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माल के आगे बेमानी सवाल

रीटेल में एफडीआई- यानी विदेशी किराना- को लेकर संसद में चली बहस के बीच बीजेपी की यह शिकायत वाजिब है कि संसद के दोनों सदनों में हुए ज्यादातर भाषण खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के खिलाफ थे, लेकिन सरकार की जोड़-तोड़ ने दोनों सदनों में बहस का नतीजा बदल कर रख दिया.  लेकिन क्या खुद बीजेपी खुदरा बाजार में विदेशी निवेश के खिलाफ है? यह याद दिलाने की जरूरत नहीं कि पिछले 20 वर्षों में लगभग सारी राजनीतिक धाराओं ने पूंजी की ताकत के आगे शर्मनाक ढंग से आत्मसमर्पण किया है, चाहे वह देसी हो या विदेशी. 1996 में महज 13 दिन रही बीजेपी की अल्पमत सरकार ने जो गिने-चुने फैसले किए उनमें महाराष्ट्र में एनरॉन की उस बिजली परियोजना को हरी झंडी दिखाने का काम भी शामिल था जिसे खुद बीजेपी हिंद महासागर में दफन कर देने का जोशीला वादा किया करती थी. उसी साल संयुक्त मोर्चा की सरकार के वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने 1991 में मनमोहन सिंह की अपनाई उदारीकरण की नीति को और जोर-शोर से आगे बढ़ाया. 1998 में भारतीय जनता पार्टी जब एनडीए के साथ फिर सत्ता में आई तो उसने अपने राजनीतिक मुद्दों की तरह अपने आर्थिक मुद्दे भी छोड़ दिए- स्वदेशी और स्वदेशी जागरण मंच को भूल कर खुले बाजार की नीति अख्तियार कर ली.

1991 से 1998 के उसी दौर ने यह साबित कर दिया कि भारत में चाहे जो भी सरकार आए, पूंजी के हरकारों को डरने की जरूरत नहीं है. सरकारों का राजनीतिक एजेंडा भले इधर-उधर हो, आर्थिक एजेंडा बिल्कुल एक रहेगा. एनरॉन ने अपने बजट में अपने विरोधियों को समझाने के लिए बाकायदा 20 करोड़ डॉलर की रकम रखी थी. आने वाले दिनों में दूसरी कंपनियों ने भी यह समझदारी दिखाई होगी, इसमें किसको शक है?

दरअसल एफडीआई की यह बहस नए सिरे से याद दिलाती है कि हमारा लगभग पूरा राजनीतिक प्रतिष्ठान उदारीकरण के अर्थप्रवाह में बहने को तत्पर है. किसान-मजदूर और छोटे दुकानदार उसका राजनीतिक एजेंडा भर बनाते हैं, आर्थिक एजेंडा थैलीशाह तय करते हैं. सत्ता में रहते हुए बीजेपी एफडीआई की वकालत करती है और विपक्ष में बैठी कांग्रेस उसके खिलाफ नोटिस देती है, लेकिन सत्ता पलटते जैसे भूमिकाएं पलट जाती हैं. अगर यह सच नहीं होता तो मौजूदा बहस के आधार पर कोई भी विदेशी कंपनी भारत में निवेश को तैयार नहीं होती. उसे लगता कि अगर सरकार बदली तो उसके हितों पर असर पड़ेगा. लेकिन वॉलमार्ट और उस जैसी दूसरी कंपनियों को मालूम है कि अगर 2014 में बीजेपी सत्ता में आ भी गई तो उनकी दुकानें चमकती रहेंगी, उनके हित सुरक्षित रहेंगे, उनके बनाए कोल्ड स्टोरेज में बीजेपी का राजनीतिक एजेंडा भी कहीं पड़ा रहेगा.

यह एक खतरनाक परिदृश्य है. मामला सिर्फ खुदरा बाजार में विदेशी पूंजीनिवेश का नहीं है, उस पूरे अर्थतंत्र की नई जकड़बंदी का है जो हमारी राजनीतिक व्यवस्थाओं से बेपरवाह जानती है कि भारत में उसका अश्वमेध पूरा हो चुका है. वह मनचाहे फैसले करवाती है, मनचाहे तर्क गढ़वाती है और मनमाने ढंग से अपने अधिकारों की व्याख्या करती है. यह देखना कहीं ज्यादा दुखद है कि सिर्फ कांग्रेस जैसी मध्यमार्गी या बीजेपी जैसी दक्षिणपंथी पार्टियां ही इसकी चपेट में नहीं हैं, सामाजिक न्याय का झंडा बुलंद करने वाली तथाकथित समाजवादी धारा के राजनीतिक दल भी इसके शिकार हैं. संसद में लालू यादव एफडीआई के साथ दिखे, मुलायम ने वोट से अलग रह कर सरकार का साथ दिया और मायावती ने राज्यसभा में यह सुनिश्चित किया कि सरकार की हार न हो.

1991 से 1998 के उसी दौर ने यह साबित कर दिया कि भारत में चाहे जो भी सरकार आए, पूंजी के हरकारों को डरने की जरूरत नहीं है

अब इस पूरी प्रक्रिया के आगे विदेशी किराने के फायदे और नुकसान वाली बात बेमानी लगती है. विदेशी किराना आएगा तो किसानों को फायदा होगा, क्योंकि बिचौलिए हट जाएंगे, यह तर्क उदारीकरण के बिल्कुल शुरुआती दिनों की याद दिलाता है जब कहा जाता था कि कोटा और इंस्पेक्टर राज खत्म होने से भ्रष्टाचार भी रुकेगा. मगर आज कोटा और इंस्पेक्टर राज की मामूली रिश्वतखोरी भ्रष्टाचार के खौफनाक आयामों में बदल चुकी है. फिर वॉलमार्ट अगर भारत में दुकानें खोलने की अर्जियां डाल रहा है तो उसके बिचौलिये यहां पहले से सक्रिय हो चुके होंगे जो उसके आने की बाधाएं कम करेंगे.

 इसके समानांतर जो लोग यह तर्क दे रहे हैं कि विदेशी किराना किसानों को और मजबूर और नौजवानों को और पस्तहाल छोड़ देगा, वह पूरे देश को सेल्समैनों का देश बनाकर रख देगा, क्या उन्हें वाकई किसानों, नौजवानों और देश की फिक्र रही है?  दरअसल विदेशी पूंजी से पहले देसी पूंजी बड़े ठाठ से और कुछ ज्यादा निर्मम तरीके से यह काम कर रही है, यह समझना हो तो सेज और दूसरी विराटकाय परियोजनाओं के नाम पर उजाड़े और बेदखल किए जा रहे समुदायों की हकीकत देखनी चाहिए.

दरअसल उदास करने वाली एक बड़ी सच्चाई यह है कि हम सब इस नए दौर में एक बेशर्म किस्म की उपभोक्तावादी संस्कृति के आदी हो चुके हैं.  बाजार अपनी जरूरत के हिसाब से माल बना रहा है और हमारी जरूरत बता कर हमें बेच दे रहा है. विदेशी कंपनियां इसलिए भी भारत आने को तैयार हैं कि उन्हें यह नजर आ रहा है कि एक हड़बड़ाया हुआ भारतीय मध्यवर्ग अपने डेबिट-क्रेडिट कार्ड लिए, अपनी चेकबुक लिए जैसे सब कुछ खरीदने पर आमादा है. भारत की संसदीय राजनीति ने यों ही खाने और दिखाने के दांत अलग-अलग नहीं कर लिए हैं, उसे भी पता है कि बाजार में एक बार माल आएगा तो देसी-विदेशी पूंजी का, मजदूर-किसान हित का सवाल पीछे छूट जाएगा. दरअसल यह संसद एक अधूरे भारत के हितों की प्रतिनिधि रह गई है और इसके लिए एक बड़े भारत को वह बस अपने उपनिवेश की तरह इस्तेमाल कर रही है.     

मरते मुलाजिम

केस- एक
भारतीय पुलिस सेवा के 2002 बैच के अफसर एवं बिलासपुर जिले में पुलिस कप्तान की हैसियत से तैनात राहुल शर्मा ने इस साल 12 मार्च, 2012 को खुदकुशी कर ली थी. उन्होंने पुलिस ऑफिसर्स मेस में अपनी सर्विस रिवॉल्वर से खुद को गोली मारी थी. तब उनकी पत्नी गायत्री शर्मा ने सीधे तौर पर यह आरोप लगाया था कि उनके पति को स्वतंत्र रूप से काम नहीं करने दिया जा रहा था. वैसे पुलिस ने जो सुसाइड नोट बरामद किया था उसमें भी उल्लेख था कि हद से ज्यादा अड़चन पैदा करने वाले बॉस और एक हठधर्मी जज ने उनकी शांति छीनी हुई है. अड़चन पैदा करने वाले बॉस के तौर पर शक की सुई एक वरिष्ठ पुलिस अफसर जीपी सिंह की ओर घूमी, जबकि हठधर्मी जज के बारे में कहा गया कि उसने शहर की यातायात व्यवस्था में सुधार को लेकर राहुल शर्मा को बुरी तरह प्रताड़ित किया था. आत्महत्या से पहले राहुल शर्मा ने चुनावी फंड एकत्रित करने के लिए दबाव बनाए जाने का जिक्र भी किया था. फेसबुक पर एक मित्र से बातचीत में उन्होंने लिखा था, ‘यार बहुत बेगार करवाते हैं. कोई सेल्फ रिसपेक्ट ही नहीं है. इलेक्शन के खर्चों का टारगेट अभी से दे दिया है. क्या इसलिए इतनी पढ़ाई करके आईपीएस बना था.’ पिछले नौ महीने से सीबीआई इस मामले की जांच कर रही है, लेकिन गुत्थी अब भी सुलझी नहीं है.

केस- दो
16 मार्च, 2012 को बिलासपुर जिले के पंचायत विभाग में पदस्थ एक परियोजना अधिकारी मंजू मेहता ने अपने निवास में फांसी लगा ली थी. विभाग में पदस्थ कुछ कर्मी नाम न छापने की शर्त पर बताते है कि मंजू की मौत की जड़ में उनकी अपनी ईमानदारी ही थी. कर्मचारी बताते हैं कि मंजू अपने दो विकलांग भाइयों के साथ-साथ अपनी अशक्त मां की ठीक-ठाक देखरेख कर रही थीं कि उनका तबादला बिलासपुर से 20 किलोमीटर दूर मस्तूरी स्थित जनपद पंचायत में कर दिया गया. यहां उन्हें कार्यपालन अधिकारी के तौर पर कार्य करने का मौका मिला, लेकिन थोड़े ही दिनों बाद उनसे फिर बिलासपुर में शिफ्ट होने के लिए कह दिया गया. अपनी नई पदस्थापना और तरक्की से खुश मंजू बिलासपुर लौटीं तो जरूर लेकिन यहां उससे कार्यपालन अधिकारी के बजाय सहायक परियोजना अधिकारी के तौर पर कार्य लिया जाने लगा. कर्मचारियों की मानें तो मंजू जैसे-तैसे काम तो करती रहीं लेकिन योग्यता और क्षमता पर सवाल खड़ा होता हुआ देख अंतत: उन्होंने आत्महत्या कर ली.

छत्तीसगढ़ में योग्य, ईमानदार और स्वाभिमानी अफसर-कर्मचारियों के प्रताड़ित होने के बाद मौत को गले लगा लेने के अकेले ये दो मामले नहीं हंै. प्रशासन में पारदर्शिता की कमी, भ्रष्टाचार और कार्यस्थल पर तनाव के चलते अफसर और कर्मचारी लगातार ऐसे आत्मघाती कदम उठा रहे हैं. एयरफोर्स में लंबे समय तक वारंट अफसर के पद पर पदस्थ रहे सूर्यकांत वर्मा की बेवा कृष्णा वर्मा का बयान यह समझने के लिए काफी है कि छत्तीसगढ़ में अफसरों और कर्मचारियों को ऐसे कदम उठाने के लिए क्यों बाध्य होना पड़ रहा है.

