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लाचार नौकरशाह,सरकार बेपरवाह

भारतीय प्रशासनिक सेवा यानी आईएएस, देश की प्रशासनिक मशीनरी का सबसे अहम पुर्जा. गांव-देहात हो या शहर, आमजन की समस्या जब किसी विभाग का अधिकारी अनसुनी करता है या किसी को कोई प्रताड़ित करता है, तो लोग इस विश्वास से जिला  कलेक्टर के पास अपनी फरियाद लेकर पहुंचते हैं कि वहां उनकी समस्या का कोई न कोई हल जरूर निकलेगा. आम लोग ही नहीं, नेता व मंत्री भी कोई सिफारिशी पत्र लिखते हैं तो इन्हीं आईएएस अधिकारियों से काम की उम्मीद करते हैं. कुल मिलाकर व्यवस्था को सुचारु बनाए रखने में इनका योगदान बेहद अहम है. लेकिन उत्तर प्रदेश में प्रशासनिक अधिकारियों  की प्रतिष्ठा पिछले कुछ सालों में बद से बदतर होती जा रही है. दूसरों की समस्याओं का निराकरण करने वाले आईएएस अधिकारी उत्तर प्रदेश में खुद अपनी समस्याओं और राजनीतिक प्रताड़नाओं के बोझ तले घुटन महसूस कर रहे हैं.

इनकी समस्याएं एकाध नहीं बल्कि अनगिनत हैं जिनमें अकारण निलंबन, स्थानांतरण या फिर योग्य होने के बावजूद राजनीतिक दांवपेंच के कारण किनारे लगा दिया जाना शामिल है. प्रदेश में तैनात आईएएस अधिकारियों की मजबूरी यह है कि उनकी समस्याओं का निपटारा करने वाला कोई नहीं है. पिछले चार साल से हालत यह हो गई है कि वे अपनी समस्या को सरकार या मुख्यमंत्री तक पहुंचाने का साहस तक नहीं कर पा रहे हैं. समस्या की वजह यह है कि जिस आईएएस एसोसिएशन के माध्यम से अधिकारी अपनी बातें सरकार व मुख्यमंत्री तक पहुंचाते थे वह पिछले चार साल में समाप्त सी हो गई है. इन सालों में एसोसिएशन का न तो चुनाव हुआ न ही स्थायी कमेटी बनी है.

अपने निजी स्वार्थों के चलते कुछ गिने चुने आईएएस अधिकारी सरकार के साथ मिलकर आईएएस एसोसिएशन को खत्म करने पर आमादा हैं

यहां विरोधाभास की स्थिति भी है. सरकारी दबाव और किनारे कर दिए जाने के भय से ज्यादातर अधिकारी तमाम समस्याओं के बावजूद अपना मुंह खोलने के लिए तैयार ही नहीं हैं. केवल चंद आईएएस अधिकारी ही कुछ बोल पाने की स्थिति में हैं.

राज्य की आईएएस एसोसिएशन साल में तीन दिन की वार्षिक जनरल मीटिंग राजधानी लखनऊ में आयोजित करती थी. इसे सर्विस वीक कहा जाता था. पहले दिन मुख्यमंत्री व सरकार के वरिष्ठ मंत्री राज्य के वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों को संबोधित करते थे. इस दौरान महत्वपूर्ण योजनाओं की प्रगति, सुधार के सुझाव और अन्य जरूरी मुद्दों पर मुख्यमंत्री और मंत्रियों के साथ अधिकारियों की खुल कर चर्चा होती थी. मीटिंग के बाद एेक्शन प्लान बनता था. विकास संबंधी कार्यों की प्राथमिकता तय होती थी. इसी दिन मुख्यमंत्री के साथ सभी अधिकारियों का दोपहर का भोजन और राज्यपाल के साथ रात्रिभोज होता था. दूसरे दिन अधिकारियों का आपस में ग्रुप लंच होता था. इस दिन फील्ड से आने वाले आईएएस अधिकारी आपस में चर्चा करते थे.

अवकाशप्राप्त आईएएस अधिकारी आरएन त्रिपाठी कहते हैं, ‘इससे अधिकारियों को एक-दूसरे को समझने और सीखने का मौका मिलता था जो उनके क्षेत्र में तैनाती के दौरान काम आता था. दूसरे दिन ही एसोसिएशन की मीटिंग होती थी और पदाधिकारियों का चुनाव होता था. तीसरा और अंतिम दिन भी काफी खास होता था. इस दिन आईएएस व आईपीएएस अधिकारियों के बीच क्रिकेट मैच होता था. शाम को सर्विस एेट होम की परंपरा थी जिसका आयोजन बोटेनिकल गार्डेन में होता था. इसमें आईएएस अधिकारियों के अतिरिक्त रेलवे, सेना व केंद्र सरकार से दूसरे विभाग के अधिकारियों को भी बुलाया जाता था.’ अवकाशप्राप्त आईएएस अधिकारी एसएन शुक्ला बताते हैं, ‘सर्विस एेट होम में दूसरे विभाग के अधिकारियों के आने से सबसे बड़ा फायदा यह होता था कि उन्हें दूसरे क्षेत्रों के अधिकारियों के काम-काज का भी अच्छा ज्ञान हो जाता था और किसी तरह की समस्या आने पर यह अनुभव उनके काम आता था.’ मगर पिछले चार साल से यह आयोजन हो ही नहीं सका है.

2007 से सर्विस वीक न हो पाने की वजह एक आईएएस अधिकारी बताते हैं, ‘सालों से परंपरा रही है कि वीक के दौरान मुख्यमंत्री ही बैठक को संबोधित करते रहे थे. जब प्रदेश में बसपा की सरकार बनी तो मुख्यमंत्री से एसोसिएशन ने इसके लिए समय मांगा. लेकिन वहां से कोई जवाब ही नहीं मिला. यह सिलसिला 2007 से लगातार जारी है.’ एक बार मुख्यमंत्री कार्यालय से मुख्यमंत्री के स्थान पर कैबिनेट सेक्रेटरी को मुख्य अतिथि बनाने का प्रस्ताव भेजा गया जिस पर आईएएस अधिकारी तैयार नहीं हुए.

लगातार सर्विस वीक न हो पाने के कारण एसोसिएशन का चुनाव भी नहीं हो सका लिहाजा वह भी धीरे-धीरे छिन्न-भिन्न हो गई. एसोसिएशन के नाम पर तेज-तर्रार आईएएस अधिकारी संजय भूस रेड्डी कुछ माह पूर्व तक महासचिव के पद पर कार्यरत थे, लेकिन उनका भी तबादला केंद्र सरकार में हो जाने के बाद से यह पद भी खाली पड़ा है. एक आईएएस बताते हैं, ‘सरकार के करीबी कुछ अधिकारियों ने बची-खुची एसोसिएशन को भी खत्म करने का पूरा प्रयास किया. जिस समय संजस भूस रेड्डी महासचिव के पद पर थे उसी समय कुछ वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों ने बिना राय-मशविरा किए लखनऊ के डीएम रहे चंद्रभानु को रेड्डी की जगह महासचिव मनोनीत कर दिया. जब अन्य अधिकारियों को इस बात की भनक लगी तो उन्होंने इसका विरोध किया.इसके बाद चंद्रभानु ने अपने कदम पीछे खींच लिए.’

 
अवकाशप्राप्त आईएएस अधिकारी एसएन शुक्ल का आरोप है कि एसोसिएशन को कुंद करने के पीछे मौजूदा सरकार का हाथ है. अपने निजी स्वार्थों के चलते कुछ गिने-चुने आईएएस अधिकारी भी सरकार का बराबर साथ दे रहे हैं. सरकार की सोच यह है कि एसोसिएशन के ताकतवर होने की  हालत में वह सरकार के मनमाने फैसलों का विरोध करती है, जिससे उस पर दबाव बनता है. शुक्ला अपनी बातों की पुष्टि एक उदाहरण से करते हैं – मुलायम सिंह यादव जब मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने आदेश पारित करके पीसीएस अधिकारियों को भी जिलाधिकारी बनाने का निर्णय लिया. सरकार के दो खास पीसीएस अधिकारियों को जिलाधिकारी बना भी दिया गया. जिलाधिकारी का पद भारतीय प्रशासनिक सेवा का है लिहाजा एसोसिएशन के माध्यम से आईएएस अधिकारियों ने मुख्यमंत्री से इस पर कड़ा विरोध जताया. लिहाजा सरकार को अपना निर्णय वापस लेना पड़ा और जो दो पीसीएस अधिकारी जिलों में जिलाधिकारी के तौर पर तैनात किए गए थे उन्हें वापस बुला लिया गया.

शुक्ला दूसरा उदाहरण खुद का देते हुए बताते हैं, ‘1998 में कल्याण सिंह प्रदेश के मुख्यमंत्री थे और वे अपने बेटे राजू की संस्था को मेडिकल कॉलेज के लिए ग्राम समाज की जमीन आवंटित कराना चाहते थे. कल्याण सिंह ने सुबह आठ बजे मुख्यमंत्री आवास पर जमीन के कागजातों पर हस्ताक्षर के लिए बुलाया, लेकिन मैने यह कहते हुए हस्ताक्षर करने से मना कर दिया कि यह गलत है. राजू के नाम जमीन का आवंटन किस तरह गलत है यह समझाने के बाद कल्याण सिंह भी सहमत हो गए.’ शुक्ला कहते हैं, ‘आज स्थितियां ऐसी नहीं हंै. आज सरकार जिस कागज पर हस्ताक्षर करने को कहे और आईएएस मना कर दे तो उसका अंजाम क्या होता है किसी को बताने की जरूरत नहीं.

शुक्ला बताते हैं कि आईएएस एसोसिएशन को छिन्न-भिन्न करने के बाद नियुक्तियों में भी सरकार मनमाना रवैया अपना रही है. कानपुर, इलाहाबाद, आगरा, वाराणसी, मेरठ और लखनऊ मंडल के कमिश्नर का पद प्रमुख सचिव स्तर का है. इसके लिए भारत सरकार की ओर से 2005 में विज्ञप्ति भी जारी की गई है. इसके बावजूद कानपुर को छोड़ कर अन्य सभी स्थानों पर प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारियों के बदले सचिव स्तर के अधिकारी को ही सरकार ने तैनात किया है. अधिकारी सब जानते हुए भी मौन साधे हैं, क्योंकि उनके पास विरोध के लिए न तो कोई प्लेटफॉर्म है और न ही सरकार में उनकी सुनी ही जा रही है. शुक्ला के मुताबिक अधिकारियों में अस्थिरता का दौर 1990 के बाद ही आना शुरू हो गया था. यदि कोई अधिकारी किसी सरकार का खास होता था तो उसे दूसरी सरकार में किनारे लगा दिया जाता था. मगर तब इस तरह से  उत्पीड़न नहीं होता था. सरकार का खास बनने वाले लोगों की संख्या भी तब कम थी. ऐसे लोगों को दूसरे आईएएस भी जानते थे जो निजी स्वार्थों के लिए सरकारों के खास बनते थे. लेकिन आज स्थितियां बदतर हो गई हैं. असली सचिवालय मुख्यमंत्री कार्यालय हो गया है असली सचिवालय के अधिकारी सेक्शन अफसर के तौर पर काम कर रहे हैं.

सरकार के काम-काज पर अंगुली उठाने का परिणाम निलंबित आईएएस अधिकारी प्रोमिला शंकर के  साथ हुए बर्ताव से लगाया जा सकता  है. तहलका से बातचीत में प्रोमिला कहती हैं, ‘एनसीआर प्लानिंग बोर्ड की कमिश्नर रहते हुए सितंबर, 2011 में मैंने यमुना एक्सप्रेसवे इंडस्ट्रियल बोर्ड अथॉरिटी के मास्टर प्लान पर आपत्ति जताई थी. क्योंकि इसे तैयार करने में बोर्ड की मंजूरी नहीं ली गई थी. चूंकि कृषि योग्य भूमि पर हो रहा अंधाधुंध निर्माण भविष्य में सामाजिक अस्थिरता पैदा कर सकता है इसलिए एनसीआर में होने वाले किसी भी अधिग्रहण के लिए एनसीआर प्लानिंग बोर्ड की सहमति जरूरी होती है. इससे सरकार में हड़कंप मच गया. कुछ दिनों बाद ही मुझे यह आरोप लगाते हुए निलंबित कर दिया कि मैं बिना सरकार की अनुमति के विदेश यात्रा पर चली गई थी.’ फरवरी, 2012 में रिटायर होने वाली प्रोमिला शंकर कहती हैं कि सरकार ने यह कदम दूसरे अधिकारियों के बीच यह संदेश देने के लिए उठाया है कि सरकार जैसा चाहे वैसा ही करो.

फायर विभाग के डीआईजी डीडी मिश्रा का जिक्र करते हुए प्रोमिला कहती हैं कि जब मिश्रा ने सरकार के काम-काज पर अंगुली उठाई तो उन्हें पागल करार दिया जा रहा है. वे कहती हैं कि निलंबन के बावजूद वे हारी नहीं हैं. प्रदेश सरकार के इस कदम के खिलाफ उन्होंने केंद्र सरकार को भी पत्र लिख कर राज्य में आईएएस अधिकारियों के साथ हो रहे अन्याय व अत्याचार की पूरी कहानी बयान की है.

