समर्पण और सवाल

बस्तर के बासागुड़ा दलम में गुरिल्ला स्क्वैड प्रभारी रहे रमेश उर्फ बदरन्ना ने 30 जनवरी, 2000 को नक्सलपंथ का रास्ता छोड़ा था. मकसद था समाज की मुख्यधारा में लौटना. बदले में पुलिस ने बदरन्ना को बेहतर पुनर्वास का भरोसा दिलाया था.

लेकिन वक्त बीतता गया और कुछ नहीं हुआ. पुलिस अधिकारियों के चक्कर काटते हुए दिन, महीने और देखते ही देखते कई साल भी निकल गए. इस दौरान बदरन्ना ने कहीं इधर-उधर भी काम मांगा तो लोगों ने यह कहकर बचने की कोशिश की कि नक्सली रहा है, पता नहीं क्या करेगा. पूरे आठ साल बाद बदरन्ना को एक नौकरी हासिल हो पाई. लेकिन तब भी ऐसा नहीं था कि मुश्किलें खत्म हो गई हों. फिलहाल जगदलपुर नगर निगम के एक बगीचे में मिट्टी खोदने वाले मजदूर के रूप में काम करने वाले बदरन्ना को निगम ने जाति और चरित्र प्रमाण पत्र जमा करने के लिए नोटिस थमा दिया है. नक्सलवाद के रास्ते पर चलते हुए अपना घर-परिवार खो चुके बदरन्ना के सामने अब सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि अपनी नौकरी बचाने के लिए जाति और चरित्र प्रमाण पत्र की व्यवस्था किस तरह की जाए. नक्सलियों द्वारा गांवों में संचालित किए जाने वाले स्कूल में प्राइमरी तक पढ़े बदरन्ना के शब्दों में, ‘नक्सली चरित्र और चरित्रवान लोगों को तो महत्वपूर्ण मानते हैं लेकिन जाति व्यवस्था की परिपाटी वहां लागू नहीं होती. अब मैं किससे लिखवाऊं कि मेरा चरित्र कभी खराब नहीं रहा और मेरी जाति दोरला है.’

बदरन्ना की पत्नी लतका की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है. बदरन्ना के साथ बीहड़ों में सक्रिय रही लतका के लिए कुछ किया जा सकता है, इसकी याद पुलिस को तब आई जब 2006 में कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा की अगुवाई में नक्सलियों के खिलाफ सलवा-जुडूम अभियान शुरू हुआ. लतका प्रतिमाह 1,500 रु पाने वाली एसपीओ (स्पेशल पुलिस ऑफिसर) बना दी गई. उसका काम था गांव-गांव जाकर युवाओं को नक्सलवाद से दूर रहने की सलाह देना. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद जब एसपीओ से हथियार वापस लेने की प्रक्रिया शुरू हुई तो उसे खाली बैठना पड़ा. अब कुछ समय पहले लतका की तैनाती सहायक आरक्षक के पद पर तो हो गई है, लेकिन उसके मुताबिक अब भी कई बार वरिष्ठ अफसर उससे यह कह देते हैं कि वह नक्सली रही है इसलिए पुलिस का साथ सच्चे मन से नहीं दे सकती. इस बात में कहीं-न-कहीं नौकरी छीन लेने का संदेश भी छिपा रहता है.

यह व्यथा अकेले बदरन्ना और लतका की नहीं है. नक्सलवाद से ग्रस्त राज्यों की सूची में शीर्ष पर खड़े छत्तीसगढ़ में ऐसे बहुत-से उदाहरण हैं. ये बताते हैं कि नक्सलियों के आत्मसमर्पण के जरिए इस चुनौती पर काबू पाने की राज्य सरकार की नीति एक बड़ी हद तक असफल क्यों है. तहलका ने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करने वाले बहुत-से नक्सलियों के पते-ठिकानों पर जाकर हालात की पड़ताल की. इस दौरान हमारा सामना कई चौंकाने वाली सच्चाइयों से हुआ.