‘फोर्स से रिटायर होने के बाद जब मेरे पति को जिला सैनिक कल्याण बोर्ड में वेलफेयर आर्गेनाइजर की नौकरी मिली तब भी वे खुश थे. लेकिन जल्द ही हमारी खुशियों को किसी की नजर लग गई. वर्ष 2007 में उनका तबादला रायपुर से जगदलपुर कर दिया गया. इस बीच वे दो-तीन महीनों में जैसे-तैसे समय निकालकर मुझसे और बच्चों से मिलने के लिए रायपुर आते-जाते थे. एक रोज उन्होंने बताया कि राममूर्ति पांडेय नाम के किसी आदमी ने भूतपूर्व सैनिकों और उनकी विधवाओं से पैसे की वसूली के नाम पर उनके खिलाफ झूठी शिकायत की है. इस शिकायत के बाद वे खामोश रहने लगे और फिर एक रोज…’

इतना कहते-कहते कृष्णा वर्मा रोने लगती हैं. फिर कुछ देर बाद खुद को संभालते हुए वे कहती हैं, ‘एक फौजी जो अपने घर और परिवार से लगभग 20 सालों से अलग था उसके अलगाव से उपजे दर्द को सिस्टम में बैठे नुमाइंदों ने कभी समझने की कोशिश नहीं की. वे अपने परिवार के सदस्यों के बीच रहते हुए काम करने के लिए सरकार को चिट्ठी-पत्री लिखते रहे लेकिन बदले में उन्हें झूठे मामले में फंसाने की कोशिश की गई.’ तबादले के लिए लगाया गया आवेदन और जगदलपुर के डिप्टी कलेक्टर निरंजन सिंह ठाकुर की ओर से शिकायत की जांच-पड़ताल के लिए सूर्यकांत वर्मा को जारी किया पत्र तहलका को दिखाते हुए कृष्णा वर्मा बताती हैं, ‘तीन जुलाई, 2012 की सुबह मेरे पति जगदलपुर से रायपुर आए थे और फिर बिना कुछ बोले ही घर से निकल गए थे. हमने काफी खोजबीन की. दोपहर बाद जब बड़ा बेटा तुषार यूं ही छत पर टहलते हुए पहुंचा तो उसने पिता की लाश को स्टोर रूम में लटकते देखा.’

कुछ ऐसी ही व्यथा रायपुर की अनीता शर्मा की भी है. अनीता के पति किशोर शर्मा जल संसाधन विभाग में सब इंजीनियर  थे. अनीता बताती हैं कि उनके पति अभनपुर स्थित जिस जल प्रबंध क्रमांक कार्यालय में पदस्थ थे उसके अधीन काडा (कैनाल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी) की योजनाओं के तहत खेतों को पानी पहुंचाने के लिए नहर का निर्माण कराया जा रहा था. एक रोज जब उन्होंने जांच-पड़ताल की तो पाया कि निर्माण के दौरान जरूरत से ज्यादा सामग्री का इस्तेमाल दिखाया गया है. इसके बाद उन्होंने ठेकेदारों के भुगतान के लिए नोटशीट पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया. अनीता बताती हैं कि अनुविभागीय अधिकारी गोपाल मेमन और एक इंजीनियर केआर साहू की ओर से उनके पति पर हस्ताक्षर करने के लिए दबाव डाला जाता रहा लेकिन वे नहीं माने. दबाव बढ़ता गया और फिर 29 जुलाई, 2012 को जब परिवार के सभी लोग बाहर गए हुए थे तब किशोर शर्मा ने फांसी लगा ली. जो सुसाइड नोट मिला, उसमें  एसडीओपी गोपाल मेमन और इंजीनियर केआर साहू को इस कदम का जिम्मेदार बताया गया था. आरोप है कि मेनन और साहू राजनीतिक रसूख रखते हैं इसलिए उनका जिक्र आने के बाद भी पुलिस ने अब तक उन पर आत्महत्या के लिए दुष्प्रेरित करने का मामला दर्ज नहीं किया है.

इस घटना के बाद 16 अगस्त, 2012 को जब बस्तर के धुर नक्सली इलाके नारायणपुर में पदस्थ एक कार्यपालन यंत्री ने आत्महत्या की तब एक बार फिर खलबली मची और सवाल उठा कि क्यों छत्तीसगढ़ में स्वाभिमान के साथ काम करने वाले अफसरों और कर्मचारियों के लिए  माहौल अनुकूल नहीं है. नारायणपुर के जनपद पंचायत के अधीन ग्रामीण अभियांत्रिकी सेवा (आरईएस) में कार्यपालन यंत्री की हैसियत से पदस्थ रामेश्वर प्रसाद सोनी ने खुद को आग के हवाले कर दिया था. पति की मौत के बाद मध्य प्रदेश के दमोह में जा बसी पत्नी सरिता सोनी का आरोप है कि उनके पति पर विभाग के लोग गलत काम करने के लिए दबाव डालते थे. सोनी की मौत के ठीक दो महीने बाद जब 26 अक्टूबर, 2012 को नारायणपुर के अपर कलेक्टर एच कुजूर ने अपने निवास में फांसी लगाई तब कहा गया कि वे समय पर बतौर आईएएस पद्दोन्नत न होने से हताश थे. उनके कमरे में जो सुसाइड नोट मिला उसमें लिखा था कि वे जाति प्रमाण पत्र संबंधी काम को निर्धारित प्रपत्रों में पूरा न कर पाने की वजह से तनाव में थे. लेकिन बड़ी सच्चाई यह भी है कि जाति प्रमाण पत्र संबंधी काम की जिम्मेदारी सामान्य तौर पर अनुविभागीय अधिकारी यानी एसडीएम ही संभालते हैं. ऐसे में यह काम कुजूर को क्यों दिया गया इसका जवाब किसी जिम्मेदार अफसर के पास मौजूद नहीं है.

गौरतलब यह भी है कि राज्य में काफी समय से अधिकारियों का भी टोटा पड़ा हुआ है. इस वर्ष जुलाई में कांग्रेस विधायक धर्मजीत सिंह ने राज्य में प्रशासनिक सेवा से जुड़े अधिकारियों के बारे में सवाल किया था. इसके जवाब में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने बताया कि राज्य में 178 आईएएस होने चाहिए लेकिन केवल 126 अधिकारियों से ही काम चलाया जा रहा है. मुख्यमंत्री ने यह भी बताया था कि अफसरों की कमी को दूर करने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने केंद्र सरकार से कई मर्तबा संवाद कायम करने की कोशिश भी की लेकिन नतीजा सिफर ही रहा. वहीं नाम न छापने की शर्त पर प्रदेश के एक प्रमुख अफसर कहते हैं, ‘राज्य निर्माण के कुछ समय बाद तक तो अफसर छत्तीसगढ़ को एक चुनौतीपूर्ण लेकिन सीखने लायक जगह मानकर पदस्थापना पाने के लिए इच्छुक रहते थे, लेकिन अब हालात बदल चुके हैं.’ इन अफसर का मानना है कि छत्तीसगढ़ में संविदा यानी ठेके में पदस्थ कुछ अफसरों ने प्रशासनिक ढांचे को चरमराकर रख दिया है, फलस्वरूप अच्छे अफसरों का टोटा बना हुआ है.

केवल बड़े अफसर ही नहीं बल्कि प्रदेश में भृत्य से लेकर सिपाही भी आत्महत्या का रास्ता चुनने के लिए मजबूर हुए हैं. छह मई, 2012 को बालोद की नगरपालिका में पदस्थ एक सफाई कर्मी राजूराम रगड़े ने अर्जुन्दा नगर पंचायत में स्थानांतरण हो जाने के बाद भी ज्वाइनिंग नहीं दिए जाने से क्षुब्ध होकर खुदकुशी कर ली थी. पिथौरा जनपद पंचायत में पदस्थ एक भृत्य लच्छीलाल डडसेना ने भी अफसरों की प्रताड़ना से तंग आकर कार्यालय में ही फांसी लगा ली थी. 30 जुलाई, 2011 को दंतेवाड़ा में पदस्थ एक सिपाही भुवनेश्वर ध्रुव ने खुदकुशी कर ली थी तो अगस्त, 2012 में एक सिपाही ने अपनी सर्विस रायफल से खुद को गोली मार ली थी. इसी महीने महासमुंद थाने में पदस्थ एक आरक्षक अजीत ब्रम्हे ने भी जहर खा लिया था.

वैसे इस बात का कोई ठीक-ठाक रिकॉर्ड शासन के पास मौजूद नहीं है कि प्रदेश में कुल कितने सरकारी कर्मचारी आत्महत्या कर चुके हैं, लेकिन 27 जिलों में मौजूद कुछ प्रमुख थानों से एकत्रित की गई जानकारी के आधार पर मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि वर्ष 2008 से लेकर 2012 तक लगभग 200 कर्मचारी मौत को गले लगा चुके हैं.

प्रशासन अकादमी के पूर्व महानिदेशक बीकेएस रे इन मौतों के लिए सरकार की संवेदनहीन नीति को जिम्मेदार मानते हैं. वे कहते हैं, ‘छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार अपने चरम पर है जिसके चलते प्रशासन का ढांचा पूरी तरह से लीपा-पोती पर आधारित हो गया है. भ्रष्ट कार्यों में लिप्त अफसरों को लगातार गलत काम करने की छूट मिली हुई है’. प्रदेश के एक मनोचिकित्सक डॉक्टर अरुणांशु परियल कहते हैं, ‘अब से पांच साल पहले तक डिप्रेशन यानी अवसाद के कुछ प्रकरण ही उनके सामने आते थे लेकिन वर्ष 2005 के बाद सरकारी मुलाजिमों के अवसाद से गुजरने के प्रकरणों की तादाद बढ़ी हुई लगती है.’

परियल मानते हैं कि छत्तीसगढ़ के सरकारी मुलाजिम दबाव के तहत काम करते हुए गहरे अवसाद को झेलने के लिए मजबूर हैं. जबकि मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव एन बैजेंद्र कुमार का कहना है कि सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों में हर तरह के तनाव को झेलने की क्षमता मौजूद रहनी ही चाहिए. आत्महत्या के ज्यादातर कारण व्यक्तिगत भी होते हैं. लेकिन सच तो यह है कि पदस्थापना में भेदभाव, ईमानदारी की अनदेखी और अनावश्यक दबाव के चलते फिलहाल छत्तीसगढ़ को सरकारी मुलाजिमों की एक नई कब्रगाह के तौर पर भी देखा जाने लगा है.   

विवादों का विश्वविद्यालय

बीते 11 दिसंबर को काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) छात्र संघ बहाली के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया. अदालत ने कहा कि कुलपति को छात्रों की चुनी हुई संस्था निलंबित करने का कोई अधिकार नहीं है. इसके पहले विश्वविद्यालय के वकील ने तर्क दिया था कि छात्र बवाली रहे हैं और छात्र संघ चुनाव में दो छात्रों की मौत हुई थी. इस पर छात्रों की तरफ से चर्चित अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने इन दो छात्रों की मौत के मामले में सीबीसीआईडी द्वारा दाखिल आरोप पत्र पेश कर दिया जिसमें तत्कालीन चीफ प्रॉक्टर और एक पुलिस उपाधीक्षक धारा 302 के तहत आरोपित हैं. यह जानकर मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ भौचक रह गई. अदालत ने लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों के आधार पर चुनाव कराने का निर्देश दिया.

इस पूरे मामले के पीछे की कहानी पर नजर दौड़ाई जाए और इसके साथ ही बीते कुछ महीनों की घटनाओं पर भी गौर किया जाए तो अंदाजा लग जाता है कि देश-दुनिया का प्रतिष्ठित संस्थान इन दिनों अंदरूनी तौर पर किस हाल में है और उसकी ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा कहां खप रहा है. दरअसल बीएचयू में शिक्षक और छात्र साथ मिलकर ज्ञान की लौ जलाने के बजाय टकराव की ज्वाला जलाते देखे जा रहे हैं. 

बीएचयू में हो रही जो लड़ाई देश की शीर्ष अदालत तक गई वह छात्र परिषद और विश्वविद्यालय प्रशासन के बीच है. बीएचयू में करीब 15 साल से छात्र संघ नहीं है. छह साल पहले लिंगदोह कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद यहां एक कवायद शुरू हुई. छात्र परिषद का कॉन्सेप्ट लागू किया गया.  टॉपर छात्रों को नामित करके छात्र परिषद बनी जिसका चेयरमैन कुलपति द्वारा नामित एक प्रोफेसर होता था. चार छात्र परिषदें ऐसे ही चलीं. पांचवीं छात्र परिषद की बारी आई तो बढ़ते दबाव की वजह से मनोनयन के बजाय चयन की प्रक्रिया अपनानी पड़ी. क्लासरूम वोटिंग हुई. पहले हर क्लास में वोटिंग, फिर हर डिपार्टमेंट में, फिर फैकल्टी में और आखिर में आठ सचिवों व एक महासचिव का चयन. 24 अक्टूबर, 2011 को विकास कुमार सिंह महासचिव पद पर चयनित हुए. चयनित छात्र परिषद का रंग-ढंग दूसरा था. हर छोटी-बड़ी जरूरत के लिए धरना-आंदोलन का दौर शुरू हुआ. इसी दरमियान दो-तीन ऐसे मामले हुए जिससे विश्वविद्यालय को सार्वजनिक तौर पर फजीहत झेलनी पड़ी. एक प्रोफेसर पर एक छात्रा द्वारा यौन शोषण का आरोप लगा तो हंगामा, धरना और विरोध प्रदर्शन होने लगा. भाटिया को हटना पड़ा. फरवरी में वेद विभागाध्यक्ष हरीश्वर दीक्षित पर छात्रों को प्रताड़ित करने का आरोप लगा. प्रॉक्टोरियल बोर्ड के हेड प्रो एचसीएस राठौर पर संकाय के छात्रों पर लाठी चार्ज करवाने का आरोप लगा. चयनित छात्र परिषद होने की वजह से छात्रों को एक संगठनात्मक बल मिला हुआ था, नतीजतन प्रॉक्टोरियल हेड प्रो राठौर को माफी मांगनी पड़ी और वेद विभागाध्यक्ष को इस्तीफा देना पड़ा.