ईमानदारी का ठिकाना पागलखाना

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पिछले दिनों ऐसा वाकया हुआ जिसने राज्य में बार-बार कही-सुनी जा रही घपले, मनमानी और अराजकता की अनगिनत कहानियों पर मुहर लगाने का काम किया. इस घटना ने यह बात भी उजागर कर दी कि राज्य की प्रशासनिक मशीनरी कितने दबाव और मजबूरी में काम कर रही है. चार नवंबर को उत्तर प्रदेश पुलिस के डीआईजी (फायर) देवदत्त मिश्रा ने अपने विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ झंडा बुलंद कर दिया. मिश्रा ने मीडिया को अपने दफ्तर में बुलाकर सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए. उन्होंने कंट्रोल रूम के रजिस्टर में यह टिप्पणी लिख दी कि शासन में सभी कुछ अवैध है, इससे बड़ा स्कैम संभव नहीं है. इस खबर ने सरकार को मुसीबत में डाल दिया.

वरिष्ठ अधिकारी का बयान टीवी चैनलों पर दौड़ने लगा. मजबूरन पुलिस के कुछ अधिकारी मिश्र को समझाने उनके दफ्तर पहुंचे. लेकिन मिश्रा दफ्तर से बाहर न निकलने पर अड़ गए. काफी मान-मनौव्वल के बाद भी जब बात नहीं बनी तब उनके अपने ही विभाग यानी पुलिस के जवानों ने जबरन घसीटते हुए उन्हें दफ्तर से बाहर निकाला. इस समय तक रात के दस बज चुके थे. यहां से उन्हें सीधे मेडिकल कॉलेज के मानसिक रोग विभाग में पहुंचा दिया गया. यह सारा नाटकीय घटनाक्रम मीडिया के जमावड़े के सामने हुआ. तत्काल सरकार की तरफ से बयान जारी करते हुए मिश्रा को मानसिक रूप से बीमार (बाइपोलर इफेक्टिव डिसऑर्डर) करार दिया और उनके कृत्य को सरकारी आचरण सेवा नियमावली का उल्लंघन भी माना. जबकि घटना के वक्त से ही मिश्रा के सहकर्मी उनके पूरी तरह से स्वस्थ होने का दावा कर रहे थे.

मिश्र ने जो बातें चार तारीख को मीडिया के सामने रखी थीं वे कुछ यूं हैं- ‘यहां सबकुछ भ्रष्ट है. कल तक मुझे भी यह सब करना पड़ता था, लेकिन आज मैं सच कहने का खतरा उठा रहा हूं. एडीजी मुझ पर करोड़ों रुपये के अवैध वाटर टैंकर की खरीद के आदेश पर दस्तखत करने के लिए दबाव डाल रहे हैं. मैंने इन गड़बड़ियों का विरोध किया तो मेरा प्रमोशन रोक दिया गया.’ उन्होंने एक और सनसनीखेज आरोप लगाया कि पूर्व आईएएस अधिकारी हरमिंदर राज सिंह ने खुदकुशी नहीं की थी बल्कि सरकार ने अपना भ्रष्टाचार उजागर होने के डर से उनकी हत्या करवाई थी. इसके अलावा मिश्रा ने राज्य के प्रधान गृह सचिव फतेह बहादुर सिंह पर भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए.

जवाब में सरकार का रवैया अत्यंत विरोधाभासी रहा. पहले सरकार ने मिश्रा को पागल बताकर अपनी मुश्किलें सीधे-सीधे कम करने की कोशिश की और दूसरी तरफ आनन-फानन में बुलाई गई प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रधान गृह सचिव फतेह बहादुर सिंह ने कहा, ‘उनके आरोपों की जांच करने का फैसला सरकार ने किया है. इस संबंध में डीजी (एंटी करप्शन) अतुल कुमार को जांच का जिम्मा सौंपा गया है.’ जांच का काम तूफानी गति से शुरू भी हो गया. घटना के अगले ही दिन अग्निशमन विभाग के एडीजी डा. हरिश्चंद्र सिंह का तबादला प्रशिक्षण मुख्यालय कर दिया गया. दूसरी तरफ अस्पताल में मिश्रा के वार्ड के बाहर भारी मात्रा में पुलिसबल तैनात किया गया जिससे मीडिया समेत किसी के भी उनसे मिलने पर प्रतिबंध लग गया.  प्रशासन का यह रवैया समझ से परे है.

यहां विरोधाभासों का अंत नहीं हुआ. जिस दिन मिश्रा को अस्पताल में भर्ती किया गया उसी दिन कह दिया गया कि बीमारी का पता चलने में कम से कम दस दिन लगेंगे. लेकिन चार दिन बाद ही उन्हें अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया. मिश्रा की हालत के बारे में पूछने पर छत्रपति शाहूजी महाराज मेडिकल यूनिवर्सिटी के मानसिक रोग विभागाध्यक्ष पीके दलाल कहते हैं, ‘वे जब यहां आए थे तब गहरे अवसाद में थे, संभवत: इसी वजह से उन्होंने यह सब किया. हमने उन्हें दस दिन निगरानी में रखने की बात कही थी लेकिन वे ठीक महसूस कर रहे थे और घर जाने की जिद कर रहे थे इसलिए उन्हें डिस्चार्ज करना पड़ा.’ लेकिन सच्चाई इसी विभाग के एक दूसरे डॉक्टर नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि मिश्रा की जांच के नाम पर जो हुआ उसकी रिपोर्ट उसी दिन सरकार के पास भेज दी गई थी. पूर्व पुलिस अधिकारी एसआर दारापुरी सरकार की पागलपन की थ्योरी पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं, ‘पहली बात तो अवसाद और पागलपन में अंतर है. दूसरी बात यह कि अगर वे अवसाद में थे तो हमें जानना होगा कि वे कौन सी परिस्थितियां थीं जिन्होंने मिश्रा को गहरे अवसाद में ढकेल दिया. जाहिर है उनकी परेशानी की वजह विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार और उसे जारी रखने के लिए उन पर पड़ रहा भयंकर दबाव था.’ इस प्रकरण पर सभी विरोधी दलों ने भी सरकार पर जमकर हमला बोला है और सरकार ने दबाव में मामले की जांच के आदेश दिए हैं.

सकल ताड़ना के अधिकारी

उत्तर प्रदेश की ब्यूरोक्रेसी इस समय एक ऐसी अंधेरी सुरंग में फंसी हुई है जहां ईमानदारी और नैतिकता की चादर बचाए रखने वाले अधिकारियों का दम घुट रहा है. बेईमान, भ्रष्ट और जमीर से समझौता कर चुके अधिकारी आगे तो बढ़ रहे हैं मगर उन्हें भी यह नहीं मालूम कि इस सुरंग का सिरा कहीं खुलेगा या फिर उन्हें इसी में फंसे रह जाना है.’ लखनऊ में सचिवालय में तैनात प्रमुख सचिव स्तर के एक अधिकारी की यह पीड़ा उत्तर प्रदेश फायर सर्विसेज के डीआईजी डीडी मिश्रा के प्रकरण के बाद अधिकारियों के बीच शुरू हुई आम सुगबुगाहट है. दरअसल मिश्र प्रकरण मायावती सरकार के लिए खतरे की बड़ी घंटी बन गया है क्योंकि इसके बाद से अन्य कई अधिकारी भी तंत्र के भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर होने की हिम्मत जुटाने लगे हैं.

विपक्ष ने भी इस प्रकरण के बाद भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मायावती को नए सिरे से घेरना शुरू कर दिया है. समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और भाजपा समेत सभी छोटे-बड़े राजनीतिक दल इस मामले में मुख्यमंत्री मायावती को सीधे-सीधे जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. डीआईजी स्तर के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी मिश्रा को जिस तरह से जोर-जबर्दस्ती और धक्का मुक्की करके उनके दफ्तर से बाहर निकाला गया उससे पुलिस विभाग के अलावा दूसरे विभागों के वरिष्ठ अधिकारी भी भन्नाए हुए हैं. मिश्र से सहानुभूति रखने वाले एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहते हैं, ‘टीवी पर मिश्र को जिस तरह धकिया कर गाड़ी में बिठाते हुए दिखाया गया उससे लीबिया में कर्नल गद्दाफी को गिरफ्तार कर गोली मारे जाने वाला दृश्य याद आ गया. वहां एक घोषित युद्ध में एक निहत्थे आदमी के साथ बर्बरता हो रही थी, तो यहां लोकतांत्रिक राज्य में एक अधिकारी के साथ उन्हीं के हमपेशा वर्दीवाले बर्बरता से पेश आ रहे थे.’

दरअसल डीआईजी मिश्रा ने गृह विभाग के प्रधान सचिव फतेह बहादुर सिंह सहित मायावती सरकार के तमाम अफसरों पर भ्रष्टाचार में लिप्त होने के गंभीर आरोप लगाए थे. इसके बाद शासन ने इस मामले को दबा देने की हर संभव कोशिश की. एक ओर मिश्र के आरोपों पर जांच की घोषणा की गई तो दूसरी तरफ उन्हें मानसिक रूप से बीमार घोषित करने के लिए भी पेशबंदी शुरू हो गई (बॉक्स देखें). हालांकि शायद ब्राह्मण और दलित गठजोड़ वाली उत्तर प्रदेश की राजनीति मिश्रा के काम आ गई और उनकी जान जल्दी ही छूट गई. जानकारों का मानना है कि चूंकि मिश्रा के साथ जो कुछ हुआ उसके तुरंत बाद ही बसपा  ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित करने वाली थी इसलिए वे सस्ते में छूट गए. मगर ईमानदार अधिकारियों से निपटने का उत्तर प्रदेश के बेईमान और भ्रष्ट अफसरों का यह तरीका बेहद पुराना है और ऐसा केवल बसपा की सरकार कर रही हो ऐसा भी नहीं है. हां मायावती सरकार ने इसे नई ऊचाइयों तक जरूर पहुंचा दिया है. सही और धारा के विरूद्ध आवाज उठाने वाले अधिकारियों को पहले भी इसी तरह से पागल ठहराया जाता रहा है. उत्तर प्रदेश और एक तरह से देश भर में ब्यूरोक्रेसी के भ्रष्टाचार के खिलाफ पहली बड़ी आवाज उठाने वाले आईएएस अधिकारी धर्मसिंह रावत को भी इसी तरह पागल ठहराने की कोशिश की गई थी. यह भी संयोग ही है कि 1986 में जिस वक्त धर्म सिंह रावत ने प्रशासन में भ्रष्टाचार के विरोध में और जवाबदेही लाने के लिए उपवास शुरू किया था उस वक्त वे भी उसी इंदिरा भवन में तैनात थे जहां से मिश्रा को रात दस बजे जबरन बाहर निकाला गया. रावत दस से पांच तक अपने जिस कार्यालय में नौकरी करते थे, रात भर उसी कक्ष में उपवास पर बैठते थे.

उत्तर प्रदेश में तैनात कई वरिष्ठ अधिकारी डीडी मिश्रा के साथ हुए व्यवहार से छुब्ध हैं. वे दबी जुबान में कहते हैं कि यह मामला यूं ही खत्म नहीं होगा

उस दौर के हिसाब से रावत का उपवास एक क्रांतिकारी घटना थी. वीरबहादुर सिंह की कांग्रेस सरकार की छवि को इससे गहरा आघात लगा था. लेकिन तब भी रावत को दफ्तर से जबरन बाहर नहीं फेंका गया था. सिर्फ उनका निलंबन ही हुआ जो जांच पूरी होने के बाद समाप्त हो गया था. रावत ने जो मुहिम तब शुरू की थी वही बाद में उत्तर प्रदेश के प्रशासनिक अधिकारियों के बीच तीन महाभ्रष्ट अधिकारी चुनने तक पहुंची और एक प्रकार से रावत की मुहिम ही सूचना के अधिकार की पूर्व पीठिका भी बनी क्योंकि रावत ने ही पहली बार प्रशासनिक अधिकारियों की जवाबदेही का मुद्दा उठाया था. तो क्या रावत की ही तरह अब मिश्र की मुहिम भी किसी बड़े अंजाम तक पहुंच सकेगी?

उत्तर प्रदेश के कई वरिष्ठ अधिकारी यह मानते हैं कि यह मामला यूं ही खत्म नहीं होगा. इसके परिणाम दूरगामी होंगे. पूर्व पुलिस प्रमुख एमसी द्विवेदी कहते हैं, ‘अब ऐसी स्थिति हो गई है कि हर अधिकारी भविष्य की चिंता से डरने लगा है.’ यह बात तय है कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों के बाद अगर राजनीतिक सत्ता बदलती है तो कई लोगों को मुसीबतों का सामना करना पड़ सकता है. शायद इसी से बचने के लिए अब कई अधिकारी अपना पिंड छुड़ाने के फेर में पड़ गए हैं. एक दिलचस्प चलन यह है कि जब-जब मायावती सत्ता से बाहर हुई हैं तब-तब उनके प्रिय अधिकारियों को खामियाजा भुगतना पड़ा है. मायावती के तीसरे कार्यकाल में मुख्य सचिव रहे डीएस बग्गा की पेंशन अब तक रुकी है. दूसरे प्रमुख सचिव पीएल पुनिया को भी कई विवादों का सामना करना पड़ा था. ताज कॉरिडोर प्रकरण में आईएएस अधिकारी आरके शर्मा को भी लंबे समय तक निलंबित रहना पड़ा था.

