पूरब की चाबी

आंग सान सू की के लिए बीते महीने भारत आना एक मायने में अपने दूसरे घर आने जैसा ही था. भारत के लिए यह अवसर म्यांमार से आए एक अतिथि से ज्यादा उस योद्धा का स्वागत करने का भी था जो लोकतंत्र के लिए लड़ाई का प्रतीक बन गया है. उसके लिए यह मौका उस म्यांमार में अपनी भूमिका सुनिश्चित करने का भी था जिस पर आज सारी दुनिया की नजरें लगी हैं.

सू की 1960 में पहली बार भारत आई थीं. उनकी मां डा खिन की को भारत में म्यांमार का राजदूत नियुक्त किया गया था. दिल्ली में स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद सू की लेडी श्री राम कॉलेज गईं और फिर 1964 में ऑक्सफोर्ड के सेंट ह्यूज कॉलेज. 1986 में उनका फिर भारत आना हुआ. उन्होंने और उनके पति माइकेल एरिस ने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज के फेलो के तौर पर दो साल शिमला में गुजारे. यहीं उन्होंने बर्मा ऐंड इंडिया: सम एसपेक्ट्स ऑफ इंटेलेक्चुअल लाइफ अंडर कॉलोनियलिज्म नाम का अपना पहला राजनीतिक लेख लिखा. फिर सू की म्यांमार लौटीं और 1962 से देश में शासन कर रही तानाशाह सैन्य सरकार के खिलाफ उठे जनज्वार की नेता के तौर पर उभरीं. इसके बाद लगभग डेढ़ दशक तक उन्हें यंगून स्थित उनके घर में नजरबंद रखा गया. जनवरी, 1991 में जब उन्हें शांति के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया तब भी वे घर में नजरबंद थीं.

आज सू की आजाद हैं और लोग उनके साथ हैं. उनकी पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी ने अप्रैल, 2012 में हुए उपचुनाव में भारी जीत हासिल की है. इस दौरान जहां भी वे गईं, उन्हें देखने और सुनने लाखों लोग उमड़ पड़े. विशाल टीवी स्क्रीनें, महंगे साउंड सिस्टम और ऐसी दूसरी बहुत-सी चीजें साफ संकेत दे रही थीं कि सू की के साथ उस कारोबारी समुदाय का भी समर्थन है जो हाल तक पूरी तरह से सैन्य जुंटा के साथ दिखता था. लेकिन यहीं से असली लड़ाई शुरू होती है.  उनके पास एक विरासत है जिसके चलते लोग उनसे बड़ी उम्मीदें बांधते हैं. सू की के पिता आंग सान म्यांमार की आजादी के नायक थे जिनकी जुलाई, 1947 में हत्या कर दी गई थी. अब कई सवाल हैं जो दुनिया को मथ रहे हैं. मसलन, सू की इस क्षेत्र में म्यांमार की भूमिका पर क्या रुख अपनाएंगी? वे भारत, अमेरिका, चीन और जापान के साथ रिश्तों पर क्या नजरिया रखेंगी? जवाब किसी को पता नहीं क्योंकि एक तो सू की को अब तक अपने देश का नेतृत्व करने का मौका नहीं मिला, दूसरे नजरबंदी के डेढ़ दशक के दौरान वे बाहरी दुनिया से कटी रहीं. अल्पसंख्यक समुदाय की आबादी वाले म्यांमार के इलाकों में लोगों की मुश्किलों पर वे खामोश रही हैं जहां सेना आज भी आम नागरिकों को आतंकित करती रहती है और जहां हजारों शरणार्थियों ने चीन सीमा के निकट शरण ली है. उनके इस रुख ने कइयों को निराश और चिंतित किया है.

लेकिन यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि वे इन मुश्किलों को नहीं पहचानतीं. सू की अपने यहां विदेशी मध्यस्थता की कोशिशों का यह कहते हुए विरोध करती रही हैं कि इसमें ज्यादा जोर विकास पर दिया जाता है और संवैधानिक सुधार और अल्पसंख्यकों के अधिकार पर कम. लेकिन जैसे हालात म्यांमार में हैं, जिस तरह का अलोकतांत्रिक संविधान वहां है उसमें यह नहीं हो सकता और न ही यह अब भी बेहद शक्तिशाली सेना के समर्थन के बगैर हो सकता है. शायद यही वजह है कि सू की ने अप्रैल में हुए उपचुनाव में हिस्सा लेने का फैसला किया था.

