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चमत्कारिक यात्रा, अविश्वसनीय अंत

पोंटी चड्ढा की चमत्कारिक सफलता को लेकर लोगों में जितनी उत्सुकता थी उनकी मौत पर उससे कहीं ज्यादा संशय छाया हुआ है. जो बातें सामने आ रही हैं उसके मुताबिक 17 नवंबर की दोपहर को पोंटी और उनके एनआरआई भाई हरदीप सिंह के बीच परिवार के फार्महाउस पर हुई गोलीबारी में दोनों भाइयों की मौत हो गई. यह फार्महाउस दिल्ली के चुनिंदा लोगों की स्थली छतरपुर में स्थित है. दुर्घटना के समय पोंटी के साथ उनके साथी और उत्तराखंड अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष सुखदेव सिंह नामधारी अपने अंगरक्षक के साथ मौजूद थे. पुलिस द्वारा दी गई शुरुआती जानकारी के मुताबिक पहले हरदीप ने पोंटी पर गोली चलाई जिसके जवाब में नामधारी के अंगरक्षक ने हरदीप पर गोली चलाई. इसके बाद कहानी में कई मोड़ आ चुके हैं. पुलिस की ताजा अपडेट के मुताबिक हरदीप सिंह पर गोली स्वयं नामधारी ने चलाई थी और जिस हथियार से गोली चली उसे पुलिस ने बरामद कर लिया है. इससे भी ताजा स्थिति यह है कि मामले की जांच दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच को सौंप दी गई है.

शराब किंग और उनके भाई की मौत को लेकर कयासों की बाढ़-सी आ गई है. एक कहानी के मुताबिक दोनों भाइयों के बीच छतरपुर के फार्महाउस को लेकर झगड़ा था जिसके नतीजे में दोनों मौतें हुई हैं. लेकिन परिवार के एक करीबी बताते हैं, ‘जिसके पास हजारों करोड़ की संपत्ति है वह 13 एकड़ के फार्महाउस के लिए क्यों लड़ेगा. लोग गलत बातें फैला रहे हैं.’  कहा जा रहा है कि 15 नवंबर को दोनों भाइयों ने दो साल से चले आ रहे झगड़े को निपटा लिया था. हरदीप काफी समय से पोंटी से अलग होने की मांग कर रहे थे. जिन शर्तों पर दोनों भाइयों के बीच समझौता हुआ था (इसके मुताबिक करीब 1,000 करोड़ की संपत्ति हरदीप के हिस्से में आनी थी), बाद में हरदीप उनसे मुकर गए. उनके नजदीकियों ने उन्हें यह कहकर भड़का दिया था कि उनके हिस्से में काफी कम संपत्ति आई है. हरदीप के इस कदम से पोंटी भी तिलमिला गए थे. इसी गुस्से के चलते वे 17 तारीख को छतरपुर फार्महाउस और बिजवासन फार्ममहाउस (पश्चिमी दिल्ली) से हरदीप के लोगों को बाहर निकालने के लिए पहुंचे थे. उनका साथ उनके लठैत और पंजाब पुलिस द्वारा उन्हें दिए सुरक्षाकर्मी दे रहे थे. इसकी जानकारी मिलने पर हरदीप भी गुस्से से तमतमाए हुए फार्महाउस जा पहुंचे. दोनों भाइयों का आमना-सामना हो गया. गुस्से में कहासुनी हुई और बाद की घटना के बारे में यकीन से कोई कुछ नहीं बता पा रहा है.

पोंटी के करीबी और उन्हें जानने वालों के मुताबिक हरदीप बेहद महत्वाकांक्षी हो गए थे. समूचा वेव समूह (जिसकी कुल कीमत 6,500 करोड़ से 30,000 करोड़ रुपये के बीच कुछ भी हो सकती है) पोंटी की उद्यमिता और चतुराई की नींव पर खड़ा हुआ है. चखने के मामूली ठेले से इतना बड़ा साम्राज्य खड़ा करने के बीच पोंटी ने तमाम उतार-चढ़ाव देखे हैं. अधिकारियों से लेकर सरकारों के बीच उनकी धाक थी. शराब से बढ़कर उन्होंने अपना व्यवसाय रियल एस्टेट, शुगर मिल, पेपर मिल और खनन तक फैलाया था.

पोंटी चड्ढा लोगों की निगाह में तब चढ़े जब उत्तर प्रदेश की पिछली मायावती सरकार ने राज्य की आबकारी नीति में बड़ा फेरबदल करते हुए उन्हें राज्य के शराब कारोबार (देसी और अंग्रेजी दोनों) की पूरी लगाम ही पकड़ा दी. मेरठ, आगरा, सहारनपुर, मुरादाबाद और बरेली जोन के अंतर्गत कुल 45 जिलों के शराब कारोबार का थोक और फुटकर कारोबार पोंटी के हवाले हो गया. इसके अलावा पूरे राज्य में थोक शराब का कारोबार भी पोंटी चड्ढा के हवाले कर दिया गया. उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य के 80 फीसदी से ज्यादा शराब के कारोबार पर कब्जा जमाने के बाद पोंटी रुके नहीं. बहनजी की कृपा उन पर बरस रही थी. राज्य सरकार के स्वामित्व वाली चीनी मिलों को औने-पौने दामों पर मायावती सरकार ने चड्ढा के हवाले कर दिया. राज्य लोकायुक्त की रिपोर्ट में पोंटी को बेची गई चीनी मिलों से सरकारी राजस्व को 124 करोड़ रुपये हानि की बात सामने आई. मेरठ जोन के एक पुराने शराब व्यवसायी जो पोंटी के एकाधिकार के चलते आजकल बेरोजगारी के आलम में हैं, कहते हैं, ‘शराब के धंधे की एक चेन है. गन्ना, चीनी मिल, गन्ने से चीनी, चीनी से शीरा और शीरे से शराब. जो आदमी लोगों को शराब पिलाने का काम करता था, वह अब खेत में गन्ना पैदा करने से लेकर शराब पिलाने तक के पूरे कारोबार पर कब्जा कर चुका है. ऐसे में आगे अगर राज्य की आबकारी नीति बदलती भी है तो भी इस पूरी चेन पर पोंटी का जिस तरह से कब्जा हो गया है उसमें दूसरे लोगों को पैर जमाना असंभव होगा.’

सिर्फ मायावती ही पोंटी के उपर मेहरबान रही हों ऐसा नहीं है. राजनीतिक जमात में पोंटी के मुरीद पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली के राजनीतिक गलियारों तक फैले हुए हैं. यूपी में पोंटी के उत्कर्ष की कहानी नब्बे के दशक के पूर्वार्ध से शुरू होती है. उस समय पोंटी मुरादाबाद में शराब के ठेके चलाते थे. इस काम में उनके एक साझेदार थे जोगिंदर अनेजा. 1992-93 में जब प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार बनी तब अनेजा समाजवादी पार्टी से एमएलए बने. सपा के साथ पोंटी के जुड़ाव की यह औपचारिक शुरुआत थी. रिश्ते बनाने में माहिर पोंटी के बारे में माना जाता है कि अनेजा के जरिए वे पहली बार मुलायम सिंह के संपर्क में आए. मेरठ जोन के एक अन्य पूर्व शराब व्यवसायी कहते हैं, ‘मायावती ने भले ही पोंटी को तीस हजार करोड़ का आदमी बनाया हो लेकिन उन्हें शून्य से पांच सौ करोड़ तक ले जाने में मुलायम सिंह की भूमिका सबसे बड़ी है.’
2003 से 2007 के बीच मुलायम सिंह एक बार फिर से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. इस दौरान उन्होंने  दो महत्वपूर्ण नीतियां बनाई. हाईटेक सिटी पॉलिसी और मल्टीप्लेक्स पॉलिसी. हाईटेक सिटी नीति के जरिए निजी बिल्डरों को टाउनशिप बनाने के लिए आसानी से भूमि उपलब्ध कराने और दूसरी छोटी-मोटी अड़चनें दूर करने का काम सरकार ने अपने हाथ में ले लिया. इसके नतीजे में प्राइवेट बिल्डर खूब फले-फूले. इसी तरह से मल्टीप्लेक्स नीति के कारण लखनऊ में बने पहले मल्टीप्लेक्स वेव का उद्घाटन करने 2003 में मुलायम सिंह यादव स्वयं पहुंचे थे. इन दोनों नीतियों के सबसे बड़े लाभार्थी पोंटी रहे. आज प्रदेश में पोंटी की कंपनी वेव के पास सबसे ज्यादा मल्टीप्लेक्सों का स्वामित्व है और राज्य में रियल एस्टेट के क्षेत्र में भी उन्हीं की कंपनी की तूती बोलती है.

2007 से 2012 के बीच उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार रही. इस दौरान पोंटी मायावती के बेहद नजदीक पहुंच गए थे. 2012 में सत्ता परिवर्तन हो गया. मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश यादव सत्ता में आ गए. पोंटी पर मायावती की मेहरबानियों को देखते हुए राज्य के कई अखबारों ने उनका सूरज अस्त होने की घोषणा कर दी. पर सब के सब तब बगलें झांकने लगे जब 15 अप्रैल को हुए शपथ ग्रहण समारोह में पोंटी चड्ढा की सीट रिजर्व थी. जानकार बताते हैं कि अखिलेश यादव से निजी मुलाकात के लिए पोंटी लखनऊ में पूरे आठ दिन तक डेरा डाले रहे और अंतत: उनसे मिलकर ही वापस लौटे थे. कह सकते हैं कि मकसद कैसा भी रहा हो पोंटी उसके लिए खासे जुनूनी थे.

थोड़ा-सा पीछे जाएं तो हम पाते हैं कि जितना फायदा उन्हें सपा-बसपा ने पहुंचाया उतना ही उनके काम भाजपा भी आई. 2000 से 2002 के बीच राजनाथ सिंह सूबे के मुख्यमंत्री थे और सूर्य प्रताप शाही आबकारी मंत्री. इस दौरान भी राज्य की आबकारी नीति में एक बड़ा फेरबदल हुआ था जिसका सीधा लाभ चड्ढा की कंपनी को हुआ था. इस समय तक खुदरा ठेकों की बड़ी संख्या पर पोंटी का कब्जा हो चुका था. राजनाथ सरकार ने नई नीति बनाई जिसे मॉडल शॉप के नाम से जाना जाता है. इस नीति में शराब के खुदरा ठेकों के साथ ही शराब पीने के लिए रेस्टोरेंट जैसी सुविधा देने का प्रस्ताव था. इस नीति के लागू होने के बाद शराब के ठेकों पर दिनों-दिन भीड़ बढ़ने लगी.

