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नौकरशाही में वर्चस्व

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का 2009 में दूसरी बार प्रधानमंत्री बनना बिहार में उतना चर्चा का विषय नहीं था जितना उनकी कैबिनेट में बिहार कोटे से मंत्री बनने वालों पर सस्पेंस. इसकी दो-तीन वजहें थीं. एक कांग्रेस कोटे के मंत्री रहे शकील अहमद की मधुबनी सीट से हार और दूसरी लालू प्रसाद यादव और पासवान की पार्टियों का लगभग सफाया. ऐसे में सासाराम संसदीय सीट से जीत दर्ज करके आई मीरा कुमार को मंत्रिमंडल में जगह देकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बिहारी कोटे की लाज रखी. लेकिन फिर तुरंत ही हालात ऐसे बदले कि कुमार का लोकसभा अध्यक्ष बनना तय हुआ और नतीजतन उन्हें दो दिन बाद ही मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा. तब से आज तक गाहे-बगाहे होने वाली सुगबुगाहटों के बावजूद मंत्रिमंडल से बिहार गायब ही रहा है.

लेकिन इस कमी की भरपाई उस दबदबे से होती दिखती है जो इन दिनों बिहार कैडर के नौकरशाहों का विभिन्न मंत्रालयों में दिखता है. गृह, रक्षा, सड़क परिवहन एवं राजमार्ग और ग्रामीण विकास सहित तमाम अहम मंत्रालयों में बिहार कैडर के कई नौकरशाह प्रमुख पदों पर हैं. इनमें से नौ सचिव हैं, 17 संयुक्त सचिव और छह अपर सचिव. बिहार की गिनती देश के पिछड़े राज्यों में की जाती है. इस लिहाज से बिहार के लोगों को उनके बीच से ही काम करके गए इन हुक्मरानों से बड़ी उम्मीदें हैं. यह वर्चस्व एकबारगी 70 और 80 के दशक की याद भी दिलाता है जब केंद्र सरकार के मंत्रालयों में बिहार कैडर का कुछ ऐसा ही जलवा होता था. दरअसल तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बिहार मूल के या बिहार कैडर के अधिकारियों को बहुत पसंद करती थीं.

राज कुमार सिंह भारत सरकार के गृह सचिव हैं. बिहार कैडर के आईएएस अधिकारी सिंह 1975 बैच  के हैं. बिहार के आपदा प्रबंधन विभाग के प्रधान सचिव ब्यास जी के मुताबिक सिंह अपनी कार्यकुशलता के लिए बिहार-झारखंड ही नहीं, दूसरे राज्यों के आईएएस अधिकारियों मंे भी चर्चित हैं. वे पटना के डीएम भी रह चुके हैं और बिहार के गृह सचिव भी. 2008 में जब कोसी में बाढ़ आई थी तो राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग की जिम्मेदारी उनके ही पास थी. उस समय उनके काम की काफी सराहना हुई थी. लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा चर्चा मिली सड़क निर्माण विभाग में सचिव रहते हुए. कहा जाता है कि बिहार में सड़कों की स्थिति में जो अभूतपूर्व सुधार हुआ है उसका श्रेय काफी हद तक राज कुमार सिंह को ही जाता है. अपने कड़क मिजाज के लिए जाने जाने वाले सिंह ने सड़क निर्माण विभाग में सचिव रहते सत्ताधारी दलों के कई विधायकों की कंस्ट्रक्शन कंपनियों को ब्लैकलिस्ट कर दिया था. बिहार सरकार लंबे समय से मांग कर रही है कि नक्सल प्रभावित जिलों में स्पेशल टास्कफोर्स का गठन हो. सिंह के गृह सचिव होने के बाद इस मांग के पूरा होने की उम्मीद जताई जा रही है.

यह वर्चस्व 70 और 80 के दशक की याद भी दिलाता है जब केंद्र के मंत्रालयों में बिहार कैडर का ऐसा ही जलवा होता था

बिहार कैडर के एक और प्रमुख अधिकारी हैं रक्षा सचिव शशिकांत शर्मा. 1976 बैच के आईएएस अधिकारी शर्मा ने प्रदीप कुमार का स्थान लिया है जो अब नये केंद्रीय सतर्कता अायुक्त हैं. साल 2002 से 2010 तक शर्मा रक्षा मंत्रालय के विभिन्न पदों पर काम कर चुके हैं. इसके अलावा उनके पास आईटी सचिव, सचिव, वित्त सेवा विभाग जैसे कई महत्वपूर्ण पदों पर काम करने का अनुभव है. शर्मा के रक्षा सचिव बनने से बिहार के राजगीर में 3000 एकड़ में फैले वर्षों से लंबित आयुध कारखाने के शुरू होने की संभावना बढ़ गई है. ब्राजील सरकार से सहयोग से बने इस कारखाने को भारत सरकार ने बोफोर्स कांड के सामने आने के बाद ब्लैकलिस्ट कर दिया था.

1975 बैच के आईएएस अधिकारी बीके सिन्हा ग्रामीण विकास मंत्रालय जैसे विभाग की अगुवाई कर रहे हैं. गौरतलब है कि यही वह विभाग है जहां से भारत सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी और बहुआयामी योजना मनरेगा चलाई जा रही है. सिन्हा इससे पहले बिहार में कोऑपरेटिव बैंक के प्रशासक के रूप में बिहार में काफी चर्चित हुए थे. उनके सचिव बनने से बिहार में प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना में काफी काम होने की संभावना है.

1975 बैच के आईएएस अधिकारी ए के उपाध्याय भूतल परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के सचिव पद पर काम कर रहे हैं. उनके बारे में कहा जाता है कि वे जमीन से जुड़े आदमी हैं. केंद्र में काम करने का उनका अनुभव आठ साल का है. उनके सचिव बनने से  बिहार में नेशनल हाइवे की 3,738 किलोमीटर लंबी सड़कों का कायाकल्प होने की उम्मीद की जा रही है. एएनपी सिन्हा पंचायती राज मंत्रालय में सचिव हैं. उनकी पत्नी भी आईएएस अधिकारी रह चुकी हैं. 1974 बैच के सिन्हा पटना में एनएमसीएच में स्वास्थ्य कमिश्नर रहते काफी सुर्खियां बटोर चुके हैं. 1975 बैच के आईएएस अधिकारी नवीन कुमार हाल तक शहरी विकास मंत्रालय के सचिव पद पर थे. पर सरकार ने पिछले हफ्ते इनका तबादला पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के सचिव पद पर कर दिया है.  उधर, 1976 बैच के आईएएस अधिकारी पीके बसु कृषि विभाग के सचिव पद पर काम कर रहे हैं. इससे पहले वे कृषि विभाग में ही अतिरिक्त सचिव पद संभाल चुके हैं.

1972 बैच के आईएएस अधिकारी एमएन प्रसाद रिटायरमेंट के बाद भी प्रधानमंत्री कार्यालय में सचिव पद पर काम कर रहे हैं. हालांकि हाल ही में मंत्रिमंडल की नियुक्ति समिति ने उन्हें विश्व बैंक में कार्यकारी निदेशक नियुक्त कर दिया है. प्रसाद विश्व बैंक में पुलक चटर्जी का स्थान लेंगे जिन्हें वापस पीएमओ लाया जा रहा है. बिहार में कई विभागों सहित केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय में सचिव जैसे कई महत्वपूर्ण पदों पर काम कर चुके प्रसाद काफी सुलझे अधिकारी के रूप में जाने जाते हैं.

इससे एक पांत पीछे भी बिहार कैडर के अधिकारियों की कमी नहीं. बीबी श्रीवास्तव, अरविंद प्रसाद, एसपी सेठ और अरुणिश चावला जैसे अधिकारी विभिन्न मंत्रालयों में अतिरिक्त सचिव स्तर  पर काम कर रहे हैं . चावला, सेठ और प्रसाद योजना आयोग में तैनात हैं. जो अधिकारी केंद्र में संयुक्त सचिव का पद संभाल रहे हैं वे हैं गिरीश शंकर (खाद्य और सार्वजनिक वितरण), चैतन्य प्रसाद (औद्योगिक नीति), रश्मि वर्मा और सुभाष शर्मा (दोनों रक्षा उत्पादन),  केके पाठक (घर), आरके महाजन (कोयला), भानु प्रताप शर्मा (अल्पसंख्यक), सुनील कश्मीर सिंह (आवास और शहरी गरीबी)  और अरुण झा (फार्मास्यूटिकल्स).

हालांकि इस सफलता का एक दूसरा पक्ष भी है. एक तरफ बिहार कैडर के आईएएस अधिकारी केंद्र में झंडे गाड़ रहे हैं और दूसरी तरफ खुद बिहार पिछले कई वर्षों से आईएएस अधिकारियों की कमी से त्रस्त है. आंकड़े बताते हैं कि बिहार-झारखंड जब एक था तो उस समय राज्य में 325 आईएएस अधिकारी हुआ करते थे. बंटवारे के बाद एक चौथाई आईएएस अधिकारियों की संख्या झारखंड में चली गई और बिहार में तकरीबन 206 अधिकारी बचे. अभी हर साल बिहार को 10 आईएएस अधिकारी मिल रहे हैं. राज्य विभाजन से पहले यह कोटा 14 अधिकारियों का हुआ करता था. बिहार सरकार का कहना है कि वर्तमान में राज्य में आईएएस अधिकारियों की काफी कमी है और यह कोटा बढ़ना चाहिए.

जानकार बताते हैं कि लालू-राबड़ी के राज में खराब कानून-व्यवस्था और राजनीतिक दखलंदाजी की वजह से बिहार कैडर के कई अधिकारियों ने अपनी नियुक्ति दिल्ली या फिर देश के दूसरे राज्यों में करवा ली थी. पर नीतीश कुमार की सरकार आने के बाद ये अधिकारी अपने गृह राज्य वापस आने की इच्छा जता रहे हंै. आज बिहार कैडर के लगभग 35-40 आईएएस अधिकारी केंद्र या दूसरे राज्यों में सेवा दे रहे हैं.

लूट से बेपरवाह

चारा घोटाले के वक्त बिहार में अक्सर कहा जाता था कि नेता-अधिकारी जानवरों का चारा तक डकार गए. पिछले दिनों झारखंड विधानसभा में पेश कैग रिपोर्ट के बाद कहा जा सकता है कि राज्य में भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों के गठजोड़ ने सड़कें भी निगल लीं. देखा जाए तो झारखंड की शासन व्यवस्था घपले-घोटाले और हेरफेर की अभ्यस्त-सी होती जा रही है. शायद तभी 29 अगस्त को झारखंड विधानसभा में थोड़ी हलचल के बाद धीरे-धीरे सब-कुछ शांत हो गया. जिस सदन में बात-बात पर लड़ने-भिड़ने जैसी स्थिति हो जाती है उसी सदन में 29 अगस्त को कंट्रोलर ,एंड अकाउंटेंट जनरल यानी कैग की रिपोर्ट पेश होने के बाद सवालों की बौछार से सरकार की घेराबंदी नहीं हो सकी. सरकार के प्रतिनिधि राइट टू सर्विस एेक्ट लाकर भ्रष्टाचार का समूल नाश कर देने की बातें करते रहे, मगर विपक्ष से किसी ने यह सवाल नहीं दागा कि भ्रष्टाचार जब दूर होगा तब होगा, पहले 2,800 करोड़ रुपये का कुछ हिसाब-किताब दिया जाए.

इन गड़बड़ियों को लेकर सरकार बहुत परेशान, शर्मसार या चिंतित हो, ऐसा नहीं दिखता

कैग ने वित्तीय वर्ष 2009-10 की जो रिपोर्ट दी है उसमें करीबन 2,800 करोड़ रुपये की गड़बड़ियां साफ-साफ उजागर हुई हैं. रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है कि कई जगहों पर सड़कें बनी ही नहीं मगर ठेकेदारों को लाखों रु का भुगतान हो गया. कई पुरानी सड़कों की ही मरम्मत कराके नयी सड़कों के निर्माण का भुगतान करा दिया गया. बात सिर्फ सड़कों तक सीमित नहीं. रिपोर्ट के अनुसार शायद ही कोई विभाग हो जिसमें गड़बड़झाला न हुआ हो. सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में तो यह चरम तक पहुंचा हुआ बताया गया है. साथ ही ग्रामीण विकास, पेयजल एवं स्वच्छता, कला संस्कृति एवं खेलकूद, स्वास्थ्य, कृषि, पथ निर्माण, कल्याण, जल संसाधन, बिजली एवं वन विभाग में भी वित्तीय अनियमितताओं व गड़बड़ियों की भरमार है. गौर करने वाली बात यह है कि  वित्तीय वर्ष 2009-10 में राज्य सरकार ने 4,765 करोड़ रु का हिसाब-किताब तक महालेखाकार कार्यालय भेजना मुनासिब नहीं समझा.
29 अगस्त को सदन में कैग रिपोर्ट के जरिए गड़बड़ियों का पुलिंदा राज्य के उपमुख्यमंत्री सह वित्त मंत्री हेमंत सोरेन ने प्रस्तुत किया, लेकिन उन्हें इतनी गड़बड़ियों के लिए एक-दो सवालों के अलावा कोई फजीहत नहीं झेलनी पड़ी. गौरतलब है कि झारखंड में यह सब नजारा उस दौर में देखने को मिल रहा है जब देश के अन्य राज्यों में कैग रिपोर्ट पर सरकारें कटघरे में खड़ी हो रही हैं.
राज्य की प्रधान महालेखाकार मृदुला सप्रू तहलका से बातचीत में कहती हैं, ‘कैग की आपत्तियों पर सरकार अब तो गंभीरता से विचार करे और इन गड़बड़ियों को रोकने की कोशिश करे. सरकार को अपना बजट तंत्र मजबूत कराना चाहिए और योजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन में गंभीरता व सक्रियता लानी चाहिए.’

पीएसयू में हुई लूट-खसोट

कैग रिपोर्ट के अनुसार झारखंड में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) में सबसे ज्यादा गड़बड़ियां हुई हैं. 2009-10 में लोकउपक्रमों का टर्नओवर 1,565.25 करोड़ रु का रहा जो सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 1.88 फीसदी है. आंकड़ों के अनुसार यह कोई कम नहीं. लेकिन हैरत की बात यह है कि इस उपलब्धि के बावजूद उपक्रमों का घाटा 442.32 करोड़ रुपये तक जा पहुंचा. यदि इन उपक्रमों में सरकार के निवेश को देखें तो कुल 4,900.87 करोड़ रुपये का निवेश हुआ है, जिसमें इक्विटी (हिस्सेदारी खरीदने के लिए लगाया गया धन) सिर्फ 2.87 फीसदी है और लांग टर्म लीज (लंबी अवधि के कर्ज) 97.13 फीसदी. लोक उपक्रम में निवेश का अधिकांश भाग ऊर्जा क्षेत्र में ही हुआ है. इस निवेश का एक बड़ा हिस्सा लांग टर्म लीज के रूप में ही लिया गया है और यह राशि 4086.09 करोड़ रु है. लोक उपक्रम जेएसइबी में सिर्फ सब्सिडी के चलते उससे 767.31 करोड़ रु ज्यादा की रकम खर्च हो गई जितने का प्रावधान बजट में रखा गया था.

