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एक और साल बढ़ते सवाल

सन 2003. मध्य प्रदेश विधानसभा के चुनाव होने वाले थे. भाजपा उमा भारती के नेतृत्व में दिग्विजय नीत कांग्रेस से मुकाबला करने को तैयार थी. उस समय यह सवाल खड़ा हुआ कि राघौगढ़ विधानसभा सीट से दिग्विजय सिंह के खिलाफ कौन चुनाव लड़ेगा. पार्टी ने तब विदिशा सीट से अपने सांसद को टिकट दिया. सभी जानते थे कि इस सीट से लड़ने वाले का नतीजा क्या होगा. हुआ भी वही. वह व्यक्ति चुनाव हार गया. लेकिन पार्टी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को धूल चटाने में सफल रही. भाजपा को भारी बहुमत मिला. 228 विधानसभा सीटों में से पार्टी ने 171 सीटों पर जीत दर्ज की और कांग्रेस सिर्फ 39 सीटें जीत पाई. भाजपा की इस जीत का संदेश सीधा था. जनता कांग्रेस के शासन से बुरी तरह त्रस्त थी और उससे किसी भी कीमत पर मुक्ति चाहती थी. इस जीत के साथ ही उमा भारती के नेतृत्व में भाजपा का लंबे समय से चल रहा राजनीतिक वनवास खत्म हो गया. उस समय किसी ने यह बात सपने में भी नहीं सोची थी कि समय का चक्र कुछ इस कदर घूमेगा कि जिसके नेतृत्व में पार्टी चुनाव जीतकर आई है वही उमा भारती अपनी पार्टी में सिर्फ चंद महीनों की मेहमान हैं. और वह शख्स जिसने पार्टी के कहने पर दिग्विजय सिंह के खिलाफ बलि का बकरा बनना स्वीकार किया, कुछ समय बाद राज्य के सबसे बड़े पद पर आसीन होगा और जिसे लोग मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कहेंगे.

शिवराज सिंह की मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी स्वाभाविक नहीं वरन एक दुर्घटना का परिणाम थी. उमा के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद प्रदेश की कमान बाबूलाल गौर के हाथों में सौंपी गई. उमा भारती के विपरीत यहां बाबूलाल गौर के पद से हटने के कोई बड़े कारण नहीं थे लेकिन वे ज्यादा दिन तक मुख्यमंत्री की गद्दी नहीं संभाल पाए. अंततः पार्टी ने तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष शिवराज सिंह चौहान को प्रदेश के मुखिया का पद सौंप कर सत्ता उन्हीं के हाथों में केंद्रित कर दी. मध्य प्रदेश में भाजपा के लिए शुरुआती दो साल (जिनमें प्रदेश की जनता ने तीन मुख्यमंत्री देखे) ‘ हनीमून पीरियड’ की तरह रहे, जहां गलतियों के लिए जनता से माफी की उम्मीद की जा सकती थी. हालांकि बाद के तीन साल में ऐसी गुंजाइश धीरे-धीरे घटती गई और इसी के साथ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा भी मजबूत होती गई. इन सालों में जहां पार्टी 2008 का विधानसभा चुनाव फिर से जीती वहीं शिवराज पार्टी के सबसे लोकप्रिय चेहरे के रूप में स्थापित हुए. इसी 29 नवंबर को मुख्यमंत्री के रूप में अपने छह साल का कार्यकाल पूरा कर रहे शिवराज सिंह इन सालों में काफी मजबूत होकर उभरे हैं लेकिन इस नये कार्यकाल में उनके सामने कुछ नयी चुनौतियां भी साफ-साफ दिख रही हैं. प्रदेश कांग्रेस अब 2003 वाली कमजोर पार्टी नहीं है. धीरे-धीरे ही सही मजबूत हो रहे विपक्ष का एक सीधा संदेश यह है कि 2013 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश की जनता शिवराज को वॉकओवर देने की मनोदशा में नहीं होगी. प्रदेश में अपनी पार्टी की पहचान बन चुके मुख्यमंत्री का तटस्थ आकलन उनकी उपलब्धियों और असफलताओं के आधार पर ही किया जाएगा. यहां हम शिवराज सिंह चौहान के छह साल के कार्यकाल सामने आईं उन चुनौतियों की चर्चा कर रहे हैं जिनसे यदि वे पार नहीं पाते तो उनके लिए 2013 का किला फतह करना उतना आसान होगा.

शासन अपना, प्रशासन सपना

पिछले छह साल से मुख्यमंत्री बने रहने के बावजूद भी शिवराज की आज प्रशासन पर उतनी पकड़ नहीं दिखती जितनी होनी चाहिए थी. इसका सबसे अच्छा उदाहरण पिछले दिनों तब देखने को मिला जब रीवा में मलेरिया से दर्जनों बच्चे मर गए लेकिन मुख्यमंत्री को कानों कान खबर नहीं हुई. अखबार में खबर पढ़कर उन्हें इसका पता चला. इस मामले को लेकर उनकी हैरानी इन शब्दों में अखबारों की हेडिंग बनी ‘ रीवा में मलेरिया से बच्चे मर रहे हैं और मुझे खबर तक नहीं.’ जानकार मानते हैं कि शिवराज सिंह की यही कमी उन्हें एक बेहतर राजनेता बनने से रोकती है. इस में कोई दोराय नहीं कि वे जनता के बीच लोकप्रिय हैं, जनता की नब्ज को पहचानते हैं. लोगों से जुड़ने के लिए जो व्यक्तित्व होना चाहिए वह उनमें है लेकिन एक राजनेता बनने के लिए जो प्रशासनिक दक्षता चाहिए वह उनमें नदारद दिखती है. इसी आधार पर वे अपने समकालीनों से पिछड़ जाते हैं. भाजपा के एक नेता कहते हैं, ‘ शिवराज भी नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की तरह एक लोकप्रिय मुख्यमंत्री हैं. लेकिन जैसी पकड़ प्रशासन पर मोदी और नीतीश की है वैसी यहां नहीं दिखती.’

जानकार मानते हैं कि शिवराज धीरे-धीरे नौकरशाह आधारित मुख्यमंत्री होते जा रहे हैं. इस मामले पर राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई का मानना है, ‘ इस सरकार को भी वही नौकरशाह चला रहे हैं जो दिग्विजय सिंह के काल में थे. ऐसे में अगर मुख्यमंत्री खुद प्रशासन को कंट्रोल नहीं करते हैं तो फिर स्थिति बिगड़ती ही जानी है. शिवराज सिंह की प्रशासनिक कमजोरी हर साल प्रदेश में होने वाली जूनियर डॉक्टरों की हड़तालों में भी दिखती है. इन डॉक्टरों की हड़ताल से हर साल लोग मरते हैं लेकिन सालों से चली आ रही इस समस्या का सरकार अब तक कोई इलाज नहीं ढूंढ़ पाई है.’ पार्टी के एक पूर्व नेता कहते हैं, ‘ शिवराज सिंह प्रदेश और विकास को उसी चश्मे से देख रहे हैं जिसे नौकरशाहों ने उन्हें पहनाया है. इसी कारण हर दिन छोटे से लेकर बड़े अधिकारियों के भ्रष्टाचार (पैसे और संपत्ति के अलावा भी) की खबरों से अखबार रंगे रहते हैं. अरविंद जोशी और टीनू जोशी का उदाहरण सामने हैं. मुख्यमंत्री की नाक के नीचे काम करने वाले इन अधिकारियों ने कैसे करोडों–अरबों की अवैध संपत्ति बना ली. पटवारी से लेकर हर छोटे बडे अधिकारी के यहां आए दिन पड़ने वाले छापों में करोड़ों से कम की संपत्ति निकलती ही नहीं.’

भाजपा की तरफ से शिवराज सिंह को कोई संकट दिखेगा तो संघ का अंधानुकरण उनकी मजबूरी बन जाएगा

प्रशासनिक अक्षमता की एक बानगी इसे भी समझा जा सकता है कि बिजली, सड़क और पानी के जिन मुद्दों पर दिग्विजय सिंह को हराकर भाजपा सत्ता में आई, उस दिशा में भी कोई उल्लेखनीय सुधार आठ साल के दौरान दिखाई नहीं दे रहा है. हाल में राज्य सरकार प्रदेश की जनता के बीच यह संदेश देने के लिए कि उसने कितने अच्छे काम किए हैं, एक विकास यात्रा पर निकलना चाहती थी. लेकिन विधायकों और संगठन कार्यकर्ताओं  से यह फीडबैक मिलने के बाद कि बिजली, खाद न मिलने की वजह से अभी किसानों सहित बाकी जनता में काफी नाराजगी है, सरकार को यात्रा रद्द करनी पड़ी. सड़कों की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि लालकृष्ण आडवाणी की जनचेतना यात्रा के मध्य प्रदेश में आने से पूर्व जल्दी-जल्दी में उन रास्तों को दुरुस्त किया गया जहां से रथ गुजरना था.जहां तक लॉ ऐंड ऑर्डर बात है तो इस मोर्चे पर सरकार के प्रदर्शन का अंदाजा आप इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दो साल से प्रदेश बलात्कार के मामले में पहले स्थान पर है. दलितों पर अत्याचार के मामले में प्रदेश पूरे भारत में दूसरे स्थान पर है. साथ ही दूसरे राज्यों की पुलिस के मुकाबले प्रदेश पुलिस के खिलाफ सबसे ज्यादा शिकायतें हैं. बच्चों के खिलाफ अपराध में भी मध्य प्रदेश अव्वल है. अनुसूचित जातियों, जनजातियों को प्रताड़ित करने के मामले में भी पूरे भारत में प्रदेश ने बाकियों को पीछे छोड़ा हुआ है. इसके अलावा स्वास्थ्य के मानकों पर प्रदेश सरकार की मशीनरी बेकाम साबित हुई है. मध्य प्रदेश में 60 फीसदी से अधिक बच्चे कुपोषित हैं. आए दिन खंडवा और शिवपुरी आदि इलाकों से बच्चों के कुपोषण से मरने की खबरें आती रहती हैं. जहां तक किसानी की बात है तो सरकार ने खुद इस बात को स्वीकार किया है कि प्रतिदिन चार किसान आत्महत्या कर रहे हैं. ये सारे आंकड़े वह आईना हैं जिसमें प्रदेश सरकार के ‘स्वर्णिम मध्य प्रदेश’ का चेहरा बदसूरत नजर आता है. जानकार मानते हैं कि हालत ऐसे ही रहे तो प्रदेश वापस दिग्गी युग में लौट जाएगा और शिवराज सिंह से बेहतर यह कोई नहीं समझ सकता कि इस स्थिति में उनकी पार्टी और उन्हें क्या नतीजा देखने को मिलेगा.

…ताकि पैर जमे रहें

शिवराज किन परिस्थितियों में मुख्यमंत्री बने इसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है. उस घटनाक्रम का छिपा अर्थ यह है कि पार्टी ने एक ऐसे शख्स को सीएम बना दिया जिसके मुख्यमंत्री बनने के बारे में किसी ने मजाक में भी कल्पना नहीं की थी. खैर, वे मुख्यमंत्री बने तो पार्टी के नेताओं ने उन्हें स्वीकार कर लिया, लेकिन धीरे-धीरे शिवराज की बढ़ती लोकप्रियता ने पार्टी में उनके विरोधियों की भी फौज खड़ी कर दी. हालांकि ऊपरी तौर पर पार्टी में सब कुछ ठीक दिखाई दे रहा है. लेकिन सतह के नीचे का उबाल गाहे-बगाहे दिख ही जाता है. शिवराज से नाराज चल रहे ये वे लोग हैं जिन्हें ये आशा थी कि देर-सवेर शिवराज एक असफल मुख्यमंत्री साबित होंगे और पार्टी फिर उन्हें मौका देगी. कुछ समय तक यह पीड़ा छिपी रही लेकिन अब इन नेताओं को यह लग रहा है कि मध्य प्रदेश में भी पार्टी गुजरात की तर्ज पर चल रही है. अर्थात नरेंद्र मोदी की तरह ही प्रदेश में शिवराज सिंह सर्वेसर्वा बन गए हैं. पार्टी ने तो अभी से घोषणा कर दी है कि 2013 का विधानसभा चुनाव शिवराज सिंह के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. ऐसे में इन नेताओं को यह एहसास हो चला है कि शिवराज के प्रदेश में रहने तक उनका प्रोमोशन नहीं हो पाएगा. इन्हीं लोगों में से कई इन दिनों मुख्यमंत्री सहित अपनी ही सरकार की योजनाओं पर सवाल उठाते रहते हैं.

पार्टी के एक नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘ पार्टी में इस समय कोई ऐसा नेता नहीं है जो शिवराज के बराबर या उसके आसपास भी लोकप्रियता रखता हो. शिवराज की यह सबसे बड़ी ताकत भी है और सबसे बड़ी चुनौती भी. पार्टी में एक तबका है जो शिवराज ने नाराज चल रहा है. इसलिए नहीं कि वे गलत हैं बल्कि इसलिए कि ज्यादा लोकप्रिय हो गए हैं. ऐसे में ये तबका उन्हें नीचे गिराने की कोशिश जरूर करेगा.’ एक अन्य नेता कहते हैं, ‘ जब उमा भारती निपट सकती हैं तो फिर शिवराज क्या हैं?’
इन हालात में शिवराज को अपने अघोषित विरोधियों पर विजय पानी होगी. इनके अलावा भी पार्टी के कई ऐसे नेता हैं जो सरकार में उनके साथ होते हुए भी शिवराज सरकार के परफॉर्मेंस की या तो आलोचना करते हैं या फिर यह पूछने पर कि सरकार का कामकाज कैसा है,चुप्पी साध लेते हैं. शिवराज के साथ एक अन्य चुनौती उनकी अपनी खुद की छवि भी है. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘ शिवराज की छवि बीजेपी में जननायक की बनाई गई है. यह उनका मजबूत पक्ष होने के साथ ही एक चुनौती भी  है. अर्थात जननायक माने जाने के कारण चुनाव जीतने का पूरा दारोमदार उन पर ही है. ऐसा लगता है मानो पार्टी के नेताओं ने उन्हें आगे करके खुद को जिम्मेदारी से मुक्त कर लिया है. एक बात ये भी है कि शिवराज सिंह का बीजेपी में कोई गुट नहीं है. ये पार्टी के लिए अच्छा है.’ हालांकि पार्टी में अपना कोई गुट न होने की बात को कई राजनीतिक प्रेक्षक उनके लिए एक खतरे की तरह देखते हैं. ऐसे ही एक राजनीतिक विश्लेषक जो सरकार के काफी करीबी माने जाते हैं, इस बारे में कहते हैं, ‘ यह शिवराज के लिए नुकसानदायक भी हो सकता है क्योंकि कल को अगर वे कमजोर पड़ते हैं तो कोई उनके साथ खड़ा नहीं दिखेगा. दूसरी तरफ सरकार की कोई बहुत उपलब्धियां भी नहीं हंै जिसे वे भुना सकें. ऐसे में शिवराज के पास जो है वह सिर्फ और सिर्फ उनकी साफ-सुथरी छवि जिसे बनाए और बचाए रखना उनके लिए चुनौती है.’

धर्मनिरपेक्षता बनाम भगवा का संतुलन

भाजपा की छवि अल्पसंख्यकों खासकर मुसलिम समुदाय के एक बड़े तबके के बीच कैसी है, यह अलग से बताने की जरूरत नहीं है. इसके बावजूद यह भी एक तथ्य है कि राष्ट्रीय स्तर से लेकर प्रदेश स्तर तक भाजपा के नेताओं को दो भागों में विभाजित करके देखा जा सकता है. इनमें से ज्यादातर संघ के विद्यालय से समान शिक्षा ग्रहण करने के बाद ही निकले हैं लेकिन सोच के स्तर पर एक दूसरे से अलग हैं. इनमें एक तरफ हैं संघ के पोस्टर ब्वॉय मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे नेता और दूसरी तरफ हैं शिवराज सिंह चौहान जैसे नेता. भले ही शिवराज सिंह चौहान के मानसिक कल-पुर्जों का निर्माण संघ की वैचारिक फैक्ट्री में ही हुआ है लेकिन उनकी सोच बाकियों से अलग है. भाजपा शासित मध्य प्रदेश ही शायद एक ऐसा राज्य है जहां बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक रहते हैं और वे सरकार की तरफ शंका की नजर से नहीं देखते. इस स्थिति में मुख्यमंत्री की बड़ी भूमिका है. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई कहते हैं, ‘ शिवराज सिंह ने राज्य में फिरकापरस्ती को बढ़ावा नहीं दिया. भले ही प्रदेश में सुशासन नहीं आया हो लेकिन दंगे और दबंगई भी नहीं होने दी.’  उदाहरण देते हुए वे अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, ‘ पहले इंदौर में खूब दंगे हुआ करते थे लेकिन शिवराज सिंह चौहान के कार्यकाल में उस पर रोक लगी. इसी तरह धार स्थित भोजशाला की एक घटना है. उस दिन शुक्रवार था. नमाज का दिन. और उसी दिन सरस्वती पूजा भी थी. उन्माद फैला हुआ था. ऐसा लग रहा था मानो दंगा हो जाएगा लेकिन शिवराज सिंह ने सूझबूझ का परिचय देते हुए मामले को नियंत्रित कर लिया. उस दिन सरस्वती पूजा भी हुई और नमाज भी.’
जानकार बताते हैं कि मध्य प्रदेश का अल्पसंख्यक शिवराज पर विश्वास करता है. बड़ी मेहनत से मुख्यमंत्री ने एक ऐसी छवि गढ़ी जिससे मुसलिम समुदाय आसानी से जुड़ जाता है. यही कारण है कि जब पिछली बार विधानसभा चुनाव के समय नरेंद्र मोदी के प्रदेश में आकर पार्टी का प्रचार करने की बात उठी तो शिवराज ने उसे खारिज कर दिया. उनका कहना था कि मोदी जी बड़े नेता हैं लेकिन चुनाव जीतने के लिए हमें उनकी जरूरत नहीं है.

पिछले दिनों कांग्रेस  में हुए फेरबदल के बाद विपक्ष की कमजोरी का फायदा शिवराज सिंह नहीं उठा पाएंगे

अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि बनाने के मामले में अभी तक शिवराज सिंह ने काफी चतुराई दिखाई है. गुजरात में अपने सद्भावना उपवास के दौरान नरेंद्र मोदी ने जहां मुसलिम टोपी पहनने से इनकार कर दिया तो वहीं शिवराज सिंह चौहान ईद और बाकी त्योहारों के अवसर पर मुसलिम टोपी पहनकर मुसलमानों से गले मिलते दिखाई देते हैं. वे भाजपा के संभवत: एकमात्र ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो हज जाने वाले यात्रियों को एयरपोर्ट पर छोड़ने जाते हैं.

इस तसवीर का एक दूसरा पहलू भी है. तमाम सुखद विशेषताओं के बावजूद शिवराज गाहे-बगाहे संघ राग अलापने से परहेज नहीं करते. हाल ही में संघ से जुड़े एक संगठन के कार्यक्रम में उन्होंने स्कूलों में गीता अनिवार्य रूप से पढ़ाए जाने की बात कही. इसकी काफी आलोचना हुई और लोग वर्तमान सरकार पर राज्य का भगवाकरण करने का आरोप लगाने लगे. उनके मुताबिक चाहे योजनाओं के नामकरण (बलराम ताल योजना, सूर्यनमस्कार योजना इत्यादि) का मामला हो या फिर पुरस्कार प्रदान करने से लेकर राज्य में विभिन्न पदों पर लोगों कि नियुक्ति का, हर जगह संघ और उसकी विचारधारा से जुड़े हुए लोगों और प्रतीकों को ही प्रमुखता दी जा रही है. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय जैसे उत्कृष्टता संस्थानों में अकादमिक योग्यता के ऊपर संघ की पृष्ठभूमि (कुलपति बीके कुठालिया ) से जुड़े लोगों की नियुक्तियां हो रही हैं. वहीं मध्य प्रदेश की सांस्कृतिक पहचान रहे भोपाल स्थित भारत भवन में इस समय एक अघोषित सेंसरशिप लागू है जिसके तहत सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सरकार विरोध की बात नहीं हो सकती. ये ऐसे कुछ उदाहरण हैं जो बताते हैं कि धर्मनिरपेक्ष छवि और संघ की विचारधारा के बीच संतुलन शिवराज के लिए एक बड़ी चुनौती है. मुख्यमंत्री की समस्या ये है कि उन्हें सत्ता में बने रहना है और इसलिए संघ को लगातार खुश रखना है. अब सबसे बड़ा पेंच यहीं है. यदि भविष्य में भाजपा संगठन की तरफ से शिवराज सिंह कोई संकट महसूस करते हैं तो ये उनकी मजबूरी होगी कि वे अपनी छवि की परवाह न करते हुए पूरी तरह से संघ की मर्जी पर चलने लगें. तब भाजपा के लिए अपनी उदारवादी छवि के जरिए अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के उदारवादी धड़े को अपने साथ जोड़े रखना काफी मुश्किल होगा.

विपक्ष का एकता राग

शिवराज के सामने एक अन्य चुनौती प्रदेश कांग्रेस की बढ़ती हुई ताकत है. दिग्विजय सिंह के सत्ता के बाहर होने के बाद कुछ साल तक कांग्रेस ऐसी हालत में रही जैसे पूरी पार्टी कोमा में हो. पिछले आठ सालों में शायद ही पार्टी ने भाजपा सरकार के खिलाफ कोई बड़ा मोर्चा खोला हो या फिर उसे असहज करने की कोशिश क हो. प्रदेश में होने वाले चुनाव वह एक सिरे से हारती चली गई. विपक्ष की इस कमजोरी का भाजपा ने खूब फायदा उठाया. लेकिन अब ऐसी स्थिति नहीं है. कुछ महीने पहले हुए प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व परिवर्तन ने लाचार और मरणासन्न दिख रही कांग्रेस में जान डाल दी है. कांतिलाल भूरिया के कांग्रेस अध्यक्ष बनते ही प्रदेश की पूरी इकाई दिग्विजय सिंह के कब्जे में आ गई है. कांग्रेस में फिलहाल दिग्गी ही ऐसे नेता हैं जिनकी पूरे प्रदेश में स्वीकार्यता भले ही न हो लेकिन प्रभाव हर हिस्से में है. इसी एकजुटता या ‘एकगुटता’ का असर है कि विपक्ष अब सरकार के प्रति काफी आक्रामक हो गया है. पिछले समय में हुए विधानसभा के सभी उपचुनाव और नगरीय निकायों के सभी चुनाव भाजपा ने जीते. कुक्षी, सोनकच्छ और जबेरा जैसे कांग्रेसी गढ़ में भगवा फहराने के साथ ही भाजपा  लगातार चुनाव जीतती जा रही थी लेकिन यह सिलसिला अचानक हरदा नगरपालिका चुनाव में कांग्रेस की जीत के साथ ही थम गया. हालांकि नगरपालिका चुनाव परिणाम के प्रभाव को बहुत बड़े स्तर पर नहीं देखा जा सकता है. और कोई राज्य होता तो शायद इसकी चर्चा भी नहीं होती लेकिन पिछले कुछ समय से मध्य प्रदेश में नगरपालिका चुनाव भी कुछ इस अंदाज में हो रहे हैं मानों लोकसभा का चुनाव हो रहा है. इन नगरीय निकाय चुनावों तक में भाजपा मुख्यमंत्री से लेकर लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज समेत तमाम मंत्री और विधायकों को झोंक रही है. जब नगरपालिका जीतने के लिए इस तरह से युद्धस्तर की तैयारी की जा रही हो तो फिर परिणाम महत्वपूर्ण हो जाता है. कुछ ऐसी ही तैयारी से भाजपा ने मंडीदीप नगरपालिका पर अपना  परचम फहराया. लेकिन इस बार हरदा में उसे हार का सामना करना पड़ा.

इसके बाद से कांग्रेस ने सड़क से लेकर विधानसभा तक में भाजपा को घेरना शुरू कर दिया है. इस बार के विधानसभा सत्र में कांग्रेस ने भाजपा के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया है. भले ही पर्याप्त संख्या बल होने के कारण भाजपा और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को इस बात का यकीन हो कि उनकी सरकार को कोई खतरा नहीं है, लेकिन पिछले आठ साल से चल रही भाजपा सरकार के खिलाफ कांग्रेस का यह पहला अविश्वास प्रस्ताव है. इसलिए इसे प्रदेश कांग्रेस के अंदर सरकार के विरुद्ध आती आक्रामकता के रूप में देखा जा सकता है. प्रशासनिक कमियों, भगवाकरण और भ्रष्टाचार के मसलों पर यदि शिवराज सरकार सावधान नहीं होती है तो निश्चित रूप से ये मुद्दे कांग्रेस के लिए संजीवनी बूटी और शिवराज सिंह के लिए गले की हड्डी बन सकते हैं.