म्यामांर की चीन पर अत्याधिक निर्भरता भारत के लिए चिंता का विषय बन गई थी. इससे इस इलाके का सामरिक संतुलन चीन की तरफ झुक गया था

1988 के जनज्वार के बाद से ही सू की सेना के तंत्र से कट गई थीं, इसलिए वे इस दौरान सैन्य अधिकारियों को अपना नजरिया नहीं समझा सकीं. वैसे भी सेना के भीतर यह संदेश देने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई थी कि वे दुश्मन नंबर एक हैं. अब एक निर्वाचित सांसद के तौर पर वे ऐसा कर सकती हैं क्योंकि निचले सदन में एक चौथाई सीटें सेना के लिए आरक्षित हैं. कुछ हद तक ऐसा करने में सू की कामयाब भी रही हैं. हाल ही में मेरी जब सू की से उनके घर में मुलाकात हुई थी तो उन्होंने मुझे बताया, ‘पहले-पहल वे (सैन्य अधिकारी) कुछ घबराए-से लगे, लेकिन उनका रुख दुश्मनों जैसा नहीं था.’  इसकी प्रतिक्रिया भी हुई. अगस्त में कुछ सैन्य प्रतिनिधियों को इसीलिए बदल दिया गया था क्योंकि उनकी सू की के साथ ज्यादा ही छनने लगी थी. उनकी जगह तथाकथित कट्टरवादियों ने ली. उनमें वह अधिकारी भी था जिसे 2007 में हुए बौद्ध भिक्षुओं के आंदोलन को कुचलने का जिम्मा दिया गया था. साफ है कि सेना के इस एकाधिकार को तोड़ना आसान नहीं होगा.

सू की के साथ मेरी जो चर्चा हुई उससे साफ था कि उनका अपना एक एजेंडा है और वे मोहरे की तरह काम नहीं करतीं. लेकिन यह भी स्पष्ट है कि उन्हें नजरबंदी से रिहा करके और फिर यूरोप, अमेरिका और अब भारत जाने की इजाजत देकर सरकार ने खूब तारीफ बटोरी है. अपनी ताकत जराए-सा भी छोड़े बिना सैन्य जुंटा म्यांमार की एक नई छवि दिखाने में सफल रहा है.

म्यांमार सरकार द्वारा देश में राजनीतिक सुधार की प्रक्रिया शुरू होने की कवायद को बराक ओबामा अमेरिका में अपनी विदेश नीति की महत्वपूर्ण सफलता बता चुके हैं. आज से लगभग एक साल पहले ही अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन म्यांमार की यात्रा पर आई थीं. पिछले 50 साल में यह पहली बार था जब अमेरिकी प्रशासन का इतना महत्वपूर्ण व्यक्ति म्यांमार आया हो. कहा जा रहा है कि राजनीतिक सुधार और मानवाधिकार जैसे मुद्दे जिन पर म्यांमार की जनता ने पिछले 50 साल से कोई प्रगति नहीं देखी, अमेरिकी राष्ट्रपति और विदेश मंत्री के एजेंडे में शामिल थे.

हालांकि इस सबके बीच म्यांमार की जमीनी हकीकत जिसमें आज भी कोई खास बदलाव नहीं आया है, पर किसी का ध्यान नहीं है. यहां बदलाव सिर्फ यह है कि देश के उसी सैन्य शासन ने अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के सामने खुद को एक नए रूप में पेश किया है. और यह इतनी अच्छी तरह किया गया कि कल तक अछूत माना जाने वाला देश आज सबका लाड़ला दिखता है. पश्चिमी देशों के सरकारी प्रतिनिधि यहां आने को ऐसे आतुर दिखाई दे रहे हैं जैसे उनका मकसद सिर्फ ‘राजनीति सुधारों’ का समर्थन करना है और उनकी योजनाओं में उनके रणनीतिक और आर्थिक हित नहीं हैं.

