छूट की लूट

जनता पार्टी के नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी जब नवंबर की शुरुआत में राजनीतिक दृष्टि से देश के सबसे प्रतिष्ठित गांधी परिवार पर नेशनल हेराल्ड अखबार को चलाने वाली कंपनी के अधिग्रहण का आरोप लगा रहे थे उसी समय मध्य प्रदेश सरकार के एक फैसले पर कम ही लोगों की नजर गई जो इसी अखबार से जुड़ा था. दरअसल प्रदेश की भाजपा सरकार ने राजधानी भोपाल में तीन दशक पहले कांग्रेस के मुखपत्र नेशनल हेराल्ड के हिंदी अखबार नवजीवन को रियायती दर पर दी एक एकड़ से अधिक की जमीन का आवंटन इन्हीं दिनों निरस्त किया है. वजह यह बताई गई है कि अखबार चलाने के नाम पर आवंटित इस जमीन का व्यावसायिक उपयोग हुआ है और इसीलिए सरकार यहां खड़ी व्यावसायिक इमारतों को अधिगृहीत करने की सोच रही है.

लेकिन शहर के व्यावसायिक क्षेत्र महाराणा प्रताप नगर के नजदीक स्थित प्रेस कॉम्प्लेक्स में यह अकेला मामला नहीं है. सरकार की ही मानें तो यहां तीन दर्जन से अधिक अखबारों द्वारा जमीन की लीज संबंधी प्रावधानों का मनमाने तौर पर उल्लंघन जारी है. सरकार ने सात साल पहले सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर अखबारों को व्यावसायिक गतिविधि मानते हुए सभी भूखंड आवंटियों को व्यावसायिक दर से रकम वसूलने के नोटिस जारी किए थे. मगर सरकार उनसे 510 करोड़ रुपये की यह रकम अब तक वसूल नहीं कर पाई है. 30 साल के लिए दिए गए अधिकतर भूखंडों की लीज साल 2012 के पहले समाप्त हो चुकी है. एक भी लीज का नवीनीकरण न होने के बावजूद अखबार मालिकों के लिए प्रेस कॉम्प्लेक्स व्यावसायिक गतिविधियों का गढ़ बना हुआ है. वहीं सरकार पर इसका सीधा असर राजस्व में हो रहे करोड़ों रुपये के नुकसान के तौर पर पड़ रहा है.
रियायत पर हुई इस खयानतबाजी की शुरुआत अस्सी के दशक में कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. अर्जुन सिंह के उस फैसले से जुड़ी है जिसमें उन्होंने भोपाल की बेशकीमती जमीन के 22 एकड़ क्षेत्र को प्रेस परिसर बनाने के लिए आरक्षित किया. तब दो रुपये 30 पैसे प्रति वर्ग फुट के हिसाब से 39 भूखंड बांटे गए थे. भोपाल विकास प्राधिकरण (बीडीए) ने इस बड़े क्षेत्र को विकसित करने का बोझ भी अपने खर्च पर उठाते हुए अखबारों के लिए बिजली की निरंतर आपूर्ति जैसी तमाम सुविधाएं दीं.

30 साल के लिए दिए गए अधिकतर भूखंडों की लीज साल 2012 के पहले समाप्त हो चुकी है.

प्रदेश बनने के पहले मध्य भारत के तमाम नामी अखबारों का मुख्य केंद्र नागपुर था. 1956 में जब नया प्रदेश नक्शे में आया और भोपाल उसकी राजधानी बनी तो अखबारों ने राजधानी की तरफ कूच किया. 1980 में सूबे की बागडोर अर्जुन सिंह के हाथों आते ही उन्होंने मीडिया को उपकृत करने की यह योजना बनाई. हालांकि करार की शर्तों में साफ था कि अखबार मालिक अपने अखबार से अलग कोई व्यावसायिक उपयोग नहीं करेंगे. मगर समय के साथ रियल एस्टेट का कारोबार चढ़ते ही जब भूखंडों के भाव आसमान छूने लगे तो मुनाफा कमाने के मामले में अखबार मालिक भी पीछे नहीं रहे. प्रेस कॉम्प्लेक्स का मौजूदा भाव 15 हजार रुपये प्रति वर्ग फुट से अधिक है और यही वजह है कि आज प्रेस कॉम्प्लेक्स में प्रेस से अधिक व्यावसायिक कॉम्प्लेक्स दिखाई देते हैं.

