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सही और ग़लत के पार : रॉकस्टार

फिल्म रॉकस्टार 

निर्देशक इम्तियाज अली

कलाकार रणबीर कपूर, नरगिस फाखरी, पीयूष मिश्रा, अदिति राव हैदरी, शम्मी कपूर

जनार्दन जाखड़ पागल है और उसे इस पर गर्व है. वह लड़की, जिसके लिए उसे लगता है कि जो क्लास बंक करके गोलगप्पे खाने को पागलपन समझती है, उससे वह आंखों में आंखें डालकर कहता है कि गर्लफ्रेंड बन जा मेरी. उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसके अक्खड़ लहजे और एक्स्ट्रा टाइट जींस पर आसपास के लोग हंस रहे हैं. इसी तरह उसे बाद में अपने दीवानों की भीड़ से कोई फ़र्क नहीं पड़ता और वह उन्हें मिडल फिंगर दिखाता है. वह किसी भी क्षण आपकी महफिल छोड़कर जा सकता है, गाना पूरा होने से पहले ही स्टेज छोड़कर आ सकता है और उस लड़की को चूम सकता है जिससे उसने रूमी के शब्दों में वादा किया है कि सही और गलत के पार जो मैदान है, उससे वो एक दिन वहाँ मिलेगा. वह शराब की कुछ बूंदें अपने चेहरे पर छिड़ककर अपने दोस्तों को तसल्ली करवा देता है कि उसने पी ली है. और नशा तो उसकी आत्मा में है ही.

वह कलाकार है और इम्तियाज उसके बनने और होने की कहानी बिना स्टीरियोटाइप चक्करों में पड़े कहते हैं. रॉकस्टार बनने के लिए जनार्दन जाखड़ को अंग्रेजी बोलने और गांजा पीने की ज़रूरत नहीं है. उसे बस इश्क की ज़रूरत महसूस होती है और उसमें दिल के टूटने की. और यहीं नरगिस फाखरी फिल्म में आती हैं और उनके बर्बाद किए हुए दृश्यों को बचाने के लिए रणबीर कपूर अपनी एक्टिंग में दुगुनी जान फूंकते हैं.

रणबीर कपूर ऐसा काम करते हैं, जिसके लिए आप उन्हें बार बार उसी तरह सीने से लगाना चाहते हैं जैसे फिल्म की हीरोइन हीर चाहती है. इम्तियाज की बाकी फिल्मों की तरह उनकी पहचान, उनके डायलॉग इस फिल्म में उभरकर नहीं आते (शायद यह जानबूझकर ही किया गया है और कुछ जगहों को छोड़ दें तो इससे फिल्म अलग भी दिखती है और अच्छी भी) और हर जगह उस जगह को भरने के लिए रणबीर आते हैं. अपने जुनून से लेकर बेपरवाही और अपने अन्दर लगी आग तक वे हूबहू वही हैं, जो जनार्दन जाखड़ होता. वे ऐसे इक्का दुक्का स्टारपुत्रों में से हैं जिनके मुंह की चम्मच ही सोने की नहीं है, वह सोना उनके काम में भी है. मोहित चौहान इस फिल्म के लिए बिल्कुल मुफ़ीद आवाज़ हैं और उनकी आवाज़ के लिए रणबीर बिल्कुल मुफ़ीद अभिनेता. इरशाद कामिल और ए आर रहमान के गाने फिल्म की जान हैं और शायद यह इम्तियाज की पहली फ़िल्म है, जिसमें वे ख़ुद उभरकर सामने नहीं आते बल्कि परतों के पीछे खड़े रहते हैं.

यह इम्तियाज की अब तक की सबसे अमूर्त फ़िल्म है. बहुत सारी बातों और घटनाओं से बचती हुई, दरगाह और स्टेज पर एक सी शिद्दत से वक्त बिताती हुई, बार बार अपने गहरे दृश्यों पर लौटती हुई, अपने अंत पर चौंकाने से बचती हुई और शाश्वत सन्नाटे को अपने परदे पर दिखाने की हर संभव कोशिश करती हुई जिसमें वह कहीं कहीं नाकाम होती है.

रॉकस्टार इम्तियाज़ की पिछली फ़िल्मों से मुश्किल फ़िल्म है और उन पर यह ज़िम्मेदारी भी है कि उन्हें अपने आपको दोहराना नहीं है. हालांकि अपनी प्रेमकहानी में वे पूरी तरह इससे बच नहीं पाते, लेकिन फिर भी वे अपने स्त्री किरदार को थोड़ा अलग बनाते हैं. मगर नरगिस की खराब एक्टिंग उसे सपाट बना देती है. कमियाँ आरती बजाज की लापरवाह लगती एडिटिंग की वज़ह से भी हैं और आखिरी एक तिहाई हिस्से में स्क्रिप्ट में भी, लेकिन फिर भी रॉकस्टार ईमानदार है, पागल है और प्यारी भी. वह भागती नहीं और न ही लोकप्रिय हिन्दी फिल्मों की तरह आपके सामने हाथ जोड़कर खड़ी होती है. अर्जियों की सब परंपराओं को फाड़ती हुई वह अपनी मर्जी की जगह पहुंचती है जहां कॉंन्ट्रेक्ट के कागज, जानलेवा बीमारियाँ और मुझ जैसे समीक्षक नहीं हैं. जहां दुनिया अच्छी है.

– गौरव सोलंकी

' अरब बहार और अमेरिका की वॉल स्ट्रीट '

20 अक्टूबर की शाम को गद्दाफी की मौत का दृश्य देखकर यूनानी त्रासदी की वह नायिका याद आई जब वह राजा के आदेश के खिलाफ अपने मरे भाई की लाश को दफनाने के लिए ले जाती है. नायिका को जब दंडित करने के लिए राजा के सामने पेश किया जाता है तो वह राजा से कहती है कि हे राजा! राज्य का कानून जिंदा लोगों पर लागू होता है, लाशों पर नहीं. गद्दाफी की मौत के बाद लीबियाई क्रांतिकारी उसकी लाश को दंडित करते हैं – पता नहीं यह किस लीबियाई त्रासदी का संकेत है. सत्य की गति सूक्ष्म हुआ करती है. महाभारत में असत्य का पक्ष यानी कौरव स्वर्ग प्राप्त करते हैं जबकि पांडव जो कि सत्य के साथ थे और कृष्ण का भी साथ था वे नरक में जाते हैं एक युधिष्ठिर को छोड़कर.  कर्नल गद्दाफी को स्वर्ग मिलेगा या नरक यह तो बस राम जाने! लेकिन यह वही राम थे जिन्होंने दुश्मन के मरने पर जश्न नहीं मनाया बल्कि उससे नसीहत लेने की सीख दी.

किसी बच्चे को यदि आप हिंदुस्तान का मानचित्र बनाने के लिए कहेंगे तो बस उसे एक पेंसिल की ही जरूरत पड़ेगी, लेकिन क्रांति की लहर से प्रभावित अरब देशों के मानचित्र को यदि आप देखें तो इनकी सीमाएं सीधी-सपाट कुछ-कुछ ऐसी जैसे किसी ने जश्न के तहत किसी केक को चाकू से सीधे-सीधे टुकड़ों में बांट दिया हो. अरब समाजों को जब देशों में बांटा जा रहा था तो उस समय भी केक और चाकू की घटना घटी. केक अरब समाज था और चाकू पश्चिमी देशों के हाथ.

सोवियत संघ के अंतिम राष्ट्राध्यक्ष मिखाइल गोर्बाचोव का मानना है कि वॉल स्ट्रीट आंदोलन पूंजीवाद की समाप्ति का संकेत है

ऐसा क्या है कि अरब समाजों में क्रांति की लहर इस तेजी से बढ़ी? इस बदलाव को समझने के लिए हमें इनके इतिहास पर एक नजर डालनी चाहिए. इस्लाम के उदय के बाद इन देशों में सत्ता की धुरी इस्लाम के इर्द-गिर्द घूमा करती थी और एक संक्षिप्त काल को छोड़ इसका नेतृत्व सऊदी अरब नाम के देश ने ही किया.  लेकिन 1908 में ईरान, और 1938 में सऊदी अरब में तेल के भंडार मिलने पर सत्ता के समीकरण बदले और साथ ही पश्चिमी देशों का रुझान भी. ऐसा नहीं है कि प्रत्येक अरब देश में यह प्राकृतिक संपदा मिली, लेकिन इसका प्रभाव अवश्य समस्त अरब राष्ट्रों पर पड़ा. विश्व का लगभग 20 प्रतिशत तेल सऊदी अरब और इसके पश्चात पश्चिम एशिया में ही स्थित एक गैरअरब देश ईरान के पास है.  यूरोप जो कि औद्योगीकीकरण को अपने वर्चस्व का हथियार बनाए हुए था, इस प्राकृतिक ऊर्जा को अपने नियंत्रण में लेने के प्रयास करने लगा.  पश्चिमी एशिया के पास तेल तो था लेकिन तकनीक पश्चिमी देशों के पास थी इसी पारस्परिक जरूरत के तहत लेन-देन का रिश्ता पनपा, लेकिन यह रिश्ता बराबरी पर आधारित नहीं था और इसी गैरबराबरी के खिलाफ अरब देशों में पश्चिमी देशों के विरुद्ध संघर्ष भी हुए. ऐसा नहीं है कि यह संघर्ष सत्तासीन राजघरानों ने किया हो बल्कि अरब समाजों ने अपने देश की सत्ता को पश्चिमी राष्ट्रों की जी-हुजूरी के खिलाफ प्रेरित किया. इस संघर्ष के परिणामस्वरूप मिस्र, सीरिया और लीबिया में अब्दुल जमाल नासिर, हाफिज असद और मुअम्मर गद्दाफी सरीखा नेतृत्व उभर कर सामने आया.  लेकिन समय के साथ-साथ इस नेतृत्व में भी शिथिलता आई और इसने भी अपने समाज की नजरअंदाजी की और रेगिस्तान से महलों में जा बसा.. शायद वे यह भूल गए थे कि रेगिस्तानी महल उम्रदराज नहीं होते.  

अरब समाज में यूं तो यदा-कदा विद्रोह के स्वर सुनाई देते थे लेकिन जनवरी, 2011 की शुरुआत में ट्यूनीशियाई युवक के आत्मदाह से जो चिंगारी सुलगी उसमें ट्यूनीशिया, मिस्र, लीबिया, सीरिया, बहरीन और यमन पूरी तरह से झुलसने लगे और इसकी आंच जॉर्डन, मोरोक्को और सऊदी अरब तक जा पहुंची. दुनिया ने इसे अरब बहार का नाम दिया. सुना था कि बहार निष्पक्ष हुआ करती है वह पेड़-पौधों की जात और उम्र नहीं देखा करती हालांकि यह बहार कुछ देशों में बदलाव तो लाई, लेकिन बाकी देश अब भी इसकी बाट जोह रहे हैं. क्यों कुछ देशों में सत्ता परिवर्तन जल्दी हुए और कुछ देशों में क्रांतिकारी अब भी सफल नहीं हुए हैं? यह कोई पेचीदा समीकरण नहीं है. इसे समझने के लिए इतना भर जरूरी है कि अरब देशों की सत्ता या तो राजे-रजवाड़ों के कब्जे में है या फिर किसी करिश्माई अरब व्यक्तित्व पर केंद्रित है. जॉर्डन, बहरीन, मोरोक्को और सऊदी अरब की सत्ता की बागडोर राजा और सुल्तानों के हाथ में है लेकिन ट्यूनीशिया, मिस्र, लीबिया, सीरिया और में यमन लोकतंत्र की आड़ में वंशवाद का एकछत्र शासन. लेकिन ऐसा क्यों हुआ कि राजघराने अब तक सुरक्षित हैं जबकि बाकी अरब राष्ट्रों में क्रांति ने सत्ता को या तो गिरा दिया अथवा उसकी नींव हिला दी? शायद पश्चिमी लोकतंत्र को अरब राष्ट्रों का राजतंत्र अपने हितों के लिए अधिक कारगर महसूस होता है, इसीलिए वह बहरीन में क्रांतिकारियों के समर्थन में और इस देश के सुल्तान के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोलता जहां क्रांतिकारियों का दमन न सिर्फ इस देश की सेनाएं करती हैं बल्कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के टैंक भी इस दमन में शरीक हो जाते हैं.  इसके विपरीत बहरीन जैसे हालात से गुजर रहे देश सीरिया पर पश्चिमी देशों का दबाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है.  हालांकि रूस, चीन और हिंदुस्तान ने सीरिया के खिलाफ पश्चिमी दखलंदाजी पर कुछ मायनों में लगाम लगा दी. 

कुछ पश्चिम एशियाई देशों के अपने निहित स्वार्थ भी इस क्रांति को अपने अपने अर्थों में व्याख्यायित कर रहे हैं. एक ओर सऊदी अरब, यमन और बहरीन की क्रांति को ईरान की शिया दखलंदाजी मानता है लेकिन  इस बहाने के जरिए वह अपने खिलाफ उभर रहे आतंरिक असंतोष को दबाने की कोशिश में लगा है. इसी तर्ज पर सीरिया की सत्ता को बचाने में ईरान ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है. उसका यह मानना है कि यदि सीरिया का सिंहासन डोलता है तो उसका इजराइल विरोध का स्वर कुंद पड़ जाएगा और लेबनान में हिजबुल्लाह संगठन को सहायता पहुंचाना भी कठिन हो जाएगा.

वैसे इस पूरे प्रकरण में ऐसा नहीं है कि अरब देश ही प्रभावित हुए हों. अमेरिका और यूरोप में भी इसका गहरा असर इन देशों में गैरबराबरी के खिलाफ चल रहे अभियानों पर साफ-साफ दिखाई देता है. यूं तो अमेरिका दुनिया का सबसे ताकतवर देश माना जाता है लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि यह देश आर्थिक दृष्टि से इतना कमजोर हो चुका है कि वहां की सरकार अपना कर्जा चुकाने के लिए भी कौड़ी-कौड़ी की मोहताज हो गई है. सैनिक अभियानों एवं सेना के रख रखाव में अत्यधिक खर्च इसकी एक वजह है जिसकी खातिर जनता पर करों का बोझ दिन-प्रतिदिन बढ़ाया जा रहा है. वहां की सरकार के अमीर और गरीब के बीच सौतेले व्यवहार के कारण अमेरिकी जनता ने 17 सितंबर से एक अभियान चलाया जिसे हम वॉल स्ट्रीट आंदोलन के नाम से जानने लगे हैं. इस आंदोलन के नेतृत्व का कहना है कि उनका प्रेरणास्रोत मिस्र का अल-तहरीर मैदान है जिसने शांति और अहिंसा का मार्ग अपनाकर अपने अधिकारों को प्राप्त किया और तानाशाही के अंत का सबब बना. वॉल स्ट्रीट आंदोलन अब तक अमेरिका के 70 शहरों में फैल चुका है और बहुत-से यूरोपीय देशों में इसी आंदोलन की तर्ज पर संघर्ष शुरू हो चुके हैं.