वैसे भारत ने इस मामले में कम दिखावा किया है. हां, यह जरूर है कि उसने भी म्यांमार में चल रहे राजनीतिक सुधारों की तारीफ की थी. वह भी यह जानते हुए कि वहां अब भी सेना के रिटायर्ड जनरल थीन सीन की सरकार है जिन्होंने नवंबर, 2010 के चुनावों में भारी धांधली करते हुए सत्ता हथियाई थी.

जब पूरी दुनिया म्यांमार में चल रहे राजनीतिक सुधारों पर चर्चा कर रही है तब एक ऐसा कारक है जिस पर अभी तक सबसे कम बात की गई है. जबकि यही वह कारक है जिसने देश की सैन्य सरकार को अपना रंग-ढंग बदलने के लिए सबसे ज्यादा मजबूर किया. साथ ही पश्चिमी देशों को भी जिन्होंने कभी जुंटा के सैन्य शासन की तीखी भर्त्सना की थी. यह महत्वपूर्ण कारक है चीन.

यह 1988 की बात है जब म्यांमार में जनअसंतोष बड़ी तेजी से उभरा और जिसने सू की को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध कर दिया. सैन्य शासन ने जनता के इस आंदोलन को बर्बरता से कुचल दिया. इस कार्रवाई में हजारों लोगों को गोली मार दी गई. इस घटना की अमेरिका और पश्चिमी देशों ने तीखी निंदा की. म्यांमार पर इन देशों ने कई प्रतिबंध  लगा दिए. लेकिन प्रतिबंधों में कभी इतनी कड़ाई नहीं बरती गई कि सैन्य सरकार की हालत बिगड़ जाए. इनका एक बड़ा असर यह जरूर हुआ कि म्यांमार अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से कट गया और संयुक्त राष्ट्र व दूसरी एजेंसियों से मिलने वाली आर्थिक मदद उसे बंद हो गई. लंबे समय से देश के वन्य, खनिज, गैस और जल संसाधनों पर नजर गड़ाए चीन के लिए यह सुनहरा मौका था. उसने इसका खूब फायदा भी उठाया. बीजिंग रेव्यु जिसे चीन सरकार का मुखपत्र माना जाता है, के दो सितंबर, 1985 के अंक में इसकी एक झलक मिलती है कि कैसे चीन की योजनाओं में म्यांमार शामिल था. पूर्व उप संचार मंत्री पान की, के आलेख ‘ओपनिंग टू द साउथ वेस्ट ‘ में इस संभावना के बारे में बताया है कि कैसे चीन के दक्षिणी छोर पर बसे युन्नान और सिचुयान प्रांत से व्यापारिक वस्तुओं की आवाजाही म्यांमार और उसके जरिए हिंद महासागर तक हो सकती है.

यह पहला मौका था जब चीन के किसी सरकारी अधिकारी ने अपने देश के आर्थिक हितों के लिए म्यांमार को इतना महत्वपूर्ण माना था. इसके पहले तक चीन कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ बर्मा (जो आज भी म्यांमार के पुराने नाम बर्मा का इस्तेमाल करती है) और दूसरे विद्रोही गुटों का समर्थक था. लेकिन 1976 में माओत्से-तुंग की मौत के बाद जब डेंग जियाओपिंग सत्ता में आए तो यह नीति बदल गई. डेंग ने विद्रोही गुटों को समर्थन देने के बजाय सरकार के साथ व्यापार को तरजीह दी.

