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जयगढ़ का खजाना : आपातकाल

कभी जयपुर राजघराने की संपत्ति रहा जयगढ़ किला जयपुर के नजदीक स्थित है. यह किला राजा जयसिंह (द्वितीय) ने 1726 में बनवाया था. 1975-76 में देश में लागू हुए आपातकाल के समय जब आयकर विभाग ने जयपुर राजघराने के महलों पर छापे मारे और सेना ने इस किले की तलाशी ली तब यह किला देश भर में चर्चा का केंद्र बन गया था.

ऐतिहासिक स्रोत बताते हैं कि अकबर के दरबार में सेनापति जयपुर के राजा मानसिंह (प्रथम) ने मुगल शहंशाह के आदेश पर अफगानिस्तान पर हमला किया था. इस इलाके को जीतने के बाद राजा मानसिंह को काफी धन-दौलत मिली, लेकिन उन्होंने इसे दिल्ली दरबार में सौंपने के बजाय अपने पास ही रख लिया. इस घटना के बाद से ये चर्चाएं चलती रहीं कि राजघराने ने यह संपत्ति गुप्त स्थानों पर छिपाकर रखी है. जयगढ़ किले के निर्माण के बाद कहा जाने लगा कि इसमें पानी के संरक्षण के लिए बनी विशालकाय टंकियों में सोना-चांदी और हीरे-जवाहरात छिपा कर रखे गए हैं.

जयगढ़ किले में खजाने की बात देश को आजादी मिलने के बाद भी गाहे-बगाहे चर्चा में आती रही. इस वक्त जयपुर राजघराने के प्रतिनिधि राजा सवाई मान सिंह (द्वितीय) और उनकी पत्नी गायत्री देवी थे. ‘स्वतंत्र पार्टी’ के सदस्य ये दोनों लोग कांग्रेस के धुर विरोधी थे. गायत्री देवी तीन बार जयपुर से कांग्रेस के प्रत्याशी को हराकर लोकसभा सदस्य भी बनीं. इस दौरान राजघराने के कांग्रेस पार्टी से संबंध काफी खराब हो गए.

1975 में जब देश में आपातकाल लगा तब गायत्री देवी ने इसका मुखर विरोध किया और कहा जाता है कि इंदिरा गांधी सरकार ने इस वजह से आयकर विभाग को राजघराने की संपत्ति की जांच के आदेश दे दिए. 1976 में सरकार की इस कार्रवाई में सेना की एक टुकड़ी भी शामिल थी. इसे जयगढ़ किले में खजाना खोजने की जिम्मेदारी सौंपी गई. उस समय सेना ने तीन महीने तक जयगढ़ किले और उसके आस-पास खोजी अभियान चलाया.

लेकिन खोजी अभियान समाप्त होने के बाद सरकार ने औपचारिक रूप से बताया कि किले से किसी तरह की संपत्ति नहीं मिली.हालांकि बाद में सेना के भारी वाहनों को दिल्ली पहुंचाने के लिए जब दिल्ली-जयपुर राजमार्ग तीन दिन के लिए बंद किया गया तो यह चर्चा जोरों से चल पड़ी कि सेना के वाहनों में राजघराने की संपत्ति है. लेकिन बाद में इस बात की कभी पुष्टि नहीं हो पाई और अभी तक यह बात एक रहस्य ही है.  
-पवन वर्मा

‘दूरसंचार क्षेत्र की बर्बादी हमारी नहीं बल्कि सीएजी की दी हुई विरासत है’

क्या आपको लगता है कि 2जी स्पेक्ट्रम की हालिया नीलामी से हासिल हुई रकम पर्याप्त है?
मुझे नहीं पता कि यह राशि ठीक है अथवा नहीं. हकीकत यह है कि नीलामी में जो राशि मिल गई वह मिल गई. बाजार इसी तरह चलता है. हम अपनी तरफ से इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं. बाजार को जो कीमत उचित लगी या जो उसकी क्षमता थी वह उसने दी. 

दूरसंचार क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत का चेहरा था. क्या आपको लगता है कि इससे छवि खराब हुई है?
वह छवि तो बर्बाद हो ही गई है, और इसके मूल में वही 1.76 लाख करोड़ रुपये का आंकड़ा है.

सीएजी ने अनुमानित नुकसान के कई आंकड़े पेश किए थे, लेकिन नीलामी में बिल्कुल अलग ही आंकड़ा देखने को मिला.
देखिए, 2012 के बाजार की 2010 के बाजार से या फिर 2010 के बाजार की  2008 के बाजार से तुलना नहीं की जा सकती. मेरा मानना है कि जैसे ही आप अनुमान लगाने की कोशिश करते हैं गलतियों की शुरुआत हो जाती है. इस तरह आप प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से बाजार व्यवस्था में हस्तक्षेप करते हैं जो इस बर्बादी के लिए जिम्मेदार है. मेरा कहना है कि कथित गलतियों के लिए आप सरकार के मंत्रियों पर तो कार्रवाई कर सकते हैं, लेकिन जो बाजार कुछ समय पहले तक शानदार तरक्की कर रहा था वह आज अगर दो लाख करोड़ के कर्ज तले दबा है तो किस पर कार्रवाई की जाए?
क्या संप्रग सरकार की यही विरासत रहेगी कि एक ऐसा क्षेत्र जो उसके सत्ता संभालने के समय खूब फल-फूल रहा था, अब अंतिम सांसें गिन रहा है?
यह संप्रग सरकार की नहीं बल्कि सीएजी की विरासत है.

सरकार को इस क्षेत्र की हालत सुधारने के लिए क्या कदम उठाने चाहिए?
पिछली नीलामी के बाद दूरसंचार क्षेत्र के शेयरों के दाम बढ़े हैं. मुझे खुद क्षेत्र के लोगों से ऐसी प्रतिक्रिया मिल रही है कि हमारे विजन डॉक्यूमेंट और 20 साल की हमारी नीतियों के साथ इस क्षेत्र में आगे सुधार होगा और एक बार फिर मजबूती आएगी. हां, ऐसा तभी होगा जब बीच में कोई हस्तक्षेप न करे.

क्या आपको उम्मीद है कि 31 मार्च से पहले होने वाली दूसरी नीलामी इससे बेहतर रहेगी?
मुझे नहीं पता. मैं एक बार फिर कहूंगा कि हम बाजार की दिशा तय नहीं कर सकते. बाजार अपनी क्षमता खुद तय कर लेगा. नीलामी में जो भी कीमत मिलेगी वह बाजार की क्षमता के मुताबिक ही होगी.

भाजपा का आरोप है कि सरकार नीलामी में कम राशि आने से काफी खुश है?
मैं ये तो नहीं कह सकता कि हम खुश हैं लेकिन वे जरूर बेहद दुखी हैं. मैं तो सार्वजनिक रूप से कह चुका हूं कि हम निराश हैं. लेकिन वास्तव में मेरी निराशा बेमानी है क्योंकि बाजार हमें वही कीमत देगा जिस पर वह कारोबार कर सकता है. भाजपा की यह टिप्पणी राजनीति से प्रेरित है.

सीएजी के सेवानिवृत्त डीजी आरपी सिंह ने कहा है कि वे 2जी के अनुमानित नुकसान के आंकड़ों से सहमत नहीं हैं?
वे ऐसा पहले भी कह चुके हैं. सच यह है कि वे उस समय अकाउंटिंग में इस्तेमाल किए गए तरीके से इत्तेफाक नहीं रखते थे. वे अकाउंटिंग से जुड़े एक योग्य व्यक्ति हैं. सीएजी ने नुकसान के जो अनुमानित आंकड़े पेश किए थे वे उनसे सहमत नहीं थे. हम मीडिया का धन्यवाद करते हैं कि उसने इस खबर को दिखा-दिखाकर हमें इस स्थिति में पहुंचा दिया.

आरोप हैं कि पीएसी के प्रमुख मुरली मनोहर जोशी ने सीएजी अधिकारियों से मिलकर 2जी की ऑडिट रिपोर्ट पर चर्चा की थी?
हां, अब यह तथ्य सबके सामने है. मैं केवल यही कह सकता हूं कि कोई भी संस्थान व्यक्ति विशेष से अधिक महत्वपूर्ण है. मुझे पूरी उम्मीद है कि भविष्य में सुधार संबंधी कदम उठाए जाएंगे और ऐसे स्थानों पर बैठे लोग संस्थान की गरिमा का ध्यान रखेंगे.

आप सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री भी हैं, मुंबई में दो लड़कियों को फेसबुक पर कमेंट करने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया. आपको लगता है कि इस मामले में धारा 66ए लगाना ठीक था?
निश्चित तौर पर यह गलत था. 66ए कहता है कि भाषा अपमानजनक अथवा डराने-धमकाने वाली नहीं होनी चाहिए. मुझे नहीं लगता कि लड़कियों की टिप्पणी इस परिभाषा के तहत आती है. जाहिर-सी बात है कि यह 66ए की आड़ में सत्ता का दुरुपयोग है. ऐसी धाराओं के उपयोग से पहले कुछ सुरक्षात्मक उपाय करने की आवश्यकता है.

मन की गांठ बनी दुश्मन

ओणम का पर्व था. तिरुअनंतपुरम में विश्वमोहनन पिल्लई त्योहार के इस मौके पर सेना में तैनात अपने बेटे अरुण वी की बाट जोह रहे थे. बेटे की जगह ताबूत में उसकी लाश आई. पता चला कि अरुण ने आठ अगस्त, 2012 को खुदकुशी कर ली. जम्मू-कश्मीर के सांबा जिले में तैनात 16वीं लाइट कैवलरी रेजिमेंट के इस जवान ने अपनी ही बंदूक से खुद को गोली मार ली थी. 30 साल के अरुण छुट्टी लेकर अपने परिवार के पास जाना चाहते थे, लेकिन उनकी छुट्टी की दरखास्त नामंजूर हो गई थी. बताते हैं कि इससे परेशान अरुण ने मौत को गले लगा लिया.

जैसे ही इस घटना की खबर फैली, नाराज जवानों ने अपने अधिकारियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया. कई घंटे बाद भी जब टकराव नहीं थमा तो हालात काबू में करने के लिए अतिरिक्त बल बुलाए गए. इसके साथ ही एहतियातन अधिकारियों को उनके घरों से निकालकर दूसरी जगहों पर पहुंचाना पड़ा. घटना की जांच के लिए कोर्ट ऑफ इंक्वायरी का गठन किया गया.

सेना में यह कोई नई घटना नहीं है. बीती मई में ही लेह के पास तैनात सेना की एक हथियारबंद टुकड़ी, 226 फील्ड रेजिमेंट के अफसरों और जवानों के बीच हाथापाई की घटना सुर्खियां बनी थी. बताया जाता है कि विवाद एक जवान द्वारा एक मेजर की पत्नी से दुर्व्यवहार करने के बाद शुरू हुआ था जो पहले हाथापाई और फिर सामूहिक संघर्ष में बदल गया. जवानों ने शस्त्रागार पर कब्जा कर लिया और वे वरिष्ठ अधिकारियों के इस आश्वासन के बाद ही शांत हुए कि दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई होगी.

हालांकि सेना अब तक ऐसी घटनाओं को अपवाद करार देती रही है. सैन्य प्रमुख जनरल बिक्रम सिंह का मानना है कि 13 लाख सैनिकों और अधिकारियों वाले संगठन में ऐसी एकाध घटनाओं से कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए. सांबा की घटना के बारे में बात करते हुए उन्होंने टकराव और आत्महत्या के बीच किसी संबंध की बात से इनकार किया. जनरल सिंह का कहना था, ‘हम समस्याओं की पड़ताल कर रहे हैं और उन्हें ठीक करने की कोशिश हो रही है.’

लेकिन बाद में रक्षा मंत्री एके एंटनी ने जो बात कही वह इसके उलट थी. तीन सितंबर को उन्होंने संसद को बताया कि पिल्लई की आत्महत्या से सांबा सेक्टर में तैनात बलों में असंतोष पैदा हो गया है. उन्होंने टकराव और आत्महत्या का आपसी संबंध स्वीकारा. रक्षा मंत्री द्वारा जारी किए गए आंकड़ों ने एक डरावनी तस्वीर भी दिखाई जिससे साफ जाहिर हुआ कि जवानों और अधिकारियों में अपने काम से मोहभंग की स्थिति कितनी गंभीर है.
एंटनी के मुताबिक पिछले तीन साल में 25,000 सैनिकों ने सेवा से स्वैच्छिक अवकाश चाहा है. उन्होंने यह भी कहा कि इसी दौरान 1,600 से भी ज्यादा अधिकारियों ने या तो स्वैच्छिक अवकाश मांगा या फिर उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया. इस आंकड़े की गंभीरता इससे भी समझी जा सकती है कि सेना पहले ही करीब 12,000 अधिकारियों की कमी से जूझ रही है. एंटनी ने यह भी बताया कि 2003 से अब तक 1,000 से भी ज्यादा जवान आत्महत्या कर चुके हैं.

पिछले तीन साल में 25,000 सैनिकों ने सेवा से स्वैच्छिक अवकाश चाहा है. उन्होंने यह भी कहा कि इसी दौरान 1,600 से भी ज्यादा अधिकारियों ने या तो स्वैच्छिक अवकाश मांगा या फिर उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया.

सवाल उठता है कि सेना में ऐसा क्यों हो रहा है. आखिर क्यों जवान और अधिकारी एक-दूसरे के साथ दुश्मन जैसा बर्ताव कर रहे हैं? इसके जवाब में एक वर्ग सारा दोष अधिकारियों की कमी और नए रंगरूटों के गिरते स्तर पर मढ़ता है. रिटायर्ड मेजर जनरल अफसर करीम कहते हैं, ‘सेना का काफी विस्तार हुआ है और इसकी वजह से गुणवत्ता में कमी आई है. अधिकारियों की भर्ती जिस तरीके से होती है उसमें ही खामियां हैं. समस्या वरिष्ठ कमांड में भी है जो अप्रत्यक्ष तरीके से कई चीजों को प्रभावित करता है जैसे यह कि लोगों के साथ कैसा बर्ताव हो, उन्हें कहां तैनात किया जाए आदि.’ हालांकि सब इससे सहमत नहीं. रिटायर्ड मेजर जनरल जीडी बख्शी का मानना है कि शांतिकाल में ऐसा मुश्किल से ही होता है कि जवानों और अधिकारियों के बीच कोई मजबूत बंधन बन जाए. वे कहते हैं, ‘लड़ाई सबसे बड़ा जोड़ होती है. वहीं पर आप एक साथ मौत के सामने होते हैं.’

कुछ अधिकारियों की मानें तो कमांडिंग अफसरों और जवानों के बीच संवाद की कमी हो गई है. इसकी एक वजह तो यह है कि अधिकारियों की संख्या काफी नहीं है और दूसरी यह कि जूनियर कमीशंड अधिकारी को पर्याप्त जिम्मेदारी नहीं दी जाती जो अधिकारियों और जवानों के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी होता है. एक और पहलू वर्ग भेदभाव का भी है. वित्तीय मामले, कोर्ट ऑफ इंक्वायरी आदि अधिकारी ही देखते हैं. मोर्चा संभालने वाली एक बटालियन को 21 अधिकारियों की जरूरत होती है. लेकिन जमीनी हकीकत देखें तो उसे सिर्फ सात-आठ अधिकारी मिल पाते हैं. इसका मतलब यह हुआ कि एक अधिकारी तीन लोगों का काम संभाल रहा है. इससे अधिकारी को अपने जवानों के साथ संवाद के लिए उतना समय नहीं मिल पाता जितना मिलना चाहिए.

ले. जनरल (सेवानिवृत्त) राज काद्यान कहते हैं, ‘पुराने दिनों में हम अपने पास एक नोटबुक रखते थे. इसमें हर उस जवान से जुड़ी जानकारियां होती थीं जो हमारे साथ होता था. उसकी पसंद, नापसंद, स्वभाव, परिवार आदि के बारे में हमें पता होता था. अब जवानों और अधिकारियों का अनुपात इतना बिगड़ा हुआ है कि इस तरह की गतिविधि के लिए समय ही नहीं मिल पाता.’

प्रोमोशन के लिए विकल्पों की कमी भी एक कारण है. नाम न छापने की शर्त पर एक पूर्व कमांडर बताते हैं, ‘अधिकारियों में सिर्फ 25 फीसदी ही कर्नल बनते हैं और जनरल बनने का अवसर तो 0.05 प्रतिशत को ही मिल पाता है. मेरे बैच में 1,200 कमीशंड अधिकारी थे और उनमें से सिर्फ मैं ही कमांडर के स्तर तक पहुंचा. अधिकारियों में काफी असंतोष है. कई साल की सेवा के बाद एक ऊंचे रैंक तक पहुंचने की चाह रखना स्वाभाविक ही है.’ दूसरी तरफ जवानों की बात करें तो पहले सेना में भर्ती होने वाले रंगरूट गांव-देहात से आते थे. उन्हें बाहरी दुनिया के बारे में ज्यादा पता नहीं होता था. पिछले 15-20 साल के दौरान एक बड़ा बदलाव यह भी हुआ है कि नए रंगरूटों में से ज्यादातर शहरी या कस्बाई इलाकों से आ रहे हैं. वे अब ज्यादा शिक्षित हैं और इसलिए उनकी महत्वाकांक्षाएं भी बड़ी हैं. ये रंगरूट ऐसे नहीं हैं कि अफसरों ने जो हुक्म बजा दिया वह आंख मूंदकर मान लें.

2007 में रक्षा मंत्री एके एंटनी ने डिफेंस इंस्टीट्यूट ऑफ साइकोलॉजिकल रिसर्च से कहा था कि वह सेना में आत्महत्या और अपने साथियों को गोली मारने जैसी घटनाओं की पड़ताल करे2007 में रक्षा मंत्री एके एंटनी ने डिफेंस इंस्टीट्यूट ऑफ साइकोलॉजिकल रिसर्च से कहा था कि वह सेना में आत्महत्या और अपने साथियों को गोली मारने जैसी घटनाओं की पड़ताल करे. इस संस्था ने जांच के बाद कहा कि सुरक्षा बलों में कई ऐसे कारण हैं जो तनाव बढ़ाने का काम कर रहे हैं. इनमें काम का भारी बोझ, पर्याप्त आराम और छुट्टियों की कमी, बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव, परिवार से जुड़ी चिंताएं और सिविल प्रशासन से पर्याप्त सहयोग न मिलना प्रमुख हैं.