कुछ दिन पहले सोवियत संघ के अंतिम राष्ट्राध्यक्ष मिखाइल गोर्बाचोव ने अमेरिका के पेंसिलवानिया में एक भाषण में कहा कि वॉल स्ट्रीट आंदोलन पूंजीवादी व्यवस्था के ताबूत पर आखिरी कील साबित होगा और जिस तरह से सोवियत संघ का खात्मा हुआ, यह व्यवस्था भी खत्म होगी. जनवरी, 2011 में एक सब्जी बेचता हुआ मुहम्मद बुअजीजी नाम का ट्यूनीशियाई युवक उस देश की संसद के सामने आत्मदाह करता है और इससे पहले कि उसका बलिदान मात्र उसके परिवार के शोक का कारण बने वह तब्दील हो जाता है उस हवा में जो क्रांतिकारियों के लिए बहार बनकर आई और तानाशाहों के लिए भय, शर्म और मृत्यु की आंधी. इस बहार का रुख अब पश्चिम के देशों की तरफ है. काश कोई चिट्ठी लिखे इस बहार के नाम इस संदेश के साथ कि ऐ हवा! पूरब में बसे हिंदुस्तान में अब तक ढाई लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं तुझे देखने की खातिर. पूरब की ओर कब रुख करोगी? 

पाक जमीन को लगी नापाक बीमारी के लक्षण

ओसामा बिन लादेन को पकड़ने में अमेरिका की मदद करने वाले डॉक्टर के खिलाफ पाकिस्तान सरकार का रवैया कई कड़वे तथ्यों को सामने ला रहा है

2002 में पाकिस्तानी अखबारों के पहले पन्ने पर एक विज्ञापन छपा था. इसमें कहा गया था कि ओसामा बिन लादेन की जानकारी देने वाले को लाखों डॉलर बतौर इनाम दिए जाएंगे. जिन तक अखबार नहीं पहुंचता था उन तक इस विज्ञापन को माचिस और सिगरेट के डिब्बे पर छापकर पहुंचाया गया. पश्चिमोत्तर पाकिस्तान के कबाइली इलाके में छोटी-मोटी दुकानों को भी इस विज्ञापन के प्रसार का जरिया बनाया गया. फिलहाल हालत यह है कि जिस व्यक्ति ने ओसामा को खोजने में मदद की उस पर अब विदेशी शक्ति के साथ मिलकर देश की संप्रभुता के साथ समझौता करने के चलते राजद्रोह का मुकदमा चल रहा है और आरोप सिद्ध होने पर उसे मौत की सजा दी जा सकती है. पाकिस्तानी स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी डॉ शकील अफरीदी ने एबटाबाद में ओसामा का सुराग लेने के लिए फर्जी टीकाकरण कैंप लगा रखा था.

दशक भर बाद हालात बिल्कुल बदल गए हैं. सदी की शुरुआत में जो पाकिस्तान और अमेरिका कंधे से कंधा मिलाकर अल कायदा के खिलाफ अभियान चला रहे थे, आज दोनों एक-दूसरे पर विश्वासघात और दोहरा रवैया अपनाने का आरोप लगा रहे हैं. पाकिस्तान और अमेरिका के रिश्तों में आई तल्खी का अंदाजा इसी एक बात से लगाया जा सकता है कि जिस ओसामा की मौत पर भारी इनाम मिलने थे अब उस पर मौत के बादल मंडरा रहे हैं. मोटे तौर पर देखें तो डॉ अफरीदी के साथ पैदा हुए हालात पाकिस्तान की उस दुर्दशा का इशारा करते हैं जिसमें एक तरफ उसे देश के भीतर फैल रहे धार्मिक अतिवाद से जूझना पड़ रहा है और दूसरी तरफ उसके ऊपर अमेरिका के साथ बराबरी और सम्मान का रिश्ता बनाए रखने का भी दबाव है. पाकिस्तान में बहुमत का मानना है कि हथियारबंद और हिंसक धार्मिक समूह देश की सुरक्षा और स्थिरता के लिए खतरा हैं. लेकिन ऐसे समूहों से निपटने के तौर-तरीकों को लेकर इनमें सहमति नहीं है. आम पाकिस्तानी का मत है कि पाकिस्तान को अमेरिका के साथ सशर्त दोस्ती नहीं करनी चाहिए. यहां अमेरिका को भी धार्मिक उग्रवादियों की तरह ही पाकिस्तान की मुसीबतों में इजाफा करने वाले के तौर पर देखा जा रहा है न कि आर्थिक, ऊर्जा, शिक्षा, पर्यावरण और रोजगार जैसी समस्याओं को दूर करने वाले की. धार्मिक हिंसा के शिकार पाकिस्तान दक्षिण एशिया और अफगानिस्तान के प्रति अमेरिका की स्वार्थी नीतियों में फंसकर विरोधाभासी प्रतिक्रियाएं दे रहा है. पाकिस्तान में हर स्तर पर डॉ अफरीदी के साथ बरती जा रही कठोरता को हमें इन्हीं हालात के मद्देनजर देखना चाहिए.

अमेरिका को लेकर पाकिस्तान के भरोसे में आई कमी ही डॉ. अफरीदी पर राजद्रोह का मुकदमा चलाने के सरकारी फैसले की मूल वजह है 

पिछले कुछेक दशकों के दौरान सेना के तमाम अधिकारियों ने अपने ही संस्थान और नेताओं के खिलाफ अनेक हिंसक अिभयान चलाए. दिसंबर 2003, 2006 और 2007 में परवेज मुशर्रफ पर हुए आतंकवादी हमले में सेना और वायुसेना के कई अधिकारी हिरासत में हैं. वायु सेना के कई अधिकारी सैन्य ठिकाने से जुड़ी संवेदनशील जानकारियां आतंकवादियों तक पहुंचाने के आरोप में 2009 से ही हिरासत में हैं. 2009 और 2011 के बीच दो अति महत्वपूर्ण सैन्य ठिकानों पर हुए आतंकी हमलों  में सेना के ही लोग जानकारियां मुहैया करवा रहे थे.

सेना के प्रवक्ता ने इस बात की पुष्टि की है कि 2009 में रावलपिंडी स्थित सैन्य मुख्यालय और 2011 में कराची स्थित वायु सेना बेस पर हुए हमले के मामले में सेना के पूर्व और मौजूदा अधिकारियों पर मुकदमा चल रहा है. सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी मेजर जनरल अली खान प्रतिबंधित धार्मिक संगठन हिज्ब-उत-तहरीर से संबंध रखने के आरोप में कोर्ट मार्शल झेल रहे हैं. यह संगठन बार-बार लोकतांत्रिक सरकार का तख्तापलट करने के लिए सेना को प्रोत्साहित करता रहा है ताकि पाकिस्तान में खलीफा आधारित इस्लामी राज स्थापित हो सके. अफगानिस्तान में संयुक्त सेनाओं के जितने सैनिक मारे गए हैं उनसे  कई गुना ज्यादा पाकिस्तानी सैनिक धार्मिक उग्रवाद से संघर्ष में शहीद हो चुके हैं. पाकिस्तानी सेना विचारधारात्मक खतरे और नीतिगत गड़बड़ियों के बीच धार्मिक चरमपंथ और अमेरिका की स्वार्थी अपेक्षाओं का सामना कर रही है.

दोहरे दबाव के बीच पिस रही सेना की हालत का एक और नमूना है पश्चिमोत्तर के सीमावर्ती इलाकों में जारी अमेरिका के ड्रोन हमले, धार्मिक उग्रवाद से निपटने के तौर-तरीके और अमेरिका के साथ कूटनीतिक व सामरिक संबंधों पर देश के सियासी दलों का रवैया.
पाकिस्तान के सभी सियासी दलों ने ड्रोन हमलों की निंदा की है और इसे पाकिस्तान की संप्रभुता का उल्लंघन माना है. अब जाकर एक महीना पहले सर्वदलीय बैठक में ड्रोन हमलों की निंदा का फैसला एकमत से लिया गया. इस बैठक में इस बात पर भी एकराय बनी कि सभी राजनीतिक पार्टियां अपनी सेना के साथ हैं. अमेरिका के हमले असल में पाकिस्तान और कुछ खास अफगानी आतंकी समूहों को आमने-सामने ला खड़ा करने की रणनीति का हिस्सा हैं. बैठक में इस बात पर भी सहमति बनी कि सरकार को देश के धार्मिक अतिवादी समूहों के साथ बातचीत के रास्ते खोलने की जरूरत है.

इसी तरह का प्रस्ताव पाकिस्तान की संसद ने भी तब पारित किया था जब अमेरिका ने ऑपरेशन एबटाबाद को अंजाम दिया था. संसद ने एक सुर में कहा था कि पाकिस्तान की सुरक्षा और संप्रभुता का उल्लंघन करने वाली इस तरह की घटना को रोकने के लिए जो भी संभव हो वह किया जाएगा. इस प्रस्ताव में उस व्यक्ति का नाम तक नहीं था जिसके लिए अमेरिकी सेना ने पाकिस्तानी सीमा का उल्लंघन किया था.

सत्ता और ताकत के लिए लालायित कई नेता लगातार अमेरिका विरोधी राग अलापते रहते हैं. इनमें पूर्व क्रिकेटर इमरान खान का नाम सबसे ऊपर है. कई विपक्षी दल इस अमेरिका विरोध को शक्तिशाली सेना के साथ संबंध मजबूत करने का जरिया मान रहे हैं. हालांकि इक्का-दुक्का को छोड़कर ज्यादातर का अमेरिका विरोध तात्कालिक है. कोई भी अमेरिका के साथ सीधा टकराव नहीं चाहता है- इमरान खान भी नहीं. ज्यादातर नेता अमेरिका के साथ सामान्य कूटनीतिक संबंध रखने की जरूरत को समझते हैं, वह भी ऐसी स्थिति में जब कुछ लोग पश्चिम के खिलाफ बने ईरान-चीन-रूस गठजोड़ में पाकिस्तान के शामिल होने की हिमायत कर रहे हैं. सत्ता में बैठे हुए राजनीतिक दल और नेता पश्चिम और खास तौर पर अमेरिका के साथ बातचीत जारी रखने की अहमियत से वाकिफ हैं.
मजे की बात है कि ये लोग अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा पर छिपे गैरपाकिस्तानी उग्रवादियों से निपटने के लिए अमेरिकी ड्रोन हमले को जरूरी मानते हैं क्योंकि यह इलाका बहुत दुर्गम है और पाकिस्तानी सेना यहां कार्रवाई नहीं करना चाहती. मौजूदा स्थिति में सार्वजनिक बयानबाजी और निजी बातचीत के बीच जो कॉमन रुझान सामने आता है वह कुछ यूं है- अमेरिका हमेशा पाकिस्तान का इस्तेमाल टिश्यू पेपर की तरह करता है, संकट की घड़ी में उसने कभी पाकिस्तान का साथ नहीं दिया, वह ऐसा दक्षिण एशिया बनाना चाहता है जिसमें सिर्फ भारत का प्रभुत्व रहे और इस काम में अफगानिस्तान अमेरिका का पिछलग्गू बना हुआ है. आज पाकिस्तान में इस तरह का अमेरिका विरोध व्यापक हो गया है.

इस हालत ने लोगों को डॉ अफरीदी मामले को उचित ठहराने का बहाना दे दिया है. ऑपरेशन ओसामा पर पाकिस्तानियों को अंधकार में रखकर उसकी सीमा में सैकड़ों किलोमीटर घुस आने को पाकिस्तानी अमेरिका का धोखा मानते हैं क्योंकि पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका की लड़ाई में सबसे बड़ा सहयोगी था. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब अमेरिका ने अपने निजी हितों को पाकिस्तान के साथ बेहतर संबंधों पर तरजीह दी है. अमेरिका को लेकर पाकिस्तान के भरोसे में आई कमी ही डॉ अफरीदी पर राजद्रोह का मुकदमा चलाने के सरकारी फैसले की मूल वजह है.

इसकी तुलना उस दौर से की जा सकती है जब अमेरिका और पाकिस्तान के द्विपक्षीय संबंध इतने कटु नहीं थे. उस वक्त पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसियों ने अमेरिकी एजेंसियों के साथ मिलकर तमाम अल कायदा और तालिबानी नेताओं और लड़ाकों को गिरफ्तार करने में सफलता पाई थी और उन्हें ग्वांतनामोबे भेजा था. लेकिन उस वक्त किसी ने भी खुद गिरफ्तार करके एक विदेशी शक्ति को सौंपने का विरोध नहीं किया था. पाकिस्तान के पूर्व सैन्य शासक मुशर्रफ ने अपनी किताब ‘इन द लाइन ऑफ फायर’ में साफ-साफ लिखा है कि उस समय ऐसा करने वाले तमाम पाकिस्तानी लोगों और संस्थानों को इनाम के तौर पर अमेरिका से लाखों डॉलर मिले थे. लेकिन उस वक्त किसी ने न तो कोई सवाल पूछा था और न ही किसी का नाम सार्वजनिक हुआ था. 

– बदर आलम (संपादक, हेराल्ड पत्रिका, पाकिस्तान)

‘ जाहिदे तंग नजर ने काफिर मुझे समझा…’

जीवन में खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ कुछ ऐसे तीखे और कटु अनुभव भी होते हैं जिनके बाद लगता है कि शिक्षा, डिग्री और समाज के लिए किए गए सारे काम बेकार हैं. बस अगर कुछ है तो आपका मजहब है जिसके आधार पर आपको बड़ी बेदर्दी के साथ नकार दिया जाता है. ऐसे अनुभवों के बाद लगता है कि समाज में अपनी राजनीति की खातिर कुछ तत्वों ने ऐसे बीज बो दिए हैं जिनकी फसल आज लहलहा रही है.

‘पुजारी जानता था कि मैं मुसलमान हूं, मगर उसने कभी गर्भगृह में बैठकर पढ़ने को मना नहीं किया’ 

कुछ समय पहले एक अखबार के काम से तीन महीने के लिए मुरादाबाद जाना पड़ा तो एक कमरे की भी आवश्यकता हुई. संयोग से कार्यालय के सामने ही एक कमरा खाली मिल गया. मकान मालिक से बात की और उसे तीन महीने का एडवांस किराया दे कर घर से आवश्यक सामान लेने आ गया. तीसरे दिन जब अपना सामान कमरे के सामने टिकाया तो मकान मालिक ने कमरा देने को मना कर दिया. वजह बताई कि आप मुसलमान हैं और आपने यह बात पहले नहीं बताई थी. स्टाफ के लोगों ने मकान मालिक को खूब समझाया तो वह बोला कि अगर मैंने कमरा दे दिया तो आसपास के लोग मेरा सामाजिक बहिष्कार कर देंगे. मजबूरी में कहीं और व्यवस्था करनी पड़ी.