इन सालों के दौरान दुनिया उनके कारोबार को सिर्फ पोंटी के नाम से पहचानती रही है. कहीं भी उनके भाइयों का नाम या काम सामने नहीं आता. पोंटी को करीब से जानने वाले एक पत्रकार के मुताबिक, ‘अपने दम पर खड़े किए गए व्यापारिक साम्राज्य का पोंटी किसी भी कीमत पर बंटवारा नहीं करना चाहते थे. बड़ी मुश्किल से परिवार और रिश्तेदारों के दबाव में वे इसके लिए तैयार हुए थे.’ पिछले कुछ सालों से उनके बेटे मनप्रीत सिंह उर्फ मोंटी का नाम वेव के रियल एस्टेट के धंधे में जरूर सामने आने लगा था. जिस दौरान दोनों भाइयों के बीच जानलेवा गोलीबारी हुई, उस समय मोंटी हिंदुस्तान टाइम्स अखबार के सालाना कार्यक्रम लीडरशिप समिट में हिस्सा ले रहे थे.

इस घटना के बाद दोनों परिवारों ने असाधारण एकजुटता दिखाई है. केंद्रीय दिल्ली के रकाबगंज गुरुद्वारे में आयोजित प्रार्थना सभा के दौरान दोनों भाइयों की विधवाएं एक साथ दिखीं. और तो और, जिस सुखदेव सिंह नामधारी पर हरदीप की हत्या का आरोप है वह भी उस प्रार्थना सभा में शिरकत करने पहुंचा. ये सारी स्थितियां मिलकर मामले की जटिलता को बढ़ा रही हैं. इतने बड़े व्यापारिक साम्राज्य को संभालने और आगे बढ़ाने की मजबूरी भी इस एकता की बड़ी वजह मानी जा रही है. समझौते का मौजूदा फॉर्मूला यह है कि पोंटी के मंझले भाई रजिंदर सिंह वेव इंक के मैनेजिंग डायरेक्टर होंगे जबकि पोंटी के बेटे मोंटी ज्वाइंट मैनेजिंग डायरेक्टर होंगे. हरदीप सिंह के परिजनों की इस पूरी व्यवस्था में क्या स्थिति रहेगी इस बारे में अभी कुछ साफ नहीं हो पाया है. 

अपनी मृत्यु से एक पखवारे पहले पोंटी चड्ढा दिल्ली के पुलिस कमिश्नर नीरज कुमार से मिलकर आए थे. उन्होंने अपने ऊपर जानलेवा हमले का खतरा जताया था और अतिरिक्त सुरक्षा की मांग की थी. हालांकि उनके साथ पंजाब पुलिस के जवानों का सुरक्षा घेरा रहता था. जवाब में पुलिस प्रमुख ने उनसे एक लिखित आवेदन जमा करने के लिए कहा था और साथ ही उन संभावित लोगों के नाम भी बताने को कहा था जिनसे उन्हें जान का खतरा हो सकता था. मगर पोंटी इसके लिए कभी समय नहीं निकाल पाए.

पोंटी के एक करीबी हमें बताते हैं कि पोंटी बचपन में जब पंतग उड़ाते थे तो अक्सर अपनी पतंग कटने से खीज जाते थे. यह बात उन्हें पसंद नहीं थी. एक दिन उन्होंने एक तरीका निकाला, पतंग के साथ वे धातु का एक पतला तार जोड़कर अपनी पतंग उड़ाने लगे. यह तार बिजली के हाई टेंशन तार में उलझ गई. यह रोमांच और जिद उनके ऊपर भारी पड़ी, उनकी जान जाते-जाते बची मगर एक हाथ और दूसरे हाथ की तीन उंगलियां जाती रहीं. इसके बावजूद जिद और रोमांच के खतरे को पोंटी भांप नहीं पाए, इसका नतीजा आज हमारे सामने है.

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सेना बिन सेनापति

जब पार्टी का नाम शिवसेना रखा गया शायद तभी स्पष्ट हो गया था कि आने वाले समय में उसका चाल-चरित्र और चेहरा कैसा होगा, और यह भी कि इसे कौन तय करने वाला है. हर साल की तरह इस बार भी दशहरे के मौके पर शिवसैनिक शिवाजी पार्क में होने वाले उस कार्यक्रम का इंतजार कर रहे थे जिसमें अपने सेनापति की दहाड़ सुनने के बाद उनके सारे संशय मिट जाते थे, यह स्पष्ट हो जाता था कि उन्हें आगे क्या करना है. शिवसैनिक, जिनके लिए बाल ठाकरे के मुंह से निकली एक-एक बात देश के संविधान और कानून से भी ऊपर थी, जिनके लिए ठाकरे ही सत्ता और सम्मान के एकमात्र केंद्र थे, उन्हें उस वक्त घोर आश्चर्य और निराशा हुई जब इस बार दशहरे की रैली में ठाकरे नहीं आए.

कारण बताया गया कि बाला साहब की तबीयत ठीक नहीं है. मगर उन्होंने शिवसैनिकों के लिए वहां अपना संदेश भिजवाया था. पार्क में एक बड़ी स्क्रीन पर ठाकरे का वह वीडियो संदेश प्रसारित किया गया. उस संदेश में जो बाल ठाकरे शिवसैनिकों के सामने मौजूद थे वे उस व्यक्ति से बिल्कुल अलग थे जिसे शिवसैनिक पिछले कई दशकों से देखते और सुनते आए थे. वीडियो में ठाकरे न सिर्फ बेहद कमजोर और थके हुए दिखाई दे रहे थे बल्कि अपने संदेश में शिवसैनिकों को संबोधित करते हुए उन्होंने जो बातें कहीं उनका मोटा अर्थ यह था कि वे अब अपनी जीवन यात्रा के अंतिम पड़ाव पर पहुंच चुके हैं और आगे उनका साथ नहीं रहेगा. अपने वीडियो संदेश में ठाकरे ने अपने बेटे और पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव तथा अपने पोते आदित्य का साथ देने की अपील नहीं बल्कि याचना की. आदेश देने वाले बालासाहब ठाकरे को हाथ जोड़े देखना शिवसैनिकों के लिए चौंकाने वाला था.

आज बाल ठाकरे दुनिया में नहीं हैं. 17 नवंबर को हुए उनके निधन के बाद जैसे-जैसे समय गुजर रहा है, मुंबई, महाराष्ट्र और कुछ हद तक देश के सामाजिक-राजनीतिक गलियारों में ठाकरे के निधन के बाद बनने वाले शून्य एवं प्रभावों की चर्चा गर्म होती जा रही है.

सेनापति बिना सेना का भविष्य
बालासाहब ठाकरे की मृत्यु के बाद जो सबसे बड़ा सवाल चर्चा में है वह यह कि शिवसेना का भविष्य क्या रहने वाला है. पिछले चार दशक से सेना की कमान पूरी तरह से उसे जन्म देने वाले बाल ठाकरे के हाथों में ही रही है. उन्होंने पूरी पार्टी को अपनी व्यक्तिगत सेना के तौर पर चलाया जहां वे आदेश देते और शिवसैनिक उसका किसी भी हद तक जाकर पालन करते. खुद को सत्ता का रिमोट कंट्रोल मानने वाले ठाकरे शिवसेना के पर्याय थे. पार्टी में न कोई चर्चा होती न कोई बहस. पार्टी के अंदर न कोई चुनाव होता और न ही किसी को असहमति जताने का अधिकार था. जो असहमति जताता, पार्टी में नहीं रहता.

बिना किसी संविधान, घोषित कार्यक्रम या नीति वाली उस पार्टी को बाल ठाकरे ने अपने जुबानी आदेशों से चलाया. शिवसेना शायद भारत की एकमात्र ऐसी पार्टी थी जो लंबे समय तक चुनावों में बिना किसी मेनिफेस्टो के जाती थी क्योंकि ठाकरे को घोषणापत्र झूठ के पुलंदे से अधिक कुछ नहीं लगते थे.

क्या जानकार और क्या आम लोग, सभी इस बात को एक सिरे से स्वीकार करते हैं कि शिवसेना के प्रति जो भी आज तक समर्थन रहा है वह पार्टी को नहीं बल्कि बालासाहब ठाकरे के लिए रहा है. ऐसे में सवाल यह है कि ठाकरे के जाने के बाद शिवसेना का भविष्य क्या होगा. पार्टी में कोई ऐसा नेता नहीं है जो बाल ठाकरे के कद के इर्द-गिर्द भी पहुंच सकता हो. न किसी का लोगों पर उस तरह का प्रभाव है और न ही आम जनता बाल ठाकरे की तरह किसी और शिवसैनिक की दीवानी है. राजनीतिक विश्लेषक सुरेंद्र जोंधाले कहते हैं, ‘उद्धव ठाकरे को राजनीति में आए एक लंबा समय हो गया है लेकिन अभी भी वे उस मराठी मानुष से संपर्क स्थापित नहीं कर पाए हैं जिसकी राजनीति उनके पिता ने जीवन भर की.’

ऐसा माना जा रहा है कि सीनियर ठाकरे के नेतृत्व का अभाव शिवसेना के लिए घातक साबित होने जा रहा है. जिस आक्रामक नेतृत्व की आदत शिवसैनिकों को है, उसके अभाव में यह संभव है कि बड़ी संख्या में शिवसैनिक शिवसेना छोड़कर राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण की तरफ रुख कर लें. चूंकि राज अपने पूरे व्यक्तित्व, व्यवहार और हाव-भाव में अपने चाचा बाल ठाकरे के काफी निकट हैं, ऐसे में संभव है कि शिवसैनिक राज के साथ हो लें. जानकारों का ऐसा मानना है कि जब पहले छगन भुजबल, नारायण राणे, संजय निरुपम जैसे शिवसैनिक बाला साहब के नेतृत्व के बावजूद शिवसेना छोड़कर बाहर चले गए तो फिर अब तो बाल ठाकरे भी नहीं हैं. हालांकि पार्टी के वरिष्ठ नेता और राज्य सभा सांसद अनिल देसाई सुरेंद्र की बातों से इत्तिफाक नहीं रखते, ‘उद्धव ठाकरे जी बालासाहब ठाकरे जी के नेतृत्व में सन 95 से काम कर रहे हैं. उनके नेतृत्व में पार्टी ने मुंबई नगरपालिका का चुनाव लगातार चौथी बार जीता है. ऐसे में उनकी क्षमता पर प्रश्न नहीं खड़ा किया जा सकता है.’ वरिष्ठ पत्रकार कुमार केतकर बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद शिवसेना पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में कहते हैं, ‘देखिए जिस पार्टी का जन्म ही लोकप्रियता पर हुआ है वह पार्टी अपने करिश्माई नेता के बिना बहुत लंबे समय तक जिंदा नहीं रह सकती.’