पुलिस कहती है कि नक्सली हिंसा से तंग आकर ही आत्मसमर्पण करते हैं, लेकिन सच यह है कि ऐसे नक्सलियों का बंदूक से रिश्ता खत्म नहीं हुआ है

आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों को लेकर आयोजित की जाने वाली प्रेस वार्ताओं में पुलिस यह दावा करती रही है कि ये नक्सली ‘हिंसक’ गतिविधियों से तंग आने के बाद ही समाज की मुख्यधारा से जुड़ाव को लेकर प्रेरित होते हैं. लेकिन सच यह है कि छत्तीसगढ़ में समर्पण करने वाले ज्यादातर नक्सलियों का रिश्ता बंदूक से खत्म ही नहीं होने दिया गया. वे नक्सली जो बीहड़ों में पुलिस को वर्ग शत्रु मानकर उस पर गोलियां दागते थे, समर्पण के बाद वही पुलिस की ओर से नक्सलियों पर गोलियां दाग रहे हैं. कई जगहों पर तो पुलिस ने उन्हें एनकांउटर स्पेशलिस्ट भी बना रखा है. तहलका को छानबीन के दौरान एक भी शख्स ऐसा नहीं मिला जो खेती-बाड़ी या किसी दूसरे काम-धंधे में लगा हो. बदरन्ना को जरूर अपवाद कहा जा सकता है.  हालांकि उसे भी पहले नक्सलियों के खात्मे के लिए पुलिस की मदद करने को कहा गया था, लेकिन वह तैयार नहीं हुआ. बदरन्ना किसी पुनर्वास नीति से भी आकर्षित नहीं था. वह बताता है, ‘पार्टी का प्रभाव बढ़ रहा था और मैं उसके हिसाब से खुद को एडजस्ट नहीं कर पा रहा था. लंबे समय तक संगठन में एक ही जगह अटके रहने से फ्रस्ट्रेशन आ गया था.’ 

अपनी पड़ताल में हम पाते हैं कि छत्तीसगढ़ के पुलिस महकमे ने साल 2000 से सितंबर, 2012 तक  3,225 नक्सलियों के स्वप्रेरणा से आत्मसमर्पण कर देने, उनके माता-पिता, गांव, संगठन में कैडर आदि का हिसाब-किताब तो बखूबी रखा है,लेकिन विभाग में इस बात की कोई जानकारी नहीं मिलती कि समर्पण के बाद कौन क्या कर रहा है.

आत्मसमर्पण कर चुके एक नक्सली एनकन्ना की तलाश में हम उसके गांव एतराजपाड़ को रवाना होते हैं.  एनकन्ना की पहचान बीजापुर जिले के रानीबोंदली बेस कैंप, मुरकीनार और गीदम थाने पर हमला करके कुल 71 सुरक्षाकर्मियों को मौत के घाट उतारने वाले नक्सली के तौर पर है. पुलिस मानती है कि एतराजपाड़ का बच्चा-बच्चा नक्सली है. यह गांव उस भेज्जी थाने से लगभग 12 किलोमीटर दूर है जिस पर नक्सली कई बार हथियार लूटने के लिए हमला कर चुके हैं.

हम एतराजपाड़ पहुंच चुके हैं. गांव में सन्नाटा पसरा है. इधर-उधर तलाशने पर हमें दो-चार लोग मिलते हैं, लेकिन वे बातचीत करने से बचते हैं. जैसे-तैसे आयतु (बदला हुआ नाम ) नाम का एक ग्रामीण बात करने के लिए राजी होता है. वह बताता है कि गांव से कुछ दूर जंगल में दादा लोग यानी नक्सली बैठक ले रहे हैं इसलिए सब वहां गए हुए हैं. बैठक में शामिल होने को अपनी मजबूरी बताते हुए आयतु बताता है कि आत्मसमर्पण के बाद एनकन्ना ने कभी गांव का रुख नहीं किया. शायद उसे डर है कि यदि वह गांव आया तो नक्सली उसे मार डालेंगे. विदा लेने से पहले हमें यह महत्वपूर्ण सूचना भी मिलती है कि एनकन्ना अब पुलिस की नौकरी कर रहा है और उसकी तैनाती बीजापुर के पुलिस कार्यालय में है.