गड़बड़ियों के घालमेल पर नजर डालें तो एक से एक हैरतअंगेज कारनामे फाइलों के सहारे किए हुए मिलते हैं. वित्त के लेखा और लोक उपक्रमों के लेखा में कहीं भी कोई मेल ही नहीं दिखता. फाइनांस के एकाउंट में जहां इक्विटी 19.30 करोड़ है वहीं पीएसयू के रिकाॅर्ड में यह आंकड़ा 140.55 करोड़ है. फाइनांस के एकाउंट के हिसाब से कर्ज 6,137.33 करोड़ रु है वहीं पीएसयू में यह केवल 4,592.51 करोड़ रु है. यानी इक्विटी में 121.25 व लोन में 1,544.82 करोड़ रु का अंतर है. इतने सब के बाद राज्य का राजस्व 2.05 से घटकर 1.88 पर पहुंच गया है लेकिन फिर भी राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में इजाफा हुआ है. यदि आंकड़ों में देखें तो 11 पीएसयू में से चार ने 4.05 करोड़ रु का लाभ पहुंचाया लेकिन दूसरी ओर शेष सात उपक्रमों ने 446.48 करोड़ रु का नुकसान करवाया.

अब यह घाटा क्यों हुआ, यह जानना भी दिलचस्प है. इन दोनों उपक्रमों में कर्मचारियों के बकाये के भुगतान में ही अधिकांश राशि का वितरण कर दिया गया जिससे टीवीएनएल को 70.94 करोड़  रु एवं जेएसइबी को 374.13 करोड़ रु का घाटा हुआ. विधायक उमाकांत रजक कहते हैं कि जब इन उपक्रमों से लगातार घाटा ही हो रहा है तो छंटनी की जाए अन्यथा इन्हें बंद कर दिया जाए. दूसरी ओर इस संदर्भ में कैग का मानना है कि वित्तीय प्रबंधन, योजना एवं क्रियान्वयन और निगरानी जैसी चीजों पर ठीक से ध्यान दिया जाता तो 2007 से लेकर 2010 तक  3,000 करोड़ रु से भी ज्यादा बचाए जा सकते थे.
नफे-नुकसान के इस कृत्रिम खेल को इस एक बानगी से भी समझा जा सकता है. सिर्फ पतरातू थर्मल पावर स्टेशन (पीटीपीएस) में ही सरकार को 141 करोड़ रु का नुकसान हुआ है. 121.30 करोड़ रु का नुकसान मानक से अधिक खर्च होने के कारण हुआ तो बाकी की राजस्व हानि समय पर उत्पादन इकाई नहीं बनाने से हुई. बिजली बोर्ड में तो गड़बड़ियों और राजस्व को घाटा लगाने वाले कारनामों की लंबी फेहरिस्त है. मीटर बॉक्स की खरीद एवं लगाने में लापरवाही से 10.50 करोड़ रुपये तो उपभोक्ताओं को भार आकलन में गड़बड़ी के कारण 94 लाख रु का नुकसान हुआ. कंप्यूटर बिल की गड़बड़ी के कारण 1.36 करोड़ रु का गलत व्यय हुआ.

सड़क व पर्यटन के नाम पर भी खेल

पथ निर्माण विभाग में भी अनियमितताओं व गड़बड़ियों का पुलिंदा है. कैग की रिपोर्ट में यह बात सामने आई कि पाकुड़-बरहरवा पथ में संवेदक (ठेकेदार) को 2.30 करोड़ रु का अनुचित लाभ पहुंचाया गया है. देवघर-मधुपुर रोड में पतरो नदी पर पुल निर्माण में भी बेवजह 1.32 करोड़ रु खर्च किए गए. वहीं राहे-सीताफॉल सड़क निर्माण में 1.83 करोड़ रु का निरर्थक व्यय हुआ. इन सड़कों के निर्माण की झूठी कार्यशैली का गांव के लोगों ने विरोध भी किया था. सड़क की खस्ताहालत को देखते हुए ग्रामीणों ने सड़कों पर विरोध स्वरूप धान की रोपनी की थी. कुटमु गारू महुदार पथ में शर्तों की गलत व्याख्या करके संवेदक को 1.32 करोड़ रु का अनुचित भुगतान किया गया और साथ ही संविदा में गड़बड़ी करके 7.21 करोड़ रु का अधिक भुगतान किया गया.
ऐसे कई किस्से कैग की रिपोर्ट में मिलते हैं. लेकिन इन गड़बड़ियों को लेकर सरकार बहुत परेशान, शर्मसार या चिंतित हो, ऐसा नहीं दिखता. वित्त मंत्री हेमंत सोरेन कहते हैं, ‘कुछ गड़बड़ियां होंगी लेकिन समय पर बिल जमा न होने पर भी गड़बड़ी कह दी जाती है.’ अपने बचाव में वित्त मंत्री जो कुछ भी कहें पर कई मामलों को देखने पर साफ लगता है कि बड़े घोटाले की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है.

खेल पर्यटन विभाग में भी कम नहीं हो रहे. कैग की रिपोर्ट बताती है कि झारखंड पर्यटन विभाग ने कैबिनेट की अनदेखी करते हुए वर्ष 2008-09 में थीम फिल्में बनाने का आदेश दे डाला. इससे पहले विभाग ने आठ थीम फिल्मों के लिए निविदाएं मंगवाई थीं. निविदाओं की समीक्षा के बाद फिल्म निर्माण का यह काम उसे दे दिया गया जिसने सबसे कम कीमत की बोली लगाई थी. विभाग ने 6.29 करोड़ रु में आठ थीम फिल्में दो भाषाओं में बनाने का आदेश दिया. यह आदेश विभागीय मंत्री की सहमति पर नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए बिना कैबिनेट की मंजूरी लिए दिया गया जबकि पांच करोड़ से ज्यादा की रकम के लिए यह मंजूरी आवश्यक होती है. हालांकि मार्च, 2009 में इस आदेश में संशोधन करके इस आंकड़े को चार थीम फिल्मों और 3.15 करोड़ रु तक सीमित कर दिया गया. रिपोर्ट के मुताबिक इसके पहले पर्यटन विभाग के तत्कालीन सचिव ने फरवरी, 2009 में मंत्री को भेजी गई अपनी टिप्पणी में इस तथ्य का जिक्र नहीं किया था कि पांच करोड़ रु से ऊपर की राशि के लिए कैबिनेट की मंजूरी जरूरी होती है. वर्ष 2010 के अप्रैल व मई के महीनों में पर्यटन विभाग में जब दुबारा स्क्रूटनी कराई गई तो यह पाया गया कि वर्ष 2004-05 में पारसनाथ और इको टूरिज्म पर 15-20 मिनट की बनी थीम फिल्मों को एक प्राइवेट मीडिया हाउस से बनवाया गया था और दोनों ही फिल्मों के लिए क्रमशः 3.25 लाख व 3.45 लाख रु का अलग-अलग भुगतान किया गया था. लेकिन जनवरी 2009 में  विभाग ने पर्यटन को बढ़ावा और प्रोत्साहन देने के लिए ऐसी ही थीमों पर फिर फिल्म निर्माण का आदेश दे दिया और इसके लिए 75.84 लाख रु प्रति फिल्म देने का प्रावधान किया. यह कीमत पहले की तुलना में कई गुना ऊंची थी. विभाग ने अगस्त, 2009  में 18.91 लाख रु फिल्म निर्माण मीडिया हाउस को दे भी दिए. फिल्मों की रफ कट व फाइनल कट की कॉपी जमा करने के लिए 2009 के जून व अक्टूबर माह के बीच का समय तय किया गया था परंतु मई 2010 तक भी यह फिल्म बनकर तैयार नहीं हो सकी. कैग की रिपोर्ट देखें तो यह भी पता चलता है कि मार्च, 2009 में ट्रेजरी से दोबारा 3.15 करोड़ रु की निकासी की गई और यह राशि झारखंड पर्यटन विकास निगम के खाते में जमा कर दी गई. उपरोक्त खाते में 2.96 करोड़ रु की रकम अब भी पड़ी हुई है.
रिपोर्ट के मुताबिक इन फिल्मों के जरिये पर्यटन को प्रोत्साहन देने का मकसद अधूरा ही रह गया. ऊपर से चयन प्रक्रिया के सही न होने, काम को सौंपने में सावधानी नहीं बरतने व राशियों का समुचित उपयोग न होने के कारण 2.63 करोड़ रु यूं ही खाते में पड़ कर धूल फांक रहे हैं और ब्याज के रूप में 27.70 लाख रु का नुकसान भी हो गया है. लेकिन सवाल यह है कि कोई समय रहते इस नुकसान की सुध लेगा? लगता तो नहीं. 

लंगड़ीमार सहयोग का एक साल

राजनीतिक चखचख, आपसी स्पर्धा, साथ रहकर भी एक दूजे को मात देने की होड़ के बावजूद झारखंड में अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में सरकार ने एक साल पूरा कर लिया. निराला इस एकसाला सफर का विश्लेषण कर रहे हैं

एक चौपाली कथा है. अमावस की रात को एक ज्योतिषी के यहां चोरी हुई. ज्योतिषी ने चोरों को देखा. उसकी पत्नी बोली, शोर मचाओ, गांववालों को जगाओ. ज्योतिषी ने कहा, चुप रहो, अभी ले जाने दो सब. समय-संयोग, अभी शोर मचाने की इजाजत नहीं देता. चोर सामान लेकर चलते बने. पूर्णिमा की रात आयी तो आधी रात को ज्योतिषी अचानक चोर…चोर… कह चिल्लाने लगा. गांव वाले पहुंचे. ज्योतिषी ने कहा, चोर तो अमावस की रात ही आया था, आज तो शोर मचाने का सर्वोचित समय था, इसलिए चिल्लाया.
झारखंड में पिछले एक साल से सरकार के सफरनामे को देखें तो उस ज्योतिषी की तरह चीखने-चिल्लाने की आवाजें समय-संयोग के हिसाब से सुनाई पड़ती रहती हंै. कभी पूर्णिमा की रात की घटना पर अमावस की रात चिल्लाया जाता है तो कभी अमावस की घटना पर पूर्णिमा की रात को शोर मचता है. कभी झामुमो के मुखिया शिबू सोरेन बीच में टुनकी मारते हैं कि सरकार कुछ नहीं कर रही, राज्य में विकास नहीं हो रहा तो कभी दूसरे सहयोगी दल आजसू के विधायक अनुपूरक बजट पर बहस के दौरान ही सदन से गायब हो जाते हैं. यह जानते हुए भी कि उस समय सदन से नदारद रहना सरकार को अपदस्थ तक कर सकता है.

मुंडा को भी पता है कि घोषणाएं और चंद उपलब्धियों को गिना देने से चुनावी राजनीति में बात नहीं बनेगी

वैसे इस तरह की हर चिल्लाहट के अपने-अपने मायने होते हैं. सरकार में शामिल तीनों दल एक-दूसरे का लिटमस टेस्ट करके देखते रहते हैं. जैसे बीच में मौका देख झामुमो ने कह ही दिया कि 28-28 माह के रोटेशन फॉर्मूले पर सरकार चलाने का करार है. भाजपा ने इसे खारिज कर दिया. लेकिन मुश्किल यह है कि भाजपा या उसके मुख्यमंत्री कितनी बातों को खारिज करेंगे और कब तक? 
एक साल का तजुर्बा देखें तो जमशेदपुर लोकसभा उपचुनाव में तीनों सत्ताधारी दल आपस में गुत्थगुत्थी कर लेने के बाद भी सरकार को सरकाते रहने के लिए संकरी राह निकाल लेते हैं. सरकार चलाने के लिए मुंडा सहयोगी दलों की तो मान-मनौव्वल कर ले रहे हैं लेकिन अपनों का क्या करें? अपने भी तो निगेहबानी के बहाने वक्त-बेवक्त सामने आते रहते हैं. कभी अतिक्रमण के सवाल पर यशवंत सिन्हा, सीपी सिंह और रघुवर दास सार्वजनिक तौर पर अर्जुन मुंडा के खिलाफ गडकरी दरबार तक पहुंच जाते हैं तो कभी लोक सभा में उपाध्यक्ष पद पर विराजमान कडि़या मुंडा पुरानी टीस के साथ नये बोल बोल जाते हैं.

हालांकि भाजपाइयों के एक खेमे में नाराजगी के बावजूद अर्जुन मुंडा के परेशान नहीं होने की एक बड़ी वजह तो सभी जानते हैं कि केंद्रीय नेतृत्व व संघ परिवार का वरदहस्त उनके साथ है. इसलिए प्रदेश भाजपा के बड़े से बड़े नेता एंड़ी-चोटी का जोर लगाकर भी कुछ नहीं कर पा रहे. झारखंड भाजपा के प्रभारी हरेंद्र प्रताप सिंह कहते हैं, ‘अर्जुन मुंडा ने राज्य की कमान संभालकर लीडरशिप क्राइसिस को दूर किया है, वे सरकार और संगठन को आगे बढ़ाने की लंबी लड़ाई लड़ रहे हैं.’ हरेंद्र प्रताप लगे हाथ यह कहते हुए भी विरोधी भाजपाइयों को चुप रहने का संकेत देते हैं कि अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री के तौर पर वैसे नेता हैं जिन पर किसी भी किस्म का आर्थिक या चारित्रिक दोषारोपण नहीं किया जा सकता! यह हर कोई जानता है कि मात्र 12 साल पहले झामुमो से भाजपा में छलांग लगाने वाले मुंडा भाजपा में ऊपर तक किसी भी पुराने झारखंडी भाजपाई से ज्यादा पैठ रखते हैं. यही वजह है कि विरोधी भाजपाइयों की उनके सामने एक नहीं चल रही.

यह तो भाजपा के अंतर्कलह वाले चक्रव्यूह से पार पाने की बात हुई, सहयोगी दलों से भी मुंडा यदि पार पाते हुए पिछले एक साल से सरकार को सरकाने में सफल रहे हैं तो उसके पीछे भी कोई रहस्यमयी कारण या नेतृत्व का करिश्मा नहीं. भाजपा की तरह ही झामुमो की भी मजबूरी है कि अभी किसी तरह सरकार चलती रहे. वरना खतरा सामने है. सरायकेला-खरसांवा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने पर भी अर्जुन मुंडा को झारखंड विकास मोर्चा से हुई परेशानी और उसके बाद जमशेदपुर लोकसभा उपचुनाव में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष दिनेशानंद गोस्वामी को मिली करारी हार के बाद भाजपा फिलहाल इस स्थिति में नहीं कि तुरंत चुनावी जंग में जोर आजमाइश कर सके. दूसरी ओर झारखंड मुक्ति मोर्चा है जिसे पता है कि बाबूलाल मरांडी जितने मजबूत होंगे, भाजपा के साथ-साथ झामुमो के जनाधार में उतनी ही तेज सेंधमारी होगी. इन दोनों दलों से झाविमो में जाने का सिलसिला भी शुरू हो चुका है. इसलिए ये दोनों दल अपने साझा दुश्मन से बचने के लिए मजबूरी में ही सही ताल में ताल मिला रहे हैं.

तीसरे छोर पर आजसू है, जो झारखंड की राजनीति में ध्रुवतारे की तरह है. सरकार किसी भी दल की हो, किसी भी गठबंधन की हो, किसी न किसी रूप में आजसू सहभागी बन ही जाता है. कुछ वर्षों पूर्व तक आजसू एक से दो की संख्या पर पहुंची थी तो ज्यादा अचंभा नहीं हुआ था, क्योंकि सुदेश के बाद पार्टी के टिकट से जीत दर्ज करानेवाले सुदेश के रिश्तेदार चंद्रप्रकाशी चौधरी थे. अब मौजूदा विधानसभा में आजसू के पांच सदस्य हैं. आजसू को जाननेवाले जानते हैं कि अभी मात्र 37 वर्षीय सुदेश हड़बड़ी की बजाय भविष्य के लिए बुनियाद तैयार करने में लगे हुए है इसलिए वे सरकार में शामिल रहकर भी इन पचड़ों से दूर सरकार के सौजन्य से अपनी पार्टी की मजबूती व दायरे के विस्तार के लिए  तेजी से काम कर रहे हैं. यह अभियान एक से दो, दो से पांच के बाद धीरे-धीरे अपने दम पर स्वशासन के लक्ष्य तक पहुंचने का है.