ऐसा ही एक और कटु अनुभव पिछले दिनों हुआ. एक सेकंड हैंड गाड़ी की आवश्यकता थी. अखबार में विज्ञापन के बाद दिल्ली के जनकपुरी इलाके में एक गाड़ी के मालिक से बात हुई. गाड़ी पसंद आ गई, सौदा हो गया और भुगतान कर दिया गया. गाड़ी के सेल लेटर पर लड़के का नाम देख कर गाड़ी मालिक ने गाड़ी देने से इनकार कर दिया और पैसे वापस कर दिए. पूछने पर बताया कि वह किसी मुसलमान को अपनी गाड़ी नहीं बेचेगा.

उम्र के सातवें दशक से पहले ऐसे अनुभव कभी नहीं हुए थे. मेरा जन्म गांव में हुआ और अब भी मैं गांव में ही रह रहा हूं. गांव में हमारा एकमात्र मुसलिम परिवार था. अकेला परिवार था तो सारे खेल-कूद दूसरे बच्चों के साथ ही होते थे. गांव में एक शिव कुटी नाम से छोटा-सा मंदिर था. किशोरावस्था में चार-पांच मित्र शिव कुटी पर शाम के समय जाते थे. कुटी पर एक साधु रहते थे. उनके धूने के चारों ओर सब बैठ जाते और चिलम भर कर बारी-बारी से सब उसमें दम लगाते थे. हिंदू-मुसलमान की कोई बात न मित्रों के मन में थी और न ही साधु महाराज के मन में. हाई स्कूल और इंटर की परीक्षा से पहले तैयारी के लिए छुट्टियां होती थीं. गांव के पास एक प्राचीन मंदिर है. इन छुट्टियों में हम चार मित्र मंदिर पर जाते और वहां अपनी तैयारी करते, दोपहर में धूप तेज होने पर मंदिर के पुजारी से हमने गर्भगृह में बैठ कर पढ़ने की अनुमति ले ली थी. पुजारी इस बात को जानता था कि मैं मुसलमान हूं, मगर उसने कभी गर्भगृह में बैठ कर पढ़ने को मना नहीं किया.

इंटर के बाद प्राइमरी टीचर का प्रशिक्षण प्राप्त करके दिल्ली में नौकरी की शुरुआत की. 12 साल की सेवा के बाद डिग्री कॉलेज में भी कुछ समय नौकरी की. यहां भी मैं अकेला ही मुसलमान था. इन दोनों नौकरियों के दौरान कभी ऐसा नहीं लगा कि मुसलमान होने के नाते मुझसे कोई भेदभाव किया जा रहा है. प्रगाढ़ मित्रताएं रहीं जिनमें मजहब कभी आड़े नहीं आया. लेकिन अब पहले जैसी बात नहीं रही. पहले बस्तियों में हिंदू-मुसलमान साथ-साथ ही रहते आए हैं. चार घर हिंदुओं के हैं तो दो घर मुसलमानों के भी हैं, मगर अब जो नई बस्तियां बस रही हैं उनमें ऐसा नहीं हो रहा. हमारे गांव के पास एक काॅलोनी विकसित हुई. हमने भी वहां मकान बनाने की सोची. काॅलोनी बसाने वालों से बात की तो उन लोगों ने साफ कह दिया कि वे किसी मुसलमान और दलित को इस कॉलोनी में नहीं बसाएंगे. ये सभी स्थानीय लोग हैं और मुझे भली प्रकार जानते भी हैं. इनका यह जवाब सुन कर मन पर क्या बीती यह मैं ही जानता हूं. अब मुसलमानों के बीच ही मकान बनाने की मजबूरी हो गई. यानी मुसलमान मुसलमानों के बीच बस रहा है, हिंदू हिंदुओं में और दलित दलितों के बीच. हर नगर में अलग-अलग टापू बनते जा रहे हैं. सेकुलर भारत के लिए यह शुभ नहीं. हालत यह है कि गांव के जिस मंदिर में बैठ कर चिलम में दम लगाते थे उसकी सीढ़ियां चढ़ते भी डर लगता है. कहीं कोई टोक न दे कि यह मुसलमान मंदिर में क्यों घुसा जा रहा है.

अब इस सब के लिए सारे हिंदू समाज को तो दोषी नहीं ठहराया जा सकता मगर प्रबुद्ध हिंदुओं से यह अपील तो की ही जा सकती है कि वे समाज में आ रहे इस बदलाव पर गंभीरता से विचार करें और चंद लोग जो ऐसी भावनाओं को बल प्रदान कर रहे हैं उन्हें बेनकाब करें. अंत में यही कह सकता हूं, ‘जाहिदे तंग नजर ने काफिर मुझे समझा, काफिर ये समझता है कि मुसलमान हूं मैं.’

बहिष्कार की बुनियाद पर…

उमा भारती पिछली बार भोपाल या मध्य प्रदेश कब आई थीं? वे मध्य प्रदेश आती भी हैं या नहीं? अगर आती हैं तो किससे मिलती हैं? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब उमा के दो-चार करीबी लोगों को छोड़ दें तो किसी के पास नहीं है. सबसे दिलचस्प बात  यह है कि ये सवाल उन उमा भारती पर हैं जिन्हें कभी भाजपा में अटल-आडवाणी के अलावा सबसे बड़ा भीड़ जुटाऊ नेता माना जाता था. लेकिन आज वे जब प्रदेश में आती हैं तो बमुश्किल दर्जन भर लोग ही उनके आसपास दिखाई देते हैं. इनमें भी सक्रिय रूप से भाजपा से जुड़ा शायद ही कोई व्यक्ति उनके साथ दिखाई देता हो.

राजनीतिक समीक्षकों की मानें तो उमा भारती को मध्य प्रदेश की राजनीति से दूर रहने की जो नसीहत दी गई है वह पार्टी के लिए भविष्य में हानिकारक साबित होगीतो क्या यह बदली हुई हवा इस बात का संकेत है कि भाजपा को प्रदेश में सत्ता दिलाने वाली उमा भारती अब अपने ही घर (मध्य प्रदेश) में बहिष्कृत हो चुकी हैं? मध्य प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश भाजपा संगठन की आपत्तियों के बावजूद केंद्रीय नेतृत्व ने उमा की पार्टी में वापसी इसी शर्त पर की थी कि वे प्रदेश भाजपा में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगी. लेकिन हस्तक्षेप तो दूर की बात है, उमा भारती प्रदेश के पटल से बिलकुल अदृश्य हो गई हैं. वे प्रदेश में आती हैं, लेकिन इसकी खबर किसी को नहीं होती. असल में उनके प्रदेश में होने की खबर सबको पता चले इसकी पहली शर्त है कि भाजपा के नेता या कार्यकर्ता उनसे मिलने जाएं. लेकिन इसे चाहे प्रदेश भाजपा की अघोषित आचारसंहिता कहा जाए या खुद उमा भारती की इच्छा, फिलहाल उनकी प्रदेश भाजपा इकाई और सरकार से दूरी बनी हुई है. इसकी एक बानगी हाल ही में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के दौरान भी देखने को मिली. उमा उत्तर प्रदेश में लगातार उनके साथ घूम रही थी, लेकिन जैसे ही आडवाणी का रथ मध्य प्रदेश की सीमा पर पहुंचा वे वहां से वापस हो गईं. इस घटना से ऐसा आभास मिला जैसे सीमा रेखा उमा भारती के लिए लक्ष्मण रेखा बन गई है.

भाजपा से जुड़े कुछ नेता कहते हैं कि उमा खुद मध्य प्रदेश की सीमा से वापस लौट गईं तो कुछ का कहना है कि किसी ने उन्हें प्रदेश में भी यात्रा के साथ चलने के लिए नहीं कहा क्योंकि प्रदेश संगठन नहीं चाहता कि वे मध्य प्रदेश में राजनीतिक कदम रखें.
मध्य प्रदेश भाजपा के लिए यह विडंबना ही है कि रथयात्रा के प्रदेश में पहुंचने पर पार्टी के जो नेता आडवाणी के साथ थे तथा प्रदेश की राजधानी में हुई सभा में उनके आसपास बैठे थे उनमें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को छोड़ दें तो शायद ही कोई ऐसा था जिसका प्रदेश में कोई व्यापक जनाधार तथा लोकप्रियता हो. पार्टी में वापस आए उमा को चार महीने से अधिक का समय हो गया,लेकिन मध्य प्रदेश में पार्टी की किसी बैठक या कार्यक्रम में वे नहीं दिखीं. हमेशा मीडिया में अपने बयानों से चर्चा में रहने वाली उमा ने अपने मूल व्यवहार के विपरीत पत्रकारों से भी बातचीत करने से किनारा कर लिया है. पिछले चार महीनों के दौरान उनके जो दो-एक इंटरव्यू मीडिया में आए उनमें भी वे उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा को जीत दिलाने संबंधी अपनी रणनीति का ही बखान करती नजर आईं. राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो पार्टी में वापस आने के बाद से इस पूर्व मुख्यमंत्री ने जिस तरह चुप्पी साध रखी है वह उनके मूल व्यवहार के विपरीत है. उमा के व्यवहार में आए इस बदलाव को जहां कुछ लोग भाजपा में उनकी कमजोर और दयनीय स्थिति की उपज मानते हैं वहीं कुछ अन्य इसे एक गहरी और दूरगामी रणनीति के तौर पर देख रहे हैं.

उमा भारती की भाजपा में वापसी के समय इस बात की चर्चा जोरों पर थी कि भले ही उन्हें मध्य प्रदेश में राजनीतिक हस्तक्षेप न करने की शर्त पर वापस लाया जा रहा है लेकिन उनका अतीत और व्यक्तित्व इस बात की पुष्टि नहीं करता कि वे इस शर्त को निभा पाएंगी. हालांकि पिछले चार महीने में उमा ने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे प्रदेश भाजपा संगठन को कोई शिकायत हो. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जिन परिस्थितियों में उमा की पार्टी में वापसी हुई वे उनके राजनीतिक व्यवहार में आए परिवर्तन का मूल कारण हैं. प्रदेश भाजपा में उमा के समर्थक एक वरिष्ठ नेता नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, ‘प्रदेश इकाई ने एक तरह से उमा जी का राजनीतिक वनवास कर रखा है. वे न तो मध्य प्रदेश बीजेपी के मामले में कुछ बोल सकती हैं और न ही अपने समर्थकों से यहां मिल सकती हैं. लोग पता नहीं इस तथ्य को क्यों भूल जाते हैं कि वे प्रदेश की मुख्यमंत्री रही हैं और भाजपा से अलग होने के बाद उन्होंने एक पार्टी बनाई थी जिसके न सिर्फ मध्य प्रदेश में विधायक थे वरन बड़ी संख्या में लोग उस पार्टी से जुड़े थे. ऐसे में कोई उमा को कब तक प्रदेश से काटकर रख सकता है.’

‘हाईकमान प्रायः  एक विकल्प लेकर जरूर चलता है. मध्य प्रदेश में आज शिवराज सिंह चौहान चल रहे हैं, लेकिन 2013 तक क्या स्थिति होगी ये कोई नहीं कह सकता’

मुख्यमंत्री पद छिनने की पीड़ा और 2005 में पार्टी से निकाले जाने के बाद उमा ने लालकृष्ण आडवाणी से लेकर पार्टी के छोटे-बड़े सभी नेताओं को वह सब कुछ कहा जो शायद उन नेताओं के विरोधी भी नहीं कहते होंगे. अपनी लोकप्रियता के कारण उपजे अति आत्मविश्वास के कारण या यह कहें विकल्पहीनता के, उमा ने अपनी एक अलग पार्टी बनाई. पार्टी ने चुनाव भी लड़ा लेकिन उसे चुनावों में बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा. 2014 में भारत का प्रधानमंत्री अपनी पार्टी से बनवाने का सपना देखने वाली उमा भारती खुद चुनावों में हार गईं. अंततः जब कोई विकल्प नहीं बचा तो उमा ने भाजपा का फिर से दरवाजा खटखटाया. संघ के चौखट पर खूब मत्था टेका तब जाकर तमाम विरोधों के बावजूद संघ के दबाव में उनकी पार्टी में वापसी हुई. जानकार कहते हैं अपने इसी दुखद इतिहास और कमजोर वर्तमान के कारण उमा पार्टी के दिशानिर्देशों का अक्षरशः पालन कर रही हैं. उन्हें पता है कि उनके पास अब कोई विकल्प नहीं है. अगर इस बार कोई गड़बड़ी हुई तो उनके राजनीतिक देहावसान को कोई रोक नहीं सकता.

राजनीतिक समीक्षकों की मानें तो उमा भारती को मध्य प्रदेश की राजनीति से दूर रहने की जो नसीहत दी गई है वह पार्टी के लिए भविष्य में हानिकारक साबित होगी. वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं, ‘उमा इस प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री रही हैं. उनका अपना एक जनाधार तो है ही इस प्रदेश में. ऐसे में उस नेता के प्रवेश को प्रदेश में बैन करने से पार्टी को नुकसान ही होना है.’ उमा के प्रदेश की राजनीति से दूरी बरतने के सवाल पर भाजश विधायक दल के नेता रहे विधायक लक्ष्मण तिवारी कहते हैं, ‘उमा जी प्रदेश की राजनीति में इसलिए दखल नहीं दे रही हैं ताकि किसी को यह न लगे कि वे यहां कोई तोड़-फोड़ या गुटबाजी कर रही हैं. उन पर कोई प्रतिबंध नहीं है. वे किसी भी तरह के विवाद से दूर रहना चाहती है इसलिए उन्होंने खुद अपने आप को सीमित कर लिया है.’
उमा के एक बेहद करीबी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि उमा दिल्ली स्थित मध्य प्रदेश भवन में भी प्रदेश के नेताओं से मिलने से परहेज करती हैं. वे कहते हैं, ‘जब उन्हें प्रदेश से दूर रहने को कहा गया है तो वे पूरी तरह मध्य प्रदेश से दूर रहना चाहती हैं.’ 

इस नेता से यह पूछने पर कि क्या प्रदेश भाजपा संगठन ने उमा के प्रदेश में राजनीतिक प्रवेश पर प्रतिबंध लगा रखा है. वे आगे कहते हैं, ‘ये सही है कि लोग नहीं चाहते हैं कि उमा प्रदेश की राजनीति से किसी तरह जुड़ें. लेकिन मध्य प्रदेश उमा जी का घर है तो कोई उन्हें वहां जाने से कैसे रोक सकता है?’ राजनीति के जानकारों का एक बड़ा वर्ग उमा के प्रदेश से दूरी बरतने के पीछे उनकी एक चतुर रणनीति को भी देख रहा है. उमा को जानने वाले बताते हैं कि आप उन्हें किसी शर्त और सीमा में नहीं बांध सकते हैं. अगर वे कहीं सीमित होती दिख रही हैं तो उसमें उनकी अपनी रणनीति जरुर होगी.

