डॉ. राजेंद्र प्रसाद का एक पत्र…

संदर्भ: भारत के पहले राष्ट्रपति, संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद सादगी और ईमानदारी की प्रतिमूर्ति थे. यहां हम एक चिट्ठी प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसे  राजेंद्र बाबू के  पुत्र व पूर्व राज्यसभा सांसद मृत्युंजय प्रसाद ने अपनी किताब ‘पुण्य स्मरण’ में संकलित किया था. मूल रूप से यह चिट्ठी भोजपुरी भाषा और कैथी लिपि में है, क्योंकि राजेंद्र प्रसाद अपनी पत्नी राजवंशी देवी को इसी भाषा में पत्र लिखा करते थे. यह एक निहायत ही निजी पत्र है लेकिन इसका सार्वजनिक महत्व है. राजेंद्र बाबू ने गांव में रह रही अपनी पत्नी को यह चिट्ठी तब लिखी थी, जब वह वकालत के शानदार कैरियर के विकल्प को छोड़कर राष्ट्रसेवा में खुद को समर्पित करने की तैयार कर रहे थे.

इस चिट्ठी के तथ्यों पर गौर करने के साथ ही इस बात पर भी गौर करने की जरूरत है कि राजेंद्र बाबू यह फैसला लेने के पहले अपनी पत्नी को सूचित  करते हैं और उनका मशविरा भी मांगते हैं. इस चिट्ठी के जरिये हम उन नेताओं के जीवन मूल्य को एक बार फिर से याद कर सकते हैं, जिन्होंने इस राष्ट्र के मूल्य गढ़ने में महती भूमिका निभायी थी.

आशीर्वाद,

मैं कुशलपूर्वक हूं और वहां की कुशलता चाहता हूं. बहुत दिनों से वहां का कोई समाचार नहीं मिला,इससे मन में चिंता है. आज मैं पहली बार अपने मन की बात खुलकर लिखना चाहता हूं. मैं चाहता हूं कि तुम ध्यानपूर्वक इसको पढ़ो और इस पर विचार कर के मुझे उत्तर दो. 

सभी जानते हैं कि मैंने बहुत पढ़ा, बहुत नाम हुआ,इसलिए मैं बहुत धन कमाउंगा. सबों को मुझसे उम्मीद है कि मेरा पढ़ना-लिखना सिर्फ रूपया कमाने के लिए है. तुम्हारे मन में क्या है? तुम मुझसे सिर्फ रूपया कमाने की अपेक्षा करती हो या कुछ और कमाने की, लिखना. बचपन से ही मेरा मन धनोपार्जन से विमुख हो गया था. जब पढ़ने-लिखने में मेरा नाम हुआ तो मैं यह कभी नहीं सोचा, न आशा की कि यह सब पढ़ना-लिखना सिर्फ रूपया कमाने के लिए है, इसलिए मैं तुमसे पूछना चाहता हूं कि यदि मैं धनोपार्जन न करूं तो क्या तुम गरीबी में मेरे साथ निर्वाह कर लोगी. मेरा-तुम्हारा जन्म भर का संबंध है. मैं रूपया कमाउं या नहीं, दोनों स्थितियों में तुम मेरा साथ दोगी किंतु मैं यह जानना चाहता हूं कि यदि मैं अर्थोपार्जन न करूं तो क्या तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट होगा? 

मेरा चित्त अर्थ लाभ के लिए काम करने से बिल्कुल हट गया है. मैं धनोपार्जन नहीं करना चाहता हूं. मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि तुम्हें यह बात कैसी लगती है? यदि मैं धन नहीं कमाउं तो तुम्हें मेरे साथ निर्धन की तरह रहना होगा. गरीबों का भोजन, गरीबों का पहनावा और गरीब ह्रदय से जीना होगा. मैंने इस पर विचार किया है और इस निश्चय पर पहुंचा हूं कि मुझे इसमें कोई कष्ट न होगा, किंतु मैं तुम्हारे मन की बात जानना चाहता हूं. मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी स्त्री सीताजी की भांति, जिस हाल में मैं रहूंगा, मेरे साथ रहेगी-सुख में, दुख में, सब में मेरा साथ देना ही अपना धर्म, अपना सुख और अपनी खुशी समझेगी. 

इस दुनिया में अमीर, गरीब सब धन के लोभ में मरे जा रहे हैं. यह सब कष्ट क्यों? किस लिए? जिसको संतोष है, वही सुख से दिन काट रहा है. सुख-दुख रुपया कमाने से या नहीं कमाने से नहीं मिलता. जो भाग्य में लिखा है, वही होता है. 

अब मैं लिखना चाहता हूं कि यदि मैं रूपया न कमाउं तो क्या करूंगा. सबसे पहले तो वकालत छोड़ दूंगा, परीक्षा नहीं दूंगा, वकालत नहीं करूंगा. मैं अपना सारा समय देश सेवा में लगाउंगा. देश के लिए जीना, देश हित की बात सोचना, देश सेवा करना, यही मेरा काम रहेगा. अपने स्वार्थ का न सोचना, न कराना, पूरी तरह साधु का जीवन जीना होगा.

तुमसे, मां से या परिवार से अलग नहीं रहूंगा, घर-परिवार में ही रहकर भी मैं अर्थोपार्जन नहीं करूंगा, संन्यास नहीं लूंगा, बल्कि घर में ही रहकर यथाशक्ति देश की सेवा करूंगा.कुछ ही दिनों में मैं धर आउंगा तो सारी बातें कहूंगा. यह पत्र तुम किसी को नही दिखलाना, किंतु इस पर विचार कर यथाशीघ्र उत्तर लिखो. मैं तुम्हारे उत्तर की व्यग्रता से प्रतीक्षा करूंगा. फिलहाल ओर अधिक नहीं लिखूंगा.

 राजेंद्र

18 मिरजापुर स्ट्रीट, कलकत्ता

 (भोजपुरी में लिखे गए पत्र का हिंदी में अनुवाद निराला ने किया)