हम बीजापुर पहुंचते हैं. नक्सली से पुलिसकर्मी बने एनकन्ना से मुलाकात के लिए हमें काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है. जैसे-तैसे हम उस तक अपना संदेश पहुंचाते हैं. बीजापुर के पुलिस कप्तान प्रशांत अग्रवाल के दफ्तर की छत पर पुलिसकर्मियों की भीड़ से अलग होने के बाद एनकन्ना बताता है कि उसने 2009 में आत्मसमर्पण किया था. उसके साथ उसकी नक्सली पत्नी सुशीला भी थी. एनकन्ना को खेती-बाड़ी के लिए जमीन देने के साथ-साथ लगभग एक लाख रुपये नकद देने का आश्वासन दिया गया था. लेकिन अब तक उसे न तो जमीन मिली है और ही पैसा. एनकन्ना बताता है कि पुनर्वास के तहत दी जाने वाली रकम पाने के लिए जब उसने पुलिस विभाग के बड़े अफसरों से शिकायत की तो उसे एसपीओ बना दिया गया. इन दिनों वह सहायक आरक्षक है और नक्सलियों को मार गिराने में पुलिस की मदद कर रहा है. वह बताता है कि उसे बस्तर के चप्पे-चप्पे की जानकारी है जिसका फायदा उठाकर पुलिस उसे सामने रखकर मुठभेड़ की कार्रवाई अंजाम देने में लगी रहती है.

एनकन्ना को पुनर्वास के तहत दी जाने वाली राशि और एनकांउटर स्पेशलिस्ट बना दिए जाने को लेकर बीजापुर के पुलिस अधीक्षक प्रशांत अग्रवाल कहते हैं, ‘एनकन्ना नक्सलियों द्वारा अंजाम दी गई वारदात में शामिल जरूर था, लेकिन उसके अपराध रिकार्ड में नहीं थे इसलिए उसे धनराशि देने के बजाये पुलिसवाला बना दिया गया.’ जब एनकन्ना के खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं था तो फिर वह नक्सली कैसे हुआ, यह पूछे जाने पर अग्रवाल कहते हैं कि वारदात के दौरान नक्सलियों को सहयोग देने के लिए मौजूद रहने वाला भी नक्सली हो सकता है. वे यह भी बताते हैं कि नक्सलियों की टोह लेने के लिए पुलिस एनकन्ना की मदद तो लेती है, लेकिन वह एनकाउंटर स्पेशलिस्ट नहीं है. 

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 435 किलोमीटर दूर भैरमगढ़ मार्ग पर स्थित एक गांव नेलसनार में हमारी मुलाकात दो ऐसे लोगों से होती है जो मिरतुर व उसके आस-पास के इलाकों में सक्रिय नक्सली कमांडर मुन्ना कड़ती और संतोष के लिए काम किया करते थे. मूल रुप से दारापाल गांव निवासी भीमा बताता है कि उसने कभी हथियार नहीं उठाया क्योंकि वह ग्रुप में सबके लिए भोजन बनाने का काम ही करता था. लेकिन जब बस्तर में सलवा-जुडूम अभियान की शुरुआत हुई तो हिंसा और खून-खराबे के माहौल से डरकर उसने फैसला किया कि वह आत्मसमर्पण कर देगा. उसे पांच हजार रुपये का इनाम मिला और बाद में उसे एसपीओ बनाकर हथियार थामने के लिए मजबूर कर दिया गया. अब वह सहायक आरक्षक है. जब कभी पुलिस जंगल में सर्च करने के लिए कूच करती है तो वह बंदूक पकड़कर आगे-आगे चलता है. कुछ इसी तरह की शिकायत नक्सली से सहायक आरक्षक बने लक्ष्मण ओयाम की भी है. वह बताता है कि उसने नौ जुलाई, 2005 को आत्मसमर्पण किया था, लेकिन तब से लेकर अब तक वह पुलिस की ओर से मुहैया कराए गए एक दड़बे में ही रहने को मजबूर है. पुलिस जब कभी कहती है कि फलानी जगह पर सर्च के लिए चलना है तो वह बंदूक कंधे पर उठाकर चल देता है.