वर्तमान में उत्तर प्रदेश की प्रशासनिक मशीनरी कैसे काम कर रही है इसका उदाहरण राज्य के दो-चार प्रमुख विभागों के काम-काज से ही मिल जाता है. सूबे में मनरेगा के भ्रष्टाचार को लेकर केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश द्वारा करोड़ों रुपये के घोटाले के आरोप को भले ही मुख्यमंत्री मायावती ने राज्य पुलिस की विशेष आर्थिक अपराध शाखा से जांच करवाने की बात कह कर टाल दिया हो लेकिन मनरेगा की मलाई काट रहे तंत्र को इस बात का अंदेशा है कि अगर मामला अदालत तक पहुंचा तो गर्दन बचाना मुश्किल हो जाएगा.

राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) के घोटाले में तो तीन-तीन सीएमओ स्तर के डॉक्टरों की जान तक जा चुकी है. इस मामले की सीबीआई जांच जारी है. सीबीआई तीनों वरिष्ठ डॉक्टरों के हत्यारों तक पहुंचने के साथ-साथ सैकड़ों करोड़ के गबन की तह में पहुंचने की कोशिश भी कर रही है. बिजली महकमे के कई सौदे लोकायुक्त की जांच के घेरे में हैं तो नोएडा, ग्रेटर नोएडा समेत कई हाईवे, जमीन अधिग्रहण और आवंटन के मामलों में या तो अदालती डंडा चल चुका है या फिर किसी न किसी स्तर पर जांच जारी है. पुलिस महकमा तो भ्रष्टाचार के संरक्षक और सहयोगी के रूप में ही चर्चित हो चुका है. अन्ना हजारे के अनशन के दौरान नई दिल्ली में उनके मंच पर आकर उत्तर प्रदेश पुलिस में चल रहे संस्थागत भ्रष्टाचार की पोल खोलने वाले पुलिस कांस्टेबल कमलेश यादव को बर्खास्त तो कर दिया गया है लेकिन इससे भी पुलिस के दामन का दाग छिप नहीं सका है. डीडी मिश्र के प्रकरण ने तो विभाग के काम-काज की गड़बडि़यों की सिर्फ एक दो पर्तें ही उधाड़ी हैं. अभी ऐसे ही और बहुत सारे मामले सामने आने बाकी हैं.

वैसे भी उत्तर प्रदेश पुलिस की फायर सर्विसेज पहले से ही विवादों की प्रिय चरागाह रही है. मायावती सरकार के दूसरे कार्यकाल में इसी विभाग के 2.5 करोड़ रुपये के एक घोटाले ने मायावती को मुसीबत में डाल दिया था. मामला फ्लोट पंपों की खरीद का था. ठेका चेन्नई की एक फर्म को मिला था जिसका मालिक बीएसपी की तमिलनाडु शाखा का अध्यक्ष था. इस मामले में एक दलित पुलिस अधिकारी सीडी कैंथ ने जब पम्पों की खरीद पर संस्तुति करने से इनकार कर दिया तो उन्हें मायावती सरकार ने निलंबित कर दिया. कहा जाता है कि 1997 में एडीजी स्तर के उस अधिकारी ने इसी तनाव के चलते अपने बाथरूम में खुद को गोली मार ली थी. मायावती के मौजूदा कार्यकाल में खुद को गोली मार कर आत्महत्या करने वाले वरिष्ठ आईएएस अधिकारी हरमिंदर राज सिंह की तरह कैंथ की आत्महत्या का राज भी अब तक राज ही बना हुआ है. मायावती के बाद मुख्यमंत्री बने कल्याण सिंह ने जब इस मामले की सीबीआई जांच का फैसला किया तो मायावती को दिल्ली हाई कोर्ट से अग्रिम जमानत लेनी पड़ी थी. सीबीआई ने इस मामले में मायावती और सात अधिकारियों के खिलाफ मामला भी दर्ज किया था. उनके चौथे कार्यकाल में उसी फायर सर्विसेज के एक और घोटाले में एक आईपीएस अधिकारी ने मायावती पर फिर उंगली उठाई है तो ऐसा माना जा रहा है कि इस बार भी यह घोटाला कुछ न कुछ रंग जरूर दिखाएगा.

सरकार जवाबदेही से बच रही है. पत्रावलियों पर मुख्यमंत्री की बजाय विशेष सचिव स्तर के अधिकारियों को दस्तखत करने को मजबूर किया जा रहा है

हालांकि सत्ता के गलियारों में इस बात की भी चर्चा है कि मायावती इस बार बेहद फूंक-फूंक कर काम कर रही हैं. उनकी रणनीति यह है कि वे यदि सत्ता से बाहर भी हो जाएं तो भी सीधे-सीधे किसी मामले में उनके खिलाफ कानूनी शिकंजा कसा न जा सके. सचिवालय के एक अधिकारी के मुताबिक मौजूदा सरकार में हर अधिकारी अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से बचना चाहता है. जिन पत्रावलियों पर मुख्यमंत्री के हस्ताक्षर होने चाहिए उन पर पहले प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारियों से दस्तखत करवाए जाते थे, मगर अब विशेष सचिव स्तर के अधिकारियों को दस्तखत करने को मजबूर किया जा रहा है. हर बड़ा अफसर अपनी गर्दन बचाने की जुगत में है. ज्यादातर पत्रावलियों में ‘मुख्यमंत्री के निर्देश पर …’ आदेश हो रहे हैं. कल को कोई जांच हुई तो साबित करना मुश्किल होगा कि उन्होंने निर्देश दिया भी था या नहीं. सारा मामला जुबानी जमा-खर्च है, लिखा-पढ़ी में कुछ भी नहीं. राज्य के कैबिनेट सचिव के बारे में तो मशहूर है कि वे अपनी सभी पत्रावलियों को पेंसिल से ही मार्क करते हैं.

मिश्रा प्रकरण ने तंत्र को घुन की तरह खोखला कर रहे भ्रष्टाचार की ओर भी इशारा किया है और साथ ही अधिकारियों पर बढ़ रहे दबाव तथा तनाव की ओर भी. 19 जुलाई, 1986 को तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह को लिखे एक लंबे पत्र में निलंबित आईएएस अधिकारी धर्म सिंह रावत ने लिखा था, ‘मैं ही अकेला ईमानदार अधिकारी यहां पर नहीं हूं, इस व्यवस्था में ज्यादातर अधिकारी व कर्मचारी ईमानदार हैं. पर अधिकांश अधिकारी अपनी ईमानदारी के संबंध में अपने को अकेला समझते हैं.’ कमोबेश यही स्थिति आज भी है. बल्कि ईमानदार अधिकारी आज और भी अकेले तथा अलग-थलग हो चुके हैं. अब तो उत्तर प्रदेश में आईएएस और आईपीएस एसोसिएशन भी पूरी तरह निष्क्रिय हो चुके हैं. इसलिए सही ढंग से काम करने वाले अधिकारियों  को किसी भी प्रकार का सांगठनिक समर्थन नहीं मिल रहा है.

गुजरात में संजीव भट्ट के खिलाफ पुलिसिया कार्रवाई के तरीके पर वहां के पुलिस अधिकारियों का बड़ा तबका आवाज उठा लेता है मगर उत्तर प्रदेश में मिश्र के मामले में इक्का-दुक्का अधिकारी ही दबी जुबान में कुछ कह पाने की हिम्मत कर पाते हैं. हालांकि राज्य के प्रायः सभी पूर्व पुलिस प्रमुख यह स्वीकार करते हैं कि भ्रष्टाचार ने सिस्टम को इस तरह शिकंजे में कस लिया है कि उसमें ईमानदार अधिकारी के लिए काम करना मुश्किल हो गया है और उसे शर्तिया तनावग्रस्त होना ही है.इससे दो ही तरीकों से निपटा जा सकता है. या तो राजनीतिक नेतृत्व भ्रष्टाचार के खिलाफ दृढ़ इच्छाशक्ति वाला हो या फिर सूचना के अधिकार, लोकपाल, जनहित याचिकाओं आदि के द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ व्यापक मोर्चा शुरू हो. उत्तर प्रदेश में उम्मीद दूसरे तरीके से ही अधिक दिखाई देती है. खास तौर पर तब, जब अन्ना हजारे उत्तर प्रदेश में व्यापक जन जागरण और कार्यक्रमों की घोषणा कर चुके हैं.उम्मीद की लौ कुछ पूर्व अधिकारियों ने भी जला रखी है. मायावती सरकार में ‘जातिराज’ किताब लिख कर चर्चा में आए पूर्व पीसीएस अधिकारी लक्ष्मीकांत शुक्ल और पूर्व आईपीएस अधिकारी अजय सिंह राज्य में व्याप्त अराजकता के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं. हालांकि इनकी इच्छा भी राजनीति में उतरने की है लिहाजा यह यकीन कर पाना मुश्किल है कि काजल की कोठरी में घुसकर वे बेदाग बाहर निकल पाएंगे.

चलाचली की बेला में छत्तर का मेला

 

दस नवंबर, सुबह छह बजे का समय. पटना को उत्तर बिहार से जोड़ने वाले गांधी सेतु पर बड़ी और छोटी गाड़ियां एक लाइन से खड़ी हैं. यातायात पूरी तरह ठप है. अहले सुबह सेतु पर यातायात ठप होने का एकमात्र कारण है आज कार्तिक पूर्णिमा का होना और आज से ही विश्व प्रसिद्ध सोनपुर या ठेठ भाषा में कहें तो छत्तर के मेले की शुरुआत. माथे पर गठरी रखे, छोटे बच्चों का हाथ पकड़े और खुद से न चल पाने वाले छोटे बच्चों को गोद में चिपकाए लोगों का रेला सोनपुर की तरफ बढ़ रहा है.

कार्तिक पूर्णिमा से शुरू होकर अगले एक महीने तक चलने वाले इस मेले को देश-दुनिया में एशिया के सबसे बड़े पशु मेले के तौर पर जाना जाता है, लेकिन मेले की यह पहचान पिछले कुछ वर्षों से मिटती जा रही है. मेले में बिक्री के लिए आने वाले पशुओं की संख्या लगातार घटती जा रही है. चाहे वे दुधारू मवेशी मसलन गाय और भैंस हों या पूर्व में शान की सवारी समझे जाने वाले हाथी, घोड़ा या ऊंट. पहले कभी इस मेले में पूरे मध्य एशिया से व्यापारी पर्शियन नस्ल के घोड़ों, हाथी, अच्छी किस्म के ऊंट और दुधारू मवेशियों के लिए यहां तक आते थे. लेकिन यह सिलसिला पिछले कुछ वर्षों से बंद है. अब इस मेले में जानवरों की खरीद-बिक्री न के बराबर होती है. अब यह मेला बड़े जानवरों की प्रदर्शनी भर बनकर रह गया है. इस बार के मेले में गोरखपुर से अपने हाथियों के साथ आए उदय ठाकुर बड़े शान से कहते हैं, ‘अब हाथी तो मुश्किल से ही इस मेले में बिकें लेकिन हम तो मेले में हाथी सिर्फ घुमाने के लिए लाते हैं. हाथी है. मेले में लाए हैं. मेला घुमाएंगे और वापस ले जाएंगे.’ बातचीत में उदय ठाकुर बताते हैं कि गोरखपुर से यहां तक हाथी को आने में दो सप्ताह का समय लगा और इसमें बीस हजार रु का खर्च आया.

इस बातचीत से यह तो साफ हो जाता है कि अब यहां जानवरों के खरीददार नहीं आते. जब खरीददार ही नहीं आएंगे तो कौन केवल शौक के लिए या जानवर को मेला घुमाने के लिए बीस हजार रुपये लगा कर यहां तक आएगा. यह समस्या सोनपुर मेले के स्वर्णिम इतिहास को धीरे-धीरे खत्म करती जा रही है.

जानवरों के अलावा मेले में जरूरत की हर छोटी-बड़ी चीज की दुकानंे सजी हैं. एक तरफ बच्चों के मनोरंजन के लिए मौत का कुआं, इच्छाधारी नाग-नागिन का खेल, झूले और खेल-खिलौनों की दुकानंे लगी हैं तो दूसरी तरफ नौजवान लड़कों और पुरुषों के मनोरंजन के लिए कई थियेटर कम कपड़े पहने लड़कियों के आदमकद कटआउट लगाए मेले में खड़े हैं. थिएटरों में कम कपड़े पहने हुए लड़कियों का नाच शाम ढले शुरू हो जाता है और फिर देर रात तक केवल थिएटर के अंदर और बाहर ही चहल-पहल दिखती है. यह एक विडंबना ही है कि पशुओं के लिए विख्यात मेले में आज इन थिएटरों का प्रमुखता से कब्जा है. मेले की हालिया पहचान भी इन थिएटरों से ही जुड़ रही है. थिएटरों पर नाच की आड़ में अश्लीलता परोसने के आरोप भी लगे हैं. इन आरोपों की वजह से एक बड़ा वर्ग सोनपुर मेले को ही अश्लील मानने लगा है और इस तरफ रुख करने से बचने लगा है.

