संख्या और आशंका

कहते हैं कि नैनीताल दो ही तरह के लोगों का शहर है- या तो सेठों का या मेठों का. मेठ स्थानीय भाषा में नेपाली कुलियों को कहा जाता है. स्थानीय लोगों में सालों से प्रचलित यह जुमला बताता है कि नेपालियों का उत्तराखंड से काफी पुराना रिश्ता है. सदियों से नेपाली लोग काम की तलाश में यहां आते रहे हैं. लेकिन जिस तेजी से वे उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में स्थायी रूप से बसते जा रहे हैं उससे कई आशंकाएं भी पैदा हो रही हैं. एक वर्ग का मानना है कि उत्तराखंड में नेपाल से आ रहे लोगों का बसना जारी रहा तो आने वाले समय में यहां सिक्किम जैसे हालात होने की पूरी संभावनाएं हैं. यानी उत्तराखंड के मूल निवासी अपने ही घर में अल्पसंख्यक हो जाएंगे. वरिष्ठ पत्रकार राजेन टोडरिया कहते हैं, ‘नेपालियों के बड़ी संख्या में यहां बसने से जनसंख्या के आंकड़े असंतुलित होने लगे हैं.’

दरअसल उत्तराखंड राज्य बनने के बाद से ही यहां के पहाड़ी जिलों में पलायन तेजी से बढ़ा है. 2011 जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि राज्य के कुल 13 जिलों में से तीन मैदानी जिलों की जनसंख्या पहाड़ के 10 जिलों के लगभग बराबर होने को है. खाली होते इन पहाड़ों में खेती करने वाले लोग भी कम ही रह गए हैं. ऐसे में पहाड़ के लोग अपने खाली पड़े खेतों को किराए पर देने लगे हैं. पहले जो नेपाली लोग यहां बोझा ढोने और मजदूरी का काम किया करते थे वही अब इन खेतों को किराये पर लेकर इनमें खेती करने लगे हैं. किराये के मकानों या अस्थायी झोपड़ियों में उन्होंने अपना स्थायी निवास बना लिया है. पहले वे अकेले ही भारत आया करते थे और कुछ पैसा जमा कर वापस नेपाल लौट जाते थे. लेकिन अब वे अपने परिवार के साथ यहीं बसने लगे हैं. एक अनुमान के अनुसार आज उत्तराखंड में लगभग सात से आठ लाख नेपाली रह रहे हैं. उत्तराखंड विकास पार्टी के संस्थापक मुजीब नैथानी कहते हैं, ‘स्थानीय नेता वोट की राजनीति के चक्कर में इनके वोटर कार्ड बनवा देते हैं. वोटर कार्ड से ये लोग राशन कार्ड से लेकर ड्राइविंग लाइसेंस तक सब कुछ हासिल कर रहे हैं जो कि पूर्ण रूप से अवैध है. मुनि की रेती नगर पंचायत में तो नेपाली मूल की महिला सभासद भी चुनी गई हैं. उनकी नागरिकता को जब चुनौती दी गई तो प्रशासन ने मामले को टालने की कोशिश की. फिलहाल यह प्रकरण केंद्रीय गृह विभाग में लंबित है.’

यहां यह बात भी ध्यान देने वाली है कि हाल ही में टिहरी लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में जीती भाजपा प्रत्याशी राज्य लक्ष्मी शाह भी मूलतः नेपाल मूल की हैं. उन्होंने भले ही भारत की नागरिकता हासिल कर ली है लेकिन फिर भी भाजपा को खुद उनका नामांकन रद्द हो जाने की इतनी आशंका थी कि सावधानी के तौर पर उनके पति मनुजेंद्र शाह का भी नामांकन दर्ज करवाया गया था. बाद में जब राज्य लक्ष्मी शाह के नामांकन पर निर्वाचन आयोग द्वारा कोई आपत्ति नहीं उठाई गई तो मनुजेंद्र शाह ने अपना नामांकन वापस ले लिया.