आंध्र प्रदेश की तुलना में अनाकर्षक पुनर्वास नीति की वजह से छत्तीसगढ़ में सक्रिय रहे कई बड़े नक्सली राज्य में आत्मसमर्पण करने से बचते रहे हैं

2010 में जब बीजापुर जिले के पुलिस कप्तान अविनाश मोहंती थे तब मुठभेड़ के 13 प्रकरणों सहित हत्या, लूट और राष्ट्रदोह के दर्जनों मामलों में शामिल यालम रमेश उर्फ दिलीप को डेढ़ लाख रुपए का इनामी नक्सली बताते हुए दावा किया गया था कि उसने आत्मसमर्पण किया है. लेकिन बीजापुर के वर्तमान पुलिस अधीक्षक प्रशांत अग्रवाल आत्मसमर्पण कर चुके नक्सलियों की जो सूची तहलका को देते हैं उसमें रमेश पर मद्देड़ और भोपालपट्टनम थानों की ओर से कुल सात हजार रुपए का इनाम दर्शाया गया है. सूची में यालम रमेश की पत्नी साधना उर्फ सोमली को भी आत्मसमर्पण कर चुका बताते हुए जानकारी दी गई है कि उसके ऊपर कोई अपराध पंजीबद्ध नहीं था इसलिए उसे 14 अक्टूबर, 2010 को पहले एसपीओ ( क्रमांक 1653 )  और अब सहायक सशस्त्र बल में आरक्षक (क्रमांक 305)  बनाया गया है.

जब हमें पता चलता है कि यालम जगदलपुर जेल में बंद है तो हम जुगत लगाकर उससे जेल में ही मुलाकात करते हैं. वह बताता है कि उसे साधना से प्रेम हो गया था. यालम कहता है, ‘बीहड़ में साथ-साथ रहने और पुलिस से बचने-बचाने की प्रक्रिया के दौरान एक रोज साधना ने कहा कि जो गोली दूसरों की जान ले सकती है वही गोली हमें भी जुदा कर सकती है. हम जुदा नहीं होना चाहते थे सो हमने तय किया कि सरेंडर कर देंगे. हमने इधर-उधर से संपर्क साधा तो पुलिसवालों ने खेती-बाड़ी के लिए जमीन और पैसा देने की बात कही. लेकिन जब घरवाले मुत्तापुर (यालम के गांव ) से जेल में मिलने आते हैं तो पता चलता है कि सरकार की ओर से अब तक कुछ भी नहीं किया गया है.’ 23 अप्रैल, 2010 को पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करने वाले यालम को कोई अंदाजा नहीं कि वह जेल से कब छूटेगा. छूटेगा भी या नहीं. उधर, पुलिस कप्तान प्रशांत अग्रवाल कहते हैं, ‘यालम को पुनर्वास योजना का लाभ देने के लिए कलेक्टर को पत्र तो लिखा गया है. देखिए, प्रक्रिया कब तक आगे बढ़ती है. मामला विचाराधीन है.’