रिटायर्ड मेजर जनरल जीडी बख्शी कहते हैं, ‘पिछले 20 साल में काफी कुछ बदल गया है. हकीकत यह है कि सेना के लिए सम्मान में कमी आई है. पहले सेना में जाना गर्व की बात होती थी. लोग आपकी इज्जत करते थे. अब तो आपको बेवकूफ समझा जाता है जो अपनी जवानी बेकार कर रहा है.’

वरिष्ठ अधिकारी मानते हैं कि भ्रष्टाचार के हालिया मामलों ने भी सेना की छवि को चोट पहुंचाई है. इन मामलों में बड़े स्तर के अधिकारी शामिल रहे हैं. संसद में बयान के बाद एंटनी तीनों सैन्य प्रमुखों से मिले थे. रक्षा मंत्री ने उनके साथ आत्महत्या, सेवानिवृत्ति और सहयोगियों के साथ टकराव जैसे मुद्दों पर चर्चा की और उन्हें निर्देश दिए कि छुट्टी के मामले में जवानों के साथ उदारता दिखाई जाए. उन्होंने अपने मंत्रालय को रेलवे के साथ संपर्क करने को कहा ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि जब कोई जवान छुट्टी पर जाए तो उसे तुरंत आरक्षण मिल जाए. मंत्रालय तो सही कदम उठाता दिख रहा है. अब सेना को भी आत्ममंथन करके उचित कदम उठाना चाहिए. वर्ना स्थिति और गंभीर ही होती जाएगी.

पूरब की चाबी

आंग सान सू की के लिए बीते महीने भारत आना एक मायने में अपने दूसरे घर आने जैसा ही था. भारत के लिए यह अवसर म्यांमार से आए एक अतिथि से ज्यादा उस योद्धा का स्वागत करने का भी था जो लोकतंत्र के लिए लड़ाई का प्रतीक बन गया है. उसके लिए यह मौका उस म्यांमार में अपनी भूमिका सुनिश्चित करने का भी था जिस पर आज सारी दुनिया की नजरें लगी हैं.

सू की 1960 में पहली बार भारत आई थीं. उनकी मां डा खिन की को भारत में म्यांमार का राजदूत नियुक्त किया गया था. दिल्ली में स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद सू की लेडी श्री राम कॉलेज गईं और फिर 1964 में ऑक्सफोर्ड के सेंट ह्यूज कॉलेज. 1986 में उनका फिर भारत आना हुआ. उन्होंने और उनके पति माइकेल एरिस ने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज के फेलो के तौर पर दो साल शिमला में गुजारे. यहीं उन्होंने बर्मा ऐंड इंडिया: सम एसपेक्ट्स ऑफ इंटेलेक्चुअल लाइफ अंडर कॉलोनियलिज्म नाम का अपना पहला राजनीतिक लेख लिखा. फिर सू की म्यांमार लौटीं और 1962 से देश में शासन कर रही तानाशाह सैन्य सरकार के खिलाफ उठे जनज्वार की नेता के तौर पर उभरीं. इसके बाद लगभग डेढ़ दशक तक उन्हें यंगून स्थित उनके घर में नजरबंद रखा गया. जनवरी, 1991 में जब उन्हें शांति के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया तब भी वे घर में नजरबंद थीं.

आज सू की आजाद हैं और लोग उनके साथ हैं. उनकी पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी ने अप्रैल, 2012 में हुए उपचुनाव में भारी जीत हासिल की है. इस दौरान जहां भी वे गईं, उन्हें देखने और सुनने लाखों लोग उमड़ पड़े. विशाल टीवी स्क्रीनें, महंगे साउंड सिस्टम और ऐसी दूसरी बहुत-सी चीजें साफ संकेत दे रही थीं कि सू की के साथ उस कारोबारी समुदाय का भी समर्थन है जो हाल तक पूरी तरह से सैन्य जुंटा के साथ दिखता था. लेकिन यहीं से असली लड़ाई शुरू होती है.  उनके पास एक विरासत है जिसके चलते लोग उनसे बड़ी उम्मीदें बांधते हैं. सू की के पिता आंग सान म्यांमार की आजादी के नायक थे जिनकी जुलाई, 1947 में हत्या कर दी गई थी. अब कई सवाल हैं जो दुनिया को मथ रहे हैं. मसलन, सू की इस क्षेत्र में म्यांमार की भूमिका पर क्या रुख अपनाएंगी? वे भारत, अमेरिका, चीन और जापान के साथ रिश्तों पर क्या नजरिया रखेंगी? जवाब किसी को पता नहीं क्योंकि एक तो सू की को अब तक अपने देश का नेतृत्व करने का मौका नहीं मिला, दूसरे नजरबंदी के डेढ़ दशक के दौरान वे बाहरी दुनिया से कटी रहीं. अल्पसंख्यक समुदाय की आबादी वाले म्यांमार के इलाकों में लोगों की मुश्किलों पर वे खामोश रही हैं जहां सेना आज भी आम नागरिकों को आतंकित करती रहती है और जहां हजारों शरणार्थियों ने चीन सीमा के निकट शरण ली है. उनके इस रुख ने कइयों को निराश और चिंतित किया है.

लेकिन यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि वे इन मुश्किलों को नहीं पहचानतीं. सू की अपने यहां विदेशी मध्यस्थता की कोशिशों का यह कहते हुए विरोध करती रही हैं कि इसमें ज्यादा जोर विकास पर दिया जाता है और संवैधानिक सुधार और अल्पसंख्यकों के अधिकार पर कम. लेकिन जैसे हालात म्यांमार में हैं, जिस तरह का अलोकतांत्रिक संविधान वहां है उसमें यह नहीं हो सकता और न ही यह अब भी बेहद शक्तिशाली सेना के समर्थन के बगैर हो सकता है. शायद यही वजह है कि सू की ने अप्रैल में हुए उपचुनाव में हिस्सा लेने का फैसला किया था.

म्यामांर की चीन पर अत्याधिक निर्भरता भारत के लिए चिंता का विषय बन गई थी. इससे इस इलाके का सामरिक संतुलन चीन की तरफ झुक गया था

1988 के जनज्वार के बाद से ही सू की सेना के तंत्र से कट गई थीं, इसलिए वे इस दौरान सैन्य अधिकारियों को अपना नजरिया नहीं समझा सकीं. वैसे भी सेना के भीतर यह संदेश देने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई थी कि वे दुश्मन नंबर एक हैं. अब एक निर्वाचित सांसद के तौर पर वे ऐसा कर सकती हैं क्योंकि निचले सदन में एक चौथाई सीटें सेना के लिए आरक्षित हैं. कुछ हद तक ऐसा करने में सू की कामयाब भी रही हैं. हाल ही में मेरी जब सू की से उनके घर में मुलाकात हुई थी तो उन्होंने मुझे बताया, ‘पहले-पहल वे (सैन्य अधिकारी) कुछ घबराए-से लगे, लेकिन उनका रुख दुश्मनों जैसा नहीं था.’  इसकी प्रतिक्रिया भी हुई. अगस्त में कुछ सैन्य प्रतिनिधियों को इसीलिए बदल दिया गया था क्योंकि उनकी सू की के साथ ज्यादा ही छनने लगी थी. उनकी जगह तथाकथित कट्टरवादियों ने ली. उनमें वह अधिकारी भी था जिसे 2007 में हुए बौद्ध भिक्षुओं के आंदोलन को कुचलने का जिम्मा दिया गया था. साफ है कि सेना के इस एकाधिकार को तोड़ना आसान नहीं होगा.

सू की के साथ मेरी जो चर्चा हुई उससे साफ था कि उनका अपना एक एजेंडा है और वे मोहरे की तरह काम नहीं करतीं. लेकिन यह भी स्पष्ट है कि उन्हें नजरबंदी से रिहा करके और फिर यूरोप, अमेरिका और अब भारत जाने की इजाजत देकर सरकार ने खूब तारीफ बटोरी है. अपनी ताकत जराए-सा भी छोड़े बिना सैन्य जुंटा म्यांमार की एक नई छवि दिखाने में सफल रहा है.

म्यांमार सरकार द्वारा देश में राजनीतिक सुधार की प्रक्रिया शुरू होने की कवायद को बराक ओबामा अमेरिका में अपनी विदेश नीति की महत्वपूर्ण सफलता बता चुके हैं. आज से लगभग एक साल पहले ही अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन म्यांमार की यात्रा पर आई थीं. पिछले 50 साल में यह पहली बार था जब अमेरिकी प्रशासन का इतना महत्वपूर्ण व्यक्ति म्यांमार आया हो. कहा जा रहा है कि राजनीतिक सुधार और मानवाधिकार जैसे मुद्दे जिन पर म्यांमार की जनता ने पिछले 50 साल से कोई प्रगति नहीं देखी, अमेरिकी राष्ट्रपति और विदेश मंत्री के एजेंडे में शामिल थे.

हालांकि इस सबके बीच म्यांमार की जमीनी हकीकत जिसमें आज भी कोई खास बदलाव नहीं आया है, पर किसी का ध्यान नहीं है. यहां बदलाव सिर्फ यह है कि देश के उसी सैन्य शासन ने अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के सामने खुद को एक नए रूप में पेश किया है. और यह इतनी अच्छी तरह किया गया कि कल तक अछूत माना जाने वाला देश आज सबका लाड़ला दिखता है. पश्चिमी देशों के सरकारी प्रतिनिधि यहां आने को ऐसे आतुर दिखाई दे रहे हैं जैसे उनका मकसद सिर्फ ‘राजनीति सुधारों’ का समर्थन करना है और उनकी योजनाओं में उनके रणनीतिक और आर्थिक हित नहीं हैं.

वैसे भारत ने इस मामले में कम दिखावा किया है. हां, यह जरूर है कि उसने भी म्यांमार में चल रहे राजनीतिक सुधारों की तारीफ की थी. वह भी यह जानते हुए कि वहां अब भी सेना के रिटायर्ड जनरल थीन सीन की सरकार है जिन्होंने नवंबर, 2010 के चुनावों में भारी धांधली करते हुए सत्ता हथियाई थी.

जब पूरी दुनिया म्यांमार में चल रहे राजनीतिक सुधारों पर चर्चा कर रही है तब एक ऐसा कारक है जिस पर अभी तक सबसे कम बात की गई है. जबकि यही वह कारक है जिसने देश की सैन्य सरकार को अपना रंग-ढंग बदलने के लिए सबसे ज्यादा मजबूर किया. साथ ही पश्चिमी देशों को भी जिन्होंने कभी जुंटा के सैन्य शासन की तीखी भर्त्सना की थी. यह महत्वपूर्ण कारक है चीन.

यह 1988 की बात है जब म्यांमार में जनअसंतोष बड़ी तेजी से उभरा और जिसने सू की को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध कर दिया. सैन्य शासन ने जनता के इस आंदोलन को बर्बरता से कुचल दिया. इस कार्रवाई में हजारों लोगों को गोली मार दी गई. इस घटना की अमेरिका और पश्चिमी देशों ने तीखी निंदा की. म्यांमार पर इन देशों ने कई प्रतिबंध  लगा दिए. लेकिन प्रतिबंधों में कभी इतनी कड़ाई नहीं बरती गई कि सैन्य सरकार की हालत बिगड़ जाए. इनका एक बड़ा असर यह जरूर हुआ कि म्यांमार अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से कट गया और संयुक्त राष्ट्र व दूसरी एजेंसियों से मिलने वाली आर्थिक मदद उसे बंद हो गई. लंबे समय से देश के वन्य, खनिज, गैस और जल संसाधनों पर नजर गड़ाए चीन के लिए यह सुनहरा मौका था. उसने इसका खूब फायदा भी उठाया. बीजिंग रेव्यु जिसे चीन सरकार का मुखपत्र माना जाता है, के दो सितंबर, 1985 के अंक में इसकी एक झलक मिलती है कि कैसे चीन की योजनाओं में म्यांमार शामिल था. पूर्व उप संचार मंत्री पान की, के आलेख ‘ओपनिंग टू द साउथ वेस्ट ‘ में इस संभावना के बारे में बताया है कि कैसे चीन के दक्षिणी छोर पर बसे युन्नान और सिचुयान प्रांत से व्यापारिक वस्तुओं की आवाजाही म्यांमार और उसके जरिए हिंद महासागर तक हो सकती है.

यह पहला मौका था जब चीन के किसी सरकारी अधिकारी ने अपने देश के आर्थिक हितों के लिए म्यांमार को इतना महत्वपूर्ण माना था. इसके पहले तक चीन कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ बर्मा (जो आज भी म्यांमार के पुराने नाम बर्मा का इस्तेमाल करती है) और दूसरे विद्रोही गुटों का समर्थक था. लेकिन 1976 में माओत्से-तुंग की मौत के बाद जब डेंग जियाओपिंग सत्ता में आए तो यह नीति बदल गई. डेंग ने विद्रोही गुटों को समर्थन देने के बजाय सरकार के साथ व्यापार को तरजीह दी.

यह मानने की पर्याप्त वजहें हैं कि सू की भावनात्मक रूप से चीन की बजाय भारत से अधिक जुड़ी हुई हैं. भारत को इसका लाभ मिल सकता हैचीन और म्यांमार के बीच सीमा-व्यापार समझौता अगस्त, 1988 में हुआ था. यह देश में जनाक्रोश भड़कने से पहले की घटना है. लेकिन आंदोलन के बर्बर दमन और उसके बाद देश पर लगे प्रतिबंधों के बाद चीन काफी तेजी से आगे बढ़ा और जल्दी ही म्यांमार का सबसे महत्वपूर्ण व्यापारिक साझेदार बन गया. उसने म्यांमार को अपने खस्ताहाल हो रहे बुनियादी ढांचे को सुधारने और सैन्य साजोसामान हासिल करने में काफी मदद की. धीरे-धीरे इस क्षेत्र का सामरिक संतुलन चीन के पक्ष में हो गया जो जाहिर है नई दिल्ली के रक्षा रणनीतिकारों के लिए चिंता की बात थी. भारत-चीन प्रतिद्वंद्विता में चीन का म्यांमार पर असर एक नया आयाम था.
लेकिन असल झटके अभी बाकी थे. नवंबर, 2008 में चीन और म्यांमार में 1.5 अरब डॉलर की लागत से बनने वाली तेल पाइपलाइन और 1.04 अरब डॉलर लागत की प्राकृतिक गैस पाइपलाइन बिछाने का समझौता हुआ. ये पाइपलाइनें बंगाल की खाड़ी से युन्नान के कुनमिंग तक बिछाई जाएंगी ताकि पश्चिम एशिया से आने वाले तेल के जहाजों से तेल सीधे इन इलाकों तक पहुंचाया जा सके. इससे जहाज मलक्का खाड़ी का चक्कर लगाने से बच जाएंगे. सितंबर, 2010 में चीन म्यांमार को तीस साल की अवधि के लिए 4.2 अरब डॉलर का ब्याज मुक्त ऋण देने पर भी सहमत हुआ है.

कई विदेशी पर्यवेक्षकों का मानना था कि म्यांमार पर प्रतिबंध लगाने से उसकी आर्थिक और सामरिक डोरियां चीन के हाथ में आ जाएंगी. ऐसा तो नहीं हुआ लेकिन यह जरूर है कि पश्चिमी नीतियों के चलते चीन के लिए म्यांमार को लेकर अपने इरादों को हकीकत में बदलना आसान हो गया. यही वजह है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ दोनों को अपनी म्यांमार नीति पर पुनर्विचार करना पड़ा है. इसी दौरान चीन पर देश की बढ़ती निर्भरता को लेकर म्यांमार के सैन्य नेतृत्व के भीतर चिंता और असंतोष बढ़ा है.

हालांकि अमेरिका की सामरिक चिंताएं बहुत पहले ही देखने को मिल गई थीं. जून, 1997 में लॉस एंजल्स टाइम्स में प्रकाशित अपने आलेख में अमेरिकी सुरक्षा विशेषज्ञ और सीआईए के पूर्व विश्लेषक मर्विन ऑट का मानना था कि अमेरिका को म्यांमार के मुद्दे पर हाथ बांधकर नहीं बैठे रहना चाहिए. हालांकि इसके बाद भी कुछ खास नहीं हुआ. लेकिन 2000 की शुरुआत में जब यह बात सामने आई कि म्यांमार और उत्तरी कोरिया में सामरिक साझेदारी हो गई है तो अमेरिका के कान खड़े हो गए. उसे लगा कि अब आंखें मूंदे रहने से नुकसान हो सकता है. उसे यह भी महसूस हुआ कि म्यांमार के नेतृत्व के साथ संवाद कायम करना होगा. वह नेतृत्व जो बगैर परिणामों की परवाह किए किसी भी तरह सत्ता से चिपका रहना चाहता था. 2010 के चुनावों में अमेरिका को इसका मौका मिल गया जब अचानक म्यांमार का चेहरा बदला और वह जुंटा नहीं बल्कि संविधान द्वारा चलाया जाने वाला एक देश बन गया. भले ही यह धांधली से भरे चुनावों के बाद हुआ हो, लेकिन अमेरिका समेत तमाम पश्चिमी देशों के लिए म्यांमार के साथ तनाव घटाने और चीन तथा उत्तर कोरिया के साथ उसकी नजदीकी कम करने की कोशिश के लिहाज से यह एकदम सही समय था.

म्यांमार की सेना के कई राष्ट्रवादी अधिकारी चीन पर अत्याधिक निर्भरता और देश के उत्तरी इलाके में चीन के लोगों के बड़े पैमाने पर बसने से भी काफी असंतुष्ट हो चले थे. चीन को पहला झटका अक्टूबर, 2004 में लगा जब म्यांमार के तत्कालीन प्रधानमंत्री और पूर्व खुफिया प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल खिन युंत को हटा दिया गया. पहले तो चीन को यह यकीन ही नहीं हुआ कि म्यांमार में उसका हित साधने वाले शख्स को चलता कर दिया गया है. बहरहाल दोनों देश इस घटना को लेकर शांत रहे और ऐसा लगा कि संबंध एक बार फिर सामान्य हो रहे हैं. फिर 2009 में म्यांमार के सैनिकों ने पूर्वोत्तर के कोकांग इलाके में प्रवेश किया और चीनी मूल के करीब 30 हजार लोगों को सीमा पार चीन में धकेल दिया.