काले कर्मों वाले बाबा

साल 2004 की बात है. बाबा रामदेव योगगुरु के रूप में मशहूर हुए ही थे. चारों तरफ उनकी चर्चा हो रही थी. टीवी चैनलों पर उनकी धूम थी. देश के अलग-अलग शहरों में चलने वाले उनके योग शिविरों में पांव रखने की जगह नहीं मिल रही थी और बाबा के औद्योगिक प्रतिष्ठान दिव्य फार्मेसी की दवाओं पर लोग टूटे पड़ रहे थे.लेकिन फार्मेसी ने उस वित्तीय वर्ष में सिर्फ छह लाख 73 हजार मूल्य की दवाओं की बिक्री दिखाई और इस पर करीब 54 हजार रुपये बिक्री कर दिया गया. यह तब था जब रामदेव के हरिद्वार स्थित आश्रम में रोगियों का तांता लगा था और हरिद्वार के बाहर लगने वाले शिविरों में भी उनकी दवाओं की खूब बिक्री हो रही थी. इसके अलावा डाक से भी दवाइयां भेजी जा रही थीं.

रामदेव के चहुंओर प्रचार और देश भर में उनकी दवाओं की मांग को देखकर उत्तराखंड के वाणिज्य कर विभाग को संदेह हुआ कि बिक्री का आंकड़ा इतना कम नहीं हो सकता. उसने हरिद्वार के डाकघरों  से सूचनाएं मंगवाईं. पता चला कि दिव्य फार्मेसी ने उस साल 3353 पार्सलों के जरिए 2509.256 किग्रा माल बाहर भेजा था. इन पार्सलों के अलावा 13 लाख 13 हजार मूल्य के वीपीपी पार्सल भेजे गए थे. इसी साल फार्मेसी को 17 लाख 50 हजार के मनीऑर्डर भी आए थे.

सभी सूचनाओं के आधार पर राज्य के वाणिज्य कर विभाग की विशेष जांच सेल (एसआईबी) ने दिव्य फार्मेसी पर छापा मारा. इसमें बिक्रीकर की बड़ी चोरी पकड़ी गई. छापे को अंजाम देने वाले तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर जगदीश राणा बताते हैं, ‘तब तक हम भी रामदेव जी के अच्छे कार्यों के लिए उनकी इज्जत करते थे. लेकिन कर प्रशासक के रूप में हमें मामला साफ-साफ कर चोरी का दिखा.’ राणा आगे बताते हैं कि मामला कम से कम पांच करोड़ रु के बिक्रीकर की चोरी का था.

भ्रष्टाचार और काले धन को मुद्दा बनाकर रामदेव पिछले दिनों भारत स्वाभिमान यात्रा पर निकले हुए थे. इस यात्रा का पहला चरण खत्म होने के बाद 23 नवंबर को वे दिल्ली में थे. यहां बाबा का कहना था कि यदि संसद के शीतकालीन सत्र में लोकपाल और काले धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करने वाले बिल पारित नहीं होते हैं तो वे उन पांच राज्यों में आंदोलन करेंगे जहां अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. इससे कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में उनका कहना था, ‘जिस दिन काले धन पर कार्रवाई शुरू होगी, उस दिन पता चलेगा कि जिन्हें हम खानदानी नेता समझ रहे थे उनमें से 99 प्रतिशत तो खानदानी लुटेरे हैं.’
अब सवाल उठता है कि भ्रष्टाचार और काले धन की जिस सरिता के खिलाफ रामदेव अभियान छेड़े हुए हैं उसी में अगर वे खुद भी आचमन कर रहे हों तो? फिर तो वही बात हुई कि औरों को नसीहत, खुद मियां फजीहत. तहलका की यह पड़ताल कुछ ऐसा ही इशारा करती है.

सबसे पहले तो यह सवाल कि काला धन बनता कैसे है. आयकर विभाग के एक पूर्व वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, ‘करों से बचाई गई रकम और ट्रस्टों में दान के नाम पर मिले पैसे से काला धन बनता है. काले धन को दान का पैसा दिखाकर, उस पर टैक्स बचाकर उसे फिर से उद्योगों में निवेश किया जाता है. इससे पैदा होने वाली रकम को पहले देश में जमीनों और जेवरात पर लगाया जाता है. इसके बाद भी वह पूरा न खप सके तो उसे चोरी-छुपे विदेश भेजा जाता है. यह एक अंतहीन श्रृंखला है जिसमें बहुत-से ताकतवर लोगों की हिस्सेदारी होती है.’

दिव्य फार्मेसी पर छापे की कार्रवाई को अंजाम देने वाले तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर जगदीश राणा बताते हैं कि उनकी टीम ने इस छापे से पहले काफी होमवर्क किया था. राणा कहतेे हैं, ‘मेरी याददाश्त के अनुसार लगभग पांच करोड़ रु के राज्य और केंद्रीय बिक्री कर की चोरी का मामला बन रहा था.’ टीम के एक अन्य सदस्य बताते हैं, ‘पुख्ता सबूतों के साथ 2000 किलो कागज सबूत के तौर पर इकट्ठा किए गए थे.’

रामदेव से जुड़ी फार्मेसी पर छापा मारने पर उत्तराखंड के तत्कालीन राज्यपाल सुदर्शन अग्रवाल बड़े नाराज हुए थे. उन्होंने इस छापे की पूरी कार्रवाई की रिपोर्ट सरकार से तलब की थी. उस दौर में प्रदेश के प्रमुख सचिव (वित्त) इंदु कुमार पांडे ने राज्यपाल को भेजी रिपोर्ट में छापे की कार्रवाई को निष्पक्ष और जरूरी बताया था. तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने भी इस रिपोर्ट के साथ अपना विशेष नोट लिख कर भेजा था जिसमें उन्होंने प्रमुख सचिव की बात दोहराई थी. रामदेव ने अधिकारियों पर छापे के दौरान बदसलूकी का आरोप लगाया था जिसे राज्य सरकार ने निराधार बताया था.

विभाग के कुछ अधिकारियों का मानना है कि रामदेव के मामले में अनुचित दबाव पड़ने के बाद डिप्टी कमिश्नर जगदीश राणा ने समय से चार साल पहले ही सेवानिवृत्ति ले ली थी. राणा को तब विभाग के उन उम्दा अधिकारियों में गिना जाता था जो किसी दबाव से डिगते नहीं थे. एसआईबी के इस छापे के बाद राज्य या केंद्र की किसी एजेंसी ने रामदेव के प्रतिष्ठानों पर छापा मारने की हिम्मत नहीं की. इसी के साथ रामदेव का आर्थिक साम्राज्य भी दिनदूनी रात चौगुनी गति से बढ़ने लगा.

लेकिन बिक्री कम दिखाना तो कर चोरी का सिर्फ एक तरीका था. दिव्य फार्मेसी एक और तरीके से भी कर की चोरी कर रही थी. तहलका को मिले दस्तावेज बताते हैं कि उस साल फार्मेसी ने वाणिज्य कर विभाग को दिखाई गई कर योग्य बिक्री से पांच गुना अधिक मूल्य की दवाओं (30 लाख 17 हजार रु) का ‘स्टाॅक हस्तांतरण’ बाबा द्वारा धर्मार्थ चलाए जा रहे ‘दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट’ को किया. रिटर्न में फार्मेसी ने बताया कि ये दवाएं गरीबों और जरूरतमंदों को मुफ्त में बांटी गई हैं. लेकिन वाणिज्य कर विभाग के तत्कालीन अधिकारी बताते हैं कि दिव्य फार्मेसी उस समय गरीबों को मुफ्त बांटने के लिए दिखाई जा रही दवाओं को कनखल स्थित दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट से बेच रही थी. दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट के पास में ही रहने वाले भारत पाल कहते हैं, ‘पिछले 16 सालों के दौरान मैंने बाबा के कनखल आश्रम में कभी मुफ्त में दवाएं बंटती नहीं देखीं.’

रामदेव काले धन की बात करते हैं, मगर बिक्रीकर अधिकारियों के मुताबिक उनकी दिव्य फार्मेसी ने बिक्री का आंकड़ा बहुत कम दिखाकर 2004 में पांच करोड़ रु के बिक्रीकर की चोरी की. यही नहीं, गरीबों को मुफ्त दवा बांटने के नाम पर फार्मेसी ने रामदेव द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न ट्रस्टों को अरबों रुपये का स्टॉक ट्रांसफर किया जिसे बेचकर फिर से करोड़ों का बिक्रीकर बचाया गया. कर बचाकर ही काला धन बनता है

इसी तर्ज पर आज भी दिव्य फार्मेसी रामदेव द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न ट्रस्टों को गरीबों को मुफ्त दवाएं बांटने के नाम पर मोटा स्टॉक ट्रांसफर कर रही है. अभी तक दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट और पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट का उत्तराखंड राज्य में वाणिज्य कर में पंजीयन तक नहीं है. नियमानुसार बिना पंजीयन के ये ट्रस्ट किसी सामान की बिक्री नहीं कर सकते, लेकिन हैरानी की बात यह है कि इन ट्रस्टों में स्थित केंद्रों से हर दिन लाखों की दवाएं और अन्य माल बिकता है. पिछले कुछ सालों के दौरान दिव्य फार्मेसी से दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट, पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट और अन्य स्थानों में अरबों रुपये मूल्य का स्टाॅक ट्रांसफर हुआ है जिसकी बिक्री पर नियमानुसार बिक्री कर देना जरूरी है. ट्रस्टों के अलावा देश भर मेंे रामदेव के शिविरों में दवाओं के मुफ्त बंटने के दावे की जांच करना मुश्किल है, परंतु इन शिविरों में हिस्सा लेने वाले श्रद्धालु जानते और बताते हैं कि यहां दवाएं मुफ्त में नहीं बांटी जातीं. अब दिव्य फार्मेसी द्वारा बनाई जा रही 285 तरह की दवाएं और अन्य उत्पाद इंटरनेट से भी भेजे जाने लगे हैं. इंटरनेट पर बिकने वाली दवाओं पर कैसे बिक्री कर लगे, यह उत्तराखंड का वाणिज्य कर विभाग नहीं जानता. इन दिनों नोएडा में रह रहे जगदीश राणा कहते हैं, ‘रामदेव को जितना बिक्री कर देना चाहिए, वे उसका एक अंश भी नहीं दे रहे.’

उत्तराखंड में बिक्री कर ही राजस्व का सबसे बड़ा हिस्सा है. उत्तराखंड सरकार के कर सलाहकार चंद्रशेखर सेमवाल बताते हैं, ‘पिछले साल राज्य में बिक्री कर से कुल 2940 करोड़ रु की कर राशि इकट्ठा हुई थी, यह राशि राज्य के कुल राजस्व का 60 प्रतिशत है.’ इसी पैसे से सरकार राज्य में सड़कें बनाती है , गांवों में पीने का पानी पहुंचाया जाता है, अस्पतालों में दवाएं जाती हैं , सरकारी स्कूल खुलते हैं और ऐसे ही जनकल्याण के दूसरे काम चलाए जाते हैं. रामदेव नेताओं पर आरोप लगाते हैं कि उन्हें देश के विकास से कोई मतलब नहीं है, वे बस अपनी झोली भरना चाहते हैं. लेकिन जब रामदेव का अपना ही ट्रस्ट इतने बड़े पैमाने पर करों की चोरी कर रहा हो तो क्या यह सवाल उनसे नहीं पूछा जाना चाहिए?

केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के एक पूर्व सदस्य बताते हैं, ‘करों को बचा कर ही काला धन पैदा होता है और इस काले धन का सबसे अधिक निवेश जमीनों में किया जाता है.’ पिछले सात-आठ साल के दौरान हरिद्वार जिले में रामदेव के ट्रस्टों ने हरिद्वार और रुड़की तहसील के कई गांवों, नगर क्षेत्र और औद्योगिक क्षेत्र में जमकर जमीनें और संपत्तियां ली हैं. अखाड़ा परिषद के प्रवक्ता बाबा हठयोगी कहते हैं, ‘रामदेव ने इन जमीनों के अलावा बेनामी जमीनों और महंगे आवासीय प्रोजेक्टों में भी भारी निवेश किया है.’ हठयोगी आरोप लगाते हैं कि हरिद्वार के अलावा रामदेव ने उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में भी जमकर जमीनें खरीदी हैं. तहलका ने इन आरोपों की भी पड़ताल की. जो सच सामने आया वह चौंकाने वाला था.

जमीन का फेर

योग और आयुर्वेद का कारोबार बढ़ने  के बाद रामदेव ने वर्ष 2005 में पतंजलि योग पीठ ट्रस्ट के नाम से एक और ट्रस्ट शुरू किया. रामदेव तब तक देश की सीमाओं को लांघ कर अंतरराष्ट्रीय हस्ती हो गए थे. 15 अक्टूबर, 2006 को गरीबी हटाओ पर हुए मिलेनियम अभियान में रामदेव ने विशेष अतिथि के रूप में संयुक्त राष्ट्र को संबोधित किया. अपने वैश्विक विचारों को मूर्त रुप देने के लिए अब उन्हें हरिद्वार में और ज्यादा जमीन की जरूरत थी. इस जरूरत को पूरा करने के लिए आचार्य बालकृष्ण, दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट और पतंजलि ट्रस्ट के नाम से दिल्ली-माणा राष्ट्रीय राजमार्ग पर हरिद्वार और रुड़की के बीच शांतरशाह नगर, बढ़ेड़ी राजपूताना और बोंगला में खूब जमीनें खरीदी गईं. राजस्व अभिलेखों के अनुसार शांतरशाह नगर की खाता संख्या 87, 103, 120 और 150 में दर्ज भूमि रामदेव के ट्रस्टों के नाम पर है. यह भूमि कुल 23.798 हेक्टेयर(360 बीघा) के लगभग बैठती है और इसी पर पतंजलि फेज-1, पतंजलि फेज- 2 और पतंजलि विश्वविद्यालय बने हैं.

बढेड़ी राजपूताना के पूर्व प्रधान शकील अहमद बताते हैं कि शांतरशाह नगर और उसके आसपास रामदेव के पास 1000 बीघा से अधिक जमीन है. लेकिन बाबा के सहयोगियों और ट्रस्टों के नाम पर खातों में केवल 360 बीघा जमीन ही दर्ज है. इस भूमि में से रामदेव ने 20.08 हेक्टेयर भूमि को अकृषित घोषित कराया है. राज्य में कृषि भूमि को अकृषित घोषित कराने के बाद ही कानूनन उस पर निर्माण कार्य हो सकता है.

तहलका ने राजस्व अभिलेखों की गहन पड़ताल की. पता चला कि रामदेव, उनके रिश्तेदारों और आचार्य बालकृष्ण ने शांतरशाह नगर के आसपास कई गांवों में बेनामी जमीनों पर पैसा लगाया है. उदाहरण के तौर पर, शांतरशाह नगर की राजस्व खाता संख्या 229 में जिन गगन कुमार का नाम दर्ज है वे कई वर्षों से आचार्य बालकृष्ण के पीए हैं. 8000 रु महीना पगार वाले गगन आयकर रिटर्न भी नहीं भरते. गगन ने 15 जनवरी, 2011 को शांतरशाह नगर में 1.446 हेक्टेयर भूमि अपने नाम खरीदी. रजिस्ट्री में इस जमीन का बाजार भाव 35 लाख रु दिखाया गया है, परंतु हरिद्वार के भू-व्यवसायियों के अनुसार किसी भी हाल में यह जमीन पांच करोड़  रुपये से कम की नहीं है. यह जमीन अनुसूचित जाति के किसान की थी जिसे उपजिलाधिकारी की विशेष इजाजत से खरीदा गया है. इससे पहले गगन ने 14 मई, 2010 को रुड़की तहसील के बाबली-कलन्जरी गांव में एक करोड़ 37 लाख रु बाजार मूल्य दिखा कर जमीन की रजिस्ट्री कराई थी. यह जमीन भी 15 करोड़  रु से अधिक की बताई जा रही है. स्थानीय पत्रकार अहसान अंसारी का दावा है कि बाबा ने और भी दसियों लोगों के नाम पर हरिद्वार में अरबों की जमीनें खरीदी हैं. बाबा हठयोगी सवाल करते हैं, ‘देश भर में काले धन को लेकर मुहिम चला रहे रामदेव के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि आखिर महज आठ हजार रुपये महीना पाने वाले गगन कुमार जैसे इन दसियों लोगों के पास अरबों की जमीनें खरीदने के लिए पैसे कहां से आए.’

शांतरशाह नगर, बढ़ेड़ी राजपूताना और बोंगला में अपना साम्राज्य स्थापित करने के बाद बाबा की नजर हरिद्वार की औरंगाबाद न्याय पंचायत पर पड़ी. इसी न्याय पंचायत में राजाजी राष्ट्रीय पार्क की सीमा पर लगे औरंगाबाद और शिवदासपुर उर्फ तेलीवाला गांव हैं. उत्तराखंड में भू-कानूनों के अनुसार राज्य से बाहर का कोई भी व्यक्ति या ट्रस्ट राज्य में 250 वर्ग मीटर से अधिक कृषि भूमि नहीं खरीद सकता. विशेष परिस्थितियों और प्रयोजन के लिए ही  इससे अधिक भूमि खरीदी जा सकती है, लेकिन इसके लिए शासन की अनुमति जरूरी होती है.

रामदेव के पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट को 16 जुलाई, 2008 को उत्तराखंड सरकार से औरंगाबाद, शिवदासपुर उर्फ तेलीवाला आदि गांवों में पंचकर्म व्यवस्था, औषधि उत्पादन, औषधि निर्माणशाला एवं प्रयोगशाला स्थापना के लिए 75 हेक्टेयर जमीन खरीदने की इजाजत मिली थी. शर्तों के अनुसार खरीदी गई भूमि का प्रयोग भी उसी कार्य के लिए किया जाना चाहिए जिस कार्य के लिए बताकर उसे खरीदने की इजाजत ली गई है. पहले बगीचा रही इस कृषि-भूमि पर रामदेव ने योग ग्राम की स्थापना की है. श्रद्धालुओं को बाबा के इस रिजॉर्टनुमा ग्राम में बनी कॉटेजों में रहकर पंचकर्म कराने के लिए 1000 रु से लेकर 3500 रु तक प्रतिदिन देना होता है.

आयकर विभाग की नजर से बचने के लिए बेनामी जमीनें खरीदी गई हैं और ज्यादातर जमीनों को दाखिल-खारिज नहीं कराया गया है. बालकृष्ण के पीए गगन कुमार की तनख्वाह भले ही 8000 रु महीना हो लेकिन वे करोड़ों की जमीनों के मालिक हैं. उधर, जो जमीनें ट्रस्ट के नाम पर खरीदी गई हैं उनमें भी कई मामलों में 90 फीसदी तक स्टांप ड्यूटी की चोरी की गई है

औरंगाबाद गांव के पूर्व प्रधान अजब सिंह चौहान दावा करते हैं कि उनके गांव में बाबा के ट्रस्ट और उनके लोगों के कब्जे में 2000 बीघे के लगभग भूमि है. लेकिन राजस्व अभिलेखों में रामदेव, आचार्य बालकृष्ण या उनके ट्रस्टों के नाम पर एक बीघा भूमि भी दर्ज नहीं है. क्षेत्र के लेखपाल सुभाश जैन्मी इस बात की पुष्टि करते हुए बताते हैं, ‘राजस्व रिकॉर्डों में भले ही रामदेव के ट्रस्ट के नाम एक भी बीघा जमीन दर्ज नहीं हुई है परंतु उत्तराखंड शासन से इजाजत मिलने के बाद पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट ने औरंगाबाद और तेलीवाला गांव में काफी जमीनों की रजिस्ट्रियां कराई हैं.’ राजस्व अभिलेखों में दाखिल-खारिज न होने का नतीजा यह है कि किसानों की सैकड़ों बीघा जमीनें बिकने के बाद भी अभी तक उनके ही नाम पर दर्ज हैं. इन सभी भूमियों पर रामदेव के ट्रस्टों का कब्जा है. राजस्व अभिलेखों में अभी भी औरंगाबाद ग्राम सभा की सारी जमीन कृषि भूमि है. नियमों के अनुसार कृषि भूमि पर भवन निर्माण करने से पहले उस भूमि को उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश अधिनियम की धारा 143 के अनुसार अकृषित घोषित करके उसे आबादी में बदलने की अनुमति लेनी होती है. इसके लिए आवेदक के नाम खतौनी में जमीन दर्ज होना आवश्यक है. रामदेव के ट्रस्टों के नाम पर इन गांवों में एक इंच भूमि भी दर्ज नहीं है, लेकिन गजब देखिए कि नियम-कायदों को ताक पर रखकर यहां योग ग्राम के रूप में पूरा शहर बसा दिया गया है.

औरंगाबाद गांव के बहुत बड़े हिस्से को कब्जे में लेने के बाद रामदेव के भूविस्तार अभियान की चपेट में उससे लगा गांव तेलीवाला आया. योग ग्राम स्थापित करने के डेढ़ साल बाद फिर उत्तराखंड शासन ने पतंजलि योग पीठ ट्रस्ट को 26 फरवरी, 2010 को हरिद्वार के औरंगाबाद और शिवदासपुर उर्फ तेलीवाला गांव में और 155 हेक्टेयर (2325 बीघा) जमीन खरीदने की इजाजत दी. यह इजाजत पतंजलि विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए दी गई थी. इस तरह उत्तराखंड शासन से बाबा के पतंजलि योगपीठ को औरंगाबाद और तेलीवाला गांव की कुल 230 हेक्टेयर (3450 बीघा) जमीन खरीदने की अनुमति मिली जो इन दोनों गांवों की खेती वाली भूमि का बड़ा भाग है. इसके अलावा बाबा ने इन गांवों में सैकड़ों बीघा बेनामी जमीनें कई लोगों के नाम पर ली हैं जिन्हें वे धीरे-धीरे कानूनी प्रक्रिया पूरी करके अपने ट्रस्टों के नाम कराएंगे.

कई गांववाले दावा करते हैं कि तेलीवाला और औरंगाबाद गांव में रामदेव के ट्रस्ट के कब्जे में 4000 बीघा से अधिक जमीन है. प्रशासन द्वारा मिली इतनी अधिक भूमि खरीदने की इजाजत और बेनामी व कब्जे वाली जमीनों को देखने के बाद इस दावे में सत्यता लगती है. लेकिन राजस्व अभिलेख देखें तो औरंगाबाद ग्राम सभा की ही तरह तेलीवाला गांव में भी रामदेव के ट्रस्टों के नाम पर एक इंच भूमि दर्ज नहीं है.

आखिर ऐसा क्यों?  यह जानने से पहले कुछ और सच्चाइयां जानते हैं. तेलीवाला गांव में 2116 खातेदारों के पास कुल 9300 बीघा जमीन है. गांव के 330 गरीब भूमिहीनों के नाम सरकार से कभी पट्टों पर मिली 750 बीघा कृषि-भूमि या घर बनाने योग्य भूमि है. लेखपाल जैन्मी बताते हैं कि जमीनें बेचने के बाद गांव के खातेदारों में से सैकड़ों किसान भूमिहीन हो गए हैं. गांववालों के अनुसार गांव की कुल भूमि का बड़ा हिस्सा रामदेव के पतंजलि योगपीठ के कब्जे में है. इसकी पुष्टि बालकृष्ण का एक पत्र भी करता है. बालकृष्ण ने सात सितंबर, 2007 को ही हरिद्वार के जिलाधिकारी को पत्र लिखकर स्वीकारा था कि तेलीवाला गांव की 80 प्रतिशत भूमि के उन्होंने बैनामे करा लिए हैं इसलिए गांव की फिर चकबंदी की जाए. यानी सब कुछ पहले से तय था और प्रशासन से बाद में जमीन खरीदने की विशेष अनुमति मिलना महज एक औपचारिकता थी.  प्रस्ताव में किए गए बालकृष्ण के दावे को सच माना जाए तो रामदेव के पास अकेले तेलीवाला गांव में ही करीब 8000 बीघा जमीन होनी चाहिए. गांववालों ने समयपूर्व, नियम विरुद्ध हो रही इस चकबंदी का विरोध किया है. उन्हें आशंका है कि चकबंदी करा कर बालकृष्ण अपनी दोयम भूमि को किसानों की उपजाऊ भूमि से बदल देंगे.