सूत्रों का कहना है कि उमा को अब अच्छी तरह पता चल गया है कि उनके अड़ियल, गुस्सैल, तुनकमिजाजी तथा धमकी भरे व्यवहार और राजनीति को सहन करने वाले लोग अब भाजपा में नहीं बचे. ऐसे में वे अपने व्यवहार पर हावी इस पहलू को पीछे छोड़ना चाहती हैं. प्रदेश भाजपा के एक नेता कहते हैं, ‘जो दो लोग उनको थोड़ा-बहुत सहा करते थे, उनमें से एक अटल जी राजनीतिक संन्यास ले चुके हैं और दूसरे लालकृष्ण आडवाणी की भूमिका धीरे-धीरे पार्टी में सीमित होती जा रही है. इसीलिए उमा भारती ने अब अपने व्यवहार में क्रांतिकारी बदलाव किया है.’ इस बदले व्यवहार का लाभ उन्हें मिलने भी लगा है. ऐसा माना जा रहा है कि पार्टी में वापस आने के बाद से अब तक उमा ने जिस अनुशासन, परिपक्वता और सकारात्मक व्यवहार का परिचय दिया है उसी के इनाम स्वरूप उन्हें पार्टी की कार्यकारिणी में शामिल किया गया है. इस बात की पुष्टि करते हुए वरिष्ठ पत्रकार गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘ जिस तरह दूध का जला, छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है, उसी तरह उमा भी बहुत इत्मीनान से अपने पत्ते चल रही हैं. पार्टी से छह साल बाहर रहने के बाद उनके व्यक्तित्व में काफी परिवर्तन आया है और इस परिवर्तन के फायदे भी उनको मिलने लगे हैं.’

राजनीतिक हलकों में ऐसी चर्चा है कि अभी उमा ने अपने आप को उत्तर प्रदेश तक सीमित कर दिया है लेकिन उनकी भी नजर 2013 में मध्य प्रदेश चुनाव पर है. जानकार मानते हैं कि आगामी यूपी विधानसभा चुनाव को लेकर जिस तरह वे भाजपा के प्रचार-प्रसार के लिए कमर कस कर दिन-रात एक किए हुए हैं उसके पीछे उत्तर प्रदेश में भाजपा को जीत दिलाने के इतर कई वजहें हैं. ऐसा इसलिए भी कहा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों को लेकर जितनी तेजी और तत्परता का प्रदर्शन उमा कर रही हैं उतना तो वहां के नेता नहीं कर रहे. वे अब तक उत्तर प्रदेश के लगभग 75 जिलों का दौरा कर चुकी हैं. पिछले चार महीने में उमा भारती ने मायावती सरकार के खिलाफ जितनी सभाओं को संबोधित किया है उतना पिछले चार साल में कुल प्रदेश भाजपा नेताओं ने भी नहीं किया. वहीं इन चुनावों से जुड़ा एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की क्या हालत रहने वाली है, वहां का आम आदमी भी जानता है ऐसे में उमा भारती जैसी राजनेता को यह अंदाजा न हो, यह नहीं कहा जा सकता. तो फिर क्या कारण है कि वहां भाजपा के चुनाव प्रचार के लिए उमा ने दिन-रात एक किया हुआ है? गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘उमा भारती को पता है कि उनकी उपयोगिता चुनावों में ही है. यूपी के चुनाव होने के बाद जब 2013 में मध्य प्रदेश का चुनाव होगा तो क्या उस समय चुनाव प्रचार से उमा को भाजपा दूर रख पाएगी?’

जानकार यह संभावना जता रहे हैं कि चूंकि मध्य प्रदेश में 2013 में विधानसभा चुनाव है इसलिए उमा एक तरफ उत्तर प्रदेश में पार्टी का प्रचार बड़ी शिद्दत और मेहनत से कर रही हैं दूसरी तरफ किसी तरह के विवादों से दूर रहते हुए एक परिपक्व और अनुशासित नेता की छवि पार्टी के सामने पेश कर रही हैं. गिरिजाशंकर अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, ‘देखिए, हाईकमान प्रायः एक विकल्प लेकर जरूर चलता है. मध्य प्रदेश में आज शिवराज सिंह चौहान चल रहे हैं, लेकिन 2013 तक क्या स्थिति होगी यह कोई नहीं कह सकता. भविष्य में मध्य प्रदेश में अगर आलाकमान कभी विकल्पों के बारे में विचार करेगा तो उस समय परिपक्व, मेहनती और अनुशासित उमा के आगे भला कौन टिकेगा?’

यही कारण है कि उमा उत्तर प्रदेश के नेताओं की उन्हें नापसंद करने संबंधी बातों पर प्रतिक्रिया नहीं देतीं. उमा के एक करीबी नेता कहते हैं,  ‘दीदी को पता है कि उन्हें यूपी में नहीं रहना है. इसीलिए वे इन बातों से नाराज नहीं होतीं.’ राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि 2013 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की अंदरूनी राजनीति में उमा फैक्टर का काफी प्रभाव होगा. भाजपा की दूसरी पीढ़ी के जितने लोग केंद्र की राजनीति कर रहे हैं उनमें उमा से बड़ा कोई जननेता नहीं है. इसलिए 2013 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के साथ ही नहीं वरन उससे बढ़कर 2014 में उमा की पार्टी में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होने वाली है. उमा को यह भी पता है कि उन्हें पार्टी के अलावा कोई और भी बहुत ध्यान से देख रहा है और उसे भी वे पूरी तरह साधने में लगी हैं. पार्टी से छह साल दूर रहने के दौरान उन्होंने सबके खिलाफ कुछ न कुछ बोला सिवाय संघ के. जानकार मानते हैं कि उमा के पास सबसे बड़ा हथियार संघ का भरोसा है.

संघ से जुड़े मध्य प्रदेश तैनात एक पदाधिकारी बताते हैं, ‘उमा ने भाजपा से अलग हो जाने के बाद भी कभी संघ के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा, भले ही उन्होंने एक अलग पार्टी बनाई लेकिन वे लगातार संघ की विचारधारा से जुड़ी रहीं. भविष्य में संघ उमा के भविष्य को लेकर महत्वपूर्ण निर्णय ले सकता है.’ भाजपा की राजनीति पर बारीक नजर रखने वाले एक पत्रकार कहते हैं, ‘ जो संघ नितिन गडकरी को भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना सकता है वह उमा भारती को क्या नहीं बना सकता. इसलिए भाजपा के बाकी नेताओं के उमा से नाक-भौं सिकोड़ने से कुछ नहीं होगा. अगर संघ ने चाहा तो उमा के लिए भाजपा की राजनीति में शून्य से शिखर तक का सफर तय करना बहुत कठिन काम नहीं है.’­­ 

महाघोटाले की 'जमीन'

जयपुर के पॉश इलाके से गुजरते हुए शहर को जोड़ने वाला सबसे महत्वपूर्ण मार्ग है जेएलएन मार्ग. यहां जमीनों के भाव आसमान छूते हैं. यहीं गुलाबी शहर के सबसे कीमती इलाके जवाहर सर्किल से सटी है गोकुलवाटिका सोसायटी. यहां एक भूखंड एक लाख प्रति वर्ग गज की दर से भी महंगा बिकता है. कई बड़े घोटालों की तरह यहीं छिपा है देश का एक और महा घोटाला. जिसमें राज्य के आला अधिकारी अपने दायित्वों के विरुद्ध, चुपचाप और बड़ी चालाकी से 15 सौ करोड़ रुपये की 52 बीघा सरकारी जमीन को कौडि़यों के भाव हड़प गए.  

राज्य सरकार द्वारा की गई जमीन अवाप्ति (अधिगृहण), सोसायटी के पंजीयन, सहकारिता विभाग की जांच रिपोर्ट और न्यायालयों के आदेशों को बारंबार अंगूठा दिखाते हुए भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों ने यहां न केवल आवासीय भूखंड खरीदे और मकान बनाए बल्कि कॉलोनी का नियमन तक कर दिया. इस प्रकरण में नगरीय विकास विभाग ने नियमन की भूमिका बनाई और जेडीए यानी जयपुर विकास प्राधिकरण ने आंख बंद करके नियमन किया. अहम बात यह रही कि गोकुलवाटिका का नियमन करने और उसकी भूमिका बनाने वाले अधिकारियों के भूखंड भी गोकुलवाटिका में ही हैं.

गोकुलवाटिका के अपने उद्देश्यों के विरुद्ध काम करने पर भी जेडीए ने कभी उसके खिलाफ  कार्रवाई नहीं की

जेडीए और नगरीय विकास विभाग के कॉलोनी नियमन के नियम स्पष्ट हैं. फिर भी नियमन करने वाले जिन अधिकारियों पर नियमों के पालन की जिम्मेदारी थी उन्हीं ने गोकुलवाटिका में आवासीय भूखंड हासिल करने के लिए नियमों को ताक पर रखा और कॉलोनी का नियमन कर दिया.

जमीन सरकारी और खरीददार अधिकारी

तहलका के पास मौजूद दस्तावेज खुलासा करते हैं कि गोकुलवाटिका की बसाहट राज्य सरकार की जमीन पर हुई है. दस्तावेजों के मुताबिक 25 मई, 1984 को जेडीए ने सामरिक दृष्टि से हवाई अड्डे के विस्तार के लिए इस 52 बीघा जमीन को अवाप्त (अधिगृहीत) किया था. 1993 को सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे जायज ठहराया था. हद तब हो गई जब सोसायटी के पंजीयन और जमीन की अवाप्ति संबंधी पड़ताल किए बिना ही 22 फरवरी, 2007 को नगरीय विकास विभाग ने महज 439 रु प्रति वर्ग गज की दर पर गोकुलवाटिका का कॉलोनी नियमन कर दिया. जबकि जेडीए विनियमन, 1998 के अलावा 22 दिसंबर, 1999 और 7 जनवरी, 2000 को जेडीए द्वारा जारी परिपत्रों में स्पष्ट कहा गया है कि अवाप्तशुदा जमीन पर अगर प्राधिकरण का अधिकार हो तो उसमें कॉलोनी नियमन नहीं किया जा सकता. इसी प्रकार 9 मार्च, 2000 को जेडीए द्वारा जारी एक अन्य परिपत्र कहता है कि नियमन के दौरान जमीन पर किसी तरह का विवाद या न्यायालय में प्रकरण नहीं होना चाहिए. जबकि गोकुलवाटिका नियमन के दौरान सोसायटी के विरुद्ध स्थानीय न्यायालय और हाई कोर्ट में जमीन के मालिकाना हक को लेकर दो प्रकरण चल रहे थे.

इसके पहले भी नगरीय विकास विभाग द्वारा कृषि भूमि पर बसी आवासीय कॉलोनियों के नियमन के लिए जारी कई परिपत्रों में यह स्पष्ट किया जा चुका था कि 22 अक्टूबर, 1999 से पहले की योजनाओं में 25 प्रतिशत से अधिक निर्माण होना चाहिए. इसके साक्ष्य में बिजली या पानी के बिल मान्य होंगे. इन परिपत्रों के मुताबिक जिस सोसायटी द्वारा कब्जे की नीयत से सरकारी जमीन पर भूखंड काटे गए हैं उसके विरुद्ध जेडीए द्वारा एफआईआर दर्ज कराई जाए और खाली जमीन को प्राधिकरण के अधिकार में लिया जाए. जबकि गोकुलवाटिका में नियमन की तारीख तक जेडीए की नोटशीट के मुताबिक एक दर्जन मकान भी नहीं बने थे. इसके बावजूद एफआईआर कराना तो दूर, आश्चर्य कि जेडीए ने गोकुलवाटिका का नियमन ही कर दिया. आश्चर्य यह भी कि इसके आसपास पंचशील एनक्लेव, विष्णु एनक्लेव, श्रीविहार और सियाराम नगर में 25 प्रतिशत से कहीं अधिक गृह निर्माण होने के बावजूद नियमन नहीं किया गया.

सहकारिता विभाग की तीनों जांचों में उजागर हुआ है गोकुलवाटिका हाऊसिंग सोसायटी नहीं है

राज्य के आला अधिकारियों से इतनी जानकारी की उम्मीद तो की ही जाती है कि एक बार जमीन पर तय प्रक्रिया के तहत सरकारी अवाप्ति हो जाए तो उसे खरीदना अपराध है. इस तरह के विज्ञापन भी जेडीए द्वारा समय-समय पर प्रसारित किए जाते हैं. इसके बावजूद गोकुलवाटिका की सरकारी जमीन पर उन्हीं अधिकारियों ने बढ़-चढ़कर भूखंड खरीदे जिन्हें सरकारी जमीन की रक्षा के लिए तैनात किया गया था. मुआयना करने पर यहां दो दर्जन से अधिक आला अधिकारी और उनके रिश्तेदारों के भूखंड पाए गए. इसी कड़ी में आईएएस डीबी गुप्ता की आईएएस पत्नी वीनू गुप्ता के नाम का भूखंड भी है. डीबी गुप्ता के नाम का उल्लेख यहां इसलिए खास हो जाता है कि गुप्ता इस पूरे प्रकरण के दौरान जेडीए आयुक्त थे जो  नियमन का काम करने के लिए उत्तरदायी प्राधिकरण है. 13 मार्च 2001 को आईएएस वीनू गुप्ता ने यहां 446 वर्ग गज का भूखंड खरीदा. भूखंड खरीदने के लिए हर नागरिक को स्टांप ड्यूटी चुकानी होती है. मगर आईएएस गुप्ता ने स्टांप ड्यूटी से बचते हुए यह भूखंड इकरारनामे के जरिए खरीदा.

यही नहीं नियमानुसार आवेदन के लिए जेडीए के नागरिक सेवा केंद्र के जरिए आवेदन करना अनिवार्य है. मगर यहां भी गुप्ता ने नियम विरुद्ध भूखंड के नाम हस्तांतरण के लिए नागरिक सेवा केंद्र की बजाय सीधे जेडीए जोन को आवेदन किया. उन्हें जोन में सिर्फ चार हजार छह सौ सत्तर रुपये नाम हस्तांतरण के लिए देने पड़े. कुल मिलाकर, गुप्ता ने यह भूखंड सिर्फ चार लाख एक हजार रुपये में अपने नाम करा लिया. जबकि उस समय बाजार दर के हिसाब से यह भूखंड अस्सी लाख रुपये का आंका गया था.  कथिततौर पर यहां एक अन्य भूखंड डीबी गुप्ता के रिश्तेदार प्रबोध भूषण गुप्ता के नाम से भी खरीदा गया.