वरिष्ठ पत्रकार मधुकर कहते हैं, ‘राजनीति के ऐसे ही पेंच में एक साल गुजर गया. रूठने-मनाने और सरकार बचाने का ही खेल एक साल चलता रहा. कोई एक ठोस काम हुआ तो नहीं दिख रहा.’ यह सवाल कई लोग पूछ रहे हैं कि पिछले एक साल में सरकार ने सत्ता-शासन बचाये-बनाये रखने के अलावा क्या ठोस किया? अर्जुन मुंडा कहते हैं कि पंचायत चुनाव हुआ, महिलाओं को 50 प्रतिशत का आरक्षण मिला, राष्ट्रीय खेल हुआ… वगैरह-वगैरह. वे यह भी कहते हैं कि 2006 से लेकर 2010 के बीच झारखंड विकृत राज्य के रूप में देश भर में मशहूर हो गया, साख गिर गई, उससे पार पाने की कोशिश हो रही है, उसमें सफल हो रहे हैं, यह क्या कोई कम बड़ा काम है. अर्जुन मुंडा द्वारा इन उपलब्धियों को गिनाने पर तहलका से बातचीत में चुटकी लेते हुए कांग्रेसी विधायक गीताश्री उरांव कहती हैं, ‘ऐसे ही बातें बना रही है सरकार एक साल से. पंचायत चुनाव राष्ट्रपति शासन के दौरान हुआ फैसला था, जिसे होना ही था. मुख्य भूमिका तो जनता की रही.’ गीताश्री आगे कहती हैं, ‘जिस राष्ट्रीय खेल को सरकार उपलब्धि बता रही है, उसके नाम पर क्या खेल हुआ, यह कौन नहीं जानता. अगर वह भी उपलब्धि है तो सरकार को बधाई. और इसके लिए भी सरकार ऐसे ही घोषणाएं करती रहे.’

इन तमाम राजनीतिक पैंतरेबाजियों के बीच अर्जुन मुंडा को भी पता है कि घोषणाएं और चंद उपलब्धियों को गिना देने से चुनावी राजनीति में बात नहीं बनेगी? वे कुछ लोकलुभावन और कुछ गंभीर रास्ते भी तेजी से अपनाने की कोशिश में हैं. पिछली बार जब सीएम थे तो एमओयू का मेला लगवा रहे थे, अब जनजातीय भाषाओं को दूसरी राजभाषा का दर्जा देकर, कंपनियों द्वारा जमीन की खरीदारी पर सरकारी अनुमति व सहमति को जरूरी बनाकर गंभीर छवि बनाने की कोशिश में लगे हुए हैं. मुंडा अघोषित तौर पर बिहार को रोल मॉडल बनाकर नीतीश की राह पर ही चलने की कोशिश में लगे हुए हैं. झारखंड ने पंचायत चुनाव में बिहार की तरह आरक्षण मॉडल चला. बिहार की तरह झारखंड में भी राइट टू सर्विस एक्ट लागू करने की तैयारी में हैं. बिहार में नीतीश ने विशेष राज्य दर्जा अभियान चलाकर वाहवाही बटोरी तो अब अर्जुन मुंडा व उनकी पार्टी भाजपा भी 25 सितंबर से झारखंड को विशेष राज्य दर्जा दिलाने के लिए हस्ताक्षर अभियान शुरू करने की तैयारी में है. लेकिन क्या बिहार और झारखंड में, दोनों राज्यों की राजनीति की गति में कोई फर्क नहीं है? भाकपा माले विधायक बिनोद सिंह पूछते हैं, ‘एक साल में क्या हुआ, सबको दिख रहा है. भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलते रहे, किसी भ्रष्टाचारी पर कार्रवाई नहीं हो सकी. उलटे शीला किस्कू रपाज जैसे अधिकारियों को सेवानिवृत्ति के बाद जांच अधिकारी बनाया जा रहा है, जिनके यहां रांची कमिश्नर रहते हुए ही निगरानी की छापेमारी हुई थी.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘जमीन की बात कर रहे हैं तो क्यों नहीं एमओयू के जरिये छल कर कंपनियों द्वारा ली गयी जमीन को सरकार आदिवासियों को वापस करवा रही है? राइट टू सर्विस एक्ट लागू करने को कह रहे हैं, पहले लालकार्ड, राशन कार्ड के जो आवेदन हैं, उन्हें तो हक दिलवा दें.’
हालांकि अर्थशास्त्री हरिश्वर दयाल कहते हैं कि अर्जुन मुंडा में कुछ करने की इच्छाशक्ति तो दिखती है लेकिन सरकार में बदलाव और विकास की भूख नहीं दिखती. वे कहते हैं, ‘बस पांच रूपये में दाल-भात जैसी कुछ योजनाएं दिखाने के लिए हो सकती हैं लेकिन बदलाव के लिए आधारभूत संरचना, संस्थानों के विकास की जरूरत होती है, जिस दिशा में कोई काम होता नहीं दिख रहा.’ हालांकि वे मानते हैं कि ऐसा न होने के पीछे एक बड़ा कारण तो मिलीजुली सरकार भी है.’

मिलीजुली सरकार के कारण आपसी खींचतान और राज्य को हो रहे नुकसान से हर कोई वाकिफ है लेकिन यह अर्जुन मुंडा या भाजपा को जनता की ओर से मिली सौगात भी तो नहीं है. खुद मुंडा ने ही ऐड़ी-चोटी का जोर लगाकर और भाजपा संसदीय बोर्ड के निर्णय को ताक पर रखकर यह सरकार बनाई थी. इसलिए वे अब मिलीजुली सरकार की मुश्किलें खुलकर गिनवा भी नहीं सकते. रही बात सरकार चलते रहने की तो पिछले 10 वर्षों में यह राज्य राजनीति की प्रयोगभूमि बना हुआ है. यहां कभी भी कोई राजनीतिक घटना घट सकती है. अभी राज्य के कुल 34 बोर्ड/निगमों को अपने खाते में करने के लिए तीनों सत्ताधारी दलों में फिर से लड़ने-भिड़ने का सिलसिला शुरू हुआ है. इसका अंजाम क्या होगा यह अभी रहस्य है. हां, सरकार के भविष्य को जानना हो तो झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन के पिछले दिनों की एक बात याद कर सकते हैं, जो उन्होंने तहलका से विशेष बातचीत के दौरान कही थी. उनका कहना था, ‘झारखंड में कभी कोई सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकती..’ 

मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की

जून के महीने मे लखनऊ में हुई भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का हासिल पूछने पर पार्टी की चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष कलराज मिश्र ने कहा था, ‘वह आपको प्रदेश भाजपा में दो-तीन महीने में पूरी तरह दिख जाएगा.’ यही समय-सीमा उन्होंने विधानसभा चुनावों के सभी टिकट घोषित होने के संदर्भ में भी दी थी. तब से अब तक दो-तीन महीने गुजर चुके हैं, लेकिन (अगर  ‘पार्टीगत ताम-झाम’ में हुई वृद्धि को छोड़ दें तो) उत्तर प्रदेश भाजपा की गहराई में बदलाव नजर नहीं आता. जबकि बदलाव की जरूरत के मद्देनजर ही इस बीच दो अहम घटनाएं हुईं. पहले उमा भारती की पार्टी में उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी के साथ वापसी (जिन्हें असल में कार्यकारिणी की बैठक के दौरान ही पार्टी में शामिल होना था, लेकिन बाबा रामदेव पर सरकारी हमले के चलते ऐसा नहीं हो सका) और अब लंबे समय से राजनीतिक वनवास काट रहे पार्टी के संघनिष्ठ कार्यकर्ता संजय जोशी भी उत्तर प्रदेश की बड़ी जिम्मेदारी के साथ पार्टी में फिर से आ गए हैं.

संजय जोशी को तो बड़े नेताओं को काबू करने का जिम्मा दिया गया है भला उन्हें सहजता से कैसे हजम किया जा सकता है

संजय जोशी की वापसी से भारतीय जनता पार्टी और खुद जोशी दोनों को बड़ी उम्मीदें हैं. राजनीतिक परिदृश्य से अचानक गायब होने से पहले तक जोशी भारतीय जनता पार्टी के अंदर सांगठनिक तौर पर सबसे ताकतवर माने जाने वाले राष्ट्रीय महामंत्री, संगठन के पद पर रह चुके थे. यह पद पार्टी के अंदर संघ का पूर्णकालिक प्रचारक ही संभालता है और इस पर आसीन व्यक्ति एक तरह से भारतीय जनता पार्टी के अंदर संघ के प्रतिनिधि के रूप में काम करता है. इसी के माध्यम से संघ भाजपा की नब्ज थामे रहता है. छह-सात साल पहले तक संजय जोशी संघ और भाजपा दोनों के शीर्ष नेतृत्व के बेहद करीबी थे. उनकी ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मोदी समेत भाजपा के कई अन्य बड़े नेताओं से सीधे टकराव के बावजूद पार्टी और संघ अंतत: उन्हीं के साथ खड़ा होता था लेकिन फिर एक विवादास्पद सीडी मीडिया में आई और सब कुछ बदल गया. सीडी में संजय जोशी किसी महिला के साथ आपत्तिजनक मुद्रा में दिख रहे थे. संजय कहते रहे कि सीडी फर्जी है लेकिन संघ और भाजपा ने उनसे पल्ला झाड़ते हुए उन्हें नेपथ्य में जाने पर मजबूर कर दिया. कुछ समय बाद जांच से यह साबित हो गया कि सीडी हकीकत में फर्जी थी. इसके बाद संजय की पार्टी में जल्द वापसी को लेकर कयास लगने लगे. सूत्रों की मानें तो कई बड़े नेताओं का अहं इस वापसी के आड़े आ गया और सही मौके का संजय जोशी का इंतजार लंबा होता गया. आखिरकार उनकी वापसी तब हुई है जब पार्टी को उनकी सबसे ज्यादा जरूरत दिखाई दे रही है.

संजय जोशी को उत्तर प्रदेश में संगठन को संभालने की जिम्मेदारी दी गई है. उत्तर प्रदेश भाजपा को थोड़ा-बहुत जानने वाला व्यक्ति भी यह समझ सकता है कि यह जिम्मेदारी कितनी चुनौती भरी है. समस्या यह है कि प्रदेश में हाई प्रोफाइल चेहरों से भरे हुए भाजपा के संगठन में अहं के टकराव को रोक पाना पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व यहां तक कि संघ के लिए भी अभी तक नामुमकिन ही रहा है. संजय जोशी को इसी एकमात्र ध्येय की प्राप्ति के लिए लगाया गया है. जोशी खामोशी से काम पर लगे हैं. बार-बार कोशिश करने पर भी वे मीडिया से कोई बात नहीं करते. यही रुख वापसी के तुरंत बाद उमा भारती का भी था. हालांकि उत्तर प्रदेश भाजपा के प्रवक्ता हृदयनारायण दीक्षित कहते हैं, ‘जोशी संगठन का काम देखने के माहिर हैं. राष्ट्रीय स्तर पर वे बड़ी जिम्मेदारी निभा चुके हैं, इसलिए उत्तर प्रदेश में भी उन्हें पार्टी के नेताओं से सहयोग मिलेगा और इसमें ऐसी कोई कठिन चुनौती नहीं होगी.’ जबकि जोशी के लिए राहें इतनी आसान नहीं हैं. उत्तर प्रदेश में संगठन इतना बिगड़ैल है कि पार्टी के संभाले नहीं संभल रहा. यहां तक कि राज्य के संगठनों में समन्वय बनाने और उस पर संघ का नियंत्रण रखने के लिए भी जो प्रदेश महामंत्री, संगठन होता है वह भी यहां गुटबाजी में फंस चुका है. वह पद यहां राकेश जैन के पास है. चूंकि राकेश जैन के होते हुए भी स्थिति नहीं सुलझ रही, इसलिए संघ के लिए भी चिंता बढ़ गई है.

संघ से जुड़े दुष्यंत तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘राकेश जैन से पहले नागेंद्रनाथ उत्तर प्रदेश में महामंत्री संगठन की जिम्मेदारी 10 सालों से देख रहे थे. उससे पहले उन्होंने इसी तरह की जिम्मेदारी विद्यार्थी परिषद और संघ में भी निभाई थी. इसलिए प्रदेश भाजपा के ज्यादातर शीर्ष नेता उनके समकालीन थे और उनका सम्मान करते थे. इस पद पर उनका एक रौब था. राकेश जैन का आभामंडल उतना बड़ा नहीं है कि वे इतने बड़े नेताओं पर सीधा नियंत्रण रख सकें. मूल समस्या यही है. इसीलिए अब संजय जोशी को स्थिति को नियंत्रण में रखने के लिए भेजा गया है.’ साफ है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव सिर पर होने के बावजूद हालत न सुधरने की चिंता संघ को भी परेशान कर रही है और संजय जोशी की उत्तर प्रदेश में नियुक्ति के पीछे उसकी बड़ी भूमिका है.

चूंकि जोशी अभी-अभी आए हैं, इसलिए उनके काम का मूल्यांकन इतनी जल्दी नहीं हो सकता, लेकिन एक बात तो तय है कि जिस तरह उमा भारती की उत्तर प्रदेश में तैनाती यहां के बड़े नेताओं को रास नहीं आई उसी तरह संजय जोशी का आना भी उन्हें अखर रहा है. उमा की वापसी का समारोह प्रदेश भाजपा कार्यालय में ही हुआ था, लेकिन लखनऊ में होने के बावजूद उनके स्वागत में कोई बड़ा नेता नहीं पहुंचा था. वहां सिर्फ मंझोले कद के नेताओं, विधायकों और कार्यकर्ताओं का ही हुजूम था. इसी तरह संजय जोशी की वापसी को लेकर भी कोई बड़ा नेता कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहा. यहां एक और बात गौरतलब है कि उमा भारती को तो सिर्फ प्रमुख प्रचारक बनाया गया था लेकिन फिर भी चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष कलराज मिश्र को यह बात अखर गई थी. विनय कटियार, ओमप्रकाश सिंह आदि नेताओं को पिछड़ा फैक्टर के चलते उमा पसंद नहीं आई थी, लालजी टंडन की ‘बाहर वालों’ से दिक्कत जगजाहिर है. अब संजय जोशी को  वास्तव में बड़े नेताओं को काबू करने की जिम्मेदारी दी गई है. ऐसे में भला उन्हें सहजता से कैसे हजम किया जा सकता है.  

तमाम कोशिशों के बावजूद पार्टी अभी तक प्रत्याशियों की पहली सूची भी जारी नहीं कर पाई है. राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद पांच-छह जुलाई को झांसी में प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक तय थी जिसमें टिकट वितरण को लेकर अहम फैसले होने थे. लेकिन अपनों को सेट कराने की जुगत, खेमेबाजी और अहं के टकराव के चलते कुछ फाइनल ही नहीं हो पाया और अंत समय में यह बैठक टाल दी गई. उसके बाद से आज दो महीने बीत जाने के बाद भी प्रदेश कार्यकारिणी की बैठक का दिन तय नहीं हुआ है. बड़े नेताओं के अहं को संतुष्ट करने के लिए और सबको समायोजित करने के लिए पार्टी संविधान को ताक पर रखकर पदाधिकारी नियुक्त किए जा रहे हैं. मसलन प्रदेश मंत्रियों की संख्या 10 की जगह 18 तक पहुंच गई है क्योंकि लालजी टंडन, रमापति राम त्रिपाठी समेत कई वरिष्ठ नेताओं के पुत्रों को इसमें समायोजित किया गया है.