अप्रैल आते-आते विश्वविद्यालय ने एक रोज अचानक ही छात्र परिषद के चयनित महासचिव विकास सिंह को पद से बर्खास्त कर दिया, इस तर्क के साथ कि एक साल पहले उन्होंने हॉस्टल में मारपीट की थी. विकास कहते हैं, ‘मैं अगर मारपीट में शामिल था तो तभी कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई क्यों नहीं की गई थी?’ विकास को महासचिव पद से हटाते ही बवाल शुरू हुआ. छात्र कोर्ट पहुंचे, कोर्ट ने विकास को फिर से बहाल करवा दिया. इस बीच छठी छात्र परिषद का भी चुनाव होना था, लेकिन छात्रों ने विश्वविद्यालय की एक बड़ी चाल पर ही उसे मात देने की कोशिश कर दी. बीएचयू ने छात्र परिषद तो बनाई थी लेकिन उसके अध्यक्ष के पद पर प्रोफेसर को ही रखा था. छात्रों ने न्यायालय में गुहार लगाई कि छात्र परिषद का प्रमुख किसी प्रोफेसर को बनाना तर्कसंगत नहीं है. अब शीर्ष अदालत ने उनकी इस गुहार को सुनते हुए इसके पक्ष में फैसला दे दिया है. अदालत ने कहा कि वह कुलपति के न्यायपूर्ण अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं कर रही. राजनीतिशास्त्र विभाग के प्रोफेसर कौशल किशोर मिश्र कहते हैं कि कोर्ट पहुंचकर विश्वविद्यालय अपने ही छात्रों से लड़ने में अपनी ऊर्जा और पैसा बर्बाद कर रहा है. यह तो सामान्य समझ की बात है कि छात्रों का प्रतिनिधि प्रमुख कोई छात्र ही होना चाहिए, वहां प्रोफेसर क्यों?

इससे पहले बीएचयू के मौजूदा हालात पर जानकारी हासिल करने के लिए हम वहां के कुछ प्राध्यापकों से संपर्क करते हैं. उनमें से अधिकांश ‘ऑफ द रिकॉर्ड’ ही बात करने को तैयार होते हैं, आखिर में कौशल किशोर मिश्र मिलते हैं. वे अध्यापक संघ के पूर्व प्रमुख भी रहे हैं. मिश्र कहते हैं, ‘1996 से ही विश्वविद्यालय विचलन के रास्ते पर ही है. जिस विश्वविद्यालय से मुकुट बिहारी लाल, जेबी पटनायक, मधुसूदन रेड्डी, हजारीप्रसाद द्विवेदी, गुरुमुख निहाल सिंह, प्रो केवी राव, नामवर सिंह जैसे विद्वान निकले, वहां से अब नौकरी पा लेने वाले विद्यार्थी भर निकलते हैं. यहां से चंद्रशेखर समेत दस नेता संसद तक पहुंचे, लेकिन पिछले कई सालों से अनुशासन और मान-सम्मान को बढ़ाने के नाम पर छात्र संघ, अध्यापक संघ, कर्मचारी संघ खत्म हैं.’ वे कहते हैं कि इन वर्षों में हुईं अकादमिक व आर्थिक गड़बड़ियों की जांच होनी चाहिए.

लेकिन बीएचयू की ओर से मीडिया से बातचीत के लिए अधिकृत प्रेस, पब्लिक ऐंड पब्लिकेशन सेल के चेयरमैन  डॉ. राजेश कौशल प्रोफेसर मिश्र की बात से इत्तेफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, ‘पिछले 15 साल में विश्वविद्यालय ने अभूतपूर्व तरक्की की है. एक पत्रिका के अनुसार विश्वविद्यालय हमेशा रैंकिंग में नंबर एक से तीन की श्रेणी में रहा है. जहां तक छात्र संघों की या आंतरिक लोकतंत्र की बात है तो लिंगदोह कमेटी की रिपोर्ट को ही आधार बनाकर पिछले कुछ साल से विश्वविद्यालय प्रशासन छात्र परिषद को बहाल किए हुए है लेकिन अब उसमें भी पेंच फंस गया है.’ डॉ. राजेश अधिकृत अधिकारी के तौर पर अपनी बात रख देते हैं और आखिरी में सिर्फ एक पेंच वाली बात कहकर बाकी सब अच्छा बताते हैं.

जिस दिन डॉ. राजेश से बात होती है, उसके एक दिन बाद ही परिसर के प्रशासनिक गलियारे में हड़कंप मचता है. पेशे से वकील अंशुमान त्रिपाठी सूचनाधिकार से एक सूचना प्राप्त करके सार्वजनिक कर देते हैं कि प्रधान महालेखाकार कार्यालय, इलाहाबाद ने यह पाया है कि बीचएयू में लगभग तीन करोड़ रुपये का आर्थिक गोलमाल किया गया. यह घपला सर सुंदरलाल अस्पताल की कीमती मशीनों के रखरखाव और कंप्यूटर सेंटर के लिए तीन सौ कंप्यूटरों की खरीद से जुड़ा हुआ है. यह भी पता चला कि जिस गांधी स्मृति महिला छात्रावास के निर्माण पर रोक लगी हुई थी, विश्वविद्यालय प्रशासन ने वहां भी लकड़ी के काम पर 17.83 लाख रुपये खर्च किए और हेर-फेर करके कुछ अधिकारियों को बेमतलब वाहन भत्ता भी दिया. इस बाबत कुलसचिव प्रो. जीएस यादव का बयान आया कि संबंधित विभागों से स्पष्टीकरण मांगा गया है. उन्होंने एक अजीब-सी बात भी कही कि यह उनके कार्यकाल की गड़बड़ी नहीं है.

यह सिर्फ एक बानगी है. विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र डॉ. अवधेश दीक्षित ने भी पिछले दिनों आरटीआई से बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी को दान में मिली संपत्तियों का ब्योरा मांग विश्वविद्यालय प्रशासन की नींद में खलल डाला है. डॉ. दीक्षित को सूचनाधिकार के तहत मिली सूचनाएं बता रही हैं कि शिक्षा के इस मंदिर की संपत्ति मुंबई, इलाहाबाद, लखनऊ, पीलीभीत, असम, बड़ौदा, पटना, सीतापुर, मिर्जापुर, गया, बदायूं सहित देश के कई इलाकों में फैली हुई है. अच्छी-खासी जमीनें हैं लेकिन अधिकांश जमीनों की पूरी वास्तविक स्थिति से या तो विश्वविद्यालय अनजान है या यह जवाब दे रहा है कि जमीनें थीं तो लेकिन जमींदारी एक्ट में चली गईं. डॉ दीक्षित कहते हैं, ‘दान में मिली जमीन जमींदारी कानून के अंतर्गत कैसे चली जाएगी, यह तो समझ से परे है. दरअसल इसमें खेल है और महामना मदन मोहन मालवीय जी द्वारा अथक परिश्रम से जुटाई गई संपत्ति के साथ कैसे-कैसे खेल हुए हैं, उसका खुलासा भी जल्द होगा.’

अवधेश दीक्षित या अंशुमान त्रिपाठी ही नहीं, काशी हिंदू विश्वविद्यालय में वहां के छात्र रोज नई सूचनाओं की मांग करके अपने संस्थान में हो रही अनियमितताओं की पोलपट्टी खोलने के अभियान में कूदे हुए हैं. इससे विश्वविद्यालय प्रशासन भी परेशान है. प्रेस, पब्लिक एंड पब्लिकेशन सेल के चेयरमैन डॉ. राजेश कहते हैं, ‘सूचनाधिकार के तहत जानकारी मांगने के लिए रोजाना औसतन तीन पत्र तो हमारे पास ही पहुंचते हैं. इससे अतिरिक्त कार्यबोझ बढ़ा है लेकिन हम सूचना देते हैं.’

बात सिर्फ सूचनाधिकार के इस्तेमाल की ही नहीं है. विश्वविद्यालय में इन दिनों छात्रों ने दूसरे तरीके अपना लिए हैं जिनसे विश्वविद्यालय के रसूखदार परेशान हैं. हालिया चर्चित मामला सरदार वल्लभभाई पटेल नामक छात्रावास और वहां के तत्कालीन वार्डन विनय सिंह से जुड़ा हुआ है. इस मुद्दे को लेकर छात्रों का एक बड़ा खेमा इन दिनों बेहद सक्रिय है. विकास सिंह कहते हैं, ‘पटेल छात्रावास में रहने वाले कुछ छात्रों ने मेस महाराज यानी रसोइये को पेमेंट करने के लिए अपने पास से पैसे जुटाकर एक लाख दो हजार रुपये दिए. बाद में कुछ छात्रों ने छात्रावास के दोनों मेस महाराजों का वीडियो इंटरव्यू किया कि आपको कितने पैसे मिले. यह बात सामने आई कि करीब 30-40 हजार रुपये का ही भुगतान हुआ. बवाल हुआ तो विश्वविद्यालय प्रशासन को जांच के लिए प्रो. चंद्रकला पाड़िया कमेटी बनानी पड़ी.’ कमेटी की रिपोर्ट अभी तक नहीं आई है, छात्र लगातार पत्र लिखकर रिपोर्ट मांग रहे हैं. अब इस मामले को लेकर भी वे आरटीआई का इस्तेमाल करने वाले हैं.

सात अक्टूबर, 2012 को बीएचयू हिंसा, आगजनी, जानलेवा हमले की कोशिश और इन सबके बीच छात्रों पर निर्मम लाठीचार्ज का केंद्र बनकर भी चर्चा में आया. बात की शुरुआत परिसर में ही चल रहे एक एनसीसी कैंप में छात्रों के दो गुटों के बीच हाथापाई से हुई और परिणति हॉस्टल के वार्डन अतुल त्रिपाठी को जिंदा जला देने की कोशिश और पत्रकारों समेत कुछ लोगों की मोटरसाइकिलें फूंक दिए जाने के रूप में हुई. हिंसा और आगजनी की वजह विश्वविद्यालय प्रशासन के निजी सुरक्षा कर्मियों, जिन्हें प्रॉक्टोरियल गार्ड कहते हैं, द्वारा अनावश्यक रूप से हॉस्टल में घुसकर लाठीचार्ज करना बताया गया. प्रॉक्टोरियल बोर्ड ने कहा कि उनके लोग नहीं बल्कि इसमे पुलिसवाले शामिल थे. बीएचयू में पेंच यह है कि प्रॉक्टोरियल गार्ड भी पुलिस की तरह खाकी वर्दी पहनते हैं और पूरी तरह से पुलिसवाले ही लगते हैं, इसलिए कई मौकों पर उनके और पुलिसवालों के बीच फर्क करना मुश्किल भी हो जाता है. आनन-फानन में पहले प्रॉक्टोरियल बोर्ड ने पुलिस पर ठीकरा फोड़ा, पुलिस ने प्रॉक्टोरियल बोर्ड को दोषी ठहराया और इस बीच आठ छात्रों के खिलाफ जांच की प्रक्रिया शुरू हो गई. इस घटना से संकेत मिला कि अंदर ही अंदर बीएचयू परिसर सुलग रहा है और किसी छोटी-सी बात पर भी जान लेने-देने की नौबत आ सकती है.

इन मसलों पर वर्तमान कुलपति डॉ. लालजी सिंह से बात करने की कोशिशें विफल रहीं. एक वर्ग का कहना है कि वैज्ञानिक होने के कारण कुलपति की अपनी व्यस्तताएं हैं इसलिए वे विश्वविद्यालय के तमाम घटनाक्रम पर उस कदर तवज्जो नहीं दे पाते. फिर भी प्रशासनिक प्रमुख होने के नाते उनकी जवाबदेही तो बनती ही है.

छोटे चैनलों के बड़े खेल

भारत में न्यूज चैनल क्रांति का एक लगभग अचर्चित पहलू देश भर में उभर आए दर्जनों क्षेत्रीय-भाषाई न्यूज चैनल हैं जिनके कामकाज और भूमिका के बारे में राष्ट्रीय मीडिया में बहुत कम बात होती है. देश के अधिकांश राज्यों खासकर बड़े राज्यों में ऐसे क्षेत्रीय न्यूज चैनलों की संख्या न सिर्फ लगातार बढ़ती जा रही है बल्कि वे उन राज्यों के राज-समाज और राजनीति के एजेंडे को भी प्रभावित कर रहे हैं. इसका सबूत यह है कि अधिकांश क्षेत्रीय-भाषाई न्यूज चैनलों के मालिक सीधे या परोक्ष तौर पर उन राज्यों के बड़े नेता, मुख्यमंत्री या ताकतवर मंत्री और क्षेत्रीय दल हैं. इसके अलावा इन क्षेत्रीय-भाषाई न्यूज चैनलों के मालिकों में बड़े बिल्डर, चिट फंड कंपनियां, शराब व्यापारी और बड़े ठेकेदार, स्थानीय व्यापारी आदि शामिल हैं. इन चैनलों में लगा पैसा और उसका स्रोत हमेशा से सवालों के घेरे में रहा है. उनका मकसद और कामकाज के तौर-तरीके भी संदिग्ध रहे हैं जिसमें ब्लैकमेल से लेकर अपने वैध-अवैध धंधों को राजनीतिक संरक्षण और राज्य सरकारों से तमाम रियायतें हासिल करना शामिल है.

