सारंडा: एक्शन कम, प्लान ज्यादा

केस संख्या-1
24 साल की उम्र में ही सीमा आईन किसी प्रौढ़ महिला जैसी दिखने लगी हैं. दुबिल गांव में जिस दिन हमारी मुलाकात उनसे हुई, उसके ठीक एक दिन पहले ही वे अस्पताल से लौटकर आई थीं. उन्हें क्या मर्ज है, पता नहीं चला, लेकिन मर्ज परेशान कर रहा है. फिर भी सीमा को बीमारी से ज्यादा फिक्र आगे की जिंदगी की है. एलकेजी में पढ़ने वाली उनकी बेटी मनीषा का स्कूल छूट चुका है. छोटे बेटे गुलशन का भी क्या होगा, उन्हें समझ में नहीं आ रहा. सीमा सुशील आईन की पत्नी हैं. सुशील को 12 फरवरी, 2012 को नक्सलियों ने घर के सामने बुलाकर मार डाला था. आरोप था कि सुशील पुलिस का मुखबिर था. सच्चाई यह थी कि सुशील स्पेशल पुलिस ऑफिसर के तौर पर काम करता था. पुलिस ने उसे मामूली पगार पर सूचनाएं लाने के लिए रखा था. लेकिन यह काम करते हुए नक्सलियों के हाथों जान गंवाने के बाद सुशील के परिवार का क्या होगा, इससे पुलिस महकमे को कोई मतलब नहीं.

केस संख्या-2
दोधारी से सेलाई गांव तक सड़क बन रही है. नदी की मिट्टी का बेस तैयार करके फटाफट सड़क को पूरा किया जा रहा है. मजदूरों से काम करवा रहे मुंशी मंगल बताते हैं कि जल्द ही यह काम पूरा हो जाएगा. लेकिन केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश को रांची से गए अधिकारियों द्वारा बताया जा चुका है कि यह सड़क पूरी हो चुकी है. झारखंड में पश्चिम सिंहभूम के सारंडा इलाके में इसी तरह की 11 सड़कें बननी हैं जिनकी कुल लंबाई 140 किलोमीटर होगी. अभी दो पर ही काम शुरू हो सका है. कसियापेटा से जोजोगुटू तक की सड़क की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. वह पूरी बन गई, ऐसा कह दिया गया है. लेकिन सच्चाई इससे जुदा है.

केस संख्या-3
चार अक्टूबर को रड़वा टोली में एक महिला की मौत मलेरिया से हो जाती है. उस वक्त हम गांव में ही होते हैं. इस मौत से कुछ देर पहले ही चलंत स्वास्थ्य वाहन गांव से गुजरा है. इस वाहन पर चल रही सिस्टर कुकलेन कंडुलना यह बता कर आगे बढ़ जाती हैं कि वे सिर्फ दवा ही नहीं देते, इमरजेंसी पड़ने पर मरीज को वाहन से अस्पताल भी ले जाते हैं. लेकिन रड़वाटोली की उस महिला के घर के सामने से गुजर रही कंडुलना को खबर नहीं होती कि उस घर में कोई मलेरिया से बस थोड़ी ही देर में दम तोड़ देने की स्थिति में है, उसे उनका सहयोग चाहिए. गांव के एक बुजुर्ग बताते हैं, ‘हमें ऐसे चलंत चिकित्सा वाहनों की कहानी करीब से पता है, क्यों खबर करनी. इनके पास बस पैरासीटामोल या मलेरिया डोज वाला टेबलेट होता है. बच्चे हों या बूढ़े, सबको पैरासीटामोल का टैबलेट पकड़ा दिया जाता है और कहा जाता है कि बच्चा हो तो आधा या एक चौथाई टैबलेट तोड़कर घोल बनाकर पिला दीजिए और जो बड़े हैं पूरा खा लें. हर बीमारी की दो ही दवाइयां अमूमन मिलती हैं- पैरासीटामोल या कुनैन की गोली.

केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने पिछले साल सारंडा के जिन 56 गांवों में सारंडा एक्शन प्लान चलाने की घोषणा और शुरुआत की थी उसमी दुबिल, सेलाई और रड़वाटोलीे शामिल हैं. नक्सली आतंक से त्रस्त राज्यों के लिए सारंडा को नजीर बनाने की मुहिम का यह दूसरा दौर है. पहले चरण में यहां से नक्सलियों को खदेड़ा गया था. अब यहां विकास की गंगा बहाने की योजनाएं हैं. 820 वर्ग किलोमीटर में फैला सारंडा साल के जंगल और खनिजों के मामले में जितना समृद्ध है, विकास के पैमाने पर उतना ही दरिद्र. सारंडा यानी घनघोर गरीबी, परिवहन, सूचना नेटवर्क जैसी चीजों की दयनीय हालत, सरकारी योजनाओं से अनभिज्ञता और बिजली-पानी को तरसती जनता. कोई अजूबा नहीं कि पिछले साल तक यहां नक्सलियों का बोलबाला हुआ करता था. सितंबर, 2011 में सीआरपीएफ और झारखंड पुलिस ने संयुक्त रूप से ऑपरेशन एनाकोंडा चलाकर इस इलाके को नक्सलियों से मुक्त करवाया. अब अपेक्षाकृत शांति है. फिर बड़ी-बड़ी बैठकों के बाद सहमति बनी कि स्थायी शांति और प्रशासन पर जनता का विश्वास हासिल करना है तो इसके लिए इलाके का विकास होना चाहिए. इसके बाद 2011 के आखिर में सारंडा एक्शन प्लान वजूद में आया.

इलाके के लोगों के लिए निःशुल्क बस सेवा उपलब्ध कराए जाने की बात भी है, लेकिन अभी जब सड़कों का ही कुछ पता नहीं तो बस सेवा की कौन कहे

लेकिन जिस सारंडा में एक्शन प्लान चलाने के लिए केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश वहां बार-बार पहुंच रहे हैं, जहां वे हर बार नई घोषणाएं, नए शिलान्यास और बीहड़ में मोटरसाइकिल की सवारी करके वाहवाही बटोर चुके हैं, वहां चंद बदलाव तो जरूर हुए हैं, लेकिन आगे के आसार एक बड़ी हद तक चिंताजनक ही दिखते हैं. काम हो तो रहा है मगर कछुआ रफ्तार से और कहीं-कहीं तो गति पकड़ने से पहले ही उस काम की दुर्गति हो रही है. सारंडा एक्शन प्लान का मकसद है छह पंचायतों के तहत आने वाले 56 गांवों के सात हजार परिवारों का भला. उनके विकास के लिए करीब 240 करोड़ रुपये खर्च किए जाने का खाका तैयार हुआ है. लेकिन बारीकी से पड़ताल की जाए तो पता चलता है कि इन सब आंकड़ों के पीछे तमाम किस्म के खेल और घालमेल हो रहे हैं.

सारंडा एक्शन प्लान के तहत 60 करोड़ की लागत से 10 समेकित विकास केंद्र बनाए जाने की योजना है. पहले केंद्र का शिलान्यास केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने 30 जनवरी, 2012 को दीघा गांव में किया था. तब उन्होंने कहा था कि ये सारे विकास केंद्र नियत समय पर बन जाएंगे. लेकिन दस माह बाद हकीकत यह है कि मामला शिलान्यासी पत्थर तक ही अटककर रह गया है. नींव तक की खुदाई का काम शुरू नहीं हो सका है. इंदिरा आवास योजना के तहत 3,500 आवास बनने थे. इसके तहत 2,400 ग्रामीणों को पहली किस्त दी गई. लेकिन दूसरी किस्त मिली ही नहीं. नतीजा यह हुआ कि एक्शन प्लान के तहत निर्मित आधे-अधूरे कई घर मानसूनी बरसात के दौरान गिर गए. सेलाइ गांव में हमें ढेबो हांसदा का आधा-अधूरा ढहा हुआ घर दिखता है. ग्रामीण सुधीर हेंब्रम कहते हैं, ‘ऐसे कई घर इलाके में मिलेंगे जो बनने के पहले ही ढह गए.’