क्या राज और उद्धव एक साथ आएंगे
2006 में शिवसेना से अलग होकर बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बनाई. लंबे समय तक दोनों दलों ने एक-दूसरे के प्रति अपनी नफरत दिखाने में कोई कमी नहीं की. उद्धव और राज के बीच चलने वाले जुबानी हमलों के साथ ही दोनों सेनाओं के कार्यकर्ता एक-दूसरे से सड़क पर दो-दो हाथ करने से भी नहीं चूके. लेकिन इस पूरे मामले में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि राज ने कभी अपने चाचा बाल ठाकरे के बारे में कोई अपशब्द नहीं कहा. हालांकि उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु बाला साहेब तथा चचेरे भाई उद्धव से लंबे समय तक दूरी बनाए रखी. कुछ महीने पहले जब उद्धव ठाकरे की तबीयत खराब हुई और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया उस समय बाल ठाकरे ने एक बहुत लंबे अंतराल के बाद राज को फोन किया था. राज के लिए बाल ठाकरे का वह फोन बेहद चौंकाने वाला था. आनन-फानन में वे लीलावती अस्पताल पहुंचे. जब अस्पताल से उद्धव को छुट्टी दी गई तब एक-दूसरे पर जुबानी तेजाब फेंकने वाले राज-उद्धव को एक साथ देखकर लोगों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. जुलाई में हुई इस घटना के बाद राज  पिछले महीनों में कई बार मातोश्री गए. बाल ठाकरे और उद्धव से कई बार मुलाकात की. बाल ठाकरे ने पूर्व में कई बार यह इच्छा व्यक्त की कि राज को वापस अपने घर अर्थात शिवसेना में आ जाना चाहिए. अब उनके निधन के बाद और पिछले कुछ महीनों में राज-उद्धव के बीच पिघलती बर्फ के कारण यह संभावना जताई जा रही है कि भविष्य में दोनों भाई फिर से एक साथ आ जाएंगे.

वहीं दूसरी तरफ जानकारों का एक वर्ग मानता है कि राज को लेकर बालासाहब के मन में एकाएक  ‘उमड़ा प्रेम’ स्वाभाविक नहीं वरन विकल्पहीनता की उपज था. ठाकरे पिछले कुछ समय से उद्धव की खराब तबीयत के कारण काफी चिंतित रहे. उद्धव की सेहत के कारण उन्हें धीरे-धीरे यह महसूस होने लगा कि शायद भविष्य में उद्धव की स्थिति ऐसी न रहे कि वे पार्टी को नेतृत्व दे पाएं. ऐसे में दूसरा उत्तराधिकारी ढूंढ़ना जरूरी है. उद्धव नहीं तो फिर कौन? इस सवाल के साथ जब बाल ठाकरे ने अपनी नजर दौड़ाई तो ठाकरे परिवार के जिस दूसरे व्यक्ति की तरफ उनकी नजर गई उसकी उम्र केवल 23 साल की थी – रिश्ते में उनका पोता आदित्य ठाकरे. आदित्य ठाकरे जिसे कविता और कहानियों का शौक है और जिसे उद्धव इस हिसाब से तैयार कर रहे थे कि वे आगे जाकर राज ठाकरे की काट बनने के साथ ही युवाओं को पार्टी से जोड़ सकेंगे. लेकिन 23 वर्षीय आदित्य की उम्र इतनी नहीं थी कि उसके ऊपर पार्टी की जिम्मेदारी डाली जा सके. ऐसे में बाल ठाकरे को शायद इस बात का अहसास था कि शिवसेना और अपनी पारिवारिक विरासत को अगर आगे बढ़ाना है तो आखिरी विकल्प राज ठाकरे ही हैं.

शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे अपने बेटे उद्धव ठाकरे और भतीजे राज ठाकरे के साथ

स्वास्थ्य खराब होने के अलावा एक और बड़ा कारण था जिसकी वजह से बाल ठाकरे उद्धव को लेकर चिंतित थे. 2004 में बाल ठाकरे ने सभी को चौंकाते हुए अपने छोटे भाई श्रीकांत ठाकरे के बेटे राज ठाकरे की जगह उद्धव को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया. उस वक्त उन्हें उम्मीद थी कि उद्धव न सिर्फ पार्टी की पूरी जिम्मेदारी अच्छी तरह संभाल लेंगे बल्कि उनके अंदर धीरे-धीरे वह स्टाइल और करिश्मा भी आ जाएगा जो उनके अंदर है और जिसे लोगों ने खूब सराहा है. उन्हें उम्मीद थी कि लोग उद्धव को भी उसी गंभीरता से लेने लगेंगे जैसे उन्हें लेते रहे हैं. उन्हें उम्मीद थी कि वे उद्धव को दूसरा बाल ठाकरे बना देंगे. इसके बाद राज ने शिवसेना छोड़ दी. उस वक्त चौतरफा हुई अपनी आलोचना पर सामना में छपे एक साक्षात्कार में बाल ठाकरे का कहना था, ‘मैं काला चश्मा जरूर पहनता हूं लेकिन मैं धृतराष्ट्र नहीं हूं. मैंने और उद्धव ने उसकी हर बात मानी है. वो फिर भी क्यों चला गया मैं नहीं जानता.’

खैर, राज की जगह उद्धव को तरजीह देने का निर्णय सही साबित नहीं हुआ. बाल ठाकरे की लाख कोशिशों के बाद भी उद्धव अपने पिता जैसे नहीं बन पाए. उद्धव का व्यवहार, उनका व्यक्तित्व अपने आक्रामक पिता से बिल्कुल अलग रहा है. धीरे-धीरे बाल ठाकरे को भी यह समझ में आने लगा कि जिस तरह की उनकी पार्टी है, उसके जो वोटर और समर्थक और उनकी अपेक्षाएं हैं उनके मुताबिक बन पाना उद्धव के लिए संभव नहीं है.
अब बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद शिवसेना के तमाम खैरख्वाहों और राजनीतिक विश्लेषकों का भी मानना है कि यदि उसे महाराष्ट्र की राजनीति में अपनी जगह बना कर रखनी है तो उसके पास फिलहाल एक ही विकल्प है – राज और उद्धव के बीच सुलह और जुड़ाव. भाजपा के वरिष्ठ नेता गोपीनाथ मुंडे कहते हैं, ‘मैं चाहता हूं कि राज और उद्धव एक साथ आएं. बालासाहब के सपने को पूरा करना उन दोनों ही की जिम्मेदारी है. महाराष्ट्र को संभालना दोनों की जिम्मेदारी है. स्वेता पारुलेकर, जो कभी राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना में थीं और आज शिवसेना के मुखर नेताओं में से एक हैं, मुंडे की बात का समर्थन करते हुए कहती हैं कि व्यापक हित में दोनों भाइयों को साथ आ जाना चाहिए.

इस दिशा में पारिवारिक स्तर पर शुरुआत भी हो चुकी है. शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के साले और राज-उद्धव के मामा चंद्रकांत वैद्य ने दोनों को फिर से मिलाने की कोशिश शुरू कर दी है. बाल ठाकरे के अंतिम संस्कार के बाद मिड डे अखबार से बातचीत में 66 वर्षीय चंद्रकांत वैद्य का कहना था, ‘मैं दोनों भाइयों को फिर से मिलाने की पूरी कोशिश करूंगा. मराठी मानुष की खातिर दोनों भाइयों को फिर से एक साथ आना ही होगा. मैंने साहेब से वादा किया है.’

चंद्रकांत वैद्य भले ही साहेब से किए गए अपने वादे के तहत दोनों भाइयों को साथ लाने में जुटे हुए हैं लेकिन सूत्रों की मानें तो निकट भविष्य में दोनों भाइयों के पूरी तरह से एक होने की संभावनाएं लगभग नहीं के बराबर हैं.
शिवसेना की जीवनी ‘द सेना स्टोरी’ लिखने वाले वैभव पुरंदरे, राज और शिव-सेना के बीच मेल-मिलाप के तीन तरह के स्वरूपों की बात करते हैं. पहला- राज और उद्धव में चुनाव पूर्व गठबंधन. दूसरा- चुनाव के बाद होने वाला गठबंधन, जहां कई सीटों पर फ्रेंडली फाइट होगी और एक दल उस जगह पर अपना उम्मीदवार नहीं उतारेगा जहां दूसरे का प्रत्याशी मजबूत है. तीसरा- दोनों भाई एक हो जाएं. मगर वैभव यह भी मानते हैं कि तीसरे की संभावना सबसे कम है. सांसद और शिवसेना के वरिष्ठ नेता अनंत कहते हैं, ‘अभी इस विषय पर बात करने का वक्त नहीं आया है. हमने इस बारे में अभी कुछ नहीं सोचा है.’ हालांकि वे इस बात को रेखांकित करते हैं कि राज और उद्धव के बीच अब पहले जैसी कड़वाहट नहीं रही.

मगर राज और उद्धव ठाकरे के एक होने में आखिर इतनी मुश्किलें क्यों हैं? दरअसल राज ठाकरे को पता है कि इस समय उनको शिवसेना की जरूरत नहीं है बल्कि शिवसेना को उनकी जरूरत है. 2006 में शिवसेना से अलग होकर अपनी पार्टी बनाने के बाद राज ने महाराष्ट्र की राजनीति में एक अच्छी शुरुआत की है. बड़ी संख्या में शिवसैनिक शिवसेना से टूटकर उनकी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) से जुड़े. पार्टी ने इतने समय में एक मजबूत ढांचा तैयार कर लिया है. दोनों भाइयों के मिलने में अड़चनें तो हैं ही, दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं के मिलने में भी हैं. सिर्फ दो ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से राज शिवसेना के साथ जुड़ सकते हैं. पहला यह कि उन्हें ऐसा लगे कि शिवसेना से जुड़कर देर-सवेर पार्टी की कमान उनके हाथ में आ सकती है और वे अपने चाचा बाल ठाकरे की तरह मराठी मानुष की राजनीति कर सकते हैं. उन्हें पता है कि जब तक शिवसेना से वे अलग हैं तब तक मराठी मतों का विभाजन दोनों दलों में हमेशा होता रहेगा. शिवसेना ब्रांड का अपना महत्व भी है. ऐसे में संभव है कि देर सवेर उस ब्रांड को हासिल करने और बाल ठाकरे के जाने के बाद ही सही उनका उत्तराधिकारी बनने का शायद एक ही तरीका है कि वे शिवसेना में शामिल हो जाएं और ऐसी परिस्थितियां निर्मित हों जिससे पार्टी की कमान उनके हाथ में आ जाए.
अगर वे चाह लें तो भी शिवसेना में शामिल होना केवल राज ठाकरे के हाथ में नहीं है. जाहिर-सी बात है कि उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और क्षमताओं को लेकर उद्धव को भी कोई संशय नहीं रहा होगा जिसके चलते राज ठाकरे की शिवसेना में सम्मानजनक वापसी की संभावना बेहद क्षीण है. और ऐसा न होने की स्थिति में राज के लिए शिवसेना में कुछ नहीं रखा है. जाहिर-सी बात है कि राज कभी भी उद्धव के नेतृत्व में काम करना पसंद नहीं करेंगे. ऐसे में एक और विकल्प यह भी है कि पार्टी में किसी दूसरे को यह न लगे कि उसका महत्व दूसरे से कम है. मगर ऐसी कोई व्यवस्था पार्टी में बना पाना और बनाए रखना बेहद चुनौतीपूर्ण और काफी हद तक असंभव कार्य है.