अपनी असल पहचान खोते और अश्लीलता का आरोप झेलते इस मेले का इतिहास काफी पुराना और दुरुस्त है. माना जाता है कि यह मेला मौर्यकाल से लगता आ रहा है. बताया जाता है कि चंद्रगुप्त मौर्य सेना के लिए हाथी खरीदने हरिहर क्षेत्र आते थे. 1888 में यहीं पर सर्वप्रथम गोरक्षा पर विचारगोष्ठी का आयोजन हुआ था. स्वतंत्रता आंदोलन में भी सोनपुर मेला बिहार की क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र रहा है. वीर कुंअर सिंह लोगों को अंग्रेजी हुकूमत से संघर्ष के लिए जागरूक करने और अपनी सेना में बहाली के लिए यहां आते थे. अंग्रेजों के शासनकाल में ही इसे ‘एशिया का सबसे बड़ा पशु-मेला’ नाम दिया गया था.

हालांकि तमाम आरोपों और मेले के मिटते जाने की शंका और आशंकाओं के बीच इस मेले में आने वाले आम देहाती को देखने-सुनने के बाद ऐसा लगता है कि ये लोग अपनी परेशानियों को पीछे छोड़कर यहां आते हैं, जमकर मस्ती करते हैं, जरूरत के सस्ते सामानों की खरीददारी करते हैं, खाते-पीते हैं और मेले के बारे में बोलते-बतियाते शाम को घर लौट जाते हैं. मेले में आने वालों की संख्या और उनके मिजाज को देखकर इतना तो विश्वास हो ही जाता है कि सोनपुर मेला देहात की आम जनता का अपना मेला है.

‘सरकार के साथ कुछ कॉरपोरेट घराने भी मुझे मारना चाहते हैं’

झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और सांसद मधु कोड़ा पर जेल के अंदर हमले ने सूबे में राजनीतिक रंग ले लिया है. विपक्षी भी कोड़ा पर हुए हमले में राजनीति के तत्व तलाशने की कोशिश में हैं. झारखंड विकास मोर्चा सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी का कहना है कि ऐसा स्टंट तो सिनेमा में ही होता है लेकिन यहां तो खुलेआम गुंडाराज चल रहा है. वे मांग करते हैं कि इस प्रकरण की न्यायिक जांच होनी चाहिए. मांडर विधायक बंधु तिर्की, केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय, झाविमो नेता प्रवीण सिंह समेत कई अन्य नेता इस घटना की न्यायिक जांच की मांग को लेकर धरने पर बैठे. जब तहलका ने जेल अधीक्षक डीके प्रधान से बात की तो उनका कहना था कि इस मामले की जांच चल रही है और जल्द ही सच्चाई दुनिया के सामने आ जाएगी. हालांकि, बार-बार बदलते बयान से जेल प्रशासन गहरे संदेह के घेरे में है. उधर मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा न्यायिक जांच की घोषणा करने के बाद अब चुप्पी साध गए हैं. कोड़ा का आरोप तो यह भी है कि उन्हें जान से मारने की साजिश रची जा रही है. 4,000 करोड़ रुपये से अधिक के घोटाले के आरोप में जेल में बंद मधु कोड़ा अभी अस्पताल में अपना इलाज करा रहे हैं. तहलका प्रतिनिधि अनुपमा ने उनसे इस मामले में तफसील से बात की जिसके प्रमुख अंश इस प्रकार है:

मैं जनप्रतिनिधि हूं इस नाते जेल में कैद बंदी अपनी समस्या गाहे-बगाहे मुझे बताते रहते हैं. कई बार कैदियों ने मुझसे मौखिक और लिखित रूप में शिकायत भी की थी कि उन्हें जो खाना दिया जाता है वह खराब होता है. खाना भी भरपेट नहीं दिया जाता. वहां काम करने वाले दिहाड़ी मजदूरों को भी पूरा पैसा नहीं दिया जाता.

ये सभी बातें मैंने दुर्गा पूजा के पहले कोर्ट में पेशी के दौरान मीडिया से भी कही थीं. लेकिन हालात नहीं सुधरे. जस के तस बने रहे. 31 अक्टूबर, 2011 को सुबह नहा-धोकर मैं अन्य कैदी विधायकों के साथ सामान्य कैदियों की सेल में गया, वहां उन्हें खाना परोसा जा रहा था. हमने भी प्लेट में खाना लिया. यकीन मानिए, जेल के अंदर परोसा गया खाना आदमी तो दूर जानवरों के खाने लायक भी नहीं था.
मैंने जेल अधीक्षक से इसकी शिकायत की. लेकिन वे सुनने को तैयार नहीं थे. तब हमने तय किया कि हमें शांतिपूर्ण व संवैधानिक तरीके से इसका विरोध करना चाहिए. हम सभी जनप्रतिनिधि और तकरीबन 700-800 अन्य कैदी धरने पर बैठ गए. जब जेल प्रशासन को लगा कि ऐसा करने से तो यह बात बाहर चली जाएगी तो उन्होंने कैदियों को मार-पीट कर जबरन सेल में डालना शुरू कर दिया.

मैंने इस ज्यादती का विरोध किया तो मेरे सिर पर भी मारने की कोशिश की गई. मैं थोड़ा झुक गया और सिर के बचाव में मेरा हाथ ऊपर आया, जिसकी वजह से हाथ टूट गया और मैं जमीन पर गिर गया. इसके बाद भी मुझ पर डंडे बरसाए गए और एक्स-रे रिपोर्ट में एक काली रेखा दिखती है जो बताती है कि मेरे सीने पर भी डंडा लगा है. मैं जमीन पर था और मुझे असहनीय पीड़ा हो रही थी इसलिए उसके बाद के वाकये को मैं बहुत अच्छे से नहीं बता पाऊंगा. लेकिन यह घटना बताती है कि एक जनप्रतिनिधि के साथ ऐसा सलूक किया जाता है तो सामान्य कैदियों के साथ वहां कैसा दुर्व्यवहार होता होगा.

यदि सरकार का इस पूरे प्रकरण में हाथ नहीं है तो वह आखिर न्यायिक जांच से कतरा क्यों रही है?

मुझे ही नहीं कई अन्य कैदियों को भी चोटें आई हैं लेकिन इस बात को छिपा लिया गया. मुझे तो मारने की पूरी साजिश रच ली गई थी लेकिन संयोग और जनता की दुआओं के कारण मेरी जान बच गई. कैदियों ने दो-तीन महीने पहले भी इसकी लिखित शिकायत जेल अधीक्षक डीके प्रधान से की थी. पर उन्होंने जैसे किसी की बात न सुनने की कसम खा रखी थी.

हालांकि मुझे कभी अपने खाने को लेकर कोई शिकायत नहीं रही है. ये जरूर रहा है कि हमारे क्षेत्र के कैदी जो मुझसे मिलना चाहते थे उन्हें सुरक्षा के नाम पर नहीं मिलने दिया जाता था. उस पर पाबंदी थी. दरअसल जेल प्रशासन के मन में यह बात थी कि सिक्युरिटी के नाम पर मुझ तक उनकी बात न पहुंचे. नहीं तो शायद मैं एक प्रतिनिधि के रूप में उनके अधिकारों की मांग करूंगा.

आप इन घटनाओं को छोड़ भी दीजिए तो जेल प्रशासन की संवेदनहीनता इस बात से स्पष्ट हो जाती है कि जब उन्होंने मुझ पर वार करके मेरा हाथ तोड़ डाला और मैं दर्द से कराह रहा था तो भी वे मेरा इलाज कराने के लिए मुझे अस्पताल ले जाने को तैयार नहीं थे. जबकि मानवता के दृष्टिकोण से भी देखते तो भी इलाज करवाया जाता. जब मेरे हाथ में सूजन और दर्द बढ़ने लगे और लगा कि अब इसे छिपाया नहीं जा सकता तो साढ़े तीन घंटे बाद मुझे अस्पताल भेजा गया.

मैं अस्पताल में था, इसलिए मेरी पत्नी गीता कोड़ा 31 अक्टूबर की रात को ही 9-10 बजे एफआईआर कराने गई थीं. इसकी रिसिविंग भी है हमारे पास. लेकिन प्रशासन की चालाकी देखिए कि जब तक उन्होंने तथ्यों की तोड़-मरोड़ और लीपापोती करने के लिए कैदियों को राजी नहीं कर लिया तब तक उन्होंने हमें केस रजिस्ट्रेशन नंबर नहीं दिया. उन्होंने तीन दिन बाद ऐसा किया. इस मामले को वे कैदियों के बीच हुई आपसी झड़प का रूप देना चाहते थे क्योंकि उन्हें डर था कि जब जनता तक सच्चाई पहुंचेगी तो वह आंदोलित होगी और फिर इनकी पोल-पट्टी खुल जाएगी. इसीलिए केस भी उन्होंने बैक डेट में दर्ज कराया है, ऐसी मुझे सूचना मिली है.

मैं इस पूरे प्रकरण में सरकार की संलिप्तता से भी इनकार नहीं कर सकता. हालांकि इस बात में तनिक भी सच्चाई नहीं है और यह सरासर झूठ है, लेकिन यदि थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाए कि कैदियों ने मुझ पर हमला किया तो सवाल यह उठता है कि आखिर कैदियों के हाथ में डंडे कहां से आए क्या जेल प्रशासन के लोगों ने मुझे मारने के लिए उन्हें डंडे दिए? जब कैदी मुझे मार रहे थे तो पुलिस वहां क्या तमाशबीन बनने के लिए खड़ी थी?

सरकार एक तरह से मुझे नजरबंद की तरह रखे हुए है. मुझे मेरी पत्नी से, अपने लोगों से मिलने से रोका जाता है, जबकि अन्य लोगों को मिलने की अनुमति दी जाती है. एक ही जेल में दो तरह का व्यवहार यह साबित करता है कि मुझे जान-बूझकर परेशान किया जा रहा है. आपको मैं एक उदाहरण देता हूं जिससे आपको यह बात समझ में आएगी. जब भी कोई दुर्घटना घटित होती है तो सबसे पहले पुलिस अस्पताल में पहुंचकर पीड़ित का बयान लेती है, परंतु मेरे साथ तो ऐसा सौतेला व्यवहार हो रहा है कि पुलिस ने आज तक मेरा बयान ही नहीं लिया. मेरा हाथ टूटने का केस तक दर्ज नहीं किया गया है. मुझे तोड़ने की कोशिश की जा रही है. मुझे मानसिक, शारीरिक प्रताड़ना देने की कोशिश की जा रही है.

इस घटना के बाद जिस तरह से मुझे जनता का और विपक्ष के जनप्रतिनिधियों का समर्थन और सहानुभूति मिल रही है उसने मुझे संबल प्रदान किया है. यदि लोकतंत्र में जनता की बात ही न सुनी जाए और जनप्रतिनिधि पर हमला हो तो आम आदमी का क्या होगा? उसे तो सरकार चींटी की तरह मसल कर रख देगी. यानी सिस्टम ही ध्वस्त हो जाएगा. मैं जनता के लिए  जीता हूं, जनता के लिए ही जीता रहूंगा. जनता ने मुझे चुनकर अपना प्रतिनिधि बनाया है.

न्यायिक प्रक्रिया चल रही है और मैं बोलकर इसमें कोई बाधा उत्पन्न करना नहीं चाहता. मुझे अफसोस इस बात का है कि जब डेमोक्रसी कमजोर पड़ जाती है और सरकार अस्थिर रहती है तो ब्यूरोक्रेसी हावी हो जाती है. यही झारखंड में भी हो रहा है. कुछ अधिकारी इतने दबंग हो गए हैं कि जनप्रतिनिधियों को पीटने तक लगे हैं. न्यायालय पर मुझे पूरा भरोसा है और मैं उसका सम्मान करता हूं. मीडिया अपनी निष्पक्ष भूमिका का निर्वहन करे और मधु कोड़ा को हमेशा न्यूज आइटम या हॉट केक की तरह न ले.

यदि सरकार का इस पूरे प्रकरण में हाथ नहीं है तो वह न्यायिक जांच से कतरा क्यों रही है? इसके पीछे छिपी कई गुत्थियां हैं, जो न्यायिक जांच के बाद सामने आ जाएंगी. किसी एक को दोषी ठहराना नहीं चाहता लेकिन मेरी जान के दुश्मन तो कई हैं. सरकार के साथ-साथ कुछ कॉरपोरेट घराने भी हैं, जिनको लगता है कि मेरे कारण उनका नुकसान हुआ है. कुछ राजनीतिज्ञ भी हैं और कुछ परदे के पीछे हैं. इसलिए मैं सरकार से कहना चाहूंगा कि इस साजिश का पर्दाफाश करे.

विकास : मिथक या सच्चाई

बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का दावा है कि राज्य की विकास दर इस वर्ष 14.15 प्रतिशत तक पहुंच गई है जो देश में सबसे ज्यादा है. अर्थशास्त्रियों का दावा है कि इसमें सच्चाई से ज्यादा आंकड़ेबाजी है. इर्शादुल हक की रिपोर्ट

16 अक्टूबर को उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के केंद्रीय सांख्यिकी संगठन यानी सीएसओ के हवाले से प्रेस को सूचना दी, ‘2010-11 में बिहार की विकास दर 14.15 प्रतिशत रही है. इस प्रकार विकास के मामले में बिहार देश के तमाम राज्यों में अव्वल हो गया है’. हालांकि यह सीएसओ की तरफ से की गई कोई अधिकृत टिप्पणी नहीं थी, लेकिन मोदी के इस बयान के बाद बिहार के मीडिया में इस खबर की जबरदस्त धूम रही. इस खबर के मीडिया में छाने के बाद खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बड़े संयमित लहजे में कहा, ‘विकास के मामले में हम कोई दावा नहीं कर रहे हैं यह तो आंकड़े बता रहे हैं.’ लगे हाथों मुख्यमंत्री ने इस तेज रफ्तार तरक्की के लिए राज्य की जनता के भरपूर सहयोग के लिए उसका आभार भी जताया.