सारंडा एक्शन प्लान के तहत ही 36 करोड़ रु की लागत से छह वाटरशेड बनाने की भी बात है. लेकिन यह काम भी पूरा नहीं हो सका है. अलबत्ता यह जरूर हुआ है कि एक दूसरी योजना इंटीग्रेटेड एक्शन प्लान के तहत दीघा में बनाए जा रहे दो चेक डैम और लिफ्ट एरिगेशन जैसी चीजें भी सारंडा एक्शन प्लान की उपलब्धियों के खाते में डाल दी गई हैं. दो करोड़ रु की लागत से 10 जल मीनारों की घोषणा भी हुई थी लेकिन इस मोर्चे पर भी काम घोषणा से आगे नहीं बढ़ सका है. एक्शन प्लान के ही तहत बच्चों के लिए निःशुल्क आश्रम आवासीय विद्यालय चलाए जाने की योजना है. लेकिन बाकी तो छोड़िए, विद्यालय के लिए अभी जमीन तक का चयन नहीं हो सका है. सारंडा में कार्यरत स्वयं सहायता समूह से जुड़ी महिलाओं को 75 हजार रु. का बीमा और  उनके बच्चों के ट्यूशन के लिए हर महीने 200 रु दिए जाने थे. अब तक यह प्रक्रिया भी कागजों पर ही है. जंगल की सरप्लस यानी अतिरिक्त जमीन को आदिवासियों में बांटने की भी बात थी, लेकिन इस मामले में भी कुछ नहीं हुआ है. सारंडा में स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था के लिए पाइपलाइन से पानी सप्लाई करने की घोषणा भी हुई. लेकिन मामला यहीं तक अटक कर रह गया. इलाके के लोगों के लिए निःशुल्क बस सेवा उपलब्ध कराए जाने की बात भी है, लेकिन अभी जब सड़कों का ही कुछ पता नहीं तो बस सेवा की कौन कहे.

सारंडा विकास समिति के कुदा चंपिया कहते हैं, ‘हमारे इलाके में दीर्घकालिक विकास के लिए जिन चीजों की जरूरत है उन्हें छोड़कर हमें दूसरी चीजों का लॉलीपॉप दिखाया जा रहा है. बिजली आएगी तो हम स्वरोजगार भी कर सकते हैं लेकिन एक्शन प्लान में बिजली प्राथमिकता नहीं है. जिन 56 गांवों में एक्शन प्लान चलाया जाना है, उनमें कहने को तो 79 स्कूल हैं लेकिन वे खुलते ही नहीं. हमें बच्चों की शिक्षा चाहिए.’ कुदा कहते हैं कि स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में उनके इलाके में लोगों की मौत भेड़-बकरी की तरह ही होती है. वे सवाल करते हैं, ‘यह सब प्राथमिकता में होना चाहिए लेकिन नहीं है. क्यों?’

इलाके में घूमते हुए हम उन कामों से भी दो-चार होते हैं जो सारंडा एक्शन प्लान के नाम पर शुरू हो चुके हैं. इन 56 गांवों में जाने पर आपकी नजर साइकिल, सोलर लालटेन और रेडियो पर जरूर पड़ेगी. ये चीजें स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (सेल) के सौजन्य से कर दी गई है. सेल इलाके में ही स्थित चिडि़या माइंस के जरिए खनन का काम कर रही है. ग्रामीणों में से एक सुधीर हेंब्रम कहते हैं, ‘साइकिल, रेडियो और लालटेन तो सेल ने दिया है, जो उसको वैसे भी कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के तहत देना था. इसे सारंडा एक्शन प्लान में दिखाकर घालमेल का खेल क्यों किया जा रहा है?’ सेल द्वारा वितरित साइकिल, लैंप और रेडियो पर सेल के बड़े स्टिकर बताते हैं कि ये चीजें सीएसआर के तहत बांटी जा रही हैं. जो दस समेकित विकास केंद्र एक्शन प्लान के तहत बनने हैं, उनमें से भी एक का जिम्मा सेल को सीएसआर के तहत ही पूरा करवाने को कहा गया है. इससे एक्शन प्लान के नाम पर फंड के जुगाड़ के घालमेल के संकेत मिलते हैं. सारंडा का दौरा करके लौटे सामाजिक कार्यकर्ता सुनील मिंज कहते हैं, ‘एक्शन प्लान के नाम पर अधिकांश उन्ही फंडों को दिखाया जा रहा है जो बिना किसी एक्शन प्लान के भी नीतिगत आधार पर यहां खर्च किए जाने थे. प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत तो यहां सड़क का निर्माण ऐसे भी होना था. इसको एक्शन प्लान में दिखाने की क्या जरूरत है? सेल को तो इलाके में विकास के कई काम वैसे भी सीएसआर के तहत करने हैं फिर उसके कामों को भी एक्शन प्लान के ही बजट मंे शामिल कर दिखाने का क्या औचित्य है?’