इस मामले में नया मोड़ तब आया जब एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने स्कूल और अस्पताल से ठीक विपरीत मीडिया को व्यावसायिक गतिविधि मानते हुए रियायती दर पर आवंटित जमीन पर नाराजगी जताई. साथ ही उसने राज्य सरकार को अखबारों से जमीन आवंटन की तारीख से व्यावसायिक दर पर रकम वसूलने का निर्देश भी दिया. इसके बाद आवास एवं पर्यावरण मंत्रालय ने 2006 में एक सर्वे किया. तहलका को मिली सर्वे की प्रति बताती है कि अखबार के संपादन और छपाई संबंधी कार्यों के लिए जारी हुए भूखंडों में यदि अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर को प्रकाशकों द्वारा व्यावसायिक संपत्ति में बदल दिया गया है.  कुछ प्रकाशकों ने भूखंड बेच दिए हैं जबकि कुछ ने उसके आधे से अधिक हिस्से पर आवासीय और व्यावसायिक परिसर बनाकर किराए पर दे दिया. इसके अलावा कुछ ने अखबार के कार्यालय में ही अपनी दूसरी कंपनियों के कॉरपोरेट कार्यालय खोल दिए हैं.

15 हजार रुपये प्रति वर्ग फुट से अधिक है और यही वजह है कि आज प्रेस कॉम्प्लेक्स में प्रेस से अधिक व्यावसायिक कॉम्प्लेक्स दिखाई देते हैं.

2006 में बीडीए ने अनुबंध के विरुद्ध भूखंडों के उपयोग परिवर्तन को लेकर सभी प्रकाशकों को वसूली नोटिस भेजे थे लेकिन अब तक वसूली की रकम पांच गुना बढ़ने के बावजूद किसी से यह रकम नहीं ली जा सकी है. प्रकाशकों का तर्क है कि यदि उन्हें आवंटन के दौरान ही यह स्पष्ट कर दिया जाता कि बाद में उनसे बाजार दर वसूली जाएगी तो हो सकता है कि वे अपना अखबार यहां के बजाय कहीं और से चलाते. सीधी टिप्पणी से बचते कई प्रकाशक भी चाहते हैं कि कोई आसान रास्ता निकले ताकि चुनाव के ठीक पहले सरकार द्वारा डाले जाने वाले दबाव से वे बच सकें.

वहीं नवजीवन की लीज निरस्त करने वाले आवास एवं पर्यावरण मंत्रालय के मंत्री जयंत मलैया बाकी अखबारों पर भी कार्रवाई के संबंध में यह तो बताते हैं कि उन्हें प्रेस के नाम पर चल रही व्यावसायिक गतिविधियों की पुख्ता जानकारी है लेकिन वे उन पर कार्रवाई की समयसीमा को लेकर कुछ नहीं बताते. वे कहते हैं, ‘राज्य सरकार इस संबंध में जल्द ही कोई फैसला लेगी.’ जहां तक प्रकाशकों की बात है तो तहलका ने नवभारत, दैनिक भास्कर, नई दुनिया, शिखरवार्ता और दैनिक जागरण के प्रकाशकों को ईमेल भेजकर इस मामले पर उनकी राय जानने की कोशिश की थी लेकिन खबर लिखे जाने तक इन अखबारों की तरफ से हमें कोई जवाब नहीं मिला.
इस मामले में दिग्विजय सिंह से लेकर उमा भारती के कार्यकाल तक कई समितियां बनीं लेकिन नतीजा सिफर ही रहा. दरअसल अखबार मालिकों और सरकार के बीच यह जमीन सत्ता संतुलन का केंद्र बन चुकी है. अखबार मालिक जहां अपनी दुखती रग से बखूबी वाकिफ हैं वहीं सरकार भी यह जानती है कि यदि उसने कार्रवाई की तो सारा प्रेस उसके खिलाफ एकजुट हो जाएगा. 

करार विरूद्ध अरबों का कारोबार
1982 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जब इस कॉम्प्लेक्स का शिलान्यास किया तब पहला भूखंड नवजीवन को ही दिया गया. कांग्रेस का अखबार होने के नाते अर्जुन सिंह सरकार नवजीवन की प्रतियां खरीदकर उन्हें स्कूलों तक पहुंचाती थी. मगर वित्तीय दिक्कतों के चलते यह अखबार 1990 में बंद हो गया और आज भी इसके कर्मचारी अपने वेतन भत्तों के लिए श्रम न्यायालय में लड़ाई लड़ रहे हैं. जिस विशाल भूखंड पर कभी नवजीवन का बोर्ड लगा था, आज उसी पर विशाल मेगामार्ट और लोटस इलेक्ट्रॉनिक्स का शोरूम है.

एक जमाने में इंदौर का नईदुनिया राजनीति का ‘किंगमेकर’ माना जाता था. इसे लाभचंद छजलानी, बसंतलाल सेठिया और नरेन्द्र तिवारी ने शबाब पर पहुंचाया. किंतु नब्बे के दशक में तीनों के बीच विवादों ने जोर पकड़ा और भोपाल संस्करण तिवारी परिवार के खाते में आया. यह अखबार धीरे-धीरे अपना प्रसार खोता गया. बाद में प्रकाशक ने 56 हजार वर्ग फुट आवंटित भूखंड के आधे से अधिक हिस्से पर आकांक्षा नामक बहुमंजिला व्यावसायिक परिसर बना लिया. फिलहाल बीडीए को इससे 35 करोड़ रुपये से अधिक की वसूली करनी है.

