बद-नामधारी!

सुखदेव सिंह नामधारी का अतीत मौका और दस्तूर के हिसाब से पाला बदलने का रहा है. उन्हें जानने वाले बताते हैं कि उनकी इस कला ने ही उन्हें मामूली ट्रक ड्राइवर से उत्तराखंड अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष जैसे संवैधानिक पद तक पहुंचा दिया. नामधारी हाई प्रोफाइल पोंटी चड्ढा-हरदीप सिंह हत्याकांड की महत्वपूर्ण कड़ी हैं.

नामधारी के बारे में कहा जाता है कि वे जिस सीढ़ी से ऊपर चढ़ते थे सबसे पहले उसे ही खत्म करते थे. यही कारण है कि आज उनके कस्बे बाजपुर में उनसे सहानुभूति रखने वाला एक भी व्यक्ति नहीं मिलता.  उत्तराखंड में उधम सिंह नगर जिले के बाजपुर कस्बे के एक व्यापारी नामधारी के परिवार के बारे में विस्तार से बताते हैं, ‘बाजपुर थाने के मुंडिया मनी गांव के निवासी नामधारी के पिता किसानी करते थे. घर की महिलाएं कोल्हू में गुड़ बनाती थीं और पुरुष उसे बाजार ले जाकर बेचते थे. धीरे -धीरे उनका परिवार किसानी के साथ-साथ मंडी समिति में अनाज की ढुलाई और ट्रांसपोर्ट के काम में लग गया.’ 

पंजाब में जब आतंकवाद का जोर था तो उसका असर उत्तराखंड की तराई में भी पड़ रहा था. उस दौर में तराई के बड़े नेता थे पं. गुरुबचन लाल शर्मा जिनकी छवि आतंकवादियों से टक्कर लेने वाले की बन गई थी. बताते हैं कि उन दिनों गुरुबचन लाल और तब के अकाली दल नेता व वर्तमान में भाजपा विधायक हरभजन सिंह चीमा के बीच टकराव चलता था. दोनों गुटों के साथ दंबगों की फौज थी. इस गैंगवार में कई हत्याएं भी हुईं. उस दौर में नामधारी और उनका भाई बलदेव सिंह, चीमा के सुरक्षा गार्ड बन गए थे. कहने को दोनों भाई सुरक्षा गार्ड थे लेकिन वास्तव में उन्होंने अपने मामा के साथ मिलकर अपना एक गुट बना रखा था. चीमा पर इस गुट को संरक्षण देने का आरोप लगता था. इलाके के लोग बताते हैं कि धीरे-धीरे इस गुट ने पैसे लेकर उत्तराखंड और उसके बाहर भी उगाही और संपत्तियों पर कब्जा करने का धंधा शुरू कर दिया.

1994 में गुरुबचन लाल शर्मा की हत्या हो गई. पहली बार नामधारी का नाम इसी अपराध के सिलसिले में सामने आया. बाद में नामधारी इस मामले से बरी हो गए. लेकिन उनकी और चीमा की दोस्ती अधिक दिनों तक नहीं चली. नामधारी ने इलाका बदल लिया. वे पंजाब के कांग्रेसी सांसद राणा गुरजीत के शागिर्द बन गए. राणा गुरजीत का नामदारी के कस्बे बाजपुर में फार्म था. नामधारी यह साथ भी ज्यादा दिनों तक निभा नहीं पाए. कुछ ही दिनों बाद उन्होंने भाजपा विधायक अरविंद पांडे से नाता जोड़ लिया. कहा जाता है कि पांडे के साथ ने नामधारी के भीतर राजनीतिक महत्वाकांक्षा पैदा की.