ऐसी बातें सिर्फ सुनील मिंज जैसे सामाजिक कार्यकर्ता या स्थानीय ग्रामीण ही नहीं कह रहे. राज्य के उपमुख्यमंत्री सुदेश महतो भी हाल में जब सेलाइ गांव में हुए एक आयोजन में गए तो उनका कहना था कि सभी पूर्वनिर्धारित केंद्रीय और राज्य सरकार की योजनाओं को ही चलाया जा रहा है लेकिन केंद्र सरकार इसको एक्शन प्लान के तहत अलग से हो रहे कामों की तरह प्रचारित कर रही है, जो गलत है. हालांकि सरकारी बाबू और अधिकारी एक्शन प्लान का बखान करते हुए कुछ और बातें बताते हैं और उन पर गौरवान्वित भी होते हैं. जानकारी दी जाती है कि सारंडा एक्शन प्लान वाले इलाके की छह पंचायतों में पड़ने वाले 56 गांव में से 53 गांवों में अतिरिक्त रोजगार सेवकों की नियुक्ति कर ली गई है. मनरेगा योजना के तहत कार्य करने वाले मजदूरों को नकद भुगतान किया जा रहा है. 56 गांवों में सड़क और तालाब का निर्माण भी मनरेगा के तहत करवाया जा रहा है.  मोबाइल हेल्थ केयर यूनिट द्वारा स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं. स्थानीय निर्दलीय विधायक गीता कोडा कहती हैं, ‘काम की गति धीमी है, यह सच है, लेकिन जयराम रमेश इलाके में काम करना चाहते हैं.’ गीता का आरोप है कि सारंडा के विकास में राज्य सरकार सहयोग नहीं कर रही. चाइबासा के उपायुक्त श्रीनिवासन कहते हैं, ‘अभी सारंडा एक्शन प्लान का आकलन नहीं कीजिए, काम चल रहा है, धीरे-धीरे होगा और बदलाव में वक्त तो लगता ही है.’ अब तक कई काम शुरू नहीं हो पाने से जुड़े सवाल श्रीनिवासन टाल जाते हैं.

हालांकि यह सच है कि एक्शन प्लान के शुरू होने के पहले पुलिस द्वारा माओवादियों के खिलाफ चले ऑपरेशन एनाकोंडा से इस इलाके में कुछ बदलाव तो दिखा है. दीघा, तिरिलपोसी, बलिवा, छोटानगरा जैसे जिन इलाकों में दिन में भी जाने में लोगों की रूह कांपती थी, वहां अब शाम ढलने तक आवाजाही होती है. गांववाले माओवादियों का प्रभाव कम होने से हुए फायदे या नुकसान पर कोई बात नहीं करना चाहते लेकिन कुछ यह जरूर बताते हैं कि रात में अचानक बहुतेरे लोगों का खाना बनाने का फरमान आदि जो मिलता था, उससे मुक्ति मिली हुई है. कुछ ग्रामीणों को यह भी लगता है कि एक्शन प्लान के नाम पर ही सही, इधर की योजना उधर करके ही सही, कम से कम पहली बार सरकारी योजनाएं इलाके में धरातल पर उतरेंगी.