यह मानने की पर्याप्त वजहें हैं कि सू की भावनात्मक रूप से चीन की बजाय भारत से अधिक जुड़ी हुई हैं. भारत को इसका लाभ मिल सकता हैचीन और म्यांमार के बीच सीमा-व्यापार समझौता अगस्त, 1988 में हुआ था. यह देश में जनाक्रोश भड़कने से पहले की घटना है. लेकिन आंदोलन के बर्बर दमन और उसके बाद देश पर लगे प्रतिबंधों के बाद चीन काफी तेजी से आगे बढ़ा और जल्दी ही म्यांमार का सबसे महत्वपूर्ण व्यापारिक साझेदार बन गया. उसने म्यांमार को अपने खस्ताहाल हो रहे बुनियादी ढांचे को सुधारने और सैन्य साजोसामान हासिल करने में काफी मदद की. धीरे-धीरे इस क्षेत्र का सामरिक संतुलन चीन के पक्ष में हो गया जो जाहिर है नई दिल्ली के रक्षा रणनीतिकारों के लिए चिंता की बात थी. भारत-चीन प्रतिद्वंद्विता में चीन का म्यांमार पर असर एक नया आयाम था.
लेकिन असल झटके अभी बाकी थे. नवंबर, 2008 में चीन और म्यांमार में 1.5 अरब डॉलर की लागत से बनने वाली तेल पाइपलाइन और 1.04 अरब डॉलर लागत की प्राकृतिक गैस पाइपलाइन बिछाने का समझौता हुआ. ये पाइपलाइनें बंगाल की खाड़ी से युन्नान के कुनमिंग तक बिछाई जाएंगी ताकि पश्चिम एशिया से आने वाले तेल के जहाजों से तेल सीधे इन इलाकों तक पहुंचाया जा सके. इससे जहाज मलक्का खाड़ी का चक्कर लगाने से बच जाएंगे. सितंबर, 2010 में चीन म्यांमार को तीस साल की अवधि के लिए 4.2 अरब डॉलर का ब्याज मुक्त ऋण देने पर भी सहमत हुआ है.

कई विदेशी पर्यवेक्षकों का मानना था कि म्यांमार पर प्रतिबंध लगाने से उसकी आर्थिक और सामरिक डोरियां चीन के हाथ में आ जाएंगी. ऐसा तो नहीं हुआ लेकिन यह जरूर है कि पश्चिमी नीतियों के चलते चीन के लिए म्यांमार को लेकर अपने इरादों को हकीकत में बदलना आसान हो गया. यही वजह है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ दोनों को अपनी म्यांमार नीति पर पुनर्विचार करना पड़ा है. इसी दौरान चीन पर देश की बढ़ती निर्भरता को लेकर म्यांमार के सैन्य नेतृत्व के भीतर चिंता और असंतोष बढ़ा है.

हालांकि अमेरिका की सामरिक चिंताएं बहुत पहले ही देखने को मिल गई थीं. जून, 1997 में लॉस एंजल्स टाइम्स में प्रकाशित अपने आलेख में अमेरिकी सुरक्षा विशेषज्ञ और सीआईए के पूर्व विश्लेषक मर्विन ऑट का मानना था कि अमेरिका को म्यांमार के मुद्दे पर हाथ बांधकर नहीं बैठे रहना चाहिए. हालांकि इसके बाद भी कुछ खास नहीं हुआ. लेकिन 2000 की शुरुआत में जब यह बात सामने आई कि म्यांमार और उत्तरी कोरिया में सामरिक साझेदारी हो गई है तो अमेरिका के कान खड़े हो गए. उसे लगा कि अब आंखें मूंदे रहने से नुकसान हो सकता है. उसे यह भी महसूस हुआ कि म्यांमार के नेतृत्व के साथ संवाद कायम करना होगा. वह नेतृत्व जो बगैर परिणामों की परवाह किए किसी भी तरह सत्ता से चिपका रहना चाहता था. 2010 के चुनावों में अमेरिका को इसका मौका मिल गया जब अचानक म्यांमार का चेहरा बदला और वह जुंटा नहीं बल्कि संविधान द्वारा चलाया जाने वाला एक देश बन गया. भले ही यह धांधली से भरे चुनावों के बाद हुआ हो, लेकिन अमेरिका समेत तमाम पश्चिमी देशों के लिए म्यांमार के साथ तनाव घटाने और चीन तथा उत्तर कोरिया के साथ उसकी नजदीकी कम करने की कोशिश के लिहाज से यह एकदम सही समय था.