नतीजा सामने है. क्षेत्रीय चैनल खबरों की मंडी लगाकर बैठ गए हैं और खुलेआम खबरों का सौदा कर रहे हैं. यही नहीं, राज्य सरकारें भी बे-हिचक खबरें खरीद कर अपना चेहरा चमकाने में लगी हुई हैं. ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री रमन सिंह की सरकार ने 2007 से लेकर 2011 के बीच सहारा, जी-24, साधना और ईटीवी जैसे कई क्षेत्रीय न्यूज चैनलों को सरकारी खजाने से लाखों-करोड़ों रुपये देकर खबरें खरीदी हैं. इसके लिए इन चैनलों ने राज्य सरकार को बुलेटिन-विशेष कार्यक्रमों से लेकर लाइव प्रसारण तक और टिकर और फोन-इन आदि में जगह देने की कीमत के साथ प्रस्ताव दिया और राज्य सरकार ने उसे खुशी-खुशी खरीदा.

मजे की बात यह है कि पिछले साल इसी छत्तीसगढ़ सरकार ने ईटीवी पर विज्ञापनों के लिए ब्लैकमेल करने का आरोप लगाया था. लेकिन ताजा खुलासों से साफ है कि रमन सिंह सरकार बिना किसी शर्म-संकोच के ईटीवी समेत सभी क्षेत्रीय न्यूज चैनलों पर खबर/कार्यक्रम खरीदने में लगी हुई थी. यही नहीं, सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि राज्य सरकार ने सरकारी खजाने का इस्तेमाल क्सलियों/माओवादियों के खिलाफ प्रोपेगंडा युद्ध चलाने में न्यूज चैनलों पर खबरें और समाचार कार्यक्रम खरीदकर भी किया. लेकिन उससे भी अफसोस की बात यह है कि न्यूज चैनलों को बिकी हुई ‘खबरें’ दिखाने में कोई लाज-शर्म नहीं महसूस हुई.

लेकिन यह सिर्फ छत्तीसगढ़ तक सीमित मामला नहीं है और न ही यह सिर्फ न्यूज चैनलों तक सीमित है. इस खुला खेल फर्रुखाबादी में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय अखबारों के स्थानीय संस्करण भी उतने ही जोर-शोर से शामिल हैं. सच यह है कि अधिकांश राज्यों में क्षेत्रीय चैनलों या अखबारों और राज्य सरकारों के बीच खरीद-बिक्री का यह धंधा कहीं खुलेआम और कहीं दबे-छिपे जारी है. यही नहीं, इन चैनलों और अखबारों में से कई के मालिकों ने चैनल या अखबार के प्रभाव का इस्तेमाल इन राज्यों में माइनिंग सहित कई दूसरे व्यावसायिक धंधों को आगे बढ़ाने में किया है.

यानी राज्य सरकारों, ताकतवर व्यावसायिक समूहों और क्षेत्रीय न्यूज चैनलों व अखबारों के बीच एक ऐसा गठजोड़ बन गया है जिसमें खबरों को सत्ता और ताकतवर व्यावसायिक घरानों के अनुकूल बनाने से लेकर तोड़ने-मरोड़ने, दबाने और छिपाने का खेल धड़ल्ले से चल रहा है. इस कारण दर्शकों तक न सिर्फ वास्तविक खबरें नहीं पहुंच रही हैं बल्कि उन्हें बिकी हुई खबरें परोसी जा रही हैं. उन्हें अंधेरे में रखकर कीमती संसाधनों की लूट जारी है. इससे चैनलों व अखबारों और मुख्यमंत्रियों का धंधा भले चोखा चल रहा हो लेकिन यह बताने की जरूरत नहीं है कि इससे लोकतंत्र कितना गरीब और कमजोर होता जा रहा है.

आम सहमति से दुर्गति !

मध्य प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा पिछले काफी समय से मजबूत दिख रही थी, लेकिन हाल ही में पार्टी का सियासी पहिया कुछ ऐसा घूमा कि अचानक पार्टी को अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव की राह मुश्किल लगने लगी है. भाजपा में हुई इस हलचल के पीछे पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी (सूरजकुंड) बैठक की अहम भूमिका है. इसमें पार्टी ने अपने संविधान में संशोधन के जरिए नितिन गडकरी को दूसरी बार राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का रास्ता खोला था. 

इसी संशोधन के चलते मध्य प्रदेश में प्रभात झा का भी लगातार दूसरी बार पार्टी अध्यक्ष बनना तय माना जाने लगा. साथ ही उन्हें आम सहमति से अध्यक्ष बनवाने की कोशिश शुरू हो गई. इसके लिए प्रदेश संगठन में भी आम सहमति से चुनाव करवाने की कसरत शुरू हुई. और यहीं से पार्टी को एहसास हुआ कि जिस गुटबाजी को वह साधारण मानकर चल रही थी वह भीतर ही भीतर किस हद तक जड़ें जमा चुकी है. दरअसल प्रदेश संगठन में आम राय से चुनाव करवाने को लेकर खुद पार्टी के बड़े नेताओं में विरोध है. भाजपा की सोच थी कि वह विधानसभा के चुनावी साल में इस रणनीति के तहत संगठन के चुनाव कराके गुटबाजी से बच निकलेगी. मगर इसके उलट जिलों में अपने-अपने नुमाइंदे फिट करने के चक्कर में यहां के कई सांसद और काबीना मंत्री पार्टी की गुटबाजी सड़कों तक ले आए. हालात यहां तक बन गए कि पार्टी ने संगठन चुनावों को बीच में ही रोकना मुनासिब समझा और एक दर्जन जिलों में अध्यक्ष बनाए बिना ही प्रदेश अध्यक्ष बनाने का फैसला कर लिया.

इस पूरे परिदृश्य का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि अपने पक्ष में आम राय बनाने की कवायद में खुद प्रदेश अध्यक्ष झा की ही नहीं चली. हालांकि दिल्ली हाईकमान ने झा की ताजपोशी के लिए काफी पहले ही हरी झंडी दिखा दी थी. लेकिन पार्टी में उनके पक्ष में आम सहमति बनाने के खिलाफ ऐसा माहौल बना कि भाजपा की पूरी रणनीति धरी की धरी रह गई. हालात यहां तक बिगड़े कि झा अपने राजनीतिक गृहनगर ग्वालियर में आम सहमति से भाजपा का जिला अध्यक्ष नहीं बनवा सके. वरिष्ठ पत्रकार ब्रजेश राजपूत बताते हैं, ‘झा की अति महत्वाकांक्षा कई नेताओं को रास नहीं आ रही है. यही वजह है कि अपने-अपने क्षेत्रों के इन ताकतवर नेताओं ने झा के खिलाफ मोर्चाबंदी की और उन्हें इस चुनाव में अलग-थलग कर दिया.’

विधानसभा चुनाव को देखते हुए कई क्षत्रप नेताओं ने संगठन में अपनी गोटियां इस ढंग से जमानी चाहीं कि टिकट के लिए होने वाली रायशुमारी में उनका पलड़ा भारी पड़े. मगर पार्टी के भीतर आम सहमति बनाने का यह फॉर्मूला कुछ ऐसा पिटा कि राष्ट्रीय चुनाव अधिकारी थावरचंद गहलोत के गृहनगर शाजापुर में भी जिला अध्यक्ष का चुनाव नहीं हो पाया. वहीं नीमच (पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा बनाम अन्य), इंदौर (सांसद सुमित्रा महाजन बनाम मंत्री कैलाश विजयवर्गीय) तथा देवास (सांसद कैलाश जोशी बनाम मंत्री तिकोजीराव पवार) सहित शिवपुरी और खरगोन आदि जिलों में भी समन्वय बनाने वाले नेताओं के बीच रस्साकसी के चलते चुनाव नहीं हो पाया.

दरअसल 2013 के विधानसभा चुनाव के पहले मध्य प्रदेश में भीतर ही भीतर कई किस्म के खेल चल रहे हैं. इन दिनों कई नेता मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को राष्ट्रीय फलक पर पहुंचाने की कोशिश में हंै. हाल ही में उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने बयान दिया कि जिन नेताओं में प्रधानमंत्री बनने की योग्यता है उनमें चौहान भी शामिल हैं. दरअसल ऐसा कहकर विजयवर्गीय जैसे दूसरी पंक्ति के तमाम बड़े नेता सूबे की सियासत में एक खाली जगह बनाना चाहते हैं. वे संगठन में अधिक से अधिक अपने समर्थकों को रखना चाहते हैं ताकि जब युद्ध का आखिरी पड़ाव आए तो चौहान के विकल्प के तौर पर उनके पीछे बड़ी सेना दिखे. दूसरी तरफ चौहान अपनी कूटनीतिक चालों के चलते अब तक इन नेताओं के बीच मुख्यमंत्री बनने की संभावनाओं को डिब्बे में बंद करते आए हैं. शीर्ष पदस्थ सूत्रों के मुताबिक उन्होंने संगठन चुनाव में भी प्रांतीय संगठन मंत्री अरविंद मेनन को आगे करके खुद पर्दे के पीछे से केंद्रीय भूमिका निभाई है. इस कड़ी में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की पसंद के नाम पर बड़ी संख्या में चौहान समर्थकों को ही जिला अध्यक्ष के पदों पर बिठा दिया गया. लेकिन पार्टी में मची खलबली का खुलासा तब हुआ जब बुंदेलखंड और निमाड़ इलाके से इन धांधलियों की शिकायतें केंद्रीय संगठन तक पहुंचाने के बाद पार्टी के राष्ट्रीय चुनाव अधिकारी थावरचंद गहलोत भी मैदान में कूद पड़े. उन्होंने प्रांतीय चुनाव अधिकारी नंद कुमार सिंह चौहान को तलब किया और मीडिया में साफ किया कि यह चुनाव पार्टी संविधान के मुताबिक नहीं है.

साफ है कि आम राय से चुनाव कराने के मामले में पार्टी में एक राय नहीं है. इसी के चलते सांसद सुमित्रा महाजन से लेकर पूर्व प्रदेश संगठन मंत्री कप्तान सिंह सोलंकी तक कई नेता संगठन के खिलाफ बिगुल बजा रहे हैं. पार्टी के पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष रघुनंदन शर्मा कहते हैं, ‘आम सहमति के नाम पर कार्यकर्ताओं की भावनाओं का गला घोंटा जा रहा है. इसी का नतीजा है कि ऐसे प्रदेश अध्यक्ष बन रहे हैं जिन्होंने कभी वार्ड के चुनाव भी नहीं जीते.’

प्रदेश भाजपा में पहले मतदान से चुनाव कराने का रिवाज था और आखिरी चुनाव (1999) में पूर्व नेता प्रतिपक्ष विक्रम वर्मा ने शिवराज सिंह चौहान को भारी मतों से हराया था. लेकिन सत्ता (2003) में आते ही पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र खत्म हो गया और प्रदेश अध्यक्ष दिल्ली से थोपे जाने लगे. पार्टी के एक पूर्व अध्यक्ष कहते हैं, ‘ऐसा इसलिए कि प्रदेश भाजपा पूरी तरह अब संघ की गिरफ्त में है.’ वहीं बीते कई सालों से लगातार सत्ता में रहने के चलते भाजपा के जमीनी कार्यकर्ता राजनीतिक और आर्थिक तौर पर काफी ताकतवर हुए हैं और चूंकि प्रदेश में सत्तारुढ़ दल के जिला अध्यक्ष मंत्री के बराबर हैसियत रखते हैं इसलिए ये कार्यकर्ता पार्टी में आम सहमति के फार्मूले को पचा नहीं पा रहे हैं. द्वंद्व और दुविधा में उलझी पार्टी को फिलहाल इस बात का डर है कि कार्यकर्ताओं के भीतर दबा यह गुबार कहीं चुनाव के वक्त न फूट पड़े.

पंडित रवि शंकरः अस्त हुआ रवि…

पंडित रवि शंकर के देहांत के साथ भारत ने विदेशों में अपना एक सांस्कृतिक राजदूत खो दिया है. यह तथ्य महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है कि उनके कारण ही भारतीय शास्त्रीय संगीत को पहले पहल विदेशों में मान्यता मिलना आरंभ हुई थी, जो आज भी जारी है. इस लिहाज से देखा जाए तो भारत की सांस्कृतिक ख्याति को पश्चिम में व्यापक तौर पर स्वीकार्य बनाने में पंडित रविशंकर का नाम अग्रणी है.

मैहर घराने के अप्रतिम गुरु उस्ताद अलाउद्दीन खां के योग्य शिष्य के रूप में पंडित रवि शंकर ने एक ऐसी परंपरा की लीक रची जिसकी सबसे बड़ी सफलता आगे जाकर यह साबित हुई कि पारंपरिक कलाओं में शिखर पर पहुंचने का स्वप्न देखने वाली संगीत कला को असीम ऊंचाइयां हासिल हुईं. पंडित जी के कारण ही सितार जैसे वाद्य के बहाने तंत्र वाद्य की परिभाषा में भी व्यापक परिवर्तन संभव हुआ. कला भाषा में कई प्रयोगों और घरानेदारों के प्रति सम्मान भाव रखने के बावजूद उनके कुछ नया कर पाने का जोखिम उठाने के चलते सितार की पारंपरिक दुनिया एकाएक बदल गई.