‘स्थानीय स्तर पर चर्चा आम है कि यह एक्शन प्लान लोगों के लिए कम और उन कंपनियों की सुविधा के लिए ज्यादा है जिन्होंने इलाके में एमओयू किए हुए हैं’

लेकिन ऐसी तमाम उम्मीदों के बावजूद इलाके के ग्रामीणों के कुछ बड़े सवाल हैं. स्थानीय पत्रकार राधेश सिंह कहते हैं कि यहां के लोगों में जो थोड़े पढ़े-लिखे हैं उन्हें यह सवाल लगातार मथ रहा है कि एक्शन प्लान के लिए छह प्रखंडों के 56 गांव ही क्यों चुने गए. इन गांवों में सड़क, सोलर लैंप, रेडियो, कम्युनिटी सेंटर, पेयजल आदि की सुविधा हो जाएगी और उसके पास-पड़ोस के गांव उसी तरह आदिम युग में रहेंगे तो इसका दूसरा असर भी पड़ेगा. राधेश कहते हैं, ‘स्थानीय ग्रामीण नौजवानों के बीच यह चर्चा आम है कि दरअसल यह एक्शन प्लान लोगों के लिए कम और उन 19 कॉरपोरेट घरानों को सुविधा पहुंचाने के लिए ज्यादा है जिन्होंने इस इलाके में एमओयू किए हुए हैं और जिन्हें यहां से लोहा निकालने की जल्दबाजी है. इसके अलावा एक छोटे-से दायरे को केंद्रीय पुलिस बलों के 24 कैंपों से पाटने का क्या मतलब है? कल को तो ये पुलिसवाले भी परेशानी का सबब बनेंगे.’

राधेश जिन सवालों को रखते हैं, उसके पीछे ग्रामीण भले ही कोई ठोस आधार न दे रहे हों लेकिन उन्हें एक सिरे से निराधार कहकर खारिज भी नहीं किया जा सकता. जयराम रमेश अब तक चार बार सारंडा पहुंच चुके हैं. उन्होंने बार-बार यह कहा है कि वे कोई राजनीति नहीं कर रहे, न ही उन्हें यहां से चुनाव लड़ना है बल्कि वे आजादी के बाद पहली बार इस पिछड़े इलाके का विकास करने आए हैं और सभी काम सही समय पर पूरा कर दिखाएंगे. लेकिन उनकी ऐसी बातों को भी सरकारी कर्मी गंभीरता से नहीं ले रहे. जानकार बताते हैं कि यदि उनकी कोशिशें गंभीर होतीं और उनका रवैया सख्त होता तो कोई कारण नहीं कि एक साल में सिर्फ दो-तीन-चार योजनाएं किसी तरह धरातल पर उतारी जा पातीं. अपूर्ण सड़क को पूर्ण बताने, बिना पानी वाले बोरिंग को पूर्ण कार्य बताने आदि का साहस बाबू-अधिकारी सारंडा एक्शन प्लान के दौरान सारंडा में नहीं जुटा पाते.

लेकिन यह सब हो रहा है. मनोहरपुर में रहने वाले राजनीतिक कार्यकर्ता सुशील बारला कहते हैं, ‘एक्शन प्लान के नाम पर सिर्फ घोषणाएं हुई हैं, बाकी तो लोगों को बरगलाने के लिए छोटे-मोटे काम कंपनियों के कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के तहत होते रहते हैं.’ उधर, मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग कहते हैं, ‘एक्शन प्लान के तहत कामों में जो गड़बड़ी हो रही है, वह तो है ही अब तक सारंडा निगरानी समिति का गठन भी नहीं किया गया, जबकि केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने झारखंड ह्यूमन राइट्स मूवमेंट के सदस्यों एवं सारंडा के ग्रामीणों से भी बार-बार कहा था कि समिति का गठन करेंगे.’ पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज यानी पीयूसीएल से जुड़े शशिभूषण पाठक भी कहते हैं कि सारंडा में दूसरा मकसद साधे जाने का लक्ष्य है और इसके जरिए केंद्रीय मंत्री दिल्ली में खुद को जांबाज और विकास पुरुष के तौर पर स्थापित करने में लगे हुए हैं.
ऐसी ही कई बातें कई लोग करते हैं. उनकी बातों को भले ही विरोध के दायरे में समेट दिया जाए लेकिन सारंडा एक्शन प्लान वाले इलाके में घूमते हुए यह तो साफ दिखता ही है कि वहां मर्ज कुछ और है और इलाज कुछ और करने की कोशिश की जा रही है.