म्यांमार की सेना के कई राष्ट्रवादी अधिकारी चीन पर अत्याधिक निर्भरता और देश के उत्तरी इलाके में चीन के लोगों के बड़े पैमाने पर बसने से भी काफी असंतुष्ट हो चले थे. चीन को पहला झटका अक्टूबर, 2004 में लगा जब म्यांमार के तत्कालीन प्रधानमंत्री और पूर्व खुफिया प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल खिन युंत को हटा दिया गया. पहले तो चीन को यह यकीन ही नहीं हुआ कि म्यांमार में उसका हित साधने वाले शख्स को चलता कर दिया गया है. बहरहाल दोनों देश इस घटना को लेकर शांत रहे और ऐसा लगा कि संबंध एक बार फिर सामान्य हो रहे हैं. फिर 2009 में म्यांमार के सैनिकों ने पूर्वोत्तर के कोकांग इलाके में प्रवेश किया और चीनी मूल के करीब 30 हजार लोगों को सीमा पार चीन में धकेल दिया.

लेकिन फिर भी चीन को नहीं लगा कि समीकरण बदल रहे हैं. यह अहसास उसे तब जाकर हुआ जब सितंबर, 2011 में थिएन सिएन सरकार ने काचिन राज्य में मीत्सोन बांध पर बन रही 3.6 अरब डॉलर की पनबिजली परियोजना रद्द करने की घोषणा कर दी. माली हका और माई हका नदियों के संगम पर बनने वाला मीत्सोन बांध दुनिया का 15वां सबसे ऊंचा बांध होता. 2006 में हुए समझौते के मुताबिक परियोजना से उत्पन्न होने वाली बिजली का 90 फीसदी चीन को दिया जाना था. जाहिर है चीन के राजनीतिक हलकों में हड़कंप मच गया. चीन ने म्यांमार सरकार के खिलाफ अनुबंध तोड़ने के लिए कानूनी कार्रवाई करने की धमकी दी है. साफ है कि चीन और म्यांमार के रिश्ते अब कभी भी पहले जैसे नहीं हो पाएंगे.

लेकिन म्यांमार में यह बदलाव रातों-रात नहीं आया. जिस साल खिन युंत को हटाया गया, उसी साल म्यांमार रक्षा सेवा अकादमी के शोधकर्ता लेफ्टिनेंट कर्नल अंग या हला ने एक महत्वपूर्ण दस्तावेज तैयार किया था. 346 पन्नों वाली उनकी इस अत्यंत गोपनीय थीसिस में म्यांमार और अमेरिका के रिश्तों का अध्ययन था. पिछले साल सेना के एक विश्वसनीय स्रोत से यह रिपोर्ट मेरे हाथ लगी थी. इसमें साफ लिखा है कि एक कूटनीतिक साथी और आर्थिक संरक्षक के रूप में चीन ने ऐसे हालात बना दिए हैं कि म्यांमार की आजादी के लिए खतरा पैदा हो गया है. थीसिस में यह भी कहा गया था कि मानवाधिकार भले ही पश्चिम में एक अहम मुद्दा हो लेकिन इसके बावजूद अमेरिका अपने सामरिक हितों को देखते हुए अपनी नीतियों में बदलाव कर सकता है. हालांकि लेखक ने उन हितों का उल्लेख नहीं किया है, लेकिन यह स्पष्ट है कि म्यांमार में चीन और अमेरिका के साथ समान रिश्तों का विचार तभी पनप गया था. थीसिस में वियतनाम और पूर्व तानाशाह सुहार्तो के अधीन इंडोनेशिया के साथ अमेरिका के रिश्तों को उसकी विदेशनीति के लचीलेपन का उदाहरण बताया गया था. 