हरिद्वार में रामदेव के आर्थिक साम्राज्य का तीसरा बड़ा भाग पदार्था-धनपुरा ग्राम सभा के आसपास है. बाबा ने यहां के मुस्तफाबाद, धनपुरा, घिस्सुपुरा, रानीमाजरा और फेरुपुरा मौजों में जमीनें खरीदी हैं. ये जमीनें पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड के नाम पर शासन की अनुमति से खरीदी गई हैं. आठ जुलाई, 2008 को बाबा को मिली अनुमति में बृहत स्तर पर औषधि निर्माण और आयुर्वेदिक अनुसंधान के उद्देश्य की बात है. पर बाद में यहां फूड पार्क लिमिटेड की स्थापना की गई है. ग्रामीणों के अनुसार पतंजलि फूड पार्क लिमिटेड लगभग 700 बीघा जमीन पर है. 98 करोड़ के इस प्रोजेक्ट पर केंद्र के फूड प्रोसेसिंग मंत्रालय से 50 करोड़ रु की सब्सिडी (सहायता) मिली है. नौ कंपनियों के इस समूह में अधिकांश कंपनियां रामदेव के नजदीकियों द्वारा बनाई गई हैं. मां कामाख्या हर्बल लिमिटेड में रामदेव के जीजा यशदेव आर्य, योगी फार्मेसी के निदेशक सुनील कुमार चतुर्वेदी और संजय शर्मा जैसे रामदेव के करीबी ही निदेशक हैं. रामदेव के पतंजलि फूड पार्क व झारखंड फूड पार्क को स्वीकृति दिलाने में कांग्रेस के एक केंद्रीय मंत्री का आशीर्वाद साफ-साफ झलकता है. फूड पार्क के उद्घाटन के समय रामदेव ने केंद्रीय मंत्रियों और मुख्यमंत्री के सामने घोषणा की थी कि वे हर साल उत्तराखंड से 1000 करोड़ की जड़ी-बूटियां या कृषि उत्पाद खरीदेंगे. परंतु बाबा ने सरकार से करोड़ों रुपये की सब्सिडी खा कर भी वादा नहीं निभाया. चमोली जिले में जड़ी-बूटी के क्षेत्र में काम करने वाली एक संस्था अंकुर संस्था के जड़ी-बूटी उत्पादक सुदर्शन कठैत का आरोप है कि बाबा ने उत्तराखंड में अभी एक लाख रुपये की जड़ी-बूटियां भी नहीं खरीदी हैं.

पदार्था के राजस्व अभिलेखों को देखने से पता चलता है कि यहां पतंजलि फूड पार्क लिमिटेड, रामदेव, आचार्य बालकृष्ण या उनके किसी नजदीकी व्यक्ति के नाम पर कोई जमीन दर्ज नहीं है. सवाल उठता है कि बिना राजस्व खातों में जमीन दर्ज हुए बाबा को कैसे फूड पार्क के नाम पर बने इस प्रोजेक्ट के लिए सब्सिडी मिली. यह सवाल जब हम राज्य सरकार के सचिव स्तर के  संबंधित अधिकारी से पूछते हैं तो वे बताते हैं, ‘हमारे पास कभी फूड पार्क की फाइल नहीं आई, संभवतया यह फाइल सीधे केंद्र सरकार को भेज दी गई हो.’

रामदेव ने हरिद्वार के दौलतपुर और उसके पास के गांवों जैसे बहाद्दरपुर सैनी, जमालपुर सैनीबाग, रामखेड़ा, हजारा और कलियर जैसे कई गांवों में भी बड़ी मात्रा में नामी- बेनामी जमीनें खरीदी हैं. हरिद्वार के एक महंत आचार्य बालकृष्ण के साथ एक बार उनकी जमीनों को देखने गए. नाम न छापने की शर्त पर वे बताते हैं, ‘दिन भर घूमकर भी हम बाबा की सारी जमीनें नहीं देख पाए.’ प्राॅपर्टी बाजार के दिग्गज दावा करते हैं कि हरिद्वार में कम से कम 20 हजार बीघा जमीन बाबा के कब्जे में है.
लेकिन रामदेव के ट्रस्टों के नाम पर राजस्व अभिलेखों में हरिद्वार में लगभग 400 बीघा भूमि ही दर्ज है. सवाल उठता है कि सभी तरह से ताकतवर रामदेव ने आखिर इतनी बड़ी मात्रा में जमीन खरीदने के बाद अपने ट्रस्टों या लोगों के नाम पर जमीन का दाखिल-खारिज क्यों नहीं कराया. इसका जवाब देते हुए कर विशेषज्ञ बताते हैं कि जमीनों का दाखिल-खारिज कराते ही बाबा की जमीनें आयकर विभाग की नजरों में आ सकती थीं इसलिए विभाग की संभावित जांचों से बचने के लिए इन जमीनों को दाखिल-खारिज करा कर राजस्व अभिलेखों में दर्ज नहीं कराया गया है.

तहलका ने इन जमीनों के लेन-देन में लगे धन पर भी नजर डाली. पता चला कि बाबा से जुड़े लोग या ट्रस्ट इन जमीनों की रजिस्ट्री तो सर्कल रेट पर करते थे परंतु बाबा ने किसानों को जमीन का मूल्य उसके सर्कल रेट से कई गुना अधिक दिया. उत्तराखंड का औद्योगिक शहर बनने के बाद हरिद्वार में जमीनों के भाव आसमान छू रहे थे. ग्रामीणों की मानें तो बाबा के मैनेजरों ने दलालों को भी गांव में जमीन इकट्ठा करने के एवज में मोटा कमीशन दिया.

जमीनों की खरीद-फरोख्त के सिलसिले में हरिद्वार के उपजिलाधिकारी के न्यायालय में वर्ष 2009 और 2010 में हुए दर्जन भर से अधिक स्टांप अधिनियम के मामले चल रहे हैं. ये मामले पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड द्वारा पदार्था-धनपुरा गांव के मुस्तफाबाद मौजे में खरीदी गई जमीनों पर स्टांप शुल्क चोरी से संबंधित हैं. इन मामलों में न्यायालय ने पाया कि रजिस्ट्री करते समय स्टांप शुल्क बचाने की नीयत से इन जमीनों का प्रयोजन जड़ी-बूटी रोपण यानी कृषि और बागबानी दिखाया गया. बाबा के लोग रजिस्ट्री कराते हुए यह भी भूल गए कि उन्हें शासनादेश में इस भूमि को खरीदने की अनुमति औषधि निर्माण व अनुसंधान के लिए मिली थी जो कृषि कार्य से हटकर उद्योग की श्रेणी में आता है. ऊपर से पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड ने इस जमीन को अकृषित घोषित कराए बिना ही इस पर औद्योगिक परिसर स्थापित कर दिया है. कम स्टाम्प शुल्क लगाने में पकड़े गए इन मामलों में हरिद्वार के उपजिलाधिकारी ने पतंजलि योगपीठ पर स्टाम्प चोरी और अर्थदंड के रूप में करीब 55 लाख रु का जुर्माना भी लगाया. पूर्व प्रधान अजब सिंह चौहान का मानना है कि रामदेव के ट्रस्टों और कंपनियों ने हरिद्वार में हजारों रजिस्ट्रियां की हैं और यदि सारे मामलों की जांच की जाए तो उन पर स्टांप चोरी के रूप में करोड़ों रु निकलेंगे.

उपजिलाधिकारी के इन निर्णयों (बायीं तरफ चित्र देखें) को ध्यान से देखने पर साफ दिखता है कि किस तरह झूठे तथ्यों के आधार पर जमीन के सौदों में 90 फीसदी से भी ज्यादा स्टांप शुल्क की चोरी की गई. प्रॉपर्टी बाजार के सूत्रों के अनुसार इन सौदों में किसानों को उपजिलाधिकारी के मूल्यांकन से भी कई गुना अधिक कीमत मिली थी. प्रॉपर्टी बाजार के दिग्गजों के अनुसार पतंजलि फूड पार्क वाले इलाके में बाबा के जमीन खरीदते समय जमीन का सर्किल रेट 35000 रु प्रति बीघा के लगभग था जबकि बाबा ने आठ से 10 लाख रु बीघा तक जमीनें खरीदी हैं. इस तरह कई किसानों को जमीन के एवज में पतंजलि फूड लिमिटेड से पांच से छह करोड़ रुपये तक काला धन मिला है. पतंजलि फेज -1 और फेज-2 के लिए रामदेव ने जमीन सर्कल रेट (10 हजार से लेकर 40 हजार) पर खरीदी गई दिखाई है, लेकिन वास्तव में जमीनें 12 लाख रु बीघा तक में खरीदी हैं. यही तेलीवाला में भी हुआ है. पतंजलि योगपीठ के पास बन रहे महंगे फ्लैटों में भी लोग बाबा की साझेदारी बताते हैं.

इनमें से कई सीधे-सादे गांववालों ने पतंजलि से मिला जमीन का सारा पैसा बैंकों में जमा करा दिया. अब ये ग्रामीण आयकर विभाग की जांच की जद में आ गए हैं. विभाग भले ही आज तक यह पता न कर पाया हो कि रामदेव को हेलिकॉप्टर किसने दान किया लेकिन पतंजलि को अपनी जमीन बेचने के एवज में सर्किल भाव से कई गुना कीमत मिलने के बाद आयकर की जांचों से इन गांववालों की जानें सूख गई हैं. आचार्य प्रमोद कृष्ण कहते हैं, ‘यदि गरीब लोगों पर फेमा के मामले दर्ज होते तो अब तक उनके खाते सील कर उन्हें जेल भेज दिया जाता, लेकिन रामदेव पर केंद्र सरकार कोई कार्रवाई नहीं कर रही.’ प्रमोद कृष्ण की शिकायतों पर ही रामदेव के विरुद्ध फेमा के मामले दर्ज हुए हैं और बालकृष्ण के विरुद्ध सीबीआई जांच शुरू हुई है. उनका मानना है कि देश और विदेश में जमकर काला धन लगाने वाले रामदेव केंद्र सरकार को ब्लैकमेल करके अपने विरुद्ध कार्रवाई न होने देने का दबाव बनाने के लिए देश भर में काले धन का विरोध करते घूम रहे हैं.

बाबा ने सारी जमीनें उसी तरह खरीदी हैं जैसे एक भू-व्यवसायी या उद्योगपति खरीदता है. जमीनों की खरीद में खूब काले धन का प्रयोग हुआ है. हरिद्वार की कई महंगी बेनामी संपत्तियों से बाबा का संबंध बताया जाता है. हरिद्वार के प्राॅपर्टी बाजार के एक दिग्गज कहते हैं, ‘मोटे तौर पर यदि हर बीघा पर केवल दो लाख रुपये भी सर्कल रेट से अधिक दिए गए होंगे तो रामदेव ने हरिद्वार में ही जमीनों पर कम से कम 400 करोड़ रु का काला धन लगाया है.’

रामदेव देश भर में रोज कहते हैं कि उनके नाम पर कोई जमीन नहीं है और कहीं उनका बैंक खाता नहीं है. सच भी यही है कि बाबा के नाम पर कोई जमीन नहीं है. औरंगाबाद गांव पहले चौहान जमींदारों का था. क्षेत्र समिति के सदस्य चरण सिंह चौहान बताते हैं कि उनके बिरादरों में से कई परिवारों की सैकड़ों बीघा जमीनें सीलिंग में आईं और गांव के ही भूमिहीनों को दी गईं. उन्हें गरीबों को जमीन देने का कोई गम नहीं है. परंतु अब वे पट्टे की इन जमीनों पर रामदेव के लोगों के कब्जे से चिंतित होकर कहते हैं, ‘अब रामदेव जैसे कई संत नये जमींदारों के रूप में उभरे हैं जो गरीबों का हर तरह से शोषण कर रहे हैं.’ इनके पास हजारों बीघा उपजाऊ जमीनें हैं. चौहान बताते हैं, ‘अब सरकारों में इतनी हिम्मत ही नहीं है कि गरीबों की उपजाऊ जमीनों का भक्षण करने वाले इन नवजमींदारों को किसी कानून से ठीक कर सकें.’

पिछले साल रामदेव ने बयान दिया था कि उत्तराखंड के एक मंत्री ने उनसे दो करोड़ रुपये घूस में मांगे थे. पर बाबा ने मंत्री का नाम नहीं बताया था.  उत्तराखंड क्रांति दल के अध्यक्ष त्रिवेंद्र सिंह पंवार कहते हैं, ‘मंत्री ने शायद इन जमीनों की खरीद और लूट अभियान में मदद करने के एवज में बाबा से यह मांग की होगी.’रामदेव का वाहन अब साइकिल से हेलिकॉप्टर हो गया है. कभी आश्रमों में शरण लेकर रहने वाले रामदेव अब देश भर में हजारों बीघा जमीनों के उपभोग की हैसियत रखते हैं. उनका साम्राज्य इंग्लैड के लिटिल कुमरा द्वीप तक है. बाबा ने उत्तराखंड में भी गंगा नदी पर बनी एक द्वीपनुमा भौगोलिक संरचना को अपने लोगों के नाम पर खरीद लिया है. व्यास घाट के पास गंगा पर फैली हजारों बीघा की यह भूमि पूरे उत्तराखंड में बेमिसाल और खूबसूरत है. इस जगह के बारे में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी वर्णन किया था.

रामदेव के प्रवचनों में काले धन और भ्रष्टाचार के अलावा देश के किसानों, मजदूरों और गरीबों की दुर्दशा की भी चिंता दिखती है. पूर्व प्रधान शकील अहमद बताते हैं, ‘हमने रामदेव द्वारा किया कोई जनहित का काम अभी तक आसपास के गांवों में तो नहीं देखा.’ तहलका ने भी यही पाया. जिन गांवों में रामदेव ने जमीनें खरीदी हैं वहां समाजसेवा करना तो दूर रामदेव वहां के समाज से भी कटे हैं.

फर्जीवाड़े दुनिया भर के

तेलीवाला गांव में रामदेव की जमीनों के लगभग 20 बीघा वाले हिस्से में एक भव्य भवन वाला बड़ा आवासीय परिसर बना है. इस पर पर बाबा के बड़े-बड़े फोटो लगे हैं. बाबा ने तेलीवाला की अपनी सारी जमीन पर योग ग्राम की ही तरह बिजली के प्रवाह वाली सबसे महंगी तार-बाड़ लगाई है. इस परिसर के प्रभारी राजस्थान निवासी कोई शास्त्री जी हैं. परिसर में ट्रैक्टर सहित कई कृषि यंत्र दिखते हैं. बाबा के सेवक इस परिसर में शाहीवाल नस्ल की गायें भी पालते हैं. इसके पास ही ‘पतंजलि धर्मकांटा’ भी लगाया गया है जहां से गन्ना तुल कर परिसर में बने गुड़ के कोल्हू पर पिराई के लिए जाता है. कोल्हू दो हैं जिन्हें चलाने के लिए रामदेव के लोग आसपास के गांवों के किसानों से गन्ना खरीदते हैं. आने वाला गन्ना तोलने के लिए उन्होंने बाकायदा धर्मकांटा तक लगाया है. विजयपाल सैनी बताते हैं, ‘बाबा की इन चरखियों में हर दिन लगभग 300 क्विंटल गन्ना पिरोया जाता है.’
तेलीवाला में बिजली के दो कनेक्शन भी आचार्य बालकृष्ण के नाम व दिव्य योग मंदिर, कनखल के पते पर लिए गए हैं. बिजली के एक कनेक्शन की उपभोक्ता संख्या 711205 है. 35 हार्स पावर का एक कनेक्शन ट्यूब-वेल के नाम पर लिया गया है. उत्तराखंड पावर काॅरपोरेशन के उपमहाप्रबंधक एमसी गुप्ता से जब हम रामदेव का जिक्र किए बिना पूछते हैं तो वे बताते हैं कि कृषि कार्य हेतु बोरिंग के लिए किसी भी उपभोक्ता को जमीन का मालिकाना हक सिद्ध करना होता है. इसके लिए जरूरी है कि वह जमीन की खतौनी पेश करे. आचार्य बालकृष्ण के नाम पर तेलीवाला गांव में एक भी बीघा जमीन खतौनी में दर्ज नहीं है. यह पूछने पर कि बिना जमीन के किस आधार पर बालकृष्ण को बोरिंग हेतु बिजली का कनेक्शन दिया गया तो गुप्ता कहते हैं, ‘जांच करके ही कुछ बता सकते हैं. जांच में किसी भी किस्म की अनियमितता पाए जाने पर तुरंत कार्रवाई करेंगे. ‘

तेलीवाला में दो कोल्हू हैं जिनमें रोज सैकड़ों क्विंटल गन्ने की पेराई होती है. काम व्यावसायिक है लेकिन बालकृष्ण के नाम पर बिजली के ये कनेक्शन कृषि कार्य हेतु हैं. इन पर सिर्फ 80 पैसा प्रति यूनिट की दर से बिल आता है. इससे सरकार को रोज हजारों रु की चपत लग रही है. नियमों के मुताबिक बालकृष्ण को ये कनेक्शन मिलने ही नहीं चाहिए थे क्योंकि यह जमीन उनके नाम नहीं है

गौर करने वाली बात यह है कि ये कोल्हू बिजली से चलाए जाते हैं. इसके लिए रामदेव ने कोई अलग व्यावसायिक कनेक्शन नहीं लिया है. कृषि कार्य के लिए सिंचाई हेतु आचार्य बालकृष्ण के नाम लिए गए कनेक्शन पर  केवल 80 पैसा प्रतियूनिट की दर से बिल लिया जाता है. जबकि कोल्हू चलाने के लिए लगाए जाने वाले व्यावसायिक कनेक्शन पर चार रुपये 25 पैसा प्रतियूनिट के हिसाब से बिल वसूला जाना चाहिए था. हर दिन इस हिसाब से सरकार को हजारों रुपये के राजस्व का नुकसान हो रहा है. व्यवासायिक कार्यों से होने वाली कमाई से ही सरकार किसी गरीब किसान के घर में लगने वाले जनता कनेक्शन का एक बल्ब जलाती है. रामदेव यदि कृषि कार्य की बजाय व्यवासायिक कार्य का बिल देते तो कुछ गरीबों के घर साल भर बिजली जलती रहती.

नये जमाने के जमींदार

आजादी के बाद वर्ष 1950 में जमींदारी प्रथा को खत्म करने के मकसद से एक कानून बनाया गया था जो 1952 में पूरी तरह से लागू हुआ. असल में तब समस्या यह थी कि चंद लोगों के पास जमीनें ही जमीनें थीं जबकि बाकी भूमिहीन थे. कानून का मकसद था कि यह असंतुलन दूर हो और दलित व गरीब भूमिहीनों को भी खेती के लिए जमीन मिले.  लेकिन रामदेव जो कर रहे हैं वह एक झलक है कि किस तरह वही क्रूर जमींदारी प्रथा एक नयी शक्ल में फिर से सिर उठा रही है.

महबूबन 80 साल की हैं. हरिद्वार जिले के एक गांव तेलीवाला में अपनी एक विधवा बहू और दो बेटों के परिवारों के साथ रहने वाली इस बुजुर्ग की जिंदगी की शाम दुश्वारियों में कट रही है. उनके पति अनवर और जवान बेटे अमीर बेग की मौत हो चुकी है. 14 सदस्यों वाले इस कुनबे की रोजी-रोटी किसी तरह चल ही रही थी कि कुछ साल पहले उस पर एक और मुसीबत आ गई. कई साल पहले ग्राम प्रबंध समिति ने महबूबन के भूमिहीन पति और बेटे को खेती करने के लिए गांव में 3.3 तीन बीघा सरकारी जमीन पट्टे पर दी थी. अनवर और उसके बेटे की मौत के बाद जमीन महबूबन और उनकी बहू रुखसाना के नाम पर आ गई. जमीन  के कुछ हिस्से पर उन्होंने पेड़ लगा रखे थे, कुछ पर वे खेती करते थे. रुखसाना बताती हैं, ‘फसल के अलावा चरी बोकर हम एक-दो जानवर भी पाल लेते थे. बच्चों को दूध नसीब हो जाता था.’

26 दिसंबर, 2007 को हरिद्वार के उपजिलाधिकारी ने महबूबन और उनकी बहू रुखसाना सहित तेलीवाला गांव के अन्य 27 भूमिहीनों को दिए गए पट्टे निरस्त कर दिए. इस फैसले की वजह बताई गई कि पट्टेदार इन जमीनों पर खेती नहीं करते और उन्होंने जमीन का लगान भी जमा नहीं किया है. इस एक आदेश से निरस्त हुए भूमिहीनों के पट्टों की जमीन लगभग 100 बीघा (8,10,000 वर्ग फुट) थी.इन गरीबों के खिलाफ शिकायत गांव के ही कुछ लोगों ने की थी. शिकायत में इन पट्टेधारकों को ट्रैक्टर और जीपों का मालिक दिखाया गया था. ऊपर से देखने में इस शिकायत का मकसद भला दिख रहा था. शिकायत में मांग की गई थी, ‘पट्टे में मिली जमीन पर स्वयं खेती न करने वाले लोगों के पट्टों को निरस्त कर गांव के अन्य अनुसूचित जाति के भूमिहीनों को नये पट्टे दिए जाएं.’ तहलका को मिली जानकारियां बताती हैं कि ये शिकायतकर्ता प्रॉपर्टी डीलर थे जो तेलीवाला और उसके बगल के गांव औरंगाबाद में रामदेव के ट्रस्टों के लिए जमीनें इकट्ठा करने के काम पर लगे थे.

उपजिलाधिकारी को शिकायत मिलने के तीसरे दिन ही लेखपाल ने लगभग 100 बीघा भूमि की स्थलीय जांच की और तथ्यों की पड़ताल करके अपनी रिपोर्ट दे दी कि वास्तव में इन पट्टों की जमीनों पर खेती नहीं हो रही है और ग्रामीणों ने लगान भी नहीं दिया है. पट्टों पर लगभग नौ रुपये सालाना लगान तय था. रिपोर्ट आने के दूसरे ही दिन हरिद्वार के तहसीलदार ने भी लेखपाल की जांच को सही मानते हुए इन 29 भूमिहीनों के पट्टों को निरस्त करने की आख्या उपजिलाधिकारी को भेज दी.  शिकायत मिलने के नौ दिन बाद हरिद्वार के तहसीलदार की अदालत के एक निर्णय के बाद ये अभागे पट्टाधारक फिर भूमिहीन बन गए.

गौर से देखने पर यह फैसला हास्यास्पद लगता है. इनमें से हर गरीब पर उस समय सिर्फ 10 रु के लगभग लगान बकाया था. महबूबन कहती हैं, ’10 रु की हैसियत आज के जमाने में होती ही क्या है? उसे तो गरीब भी कभी भी दे सकता है.’ महबूबन के अलावा गांव की ही एक और विधवा शकीला का भी पट्टा निरस्त हुआ है. शकीला और गांव के अन्य भूमिहीन अब नदी के किनारे बरसात में आई बालू पर मौसमी सब्जी उगा रहे हैं. शकीला कहती हैं, ‘गरीब लोग जमीन पर खेती नहीं करेंगे तो क्या करेंगे?’
अमूमन इस तरह की शिकायतें मिलने के बाद होने वाली जांचों में महीने गुजर जाते हैं. स्थलीय निरीक्षण और दो स्तर की जांचों के बाद पट्टाधारकों की आपत्तियां सुनी जाती हैं. इस प्रक्रिया के बाद उपजिलाधिकारी के न्यायालय में न्यायिक निर्णय होता है. भारत में राजस्व न्यायालयों के निर्णय आने में सामान्यतः सालों लग जाते हैं. लेकिन इन गरीबों के मामले में सब कुछ शताब्दी एक्सप्रेस वाली रफ्तार से हो गया. पूर्व आईएएस अधिकारी चंद्र सिंह कहते हैं, ‘जांच रिपोर्ट देने से पहले ग्राम सभा की खुली आम बैठक करानी थी ताकि शिकायतों की सत्यता की परख सबके सामने होती.’ सिंह आपातकाल के समय हरिद्वार में बतौर उपजिलाधिकारी सीलिंग की जमीनें भूमिहीनों को बांटने के लिए चर्चित रहे हैं. वे कहते हैं, ‘एक गरीब को फिर से भूमिहीन बनाने के दर्द का अहसास शायद इन कर्मचारियों को भी हो पर अमूमन इस तरह के निर्णय मोटे लालच या ऊपरी दबाव में होते हैं.’ हरिद्वार में ही तैनात रहे एक अन्य उपजिलाधिकारी बताते हैं कि उनके तीन साल के कार्यकाल में उनके सामने पट्टे निरस्त करने का कोई मामला नहीं आया था. वे कहते हैं, ‘लगान की रकम अब इतनी कम होती है कि कोई भी गरीब उसे चुका सकता है.’तो आखिर इन 29 पट्टों को निरस्त करने के मामले में तेजी क्यों दिखाई गई? इसका जवाब तलाशने जब हम तेलीवाला गांव पहुंचे तो पता चला कि हरिद्वार के  तत्कालीन उपजिलाधिकारी ने यह निर्णय जमीनी सच्चाइयों और हकीकतों को नकारते हुए सीधा-सीधा रामदेव को फायदा पहुंचाने के लिए दिया था.