गुटबाजी का एक पहलू यह भी है कि जिस तरह बड़े नेता एक-दूसरे के नेतृत्व को नहीं स्वीकार कर रहे उसी तरह नेता पुत्र भी आपस में 36 का आंकड़ा रखते है. संजय जोशी को सबसे बड़ी मेहनत इनसे एकसाथ काम लेने पर करनी होगी क्योंकि राष्ट्रीय कार्यकारिणी में बार-बार भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दे पर बोलने और केंद्रीय नेतृत्व के अन्ना के आंदोलन को भुनाने के बावजूद उत्तर प्रदेश की भाजपा प्रदेश में इन मुद्दों पर कोई खास माहौल नहीं बना पाई. जनलोकपाल को लेकर अन्ना के आंदोलन का केंद्र में भाजपा समर्थन कर रही थी लेकिन उत्तर प्रदेश में उसके नेताओं का एक भी बयान राज्यों में लोकायुक्त के पक्ष में नहीं आया.

पार्टी की निष्क्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आम आदमी से जुड़े मुद्दों पर ही नहीं भाजपा अपने लोगों की मुश्किलों पर भी कुछ नहीं बोली. चार सितंबर को लखनऊ विश्वविद्यालय में यूथ अगेंस्ट करप्शन (जो भ्रष्टाचार के खिलाफ संघ का अभियान है) की एक सभा मालवीय सभागार में होनी थी. इसके लिए प्रशासन से अनुमति भी मिल चुकी थी और तैयारियां भी पूरी हो चुकी थीं. लेकिन सभा से एक रात पहले विश्वविद्यालय प्रशासन ने बिना किसी सूचना के यूथ अगेंस्ट करप्शन को सभागार देने से मना कर दिया. अभियान के पदाधिकारी जब मुख्य वक्ता राम माधव के साथ वहां पहुंचे तब उन्होंने कार्यक्रम स्थल पर भारी पुलिस बल और पुलिस अधिकारियों को देखा. पूछने पर पता चला कि कार्यक्रम को अनुमति नहीं मिली. इस पर राम माधव और दूसरे वक्ताओं ने सभागार के बाहर ही खुले आसमान के नीचे भाषण दिया. यह मामला लगातार तूल पकड़ता गया लेकिन भाजपा सोती रही.
यूथ अगेंस्ट करप्शन के उत्तर प्रदेश के संयोजक राकेश त्रिपाठी, जो विद्यार्थी परिषद से जुड़े रहे हैं, इस मामले पर उत्तर प्रदेश भाजपा से बहुत नाराज है. राकेश कहते है, ‘आपके अपने संगठन के अभियान के लिए प्रशासन ने आखिरी वक्त में अनुमति निरस्त कर दी. राम माधव जी जो संघ और भाजपा दोनों में वरिष्ठ स्थान रखते हैं वे अधिकारियों से भिड़ते रहे और बाद में खुले आसमान के नीचे युवाओं के बीच भाषण तक दिया लेकिन उत्तर प्रदेश भाजपा का कोई बड़ा नेता झांकने तक नहीं आया.’  भाजपा उम्मीद करेगी कि संजय जोशी के आगमन का जमीनी असर जल्द ही दिखने लगे.  

खिवैय्यों में रार नैय्या मझधार

उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों के चयन को लेकर कांग्रेस के भीतर उठापटक का आलम यह है कि पार्टी के दो कद्दावर नेता प्रमोद तिवारी और रीता जोशी खुलकर एक-दूसरे के सामने आ गए हैं. पार्टी अब सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे वाली रणनीति खोजने में लगी है. जयप्रकाश त्रिपाठी की रिपोर्ट

कांग्रेस का मिशन 2012 यानी 22 साल पहले पार्टी उत्तर प्रदेश में जो सत्ता गंवा चुकी है उसे वापस पाने की जी-तोड़ कोशिश. लेकिन फिलहाल पार्टी में जो हो रहा है उससे वापसी की यह राह काफी फिसलन भरी दिखती है. विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी प्रत्याशियों के चयन की प्रक्रिया महीनों से चल रही थी. इसके बावजूद अगस्त के अंत में 73 लोगों की पहली सूची जारी होने के साथ ही विरोध की सुगबुगाहट होने लगी. दूसरी सूची की नौबत आने तक आलम यह हो गया कि पहली सूची के आने के बाद जो बगावत पार्टी की चारदीवारी के भीतर सुलग रही थी वह धधक कर सरेआम हो गई है.

दिलचस्प यह है कि यह बगावत और विरोध आम कार्यकर्ता में नहीं बल्कि प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी व पार्टी के दूसरे कद्दावर नेता प्रमोद तिवारी के बीच दिख रहा है. यह हाल तब है जब पार्टी के महासचिव राहुल गांधी व दिग्विजय सिंह जैसे बड़े नेता बराबर प्रत्याशियों के चयन पर नजर गड़ाए हुए हैं और प्रदेश के नेताओं को बार-बार अनुशासन का पाठ पढ़ाते रहते हैं.
पहली सूची जारी होने के बाद विरोध की सुगबुगाहट राजधानी लखनऊ की उस कैंट सीट को लेकर शुरू हुई थी जिससे पार्टी की प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी के चुनाव लड़ने की बात सार्वजनिक हुई. उक्त सीट पर लंबे समय से दावेदारी जता रहे पार्टी के सभासद राजेंद्र सिंह गप्पू ने इसका विरोध शुरू कर दिया. गप्पू कहते हैं, ‘1995 में मैं सबसे पहले कैंट विधानसभा क्षेत्र के ओमनगर वार्ड से सभासद बना. उसके बाद लगातार तीन बार उसी सीट से चुनाव जीता. 2002 के विधानसभा चुनाव में जब पार्टी का प्रदेश में कोई जनाधार नहीं था और ज्यादातर प्रत्याशियों की जमानत जब्त हुई थी उस समय मुझे कैंट सीट पर करीब 21 हजार वोट मिले थे. अब प्रदेश में जब पार्टी की स्थिति सुधर रही है तो प्रदेश अध्यक्ष रीता जोशी ने कैंट सीट अपने लिए रख लिया. 2009 के लोकसभा चुनाव में लखनऊ से जब वे चुनाव लड़ी थीं तो कैंट विधानसभा क्षेत्र ही ऐसा था जहां से उन्हें अन्य पार्टियों से पांच हजार वोट अधिक मिले थे.’ गप्पू आगे बताते हैं, ‘कैंट सीट के लिए दिग्विजय सिंह व रीता जोशी दोनों ही नेताओं से काफी पहले ही बात हो चुकी थी. लेकिन जब यह पता चला कि कैंट से रीता जोशी खुद चुनाव लड़ेंगी तो मुझे लखनऊ की ही दूसरी विधानसभा सीट सरोजनीनगर से लड़ाने का आश्वासन प्रदेश अध्यक्ष की ओर से दिया गया. बाद में सरोजनीनगर सीट से भी प्रदेश अध्यक्ष मुकर गईं.’ जिस पार्टी में 16 साल बिताए उससे टिकट कटने का रंज गप्पू को ऐसा हुआ कि सितंबर के पहले सप्ताह में उन्होंने पुरानी पार्टी का दामन छोड़ साइकिल की सवारी करने का मन बनाया और समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए. कैंट सीट से रीता जोशी के मैदान में आने के बाद कुल तीन ब्राह्मण प्रत्याशी अभी तक मैदान में आ चुके हैं. बसपा ने इस सीट से जहां पप्पू त्रिवेदी को उम्मीदवार बनाया है वहीं भाजपा ने अपने वर्तमान विधायक सुरेश तिवारी को मैदान में उतारा है.

पार्टी का एक गुट वर्तमान अध्यक्ष के बराबर कार्यकारी अध्यक्ष बनवाने की जुगत में भी दिल्ली के कुछ बड़े नेताओं से संपर्क साधने में लगा हैकांग्रेस की पहली सूची में विरोध सिर्फ कैंट सीट को लेकर ही नहीं हुआ. पार्टी नेताओं के बीच बिजनौर की नगीना विधानसभा सीट पर फूल सिंह को प्रत्याशी बनाए जाने का भी खूब विरोध हुआ. पहली सूची में फूल सिंह का नाम आने के बाद से ही बिजनौर में कांग्रेस के एक खेमे ने विरोध शुरू कर दिया है. यह विवाद पार्टी कार्यालय से लेकर बिजनौर की सड़कों तक पर देखने को मिला.
पहली सूची से उपजे विवाद को कांग्रेस हाईकमान ने काफी हल्के में लिया जिसका नतीजा यह रहा कि दूसरी सूची को अंतिम रूप देने के लिए दिल्ली में हुई बैठक के दौरान प्रदेश अध्यक्ष रीता जोशी व विधायक प्रमोद तिवारी के बीच जो कुछ हुआ वह पार्टी को शर्मसार करने के लिए काफी था.

सूत्र बताते हैं कि पांच सितंबर को दिल्ली में जो बैठक हो रही थी उसमें 50-60 प्रत्याशियों के नाम तय होने थे. शुरू में सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा लेकिन बीच में तिवारी खेमे ने पूर्वी उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाली पार्टी के एक प्रवक्ता सहित कुछ अन्य लोगों को टिकट देने की वकालत शुरू कर दी. जिस पार्टी प्रवक्ता का समर्थन तिवारी और उनका खेमा कर रहा था उसका विरोध रीता जोशी ने यह कहते हुए किया कि पिछले कई चुनावों में उसे टिकट दिया गया लेकिन वह हार गया. इसी तरह उनका विरोध दूसरे नामों पर भी रहा. बैठक में आरोप-प्रत्यारोप इतना बढ़ गया कि एक-दूसरे पर रुपये लेकर टिकट बेचने तक की बात उठ गई. सूत्र बताते हैं कि बातचीत से शुरू हुई बैठक में बहस इतनी तल्ख हो गई कि रीता जोशी बैठक को बीच में ही छोड़ कर चली गईं.
बैठक में उत्तर प्रदेश के शीर्ष नेताओं ने जो फजीहत कराई उसकी जानकारी जब राहुल गांधी को हुई तो उन्होंने बीच-बचाव का जिम्मा खुद संभाला. लिहाजा प्रमोद तिवारी व रीता जोशी ने एक साथ आकर बयान दिया कि दिल्ली में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जैसी कि अफवाहें हैं. टिकट मिलने की आस लगाए एक पूर्व विधायक चुटकी लेते हुए कहते हैं, ‘सवाल यह उठता है कि जब दोनों नेताओं के बीच कोई विवाद हुआ ही नहीं तो आखिर सफाई देने की नौबत क्यों आ गई.’ उक्त नेता के मुताबिक प्रमुख विपक्षी पार्टियों सपा व बसपा ने अपने-अपने प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं और कांग्रेस अभी पहली सूची के विवाद से ही नहीं उबर पा रही है. वे कहते हैं, ‘जरूरत विपक्षी पार्टियों से दो-दो हाथ करने की है तो हमारी पार्टी में टिकट को लेकर ही घमासान हो रहा है.’
टिकटों को लेकर प्रदेश के शीर्ष कांग्रेसियों के बीच मचे घमासान का असर पार्टी के दूसरे कार्यकर्ताओं पर भी देखने को मिल रहा है. पार्टी के उपाध्यक्ष व पूर्व मंत्री रणजीत सिंह जूदेव ने विधिवत बयान जारी करके बिना नाम लिए दिल्ली की बैठक में रीता जोशी पर आरोप लगाने वालों पर निशाना साधा. जूदेव के मुताबिक छानबीन समिति पूरी गंभीरता से प्रत्याशियों के नामों पर विचार कर रही है और टिकटों के बंटवारे के बारे में भ्रामक प्रचार केवल वे लोग कर रहे हैं जो हमेशा विरोधी दलों के साथ मिलकर कांग्रेस को कमजोर करने का प्रयास करते हैं. रीता जोशी के समर्थन में पूर्व मंत्री जूदेव ने पार्टी हाईकमान से यहां तक मांग कर डाली कि विरोधी दलों से सांठ-गांठ करके कमजोर प्रत्याशी खड़े करने वाले षड्यंत्रकारी तत्वों की पहचान करके उन पर अंकुश लगाया जाए.

अपनी ही पार्टी के नेताओं पर विरोधी पार्टियों से सांठ-गांठ करने का आरोप पार्टी के ही एक पूर्व मंत्री द्वारा लगाया जाना यह बताने के लिए पर्याप्त है कि हाईकमान की ़डांट-डपट का असर नीचे तक नहीं हुआ है और अंदरखाने में अब भी जबर्दस्त मतभेद बना हुआ है. चुनाव के समय भी पार्टी छोटे-छोटे खेमों में बंटी नजर आ रही है. सूत्र बताते हैं कि पार्टी का एक गुट वर्तमान अध्यक्ष के बराबर कार्यकारी अध्यक्ष बनवाने की जुगत में भी दिल्ली के कुछ बड़े नेताओं से संपर्क साधने में लगा है.

फिलहाल प्रदेश अध्यक्ष रीता जोशी पार्टी के किसी भी नेता से टिकट के बंटवारे को लेकर हुए विवाद की बात को सिरे से नकारती हैं. लेकिन इतना जरूर कहती हैं कि दूसरी सूची में 17-18 नाम ऐसे थे जिनका उन्होंने विरोध किया था. वे कहती हैं, ‘कुछ लोग ऐसे लोगों को टिकट देना चाह रहे थे जो पिछले कई चुनाव तो लड़े लेकिन अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए. इनमें कुछ ऐसे नाम भी थे जो बैकडोर से पार्टी में शामिल होकर सिर्फ चुनाव लड़ने ही आए हैं. इन लोगों के स्थान पर मैं उनको टिकट देने की मांग कर रही थी जो सालों से ब्लॉक प्रमुख आदि हैं या पूरी निष्ठा से पार्टी के साथ जुड़े हुए हैं.’

फिलहाल विवादों के बाद दूसरी सूची का मामला अधर में लटक गया है. कांग्रेस हाईकमान के सामने डैमेज कंट्रोल का संकट है. सांप भी मर जाए और लाठी भी बची रहे वाली रणनीति खोजना उसके लिए काफी मुश्किल होगा.  

शिक्षा के मंदिर, शोक की घंटियां

हिंदुस्तान के पहले आईआईटी, आईआईटी खड़गपुर के 1956 में हुए पहले दीक्षांत समारोह में पंडित नेहरू ने कहा था, ‘यह हिंदुस्तान की एक उत्कृष्ट धरोहर है, जो हमारी उम्मीदों का प्रतिनिधित्व करेगी और हिंदुस्तान के भविष्य के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी.’ मगर न तो आईआईटी संस्थानों की स्थापना में अहम योगदान देने वाले पंडित नेहरू ने सोचा होगा और न ही मध्यम वर्गीय महत्वाकांक्षा के हम और आप जैसे दावेदारों ने ही, कि हिंदुस्तान का भविष्य तैयार होने से पहले ही इन आईआईटी संस्थानों में आत्महत्या करने को मजबूर होगा. अगर आप भी आईआईटी के कुछ प्रोफेसरों की ही तरह इस तरह का कोई गुमान रखते हैं कि आत्महत्याएं सिर्फ आईआईटी संस्थानों में ही नहीं हर जगह होती हैं और आईआईटी की शिक्षा व्यवस्था और पद्धति इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं, तो कृपया इन आंकड़ों पर नजर डाले.

मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार इस साल अभी तक आईआईटी संस्थानों में सात आत्महत्याएं हो चुकी हैं जिसमें से दो पिछले दो हफ्तों के दौरान हुई हैं. सबसे ताजा मामला आईआईटी पटना में तीसरे वर्ष की 21 वर्षीया यलावर्थी सुइया का है जिसने पांचवंे सेमस्टर में खराब प्रदर्शन की वजह से अपने हॉस्टल की इमारत से कूद कर आत्महत्या कर ली. इससे पहले आईआईटी मद्रास में एमटेक के दूसरे वर्ष के छात्र बी गौरीशंकर ने जहर पी कर आत्महत्या कर ली थी. 2011 का आंकडा पिछले चार सालों में आत्महत्याओं का सबसे बड़ा आंकड़ा है. 2010 में दो, 2009 में चार और 2008 में आईआईटी के पांच छात्र आत्महत्या कर चुके हैं. इसके अलावा, आईआईटी कानपुर में वर्ष 2005 से वर्ष 2010 तक आठ आत्महत्याएं हो चुकी हैं और आईआईटी मद्रास में वर्ष 2008 से 2011 तक पांच.

‘ हम लोग रियल लाइफ से बिलकुल कटे रहते हैं. 8वी-9वी के बाद कभी कोई स्पोर्टस नहीं खेला, किसी डिबेट या ऐक्टिविटी में भाग नहीं लिया ‘

दिल्ली के जाने-माने मनोवैज्ञानिक संजय चुग के कहते हैं,’ आत्महत्या की कोई एक निर्धारित वजह नहीं होती. हमेशा कुछ कारण साथ मिल कर आत्महत्या की वजह बनते हैं. इन्हीं कारणों की वजह से अकसर छात्रों में तनाव और अवसाद घर कर जाता है और जब परिणाम आपके अनुरूप नहीं आते, तब आप मानसिक रूप से परेशान और अकेले-उदास हो कर आत्महत्या करने के लिए प्रेरित होते हैं.’

‘तहलका’ ने आईआईटी संस्थानों में हो रही आत्महत्याओं की इन्हीं अलग-अलग वजहों को जानने के लिए देश के इन महत्वपूर्ण संस्थानों के कई छात्रों से मुलाकात और बातचीत की. बातचीत के दौरान सभी छात्रों की एकमात्र शर्त थी कि उनका नाम न छापा जाए और इसी वजह से यहां बिना उनके नाम छापे उनकी बात आप तक पहुंचाई जा रही है.

आईआईटी संस्थानों के तकरीबन सभी छात्रों ने एकमत से आत्महत्या और अवसाद  के लिए जिस अहम कारण का जिक्र किया वह है शैक्षिक दबाव. आईआईटी दिल्ली मेंे एमटेक के एक छात्र बताते हैं, ’यहां आपको 80 प्रतिशत ऐसे लोग मिल जाएंगे जो आईआईटी के सिस्टम से उखड़े हुए हैं…हर बंदा यहां आईआईटी से नहीं, उसके सिस्टम से परेशान है’. आईआईटी में ‘प्रतिष्ठित’ डिग्री को हासिल करने के लिए सिस्टम को इतना उलझा हुआ बना दिया गया है कि छात्र को उसको समझने में ही दो-तीन साल लग जाते है. आईआईटी कानपुर में बीटेक, चौथे वर्ष के एक छात्र कहते हैं, ’मुझे अपनी डिग्री प्लान करने में ही बहुत टाइम लग जाता है.’ कई संस्थानों में प्री-रेक्वजिट (pre-requisite) जैसे उलझे नियम, खुद टाइम टेबल बनाने की कवायद, 75 प्रतिशत उपस्थिति की शर्त, हर गतिविधि में क्रेडिट पांइट का लेन-देन, कई जगह स्टेंडिंग रिव्यू कमेटी जैसी सख्त कमेटियों का होना, प्रोफेसरों का रुखा रवैया जैसे कई कारण हैं जिनसे छात्र अवसादग्रस्त हो जाते हैं.

प्री-रेक्वजिट जैसे सख्त नियम पर आईआईटी दिल्ली के काफी छात्र अपना रोष व्यक्त करते हैं. बीटेक (चौथे वर्ष) के एक छात्र कहते हैं, ‘अगर आप पहले सेमस्टर में किसी कोर्स में फेल हो गए तो उसकी परीक्षा दोबारा आप अगले सेमस्टर में नहीं, अगले साल दंेगे. और अगले साल वह कोर्स देने के लिए आपको उस साल का एक कोर्स ड्रॉप करना पड़ेगा जो आप फिर तीसरे साल में देंगेे, तीसरे साल वाला कोर्स आप फिर चौथे साल में देंगे..और अगर यह चेन चौथे साल के आखिर तक जाती है तो फिर आपकी डिग्री एक्सटेंड हो जाती है. और यह काफी लोगों के साथ होता है. साथ ही आपको उस रुके हुए कोर्स की सारी कक्षाएं भी फिर से अटेंड करनी जरूरी होती हैं. इसका सबसे ज्यादा असर प्लेसमेंट पर पड़ता है जहां पहले से कैंपस प्लेसमेंट में नौकरी पा चुके छात्र डिग्री के एक्सटेंशन की वजह से अपने ड्रीम जाब से हाथ धो बैठते हैं.’

इतना दबाव छात्रों पर डाल कर शायद यह दिखाना चाहते हैं कि आईआईटी का छात्र कितनी मेहनत करता है. मगर मार्क्स के आगे भी दुनिया होती है

आईआईटी का यह सिस्टम बाकी इंजीनियरिंग संस्थानों से एकदम अलग है, जहां पर छात्र रुके हुए कोर्स को अगले ही सेमस्टर में बाकी के विषयों के साथ दे कर उत्तीर्ण कर सकता है. एमटेक डूअल (dual) डिग्री के एक छात्र बताते हैं, ’इस सिस्टम की वजह से तीसरे सेमस्टर के एक कोर्स में फेल हुआ तो ऐसे लूप में फंसा कि आज सातवें सेमस्टर तक आते-आते मैं चार कोर्स के पेपर अपने जूनियरों के साथ दे चुका हूं…अब अगर गलती से भी मैं किसी और कोर्स में फेल हो गया तो मेरी डिग्री तो हर हाल में एक्सटेंड होगी.’

आईआईटी संस्थानों में इसी तरह के सख्त नियमों के चलते कई छात्रों की डिग्रियां एक या दो साल आगे बढ़ जाती हैं और प्लेसमेंट में मिली नौकरी हाथ से चली जाती है. इस वजह से उनमें अवसाद बढ़ जाता है जो कुछ मामलों में आत्महत्या का रुप ले लेता है. आंकड़ों से भी साफ पता चलता है कि ज्यादातर छात्रों की आत्महत्या करने की वजह उनकी डिग्री का एक्सटेंड होना और कैंपस प्लेसमेंट में मिली नौकरी का हाथ से जाना होता है.

अब बात स्टेंडिंग रिव्यू कमेटी (एसआरसी) की. इसके बारे में आईआईटी दिल्ली के एक छात्र कहते हैं, ’हमारे यहां एसआरसी एक हव्वा है. सो जा नहीं तो गब्बर आ जाएगा की तर्ज पर हमारे यहां कहते हैं कि पढ़ ले नहीं तो एसआरसी लग जाएगी! जब आपके ऊपर एसआरसी बैठती है तो तकनीकी रूप से आपका अगले सेमस्टर का एक कोर्स अपने आप ड्रॉप हो जाता है क्योंकि प्रोफेसरों को लगता है कि आप इतना बोझ नहीं उठा सकते. तो मदद करने की जगह एसआरसी छात्रों का नुकसान ही करती है. यह डिजाइन और रियालिटी के बीच का फर्क है…आपने सिस्टम तो डिजाइन कर दिया मगर आपको रियालिटी के बारे में कुछ नहीं पता है.’ एक दूसरी परेशानी की तरफ ध्यान खींचते हुए एक अन्य छात्र कहते हैं, ’यहां हर चीज के लिए आपको क्रेडिट चाहिए होता है. टेक्निकल ट्रेनिंग के लिए इतने क्रेडिट चाहिए, बीटेक प्रोजेक्ट के लिए उतने क्रेडिट चाहिए. जिंदगी के चार साल बस गणित लगाते हुए ही निकल जाते हैं.’

मगर आईआईटी दिल्ली के छात्र संकायाध्यक्ष प्रोफेसर शशि माथुर शैक्षिक दबाव को अवसाद और आत्महत्या की वजह मानने से इंकार करते हैं. वे कहते हैं ’मैं अपने छात्रों को कहता हूं कि आपको आईआईटी में फेल होने के लिए काफी ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी, न कि पास होने के लिए! शैक्षिक दबाव  बिलकुल भी तनाव और आत्महत्या की वजह नहीं हो सकता.’ वही दूसरी तरफ जाने-माने शिक्षाशास्त्री और यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर यशपाल सीधे-सीधे अपनी बात रखते हैं, ’इतना अकादमिक दबाव छात्रों पर डाल कर शायद ये लोग यह दिखाना चाहते हैं कि आईआईटी का छात्र कितनी मेहनत करता है. मगर मार्क्स के आगे भी दुनिया होती है. आईआईटी में इस तरह की पढ़ाई से छात्रों को असली ज्ञान की दुनिया से महरूम रखा जा रहा है.’

लगातार बढ़ती आत्महत्याओं और अवसाद के मामलों के चलते ज्यादातर आईआईटी संस्थानों में काउंसलिंग सेल मौजूद है जहां मनोचिकित्सक छात्रों की मदद करते हैं. मगर अकसर छात्र काउंसलिंग के लिए नहीं जाते. इसकी वजह बताते हुए आईआईटी दिल्ली की मुख्य काउंसलर रुपा मुगरई कहती हैं, ’हमारे समाज में काउंसलिंग को  लेकर काफी नकारात्मक धारणा है. मेरे पास काफी छात्र आते हैं जो मनोचिकित्सक के पास नहीं जाना चाहते, दवा नहीं लेना चाहते क्योंकि इससे वे लोगों की नजर में आ जाएंगे. यहां तक कि वे काउंसलर के पास भी नहीं आते कि कहीं लोग उन्हें पागल न समझें.’ मगर यहां से काउंसलिंग ले चुके आईआईटी दिल्ली के एमटेक के आखिरी साल के एक छात्र का अनुभव थोड़ा अलग था. वे बताते हैं, ’मैं पहली बार गया तो आफिस बंद था. दूसरी बार गया तो रिसेप्शनिस्ट नहीं थी, तीसरी बार काउंसलर मैडम छुट्टी पर थीं, उसके बाद रिसेप्शनिस्ट छुट्टी पर चली गईं. फिर जब आखिर में अपाइंटमेंट मिला तो तीन दिन बाद का मिला. तो जब मैं खुद अपने से इतनी कोशिश कर रहा हूं कि मुझे मदद चाहिए, तब मुझे नौ दिन बाद जाकर मदद मिली. यहां 8000 छात्र हंै और सिर्फ दो काउंसलर, कैसे समय पर मदद मिल पाएगी?’
यह शिकायत काफी छात्रों की थी कि आप जब खुद मदद के लिए जाएं तभी मदद मिलती है, और अकसर अवसाद के शिकार छात्र खुद काउंसलर के पास नहीं जाते हैं. जैसा कि एक छात्र अपने आक्रोश को छुपाते हुए बताते हंै, ’जब अखबारों में किसी आत्महत्या की खबर छपती है और डायरेक्टर स्टेटमेंट देते हैं कि हम लोग तो उस छात्र को बड़े ध्यान से आब्जर्व कर रहे थे और उसमें अवसाद या तनाव के कोई लक्षण मौजूद नहीं थे, पता नहीं उसने ऐसा कदम क्यों उठाया तो हम लोगों को हंसी आती है. मुझे तो यहां कोई भी ऑब्जर्व नहीं कर रहा है. उनको कैसे पता चलेगा कि मैं तनाव या अवसाद में हूं जबकि यहां मेरे दोस्तों तक को उसके बारे में पता नहीं चलता है.’

एक और अहम पहलू है छात्रों पर अभिभावकों और समाज का दबाव. पहले यह दबाव इन संस्थानों में प्रवेश को लेकर होता है और प्रवेश के बाद आईआईटी में लगातार अच्छा प्रदर्शन करने को लेकर. काउंसलर रुपा मुरगई बताती हैं, ‘काफी सारे छात्र आईआईटी में प्रवेश पाने से पहले ही तनाव और अवसाद के शिकार होते हैं. आईआईटी में दाखिला पाने के लिए लगातार अभिवावकों के दबाव के चलते बच्चा सामान्य जिंदगी नहीं जी पाता है. उसने बाकी बच्चों की तरह स्कूल लाइफ नहीं देखी होती. कोचिंग संस्थान और अभिवावक मिलकर बच्चों को सिर्फ आईआईटी की तैयारी के लिए ही अनुशासन में रख कर प्रशिक्षित करते हैं. किताबों से बाहर उसे निकलने ही नहीं देते. जब बच्चा आईआईटी में आता है तो यहां उसे वह अनुशासन और प्रशिक्षण नहीं मिलता, अभिवावकों की निगरानी नहीं मिलती, सब कुछ अकेले करना पड़ता है. अगर वह इस तरह की नयी संस्कृति से तालमेल नहीं बिठा पाता तो धीरे-धीरे अवसाद में चला जाता है.’

वास्तविक दुनिया से अलग-थलग होना भी काफी छात्र इस दबाव की प्रमुख वजह मानते हैं. आईआईटी मद्रास के चौथे साल के एक छात्र को इसका अहसास है. वे कहते हैं, ’हम लोग रियल लाइफ से बिलकुल कटे रहते हैं. मुझे घर के कई काम करने नहीं आते. मैंने कभी टेलीफोन बिल नहीं जमा किया. सब्जी लेने मैं आज तक नहीं गया.स्कूल लाइफ में कभी किसी लड़की के साथ फिल्म नहीं देखी. 8वीं-9वीं के बाद कभी कोई स्पोर्ट्स नहीं खेला, किसी डिबेट या ऐक्टिविटी में भाग नहीं लिया और तकरीबन मेरे सारे दोस्तों ने भी ये सारे काम नहीं किए हैं.’ वास्तविक दुनिया से अपने इसी डिसकनेक्ट की वजह से काफी छात्र तनाव को नहीं संभाल पाते हैं. एक छात्र के शब्दों में, ‘यहां के छात्रों में इन मुश्किल हालात से निपटने की क्षमताएं नहीं रहतीं, उनमें तनाव को झेलने की प्रतिरोधक क्षमता नहीं होती है.’

इसके अलावा भी कई संभावित कारण हैं जो छात्रों के बीच अवसाद को बढ़ावा देते हैं. उदाहरण के लिए कई प्रोफेसरों का छात्रों के प्रति रुखा रवैया. आईआईटी दिल्ली के एक छात्र बताते हैं, ‘यहां कुछ प्रोफेसर वाकई अच्छे होते हैं मगर कुछ प्रोफेसर होते है जो छात्रों के प्रति काफी असंवेदनशील होते हैं, उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि छात्र का करियर बर्बाद हो रहा है. वे आपको अकसर निरुत्साहित और अपमानित करते रहते हैं. और छात्र कुछ कर नहीं सकते क्योंकि आईआईटी में प्रोफेसर के हाथ में पूरी पाॅवर होती है, वह आपका करियर बना भी सकता है और चाहे तो बिगाड़ भी सकता है.’