लेकिन फिर भी चीन को नहीं लगा कि समीकरण बदल रहे हैं. यह अहसास उसे तब जाकर हुआ जब सितंबर, 2011 में थिएन सिएन सरकार ने काचिन राज्य में मीत्सोन बांध पर बन रही 3.6 अरब डॉलर की पनबिजली परियोजना रद्द करने की घोषणा कर दी. माली हका और माई हका नदियों के संगम पर बनने वाला मीत्सोन बांध दुनिया का 15वां सबसे ऊंचा बांध होता. 2006 में हुए समझौते के मुताबिक परियोजना से उत्पन्न होने वाली बिजली का 90 फीसदी चीन को दिया जाना था. जाहिर है चीन के राजनीतिक हलकों में हड़कंप मच गया. चीन ने म्यांमार सरकार के खिलाफ अनुबंध तोड़ने के लिए कानूनी कार्रवाई करने की धमकी दी है. साफ है कि चीन और म्यांमार के रिश्ते अब कभी भी पहले जैसे नहीं हो पाएंगे.

लेकिन म्यांमार में यह बदलाव रातों-रात नहीं आया. जिस साल खिन युंत को हटाया गया, उसी साल म्यांमार रक्षा सेवा अकादमी के शोधकर्ता लेफ्टिनेंट कर्नल अंग या हला ने एक महत्वपूर्ण दस्तावेज तैयार किया था. 346 पन्नों वाली उनकी इस अत्यंत गोपनीय थीसिस में म्यांमार और अमेरिका के रिश्तों का अध्ययन था. पिछले साल सेना के एक विश्वसनीय स्रोत से यह रिपोर्ट मेरे हाथ लगी थी. इसमें साफ लिखा है कि एक कूटनीतिक साथी और आर्थिक संरक्षक के रूप में चीन ने ऐसे हालात बना दिए हैं कि म्यांमार की आजादी के लिए खतरा पैदा हो गया है. थीसिस में यह भी कहा गया था कि मानवाधिकार भले ही पश्चिम में एक अहम मुद्दा हो लेकिन इसके बावजूद अमेरिका अपने सामरिक हितों को देखते हुए अपनी नीतियों में बदलाव कर सकता है. हालांकि लेखक ने उन हितों का उल्लेख नहीं किया है, लेकिन यह स्पष्ट है कि म्यांमार में चीन और अमेरिका के साथ समान रिश्तों का विचार तभी पनप गया था. थीसिस में वियतनाम और पूर्व तानाशाह सुहार्तो के अधीन इंडोनेशिया के साथ अमेरिका के रिश्तों को उसकी विदेशनीति के लचीलेपन का उदाहरण बताया गया था. 

इस थीसिस में दिए गए मास्टर प्लान में कहा गया था कि अगर अमेरिका के साथ द्विपक्षीय रिश्तों में सुधार हुआ तो म्यांमार को विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और अन्य वैश्विक वित्तीय संस्थानों से वह मदद भी मिलेगी जिसकी उसे सख्त जरूरत है. तब म्यांमार उस स्थिति से उबर सकेगा जहां वह चीन समेत अपने नजदीकी पड़ोसियों की सद्भावना और उनके साथ कारोबार पर निर्भर है. तब वह क्षेत्रीयता से बाहर निकलकर सही मायने में वैश्वीकरण के युग में प्रवेश कर सकेगा. दस्तावेज में यह भी जिक्र था कि म्यांमार के प्रति दोस्ताना रुख रखने वाले भारतीय राजनयिक उन अमेरिकी कांग्रेस सदस्यों के बारे में आवश्यक जानकारी मुहैया करा सकते हैं जो अपने यहां बड़ा प्रभाव रखते हों. यह पहला मौका था जब म्यांमार के सैन्य प्रशासन में भारत का सकारात्मक तरीके से जिक्र हुआ था. दरअसल 1988 में हुई जनक्रांति के वक्त भारत ने न सिर्फ लोकतंत्र समर्थक आंदोलन के प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया था बल्कि म्यांमार के कई निर्वासित नेताओं को नई दिल्ली और कोलकाता से अपना अभियान चलाने की आजादी भी दी थी.

मास्टर प्लान में उन चुनौतियों का भी जिक्र है जिन्हें चीन पर निर्भरता कम करने और पश्चिम के साथ विश्वसनीय संबंध कायम करने से पहले हल करना जरूरी था. उस दस्तावेज को लिखे जाते वक्त सू की की गिरफ्तारी प्रमुख मुद्दा थी. अंग या हला की रिपोर्ट में यह बात कही गई थी कि सू की की नजरबंदी खत्म हो जाए तो अंतरराष्ट्रीय दबाव में कमी आएगी. बाद में यही हुआ. सू की को नजरबंदी से रिहा किया गया और अमेरिका के साथ म्यांमार के संबंधों में वाकई सुधार आया. यह उसी तर्ज पर हुआ जैसा कि 2004 में लिखा गया था.

इस सबसे यही लगता है कि अमेरिका म्यामांर के साथ नहीं बल्कि म्यांमार अमेरिका के साथ सही तरीके से जुड़ने में कामयाब रहा है. यह इससे भी जाहिर होता है कि अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन जब हाल में म्यांमार आईं तो इस दौरान उन्होंने मानवाधिकार और लोकतंत्र जैसे मुद्दों का जिक्र नाम भर के लिए किया. उनके एजेंडे  का सारा जोर चीन-म्यांमार और उत्तर कोरिया-म्यांमार रिश्ते पर रहा. उसी वक्त कैनेबरा की यात्रा पर गए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी कहा कि अमेरिका समूचे एशिया प्रशांत क्षेत्र में अपनी प्रतिबद्धता में इजाफा कर रहा है. हालांकि उन्होंने तुरंत ही इसमें यह बात भी जोड़ी कि अमेरिका न तो चीन से डरता है और न ही वह चीन को अलग-थलग करना चाहता है.

यह मानने की पर्याप्त वजहें हैं कि सू की भावनात्मक रूप से चीन की बजाय भारत से अधिक जुड़ी हुई हैं. भारत को इसका लाभ मिल सकता है

इस समय भले ही म्यांमार और अमेरिका एक साथ खड़े नजर आ रहे हों लेकिन किसी को यह उम्मीद नहीं है कि दोनों के संबंध पूरी तरह सामान्य रहेंगे. दशकों पुरानी आपसी तनातनी और शंका अब भी मौजूद है. मानवाधिकार और लोकतंत्र अमेरिका की नैतिक मजबूती का ऐसा हिस्सा है जिसे वह छोड़ नहीं सकता. यह बात भी म्यांमार के शासकों को परेशान करेगी  क्योंकि वे सत्ता पर अपनी पकड़ जरा भी ढीली नहीं होने देना चाहते. उधर, चीन की बात करें तो म्यांमार भले ही उस पर निर्भरता कम होने को लेकर प्रसन्न हो लेकिन इतने लंबे जुड़ाव और कई परियोजनाओं पर काम चालू होने के कारण इस रिश्ते को पूरी तरह खत्म नहीं कहा जा सकता.
चीन म्यांमार से मिल रहे नए संकेतों को गंभीरता से ले रहा है. इस साल फरवरी और मार्च में बीजिंग के चीनी भाषा के साप्ताहिक समाचार पत्र इकोनॉमिक ऑब्जर्वर ने मीत्सोन बांध परियोजना के रद्द होने पर आलेखों की शृंखला प्रकाशित की. उसमें यह विश्लेषण करने की कोशिश की गई कि आखिर दोनों देशों के रिश्तों में गड़बड़ी कहां हुई. 14 अक्टूबर को द पीपुल्स डेली के तहत प्रकाशित होने वाले टेबलॉयड द ग्लोबल टाइम्स ने एक टिप्पणी में कहा कि चीन को म्यांमार के साथ अपने संबंधों में ‘जमीनी मुद्दों को अधिक तवज्जो देनी चाहिए.’ म्यांमार के पत्रकारों के मुताबिक द ग्लोबल टाइम्स के संवाददाता अब उनको फोन करके सू की के बारे में सवाल कर रहे हैं. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ.

देखना दिलचस्प होगा कि भारत इस नई परिस्थिति का सामना किस तरह करता है. चीन के साथ म्यांमार की दूरी बढ़ना उसके लिए स्वागतयोग्य घटना है. पूर्वी एशिया में कारोबार और निवेश बढ़ाने संबंधी नीति के लिहाज से भी म्यांमार बेहद अहम है. लेकिन उससे पहले भारत को अपने पूर्वोत्तर हिस्से में चल रही जातीय हिंसा और अन्य सुरक्षा समस्याओं का स्थायी हल तलाशना होगा. भारत कई बार इस पर नाराजगी जताता रहा है कि पूर्वोत्तर के नगा, मणिपुरी और कुकी विद्रोही सीमा पार म्यांमार में ठिकाना बनाए हुए हैं. उन्हें वहीं से हथियार भी मिलते हैं. हालांकि यह बात भी है कि इन इलाकों में म्यांमार सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है.

फिर भी इन तमाम मुश्किलों के बावजूद भारत और म्यांमार के बीच कारोबार बढ़ रहा है. 1988 से पहले दोनों देशों के बीच शायद ही कारोबारी गतिविधियां थीं. लेकिन 2005 से 2010 के बीच यह 55 करोड़  से बढ़कर 1.2 अरब डॉलर तक पहुंच गया. इसके अलावा वह म्यांमार में बुनियादी ढांचे से जुड़ी कई परियोजनाओं में भी शामिल है. इसमें दोनों देशों को जोड़ने वाली प्रमुख सड़क निर्माण परियोजनाएं भी शामिल हैं. अमेरिका भी भारत के इन कदमों का समर्थन कर रहा है. बीते साल 23 नवंबर को अमेरिकी उप राष्ट्रीय रक्षा सलाहकार (सामरिक संचार) बेन रोड्स ने कहा था, ‘हमें यकीन है कि जिस तरह प्रशांत महासागर क्षेत्र की शक्ति के रूप में अमेरिका पूर्वी एशिया के भविष्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहा है उसी तरह भारत भी हिंद महासागर क्षेत्र की शक्ति तथा एक एशियाई राष्ट्र के रूप में यही काम कर सकता है.’

यह मानने की पर्याप्त वजहें हैं कि सू की भावनात्मक रूप से चीन के बजाय भारत से अधिक जुड़ी हुई हैं. 1960 में जब वे पहली बार भारत आईं तब उनकी उम्र महज 15 वर्ष थी. यही वह उम्र है जब इंसान के मन में विचारों की पक्की छाप पड़ने लगती है. भारत में सू की ने महात्मा गांधी की अहिंसा की अवधारणा को ग्रहण और आत्मसात किया. 1970 के दशक में जब वे न्यूयॉर्क में रह रही थीं तब उनकी प्रेरणा मार्टिन लूथर किंग जूनियर बने. उनके भाषणों में सू की को महात्मा गांधी की झलक मिलती थी. भारत को इसका लाभ मिल सकता है. देखा जाए तो भारत और अमेरिका दोनों का म्यांमार में एक मुख्य और साझा मकसद है. वह है क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभुत्व से निपटना. सू की को लुभाना तो इस खेल का हिस्सा भर है.
(लिंटनर स्वीडिश पत्रकार और पूर्वी एशिया मामलों के जानकार हैं)

संख्या और आशंका

कहते हैं कि नैनीताल दो ही तरह के लोगों का शहर है- या तो सेठों का या मेठों का. मेठ स्थानीय भाषा में नेपाली कुलियों को कहा जाता है. स्थानीय लोगों में सालों से प्रचलित यह जुमला बताता है कि नेपालियों का उत्तराखंड से काफी पुराना रिश्ता है. सदियों से नेपाली लोग काम की तलाश में यहां आते रहे हैं. लेकिन जिस तेजी से वे उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में स्थायी रूप से बसते जा रहे हैं उससे कई आशंकाएं भी पैदा हो रही हैं. एक वर्ग का मानना है कि उत्तराखंड में नेपाल से आ रहे लोगों का बसना जारी रहा तो आने वाले समय में यहां सिक्किम जैसे हालात होने की पूरी संभावनाएं हैं. यानी उत्तराखंड के मूल निवासी अपने ही घर में अल्पसंख्यक हो जाएंगे. वरिष्ठ पत्रकार राजेन टोडरिया कहते हैं, ‘नेपालियों के बड़ी संख्या में यहां बसने से जनसंख्या के आंकड़े असंतुलित होने लगे हैं.’

दरअसल उत्तराखंड राज्य बनने के बाद से ही यहां के पहाड़ी जिलों में पलायन तेजी से बढ़ा है. 2011 जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि राज्य के कुल 13 जिलों में से तीन मैदानी जिलों की जनसंख्या पहाड़ के 10 जिलों के लगभग बराबर होने को है. खाली होते इन पहाड़ों में खेती करने वाले लोग भी कम ही रह गए हैं. ऐसे में पहाड़ के लोग अपने खाली पड़े खेतों को किराए पर देने लगे हैं. पहले जो नेपाली लोग यहां बोझा ढोने और मजदूरी का काम किया करते थे वही अब इन खेतों को किराये पर लेकर इनमें खेती करने लगे हैं. किराये के मकानों या अस्थायी झोपड़ियों में उन्होंने अपना स्थायी निवास बना लिया है. पहले वे अकेले ही भारत आया करते थे और कुछ पैसा जमा कर वापस नेपाल लौट जाते थे. लेकिन अब वे अपने परिवार के साथ यहीं बसने लगे हैं. एक अनुमान के अनुसार आज उत्तराखंड में लगभग सात से आठ लाख नेपाली रह रहे हैं. उत्तराखंड विकास पार्टी के संस्थापक मुजीब नैथानी कहते हैं, ‘स्थानीय नेता वोट की राजनीति के चक्कर में इनके वोटर कार्ड बनवा देते हैं. वोटर कार्ड से ये लोग राशन कार्ड से लेकर ड्राइविंग लाइसेंस तक सब कुछ हासिल कर रहे हैं जो कि पूर्ण रूप से अवैध है. मुनि की रेती नगर पंचायत में तो नेपाली मूल की महिला सभासद भी चुनी गई हैं. उनकी नागरिकता को जब चुनौती दी गई तो प्रशासन ने मामले को टालने की कोशिश की. फिलहाल यह प्रकरण केंद्रीय गृह विभाग में लंबित है.’

यहां यह बात भी ध्यान देने वाली है कि हाल ही में टिहरी लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में जीती भाजपा प्रत्याशी राज्य लक्ष्मी शाह भी मूलतः नेपाल मूल की हैं. उन्होंने भले ही भारत की नागरिकता हासिल कर ली है लेकिन फिर भी भाजपा को खुद उनका नामांकन रद्द हो जाने की इतनी आशंका थी कि सावधानी के तौर पर उनके पति मनुजेंद्र शाह का भी नामांकन दर्ज करवाया गया था. बाद में जब राज्य लक्ष्मी शाह के नामांकन पर निर्वाचन आयोग द्वारा कोई आपत्ति नहीं उठाई गई तो मनुजेंद्र शाह ने अपना नामांकन वापस ले लिया.

नेपाल से आकर बसे इन लोगों पर कई बार वन्य-जीवों की तस्करी और अवैध शराब बनाने जैसे  अपराधों में लिप्त होने के आरोप लगते रहे हैं

तहलका ने राज्य की मुख्य निर्वाचन अधिकारी राधा रतूड़ी से जब यह पूछा कि राज्य में वोटर कार्ड बनाने की पात्रता कैसे निर्धारित की जाती है तो उनका कहना था, ‘जो भी व्यक्ति छह महीने या उससे ज्यादा समय से यहां रह रहा है वह पात्र बन जाता है.’ जब उनसे सवाल किया गया कि यदि वह व्यक्ति नेपाल का नागरिक हो तो क्या तब भी वह वोटर कार्ड पाने का पात्र है तो इस पर उनका कहना था, ‘देखिए, नागरिकता केंद्र का मुद्दा है. इस संदर्भ में आप केंद्र के गृह मंत्रालय से ही बात कीजिए.’ निर्वाचन अधिकारी ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया कि जो लोग भारत के नागरिक ही नहीं हैं उन्हें मतदाता पहचान पत्र कैसे जारी किए जा रहे हैं. उन्हें न सिर्फ मतदाता पहचान पत्र जारी किए गए हैं बल्कि कुछ को तो सरकारी नौकरियों पर भी नियुक्त किया गया है. पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी के ही घर पर काम करने वाले नेपाली मूल के दो व्यक्तियों को उत्तराखंड सरकार के दो विभिन्न विभागों में नौकरी दी गई है. राम सिंह परजोली और नारायण अधिकारी नाम के इन व्यक्तियों के फर्जी हाई स्कूल सर्टिफिकेट से लेकर फर्जी स्थायी निवास प्रमाण पत्र तक तैयार करने का मामला राज्य में काफी चर्चा का विषय रहा था. स्थानीय लोगों का कहना है कि इस तरह की नियुक्ति न सिर्फ अवैध है बल्कि इससे स्थानीय लोगों का हक भी मारा गया है. उत्तराखंड जनमंच के प्रमुख टोडरिया कहते हैं, ‘टिहरी और पौड़ी जिले में ही नेपाली मतदाताओं की भारी तादाद है. ये सभी अवैध मतदाता हैं और इनके पहचान पत्र रद्द होने चाहिए. नेपाली मूल के लोग यहां रहें, काम करें, इससे किसी को ऐतराज नहीं, लेकिन विदेशी होने के नाते ये लोग यहां मतदान नहीं कर सकते, जमीन नहीं खरीद सकते और सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन नहीं कर सकते.’

नेपाल से आकर बसे इन लोगों पर कई बार आपराधिक मामलों में लिप्त होने के भी आरोप लगते रहे हैं. वन्यजीवों की खाल, अंग और नशीले पदार्थों की तस्करी में पकड़े जाने वाले लोगों में बड़ी संख्या में नेपाली मूल के लोग शामिल रहे हैं. मई, 2012 में पुलिस द्वारा दो नेपालियों को तेंदुए की खाल, जंगली जानवर के गोश्त और प्रतिबंधित पशु के छह बच्चों के साथ गिरफ्तार किया गया था. स्थानीय पत्रिकाओं में छपी रिपोर्टें बताती हैं कि पिछले कुछ सालों में अवैध शराब के मामलों में पकड़े गए लोगों में से 70 फीसदी से ज्यादा लोग नेपाली ही थे. स्थानीय पत्रिका पर्वतजन के संपादक शिव प्रसाद सेमवाल बताते हैं, ‘पहाड़ों में होने वाली कई आपराधिक घटनाओं में इन नेपाली लोगों की बड़ी भूमिका है.’