इन भूमिहीन गरीबों के पट्टे निरस्त होने के केवल 15 दिन बाद 12 फरवरी, 2008 को रामदेव के पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट के महामंत्री आचार्य बालकृष्ण ने हरिद्वार  के जिलाधिकारी को एक पत्र लिखा. इसमें उन्होंने पतंजलि विश्वविद्यालय और पतंजलि ट्रस्ट के लिए औरंगाबाद और तेलीवाला ग्रामसभा में 325 हेक्टेयर (4875 बीघा) सरकारी जमीन मांगी. आचार्य बालकृष्ण का कहना था कि इस जमीन का इस्तेमाल लोकोपकारी कार्यों को करने के लिए होगा. आवंटन के लिए भेजे गए प्रस्ताव में जिस भूमि की मांग की गई थी उसमें वह 100 बीघा जमीन भी शामिल थी जो भूमिहीनों के पट्टे निरस्त करने के बाद फिर से सरकारी हो गई थी. प्रस्ताव में आचार्य बालकृष्ण ने इस 4875 बीघा जमीन का विस्तार से वर्णन किया है. इन भूमियों में भूमिहीनों के पट्टों की जमीन, पहाड़नुमा भूमि, चौड़े पाट वाली बरसाती नदी का हिस्सा तो था ही, गांव के पशुओं के चरने का गौचर, गांव का पनघट, श्मशान घाट और कब्रिस्तान भी था.

ट्रस्टों और स्वयंसेवी संगठनों के मामले में अक्सर देखने को मिलता है कि जब वे सरकार से जमीन मांगते हैं तो इसके पीछे की वजह जनकल्याण का कोई काम बताते हैं. बालकृष्ण ने भी बृहत स्तर पर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे कामों के लिए भूमि मांगते हुए औरंगाबाद गांव के अन्य 12 गरीब किसानों को पट्टों में मिली 60 बीघा भूमि को भी पतंजलि योग पीठ को आवंटित करने का प्रस्ताव भेजा था. ये जमीनें भी पतंजलि को तभी मिल सकती थीं जब इनके पट्टे निरस्त हो जाते. कुल मिलाकर देखा जाए तो वे सरकार से हरिद्वार जिले की दो न्याय पंचायतों-  तेलीवाला और औरंगाबाद में सामूहिक उपयोग की सारी भूमि, निरस्त हुए पट्टों की भूमि और कुछ अन्य पट्टों के निरस्त होने के बाद मिलने वाली भूमि मांग रहे थे.

रामदेव की पहुंच और आचार्य बालकृष्ण के प्रबंधकीय कौशल के आगे नतमस्तक तेलीवाला गांव के तत्कालीन ग्राम प्रधान अशोक कुमार ने भी हरिद्वार  के जिलाधिकारी को पत्र लिखकर पतंजलि योगपीठ को जमीन आवंटित करने के लिए अपनी लिखित सहमति दे दी. प्रधान ने जिलाधिकारी को सिफारिश करते हुए लिखा कि पतंजलि योग पीठ के कामों से गांव के बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध होगा.सरकारी दस्तावेजों में दर्ज तारीखें बताती हैं कि जिस तेजी के साथ भूमिहीनों के पट्टे निरस्त हुए थे वही फुर्ती अधिकारी रामदेव को सरकारी जमीन आवंटित करने में भी दिखा रहे थे. बाबा को जमीन आवंटित करने के प्रस्ताव में लेखपाल और तहसीलदार की रिपोर्ट हाथों-हाथ लग गई जबकि कायदे से प्रस्ताव जिलाधिकारी को भेजने से पहले सारी जमीन का स्थलीय निरीक्षण और ग्राम सभा की आपत्तियों का निराकरण होना चाहिए.  तेलीवाला विजयपाल सैनी कहते हैं, ‘सब कागजों में हो रहा था ताकि गांववालों को आवंटन की खबर न लग पाए.’ आचार्य का पत्र मिलने के एक महीने से भी कम समय में हरिद्वार के तत्कालीन जिलाधिकारी आनंद वर्द्धन ने पांच मार्च, 2008 को उत्तराखंड शासन को पत्र लिखकर पतंजलि योगपीठ को सरकारी भूमि आवंटित करने की आख्या उत्तराखंड शासन को भेज दी. जिलाधिकारी ने पतंजलि द्वारा मांगी गई जमीन की लगभग आधी (140 हेक्टेयर) जमीन आवंटित करने की संस्तुति की थी.

ताज्जुब की बात यह थी कि आचार्य बालकृष्ण ने जमीन शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे जनकल्याण कार्यों को करने के लिए मांगी थी जबकि जिलाधिकारी ने अपनी संस्तुति में लिखा कि प्रस्तावित जमीन पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट को कृषि संबंधी अनुसंधान करने के लिए दी जानी चाहिए. जिलाधिकारी के पत्र में वर्णित आवंटन के लिए प्रस्तावित भूमि में वह 100 बीघा भूमि भी थी जो 29 भूमिहीनों के पट्टे निरस्त करके ग्राम समाज में मिला दी गई थी.

इस बीच रामदेव के भूमि हड़पो अभियान की भनक गांववालों को लग गई. उन्होंने रामदेव को भूमि आवंटित करने के प्रस्ताव का शासन में जमकर विरोध किया. लेकिन बाबा के प्रभाव के आगे सरकार और उसके अधिकारी गांववालों की पीड़ा नहीं समझ रहे थे. तेलीवाला के ग्रामीण मीर आलम बताते हैं, ‘रामदेव जिस तरह टीवी पर दुनिया का भला करने का सपना दिखाते हैं उसी भाषा में सरकारी अधिकारी और छोटे राजस्व कर्मचारी गांववालों को समझा रहे थे कि बाबा को जमीन देने से गांववालों और दुनिया को क्या फायदे होंगे. इन दोनों गांवों के जागरूक लोगों ने प्रशासन को कई पत्र लिखे, लेकिन कुछ नहीं हुआ. सरकार रामदेव को जमीन देने पर आमादा थी. आखिर थक-हार कर  सैनी ने इस प्रस्तावित आवंटन के विरोध में नैनीताल उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर कर दी. न्यायालय ने ट्रस्ट को भूमि आवंटित करने पर रोक लगा दी. सैनी आशंका जताते हुए कहते हैं, ‘रामदेव के प्रभाव में आकर कभी भी सरकार दो गांवों की सारी जमीनें उन्हें दे सकती है.’

तेलीवाला गांव में भूमिहीनों को दी गई करीब 100 बीघा जमीनों के पट्टे आनन-फानन में निरस्त करके रामदेव के ट्रस्ट को दे दिए गए. कई मामलों में रामदेव की संस्थाओं ने जमीनें पहले ही ले लीं और सरकार से उन्हें खरीदने की अनुमति बाद में मांगी. हाल ही में रामदेव ने फिर सरकार से 125 हैक्टेयर भूमि खरीदने की अनुमति मांगी है. पर ज्यादातर जमीनें उन्होंने पहले से ही अपने कब्जे में ले रखी हैं

स्थगनादेश से भी महबूबन, रुखसाना और शकीला जैसी विधवाओं को न्याय नहीं मिला. इन 29 पट्टाधारकों में से करीब आधों ने कमिश्नर के राजस्व न्यायालय में अपील करके अपनी जमीन पर कब्जा बना कर रखा है.  परंतु विधवाओं और गरीबों को न तो कानून की समझ थी और न ही न्यायालय तक जाने की हिम्मत. इसलिए आधे गरीबों की जमीनें सरकारी हो गईं जिन पर रामदेव के लोगों ने कब्जा कर लिया है. तेलीवाला के मीर आलम का आरोप है कि इन विधवाओं के अलावा गांव के कुछ और भूमिहीन किसानों की भूमियां भी बाबा के कब्जे में हैं. कब्जा की गई ये जमीनें दरअसल रामदेव द्वारा खरीदी गई सैकड़ों बीघा जमीनों के बीच में या पास में पड़ती हैं. विजयपाल सैनी का आरोप है कि बाबा इन दोनों गांवों की एक-एक इंच जमीन खरीद कर या आवंटित करा कर अपनी सल्तनत कायम करना चाहते थे. वे कहते हैं, ‘इस मकसद को पूरा करने के लिए उन्होंने भूमाफियाओं, राजस्व कर्मचारियों और अपने राजनीतिक सरपरस्तों का गठबंधन बना रखा था. वह गठबंधन गांव में गरीबों की जमीन को लालच दे कर अपने पक्ष में कराने की हर कानूनी तिकड़म जानता था. बाबा का साथ दे रहे गांव के ये लोग गरीबों को धमका कर गैरकानूनी तरीकों से भी जमीनों को हड़पने की दबंगई भी रखते थे.’

शांतरशाह नगर, बहेड़ी राजपूताना और बोंगला में भी अनुसूचित जाति के किसानों की जमीनें खरीद कर उन्हें भूमिहीन किया गया. तहलका ने बाबा के ट्रस्टों द्वारा खरीदी गई भूमियों में से एक (खाता संख्या 120) की गहनता से जांच की तो पाया कि रामदेव ने जमीनों को खरीदने के लिए कानून के उन्हीं छेदों का सहारा लिया है जिनका इस्तेमाल भूमाफिया अनुसूचित जाति के गरीब किसानों की जमीन छीनने में करते हैं. बढेड़ी राजपूतान गांव निवासी कल्लू के चार पुत्रों में से तीन ने वर्ष 2007 से लेकर 2009 के बीच जमीन को बंधक रख बैंक से ऋण लेना दिखाया है. बाद में ऋण अदायगी के नाम पर अनुसूचित जाति के इन किसानों को भूमि बेचने की इजाजत उपजिलाधिकारी से दिलाई गयी और इस भूमि को पतंजलि योगपीठ ने ले लिया. अब ये परिवार भूमिहीन हैं.

पट्टे में मिली खेती की तीन बीघा जमीन पर बाबा के लोगों द्वारा कब्जा करने के बाद शकीला अब अपने बेटे गुलजार के साथ नदी की रेत में पसीना बहा कर किसी तरह दो जून की रोटी का इंतजाम करेगी. आचार्य बालकृष्ण ने सरकार को इस नदी को भी उनके ट्रस्ट को आवंटित करने का प्रस्ताव भेजा है. फिर भूमिहीन हो गए सैकड़ों ग्रामीण कहां जाएंगे, इसका जवाब किसी के पास नहीं है. हाल ही में रामदेव ने फिर उत्तराखंड सरकार से हरिद्वार जिले के तेलीवाला, औरंगाबाद, हजारा ग्रांट, अन्यगी आदि गांवों में 125 हेक्टेयर (1875 बीघा) भूमि खरीदने की अनुमति मांगी है. वास्तव में ये जमीनें बाबा ने अपने लिए इकट्ठा करवा कर कब्जे में ले रखी हैं. अब उन्हें खरीद का वैधानिक रूप देना है. इनमें से ज्यादातर अनुसूचित जाति के किसानों की हैं जो बाबा को जमीन बेच कर एक बार फिर भूमिहीन हो गए हैं. बाबा के ट्रस्टों के भू-विस्तार अभियान से भूमिहीन हो गए सैकड़ों ग्रामीण कहां जाएंगे, इसके बारे में सोचने की फुरसत किसी को नहीं. शकीला के पास टीवी भी तो नहीं है. कम से कम वह उस पर रोज आ रहे बाबा रामदेव के प्रवचनों को सुन कर यह संतोष तो कर लेती कि उसकी थोड़ी-सी जमीन काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ किए जा रहे बाबा के संघर्ष में कुर्बान हुई है.

(महिपाल कुंवर के सहयोग के साथ) 

कलाम की पाठशाला में महिला प्रतिनिधि

इर्शादुल हक की रिपोर्ट

15 नवंबर को देश के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने बिहार में विकास की गति को तेज करने में विधायकों की भूमिका पर भाषण दिया था. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पूर्व राष्ट्रपति को विधानमंडल के सदस्यों और मंत्रियों को संबोधित करने के लिए विशेष तौर पर आमंत्रित किया था. मुख्यमंत्री का मानना था कि इससे विधायकों में प्रेरणा का संचार होगा. खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कलाम से काफी प्रेरित रहे हैं. पूर्व राष्ट्रपति ने अपने संबोधन से पहले बिहार के तमाम विधायकों के लिए दस सवालों की एक सूची भी भेजी थी (बॉक्स देखें). किंतु एक सर्वेक्षण के मुताबिक तकरीबन 70 प्रतिशत विधायकों ने इन सवालों का जवाब नहीं दिया. जवाब न देने वाली महिला विधायकों की संख्या और भी अधिक रही. लगभग 90 प्रतिशत महिला विधायक कलाम के सवालों को टाल गईं. इसी को ध्यान में रखते हुए तहलका ने इन सवालों को अनेक महिला विधायकों के समक्ष रखा.

पिछले दस सालों में बिहार की महलाओं में राजनीतिक सशक्तीकरण जिस अनुपात में बढ़ा है उसकी मिसाल पिछले पचास साल में नहीं मिलती.  बिहार विधानसभा की कुल 243 सीटों में से 32 सीटों की नुमाइंदगी महिलाएं करती हैं जो कुल संख्या का 13.16 प्रतिशत है. जबकि मई, 2011 में हुए पांच राज्यों के चुनावों में महिला प्रतिनिधियों के चुनकर आने का औसत महज सात फीसदी ही रहा. इन राज्यों में से असम में 11 फीसदी, पश्चिम बंगाल में 12, तमिलनाडु में सात, केरल में पांच और पांडिचेरी में शून्य फीसदी महिलाओं ने सफलता हासिल की. इनमें से दो राज्यों तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में तो महिलाएं मुख्यमंत्री बनी हैं. इन पांच राज्यों में 2006 की तुलना में महिलाओं की नुमाइंदगी घटी है जबकि बिहार में 2005 की तुलना में महिला विधायकों की संख्या में इजाफा हुआ है. 2005 में जहां बिहार विधानसभा में कुल 24 महिलाएं थीं वहीं 2010 के चुनाव के बाद इनकी संख्या में आठ का इजाफा हुआ. सबसे बड़ी आबादी वाले उत्तर प्रदेश की 403 सदस्यीय विधानसभा में बमुश्किल पांच फीसदी महिलाएं हैं.
बिहार में पंचायतों में पचास प्रतिशत आरक्षण है और उम्मीद की जा रही है कि आने वाले समय में महिला जनप्रतिनिधियों का अनुपात और भी बढे़गा. ऐसे में कलाम के दस सवालों के बहाने यह जानना दिलचस्प रहा कि बिहार की महिला जनप्रतिनिधियों की राज और समाज के प्रति क्या सोच है.

मैं क्या बोलूं, हमारे मुखिया ही बोलेंगे–बीमा भारती

रुपौली विधानसभा क्षेत्र से जेडीयू की 30 वर्षीया विधायक बीमा भारती ने मैट्रिक तक शिक्षा प्राप्त की है. उनके पति अवधेश मंडल अनेक आपराधिक मामलों में आरोपित हैं. कुछ महीने पहले ही भारती चर्चा में थीं क्योंकि उनके पति ने उनकी जमकर पिटाई की थी. तहलका ने जब उनसे कलाम के दस सवालों के बारे में पूछा तो वे कहती हैं. मैं इसमें क्या बता सकती हूं. काफी जोर देने पर वे कहती हैं, ‘हमारे क्षेत्र में बिजली कटौती की समस्या है. जल स्रोतों को जोड़ने की योजना पर हमने तो कभी सोचा नहीं है. पर बाढ़ आने की स्थिति में लोगों को शिविर में पहुंचाने में हम पीछे नहीं रहेंगे. पूछे गए अन्य प्रश्नों का जवाब भारती कुछ इस तरह से देती हैं कि वे वही करेंगी जो मुख्यमंत्री करने को कहेंगे.

कार्यकर्ताओं के सम्मान की  चिंता–रेणु सिंह

स्नातक तक शिक्षा प्राप्त रेणु सिंह मोतिहारी से निर्दलीय विधान पार्षद हैं. राजनीति का पहले कभी अनुभव नहीं रहा. मगर पति राजू सिंह जदयू से दूसरी बार विधायक बने हैं. कलाम के दस सवालों के जवाब उन्होंने भी नहीं दिए. कहती हैं कि वे उन्हें पढ़ ही नहीं पाईं. तहलका से बातचीत में इन सवालों के जवाब वे कुछ यूं देती हैं, ‘हमारे क्षेत्र के कार्यकर्ताओं का आरोप है कि उन्हें सरकारी अधिकारियों से समुचित सम्मान नहीं मिलता. इसलिए अगले पांच सालों में मैं क्षेत्र में सबसे बड़ा परिवर्तन यही चाहती हूं कि कार्यकर्ताओं को उचित सम्मान मिले…सौ फीसदी साक्षरता के लिए मैं कोशिश करूंगी. हालांकि मेरे पास फिलहाल कोई ऐसी योजना  नहीं है पर सरकार हमें सुविधा देगी तो हम कुछ न कुछ करेंगे.’ तकरीबन हर सवाल का जवाब रेणु एक निर्दलीय विधायक के तौर पर जैसे दिया जा सकता है, वैसे देती हैं. और बात-बात पर जनता का सहयोग लेने की भी बात करती हैं.

जनता से पूछ कर बताऊंगी–भागीरथी देवी

रामनगर सुरक्षित क्षेत्र की 52 वर्षीया विधायक भागीरथी देवी भाजपा से आती हैं. वे तीन बार से विधायक हैं. भागीरथी ने भी कलाम के सवालों का जवाब नहीं दिया था. तहलका द्वारा पूछे गए अधिकतर सवालों को भागरथी देवी या तो ‘जनता से पूछ कर बताएंगे’ या फिर ‘सरकार जैसा निर्देश देगी उस हिसाब से करेंगे’ बोल कर अपना पल्ला झाड़ लेती है. अगले पांच साल में लोगों की आमदनी दोगुना करने के लिए उन्हें कैसे दक्ष बनाएंगी, इस सवाल पर भागीरथी कहती हैं कि इसके लिए वे अपनी जान भी दे देंगी. यह पूछने पर कि जान देने से लोग कैसे दक्ष बनेंगे, वे कहती हैं, ‘हम सरकार से लड़ेंगे ताकि उन्हें दक्ष बनाया जाए.’ उनके मुताबिक पर्यावरण को हरा-भरा रखने के लिए पहले से ही सरकार की योजना चल रही है. और इस मसले पर कुछ और करने की जरूरत नहीं है. बाढ़ से निपटने और जल स्रोतों को जोड़ने पर भी उनका मानना है कि सरकार लगी हुई है. जब सरकार कर ही रही है तो वे इस पर अपनी तरफ से कुछ क्यों सोचें. बिजली कटौती से निपटने के लिए आपके पास कोई योजना है, इस सवाल पर भागीरथी देवी कहती हैं, ‘हम इस पर कुछ नहीं बोलेंगे. हमारी बात केंद्र सरकार सुन नहीं रही है.’ जहां तक समाज में शांति और सौहार्द्र बढ़ाने की बात है तो उनके मुताबिक अब राज्य में स्थिति बदल गई है.

सरकार जाने, मैं क्या जानूं–गुड्डी देवी, रुन्नी सैदपुर

जेडीयू विधायक गुड्डी देवी ने इंटरमीडिएट तक शिक्षा प्राप्त की है. ससुर मदन चौधरी का आसपास के क्षेत्र में व्यापक प्रभाव रहा है. पति राजेश चौधरी की आपराधिक छवि है. गुड्डी का कहना है कि उन्हें जवाब देने का मौका ही नहीं मिल पाया. कलाम के दस सवाल रखने पर गुड्डी देवी का कहना था कि हमारे क्षेत्र में बाढ़ और बिजली सबसे बड़ी समस्या है और इनको दूर करने के लिए स्थायी निदान होना चाहिए. जल स्रोतों की उड़ाही का सवाल है तो मैं यह मानती हूं कि यह जरूरी है क्योंकि नदियों में गाद जमा होने के कारण बाढ़ आ जाती है. इसी तरह बांधों पर जगह-जगह गेट बनवाना चाहिए ताकि जरूरत पड़ने पर बाढ़ के पानी को निकाला जा सके. बाकी सवालों पर गुड्डी देवी एक राजनेता का लहजा अख्तियार करके कभी केंद्र सरकार को तो कभी राज्य सरकार को बीच में ले आतीं. वे यह भी कहती हैं कि इस पर इस या उस सरकार को गौर करना होगा.

वंचितों को दबाने से पनपी समस्या–रेणु देवी

मात्र 22 वर्ष की आयु में पति का साया सर से उठ जाने के बाद पचास वर्षीया रेणु देवी ने समाज सेवा को अपना लक्ष्य बना लिया. लगातार चार बार विधायक बनने वाली रेणु भाजपा से हैं और बेतिया क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती हैं. कलाम के सवालों के जवाब तो रेणु ने नहीं दिए पर वे अकेली महिला विधायक हैं जिन्होंने उनके भाषण के बाद उनसे सवाल पूछा.
कलाम के सवालों पर उनका जवाब था- ‘पिछले कुछ सालों में समाज के हर तबके, खासकर महिलाओं में आत्मविश्वास बढ़ा है. गांवों में महिला किसान माइक्रो क्रेडिट का लाभ उठा कर खेती कर रही हैं. हमारी कोशिश है कि अगले पांच सालों में अधिक से अधिक लोग इससे जुड़ें…सौ फीसदी साक्षरता समाज के लिए जरूरी तो है पर समाज में पढ़ाई के महत्व को समझने वाले लोग अब भी बहुत कम हैं. हम उन्हें समझाने की कोशिश करते हैं कि शिक्षा ही हमारी आंख है. पर लोग समझें तब तो…लोगों की आय दोगुनी करने के लिए मेरी समझ से सबसे जरूरी है कि लोगों को शराब से मुक्ति दिलाई जाए. चुनाव जीतने के बाद हमारा दायित्व बनता है कि हम अपने क्षेत्र में सुख और शांति लाएं. उसमें मैं लगी हुई हूं.’

हमने कलाम को जवाब भेजा था–ज्योति देवी

आंगनबाड़ी सेविका से विधायक तक का सफर तय करने वाली 46 वर्षीया ज्योति देवी उन गिनी-चुनी 32 महिला विधायकों में से हैं जिन्होंने कलाम के सवालों का समय पर जवाब दिया था. मैट्रिक तक शिक्षा प्राप्त ज्योति अनुसूचित जाति के भुइयां समुदाय से आने वाली एकमात्र विधायक हैं. इनके महत्वपूर्ण सुझाव  इस तरह थे – ‘पांच साल में मैं जो तब्दीली चाहती हूं वे हैं सड़क निर्माण, बालिकाओं के लिए शिक्षा की व्यवस्था, स्थानीय स्तर पर रोजगार उपलब्ध कराना ताकि पलायन रुके. सौ फीसदी साक्षरता के लिए शिक्षकों को मध्याह्न भोजन के काम से मुक्त करना और विद्यालयों में सुविधा बढ़ाने पर जोर देना. भ्रष्टाचार रहित बिहार बनाने के लिए सेवा के अधिकार कानून का कड़ाई से पालन हो और इस दायरे में विधायकों को भी लाया जाए.’

‘कांग्रेस ने एक शंकराचार्य बनाया तो भाजपा ने पूरे देश को शंकराचार्यों से पाट दिया ’

धर्म क्या है? इसका जीवन में महत्व क्या है?

किसी भी वस्तु या व्यक्ति के अस्तित्व व उपयोगिता को धारण करने वाली सामग्री का नाम धर्म है. जैसे कि अग्नि में दाहकता और प्रकाशकता है, जल में रस है, वायु में स्पर्श है और मनुष्य में मानवोचित शील जैसे दया, संयम, शांति, सेवा का गुण है. जब तक व्यक्ति या वस्तु गुण धर्म से युक्त रहता है तब तक ही उसका धर्म है, उपयोगिता है अन्यथा वह बेकार है.

धर्म यदि संयम, शांति और अनुशासित करने वाला मार्ग है तो 21वीं सदी में धर्म उन्मादी क्यों होता जा रहा है?

धर्म कभी भी उन्मादी नहीं होता. धर्म के नाम पर व्यक्ति उन्मादी हो सकता है. कभी-कभी उन्माद की परिभाषा अपने मन से कर लेने पर भी ऐसा भ्रम होता है और लगने लगता है कि धर्म और धार्मिक व्यक्ति उन्मादी है. काम, क्रोध और लोभ में पड़ कर व्यक्ति उन्मादी होता है और धर्म इस पर संयम सिखाता है. फिर धर्म उन्मादी कैसे हो सकता है. दूसरी बात यह कि कभी-कभी अराजक तत्वों के दमन के लिए जब धर्म प्रोत्साहित करता है तो मनगढ़ंत रूप से उसे उन्मादी मान लिया जाता है.

धार्मिक गुरु कहलाने वाले बाबाओं की नित नयी फौज पनप रही है. वे अपने नाम पर पूजा करवाते हैं, वे खुद ही देवत्व की प्राप्ति करने लगे हैं. नैतिक व शास्त्रीय दृष्टि से यह कहां तक उचित है?