खैर, एक और संभावना है जिससे राज शिवसेना में शामिल हो जाएं. वह संभावना यह है कि जब परिवार के प्रति प्रेम की भावना राजनीतिक महत्वाकांक्षा पर भारी पड़ जाए. हालाकि यह भी असंभव जैसा ही है. ऐसे में राज- उद्धव के साथ आने की संभावना लगभग नहीं के बराबर है. लेकिन किसी कारण से यदि ऐसा हो जाता है तो यह शिवसेना के लिए बेहद फायदेमंद होगा. सुरेंद्र कहते हैं, ‘देखिए, अगर दोनों भाई साथ आते हैं तो कम से कम एक चीज तो होगी ही कि शिवसेना अपना राजनीतिक विस्तार करने की सोच सकती है.’ जानकारों का मानना है कि अगर राज ठाकरे शिवसेना के साथ आ गए तो एक तरफ वे बाल ठाकरे के जाने से बना वैक्यूम भर देंगे, वहीं दूसरी तरफ मराठी मानुष की राजनीति का बंटवारा नहीं होगा और न ही शिवसेना के पारंपरिक वोटों का. 2009 के लोकसभा चुनावों में शिवसेना-बीजेपी गठबंधन को कई सीटों पर एमएनएस के कारण ही हार का सामना करना पड़ा था. सिर्फ मुंबई, ठाणे और नासिक में ही गठबंधन को नौ लोकसभा सीटों पर हार का सामना करना पड़ा. पिछले विधानसभा चुनाव में मुंबई में जहां मनसे को 24 फीसदी वोट मिले थे वहीं शिवसेना को मात्र 18 फीसदी मिले. मुंबई जो शिवसेना का गढ़ रहा है वहां शिवसेना के चार विधायकों के मुकाबले मनसे के छह विधायक जीत कर आए. ऐसे में एक ही संभावना है जो शायद यथार्थ का रूप ले सकती ह,ै वह यह कि दोनों दल राजनीतिक गठबंधन कर लें. लेकिन यह कब होगा, कैसे होगा, होगा भी कि नहीं, इन प्रश्नों का जवाब शायद राज और उद्धव के पास भी नहीं होगा.

नफे-नुकसान का गणित
अगर राज और उद्धव में किसी तरह का सुलह-समझौता नहीं होता है तब क्या होगा? कुमार केतकर कहते हैं, ‘बाल ठाकरे के जाने के बाद शिवसेना को कमजोर होने से कोई नहीं बचा सकता. हां, कुछ लोग लगातार शिवसेना में बने रहेंगे और बाला साहब की छवि और नाम का प्रयोग करते हुए अपनी राजनीति जिंदा रखने की कोशिश करेंगे. वहीं कुछ राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की तरफ रुख कर लेंगे. बाकी एनसीपी से डील करते हुए नजर आएंगे. और कुछ गिनती के कांग्रेस की ओर भी जाते हुए दिखाई दे सकते हैं.’

जानकारों की राय में ठाकरे के निधन का अगर सबसे अधिक राजनीतिक लाभ किसी को मिलने वाला है तो वे राज ठाकरे हैं. उनके अलावा दूसरी पार्टी जिसे सबसे अधिक राजनीतिक लाभ मिलने की संभावना है वह शरद पवार की एनसीपी है जिसे लेकर कहा जा रहा है कि बड़ी संख्या में नेता और कार्यकर्ता एनसीपी से जुड़ सकते हैं. एनसीपी भी पूरे राज्य में अपना प्रभाव स्थापित करने के लिए काफी आक्रामक तौर पर काम कर रही है. ऐसे में उसकी नजर शिवसेना के उन नेताओं (खासकर विधायक) पर है जो 2014 के लोकसभा और उसके बाद के विधानसभा चुनाव में उसे और मजबूत कर सकते हैं. ठाकरे की मृत्यु के बाद महाराष्ट्र के सारे बड़े अखबारों में बाला साहब को दिए गए पूरे पन्ने के श्रद्धांजलि वाले विज्ञापनों को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है. राजनीति के इतिहास में यह पहली बार था जब एक राजनीतिक पार्टी ने दूसरी राजनीतिक पार्टी के किसी व्यक्ति के निधन पर इस तरह से अखबारों में विज्ञापन देकर शोक व्यक्त किया हो. सूत्र बताते हैं कि अखबार में विज्ञापन देने के पीछे मकसद था महाराष्ट्र और खासकर मुंबई के शिवसेना समर्थकों तक अपनी बात पहुंचाना. उन्हें यह अहसास दिलाना कि वे एक बड़े परिवार का हिस्सा हैं जिसमें एनसीपी भी शामिल है.  

भाजपा-शिवसेना संबंध

भाजपा और शिवसेना के संबंधों की बात करें तो भले ही यह बेहद पुराना हो लेकिन संबंधों का संतुलन हमेशा शिवसेना की तरफ ही झुका रहा. एक राष्ट्रीय पार्टी होने के बावजूद भाजपा महाराष्ट्र में शिवसेना के जूनियर पार्टनर के तौर पर ही नजर आई. महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन बाल ठाकरे के इच्छानुसार ही चला. यहां तक कि शिवसेना सुप्रीमो ने पिछले दो राष्ट्रपति चुनावों में भाजपा को शर्मिंदा करने में

कोई कसर बाकी नहीं रखी. साथी वे भाजपा के थे लेकिन जब 2007 के राष्ट्रपति चुनावों में भैरोसिंह शेखावत राष्ट्रपति पद के लिए खड़े हुए तो शिवसेना ने उन्हें वोट देने के बजाय मराठी मानुष कार्ड खेलते हुए प्रतिभा पाटिल का साथ दिया. 2012 में जब भाजपा ने पीए संगमा को राष्ट्रपति पद के लिए समर्थन दिया उस समय शिवसेना प्रणब मुखर्जी की काबिलियत की कायल हो गई.

खैर, ये सब इतिहास की बातें हैं. यहा राजनीतिक हिटलरगर्दी उस शख्स के बूते की बात थी जो शेर कहलाना और दिखना पसंद करता था. जिसे हिटलर पसंद था और जिसे लोकतंत्र के बजाय तानाशाही में राष्ट्र का सुनहरा भविष्य दिखता था. वह कद और तबीयत किसी और शिवसैनिक में नहीं है. ऐसे में यह तो कहा जा सकता है कि शिवसेना के आदेश देने के दिन अब लद गए. दूसरी तरफ ये भी खबरें आ रही हैं कि भाजपा राज ठाकरे को भी लुभाने में जुटी है. पार्टी को पता है कि बाल ठाकरे के जाने के बाद उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में भविष्य में कुछ करिश्मा करने की क्षमता अगर किसी में है तो वह राज ठाकरे ही है. राज ने भी अपनी तरफ से कदम बढ़ा दिया है. गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी की लगातार तारीफ और मोदी की सद्भावना यात्रा पर मोदी की तरफ से राज को मिले विशेष निमंत्रण को राजनीतिक गलियारों में भविष्य में साथ आने के एक मजबूत लक्षण के रूप में देखा जा रहा है.

वह इंद्रधनुष टूट गया

क्या किसी कलाकार से हमें यह अपेक्षा रखनी चाहिए कि वह अपनी पसंद-नापसंद, अपने संबंधों को छोड़कर वैसा जीवन जिए जैसा उसकी कला प्रस्तावित करती है या जैसा उसके प्रशंसक चाहते हैं? इतिहास में बहुत सारे ऐसे महान लेखक और कलाकार हुए हैं जिनका अपना जीवन कई तरह के ओछेपन से घिरा रहा. हम उनके जीवन को अनदेखा करके उनकी कला में निहित मूल्य या सौंदर्य को ग्रहण करते हैं और उसका आस्वाद लेते हैं. बहुत सारे लेखकों-कलाकारों के जीवन का सच तो हमें मालूम भी नहीं हो पाता, इसलिए अंततः उनकी कला ही वह इकलौती कसौटी बचती है जिसके आधार पर हम उनका मूल्यांकन करते हैं. अंततः हम यह पाते हैं कि कला अपने कलाकार से स्वायत्त होती जाती है जिसका हम अपने ढंग से पाठ-पुनर्पाठ, सृजन या पुनर्सृजन करते हैं. लेकिन क्या इसीलिए हमें किसी कलाकार के जीवन और उसकी कला में दिखने वाली फांक की चर्चा नहीं करनी चाहिए, उस पर उदास नहीं होना चाहिए?

पिछले दिनों बाल ठाकरे के देहांत पर लता मंगेशकर की श्रद्धांजलि देखते हुए मेरे भीतर यह सवाल उठता रहा. अपनी आवाज से करोड़ों लोगों के दिल जीतने वाली महान गायिका लता मंगेशकर ने कहा कि बाल ठाकरे की मृत्यु ने उन्हें अनाथ कर दिया है. शायद मराठी मानुष और मानस में बाल ठाकरे की छवि बाकी भारत से कुछ अलग है और शायद लता मंगेशकर का भी मराठी प्रेम दूसरों के मुक़ाबले कुछ प्रखर है, लेकिन इसके बावजूद यह श्रद्धांजलि उनके बहुत सारे चाहने वालों को कुछ उदास कर गई. वैसे बाल ठाकरे के इस सार्वजनिक वंदन में सिर्फ लता मंगेशकर ही नहीं, अमिताभ बच्चन भी शामिल हुए और दूसरे कलाकार भी. निस्संदेह इसमें कुछ भी गलत नहीं है और न किसी को चुभना चाहिए.  किसी की मृत्यु पर शोक जताना एक सहज मानवीय अपेक्षा है- चाहे मरने वाला हमारी अपेक्षाओं के जितने भी विरुद्ध जीवन जीता रहा हो.

लेकिन बाल ठाकरे की श्रद्धांजलि के लिए जिस तरह पूरा बॉलीवुड उमड़ पड़ा, उससे व्यावसायिक सिनेमा के चरित्र पर भी कुछ रोशनी पड़ती है. वैसे भी सिनेमा एकांतिक नहीं, सामूहिक विधा है. अमिताभ बच्चन जो अभिनय करते हैं, जो संवाद बोलते हैं, जिस कहानी को आगे बढ़ाते हैं, वे सब दूसरों के द्वारा लिखित, निर्देशित या परिकल्पित होते हैं, बहुत दूर तक व्यावसायिक तकाजों से संचालित भी. इसी तरह लता मंगेशकर जो गीत गाती हैं जिस धुन पर गाती हैं, वे दूसरों के लिखे और रचे हुए होते हैं. हो सकता है, इसलिए ये लोग अपनी कला की अखंडता या ईमानदारी के प्रति ऐसे संवेदनशील न हों जैसे लेखक, चित्रकार या गंभीर फिल्मकार भी होते हैं. शायद इसलिए किसी बाल ठाकरे की राजनीति उनके और उनकी कला के सामने कोई वैचारिक दुविधा या चुनौती पैदा नहीं करती.