वरिष्ठ पत्रकार हरीश चंदोला कहते हैं, ‘नेपाली जिन कठिन भौगोलिक परिस्थितियों से आते हैं उनके कारण उन्हें यहां शारीरिक श्रम करने से कोई परहेज़ नहीं होता. मजदूरी से लेकर खेती करने तक के सभी कामों को वे खुशी-खुशी स्वीकार कर लेते हैं. स्थानीय लोगों को भी नेपालियों की मौजूदगी से कई लाभ हो जाते हैं. उनके खेत किराये पर उठ जाते हैं और उन्हें नेपाली मजदूरों का सस्ता श्रम भी उपलब्ध हो जाता है.’ 
लेकिन कई लोग इस पूरे मामले के दूरगामी परिणामों को घातक मानते हैं. वरिष्ठ पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा कहते हैं, ‘नेपाल में काम और पैसा, दोनों की ही कमी है. ऊपर से वहां माओवाद के चलते भी सैकड़ों की तादाद में नेपाली लोग यहां आकर बस रहे हैं. मगर ये लोग त्वरित मुनाफे के लिहाज से ही खेती कर रहे हैं जिसके चलते इनके द्वारा भारी मात्रा में केमिकल्स का उपयोग किया जाता है. इस तरह से तो आने वाले कुछ ही सालों में यहां के खेत पूरी तरह से बंजर हो जाएंगे.’

और मामला सिर्फ खेती का नहीं है. शिव सेमवाल बताते हैं, ‘उत्तराखंड में कई स्कूल आज ऐसे हैं जो सिर्फ नेपालियों के बच्चों के भरोसे ही चल रहे हैं. इन स्कूलों में स्थानीय छात्रों की संख्या शून्य हो चुकी है. ऐसे में यहां के शिक्षक अपना तबादला बचाने के उद्देश्य से इन नेपालियों को कुछ पैसे देकर इनके बच्चों के नाम स्कूल में दर्ज करवा लेते हैं.’

उत्तराखंड में नेपाल के लोगों की बढ़ती संख्या के साथ स्थानीय लोगों के साथ उनके टकराव के मामले दिखने भी लगे हैं. कुछ समय पहले चमोली जिले के तपोवन क्षेत्र में एक जल विद्युत परियोजना में नौकरी की मांग को लेकर नेपालियों और स्थानीय नागरिकों में मारपीट का मामला सुर्खियां बना. जानकारों का मानना है कि जब नेपाली लोग यहां बस रहे हैं, यहां के मतदाता बन रहे हैं तो स्वाभाविक है कि वे यहां के संसाधनों पर भी अपना अधिकार जताने की पुरजोर कोशिश करेंगे.

जानकारों का मानना है कि जब नेपाली लोग यहां बस रहे हैं, यहां के मतदाता बन रहे हैं तो स्वाभाविक है कि वे यहां के संसाधनों पर भी अपना अधिकार जताने की पुरजोर कोशिश करेंगे.उत्तराखंड में रह रहे नेपालियों को मुख्य रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है. एक वह गोरखा समुदाय है जो कई पीढ़ियों से यहीं बसा हुआ है और आज राज्य  का एक अभिन्न अंग बन चुका है. दूसरी ओर वे नेपाली नागरिक हैं जो कुछ साल पहले ही यहां आकर बसे हैं. नेपालियों के उत्तराखंड में बसने का सिलसिला समझने के लिए इतिहास पर एक नजर डालना जरूरी हो जाता है. सन 1803 में गोरखाओं ने अमर सिंह थापा और हस्तीदल चौतरिया के नेतृत्व में गढ़वाल पर आक्रमण  किया था जो आज भी उत्तराखंड में गोरख्याणी नाम से जाना जाता है. इस आक्रमण को उत्तराखंड के इतिहास का सबसे दमनकारी दौर माना जाता है. मोलाराम तोमर के ‘गढ़वाल राजवंश का इतिहास’ से लेकर कवि गुमानी पंत की कविताओं तक कई जगह इसका विवरण मिलता है. इस आक्रमण के दौरान हजारों की संख्या में लोगों का कत्ल किया गया और उन्हें गुलाम बनाकर मानव मंडियों में बेच दिया गया. फिर गढ़वाल नरेश सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों से मदद मांगी और 1815 में अंग्रेजों ने गोरखाओं को गढ़वाल से बाहर खदेड़ दिया. लेकिन इन लोगों को लड़ता हुआ देख अंग्रेज बहुत प्रभावित हुए और बाद में उन्होंने गोरखाओं को अपनी फौज में शामिल कर लिया. भारत की आजादी के बाद गोरखाओं की इस फौज के दो हिस्से हो गए. एक हिस्सा अंग्रेजों के साथ ही ब्रिटेन चला गया और वह आज भी ब्रिटेन की सेना का एक अंग है. दूसरा हिस्सा भारतीय सेना में गोरखा रेजिमेंट के नाम से आज भी अपनी सेवाएं दे रहा है. माना जाता है कि अंग्रेजों के दौर से ही फौज से रिटायर हुए कई नेपाली लोगों ने उत्तराखंड में ही बसना शुरू किया और फिर उनकी आने वाली पीढ़ियां यहीं की हो गईं.

उत्तराखंड में सदियों से बसा यह गोरखा समुदाय बाकी नेपालियों की तुलना में आर्थिक रूप से ज्यादा संपन्न वर्ग है. उसे अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करके आरक्षण भी दिया गया है. इस पर भी राज्य में विरोध के स्वर गूंजते रहे हैं. टोडरिया कहते हैं, ‘यह आरक्षण देना नारायण दत्त तिवारी की सबसे बड़ी भूल है. गोरखा समुदाय तो उत्तराखंड के शासक वर्ग में शामिल रहा है. 1790 से 1815 तक इसने उत्तराखंड में राज किया है, तो फिर यह पिछड़ा वर्ग में कैसे शामिल किया जा सकता है. पिछड़े वर्ग का आरक्षण देना ही है तो चमोली-पिथोरागढ़ के दूरस्थ इलाकों के लोगों को दिया जाए जिनका पिछड़ापन आज भी प्रत्यक्ष देखा जा सकता है.’
उत्तराखंड में सदियों से रह रहे गोरखाओं और हाल फिलहाल आकर बसे नेपालियों में फर्क कर पाना आज कोई आसान काम नहीं रह गया है. पत्रकार शिव प्रसाद सेमवाल कहते हैं, ‘इनमे बस मोटे तौर पर यही फर्क है कि जो गोरखा आर्थिक रूप से संपन्न हैं वे उत्तराखंडी गोरखे हैं, और जो दिहाड़ी-मजदूरी कर रहे हैं वे हाल ही में आए नेपाली हैं.’

एक वर्ग का यह भी मानना है कि नेपाल से आए इन लोगों में कई ऐसे भी हैं जो किसी आपराधिक घटना को अंजाम देकर नेपाल से फरार हुए हैं और यहां बस गए हैं. मुजीब नैथानी कहते हैं, ‘उत्तराखंड में आने और बसने से पहले न तो इनका कोई पुलिस वेरिफिकेशन किया जाता है और न ही कोई अन्य जांच. इससे यह पता ही नहीं चलता कि यहां आने वाला व्यक्ति किस प्रवृत्ति और पृष्ठभूमि का है.’ उत्तराखंड जनमंच जैसे संगठन मांग कर रहे हैं कि इन सभी लोगों के नाम मतदाता सूची से हटाए जाएं क्योंकि वे सभी अवैध हैं. इसके अलावा नेपाल से आने वाले लोग वर्क परमिट लें और नेपाल की पुलिस द्वारा दिया गया पुलिस वेरिफिकेशन भी साथ लाएं, साथ ही नेपाल की पुलिस यह जिम्मेदारी ले कि यदि ये लोग कोई अपराध करके यहां से नेपाल भागते हैं तो वह ऐसे लोगों को वापस भारत को सौंपेगी.

इन मांगों के तर्क इतने मजबूत हैं कि इनको न तो पूर्ण रूप से नकारा जा सकता है और न ही नजरअंदाज किया जा सकता है. जानकारों के मुताबिक उत्तराखंड और नेपाल के लोगों के जो मैत्री संबंध वर्षों से बने हुए हैं उनको बनाए रखने के लिए भी अवैध रूप से यहां बस रहे नेपालियों की संख्या पर नियंत्रण जरूरी हो जाता है. यह इसलिए भी जरूरी है ताकि जो गोरखा समुदाय सदियों से उत्तराखंड का हिस्सा रहा है और सच में यहां के अधिकारों का हकदार है, उसके अधिकार सुनिश्चित हो सकें. देश के कई इलाके मूल निवासी बनाम बाहरी लोगों की समस्या से जूझ रहे हैं. ऐसे में यदि उत्तराखंड में पैर पसारती इस समस्या पर समय रहते उचित कदम नहीं उठाए गए तो कहीं कल हाल असम जैसा हो.

हथियारों की मार

38 साल के एनाल शेख दंगों में अपना सब कुछ खो चुके थे. असम के बोडो क्षेत्रीय स्वायत्त जनपद (बीटीएडी) में जब बीती जुलाई में बोडो आदिवासियों और बाहर से वहां आकर बसे मुस्लिम समुदाय के बीच हिंसा शुरू हुई तो बाजूगांव के बाकी लोगों की तरह शेख भी अपने परिवार के साथ धुबड़ी जिले में स्थित एक राहत शिविर में आ गए. यहां वे तीन महीने रहे. इशके बाद उनके जैसे लाखों लोग धीरे-धीरे अपने गांवों या फिर उन गांवों के पास बनाए गए नए राहत शिविरों में लौट रहे थे ताकि वे तैयार हो चुकी धान की फसल काट सकें. बीती 10 नवंबर को एनाल और उनके एक मित्र शाहजहां तालुकदार बाजूगांव के पास अपने धान के खेतों में काम कर रहे थे कि कुछ लोगों ने उन्हें घेर लिया. शाहजहां तो भागकर बचने में सफल रहे लेकिन शेख की किस्मत इतनी अच्छी नहीं थी. शेख की गोली मारकर हत्या कर दी गई. 

असम के गोसाईंगांव सबडिविजन में स्थित बाजूगांव इस साल जुलाई-अगस्त में बोडो आदिवासियों और मुसलमानों के बीच हुई हिंसा से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए इलाकों में से एक है. इस हिंसा में 100 से भी ज्यादा लोग मारे गए थे और पांच लाख से भी ज्यादा लोगों को विस्थापित होना पड़ा था. धीरे-धीरे गरीब ग्रामीण जिंदगी की गाड़ी फिर से चलाने की कोशिश कर रहे थे. लेकिन नवंबर की शुरुआत में कोकराझार में हिंसा के दानव ने फिर मुंह खोल दिया. शेख की हत्या के बाद खून-खराबे का एक नया दौर शुरू हो गया. एक हफ्ते में ही कोकराझार जिले में 10 लोगों की हत्या हो गई. नुकसान दोनों समुदायों का हुआ. अनिश्चितकालीन कर्फ्यू, सेना के फ्लैग मार्च और पुलिस की धरपकड़ से ऐसा लगने लगा जैसे खूनखराबा कभी खत्म ही नहीं हुआ था. समय रहते हिंसा की यह आग काबू में तो आ गई, लेकिन इसने दो समुदायों के बीच अविश्वास की खाई और गहरी कर दी है.

नतीजा यह है कि दोनों समुदाय खुद को चार महीने पहले वाली स्थिति में पा रहे हैं. इलाके में हर तरफ फिर से डर का माहौल बन गया है. इस बीच बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) के शीर्ष नेता मोनो कुमार ब्रह्मा की सनसनीखेज गिरफ्तारी से तनाव और भी बढ़ा है. पुलिस ने ब्रह्मा के घर पर छापा मारा था जिसमें उसे दो अवैध एके राइफलें और 60 मैगजीनें मिली थीं. उग्रवादी संगठन बोडो लिबरेशन टाइगर्स (बीएलटी) से जुड़े रहे ब्रह्मा बोडोलैंड स्वायत्त परिषद के एक्जीक्यूटिव मेंबर हैं. यह पद कैबिनेट रैंक के बराबर होता है. वे बीपीएफ सुप्रीमो हग्रामा महिलारी के खास हैं जो बोडोलैंड स्वायत्त परिषद के मुखिया भी हैं. बीपीएफ पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से असम में कांग्रेस सरकार का सहयोगी रहा है.

ब्रह्मा की गिरफ्तारी से बीटीएडी में अवैध हथियारों की आसान उपलब्धता का मुद्दा फिर से गरमा गया है. 2003 में बोडोलैंड संधि के बाद बीएलटी से जुड़े 2,600 बागियों ने आत्मसमर्पण कर दिया था. सूत्र बताते हैं कि इस दौरान 1,000 से भी कम हथियार सौंपे गए थे. इनमें से भी ज्यादातर देसी हथियार थे. तब तरुण गोगोई सरकार ने आत्मसमर्पण करने वालों से यह नहीं पूछा था कि उनके स्वचालित हथियार कहां हैं. इसे सरकार की राजनीतिक मजबूरी के तौर पर देखा गया था. दरअसल बीटीएडी इलाकों में कांग्रेस को बोडो समुदाय के राजनीतिक समर्थन की जरूरत थी.

लेकिन आज कांग्रेस की ऐसी कोई मजबूरी नहीं है. मुख्यमंत्री गोगोई को अब हग्रामा के समर्थन की जरूरत नहीं और वैसे भी लगातार दो दंगों के बाद वे कुछ नहीं करते दिखने का जोखिम मोल लेने की स्थिति में नहीं हैं. सूत्रों के मुताबिक मुख्यमंत्री ने हग्रामा से कहा है कि जुलाई के दंगों के बाद बीपीएफ को खुद पर लगाम लगाने की जरूरत है.

ब्रह्मा की गिरफ्तारी को सरकार की गंभीरता के संकेत की तरह देखा जा रहा है. इससे पहले बीपीएफ के विधायक प्रदीप ब्रह्मा को भी दंगों में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. गोगोई मानते हैं कि हालिया हिंसा के पीछे बोडो बागियों का हाथ है. असम के डीजीपी जयंत नारायण चौधरी कहते हैं, ‘बीटीएडी में अवैध हथियारों की भरमार है. ये हथियार दिमापुर, बिहार और प. बंगाल से आते हैं. कम से कम 100 स्वचालित हथियार और इससे भी ज्यादा देसी हथियार इस्तेमाल हो रहे हैं.’

हथियारों का सहारा सिर्फ बोडो नहीं ले रहे. पुलिस के मुताबिक इलाके में बसे मुस्लिम समुदाय के लोग भी खुद को हथियारों से लैस कर रहे हैं. 15 नवंबर, 2012 को गोसाईंगंज सबडिविजन के तिलिपाड़ा में निरिशन बासुमतारी नाम के एक बोडो दुकानदार की गोली मारकर हत्या कर दी गई. पुलिस का कहना है कि इस घटना में कुछ मुस्लिम युवक शामिल थे. वैसे भी हथियारों को लेकर कोकराझार का नाम अतीत में भी चर्चा में रहा है. इस इलाके से होकर हथियारों की तस्करी होती रही है. सेना की खुफिया इकाई के सूत्र भी बताते हैं कि छोटे संगठनों के अलावा माआवोदी भी हथियारों की तस्करी के लिए इस इलाके का इस्तेमाल करते रहे हैं.

आज फिर से कोकराझार में हालत यह है कि एक भी भड़काऊ भाषण या निशाना बनाकर की गई हत्या दंगे के एक और भीषण दौर को जन्म दे सकती है. बोडो नेता ब्रह्मा की गिरफ्तारी को कांग्रेस की राजनीतिक साजिश बता रहे हैं. लेकिन इसके बावजूद उन्होंने कांग्रेस के साथ अपना नाता नहीं तोड़ा है. हत्याओं, अवैध हथियारों और राजनीतिक शतरंज के इस खेल में कोई पिस रहा है तो बस
आम आदमी.

छूट की लूट

जनता पार्टी के नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी जब नवंबर की शुरुआत में राजनीतिक दृष्टि से देश के सबसे प्रतिष्ठित गांधी परिवार पर नेशनल हेराल्ड अखबार को चलाने वाली कंपनी के अधिग्रहण का आरोप लगा रहे थे उसी समय मध्य प्रदेश सरकार के एक फैसले पर कम ही लोगों की नजर गई जो इसी अखबार से जुड़ा था. दरअसल प्रदेश की भाजपा सरकार ने राजधानी भोपाल में तीन दशक पहले कांग्रेस के मुखपत्र नेशनल हेराल्ड के हिंदी अखबार नवजीवन को रियायती दर पर दी एक एकड़ से अधिक की जमीन का आवंटन इन्हीं दिनों निरस्त किया है. वजह यह बताई गई है कि अखबार चलाने के नाम पर आवंटित इस जमीन का व्यावसायिक उपयोग हुआ है और इसीलिए सरकार यहां खड़ी व्यावसायिक इमारतों को अधिगृहीत करने की सोच रही है.

लेकिन शहर के व्यावसायिक क्षेत्र महाराणा प्रताप नगर के नजदीक स्थित प्रेस कॉम्प्लेक्स में यह अकेला मामला नहीं है. सरकार की ही मानें तो यहां तीन दर्जन से अधिक अखबारों द्वारा जमीन की लीज संबंधी प्रावधानों का मनमाने तौर पर उल्लंघन जारी है. सरकार ने सात साल पहले सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर अखबारों को व्यावसायिक गतिविधि मानते हुए सभी भूखंड आवंटियों को व्यावसायिक दर से रकम वसूलने के नोटिस जारी किए थे. मगर सरकार उनसे 510 करोड़ रुपये की यह रकम अब तक वसूल नहीं कर पाई है. 30 साल के लिए दिए गए अधिकतर भूखंडों की लीज साल 2012 के पहले समाप्त हो चुकी है. एक भी लीज का नवीनीकरण न होने के बावजूद अखबार मालिकों के लिए प्रेस कॉम्प्लेक्स व्यावसायिक गतिविधियों का गढ़ बना हुआ है. वहीं सरकार पर इसका सीधा असर राजस्व में हो रहे करोड़ों रुपये के नुकसान के तौर पर पड़ रहा है.
रियायत पर हुई इस खयानतबाजी की शुरुआत अस्सी के दशक में कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. अर्जुन सिंह के उस फैसले से जुड़ी है जिसमें उन्होंने भोपाल की बेशकीमती जमीन के 22 एकड़ क्षेत्र को प्रेस परिसर बनाने के लिए आरक्षित किया. तब दो रुपये 30 पैसे प्रति वर्ग फुट के हिसाब से 39 भूखंड बांटे गए थे. भोपाल विकास प्राधिकरण (बीडीए) ने इस बड़े क्षेत्र को विकसित करने का बोझ भी अपने खर्च पर उठाते हुए अखबारों के लिए बिजली की निरंतर आपूर्ति जैसी तमाम सुविधाएं दीं.