ठीक इसी तरह का बयान उपमुख्यमंत्री और राज्य के वित्तीय मामलों के मंत्री सुशील कुमार मोदी ने पिछले साल भी दिया था. तब मोदी ने सीएसओ के हवाले से दावा किया था कि 2009-10 में राज्य के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीएसडीपी की विकास दर 11.57 प्रतिशत रही है. मोदी का कहना था कि पूरे देश में बिहार तरक्की के मामले में गुजरात के बाद दूसरे स्थान पर आ गया है. तब मोदी के इस बयान के बाद सरकार ने अपनी इस ‘उपलब्धि’ को एक जश्न के रूप में लिया था और मीडिया ने भी इस खबर को हफ्तों तक अपनी प्राथमिकता में बनाए रखा. पर जैसे-जैसे समय बीतता गया, विकास की इस सच्चाई के कई और पक्ष भी सामने आए. कई आर्थिक विशेषज्ञों ने सरकार के इस दावे  को आंकड़ों की बाजीगरी बताया तो कुछ ने इसे सिरे से ही नकार दिया. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के प्राध्यापक प्रवीण झा ने तो इन आंकड़ों को झूठ का पुलिंदा तक कह डाला था.

14.15 प्रतिशत विकास दर के जो आंकड़े जारी किए गए हैं वह संशोधित आंकड़े हैं. वास्तविक आंकड़े आनी अभी बाकी हैं

उस समय यह विवाद इतना गहराया कि सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के केंद्रीय सांख्यिकी संगठन पर भी सवाल खड़े किए जाने लगे. चूंकि राज्य सरकार ने विकास दर से संबंधित आंकड़े केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के हवाले से ही जनता के सामने रखे थे, इसलिए उसकी विश्वसनीयता को लेकर भी तरह-तरह की बातें की गईं. इस विवाद के बाद सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के तत्कालीन सचिव प्रणव सेन को कहना पड़ा था कि बिहार की विकास दर से संबंधित आंकड़ों के बारे में राज्य सरकार ने जो कहा है उसे हमारे आंकड़े बताना किसी तरह से उचित नहीं है. इसके बाद उसी वर्ष जब राज्य विधानसभा में विकास दर से संबंधित अंतिम रिपोर्ट पेश की गई तो उसमें राज्य की विकास दर 9.30 प्रतिशत बताई गई थी. इस अंतिम रिपोर्ट के बाद सरकार ने इस संबंध में चुप्पी-सी साध ली थी.
 
तकनीकी दांवपेंच

आम तौर पर सभी अर्थशास्त्री इस बात पर सहमत हैं कि विकास दर का आकलन आंकड़ों की जबर्दस्त कलाबाजी से भरा-पूरा एक बेहद जटिल मसला है और यह एक हद तक ही वास्तविकता का चित्रण कर सकता है. यही कारण है कि एक ही वित्तीय वर्ष में विकास दर को कम से कम तीन या चार स्तरों पर निर्धारित किया जाता है. सबसे पहले प्रोविजनल आंकड़े जुटाए जाते हैं. कुछ महीने बाद संशोधित आंकड़े निकाले जाते हैं. फिर एडवांस आंकड़े जुटाए जाते हैं और उसके बाद अंत में वास्तविक आंकड़े जारी किए जाते हैं. बिहार में विकास दर के मामले में 14.15 प्रतिशत विकास दर के जो आंकड़े 17 अक्टूबर को सरकार ने जारी किए थे वे संशोधित आंकड़े थे.

इसका मतलब स्पष्ट है कि एडवांस और वास्तविक आंकड़े अभी आने बाकी हैं. अगर पिछले साल की ही बात करें तो सरकार के संशोधित और वास्तविक आंकड़ों में काफी अंतर था. इसी बात के मद्देनजर अर्थशास्त्री डीएम दिवाकर कहते हैं कि जब तक सरकार वास्तविक आंकड़े जारी नहीं कर देती तब तक इस संबंध में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगा.  दूसरी तरफ सरकार संशोधित आंकड़ों को ही इतना प्रचारित करती है कि लोगों में यह भ्रम फैलता है कि राज्य की विकास दर काफी तेज है. लेकिन जब वास्तविक आंकड़े इससे अलग आते हैं तो वह इस पर एक तरह से मौन साध लेती है.
आंकड़ों के इस दांवपेंच की ओर इशारा करते हुए पटना विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री नवलकिशोर चौधरी 2009-10 के वास्तविक आंकड़ों की मिसाल देते हुए कहते हैं, ‘तब सरकार ने 11.57 की विकास दर का खूब हो-हल्ला और प्रचार किया. पर जब वास्तविक आंकड़े  आए तो सरकार ने चुप्पी साध ली. 2009-10 मे विकास से संबंधित वास्तविक आंकड़ा 9.30 प्रतिशत पर ही सिमट कर रह गया था.’

मगर इन आंकड़ों में संशोधित और अंतिम आदि का पेंच होने के साथ ही इन पर और भी सवाल उठाए जाते रहे हैं. नवलकिशोर चौधरी कहते हैं, ‘विकास से संबंधित आंकड़े खुद बिहार सरकार के वित्त और योजना विभाग द्वारा तैयार किए जाते हैं. फिर इन्हें ही केंद्रीय सांख्यिकी संगठन को भेज दिया जाता है.’ चौधरी तो यहां तक कहते हैं कि विकास से संबंधित आंकड़े तो होटलों में बैठ कर ही तैयार कर लिए जाते हैं इसलिए इनकी प्रामाणिकता पर सवाल खड़ा होना स्वाभाविक है. हालांकि वे यह स्वीकार करते हैं कि पिछले चार-पांच साल में बिहार में विकास की गति तेज हुई है पर वह इतनी भी नहीं है जितना राज्य सरकार बता रही है क्योंकि कृषि, बुनियादी ढांचा, औद्यौगिक उत्पादन आदि महत्वपूर्ण क्षेत्रों में विकास दर अब भी चिंता का कारण बनी हुई है. ऐसी स्थिति में सेवा, होटल, पर्यावरण, रजिस्टर्ड मेनुफेक्चरिंग और निर्माण जैसे क्षेत्रों की विकास दर को राज्य के समग्र विकास से जोड़ कर देखा जाए तो स्थिति वैसी नहीं है जैसी कि बताई जा रही है.

ग्रामीण अर्थव्यवस्था की सच्चाई

आज भी राज्य की 89 प्रतिशत आबादी ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर ही आश्रित है. जनसंख्या के आंकड़ों के हिसाब से देखें तो यह संख्या आठ करोड़ 80 लाख के करीब होती है. ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बात करें तो इसमें मुख्य तौर पर कृषि और पशुपालन शामिल हैं और पिछले छह में से तीन साल ऐसे रहे हैं जिनमें इन क्षेत्रों में विकास की दर नकारात्मक रही हैै. वर्ष 2005-06 में कृषि और पशुपालन की विकास दर -9 प्रतिशत थी तो  2007-08 में -7 प्रतिशत. जबकि 2009-10 में तो कृषि और पशुपालन जैसे अर्थव्यवस्था की रीढ़ समझे जाने वाले क्षेत्र की हालत और भी दयनीय होकर लगभग -13 फीसदी तक पहुंच गई.

कुछ अर्थशास्त्रियों के अनुसार यह आंकड़ों की बाजीगरी है. सीएसओ के नाम पर लोगों को गुमराह किया जा रहा है

हालांकि वर्ष 2010-11 में कृषि क्षेत्र की विकास दर में इजाफा हुआ और यह लगभग 10 प्रतिशत रही है. मगर जानकारों के मुताबिक असल में विकास की यह दर हाथी के दांत जैसी दिखाने की ही है. अर्थशास्त्री नवलकिशोर चौधरी विकास की इस गुत्थी को कुछ इस तरह सुलझाने की कोशिश करते हैं, ‘पिछले वर्ष यानी 2009-10 में राज्य ने कृषि क्षेत्र में 13 प्रतिशत की गिरावट झेली थी. ऐसे में इस वर्ष अगर दस प्रतिशत की वृद्धि हुई भी है तो 2008-09 के आंकड़ों की तुलना में यह 3 प्रतिशत की गिरावट ही है. ऐसी स्थिति में अन्य क्षेत्रों में विकास की दर बढ़ती भी है तो राज्य की अधिकांश जनसंख्या पर इसका नाम मात्र का ही प्रभाव दिख सकता है.’

जैसा कि अर्थशास्त्री  और एएन सिन्हा सामाजिक अध्ययन संस्थान के निदेशक डीएम दिवाकर  कहते हैं, ‘निर्माण,  पर्यटन, होटल व रेस्टूरेंट और निबंधित उत्पाद क्षेत्रों के विकास को नकारा नहीं जा सकता पर विकास की इस दर को समग्रता में देखा जाए तो यह स्प्ष्ट हो जाता है कि इस विकास का समाज के सबसे बड़े तबके से कोई लेनादेना है ही नहीं.

छह साल छह सवाल

नीतीश कुमार मुख्यमंत्री के तौर पर छठे साल में हैं. दूसरी पारी का एक साल 26 नवंबर को पूरा हो रहा है. जिस प्रदेश के मुखिया हैं, वह 100वें साल में है. वे आजकल सेवा यात्रा पर निकले हुए हैं. बिहार के सौवें साल के आयोजन की तैयारी भी जोर-शोर से चल रही है. नीतीश और बिहार की चर्चा देश-दुनिया में हो रही है. वर्तमान राजनीतिक स्थिति को देखें तो फिलहाल बिहार में कोई नेता ऐसा दिखता भी नहीं जो नीतीश का विकल्प बनने की स्थिति में हो. संभव है, विपक्ष के इस बिखराव और भटकाव की वजह से नीतीश बिहार में अगली पारी भी आसानी से खेल लें. वे मृदुभाषी हैं, अपनी छवि के प्रति बेहद सचेत रहते हैं, वक्त की नजाकत को समझने में माहिर हैं, पार्टी और सरकार के बीच समन्वय की राजनीति करने की कला जानते हैं. और भी कई खासियतें हैं जो उन्हें अलग खड़ा करती हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या इन विशेषताओं और सत्ता में एकाध पारी और खेल लेने के बाद नीतीश एक ऐसे नेता के तौर पर लोकमानस में स्थापित हो जाएंगे जिसे पॉलिटीशयन की बजाय स्टेट्समैन कहते हैं. राजनेताओं के बारे में यह कहा जाता है कि वे तत्काल फायदे को ध्यान में रखकर राजनीति करते हैं और उनका ध्येय सत्ता-शासन में बने रहना होता है. स्टेट्समैन वह होता है जो कई मौकों पर नफे-नुकसान से परे जाकर दूर भविष्य के बारे में भी सोचता है. वह सत्ता के इर्द-गिर्द ही अपनी राजनीति का सारा ताना-बाना नहीं बुनता.

नीतीश कुमार को अगर उनसे पहले के शासन यानी लालू-राबड़ी के मुकाबले खड़ा करें तो वे अतुलनीय लग सकते हैं. चूंकि दोनों एक ही प्रदेश में राजनीति कर रहे हैं, इसलिए इनकी तुलना होना लाजिमी भी है. लेकिन समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र के अन्य पहलुओं पर भी गौर करना होगा. नीतीश इंजीनियरिंग के छात्र रहे हैं. गांव की बजाय कस्बाई माहौल में उनकी परवरिश हुई. उनके पिता एक प्रतिष्ठित और सम्मानित वैद्य थे, इसलिए बचपन से ही उनमें अलग किस्म का अनुशासन रहा होगा. लालू प्रसाद अलग परिवेश से आए थे. दोनों के व्यक्तित्व में फर्क दिखता है तो यह स्वाभाविक ही है. प्रदेश की राजनीति में दोनों के छा जाने के वक्त के माहौल भी जुदा थे. इसलिए सिर्फ लालू प्रसाद से तुलना करके, नीतीश को बेहतर मान लेना एक किस्म का चलताऊ तर्क-सा लगता है.

नीतीश का आकलन इससे अलग जाकर करना होगा. नीतीश नायक हैं लेकिन क्या वे महानायकों की श्रेणी में भी आ सकेंगे, इसके लिए उनका आकलन उनको ही आधार बना कर करना होगा. यह देखना होगा कि क्या विनम्र नीतीश में जब-तब जो अहंकार हावी होता है वह उनका कभी भला करेगा! यह देखना होगा कि उनकी कथनी और करनी का फर्क क्या कभी उन्हें दृढ़निश्चयी नेता के तौर पर स्थापित करेगा. खुद की छवि साफ रखते हुए भी गलत किस्म के लोगों से छुटकारा नहीं पा सकने की विडंबना उन्हें किस श्रेणी में खड़ा करेगी, यह भी देखना होगा. नीतीश जिस लोकप्रिय राजनीति को अपनाते नजर आते हैं वह क्या उन्हें औरों से अलग नायकत्व प्रदान करेगी?  नीतीश के नाम पर बिहार के लोगों के बीच लहर चलती है, नीतीश चुनावी राजनीति के महारथी भी हो जाते हैं लेकिन जो नीतीश को बनाने वाले होते हैं वे ही एक-एक कर उनका साथ छोड़ते जाते हैं तो यह भी एक सवाल बनता है कि इसकी वजह क्या है क्या नीतीश एक बेहतर टीम लीडर नहीं हैं या उनके व्यक्तित्व, कृतित्व और नेतृत्व की कसौटी अलग-अलग हैं?