लेकिन सवाल इसके आगे से शुरू होते हैं. क्या यह सच्चाई इस ज़्यादा बड़ी सच्चाई को नज़रअंदाज़ कर सकती है कि अमिताभ या लता जैसे कलाकार जो व्यापक अपील पैदा करते हैं, उसका भी एक मोल होता है, उससे भी एक आचार संहिता बनती है?  यह सच है कि चाहे असली हो या नकली हो, मौलिक हो या किसी और से लिए हुए हों, अमिताभ ने अपने किरदारों और अभिनय के ज़रिए एक दौर में हमारे समय के गुस्से को, हमारे जज़्बात को, अपनी लरजती आंखों और तड़कती आवाज़ से अभिव्यक्ति दी, लता मंगेशकर तो जैसे हमें जीना, गाना, हंसना-बोलना, रूठना-मनाना, मोहब्बत करना और उदास होना सिखाती रहीं. जिन छोटे शहरों में बड़ी और उदात्त कलाओं की पहुंच नहीं थी, वहां अमिताभ का सिनेमा और लता के गीत थे- हमारी बहुत सारी टूटनों के बीच ये हमें जोड़ते रहे, नफ़रत और सियासत, मज़हब और सरहद के पार जाकर इंसान होने का मोल भी सिखाते रहे, हमारे बहुत सारे ज़ख़्मों पर मलहम का काम करते रहे, यकीन दिलाते रहे कि दुनिया उतनी बुरी नहीं है जितनी कुछ लोगों के फितूर और जुनून की वजह से दिखती है.

बेशक, यह सब कल्पना के उस रोमानी परदे से छनकर आता था जो ज़माने की हक़ीक़त के आगे हम टांग दिया करते थे. लेकिन यह कल्पना न होती तो दुनिया शायद अपने सारे साधनों के बावजूद जीने लायक न होती. किसी कला का मोल यही है कि वह यथार्थ के समांतर भी एक प्रतियथार्थ, संसार के समांतर एक प्रतिसंसार रचती है और किसी कलाकार का भी मोल यही है कि वह अपनी उपस्थिति से बहुत सारी अरुचिकर उपस्थितियों को बेमानी और शायद सहनीय बनाता है. बाल ठाकरे की सारी कोशिशों के बावजूद मुंबई अगर दुराग्रह के टापू में नहीं बदली और हम सब के सपनों का शहर बनी रही तो इसलिए भी कि वहां अमिताभ बच्चन और लता मंगेशकर और बहुत सारे दूसरे कलाकार रहे.

लेकिन बाल ठाकरे की शान में कसीदे कढ़कर अमिताभ बच्चन ने उस सपने को जैसे एक झन्नाटे से तोड़ दिया है, वह जादुई शीशा चकनाचूर है जो लता मंगेशकर की आवाज़ बनाती रही और जिसमें हम सब अपना-अपना चेहरा, अपनी-अपनी खुशियों और उदासियों के साथ देखते रहे. हालांकि फिर दुहराने की ज़रूरत है कि व्यक्ति और कलाकार के बीच का जो विडंबनामूलक फासला है, ये शोक प्रस्ताव उसी की देन हैं. हम लता और अमिताभ की आलोचना नहीं कर सकते, आखिर उन्हें अपने ढंग से अपने मित्र चुनने का, उनके सुख में शामिल होने का, उनके दुख में अफसोस जताने का हक़ है. लेकिन हम कामना तो कर ही सकते हैं कि काश लता मंगेशकर ने ऐसे मौके पर अपने अनाथ होने के भाव को ऐसी सार्वजनिक अभिव्यक्ति न दी होती. उनके बहुत सारे प्रशंसक आज टूटे हुए हैं- वे अपनी दुनिया को कुछ मायूसी और अफ़सोस के साथ देख रहे हैं. वे समझ नहीं पा रहे कि हमारे लिए बहुलता और उल्लास के इंद्रधनुष बनाने वाली लता उस शख्स के लिए क्यों शोकाकुल हुईं जिसकी सारी राजनीति इस बहुलता के विरुद्ध थी.  उनका इंद्रधनुष आज टूटा हुआ है.   

फांसी का जश्न

मुंबई पर 26/11 के आतंकवादी हमले के दोषी अजमल कसाब को आखिरकार फांसी पर चढ़ा दिया गया. निश्चय ही, यह एक बड़ी खबर थी और उसकी विस्तृत कवरेज की उम्मीद थी. लेकिन न्यूज चैनलों और अखबारों ने उसे सिर्फ खबर भर नहीं रहने दिया और न ही उसे एक बड़ी खबर की तरह तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और संतुलित तरीके से कवर किया. इसके उलट कसाब को फांसी की जैसी अतिरेकपूर्ण और भावनात्मक विस्फोट से भरी कवरेज की गई, उससे ऐसा लगा कि जैसे देश ने कोई युद्ध जीत लिया हो. कसाब को फांसी की खबर चैनलों/अखबारों पर राष्ट्रीय जश्न और देशभक्ति के खुले इजहार के मौके में बदल गई.

लेकिन कसाब की फांसी की कवरेज में भावनाओं के उद्वेग और उन्माद में तथ्य और तर्क के साथ-साथ संतुलन और अनुपात बोध भी किनारे कर दिए गए. यूपीए सरकार के फैसले पर कई जरूरी सवाल नहीं पूछे गए, कई तथ्यों को अनदेखा कर दिया गया और उसकी जगह उन्मादपूर्ण जश्न ने ले ली. हालांकि न्यूज चैनल तो ऐसे भावुक और अतार्किक कवरेज के लिए पहले से बदनाम रहे हैं लेकिन इस बार अखबार भी देशभक्ति के प्रदर्शन में होड़ करते नजर आए. किसी फांसी पर समाचार माध्यमों में ऐसा सार्वजनिक जश्न हैरान करने वाला था. देश के सबसे बड़े समाचार समूह के संपादक पर देशभक्ति का ऐसा दौरा पड़ा कि उन्होंने पहले पृष्ठ पर ‘21/11 वंदे मातरम’ शीर्षक से जोशीला, शौर्यपूर्ण और लगभग युद्धगान करता संपादकीय लिख डाला.

ऐसा लगा जैसे अखबारों/चैनलों का वश चलता तो वे सार्वजनिक तौर पर किसी चौराहे पर कसाब को फांसी पर लटका देते. उन्हें फांसी की लाइव कवरेज न दिखा पाना जरूर खल रहा होगा. यही नहीं, अगर मौका मिलता तो कुछ देशभक्त संपादक/रिपोर्टर कसाब के फांसी के फंदे को खींचने के लिए भी तैयार हो जाते. असल में, अखबारों/चैनलों के इस अतिरेक और उन्मादपूर्ण कवरेज की पृष्ठभूमि बहुत पहले से तैयार थी. यह किसी से छिपा नहीं है कि पिछले कई सालों से कसाब और संसद पर हमले में दोषी करार दिए गए अफजल गुरु को फांसी पर चढ़ाने की सार्वजनिक मुहिम चल रही थी. खासकर हिंदुत्ववादी संगठनों ने इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया हुआ था. अखबारों और चैनलों में उनकी हां में हां मिलाती हुई ऐसी सुर्खियां अक्सर दिख जाती थीं जिनमें कसाब पर हो रहे करोड़ों रुपये के खर्च और उसे बिरयानी खिलाने की ‘खबरें’ होती थीं और जिनमें उसे जल्दी से जल्दी फांसी पर लटकाने की व्यग्रता और न्याय प्रक्रिया की लेट-लतीफी पर तंज साफ दिखाई देता था. हैरानी की बात नहीं है कि अखबारों/चैनलों पर कसाब की फांसी के बाद अब संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को जल्दी से जल्दी फांसी पर चढ़ाने की मुहिम शुरू हो गई है. लेकिन इस मुहिम में छिपे बारीक सांप्रदायिक हिंदुत्ववादी रुझान को देखना मुश्किल नहीं है.  

आखिर अखबार/चैनल खून के इतने प्यासे क्यों हो रहे हैं? लेखक सैमुएल जानसन ने बहुत पहले लिखा था कि देशभक्ति लफंगों (और भ्रष्टों) की आखिरी शरणस्थली होती है. क्या अखबारों/चैनलों की इस अंध-देशभक्ति और उन्माद के पीछे भी एक कारण यह है कि उनके भ्रष्ट और आपराधिक अंडरवर्ल्ड का पर्दाफाश होना शुरू हो गया है? कहीं देशभक्ति के झंडे से वे अपने धतकरमों पर पर्दा डालने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं? सवाल यह भी है कि यह देशभक्ति कहीं हिंदी अखबारों के डीएनए में पहले से मौजूद सांप्रदायिक हिंदुत्ववादी रुझान से तो नहीं उमड़ रही है?

आखिर हालिया इतिहास इस बात का गवाह है कि रामजन्मभूमि और आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर सारे हिंदी अखबार सवर्ण-हिंदू अखबार हो गए थे और कुछ उसके मुखपत्र तक बन गए थे. उसने भारतीय समाज और राजनीति को जितना गहरा नुकसान पहुंचाया, लगता है अखबारों/चैनलों ने उससे कुछ नहीं सीखा है. 

‘संपादक बिजनेस भी लाएगा तो ऐसा ही होगा’

जी न्यूज और जी बिजनेस के संपादकों की गिरफ्तारी के दो पहलू हैं. एक तो नैतिक गड़बड़ी और दूसरा आपराधिक गड़बड़ी. नैतिकता का तकाजा है कि एक पत्रकार के तौर पर आपका आचरण पत्रकारीय आदर्शों के अनुरूप हो. दूसरा यह कि आपने जो काम किया है वह कानून की नजर में अपराध है या नहीं. जहां तक नैतिकता की बात है तो इसमें कोई संदेह नहीं कि जी न्यूज और जी बिजनेस के दोनों संपादकों ने जो काम किया है उसे कतई सही नहीं ठहराया जा सकता. एक संस्थान का संपादक है जो किसी कंपनी या किसी व्यक्ति के विरुद्ध खबरें प्रसारित कर रहा है और बाद में उसी व्यक्ति से उसी विषय पर जाकर किसी तरह की बिजनेस डील करता है तो यह निश्चित रूप से गड़बड़ी की ओर इशारा करता है. यह गलत बात है. अगर कोई संपादक ऐसा करता है तो इसे परोक्ष तौर पर ब्लैकमेलिंग माना जाएगा.

दूसरी बात है कि दोनों के खिलाफ कोई आपराधिक मामला बनता है या नहीं. जिंदल ने उनके खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करवाया था. उन्होंने अपने आरोप के समर्थन में कोई सीडी भी दिखाई थी. यह दो अक्टूबर की बात है. फिर 27 नवंबर को पुलिस ने दोनों संपादकों को गिरफ्तार किया. पुलिस ने अपनी जांच के लिए करीब दो महीने का समय लिया. पहली नजर में ऐसा लगता है कि पुलिस ने सीडी और दूसरे तथ्यों की पूरी जांच करवाने के बाद ही गिरफ्तारी का कदम उठाया है. अब पुलिस की कार्रवाई पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं कि उसने धाराएं सही नहीं लगाईं, रात में क्यों गिरफ्तार किया, गिरफ्तार करना भी चाहिए था या नहीं आदि. लेकिन ये सब कानूनी दांव-पेंच के मामले हैं और यह तय करना अदालत का काम है. निष्पक्ष रूप से अगर कहा जाए तो किसी ने किसी के खिलाफ एक आपराधिक आरोप लगाया और पुलिस ने उसकी जांच के बाद गिरफ्तारी के लिए पर्याप्त जमीन पाई, लिहाजा उसने आरोपितों को गिरफ्तार किया. संयोग से ये दोनों लोग दो राष्ट्रीय चैनलों के संपादक थे. लेकिन इस आधार पर इन्हें कोई विशेषाधिकार नहीं मिल जाता है.