पंडित रवि शंकर की कला यात्रा के संदर्भ में एक और बात जानना महत्वपूर्ण है. उनके साथ जिस दूसरे महत्वपूर्ण कलाकार उस्ताद अली अकबर खां की प्रतिभा सरोद पर अपना हुनर विकसित कर रही थी वह भी उस्ताद अलाउद्दीन खां के संरक्षण में थी जो दो मित्र या सहोदर बंधुओं को एक साथ ही शास्त्रीयता की तालीम देने में समर्पित थे. यह देखना भी यहां प्रासंगिक होगा कि पंडित रवि शंकर में परंपरा और आधुनिकता के जिस सहमेल का सबसे विकसित रूप पाया जाता रहा है वह कहीं न कहीं शुरुआती दिनों में उनके बड़े भाई पंडित उदय शंकर के नाट्य दल में सम््मिलित होने के कारण ही अपना रूपाकार पा सका था. बाद में धीरे धीरे जिस तरह पंडित जी ने अपना सांगीतिक व्यक्तित्व गढ़ा वह एक इतिहास है या शायद हम कह सकते हैं कि इतिहास से भी ज्यादा वह कहीं न कहीं अपने योगदान को मिथकीय आख्यान में बदलने की सामर्थ्य रखता है.

पंडित रवि शंकर की दुनिया में एक बड़ा समय वह आया जब पश्चिम के जगत ने उनकी कला में दिलचस्पी दिखाई. बुर्जुआ समझी जाने वाली जैज और रॉक संगीतकारों की जमात ने रवि शंकर के संगीत में वह स्वर औैर असर पाया जिसके चलते पहली बार भारतीय संगीत को भी अपनी आत्मा के विस्तार के लिए विदेशों का मौसम रास आया. यह बात अपने में खासी महत्वपूर्ण है कि इन लोगों ने सितार के स्वराघात और उसके व्याकरण में अपने पाश्चात्य संगीत के सुरों को भी कहीं नजदीक से झंकृत होते हुए देखा. फिर क्या था, सितार और भारतीय संगीत दोनों ही पश्चिम के लिए एक जाना-पहचाना नाम बनते चले गए. उनके संगीत के साक्षी और सहयोगी बनने में विख्यात वायलिन वादक यहुदी मैन्यूहिन जैसे लोग शामिल थे. पश्चिम के संगीतकारों और रसिकों की एक बड़ी जमात में  जैज के कलाकार जॉन कॉल्ट्रेन, ज्यां पियरे रैम्पल, मैस्टी स्लाव राेस्ट्रोप्रोविच, फिलिप ग्लॉस और जॉर्ज हैरिसन जैसे मूर्धन्य उनके प्रशंसकों की सूची में शामिल हैं. यह पंडित रवि शंकर की कला की बड़ी सफलता है कि लंदन के सिंफनी ऑर्केस्ट्रा और न्यूयॉर्क के फिलहाॅर्माेनिक ने एंड्रेप प्रेविन तथा जुबिन मेहता जैसे अप्रतिम संगीतकारों के सान्निध्य में पंडित रवि शंकर के सहयोग से ऑर्केस्ट्रा की कुछ बेहद आकर्षक धुनों की रचना की जो आज भी संगीत की एक अमूल्य धरोहर के रूप में गिनी जाती हैं. पंडित जी ने हिंदी सिनेमा के लिए भी संगीत दिया और बेहद कलात्मक ढंग से संगीत देने में वे सफल रहे. उनके द्वारा संगीत निर्देशित फिल्मों में नीचा नगर, अनुराधा, गोदान और मीरा जैसे फिल्मों को याद किया जा सकता है.

रिचर्ड एटनबरो की महान फिल्म गांधी के संगीत निर्देशन के लिए उन्हें ऑस्कर के लिए भी नामित किया गया था. सत्यजीत रे की अमर फिल्मों की श्रृंखला अप्पू त्रयी के लिए भी अपने प्रयोगधर्मी संगीत के लिए 50 के दशक में पंडित रवि शंकर का नाम बेहद उल्लेखनीय अर्थों में उभरा.

जीवन के अंतिम दशक में भी पंडित रवि शंकर सक्रिय और उदग्र बने रहे. उनका संगीत दरअसल शाश्वत का संगीत है, जिसकी गूंज शताब्दियों के आर-पार भी अपना स्वर बिखेरने में पूरी तरह से सक्षम है. उनका सितार आलाप, जोड़, झाला भर का सितार नहीं है, वरन वह इन सबके माध्यम से होकर गुजरता हुआ कहीं जीवन के विचार का भी संगीत है. यह अकारण नहीं है कि उन्होंने संगीत के माध्यम से वैश्विक परिदृश्य पर जो सांस्कृतिक हस्तक्षेप किया उसी के चलते आज हमारे देश का शास्त्रीय संगीत कहीं ज्यादा आदर की निगाह से देखा जाने लगा है. यह पंडित रवि शंकर ही कर सकते थे कि एक ओर भैरवी और बिहाग जैसे रागों में नवाचार भरते हुए वे उसी क्षण दूसरी ओर कम प्रचलित रागों मसलन श्री पटमंजरी और सरस्वती में भी सहजता से मौलिकता का सृजन करते थे.

पंडित रवि शंकर को संगीत के लिए दुनिया भर के प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले जिनमें ग्रैमी से लेकर मैगसायसाय तक शामिल हैं. इसके अलावा भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से भी उन्हें विभूषित किया गया. आज जब पूरी दुनिया विश्वग्राम में बदल चुकी है, यह उनके संगीत की अप्रतिम सफलता ही है कि वे अपनी शर्तों पर पूरब और पश्चिम का मिलन 50 वर्ष पूर्व ही करवा चुके थे. आगे भी उनका नाम इसलिए याद किया जाएगा कि संगीत के साथ-साथ उसके शास्त्र, अंतरानुशासन और बारीकियों को वैश्विक चेहरा दिलाने में वे सबसे पहले भारतीय कलाकार के रूप में सामने आए और किवदंति बनते चले गए.

छोटे चैनलों के बड़े खेल

खबरों की सौदेबाजी का धंधा लोकतंत्र को बहुत महंगा पड़ रहा है
भारत में न्यूज चैनल क्रांति का एक लगभग अचर्चित पहलू देश भर में उभर आए दर्जनों क्षेत्रीय-भाषाई न्यूज चैनल हैं जिनके कामकाज और भूमिका के बारे में राष्ट्रीय मीडिया में बहुत कम बात होती है. देश के अधिकांश राज्यों खासकर बड़े राज्यों में ऐसे क्षेत्रीय न्यूज चैनलों की संख्या न सिर्फ लगातार बढ़ती जा रही है बल्कि वे उन राज्यों के राज-समाज और राजनीति के एजेंडे को भी प्रभावित कर रहे हैं. इसका सबूत यह है कि अधिकांश क्षेत्रीय-भाषाई न्यूज चैनलों के मालिक सीधे या परोक्ष तौर पर उन राज्यों के बड़े नेता, मुख्यमंत्री या ताकतवर मंत्री और क्षेत्रीय दल हैं. इसके अलावा इन क्षेत्रीय-भाषाई न्यूज चैनलों के मालिकों में बड़े बिल्डर, चिट फंड कंपनियां, शराब व्यापारी और बड़े ठेकेदार, स्थानीय व्यापारी आदि शामिल हैं. इन चैनलों में लगा पैसा और उसका स्रोत हमेशा से सवालों के घेरे में रहा है. उनका मकसद और कामकाज के तौर-तरीके भी संदिग्ध रहे हैं जिसमें ब्लैकमेल से लेकर अपने वैध-अवैध धंधों को राजनीतिक संरक्षण और राज्य सरकारों से तमाम रियायतें हासिल करना शामिल है.

नतीजा सामने है. क्षेत्रीय चैनल खबरों की मंडी लगाकर बैठ गए हैं और खुलेआम खबरों का सौदा कर रहे हैं. यही नहीं, राज्य सरकारें भी बे-हिचक खबरें खरीद कर अपना चेहरा चमकाने में लगी हुई हैं. ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री रमन सिंह की सरकार ने 2007 से लेकर 2011 के बीच सहारा, जी-24, साधना और ईटीवी जैसे कई क्षेत्रीय न्यूज चैनलों को सरकारी खजाने से लाखों-करोड़ों रुपये देकर खबरें खरीदी हैं. इसके लिए इन चैनलों ने राज्य सरकार को बुलेटिन-विशेष कार्यक्रमों से लेकर लाइव प्रसारण तक और टिकर और फोन-इन आदि में जगह देने की कीमत के साथ प्रस्ताव दिया और राज्य सरकार ने उसे खुशी-खुशी खरीदा.

मजे की बात यह है कि पिछले साल इसी छत्तीसगढ़ सरकार ने ईटीवी पर विज्ञापनों के लिए ब्लैकमेल करने का आरोप लगाया था. लेकिन ताजा खुलासों से साफ है कि रमन सिंह सरकार बिना किसी शर्म-संकोच के ईटीवी समेत सभी क्षेत्रीय न्यूज चैनलों पर खबर/कार्यक्रम खरीदने में लगी हुई थी. यही नहीं, सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि राज्य सरकार ने सरकारी खजाने का इस्तेमाल क्सलियों/माओवादियों के खिलाफ प्रोपेगंडा युद्ध चलाने में न्यूज चैनलों पर खबरें और समाचार कार्यक्रम खरीदकर भी किया. लेकिन उससे भी अफसोस की बात यह है कि न्यूज चैनलों को बिकी हुई ‘खबरें’ दिखाने में कोई लाज-शर्म नहीं महसूस हुई.

लेकिन यह सिर्फ छत्तीसगढ़ तक सीमित मामला नहीं है और न ही यह सिर्फ न्यूज चैनलों तक सीमित है. इस खुला खेल फर्रुखाबादी में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय अखबारों के स्थानीय संस्करण भी उतने ही जोर-शोर से शामिल हैं. सच यह है कि अधिकांश राज्यों में क्षेत्रीय चैनलों या अखबारों और राज्य सरकारों के बीच खरीद-बिक्री का यह धंधा कहीं खुलेआम और कहीं दबे-छिपे जारी है. यही नहीं, इन चैनलों और अखबारों में से कई के मालिकों ने चैनल या अखबार के प्रभाव का इस्तेमाल इन राज्यों में माइनिंग सहित कई दूसरे व्यावसायिक धंधों को आगे बढ़ाने में किया है.

यानी राज्य सरकारों, ताकतवर व्यावसायिक समूहों और क्षेत्रीय न्यूज चैनलों व अखबारों के बीच एक ऐसा गठजोड़ बन गया है जिसमें खबरों को सत्ता और ताकतवर व्यावसायिक घरानों के अनुकूल बनाने से लेकर तोड़ने-मरोड़ने, दबाने और छिपाने का खेल धड़ल्ले से चल रहा है. इस कारण दर्शकों तक न सिर्फ वास्तविक खबरें नहीं पहुंच रही हैं बल्कि उन्हें बिकी हुई खबरें परोसी जा रही हैं. उन्हें अंधेरे में रखकर कीमती संसाधनों की लूट जारी है. इससे चैनलों व अखबारों और मुख्यमंत्रियों का धंधा भले चोखा चल रहा हो लेकिन यह बताने की जरूरत नहीं है कि इससे लोकतंत्र कितना गरीब और कमजोर होता जा रहा है.

मूल पर महाभारत

उत्तराखंड में सरकार द्वारा विधानसभा में दिया गया एक आश्वासन उत्तराखंड में एक नए टकराव के लिए चिंगारी साबित हो सकता है. पिछले दिनों संसदीय कार्य मंत्री इंदिरा हृदयेश ने विधान सभा में बयान दिया कि राज्य बनने के दिन नौ नवंबर 2000 से जो भी व्यक्ति उत्तराखंड में रह रहा है वह यहां का मूल निवासी है. मंत्री ने सदन को बताया कि इस संबंध में जल्दी ही शासनादेश जारी किया जाएगा. इस निर्णय से रोजगार और संसाधनों पर अधिकार को लेकर राज्य में एक नए संघर्ष की आशंका पैदा हो गई है. एक वर्ग इसे राज्य के मूल निवासियों और सबसे ज्यादा आरक्षित वर्गों के हक पर डाके की तरह देख रहा है.