नेपाल से आकर बसे इन लोगों पर कई बार वन्य-जीवों की तस्करी और अवैध शराब बनाने जैसे  अपराधों में लिप्त होने के आरोप लगते रहे हैं

तहलका ने राज्य की मुख्य निर्वाचन अधिकारी राधा रतूड़ी से जब यह पूछा कि राज्य में वोटर कार्ड बनाने की पात्रता कैसे निर्धारित की जाती है तो उनका कहना था, ‘जो भी व्यक्ति छह महीने या उससे ज्यादा समय से यहां रह रहा है वह पात्र बन जाता है.’ जब उनसे सवाल किया गया कि यदि वह व्यक्ति नेपाल का नागरिक हो तो क्या तब भी वह वोटर कार्ड पाने का पात्र है तो इस पर उनका कहना था, ‘देखिए, नागरिकता केंद्र का मुद्दा है. इस संदर्भ में आप केंद्र के गृह मंत्रालय से ही बात कीजिए.’ निर्वाचन अधिकारी ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया कि जो लोग भारत के नागरिक ही नहीं हैं उन्हें मतदाता पहचान पत्र कैसे जारी किए जा रहे हैं. उन्हें न सिर्फ मतदाता पहचान पत्र जारी किए गए हैं बल्कि कुछ को तो सरकारी नौकरियों पर भी नियुक्त किया गया है. पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी के ही घर पर काम करने वाले नेपाली मूल के दो व्यक्तियों को उत्तराखंड सरकार के दो विभिन्न विभागों में नौकरी दी गई है. राम सिंह परजोली और नारायण अधिकारी नाम के इन व्यक्तियों के फर्जी हाई स्कूल सर्टिफिकेट से लेकर फर्जी स्थायी निवास प्रमाण पत्र तक तैयार करने का मामला राज्य में काफी चर्चा का विषय रहा था. स्थानीय लोगों का कहना है कि इस तरह की नियुक्ति न सिर्फ अवैध है बल्कि इससे स्थानीय लोगों का हक भी मारा गया है. उत्तराखंड जनमंच के प्रमुख टोडरिया कहते हैं, ‘टिहरी और पौड़ी जिले में ही नेपाली मतदाताओं की भारी तादाद है. ये सभी अवैध मतदाता हैं और इनके पहचान पत्र रद्द होने चाहिए. नेपाली मूल के लोग यहां रहें, काम करें, इससे किसी को ऐतराज नहीं, लेकिन विदेशी होने के नाते ये लोग यहां मतदान नहीं कर सकते, जमीन नहीं खरीद सकते और सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन नहीं कर सकते.’

नेपाल से आकर बसे इन लोगों पर कई बार आपराधिक मामलों में लिप्त होने के भी आरोप लगते रहे हैं. वन्यजीवों की खाल, अंग और नशीले पदार्थों की तस्करी में पकड़े जाने वाले लोगों में बड़ी संख्या में नेपाली मूल के लोग शामिल रहे हैं. मई, 2012 में पुलिस द्वारा दो नेपालियों को तेंदुए की खाल, जंगली जानवर के गोश्त और प्रतिबंधित पशु के छह बच्चों के साथ गिरफ्तार किया गया था. स्थानीय पत्रिकाओं में छपी रिपोर्टें बताती हैं कि पिछले कुछ सालों में अवैध शराब के मामलों में पकड़े गए लोगों में से 70 फीसदी से ज्यादा लोग नेपाली ही थे. स्थानीय पत्रिका पर्वतजन के संपादक शिव प्रसाद सेमवाल बताते हैं, ‘पहाड़ों में होने वाली कई आपराधिक घटनाओं में इन नेपाली लोगों की बड़ी भूमिका है.’

