या ऑटो चालक की कोई गलती थी ही नहीं.

इस बीच बसवाला चुपचाप बस रोके खड़ा रहा मानो पुलिसवाला देश हित का कोई बहुत जरूरी काम निपटा रहा हो. लेकिन शायद पुलिसवाले को ही जाने की जल्दी थी. उसने ऑटो को किनारे खड़ा करवाया और पास ही मौजूद बूथ से एक दूसरे पुलिसवाले को बुलाया. अब पहला पुलिसवाला बस में आ चुका था, जबकि दूसरा वापस वही पुरानी कहानी दोहराने में लग गया था. ऐसा लग रहा था मानो वे दोनों एक ही शख्स हैं बस उनकी शक्लें बदल गई हैं.

इलश्ट्रेशन:मनीषा यादव

पुलिसवाला जब तक नीचे अपना राक्षसी हुनर दिखा रहा था तब तक बस में सवार तमाम लोग पुलिसवालों के जुल्मों के किस्से याद कर रहे थे लेकिन जैसे ही वह पुलिसवाला बस में सवार हुआ, सारे लोगों की निष्ठा एक क्षण में बदल गई. अब दिल्ली की सड़कों पर चलने वाले ऑटो चालक दुनिया के सबसे बदतमीज, लुटेरे और डकैत हो चले थे. वे पुलिसवाले को यह कह कर उसका मन बढ़ा रहे थे कि भाई साहब आपने बिल्कुल ठीक किया और अब यह कुछ समय तक आदमी की तरह रहेगा वगैरह…वगैरह.

ऐसा नहीं था कि मैंने इस पूरे घटनाक्रम में कोई हस्तक्षेप किया या फिर किसी तरह का प्रतिरोध दिखाया लेकिन फिर भी मैं पुलिसवाले के साथ-साथ अपने सहयात्रियों के व्यवहार से भी बुरी तरह हतप्रभ था. बस अगले चौराहे से बाएं घूम गई जहां एक बड़े-से होर्डिंग पर दिल्ली पुलिस का विज्ञापन लगा हुआ था- दिल्ली पुलिस सदैव आपके साथ! क्या पुलिस के उच्चाधिकारियों के कानों तक कभी यह खबर पहुंचती होगी कि उनके कर्मचारी किस तरह लोगों के साथ बेजा हरकतें करते हैं या फिर पूरे कुएं में ही भांग घुली हुई है?

पुलिसवाला तो खैर पुलिसवाला ही था… लेकिन मेरे मन में एक सवाल यह भी उठ रहा है कि बस में सवार तमाम लोगों (मुझ समेत) के सामने ऐसी कौन-सी मजबूरी थी कि इतने लोगों में से एक ने भी गलत को गलत कहने का साहस नहीं दिखाया. यह वर्दी का खौफ था या नौकरीपेशा लोगों के खून में समा गई कायरता और चापलूसी का नमूना?