इस थीसिस में दिए गए मास्टर प्लान में कहा गया था कि अगर अमेरिका के साथ द्विपक्षीय रिश्तों में सुधार हुआ तो म्यांमार को विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और अन्य वैश्विक वित्तीय संस्थानों से वह मदद भी मिलेगी जिसकी उसे सख्त जरूरत है. तब म्यांमार उस स्थिति से उबर सकेगा जहां वह चीन समेत अपने नजदीकी पड़ोसियों की सद्भावना और उनके साथ कारोबार पर निर्भर है. तब वह क्षेत्रीयता से बाहर निकलकर सही मायने में वैश्वीकरण के युग में प्रवेश कर सकेगा. दस्तावेज में यह भी जिक्र था कि म्यांमार के प्रति दोस्ताना रुख रखने वाले भारतीय राजनयिक उन अमेरिकी कांग्रेस सदस्यों के बारे में आवश्यक जानकारी मुहैया करा सकते हैं जो अपने यहां बड़ा प्रभाव रखते हों. यह पहला मौका था जब म्यांमार के सैन्य प्रशासन में भारत का सकारात्मक तरीके से जिक्र हुआ था. दरअसल 1988 में हुई जनक्रांति के वक्त भारत ने न सिर्फ लोकतंत्र समर्थक आंदोलन के प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया था बल्कि म्यांमार के कई निर्वासित नेताओं को नई दिल्ली और कोलकाता से अपना अभियान चलाने की आजादी भी दी थी.

मास्टर प्लान में उन चुनौतियों का भी जिक्र है जिन्हें चीन पर निर्भरता कम करने और पश्चिम के साथ विश्वसनीय संबंध कायम करने से पहले हल करना जरूरी था. उस दस्तावेज को लिखे जाते वक्त सू की की गिरफ्तारी प्रमुख मुद्दा थी. अंग या हला की रिपोर्ट में यह बात कही गई थी कि सू की की नजरबंदी खत्म हो जाए तो अंतरराष्ट्रीय दबाव में कमी आएगी. बाद में यही हुआ. सू की को नजरबंदी से रिहा किया गया और अमेरिका के साथ म्यांमार के संबंधों में वाकई सुधार आया. यह उसी तर्ज पर हुआ जैसा कि 2004 में लिखा गया था.

इस सबसे यही लगता है कि अमेरिका म्यामांर के साथ नहीं बल्कि म्यांमार अमेरिका के साथ सही तरीके से जुड़ने में कामयाब रहा है. यह इससे भी जाहिर होता है कि अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन जब हाल में म्यांमार आईं तो इस दौरान उन्होंने मानवाधिकार और लोकतंत्र जैसे मुद्दों का जिक्र नाम भर के लिए किया. उनके एजेंडे  का सारा जोर चीन-म्यांमार और उत्तर कोरिया-म्यांमार रिश्ते पर रहा. उसी वक्त कैनेबरा की यात्रा पर गए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी कहा कि अमेरिका समूचे एशिया प्रशांत क्षेत्र में अपनी प्रतिबद्धता में इजाफा कर रहा है. हालांकि उन्होंने तुरंत ही इसमें यह बात भी जोड़ी कि अमेरिका न तो चीन से डरता है और न ही वह चीन को अलग-थलग करना चाहता है.

यह मानने की पर्याप्त वजहें हैं कि सू की भावनात्मक रूप से चीन की बजाय भारत से अधिक जुड़ी हुई हैं. भारत को इसका लाभ मिल सकता है

इस समय भले ही म्यांमार और अमेरिका एक साथ खड़े नजर आ रहे हों लेकिन किसी को यह उम्मीद नहीं है कि दोनों के संबंध पूरी तरह सामान्य रहेंगे. दशकों पुरानी आपसी तनातनी और शंका अब भी मौजूद है. मानवाधिकार और लोकतंत्र अमेरिका की नैतिक मजबूती का ऐसा हिस्सा है जिसे वह छोड़ नहीं सकता. यह बात भी म्यांमार के शासकों को परेशान करेगी  क्योंकि वे सत्ता पर अपनी पकड़ जरा भी ढीली नहीं होने देना चाहते. उधर, चीन की बात करें तो म्यांमार भले ही उस पर निर्भरता कम होने को लेकर प्रसन्न हो लेकिन इतने लंबे जुड़ाव और कई परियोजनाओं पर काम चालू होने के कारण इस रिश्ते को पूरी तरह खत्म नहीं कहा जा सकता.
चीन म्यांमार से मिल रहे नए संकेतों को गंभीरता से ले रहा है. इस साल फरवरी और मार्च में बीजिंग के चीनी भाषा के साप्ताहिक समाचार पत्र इकोनॉमिक ऑब्जर्वर ने मीत्सोन बांध परियोजना के रद्द होने पर आलेखों की शृंखला प्रकाशित की. उसमें यह विश्लेषण करने की कोशिश की गई कि आखिर दोनों देशों के रिश्तों में गड़बड़ी कहां हुई. 14 अक्टूबर को द पीपुल्स डेली के तहत प्रकाशित होने वाले टेबलॉयड द ग्लोबल टाइम्स ने एक टिप्पणी में कहा कि चीन को म्यांमार के साथ अपने संबंधों में ‘जमीनी मुद्दों को अधिक तवज्जो देनी चाहिए.’ म्यांमार के पत्रकारों के मुताबिक द ग्लोबल टाइम्स के संवाददाता अब उनको फोन करके सू की के बारे में सवाल कर रहे हैं. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ.