भाजपा से मिली थोड़ी-सी राजनीतिक ताकत और अपने बाहुबल के जरिए नामधारी की धाक उत्तराखंड के तराई इलाके में जम गई थी. 2001-02 में नया राज्य बनने के साथ ही राज्य में बड़े पैमाने पर खनन के पट्टे दिए गए. पोंटी चड्ढा इसमें सबसे बड़े लाभार्थी थे. बताते हैं कि यह मौका पोंटी और नामधारी को करीब लाने में मददगार सिद्ध हुआ. हालांकि नामधारी कुमाऊं के बागेश्वर में पोंटी का खनन का धंधा पहले से ही देखते आ रहे थे, लेकिन नया राज्य बनने के बाद दोनों का काम बड़े पैमाने पर फैला और साथ ही दोनों की नजदीकी भी बढ़ गई. अपनी राजनीतिक पहुंच का इस्तेमाल करते हुए नामधारी ने खनन के कई पट्टे हासिल किए.  पिछली भाजपा सरकार में उधम सिंह नगर के कई खनन पट्टों में नामधारी का हिस्सा था. पोंटी से निकटता और खनन पट्टों में हिस्सेदारी के बाद आई समृद्धि नामधारी के किलेनुमा मकान से झलकती है. अपने चरित्र के अनुकूल नामधारी पांडे से भी अपने रिश्ते कायम नहीं रख सके. उनकी महत्वाकांक्षा उड़ान भर रही थी. फरवरी, 2010 में वे राज्य अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष जैसे संवैधानिक पद पर जा पहुंचे. दबी जुबान में सरकारी अधिकारी इसे पोंटी का आशीर्वाद बताते हैं.

उधम सिंह नगर के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक एएस ताकवाले बताते हैं, ‘नामधारी पर जिले में 12 मुकदमे दर्ज हुए जिनमें से पांच में थाने से ही फाइनल रिपोर्ट लगी और छह में वे न्यायालय से बरी हुए. केवल एक मामले में चार्जशीट दाखिल हो सकी है.’ उत्तराखंड कैडर के एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि नामधारी राज्य में कई हत्याकांडों में शामिल रहे हैं लेकिन उनके सियासी रसूख और दबंगई के कारण किसी भी मामले में एफआईआर तक दर्ज नहीं हुई. पोंटी चड्ढा के साथ नाम जुड़ने के बाद भी कई संगीन मामलों में उनका नाम उछला लेकिन वे किसी में नामजद नहीं हुए. इनमें से एक अफजलगढ़ थाना क्षेत्र में अरविंद सिंह हत्याकांड है. इस हत्याकांड में भी नामधारी के शूटरों का नाम आया था. यह हत्या करोड़ों की भूमि पर कब्जा जमाने के लिए हुई थी. बाद में इस जमीन पर नामधारी के गुर्गों ने कब्जा कर लिया.

उत्तराखंड आबकारी विभाग के अधिकारियों की मानें तो पिछले कुछ समय से पोंटी राज्य के शराब व्यापार में घुसने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए थे. शराब के ठेके हासिल करने के लिए जरूरी पात्रता पाने के लिए पिछले पांच-छह साल में उन्होंने नामधारी और उनके परिजनों के नाम पर उत्तराखंड में जमकर जमीनें खरीदी हैं. आज ये सारी जमीनें नामधारी परिवार के कब्जे में हैं.

पोंटी चड्ढा हत्याकांड के बाद नामधारी को लेकर उत्तराखंड में भाजपा की भी कलई खुल गई है. बदलते घटनाक्रम के साथ पार्टी नेताओं के बयान बदलते रहे. पहले नामधारी के राजनीतिक उत्पीड़न की संभावना जताई गई. फिर बयान आया कि वे भाजपा के सदस्य ही नहीं हैं. अब उन्हें भाजपा से निष्कासित कर दिया गया है. नामधारी के पुराने साथी रहे भाजपा के एक नेता बताते हैं, ‘नामधारी छोटे-से फायदे के लिए किसी का बड़े से बड़ा नुकसान करने में संकोच नहीं करते हैं.’