जयपुर विकास प्राधिकरण ने सभी नियमित कॉलोनियों के नक्शे ऑनलाइन किए हैं सिवाय गोकुलवाटिका के

आरटीआई से मिली जानकारी के मुताबिक गोकुलवाटिका नियमन का प्रस्ताव जब जेडीए की भवन निर्माण समिति में लाया गया था तो कुछ अधिकारियों ने विरोध करते हुए इस पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था. यह पूरी कार्रवाई मिनिट्स में दर्ज है. 7 मई, 2005 को भवन निर्माण समिति की चर्चा (82वीं बैठक की एजेंडा संख्या 26)  में सहायक नगर नियोजक ने नियमन से पहले गोकुलवाटिका सोसायटी का निरीक्षण करने पर जोर दिया था. इस पर तत्कालीन जेडीए आयुक्त डीबी गुप्ता ने कहा कि योजना काफी पुरानी हो चुकी है और सोसायटी के पदाधिकारियों ने जमीन समर्पित करने में सहयोग किया है, लिहाजा योजना का अनुमोदन किया जाए (यहां गुप्ता यह बात छिपा गए कि जब जमीन सरकारी है और उस पर जेडीए का कब्जा हो ही चुका है तो सोसायटी कैसे उसे समर्पित कर सकती है और कैसे उस पर नियमन की प्रक्रिया हो सकती है). इस दौरान अतिरिक्त आयुक्त (पूर्व) और उपायुक्त(जोन-4) सहमत नहीं हुए और उन्होंने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया. इसके बाद भी भवन निर्माण समिति ने दोनों प्रमुख अधिकारियों की राय को दरकिनार करते हुए कहा कि उपायुक्त द्वारा सभी प्रशासनिक बिंदुओं की जांच हो चुकी है. अतः गोकुलवाटिका के नियमन का सैद्धांतिक अनुमोदन किया जाता है.

हाउसिंग सोसायटी न होते हुए भी

सहकारिता उपपंजीयक द्वारा अक्टूबर, 2010 में हाई कोर्ट में दिए गए जवाब और उसके पहले सभी विभागीय जांच रिपोर्टों से यह स्पष्ट होता है कि जेडीए ने नियमन से पहले सोसायटी के पंजीयन का परीक्षण नहीं किया साथ ही सहकारिता तथा पंजीयन विभाग द्वारा उसे समय-समय पर भेजी गई कई जांच और तथ्यात्मक रिपोर्टों को भी अनदेखा किया. हर जांच रिपोर्ट में उजागर हुआ कि गोकुलवाटिका सोसायटी का मूल उद्देश्य सामूहिक खेती और उससे संबंधित कार्य करना था. सोसायटी के पंजीयन में हाउसिंग सोसायटी का कहीं उल्लेख तक नहीं है. मगर गोकुलवाटिका सोसायटी ने अपने मूल उद्देश्य के विरुद्ध हाउसिंग सोसायटी न होते हुए भी हाउसिंग सोसायटी की तरह ही कार्रवाई की.

तहलका को मिले दस्तावेज बताते हैं कि 1960 में गोकुलवाटिका को एग्रीकल्चर सोसायटी के तौर पर पंजीकृत किया गया था. तब सोसायटी ने चैनपुरा गांव और मौजूदा दुर्गापुरा इलाके की 52 बीघा जमीन खरीदी थी. इसके उद्देश्यों में स्पष्ट लिखा है कि यह सोसायटी और इसके सभी 12 पदाधिकारी कृषि कार्यों और फार्म हाउस के लिए जमीन का उपयोग करेंगे. 21 जुलाई, 2003 को नगरीय विकास विभाग द्वारा जारी एक अधिसूचना में साफ उल्लेख है कि फार्म हाउस से संबंधित जमीन का मूल चरित्र इको फ्रेंडली (पर्यावरण के अनुकूल) तथा कृषि आधारित होगा. गोकुलवाटिका सोसायटी कृषि कार्यों के लिए ही पंजीकृत है और इसके नियम और उद्देश्य भी कृषि से संबंधित हैं. मगर जमीन की कीमत तेजी से बढ़ते देख सोसायटी के पदाधिकारियों ने इसे हाउसिंग सोसायटी के तौर पर प्रचारित किया और गृह निर्माण के लिए भूखंड काटने शुरू कर दिए.

गोकुलवाटिका सोसायटी के पंजीयन में मूल सदस्यों की संख्या 12 है. मगर 13 जून, 1994 को सहकारिता निरीक्षक किशोर कुमार जलूथरिया द्वारा की गई जांच रिपोर्ट में सदस्यों की संख्या 225 निकल आई. जांच के बाद खुलासा हुआ कि 225 सदस्यों में से 218 को आवासीय भूखंड आवंटित कर दिए गए हैं. जलूथरिया के मुताबिक सोसायटी के 12 मूल सदस्यों को छोड़ दिया जाए तो बाकी बाहरी हैं, जो एग्रीकल्चर सोसायटी की उपनियमों के विरुद्ध है. इसके बाद 27 मार्च, 1995 को उप सहकारिता पंजीयक भारतभूषण ने भी अपनी जांच रिपोर्ट में गोकुलवाटिका सोसायटी के हाउसिंग सोसायटी से संबंधित गतिविधियों को अवैध करार दिया. इसी प्रकार, 23 दिसंबर, 1996 को सहकारिता निरीक्षक वीरपाल सिंह ने भी अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट किया कि सोसायटी ने अपनी मूल प्रकृति के विरूद्ध हाउसिंग सोसायटी के तौर पर पत्राचार किया और गलत तथ्यों के आधार पर आवासीय भूखंडन किया, जो धारा 130 के तहत जघन्य अपराध है. सहकारिता विभाग की जांचों ने कुछ अहम तथ्यों को भी उजागर किया. मसलन, सोसायटी ने कभी ऑडिट नहीं कराया, 1977 के बाद का कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं कराया और लंबे समय से चुनाव भी नहीं कराया. अनियमितताओं की लंबी सूची सामने आने के बाद पदाधिकारियों ने उससे सबक लेना तो दूर, उल्टा उसी सूची में एक नयी अनियमितता जोड़ दी. 22 नवंबर, 2001 को उन्होंने गोकुलवाटिका हाउसिंग सोसायटी का लेटरहेड बनाया और उस पर सोसायटी के चुनाव की सूचना जेडीए सचिव को भिजवा दी. जबकि नियमानुसार यह सूचना सहकारी समिति को दी जाती है. सहकारी विभाग द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक सहकारी समिति के उपपंजीयक को इसकी सूचना 19 नवंबर, 2008 तक नहीं थी.

20 नवंबर, 2008 को सहकारी समिति के उपपंजीयक ने उपपंजीयक (हाउसिंग) को भेजी तथ्यात्मक रिपोर्ट में एक बार फिर स्पष्ट किया कि गोकुलवाटिका हाउसिंग सोसायटी नहीं है. रिपोर्ट में कहा गया कि धारा 68 के तहत सोसायटी के विरुद्ध कार्रवाई की जा रही है और धारा 68ए के तहत उसे नोटिस जारी किया जा चुका है. मगर सहकारिता विभाग द्वारा इन जांचों के आधार पर कोई कार्रवाई न करने का नतीजा यह हुआ कि राज्य की प्रशासनिक लॉबी ने राजधानी की इस बेशकीमती सरकारी जमीन का बंदरबांट कर लिया, जिसमें जेडीए और नगरीय विभाग के कुछ अधिकारी सहित सोसायटी के पदाधिकारी भी लाभान्वित हुए. इस पूरे प्रकरण पर तत्कालीन जेडीए आयुक्त डीबी गुप्ता का मानना है, ‘गोकुलवाटिका का अंतिम निर्णय जेडीए का नहीं बल्कि सरकार का है.’ वहीं दूसरी और सहकारिता मंत्री परसादी लाल मीणा इस मसले पर अनभिज्ञता जताते हुए कहते हैं कि यह मामला काफी पुराना है और वे इसके दस्तावेज देखने के बाद ही पर कुछ कह सकते हैं.

हालांकि यह हाईप्रोफाइल प्रकरण हाईकोर्ट में चल रहा है, इसलिए तीनों (जेडीए, नगरीय विकास और सहकारी) विभागों के जवाबदेह अधिकारी कोई सार्वजनिक जवाब देने से बच रहे हैं, ऐसे में सहकारी समिति के पूर्व सह पंजीयक अशोक कुमार का साफ जवाब है कि किसी भी कॉलोनी नियमन के लिए सहकारी समिति की राय लेना जरूरी होता है लेकिन ‘गोकुलवाटिका के नियमन में जेडीए ने सहकारी समिति से कोई राय नहीं ली.’  

गलत तथ्यों का आधार

मौजूद दस्तावेज और पड़ताल से यह जाहिर होता है कि गोकुलवाटिका नियमन के दौरान न केवल अहम तथ्यों को छिपाया गया बल्कि गलत तथ्यों को भी आधार बनाया गया था. गोकुलवाटिका नियमन की भूमिका बनाने में तत्कालीन नगरीय विकास विभाग के प्रमुख शासन सचिव परमेशचंद्र की भूमिका अहम बताई जाती है. परमेशचंद ने भी गोकुलवाटिका में ही आवासीय भूखंड लिया था, जिस पर उनका बंगला बनकर तैयार हो चुका है. 22 जुलाई, 1997 को परमेशचंद्र ने एक पत्र तत्कालीन विधि सचिव एनसी गोयल के पास विधिक राय के लिए भेजा था. उन्होंने जानना चाहा था कि क्या गोकुलवाटिका को एग्रीकल्चर की बजाय हाउसिंग सोसायटी मानना उपयुक्त होगा? गोयल का स्पष्ट जवाब था कि सहकारिता पंजीयक द्वारा पंजीयन से इनकार किया जा चुका है, लिहाजा इसे हाउसिंग सोसायटी नहीं माना जा सकता. बात बिगड़ती देख परमेशचंद्र ने दुबारा लिखा कि सोसायटी की उद्देश्य संख्या छह और 14 में सदस्यों के गृह निर्माण का उल्लेख है. इसके अलावा, सोसायटी द्वारा एक जनवरी, 1973 को सहकारिता पंजीयक को हाउसिंग सोसायटी के रूप में माने जाने के लिए पत्र लिखा गया था.

अहम बात है कि सोसायटी की उद्देश्य संख्या 6 और 14 में सदस्यों के रहने के लिए मकान बनाने का प्रावधान तो है लेकिन उन सदस्यों का मूल कार्य खेती करना था. जबकि गोकुलवाटिका के आवासीय भूखंड उन बड़े अधिकारियों, व्यापारियों और उद्योगपतियों को दिए गए हैं जिनका खेती से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है. जहां तक सवाल सोसायटी द्वारा 1 जनवरी, 1973 को सहकारिता पंजीयक को हाउसिंग सोसायटी के रुप में माने जाने के लिए लिखे पत्र का है तो सहकारी विभाग द्वारा गोकुलवाटिका सोसायटी की हुई अलग-अलग जांचों से यह सामने आया है कि ऐसा कोई पत्र सहकारिता पंजीयक को कभी नहीं मिला. हालांकि बाद में ऐसे अहम तथ्यों की अनदेखी करते हुए जुलाई, 1997 में विधि सचिव और 25 सितंबर, 2001 को महाधिवक्ता ने हाउसिंग सोसायटी के पक्ष में अपनी राय जाहिर कर दी. यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि 3 अक्टूबर, 2002 को राजस्थान में सहकारिता कानून लागू हो गया था, जिसमें राज्य मंत्रिमंडल से सोसायटी के मूल उद्देश्यों को बदलने का अधिकार वापस ले लिया गया. इसके बावजूद सात जून, 2003 को नगरीय विकास विभाग ने महाधिवक्ता की राय को आधार बनाया और मंत्रिमंडल से निर्णय करा लिया. इसमें नये सहकारिता कानून को भी छिपा लिया गया. आखिर, नगरीय विकास विभाग ने दो जुलाई, 2003 को जेडीए को एक पत्र {संख्या 5(18) नविवि, 385} के जरिए सूचित किया कि मंत्रिमंडल ने गोकुलवाटिका सोसायटी की आवासीय योजना को अनुमोदित किया है. मगर यह सूचना भी सहकारिता विभाग को नहीं दी गई. जबकि सहकारिता विभाग को यह सूचना देना अनिवार्य है. सरकारी जमीन पर नियमन के विरुद्ध जनहित याचिका दायर करने वाले संजय शर्मा जेडीए द्वारा 7 जनवरी, 1997 को जारी एक अधिसूचना का हवाला देते हुए बताते हैं कि अगर कोई निर्माण होने की स्वीकृति गलत तथ्यों के आधार पर सक्षम अधिकारी से मिलीभगत करके ली जाती है तो ऐसी स्वीकृति स्वतः अवैध मानी जाती है. इसलिए गोकुलवाटिका का निर्माण कार्य भी अवैध माना जाएगा और यह सोसायटी भी.
जेडीए ने सभी नियमित कॉलोनियों के नक्शे और कॉलोनियों के आवंटियों की सूची ऑनलाईन कर रखी है, लेकिन जयपुर की संभवतः गोकुलवाटिका एकमात्र ऐसी कॉलोनी है जिसका ऑनलाइन रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं किया गया. न तो इस कॉलोनी का नक्शा ही सार्वजनिक है और न ही कॉलोनियों के आवंटियों का विवरण. इसी प्रकार, पुराने नक्शे में गोकुलवाटिका को भूखंडों के अनुसार बांटा गया था, जबकि नये नक्शे में इसे ब्लॉकों के अनुसार बांट देने से भूखंड आवंटियों की जानकारी नहीं मिल पा रही है. संजय का आरोप है कि गोकुलवाटिका में जिन अधिकारियों ने भूखंड हासिल किए हैं वे नहीं चाहते कि उनके नाम के साथ ही सोसायटी से जुड़ी सूचनाएं भी जगजाहिर हों.

यह आम रास्ता नहीं है

गोकुलवाटिका में जमीन की कीमत जयपुर की उन सभी जमीनों के मुकाबले सर्वाधिक है जिन्हें एक दशक के दौरान जेडीए ने अतिक्रमणमुक्त कराया है. नियमन के दौरान गोकुलवाटिका के पास का एक भूखंड एक लाख रुपये प्रति वर्ग गज के हिसाब से बिका था. इस लिहाज से 2007 में ही इस 52 बीघा यानी एक लाख 56 हजार 600 वर्ग गज जमीन की बाजार दर 15 सौ करोड़ रुपये आंकी गई थी. गांधीवादी कार्यकर्ता सवाई सिंह का मत है कि अगर यह जमीन सरकार के पास होती तो जनहित  की किसी बड़ी परियोजना के उपयोग में लाई जा सकती थी. सिंह का आरोप है कि जेडीए एक बड़ा भूमाफिया बन चुका है और गोकुलवाटिका इसकी एक बड़ी नजीर है.