दरअसल नैनीताल उच्च न्यायालय ने अगस्त 2012 में एक वैसा ही फैसला दिया था जिस तरह का शासनादेश जारी करने की बात उत्तराखंड सरकार ने कही है. अदालत ने अपना निर्णय राज्य में लंबे समय से रह रहे आरक्षित वर्ग के लोगों को जाति प्रमाण पत्र जारी करने से संबधित कई याचिकाओं का निस्तारण करते हुए दिया था. इसका मतलब यह है कि अगर कोई व्यक्ति मूल रूप से किसी दूसरे प्रदेश का है, लेकिन नौ नवंबर, 2000 से पहले से वह उत्तराखंड में रह रहा है तो वह राज्य का मूल निवासी और इस नाते उन सारे अधिकारों का हकदार है जो राज्य के मूल निवासी के लिए बने हैं. राज्य सचिवालय में तैनात अनुसूचित जाति के एक अधिकारी  कहते हैं, ‘इस मामले में सभी याचिकाकर्ता आरक्षित वर्ग के थे. यानी यदि यह निर्णय लागू होता है तो इसका सबसे अधिक नुकसान आरक्षित वर्ग के बेरोजगारों को उठाना पड़ेगा.’ वे बताते हैं कि सबसे अधिक नुकसान धुर पहाड़ी जिलों के अनुसूचित जाति के लोगों को होगा जो पहले ही हर दौड़ में पीछे चल रहे थे. अब उन्हें अपने से कहीं आगे जा चुके और बाहर से उत्तराखंड आए अनुसूचित जाति के युवकों से मुकाबला करना होगा.

गौरतलब है कि दो दशक पहले उत्तराखंड राज्य आंदोलन भड़कने की असली वजह अलग राज्य निर्माण की मांग से अधिक रोजगार की लड़ाई थी. तब पिछड़ी जातियों की कम जनसंख्या होने के बावजूद तत्कालीन उत्तर प्रदेश के इस पहाड़ी क्षेत्र में पिछड़ी जातियों  के लिए 27 फीसदी आरक्षण लागू कर दिया गया था. उस दौर में भी आंदोलन की धुरी कर्मचारी संगठन, महिलाएं ,भूतपूर्व सैनिक और छात्र ही बने थे. भाजपा नेता और पूर्व राज्य आंदोलनकारी रवींद्र जुगरान कहते हैं, ‘मूल निवास मामले में राज्य सरकार ने अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर संविधान और उच्चतम न्यायालय के आदेशों की अवहेलना की है.’

तब पिछड़ी जातियों की कम जनसंख्या होने के बावजूद तत्कालीन उत्तर प्रदेश के इस पहाड़ी क्षेत्र में पिछड़ी जातियों  के लिए 27 फीसदी आरक्षण लागू कर दिया गया था.

हालांकि हरिद्वार के पूर्व विधायक अमरीश कुमार ऐसा नहीं मानते. अमरीश कुमार उन नेताओं में से एक हैं जिनका मानना है कि उत्तराखंड बनने के दिन से जो व्यक्ति उत्तराखंड में रहता है वह यहां का निवासी है और यदि उस व्यक्ति की जाति यहां किसी भी आरक्षित वर्ग की सूची में दर्ज है तो उसे यहां जाति प्रमाण पत्र जारी किया जाना चाहिए. कुमार कहते हैं, ‘जब उच्च न्यायालय ने भी यही कहा है तो फिर सरकार इन प्रमाण पत्रों को जारी क्यों नहीं कर रही?’

उच्च न्यायालय नैनीताल में दायर 13 याचिकाओं के याचिकाकर्ता उत्तराखंड में लंबी अवधि से रह रहे थे. मूल रूप से उत्तर प्रदेश के ये लोग उत्तराखंड से अनुसूचित जाति या अन्य पिछड़ा वर्ग के जाति प्रमाण पत्र इस आधार पर मांग रहे थे कि वे या उनका परिवार 15 से अधिक सालों से उत्तराखंड में निवास कर रहा है.

राज्य बनने से पहले उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र के निवासियों को मूल निवास का प्रमाण पत्र जारी होता था. इस प्रमाण पत्र की जरूरत ज्यादातर सेना या पुलिस में भर्ती के समय होती थी क्योंकि पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को लंबाई में छूट मिलती थी. तत्कालीन उत्तर प्रदेश में पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को शैक्षिक रूप से पिछड़ा मानते हुए मेडिकल या इंजीनियरिंग कॉलेजों में आरक्षण मिलता था. इस प्रमाण पत्र का इस्तेमाल छात्र कॉलेजों में प्रवेश लेते समय आरक्षण का लाभ लेने के लिए भी करते थे.

कई सालों तक चली उत्तराखंड राज्य निर्माण की सुगबुगाहट के दौरान अलग राज्य में पैदा होने वाली सरकारी नौकरियों की सुविधा और मूल निवासियों को भविष्य में मिलने वाली सुविधाओं के लिए हजारों की संख्या में राशन कार्ड और वोटर प्रमाण पत्र बनाए गए थे. राज्य के गठन की घोषणा अक्टूबर, 2000 में हो गई थी और राज्य का निर्माण नौ नवंबर, 2000 को हुआ. राज्य बनने के बाद महत्वपूर्ण पदों पर रहे एक अधिकारी बताते हैं ,‘नवोदित राज्य की सुविधाओं को पाने के खेल में प्रॉपर्टी डीलरों से लेकर रोजगार की चाह रखने वालों तक ने यहां का निवासी बनने का पूरा इंतजाम कर लिया था.’  राज्य गठन के बाद मूल निवास के कारण कई बार विवाद हुआ. यह विवाद हरिद्वार, ऊधमसिंह नगर और देहरादून के मैदानी हिस्सों में अधिक होता था. बार-बार उठते विवाद के कारण सरकार ने मूल निवास से अधिक स्थायी निवास प्रमाण पत्र को प्रचलित किया. 20 नवंबर, 2001 को स्थायी निवास प्रमाण पत्र दिए जाने के संबंध में जारी शासनादेश के अनुसार स्थायी निवास प्रमाण पत्र की पात्रता यह है कि व्यक्ति उत्तराखंड का सद्भाविक निवासी यानी बोनाफाइड रेजिडेंट होना चाहिए.

सद्भाविक निवासी होने की शर्त यह थी कि या तो उसके पूर्वज उत्तराखंड में निवास कर रहे हों या फिर वह 15 सालों से उत्तराखंड में रह रहा हो. उत्तराखंड मूल के उन व्यक्तियों को भी यह प्रमाण पत्र जारी किया जा सकता है जो रोजगार के लिए राज्य से बाहर रह रहे हों. राज्य अपनी और केंद्र सरकार की सेवा में उत्तराखंड में रहने वाले कर्मचारियों को भी स्थायी निवास प्रमाण पत्र जारी करने लगा. स्थायी निवास प्रमाण पत्र की जरूरत राज्य के कॉलेजोंं में राज्य के छात्रों के लिए तय 85 फीसदी सीटों को भरने या राज्य के रोजगार कार्यालयों में नाम दर्ज करवाने में होती है. राज्य में तृतीय श्रेणी की सेवाओं के लिए रोजगार कार्यालय में नाम दर्ज होना आवश्यक है.
स्थायी निवास प्रमाण पत्र का शासनादेश जारी होने के बाद राज्य के समाज कल्याण विभाग ने 2003 में जाति प्रमाण पत्र जारी करने के लिए एक नया शासनादेश निकाला. इसके अनुसार राज्य में आरक्षित वर्ग का जाति प्रमाण पत्र यहां के मूल निवासियों को ही जारी किया जा सकता है. इससे एक बार फिर मूल निवास बनाम स्थायी निवास का विवाद खड़ा हो गया. जाति प्रमाण पत्र जारी करने से पहले इस बात की तहकीकात कर ली जाती थी कि प्रमाण पत्र मांगने वाले व्यक्ति का पैतृक राज्य उत्तराखंड ही है. फिर भी इन शासनादेशों के दुरुपयोग की शिकायतें आती रहीं. बाद में राज्य सरकार ने जाति प्रमाण पत्र जारी करते समय अतिरिक्त सावधानी बरते जाने के लिए दो और आदेश जारी किए. 2007 में राज्य सरकार ने जाति प्रमाण पत्र के संदिग्ध मामलों के निर्धारण के लिए जिला स्तरीय और राज्य स्तरीय समितियों का गठन किया.

इन सबके बावजूद मूल निवास बनाम स्थायी निवास प्रमाण पत्र और पैतृक रूप से राज्य में न रहने वालों को जाति प्रमाण पत्र जारी किया जाना हरिद्वार और उधम सिंह नगर में विवाद का मुद्दा रहा. सरकार द्वारा न सुलझने पर ये मामले उच्च न्यायालय पहुंचे. अदालत ने कहा कि स्थायी निवास और जाति प्रमाण पत्र जारी किए जाने के संबध में जारी इन सभी शासनादेशों में राज्य सरकार ने सद्भाविक निवासी, मूल निवासी, स्थायी निवासी, वास्तविक निवासी, स्थायी रूप से रहने वाला जैसे शब्द ठीक से परिभाषित नहीं किए हैं और इन शब्दों के अर्थ और शर्तें इतनी लचीली हैं कि एक शब्द दूसरे की सीमा में अतिक्रमण करता है. जाति प्रमाण पत्र जारी करने की पूर्व की अन्य शर्तों के अलावा उच्च न्यायालय ने कहा कि चूंकि उत्तर प्रदेश से अलग होने से पहले राज्य के नागरिक के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाने पर भी उसे जाति प्रमाण पत्र जारी होता था इसलिए उत्तर प्रदेश के अलग होने से पहले (9 नवंबर, 2000) वहां से उत्तराखंड के हिस्सों में आकर स्थायी रूप से रहने वाले लोगों को जाति प्रमाण पत्र जारी किए जाने चाहिए, बशर्ते वह जाति उत्तराखंड में अनुसूचित जाति, जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग में आती हो. यानी राज्य बनने के दिन से यहां रह रहे हर नागरिक को उत्तराखंड का निवासी मान लिया जाए.

इस फैसले के अपने पेंच हैं. प्रशासनिक सेवा परीक्षाओं की तैयारी कर रहे प्रदीप पंत बताते हैं, ‘उत्तराखंड में प्रशासनिक सेवाओं से लेकर ज्यादातर ठीक-ठाक नौकरियों में सामान्य वर्ग के अधिकांश पदों पर राज्य से बाहर के लोगों का ही चयन हो रहा है.’ उनके मुताबिक राज्य बनने के बाद राज्य का शैक्षिक स्तर इतना खराब हुआ है कि राज्य के युवा बाहरी माहौल में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले युवाओं के सामने टिक नहीं पा रहे हैं. पंत बताते हैं, ‘अब इस निर्णय के बाद आरक्षित वर्गों में भी बाहरी लोगों की भर्ती होगी.’

उत्तराखंड में उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक के अनुसार उत्तर प्रदेश के लिए तय 65 अनुसूचित जातियों और पांच अनुसूचित जनजातियों को उत्तराखंड में भी ज्यों का त्यों अनुसूचित जाति या जनजाति मान लिया गया है.

उत्तराखंड में उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक के अनुसार उत्तर प्रदेश के लिए तय 65 अनुसूचित जातियों और पांच अनुसूचित जनजातियों को उत्तराखंड में भी ज्यों का त्यों अनुसूचित जाति या जनजाति मान लिया गया है. राज्य सचिवालय में तैनात एक सचिव बताते हैं, ‘दोनों राज्यों की सूची में समानता होने से जाति प्रमाण पत्र के दुरुपयोग के मामले बढ़ सकते हैं.’ इसके अलावा राज्य में 73 ओबीसी यानी अन्य पिछड़ी जातियां तय हैं. इस वर्ग की सबसे अधिक जनसंख्या हरिद्वार और उधमसिंह नगर जिलों में है. इन जिलों के लोगों को आशंका है कि उत्तर प्रदेश से लगे जिलों के लोग आसानी से जाति प्रमाण पत्र बना कर उनके हिस्से की नौकरियों पर डाका डालेंगे. इन आशंकाओं के बावजूद अभी तक अनुसूचित जाति-जनजाति या पिछड़े वर्ग के संगठनों से इस निर्णय के विरोध में कोई आवाज नहीं आई है. ऐसे एक संगठन के नेता दबी जबान में कहते हैं, ‘दरअसल इस विवाद में पड़ कर हम प्रमोशन में आरक्षण आंदोलन की एकजुटता को तोड़ना नहीं चाहते.’

राज्य आंदोलनकारी मंच के नेता जगमोहन नेगी कहते हैं, ‘इस तरह के निर्णय लागू करने वाले नेता बताएं कि यदि यहां के रोजगारों और संसाधनों की लूट ही करानी थी तो अलग राज्य उत्तराखंड क्यों बनाया.’ माकपा (माले) के गढ़वाल सचिव इंद्रेश मैखुरी का मानना है कि इससे राज्य बनने का औचित्य ही समाप्त हो जाएगा.’ इसके जवाब में अंबरीश कुमार कहते हैं, ‘हमारा प्रयास है कि हम दोनों पहचानों (उत्तराखंडी और भारतीय ) में समन्वय करें. यदि क्षेत्रवाद और राष्ट्रवाद में टकराव होगा तो देश बंटेगा.’ राज्य में प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ने विधानसभा में तो सरकार के इस बयान का कोई विरोध नहीं किया लेकिन उसके नेताओं ने सदन से बाहर बयान दिए कि इस मुद्दे पर सदन में चर्चा होनी चाहिए. वहीं, उत्तराखंड क्रांति दल के अध्यक्ष त्रिवेंद्र पंवार ने इस निर्णय को उच्च न्यायालय में ही चुनौती दी है. मुद्दा समय रहते नहीं सुलझाया गया तो राज्य सरकार के लिए यह चिंता का सबब बन सकता है.