यहां हम जिन बिंदुओं पर बात कर रहे हैं वे जनता के मन में हैं. अलग-अलग जगहों पर, अलग-अलग रूपों में नीतीश से संबंधित ऐसे सवाल चौपालों में उछलते रहते हैं. ऐसे सवालों को सामने रखने का मतलब सिर्फ आलोचना करना नहीं, बल्कि यह ध्यान भी दिलाना है कि भले ही ये सवाल मीडिया में न दिखते हों लेकिन बिहार के अलग-अलग हिस्से में उठ रहे हैं. सत्ता की राजनीति से इन सवालों का वास्ता न भी हो तो ये खुद नीतीश के महानायक बनने की राह में रोड़े की तरह जरूर मौजूद रहेंगे.

चिर दुविधा, अनवरत द्वंद्व

लालू प्रसाद के बाद अब नीतीश से भी उतने ही आत्मीय संबंध रखने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार पहले का एक किस्सा सुनाते हैं. एक बार नीतीश कुमार के साथ वे हेलिकॉप्टर से कहीं जा रहे थे. बात लालू पर होने लगी. नीतीश ने कहा- लालू प्रसाद को इतिहास में बड़ी जगह मिलेगी. पत्रकार ने नीतीश को कहा- इतिहास में आपको भी अहम स्थान मिलेगा. नीतीश ने दुविधा जताई कि अभी इसका ठोस आधार तो नहीं दिखता! पत्रकार ने कहा- बिहार में भाजपा को जमीन देने, उसे मजबूत आधार बनाने का मौका देने के लिए आपको सदा याद किया जाएगा. उसके बाद नीतीश पूरी यात्रा में दुविधाग्रस्त रहे. चिंतन-मनन में लगे रहे.

यह बात बहुत पुरानी हो चली है. नीतीश तब बिहार के मुखिया नहीं थे. वे राजनीतिक आधार की तलाश में वाम दलों का साथ लेने के बाद भाजपा से जुड़ चुके थे. बाद में भाजपा के साथ केंद्र में भी उन्होंने महत्वपूर्ण पारी खेली. अब तो उनका और उनकी पार्टी का भाजपा के साथ चलने, बनने, निभने का लंबा अनुभव हो चला है. लेकिन इतनी लंबी सहयात्रा के बावजूद इस रिश्ते को लेकर नीतीश जब-तब दुविधा में पड़े रहने वाले नेता दिखते हैं. नीतीश के पुराने साथी पूर्व विधानपार्षद प्रेम कुमार मणी कहते हैं, ‘जिसे आप दुविधा समझते हैं, वह उनकी नियति है.’ मणी अब उनके आलोचक हैं. इनकी आलोचना से परे नीतीश अगर खुद गौर करें तो कई बार उनका खुद का व्यवहार उन्हें दुविधाग्रस्त नेता के रूप में कटघरे में खड़ा करेगा. इसे पहली से लेकर दूसरी पारी तक में देखा जा सकता है. भाजपा से रिश्तों से परे अन्य मसलों पर भी.

नीतीश की एक चूक वर्षों बाद भी उनके व्यक्तित्व, कृतित्व व नेतृत्व पर सवाल खड़ा करती रहेगी

फारबिसगंज-भजनपुर कांड पर नीतीश दुविधा में ही दिखे. दुविधा को स्वाभाविक साबित करने के लिए वे एकबारगी बच्चों-से जिद्दी बन गए. संभव है, नीतीश की दुविधा को संतुष्टि मिल गई हो लेकिन यह एक चूक वर्षों बाद भी उनके व्यक्तित्व, कृतित्व व नेतृत्व पर सवाल खड़ा करेगी. आखिर उन्होंने फारबिसगंज जाने की जरूरत क्यों नहीं समझी? भजनपुर में पांच लोगों को मार दिए जाने का मामला चाहे पुलिस ऐक्शन का रहा हो या जरूरत के अनुसार की गई जरूरी कार्रवाई या नीतीश के ही अनुसार यह संयोग ही हो कि मारे गए सभी अल्पसंख्यक समुदाय के थे. मगर जिस तरह से पुलिस ने नृशंस व्यवहार किया, उस हालत में मुख्यमंत्री से स्वाभाविक उम्मीद थी कि वे वहां पहुंचेंगे, खुलकर बोलेंगे. दिखावे के लिए ही सही, राहुल, लालू, रामविलास समेत कई नेता वहां पहुंचे. मगर नीतीश नहीं गए. एक न्यायिक जांच आयोग का गठन उन्होंने किया, लेकिन वह भी चार माह तक गति की बजाय दुर्गति में रहा. इस बात को बल मिला कि नीतीश भाजपा के दबाव की वजह से वहां नहीं गये! इसके तार भी जुड़े. जिस कंपनी को लेकर पुलिस फायरिंग की वहां घटना हुई, उसमें भाजपा के एक विधान पार्षद के बेटे की सहभागिता है. लोग कहते हैं कि भाजपा के एक बड़े नेता के दबाव में नीतीश दुविधाग्रस्त और इतने जिद्दी बने कि उन्होंने इस घटना से मुंह मोड़ने का फैसला कर लिया.

प्रेम कुमार मणी कहते हैं, ‘नीतीश के रेलमंत्रित्व काल में ही गुजरात का गोधराकांड हुआ था. नीतीश तब गोधरा भी नहीं गए थे. अटल बिहारी वाजपेयी ने तो खुलकर इतना कह दिया था कि नरेंद्र मोदी ने राजधर्म का निर्वाह नहीं किया. लेकिन नीतीश तब भी कुछ नहीं बोले थे. उन्होंने बाद में कहा था कि गोधरा नहीं जाना बड़ी भूल थी.’ मणी को विरोधी मानकर फिर उनकी बातों को खारिज किया जा सकता है लेकिन नीतीश उस गोधरा की ऐतिहासिक भूल को फारबिसगंज जाकर सुधार सकते थे. मगर दुविधाग्रस्त नीतीश एक बार फिर चूक गए. वे नरेंद्र मोदी का नाम सुनकर ही खफा हो जाते हैं. मोदी भाजपा के एक बड़े नेता है. भाजपा मोदी की अनदेखी नहीं कर सकती. नीतीश नरेंद्र मोदी को बिहार से दूर रखकर, उनके नाम से भड़ककर सुविधा और सत्ता की राजनीति तो कर सकते हैं लेकिन क्या दृढ़निश्चयी और सिद्धांतवादी नेता के तौर पर भी स्थापित हो सकते हैं? हां या ना के बीच का रास्ता अवसरवादी होता है. क्या सिर्फ नरेंद्र मोदी के नाम से भड़कने से व्यक्तित्व व कृतित्व पर चस्पा हो गए फारबिसगंज या गोधरा के सवाल हट पाएंगे?

संभव है नीतीश से अभी ये सवाल न पूछे जाएं लेकिन सिर्फ पूछे जाने वाले सवाल ही बड़े व दूरगामी प्रभाव डालने वाले नहीं होते, अंतर्मन के सवालों से भी धारणाओं का निर्माण होता है. इसका अहसास शायद नीतीश को हालिया दिनों में सिताबदियारा के बाद छपरा पहुंचने पर हुआ होगा, जहां वे लालकृष्ण आडवाणी की यात्रा को हरी झंडी दिखाने पहुंचे थे. भाजपा नेताओं से अपने दल के इकलौते सदस्य के तौर पर घिरे नीतीश बच्चों की तरह सफाई देते रहे कि वे उस आडवाणी को विदा करने आए हैं जो भ्रष्टाचार से लड़ने निकले हैं. लेकिन आडवाणी मंच से कहते रहे कि रामरथ यात्रा उनके राजनीतिक जीवन की अहम यात्रा थी और आज उन्हें गर्व हो रहा है कि दो दशक पहले जिस आडवाणी की रामरथ यात्रा को बिहार के एक मुख्यमंत्री ने रोका था, आज वहीं का दूसरा मुख्यमंत्री उसी रामरथ यात्रा पर गर्व करने वाले आडवाणी को विदा करने आया है. नीतीश पसीने-पसीने थे. परेशान दिख रहे थे लेकिन वहां दुविधा की गुंजाइश नहीं थी. वे मंच पर थे, सुनना मजबूरी थी. धर्मनिरपेक्षता के राजनीतिक मोर्चे पर आडवाणी जाने-अनजाने लालू प्रसाद को मजबूत कर रहे थे, नीतीश की दुविधा पर सुविधाजनक तरीके से.

आरंभ में नीतीश ने अलग होने की उम्मीद भी जगाई लेकिन बाद में वे लगातार समर्पण की मुद्रा में आते गए

नीतीश फारबिसगंज जैसे सवाल या भाजपा से रिश्ते पर ही दुविधा में नहीं दिखते. पहली पारी में उन्होंने बंदोपाध्याय समिति बनाते समय कहा था कि भूमि सुधार के बगैर बिहार का कभी भला नहीं होगा. समग्र विकास भी नहीं होगा. बंदोपाध्याय ने रिपोर्ट सौंपी. उसके कुछ हिस्से सार्वजनिक हुए. फिर चुनाव आ गया. दूसरी पारी के लिए चुनाव परिणाम वाले दिन भूमि सुधार के सवाल पर नीतीश का जवाब मिला – यह सवाल पुराना हो चुका है. नीतीश उसे लागू करने, ना करने की दुविधा में फंसे, अपने निश्चय पर दृढ़ नहीं रह सके तो सवाल को पुराना बता दिया. क्या उन्हें नहीं पता कि समाधान के बगैर कोई सवाल पुराना नहीं होता? कुछ ऐसी ही हालत समान शिक्षा प्रणाली के लिए मुचकुंद दुबे की अध्यक्षता में कमेटी बनाने व रिपोर्ट आने के बाद हुई. रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. महादलित आयोग के बाद सवर्ण आयोग गठित करने का फैसला नीतीश का ही रहा. बाद में सवर्ण आयोग एक दफ्तर तक के लिए तरसता रहा. उसके अध्यक्ष को खोजना दिल्ली से पटना पैदल आने-जाने के बराबर हुआ. सवर्ण आयोग बनाने की आलोचना हुई तो नीतीश फिर दुविधा में फंसे, उसकी कोई खबर ही नहीं ली.
संभव है, ऐसे आयोग वगैरह बनाते समय नीतीश के मन में दुविधा की बजाय भविष्य के सवाल-खयाल रहते हों लेकिन उन्हें अमलीजामा पहनाते वक्त शायद राजनीति व सत्ता की अड़चनें सामने आ जाती हैं. लेकिन यह भी तो सच है कि इतिहास के सुनहरे पन्नों में कुछ पंक्तियां उन्हीं के लिए सुरक्षित रहती हैं जो अतीत की जकड़न तोड़, दूरदृष्टा की तरह बहुत आगे की सोचते हैं. दृढ़निश्चयी होते हैं. वरना सुविधा और दुविधा के साथ तो देश भर में 30 मुख्यमंत्री अभी भी अपना काम चला ही रहे हैं.

मजबूती के लिए मजबूरी का वास्ता

बुजुर्ग हो चले बाबू विनोदानंद सिंह पुराने समाजवादी नेता हैं. विधायक रहे हैं. समाजवादियों के बीच उनका बड़ा सम्मान है. नीतीश उन्हें ‘भाई साहब’ कहते हैं. विनोदा बाबू के दिल में भी नीतीश के लिए स्नेह और प्यार है. वे नीतीश के प्रशंसक हैं. बतकही में वे एक पुराना किस्सा सुनाते हैं. नीतीश जब केंद्रीय मंत्री थे तो विनोदा बाबू किसी दोस्त के साथ उनसे मिलने गए. नीतीश ने बहुत सम्मान दिया. फिर बातों-बातों में एक बात कही, ‘भाई साहब, आपलोग तो हवा के साथ कभी चलते ही नहीं, अगर हवा के अनुसार चलते तो कहां से कहां पहुंच गए होते…!’
 दरौंदा चुनाव के वक्त जब विनोदा बाबू ने यह किस्सा सुनाया तब सवाल उठा कि क्या नीतीश स्वभावतः ही हवा के साथ चलने वाले रहे हैं! दरौंदा विधानसभा उपचुनाव में अजय सिंह की पत्नी कविता सिंह की जीत के बाद तसवीरों में नीतीश के चेहरे पर बिखरी खुशी इसका आभास करा रही थी. अजय सिंह की क्या छवि है, इस पर अलग से चर्चा की जरूरत नहीं. न ही यह किसी से छिपा हुआ है कि कविता की शादी अजय के साथ फटाफट करवाकर कैसे उन्हें विधानसभा तक पहुंचाया गया. कविता की जीत चाहे जिस वजह से हुई हो, लोकतंत्र के इस राजनीतिक प्रहसन के सूत्रधार के रूप में नीतीश को याद किया ही जाएगा.