एक वक्त था जब सलवा-जुडूम शरणार्थियों के एक बड़े राहत शिविर केंद्र के रूप में विख्यात भैरमगढ़ और जांगला इलाके में नक्सली कमांडर अपका बुधराम का डंका बजता था. जांगला के एक घर में हमारी मुलाकात बुधराम के दल से जुड़ी रही लखमी और रुक्मणी से होती है. दोनों को अपने समर्पण की तारीख तो याद नहीं लेकिन वे बताती हैं कि समर्पण के दौरान पुलिसवालों ने उन्हें सुहाग का साजो-सामान मसलन साड़ी, ब्लाउज, चूड़ी और सिंदूर का डिब्बा भेंट में दिया था. कुछ समय के बाद उन्हें यह बताया गया कि वे गोपनीय सैनिक बना दी गई हैं. वे अब क्या हैं, पूछने पर लखमी और रुक्मणी कहती हैं कि गोपनीय सैनिक ही हैं, लेकिन लगभग पांच महीने से थानेवालों ने पैसा देना बंद कर दिया है. इस बारे में जांगला थाने के प्रभारी लक्ष्मण उमेटी बताते हैं कि गोपनीय सैनिकों को मानदेय देने के लिए अलग से फंड की व्यवस्था तो है लेकिन अब यह फंड खत्म हो गया है.
वैसे छत्तीसगढ़ में नक्सलियों की गिरफ्तारी और उनके समर्पण के संदर्भ में  एक और दिलचस्प तथ्य यह भी है कि नक्सलियों के ठौर-ठिकानों और गतिविधियों से वाकिफ होने के बाद भी न तो राज्य की पुलिस शीर्ष और इनामी नक्सलियों को गिरफ्तार कर पाई है और न ही शीर्ष या मझोले कद के लीडरों ने राज्य में समर्पण को लेकर किसी तरह की दिलचस्पी दिखाई है. बस्तर के एक बड़े हिस्से में भाकपा (माओवादी) से संबद्ध कोसा, गौतम, ओगू, मुपिडी साम्वैया, दसरू, पांडू उर्फ पाण्डुना जैसे चर्चित नाम सक्रिय रहते हैं. इसके अलावा यहां सेंट्रल कमेटी के पोलित ब्यूरो सदस्य गणपति, किशनजी की पत्नी सुजातक्का, नम्बाला केशवराव, कटकम सुदर्शन, किशनदा, थिप्परी तिरूपित और मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व आंध्र सरकार की ओर से 27 लाख रुपये के इनामी नक्सली मल्लोजुला वेणुगोपाल उर्फ भूपति जैसे बड़े लीडरों की मौजूदगी भी बनी ही रहती है. लेकिन पुलिस इनमें से किसी को भी पकड़ नहीं पाई है. छत्तीसगढ़ में सक्रिय रहे अधिकांश बड़े नक्सली आंध्र प्रदेश में आत्मसमर्पण करते रहे हैं. इसका कारण वहां की बेहतर पुनर्वास नीति को बताया जाता है. कुछ समय पहले तक आंध्र में सेंट्रल कमेटी से जुड़े सदस्य को समर्पण करने पर 12 लाख रुपये की राशि दी जाती थी जो अब बढ़कर 20 लाख हो गई है. वहां स्टेट कमेटी मेंबर को 15 लाख रुपये, डिस्ट्रिक्ट कमेटी सेक्रेटरी को 10  लाख रुपये, मेंबर को आठ लाख रुपये, एरिया कमेटी सेक्रेटरी को पांच लाख रुपये, दल के कमांडर को तीन लाख रुपये और सदस्य को एक लाख रुपये की प्रोत्साहन राशि दी जाती है. इसके अलावा यदि आत्मसमर्पण कर चुका नक्सली खेती के लिए जमीन मांगता है तो उसे पांच एकड़ जमीन की सुविधा भी मुहैया कराई जाती है. आंध्र सरकार ट्रैक्टर के लिए बैंक लोन में भी मदद करती है.

उधर, छत्तीसगढ़ सरकार के गृह विभाग की नीति उतनी आकर्षक नहीं है.  विभाग ने वर्ष 2004 में पुनर्वास के लिए जो नीति बनाई थी उसमें किसी नक्सली के एलएमजी ( हथियार ) के साथ सरेंडर करने पर उसे तीन लाख रुपये मिलते थे. एके-47 के साथ दो लाख रुपये और एसएलआर रायफल के साथ एक लाख रुपये, थ्री नाट थ्री रायफल और 12 बोर बंदूक के साथ क्रमश: 50 हजार रुपये और 20 हजार रुपये की रकम दी जाती थी. लगभग आठ साल बाद जाकर सरकार को लगा कि यह रकम काफी नहीं तो नौ मई, 2012 को एक संशोधित आदेश के जरिए यह रकम बढ़ा दी गई. हालांकि जानकारों के मुताबिक यह बढ़ोतरी भी ऊंट के मुंह में जीरे जैसी थी. अब एलएमजी के साथ समर्पण करने वाले नक्सली को साढ़े चार लाख रुपए देना तय किया गया है. एके 47 के साथ समर्पण पर तीन लाख रुपये और एसएलआर के साथ डेढ़ लाख रु देने का निर्धारण हुआ है. थ्री नाट थ्री और 12 बोर की बंदूक पर 25 हजार और 10 हजार रुपये की बढ़ोतरी की गई है. दिलचस्प यह भी है कि एक नक्सली के आत्मसमर्पण करने की तुलना में उसे मुर्दा बरामद करने पर मिलने वाली रकम अच्छी-खासी है. प्रदेश के गृह विभाग की ओर से 25 अगस्त, 2008 को जारी सर्कुलर बताता है कि सेंट्रल कमेटी सचिव, मिलिट्री कमीशन प्रमुख, पोलित ब्यूरो सदस्य, स्टेट सब कमांड चीफ, स्टेट कमेटी सदस्य से लेकर लोकल गुरिल्ला स्क्वैड से जुड़े लोगों को मुर्दा पकड़ने पर पुलिस के अधिकारियों और कर्मचारियों को प्रोत्साहन राशि मिलेगी. प्रोत्साहन के लिए अधिकतम राशि 12 लाख रुपये निर्धारित की गई है.