देखिए, आज पंथों की भरमार है इसलिए कि शास्त्रीय शासकीय मान्यता का विलोप हो गया है. संत वेश में अधिक से अधिक व्यक्तियों के आने का कारण है देश और पार्टियों का पंथ में बंट जाना. उसमें शास्त्रीय संविधान के अनुसार शासनतंत्र न होना. दूसरी बात यदि आप कहती हैं कि संतों की संख्या अधिक है तो सदगृहस्थ संत या घर से उपरांत संत नैमिसारण्य के समय 88 हजार थे, लेकिन वे तपस्वी और स्वाध्यायशील थे. अगर वैसे संत आज भी होते तो राष्ट्र का कल्याण हो जाता. लेकिन आज हर व्यक्ति अपने अनुयायी बनाने में लगा हुआ है. उसे राष्ट्रहित या जनकल्याण से कोई मतलब नहीं है. पहले के संत आज के संतों की तरह नहीं होते थे. वे अपनी बोटी-बोटी जनकल्याण के लिए गला देते थे.

धर्म के प्रति आस्था कम होने का मूल कारण आप किसे मानते हैं?

आज का समाज न्याय, शिक्षा पद्धति और आचार- विचार की उत्कृष्टता को छोड़कर नट-नटी को प्रोत्साहन दे रहा है, उसे आदर्श मान रहा है तो आप ही बताएं कि क्या होगा? बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय.

बचपन में हमलोगों ने चार पीठ व चार शंकराचार्यों के बारे में पढ़ा था. लेकिन आज कई शंकराचार्यों के होने की बात सामने आती है. काशी विद्यापीठ जैसी संस्थाएं भी शंकराचार्य होने की डिग्री बांट रही हंै. आप इस पर क्या कहेंगे?

काशी विद्यापीठ मान्यता प्राप्त पीठ नहीं है. दक्षिणा के बल पर प्रमाणपत्र देने वाले पंडित कहे जाने योग्य नहीं हैं. काशी के इन पंडितों ने तो पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह को भी राजर्षि की उपाधि दे दी थी. आदि गुरु शंकराचार्य ने स्वयं मठाध्याय महानुशासनम की रचना की है. उनके द्वारा स्थापित चार मठों का उल्लेख किया है और श्लोकबद्ध रूप में लिखा है. उसमें यह कहीं उल्लिखित नहीं है कि वे शंकराचार्य बना सकते हैं. ऐसा कहें कि काशी के पंडित भी नहीं बनाते. कोई भी स्वयं को स्थापित कर सकता है शंकराचार्य. कालांतर  में जब बीहड़ दुर्गम दक्षिण के इलाकों में नहीं जा पाते थे तो सिंगेरी इत्यादि में उन्होंने उपपीठ की स्थापना की थी और उसके संरक्षक क्षेत्रीय स्तर के अवांतर आचार्य कहे जाते थे. वैसे मैं आपको यह भी बता देता हूं कि नकली शंकराचार्य बनाये जाने की शुरुआत कहां से हुई. वांछित मंदिर और विवादास्पद ढांचा गिराए जाने के बाद पांच प्रांतों में भाजपा की सरकार निरस्त करके नरसिम्हा राव ने वैष्णवाचार्य, उपपीठ व सिंगेरी के मान्य जगदगुरु शंकराचार्य का दिल्ली में इसी उद्देश्य से चार्तुमास कराया और रामालय ट्रस्ट की रचना की. उन्होंने मंदिर बनवाने के लिए मुझे 63 करोड़ रुपये का प्रस्ताव भी भेजा था. लेकिन मैंने हस्ताक्षर नहीं किया क्योंकि उसमें यह संकेत था कि मंदिर के साथ मस्जिद भी बनेगी. उन्होंने मुझसे कहा था कि अगर आपने हस्ताक्षर किए तो सोने-चांदी से मठ भर दूंगा. यह धमकी भी दी थी कि ऐसा न करने पर वे मेरे पद, प्राण और प्रतिष्ठा तीनों को नष्ट कर देंगे. लेकिन मैं अपने माता-पिता , गुरु व देश का अपमान नहीं कर सकता था. तब उन्होंने मेरे विरोध में चंद्रास्वामी को पटाकर एक आतंकवादी तरह के युवक को नया शंकराचार्य बनाया जिनका मैं नाम नहीं लेना चाहूंगा और बाद में भाजपाइयों ने उन्हें देश-विदेश में ले जाकर उनका सम्मान करवाया और प्रतिस्थापित कर दिया. कुछेक शंकराचार्य कांग्रेस के भी हैं लेकिन आज भी सबसे ज्यादा ऐसे शंकराचार्यों के पोषक भाजपाई ही हैं. कांग्रेस ने एक शंकराचार्य बनाया तो आरएसएस और भाजपा ने पूरे देश को पाट दिया. इसलिए कि हर पार्टी और संगठन के लोग इन मठों और पीठों पर अपने विचारों का आधिपत्य चाहते हैं. भाजपा, आरएसएस, विहिप व कांग्रेस सब के सब पीठों को अपने एजेंट के रूप में देखना चाहते हैं. भ्रष्ट शासनतंत्र को भ्रष्ट शंकराचार्य ही चाहिए. यदि सरकार चाहे तो चार दिन टीवी पर दिखा दे सबकी पोल खुद ही खुल जाएगी और इस पर लगाम भी लग जाएगी. शंकराचार्य की भूमिका बहुत बड़ी है और उसका निर्वहन होना चाहिए.

आपने वांछित मंदिर की बात की. अब तो न्यायालय ने उसका फैसला सुना दिया है.

मैं 18 साल पहले भी यही बात बोलता था. आज भी वही बात बोल रहा हूं. इस विवाद के इतिहास को भी देश को जानना चाहिए. राममंदिर का मुद्दा सबसे पहले किसने उठाया? कांग्रेस ने. राजीव गांधी ने, अली मियां जिनका इस पर स्वामित्व था, उनसे बातचीत की और अली मियां वहां मंदिर बनवाने के लिए उस क्षेत्र को छोड़कर फैजाबाद में मस्जिद बनवाने के लिए तैयार भी हो गए. जब यह बात कुछ मुसलमान नेताओं के पास पहुंची तो उन्होंने कहा कि वह कौन होता है मुसलमानों का भाग्य विधाता. उन्होंने इसका ताला भी खुलवाया. बाद में भाजपाइयों ने इसे मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा. इस विवाद का हल यही है कि कांग्रेस मंदिर बनाने का प्रस्ताव लाई थी इसलिए वह संसद में इस प्रस्ताव को लाए और समर्थन करे. भाजपा ने इस मुद्दे पर चुनाव लड़ा था तो वह इसका समर्थन करे. अपने आप दोनों को समर्थन मिल जाएगा और मंदिर बन जाएगा.

पहले कुंभ 12 वर्ष पर लगा करते थे और छह  वर्ष पर अर्धकुंभ. पर अब जगह-जगह कुंभ का आयोजन हो रहा है. क्या अब कुंभ भी हर जगह लगेंगे?

दरअसल कुछ संगठनों को व्यामोह हो गया है कि धार्मिक संस्थाएं हमारे द्वारा संचालित हों. एक वर्ग है जो पूरे देश में यह अभियान चला रहा है. जब से भाजपा की सरकार आई तब से छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश के मंडला में कुंभ लगाया जा रहा है और अभी हाल ही में बिहार के सिमरिया में भी कुंभ लगा. हकीकत यह है कि धर्म के अखाड़ों और मठों में वे अपने लोगों को स्थापित कर उसका संचालन खुद के हाथ में ले लेना चाहते हैं और  राजनीति में भाजपा का. ताकि धर्म और राजनीति दोनों पर उनका अपना कब्जा हो.

धर्म के नाम पर बयानबाजी तो रोज ही होती है पर धार्मिक तीर्थ स्थलों या गंगा की दुर्गति जैसे मुद्दों पर प्रश्न नहीं उठता.

ऊपरी तौर पर कहें तो यह जो अनर्थ हो रहा है होता रहेगा. उसका कारण है कि भारत पार्टी और पंथों में बंटा हुआ है. पेट और परिवार में चिपका है भारत. और इन विषयों पर उन्हें सोचने की फुर्सत तक नहीं है. लेकिन कुछ संगठन जो 18-18 घंटे काम करते हैं वे व्यामोह में फंसे हुए हैं. उन्हें लगता है कि अगर आप उनके हिसाब से चलते हैं तब तो ठीक वरना जो हो रहा है होता रहे. उन्हें यह भी लगता है कि शंकराचार्य कुछ नहीं होते सब कुछ हमारे हिसाब से होना चाहिए. व्यास गद्दी, राजगद्दी और सामाजिक कार्य सब कुछ उनके हाथ में होना चाहिए. वे खुद को हिंदुओं का ठेकेदार समझने लगे हैं.

आध्यात्मिक विषयों में नारी समाज के प्रति एक अवमानना का दृष्टिकोण रहा. इस विषय पर कुछ कहें.

मैं ऐसा नहीं मानता. हमलोग माता के गर्भ से ही आए हैं. मातृशक्ति हमारे यहां सबसे ऊपर है. मनुस्मृति में कहा गया है कि माता का गुण पिता से 10 गुना ज्यादा पुत्र पर पड़ता है. शील की रक्षा को संकीर्णता नहीं कहा जा सकता. रत्न को बिखेर कर नहीं बल्कि संभाल कर रखा जाता है. स्त्रीरत्न सबसे दुर्लभ है. मनुष्य क्या पशु-पक्षी के प्रति भी यह आदर दिखता है. गाय पर जुआठ नहीं डाला जाता. अगर विद्या में कहें तो गार्गी, सुलभा, मैत्रेयी जैसी महिलाओं ने शास्त्रार्थ किया. शंकराचार्य से भी उभयभारती ने शास्त्रार्थ किया. महाभारत पढ़े तो पता चलेगा कि पूरा संचालन द्रौपदी के ही हाथ में था. एक विभाजक रेखा होनी चाहिए. वरना घर-परिवार-समाज देश सब कुछ बिखर जाएगा. पर वह उत्कृष्टता  के साथ होनी चाहिए.

धर्म और राजनीति का संबंध कैसा होना चाहिए?

मनुस्मृति, महाभारत में राजनीति शब्द का पयार्यवाची है राजधर्म. नीति और धर्म भी एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं. दो और पर्यायवाची शब्द इसके लिए इस्तेमाल हुए हैं महाभारत और मनुस्मृति में- अर्थनीति और दंडनीति. वैसे तामस, राजस, सात्विक हर प्रकार के व्यक्ति को सन्मार्ग पर लाने की शासकीय विधा को क्रियान्वित करने वाले तंत्र को राजनीति कहते हैं. इसके लिए सात नीतियों में से किसी का भी इस्तेमाल करना पड़ सकता है. अग्नि पुराण के अनुसार ये नीतियां हैं- साम, दाम, दंड, भेद, उपेक्षा, इंद्रजाल और माया.

राष्ट्रवाद का सपना कैसे साकार होगा?

मैं भविष्यवक्ता नहीं हूं और न होना चाहता हूं. जो लोग राष्ट्र का कल्याण करना चाहते हैं वे सबसे पहले ज्योतिषी और भविष्यवक्ताओं से संपर्क करना छोड़ दें. अभी संक्रमण काल है. जब प्रेम की भाषा लोगों को समझ में नहीं आती है तो दंड की भाषा से उन्हें समझाया जाता है. अभी समाज में कई तरह की गंदगी फैल गई है. होगा यह कि 10-20 लाख लोग गाजर-मूली की तरह काटे जाएंगे. कुछ प्राकृतिक आपदा से, कुछ महामारी से और कुछ अन्य तरीकों से. इनमें  600-700 कुछ खास लोग मरेंगे तब जाकर लोग सज्जनों की बात मानना शुरू करेंगे और भारत फिर अखंड रूप में दिखेगा.

भाजपा और कांग्रेस में कोई फर्क देखते हैं?

सत्ता-लोलुपता, अदूरदर्शिता में सभी पार्टियां शामिल हैं. कोई अलग नहीं.

राजनीति में धार्मिक गुरुओं का हस्तक्षेप कितना उचित है?

धर्मगुरु यदि विधायक, सांसद होकर विचरण करें यह ठीक नहीं है. लेकिन अराजक तत्व राजनीति को बपौती बनाकर इसका दुरुपयोग करें इसकी भी खुली छूट नहीं दी जा सकती. राजनीति राजधर्म है. बाइबिल हो या कुरान शरीफ हो या सनातन धार्मिक पुस्तकें,  सभी अराजकता को समाप्त कर शांति व सद्भाव की बात करती हैं. जब शासनतंत्र दिशाहीन हो जाए तो उसे सुधारने के लिए तो धार्मिक गुरुओं को आना ही होगा.

स्वामी अग्निवेश बिग बॉस में गए…

देखिए, इन बातों की समीक्षा का अधिकार दिग्विजय सिंह को सौंप दिया गया है. उनसे ही यह सब पूछा जाना चाहिए. 

मगध में मुरदहिया सन्नाटा

बिहार के मगध क्षेत्र में इंसेफलाइटिस पिछले तीन महीने से अमूमन हर रोज एक बच्चे की जान ले रहा है. जो बच्चे बच जा रहे हैं उन्हें बाकी जिंदगी अपंगताओं के साथ गुजारनी होगी. लेकिन इलाके के जनप्रतिनिधि, शासन-प्रशासन और कथित समाजसेवी संस्थाएं आंखें मूंदे बैठे हैं. निराला की रिपोर्ट,फोटो:विकास कुमार

पिंकी की उम्र आठ-नौ साल होगी. गया-पटना रोड पर स्थित रसलपुर गांव की रहने वाली है. उसके सामने जाते ही उसकी हालत देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. अचानक पहुंचे दो-तीन अजनबियों को देख वह अपने छोटे भाई की गोद में उससे चिपक जाती है. रोने लगती है. उसकी मां बताती है कि कुछ माह पहले तक पिंकी भी अपनी सहेलियों के साथ स्कूल जाती थी. खेलती थी. घर के काम में भी थोड़ा-बहुत हाथ बंटाती थी. अपने छोटे भाई पर रोब भी जमा लेती थी. कुछ माह पहले तक अपनी बड़ी बहन का प्यार-दुलार पाने वाला यही छोटा भाई अब अपनी बड़ी बहन को गोद में चिपकाए रहता है. पिता या बुजुर्ग अभिभावक की तरह  ममता, स्नेह, प्यार बरसाता है. पिंकी बोलने में अक्षम हो गई है. उसके पैरों में इतनी भी जान नहीं कि क्षण भर भी खड़ी रह सके. इसी मजबूरी में वह अपनी माई के व्यस्त रहने पर छोटे भाई की गोद पर उम्मीद भरी निगाहें टकटका देती है.

तीन माह पूर्व बिहार के मगध क्षेत्र में शुरू हुए जापानी इंसेफलाइटिस की पहली शिकार पिंकी ही हुई थी. गया के अनुग्रह नारायण मेडिकल कॉलेज ऐंड हॉस्पिटल में इलाज के बाद किसी तरह उसकी जान तो बच गई लेकिन बची जिंदगी वह अपाहिजों की तरह गुजारने को अभिशप्त है. पिंकी ठीक हो जाएगी, इसका जिम्मा अब गांव के एक झोलाछाप डॉक्टर पर है.

यह इलाका पिछले तीन माह से मुरदहिया घाटी में बदला हुआ है. इस दौरान अलग-अलग जिले से करीब 392 बच्चे गया के मेडिकल कॉलेज पहुंचे. इनमें 85 अकाल ही काल के गाल में समा गए. जो बचकर वापस लौटे हैं उनमें से अधिकांश की हालत पिंकी के जैसी या उससे भी बुरी है.
पिंकी के घर से निकलकर हम सोनी के घर पहुंचते हैं. 12 साल की सोनी भी इंसेफलाइटिस से जंग जीतकर अपने घर आ गई है, लेकिन उसके मस्तिष्क ने करीब-करीब उसका साथ छोड़ दिया है. वह चलने-फिरने में तो सक्षम है, लेकिन अस्पताल से आने के बाद से एक सेकंड के लिए भी सो नहीं सकी है. उसे घर आए कई दिन हो चुके हैं. अब वह रात के अंधेरे में जोर-जोर से रोती रहती है या दिन के उजाले में मानसिक विक्षिप्तों की तरह लोगों की नजरों से बचने की कोशिश करती है. गया मेडिकल कॉलेज में भर्ती संजीत भी इंसेफलाइटिस से बच गया है पर आठ साल के इस बच्चे का एक पांव पोलियोग्रस्त पैर जैसा पतला हो गया है.

पिंकी, सोनी और संजीत की तरह कई बच्चे इंसेफलाइटिस से पार पा लेने के बाद अब बाकी की जिंदगी ऐसी ही शारीरिक व मानसिक अपंगता के साथ गुजारेंगे. अस्पताल से जो बच्चों के शवों के साथ घर लौटे उनकी पीड़ा तो अथाह रही ही होगी, लेकिन जो जिंदगी बचाने के बाद अपने बच्चे को घर ले आए हैं उनमें से कुछ तो भविष्य की मुश्किलों और चुनौतियों से घबराकर अपने बच्चे के मर जाने तक की कामना करने लगे हैं.

गया में दूसरे मौकों पर सैकड़ों समाजसेवी संस्थाएं दिख जाएंगी, लेकिन इस मानवीय त्रासदी में वे गायब हैं

तीन महीने बाद गया मेडिकल कॉलेज में इंसेफलाइटिस के मरीजों के आने का सिलसिला तो थम रहा है, लेकिन मौत की परछाईं दूसरे रूप में रंग दिखा रही है. अब सेरेब्रल मलेरिया (दिमागी बुखार) बच्चों की जान ले रहा है. इस बीमारी से अब बच्चे पतंगे की तरह फड़फड़ा कर मर रहे हैं. इससे अब तक करीब दो दर्जन बच्चों की मौत की सूचना है.अब बिहार में इंसेफलाइटिस से मौत हो जाना कोई नई बात नहीं. कुछ माह पहले मुजफ्फरपुर का इलाका इसकी चपेट में था. वहां भी मौत का ग्राफ कुछ इसी तरह तेजी से बढ़ा था. वहां भी मरने वाले अधिकांश बच्चे दलित, महादलित, अति पिछड़े वर्ग से थे. मगध क्षेत्र में भी कमोबेश उसी श्रेणी वाले ज्यादा हैं.

इस इलाके में बच्चों की हुई मौत को कानूनी और तकनीकी शब्दावलियों के जरिए ‘मौत’ ही माना जाएगा, लेकिन मानवीय आधार पर या फिर मानवाधिकार की भाषा में इसे ‘हत्या’ भी कहा जा सकता है. मगध मेडिकल कॉलेज के शिशु रोग विभाग के अध्यक्ष डॉ एके रवि तहलका से बातचीत में खुद कहते हैं कि अस्पताल के कुल पांच आईसीयू में से जो एक किसी तरह चालू है, यदि उसका वेंटिलेटर ही ठीक होता तो कम से कम 12-14 बच्चों की जान बच सकती थी. लेकिन तकनीकी और कागजी पेंचों के चलते वेंटिलेटर ठीक नहीं कराया जा सका. कई बार आग्रही आवेदन के बावजूद वेंटिलेटर में एक मामूली-सी ट्यूब नहीं डाली जा सकी. चौंकाने वाली बात यह है कि स्वास्थ्य मंत्री के निर्देश के बावजूद अस्पताल के प्रबंधन का रवैया इस मामले में बड़ा ढुलमुल रहा. अस्पताल के अधीक्षक कहते हैं कि वेंटिलेटर चलाने के लिए प्रशिक्षित लोगों की कमी है और वे इसके लिए ट्रेनिंग दे रहे हैं. काश, यह काम अगर समय पर होता तो कुछ बच्चों की जिंदगी बच गई होती.

बिहार में खरीफ की फसल कटने का समय एक बड़ी आबादी के लिए साल भर की रोजी-रोटी जुटाने का जरिया होता है. इस महीने में कमाई का यह जरिया छोड़ गरीब मजदूर अपने बच्चों को बचाने के लिए अस्पताल पहुंचते रहे,  डेरा डालते रहे, लाशों के संग या जिंदा बची लाशनुमा जिंदगियों को लेकर लौटते रहे.डॉ एके रवि गंभीर छवि रखने वाले चिकित्सक हैं. मेडिकल कॉलेज के शिशु रोग विभाग के अध्यक्ष हैं.  जब वे खुद कह रहे हैं कि वेंटिलेटर ठीक नहीं कराने की वजह से दर्जन भर से ज्यादा बच्चे मरे तो इसे सामान्य मौत क्यों माना जाए? क्यों नहीं इसे एक किस्म की हत्या माना जाए!

इस इलाके में बच्चों की मौतों का आंकड़ा जिस समय अपना शिखर छू रहा था उस दौरान राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सेवा यात्रा पर निकलने की तैयारी और उसके बाद यात्रा पर थे. नीतीश की यात्रा का उद्देश्य बड़ा है, पहले से तय है, इसलिए इस ‘छोटे’ उद्देश्य के लिए खुद गया पहुंचना उन्हें उचित नहीं लगा होगा. हां, स्वास्थ्य मंत्री अश्विनी चौबे जरूर दो बार गया पहुंचे. उनके गया पहुंचने का क्या फायदा हुआ, यह अभी कोई नहीं बता सकता. हालांकि उनका कहना था कि सरकार इस मामले को गंभीरता से ले रही है  इसीलिए वे गया आए हैं. चौबे का कहना था, ‘शीघ्र ही सरकार व्यापक तौर पर पांच करोड़ बच्चों को टीकाकरण का फायदा पहुंचाएगी और इस बार बीमारी से जो बच्चे विकलांग हो गए हैं उनके पुनर्वास का भी इंतजाम होगा. पूरे प्रदेश में इंसेफलाइटिस का टीका पांच करोड़ बच्चों को लगेगा.’

यह भविष्य की योजना है. फिलहाल गया क्षेत्र में टीकाकरण का आंकड़ा यह है कि 13 लाख बच्चों में से यहां सिर्फ 1,18,809 बच्चों को ही टीका दिया जा सका है. जब मंत्री कह रहे हैं और सरकार गंभीर है तो संभव है कि विकलांग हुए बच्चों का पुनर्वास भी हो जाए लेकिन आने वाले दिनों में यह संकट और बढ़ेगा. डॉ रवि कहते हैं, ‘जिन्हें एक बार इंसेफलाइटिस हो गया, उन बच्चों को जीवन भर कई किस्म की विकलांगता के साथ ही जिंदगी गुजारनी होगी. और जो इस वायरस की चपेट में एक बार आ गए वे अगर इंसेफलाइटिस से बचेंगे भी तो 25-30 अलग किस्म की बीमारियों से उन्हें जूझना होगा. इन बीमारियों में सेरेब्रल मलेरिया, टीबी, पोलियो, चेचक आदि हैं.’

घटना की व्यापकता को देख कर प्रधानमंत्री कार्यालय की टीम भी गया पहुंची. गया में डॉक्टरों की केंद्रीय टीम भी पहुंची, लेकिन वे नहीं पहुंचे जिन्हें सबसे पहले पहुंचना चाहिए था. अपने इलाके की मौत की खोज-खबर लेने में मगध क्षेत्र के जनप्रतिनिधि नीतीश से भी ज्यादा व्यस्त निकले. गया जिले के अंतर्गत आने वाली दस विधानसभा सीटों में से फिलहाल नौ पर एनडीए का कब्जा है. इन नौ में दो मंत्री हैं- प्रेम कुमार और जीतन राम मांझी. प्रेम कुमार गया के विधायक हैं और शहरी विकास मंत्री है. जीतनराम मांझी अनुसूचित जाति के मामलों को देखते हैं. बिहार विधानसभा अध्यक्ष उदयनारायण चौधरी भी इसी जिले से जीतकर विधानसभा पहुंचते हैं. प्रेम कुमार अक्सर कई-कई किस्मों के काम लेकर गया आते रहते हैं, लेकिन इंसेफलाइटिस के कहर के दौरान वे पटना से गया के बीच की लगभग 100 किलोमीटर की दूरी तय नहीं कर सके. जीतन राम मांझी पूरे प्रदेश की अनुसूचित जातियों का मामला देखते रहे हैं, लेकिन अपने इलाके में काल का शिकार बन रहे अनुसूचित जाति के बच्चों की खबर लेने की फुर्सत उन्हें नहीं रही. उदयनारायण चौधरी विधानसभा अध्यक्ष हैं, सदन के सत्र की अवधि के बाद इतनी फुर्सत तो रहती ही होगी कि एक दिन का समय निकाल पहुंच सकें, लेकिन वे भी नहीं आए.