संघर्ष का महासागर

चीन के संदर्भ में यह कभी-कभार ही होता है कि चीजें ठीक वैसी हों जैसी दिखाई दे रही हैं. आम तौर पर अपने राजनीतिक इरादों को सात परदों के पीछे छिपाकर रखने वाले इस देश में एक मसले पर पिछले दिनों बड़ी साफगोई देखी गई. इसी साल 15 नवंबर को कम्युनिस्ट पार्टी का मुखिया बनने के बाद चीन के ‘प्रेसिडेंट इन वेटिंग’ जी जिनपिंग ने घोषणा की कि ‘क्वियांग्यू मेंग’ यानी चीन का ‘सुपरपावर ड्रीम’ अब देश की पकड़ में है. चिंता की बात यह है कि चीन में सत्ता परिवर्तन के बाद इस पहली घोषणा ने ही दक्षिण चीन सागर में एक तूफान-सा पैदा कर दिया है.

जिनपिंग बीजिंग स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय में चीन का इतिहास दर्शाने वाली प्रदर्शनी में अनौपचारिक रूप से बोल रहे थे. छह सदस्यों की अपनी टीम से घिरे जिनपिंग के शब्द थे, ‘ इस समय हम चीनी राष्ट्र के पुनर्जीवन के लक्ष्य के बिल्कुल करीब हैं. और इतिहास के इस क्षण में इसे हासिल करने के बारे में हम सबसे ज्यादा आत्मविश्वास से भरे हुए हैं.’

लगभग इसी समय बीजिंग से अंतरराष्ट्रीय मीडिया को मिल रही खबरें भी दक्षिण चीन सागर में एक नया अध्याय शुरू होने की घोषणा कर रही थीं, जिसका असर दक्षिण चीन सागर के देशों और जापान तक में चिंता और गुस्से के रूप में देख्रा गया. ऐसा प्रतीत होता है जैसे चीन ने इस घोषणा के लिए सावधानीपूर्वक समय का चुनाव किया था क्योंकि इस समय अमेरिका में चुनाव खत्म ही हुए थे और इस खुमारी से निकल रहा देश बाकी दुनिया पर उस तरह नजर नहीं रखे हुए था.  इसी समय चीन के तटीय प्रांत हैनान में एक कानून पारित करके पुलिस को एक जनवरी, 2013 से विदेशी जहाजों को पकड़ने, जब्त करने और क्षेत्र से बाहर निकालने का अधिकार दे दिया गया. इस कानून का सीधा मतलब है कि अगले साल से इस क्षेत्र से विदेशी जहाजों की आवाजाही बंद हो जाएगी. एक मोटे अनुमान के मुताबिक भारत का आधा व्यापार इसी रास्ते से होता है.
सीधे तौर पर इससे फिलीपींस, वियतनाम, मलेशिया, ब्रुनेई और सिंगापुर जैसे देश प्रभावित होंगे. इनकी पूरी अर्थव्यवस्था समंदर के इसी रास्ते पर निर्भर करती है. जापान, दक्षिण कोरिया और ताइवान का निर्यात मार्ग भी यही क्षेत्र है. दुनिया में निर्यात होने वाला आधा तेल इसी जल मार्ग से होकर गुजरता है. ब्रुनेई जैसे देश, जो चीन के तट से काफी दूर हैं, भी इस फैसले से आक्रांत हैं क्योंकि चीन के दावे के मुताबिक ब्रुनेई के किनारों तक अब चीन का प्रभुत्व होगा.

इसके साथ ही अभी दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों और भारत के लिए चीन द्वारा जारी पासपोर्ट भी चिंता की एक बड़ी वजह है. इसमें छपे चीन के नक्शे में सभी विवादित क्षेत्रों को चीन का हिस्सा दिखाया गया है. इसके जवाब में इन देशों ने भी चीनी नागरिकों को अलग दस्तावेजों पर वीजा देना शुरू कर दिया. वहीं भारत ने इस तरह के पासपोर्ट को अस्वीकार्य कर दिया.

इस पूरे विवाद के बीच अब तक सिर्फ फिलीपींस ने ही चीन के प्रति कड़ी प्रतिक्रिया दिखाई है. अमेरिका के करीबी इस देश के राष्ट्रपति बेनिग्नो एक्विनो ने टीवी पर दिए अपने संबोधन में देश की आम जनता से पूछा था, ‘यदि कोई आपके आंगन में घुस आए और कहे कि वह उसका है तो क्या आप इस बात को मान लेंगे?’ इससे पहले एक्विनो फिलीपींस से लगते दक्षिण चीन सागर के हिस्से को आधिकारिक रूप से पश्चिम फिलीपींस सागर नाम दे चुके हैं.

तनावपूर्ण हो रही स्थिति के बीच दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों का संगठन आसियान अब तक इस मसले पर अंतरराष्ट्रीय बिरादरी का ध्यान आकर्षित करने के अलावा कुछ नहीं कर पाया है. संगठन के महासचिव ने लंदन के अखबार को दिए साक्षात्कार में कहा भी था कि यदि दक्षिण चीन सागर का विवाद नहीं सुलझाया गया तो यह फलीस्तीन जैसी जटिल समस्या का रूप ले सकता है. जहां तक चीन की बात है तो वह इन देशों से अलग-अलग बात करना चाहता है ताकि इन पर आसानी से दबाव डाला जा सके.

दक्षिण-पूर्व एशियाई देश सामूहिक रूप से चीन का सामना नहीं कर पा रहे हैं. इस कमजोरी की वजह वियतनाम के उप विदेश मंत्री पैम क्युयांग विन्ह के वक्तव्य से जाहिर होती है,’ आर्थिक ताकत का इस्तेमाल क्षेत्रीय विवाद सुलझाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए .’उल्लेखनीय है कि एक समय कुलांचे मारकर आगे बढ़ रही वियतनाम की अर्थव्यवस्था आज ढलान पर है. इस साल उसकी विकास दर पिछले 13 साल में न्यूनतम स्तर पर है. वियतनाम सरकार के आंकड़े बताते हैं कि दोनों देशों के बीच इस समय द्विपक्षीय कारोबार 36 अरब डॉलर है.

इस क्षेत्र में जापान पहले से ही चीन के साथ द्वीप विवाद की कीमत चुका रहा है. हाल ही में जापान ने सेनकाकू द्वीप समूह (जिसे चीन दाइयू कहता है) को निजी हाथों में जाने से रोकने के लिए खरीद लिया था. इसके बाद से चीन में जापानी सामानों की बिक्री का बहिष्कार होने लगा. जापान की कार कंपनियों ने अपने मुनाफे का अनुमान घटा दिया है. इनकी बिक्री में अभी तक 60 फीसदी तक की कमी दर्ज की गई है. जापानी कंपनियों और इनकी चीनी शाखाओं पर इस बीच कई हमले भी हुए.

इस क्षेत्र में अमेरिका का सबसे घनिष्ठ सहयोगी होने के बाद भी कहीं से ऐसा नहीं लग रहा है कि विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन को आसानी से दबाव में लाया जा सकता है. इस समय अमेरिका खुद अपने राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए जूझ रहा है. लेकिन अमेरिकी नीति निर्धारकों में जापान का इतना असर है कि वह अमेरिकी सरकार के दूसरे क्षेत्रों में दखल न देने की इच्छा के बावजूद अपने लिए समर्थन सुनिश्चित कर सकता है. दो हफ्ते पहले यह देखने को भी मिला. अमेरिका की सीनेट ने एक ऐसा बिल पास किया है जो यदि कानून बन गया तो द्वीप विवाद के मसले पर चीन से झड़प होने पर अमेरिका को जापान की मदद के लिए आना होगा. इस बिल में प्रावधान है कि यदि जापान प्रशासित क्षेत्र पर यदि कोई सशस्त्र हमला होता है तो यह सुरक्षा और सहयोग से जुड़ी अमेरिका-जापान संधि के अंतर्गत आएगा. अमेरिका के इस कदम की चीन की तरफ से तुरंत तीखी प्रतिक्रिया देखी गई. चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने पत्रकारों से कहा कि यह बिल उनके लिए चिंता की बात है और उन्हें इस पर सख्त आपत्ति है. चीन की सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ में भी कहा गया कि अमेरिका की इस ‘तात्कालिक कदम’ की उसे प्रतिक्रिया देखने को मिलेगी और इससे उसे नुकसान उठाना पड़ेगा.

हालांकि अब तक अमेरिका ने आधिकारिक रूप से विवादित द्वीप समूह के मालिकाना हक पर कोई टिप्पणी नहीं की है. लेकिन पिछले दिनों अमेरिकी सरकार में एक वरिष्ठ अधिकारी अपनी बीजिंग यात्रा के दौरान चीन को यह चेतावनी जरूर दे गए कि उनके देश की ‘तटस्थता’ के अन्य मतलब न निकाले जाएं.

इस समय जापान में भी विवादित द्वीप को लेकर जन आक्रोश बढ़ रहा है. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से सबसे शांतिप्रिय देशों में शुमार जापान में चीन के ताजा रवैये से सुरक्षा चिंताएं बढ़ रही हैं. अमेरिका एक अरसे से जापान को क्षेत्रीय ताकत बनाना चाहता है, लेकिन जापान इस आग्रह पर कभी सहमत नहीं हुआ. वर्तमान हालात में संभव है कि जापान अमेरिका के सहयोग से इस भूमिका में खुद आ जाए. चीन के डर से क्षेत्र के बाकी देश भी जापान के अतीत को भुलाकर उससे सामान्य संबंध बनाने की कोशिश कर रहे हैं.

सबसे दिलचस्प बात है कि इस पूरे विवाद में अपनी मजबूत नौसेना और सामरिक भूमिका की वजह से भारत चीन के खिलाफ एक महत्वपूर्ण पक्ष है. हालांकि भारत दक्षिण चीन सागर से सीधे नहीं जुड़ा है, फिर भी पेट्रोलियम पदार्थों के कारोबार और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ संबंधों की वजह से वह इस विवाद का महत्वपूर्ण हिस्सा है. पिछले कुछ सालों में भारत की सरकारी कंपनी ओएनजीसी वियतनाम के तटीय क्षेत्रों में तेल की खोज में लगी है. चीन को इस पर आपत्ति है. वह ओएनजीसी को आवंटित क्षेत्रों में तेल खोज के लिए अपनी तरफ से निविदाएं आमंत्रित कर चुका है. चीन के दबाव के बाद भी पिछले साल ओएनजीसी वियतनाम के साथ तेल खोज के लिए दोबारा करार कर चुका है. भारत की तरफ से यह जान-बूझकर उठाया गया कदम लग रहा है. भारत के नौसेना प्रमुख ने हाल ही में पत्रकारों से बात करते हुए कहा था कि भारतीय नौसेना ओएनजीसी की मदद के लिए तैयार है और इसकी तैयारी के लिए युद्धाभ्यास भी किया गया है.

इस समय चीन के प्रभाव को सीमित करने के लिए भारत और अमेरिका के बीच एक सामरिक गठजोड़ की बात चल रही है, लेकिन ओबामा के प्रशांत क्षेत्र की तरफ ध्यान देने के पहले से ही भारत इस क्षेत्र को तवज्जो
देता रहा है. यह भी उल्लेखनीय है कि क्षेत्र के ज्यादातर देश भारत की गंभीरता पर भरोसा करते हैं.

फिलहाल दक्षिण चीन सागर में महाशक्तियों की दिलचस्पी सिर्फ अपना प्रभुत्व दिखाने को लेकर नहीं है. दरअसल यह प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता वाला क्षेत्र है और इसलिए दुनिया की तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं के लिए कब्जे की लड़ाई का अखाड़ा बन रहा है. इस समय दुनिया के कुल तेल उत्पादन के तीसरे हिस्से की खपत एशिया में होती है. 2010 के आंकड़ों के हिसाब से वैश्विक खपत के मामले में चीन की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा 19 फीसदी है, वहीं अमेरिका के लिए यह आंकड़ा 18 फीसदी है. पेट्रोलियम पदार्थों की इस खपत में भारत का हिस्सा अभी काफी कम (पांच फीसदी) है. चूंकि भारत और चीन में तेल उत्पादन लगभग न के बराबर होता है, ऐसे में दोनों पक्षों का इस क्षेत्र में काफी कुछ दांव पर लगा हुआ है.