जानकारों के मुताबिक यही एक वजह है कि छत्तीसगढ़ में सक्रिय अधिकांश नक्सलियों ने समर्पण के लिए बीते दस साल में आंध्र का रुख किया है. 2008 में सेंट्रल कमेटी के एक प्रमुख सदस्य लंकापापी रेडडी, डिस्ट्रिक्ट कमेटी मेंबर सिदाम जयावंत, कोनगंटी करुणा और बस्तर के कोंटा इलाके में सक्रिय डिवीजन कमांडर नागन्ना, लक्ष्मणा, किरण सहित कई प्रमुख नक्सलियों ने आंध्र में हथियार डाले थे. अप्रैल, 2010 में दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी के सदस्य लालचंद ने आंध्र के आदिलाबाद में समर्पण किया था. हाल ही में आठ अक्टूबर, 2012 को मानपुर इलाके के प्लाटून नंबर 23 के प्रभारी कमांडर जंगू उर्फ पवन ने अपनी पत्नी लक्ष्मी औंधी के साथ आंध्र प्रदेश पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया तो छत्तीसगढ़ सरकार की पुनर्वास नीति को लेकर सवाल उठना लाजिमी ही था.

पांच साल पहले मुख्यमंत्री रमन सिंह के सामने आत्मसमर्पण करने वाले 79 नक्सलियों के बारे में बाद में पता चला कि वे किसान थे. फिर उन्हें छोड़ना पड़ा

अपने अगले पड़ाव के तहत हम 28 मई, 2011 को पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण करने वाली एक महिला नक्सली उर्मिला (बदला हुआ नाम) से मिलने राजनांदगांव जिले के छुरिया इलाके में पहुंचते हैं. लेकिन छुरिया थाने में उर्मिला के समर्पण किए जाने का कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं. वहां तैनात एक पुलिसकर्मी से जानकारी मिलती है कि उर्मिला राजनांदगांव स्थित खेल एवं युवक कल्याण विभाग में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के रूप में तैनात है. युवक कल्याण विभाग में पूछताछ करने पर हमें बताया जाता है कि चूंकि उर्मिला ने एक वरिष्ठ पुलिस अफसर आरके विज के सामने आत्मसमर्पण किया था इसलिए दुर्ग या राजनांदगांव के पुलिस कार्यालय में ही उसके बारे में कोई ठोस जानकारी मिल सकती है. इधर-उधर की मशक्कत के बाद हम उर्मिला के चाचा सुरेश कुमार एवं एक भाई जगन्नाथ को ढूंढ़ निकालते हैं. पहले तो वे बात करने से हिचकते हैं, लेकिन फिर उर्मिला के आत्मसमर्पण की हकीकत का राज खोल देते हैं. वे बताते हैं कि छह बहनों में पांचवें नंबर की उर्मिला  दसवीं क्लास से ही नक्सलियों के पर्चों-पोस्टरों के लिए मैटर लिखने का काम करने लगी थी. उसकी यह खास सक्रियता देखकर जल्द ही उसे कम पढ़े-लिखे नक्सलियों को शिक्षित करने एवं पुलिसिया मुठभेड़ में घायल नक्सलियों को दवा-इंजेक्शन देने का जिम्मा दे दिया गया. नक्सलियों के साथ काम करने के दौरान ही उसकी मुलाकात दर्रेकसा दलम के सुभाष से हुई. दोनों में प्रेम हो गया. लेकिन इससे पहले कि दोनों शादी करते, सुभाष को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. यह 2007 की बात है. परिजनों का आरोप है कि जब सुभाष गिरफ्तार हुआ तो उर्मिला को रास्ते पर लाने के लिए पुलिस की ओर से ही यह प्रचार किया जाता रहा कि वह मुठभेड़ में मारा गया है. प्रेमी की मौत से टूट चुकी उर्मिला ने अंततः आत्मसमर्पण कर दिया. परिजन बताते हैं कि आत्मसमर्पण के बाद उर्मिला को न तो नौकरी दी गई न ही खेत और न ही पैसा. फिर एक रोज यह खबर आई कि उसने महाराष्ट्र के नागपुर में एक मजदूर से शादी कर ली है.