इसके अलावा एक दूसरी और खास वजह आईआईटी की बनी हुई साख है. इस संस्थान में प्रवेश मिलने वाले को शुरू से ही खुदा का दर्जा दिया जाता है और जब यहां आकर कोई छात्र अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाता तो वह उस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाता है. आईआईटी कानपुर के दूसरे वर्ष के एक छात्र बताते हैं, ‘यहां आया हुआ हर छात्र अपनी-अपनी क्लास का टॉपर होता है. और यहां आकर कुछ ऊपर होते हैं और कुछ नीचे. मगर जो बंदा नीचे है वह भी आया तो टॉपर बन कर ही था, इसीलिए उसे यह बात स्वीकार करने में बड़ी मुश्किल होती है कि वह उतना बुद्धिमान नहीं है जितना उसने और उसकी फैमिली ने सोचा था.’

आईआईटी संस्थानों में इस तरह के प्रकरणों को कम करने के लिए सिस्टम में मौजूद कमियों को दूर करने पर जोर डालते हुए प्रोफेसर यशपाल आईआईटी को यूनिवर्सिटी का दर्जा देने का सुझाव देते हंै, जहां दूसरे विषय भी पढ़ाए जाएं जिससे छात्र का संपूर्ण विकास संभव हो सके. वे कहते हैं, ‘अगर आप विश्व के बेहतरीन विश्वविद्यालयों का इतिहास देखें तो आपको पता चलेगा कि वे सभी इसलिए इतने जाने जाते हैं क्योंकि उन्होंने वक्त के साथ अपना विस्तार किया और अलग-अलग विषयों को अपने छात्रों को पढ़ाया. आईआईटी में दी जा रही शिक्षा संपूर्ण शिक्षा नहीं है. आईआईटी का छात्र बहुत कुछ कर सकता है मगर इस तरह की शिक्षा से छात्र ज्ञान की दुनिया से कट जाता है.’

आईआईटी से निकली अनेकों प्रतिभाओं ने अपनी विलक्षण उपलब्धियों से दुनिया के सामने कई उदाहरण रखे हैं जो काबिले तारीफ है. लेकिन प्रतिभाओं को तराशने में और बने-बनाए सांचे में ढालने में फर्क होता है. इसलिए ऐसे सृजनशील प्रतिष्ठानों से हम यही अपेक्षा कर सकते हैं कि इस तरह की दुखद घटनाओं पर अंकुश लगाने के तरीके खोजे जाएं जिससे आने वाले समय में और प्रतिभाएं काल-कवलित न हों. 

सवालों की जांच और जांच पर कई सवाल

यह एक सामान्य तथ्य है कि हर सुनियोजित कत्ल के पीछे इंसान की पाशविक प्रवृत्ति से जुड़े कुछ स्याह राज जिम्मेदार होते हैं. ऐसे में अगर एक मध्यवर्गीय मुसलिम परिवार से निकलकर अपनी पहचान बनाने वाली किसी महिला के कत्ल का मामला हो तो ये राज और गहरे समझे जाने लगते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता शेहला मसूद की भोपाल में हुई बर्बर हत्या के लगभग 30 दिन बाद भी उनका कत्ल शहर में चर्चा और रहस्य का विषय बना हुआ है.

अमूमन ऐसे वाकयों को हफ्ते भर में भुला देने वाला प्रदेश मीडिया इस सनसनीखेज हत्या की तफ्तीश के दौरान हर रोज आ रही ताजा जानकारियों के संदर्भों को समझने में उलझा पड़ा है. वहीं दूसरी ओर मध्य प्रदेश पुलिस से लेकर केंद्रीय जांच एजेंसियों तक, पूरा प्रशासनिक महकमा भी इस मामले में हर रोज जुड़ रहे नये आयामों और धुंधले सुरागों के बिंदुओं को जोड़कर इस कत्ल की गुत्थी सुलझाने में जुटा है.  हालांकि 30 दिन तक अपनी पूरी ताकत झोंक देने के बाद भी जांच एजेंसियां इस हत्याकांड को सुलझाने की दिशा में किसी ठोस नतीजे तक पहुंचने में नाकाम रही हैं.  इस दौरान यह जरूर हुआ है कि मामले की जांच आगे बढ़ने के साथ-साथ पुलिस की लापरवाही भरी जांच, राजनीतिक गुटबाजी और स्थानीय मीडिया के सामंती रवैये से जुड़ी कई बातें स्पष्ट होकर सामने आ रही हैं.

शेहला ने एक साक्षात्कार में आईजी पवन श्रीवास्तव और विधायक विश्वास सारंग पर धमकाने के आरोप लगाए थेमसूद हत्याकांड में पिछले दिनों निर्णायक मोड़ तब आया जब प्रदेश पुलिस ने 5 सितंबर को केस डायरी केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को सौंपी. मामला हाथ में लेते ही सीबीआई ने अपनी पहले दिन की तफ्तीश से ही प्रदेश पुलिस के ढीले और लापरवाह रवैये की कलई खोल दी. पड़ताल के दौरान सीबीआई ने शेहला की कार से एक सोने का पेंडेंट (लॉकेट) और कागजों से भरी एक फाइल बरामद की. सोने का यह पेंडेंट कार की उस ड्राइविंग सीट के नीचे पड़ा था, जिस पर बैठी हुई शेहला को गोली मारी गई थी. वहीं कागजात से भरी एक फाइल उनकी कार की डिग्गी में पड़ी हुई थी. ड्राइविंग सीट के नीचे मिले पेंडेंट को एक अहम सबूत बताते हुए सीबीआई सूत्रों ने कहा कि हत्या से पहले हुए किसी संघर्ष की संभावना को नकारा नहीं जा सकता. जांच अधिकारियों ने राजधानी के महाराणा प्रताप स्थित शेहला की विज्ञापन एजेंसी ‘मिराकल्स’ की भी गहरी छानबीन की है.

शेहला के परिजनों का मानना है कि प्रदेश पुलिस का लापरवाह रवैया पहले ही केस को काफी कमजोर बना चुका है. तहलका से बातचीत के दौरान शेहला के पिता मसूद सुल्तान कहते हैं, ‘घटना के तुरंत बाद ही पुलिसवालों ने शेहला का लैपटॉप, मोबाइल और उसकी कार, सब कुछ अपने कब्जे में कर लिया था. लेकिन अब उसकी कॉल डिटेल्स से जाहिर हुआ है कि पुलिस उसकी हत्या के एक दिन बाद तक उसके मोबाइल फोन से अनजान लोगों को फोन कर रही थी. ये लोग उसकी कार में पड़े कागज और उसकी ड्राइविंग सीट के नीचे पड़ा लॉकेट तक नहीं ढूंढ़ पाए. हम इनसे न्याय की उम्मीद कैसे करें?’  गौरतलब है कि सीबीआई जांच के दौरान यह उजागर हुआ था कि शेहला की हत्या के एक दिन बाद तक उनके मोबाइल फोन से मंडला और भोपाल के दो नंबरों पर कुल चार फोन कॉल किए गए थे. यह तथ्य उजागर होने के बाद से प्रदेश के पुलिस महकमे पर इस हत्याकांड से जुड़े अहम सबूतों से छेड़छाड़ करने और मामले की लीपापोती करने के आरोप लग रहे हैं. शेहला की बहन आयशा मसूद आगे जानकारी देते हुए कहती हैं कि उनके परिवार को विश्वास है कि अपनी 20 दिन की पड़ताल के दौरान प्रदेश पुलिस ने केस काफी हद तक बिगाड़ दिया है. इस बाबत मसूद परिवार को हाल ही में मिले एक अनाम खत का जिक्र करते हुए वे बताती हैं , ‘हमें एक गुमनाम खत मिला है जिसमें लिखा है कि मध्य प्रदेश पुलिस अपराधियों को बचाने की कोशिश कर रही है. उन्होंने शेहला के कंप्यूटर से संबंधित डाटा निकालकर आईजी पवन श्रीवास्तव को दे दिया है. जिस लापरवाही से उन्होंने मामले की छानबीन की है उससे तो लगता है कि खत में लिखी बात सच है. शेहला ने तमाम लोगों के खिलाफ सूचना के अधिकार के तहत जो भी जानकारियां जुटाई थीं, उसका काफी बड़ा हिस्सा उसके कंप्यूटर में था. हो सकता है कि इन लोगों ने हर संबंधित व्यक्ति तक उससे जुड़ी जानकारी पहुंचा दी हो ताकि वह अपना डिफेंस तैयार कर सके. ‘ 

गौरतलब है कि एक अंग्रेजी पत्रिका को दिए अपने आखिरी साक्षात्कार में शेहला ने पुलिस महानिरीक्षक पवन श्रीवास्तव के साथ-साथ भाजपा के विधायक विश्वास सारंग से अपनी जान को खतरा बताया था. जुलाई, 2011 में दिए गए इस साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, ‘सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत मैंने जो भी जानकारियां हासिल की हैं, उसकी वजह से कई लोग मुझे जान से मारने की धमकी दे चुके हैं. इसमें मुख्यमंत्री के प्रोटोकॉल ऑफिसर से लेकर भाजपा विधायक विश्वास सारंग और कई भ्रष्ट अफसरशाह भी शामिल हैं…’ शेहला के परिजनों का कहना है कि प्रदेश पुलिस ने शेहला द्वारा विभिन्न सरकारी विभागों में लगाए गए तमाम आरटीआई आवेदनों की ठीक से जांच नहीं की है. आयशा कहती हैं, ‘उसने साफ कहा है कि उसे जान का खतरा है और उसने कुछ लोगों के नाम भी गिनवाए थे, फिर भी पुलिस अब तक हत्यारों को क्यों नहीं पकड़ पाई?’

फिलहाल मामला केंद्रीय जांच एजेंसी सीबीआई के हाथों में जाने के बाद शेहला के परिवार को न्याय की आस बंध गई है. शेहला से जुड़े उनके करीबी मित्रों का मानना है कि वह सक्रिय राजनीति में जाने की भी योजना बना रही थी. एक तरफ जहां भाजपा के अनिल दवे और विश्वास सारंग जैसे नेताओं को उन्होंने खुले तौर पर अपना विरोधी घोषित कर रखा था, वहीं दूसरी ओर भाजपा के ही तरुण विजय और ध्रुव नारायण सिंह जैसे राष्ट्रीय और राज्य स्तर के बड़े नेताओं से उनकी अच्छी मित्रता थी. यहां तक कि उनके फेसबुक अकाउंट में भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के साथ उनकी मुलाकात की तस्वीरों का पूरा एक एलबम मौजूद है.  विश्वस्त सूत्र बताते हैं कि शेहला प्रदेश भाजपा के अल्पसंख्यक मोर्चे का नया चेहरा बनना चाहती थीं. शेहला के बारे में बात करते हुए उनके एक करीबी मित्र कहते हैं, ‘2008 के बाद और उसके पहले की शेहला काफी अलग-अलग थीं. 2008 से पहले तक उनका ध्यान कार रैलियां, फैशन शो और ऐसे ही तमाम कार्यक्रम आयोजित करने की तरफ ज्यादा था. फिर अचानक पता नहीं क्या हुआ और एक दिन वह फेसबुक पर लिखती है कि अब मध्य प्रदेश एक टाइगर राज्य नहीं है. फिर अचानक वह अन्ना आंदोलन से जुड़कर भ्रष्टाचार के खिलाफ शाहजहानी बाग में धरने पर बैठ जाती है. उसके अंदर भावनाओं का जैसे एक तूफान घुमड़ा करता था और वह बहुत अप्रत्याशित स्वभाव की थी.’  शेहला के राजनीति की तरफ होते झुकाव के बारे बताते हुए वे आगे कहते हैं, ‘हाल के दिनों में उसमें कई बदलाव आए. शायद काम का दबाव रहा होगा कि वह मिजाजन कुछ परेशान और चिड़चिड़ी-सी रहने लगी थी. एक तरफ वह भाजपा में शामिल भी होना चाहती थी, दूसरी तरफ उन्हीं की सरकार के खिलाफ खूब आरटीआई भी लगाती थी. उसे शक्ति तो चाहिए थी पर वह शायद तय नहीं कर पा रही थी कि उसे कौन-सा रास्ता चुनना है.’  

शेहला मसूद हत्याकांड के तमाम पहलुओं के बीच स्थानीय मीडिया का सामंती रवैया भी मृतका के परिजनों की परेशानियों को बढ़ा रहा है. आयशा प्रदेश के अखबारों की आलोचना करते हुए कहती हैं, ‘मीडिया का ध्यान इस बात पर बिलकुल नहीं है कि किसी की हत्या हुई और उसके कातिलों को सजा मिलनी चाहिए. सभी उसके निजी संबंधों के बारे में तथ्यहीन बातें लिखकर अपने अखबार बेच रहे हैं. इन्हें तो इस बात का भी लिहाज नहीं है कि शेहला अपनी सफाई देने के लिए जिंदा नहीं है.’ मसूद हत्याकांड की मीडिया कवरेज की आलोचना राज्य के महिला संगठन भी कर रहे हैं. अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की प्रदेश अध्यक्ष संध्या शैली कहती हैं, ‘पूरे मामले में मीडिया की भूमिका बहुत खतरनाक रही है. अगर किसी पुरुष की हत्या होती तब भी क्या प्रदेश का यह सामंती मीडिया मृतक की हत्या को छोड़कर उसके निजी संबंधों के बारे में लगातार लिखता? भोपाल एक बहुत रूढ़िवादी शहर है और किसी महिला के चरित्र पर कीचड़ उछालना लोगों के लिए सबसे आसान काम है. कोई महिला अपने निजी जीवन में किसी से भी मित्रता रखती हो, इससे हम उसकी हत्या को जायज कैसे ठहरा सकते हैं?’  

'कोई वजह नहीं कि निचली अदालत न्याय न करे'

क्या उच्चतम न्यायालय द्वारा एसआईटी को यह कहा जाना कि वह अपनी अंतिम रिपोर्ट या आरोपपत्र अहमदाबाद की अदालत के सामने रखे, मोदी के लिए कानूनी और नैतिक जीत है?

एमिकस क्यूरी के तौर पर मैं आदेश के पक्ष या विपक्ष में नहीं बोलना चाहूंगा. हालांकि, मैं यह जरूर चाहूंगा कि आदेश को ठीक ढंग से समझा जाए. उच्चतम न्यायालय के आदेश में कोई कमी नहीं है. इसमें शिकायत करने वाले और संभावित अभियुक्त दोनों पक्षों के हितों की रक्षा की गई है. अब कानून अपना काम करेगा. मेरी रिपोर्ट में स्वतंत्र तौर पर उन बातों का आकलन किया गया है जो संबंधित गवाहों ने बताई थीं. ट्रायल कोर्ट के सामने मेरी और एसआईटी दोनों की रिपोर्ट होगी. मुझे इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं है कि अदालत अपना काम कानून के हिसाब से करेगी और इस मामले में न्याय होगा. क्लीन चिट या कसूरवार ठहराए जाने को लेकर बात करना जल्दबाजी होगी.

शिकायतकर्ता ने दो मांगें रखी थीं. पहली यह कि बड़े पैमाने पर साजिश करने के लिए अलग एफआईआर दर्ज हो और दूसरी यह कि मामले की जांच का जिम्मा सीबीआई या एसआईटी से अलग किसी अन्य एजेंसी को दे दिया जाए. ये दोनों मांगें अदालत ने खारिज कर दीं. क्या यह राज्य सरकार की जीत नहीं है?

जहां तक पहली मांग का सवाल है तो अब यह प्रासंगिक नहीं है क्योंकि स्वतंत्र जांच के बाद सभी सबूतों और दस्तावेजों को उचित अदालत के सामने रखने का निर्देश दिया जा चुका है. सीबीआई को जांच देने के मामले में अदालत ने इसकी जरूरत नहीं समझी क्योंकि पूरी जांच अदालत द्वारा नियुक्त एसआईटी ने की है.  इस मामले में न तो किसी की जीत हुई और न किसी की हार.