30 साल के लिए दिए गए अधिकतर भूखंडों की लीज साल 2012 के पहले समाप्त हो चुकी है.

प्रदेश बनने के पहले मध्य भारत के तमाम नामी अखबारों का मुख्य केंद्र नागपुर था. 1956 में जब नया प्रदेश नक्शे में आया और भोपाल उसकी राजधानी बनी तो अखबारों ने राजधानी की तरफ कूच किया. 1980 में सूबे की बागडोर अर्जुन सिंह के हाथों आते ही उन्होंने मीडिया को उपकृत करने की यह योजना बनाई. हालांकि करार की शर्तों में साफ था कि अखबार मालिक अपने अखबार से अलग कोई व्यावसायिक उपयोग नहीं करेंगे. मगर समय के साथ रियल एस्टेट का कारोबार चढ़ते ही जब भूखंडों के भाव आसमान छूने लगे तो मुनाफा कमाने के मामले में अखबार मालिक भी पीछे नहीं रहे. प्रेस कॉम्प्लेक्स का मौजूदा भाव 15 हजार रुपये प्रति वर्ग फुट से अधिक है और यही वजह है कि आज प्रेस कॉम्प्लेक्स में प्रेस से अधिक व्यावसायिक कॉम्प्लेक्स दिखाई देते हैं.

इस मामले में नया मोड़ तब आया जब एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने स्कूल और अस्पताल से ठीक विपरीत मीडिया को व्यावसायिक गतिविधि मानते हुए रियायती दर पर आवंटित जमीन पर नाराजगी जताई. साथ ही उसने राज्य सरकार को अखबारों से जमीन आवंटन की तारीख से व्यावसायिक दर पर रकम वसूलने का निर्देश भी दिया. इसके बाद आवास एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 2006 में एक सर्वे किया. तहलका को मिली सर्वे की प्रति बताती है कि अखबार के संपादन और छपाई संबंधी कार्यों के लिए जारी हुए भूखंडों में यदि अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर को प्रकाशकों द्वारा व्यावसायिक संपत्ति में बदल दिया गया है.  कुछ प्रकाशकों ने भूखंड बेच दिए हैं जबकि कुछ ने उसके आधे से अधिक हिस्से पर आवासीय और व्यावसायिक परिसर बनाकर किराए पर दे दिया. इसके अलावा कुछ ने अखबार के कार्यालय में ही अपनी दूसरी कंपनियों के कॉरपोरेट कार्यालय खोल दिए हैं.

15 हजार रुपये प्रति वर्ग फुट से अधिक है और यही वजह है कि आज प्रेस कॉम्प्लेक्स में प्रेस से अधिक व्यावसायिक कॉम्प्लेक्स दिखाई देते हैं.

2006 में बीडीए ने अनुबंध के विरुद्ध भूखंडों के उपयोग परिवर्तन को लेकर सभी प्रकाशकों को वसूली नोटिस भेजे थे लेकिन अब तक वसूली की रकम पांच गुना बढ़ने के बावजूद किसी से यह रकम नहीं ली जा सकी है. प्रकाशकों का तर्क है कि यदि उन्हें आवंटन के दौरान ही यह स्पष्ट कर दिया जाता कि बाद में उनसे बाजार दर वसूली जाएगी तो हो सकता है कि वे अपना अखबार यहां के बजाय कहीं और से चलाते. सीधी टिप्पणी से बचते कई प्रकाशक भी चाहते हैं कि कोई आसान रास्ता निकले ताकि चुनाव के ठीक पहले सरकार द्वारा डाले जाने वाले दबाव से वे बच सकें.

वहीं नवजीवन की लीज निरस्त करने वाले आवास एवं पर्यावरण मंत्रालय के मंत्री जयंत मलैया बाकी अखबारों पर भी कार्रवाई के संबंध में यह तो बताते हैं कि उन्हें प्रेस के नाम पर चल रही व्यावसायिक गतिविधियों की पुख्ता जानकारी है लेकिन वे उन पर कार्रवाई की समयसीमा को लेकर कुछ नहीं बताते. वे कहते हैं, ‘राज्य सरकार इस संबंध में जल्द ही कोई फैसला लेगी.’ जहां तक प्रकाशकों की बात है तो तहलका ने नवभारत, दैनिक भास्कर, नई दुनिया, शिखरवार्ता और दैनिक जागरण के प्रकाशकों को ईमेल भेजकर इस मामले पर उनकी राय जानने की कोशिश की थी लेकिन खबर लिखे जाने तक इन अखबारों की तरफ से हमें कोई जवाब नहीं मिला.
इस मामले में दिग्विजय सिंह से लेकर उमा भारती के कार्यकाल तक कई समितियां बनीं लेकिन नतीजा सिफर ही रहा. दरअसल अखबार मालिकों और सरकार के बीच यह जमीन सत्ता संतुलन का केंद्र बन चुकी है. अखबार मालिक जहां अपनी दुखती रग से बखूबी वाकिफ हैं वहीं सरकार भी यह जानती है कि यदि उसने कार्रवाई की तो सारा प्रेस उसके खिलाफ एकजुट हो जाएगा. 

करार विरूद्ध अरबों का कारोबार
1982 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जब इस कॉम्प्लेक्स का शिलान्यास किया तब पहला भूखंड नवजीवन को ही दिया गया. कांग्रेस का अखबार होने के नाते अर्जुन सिंह सरकार नवजीवन की प्रतियां खरीदकर उन्हें स्कूलों तक पहुंचाती थी. मगर वित्तीय दिक्कतों के चलते यह अखबार 1990 में बंद हो गया और आज भी इसके कर्मचारी अपने वेतन भत्तों के लिए श्रम न्यायालय में लड़ाई लड़ रहे हैं. जिस विशाल भूखंड पर कभी नवजीवन का बोर्ड लगा था, आज उसी पर विशाल मेगामार्ट और लोटस इलेक्ट्रॉनिक्स का शोरूम है.

एक जमाने में इंदौर का नईदुनिया राजनीति का ‘किंगमेकर’ माना जाता था. इसे लाभचंद छजलानी, बसंतलाल सेठिया और नरेन्द्र तिवारी ने शबाब पर पहुंचाया. किंतु नब्बे के दशक में तीनों के बीच विवादों ने जोर पकड़ा और भोपाल संस्करण तिवारी परिवार के खाते में आया. यह अखबार धीरे-धीरे अपना प्रसार खोता गया. बाद में प्रकाशक ने 56 हजार वर्ग फुट आवंटित भूखंड के आधे से अधिक हिस्से पर आकांक्षा नामक बहुमंजिला व्यावसायिक परिसर बना लिया. फिलहाल बीडीए को इससे 35 करोड़ रुपये से अधिक की वसूली करनी है.

सबसे पुराने अखबारों में से एक नवभारत को 1982 में जब बड़ा भूखंड दिया गया तब यह प्रदेश का सबसे तेज बढ़ता अखबार था. इसके मालिक स्व. रामगोपाल माहेश्वरी माहेश्वरी(बिड़ला) समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और उनके पुत्र प्रफुल्ल माहेश्वरी कांग्रेस से राज्यसभा के सांसद. नब्बे के दशक में माहेश्वरी घराने ने नवभारत की साख को दांव पर लगाते हुए एनबी प्लांटेशन के नाम से एक प्लांटेशन कंपनी खोली. बाद में यह विवादों और घोटालों में फंसी. मामला हाई कोर्ट तक पहुंचा और कई निवेशकों का पैसा डूबा. वहीं प्रसार में भी यह अखबार पिछड़ गया. फिलहाल नवभारत परिसर में टाइम्स ऑफ इंडिया के अलावा वीडियोकॉन का कार्यालय है. बीडीए को इससे तकरीबन 40 करोड़ रुपये की वसूली करनी है.

दुनिया के बड़े अखबारों में से एक होने का दावा करने वाला दैनिक भास्कर कभी शहर के पुराने इलाके से निकालता था. शुरुआत में इसने भी कार्यालय का कुछ हिस्सा किराए पर दिया लेकिन अखबार के विस्तार के चलते इसे अपने लिए ही अधिक स्थान की जरूरत पड़ने लगी. नया नारा अखबार के लिए आवंटित भूखंड पर जहां भास्कर का अभिव्यक्ति नामक कला केंद्र है वहीं साप्ताहिक प्रजामित्र के आवंटित भूखंड पर भास्कर-जबलपुर समूह का जो कार्यालय है उसमें भास्कर की ही दो कंपनियों के कारर्पोरेट कार्यालय भी संचालित हैं. अखबार के साथ-साथ भास्कर नमक, तेल, सूत से लेकर रियल स्टेट,  पावर प्लांट और मनोरंजन के क्षेत्र में भी उतरा. फिलहाल कार्यालय से प्रसारित एफएम रेडियो चैनल समाचार आधारित न होकर मुख्यतः मनोरंजक और व्यावसायिक माध्यम है. बीडीए को इससे 40 करोड़ रुपये से अधिक की वसूली करनी है.

दैनिक जागरण के दम पर स्व गुरुदेव गुप्ता ने राजनीति में भी पहुंच बनाई थी. नब्बे के दशक में जागरण ने जिंक बनाने वाली कंपनी भारत जिंक का मंडीदीप में कारखाना लगाया. मगर कंपनी डूबी और इसी के साथ अखबार परिसर से संचालित कंपनी का कार्यालय भी बंद हो गया. बीडीए को इससे 15 करोड़ रुपये की वसूली करनी है.

इसके अलावा अर्जुन सिंह कार्यकाल के कई मंत्रियों के छोटे प्रकाशकों को भी बड़े भूखंड आवंटित किए गए जिनमें- सुरेश सेठ(इंदौर समाचार), सूर्यप्रकाश बाली(सतपुड़ावाणी), रामाकांत सिंह(पुरजोर) और विष्णु राजौरिया(शिखरवार्ता) खास हैं. भले ही इंदौर समाचार भोपाल से कभी न निकला हो लेकिन इसके भूखंड पर व्यावसायिक इमारत जरूर खड़ी है. सतपुड़ावाणी की आधी जमीन खाली है और आधी आवासीय परिसर में बदल चुकी है. पुरजोर हाउस में नवदुनिया अखबार के अलावा निजी कॉलेज का कार्यालय चल रहा है. शिखरवार्ता कार्यालय में सिंडिकेट बैंक संचालित है. इसी के साथ नदीम, क्वालिटी समाचार सहित दर्जनों अखबारों के भूखंडों पर भी कोचिंग सेंटर से लेकर मोटर गैराज तक तमाम गतिविधियां तो दिखती हैं लेकिन बाजार में उपस्थिति कहीं नहीं. वहीं नब्बे के दशक में सप्रे शोध संस्थान के पास(लिंक रोड 3) अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस को भी रियायती दर पर जो भूखंड आवंटित हुए वे खाली पड़े हैं. करार के मुताबिक तीन साल के भीतर अखबारों को अपने कार्यालय बनाकर काम शुरू कर देना था. आला अधिकारियों की राय में प्रेस के चलते ये मामले इतने संवेदनशील हैं कि कोई कार्यवाई करना आसान नहीं. बीडीए अध्यक्ष सुरेन्द्र नाथ सिंह कहते हैं, ‘हमने सरकार से सलाह मांगी है. उसके जवाब के बाद ही कार्रवाई संभव है.’ हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने बीडीए को एक स्वायत्त संस्था बताते हुए कहा है कि सरकार को चाहिए वह इसके काम में दखलंदाजी न करे. मगर प्राधिकरण है कि इस मामले में सरकार से दखलंदाजी की उम्मीद लगाए बैठा है.

चलाचली की बेला में छत्तर का मेला…

दस नवंबर, सुबह छह बजे का समय. पटना को उत्तर बिहार से जोड़ने वाले गांधी सेतु पर बड़ी और छोटी गाड़ियां एक लाइन से खड़ी हैं. यातायात पूरी तरह ठप है. अहले सुबह सेतु पर यातायात ठप होने का एकमात्र कारण है आज कार्तिक पूर्णिमा का होना और आज से ही विश्व प्रसिद्ध सोनपुर या ठेठ भाषा में कहें तो छत्तर के मेले की शुरुआत. माथे पर गठरी रखे, छोटे बच्चों का हाथ पकड़े और खुद से न चल पाने वाले छोटे बच्चों को गोद में चिपकाए लोगों का रेला सोनपुर की तरफ बढ़ रहा है.

कार्तिक पूर्णिमा से शुरू होकर अगले एक महीने तक चलने वाले इस मेले को देश-दुनिया में एशिया के सबसे बड़े पशु मेले के तौर पर जाना जाता है, लेकिन मेले की यह पहचान पिछले कुछ वर्षों से मिटती जा रही है. मेले में बिक्री के लिए आने वाले पशुओं की संख्या लगातार घटती जा रही है. चाहे वे दुधारू मवेशी मसलन गाय और भैंस हों या पूर्व में शान की सवारी समझे जाने वाले हाथी, घोड़ा या ऊंट. पहले कभी इस मेले में पूरे मध्य एशिया से व्यापारी पर्शियन नस्ल के घोड़ों, हाथी, अच्छी किस्म के ऊंट और दुधारू मवेशियों के लिए यहां तक आते थे. लेकिन यह सिलसिला पिछले कुछ वर्षों से बंद है. अब इस मेले में जानवरों की खरीद-बिक्री न के बराबर होती है. अब यह मेला बड़े जानवरों की प्रदर्शनी भर बनकर रह गया है. इस बार के मेले में गोरखपुर से अपने हाथियों के साथ आए उदय ठाकुर बड़े शान से कहते हैं, ‘अब हाथी तो मुश्किल से ही इस मेले में बिकें लेकिन हम तो मेले में हाथी सिर्फ घुमाने के लिए लाते हैं. हाथी है. मेले में लाए हैं. मेला घुमाएंगे और वापस ले जाएंगे.’ बातचीत में उदय ठाकुर बताते हैं कि गोरखपुर से यहां तक हाथी को आने में दो सप्ताह का समय लगा और इसमें बीस हजार रु का खर्च आया.

इस बातचीत से यह तो साफ हो जाता है कि अब यहां जानवरों के खरीददार नहीं आते. जब खरीददार ही नहीं आएंगे तो कौन केवल शौक के लिए या जानवर को मेला घुमाने के लिए बीस हजार रुपये लगा कर यहां तक आएगा. यह समस्या सोनपुर मेले के स्वर्णिम इतिहास को धीरे-धीरे खत्म करती जा रही है.

जानवरों के अलावा मेले में जरूरत की हर छोटी-बड़ी चीज की दुकानें सजी हैं. एक तरफ बच्चों के मनोरंजन के लिए मौत का कुआं, इच्छाधारी नाग-नागिन का खेल, झूले और खेल-खिलौनों की दुकानंे लगी हैं तो दूसरी तरफ नौजवान लड़कों और पुरुषों के मनोरंजन के लिए कई थियेटर कम कपड़े पहने लड़कियों के आदमकद कटआउट लगाए मेले में खड़े हैं. थिएटरों में कम कपड़े पहने हुए लड़कियों का नाच शाम ढले शुरू हो जाता है और फिर देर रात तक केवल थिएटर के अंदर और बाहर ही चहल-पहल दिखती है. यह एक विडंबना ही है कि पशुओं के लिए विख्यात मेले में आज इन थिएटरों का प्रमुखता से कब्जा है. मेले की हालिया पहचान भी इन थिएटरों से ही जुड़ रही है. थिएटरों पर नाच की आड़ में अश्लीलता परोसने के आरोप भी लगे हैं. इन आरोपों की वजह से एक बड़ा वर्ग सोनपुर मेले को ही अश्लील मानने लगा है और इस तरफ रुख करने से बचने लगा है.

अपनी असल पहचान खोते और अश्लीलता का आरोप झेलते इस मेले का इतिहास काफी पुराना और दुरुस्त है. माना जाता है कि यह मेला मौर्यकाल से लगता आ रहा है. बताया जाता है कि चंद्रगुप्त मौर्य सेना के लिए हाथी खरीदने हरिहर क्षेत्र आते थे. 1888 में यहीं पर सर्वप्रथम गोरक्षा पर विचारगोष्ठी का आयोजन हुआ था. स्वतंत्रता आंदोलन में भी सोनपुर मेला बिहार की क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र रहा है. वीर कुंअर सिंह लोगों को अंग्रेजी हुकूमत से संघर्ष के लिए जागरूक करने और अपनी सेना में बहाली के लिए यहां आते थे. अंग्रेजों के शासनकाल में ही इसे ‘एशिया का सबसे बड़ा पशु-मेला’ नाम दिया गया था.

हालांकि तमाम आरोपों और मेले के मिटते जाने की शंका और आशंकाओं के बीच इस मेले में आने वाले आम देहाती को देखने-सुनने के बाद ऐसा लगता है कि ये लोग अपनी परेशानियों को पीछे छोड़कर यहां आते हैं, जमकर मस्ती करते हैं, जरूरत के सस्ते सामानों की खरीददारी करते हैं, खाते-पीते हैं और मेले के बारे में बोलते-बतियाते शाम को घर लौट जाते हैं. मेले में आने वालों की संख्या और उनके मिजाज को देखकर इतना तो विश्वास हो ही जाता है कि सोनपुर मेला देहात की आम जनता का अपना मेला है.

जलढ़री: सोनपुर मेला, कार्तिक पूर्णिमा के दिन से प्रारंभ होता है. इस दिन को गंगा में स्नान करने और सोनपुर के हरीहर नाथ मंदिर में भगवान विष्णु की मुर्ति पर गंगा-जल से जलढ़री करने का रिवाज है. इस मौके पर राज्य के दूर-दराज वाले इलाकों से भी भक्तों की भीड़ गंगा स्नान करने और हरीहर नाथ मंदिर में जल चढाने है.