चैनल की तरफ से कहा जा रहा है कि यह पत्रकारिता के लिए काला दिन है क्योंकि पुलिस ने उनके खिलाफ कार्रवाई की है. मेरा मानना है कि यह पत्रकारिता के लिए सचमुच काला दिन है, लेकिन मेरे लिए इसकी परिभाषा दूसरी है. दो राष्ट्रीय चैनलों के संपादकों पर इस तरह के आरोप लगना कि वे उगाही कर रहे थे यह बेहद शर्मनाक बात है. पुलिस की कार्रवाई को न तो मीडिया की आजादी पर हमला कहा जा सकता है न ही यह आपातकाल की पुनरावृत्ति है. यह कोरी बकवास है, इसे मीडिया पर सेंसरशिप के रूप में प्रचारित करना बहुत गलत बात है. मेरी राय है कि आरोपित संपादकों या जी न्यूज को अपने बचाव में यदि कुछ कहना है तो वे अदालत में अपना पक्ष रखें और खुद को अदालत में निर्दोष साबित करें. टेलीविजन पर अभियान चलाने से कोई निष्कर्ष नहीं निकलेगा. यह चैनल की अपनी व्याख्या है कि वे इसे आपातकाल के रूप में प्रचारित करें या मीडिया पर हमले के रूप में. लेकिन किसी संपादक का यह आचरण ही अपने आप में अक्षम्य और शर्मनाक है.

इस मामले में हमने देखा कि कंपनी ने जिस आदमी को संपादक बनाया है उसी को बिजनेस हेड भी बनाया है. यह हितों का घालमेल है. जब आप रोजमर्रा के बिजनेस का जिम्मा संपादक को देते हैं तो हितों का टकराव लाजिमी है. वही आदमी आपके लिए हर दिन राजस्व का भी जुगाड़ करेगा और वही दिन भर खबरें भी लाकर देगा आपको. यह घालमेल बुराई की तरफ ले जा रहा है. इस बात पर विचार करना होगा कि क्या यह कार्रवाई किसी संपादक के ऊपर की गई है जैसा कि चैनल प्रचारित कर रहा है. आप वहां संपादक की हैसियत से गए थे या बिजनेस मांगने गए थे, इन दोनों चीजों में अंतर करना होगा.

हाल के दिनों में हमने देखा कि इंडिया टीवी और एबीपी न्यूज के दो रिपोर्टर भी इसी तरह के मामले में गिरफ्तार हुए हैं. यह स्थिति खतरे का इशारा है. राष्ट्रीय स्तर के मीडिया में इस तरह की प्रवृत्ति और भी चिंतनीय है. जिला-गांव के स्तर पर इस तरह की शिकायतें पहले भी आती रही हैं. लेकिन वे न तो इतने प्रभावी माध्यम थे और न ही उन पर कोई ज्यादा ध्यान देता था. हम उन्हें नजरअंदाज करते आ रहे थे. यह संकट का समय है, कुछ ठोस कदम उठाने का समय है. प्रेस काउंसिल पूरी तरह से निष्प्रभावी संस्थान साबित हुआ है. वह तो खैर प्रिंट पत्रकारिता के लिए जिम्मेदार है. टेलीविजन पर निगरानी के लिए बनी एनबीएसए जैसी संस्थाएं वैसे तो काफी प्रभावशाली हैं लेकिन इनके पास संसाधन और शक्तियों का अभाव है. इसके निर्णय सिर्फ एनबीए के सदस्यों पर लागू होते हैं. सारे चैनल इसे मानने के लिए मजबूर नहीं हैं. अब एक ऐसी संस्था के बारे में विचार करने का समय आ गया है जो पूरी तरह स्वतंत्र, अधिकार संपन्न और आत्मनियंत्रित हो. यह किसी भी तरह के सरकारी या किसी अन्य हस्तक्षेप से मुक्त हो.  

2007 में उमा खुराना प्रकरण हुआ था. उसके बाद कुछ और घटनाएं सामने आईं जिससे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चिंता जगी. इसी चिंता के नतीजे में एनबीएसए का गठन हुआ था. अपने दायरे में रहते हुए एनबीएसए ने बेहतरीन काम भी किया लेकिन सीमित अधिकारों के चलते यह बहुत मुखरता से काम नहीं कर पाता. यह सोचना होगा कि इसे संवैधानिक दर्जा कैसे दिलाया जाए. ऐसा करते समय हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि यह प्रेस काउंसिल जैसी संस्था न बन जाए. ऐसा नहीं है कि हमारे सामने मॉडल नहीं है. बीबीसी को ही लीजिए. यह एक ऑटोनॉमस बॉडी है. लेकिन सारा राजस्व सरकार देती है इसके बावजूद बीबीसी पूरी तरह से स्वायत्त बनी हुई है. तो इस तरह के कुछ मॉडलों पर हमें विचार करना होगा. यह समय की जरूरत है.
(अतुल चौरसिया से बातचीत पर आधारित)              

‘ठाकरे की अंत्येष्टि राजकीय सम्मान के साथ करने की बड़ी वजह यह थी कि वे एक कलाकार थे’

महाराष्ट्र में बाल ठाकरे के निधन के बाद बना माहौल ऐसा था जैसे पूरा राज्य शिवसेना से भयभीत है.
अरे, कैसा डर? यदि अंत्येष्टि के समय 20,000 पुलिसवालों की तैनाती डर की वजह से थी तो मैं आपसे कहना चाहता हूं कि जिस व्यवस्थित तरीके से इस पूरे घटनाक्रम को संभाला गया है उसकी तारीफ की जानी चाहिए. हमने अंत्येष्टि के एक दिन पहले शिवसेना के नेताओं से बात की थी ताकि अगले दिन किसी भी तरह की हिंसा न हो. हमने इस दौरान काफी सावधानी बरतते हुए काम किया है.

इस बात पर सवाल उठाए जा रहे हैं कि बाल ठाकरे की अंत्येष्टि राजकीय सम्मान के साथ क्यों हुई जबकि उन पर दंगे भड़काने के आरोप लगे थे?
कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस सहित कई दलों के वरिष्ठ नेताओं ने हमसे यह अनुरोध किया था किक बाला साहब ठाकरे की अंत्येष्टि राजकीय सम्मान के साथ की जाए. उनका मत था कि हमें उन्हें एक राजनीतिज्ञ नहीं बल्कि एक कलाकार और एक कार्टूनिस्ट होने के नाते राजकीय सम्मान देना चाहिए.

ठाकरे के जाने के बाद आप महाराष्ट्र की राजनीति में क्या बदलाव देखते हैं और इसका शिवसेना पर क्या असर पड़ेगा?
हमें पूरा भरोसा है कि अगले विधानसभा चुनावों में राज्य में एक बार फिर कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की सरकार बनेगी. जहां तक शिवसेना की बात है तो बालासाहब ठाकरे के निधन से पार्टी को बहुत बड़ा झटका लगा है. भाजपा और शिवसेना के सदस्य पार्टी छोड़कर राज ठाकरे की मनसे के साथ जा सकते हैं. इस स्थिति में शिवसेना के वोट बंटना तय है.

लेकिन आपकी सरकार की तरफ देखें तो लगता है कि वहां भी बहुत समस्याएं हैं. कहा जा रहा है कि शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल को आपसे बहुत दिक्कत है और वे यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी दे चुके हैं?
एनसीपी के यूपीए सरकार के साथ वैसे ही मतभेद थे जैसे कि गठबंधन सरकार में पार्टियों के एक-दूसरे से होते हैं. उन्हें इस बात पर आपत्ति थी कि उन्हें सरकार में महत्वपूर्ण पद नहीं मिले. हां, महाराष्ट्र में भी कुछ छोटे-मोटे मसले थे जिन पर उन्हें दिक्कत थी लेकिन यह आपको एनसीपी से ही पता चल जाएगा कि कम से कम इस वजह से वे सरकार से समर्थन वापस लेने वाले नहीं थे.

एनसीपी का आरोप है कि आप उसकी स्थिति कमजोर करने के लिए महाराष्ट्र की सिंचाई परियोजनाओं पर श्वेतपत्र लाने वाले हैं. यह भी आरोप है कि वायपी सिंह के शरद पवार का नाम (लवासा भूमि अधिग्रहण मामला) लेने के पीछे भी आपकी भूमिका है.
ये बेकार की बात है. श्वेत पत्र का क्या मतलब होता है? यह एक दस्तावेज है जिसका नाम हर देश के हिसाब से अलग-अलग होता है. महाराष्ट्र जैसे राज्य में जहां खेत-किसानी की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है, वहां सिंचाई परियोजनाओं से जुड़े मुद्दे हल होने चाहिए. इस मामले पर हमारी एनसीपी के साथ सहमति थी कि हम 10 दिसंबर तक सदन में श्वेत पत्र ले आएंगे. हमने जल संसाधन मंत्री से सभी सिंचाई परियोजनाओं और उनके लिए जरूरी फंड की विस्तृत सूची बनाने की बात कही थी. तो इस मामले में कोई भी विरोधाभास नहीं है. जहां तक अंजलि दमानिया और आईएसी की बात है तो वे आरटीआई एक्टिविस्ट मयंक गांधी के साथ मुझसे मिलने आई थीं. उनकी जमीन भी अधिगृहीत की गई है और वे इसके लिए आरटीआई लगाना चाहते हैं. उन्हें सारी जानकारी इस कानून के जरिए मिली है. इसमें कैसे गड़बड़ी हो सकती है? कांग्रेस और एनसीपी के बीच मतभेद जरूर हैं लेकिन हम यह भी जानते हैं कि एक-दूसरे से गठबंधन के बिना हमें राज्य में मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा. इसलिए हमें अपने मतभेद सुलझाने पड़ेंगे.

ऐसी भी खबरें हैं कि कांग्रेस और एनसीपी के बीच एक समझौता हो गया है. और अब आपको वापस दिल्ली बुलाया जाएगा?
देखिए, मैं बिल्कुल यहीं हूं. आपके सामने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रूप में, और मुझे नहीं लगता कि मैं यहां से कहीं जाने वाला हूं.

गौरी भोंसले नहीं, संपादक कहाँ हैं?