जिम्मेदार लोगों की बेरुखी का असर यह रहा कि केंद्रीय टीम, पीएमओ से आई टीम और राज्य के स्वास्थ्य मंत्री तो गया मेडिकल कॉलेज पहुंचते रहे लेकिन यहां की जिलाधिकारी वंदना प्रेयसी ने कॉलेज में जाकर एक बार भी व्यवस्था देखने की जहमत नहीं उठाई. डीएम नहीं गईं तो कमिश्नर के वहां जाने की उम्मीद क्यों हो. गया में रहने वाले समाजसेवी-संस्कृतिकर्मी संजय सहाय कहते हैं, ’10 में से नौ सीटों पर जिस दिन सत्तारूढ़ गठबंधन का कब्जा हुआ था उसी दिन यह साफ हो गया था कि अगले चुनाव तक जनता के सवाल हाशिये पर रहेंगे, क्योंकि कोई विरोध का स्वर ही नहीं रहाे. अब वही हो रहा है.’यह तो शासन-प्रशासन ने रिकाॅर्ड कायम किया. इससे ज्यादा शर्मनाक पहलू दूसरा है. गया विष्णु और बुद्ध की नगरी है. गयावालों को पालनहार विष्णु की नगरी होने पर अभिमान है. मृत्यु से ही जीवन की सीख लेकर ज्ञान प्राप्ति करने पहुंचे बुद्ध से जुड़ाव का भी. विष्णु के नाम पर पितृपक्ष मेले के समय और कालचक्र पूजा के समय बोधगया में 200 से अधिक संस्थाएं खड़ी दिखती हैं. खिलाने-पिलाने से लेकर धर्मशाला वगैरह उपलब्ध कराने के नाम पर. अन्य प्रकार के उपक्रमों के साथ भी. लेकिन धर्म की इस जुड़वां नगरी के अधिकांश समाजसेवियों को पिछले तीन माह से जारी अमूमन हर रोज की एक मौत ने मानवीय धर्म निबाहने को कतई प्रेरित नहीं किया. अंबेडकर के नाम पर गठित एक अचर्चित संस्था ने जरूर कुछ दिनों पहले प्रदर्शन आदि करके मौत का मुआवजा और विकलांग हुए बच्चों के पुनर्वास की मांग की थी.

पानी पर काम करने वाले गया के प्रभात शांडिल्य कहते हैं, ‘यहां समाजसेवा या तो दिखावे की होती है या दोहन की. धर्म और धन के बीच मानवीय सरोकार नहीं रहता.’ शांडिल्य कहते हैं कि कम लोग जानते हैं कि गया के ही जागेश्वर प्रसाद खलिश ने इस शेर को रचा था-

बरबाद गुलिस्तां करने को, बस एक ही उल्लू काफी है. हर शाख पे उल्लू बैठा है, अंजामे गुलिस्तां क्या होगा…

खलिश ने शायद बहुत पहले ही गयानगरी में कई शाखों पर बैठे रहने वाले उल्लुओं को देख िलया होगा.गया में दो माह पहले लगे पितृपक्ष मेले की खुमारी उतर गई है. अब बोधगया में कालचक्र पूजा की तैयारी जोरों पर है. उम्मीद है कि इस बार यहां लगभग ढाई लाख देशी-विदेशी मेहमान पूजा देखने पहुंचेंगे. करीबन 200 से अधिक संस्थाएं कालचक्र पूजा के जरिए कमाई का चक्र पूरा करने में तन्मयता से लगी हुई हैं. भुखमरी, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि के नाम पर फंड की फंडेबाजी का खेल परवान चढ़ रहा है.

कालचक्र के आयोजन के बहाने अपने-अपने सेवा कार्य को दिखाने में लगे कथित समाजसेवियों को काल के गाल में समा रहे अपने पड़ोस के बच्चों के लिए समय नहीं मिला. सरकार को कोसने से पहले इस पहलू पर भी गौर करना होगा.

बंटवारा या बंटाधार?

देश के कई हिस्सों की तरह उत्तर प्रदेश में भी इन दिनों राज्य के बंटवारे की फिजा गरमाई हुई है. लेकिन यहां की परिस्थितियां अन्य प्रदेशों से भिन्न हैं. यहां कोई बड़ा भावनात्मक जनउभार नहीं है. बाकी क्षेत्रों में जहां जनता सड़कों पर है वहीं उत्तर प्रदेश में सिर्फ नेता और राजनीतिक पार्टियां ही बंटवारे की लड़ाई लड़ रहे हैं. वीरेंद्रनाथ भट्ट का आकलन

पूरे प्रदेश में नए राज्य के लिए न कहीं धरना हो रहा है न प्रदर्शन न ही अनशन. फिर भी उत्तर प्रदेश को बांटने का प्रस्ताव यहां की विधानसभा ने पारित कर दिया है. इतने महत्वपूर्ण फैसले पर विधानसभा में कोई बहस तक नहीं हुई और मात्र तीन मिनट में ही बंटवारे का प्रस्ताव पारित कर दिया गया. यह उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति की बानगी है जिसने हवा में प्रदेश को बांटने का मुद्दा खड़ा किया है. विपक्ष का आरोप है कि मायावती ने अपने पांच वर्ष के कुशासन, भ्रष्टाचार और ध्वस्त कानून-व्यवस्था से जनता का ध्यान बांटनेे की नीयत से राज्य के बंटवारे का खेल खेला है.
विपक्ष मायावती पर सीधा हमला करने की बजाए बंटवारे के तौर-तरीकों पर सवाल उठा रहा है. कांग्रेस और भाजपा इस प्रस्ताव का सीधा विरोध करने से बचते हुए राज्य पुनर्गठन आयोग बनाने की मांग कर रहे हैं.

राजनीति के कई जानकारों का पहली नजर में एक ही मत सामने आता है कि राज्य बंटवारे का प्रस्ताव जिस अफरा-तफरी में पारित किया गया है उसके पीछे मुख्यमंत्री मायावती की मंशा वह नहीं है जो ऊपर से दिखती हैै. प्रदेश के एक पूर्व मुख्य सचिव का कहना है कि राज्य का बंटवारा भ्रष्टाचार और कुशासन का विकल्प नहीं हो सकता. यदि बसपा को प्रदेश के विकास व जनता की भलाई की ही चिंता है तो उसे राजनीतिक, प्रशासनिक व न्यायिक व्यवस्था में सुधार के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए ताकि व्यवस्था पारदर्शी व जनता के प्रति उत्तरदायी बने. इस लिहाज से बंटवारे का यह शिगूफा सरकार की अपनी राजनीतिक और प्रशासनिक अक्षमता पर परदा डालने की कोशिश में उठाया गया कदम है.

अक्टूबर, 2007 में कांशीराम की पहली पुण्यतिथि के मौके पर लखनऊ में एक विशाल रैली को संबोधित करते हुए मायावती ने पहली बार उत्तर प्रदेश के बंटवारे का जिक्र किया था. लेकिन तब उन्होंने एक शर्त रखी थी कि उनकी सरकार उत्तर प्रदेश विधानसभा में राज्य के बंटवारे का प्रस्ताव पारित कर सकती है बशर्ते केंद्र सरकार इस संबंध में अपनी सहमति दे दे. लेकिन 21 नवंबर को विधानसभा से प्रस्ताव पास कराने के दौरान मायावती ने यह नहीं बताया कि क्या केंद्र सरकार ने उनके प्रस्ताव पर अपनी सहमति दे दी है या वह संसद में उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन संबंधी आयोग बनाने पर सहमत है.विधानसभा में प्रस्ताव पेश करने के दौरान मायावती ने कहा, ‘उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन में राज्य सरकार की कोई भूमिका नहीं है. इसके लिए केंद्र सरकार और राज्य की विपक्षी पार्टियों को एकमत होना पड़ेगा.’ इस तरह से मायावती ने एक साथ कांग्रेस और सपा दोनों के पाले में गेंद डालकर चुनावी लाभ लेने की कोशिश की और विरोध करने की हालत में सपा और कांग्रेस की फजीहत होने की जमीन भी तैयार कर दी है.

यह सभी को पता है कि नया राज्य बनाने के लिए विधानसभा में प्रस्ताव पास कराना राज्य सरकार की संवैधानिक बाध्यता नहीं है. राज्य के गठन का अधिकार संविधान में सिर्फ केंद्र सरकार को दिया गया है. ऐसे में मायावती के प्रस्ताव की चुनावी लाभ के इतर और क्या मंशा हो सकती है? और यदि उनकी नीयत साफ है तो जिस केंद्र सरकार को वे हर आंधी-पानी से बचाती आई हैं उस पर पांच साल में राज्य के पुनर्गठन का दबाव उन्होंने क्यों नहीं डाला? खैर प्रस्ताव पारित करवाने के साथ ही मायावती ने साफ कर दिया कि भाजपा, सपा व कांग्रेस उत्तर प्रदेश के विभाजन के खिलाफ हैं, ये सभी पार्टियां उत्तर प्रदेश और यहां की जनता का विकास होते हुए नहीं देखना चाहतीं.

राज्य के गठन का अधिकार संविधान में सिर्फ केंद्र सरकार को है. ऐसे में मायावती के प्रस्ताव की चुनावी लाभ के इतर क्या मंशा हो सकती है?

इधर बंटवारे का प्रस्ताव आने से उनकी अपनी पार्टी में थोड़ा सुकून का माहौल दिखा है. पिछले लगभग हर हफ्ते लोकायुक्त द्वारा बसपा मंत्री और विधायकों को भ्रष्टाचार संबंधी नोटिस दिए जाने से परेशान बसपा नेता बंटवारे के शिगूफे के बाद कुछ आश्वस्त नजर आ रहे हैं. बसपाइयों का मानना है कि बहन जी ने बंटवारे का प्रस्ताव विधानसभा में पास करा कर बसपा के विरोधियों को चारों खाने चित्त कर दिया है.

हालांकि बसपा बंटवारे को राजनीतिक लाभ का मुद्दा न मानकर विचारधारा का सवाल मानती है. उसके मुताबिक बाबा साहब अंबेडकर ने 1955 में उत्तर प्रदेश को तीन राज्यों में बांटने का सुझाव दिया था लेकिन कांग्रेस ने अपने राजनीतिक हितों के कारण इसे नकार दिया था. वैचारिकता के तर्क को खारिज करते हुए राजनीतिक टीकाकार डॉ प्रमोद कुमार कहते हैं, ‘डाॅ अंबेडकर ने यह कब कहा था कि नए राज्यों के गठन का एलान ऐन चुनाव से पहले करो. यदि बसपा डॉ अंबेडकर की नीतियों और विचारों में इतनी ही गहरी आस्था रखती है तो उसे मूर्तियों, पार्कों व स्मारकों पर पांच साल लुटाने से पहले उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन का काम ही करना चाहिए था.’ उनका यह भी कहना है कि उत्तर प्रदेश में मायावती के पिछले पांच साल के कारनामों को देखते हुए कौन इस बात पर विश्वास करेगा कि राज्य के बंटवारे से जनता का हित होगा.

मगर राजनीतिक लाभ की बातों को खारिज करते हुए जेएनयू के अध्यापक डॉ विवेक कुमार पूछते हैं, ‘1955 में राज्यों के पुनर्गठन का आधार क्या था? औपनिवेशिक मानसिकता वाले तत्कालीन सत्ताधीशों ने मनमाने तरीके से राज्य बना दिए. पुनर्गठन के नाम पर नवाब, अवध के ताल्लुकेदार, पश्चिम के रूहेले, बुंदेलखंड के बुंदेले, जमींदारों और रैयतवारों सभी को एक राज्य में ठूंस दिया गया.’ डॉ कुमार उत्तर प्रदेश के वर्तमान स्वरूप को कांग्रेस के हितों का पोषक मानते हैं. उनके मुताबिक तीन पहाड़ी ब्राह्मणों – गोविंद बल्लभ पंत, नारायण दत्त तिवारी और हेमवती नंदन बहुगुणा – को कांग्रेस ने इतनी विविधताओं वाले राज्य के ऊपर थोप दिया जिसका खामियाजा प्रदेश आज भुगत रहा है.

राज्य के बंटवारे के समर्थकों के अपने तर्क हैं. गिरी विकास अध्ययन संस्थान के निदेशक डॉ एके सिंह कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश को एक दिन तो बंटना ही है, चाहे आज हो या पांच साल बाद. उत्तर प्रदेश बेडौल है, इसका बंटवारा होना चाहिए, यह अहसास पं जवाहर लाल नेहरू को भी था लेकिन कांग्रेस ने अपने तात्कालिक हितों के चलते इसे नहीं होने दिया. 1955 में गठित राज्य पुनर्गठन आयोग के सदस्य पणिक्कर ने तो विरोध में मत भी दिया था. वे उत्तर प्रदेश के तीन हिस्सों के बंटवारे के पक्ष में थे.’

मगर नए राज्यों के गठन का आर्थिक पहलू भी है. नई सरकारों पर जबरदस्त वित्तीय बोझ आएगा जिसका खामियाजा अंततः जनता को भुगतना पड़ेगा. डाॅ सिंह का कहना है कि यह बड़ा मुद्दा नहीं है. यदि वर्तमान इलाहाबाद हाई कोर्ट में 140 जज हैं तो बंटवारे के बाद प्रत्येक राज्य में 35 जज आएंगे. थोड़ा-बहुत खर्च बढ़ता है तो यह बेजा नहीं होगा.

लेकिन सिंह के तर्क पूर्व में कई बार धराशायी हो चुके हैं. उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड के बंटवारे के दौरान भी प्रशासनिक अधिकारियों और कर्मचारियों के आनुपातिक बंटवारे का प्रावधान था लेकिन उत्तराखंड सरकार ने उत्तर प्रदेश के कर्मियों को अपने यहां समायोजित करने से इनकार करके नए कर्मचारी नियुक्त किए. प्रशासनिक सेवा में भी नए लोगों की भर्ती हुई. ऐसा इसलिए हुआ कि राज्य सरकार की अपनी राजनीतिक मजबूरी है. नियुक्तियों और तबादलों का अर्थशास्त्र भी इसका बड़ा कारक रहा था. नतीजा आज भी उत्तर प्रदेश के कई विभागों में जरूरत से ज्यादा अधिकारी हैं और उत्तराखंड में धड़ाधड़ नई नियुक्तियां हो रही हैं. यही समस्या बिहार और झारखंड के संदर्भ में भी खड़ी हुई थी.

वर्तमान उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में कुल आबादी का 37 प्रतिशत निवास करता है. पूर्वांचल का हिस्सा 40 प्रतिशत है व मध्य में 18 प्रतिशत आबादी है जबकि बुंदेलखंड में मात्र 5 प्रतिशत लोग आते हैं. मजे की बात है कि बंटवारे के बाद बुंदेलखंड के अलावा बाकी तीनों क्षेत्रों के आर्थिक रूप से सक्षम, समृद्ध व आत्मनिर्भर होने की संभावना है. मगर जमीनी हालत यह हैं कि इन तीनों ही क्षेत्रों में बंटवारे को लेकर कोई जनांदोलन नहीं है. ले-देकर बुंदेलखंड में आंदोलन की सुगबुगाहट रहती है लेकिन उसमें भी अगर मध्य प्रदेश के हिस्से वाला बुंदेलखंड शामिल नहीं हुआ तो अलग बुंदेलखंंड बनने-न बनने का कोई मतलब नहीं रह जाएगा.

खनिज संपदा से संपन्न झारखंड या फिर गोवा जैसे छोटे राज्यों की राजनीतिक अस्थिरता और विराट भ्रष्टाचार के उदाहरण हमारे सामने हैं. झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा तो काफी अरसे से जेल में भी हैं और राज्य अभी भी अस्थिरता के कुचक्र से बाहर निकलने का साहस नहीं जुटा पा रहा है.
जानकारों का यह भी मानना है कि बंटवारे से उत्तर प्रदेश की देश की राजनीति में हैसियत कम हो जाने के सवाल को यदि दरकिनार कर भी दें तो भी यह सवाल तो बना ही रहेगा कि अगर कोई हिस्सा पिछड़ा और अविकसित है तो उसके लिए जिम्मेदार हमारा अक्षम राजनीतिक नेतृत्व और नकारा प्रशासनिक मशीनरी ही तो है. राज्य का चार हिस्सों में बंटवारा इसका हल कैसे हो सकता है.

राज्य के पिछड़े इलाकों के विकास की भरपाई केवल बंटवारे का चलन शुरू करके नहीं की जा सकती. इसे शुरू करना आसान है लेकिन रोकना मुश्किल. इस तरह की क्षणिक अवसरवादिता का अंत कहां होता है? कम से कम मायावती जी को तो नहीं पता है.

मनरेगा की महाभारत

मनरेगा को लेकर इन दिनों केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार के बीच तकरार हो रही है. हाल ही में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने प्रदेश में इस योजना में हो रही गड़बड़ियों की शिकायत करते हुए मुख्यमंत्री मायावती को चिट्ठी लिखी तो मायावती ने आरोप लगाया कि चुनावों से ठीक पहले उन्हें सिर्फ उत्तर प्रदेश का मनरेगा दिखाई दे रहा है. आरोप-प्रत्यारोप के इस खेल में किसी को इससे कोई मतलब नहीं कि भ्रष्टाचार का पर्याय बनती जा रही मनरेगा की खामियां कैसे दूर की जाएं. जयप्रकाश त्रिपाठी की रिपोर्ट

भ्रष्ट अधिकारियों, कर्मचारियों, बाहुबलियों और नेताओं का गठजोड़ मनरेगा को किस कदर खोखला कर रहा है, इसकी बानगी तहलका को उन जिलों में देखने को मिली जो इस महत्वाकांक्षी योजना में चल रही अनियमितताओं की वजह से पिछले कुछ समय से लगातार सुर्खियों में रहे हैं.  

संतकबीर नगर

उत्तर प्रदेश के ग्राम विकास विभाग की ओर से मई, 2011 में कराई गई जांच में संतकबीरनगर में करोड़ों का घोटाला उजागर हुआ था. घोटाले का ताना-बाना बुनने में सत्तापक्ष के विधायक व करीबियों से लेकर अधिकारी व कर्मचारी तक शामिल हैं जिन्होंने सरकारी धन की लूट के लिए नियम-कानूनों को जैसे चाहा तोड़-मरोड़ लिया.

संतकबीर नगर का एक गांव है खजुरी. यह बसपा विधायक ताबिश खां का गांव भी है. यहां की प्रधान खुद विधायक की पत्नी शायदा खातून हैं. गांव में एक नाली के निर्माण के लिए 3,37,374 रुपये का एस्टीमेट तैयार किया गया. नियम के अनुसार दो लाख से चार लाख तक के काम का प्रारूप ब्लाॅक के अवर अभियंता द्वारा बनाए जाने का नियम है. इसके बावजूद तकनीकी सहायक शिवापति त्रिपाठी ने पूरे कार्य का प्रारूप तैयार कर दिया. जांच अधिकारी जब गांव में नाली के निर्माण के सत्यापन के लिए पहुंचे तो प्रधान मौके पर नहीं पहुंचीं बल्कि विधायक के भाई व उनके कुछ लोगों ने अधिकारियों को स्कूल के पास बनी एक नाली को मनरेगा के तहत बना हुआ दिखाया. लेकिन विधायक के भाई की बातों की पोल गांव के ही कुछ लोगों ने खोल दी. गांव के निवासी व पूर्व सूबेदार अब्दुल गनी ने जांच दल के अधिकारियों को बताया कि यह नाली तो 2007-08 में बनी थी जो कई जगहों से टूट गई थी. गनी का कहना था कि उसकी बस मरम्मत कर दी गई और उसे ही नया बना हुआ बता दिया गया. उक्त नाली के निर्माण के लिए कागजों में 10 राजमिस्त्री तथा 35 श्रमिकों को आठ दिन तक काम पर दिखाया गया. काम के लिए 2,83,149 रुपये की सामग्री की खरीद दिखाई गई. इसमें भी नियमों का पालन नहीं हुआ. यानी न तो कोई टेंडर प्रक्रिया हुई न ही कोटेशन मांगे गए.

ऐसा क्यों हुआ इसका जवाब खुद जांच दल के कर्मचारियों ने लिखित बयान व शपथपत्र देकर दिया जो काफी चौंकाने वाला है. कनिष्ठ लेखा लिपिक विजय कुमार श्रीवास्तव ने कहा कि काम के लिए ईंट की सप्लाई जिस भट्टे से हुई वह विधायक ताबिश खां का है जो उनके पिता शाकिर अली के नाम पर है. विधायक के भट्टे मेसर्स जनता ब्रिक फील्ड से 1,80,100 रुपये की ईंट उक्त निर्माण के लिए खरीदी गई. लिपिक ही नहीं आरईएस (ग्रामीण अभियंत्रण सेवा) के अवर अभियंता गंगा प्रसाद श्रीवास्तव ने भी जांच अधिकारियों को शपथ पर बयान दिया कि नाली निर्माण में उन्होंने न तो एस्टीमेट बनाया और न ही तकनीकी मंजूरी दी. कार्य के भुगतान के लिए जो मांग पत्र है उनकी संस्तुति विधायक के भाई ने दबाव डालकर करवाई.

विधायक के ही गांव में मिट्टी खडं़जा कार्य तथा पुलिया निर्माण के लिए कागजों में छह लाख 62 हजार रुपये का एस्टीमेट दर्शाया गया है. इसमें सामग्री अंश पांच लाख 33 हजार 717 रुपये, श्रमांश 1,23,757 रुपये तथा फोटोग्राफी व साइनबोर्ड के मद में 5000 रुपये का खर्च दिखाया गया है. काम का एस्टीमेट साथा ब्लॉक के आरईएस अवर अभियंता द्वारा निर्मित दिखाया गया है. लेकिन आरईएस अवर अभियंता गंगा प्रसाद श्रीवास्तव ने जांच टीम को बयान दिया कि एस्टीमेट पर उनके हस्ताक्षर ही नहीं हैं. उन्होंने आगे बताया कि एस्टीमेट पर हस्ताक्षर न होते हुए भी उन्होंने कार्य के भुगतान की संस्तुति विधायक के भाई व उनके लोगों के दबाव में आकर की. कागजों में खड़ंजे के काम के लिए विधायक के ही भट्टे से 70,000 ईंटें मंगाई गई जबकि तकनीकी मूल्यांकन आख्या में उक्त कार्य के लिए महज 44,965 ईंटें ही अंकित की गई हैं. उधर, ग्रामीणों ने जांच दल को बताया कि जो खड़ंजा बनाया गया है वह पांच साल पुराना है. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर काम के लिए जो ईंटें कागजों पर मंगाई गईं वे आखिर गईं कहां?

सरकारी धन की लूट के लिए कैसे-कैसे हथकंडे अपनाए जाते हैं, यह देखकर जांच दल भी हैरान रह गया. जांच दल की रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि खडंजे के एक कार्य के लिए दो-दो पत्रावलियां तैयार कर ली गईं. इनमें से एक पत्रावली संख्या 53 के लिए एस्टीमेट 3.14 लाख तो दूसरी पत्रावली संख्या 12 के लिए 6.99 लाख रुपये का एस्टीमेट तैयार किया गया. यह घोटाला उजागर होने पर अवर अभियंता श्रीवास्तव ने अधिकारियों को बताया कि बीडीसी आदि रात 10 बजे घर पर आकर भुगतान की संस्तुति के लिए हस्ताक्षर करने का दबाव बनाते थे. अधिकारियों की लाचारी है या फंसने के बाद का डर कि बयान में श्रीवास्तव ने जांच करने गए अधिकारियों से निवेदन किया कि उन्हें मंडलीय कार्यालय से संबद्ध करा दिया जाए. उनका कहना था कि नेता उन्हें जबरन फील्ड में लगवा देते हैं क्योंकि वे नेताओं और दबंगों का विरोध नहीं कर पाते.

छह माह के बाद अभी तक किसी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करना तो दूर कठोर कार्रवाई तक नहीं हुई है

मनरेगा के एक काम के लिए मस्टर रोल में 1.44 लाख का भुगतान दिखाया गया है. जबकि तकनीकी जांच में उक्त कार्य महज 35 हजार 250 रुपये का ही पाया गया. उक्त काम को कराने की जिम्मेदारी जिस पंचायत सेक्रेटरी राजमन की थी उसका बयान यह बताने के लिए पर्याप्त है कि किस तरह सत्तापक्ष और बाहुबल के दबाव में जिले में करोड़ों की विकास योजनाओं को पलीता लगाने का काम किया गया. अधिकारियों को दिए लिखित बयान में राजमन ने कहा है कि वे ऐसे 10 कार्यों के प्रभारी रहे है जिनकी कार्ययोजना विधायक ताबिश खां के कहने पर बनाई गई और विधायक के आदमियों ने ही सभी काम करवाए. राजमन ने माना कि कानून के हिसाब से उन्हें ही सभी कार्य कराने चाहिए थे लेकिन विधायक ने ही कहा कि उनके आदमी सभी कार्य कराएंगे.

ये उदाहरण तो एक बानगी भर हैं. इनके अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस जिले में जांच दल ने नरेगा के कई कामों में लाखों का घोटाला उजागर किया है.शासन को भेजी गई रिपोर्ट में अधिकारियों ने सरकारी धन की लूट और दुरुपयोग को देखते हुए आपराधिक मामला दर्ज करने और जांच पुलिस विभाग की किसी स्वतंत्र एजेंसी से कराए जाने की मांग भी की है. लेकिन छह माह का समय बीत जाने के बावजूद अभी तक किसी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करना तो दूर कठोर कार्रवाई तक नहीं हुई है.