सबसे पुराने अखबारों में से एक नवभारत को 1982 में जब बड़ा भूखंड दिया गया तब यह प्रदेश का सबसे तेज बढ़ता अखबार था. इसके मालिक स्व. रामगोपाल माहेश्वरी माहेश्वरी(बिड़ला) समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और उनके पुत्र प्रफुल्ल माहेश्वरी कांग्रेस से राज्यसभा के सांसद. नब्बे के दशक में माहेश्वरी घराने ने नवभारत की साख को दांव पर लगाते हुए एनबी प्लांटेशन के नाम से एक प्लांटेशन कंपनी खोली. बाद में यह विवादों और घोटालों में फंसी. मामला हाई कोर्ट तक पहुंचा और कई निवेशकों का पैसा डूबा. वहीं प्रसार में भी यह अखबार पिछड़ गया. फिलहाल नवभारत परिसर में टाइम्स ऑफ इंडिया के अलावा वीडियोकॉन का कार्यालय है. बीडीए को इससे तकरीबन 40 करोड़ रुपये की वसूली करनी है.

दुनिया के बड़े अखबारों में से एक होने का दावा करने वाला दैनिक भास्कर कभी शहर के पुराने इलाके से निकालता था. शुरुआत में इसने भी कार्यालय का कुछ हिस्सा किराए पर दिया लेकिन अखबार के विस्तार के चलते इसे अपने लिए ही अधिक स्थान की जरूरत पड़ने लगी. नया नारा अखबार के लिए आवंटित भूखंड पर जहां भास्कर का अभिव्यक्ति नामक कला केंद्र है वहीं साप्ताहिक प्रजामित्र के आवंटित भूखंड पर भास्कर-जबलपुर समूह का जो कार्यालय है उसमें भास्कर की ही दो कंपनियों के कारर्पोरेट कार्यालय भी संचालित हैं. अखबार के साथ-साथ भास्कर नमक, तेल, सूत से लेकर रियल स्टेट,  पावर प्लांट और मनोरंजन के क्षेत्र में भी उतरा. फिलहाल कार्यालय से प्रसारित एफएम रेडियो चैनल समाचार आधारित न होकर मुख्यतः मनोरंजक और व्यावसायिक माध्यम है. बीडीए को इससे 40 करोड़ रुपये से अधिक की वसूली करनी है.

दैनिक जागरण के दम पर स्व गुरुदेव गुप्ता ने राजनीति में भी पहुंच बनाई थी. नब्बे के दशक में जागरण ने जिंक बनाने वाली कंपनी भारत जिंक का मंडीदीप में कारखाना लगाया. मगर कंपनी डूबी और इसी के साथ अखबार परिसर से संचालित कंपनी का कार्यालय भी बंद हो गया. बीडीए को इससे 15 करोड़ रुपये की वसूली करनी है.

इसके अलावा अर्जुन सिंह कार्यकाल के कई मंत्रियों के छोटे प्रकाशकों को भी बड़े भूखंड आवंटित किए गए जिनमें- सुरेश सेठ(इंदौर समाचार), सूर्यप्रकाश बाली(सतपुड़ावाणी), रामाकांत सिंह(पुरजोर) और विष्णु राजौरिया(शिखरवार्ता) खास हैं. भले ही इंदौर समाचार भोपाल से कभी न निकला हो लेकिन इसके भूखंड पर व्यावसायिक इमारत जरूर खड़ी है. सतपुड़ावाणी की आधी जमीन खाली है और आधी आवासीय परिसर में बदल चुकी है. पुरजोर हाउस में नवदुनिया अखबार के अलावा निजी कॉलेज का कार्यालय चल रहा है. शिखरवार्ता कार्यालय में सिंडिकेट बैंक संचालित है. इसी के साथ नदीम, क्वालिटी समाचार सहित दर्जनों अखबारों के भूखंडों पर भी कोचिंग सेंटर से लेकर मोटर गैराज तक तमाम गतिविधियां तो दिखती हैं लेकिन बाजार में उपस्थिति कहीं नहीं. वहीं नब्बे के दशक में सप्रे शोध संस्थान के पास(लिंक रोड 3) अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस को भी रियायती दर पर जो भूखंड आवंटित हुए वे खाली पड़े हैं. करार के मुताबिक तीन साल के भीतर अखबारों को अपने कार्यालय बनाकर काम शुरू कर देना था. आला अधिकारियों की राय में प्रेस के चलते ये मामले इतने संवेदनशील हैं कि कोई कार्यवाई करना आसान नहीं. बीडीए अध्यक्ष सुरेन्द्र नाथ सिंह कहते हैं, ‘हमने सरकार से सलाह मांगी है. उसके जवाब के बाद ही कार्रवाई संभव है.’ हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने बीडीए को एक स्वायत्त संस्था बताते हुए कहा है कि सरकार को चाहिए वह इसके काम में दखलंदाजी न करे. मगर प्राधिकरण है कि इस मामले में सरकार से दखलंदाजी की उम्मीद लगाए बैठा है.