 

खरीद-बिक्री: वैसे तो यहां हर  तरह  के सामानों की खरीद-बिक्री होती है लेकिन इस मेले में श्रिंगार-पटार के सामानों को बेचननिहार और खरीदने वाली महिलाएं बहुलता से दिखती है. मेले में हर तरफ, सड़क  किनारे लगाए गए किसी छोटे से दुकान पर  गवईं औरतों की टोली श्रिंगार के सस्ते सामानों की खरीददारी करती दिखती हैं.

 

 

कमाई का आसान रास्ता: तस्वीर में कंधे पर बांसुरियों को लादे जो लड़का खड़ा है वह दस वर्षीय “अरमान” है. अरमान, बांसुरी बेचने का काम करता है. वैसे तो उसे बांसुरी बेचने के लिए हर रोज इलाके के अलग-अलग जगहों पर पैदल जाना होता है. लेकिन अगल कुछ दिनों तक  अरमान  आसानी से हर रोज दो सौ रुपय की कमाई करता रहेगा. उसे केवल इतना भर करना होगा कि अपनी बांसुरियों के साथ मेले में आ के खड़ा हो जाए.

 

नौटंकी की जगह थिएटर कंपनियां: पहले, तीस दिनों तक चलने वाले  मेले में दूर-दूर  के व्यापारी, जानवर  खरीदने-बेचने वाले आते थे और तीस दिनों तक स्थायी तौर पर यहीं रहते थे सो मेले में नौटंकी दिखाने वाले भी भारी मात्रा में आते थे और  लैला-मजनूं और  दही वाली गुजरी की कहानियों का मंचन कर के लोगों का मन बहलाती थीं. आज नौटंकी वाले, वालियों की जगह बड़ी-बड़ी थिएटर कंपनियों ने ले लिया है और पराम्परिक कहानियों के मंचन की जगह  फिल्मी आयटम  सॉंग और भोजपुरी गानों पर  होने वाले अश्लील नाच ने ले लिया है.

 

खेल-तमाशा: मेले में हर तरफ कोई न कोई खेल-करतब  चलता रहता है लेकिन “मौत का कुआं” का कतरब  देखने  वालों की संख्या सबसे  ज्यादा होता है. इस खेल में दो मोटरसाईकिल  चालक लकड़ी की खड़ी दिवार पे मोटरसाईकिल दौड़ाते हुए तरह-तरह  के  करतब  दिखाते हैं. दर्शक, दस रुपय का टिकट लेकर इस खेल का मजा लेते हैं और चेहरे पे आश्चर्य का भाव लिए बाहर निकलते हैं.

 

घुड़दौड़: इलाके के पुराने लोग बताते हैं कि कालांतर में घोड़ों की यह दौड़ इसलिए हुआ  करती थी कि खरीददार अच्छे नस्ल के घोड़ों को पहचान सकें, चाल देख सकें. लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान मेले में आने वाले घोड़ों की संख्या और घोड़ों के खरीददार दोनों में भारी कमी आई है. फिलहाल यह दौड़ मेले में आने वालों का मनोरंजन करती है.

 

आराम का वक्त: अक्सर लोग मेले में घूमते-घूमते थक जाते हैं फिर अपनी थकान को भगाने के लिए मेले के बगल वाले बागीचे (आम का बागीचा जिसे साधू गाछी के नाम से जाना जाता है) में बैठ, आपस में बतियाते, कुछ खाते-पीते और एकाध झपकी लेते दिख जाते हैं.

समर्पण और सवाल

बस्तर के बासागुड़ा दलम में गुरिल्ला स्क्वैड प्रभारी रहे रमेश उर्फ बदरन्ना ने 30 जनवरी, 2000 को नक्सलपंथ का रास्ता छोड़ा था. मकसद था समाज की मुख्यधारा में लौटना. बदले में पुलिस ने बदरन्ना को बेहतर पुनर्वास का भरोसा दिलाया था.

लेकिन वक्त बीतता गया और कुछ नहीं हुआ. पुलिस अधिकारियों के चक्कर काटते हुए दिन, महीने और देखते ही देखते कई साल भी निकल गए. इस दौरान बदरन्ना ने कहीं इधर-उधर भी काम मांगा तो लोगों ने यह कहकर बचने की कोशिश की कि नक्सली रहा है, पता नहीं क्या करेगा. पूरे आठ साल बाद बदरन्ना को एक नौकरी हासिल हो पाई. लेकिन तब भी ऐसा नहीं था कि मुश्किलें खत्म हो गई हों. फिलहाल जगदलपुर नगर निगम के एक बगीचे में मिट्टी खोदने वाले मजदूर के रूप में काम करने वाले बदरन्ना को निगम ने जाति और चरित्र प्रमाण पत्र जमा करने के लिए नोटिस थमा दिया है. नक्सलवाद के रास्ते पर चलते हुए अपना घर-परिवार खो चुके बदरन्ना के सामने अब सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि अपनी नौकरी बचाने के लिए जाति और चरित्र प्रमाण पत्र की व्यवस्था किस तरह की जाए. नक्सलियों द्वारा गांवों में संचालित किए जाने वाले स्कूल में प्राइमरी तक पढ़े बदरन्ना के शब्दों में, ‘नक्सली चरित्र और चरित्रवान लोगों को तो महत्वपूर्ण मानते हैं लेकिन जाति व्यवस्था की परिपाटी वहां लागू नहीं होती. अब मैं किससे लिखवाऊं कि मेरा चरित्र कभी खराब नहीं रहा और मेरी जाति दोरला है.’

बदरन्ना की पत्नी लतका की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है. बदरन्ना के साथ बीहड़ों में सक्रिय रही लतका के लिए कुछ किया जा सकता है, इसकी याद पुलिस को तब आई जब 2006 में कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा की अगुवाई में नक्सलियों के खिलाफ सलवा-जुडूम अभियान शुरू हुआ. लतका प्रतिमाह 1,500 रु पाने वाली एसपीओ (स्पेशल पुलिस ऑफिसर) बना दी गई. उसका काम था गांव-गांव जाकर युवाओं को नक्सलवाद से दूर रहने की सलाह देना. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद जब एसपीओ से हथियार वापस लेने की प्रक्रिया शुरू हुई तो उसे खाली बैठना पड़ा. अब कुछ समय पहले लतका की तैनाती सहायक आरक्षक के पद पर तो हो गई है, लेकिन उसके मुताबिक अब भी कई बार वरिष्ठ अफसर उससे यह कह देते हैं कि वह नक्सली रही है इसलिए पुलिस का साथ सच्चे मन से नहीं दे सकती. इस बात में कहीं-न-कहीं नौकरी छीन लेने का संदेश भी छिपा रहता है.

यह व्यथा अकेले बदरन्ना और लतका की नहीं है. नक्सलवाद से ग्रस्त राज्यों की सूची में शीर्ष पर खड़े छत्तीसगढ़ में ऐसे बहुत-से उदाहरण हैं. ये बताते हैं कि नक्सलियों के आत्मसमर्पण के जरिए इस चुनौती पर काबू पाने की राज्य सरकार की नीति एक बड़ी हद तक असफल क्यों है. तहलका ने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करने वाले बहुत-से नक्सलियों के पते-ठिकानों पर जाकर हालात की पड़ताल की. इस दौरान हमारा सामना कई चौंकाने वाली सच्चाइयों से हुआ.

पुलिस कहती है कि नक्सली हिंसा से तंग आकर ही आत्मसमर्पण करते हैं, लेकिन सच यह है कि ऐसे नक्सलियों का बंदूक से रिश्ता खत्म नहीं हुआ है

आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों को लेकर आयोजित की जाने वाली प्रेस वार्ताओं में पुलिस यह दावा करती रही है कि ये नक्सली ‘हिंसक’ गतिविधियों से तंग आने के बाद ही समाज की मुख्यधारा से जुड़ाव को लेकर प्रेरित होते हैं. लेकिन सच यह है कि छत्तीसगढ़ में समर्पण करने वाले ज्यादातर नक्सलियों का रिश्ता बंदूक से खत्म ही नहीं होने दिया गया. वे नक्सली जो बीहड़ों में पुलिस को वर्ग शत्रु मानकर उस पर गोलियां दागते थे, समर्पण के बाद वही पुलिस की ओर से नक्सलियों पर गोलियां दाग रहे हैं. कई जगहों पर तो पुलिस ने उन्हें एनकांउटर स्पेशलिस्ट भी बना रखा है. तहलका को छानबीन के दौरान एक भी शख्स ऐसा नहीं मिला जो खेती-बाड़ी या किसी दूसरे काम-धंधे में लगा हो. बदरन्ना को जरूर अपवाद कहा जा सकता है.  हालांकि उसे भी पहले नक्सलियों के खात्मे के लिए पुलिस की मदद करने को कहा गया था, लेकिन वह तैयार नहीं हुआ. बदरन्ना किसी पुनर्वास नीति से भी आकर्षित नहीं था. वह बताता है, ‘पार्टी का प्रभाव बढ़ रहा था और मैं उसके हिसाब से खुद को एडजस्ट नहीं कर पा रहा था. लंबे समय तक संगठन में एक ही जगह अटके रहने से फ्रस्ट्रेशन आ गया था.’ 

अपनी पड़ताल में हम पाते हैं कि छत्तीसगढ़ के पुलिस महकमे ने साल 2000 से सितंबर, 2012 तक  3,225 नक्सलियों के स्वप्रेरणा से आत्मसमर्पण कर देने, उनके माता-पिता, गांव, संगठन में कैडर आदि का हिसाब-किताब तो बखूबी रखा है,लेकिन विभाग में इस बात की कोई जानकारी नहीं मिलती कि समर्पण के बाद कौन क्या कर रहा है.

आत्मसमर्पण कर चुके एक नक्सली एनकन्ना की तलाश में हम उसके गांव एतराजपाड़ को रवाना होते हैं.  एनकन्ना की पहचान बीजापुर जिले के रानीबोंदली बेस कैंप, मुरकीनार और गीदम थाने पर हमला करके कुल 71 सुरक्षाकर्मियों को मौत के घाट उतारने वाले नक्सली के तौर पर है. पुलिस मानती है कि एतराजपाड़ का बच्चा-बच्चा नक्सली है. यह गांव उस भेज्जी थाने से लगभग 12 किलोमीटर दूर है जिस पर नक्सली कई बार हथियार लूटने के लिए हमला कर चुके हैं.

हम एतराजपाड़ पहुंच चुके हैं. गांव में सन्नाटा पसरा है. इधर-उधर तलाशने पर हमें दो-चार लोग मिलते हैं, लेकिन वे बातचीत करने से बचते हैं. जैसे-तैसे आयतु (बदला हुआ नाम ) नाम का एक ग्रामीण बात करने के लिए राजी होता है. वह बताता है कि गांव से कुछ दूर जंगल में दादा लोग यानी नक्सली बैठक ले रहे हैं इसलिए सब वहां गए हुए हैं. बैठक में शामिल होने को अपनी मजबूरी बताते हुए आयतु बताता है कि आत्मसमर्पण के बाद एनकन्ना ने कभी गांव का रुख नहीं किया. शायद उसे डर है कि यदि वह गांव आया तो नक्सली उसे मार डालेंगे. विदा लेने से पहले हमें यह महत्वपूर्ण सूचना भी मिलती है कि एनकन्ना अब पुलिस की नौकरी कर रहा है और उसकी तैनाती बीजापुर के पुलिस कार्यालय में है.

हम बीजापुर पहुंचते हैं. नक्सली से पुलिसकर्मी बने एनकन्ना से मुलाकात के लिए हमें काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है. जैसे-तैसे हम उस तक अपना संदेश पहुंचाते हैं. बीजापुर के पुलिस कप्तान प्रशांत अग्रवाल के दफ्तर की छत पर पुलिसकर्मियों की भीड़ से अलग होने के बाद एनकन्ना बताता है कि उसने 2009 में आत्मसमर्पण किया था. उसके साथ उसकी नक्सली पत्नी सुशीला भी थी. एनकन्ना को खेती-बाड़ी के लिए जमीन देने के साथ-साथ लगभग एक लाख रुपये नकद देने का आश्वासन दिया गया था. लेकिन अब तक उसे न तो जमीन मिली है और ही पैसा. एनकन्ना बताता है कि पुनर्वास के तहत दी जाने वाली रकम पाने के लिए जब उसने पुलिस विभाग के बड़े अफसरों से शिकायत की तो उसे एसपीओ बना दिया गया. इन दिनों वह सहायक आरक्षक है और नक्सलियों को मार गिराने में पुलिस की मदद कर रहा है. वह बताता है कि उसे बस्तर के चप्पे-चप्पे की जानकारी है जिसका फायदा उठाकर पुलिस उसे सामने रखकर मुठभेड़ की कार्रवाई अंजाम देने में लगी रहती है.

एनकन्ना को पुनर्वास के तहत दी जाने वाली राशि और एनकांउटर स्पेशलिस्ट बना दिए जाने को लेकर बीजापुर के पुलिस अधीक्षक प्रशांत अग्रवाल कहते हैं, ‘एनकन्ना नक्सलियों द्वारा अंजाम दी गई वारदात में शामिल जरूर था, लेकिन उसके अपराध रिकार्ड में नहीं थे इसलिए उसे धनराशि देने के बजाये पुलिसवाला बना दिया गया.’ जब एनकन्ना के खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं था तो फिर वह नक्सली कैसे हुआ, यह पूछे जाने पर अग्रवाल कहते हैं कि वारदात के दौरान नक्सलियों को सहयोग देने के लिए मौजूद रहने वाला भी नक्सली हो सकता है. वे यह भी बताते हैं कि नक्सलियों की टोह लेने के लिए पुलिस एनकन्ना की मदद तो लेती है, लेकिन वह एनकाउंटर स्पेशलिस्ट नहीं है. 

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 435 किलोमीटर दूर भैरमगढ़ मार्ग पर स्थित एक गांव नेलसनार में हमारी मुलाकात दो ऐसे लोगों से होती है जो मिरतुर व उसके आस-पास के इलाकों में सक्रिय नक्सली कमांडर मुन्ना कड़ती और संतोष के लिए काम किया करते थे. मूल रुप से दारापाल गांव निवासी भीमा बताता है कि उसने कभी हथियार नहीं उठाया क्योंकि वह ग्रुप में सबके लिए भोजन बनाने का काम ही करता था. लेकिन जब बस्तर में सलवा-जुडूम अभियान की शुरुआत हुई तो हिंसा और खून-खराबे के माहौल से डरकर उसने फैसला किया कि वह आत्मसमर्पण कर देगा. उसे पांच हजार रुपये का इनाम मिला और बाद में उसे एसपीओ बनाकर हथियार थामने के लिए मजबूर कर दिया गया. अब वह सहायक आरक्षक है. जब कभी पुलिस जंगल में सर्च करने के लिए कूच करती है तो वह बंदूक पकड़कर आगे-आगे चलता है. कुछ इसी तरह की शिकायत नक्सली से सहायक आरक्षक बने लक्ष्मण ओयाम की भी है. वह बताता है कि उसने नौ जुलाई, 2005 को आत्मसमर्पण किया था, लेकिन तब से लेकर अब तक वह पुलिस की ओर से मुहैया कराए गए एक दड़बे में ही रहने को मजबूर है. पुलिस जब कभी कहती है कि फलानी जगह पर सर्च के लिए चलना है तो वह बंदूक कंधे पर उठाकर चल देता है.

आंध्र प्रदेश की तुलना में अनाकर्षक पुनर्वास नीति की वजह से छत्तीसगढ़ में सक्रिय रहे कई बड़े नक्सली राज्य में आत्मसमर्पण करने से बचते रहे हैं

2010 में जब बीजापुर जिले के पुलिस कप्तान अविनाश मोहंती थे तब मुठभेड़ के 13 प्रकरणों सहित हत्या, लूट और राष्ट्रदोह के दर्जनों मामलों में शामिल यालम रमेश उर्फ दिलीप को डेढ़ लाख रुपए का इनामी नक्सली बताते हुए दावा किया गया था कि उसने आत्मसमर्पण किया है. लेकिन बीजापुर के वर्तमान पुलिस अधीक्षक प्रशांत अग्रवाल आत्मसमर्पण कर चुके नक्सलियों की जो सूची तहलका को देते हैं उसमें रमेश पर मद्देड़ और भोपालपट्टनम थानों की ओर से कुल सात हजार रुपए का इनाम दर्शाया गया है. सूची में यालम रमेश की पत्नी साधना उर्फ सोमली को भी आत्मसमर्पण कर चुका बताते हुए जानकारी दी गई है कि उसके ऊपर कोई अपराध पंजीबद्ध नहीं था इसलिए उसे 14 अक्टूबर, 2010 को पहले एसपीओ ( क्रमांक 1653 )  और अब सहायक सशस्त्र बल में आरक्षक (क्रमांक 305)  बनाया गया है.

जब हमें पता चलता है कि यालम जगदलपुर जेल में बंद है तो हम जुगत लगाकर उससे जेल में ही मुलाकात करते हैं. वह बताता है कि उसे साधना से प्रेम हो गया था. यालम कहता है, ‘बीहड़ में साथ-साथ रहने और पुलिस से बचने-बचाने की प्रक्रिया के दौरान एक रोज साधना ने कहा कि जो गोली दूसरों की जान ले सकती है वही गोली हमें भी जुदा कर सकती है. हम जुदा नहीं होना चाहते थे सो हमने तय किया कि सरेंडर कर देंगे. हमने इधर-उधर से संपर्क साधा तो पुलिसवालों ने खेती-बाड़ी के लिए जमीन और पैसा देने की बात कही. लेकिन जब घरवाले मुत्तापुर (यालम के गांव ) से जेल में मिलने आते हैं तो पता चलता है कि सरकार की ओर से अब तक कुछ भी नहीं किया गया है.’ 23 अप्रैल, 2010 को पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करने वाले यालम को कोई अंदाजा नहीं कि वह जेल से कब छूटेगा. छूटेगा भी या नहीं. उधर, पुलिस कप्तान प्रशांत अग्रवाल कहते हैं, ‘यालम को पुनर्वास योजना का लाभ देने के लिए कलेक्टर को पत्र तो लिखा गया है. देखिए, प्रक्रिया कब तक आगे बढ़ती है. मामला विचाराधीन है.’