जिनपिंग चीन में 21वीं शताब्दी के पहले प्रिंसलिंग राष्ट्रपति हैं. यानी वे उन परिवारों के सदस्य है जो माओत्से तुंग की सांस्कृतिक क्रांति के समय में काफी ताकतवर थे और जिनका चीन की राजनीति में आज बहुत प्रभाव है. इससे पहले जियांग झेमिन प्रिंसलिंग राष्ट्रपति थे. जेमिन ने 1996 में ताइवान पर मिसाइलें दागने का आदेश दिया था ताकि उसकी आजादी की महत्वाकांक्षा पर अंकुश लगाया जा सके. जिनपिंग झियांग की परंपरा के राष्ट्रपति हैं. अगले साल मार्च में वे देश के राष्ट्रपति बन जाएंगे. तब उनके सामने ‘सुपरपावर ड्रीम’ को जमीनी हकीकत बनाने की जिम्मेदारी होगी. यह वे दस साल में करना चाहते हैं. ऐसे में यह देखना काफी महत्वपूर्ण हो जाता है कि चीन के इस सपने में बाकी देशों का स्थान कहां होगा. 

नतीजों के निहितार्थ

उत्तराखंड में शहरी निकाय चुनावों में कांग्रेस के चारों खाने चित होने के बाद आ रही प्रतिक्रियाएं बता रही हैं कि कांग्रेसी अपनी ही पार्टी के नेताओं और नौकरशाही को इस बुरी गत का जिम्मेदार मान रहे हैं. राज्य में छह नगर निगम, 28 नगर पालिकाएं और 35 नगर पंचायतें हैं. नतीजे आने के बाद भाजपा खुश है. हालांकि इन नतीजों का विश्लेषण किया जाए तो उसके लिए बहुत खुश होने वाली बात भी नहीं है.

राज्य में पिछली बार तक केवल देहरादून शहर को नगर निगम का दर्जा प्राप्त था.  इस बार राज्य की पांच बड़ी नगर पालिकाओं को भी नगर निगम का दर्जा दे दिया गया था. इनमें पहली बार मेयर के चुनाव हुए. कुल छह नगर निगमों में से चार भाजपा के खाते में गए और दो पर निर्दलीय जीते. इस तरह राज्य के छह बड़े शहरों में कांग्रेस अपना एक भी मेयर नहीं जिता पाई. भाजपा ने राजधानी देहरादून सहित कुमाऊं के बड़े शहर हल्द्वानी, धर्मनगरी हरिद्वार और मैदान के महत्वपूर्ण जिले उधमसिंह नगर के जिला मुख्यालय रुद्रपुर में भी अपने मेयर जिता कर शहरी जनसंख्या के बीच भाजपा की मजबूत पकड़ साबित की है. रुड़की और काशीपुर में मेयर पद पर निर्दलीय प्रत्याशी जीते. भाजपा ने राज्य के कुल 22 निकायों में जीत दर्ज की. इतने ही स्थानों पर निर्दलीय प्रत्याशी भी अध्यक्ष के रूप में चुनाव जीते. कांग्रेस को केवल 20 सीटों पर सफलता मिली. पार्टी उम्मीदवार राज्य के महत्वपूर्ण स्थानों में हार गए. राज्य के 13 जिला मुख्यालयों में भाजपा ने पांच सीटें जीतीं तो कांग्रेस को केवल तीन से संतोष करना पड़ा. पांच जिला मुख्यालयों के निकायों के अध्यक्ष स्वतंत्र उम्मीदवार बने. राज्य के एक कर्मचारी- अध्यापक संगठन के अध्यक्ष बताते हैं, ‘जिला मुख्यालयों और कस्बों में मतदाताओं का बड़ा प्रतिशत कर्मचारी वर्ग का होता है. इन जगहों पर कांग्रेस के पिछड़ने का मतलब यह है कि कर्मचारी कांग्रेस की नीतियों से खुश नहीं हैं.’

इन चुनावों में दिलचस्प यह भी रहा कि पक्ष और विपक्ष के बड़े नेता अपने-अपने संसदीय या विधानसभा क्षेत्रों में अपने पसंदीदा उम्मीदवारों को जिता नहीं पाए. केंद्रीय मंत्री और हरिद्वार के सांसद हरीश रावत के संसदीय क्षेत्र हरिद्वार में कांग्रेस एक भी शहरी निकाय की सीट नहीं जीत पाई. गढ़वाल के सांसद सतपाल महाराज के संसदीय क्षेत्र में कांग्रेस केवल दो नगर पालिकाएं व  दो नगर पंचायतें ही जीत सकी. जिस गैरसैंण की प्रस्तावित विधानसभा को कांग्रेस अगले लोकसभा चुनाव में गढ़वाल संसदीय क्षेत्र को जीतने का मंत्र मान रही थी वहीं कांग्रेस चौथे स्थान पर खिसक गई. मुख्यमंत्री के पुत्र की टिहरी लोकसभा सीट के तहत आने वाले देहरादून नगर निगम, टिहरी और उत्तरकाशी के जिला मुख्यालय पर कांग्रेस का प्रर्दशन फीका ही रहा. नैनीताल लोकसभा के तीनों नगर निगम कांग्रेस के हाथ नहीं आए तो इस लोकसभा में पड़ने वाली नगर पालिकाओं और पंचायतों में भी पार्टी कुछ खास नहीं कर पाई. अधिकांश मंत्रियों के विधानसभा क्षेत्रों में पड़ने वाली ज्यादातर नगरपालिकाएं कांग्रेस हार गई.

उधर, निगमों की जीत के बाद ‘निकाय में बाजी मारी है – अब लोकसभा की तैयारी है’ जैसे नारे लगाने वाले भाजपा की उपलब्धियां भी तुलनात्मक रूप में खास नहीं रहीं. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष तीरथ सिंह रावत के गृह जनपद पौड़ी में एक छोटी नगर पंचायत को छोड़ दें तो भाजपा का सफाया हो गया. पौड़ी पूर्व मुख्यमंत्री खंडूड़ी और निशंक का भी गृह जनपद है. खंडूड़ी ने पिछला विधानसभा चुनाव इसी जिले में पड़ने वाली कोटद्वार सीट से गंवाया था. तभी से भाजपा राग अलाप रही थी कि पौड़ी की जनता हार का प्रायश्चित करने को आतुर है. लेकिन यहां नगर पालिका चुनाव में पार्टी तीसरे स्थान पर खिसक गई. कोटद्वार की यह सीट बसपा की अनाम सी महिला प्रत्याशी ले उड़ी. इस युवा और अनुसूचित जाति की महिला प्रत्याशी की योग्यता कांग्रेस और भाजपा के सिफारिशी प्रत्याशियों पर भारी पड़ी. यहां कांग्रेस दूसरे स्थान पर रही. गढ़वाल लोकसभा के श्रीनगर, पौड़ी, कर्णप्रयाग व गोपेश्वर जैसे बड़े और राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण कस्बों में भाजपा का प्रदर्शन फिसड्डी रहा. उत्तराखंड में भाजपा की एकमात्र सांसद मालाराज्यलक्ष्मी हैं. उनके टिहरी संसदीय क्षेत्र के पर्वतीय जिलों टिहरी और उत्तरकाशी में भाजपा साफ हो गई.

[box]कांग्रेस में टिकट वितरण के समय राहुल गांधी द्वारा दिए दो महीने पहले के कड़े निर्देश कहने को ही रह गए. टिकट वितरण देहरादून के स्तर पर ही हुआ[/box]

कांग्रेस में टिकट वितरण के समय राहुल गांधी द्वारा दिए दो महीने पहले के कड़े निर्देश कहने तक ही रह गए. इस बार टिकट बांटने में आलाकमान ने भी हस्तक्षेप नहीं किया फिर भी प्रत्याशियों की योग्यता पर स्थानीय क्षत्रपों और विधायकों की गणेश परिक्रमा भारी पड़ी. चुनावों के दौरान मतभेदों के बावजूद भी भाजपा के दिग्गज एक दिखे  तो कांग्रेसी चुनाव से पहले और बाद में अनर्गल बयानबाजी करते और बंटे हुए. चुनाव हारने के बाद कांग्रेसी क्षत्रप हार का कारण एक- दूसरे को बताते रहे. नगर निगमों में हारते ही कांग्रेस के प्रवक्ता धीरेंद्र प्रताप ने इस हार का एकमात्र कारण हरीश रावत के उस ‘लेटर बम’ को बताया जो निकाय चुनावों से पहले उन्होंने मुख्यमंत्री को लिखा था और कहा था कि राज्य सरकार केंद्र द्वारा स्वीकृत महत्वपूर्ण परियोजनाओं के लिए भूमि आवंटित नहीं कर रही है. इस पत्र के सार्वजनिक होने का भी समय वही था जब भाजपा सहित सभी विपक्षी दल और संगठन राज्य सरकार पर प्रदेश की औद्योगिक भूमि को औने-पौने दामों में ठिकाने लगाने का आरोप रहे थे. आरोपों के जवाब में रावत ने सार्वजनिक बयान देकर कहा कि उनके क्षेत्र के टिकट उनसे पूछकर दिए ही नहीं गए थे.

हर राज्य में शहरी निकाय चुनाव के परिणाम भविष्य में होने वाले लोकसभा या विधानसभा चुनावों में मतदाता के रुझान का हल्का प्रदर्शन होते हैं. कर्नाटक में एक साल पहले हुए शहरी निकाय चुनावों में भाजपा चारों खाने चित रही थी. हाल के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में वहां पार्टी की बुरी गत हो गई. शहरी निकाय चुनावों में इस बार उत्तराखंड में संख्या के आधार पर सबसे अधिक सीटें  निर्दलीय जीते हैं. निर्दलीय जीते पार्षदों की कुल संख्या भाजपा और कांग्रेस के टिकट पर जीते पार्षदों से ज्यादा है. नतीजों पर टिप्पणी करते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व प्रदेश महासचिव व वर्तमान में राष्ट्रीय परिषद के सदस्य समर भंडारी बताते हैं , ‘उत्तराखंड में प्रमुख राष्ट्रीय दलों कांग्रेस व भाजपा की सरकारों में नित नए भ्रष्टाचार के कारनामे सामने आने से इन दोनों दलों से मतदाताओं का मोहभंग हो गया है , लेकिन राज्य में तीसरा सशक्त विकल्प मौजूद न होने से मतदाताओं ने निर्दलीय उम्मीदवारों को जिताया है.’ अब सवाल उठता है कि क्या लोकसभा चुनावों में ऐसे नतीजे देखने को मिल सकते हैं. वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत इससे इनकार करते हुए कहते हैं , ‘उत्तराखंड के मतदाता लोकसभा और विधानसभा चुनावों में हमेशा बड़े चेहरों और राष्ट्रीय पार्टियों को महत्व देते हैं. यानी मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही सिमटा रहेगा.’

चुनावों के निराशाजनक प्रर्दशन के बाद पहली गाज राज्य के मुख्य सचिव आलोक जैन पर पड़ी. जैन नियम-कायदे से काम करने वाले नौकरशाह माने जाते हैं. उनकी जगह उनके वरिष्ठ बैच के सुभाष कुमार को एक बार फिर से राज्य का मुख्य सचिव बनाया गया. लचीली छवि वाले सुभाष कुमार को मुख्यमंत्री बनते ही बहुगुणा ने मुख्य सचिव पद से हटा दिया था. वे भाजपा नेताओं के करीबी माने जाते थे.  चुनाव के बाद मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने भ्रष्ट अधिकारियों पर गाज गिराने की बात कही. एक आईएएस, दो पीसीएस और राज्य सचिवालय के दो कनिष्ठ अधिकारियों पर निलंबन की गाज गिरी भी है. मुख्यमंत्री ने इसी बीच मंत्रियों के विभागों में भी फेर-बदल करने की संभावनाओं वाला बयान भी दिया है. इस पर पूर्व मुख्यमंत्री व राज्यसभा सदस्य भगत सिंह कोश्यारी कहते हैं ,‘जनता समझती है कि भ्रष्टाचार की गंगोत्री कहां है.  कुछ छोटी मछलियों को पकड़ने की कागजी घोषणा से वह कांग्रेस के झांसे में नहीं आने वाली.’ एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता बताते हैं कि जिलों में तैनात प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी स्थानीय नेताओं के बजाय उन्हें मलाईदार नियुक्ति दिलाने वाले देहरादून में बैठे अपने राजनीतिक आकाओं की अधिक सुनते हैं. वे कहते हैं, ‘कुछ प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी तो अपनी राजनीतिक छवि बना रहे हैं. ऐसे में स्थानीय राजनीतिक नेतृत्व का उभरना मुश्किल है. ‘

जानकारों की मानें तो निकाय चुनावों में फीके प्रदर्शन के बाद राज्य में कांग्रेस संगठन में परिवर्तन होने की पूरी गुंजाइश है. हिमाचल में मुख्यमंत्री के रूप में कागजी नेताओं के बजाय लोकप्रिय बीरभद्र सिंह के चयन ओर कर्नाटक में मुख्यमंत्री पद पर सिद्धरमैया के चयन का फैसला गुप्त मतदान के बाद होने से इस संभावना को बल मिलता भी दिखता है. पैराशूटी मुख्यमंत्री भेजने के निर्णयों को यदि  कांग्रेस में बीते दिनों की गलतियां समझा जाए तो प्रतिष्ठा और प्रदर्शन के मामले में दिन-ब-दिन प्रभावहीन होती उत्तराखंड सरकार में भी मुखिया पद पर परिवर्तन की गुंजाइश बन सकती है.