एबीपी न्यूज इन दिनों लंदन की एनआरआई लड़की गौरी भोंसले को खोजने में जुटा हुआ है. चैनल के मुताबिक, लंदन से भारत के कोल्हापुर के लिए निकली गौरी भोंसले बीच में कहीं गुम हो गई. चैनल पर गौरी की गुमशुदगी के बारे में लगातार ‘ब्रेकिंग न्यूज’ और स्क्रोल भी चल रहा है जिसमें लन्दन पुलिस के एक अफसर के बयान से लेकर उसके बारे में कुछ जानकारियां भी शामिल हैं. दर्शकों से अपील की जा रही है कि अगर गौरी भोंसले दिखाई दे तो एक खास नंबर पर फोन करें. 

एबीपी न्यूज पर कई दिनों से चल रही इस सनसनीखेज ‘खबर’ के बीच ही अंग्रेजी के तीन बड़े अखबारों में यह ‘खबर’ छपी कि लंदन से गुम हुई गौरी भोंसले को सहारनपुर पुलिस ने देवबंद के पास एक गांव से बरामद कर लिया है. लेकिन इसके पहले कि यह ‘एक्सक्लूसिव खबर’ सभी चैनलों और अखबारों की सुर्खियों में छा जाती, यह पता चला कि देवबंद से बरामद लड़की न तो एनआरआई है और न ही गौरी भोंसले. वह गौरी भोंसले हो भी नहीं सकती थी क्योंकि सच यह है कि गौरी भोंसले नाम की कोई एनआरआई लड़की गुम नहीं हुई है. 

दरअसल, गौरी भोंसले एक काल्पनिक चरित्र है जो मनोरंजन चैनल ‘स्टार प्लस’ पर 12 नवंबर से शुरू होनेवाले धारावाहिक की मुख्य नायिका है. ‘स्टार प्लस’ का दावा है कि उसने इस धारावाहिक के प्रचार के लिए एबीपी न्यूज और बाद में कई और चैनलों पर चलनेवाले उस खबरनुमा विज्ञापन अभियान का सहारा लिया और दर्शकों का ध्यान खींचने की कोशिश की. यह और बात है कि इस विज्ञापन अभियान से जिससे बहुतेरे दर्शक और यहां तक कि अखबार भी धोखा खा बैठे और गौरी भोंसले की गुमशुदगी की कहानी को सच्ची मान बैठे, वह कभी विज्ञापन की तरह नहीं दिखा.

तथ्य यह है कि एबीपी न्यूज पर उसे खबर की तरह गढा, पढ़ा और पेश किया गया. चैनल के एंकर ने उसे उसी शैली में पढ़ा और पेश किया जिस शैली में बाकी ब्रेकिंग न्यूज पेश की जाती है. साफ़ तौर पर यह विज्ञापन नहीं बल्कि पेड न्यूज था और चैनल ने विज्ञापन को ‘खबर’ की तरह दिखाकर अपने दर्शकों के साथ धोखा किया है. उनके विश्वास को तोडा है. उन्हें बेवकूफ बनाया है. कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे प्रकरणों से दर्शकों का चैनलों और उनकी ब्रेकिंग न्यूज में भरोसा कम होगा. ऐसे ही चला तो ब्रेकिंग न्यूज जल्दी ही ‘ब्रोकरिंग न्यूज’ (खबर दलाली) बन जाएगी. 

सच पूछिए तो इस प्रकरण ने गौरी भोंसले से ज्यादा चैनलों में संपादक की गुमशुदगी और मार्केटिंग/सेल्स मैनेजरों के बढ़ते दबदबे को उजागर किया है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि खबर में विज्ञापन की सीधी घुसपैठ ने संपादक नाम की संस्था को बेमानी बना दिया है. इससे यह भी पता चलता है कि खबर और विज्ञापन के बीच राज्य और चर्च की तरह की स्पष्ट और मजबूत विभाजक दीवार मुनाफे के दबाव में ढह चुकी है और इस प्रक्रिया में संपादकों को न सिर्फ मूकदर्शक बल्कि भागीदार भी बना दिया गया है. आखिर गौरी भोंसले की गुमशुदगी का ‘पेड न्यूज’ चैनल के एंकर ही पढ़ते नजर आते हैं. 

यह इस मायने में खतरनाक संकेत है कि पेड न्यूज के कारोबारियों ने न्यूज चैनल के साथ-साथ उनके संपादकों की बची-खुची साख और विश्वसनीयता को भी दांव पर लगाना शुरू कर दिया है. अगर संपादक अब भी न चेते तो गौरी भोंसले के उलट सचमुच में गुम हो जाएंगे.

‘मैं सशक्तीकरण को महसूस कर सकती हू’

इस क्षेत्र में कैसे आना हुआ?

पढ़ाई के दिनों की बात है. एक दिन कहीं जा रही थी तो रास्ते में गांव की कुछ महिलाएं मिल गईं. ये झारखंड जंगल बचाओ नामक एक आंदोलन की बैठक में शामिल होने जा रही थीं. उन्होंने मुझसे भी साथ चलने को कहा. उत्सुकतावश मैं चल दी. बैठक खूंटी में ही थी. वहां पर अपने जल, जंगल और जमीन जैसी चीजों को बचाने के प्रति लोगों का जुनून मेरे दिल को छू गया. यहीं से मैं इस अभियान के साथ जुड़ गई. फिर एक दिन पता चला कि इंडिया अनहर्ड नामक एक संस्था के लिए पूरे भारत से वीडियो स्वयंसेवक मांगे गए हैं. मैंने आवेदन भेजा जो स्वीकार हो गया. उसके बाद थोड़ी-सी ट्रेनिंग हुई, एक कैमरा मिला और काम शुरू हो गया.

इसके बाद क्या बदलाव महसूस हुआ?

सशक्तीकरण महसूस किया है मैंने. एक उदाहरण बताती हूं. हमारे यहां निर्दोष गांववालों को नक्सली करार देकर उन्हें हिरासत में लेने की घटनाएं होती रहती हैं. कुछ समय पहले थाने से पुलिस आई और हमारे गांव के दो लोगों को नक्सली बताकर ले गई. मैं अपने कैमरे के साथ थाने पहुंची. पुलिस से बात करने की कोशिश की. पुलिसकर्मियों ने बात तो नहीं की, लेकिन इतना जरूर हुआ कि उन ग्रामीणों को छोड़ दिया गया. मुझे लगता है कि मैं उपेक्षितों की आवाज बन गई हूं.

-विकास बहुगुणा

'हर विश्वास को तर्क, तथ्य और वैज्ञानिक अनुभवों की कसौटी पर कसें"

आप जादूगर थे. फिर तर्कवाद की तरफ कैसे मुड़ गए?

तीस साल से भी ज्यादा समय तक मैं जादूगर रहा. इस दौरान मैं ऐसे कई भोले लोगों से मिला जो मेरे करतब देखकर सवाल करते थे कि क्या मैं किसी पंथ या संप्रदाय का हिस्सा हूं. आजकल ऐसे कई गुरु हैं जो हाथ की सफाइयों को ईश्वर का चमत्कार बताते हैं. वे मुझे ऐसा ही कोई समझ लेते. मैं उन्हें बार-बार समझाता कि यह सब तो बस भ्रम है, आंखों का धोखा है. लेकिन उन्हें इस पर यकीन ही नहीं होता. इसलिए 60 साल की उम्र में रिटायर होने के बाद मैंने यह फैसला किया कि मैं अब बाकी का जीवन अपने पेशे से जुड़े झूठ को दूर करने में लगाऊंगा.

आप हर चीज को संशय के साथ देखने की बात करते हैं, लेकिन शंका की सीमा क्या हो? क्या हमें विज्ञान को भी उतने ही संशय के साथ नहीं देखना चाहिए?

बिल्कुल, अगर किसी भी तरह के विज्ञान का इस्तेमाल लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए हो रहा हो तो आपको जरूर इस पर संशय होना चाहिए. लेकिन परिभाषा के हिसाब से विज्ञान उन सिद्धांतों के हिसाब से काम करता है जो अनुभवजन्य होते हैं. विज्ञान जब कोई बात कहता है तो उसके पीछे एक तर्क होता है जिसकी प्रायोगिक रूप से व्याख्या भी की जा सकती है. यह ज्ञान की एक ऐसी उन्नतिशील शाखा है जो कई सदियों में विकसित हुई है. उन्नतिशील से मेरा मतलब यह है कि विज्ञान को नए साक्ष्य मिलते हैं तो यह पुराने विचारों को छोड़कर नए विचारों को अपना लेता है. यह धार्मिक सिद्धांतों के उलट है जो बदलते नहीं. उल्टे इनमें और विचार जोड़े जाते रहते हैं ताकि आखिर में आपके पास एक जटिल कहानी हो. विज्ञान कई चीजों के बारे में बता सकता है और कई चीजों का भंडाफोड़ भी कर सकता है. इसलिए आप इसे अविश्वास की नजर से देखेंगे तो ऐसा आप अपने जोखिम पर ही करेंगे. जब तक आप अपने दावों के समर्थन में सबूत पेश कर सकें तब तक कोई समस्या नहीं है.

लेकिन कुछ सबूत ऐसे होते हैं जिनकी पुष्टि अनुभवजन्य तरीकों द्वारा नहीं की जा सकती. जैसे टू पाई आर फॉर्मूला किसी वृत्त की परिधि और त्रिज्या का संबंध बताता है. लेकिन प्रकृति में ऐसा कोई वृत्त नहीं पाया जाता जिस पर यह फॉर्मूला फिट होता हो. यह सिर्फ ज्यामिति या गणित की दुनिया में होता है.

ये दो बिल्कुल अलग मामले हैं. हो सकता है हमारे ब्रह्मांड में कोई आदर्श वृत्त न हो, लेकिन यह फॉर्मूला आपको दो चीजों के बीच एक निश्चित पारस्परिक संबंध तो बताता ही है. 

लेकिन न्याय, कला, प्रेम आदि जैसी कई दूसरी चीजें भी हैं जिनकी कोई वैज्ञानिक व्याख्या नहीं हो सकती?

ऐसा तभी हो सकता है जब आप ऐसा मान लें. एक जादूगर जो करतब दिखाता है उनके पीछे भी विज्ञान छिपा होता है. लेकिन आप यह भी मान सकते हैं कि मैं झूठ कह रहा हूं. दरअसल यकीन बड़ी ताकतवर चीज है. यह इसके बूते ही हो पाता है कि लोग ऐसी चीजों की भी कल्पना कर लेते हैं जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं होता.

कुछ वैज्ञानिक इस बात पर अड़े हैं कि उनकी नई खोजों को अमेरिका की न्यायिक व्यवस्था में शामिल कर लिया जाना चाहिए. आप इस पर क्या कहेंगे?