वरिष्ठ पत्रकार हरीश चंदोला कहते हैं, ‘नेपाली जिन कठिन भौगोलिक परिस्थितियों से आते हैं उनके कारण उन्हें यहां शारीरिक श्रम करने से कोई परहेज़ नहीं होता. मजदूरी से लेकर खेती करने तक के सभी कामों को वे खुशी-खुशी स्वीकार कर लेते हैं. स्थानीय लोगों को भी नेपालियों की मौजूदगी से कई लाभ हो जाते हैं. उनके खेत किराये पर उठ जाते हैं और उन्हें नेपाली मजदूरों का सस्ता श्रम भी उपलब्ध हो जाता है.’ 
लेकिन कई लोग इस पूरे मामले के दूरगामी परिणामों को घातक मानते हैं. वरिष्ठ पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा कहते हैं, ‘नेपाल में काम और पैसा, दोनों की ही कमी है. ऊपर से वहां माओवाद के चलते भी सैकड़ों की तादाद में नेपाली लोग यहां आकर बस रहे हैं. मगर ये लोग त्वरित मुनाफे के लिहाज से ही खेती कर रहे हैं जिसके चलते इनके द्वारा भारी मात्रा में केमिकल्स का उपयोग किया जाता है. इस तरह से तो आने वाले कुछ ही सालों में यहां के खेत पूरी तरह से बंजर हो जाएंगे.’

और मामला सिर्फ खेती का नहीं है. शिव सेमवाल बताते हैं, ‘उत्तराखंड में कई स्कूल आज ऐसे हैं जो सिर्फ नेपालियों के बच्चों के भरोसे ही चल रहे हैं. इन स्कूलों में स्थानीय छात्रों की संख्या शून्य हो चुकी है. ऐसे में यहां के शिक्षक अपना तबादला बचाने के उद्देश्य से इन नेपालियों को कुछ पैसे देकर इनके बच्चों के नाम स्कूल में दर्ज करवा लेते हैं.’

उत्तराखंड में नेपाल के लोगों की बढ़ती संख्या के साथ स्थानीय लोगों के साथ उनके टकराव के मामले दिखने भी लगे हैं. कुछ समय पहले चमोली जिले के तपोवन क्षेत्र में एक जल विद्युत परियोजना में नौकरी की मांग को लेकर नेपालियों और स्थानीय नागरिकों में मारपीट का मामला सुर्खियां बना. जानकारों का मानना है कि जब नेपाली लोग यहां बस रहे हैं, यहां के मतदाता बन रहे हैं तो स्वाभाविक है कि वे यहां के संसाधनों पर भी अपना अधिकार जताने की पुरजोर कोशिश करेंगे.

जानकारों का मानना है कि जब नेपाली लोग यहां बस रहे हैं, यहां के मतदाता बन रहे हैं तो स्वाभाविक है कि वे यहां के संसाधनों पर भी अपना अधिकार जताने की पुरजोर कोशिश करेंगे.उत्तराखंड में रह रहे नेपालियों को मुख्य रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है. एक वह गोरखा समुदाय है जो कई पीढ़ियों से यहीं बसा हुआ है और आज राज्य  का एक अभिन्न अंग बन चुका है. दूसरी ओर वे नेपाली नागरिक हैं जो कुछ साल पहले ही यहां आकर बसे हैं. नेपालियों के उत्तराखंड में बसने का सिलसिला समझने के लिए इतिहास पर एक नजर डालना जरूरी हो जाता है. सन 1803 में गोरखाओं ने अमर सिंह थापा और हस्तीदल चौतरिया के नेतृत्व में गढ़वाल पर आक्रमण  किया था जो आज भी उत्तराखंड में गोरख्याणी नाम से जाना जाता है. इस आक्रमण को उत्तराखंड के इतिहास का सबसे दमनकारी दौर माना जाता है. मोलाराम तोमर के ‘गढ़वाल राजवंश का इतिहास’ से लेकर कवि गुमानी पंत की कविताओं तक कई जगह इसका विवरण मिलता है. इस आक्रमण के दौरान हजारों की संख्या में लोगों का कत्ल किया गया और उन्हें गुलाम बनाकर मानव मंडियों में बेच दिया गया. फिर गढ़वाल नरेश सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों से मदद मांगी और 1815 में अंग्रेजों ने गोरखाओं को गढ़वाल से बाहर खदेड़ दिया. लेकिन इन लोगों को लड़ता हुआ देख अंग्रेज बहुत प्रभावित हुए और बाद में उन्होंने गोरखाओं को अपनी फौज में शामिल कर लिया. भारत की आजादी के बाद गोरखाओं की इस फौज के दो हिस्से हो गए. एक हिस्सा अंग्रेजों के साथ ही ब्रिटेन चला गया और वह आज भी ब्रिटेन की सेना का एक अंग है. दूसरा हिस्सा भारतीय सेना में गोरखा रेजिमेंट के नाम से आज भी अपनी सेवाएं दे रहा है. माना जाता है कि अंग्रेजों के दौर से ही फौज से रिटायर हुए कई नेपाली लोगों ने उत्तराखंड में ही बसना शुरू किया और फिर उनकी आने वाली पीढ़ियां यहीं की हो गईं.