एक वक्त था जब सलवा-जुडूम शरणार्थियों के एक बड़े राहत शिविर केंद्र के रूप में विख्यात भैरमगढ़ और जांगला इलाके में नक्सली कमांडर अपका बुधराम का डंका बजता था. जांगला के एक घर में हमारी मुलाकात बुधराम के दल से जुड़ी रही लखमी और रुक्मणी से होती है. दोनों को अपने समर्पण की तारीख तो याद नहीं लेकिन वे बताती हैं कि समर्पण के दौरान पुलिसवालों ने उन्हें सुहाग का साजो-सामान मसलन साड़ी, ब्लाउज, चूड़ी और सिंदूर का डिब्बा भेंट में दिया था. कुछ समय के बाद उन्हें यह बताया गया कि वे गोपनीय सैनिक बना दी गई हैं. वे अब क्या हैं, पूछने पर लखमी और रुक्मणी कहती हैं कि गोपनीय सैनिक ही हैं, लेकिन लगभग पांच महीने से थानेवालों ने पैसा देना बंद कर दिया है. इस बारे में जांगला थाने के प्रभारी लक्ष्मण उमेटी बताते हैं कि गोपनीय सैनिकों को मानदेय देने के लिए अलग से फंड की व्यवस्था तो है लेकिन अब यह फंड खत्म हो गया है.
वैसे छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की गिरफ्तारी और उनके समर्पण के संदर्भ में  एक और दिलचस्प तथ्य यह भी है कि नक्सलियों के ठौर-ठिकानों और गतिविधियों से वाकिफ होने के बाद भी न तो राज्य की पुलिस शीर्ष और इनामी नक्सलियों को गिरफ्तार कर पाई है और न ही शीर्ष या मझोले कद के लीडरों ने राज्य में समर्पण को लेकर किसी तरह की दिलचस्पी दिखाई है. बस्तर के एक बड़े हिस्से में भाकपा (माओवादी) से संबद्ध कोसा, गौतम, ओगू, मुपिडी साम्वैया, दसरू, पांडू उर्फ पाण्डुना जैसे चर्चित नाम सक्रिय रहते हैं. इसके अलावा यहां सेंट्रल कमेटी के पोलित ब्यूरो सदस्य गणपति, किशनजी की पत्नी सुजातक्का, नम्बाला केशवराव, कटकम सुदर्शन, किशनदा, थिप्परी तिरूपित और मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व आंध्र सरकार की ओर से 27 लाख रुपये के इनामी नक्सली मल्लोजुला वेणुगोपाल उर्फ भूपति जैसे बड़े लीडरों की मौजूदगी भी बनी ही रहती है. लेकिन पुलिस इनमें से किसी को भी पकड़ नहीं पाई है. छत्तीसगढ़ में सक्रिय रहे अधिकांश बड़े नक्सली आंध्र प्रदेश में आत्मसमर्पण करते रहे हैं. इसका कारण वहां की बेहतर पुनर्वास नीति को बताया जाता है. कुछ समय पहले तक आंध्र में सेंट्रल कमेटी से जुड़े सदस्य को समर्पण करने पर 12 लाख रुपये की राशि दी जाती थी जो अब बढ़कर 20 लाख हो गई है. वहां स्टेट कमेटी मेंबर को 15 लाख रुपये, डिस्ट्रिक्ट कमेटी सेक्रेटरी को 10  लाख रुपये, मेंबर को आठ लाख रुपये, एरिया कमेटी सेक्रेटरी को पांच लाख रुपये, दल के कमांडर को तीन लाख रुपये और सदस्य को एक लाख रुपये की प्रोत्साहन राशि दी जाती है. इसके अलावा यदि आत्मसमर्पण कर चुका नक्सली खेती के लिए जमीन मांगता है तो उसे पांच एकड़ जमीन की सुविधा भी मुहैया कराई जाती है. आंध्र सरकार ट्रैक्टर के लिए बैंक लोन में भी मदद करती है.

उधर, छत्तीसगढ़ सरकार के गृह विभाग की नीति उतनी आकर्षक नहीं है.  विभाग ने वर्ष 2004 में पुनर्वास के लिए जो नीति बनाई थी उसमें किसी नक्सली के एलएमजी ( हथियार ) के साथ सरेंडर करने पर उसे तीन लाख रुपये मिलते थे. एके-47 के साथ दो लाख रुपये और एसएलआर रायफल के साथ एक लाख रुपये, थ्री नाट थ्री रायफल और 12 बोर बंदूक के साथ क्रमश: 50 हजार रुपये और 20 हजार रुपये की रकम दी जाती थी. लगभग आठ साल बाद जाकर सरकार को लगा कि यह रकम काफी नहीं तो नौ मई, 2012 को एक संशोधित आदेश के जरिए यह रकम बढ़ा दी गई. हालांकि जानकारों के मुताबिक यह बढ़ोतरी भी ऊंट के मुंह में जीरे जैसी थी. अब एलएमजी के साथ समर्पण करने वाले नक्सली को साढ़े चार लाख रुपए देना तय किया गया है. एके 47 के साथ समर्पण पर तीन लाख रुपये और एसएलआर के साथ डेढ़ लाख रु देने का निर्धारण हुआ है. थ्री नाट थ्री और 12 बोर की बंदूक पर 25 हजार और 10 हजार रुपये की बढ़ोतरी की गई है. दिलचस्प यह भी है कि एक नक्सली के आत्मसमर्पण करने की तुलना में उसे मुर्दा बरामद करने पर मिलने वाली रकम अच्छी-खासी है. प्रदेश के गृह विभाग की ओर से 25 अगस्त, 2008 को जारी सर्कुलर बताता है कि सेंट्रल कमेटी सचिव, मिलिट्री कमीशन प्रमुख, पोलित ब्यूरो सदस्य, स्टेट सब कमांड चीफ, स्टेट कमेटी सदस्य से लेकर लोकल गुरिल्ला स्क्वैड से जुड़े लोगों को मुर्दा पकड़ने पर पुलिस के अधिकारियों और कर्मचारियों को प्रोत्साहन राशि मिलेगी. प्रोत्साहन के लिए अधिकतम राशि 12 लाख रुपये निर्धारित की गई है.

जानकारों के मुताबिक यही एक वजह है कि छत्तीसगढ़ में सक्रिय अधिकांश नक्सलियों ने समर्पण के लिए बीते दस साल में आंध्र का रुख किया है. 2008 में सेंट्रल कमेटी के एक प्रमुख सदस्य लंकापापी रेडडी, डिस्ट्रिक्ट कमेटी मेंबर सिदाम जयावंत, कोनगंटी करुणा और बस्तर के कोंटा इलाके में सक्रिय डिवीजन कमांडर नागन्ना, लक्ष्मणा, किरण सहित कई प्रमुख नक्सलियों ने आंध्र में हथियार डाले थे. अप्रैल, 2010 में दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी के सदस्य लालचंद ने आंध्र के आदिलाबाद में समर्पण किया था. हाल ही में आठ अक्टूबर, 2012 को मानपुर इलाके के प्लाटून नंबर 23 के प्रभारी कमांडर जंगू उर्फ पवन ने अपनी पत्नी लक्ष्मी औंधी के साथ आंध्र प्रदेश पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया तो छत्तीसगढ़ सरकार की पुनर्वास नीति को लेकर सवाल उठना लाजिमी ही था.

पांच साल पहले मुख्यमंत्री रमन सिंह के सामने आत्मसमर्पण करने वाले 79 नक्सलियों के बारे में बाद में पता चला कि वे किसान थे. फिर उन्हें छोड़ना पड़ा

अपने अगले पड़ाव के तहत हम 28 मई, 2011 को पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण करने वाली एक महिला नक्सली उर्मिला (बदला हुआ नाम) से मिलने राजनांदगांव जिले के छुरिया इलाके में पहुंचते हैं. लेकिन छुरिया थाने में उर्मिला के समर्पण किए जाने का कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं. वहां तैनात एक पुलिसकर्मी से जानकारी मिलती है कि उर्मिला राजनांदगांव स्थित खेल एवं युवक कल्याण विभाग में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के रूप में तैनात है. युवक कल्याण विभाग में पूछताछ करने पर हमें बताया जाता है कि चूंकि उर्मिला ने एक वरिष्ठ पुलिस अफसर आरके विज के सामने आत्मसमर्पण किया था इसलिए दुर्ग या राजनांदगांव के पुलिस कार्यालय में ही उसके बारे में कोई ठोस जानकारी मिल सकती है. इधर-उधर की मशक्कत के बाद हम उर्मिला के चाचा सुरेश कुमार एवं एक भाई जगन्नाथ को ढूंढ़ निकालते हैं. पहले तो वे बात करने से हिचकते हैं, लेकिन फिर उर्मिला के आत्मसमर्पण की हकीकत का राज खोल देते हैं. वे बताते हैं कि छह बहनों में पांचवें नंबर की उर्मिला  दसवीं क्लास से ही नक्सलियों के पर्चों-पोस्टरों के लिए मैटर लिखने का काम करने लगी थी. उसकी यह खास सक्रियता देखकर जल्द ही उसे कम पढ़े-लिखे नक्सलियों को शिक्षित करने एवं पुलिसिया मुठभेड़ में घायल नक्सलियों को दवा-इंजेक्शन देने का जिम्मा दे दिया गया. नक्सलियों के साथ काम करने के दौरान ही उसकी मुलाकात दर्रेकसा दलम के सुभाष से हुई. दोनों में प्रेम हो गया. लेकिन इससे पहले कि दोनों शादी करते, सुभाष को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. यह 2007 की बात है. परिजनों का आरोप है कि जब सुभाष गिरफ्तार हुआ तो उर्मिला को रास्ते पर लाने के लिए पुलिस की ओर से ही यह प्रचार किया जाता रहा कि वह मुठभेड़ में मारा गया है. प्रेमी की मौत से टूट चुकी उर्मिला ने अंततः आत्मसमर्पण कर दिया. परिजन बताते हैं कि आत्मसमर्पण के बाद उर्मिला को न तो नौकरी दी गई न ही खेत और न ही पैसा. फिर एक रोज यह खबर आई कि उसने महाराष्ट्र के नागपुर में एक मजदूर से शादी कर ली है.

हम पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करने वाली एक दूसरी महिला नक्सली दीना को खोजते हुए मोहला विकासखंड के एक गांव परवीडीह पहुंचते हैं. वहां हमें पता चलता है कि जिस दीना के बारे में पुलिस ने यह बताया है कि उसने तीन अक्टूबर, 2012 को आत्मसमर्पण किया है उसका असली नाम समिता है और उसने आत्मसमर्पण नहीं किया है. समिता के भाई श्यामसिंह बताते हैं कि समिता का पति श्यामलाल नक्सलियों के हथियारों के पुर्जे बनाने के आरोप में महाराष्ट्र के नागपुर जेल में सजा काट रहा था. जेल से रिहा होने के बाद श्यामलाल अपनी पत्नी को साथ लेकर अपने पिता फगनूराम से मिलने के लिए परवीडीह आया. मेल-मुलाकात के बाद फगनूराम ने दोनों को समझाया था कि वे खेती-बाड़ी करें. दोनों को गांव में रखने के लिए एक बैठक भी हुई जिसमें सहमति बनी कि वे अपना पेट भरने के लिए खेती-बाड़ी कर सकते हैं. श्यामसिंह बताते हैं, ‘एक रोज जब दोनों पति-पत्नी खेत में काम करने गए हुए थे तो 100 से ज्यादा हथियारबंद पुलिसकर्मियों ने उन्हें घेर लिया. गाली-गलौज के बीच एनकाउंटर कर देने की धमकी दी गई. फिर कुछ दिनों बाद उन्हें आत्मसमर्पण कर चुके नक्सली बताकर मीडिया के सामने पेश कर दिया गया.’

तीन जनवरी, 2007 को राजधानी रायपुर में पूरे तामझाम और भव्य समारोह में मुख्यमंत्री के समक्ष 79 नक्सलियों के आत्मसमर्पण करने की खबर आई थी. केशकाल इलाके के अलग-अलग गांवों के इन ग्रामीणों को पुलिस जब नक्सली बताकर अपनी पीठ थपथपा रही थी तब भाजपा के ही एक विधायक महेश बघेल ने इस समर्पण पर यह कहकर विरोध जताया था कि ये नक्सली नहीं बल्कि निर्दोष ग्रामीण हैं. उनका आरोप था कि सरकार के नुमाइंदे दो जून की रोजी-रोटी के लिए हाड़तोड़ मेहनत करने वाले किसानों को नक्सली बनाकर साजिश रच रहे हैं. अपनी ही पार्टी के विधायक के विरोध के बावजूद तत्कालीन गृहमंत्री रामविचार नेताम लंबे समय तक किसानों को नक्सली बताते रहे. लेकिन जब मामले में पुलिस की जमकर किरकिरी होने लगी तब किसानों को आत्मसमर्पण कर चुके नक्सलियों की सूची से हटा दिया गया. अब पुलिस महकमे के आला अफसर भी मानते हैं कि जल्दबाजी में ग्रामीणों और किसानों को नक्सली मानने की चूक हो गई थी. केशकाल इलाके के एक गांव धनोरा के बुजुर्ग जयप्रकाश बरनवाल कहते हैं, ‘छत्तीसगढ़ की पुलिस अपने नंबर बढ़ाने के लिए कुछ भी कर सकती है. जो नक्सली नहीं है, उसे नक्सली बना सकती है और राह चलते आदमी को आत्मसमर्पित.’    

‘यहां के अफसर सरकार को बदनाम कर रहे हैं’

छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ननकीराम कंवर से हुई बातचीत के मुख्य अंश.

छत्तीसगढ़ में सक्रिय नक्सलियों के आंध्र में समर्पण की क्या वजह है?
देखिए, जब कोई नक्सली आत्मसमर्पण करता है तो जंगलों में तैनात दूसरे नक्सली यह भ्रम फैलाते हैं कि समर्पण करने पर सीधे जेल होगी. अब कोई अपराध करेगा तो उसे सजा होगी ही. वैसे अब हमारी कोशिश है कि आत्मसमर्पण करने वालों के प्रकरणों का निपटारा जल्द-से-जल्द हो ताकि वे जेल से बाहर आकर बेहतर जिंदगी जी सकें.छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ननकीराम कंवर

क्या और कोई वजह नहीं?
पहले आत्मसमर्पण करने पर प्रोत्साहन राशि कम मिलती थी लेकिन अब राशि बढ़ा दी गई है. उम्मीद है कि अब ठीक-ठाक परिणाम मिलेगा.

छत्तीसगढ़ नक्सलियों का सबसे बड़ा गढ़ है. क्या आपको नहीं लगता कि समर्पण के दौरान दी जाने वाली रकम अब भी थोड़ी है?
राशि के कम-ज्यादा होने से कोई फर्क नहीं पड़ता. मूल बात हृदय परिवर्तन की है. हम इस कोशिश में भी लगे हुए हैं कि नक्सलियों का हृदय परिवर्तन हो.

हृदय परिवर्तन के लिए कोई खास नुस्खा आजमाया जा रहा है?
नहीं, कोई खास नुस्खा नहीं है. हम सिर्फ गांववालों को यह समझाने में जुटे हुए हैं कि वे नक्सलियों का साथ न दें. हर इंसान एक-दूसरे का साथ चाहता है. जब नक्सली अकेले हो जाएंगे तब उन्हें इस बात का अहसास होगा कि वे कितने सही थे और कितने गलत.

क्या इस तौर-तरीके से वे बड़ी तादाद में आत्मसमर्पण करने लगेंगे?
एक न एक दिन तो नक्सलियों को इस बात का अफसोस होगा कि वे जो कुछ कर रहे हैं वह समाज के हित में नहीं है.
हमने अपनी तहकीकात में यह पाया है कि आत्मसमर्पण कर चुके नक्सली दिक्कतों और परेशानियों का सामना कर रहे हैं. कइयों को ढंग से पुनर्वास की राशि तक नहीं मिली?
यह बात सही है.

तो फिर गलती किसकी है?

देखिए, जब एक नक्सली समर्पण करता है तो वह सबसे पहले पुलिस के पास आता है. पुलिस उसके आत्मसमर्पण तक तो जवाबदेह रहती है लेकिन आगे का काम जैसे उसे मकान के लिए धनराशि मुहैया कराने या फिर खेती के लिए जमीन देने का काम जिला स्तर पर होता है. यह काम जिलों में बैठे कलेक्टर करते हैं. सरकार अपनी योजनाओं को लागू करने में तेजी दिखाती है लेकिन अफसर उसके क्रियान्वयन को लेकर सुस्त रवैया अपनाते हैं.

तो फिर प्रशासनिक मशीनरी जवाबदेह हुई न?
(कुछ देर की खामोशी के बाद ) मुझे तो यह लगने लगा है कि छत्तीसगढ़ में तैनात कुछ आईएएस और आईपीएस अफसर भाजपा की सरकार को बदनाम कर रहे हैं. लगता है कि बदनामी के एक सूत्री कार्यक्रम में जुटे अफसरों ने भाजपा की सरकार को तीसरी बार नहीं बनने देने के लिए कसम खा ली है.

सारंडा: एक्शन कम, प्लान ज्यादा

केस संख्या-1
24 साल की उम्र में ही सीमा आईन किसी प्रौढ़ महिला जैसी दिखने लगी हैं. दुबिल गांव में जिस दिन हमारी मुलाकात उनसे हुई, उसके ठीक एक दिन पहले ही वे अस्पताल से लौटकर आई थीं. उन्हें क्या मर्ज है, पता नहीं चला, लेकिन मर्ज परेशान कर रहा है. फिर भी सीमा को बीमारी से ज्यादा फिक्र आगे की जिंदगी की है. एलकेजी में पढ़ने वाली उनकी बेटी मनीषा का स्कूल छूट चुका है. छोटे बेटे गुलशन का भी क्या होगा, उन्हें समझ में नहीं आ रहा. सीमा सुशील आईन की पत्नी हैं. सुशील को 12 फरवरी, 2012 को नक्सलियों ने घर के सामने बुलाकर मार डाला था. आरोप था कि सुशील पुलिस का मुखबिर था. सच्चाई यह थी कि सुशील स्पेशल पुलिस ऑफिसर के तौर पर काम करता था. पुलिस ने उसे मामूली पगार पर सूचनाएं लाने के लिए रखा था. लेकिन यह काम करते हुए नक्सलियों के हाथों जान गंवाने के बाद सुशील के परिवार का क्या होगा, इससे पुलिस महकमे को कोई मतलब नहीं.