हम पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करने वाली एक दूसरी महिला नक्सली दीना को खोजते हुए मोहला विकासखंड के एक गांव परवीडीह पहुंचते हैं. वहां हमें पता चलता है कि जिस दीना के बारे में पुलिस ने यह बताया है कि उसने तीन अक्टूबर, 2012 को आत्मसमर्पण किया है उसका असली नाम समिता है और उसने आत्मसमर्पण नहीं किया है. समिता के भाई श्यामसिंह बताते हैं कि समिता का पति श्यामलाल नक्सलियों के हथियारों के पुर्जे बनाने के आरोप में महाराष्ट्र के नागपुर जेल में सजा काट रहा था. जेल से रिहा होने के बाद श्यामलाल अपनी पत्नी को साथ लेकर अपने पिता फगनूराम से मिलने के लिए परवीडीह आया. मेल-मुलाकात के बाद फगनूराम ने दोनों को समझाया था कि वे खेती-बाड़ी करें. दोनों को गांव में रखने के लिए एक बैठक भी हुई जिसमें सहमति बनी कि वे अपना पेट भरने के लिए खेती-बाड़ी कर सकते हैं. श्यामसिंह बताते हैं, ‘एक रोज जब दोनों पति-पत्नी खेत में काम करने गए हुए थे तो 100 से ज्यादा हथियारबंद पुलिसकर्मियों ने उन्हें घेर लिया. गाली-गलौज के बीच एनकाउंटर कर देने की धमकी दी गई. फिर कुछ दिनों बाद उन्हें आत्मसमर्पण कर चुके नक्सली बताकर मीडिया के सामने पेश कर दिया गया.’

तीन जनवरी, 2007 को राजधानी रायपुर में पूरे तामझाम और भव्य समारोह में मुख्यमंत्री के समक्ष 79 नक्सलियों के आत्मसमर्पण करने की खबर आई थी. केशकाल इलाके के अलग-अलग गांवों के इन ग्रामीणों को पुलिस जब नक्सली बताकर अपनी पीठ थपथपा रही थी तब भाजपा के ही एक विधायक महेश बघेल ने इस समर्पण पर यह कहकर विरोध जताया था कि ये नक्सली नहीं बल्कि निर्दोष ग्रामीण हैं. उनका आरोप था कि सरकार के नुमाइंदे दो जून की रोजी-रोटी के लिए हाड़तोड़ मेहनत करने वाले किसानों को नक्सली बनाकर साजिश रच रहे हैं. अपनी ही पार्टी के विधायक के विरोध के बावजूद तत्कालीन गृहमंत्री रामविचार नेताम लंबे समय तक किसानों को नक्सली बताते रहे. लेकिन जब मामले में पुलिस की जमकर किरकिरी होने लगी तब किसानों को आत्मसमर्पण कर चुके नक्सलियों की सूची से हटा दिया गया. अब पुलिस महकमे के आला अफसर भी मानते हैं कि जल्दबाजी में ग्रामीणों और किसानों को नक्सली मानने की चूक हो गई थी. केशकाल इलाके के एक गांव धनोरा के बुजुर्ग जयप्रकाश बरनवाल कहते हैं, ‘छत्तीसगढ़ की पुलिस अपने नंबर बढ़ाने के लिए कुछ भी कर सकती है. जो नक्सली नहीं है, उसे नक्सली बना सकती है और राह चलते आदमी को आत्मसमर्पित.’    