देखना दिलचस्प होगा कि भारत इस नई परिस्थिति का सामना किस तरह करता है. चीन के साथ म्यांमार की दूरी बढ़ना उसके लिए स्वागतयोग्य घटना है. पूर्वी एशिया में कारोबार और निवेश बढ़ाने संबंधी नीति के लिहाज से भी म्यांमार बेहद अहम है. लेकिन उससे पहले भारत को अपने पूर्वोत्तर हिस्से में चल रही जातीय हिंसा और अन्य सुरक्षा समस्याओं का स्थायी हल तलाशना होगा. भारत कई बार इस पर नाराजगी जताता रहा है कि पूर्वोत्तर के नगा, मणिपुरी और कुकी विद्रोही सीमा पार म्यांमार में ठिकाना बनाए हुए हैं. उन्हें वहीं से हथियार भी मिलते हैं. हालांकि यह बात भी है कि इन इलाकों में म्यांमार सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है.

फिर भी इन तमाम मुश्किलों के बावजूद भारत और म्यांमार के बीच कारोबार बढ़ रहा है. 1988 से पहले दोनों देशों के बीच शायद ही कारोबारी गतिविधियां थीं. लेकिन 2005 से 2010 के बीच यह 55 करोड़  से बढ़कर 1.2 अरब डॉलर तक पहुंच गया. इसके अलावा वह म्यांमार में बुनियादी ढांचे से जुड़ी कई परियोजनाओं में भी शामिल है. इसमें दोनों देशों को जोड़ने वाली प्रमुख सड़क निर्माण परियोजनाएं भी शामिल हैं. अमेरिका भी भारत के इन कदमों का समर्थन कर रहा है. बीते साल 23 नवंबर को अमेरिकी उप राष्ट्रीय रक्षा सलाहकार (सामरिक संचार) बेन रोड्स ने कहा था, ‘हमें यकीन है कि जिस तरह प्रशांत महासागर क्षेत्र की शक्ति के रूप में अमेरिका पूर्वी एशिया के भविष्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहा है उसी तरह भारत भी हिंद महासागर क्षेत्र की शक्ति तथा एक एशियाई राष्ट्र के रूप में यही काम कर सकता है.’

यह मानने की पर्याप्त वजहें हैं कि सू की भावनात्मक रूप से चीन के बजाय भारत से अधिक जुड़ी हुई हैं. 1960 में जब वे पहली बार भारत आईं तब उनकी उम्र महज 15 वर्ष थी. यही वह उम्र है जब इंसान के मन में विचारों की पक्की छाप पड़ने लगती है. भारत में सू की ने महात्मा गांधी की अहिंसा की अवधारणा को ग्रहण और आत्मसात किया. 1970 के दशक में जब वे न्यूयॉर्क में रह रही थीं तब उनकी प्रेरणा मार्टिन लूथर किंग जूनियर बने. उनके भाषणों में सू की को महात्मा गांधी की झलक मिलती थी. भारत को इसका लाभ मिल सकता है. देखा जाए तो भारत और अमेरिका दोनों का म्यांमार में एक मुख्य और साझा मकसद है. वह है क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभुत्व से निपटना. सू की को लुभाना तो इस खेल का हिस्सा भर है.
(लिंटनर स्वीडिश पत्रकार और पूर्वी एशिया मामलों के जानकार हैं)