राजस्थान हाई कोर्ट के वकील प्रेमकृष्ण शर्मा का कई पुख्ता साक्ष्यों के आधार पर यही मानना है कि गोकुलवाटिका का नियमन जेडीए और सहकारी कानूनों के खुले उल्लंघन का बड़ा खेल है. इस दौरान बड़े अधिकारियों ने सोसायटी के पदाधिकारियों के साथ मिलकर कई आपराधिक कारनामों को अंजाम दिया है. इस प्रकरण में दोषियों के विरुद्ध भारतीय दंड संहिता की तकरीबन बीस धाराओं के तहत मुकदमे दर्ज हो सकते हैं. इनमें दो साल से लेकर आजीवन कारावास तक के प्रावधान हैं. यह दूसरी बात है कि अतिक्रमणमुक्त जयपुर के नाम पर गरीबों की दर्जनों बस्तियां उजाड़ने वाले जेडीए की अरबों रुपये की इस जमीन पर उसी के आला अधिकारी हर स्तर पर कानून की अवहेलना करते हुए कब्जा जमाए हैं. उन पर कार्रवाई होना तो दूर, उल्टा उन्हीं के लिए और उन्हीं के द्वारा कई तरह की सुविधाएं जुटाई जा रही हैं. भले ही राजस्थान में तीन हजार से ज्यादा कॉलोनियों के कई मामले समय पर न निपटाए जाते हो लेकिन मामला अगर गोकुलवाटिका से जुड़ी योजना का हो तो निर्णय लेने में देर नहीं लगती. जैसे कि अनुमोदित कॉलोनियां में स्वीकृत सड़कें निकालने में ही आम जनता को खासी परेशानियां आती हैं लेकिन विवादास्पद गोकुलवाटिका को और अधिक सुविधासंपन्न बनाने के लिए यहां के खास रहवासियों को कोई परेशानी नहीं आई. यहां के लिए एयरपोर्ट प्लाजा की बेशकीमती जमीन पर एक खास सड़क निकाली गई है. यहां तक कि तामरा गार्डन की निजी तथा विवादास्पद जमीन पर भी न्यायालय के यथास्थिति के आदेश को एक तरफ रखते हुए साठ फुट चौड़ी सड़क निकाले जाने पर भी मुहर लगाई जा चुकी है.
अमानीशाह नाले से विस्थापित रूपकुमार का आरोप है कि सरकारी जमीनों से तो गरीबों को उजाड़ा जाता है, ताकि वहां बड़े बाबुओं का राज हो जाए. सरकारें बदलने के बावजूद इस प्रकरण में कार्रवाई न होने से विस्थापित तबके के बीच यह धारणा और मजबूत हुई है कि कानून केवल आम जनता के लिए होता है. बीते विधानसभा चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस ने तत्कालीन भाजपा सरकार के विरूद्ध विवादास्पद गोकुलवाटिका का मुद्दा भुनाया था लेकिन पार्टी ने चुनाव जीतने के बाद इसे भुलाने में भी देर नहीं की. 23 अगस्त, 2008 को कांग्रेस की ओर से जारी एक ब्लैकपेपर के हवाले से कहा गया था कि भाजपा सरकार ने गोकुलवाटिका में करोड़ों रुपये डकारे हैं. मगर कांग्रेस सरकार बनने के बाद गोकुलवाटिका प्रकरण में लिप्त अधिकारियों के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं हुई, उल्टा उनमें से कुछेक को मौजूदा सरकार ने प्रमुख विभागों में प्रमुख शासन सचिव तक बनाया है. 

स्वदेशी सुपरहीरो इसलिए शुद्ध अत्याचार : रा. वन

फिल्म  रा.वन
निर्देशक अनुभव सिन्हा               
कलाकार
  शाहरुख खान, करीना कपूर, शाहना गोस्वामी, अर्जुन रामपाल 

देखिए, इसमें अनुभव सिन्हा की कोई गलती नहीं है. आपको पता है कि उन्होंने ‘कैश’ नाम की एक फिल्म बनाई है और तब भी आप उनसे ज्यादा की उम्मीद करते हैं तो इसके लिए आप खुद जिम्मेदार हैं. गलती शाहरुख खान की भी नहीं है. कुछ दिन पहले ही उन्होंने कहा है कि वे देश भर में महिलाओं के लिए पर्याप्त टॉयलेट बनवाना चाहते हैं और अपने इस ड्रीम प्रोजेक्ट के लिए उन्हें अपनी आत्मा भी बेचनी पड़े तो बेचेंगे. तो बात बेचने की है, जिसका एक हिस्सा यह फिल्म भी है – वीडियोगेम की फिल्म, जिसका खलनायक उससे निकलकर बाहर आ जाता है.

आपको उठापटक वाले वीडियोगेम खेलना और फिर बस उसी की फिल्म देखना पसंद हो तो रा.वन आपको पसंद आ सकती है. लेकिन तब नहीं, जब आप कोई नयापन, तर्क और आत्मा ढूंढ़ते हों. साइंस फिक्शन इसलिए साइंस फिक्शन नहीं होती कि उसमें बड़ी-सी लैबोरेटरी, तारों का जंजाल, रोबोट और जलती-बुझती लाइटें होती हैं. वह भी बाकी कहानियों की तरह एक कहानी है और उसका सारा बोझ आप बेचारे स्पेशल इफेक्ट्स पर नहीं डाल सकते. स्पेशल इफेक्ट्स और थ्रीडी पर मेहनत की गई है और फिल्म में इन सबकी इतनी भीड़ है कि कई बार आपके सिर पर ये सीन ओलों की तरह गिरते हैं. एकाध जगह वे आपको रोमांचित भी करते हैं लेकिन हॉलीवुड की इससे कहीं ज्यादा कंटेंट और तकनीकी गुणवत्ता की फिल्में आपकी गली के नुक्कड़ की दुकान पर हैं तो आप रा.वन क्यों देखेंगे?  इन मसाला फिल्मों में शाहरुख खान अक्सर एक ही तरह के हाव-भाव लाते हैं लेकिन वे फिर भी एंटरटेनर हैं. करीना सुंदर लगी हैं और वे सिर्फ वही लगना भी चाहती हैं. वे शायद ऐसे ही रोल करना चाहती हैं जिनमें वे पति या प्रेमी के जीवन का हिस्सा बनकर ही मोक्ष-प्राप्ति जैसा अनुभव करें और उनका आईक्यू इतना कम हो कि जो कहानी दर्शकों को आधा घंटा पहले समझ आ गई है, वे उस पर हैरान होती रहें.

फिल्म की शुरुआत के एक सपने के सीन में कहीं-कहीं फिल्म अपने आप पर और सुपरहीरो की अवधारणा पर हंसती है. फिल्म उसी लाइन पर चलती तो एक कामचलाऊ व्यंग्य बन सकती थी, सुपरहीरो फिल्म होते हुए भी, जैसी दबंग कहीं-कहीं होती है- मसाला फिल्म जो कहीं-कहीं मसाला फिल्मों पर हंस देती है. बाकी तो क्या है कि सड़क है, कारें हैं जिन्हें तोड़ा जाना है, ऊंची इमारतें हैं जिन पर हमारा सुपरहीरो अपने सुपरविलेन के साथ कूदता-फांदता है और कहीं-कहीं पारिवारिक आंसूड्रामा है.

रा.वन एक विज्ञान गल्प है और यह देर तक विज्ञान की बातें भी करती है लेकिन सब खोखली. इसके विचार को इसके स्पेशल इफैक्ट्स कच्चा चबा गए हैं. कहानी के स्तर पर यह बच्चों की किसी भी साधारण ऐक्शन कॉमिक से कमतर है. आपकी मानसिक आयु दस साल से अधिक हो तो रा.वन देखने तभी जाएं जब हवा में लड़ रहे शाहरुख खान को देखकर आपको कुछ-कुछ होने की संभावना हो.

– गौरव सोलंकी

जब वह अंधा युग अवतरित हुआ

‘उस भविष्य में /  धर्म-अर्थ ह्रासोन्मुख होंगे / क्षय होगा धीरे-धीरे सारी धरती का /  सत्ता होगी उनकी / जिनकी पूंजी होगी / जिनके नकली चेहरे होंगे / केवल उन्हें महत्त्व मिलेगा / राज्यशक्तियां लोलुप होंगी /  जनता उनसे पीड़ित होकर / गहन गुफ़ाओं में छिप-छिप कर दिन काटेगी.’

धर्मवीर भारती का काव्य नाटक ‘अंधा युग’ न जाने कब रचे गए विष्णु पुराण की इन्हीं पंक्तियों से शुरू होता है. इस डरावनी भविष्यवाणी को धर्मवीर भारती जैसे हमारे समय पर बिल्कुल प्रत्यारोपित कर डालते हैं. देशकाल और परंपरा की अचूक और विलक्षण पहचान के साथ वे महाभारत का पूरा महाकाव्य फलांग कर उसके बिल्कुल आखिरी सिरे तक पहुंचते हैं जहां युद्ध खत्म हो चुका है, थकी-हारी, घायल और आर्तनाद करती लुंज-पुंज, बची-खुची सेनाएं नगर लौट रही हैं, दुर्योधन एक सरोवर के तल में दम साधे बैठा है, धृतराष्ट्र को पहली बार आशंका व्याप रही है और गांधारी पहली बार क्रोध और अनास्था की विह्वलता में जल रही है.

युद्ध से अठारहवें और आखिरी दिन से लेकर कृष्ण की मृत्यु तक की यह कथा धर्मवीर भारती के काव्य नाटक में इतनी सारी द्वंद्वात्मकताओं के साथ खुलती है कि उसमें एक पूरा सभ्यता विमर्श पढ़ा जा सकता है. नाटक में युधिष्ठिर के अर्धसत्य को प्रतिशोध के अपने सत्य में बदलने को उद्धत पशुवत अश्वत्थामा है, अपनी दिव्य दृष्टि खोने से पहले उसकी व्यर्थता समझता संजय है, दुर्योधन की जय बोलता याचक की तरह झूठा भविष्य है, सत्य का साथ देने के अपराध में अपनों की भर्त्सना झेलता युयुत्सु है और वे कृष्ण हैं जिनके आगे सितारों की गति झूठी पड़ जाती है. आस्था और अनास्था का, नैतिकता और व्यावहारिकता का, मूल्यों और स्वार्थ का, चरित्रों का जैसा तीखा और नाटकीय टकराव और तनाव इस नाटक में उपस्थित है वह अन्यत्र दुर्लभ है.

जिस कृति के भीतर पाठ की इतनी जटिल और संश्लिष्ट तहें मौजूद हों, उसका मंचन आसान नहीं

जिस कृति के भीतर पाठ की इतनी जटिल और संश्लिष्ट तहें मौजूद हों, उसका मंचन आसान नहीं. इसी कौंधती हुई जटिलता की वजह से यह नाटक अभिनेताओं और निर्देशकों को बार-बार अपनी तरफ खींचता है. वे जैसे इसमें अपने हिस्से का महाभारत खोजने आते हैं, कभी पाते हैं, कभी गंवाते हैं और कभी-कभी नए सिरे से समझते और सिरजते भी हैं.

लेकिन बड़ी कृतियों के तनाव मंच पर नहीं, मन के भीतर घटित होते हैं. जिन गहन गुफाओं के जिक्र से नाटक शुरू होता है, वे हमारे भीतर होती हैं जिनमें हमारी पशुता भी सोती है, हमारी मनुष्यता भी. क्या इन गह्वर गुफाओं को, क्या इस अंदरूनी तनाव को मंच पर प्राप्त और संप्रेषित किया जा सकता है? क्या अपने अंधेपन की सीमाओं के आत्मस्वीकार में लीन कोई धृतराष्ट्र बिल्कुल हाड़-मांस का होकर हमारे भीतर उतर सकता है? क्या अश्वत्थामा की बर्बरता या संजय की बेबसी या गांधारी का द्वंद्व ऐसे अभिनेय हिस्से हैं जिन्हें ज्यों का त्यों उनके तनाव और उनकी विह्वलता के बीच पकड़ा और प्रस्तुत किया जा सके? 

ये सारे सवाल मेरे भीतर इस महीने भानु भारती का अंधा युग देखते हुए उठते रहे. इस नाटक में उत्तरा बावकर और मोहन महर्षि जैसे समर्थ अभिनेताओं ने अभिनय किया है. नाटक के मंचन के लिए भानु भारती ने फिरोजशाह कोटला के किले की भग्न प्राचीरों के बीच की जगह चुनी – वही जगह जहां 1963 में अब्राहिम अल्काजी ने इस नाटक का भव्य मंचन किया था. निश्चय ही यह सब कुछ बहुत उदात्त था. किले के बगल में फिरोजशाह स्टेडियम में लगे टावरों से आ रही, बहुत हल्का व्यवधान डालती रोशनी के बावजूद, दिल्ली के शोर-शराबे से दूर, नाटक देखने के लिए पुरानी दीवारों और पुराने मेहराबों को पार करके बनाए गए मंच तक पहुंचना सुखद था. मुख्य मंच से कुछ ऊपर दाईं तरफ एक कतार में खडे़ गायक वृंद के गायन से नाटक शुरू हुआ, मुख्य मंच पर बैठे धृतराष्ट्र की व्याकुलता और गांधारी की हताशा को छूता हुआ, दाईं तरफ दूर बनी उन गुफ़ाओं तक जा पहुंचा जहां कौरव सेना के आखिरी तीन सैनिक अश्वत्थामा, कृत वर्मा और कृपाचार्य अपने-अपने द्वंद्व और अनिश्चय के बीच उलझे हुए थे. इस दौरान और इसके बाद अंधा युग के वे सारे प्रसंग आते-जाते रहे जो हमारे भीतर अलग-अलग अवसरों पर घुमड़ा करते हैं. अश्वत्थामा के भीतर जो कुछ भी कोमल और शुभ्र था, उसकी भ्रूण हत्या युधिष्ठिर के अर्धसत्य ने कर दी है, और अपना धनुष तोड़कर विक्षिप्त-सा घूमता अश्वत्थामा अपने सत्य और अपनी नियति की तलाश में है. जिधर सत्य होगा, उधर जीत होगी, यह मानने और बताने वाली गांधारी यह देखकर हतप्रभ है कि सत्य किसी भी तरफ नहीं था और जिसे दुनिया प्रभु कहती है वह भी प्रवंचक निकला. युद्ध से ठीक पहले सत्य का पक्ष समझ कर पांडवों के साथ लड़ने वाला गांधारीपुत्र युयुत्सु पा रहा है कि वह नितांत अकेला और अपनों की ही घृणा और डर का पात्र है.

किसी निर्देशक की एक चुनौती यह भी होती है कि वह अपना एक ऐसा पाठ तैयार करे जो देखने वालों के भीतर किसी नव्यता, किसी उपलब्धि का बोध कराए

लेकिन क्या सारा नाटक, इससे पैदा होने वाला सारा तनाव लगभग उसी तरह घटित हो रहा था जैसा वह मेरे भीतर न जाने कितने वर्षों से मौजूद है? क्या वह उस तरह घटित हो सकता था? हम सबके भीतर शब्दों और भावों की अपनी-अपनी छवियां होती हैं जो अपनी तरह की अभिव्यक्ति चाहती हैं. मेरी गांधारी  विक्षोभ और करुणा के ऐसे रसायन से बनती है जिसमें ऊपर भले क्रोध हो, लेकिन जिसके अतल में बहुत गहरा दुख हो, और उससे भी गहरे एक भरोसा कि जो कुछ घटा है, अंततः सत्य को उसी से बनना है.
ऐसी गांधारी मुझे नहीं मिली. जो मिली उससे निराशा नहीं है, क्योंकि भानु भारती और उत्तरा बावकर की गांधारी भी अपनी तरह से एक पाठ बनाती है. बल्कि कृष्ण के शाप स्वीकार कर लेने के बाद तो फूट-फूट कर रोती गांधारी बिल्कुल वही थी जो मेरे भीतर थी. इसी तरह मेरे भीतर मौजूद धृतराष्ट्र की विडंबना कहीं ज्यादा गहरी है- मोहन महर्षि के धृतराष्ट्र का रंग कुछ अलग-सा है .