सत्ता की राजनीति में नीतीश फिलहाल अपार बहुमत के साथ हैं. अभी चुनाव भी काफी दूर है तो एक-एक सीट के लिए मर-मिटने जैसी हालत भी नहीं है. नीतीश बिहार में बदलाव और सुशासन के प्रतीक हैं. खुद के भरोसे भी वे विधायकी में किसी को जीत दिलवा सकते थे! ऐसे में अजय सिंह-कविता सिंह के प्रयोग से वे बचते तो एक साथ राजनीति के अपराधीकरण और परिवारवाद को परोक्ष संरक्षण दिए जाने का जो ठप्पा उन पर लग रहा है वह और मजबूत न होता. मगर नीतीश ऐसा नहीं कर सके. अब यदि चौपाली सभा से लेकर राजनीतिक गलियारे में जब कोई कहेगा कि नीतीश के लिए सत्ता ही महत्वाकांक्षा की पराकाष्ठा है, तो उसे ऐसा करने से कैसे रोका जा सकता है. बिना किसी राजनीतिक अनुभव वाली एक राबड़ी को अचानक राजनीति में थोपकर लालू प्रसाद लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रहसन के ऐतिहासिक पात्र बने. मगर तब जमाना और था. क्या लंबे समय तक एक और राबड़ी के प्रयोग का श्रेय नीतीश को नहीं दिया जाएगा?
विरोधियों की मीन-मेख और टिप्पणी की बजाय खुद नीतीश के खासमखास और उनके ही दल के शिवानंद तिवारी भी उनके इस प्रयोग पर नहीं बोल पाते. वे तर्क देते हैं कि परिवारवाद कांग्रेस की देन है. शिवानंद तिवारी जैसे नेता कांग्रेस की दुहाई देकर कुतर्क गढ़ते हैं. मगर इसके जरिए वे खुद को ही तसल्ली दे सकते हैं.

यह सच है कि लालू प्रसाद या उनके पहले के बहुतेरे नेताओं की तुलना में नीतीश कुछ हद तक अलग छवि रखते हैं. इनके सत्ता में आने के बाद भी इनके निकटवर्ती या दूर-दराज के रिश्तेदार राजनीतिबाज नहीं बने. नीतीश के बड़े भाई सतीश बाबू आज भी मुख्यमंत्री के भाई होने के प्रभाव का इस्तेमाल नहीं करते. अन्य रिश्तेदारों की तो बात ही दूर, नीतीश के बेटे भी इस सब से दूर नजर आते हैं. इससे वर्षों बाद बिहार की राजनीति में एक संभावना जगी थी कि थोथे और खोखले परिवारवाद का खात्मा करने में नीतीश ही सक्षम होंगे.

बिहार में धीरे-धीरे यह बात घर कर रही है कि सबकुछ सिर्फ फीलगुड जैसा दिखता है तो उसमें मीडिया की भूमिका ज्यादा है

आरंभ में नीतीश ने इसे लेकर उम्मीद भी जगाई लेकिन बाद में लगातार समर्पण की मुद्रा में आते गए. उनके समर्थक इसे मजबूरी बताते रहे. खुद की मजबूती के लिए दूसरे नेता भी इसी तरह मजबूरी का वास्ता देते थे. लेकिन नीतीश खुद सोचें कि क्यों नहीं उन्हें भी इस कसौटी पर एक ऐसे सत्तापरस्त नेता के रूप में याद किया जाए जिसने मजबूती के लिए मजबूरी को ढाल बनाया. व्यक्तिगत तौर पर अपनी छवि बचाए-बनाए रखने की बात हो तो सिर्फ नीतीश ही क्यों, बिहार में कई और नेता भी पहले हुए, जो बेदाग रहे और अपने परिजनों को जीते-जी राजनीति से दूर रखा.

नीतीश ने आरंभ में जब धाकड़ नेता जगदीश शर्मा की पत्नी का टिकट काटा तो यह कदम सुर्खियों का बादशाह बना. बाद के दिनों में जगदीश शर्मा के बेटे राहुल को नीतीश ने ही टिकट दिया. महेंद्र सहनी के बेटे अनिल सहनी को राज्यसभा भेजकर, मुन्ना शुक्ला की पत्नी अन्नु शुक्ला को टिकट देकर, अश्वमेघ देवी, मीना सिंह, कौशल्या देवी आदि को चुनावी राजनीति में मुकाम दिलाकर नीतीश ने अपने को ‘औरों’ की श्रेणी में ही शामिल कर लिया.

बात परिवारवाद से निकलकर राजनीति में अपराध के परोक्ष संरक्षण तक भी पहुंचती है. स्पीडी ट्रायल के जरिए अपराधियों को सलाखों के पीछे पहुंचाने की प्रक्रिया से नीतीश को वाहवाही तो मिली लेकिन अनंत सिंह, तसलीमुद्दीन, उनके बेटे सरफराज, सुनील पांडेय के भाई हुलास पांडेय आदि के साथ कई नामचीन बाहुबलियों की पत्नियों को राजनीतिक संरक्षण देना नीतीश कुमार को मजबूती के लिए मजबूरी के रास्ते को अपनाने वाला नेता बना देता है.

मीडिया को नाथने की कोशिश

जहानाबाद के एक गांव सचई में जाना हुआ था. सनातन नामक एक व्यक्ति से बातचीत हो रही थी. पत्रकारिता से आजीविका चलाता हूं, जानने के बाद सनातन ने एक सवाल सामने रखा. ‘वेदव्यास जब महाभारत की रचना कर रहे थे और विष्णु के अवतार कृष्ण को मानव रूप में महानायक के तौर पर स्थापित कर रहे थे, तो भी उन्होंने कृष्ण का सिर्फ यशोगान नहीं किया. कृष्ण की जो कमियां थीं, उनकी नीतियों-रणनीतियों में जो चूक थी, उन्हें भी सामने रखा.’ सनातन पूछते हैं, ‘इधर के वर्षों में अधिकांश जगहों पर लिखे-पढ़े को देख-समझकर ऐसा लगता है कि नीतीश इस भारत की धरा पर एक ऐसे नायक के रूप में अवतरित हुए हैं जिनमें कहीं, कभी, कोई मीन-मेख नहीं निकाली जा सकती. ना ही छह वर्षों के शासन में इनसे कभी कोई एक चूक हुई.’ सनातन कहते हैं, ‘आनेवाले कल में जब भावी पीढ़ी नीतीश के बारे में जानना चाहेगी तो उसे यही मालूम होगा कि बिहार में नीतीश नाम का एक ऐसा नेता हुआ था जिसने गलती से भी एक बार गलती नहीं की. क्या भावी पीढ़ी पौराणिक, ऐतिहासिक तथ्यों के अध्ययन के बाद सहज ही यह मानेगी कि धरा पर आकर, शासन में रहकर यथार्थ में ऐसा नायक होना संभव है?’

सनातन यहीं अपनी बात खत्म करते हैं. नीतीश यहीं कुछ देर सोच सकते हैं. यह हर कोई जानता, मानता है कि कुछ मायनों में नीतीश बेहतर काम कर रहे हैं. संभावनाओं से भरे हुए नेता हैं. उनके नेतृत्व से जनता के बीच उम्मीद जगी थी जो आज भी कायम है. इस उम्मीद की परिणति पिछले चुनाव में अपार बहुमत के रूप में दिखी. सिर्फ स्थानीय जनता ही नहीं, देश-दुनिया के जाने-माने बौद्धिकों का एक बड़ा तबका भी यह मानता है. रामचंद्र गुहा, अमर्त्य सेन, लॉर्ड मेघनाथ देसाई, आरके पचौरी, बिल गेट्स जैसे लोग सार्वजनिक मंचों से यह कहते रहे हैं.

इतना सब कुछ पा लेने के बाद क्या नीतीश को अति आत्मप्रचार से बचने की जरूरत नहीं? थोड़ा बचने से क्या उनकी स्थिति और ज्यादा मजबूत नहीं होगी?लेकिन वे मीडिया को साधने के साथ शायद नाथने में भी भरोसा रखते हैं. उनके कार्यकाल में जिस तरह मीडिया पर विज्ञापन मद में अंधाधुंध पानी की तरह पैसा बहा, उससे नीतीश कई बार खुद प्रहसन के पात्र बनते हैं. आंकड़ों की तह में जाए बगैर ही अगर सीधे-सीधे बात करें तो लालू-राबड़ी की तुलना में नीतीश के कार्यकाल में विज्ञापन पर हुआ खर्च लगभग 700 प्रतिशत बढ़ा. छवि निर्माण का यह अर्थशास्त्र नीतीश के दिमाग की उपज न हो तो इससे सावधान रहना चाहिए. इससे किरकिरी ही हो रही है.
आज बिहार समेत देश के अलग-अलग हिस्से में धीरे-धीरे यह बात घर कर रही है कि बिहार में यदि सब कुछ सिर्फ फीलगुड-फीलगुड जैसा दिखता है तो उसमें मीडिया की भूमिका ज्यादा है, जो बड़ी से बड़ी खबरों को या तो निगल जाता है या उन्हें पेश करने की रस्मअदायगी भर करता है.

सरकारी योजनाओं को प्रचारित करने के लिए प्रचारतंत्र को मजबूत करने की बात तो एक हद तक समझ में आती है लेकिन उसका विस्तार निचले स्तर तक छिछले रूप में पहुंचता है. नीतीश भले ही अरविंद केजरीवाल पर निशाना साध यह कहें कि उन्हें किसी के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं लेकिन वे भूल जाते हैं कि यदि किसी निजी संस्थान द्वारा अवसरवादी सम्मान के रूप में भी उन्हें कोई सर्टिफिकेट दिया जाता है तो उसका ढिंढोरा सूचना एवं जनसंपर्क विभाग हर शहर में होर्डिंग आदि लगाकर पीटता है. यह बेहद अटपटा-सा लगता है. राजधानी पटना में कई बार अचानक से अधिकतर होर्डिंगों पर रातों-रात छाने को आतुर नेता नीतीश गान की इबारतें चस्पा कर देते हैं. उसकी हद यह होती है कि जब उनकी माता जी का निधन होता है तो इसे भी छुटभैये नेता एक अवसर मान पटना में होर्डिंग लगा देते हैं- ‘धन्य हो मां, जिसने नीतीश जैसे लाल को जन्म दिया..’

संभव है, नीतीश को इन सभी बातों की जानकारी न हो लेकिन लोग यह नहीं जानते कि यह सब उनके जाने बगैर कुछ खुराफाती मगज वाले चाटुकार करते रहते हैं. संदेश यही जाता है कि नीतीश प्रचार के गोयबल्सी तंत्रों के सहारे भी जनमानस में सदा-सदा के लिए बसना चाहते हैं!मीडिया फ्रेंडली नीतीश को समझना होगा कि आज मीडिया खुद अपनी साख और विश्वसनीयता बचाए रखने की लड़ाई लड़ रहा है और वह किसी की छवि का स्थायी निर्माण करके उसे सत्ता दिलवाने की क्षमता नहीं रखता. वरना कोई कारण नहीं कि तमिलनाडु में करीब 70 प्रतिशत मीडिया को नियंत्रित करने वाले करुणानिधि परिवार चुनाव में बुरी तरह परास्त हो जाता. बिहार में तो वैसे ही मीडिया की साख इन दिनों भंवरजाल में है. मड़वन एस्बेस्टस कंपनी के खिलाफ आंदोलन के बाद एक रैली मीडियावालों के खिलाफ भी तरह-तरह के बैनरों के साथ निकली थी. वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा कहते हैं, ‘हमलोग तो अब अपने आयोजन में मीडिया को बुलाते ही नहीं हैं और उसके बगैर हमारे आंदोलन पर कोई अंतर या असर नहीं पड़ता.’ सिन्हा की बातों को छोड़ भी दें तो नीतीश तो जानते ही होंगे कि उनके राजनीतिक गुरु जयप्रकाश नारायण बगैर किसी मीडियाई करिश्मे के महानायक बने थे. सदा-सदा के लिए.

लोकप्रियता की राजनीति

नीतीश अपनी छठी राजनीतिक यात्रा के रूप में विकास यात्रा पर हैं. यात्रा के दौरान खुद ही बीडीओ, दारोगा आदि की भूमिका में आ रहे हैं. गरीब के घर जाकर भूंजा भी फांक रहे हैं. इस यात्रा में नीतीश की चक्रवर्ती सम्राट अशोक से लेकर सबरी के बेर खाने वाले राम तक से तुलना की जा रही है. जब-तब नीतीश की ऐसी तुलना होती रहती है. नीतीश भी जब-तब ऐसे आयोजन करते रहते हैं. ऐसे आयोजनों को महज राजनीतिक नाटक कहकर खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि जनविमुख राजनीति के दौर में ऐसे आयोजन भी कई बार सुकून दे सकते हैं. महज आलोचना करने वाले भी ऐसा ही कोई राजनीतिक नाटक करने के बाद नीतीश की आलोचना करें तो उसका महत्व भी होगा. लेकिन दूसरों की आलोचना और नुक्ताचीनी से परे ऐसी वाहवाही से उपजी सुखद अनुभूति के बीच नीतीश खुद थोड़ी देर रुककर आकलन करें तब शायद उन्हें अहसास हो कि महज लोकप्रियता की राजनीति की उम्र कम होती है.