कई लोगों को अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने की आदत होती है. ये भी ऐसे ही हैं. अगर आप यह कह रहे हैं कि विज्ञान नैतिकता के लिए किसी तरह का आधार हो सकता है तो मैं इससे असहमत हूं.  हालांकि पूरी तरह से नहीं. कानून में नैतिक मूल्यों को फिट करना बहुत ही पेचीदा काम है. हमें एक-दूसरे के साथ कैसे रहना है, यह हमने लाखों साल तक चली एक प्रक्रिया के बाद सीखा है. इसके बाद हमने मूल्यों की एक व्यवस्था बनाई है  जिसके हिसाब से हम यह तय करते हैं कि किस परिस्थिति में कौन-सा आचरण सही होगा और कौन-सा गलत. क्रमिक विकास की लंबी प्रक्रिया के चलते यह सब शायद हमारे डीएनए में ही आ गया है. वे आचरण और कदम, जो हमारे लिए आत्मघाती थे, क्रमिक विकास की प्रक्रिया ने कुछ दूसरी बेहतर चीजों के लिए आखिरकार उन्हें छोड़ दिया. यही वजह है कि हमारे यहां लड़ाई को बुरा माना जाता है क्योंकि लड़ने की स्थिति में हम एक-दूसरे को मिटाने की तरफ बढ़ते हैं जो कि एक ही प्रजाति से होने के नाते हमारे हित में नहीं है.  लेकिन फिर एक दूसरी चीज भी है और वह है जीवन को बचाए रखना. सारे जीवित प्राणियों में उत्तरजीविता की यह प्रवृत्ति होती है. जब भी जीवन खतरे में होगा तो नैतिकता कभी-कभी किनारे रख दी जाएगी. तो अपने कानूनी ढांचे का इन सब बातों से तालमेल बिठाना एक फिसलन भरा रास्ता हो जाता है. ऐसे में हम बस इंतजार ही कर सकते हैं कि समाज और परिपक्व हो और तब इस पर कोई फैसला ले.

आपके हिसाब से वह कौन-सा विचार है जो दुनिया को बदल सकता है?

अभी भी दुनिया में बहुत-से लोग हैं जो किसी भी चीज पर सहज ही विश्वास कर लेते हैं. एक बड़ी आबादी को अभी यह समझाने की जरूरत है कि किसी भी चीज पर भरोसा करने से पहले खूब सावधानी बरतें. हर विश्वास को तर्क, तथ्य और वैज्ञानिक अनुभवों की कसौटी पर कसें. हर चीज पर सवाल उठाएं, शंका जताएं क्योंकि जीवन बस एक बार ही जिया जाता है और आपके पास बस यही मौका है.

‘वन्य प्रजातियों के संरक्षण के लिए लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल करने में भी कोई बुराई नहीं है’

किस चीज ने आपको इस क्षेत्र में आने के लिए प्रेरित किया?

पर्यावरणप्रेमी आम तौर पर युवावस्था में ही इसकी तरफ आकर्षित हो जाते हैं. प्रकृति के प्रति मेरे मन में शुरू से ही जिज्ञासा थी. इसी कारण मैं अलास्का यूनिवर्सिटी में स्नातक की पढ़ाई के लिए गया. वन्यजीवन के समीप रहते हुए इस पर निगरानी रखने के लिए अलास्का बिल्कुल उपयुक्त स्थान है. इस तरह से मैंने इस क्षेत्र में शुरुआत की.

आपके मुताबिक ऐसा कौन-सा विचार या तरीका है जो इस क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन ला सकता है?

मौजूदा हालात में सबसे महत्वपूर्ण चुनौती लोगों के विचार में सामुदायिक स्तर पर परिवर्तन लाने की है. अपने अनुभवों के आधार पर मैं कह सकता हूं कि कोई संरक्षणवादी, सरकार या कार्यकर्ता चाहे जितनी मेहनत कर ले, वन्यजीव पर्यावासों के भीतर रहने वाले समुदायों को जागरूक किए बिना समाधान दूर की कौड़ी बना रहेगा. आज पूरी दुनिया के लगभग 85 फीसदी वन्यजीव पर्यावासों के भीतर लोग जीवों के साथ रह रहे हैं. हमें इन्हें विश्वास में लेना होगा. एक बात और, इनके विस्थापन का कोई सार्वभौमिक सूत्र नहीं हो सकता क्योंकि हर इलाके के लोगों की समस्या बिल्कुल अलग है और उनके समाधान बिल्कुल अलग हैं.

किसी प्रजाति विशेष का संरक्षण करने का सबसे महत्वपूर्ण तरीका क्या है?

हमारी तमाम तकनीकी उन्नति के बावजूद हमें आज भी इस बात का कोई ज्ञान नहीं है कि हमारा पारिस्थितिकी तंत्र किस तरह से काम करता है. हर चीज आपस में गुंथी हुई है. हाथियों की आबादी में गिरावट का बुरा प्रभाव उसके आप-पास की पारिस्थितिकी पर पड़ेगा, पर हमें आखिर तक नहीं पता चल पाता कि इसका असर किस रूप में हमारे सामने आएगा. भारत में सरकार एक बार फिर से चीता को लाने की तैयारी कर रही थी. वे ईरानी चीते को भारत में लाना चाहते थे. अच्छा हुआ कि ईरान ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया. दुनिया में सिर्फ 50-60 एशियाई ईरानी चीता बचे हुए हैं. मुझे विश्वास है कि यह योजना औंधे मुंह गिरती. 8-10  जो भी चीते यहां लाए जाते उन्हें यहां के तेंदुए आदि मार गिराते. हालांकि कुछ विशेष प्रजातियों के संरक्षण के लिए आर्थिक मदद इकट्ठा करना आसान है. मसलन हिम तेंदुए के लिए फंड इकट्ठा करना किसी जोंक के संरक्षण से कहीं ज्यादा आसान होगा. व्यक्तिगत रूप से भी मैं जोंक के बजाय हिम तेंदुए के लिए काम करने को तरजीह दूंगा. अगर प्रजातियों के संरक्षण के लिए लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल किया जाता है तो इसमें कोई बुराई नहीं है.

विलुप्त हो चुकी प्रजातियों को वैज्ञानिक तरीकों से पुन: तैयार करने के जो प्रयास चल रहे हैं, आप उनका समर्थन करते हैं? मसलन मैमथ को लें.

देखिए, हमारे पास पहले से ही उन प्रजातियों के संरक्षण की बड़ी चुनौती है जो इस समय धरती पर मौजूद हैं. ऐसे में विलुप्त हो चुकी प्रजातियों को फिर से जिंदा करने का विचार मेरे ख्याल से मूर्खतापूर्ण है विशेषकर मैमथ का, जो साइबेरिया के निर्जन बर्फीले इलाके में पाया जाता था. आज इस इलाके की आधी से ज्यादा बर्फ पिघल चुकी है. टुंड्रा धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है. तो आप मैमथ को रखेंगे कहां?

भारत में संरक्षण की राह में आने वाली अड़चनें कौन-सी हैं?

सबसे निराश करने वाली बात है वन्यजीव संरक्षण अभियानों के लिए फंड का अभाव. तमाम प्रतिभाशाली भारतीय विदेशों में जाकर संरक्षण से जुड़ी पढ़ाई करते हैं और जब वे यहां वापस लौटते हैं तो उन्हें बहुत कम पैसे में काम करना पड़ता है. पैंथेरा नाम का एक संगठन इस दिशा में काम कर रहा है. यह उन लोगों की आर्थिक मदद करता है जो पूरे समर्पण के साथ बड़ी बिल्लियों को बचाने के काम में लगे हुए हैं.

प्रजातियों के संरक्षण के अलावा क्या इसका कोई राजनीतिक प्रभाव भी है?

बिल्कुल, इस दिशा में कुछ प्रयास हो रहे हैं जिनसे काफी उम्मीदें जगती हैं. इसे ट्रांस फ्रंटियर रिजर्व के नाम से जाना जाता है. तमाम ऐसे वन्यजीव अभयारण्य हैं जो एक से ज्यादा देशों में फैले हुए हैं. उदाहरण के तौर पर मानस राष्ट्रीय अभयारण्य को लीजिए, यह असम और भूटान में फैला हुआ है. ऐसी हालत में हम दोनों देशों को आपस में सहयोग करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. ऐसे अभयारण्यों को हमने पीस पार्क का नाम दिया है. सैद्धांतिक रूप से अरुणाचल प्रदेश की वन्य संपदा के संरक्षण के लिए भारत और चीन को मिलकर काम करना चाहिए. मैं पामीर अंतरराष्ट्रीय पीस पार्क के गठन से जुड़ा रहा हूं. यह चार देशों- पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ताजिकिस्तान और चीन- में फैला हुआ है. जब इन देशों को पता चलेगा कि ये तरीके उनके अपने हित में हैं तो लोग आपस में सहयोग बढ़ाएंगे.

संरक्षण के बारे में भारत चीन से क्या सीख सकता है?

चीन संरक्षण के क्षेत्र में बढ़िया काम कर रहा है. उसने पिछले 30 साल में 2,000 वन्यजीव अभयारण्य बनाए हैं. उन्होंने तमाम प्रजातियों के शिकार को प्रतिबंधित कर दिया है. शिकार के लिए कड़ी सजा का प्रावधान किया है. चिरू (तिब्बती हिरण) के शिकार पर 5-15 साल की सजा हो सकती है. भारत को आत्ममंथन की जरूरत है. उसे सीखना पड़ेगा कि सरिस्का जैसे इलाकों से बाघ पूरी तरह गायब क्यों हो गए. कभी-कभी समस्या बहुत आसान होती है. गार्ड ने लापरवाही की और शिकारियों को मौका दे दिया. मुझे नहीं लगता कि इस तरह की समस्या से निपटना भारत सरकार के लिए कठिन है.

आपने तिब्बत और अफगानिस्तान में दुनिया के कुछ सबसे बड़े वन्यजीव रिजर्व स्थापित किए हैं. भारत के लिए भी कोई योजना है?

मेरे हिसाब से भारत में पहले से ही कुछ बेहद जुनूनी और प्रतिभाशाली लोग वन्यजीव संरक्षण के काम में लगे हुए हैं. मेरे मित्र उल्लास कारंत भारतीय वन्यजीव संरक्षण सोसाइटी के निदेशक हैं. वे बाघों के संरक्षण के लिए बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं. मैं उनके काम करने के तरीके में बिना वजह कोई अड़चन नहीं डालना चाहता हूं.

आपके लिहाज से संरक्षण का सबसे बढ़िया तरीका क्या है?

इतने सालों तक काम करने के बाद मैंने पाया है कि प्रजातियों के संरक्षण का कोई एक सार्वभौमिक तरीका नहीं हो सकता है. जैसा कि मैंने पहले बताया है कि कुछ प्रजातियों से इंसान का लगाव बहुत ज्यादा होता है. ऐसे में उनके साथ होने वाली किसी भी गड़बड़ी पर तत्काल ही लोगों का ध्यान चला जाता है. हमें लोगों के अंदर परिवर्तन लाना होगा. जीव संरक्षण को अध्यात्म से जोड़ना होगा. चमड़े और फर के इस्तेमाल को हतोत्साहित करने की जरूरत है. जरूरत से ज्यादा उपभोग की आदत में कमी लानी होगी क्योंकि इससे जंगलों पर असर पड़ रहा है. जंगल कट रहे हैं और उनमें रहने वाली प्रजातियां संकट में घिर गई हैं.