बलरामपुर व गोंडा

बलरामपुर व गोंडा में मनरेगा की लुटिया डुबाने का काम नेताओं व बाहुबलियों की जगह आईएएस व पीसीएस अधिकारियों ने किया. अधिकारियों ने खरीद-फरोख्त में न तो मानकों का ध्यान रखा न ही मूल्य का. इसका खुलासा संयुक्त विकास आयुक्त, देवीपाटन मंडल बलिराम की रिपोर्ट में होता है. मनरेगा के तहत ग्राम पंचायतों में रोजगार सेवकों के बैठने के लिए कुर्सी-मेजों की आपूर्ति करने हेतु परियोजना निदेशक ने अप्रैल, 2008 को यूपी उपभोक्ता सहकारी संघ लिमिटेड को आदेश दिया था. रिपोर्ट में कहा गया है कि यह काम बिना किसी टेंडर प्रक्रिया के किया गया. फर्म से 1352 कुर्सियां व 338 मेजें ली गईं. सप्लाई करने वाली फर्म ने अपने कोटेशन में कहीं भी सामान का मानक एवं विशिष्टियां नहीं लिखी थीं. संयुक्त विकास आयुक्त ने लिखा है, ‘मेरे द्वारा स्वयं फर्म की जांच करने पर यह तथ्य भी संज्ञान में आया है कि फर्म द्वारा फर्नीचर स्वयं नहीं बनाया जाता. इससे स्पष्ट है कि फर्म किसी और फर्म से फर्नीचर की खरीद करती है और अपना कमीशन जोड़ कर फिर आपूर्ति करती है. अतः ऐसी फर्म से क्रय किया जाना उचित एवं नियमानुसार नहीं है. कुर्सी-मेज की आपूर्ति के लिए नोटशीट पर मुख्य विकास अधिकारी की संस्तुति पर जिलाधिकारी ने 15 जनवरी, 2008 को स्वीकृति प्रदान की थी.’

स्वीकृति के बाद फर्म ने प्रतिकुर्सी 2500 तथा प्रतिमेज 6900 रुपये के हिसाब से आपूर्ति की. मूल्यांकन टीम ने जांच में पाया कि एक कुर्सी का बाजार मूल्य मात्र 1500 रु तथा मेज का 2928 रुपये है. मतलब साफ है कि एक कुर्सी पर अधिकारियों ने एक हजार रुपये तथा एक मेज पर 3972 रुपये अधिक भुगतान किया है. इस प्रकार 1352 कुर्सियों पर 13 लाख 52 हजार रुपये तथा 338 मेजों पर 13 लाख 42 हजार 536 रुपये अधिक व्यय किया गया है. जांच अधिकारी ने लिखा है कि ऐसे में आपूर्ति आदेश निर्गत करने व अनुमोदन देने वाले तत्कालीन जिलाधिकारी सच्चिदानंद दुबे, सीडीओ हरि प्रसाद तिवारी व प्रकरण से जुड़े सभी कर्मचारी दोषी हैं. गौरतलब है कि सीडीओ तिवारी की मृत्यु हो चुकी है जबकि तत्कालीन जिलाधिकारी दुबे को दोषी पाए जाने के बाद भी सरकार ने दंडित करने की बजाय जिलाधिकारी बना कर दूसरे जिले में स्थानांतरित कर दिया.

कुर्सी-मेज ही नहीं, कैनवॉस मूवेवल वर्कशेड में भी जमकर लूट की गई. साइज अंकित किए बगैर 24,900 रुपये प्रति वर्कशेड के हिसाब से 667 ग्राम पंचायतों को फर्म ने सामान सप्लाई किया. इसमें तीन प्रतिशत भाड़ा व व्यापार कर अलग से जोड़ा गया. जांच अधिकारी ने वर्कशेड में प्रयुक्त सामानों का मदवार विवरण तैयार करके सत्यापन कानपुर के बाजार से कराया जिसके हिसाब से एक वर्कशेड की लागत 12,348 रुपये आती है. इस आकलन के हिसाब से प्रतिवर्क शेड 15,664 रुपये या कहें तो कुल 667 वर्कशेडों पर अधिकारियों ने एक करोड़ से भी ज्यादा रुपये बिना सोचे-समझे फर्म पर दरियादिली दिखाते हुए न्योछावर कर दिए.

मनरेगा मजदूर भी अपनी सुरक्षा में बंदूकधारी लेकर चलते हों, यह जानकर हैरानी होना स्वाभाविक है

बलरामपुर से सटे हुए जिले गोंडा के अधिकारी तो और भी दरियादिल निकले. गोंडा में मनरेगा के अंतर्गत काम करने वाली महिलाओं के बच्चों के लिए 37 लाख 41 हजार 700 रु के खिलौने खरीद लिए गए. बिना टेंडर प्रक्रिया के इस जिले में भी काम उत्तर प्रदेश उपभोक्ता सहकारी संघ लिमिटेड को दिया गया. जब जांच हुई तो यह भी पता चला कि तत्कालीन सीडीओ राजबहादुर ने डीएम मुक्तेशमोहन मिश्र से नियमानुसार स्वीकृति प्राप्त नहीं की और न ही फर्म को भुगतान करते समय चेक पर डीएम के हस्ताक्षर ही कराए. जबकि भुगतान डीएम व सीडीओ दोनों के संयुक्त हस्ताक्षर से होना चाहिए था. जांच में सीडीओ राजबहादुर के दोषी पाए जाने के बाद उन्हें बस इतना दंड मिला कि उन्हें भी दूसरे जिले में स्थानांतरित कर दिया गया. ऐसी स्थिति तब है जब मुख्यमंत्री ने स्वयं प्रेसवार्ता के दौरान 30 मार्च, 2010 को गोंडा के सीडीओ के निलंबन का फरमान सुना दिया था.

कुशीनगर

माननीयों और वीआईपी लोगों की सुरक्षा में बंदूकधारियों को चलते तो आपने देखा होगा लेकिन मनरेगा मजदूर भी अपनी सुरक्षा में बंदूकधारी लेकर चलते हों, यह जानकर हैरानी होना स्वाभाविक है. लेकिन उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले में ऐसा हुआ है. मजेदार बात यह है कि मनरेगा मजदूरों की सुरक्षा में जो लोग आए उनका भुगतान भी मनरेगा के धन से ही किया गया. बात जिले के खड्डा ब्लॉक के शाहपुर गांव की है, जहां सात मई, 2008 से 19 मई, 2008 तक 36 मजदूरों का नाम मस्टर रोल में अंकित किया गया है. जिले में मनरेगा के कार्यों में हुई धांधली की शिकायत पर जब राज्य सरकार की ओर से रिटायर्ड आईएएस अधिकारी विनोद शंकर चौबे जिले में गए तो उन्होंने यह हैरतअंगेज कारनामा अपनी रिपोर्ट में अंकित किया.

मस्टर रोल के सत्यापन से इस बात का भी खुलासा हुआ कि जिन 36 मजदूरों के नाम दर्ज हैं उनमें से कोई भी गांव का रहने वाला नहीं है. हरिश्चंद्र नाम के व्यक्ति के साथ तीन-चार अन्य लोगों ने मजदूरी भले ही न की हो लेकिन उन्हें कागजों में शस्त्र के साथ मजदूरों की सुरक्षा में तैनात दिखाते हुए भुगतान भी किया गया.

अधिकारियों ने लूट-खसोट करने के लिए नियम-कानूनों को तार-तार किया. 23 नवंबर, 2011 को एक बैठक के सिलसिले में जिले के सीडीओ लखनऊ गए थे. सीडीओ की अनुपस्थिति में डीडीओ वीपी मिश्र ने 234 परियोजनाओं को स्वीकृति प्रदान कर दी. इनकी अनुमानित लागत 1397.57 लाख रु थी. डीडीओ ने हर जगह जहां अपने दस्तखत किए वहां पदनाम सीडीओ ही अंकित कराया. जांच अधिकारियों ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, ‘यह कोई रुटीन कार्य नहीं है, जो अधिकारी चाहे संपादित कर दे.’ सीडीओ के स्थान पर डीडीओ द्वारा करोड़ों की योजनाओं की स्वीकृति दिए जाने पर जांच दल ने लिखा है कि यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है और पूरी प्रशासनिक संस्कृति को कलंकित करता है इसलिए इसे भारी भ्रष्टाचार की संज्ञा दी जाएगी.
योजना के मद को लूट के लिए किस रास्ते निकालना है यह काम बखूबी अधिकारियों ने अंजाम दिया तो उसे लूटने का बेहतर माध्यम बना वहां का एक जनप्रतिनिधि. सरकारी कर्मचारी पंचायत सचिव उमेश चंद्र राय का बयान तो यही बताता है. राय के मुताबिक शाहपुर, भैसहा, नरायणपुर, पकड़ी आदि गांवों में नरेगा का धन जिला पंचायत सदस्य विजय कुमार अग्रवाल उर्फ मिट्ठू द्वारा सीधे जिले की ग्राम पंचायतों के लिए लाया गया. ये सभी गांव अग्रवाल के क्षेत्र के गांव हैं. पूर्व में कभी भी इन गांवों के लिए इतना धन नहीं आया. राय के शब्दों में, ‘जिला पंचायत अध्यक्ष से फोन पर अग्रवाल ही बात कराते थे और अध्यक्ष के माध्यम से प्रधान व सचिवों पर दबाव डलवाते थे.’ जिला पंचायत सदस्य के क्षेत्र के गांवों में होने वाले विकास कार्यों के बाद भुगतान के चेक फर्जी नाम से जारी करने का मामला भी जांच के दौरान उजागर हुआ. नरेगा के काम के जो चेक प्रधान के नाम से कटने चाहिए थे वे राजेश नाम से कटे हैं. पंचायत सचिव ने बयान में कहा है कि राजेश के नाम का चेक जिला पंचायत सदस्य विजय अग्रवाल ही कटवाते थे और अपने साथ ले जाते थे. शाहपुर, पकड़ी, नारायनपुर आदि गांवों में अधिकांश चेक राजेश के नाम से ही कटे हैं क्योंकि अग्रवाल के एक भाई का नाम भी राजेश ही है. हद तो तब हो गई जब राजेश नाम को सही ठहराने के लिए शाहपुर गांव की प्रधान सलहंता के पुत्र संतोष राय को राजेश बना कर खड़ा कर दिया गया. संतोष ने अधिकारियों को बताया कि स्कूल के दस्तावेजों, बैंक की पासबुक और परिवार रजिस्टर आदि में उसका नाम संतोष ही है लेकिन प्यार से सब उसे राजेश कहते हैं.

जांच अधिकारियों ने अपनी रिपोर्ट में कहा है, ‘राजेश नाम से काटे गए चेकों में आपराधिक कृत्य किया गया है और इस अपराध में राजेश नाम से चेक काटने वाले, राजेश हस्ताक्षर प्रमाणित करने वाले, प्रधान तथा पंचायत सचिव तो अपराधी हैं ही साथ-साथ जिला पंचायत सदस्य विजय अग्रवाल उर्फ मिट्ठू भी इसमें शामिल हैं.’

यह फर्म अधिकारियों की अपनी थी जिसके माध्यम से फर्जी बिलिंग के आधार पर टेंट की आपूर्ति दिखाई गई

रुपये की लूट के चक्कर में जिले के अधिकारी ये तक भूल गए कि नरेगा का धन सिर्फ गांव के विकास में ही खर्च किया जा सकता है. अधिकारियों की मिलीभगत से नरेगा के लाखों रुपये का काम नगरपालिका खड्डा में करा दिया गया. जांच दल ने जिले के सिर्फ एक ब्लाॅक का निरीक्षण किया जहां लाखों का घोटाला नजर आया, शायद पूरे जिले की जांच होती तो स्थिति कितनी भयानक निकलती इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. शायद इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए जांच अधिकारियों ने शासन को सौंपी अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि एफआईआर दर्ज करवा कर मामले की जांच सीबीसीआईडी या किसी अन्य एजेंसी से कराई जाए. लेकिन एक साल से अधिक समय बीत जाने के बावजूद न तो अभी तक किसी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज हुई है और न ही किसी एजेंसी को जांच सौंपी गई.

महो­बा

जिले में करोड़ों रुपये के टेंट घोटाले में अधिकारियों पर सरकार की ही मेहरबानी ऐसी रही कि जांच में दोषी पाए जाने के बाद उन्हें निलंबित तो किया गया लेकिन जल्द ही बहाल भी कर दिया गया. केंद्रीय रोजगार गारंटी परिषद के सदस्य संजय दीक्षित ने 2009 में महोबा का भ्रमण करके सभी 247 पंचायतों में टेंट खरीद में हुए घोटाले की शिकायत शासन से की थी. दीक्षित की शिकायत के बाद जब एसडीएम महोबा जय शंकर त्रिपाठी ने मामले की जांच शुरू की तो कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए. त्रिपाठी ने जैतपुर, पनवाड़ी और करबई ब्लाॅकों में प्रधान सहित कई लोगों के बयान लिए. इसके अतिरिक्त करबई, चरखारी एवं जैतपुरा ब्लाॅक मुख्यालय के बीडीओ और अन्य कर्मचारियों से संपर्क किया गया तो पता चला कि सभी स्थानों पर अमन इंटरप्राइजेज लखनऊ द्वारा ही नरेगा के अंतर्गत टेंट की आपूर्ति की गई है. उक्त संस्था से समस्त 247 ग्राम पंचायतों में नरेगा के तहत करीब 19 हजार रुपये प्रतिटेंट की आपूर्ति प्राप्त की गई और धनराशि के भुगतान के लिए जब-जब ब्लाॅक पर मीटिंग हुआ करती थी तब-तब संबंधित बीडीओ ग्राम पंचायत अधिकारी आदि को टेंट के भुगतान के लिए दबाव डाला करते थे. टेंट सप्लाई करने वाली संस्था के प्रतिनिधि का बयान भी कम मजेदार नहीं है. उसने जांच अधिकारी को बताया, ‘लिखित तौर पर टेंट की आपूर्ति के लिए 29 मार्च, 2008 को आदेश दिया गया लेकिन समय से आपूर्ति न हो पाने के कारण 19 मई, 2008 को आपूर्ति का आदेश निरस्त कर दिया गया. उसकी फर्म को किसी सक्षम अधिकारी द्वारा न तो टेलीफोन पर न मौखिक रूप से ही अवगत कराया गया. इस दशा में फर्म ने पूर्व में पारित आदेश के तहत ही 247 टेंट की आपूर्ति ब्लाॅक मुख्यालय पर कर दी. किसी भी बीडीओ, परियोजना निदेशक अथवा सीडीओ ने आपूर्ति न करने के संबंध में कुछ भी नहीं कहा. ऐसे में यह प्रतीत होता है कि टेंट की आपूर्ति को लेकर सहमति सबकी थी कागजों में आदेश चाहे जो भी हो.’

टेंट आपूर्ति करने वाली फर्म की जांच परियोजना निदेशक लखनऊ ने की. कागजों में फर्म का लखनऊ में जो पता बताया गया उस पर कोई फर्म मिली ही नहीं. जांच के बाद बीडीओ राजेश कुरील, डीडीओ जय राम लाल वर्मा और परियोजना निदेशक हरनारायण को निलंबित किया गया. लेकिन कुछ दिनों बाद ही ग्राम विकास मंत्री दद्दू प्रसाद की ओर से पत्र जारी किया गया कि अधिकारियों द्वारा किसी भी फर्म को कोई लिखित या मौखिक आदेश क्रय के लिए जारी नहीं किया गया है. इतना ही नहीं पत्र में लिखा गया कि अधिकारियों पर कोई भी आरोप आंशिक रूप से भी प्रमाणित नहीं हो पाया है. सवाल यह है कि जब एसडीएम, महोबा ने जांच में साफ लिखा है कि टेंट की खरीद में बीडीओ डीडीओ और परियोजना निदेशक की संलिप्तता प्रकाश में आई है क्योंकि इनकी मदद से टेंट की आपूर्ति होती रही, लिहाजा उक्त अधिकारी दोषी हैं तो सरकार तक पहुंचते-पहुंचते एडीएम की जांच रिपोर्ट में एकत्र किए गए सभी सबूत कमजोर कैसे पड़ गए.

केंद्रीय रोजगार गारंटी परिषद के सदस्य दीक्षित आरोप लगाते हैं, ‘अमन इंटरप्राइजेज नाम की जिस फर्म से टेंट की खरीद दिखाई गई है, वास्तव में वह फर्जी है जिसका खुलासा जांच में भी हो गया है.’ यह फर्म अधिकारियों की अपनी थी जिसके माध्यम से फर्जी बिलिंग के आधार पर टेंट की आपूर्ति दिखाई गई. दीक्षित का दावा है कि कई ऐसी ग्राम सभाएं भी हैं जहां टेंट की सप्लाई हुई ही नहीं. टेंट की खरीद पंचायत स्तर पर होने का नियम है. लिहाजा खरीद को लेकर कहीं अधिकारियों पर अंगुलि न उठे इसके लिए अधिकारियों ने ग्राम सभाओं से ही फर्म को चेक जारी करवाए. लेकिन पंचायतों से चेक जारी करवाने के लिए बैठकों में अधिकारियों का दबाव बनाया जाना यह साबित करता है कि जिस फर्म का कोई अस्तित्व ही नहीं है उसके भुगतान को लेकर वे चिंतित क्यों थे.

चिदंबरम पर एक और चिट्ठी वार

2जी मामले में केंद्र सरकार की मुश्किलें और बढ़ती दिख रही हैं. इसकी वजह यह है कि अब पूर्व वित्त सचिव डी सुब्बाराव द्वारा जुलाई, 2008 में लिखा गया एक पत्र सामने आया है. इसमें जो लिखा गया है उससे केंद्र और सीबीआई के लिए 2जी घोटाले में पहले से ही मुश्किलों में घिरे गृहमंत्री पी चिदंबरम का बचाव करना और मुश्किल हो गया है.

गौरतलब है कि जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करते हुए मांग की है कि इस मामले में चिदंबरम की कथित भूमिका की जांच की जाए. इसका विरोध करते हुए सीबीआई का सबसे बड़ा तर्क यह था कि स्पेक्ट्रम आवंटन के संबंध में 10 जनवरी, 2008 को तत्कालीन संचार मंत्री ए राजा ने जो आशय पत्र जारी किए  नुकसान उन्हीं से हो चुका था. इसके बाद चिदंबरम कुछ नहीं कर सकते थे क्योंकि सरकार कानूनी अनुबंधों से बंधी थी. सुप्रीम कोर्ट को दिए गए अपने लिखित जवाब में सीबीआई का कहना था, ‘यह कहना सही नहीं होगा कि प्रत्येक लाइसेंस के लिए 1,600 करोड़ रुपये हासिल करने और आशय पत्र की सभी शर्तें पूरी करने के बाद भी लाइसेंस को रद्द करने का विकल्प खुला था.’

लेकिन हाल ही में सामने आए इस नोट की मानें तो स्पेक्ट्रम की कीमतें दो हिस्सों में वसूली जा सकती थीं. नोट के शब्द हैं, ‘कानूनी और प्रशासनिक रूप से यह तर्कसंगत है कि स्पेक्ट्रम की कीमतें दो हिस्सों मंे वसूली जाएं–पहला, एक बार ही चुकाई जाने वाली एक तय राशि के रूप में जो सार्वजनिक संसाधन का इस्तेमाल निजी लाभ के लिए करने के लिए हो और दूसरा, स्पेक्ट्रम के उपयोग से होने वाले लाभ में सरकार की हिस्सेदारी के रूप में’.

यानी एक तरह से देखा जाए तो आशय पत्र जारी हो जाने के छह महीने बाद भी सरकार में इस बात को लेकर सहमति थी कि स्पेक्ट्रम की और ज्यादा कीमत वसूलना कानूनी और प्रशासनिक आधार पर पूरी तरह संभव है. लेकिन ऐसा नहीं किया गया. इसकी वजह इस पत्र के दूसरे पन्ने के पांचवें पैराग्राफ में बताई गई है- ‘ऐतिहासिक कारणों से, जीएसएम के लिए 6.2 Mhz तक और सीडीएमए के लिए 5 Mhz तक के स्पेक्ट्रम आवंटन पर कोई चार्ज नहीं वसूला जा सकता, न तो नए ऑपरेटर से और न ही पुराने ऑपरेटर से.’

इससे साफ हो जाता है कि गलती सुधारने के लिए काफी वक्त था लेकिन चिदंबरम की ऐसी कोई इच्छा नहीं थी

गौर करें कि अभी सरकार अपने बचाव में यह तर्क दे रही है कि कम कीमत में स्पेक्ट्रम आवंटन के उसके फैसले की वजह जनहित थी. लेकिन नोट में सरकार द्वारा स्पेक्ट्रम की अतिरिक्त कीमत नहीं वसूलने के पक्ष में दिया गया तर्क कहीं से भी इस बात को साबित नहीं करता. अगर ऐसा होता तो नोट में ‘ऐतिहासिक कारण’ जैसे भारी-भरकम शब्द की जगह सस्ती कीमत पर सेवाओं के व्यापक प्रसार जैसा तर्क होता.

चार जुलाई, 2008 का यह पत्र राजा, चिदंबरम और प्रधानमंत्री के बीच उसी दिन निर्धारित एक बैठक के मद्देनजर तैयार किया गया था. छह जुलाई, 2008 को एक अन्य पत्र में सुब्बाराव ने इस बात का फिर से जिक्र किया- ‘चार जुलाई, 2008 के पत्र में वर्णित मुद्दों पर प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और दूरसंचार मंत्री के साथ चर्चा हुई. इस बैठक में दूरसंचार सचिव और मैं भी उपस्थित था. इस पत्र के सभी मुद्दों पर हमारी सहमति थी.’

इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि 2001 में निर्धारित स्पेक्ट्रम की कीमतों के आधार पर आवंटन करने के ए राजा के फैसले पर प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री दोनों सहमत थे. पत्र से यह भी साफ होता है कि बैठक में स्पेक्ट्रम की नीलामी या फिर उसके बाजार मूल्य पर आवंटन जैसे मुद्दों पर कोई चर्चा ही नहीं हुई. इससे यह भी पता चलता है कि लाइसेंस की इतनी कम कीमत वसूलने के पीछे अनुबंध की बाध्यता जैसी वजह बाद में सोची गई. अगर राजा द्वारा हड़बड़ी में जारी आशय पत्र में सुधार या लाइसेंस आवंटन को रद्द करने संबंधी कोई चर्चा हुई होती तो इसका जिक्र पत्र में जरूर मिलता.  नौ जनवरी, 2008 तक यानी राजा द्वारा आशय पत्र जारी करने से ठीक एक दिन पहले चिदंबरम का सार्वजनिक विचार था कि या तो 2जी स्पेक्ट्रम की बोली लगवाई जाए या फिर बाजार मूल्य पर इसकी कीमतें निर्धारित की जाएं. लेकिन 15 जनवरी, 2008 को चिदंबरम ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा कि 10 जनवरी, 2008 को ए राजा द्वारा जारी आशय पत्र को अब खत्म मामला समझा जाए. इस घटनाक्रम में गौर करने की बात यह है कि सभी 150 लाइसेंसों का आवंटन 27 फरवरी से सात मार्च के बीच हुआ था. यानी गलती सुधारने के लिए काफी वक्त था लेकिन चिदंबरम की ऐसी कोई इच्छा नहीं थी.

अचानक हुए इस हृदय परिवर्तन पर चिदंबरम ने कोई सफाई नहीं दी है. सीबीआई द्वारा दाखिल की गई चार्जशीट में भी इस बात की कोई जानकारी नहीं दी गई कि आखिर वित्तमंत्री ने अचानक ही अपना रुख क्यों बदल लिया. इससे कई लोग हैरानी के साथ यह सवाल भी पूछ रहे हैं कि इसके बाद भी सीबीआई ने चिदंबरम से पूछताछ करना या उनका बयान रिकॉर्ड करना जरूरी क्यों नहीं समझा.

2जी आवंटन की आधिकारिक फाइल में आशय पत्र रद्द करने का विरोध करता एकमात्र कथन दूरसंचार विभाग का है. आठ फरवरी, 2008 को तत्कालीन दूरसंचार सचिव सिद्धार्थ बेहुरा ने वित्त मंत्रालय को पत्र लिखकर बताया कि 4.4 Mhz वाले स्पेक्ट्रम का आरंभिक आवंटन लाइसेंस की शर्तों का हिस्सा है. अगर इसकी कीमत वसूली जाएगी तो इससे स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को नुकसान पहुंचेगा और साथ ही वर्तमान आशयपत्र धारक कोर्ट की शरण में चले जाएंगे.  लेकिन फाइल में कहीं से भी इस बात की जानकारी नहीं मिलती कि दूरसंचार विभाग की इस आपत्ति पर चिदंबरम ने कभी गंभीरता से विचार किया हो या फिर राय के लिए इसे कानून मंत्रालय को भेजा गया हो.