केस संख्या-2
दोधारी से सेलाई गांव तक सड़क बन रही है. नदी की मिट्टी का बेस तैयार करके फटाफट सड़क को पूरा किया जा रहा है. मजदूरों से काम करवा रहे मुंशी मंगल बताते हैं कि जल्द ही यह काम पूरा हो जाएगा. लेकिन केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश को रांची से गए अधिकारियों द्वारा बताया जा चुका है कि यह सड़क पूरी हो चुकी है. झारखंड में पश्चिम सिंहभूम के सारंडा इलाके में इसी तरह की 11 सड़कें बननी हैं जिनकी कुल लंबाई 140 किलोमीटर होगी. अभी दो पर ही काम शुरू हो सका है. कसियापेटा से जोजोगुटू तक की सड़क की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. वह पूरी बन गई, ऐसा कह दिया गया है. लेकिन सच्चाई इससे जुदा है.

केस संख्या-3
चार अक्टूबर को रड़वा टोली में एक महिला की मौत मलेरिया से हो जाती है. उस वक्त हम गांव में ही होते हैं. इस मौत से कुछ देर पहले ही चलंत स्वास्थ्य वाहन गांव से गुजरा है. इस वाहन पर चल रही सिस्टर कुकलेन कंडुलना यह बता कर आगे बढ़ जाती हैं कि वे सिर्फ दवा ही नहीं देते, इमरजेंसी पड़ने पर मरीज को वाहन से अस्पताल भी ले जाते हैं. लेकिन रड़वाटोली की उस महिला के घर के सामने से गुजर रही कंडुलना को खबर नहीं होती कि उस घर में कोई मलेरिया से बस थोड़ी ही देर में दम तोड़ देने की स्थिति में है, उसे उनका सहयोग चाहिए. गांव के एक बुजुर्ग बताते हैं, ‘हमें ऐसे चलंत चिकित्सा वाहनों की कहानी करीब से पता है, क्यों खबर करनी. इनके पास बस पैरासीटामोल या मलेरिया डोज वाला टेबलेट होता है. बच्चे हों या बूढ़े, सबको पैरासीटामोल का टैबलेट पकड़ा दिया जाता है और कहा जाता है कि बच्चा हो तो आधा या एक चौथाई टैबलेट तोड़कर घोल बनाकर पिला दीजिए और जो बड़े हैं पूरा खा लें. हर बीमारी की दो ही दवाइयां अमूमन मिलती हैं- पैरासीटामोल या कुनैन की गोली.

केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने पिछले साल सारंडा के जिन 56 गांवों में सारंडा एक्शन प्लान चलाने की घोषणा और शुरुआत की थी उसमी दुबिल, सेलाई और रड़वाटोलीे शामिल हैं. नक्सली आतंक से त्रस्त राज्यों के लिए सारंडा को नजीर बनाने की मुहिम का यह दूसरा दौर है. पहले चरण में यहां से नक्सलियों को खदेड़ा गया था. अब यहां विकास की गंगा बहाने की योजनाएं हैं. 820 वर्ग किलोमीटर में फैला सारंडा साल के जंगल और खनिजों के मामले में जितना समृद्ध है, विकास के पैमाने पर उतना ही दरिद्र. सारंडा यानी घनघोर गरीबी, परिवहन, सूचना नेटवर्क जैसी चीजों की दयनीय हालत, सरकारी योजनाओं से अनभिज्ञता और बिजली-पानी को तरसती जनता. कोई अजूबा नहीं कि पिछले साल तक यहां नक्सलियों का बोलबाला हुआ करता था. सितंबर, 2011 में सीआरपीएफ और झारखंड पुलिस ने संयुक्त रूप से ऑपरेशन एनाकोंडा चलाकर इस इलाके को नक्सलियों से मुक्त करवाया. अब अपेक्षाकृत शांति है. फिर बड़ी-बड़ी बैठकों के बाद सहमति बनी कि स्थायी शांति और प्रशासन पर जनता का विश्वास हासिल करना है तो इसके लिए इलाके का विकास होना चाहिए. इसके बाद 2011 के आखिर में सारंडा एक्शन प्लान वजूद में आया.

इलाके के लोगों के लिए निःशुल्क बस सेवा उपलब्ध कराए जाने की बात भी है, लेकिन अभी जब सड़कों का ही कुछ पता नहीं तो बस सेवा की कौन कहे

लेकिन जिस सारंडा में एक्शन प्लान चलाने के लिए केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश वहां बार-बार पहुंच रहे हैं, जहां वे हर बार नई घोषणाएं, नए शिलान्यास और बीहड़ में मोटरसाइकिल की सवारी करके वाहवाही बटोर चुके हैं, वहां चंद बदलाव तो जरूर हुए हैं, लेकिन आगे के आसार एक बड़ी हद तक चिंताजनक ही दिखते हैं. काम हो तो रहा है मगर कछुआ रफ्तार से और कहीं-कहीं तो गति पकड़ने से पहले ही उस काम की दुर्गति हो रही है. सारंडा एक्शन प्लान का मकसद है छह पंचायतों के तहत आने वाले 56 गांवों के सात हजार परिवारों का भला. उनके विकास के लिए करीब 240 करोड़ रुपये खर्च किए जाने का खाका तैयार हुआ है. लेकिन बारीकी से पड़ताल की जाए तो पता चलता है कि इन सब आंकड़ों के पीछे तमाम किस्म के खेल और घालमेल हो रहे हैं.

सारंडा एक्शन प्लान के तहत 60 करोड़ की लागत से 10 समेकित विकास केंद्र बनाए जाने की योजना है. पहले केंद्र का शिलान्यास केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने 30 जनवरी, 2012 को दीघा गांव में किया था. तब उन्होंने कहा था कि ये सारे विकास केंद्र नियत समय पर बन जाएंगे. लेकिन दस माह बाद हकीकत यह है कि मामला शिलान्यासी पत्थर तक ही अटककर रह गया है. नींव तक की खुदाई का काम शुरू नहीं हो सका है. इंदिरा आवास योजना के तहत 3,500 आवास बनने थे. इसके तहत 2,400 ग्रामीणों को पहली किस्त दी गई. लेकिन दूसरी किस्त मिली ही नहीं. नतीजा यह हुआ कि एक्शन प्लान के तहत निर्मित आधे-अधूरे कई घर मानसूनी बरसात के दौरान गिर गए. सेलाइ गांव में हमें ढेबो हांसदा का आधा-अधूरा ढहा हुआ घर दिखता है. ग्रामीण सुधीर हेंब्रम कहते हैं, ‘ऐसे कई घर इलाके में मिलेंगे जो बनने के पहले ही ढह गए.’

सारंडा एक्शन प्लान के तहत ही 36 करोड़ रु की लागत से छह वाटरशेड बनाने की भी बात है. लेकिन यह काम भी पूरा नहीं हो सका है. अलबत्ता यह जरूर हुआ है कि एक दूसरी योजना इंटीग्रेटेड एक्शन प्लान के तहत दीघा में बनाए जा रहे दो चेक डैम और लिफ्ट एरिगेशन जैसी चीजें भी सारंडा एक्शन प्लान की उपलब्धियों के खाते में डाल दी गई हैं. दो करोड़ रु की लागत से 10 जल मीनारों की घोषणा भी हुई थी लेकिन इस मोर्चे पर भी काम घोषणा से आगे नहीं बढ़ सका है. एक्शन प्लान के ही तहत बच्चों के लिए निःशुल्क आश्रम आवासीय विद्यालय चलाए जाने की योजना है. लेकिन बाकी तो छोड़िए, विद्यालय के लिए अभी जमीन तक का चयन नहीं हो सका है. सारंडा में कार्यरत स्वयं सहायता समूह से जुड़ी महिलाओं को 75 हजार रु. का बीमा और  उनके बच्चों के ट्यूशन के लिए हर महीने 200 रु दिए जाने थे. अब तक यह प्रक्रिया भी कागजों पर ही है. जंगल की सरप्लस यानी अतिरिक्त जमीन को आदिवासियों में बांटने की भी बात थी, लेकिन इस मामले में भी कुछ नहीं हुआ है. सारंडा में स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था के लिए पाइपलाइन से पानी सप्लाई करने की घोषणा भी हुई. लेकिन मामला यहीं तक अटक कर रह गया. इलाके के लोगों के लिए निःशुल्क बस सेवा उपलब्ध कराए जाने की बात भी है, लेकिन अभी जब सड़कों का ही कुछ पता नहीं तो बस सेवा की कौन कहे.

सारंडा विकास समिति के कुदा चंपिया कहते हैं, ‘हमारे इलाके में दीर्घकालिक विकास के लिए जिन चीजों की जरूरत है उन्हें छोड़कर हमें दूसरी चीजों का लॉलीपॉप दिखाया जा रहा है. बिजली आएगी तो हम स्वरोजगार भी कर सकते हैं लेकिन एक्शन प्लान में बिजली प्राथमिकता नहीं है. जिन 56 गांवों में एक्शन प्लान चलाया जाना है, उनमें कहने को तो 79 स्कूल हैं लेकिन वे खुलते ही नहीं. हमें बच्चों की शिक्षा चाहिए.’ कुदा कहते हैं कि स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में उनके इलाके में लोगों की मौत भेड़-बकरी की तरह ही होती है. वे सवाल करते हैं, ‘यह सब प्राथमिकता में होना चाहिए लेकिन नहीं है. क्यों?’

इलाके में घूमते हुए हम उन कामों से भी दो-चार होते हैं जो सारंडा एक्शन प्लान के नाम पर शुरू हो चुके हैं. इन 56 गांवों में जाने पर आपकी नजर साइकिल, सोलर लालटेन और रेडियो पर जरूर पड़ेगी. ये चीजें स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (सेल) के सौजन्य से कर दी गई है. सेल इलाके में ही स्थित चिडि़या माइंस के जरिए खनन का काम कर रही है. ग्रामीणों में से एक सुधीर हेंब्रम कहते हैं, ‘साइकिल, रेडियो और लालटेन तो सेल ने दिया है, जो उसको वैसे भी कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के तहत देना था. इसे सारंडा एक्शन प्लान में दिखाकर घालमेल का खेल क्यों किया जा रहा है?’ सेल द्वारा वितरित साइकिल, लैंप और रेडियो पर सेल के बड़े स्टिकर बताते हैं कि ये चीजें सीएसआर के तहत बांटी जा रही हैं. जो दस समेकित विकास केंद्र एक्शन प्लान के तहत बनने हैं, उनमें से भी एक का जिम्मा सेल को सीएसआर के तहत ही पूरा करवाने को कहा गया है. इससे एक्शन प्लान के नाम पर फंड के जुगाड़ के घालमेल के संकेत मिलते हैं. सारंडा का दौरा करके लौटे सामाजिक कार्यकर्ता सुनील मिंज कहते हैं, ‘एक्शन प्लान के नाम पर अधिकांश उन्ही फंडों को दिखाया जा रहा है जो बिना किसी एक्शन प्लान के भी नीतिगत आधार पर यहां खर्च किए जाने थे. प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत तो यहां सड़क का निर्माण ऐसे भी होना था. इसको एक्शन प्लान में दिखाने की क्या जरूरत है? सेल को तो इलाके में विकास के कई काम वैसे भी सीएसआर के तहत करने हैं फिर उसके कामों को भी एक्शन प्लान के ही बजट मंे शामिल कर दिखाने का क्या औचित्य है?’

ऐसी बातें सिर्फ सुनील मिंज जैसे सामाजिक कार्यकर्ता या स्थानीय ग्रामीण ही नहीं कह रहे. राज्य के उपमुख्यमंत्री सुदेश महतो भी हाल में जब सेलाइ गांव में हुए एक आयोजन में गए तो उनका कहना था कि सभी पूर्वनिर्धारित केंद्रीय और राज्य सरकार की योजनाओं को ही चलाया जा रहा है लेकिन केंद्र सरकार इसको एक्शन प्लान के तहत अलग से हो रहे कामों की तरह प्रचारित कर रही है, जो गलत है. हालांकि सरकारी बाबू और अधिकारी एक्शन प्लान का बखान करते हुए कुछ और बातें बताते हैं और उन पर गौरवान्वित भी होते हैं. जानकारी दी जाती है कि सारंडा एक्शन प्लान वाले इलाके की छह पंचायतों में पड़ने वाले 56 गांव में से 53 गांवों में अतिरिक्त रोजगार सेवकों की नियुक्ति कर ली गई है. मनरेगा योजना के तहत कार्य करने वाले मजदूरों को नकद भुगतान किया जा रहा है. 56 गांवों में सड़क और तालाब का निर्माण भी मनरेगा के तहत करवाया जा रहा है.  मोबाइल हेल्थ केयर यूनिट द्वारा स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं. स्थानीय निर्दलीय विधायक गीता कोडा कहती हैं, ‘काम की गति धीमी है, यह सच है, लेकिन जयराम रमेश इलाके में काम करना चाहते हैं.’ गीता का आरोप है कि सारंडा के विकास में राज्य सरकार सहयोग नहीं कर रही. चाइबासा के उपायुक्त श्रीनिवासन कहते हैं, ‘अभी सारंडा एक्शन प्लान का आकलन नहीं कीजिए, काम चल रहा है, धीरे-धीरे होगा और बदलाव में वक्त तो लगता ही है.’ अब तक कई काम शुरू नहीं हो पाने से जुड़े सवाल श्रीनिवासन टाल जाते हैं.

हालांकि यह सच है कि एक्शन प्लान के शुरू होने के पहले पुलिस द्वारा माओवादियों के खिलाफ चले ऑपरेशन एनाकोंडा से इस इलाके में कुछ बदलाव तो दिखा है. दीघा, तिरिलपोसी, बलिवा, छोटानगरा जैसे जिन इलाकों में दिन में भी जाने में लोगों की रूह कांपती थी, वहां अब शाम ढलने तक आवाजाही होती है. गांववाले माओवादियों का प्रभाव कम होने से हुए फायदे या नुकसान पर कोई बात नहीं करना चाहते लेकिन कुछ यह जरूर बताते हैं कि रात में अचानक बहुतेरे लोगों का खाना बनाने का फरमान आदि जो मिलता था, उससे मुक्ति मिली हुई है. कुछ ग्रामीणों को यह भी लगता है कि एक्शन प्लान के नाम पर ही सही, इधर की योजना उधर करके ही सही, कम से कम पहली बार सरकारी योजनाएं इलाके में धरातल पर उतरेंगी.

‘स्थानीय स्तर पर चर्चा आम है कि यह एक्शन प्लान लोगों के लिए कम और उन कंपनियों की सुविधा के लिए ज्यादा है जिन्होंने इलाके में एमओयू किए हुए हैं’

लेकिन ऐसी तमाम उम्मीदों के बावजूद इलाके के ग्रामीणों के कुछ बड़े सवाल हैं. स्थानीय पत्रकार राधेश सिंह कहते हैं कि यहां के लोगों में जो थोड़े पढ़े-लिखे हैं उन्हें यह सवाल लगातार मथ रहा है कि एक्शन प्लान के लिए छह प्रखंडों के 56 गांव ही क्यों चुने गए. इन गांवों में सड़क, सोलर लैंप, रेडियो, कम्युनिटी सेंटर, पेयजल आदि की सुविधा हो जाएगी और उसके पास-पड़ोस के गांव उसी तरह आदिम युग में रहेंगे तो इसका दूसरा असर भी पड़ेगा. राधेश कहते हैं, ‘स्थानीय ग्रामीण नौजवानों के बीच यह चर्चा आम है कि दरअसल यह एक्शन प्लान लोगों के लिए कम और उन 19 कॉरपोरेट घरानों को सुविधा पहुंचाने के लिए ज्यादा है जिन्होंने इस इलाके में एमओयू किए हुए हैं और जिन्हें यहां से लोहा निकालने की जल्दबाजी है. इसके अलावा एक छोटे-से दायरे को केंद्रीय पुलिस बलों के 24 कैंपों से पाटने का क्या मतलब है? कल को तो ये पुलिसवाले भी परेशानी का सबब बनेंगे.’

राधेश जिन सवालों को रखते हैं, उसके पीछे ग्रामीण भले ही कोई ठोस आधार न दे रहे हों लेकिन उन्हें एक सिरे से निराधार कहकर खारिज भी नहीं किया जा सकता. जयराम रमेश अब तक चार बार सारंडा पहुंच चुके हैं. उन्होंने बार-बार यह कहा है कि वे कोई राजनीति नहीं कर रहे, न ही उन्हें यहां से चुनाव लड़ना है बल्कि वे आजादी के बाद पहली बार इस पिछड़े इलाके का विकास करने आए हैं और सभी काम सही समय पर पूरा कर दिखाएंगे. लेकिन उनकी ऐसी बातों को भी सरकारी कर्मी गंभीरता से नहीं ले रहे. जानकार बताते हैं कि यदि उनकी कोशिशें गंभीर होतीं और उनका रवैया सख्त होता तो कोई कारण नहीं कि एक साल में सिर्फ दो-तीन-चार योजनाएं किसी तरह धरातल पर उतारी जा पातीं. अपूर्ण सड़क को पूर्ण बताने, बिना पानी वाले बोरिंग को पूर्ण कार्य बताने आदि का साहस बाबू-अधिकारी सारंडा एक्शन प्लान के दौरान सारंडा में नहीं जुटा पाते.

लेकिन यह सब हो रहा है. मनोहरपुर में रहने वाले राजनीतिक कार्यकर्ता सुशील बारला कहते हैं, ‘एक्शन प्लान के नाम पर सिर्फ घोषणाएं हुई हैं, बाकी तो लोगों को बरगलाने के लिए छोटे-मोटे काम कंपनियों के कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के तहत होते रहते हैं.’ उधर, मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं, ‘एक्शन प्लान के तहत कामों में जो गड़बड़ी हो रही है, वह तो है ही अब तक सारंडा निगरानी समिति का गठन भी नहीं किया गया, जबकि केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने झारखंड ह्यूमन राइट्स मूवमेंट के सदस्यों एवं सारंडा के ग्रामीणों से भी बार-बार कहा था कि समिति का गठन करेंगे.’ पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज यानी पीयूसीएल से जुड़े शशिभूषण पाठक भी कहते हैं कि सारंडा में दूसरा मकसद साधे जाने का लक्ष्य है और इसके जरिए केंद्रीय मंत्री दिल्ली में खुद को जांबाज और विकास पुरुष के तौर पर स्थापित करने में लगे हुए हैं.
ऐसी ही कई बातें कई लोग करते हैं. उनकी बातों को भले ही विरोध के दायरे में समेट दिया जाए लेकिन सारंडा एक्शन प्लान वाले इलाके में घूमते हुए यह तो साफ दिखता ही है कि वहां मर्ज कुछ और है और इलाज कुछ और करने की कोशिश की जा रही है.