उच्चतम न्यायालय की कानूनी सक्रियता के इतिहास में यह आदेश कहां टिकता है? कई वरिष्ठ वकीलों ने सार्वजनिक तौर पर कहा है कि कानून की जीत नहीं हुई.

अदालत की निगरानी में होने वाली जांच के संदर्भ में देखें तो यह उच्चतम न्यायालय के सबसे अच्छे आदेशों में एक है. इसमें दोनों पक्षों के हितों की रक्षा की गई है. यह एकदम विधिसम्मत है.

2010 के नवंबर में एसआईटी ने अपनी स्टेटस रिपोर्ट में कहा था कि वह शुरुआती जांच थी न कि अपराध दंड संहिता के तहत की गई जांच. पर इस आदेश में कहा गया है कि जांच का काम खत्म हो गया और अब ट्रायल कोर्ट सुनवाई करेगा. आखिर किस चरण में शुरुआती जांच को ही जांच मान लिया गया?

एसआईटी ने खुद जो जांच की और जनवरी, 2011 में मेरी पहली रिपोर्ट के बाद जो जांच हुई वह गुलबर्ग सोसाइटी मामले में अपने आप में पूरी जांच थी.

उच्चतम न्यायालय ने अपने आदेश के आठवें और नौवें पैराग्राफ में कहा है, ‘अदालत की निगरानी में होने वाली जांच के मामले में अदालत इस बात को सुनिश्चित करने को लेकर चिंतित होती है कि जांच एजेंसियां ईमानदारी से काम करें न कि आरोप तय करने को लेकर. यह काम आरोपपत्र दाखिल होने के बाद सुनवाई के दौरान सक्षम अदालत करेगी.’ क्या इससे यह नहीं लगता कि जाकिया जाफरी के आरोपों पर एसआईटी ने जो जांच की है उससे उच्चतम न्यायालय संतुष्ट है?

अदालत ने कानूनी प्रक्रिया का निर्वाह किया है. एक बार जांच पूरी हो जाने के बाद अपराध दंड संहिता की धारा 173(2) के तहत जांच रिपोर्ट संबंधित अदालत में देनी होती है. अदालत ने मामले के गुण-दोष या जांच पर कुछ कहने से परहेज किया है. इसलिए एसआईटी और एमिकस की रिपोर्ट पर अदालत के खुश-नाखुश होने का सवाल ही नहीं उठता.

जैसा कि कहा जाता है सिर्फ न्याय होना जरूरी नहीं है बल्कि यह लगना भी चाहिए कि न्याय हुआ है. इस लिहाज से क्या इस फैसले का मकसद कहीं पीछे नहीं छूटा है क्योंकि प्रभावित इसे कमजोर आदेश के तौर पर देख रहे हैं?

इस तरह की बनती राय को देखकर ही मैं आपसे बात कर रहा हूं. एमिकस के तौर पर पहले मैं मीडिया से बात करने को तैयार नहीं था. मैंने अदालत के आदेश का अर्थ आपको समझा दिया है और मुझे लगता है कि इस मामले में न्याय हुआ है.

जाकिया ने कहा है कि वे आदेश से असंतुष्ट और नाखुश हैं. उन्होंने यह भी कहा कि अगर उच्चतम न्यायालय कोई रुख अख्तियार नहीं कर सकता तो फिर अहमदाबाद की निचली अदालत भला ऐसा कैसे कर सकती है?

मैं किसी की ऐसी प्रतिक्रिया पर कुछ नहीं बोलना चाहता हूं जिसके बारे में जानकारी मुझे मीडिया के मार््फत मिली हो. हालांकि, उच्चतम न्यायालय कोई ट्रायल कोर्ट नहीं है जो कोई रुख अख्तियार करे. सबसे ऊपरी अदालत द्वारा ऐसा किए जाने से ऐसा शिकायतकर्ता या संभावित आरोपित दोनों में किसी के खिलाफ ऐसा पूर्वाग्रह बन सकता है जिसकी भरपाई न हो.

गुजरात की न्यायिक प्रक्रिया और इस मामले में पहले के उच्चतम न्यायालय के आदेशों को देखते हुए क्या अहमदाबाद की निचली अदालत से न्याय की उम्मीद करना बेमानी नहीं होगा?

जब मामले के गुण-दोष पर सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ नहीं कहा हो तो फिर इस बात की कोई वजह नहीं दिखती कि निचली अदालत न्याय नहीं कर सकती. अगर भविष्य में किसी स्तर पर कोई शिकायत आती है तो इसके निवारण के लिए कानून में पर्याप्त प्रावधान हैं.

हम सब जानते हैं कि एसआईटी ने अपनी पहली स्टेटस रिपोर्ट में कहा था कि ऐसे सबूत नहीं हैं जिनके आधार पर मोदी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जा सके. अब उच्चतम न्यायालय के इस आदेश के संदर्भ में इसी एजेंसी से आखिर यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वह अपनी पिछली बात से पलट जाए? क्या इस मामले में ऐसा नहीं होगा कि भविष्य की सभी जांच और कानूनी प्रक्रियाएं पहले से ही पूर्वाग्रह और विरोधाभासों से भरी हुई हों?

ये रिपोर्टें तब तक गोपनीय हैं जब तक अदालत में औपचारिक तौर पर पेश नहीं की जाएं. अदालत के फैसले से यह साफ है कि मेरी रिपोर्ट पर एसआईटी विचार करेगी. अगर एसआईटी और मेरी राय में कहीं कोई फर्क होगा तो मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं है कि दोनों बातों को अदालत के सामने रखा जाएगा.

पर कुछ लोग यह मान सकते हैं कि एसआईटी अपने पहले वाले रुख से नहीं पलटेगी. तो क्या अदालत के इस आदेश से प्रभावित व्यक्ति और शिकायतकर्ता खुद को ठगा हुआ महसूस नहीं करेंगे?

मुझे ऐसा नहीं लगता कि जहां एसआईटी और मेरी राय अलग होगी वहां मेरी राय पर एसआईटी विचार नहीं करेगी. अगर एसआईटी क्लोजर रिपोर्ट फाइल करती है तो भी कानून के तहत शिकायत करने वालों के पास काफी अधिकार होंगे इसलिए ‘ठगा हुआ’ महसूस करने की बात गलत है.

जनहित से जुड़े गुजरात दंगों जैसे मसलों में एमिकस क्यूरी की क्या भूमिका होती है?

आरंभ में एमिकस क्यूरी को कोर्ट द्वारा ऐसे आपराधिक मामलों के लिए नियुक्त किया गया था जिसमें अभियुक्त या अपराधी अपना बचाव नहीं कर सकते थे. इस तरह के एमिकस से उम्मीद की जाती थी कि वह आखिर तक बचाव पक्ष के सलाहकार के तौर पर काम करेंगे. उसकी जवाबदेही अदालत के प्रति होती थी. बाद में, कोर्ट ने कानून के पेचीदा सवालों में मदद करने के लिए वरिष्ठ और प्रतिष्ठित वकीलों को एमिकस क्यूरी नियुक्त करना शुरू कर दिया भले ही केस में दोनों ही पक्ष पूरी तरह अपना बचाव करने में समर्थ हों. जनहित याचिका के आगमन और फिर जेल सुधार, हिरासत में मौत जैसे तमाम मसलों से लगातार कोर्ट के घिरे रहने की वजह से एमिकस क्यूरी की भूमिका का महत्व बढ़ता गया. एमिकस को निष्पक्ष रहते हुए न सिर्फ मुकदमे के अलग-अलग पक्षों से दूरी रखनी चाहिए बल्कि साथ ही खुद की पसंद, नापसंद, झुकाव, पूर्वाग्रह को भी मामले से दूर रखना चाहिए. अदालत को विशेष सहयोग देने के अलावा एमिकस का यह भी कर्तव्य है कि वह संवैधानिक रूप से कानूनी कार्यप्रणाली के अनुसार चलने में अदालत की मदद करे. एमिकस का काम है कोर्ट को सही फैसला लेने में सहयोग करना और उसे उसके अधिकारों का पूरा इस्तेमाल करने के लिए जागरूक करना. साथ ही जरूरत पड़ने पर कोर्ट को उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर जाने से रोकने के लिए आगाह करना भी एमिकस का ही काम है.

दंगों के शिकार आक्रोशित भी हैं और असमंजस में भी कि कैसे अदालत ने अपने आखिरी आदेश में उसी एसआईटी पर पूरा भरोसा जताया जिसकी रिपोर्ट पर वह कुछ महीनों पहले तक खुद ही असंतुष्ट थी और जिसकी वजह से उसने आपको सबूतों और तथ्यों का स्वतंत्र मूल्यांकन करने को कहा था.

इस बात पर काफी गलतफहमी है. अदालत ने एसआईटी को जांच-पड़ताल करने के लिए नियुक्त किया था. उसने उसी समय एक एमिकस को भी नियुक्त किया था. इसका मकसद यह था कि एसआईटी की रिपोर्ट को एक स्वतंत्र नजरिये से भी देखा जाए. इसी वजह से एमिकस को पांच मई को अपना मूल्यांकन देने को कहा गया था. इसका मतलब एसआईटी से असंतुष्ट होना या फिर एसआईटी पर विश्वास न करना नहीं है. अदालत एक स्वतंत्र नजरिया चाहती थी.

आप एसआईटी से किन बिंदुओं पर असहमत हैं?

मैं इस सवाल का जवाब नहीं दे सकता क्योंकि हमारी रिपोर्टें अभी तक गोपनीय हंै. मगर मैं यह जरूर स्पष्ट करना चाहूंगा कि एक स्वतंत्र मूल्यांकन मांगा गया था और वही दिया गया है. जब इस तरह की कवायद होती है तो जिन बिंदुओं पर मतभेद होता है उन्हें साफ-साफ कहा जाता है.

क्या कोर्ट ने आपकी रिपोर्ट के ऊपर एसआईटी की रिपोर्ट को तरजीह दी है जिस वजह से आपके निष्कर्षों का महत्व खत्म हो गया?

सीआरपीसी के अंतर्गत रिपोर्ट देना जांच एजेंसी (इस मामले में एसआईटी) की जिम्मेदारी है. एमिकस कोई जांच एजेंसी नहीं होता. वह एक वकील होता है जिसने अपना स्वतंत्र मूल्यांकन दे दिया है. अदालत ने इसे प्रासंगिक समझा है और इसीलिए एसआईटी को एमिकस की रिपोर्ट पर ध्यान देना है.

तो क्या अब यह समझा जाए कि आपकी रिपोर्ट न सिर्फ एसआईटी को सही राह दिखाएगी बल्कि आने वाले वक्त में इस तरह की कानूनी कार्रवाइयों के लिए एक मील का पत्थर भी साबित होगी?

अपनी ही रिपोर्ट पर इस तरह की बातें कहना मेरे हिसाब से बिल्कुल ठीक नहीं होगा. हां, मगर मैं यह जरूर कह सकता हूं कि एमिकस के नजरिये को उच्च न्यायालय ने प्रासंगिक माना है और इसलिए मुझे यकीन है कि इसकी प्रासंगिकता आगे भी बनी रहेगी.

चैनलों की दाल में काला

पिछले कई महीनों से भ्रष्टाचार के खिलाफ समाचार चैनलों का जोश देखकर लगता है कि मानो वे भ्रष्टाचार को खत्म करके ही मानेंगे. इसमें कोई दो राय नहीं कि चैनलों ने जिस तरह से एक के बाद एक कई बड़े घोटालों का पर्दाफाश किया है या उन्हें जोर-शोर से उछाला और मुद्दा बनाया है, उससे भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल और जनमत बना है. इसके कारण कई बड़े घोटालेबाज जेल गए हैं, कई मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को कुर्सी गंवानी पड़ी है और देश भर में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जोर पकड़ने लगा है. लेकिन लगता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध में चैनल या तो थकने लगे हैं या फिर उनके आकाओं ने उनकी लगाम खींचनी शुरू कर दी है.

उदाहरण के लिए, बीते पखवारे संसद में पेश रिपोर्ट में सीएजी ने एयर इंडिया में अनियमितताओं और विमानों की खरीद में गड़बड़ियों पर उंगली उठाने के साथ कृष्णा गोदावरी घाटी (केजी बेसिन) में गैस की खोज, उसकी कीमत तय करने और उत्पादन आदि में मुकेश अंबानी की रिलायंस को अनुचित तरीके से फायदा पहुंचाने से लेकर कंपनी की धांधलियों और मनमानियों को आड़े हाथों लिया. लेकिन चैनलों ने थके मन से एयर इंडिया की अनियमितताओं पर रस्मी हो-हल्ला किया और चुप मार गए. उससे भी हैरान करने वाली बात यह है कि केजी बेसिन-रिलायंस मामले पर सीएजी की रिपोर्ट के बावजूद चैनलों ने न तो उसे प्राइम टाइम चर्चा लायक समझा और न ही उसे समग्रता में रिपोर्ट किया. इस खबर पर चैनलों में वह उत्साह भी नहीं दिखा जो हाल के महीनों में अन्य घोटालों को रिपोर्ट करते हुए दिखा था.

चैनलों को देखने और सुनने से ऐसा लगता है जैसे निजी यानी कॉरपोरेट क्षेत्र में रामराज्य है जबकि वह भ्रष्टाचार की जड़ में है यह हैरान करने वाला इसलिए भी था कि चैनलों को अपनी ओर से कुछ खास नहीं करना था क्योंकि सीएजी की रिपोर्ट में सारा खुलासा मौजूद था. यह भी 2जी स्पेक्ट्रम की तरह गैस जैसे प्राकृतिक और कीमती सार्वजनिक संसाधन को राष्ट्रीय हितों की कीमत पर निजी लाभ के लिए दुरुपयोग का गंभीर मामला है. यही नहीं, इसमें राजनीतिक एंगल भी मौजूद था. पूर्व पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा को रिलायंस समर्थक माना जाता रहा है. उन्हें पिछले कैबिनेट फेरबदल में हटाया गया था. उससे पहले अमेरिकी विरोध के कारण मणिशंकर अय्यर को पेट्रोलियम मंत्रालय से हटाया गया था. इसके अलावा हाल में, रिलायंस और बहुराष्ट्रीय तेल कंपनी ब्रिटिश पेट्रोलियम के बीच बड़ी डील हुई है. इस डील को लेकर भी कई सवाल उठे हैं. इसके बावजूद अधिकांश न्यूज चैनलों पर इस मुद्दे पर रहस्यमयी चुप्पी छाई रही. ऐसा लगा जैसे कुछ हुआ ही नहीं है या सीएजी की रिपोर्ट में कोई दम नहीं है. यहां तक कि भ्रष्टाचार के खिलाफ इस समय सबसे बड़े योद्धा अर्नब गोस्वामी और ‘टाइम्स नाऊ’ भी रस्म अदायगी से आगे नहीं बढ़े.

क्या यह नीरा राडिया प्रभाव है? याद रहे, राडिया रिलायंस के मीडिया मैनेजमेंट का काम देखती हैं. उन पर आरोप है कि वे रिलायंस और अपने दूसरे कॉरपोरेट क्लाइंट टाटा के पक्ष में सकारात्मक जनमत बनाने के लिए अनुकूल समाचार आगे बढ़ाने और प्रतिकूल समाचार दबाने में समाचार माध्यमों और पत्रकारों को इस्तेमाल करती रही हैं. इस बार भी जिस तरह से केजी बेसिन की खबर को चैनलों ने ‘अंडरप्ले’ किया है, उससे लगता है कि कोई ‘अदृश्य शक्ति’ है जो चैनलों के मुंह पर पट्टी बांधने में कामयाब हुई है. क्या वह रिलायंस जैसी बड़ी कंपनियों की विज्ञापन देने की शक्ति है जिसे कोई चैनल अनदेखा नहीं कर सकता?