यह भानु भारती निर्देशित या उत्तरा बावकर और मोहन महर्षि अभिनीत नाट्य प्रस्तुति की समीक्षा या आलोचना नहीं है. यह उस द्वंद्व को समझने की कोशिश है जो लेखन और मंचन के बीच पैदा होता है.धर्मवीर भारती ने यह नाटक मूलतः रेडियो के लिए लिखा था जिसकी नाट्य संभावनाओं ने कई निर्देशकों को लुभाया कि वे इसका मंचन करें. रेडियो पर पता नहीं, आखिरी बार इसका प्रसारण कब हुआ, लेकिन मंच पर न जाने किन-किन शहरों में, किन-किन निर्देशकों ने इसे अपने ढंग से मंचित करने की कोशिश की. इब्राहिम अल्काजी और भानु भारती के बीत सत्यदेव दुबे से लेकर एमके रैना और ढेर सारे दूसरे रंग निर्देशकों के मंचन हैं जिनकी प्रशंसा और आलोचना में न जाने कितना कुछ कहा गया.

लेकिन शिल्प के स्तर पर देखें तो अंधा युग की असली चुनौती क्या है? इस नाटक में जो तनाव है, जो नाटकीयता है, वह अभिनय की नहीं, स्थितियों की है. यही बात इसकी भव्यता या उदात्तता के बारे में कही जा सकती है. नाटक युद्धभूमि या महल या नगर में घटित होता है- लेकिन वे बस उपादान हैं- जो घटित हो रहा है उसकी पृष्ठभूमि मात्र. फिर दुहराना होगा कि इस नाटक का वास्तविक उदात्त तत्व उस युद्ध में है जो चरित्रों के भीतर और हमारे भीतर लगभग साथ-साथ घटित हो रहा होता है.

शायद यह भी वजह है कि इस नाटक की कोई भी प्रस्तुति हमें पूरी तरह संतुष्ट नहीं छोड़ती. दूसरी बात यह कि धर्मवीर भारती ने इस नाटक में जितने तनाव पैदा किए हैं, जितने प्रश्न खड़े किए हैं, उतने उत्तर नहीं खोजे हैं. वे आस्था और अनास्था के द्वंद्व में आखिरकार आस्था का हाथ पकड़ कर खड़े हो गए हैं- कृष्ण की मृत्यु जैसे अश्वत्थामा का भी निर्वाण है- उसकी भी अपने जख्मों से मुक्ति है.लेकिन शायद इसी वजह से अचानक आखिरी सिरे पर आकर यह नाटक हमें कुछ अनिश्चय में छोड़ जाता है. मगर क्या ज्यादातर बड़ी कृतियां यही काम नहीं करतीं? वे प्रश्न खड़े करती है, उनके निर्णायक या अंतिम उत्तर नहीं देतीं. यही वजह है कि हर निर्देशक इस नाटक की अपनी तरह से व्याख्या करने की कोशिश करता है. भानु भारती ने भी इस नाटक का भरपूर संपादन किया है. उन्होंने कई प्रसंग छोड़ दिए हैं जो अंधा युग के किसी प्रतिबद्ध पाठक को खल सकते हैं. फिर ऐसा भी लगता है कि इस संपादन के पीछे नाटक की व्याख्या से ज्यादा दबाव प्रस्तुति की सुविधा और सीमाओं का है.

निश्चय ही रचना और मंचन के बीच- पाठ और प्रस्तुति के बीच- हमेशा एक फांक रह जाती है और हर पाठक या दर्शक का अपना एक पाठ, अपना एक मंचन होता है, लेकिन किसी निर्देशक की एक चुनौती यह भी होती है कि वह अपना एक ऐसा पाठ तैयार करे जो देखने वालों के भीतर किसी नव्यता, किसी उपलब्धि का बोध कराए. भानु भारती इस प्रस्तुति की बहुत सारी विशेषताओं के बावजूद इस स्तर पर हमें कुछ निराश करते हैं. बहरहाल, ऐसा नहीं कि दिल्ली में अंधा युग का नए सिरे से मंचन कोई बड़ी सांस्कृतिक परिघटना हो. दिल्ली एक तरह से संस्कृतिकर्म की भी राजधानी है- वहां लगभग रोजाना संगीत, नृत्य, साहित्य और रंगमंच से जुड़ी गतिविधियां किसी भी दूसरे शहर के मुकाबले कहीं ज्यादा घटित होती हैं. यह अलग बात है कि इन सब पर भी एक तरह की सांस्थानिक जड़ता हावी है, जो इस वजह से कुछ और बड़ी हो जाती है कि बाकी दिल्ली इसे देखने, सुनने, इसका आस्वाद लेने को तैयार नहीं. यह एक तरह से संजय की ही पीड़ा रह जाती है- उन अंधों के सामने सत्य कहने की मजबूरी जो इसे देखने और महसूस करने लायक नहीं. देखें, यह अंधा युग कब तक चलता रहता है. 

सरकार और चैनलों की नूराकुश्ती

हर सरकार पालतू मीडिया पसंद करती है. अगर पालतू न भी हो तो भौंकने वाला नहीं होना चाहिए. भौंकने वाले न्यूज मीडिया को कोई सरकार बर्दाश्त नहीं कर पाती. यूपीए सरकार भी अपवाद नहीं है. वह न्यूज चैनलों खासकर अंग्रेजी और हिंदी के कुछ चैनलों की भ्रष्टाचार विरोधी अति उत्साही रिपोर्टिंग से खासी नाराज है. उसे लगता है कि भ्रष्टाचार खासकर 2जी से लेकर कॉमनवेल्थ घोटाले जैसे मामलों में न्यूज चैनलों की वजह से न सिर्फ उसकी काफी फजीहत हुई है बल्कि सरकार की साख को झटका लगने से गवर्नेंस पर भी बुरा असर पड़ा है. नतीजा, नाराज सरकार मीडिया खासकर न्यूज चैनलों पर नियंत्रण की कोशिश में है. यह भी कोई नयी बात नहीं. ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब मीडिया के खुलासों से नाराज सरकारों ने उसे नियंत्रित करने की कोशिश की है. इस रणनीति के तहत सरकार ने चैनलों की लगाम अपने हाथ में रखने के लिए उनके लाइसेंस की शर्तें कड़ी करने के साथ-साथ उनके लाइसेंस का दस साल में पुनर्नवीनीकरण जरूरी कर दिया है. इस पुनर्नवीनीकरण के लिए यह शर्त होगी कि उन पर केबल टीवी नेटवर्क्स रेगुलेशन कानून के प्रोग्राम और विज्ञापन कोड में उल्लिखित प्रावधानों का पांच या उससे अधिक बार उल्लंघन करने के मामलों में कार्रवाई नहीं हुई हो.

आश्चर्य नहीं कि सरकार के ताजा फैसलों का विरोध करने वाले न्यूज चैनल स्वतंत्र नियामक की मांग नहीं कर रहेकहने की जरूरत नहीं है कि न्यूज चैनलों ने प्रोग्राम और विज्ञापन कोड के किस प्रावधान का और कब उल्लंघन किया और उन पर क्या कार्रवाई होनी चाहिए, इसका फैसला पूरी तरह से सरकार का होगा. मतलब यह कि मीडिया पर ‘आरोपकर्ता, अभियोगकर्ता और जज’ तीनों की भूमिका खुद निभाने का आरोप लगाने वाली सरकार न्यूज चैनलों के साथ जैसे को तैसा की तर्ज पर वही करने जा रही है. इस कारण स्वाभाविक तौर पर सरकार की असली मंशा को लेकर आशंका पैदा होती है. यह आशंका इस तथ्य से और बढ़ जाती है कि जिस प्रोग्राम और विज्ञापन कोड को चैनलों की लक्ष्मण रेखा बताया जा रहा है उसमें बहुत कुछ ऐसा है जिसकी मनमानी व्याख्या की जा सकती है. उसका दायरा बहुत व्यापक है और अगर मंत्रालयों में बैठे बाबुओं ने चैनलों को काबू में करने के इरादे से उसकी उदार व्याख्या शुरू कर दी तो न्यूज चैनलों के दफ्तरों में नोटिसों की भरमार लग जाएगी.

संदेश साफ है. सरकार को भौंकने वाले न्यूज चैनल पसंद नहीं हैं. लेकिन मुश्किल यह है कि जनतंत्र भौंकने वाले न्यूज मीडिया और चैनलों के बिना चल नहीं सकता. असल में, जनतंत्र को जीवंत, गतिशील और भागीदारीपूर्ण बनाने के लिए जरूरी है कि न्यूज मीडिया और चैनल सक्रिय पहरेदार की भूमिका निभाएं. लेकिन अगर पहरेदार चोर को देखकर शोर न मचाए तो ऐसे पहरेदार का क्या फायदा? उससे चोर भले खुश हो लेकिन पहरेदार के मालिकों का नुकसान तय है. लेकिन मुश्किल सिर्फ यह नहीं है कि सरकार भौंकने वाले चैनलों से नाराज है और उन्हें काबू में करने के बहाने और तरीके खोज रही है बल्कि यह भी है कि आजादी के नाम पर अधिकांश चैनल असली चोरों के खिलाफ कम और ज्यादातर समय बेमतलब भौंकते रहते हैं.

इस अहर्निश नौटंकी से दर्शकों का ध्यान बंट रहा है जिसका फायदा चोर उठा रहे हैं. इससे दर्शकों में भी खासी नाराजगी है. सरकार को यह पता है. वह इस नाराजगी का फायदा उठाकर चैनलों का मुंह बंद करना चाहती है. लेकिन सच यह है कि खुद सरकार को न्यूज चैनलों की इस नौटंकी से कोई शिकायत नहीं रही है. इसका सबूत यह है कि गाहे-बगाहे चैनलों के रेगुलेशन की बात करने के बावजूद सरकार ने कभी भी गंभीरता से यह प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ाया. असल में, वह चैनलों को नियंत्रित करने का अधिकार छोड़ना नहीं चाहती. दूसरे, वह नहीं चाहती है कि पांच ‘सी’ (सिनेमा, क्रिकेट, क्राइम, कॉमेडी और सेलेब्रिटी) में उलझे न्यूज चैनल वास्तविक खबरों और सरकार की खबर लेने की ओर लौटें और उसकी नींद हराम करें. सरकार और चैनलों के बीच एक अलिखित-सी सहमति रही है कि दोनों एक-दूसरे को एक सीमा से अधिक परेशान नहीं करेंगे.

लेकिन ऐसा लगता है कि पिछले कुछ महीनों में कुछ चैनलों के आक्रामक भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के कारण यह सहमति टूट गई है. इससे सरकार को एक बार फिर न्यूज चैनलों के रेगुलेशन की जरूरत महसूस होने लगी है. लेकिन रेगुलेशन को लेकर वह कतई गंभीर नहीं है. अगर होती तो एक स्वतंत्र, स्वायत्त और प्रभावी प्रसारण नियामक के गठन के लिए ईमानदारी से प्रयास करती. ऐसे नियामक की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही है जो सरकार और मीडिया उद्योग दोनों से स्वतंत्र और स्वायत्त हो और जिसमें आम दर्शकों की भी निश्चित और महत्वपूर्ण भूमिका हो. लेकिन सरकार सिर्फ रेगुलेशन के डंडे का भय दिखाकर चैनलों को साधना चाहती है. इसीलिए वह रेगुलेशन का अधिकार अपने पास रखना चाहती है. न्यूज चैनल भी स्वतंत्र और स्वायत्त नियामक के पक्ष में नहीं हैं. उन्हें मालूम है कि ऐसे नियामक से निपटना मुश्किल होगा. उन्हें पता है कि सरकार से लेन-देन और डील संभव है लेकिन स्वतंत्र नियामक को झांसा देना आसान नहीं होगा.  

'अन्ना हमारे नेता हैं. मैं तो बस उन्हें दफ्तरी मदद उपलब्ध करवाता हूं'

अरब दुनिया में आई क्रांति की लहर की तरह शुरू हुआ अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अब एक अलग दिशा में जाता दिख रहा है. यह दिशा बिखराव और साख में गिरावट की है. गिरावट कई मोर्चों पर देखने को मिल रही है. पहला मोर्चा तो एकजुटता का ही है. कश्मीर पर प्रशांत भूषण के बयान के बाद उनके साथ कुछ लोगों द्वारा हुई मारपीट के बाद बाकी टीम ने इस कृत्य की भर्त्सना तो की मगर साथ ही यह भी जोड़ा कि भूषण को कोई भी बयान देने से पहले भली-भांति सोच लेना चाहिए. फिर टीम अन्ना के एक और चर्चित सदस्य और सामाजिक कार्यकर्ता राजेंद्र कुमार यह कहते हुए इससे अलग हो गए कि अरविंद केजरीवाल इसमें अपनी तानाशाही चला रहे हैं. अभी हाल ही में टीम के एक और सदस्य कुमार विश्वास ने अन्ना को पत्र लिखकर लोकपाल पर बनी कोर कमेटी को भंग करने की मांग कर डाली. यह बता रहा है कि टीम अन्ना की सीवन उधड़ रही है.
टीम के सदस्यों की नैतिकता पर भी सवाल उठ रहे हैं. आंदोलन के एक और जाने-माने चेहरे किरण बेदी के बारे में ढाई दर्जन ऐसे मामले सामने आए हैं जिनमें आरोप लगा है कि उन्होंने अपने आयोजकों से हवाई टिकट के असल खर्चे से ज्यादा रकम वसूली. उन्होंने इकोनॉमी क्लास में सफर किया और बिजनेस क्लास का भाड़ा वसूल किया. उधर अरविंद केजरीवाल पर आरोप लग रहे हैं कि वे चंदे की राशि का हिसाब नहीं दे रहे. दूसरी तरफ, हिसार उपचुनाव में टीम अन्ना द्वारा कांग्रेस के विरोध के बाद इस आंदोलन से जुड़े वे लोग भी पसोपेश में हैं जो अब तक आंदोलन को पूरी तरह से अराजनीतिक मानकर इसमें निष्ठा से हिस्सा ले रहे थे. 
भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुए इस आंदोलन के बारे में अब यह भी कहा जा  रहा है  कि लोकपाल के लिए शुरू हुआ आंदोलन अपनी दिशा से भटकने लगा है. आंदोलन को एकजुट रखने की चुनौतियों, इसकी आगे की दिशा और इसे चला रही टीम पर लग रहे तमाम आरोपों पर  अरविंद केजरीवाल से तहलका संवाददाता अतुल चौरसिया और  रेवती लाल की बातचीत के अंश :

इंडिया अगेन्स्ट करप्शन (आईएसी) ने हिसार चुनाव में लोकपाल को मुद्दा क्यों बनाया?