‘यहां के अफसर सरकार को बदनाम कर रहे हैं’

छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ननकीराम कंवर से हुई बातचीत के मुख्य अंश.

छत्तीसगढ़ में सक्रिय नक्सलियों के आंध्र में समर्पण की क्या वजह है?
देखिए, जब कोई नक्सली आत्मसमर्पण करता है तो जंगलों में तैनात दूसरे नक्सली यह भ्रम फैलाते हैं कि समर्पण करने पर सीधे जेल होगी. अब कोई अपराध करेगा तो उसे सजा होगी ही. वैसे अब हमारी कोशिश है कि आत्मसमर्पण करने वालों के प्रकरणों का निपटारा जल्द-से-जल्द हो ताकि वे जेल से बाहर आकर बेहतर जिंदगी जी सकें.छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ननकीराम कंवर

क्या और कोई वजह नहीं?
पहले आत्मसमर्पण करने पर प्रोत्साहन राशि कम मिलती थी लेकिन अब राशि बढ़ा दी गई है. उम्मीद है कि अब ठीक-ठाक परिणाम मिलेगा.

छत्तीसगढ़ नक्सलियों का सबसे बड़ा गढ़ है. क्या आपको नहीं लगता कि समर्पण के दौरान दी जाने वाली रकम अब भी थोड़ी है?
राशि के कम-ज्यादा होने से कोई फर्क नहीं पड़ता. मूल बात हृदय परिवर्तन की है. हम इस कोशिश में भी लगे हुए हैं कि नक्सलियों का हृदय परिवर्तन हो.

हृदय परिवर्तन के लिए कोई खास नुस्खा आजमाया जा रहा है?
नहीं, कोई खास नुस्खा नहीं है. हम सिर्फ गांववालों को यह समझाने में जुटे हुए हैं कि वे नक्सलियों का साथ न दें. हर इंसान एक-दूसरे का साथ चाहता है. जब नक्सली अकेले हो जाएंगे तब उन्हें इस बात का अहसास होगा कि वे कितने सही थे और कितने गलत.

क्या इस तौर-तरीके से वे बड़ी तादाद में आत्मसमर्पण करने लगेंगे?
एक न एक दिन तो नक्सलियों को इस बात का अफसोस होगा कि वे जो कुछ कर रहे हैं वह समाज के हित में नहीं है.
हमने अपनी तहकीकात में यह पाया है कि आत्मसमर्पण कर चुके नक्सली दिक्कतों और परेशानियों का सामना कर रहे हैं. कइयों को ढंग से पुनर्वास की राशि तक नहीं मिली?
यह बात सही है.

तो फिर गलती किसकी है?

देखिए, जब एक नक्सली समर्पण करता है तो वह सबसे पहले पुलिस के पास आता है. पुलिस उसके आत्मसमर्पण तक तो जवाबदेह रहती है लेकिन आगे का काम जैसे उसे मकान के लिए धनराशि मुहैया कराने या फिर खेती के लिए जमीन देने का काम जिला स्तर पर होता है. यह काम जिलों में बैठे कलेक्टर करते हैं. सरकार अपनी योजनाओं को लागू करने में तेजी दिखाती है लेकिन अफसर उसके क्रियान्वयन को लेकर सुस्त रवैया अपनाते हैं.

तो फिर प्रशासनिक मशीनरी जवाबदेह हुई न?
(कुछ देर की खामोशी के बाद ) मुझे तो यह लगने लगा है कि छत्तीसगढ़ में तैनात कुछ आईएएस और आईपीएस अफसर भाजपा की सरकार को बदनाम कर रहे हैं. लगता है कि बदनामी के एक सूत्री कार्यक्रम में जुटे अफसरों ने भाजपा की सरकार को तीसरी बार नहीं बनने देने के लिए कसम खा ली है.