इसके उलट लगभग सभी चैनलों पर एयर इंडिया में अनियमितताओं पर सीएजी की रिपोर्ट को न सिर्फ पर्याप्त कवरेज मिली बल्कि सबने प्राइम टाइम चर्चाएं भी कीं. इन चर्चाओं में भी दोषी अधिकारियों/मंत्रियों को पहचानने और उन्हें निशाना बनाने की बजाय चैनलों का जोर इस बात पर था कि एयर इंडिया को बचाने के लिए उसका निजीकरण क्यों जरूरी है. गोया निजीकरण हर मर्ज का इलाज हो. अगर ऐसा ही है तो टेलीकाॅम क्षेत्र में 2जी की लूटपाट में कौन शामिल थे?

असल में, न्यूज चैनलों के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की यही सीमा है. उनके लिए भ्रष्टाचार और घोटाला सिर्फ एक घटना या प्रकरण है जो कुछ व्यक्तियों खासकर नेताओं और अफसरों तक सीमित है. सच यह है कि यह भ्रष्टाचार का मांग पक्ष है. लेकिन भ्रष्टाचार का आपूर्ति पक्ष भी उतना ही महत्वपूर्ण है. वे छोटी-बड़ी कंपनियां जो अपने मुनाफे के लिए नेताओं और अफसरों को घूस खिलाकर तमाम नियम-कानूनों को तोड़ती-मरोड़ती हैं, संगठित लॉबीइंग के जरिए अपने अनुकूल नियम-कानून बनवाती हैं, उनके अपराधों की कोई चर्चा नहीं होती है या बहुत कम होती है. इसके उलट चैनलों को देखने और सुनने से ऐसा लगता है जैसे निजी यानी कॉरपोरेट क्षेत्र में रामराज्य है जबकि यह किसी से छिपा नहीं है कि वह भ्रष्टाचार की जड़ में है. फिर क्यों न माना जाए कि भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के पीछे चैनलों का अघोषित एजेंडा सार्वजनिक क्षेत्र को बदनाम करने और उसके निजीकरण का रास्ता साफ करने का है?

कौन करेगा, कहां से होगी क्रांति?

क्या भारत में क्रांति संभव है? अपने अनशन और आंदोलन से देश भर का ध्यान खींचने वाले अण्णा हजारे और उनके साथी अपनी लड़ाई के दौरान अण्णा को इंडिया बताते रहे, अपने आंदोलन को दूसरी आजादी की लड़ाई घोषित करते रहे, लेकिन शायद ही इनमें से कभी किसी ने कहा हो कि वे क्रांति कर रहे हैं. क्या सिर्फ इसलिए कि क्रांति शब्द से जिस हिंसक और रक्तपाती किस्म के सत्ता-परिवर्तन या व्यवस्था-परिवर्तन की बू आती है वह इन आंदोलनकारियों का अभीष्ट नहीं था?  सच तो यह है कि सत्ता या व्यवस्था परिवर्तन इस आंदोलन के लक्ष्य में कभी शामिल नहीं दिखा, और शायद इसलिए आंदोलन की तमाम गर्मी और इस दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले ढेर सारे शब्दाडंबरों (रेटरिक) के बावजूद क्रांति का शब्दाडंबर सबसे कम सुनने को मिला. जब अण्णा के आंदोलन जैसे तथाकथित बड़े और गतिशील सामाजिक आंदोलन से क्रांति नहीं सध रही तो दूसरा कौन-सा आंदोलन होगा जो क्रांति कर सके या इसका दम भर सके?

हिंसक क्रांतियों और मुक्तिसेनाओं के सहारे सत्ता में आई विचारधाराएं शासन के स्तर पर कहीं ज्यादा निरंकुश, सर्वसत्तावादी और जनविरोधी साबित हुई हैं

अण्णा के आंदोलन को छोड़ दें. इस देश में और भी जमातें हैं जो खुद को क्रांतिकारी मानती हैं. पिछले कुछ वर्षों में आंध्र प्रदेश से लेकर झारखंड और छत्तीसगढ़ तक करीब नौ-दस राज्यों में फैला हिंसक माओवादी आंदोलन मूलतः क्रांति के सपने और लक्ष्य को ही समर्पित है. सरकारें इसे लाल गलियारा बताती हैं और देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी चिदंबरम इस क्रांतिकारी उभार को देश के सामने खड़ा सबसे बड़ा खतरा मानते हैं. निश्चय ही यह माओवादी आंदोलन की- उनके लक्ष्यों के हिसाब से- एक बड़ी सफलता है.

लेकिन क्या माओवादी इस देश में वाकई कोई क्रांति कर पाएंगे? इसकी संभावना कम लगती है. इसकी कई वजहें हैं. सबसे बड़ी वजह यही है कि जो हिंसक लड़ाई वे लड़ रहे हैं उसमें राज्य के आगे वे टिक नहीं पाएंगे. उल्टे, माओवादियों की हिंसा राज्य की पहले से चली आ रही हिंसा को ही तर्क देगी. राज्य के पास जो सैन्य शक्ति और मशीनरी है वह माओवादियों के मुकाबले इतनी ज्यादा विराट है कि दोनों के बीच किसी वास्तविक युद्ध की स्थिति में माओवादियों को हर हाल में परास्त होना होगा. अगर वे क्रांति के पुराने नियमों और खयालों के हिसाब से सोचते हैं कि एक दिन सेना और न्यायालय सहित देश की बहुसंख्यक आबादी उनके साथ आ खड़ी होगी और वे राज्य की मशीनरी को भी अपने पक्ष में मोड़कर सत्ता पर कब्जा कर लेंगे और पूरी व्यवस्था बदल डालेंगे, तो यह भी एक खामखयाली है. क्योंकि अपनी सारी दुर्बलताओं और अपने सारे दुर्गुणों के बावजूद भारत के संसदीय लोकतंत्र की घुसपैठ बहुत गहरी है जिसे सारे मोहभंग के बावजूद खत्म और खारिज करना आसान नहीं है.

दूसरी वजह यह है कि जिस हिंसक क्रांति का रास्ता माओवादी अपना रहे हैं, विचारधारात्मक स्तर पर उसकी कई विसंगतियां अब कहीं ज्यादा उजागर हैं. दुनिया भर का अनुभव बताता है कि हिंसक क्रांतियों और मुक्तिसेनाओं के सहारे सत्ता में आई विचारधाराएं शासन के स्तर पर कहीं ज्यादा निरंकुश, सर्वसत्तावादी और एक हद तक जनविरोधी भी साबित हुई हैं. ऐसी विचारधाराएं बाजारवाद से भी सांठ-गांठ करने से हिचकती नहीं रही हैं. पूर्वी यूरोप से लेकर चीन तक का यह अनुभव इतना तीखा और ताजा है कि माओवादी आंदोलन को सहानुभूति के साथ देखने वाले लोग भी उसकी परिणतियों को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं हैं. वे ऐसी जनक्रांति के मुकाबले संसदीय लोकतंत्र को ही तरजीह देंगे, इसमें शक नहीं.

फिलहाल माओवाद हमारे देश में प्रतिरोध का एक आंदोलन भर है. वह दलितों, आदिवासियों और गांव-देहात में रहने वाले लोगों के क्रूर शोषण और दमन का, उनके साथ हो रहे औपनिवेशिक व्यवहार का- कई लोगों की निगाह में- एक जायज प्रतिरोध है जिसमें हिंसा भी स्वाभाविक है क्योंकि वह राज्य की हिंसा के प्रत्युत्तर से उपजी है. दूसरी बात यह कि माओवादी आंदोलन की वजह से अचानक दूरदराज के गांवों और देहातों के शोषण पर, उनके संसाधनों की लूट पर सबकी नजर पड़ी है. यह आंदोलन न होता तो वाकई इस देश की मुख्यधारा की राजनीति ने सारे जंगलों, पहाड़ों, बेशकीमती खनिजों और सारी नदियों को बाजार के हाथ औने-पौने में बेच दिया होता. इस अर्थ में माओवादी जंगल के दावेदार ही नहीं, पहरेदार भी हैं.

संसदीय राजनीति ने अपनी सारी सीमाओं के बावजूद पिछड़े तबकों के लिए जगह और गुंजाइश बनाई है

लेकिन माओवाद की उस उपयोगी भूमिका के आगे का सफर कोई वैचारिक रोशनी या भरोसा नहीं दिलाता. वह एक असंभव क्रांति का आक्रोश भरा आह्वान भर लगता है जिसकी उम्र सीमित है, या जो समय-समय पर फूटता रहेगा और राज्य जिसे अपनी ताकत से पचाता रहेगा.  फिर क्या क्रांति का कोई तीसरा रास्ता है? ऐसा रास्ता जो इस पूरी सड़ी-गली व्यवस्था को बदल डाले और समता और न्याय का एक अंतिम राज्य स्थापित करे? अतीत में देखें तो ऐसी उम्मीद आखिरी बार जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के आह्वान ने जगाई थी. तब आजाद भारत ने केंद्रीय स्तर पर अपना पहला सत्ता परिवर्तन देखा था. लेकिन वह संपूर्ण क्रांति भी संसदीय राजनीति के दलदल में धंस कर ढाई साल में दम तोड़ गई. जाहिर है, इसलिए कि उस क्रांति ने सत्ता बदलने की ऊर्जा तो पैदा की, व्यवस्था बदलने की कोई दृष्टि नहीं दी.

यानी क्रांति के नाम पर शुरू होने वाली किसी भी लड़ाई का पहला फर्ज और लक्ष्य यह होना चाहिए कि वह आने वाले दिनों के लिए व्यवस्था बदलने का खाका तैयार करे. लेकिन फिर यह सवाल पैदा होता है कि क्या वाकई इस देश की जनता अपनी संसदीय राजनीति से इस कदर ऊबी हुई या आक्रांत है कि वह इसे बदल डालने के किसी प्रस्ताव के पक्ष में खड़ी हो जाएगी. फिलहाल ऐसा लगता नहीं क्योंकि इस राजनीति को इसकी दुर्बलताओं के लिए पानी पी-पीकर कोसने वाला लगातार मोटा होता मध्यवर्ग ऐसी ही व्यवस्था में खुद को बचाए रख सकता है. सच तो यह है कि वह इसे बदलना नहीं चाहता, बस इसके कुछ दुर्गुण दूर करना चाहता है- बिना यह समझे कि इसके ज्यादातर दुर्गुणों का जिम्मेदार वही है.

दूसरी बात यह कि इस संसदीय राजनीति ने अपनी सारी सीमाओं के बावजूद पिछड़े तबकों के लिए जगह और गुंजाइश बनाई है. इस लिहाज से भारतीय लोकतंत्र कहीं ज्यादा क्रांतिकारी साबित हुआ है कि उसने सदियों से चली आ रही सामाजिक व्यवस्था को एक स्तर पर उलट-पुलट डाला है और सत्ता उन लोगों के हाथ में सौंपी है जो अब तक निचले पायदान पर रहे हैं. बराबरी और इंसाफ की लड़ाइयां निश्चय ही बाकी हैं, लेकिन वे लड़ी जा रही हैं. तो क्या यह मान लें कि इस देश को किसी बदलाव की, किसी क्रांति की जरूरत नहीं है? जो जैसा है, वैसा ही चलता रहेगा और इसी से हम संतुष्ट हो लें? जाहिर है, यह भी विकल्प नहीं हो सकता. फिर रास्ता कहां से निकलता है?

इस रास्ते के लिए हमें किसी वैचारिक क्रांति के विराट राजमार्ग की जगह उन छोटी-छोटी पगडंडियों की तरफ देखना होगा जहां बदलाव की बहुत सारी कोशिशें चल रही हैं. अपने-अपने ढंग से प्रतिरोध की बहुत सारी आवाजें हैं जो मौजूदा व्यवस्था को आईना और अंगूठा दिखा रही हैं और क्रांति की अपनी तहरीर लिख रही हैं. कहीं नर्मदा के लिए लड़ती मेधा पाटकर है, कहीं फौजी दमन के विरुद्ध उपवास कर रही शर्मिला इरोम है, कहीं बड़े बांधों और बड़ी परियोजनाओं के खिलाफ खड़े आदिवासी हैं और कहीं अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों का विरोध करते दलित हैं. कहीं बिल्डरों को जमीन न देने को तैयार किसान हैं तो कहीं सेज, यानी विशेष आर्थिक क्षेत्रों के खिलाफ वोट कर रही पंचायतें हैं. निश्चय ही इनमें से बहुत सारी आवाजें अनसुनी रह जा रही हैं, बहुत सारे प्रतिरोधों को राज्य निर्ममता से कुचल रहा है, बहुत सारे लोग अकेले पड़ जा रहे हैं. लेकिन प्रतिरोध की ये साझा आवाज़े अंततः बहरे कानों को सुनाई पड़ रही हैं. धीरे-धीरे बदलाव हो रहे हैं.

कोई चाहे तो सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को उद्धृत करते हुए याद दिला सकता है कि ‘धीरे-धीरे/ कुछ नहीं होता/ सिर्फ मौत होती है’, लेकिन जो तेजी से होता है वह भी मानवीय नहीं होता, इसके सबूत अब बहुतेरे हैं. दरअसल एक मानवीय लड़ाई बहुत धीरज की मांग करती है. ऐसी लड़ाई में भारी-भरकम शब्द भारी-भरकम हथियारों जितने ही खतरनाक होते हैं, उतनी ही हिंसा पैदा करते हैं. यह अंधेरे समय में अलग-अलग कोनों में सुलगने वाली फुसफुसाहटों की तीलियां हैं जो बदलाव की इच्छा भी कायम रखती हैं और उसके प्रति भरोसा भी. ऐसी मद्धिम आवाजें डराती नहीं, उनसे चौंक कर बचने की इच्छा नहीं होती, बल्कि उनके करीब जाने का, उन्हें ध्यान से सुनने का मन होता है.

निश्चय ही राज्य इन फुसफुसाहटों के मुकाबले एक अट्टाहास जैसा होता है जो लगभग अभेद्य और अजेय लगता है. लेकिन जनक्रांतियों का आंदोलन यह भी बताता है कि खामोश प्रतिरोधों के आगे कई बार ऐसे अट्टाहासी अहंकार धूल में मिल गए हैं.
मार्क्सवाद बताता है कि क्रांति के लिए क्रांति लायक परिस्थितियां चाहिए. भारत में निश्चय ही एक स्तर पर वे परिस्थितियां हैं- भूख, बेरोजगारी, खुदकुशी, असुरक्षा, सामाजिक टूटन- यह सब-कुछ जैसे बड़े होते जा रहे हैं. लेकिन इसी के साथ-साथ तरह-तरह के प्रतिरोध भी बड़े होते जा रहे हैं. हमें प्रतिरोध की इन कातर और कमजोर आवाजों को ध्यान से सुनना चाहिए. वे किसी फ्लडलाइट की तरह एक जगमग और सुनहरे अक्षरों में लिखी जाने वाली क्रांति भले न करें, लेकिन बेहतर जिंदगी और व्यवस्था के कहीं ज्यादा वैध संघर्ष के छोटे-छोटे दीयों के रूप में हमारा-आपका जीवन बदल सकती हैं. दरअसल ऐसी ही आवाजें उस क्रांति का भरोसा जगाती हैं जो भारतीय परिस्थितियों में फिलहाल बिल्कुल असंभव जान पड़ती है.