हिसार के कुछ लोग चुनाव से पहले मुझसे आकर मिले थे. उन्होंने मुझसे कहा कि हिसार चुनाव में लोकपाल को मुद्दा बनाना चाहिए.

लेकिन आपने इसे क्यों स्वीकार किया? यह तो आपके अपने विचारों का विरोधाभास ही दिखाता है. आप लोग हमेशा इसे अराजनीतिक आंदोलन कहते आ रहे थे.

हमने कभी नहीं कहा कि हम राजनीतिक नहीं हैं. हमने हमेशा कहा कि यह आंदोलन राजनीतिक है लेकिन पार्टी पॉलिटिक्स से परे है. यह चुनावी राजनीति नहीं है, यह जनता की राजनीति है.

आखिर यह चुनावी राजनीति कैसे नहीं है?

आप इसे चुनावी राजनीति कह सकते हैं, लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता. मैं इसे तब चुनावी राजनीति मानता जब मैं खुद चुनाव लड़ता.

अब यह मान लिया जाए कि आईएसी मौजूदा सरकार और कांग्रेस के खिलाफ है क्योंकि आंदोलन की शुरुआत में जब संयुक्त मसौदा समिति बनी थी तब आप बार-बार कहते थे कि यह आंदोलन सरकार और कांग्रेस के खिलाफ नहीं है.  हम अभी भी कांग्रेस और सरकार के खिलाफ नहीं हैं.

हम अभी भी कांग्रेस और सरकार के खिलाफ नहीं हैं

लेकिन आपने हिसार उपचुनाव से लेकर बांदा और लखनऊ की रैलियों में कांग्रेस को हराने की अपील की.

हम कांग्रेस के खिलाफ नहीं हैं. यह संयोग है कि कांग्रेस इस समय केंद्र में सरकार में है. बिल पास करना उनकी जिम्मेदारी है. हिसार चुनाव के बाद प्रधानमंत्री ने अन्ना को पत्र लिखकर बताया कि वे सशक्त लोकपाल बिल लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं और संसद के शीतकालीन सत्र में इसे पेश किया जाएगा. अगर यह पत्र 10 दिन पहले आ जाता तो हम हिसार में अभियान नहीं चलाते. जब कांग्रेस ने हमें शीतकालीन सत्र में बिल लाने का पत्र देने से इनकार कर दिया तब हमारे मन में संदेह पैदा हुआ.

लेकिन रामलीला मैदान में आपने आंदोलन यह कहते हुए समाप्त किया था कि आपकी जीत हुई है और सरकार शीतकालीन सत्र में बिल पास करेगी. करोड़ों लोग इस बात के गवाह हैं.

यह कहां से पता चला आपको? जब अन्ना ने रामलीला मैदान में अनशन तोड़ा और संसद ने हमें पत्र दिया उसमें ‘शीतकालीन सत्र’ शब्द का कोई जिक्र नहीं था.

आपके मुताबिक जब अन्ना ने अपना अनशन तोड़ा तब भी आपकी जीत नहीं हुई थी?

यह आंशिक जीत थी.

तो आपने उसी वक्त लोगों को क्यों नहीं बताया कि यह आंशिक जीत है? अगर आपको लगता था कि सरकार के वादे में कुछ खोट है तो आपने उसी वक्त लोगों को जानकारी क्यों नहीं दी?

अन्ना ने अपना अनशन यह कहकर शुरू किया था कि जन लोकपाल बिल को मानसून सत्र में पेश किया जाना चाहिए. जब हमारी सरकार से बातचीत शुरू हुई उस वक्त तक लाखों लोगों के सड़क पर उतरने के बावजूद सरकार हमें तवज्जो नहीं दे रही थी. हम जिसे 10 दिन का मान रहे थे वह आंदोलन सरकार के अड़ियल रवैये के कारण लंबा खिंचता गया. अंत में जब सरकार के साथ सहमति बनी तो स्वाभाविक रूप से सबने मान लिया कि शीतकालीन सत्र में ही बिल आएगा. यह एक गलतफहमी है.

गलतफहमी क्यों है? 

क्योंकि जब हमने हिसार उपचुनाव से पहले सभी पार्टियों से यह स्वीकृति मांगी कि वे शीतकालीन सत्र में जन लोकपाल बिल लाएंगे तब कांग्रेस ने इससे इनकार कर दिया. तब हमारे मन में यह आशंका जन्मी कि क्या ये लोग वास्तव में बिल लाने के इच्छुक हैं क्योंकि पहले भी ये लोग कई बार अपने बयानों से मुकर चुके हैं. हिसार उपचुनाव के बाद जब प्रधानमंत्री ने अन्ना को पत्र लिखा तो अन्ना ने उत्तर प्रदेश अभियान स्थगित करने का फैसला किया. पहले उनका उत्तर प्रदेश में 15 अक्टूबर से यात्रा का कार्यक्रम था.

तो फिर आप बार-बार उत्तर प्रदेश में यात्राएं क्यों कर रहे हैं?

हम लोगों को बता रहे हैं कि प्रधानमंत्री ने अन्ना को पत्र लिखा है जिसमें उन्होंने आश्वासन दिया है कि सरकार शीतकालीन सत्र में मजबूत लोकपाल बिल लाएगी. अगर सरकार अपने वादे से मुकरती है तो अन्ना जी फिर से कांग्रेस को वोट न देने की अपील जारी करेंगे.

आप कुलदीप बिश्नोई की जीत का श्रेय अपने अभियान को देंगे?

नहीं. हम किसी एक उम्मीदवार को समर्थन नहीं दे रहे थे. जब सुषमा स्वराज ने वहां लोगों से कहा कि अन्ना की टीम बिश्नोई के समर्थन में अभियान चला रही है तब हमने हर सभा में लोगों को बताया कि हमारा उनसे कोई लेना-देना नहीं है.

जब भाजपा इंडिया अगेन्स्ट करप्शन और जन लोकपाल बिल का समर्थन कर रही है तो फिर आप भाजपा के खिलाफ क्यों हैं?

हम किसी के खिलाफ नहीं है. मुद्दा यह है कि सत्ताधारी पार्टी को बिल पास करना है, इसलिए हमारा ध्यान उस पर है.

लोकपाल को संवैधानिक संस्था बनाए जाने के राहुल गांधी के विचार को आप किस रूप में देखते हैं? क्या इसे जन लोकपाल के पक्ष में मानते हैं?

देखते हैं. अगर सरकार लोकपाल को संवैधानिक संस्था बनाना चाहती है तो हमें कोई आपत्ति नहीं है. सबसे महत्वपूर्ण है एक मजबूत कानून.

रामलीला मैदान से लेकर हिसार चुनाव के दरमियान आईएसी के सदस्य जाने-माने चेहरे बन चुके हैं. साथ ही आप लोगों के खिलाफ कड़ी प्रतिक्रियाएं भी देखने को मिली हैं. आपके ऊपर जूता, प्रशांत के ऊपर हमला. आपको लगता है कि जनता में आपके खिलाफ गुस्सा है?

इसका जवाब आपके सवाल में ही छिपा है. हम लोग जो कुछ भी कहते हैं उसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है.

कश्मीर पर प्रशांत भूषण के बयान के बाद आईएसी कोर कमेटी के सदस्यों के बीच मतभेद उभर आए हैं?

हां, उन्होंने खुद ही कहा है कि ये उनके निजी विचार हैं. ज्यादातर कोर कमेटी के सदस्यों के विचार उनसे भिन्न हैं और उन्होंने इसका सम्मान भी किया है.

ठीक बात है, लेकिन किसी सार्वजनिक स्थान पर अपना व्यक्तिगत विचार भी सार्वजनिक ही माना जाता है. क्या इन मतभेदों के चलते भूषण कोर कमेटी से अलग होने के लिए तैयार थे?

कभी नहीं.

लखनऊ में आपके ऊपर जूता फेंकने वाले को आईएसी के सदस्यों ने जमकर पीटा. यह क्या कहानी थी?

जब उसे पीटा गया तब मैं मंच पर नहीं था. लेकिन मैंने न सिर्फ अपनी टीम से कहा बल्कि मैं खुद उसे पिटाई से बचाने के लिए गया.

आपका आंदोलन जिस ऊंची नैतिकता का हवाला दे रहा था अब उस पर भी सवाल उठ रहे हैं. आपकी सबसे अहम सहयोगी किरण बेदी पर हवाई यात्रा के टिकटों की कीमत से ज्यादा किराया वसूलने के आरोप लग रहे हैं. इकोनॉमी दर्जे में सफर करके बिजनेस दर्जे का किराया वसूलने के आरोप लग रहे हैं.

हमारा आंदोलन बेहद अहम पड़ाव पर है. हमारे ऊपर हर तरफ से आरोपों की बौछार हो रही है. चरित्र हनन से लेकर मारपीट तक हो रही है. पर हम फिर भी मजबूती से खड़े हैं.

लेकिन आपको नहीं लगता कि इस तरह की धोखाधड़ी के आरोपों से घिरे किसी व्यक्ति को भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करने का अधिकार नहीं है?

120 करोड़ लोगों से पूछ लीजिए जो इस आंदोलन का हिस्सा हैं. क्या वे सभी पूरी तरह से पाक-साफ हैं? और क्या इतने भर से उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने का अधिकार नहीं रह जाता? क्या यही लोकतंत्र है?

आपके मुताबिक किरण बेदी के खिलाफ हवाई टिकटों में घालमेल के जो आरोप लगे हैं, क्या वे गलत हैं?

जांच कर लीजिए. मैं इस चक्कर में नहीं पड़ना  चाहता क्योंकि सरकार की शायद यही मंशा है. आप देखिए, इसका क्या असर हो रहा है. हमारी प्रेस वार्ताओं और सभाओं में आने वाले लोग अब जन लोकपाल की बात नहीं करते, वे किरण बेदी की बात करते हैं, प्रशांत और कश्मीर की बात करते हैं, अरविंद केजरीवाल के इन्कम टैक्स नोटिस की बात करते हैं. सबका ध्यान ही भटका दिया गया है. अगर किरण या अरविंद ने कोई गलत काम किया है तो उनकी जांच कीजिए, उन्हें सजा दीजिए.

इन दिनों आंदोलन में फूट की खबरें भी आ रही हैं. राजेंद्र सिंह ने यह आरोप लगाते हुए कोर ग्रुप छोड़ दिया कि हिसार चुनाव में हिस्सा लेने के फैसले से वे सहमत नहीं थे. कौन आ रहा है, कौन जा रहा है इसका पता कैसे चलेगा?

जिस समय संयुक्त मसौदा समिति बनी थी उस समय इसमें पांच लोग थे- अन्ना, मैं, प्रशांत, शशि भूषण और संतोष हेगड़े. इसके अलावा किरण बेदी और स्वामी अग्निवेश बाहर से समर्थन दे रहे थे. वह दौर खत्म होने के बाद संगठन को व्यापक और संगठित करने की जरूरत थी. इसी के मद्देनजर कोर कमेटी का निर्माण हुआ. लेकिन राजेंद्र सिंह और पीबी राजगोपाल ने कोर कमेटी की एक भी बैठक में हिस्सा नहीं लिया. मुझे विश्वास है कि अगर उन लोगों ने एक भी बैठक में हिस्सा लिया होता तो उनके जाने की नौबत नहीं आती.

रामलीला मैदान में अन्ना के अनशन के दौरान स्वामी अग्निवेश और संतोष हेगड़े से आप लोगों का क्या विरोध हुआ था?

टीम के सदस्यों के बीच हमेशा से विचारों का मतभेद था और यह होना भी चाहिए.

हिसार चुनाव में उतरने को लेकर टीम के बीच मतभेद थे? अंतिम फैसला किसका था?

कोर कमेटी के ज्यादातर लोग हिसार में विरोध करने के पक्ष में थे. एक बात मैं साफ कर दूं. कोर कमेटी के अलावा एक वर्किंग कमेटी भी है. कोर कमेटी तो 24 लोगों की है और इसके सदस्य देश भर में फैले हैं. इसलिए हमें एक वर्किंग कमेटी की जरूरत पड़ी जिसके सभी सदस्य दिल्ली के निवासी हों ताकि किसी आपात स्थिति में तत्काल कोई पैसला लिया जा सके. इसमें छह लोग हैं- मैं, प्रशांत भूषण, मनीष सिसोदिया, किरण बेदी, अरविंद गौर और गोपाल राय.

ऐसा लगता है कि वर्किंग कमेटी से उन लोगों को बाहर रखा गया है जिनके विचार अलग हो सकते हैं?

ऐसा नहीं है. इसका निर्माण तत्काल निर्णय लेने के लिए किया गया है. इसका गठन अन्ना के गांव रालेगन सिद्धी में हुआ था.

स्वामी अग्निवेश के साथ क्या मतभेद थे?

मेरे खयाल से उनकी सीडी इसकी वजह रही. वे खुद छोड़कर गए. हमने उन्हें नहीं निकाला. मैं इस चक्कर में नहीं पड़ना चाहता कि सीडी सही थी या गलत.

आप मानेंगे कि जो टीम इस समय आईएसी के लिए काम कर रही है वह कमोबेश आपके अपने एनजीओ का ही विस्तारित रूप है. और इस समय आंदोलन की जो रूपरेखा है उसमें आपकी भूमिका ही सबसे अधिक है.

इसे समझने की जरूरत है. यह कोई दिल्ली आधारित आंदोलन नहीं है. यह राष्ट्रव्यापी है. इसमें मीडिया, एसएमएस, सोशल नेटवर्किंग की भी अपनी भूमिका है. हमारा दायित्व सिर्फ कार्यालयी सहयोग मुहैया करवाना है. हम निर्णायक नहीं है. फैसले लेने का अधिकार इससे अलग है.

तो इसे एकजुट रखने का काम अन्ना करते हैं या आप?

मेरे खयाल से अन्ना. अन्ना हमारे नेता है. मैं उन्हें सिर्फ दफ्तरी मदद उपलब्ध करवाता हूं.

आरोप है कि आप आंदोलन को मनमाने तरीके से चला रहे हैं, आप खुद से असहमति रखने वालों को बर्दाश्त नहीं करते.

मुझे नहीं पता कि इस तरह की बातें कौन फैला रहा है. ऐसा कुछ भी नहीं है.

तो आप कहना चाहते हैं कि आंदोलन पर आपके नियंत्रण की बातें गलत हैं?

बिल्कुल. ये बिल्कुल बेबुनियाद आरोप हैं. अगर किसी आंदोलन का नेतृत्व समावेशी नहीं होगा तो वह आगे नहीं बढ़ पाएगा. इस आंदोलन की ताकत 120 करोड़ लोग हैं. इनके सामने कोर कमेटी और वर्किंग कमेटी की कोई हैसियत नहीं है.

ये 120 करोड़ का आंकड़ा कहां से मिला?

यह जनता का आंदोलन कहने का एक तरीका है.

(सोनाली घोषाल और जननी गणेशन के सहयोग के साथ)