चार जुलाई की बैठक का एकमात्र मकसद था 6.2 Mhz से ऊपर के स्पेक्ट्रम आवंटन की कीमत निर्धारित करना. प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और ए राजा के बीच बाजार संचालित प्रक्रिया से कीमत तय करने पर सहमति बनी थी. यहां एक और दिलचस्प बात है कि शुरुआती स्पेक्ट्रम (जिसकी कीमत तय नहीं की गई) की जो सीमा 4.4 Mhz थी वह बढ़कर 6.2 Mhz कैसे हुई इसकी कोई स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है.

जो बात लोगों को खटक रही है वह है सरकार का दोहरा रवैया. सरकार 6.2 Mhz के ऊपर के स्पेक्ट्रम को तत्कालीन बाजार दर पर ही आवंटित करने की इच्छुक थी, लेकिन 6.2 Mhz तक के स्पेक्ट्रम के लिए उसकी ऐसी कोई इच्छा नहीं थी. मान लेते हैं कि 6.2 Mhz तक के स्पेक्ट्रम के लिए बाजार कीमत नहीं वसूलने के पीछे सोच यह थी कि ऑपरेटरों को हुआ यह फायदा अपने आप नीचे तक पहुंचेगा जिससे उन्हें कम कीमत पर सेवा मिलेगी और मोबाइल का प्रसार बढ़ेगा. तो सवाल उठता है कि यही तर्क 6.2 Mhz के ऊपर के स्पेक्ट्रम धारकों पर भी तो लागू हो सकता है.

यानी बैठकें हुईं, कागजों के ढेर लगे और सहमति बनी कि स्पेक्ट्रम का आवंटन तत्कालीन बाजार दर के हिसाब से हो, इसके बावजूद नतीजा सिफर रहा.

‘यह कानून होता तो राष्ट्रमंडल खेलों में घोटाला नहीं होता’

नया कानून खेलों के विकास को गति देने के लिए कितना जरूरी है?

खेलों के विकास के लिए तीन प्रमुख समस्याओं का समाधान करना पड़ेगा. पहला देश में खेलों का दायरा बढ़ाया जाए और खेल की संस्कृति विकसित की जाए. इसके लिए खेलों को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए. दूसरी बात प्रशिक्षण से जुड़ी हुई है. इसके लिए हमें अपना ढांचा और दुरुस्त करना होगा. तीसरी समस्या है पारदर्शिता की जिस वजह से कॉरपोरेट क्षेत्र खेलों में पैसा लगाने से कतरा रहा है. कई खेल संगठनों में लोग दशकों से कब्जा जमाकर जमींदारी की तरह खेलों को चला रहे हैं. इससे कई अनैतिक चीजें खेल में आ गई हैं जैसे यौन उत्पीड़न, डोपिंग और उम्र को लेकर गड़बड़ी. इन्हें दूर करने के लिए हम नया कानून लाने की कोशिश कर रहे हैं. यह विधेयक देश के खेलों की तसवीर बदल देगा.

सुधारों का काम शुरू करने में इतना वक्त लगने की वजह क्या है?

मुझसे पहले जो लोग खेल मंत्रालय में थे उन्होंने भी समय-समय पर सरकारी आदेशों के जरिए सुधार की कोशिश की और मैं उनके ही काम को आगे बढ़ा रहा हूं. हमें यह लगा कि जब तक इन बदलावों को बाकायदा एक कानून के जरिए नहीं लाया जाएगा तब तक सफलता मिलना आसान नहीं है. 1989 में एक संविधान संशोधन विधेयक संसद में पेश किया गया था जिसमें कहा गया था कि खेलों को राज्य से निकालकर समवर्ती सूची में लाना चाहिए ताकि इन्हें सही ढंग से चलाने का काम केंद्र सरकार कर सके. इसलिए यह कहना गलत होगा कि सुधार की कोशिश पहले नहीं की गई. 2007 में अटॉर्नी जनरल ने यह राय दी है कि हम खेलों को समवर्ती सूची में लाए बगैर भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रतिनिधित्व को आधार बनाकर राष्ट्रीय खेल संघों के लिए कानून बना सकते हैं. इसके बाद 1989 के प्रस्ताव को 2007 में वापस लिया गया और उस समय से खेल मंत्रालय लगातार सुधारों को लेकर काम कर रहा है जिसका नतीजा अब आपको इस कानून के रूप में दिख रहा है.

आपने कॉरपोरेट फंडिंग की बात की लेकिन बीसीसीआई ने तो निजी क्षेत्र को काफी आकर्षित किया है.

ऐसा इसलिए है कि उनके वहां उम्र और कार्यकाल को लेकर अपने स्तर पर ही अच्छे नियम हैं. लेकिन वहां कार्यक्षमता तो है पारदर्शिता नहीं है. यही वजह है कि आईपीएल या क्रिकेट से संबंधित घोटालों की बातें सामने आती रहती हैं.

इस विधेयक को कई ओर से विरोध झेलना पड़ रहा है. ऐसे में इसका क्या भविष्य है?

हम जब पहली बार इसे कैबिनेट में लेकर गए थे तो कुछ बातों पर आपत्ति थी. नए मसौदे में कुछ संशोधन किए गए हैं. हमने वे प्रावधान हटा दिए हैं जिससे लोगों को जरा भी संदेह हो कि इसके जरिए सरकार खेल संघों पर कब्जा करना चाहती है. खेल संघों को मंत्रालय के प्रति जवाबदेह न बनाकर उन्हें स्पोर्ट्स ट्राइब्यूनल के प्रति जवाबदेह बनाया गया है. इसका गठन वह समिति करेगी जिसकी अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश करेंगे. आरटीआई और एंटी डोपिंग के मामले में भी हमने खेल संघों को कुछ छूट दी है. खिलाडि़यों के फिटनेस और चयन के आधार को आरटीआई से छूट देने का प्रावधान किया है. जब पहले इसे भी आरटीआई के दायरे में रखने का प्रावधान था तो खिलाडि़यों ने ही कहा कि इन सूचनाओं से हमारी विरोधी टीमों को फायदा मिल सकता है.

आपने चयन के आधार को आरटीआई के दायरे से बाहर निकाल दिया लेकिन चयन प्रक्रिया पर कई बार सवाल उठते रहे हैं…

अब तक ये बातें राष्ट्रीय स्तर पर बहुत कम आई हैं. ऐसी बातें राज्य के स्तर पर अधिक आती हैं. हम राष्ट्रीय खेल संघों के लिए तो कानून बना सकते हैं लेकिन राज्य खेल संघों के लिए नहीं. मेरा मकसद इस विधेयक को कैबिनेट से पारित करवाना है, इसलिए जो भी हल्के-फुल्के बदलाव हुए हैं उन्हें इससे जोड़कर देखा जाना चाहिए.

खेल संघों पर काबिज केंद्रीय नेता विधेयक का पुरजोर विरोध कर रहे हैं. ऐसे में क्या संसद के शीतकालीन सत्र में यह विधेयक पारित हो सकेगा?

हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर सुधारों का विरोध किया है. इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि सिर्फ कैबिनेट के अंदर इसका विरोध हो रहा है. हम कैबिनेट से मंजूरी लेने की कोशिश करेंगे और अगर मंजूरी मिल जाती है तो हम इसे शीतकालीन सत्र में संसद में जरूर लेकर आना चाहेंगे.

इन बदलावों के बावजूद बीसीसीआई को अब भी इस विधेयक को लेकर आपत्ति है.

बीसीसीआई ने हमारे पत्र के जवाब में बताया है कि वे हमारी बात नहीं मानेंगे. उन्होंने तो कार्यकारिणी में खिलाडि़यों की 25 फीसदी हिस्सेदारी के प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया. ये  बेहद चौंकाने वाली बात है. अगर किसी खेल पर लिए फैसले में एक चौथाई खिलाड़ी भी शामिल नहीं होंगे तो आखिर कैसे सही निर्णय लिया जाएगा. ऐसे ही आरटीआई का विरोध करने का भी कोई मतलब नहीं है. अगर किसी के पास कुछ छिपाने के लिए नहीं है तो फिर आरटीआई का विरोध नहीं होना चाहिए.

नए विधेयक में स्पोर्ट्स ट्राइब्यूनल के गठन की बात की गई है. क्या इसके पास यह अधिकार होगा कि यह स्वतः संज्ञान लेकर किसी मामले की जांच शुरू कर सके?

बिल्कुल, उसे ऐसा अधिकार होगा. हमने यह प्रावधान भी किया है कि खिलाड़ी या खेल से प्रेम करने वाला कोई भी व्यक्ति अपनी शिकायत दर्ज करा सकता है और उसकी जांच की जाएगी. खिलाडि़यों की समस्याओं और खेल संघों के आपसी झगड़ों का निपटारा भी ट्राइब्यूनल करेगा.

अगर इस तरह का कानून पहले से होता तो क्या आईपीएल और राष्ट्रमंडल खेलों से संबंधित घोटाला टल सकता था?

अगर इस तरह का कानून पहले से होता तो कम से कम राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में जो घोटाला हुआ वह नहीं होता. क्योंकि इन खेलों के आयोजन समिति के अध्यक्ष और खजांची जो जेल में हैं, वे दोनों आईओए के पदाधिकारी नहीं बन पाते. इसलिए इस कानून की बहुत ज्यादा जरूरत है.

जब जनप्रतिनिधियों के लिए उम्र की कोई सीमा नहीं है तो फिर खेल से जुड़े पदाधिकारियों के लिए ऐसा क्यों?

जनप्रतिनिधियों के चुनाव में 18 से अधिक उम्र के हर व्यक्ति की भागीदारी होती है. लेकिन इन खेल संगठनों में वोट देने वाले पहले से चुने हुए होते हैं. यहां हर कोई वोट नहीं दे सकता. ज्यादातर खेल संघों के आंतरिक चुनाव तो हाथ खड़े करके हो जा रहे हैं. वे तो बैलेट का भी इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं.

खेल को चाहिए नई नकेल

2010 को भारत के लिए घोटालों का साल माना जाता है. इसी साल कई बड़े घोटाले उजागर हुए. चाहे वह 2जी स्पेक्ट्रम की नीलामी का मामला हो या फिर आदर्श सोसायटी का मामला. इसी साल काले धन के मसले ने भी काफी जोर पकड़ा. 2010 में जब एक पर एक घोटाले सामने आ रहे थे तभी खेलों से जुड़े दो घोटालों ने भी लोगों को सन्न कर दिया. इनमें एक था आईपीएल और दूसरा राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में अरबों रुपये के हेरफेर का मामला. आईपीएल में आम लोगों की गाढ़ी कमाई सीधे तौर पर नहीं लगी थी शायद इसलिए यह मामला अपने ढंग से उठकर दब गया. लेकिन राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में धांधली का मामला शांत होता नहीं दिख रहा है. इसमें सीधे तौर पर सरकारी पैसा यानी आम आदमी की गाढ़ी कमाई में से कर के तौर पर वसूला जाने वाला पैसा लगा था. आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी समेत उनके कई सहयोगी इस मामले में दिल्ली के तिहाड़ जेल में बंद हैं.

जब ये दोनों मामले सामने आए तो हर ओर से कहा गया कि देश में खेलों के संचालन में पारदर्शिता का घोर अभाव है. आरोप लगे कि ज्यादातर खेल संगठनों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है और सालों से एक ही व्यक्ति या एक ही कुनबा खेल संगठनों पर काबिज है. ये ऐेसेे लोग हैं जिन्हें संबंधित खेलों का कोई अनुभव नहीं है.  यह बात भी सामने आई कि कई लोग एक से ज्यादा खेल संगठनों के कर्ताधर्ता बने हुए हैं. हर तरफ से मांग उठी कि यदि खेलों के संचालन में पारदर्शिता बढ़ेगी तो ऐसे घोटालों पर अंकुश लग सकेगा और खेलों का भी विकास होगा. एक मजबूत कानून की जरूरत पर जोर दिया गया. अब जबकि केंद्रीय खेल राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) अजय माकन एक ऐसा मजबूत कानून लाने की कोशिश कर रहे हैं तो उन्हें न सिर्फ विपक्षियों के बल्कि अपने दल के और सहयोगी नेताओं के भी भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है.

हालांकि, ऐसा नहीं है कि खेल संगठनों के काम-काज पर पहली बार 2010 में ही सवाल उठे.  इन संगठनों पर तरह-तरह के आरोप तो लंबे समय से लगते रहे हैं. 2008 में एक खबरिया चैनल के स्टिंग ऑपरेशन से यह बात सामने आई थी कि भारतीय हॉकी महासंघ (आईएचएफ) के महासचिव के ज्योति कुमारन ने राष्ट्रीय टीम में एक खिलाड़ी के चयन के लिए पैसे लिए हैं. अजलान शाह हॉकी टूर्नामेंट के लिए जा रही टीम में चयन के लिए कुमारन ने पांच लाख रुपये की रिश्वत की मांग की थी. कुमारन को दो किश्तों में तीन लाख रुपये लेते हुए दिखाया गया था. इस विवाद में कुमारन की कुर्सी तो गई ही साथ ही भारतीय ओलंपिक संघ (आईओए) ने आईएचएफ की मान्यता भी रद्द कर दी. इसके साथ ही लंबे समय से हॉकी पर कब्जा जमाकर बैठे पूर्व पुलिस अधिकारी केपीएस गिल की भी छुट्टी हो गई. गिल पर भारतीय हॉकी पर अपनी दादागीरी चलाने का आरोप लगता रहा है. भारतीय हॉकी से जुड़े लोग तहलका से कहते हैं कि गिल ने राज्य हॉकी संघों में पुलिस अधिकारियों को पदाधिकारी बनवा दिया था और इसके एवज में ये पदाधिकारी गिल को आईएचएफ का अध्यक्ष बनाए रखते थे. इन लोगों का दावा है कि आईएचएफ में चुनाव नाममात्र को होता था क्योंकि सदस्य गिल को हाथ उठाकर अध्यक्ष चुन लेते थे.

मान्यता रद्द होने पर आईएचएफ के अधिकारी अदालत गए और दूसरी तरफ हॉकी इंडिया के नाम से एक नया संगठन बना. इसे आईओए और अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति (आईओसी) से मान्यता मिल गई. लगा अब हॉकी के दिन बदलेंगे. लेकिन यहां भी चुनाव में वही पुराना ढर्रा अपनाया गया और ओलंपिक खिलाड़ी रह चुके 45 साल के परगट सिंह को 83 साल की कांग्रेसी नेता विद्या स्टोक्स ने हरा दिया. एक बार फिर राष्ट्रीय खेल के दिन बदलने का हॉकी खिलाडि़यों का मंसूबा धरा का धरा रह गया. हॉकी इतिहासकार और स्टिकटूहॉकी डॉट कॉम के संपादक के अरुमुगम तहलका को बताते हैं, ‘यह एक अच्छा अवसर था कि भारतीय हॉकी को चलाने का काम किसी हॉकी खिलाड़ी के हाथ में जाता. लेकिन ऐसा हो नहीं सका और हॉकी फिर सियासत की शिकार बन गई. इससे उन पुराने खिलाडि़यों को भी झटका लगा जो हिम्मत करके हॉकी की सेहत सुधारने के लिए खेल प्रशासन की ओर रुख कर रहे थे.’ बाद में अदालत ने आईएचएफ के मामले में आईओए को यह निर्देश दिया कि आप किसी व्यक्ति पर तो कार्रवाई कर सकते हैं लेकिन संगठन को बेदखल नहीं कर सकते. अभी यह मामला अदालत में है.

यदि मेरे थोड़ा समझौता कर लेने से देश का भला हो तो ऐसा करने में हर्ज ही क्या? कपिल देव,पूर्व क्रिकेट कप्तान

2010 के शुरुआती दिनों में हॉकी विश्व कप के ठीक पहले खिलाड़ियों ने बोर्ड पर बाकी 4.5 लाख रुपये मेहनताने को लेकर विद्रोह कर दिया था और तैयारी में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया था. इससे पता चला कि हॉकी पर राज करने वाला संगठन हॉकी इंडिया खिलाड़ियों के प्रति कितना असंवेदनशील है. इसी तरह महिला हॉकी टीम के कोच एमके कौशिक और आधिकारिक वीडियोग्राफर बसवराज पर यौन उत्पीड़न का आरोप टीम की खिलाड़ी ने ही लगाया. इसके बाद दोनों की छुट्टी कर दी गई.

जनवरी, 2011 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उस समय के खेल मंत्री एमएस गिल को सांख्यिकी एवं क्रियान्वयन मंत्रालय में भेजा और गृह राज्य मंत्री अजय माकन को खेल मंत्रालय में ले आए. माकन के आते ही मंत्रालय ने राष्ट्रीय खेल विकास विधेयक लाने की कोशिश की और इसका पहला मसौदा फरवरी में जारी हुआ. जब यह विधेयक अगस्त में केंद्रीय कैबिनेट में पहुंचा तो इसे यह कहते हुए वापस लौटा दिया गया कि इसमें काफी सुधार करने की जरूरत है. हालांकि, विधेयक का मसौदा पढ़ने के बाद यह साफ हो जाता है कि आखिर कैबिनेट ने इस विधेयक को वापस क्यों लौटा दिया. इसमें खेल संगठनों को पारदर्शी बनाने के लिए इन्हें सूचना का अधिकार कानून के दायरे में लाने और पदाधिकारियों के लिए उम्र और कार्यकाल की सीमा निर्धारित करने की बात थी. कैबिनेट में जिन मंत्रियों ने इस विधेयक का सबसे ज्यादा विरोध किया वे थे – शरद पवार, विलासराव देशमुख, प्रफुल्ल पटेल, फारुख अब्दुल्ला और सीपी जोशी. ये सभी केंद्रीय मंत्री किसी न किसी खेल संगठन से भी जुड़े हुए हैं.

इसके बाद मंत्रालय ने विधेयक के मसौदे में कुछ बदलाव किए और अब माकन एक बार फिर इसे कैबिनेट में ले जाने की तैयारी कर रहे हैं. तहलका के साथ बातचीत में वे इस विधेयक को संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में पारित करवाने की इच्छा जताते हुए कहते हैं, ‘हमने पुराने मसौदे में से उन चीजों को हटाया है जिससे लोगों को यह लग रहा था कि हम खेलों पर सरकारी नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं.’ आरटीआई के तहत भी खेल संगठनों को चयन आधार और खिलाडि़यों की फिटनेस से संबंधित सूचनाओं को उजागर नहीं करने की छूट इस नए बिल में दी गई है.
इसके बावजूद इस विधेयक के पारित होने का रास्ता आसान नहीं है. विरोध करने वालों में वििभन्न खेल संगठनों के पदाधिकारी और सिर्फ कैबिनेट के लोग नहीं हैं बल्कि खेल संगठनों पर काबिज सभी दलों के नेता शामिल हैं. इनमें कैबिनेट के पांच नेताओं के अलावा प्रमुख हैं- राजीव शुक्ला, ज्योतिरादित्य सिंधिया, गोवा के मुख्यमंत्री दिगंबर कामत, पूर्व केंद्रीय मंत्री जगदीश टायटलर, भाजपा नेता और राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता अरुण जेटली, भाजपा नेता यशवंत सिन्हा, दिल्ली विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता विजय कुमार मल्होत्रा, भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर, अकाली दल के सुखदेव सिंह ढींढसा, इंडियन नैशनल लोकदल के अभय चौटाला और अजय चौटाला आदि.

माकन के लिए विधेयक पारित करवाना बेहद चुनौतीपूर्ण है क्योंकि उनका विरोध न सिर्फ विपक्षी दलों के लोग कर रहे हैं बल्कि खुद माकन की पार्टी के तमाम प्रभावशाली नेता खुलेआम नए कानून का विरोध कर रहे हैं. भारतीय तीरंदाजी संघ के अध्यक्ष और आईओए के कार्यकारी अध्यक्ष विजय कुमार मल्होत्रा तहलका के साथ बातचीत में विधेयक पर कड़ा एतराज जताते हुए इसे दमनकारी और असंवैधानिक करार देते हैं, ‘आखिर क्यों माकन देश में खेल को बर्बाद करने पर आमादा हैं. जिस तरह से वे खेलों पर सरकारी कब्जा जमाना चाहते हैं उससे तो देश में खेल चौपट हो जाएंगे. क्योंकि आईओसी ने कहा है कि हम ऐसे सरकारी नियंत्रण को नहीं मानेंगे और अगर ऐसा किया गया तो हम भारत की मान्यता रद्द कर देंगे.’ मल्होत्रा कहते हैं.

आरटीआई के सवाल पर वे कहते हैं, ‘आईओए पर तो अब भी आरटीआई लागू होता है और इसके आर्थिक मामले सीएजी की जांच के दायरे में हैं. इसलिए नए सिरे से कुछ करने की जरूरत ही क्या है. सभी खेल संगठन सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन ऐक्ट के तहत पंजीकृत होते हैं. अगर सरकार खेल संगठनों को आरटीआई के दायरे में लाना चाहती है तो आरटीआई कानून में संशोधन करके सोसाइटीज ऐक्ट के तहत पंजीकृत  सभी संगठनों को आरटीआई के दायरे में ला सकती है. जहां तक सवाल चुनाव में धांधली का है तो ऐसा कहीं-कहीं है हर जगह नहीं…खेल संगठन निर्णय प्रक्रिया में खिलाडि़यों की हिस्सेदारी खुद ही बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं.’

खेलों पर सरकारी कब्जा जमाने की कोशिश से तो देश में खेल चौपट हो जाएंगे. वीके मल्होत्रा,कार्यकारी अध्यक्ष, आईओए

खेल प्रशासकों के लिए उम्र की सीमा तय करने के मसले पर 32 साल से तीरंदाजी संघ के अघ्यक्ष  रहे 80 वर्षीय मल्होत्रा कहते हैं, ‘यह कहां का न्याय है कि सांसदों और मंत्रियों के लिए उम्र की कोई सीमा नहीं लेकिन खेल प्रशासकों की उम्र सीमा तय हो. प्रधानमंत्री 80 साल के होने वाले हैं. केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की उम्र 76 साल है. विदेश मंत्री एसएम कृष्णा 79 साल के हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ज्यादातर खेल संगठनों के प्रमुख 70 साल से अधिक उम्र के हैं.’ इसका जवाब माकन यह कहते हुए देते हैं कि सांसदों या किसी भी जनप्रतिनिधि का चुनाव सीधे जनता करती है जबकि खेल संगठनों के पदाधिकारियों का चुनाव इस ढंग से नहीं होता इसलिए यह तुलना ठीक नहीं है.

हालांकि, खेल संगठनों और खेल प्रशासकों के विरोध के बावजूद खिलाड़ी, खेलों के जानकार और खेलप्रेमियों की तरफ से माकन की कोशिशों को भारी समर्थन मिल रहा है. भारत को पहली दफा क्रिकेट विश्व कप दिलाने वाले कपिल देव तहलका को बताते हैं, ‘यह विधेयक देश में खेलों का भला करेगा. इसे लागू करवाया जाना चाहिए.’ यह पूछे जाने पर कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने इस विधेयक को खारिज कर दिया है, कपिल देव कहते हैं, ‘नए कानून से बीसीसीआई सीधे तौर पर प्रभावित होगी इसलिए वे विरोध कर रहे हैं. मेरी समझ में यह नहीं आता कि अगर मेरे थोड़ा-सा समझौता कर लेने से देश का भला होता है तो ऐसा करने में आखिर किसी को दिक्कत क्यों हो रही है.’

माकन कहते हैं कि जिस तरह का कानून हम लाने जा रहे हैं अगर वैसा कानून पहले होता तो राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में जो गड़बड़ियां हुईं वे नहीं होतीं. इस बात से सहमति जताते हुए अरुमुगम कहते हैं कि अगर ऐसा कानून होता तो हाॅकी में भी जो गड़बडि़यां हुईं उसकी नौबत ही नहीं आती. यही बात क्रिकेट पर भी लागू होती है. अगर बीसीसीआई के आर्थिक मामलों में पारदर्शिता होती तो संभवतः आईपीएल के नाम पर अरबों रुपये का हेरफेर नहीं होता.

खेल विकास विधेयक के दूरगामी असर के बारे में अरुमुगम कहते हैं, ‘इससे हर खेल को फायदा होगा. मुझे लगता है कि नए कानून से सबसे ज्यादा फायदा हॉकी को मिलने वाला है क्योंकि अभी देश में खेलों की जो स्थिति है उसके लिए अगर सबसे अधिक कोई चीज जिम्मेदार है तो वह है खेलों का प्रशासन गलत हाथों में होना. अगर खेलों को चलाने का काम खिलाडि़यों के हाथों में आता है और हर स्तर पर पारदर्शिता आती है तो इसका फायदा निश्चित तौर पर खेलों को मिलेगा और इसका असर कुछ ही सालों में अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में भारत के अच्छे प्रदर्शन के तौर पर दिखेगा.’­