उत्तराखंड में सदियों से बसा यह गोरखा समुदाय बाकी नेपालियों की तुलना में आर्थिक रूप से ज्यादा संपन्न वर्ग है. उसे अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करके आरक्षण भी दिया गया है. इस पर भी राज्य में विरोध के स्वर गूंजते रहे हैं. टोडरिया कहते हैं, ‘यह आरक्षण देना नारायण दत्त तिवारी की सबसे बड़ी भूल है. गोरखा समुदाय तो उत्तराखंड के शासक वर्ग में शामिल रहा है. 1790 से 1815 तक इसने उत्तराखंड में राज किया है, तो फिर यह पिछड़ा वर्ग में कैसे शामिल किया जा सकता है. पिछड़े वर्ग का आरक्षण देना ही है तो चमोली-पिथोरागढ़ के दूरस्थ इलाकों के लोगों को दिया जाए जिनका पिछड़ापन आज भी प्रत्यक्ष देखा जा सकता है.’
उत्तराखंड में सदियों से रह रहे गोरखाओं और हाल फिलहाल आकर बसे नेपालियों में फर्क कर पाना आज कोई आसान काम नहीं रह गया है. पत्रकार शिव प्रसाद सेमवाल कहते हैं, ‘इनमे बस मोटे तौर पर यही फर्क है कि जो गोरखा आर्थिक रूप से संपन्न हैं वे उत्तराखंडी गोरखे हैं, और जो दिहाड़ी-मजदूरी कर रहे हैं वे हाल ही में आए नेपाली हैं.’

एक वर्ग का यह भी मानना है कि नेपाल से आए इन लोगों में कई ऐसे भी हैं जो किसी आपराधिक घटना को अंजाम देकर नेपाल से फरार हुए हैं और यहां बस गए हैं. मुजीब नैथानी कहते हैं, ‘उत्तराखंड में आने और बसने से पहले न तो इनका कोई पुलिस वेरिफिकेशन किया जाता है और न ही कोई अन्य जांच. इससे यह पता ही नहीं चलता कि यहां आने वाला व्यक्ति किस प्रवृत्ति और पृष्ठभूमि का है.’ उत्तराखंड जनमंच जैसे संगठन मांग कर रहे हैं कि इन सभी लोगों के नाम मतदाता सूची से हटाए जाएं क्योंकि वे सभी अवैध हैं. इसके अलावा नेपाल से आने वाले लोग वर्क परमिट लें और नेपाल की पुलिस द्वारा दिया गया पुलिस वेरिफिकेशन भी साथ लाएं, साथ ही नेपाल की पुलिस यह जिम्मेदारी ले कि यदि ये लोग कोई अपराध करके यहां से नेपाल भागते हैं तो वह ऐसे लोगों को वापस भारत को सौंपेगी.

इन मांगों के तर्क इतने मजबूत हैं कि इनको न तो पूर्ण रूप से नकारा जा सकता है और न ही नजरअंदाज किया जा सकता है. जानकारों के मुताबिक उत्तराखंड और नेपाल के लोगों के जो मैत्री संबंध वर्षों से बने हुए हैं उनको बनाए रखने के लिए भी अवैध रूप से यहां बस रहे नेपालियों की संख्या पर नियंत्रण जरूरी हो जाता है. यह इसलिए भी जरूरी है ताकि जो गोरखा समुदाय सदियों से उत्तराखंड का हिस्सा रहा है और सच में यहां के अधिकारों का हकदार है, उसके अधिकार सुनिश्चित हो सकें. देश के कई इलाके मूल निवासी बनाम बाहरी लोगों की समस्या से जूझ रहे हैं. ऐसे में यदि उत्तराखंड में पैर पसारती इस समस्या पर समय रहते उचित कदम नहीं उठाए गए तो कहीं कल हाल असम जैसा हो.