लालू प्रसाद भी अपने आरंभ के दिनों में जब-तब, जहां-तहां पहुंचकर खटिया पर बैठते-लेटते थे. घोंघा-सतुआ खाते थे. राहुल गांधी भी दो-तीन साल पहले ऐसे ही कुछ यात्रापरक अभियानों के जरिए लोकप्रियता में परवान चढ़े थे.जहां-तहां, खाते-सोते रहते थे. अब उनकी यात्राओं का निहितार्थ-फलितार्थ सबको पता है.इन यात्राओं से इतर भी नीतीश कुमार एक अणे मार्ग में नियमित तौर पर लगने वाले जनता के दरबार में घंटों पसीने-पसीने होकर बैठे रहते हैं, लोगों की फरियाद सुनते हैं तो बहुतों को लगता है कि एक मुख्यमंत्री इतनी देर बैठता तो है. एसी के बगैर रहता तो है. नीतीश दरबार में धैर्य से लोगों की बातें सुनते हैं. लेकिन उसकी सीमा छोटी होती है. एक हद के बाद सेचुरेशन की स्थिति बनती है. जब फरियादी चार-चार बार दरबार में जाने के बाद भी अपनी समस्याओं का समाधान नहीं पाता या फरियाद सुनाने के एवज में एक अणे मार्ग में ही अधिकारियों की धौंस का सामना करता है तो वह टूट जाता है. नीतीश दरबार के फल को जानने की कोशिश नहीं करते. उनके पास दूर-दराज से किसी तरह पहुंचने वाले लोगों के आवेदन पर अधिकारी गंभीरता से कार्रवाई कर भी रहे हैं या नहीं, यदि नीतीश बीच-बीच में इसकी भी खबर लेते तो ज्यादातर यात्राओं की जरूरत ही नहीं पड़ती. तब शायद आरटीआई से सूचना मांगने पर नीतीश के जनता दरबार में जाने के बाद भी लंबित मामलों की सूची इतनी लंबी नहीं होती

जब फरियादी चार-चार बार दरबार में जाने के बाद भी समस्याओं का समाधान नहीं पाता तो वह टूट जाता है

यात्राओं में भी नीतीश बीडीओ, दारोगा बनने के साथ ही समाज के बनाव-बिगड़ाव-बिखराव का भी अध्ययन करते तो कई बार रात में उन्हें नींद नहीं आती. उनके ही कार्यकाल में शराब का ठेका पंचायत तक पहुंचा. द्वारे-द्वारे पहुंचे दारू के प्रभाव से समाज में आए बदलाव को भी जानने की कोशिश करते तो बहुत हद तक संभव है वे दारू से मिलने वाले राजस्व के विकल्प के लिए दूसरे स्रोत पर भी सोचते. यह संभव है, नीतीश के प्रयास से बिहार भविष्य में चमक जाए लेकिन चमके बिहार में दारू के जरिए दलाली के बाद कलाली और बवाली फौज के रूप में सामने होंगे. उनके लिए विकास के क्या मायने होंगे?

नीतीश अब अपनी यात्रा में वंचितों के घर पहुंच रहे हैं. यह अच्छा है, लेकिन कुछ माह से इंसेफलाइटिस ने जिन इलाकों में कहर बरपाया हुआ है वहां का भी एकाध दौरा अगर कर लिया होता तो उस दौरे का महत्व इन यात्राओं से कहीं ज्यादा होता. इंसेफलाइटिस से मरने वाले अधिकांश बच्चे महादलित और अतिपिछड़ा समुदाय से ही थे. अपने ही शहर नालंदा में नाई महिला पर दबंग जाति के अत्याचार और व्यभिचार के समय नीतीश बिहारशरीफ जाकर, घंटों रुके. तब अगर चंद फर्लांग की दूरी पर अस्पताल में भर्ती उस नाई महिला से भी वे मिल लिए होते तो उसका संदेशा पूरे बिहार के अतिपिछड़ों के बीच जाता.

नीतीश के आलोचक भी कई मामलों में उनके कायल हैं, पीयूसीएल के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रभाकर सिन्हा कहते हैं, ‘पिछली सरकार की तुलना में नीतीश बेहतर कोशिश करते हुए दिखते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं. नीतीश कुमार के शासन काल में आप कम से कम मीन-मेख निकालने की स्थिति में तो हैं. यह होना चाहिए, यह नहीं होना चाहिए, यह नहीं हो रहा है, यह गलत हो रहा है. पिछले राज में तो ‘होने’ जैसा प्रचलन ही ठहर-सा गया था. नीतीश के सत्ता में दुबारा से बने रहने की बड़ी वजह भी वही है. बावजूद इसके नीतीश कुमार की जो दरबारी पद्धति है वह शासन की अवधारणा को ही झुठलाती है. दरबार की परंपरा हमेशा से ही राजा से जुड़ी रही है. राजतंत्र में राजा ही सब कुछ होता था, न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका सबकी ताकत उसके हाथों में होती थी. वह दरबार में कुछ भी फैसले ले सकता था. राजतंत्र के खात्मे के साथ ही इस दरबारी पद्धति का भी खात्मा हो गया. क्या ऐसा संभव है कि नीतीश कुमार विधायिका, कार्यपालिका या न्यायपालिका से जुड़े किसी भी मसले पर अपने दरबार में या कथित तौर पर जनता के दरबार में फैसले ले लें?’ प्रभाकर सिन्हा आगे कहते हैं, ‘यह संभव नहीं है. अधिकतर आबादी का फैसला अधिकारी ही करेगा. निपटारा कोर्ट-कचहरी, अधिकारियों के यहां ही होगा. पाई-पाई जोड़कर किसी तरह पटना पहुंचने वाले गरीबों को अपने ही यहां शासन का फल मिले, उनकी समस्याएं वहीं सुलझें, नीतीश इसके लिए कोशिश करेंगे तो उससे सुशासन का सिस्टम स्थायी भाव में विकसित होगा वरना खुद को खपाते रहने और उससे निकले परिणामों की सीमा बहुत छोटी होती है.’

असहमति से परहेज

अन्ना हजारे के आंदोलन को नैतिक व मौखिक समर्थन देने वाले नेताओं में नीतीश आरंभ से ही आगे की पंक्ति में रहे. अन्ना ने बिना बिहार आए दिल्ली से नीतीश व उनके विकास के मॉडल की जमकर प्रशंसा की. नीतीश कुमार प्रकारांतर से अन्ना आंदोलन के पक्ष में बयान देते रहे. जब अन्ना का आंदोलन परवान चढ़ा, एक तबके के बीच भ्रष्टाचार बड़ा मसला बन गया. ऐसे में नीतीश ने उसके निवारण के एकाध प्रयोग भी कर डाले. खूब तारीफ हुई. नीतीश अन्ना के इतने फैन हुए कि ‘राइट टू रिकॉल’ पर भी खुले मन से अपने विचार रखे. लालकृष्ण आडवाणी से अलग राह पकड़कर अन्ना की इस मंशा का समर्थन किया. सब कुछ ठीक-ठाक ही चलता रहा, लेकिन जैसे ही टीम अन्ना के अरविंद केजरीवाल ने बिहार के लोकायुक्त के संदर्भ में एक छोटी टिप्पणी भर की, नीतीश झल्ला गए. उन्होंने टीम अन्ना को हद में रहने के अलावा अन्य कई किस्म की नसीहतें दे डाली. नीतीश बिना झल्लाए भी यही बात कह सकते थे लेकिन जो नीतीश को जानते हैं उन्हें अच्छे से पता है कि बाकी सारी चीजों पर तो नीतीश सुन भी सकते हैं लेकिन असहमति और आलोचना से उन्हें सख्त परहेज है. हो सकता है केजरीवाल विवाद एक संयोग रहा हो लेकिन अतीत की परछाइयां भी ऐसी ही गवाही देती हैं.

नीतीश के प्रमुख सहयोगी रहे पूर्व विधान पार्षद डॉ शंभू शरण श्रीवास्तव, जो अब भाकपा में हैं, कहते हैं कि ‘मैं नीतीश की व्यक्तिगत आलोचना कभी सार्वजनिक तौर पर नहीं करूंगा लेकिन यह तो उनसे पूछा ही जा सकता है कि उनके दल में पिछले कई साल से संसदीय बोर्ड का पुनर्गठन क्यों नहीं हुआ?’ श्रीवास्तव कहते हैं, ‘आंतरिक लोकतंत्र और आपसी सहमति में भरोसा न रखने के बावजूद छोटे से छोटे दलों में भी यह व्यवस्था रहती है लेकिन जदयू में यह परंपरा ताक पर रख दी गई है.’ श्रीवास्तव के अनुसार वजह यह है कि टिकट बंटवारे के समय कोई असहमति का स्वर उठाने वाला न आ जाए इसलिए जदयू में आंतरिक लोकतंत्र के इस मजबूत आधार को ध्वस्त किया गया. श्रीवास्तव भी अब उनके विरोधियों के खेमे में हैं, इसलिए उनके सवाल विरोधी के सवाल हो सकते हैं लेकिन नीतीश खुद सोचें कि एक के बाद एक अगर नीतीश को बनानेवाले उनका साथ छोड़ते ही गए तो उसके पीछे कोई ठोस वजह तो रही होगी.उपेंद्र कुशवाहा, प्रेम कुमार मणी, ललन सिंह, पीके सिन्हा, डॉ शंभू शरण श्रीवास्तव और बीच के दिनों में शिवानंद तिवारी आदि के साथ छोड़ जाने की अफवाहों को अगर अनदेखा भी कर दें तो दिग्विजय सिंह और जॉर्ज फर्नांडिस वाला सवाल बना रहेगा. फर्नांडिस नीतीश कुमार को बनाने-बढ़ाने वाले नेताओं में से रहे, लेकिन चूंकि वे कई बिंदुओं पर नीतीश से असहमति रखते थे और उसे जताते भी थे, इसलिए उन्हें धीरे-धीरे किनारे किया गया. धाकड़ फर्नांडिस की हालत यह हुई कि वे 2009 में टिकट के लिए गिड़गिड़ाते नजर आए और अंत में सार्वजनिक तौर पर कह भी दिया कि नीतीश अहंकारी हैं. डैमेज कंट्रोल के लिए फर्नांडिस को राज्यसभा भेजने की रस्मअदायगी करनी पड़ी थी.

दिग्विजय सिंह भी असहमति के स्वर को उठाते थे, तो उन्हें भी दरकिनार किया गया. हालांकि उन्होंने नीतीश से अलग होकर भी अपनी ताकत दिखाई और बाद में नीतीश ने दिग्विजय सिंह की पत्नी पुतुल सिंह को बिना मांगे समर्थन भी दिया. लेकिन पुतुल सिंह को समर्थन देने या नहीं देने का फैसला अलग है, असहमति का साहस दिखाने वाले को दरकिनार करना, नीतीश के व्यक्तित्व के लिए ज्यादा घातक होगा.
नीतीश कुमार खुद याद करें. एक बार जनता के दरबार के बाद जब वे प्रेस कॉन्फ्रेंस में उपस्थित हुए थे और एक अखबार के पत्रकार ने सिर्फ इतना पूछा था कि असंतोष बढ़ रहा है, जगह-जगह आंदोलन चल रहे हैं तो उन्होंने क्या जवाब दिया था. नीतीश का कहना था कि जाकर आप भी आंदोलन में शामिल हो जाइए. लगे हाथ उस अखबार को पर्चा-पोस्टर तक भी कह डाला था. नीतीश के लिए वह घटना छोटी होगी, लेकिन न्यू मीडिया के जमाने में इंटरनेटी पत्रकारिता के जरिए वह बात दूर-दूर तक पहुंची.

निंदक को भी नियरे रखना, व्यक्तित्व निर्माण में कितना सहायक होता है, क्या यह नीतीश नहीं जानते ?

असहमति को भी सम्मान देना और निंदक को भी नियरे रखना व्यक्तित्व निर्माण में कितना सहायक होता है, क्या यह नीतीश नहीं जानते? लोहिया और नेहरू प्रसंग को तो जानते ही होंगे. दोनों में कभी राजनीतिक तौर पर नहीं बनी. दोनों के रास्ते अलग रहे. लोहिया सदैव नेहरू की आलोचना करते रहे, लेकिन नेहरू अपनी किताब सबसे पहले लोहिया को ही पढ़ने के लिए भेजते थे और कहते थे कि तुम जो कहोगे, वही सही आकलन होगा, बाकी तो सब स्तुतिगान करते रहते हैं. नेहरू-लोहिया का कद सदा-सदा के लिए बड़ा दिखता है तो ऐसी छोटी-छोटी वजहों से भी…

…और अंत में सुविधा का मौन

नीतीश कुमार जब बोलते हैं तो यहां तक बोल जाते हैं कि आजादी के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ जो कदम उन्होंने उठाए हैं, वैसा किसी नेता ने नहीं किया और न ही किसी सरकार ने. जब चुप्पी साधते हैं तो नरसिंह राव की तरह मौनी बाबा बन जाते हैं या टालमटोल कर कट जाना चाहते हैं. जब नालंदा अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय पर बोलना था तो वे खूब बोले, लेकिन इस ड्रीम प्रोजेक्ट में जरा- सा पेंच फंसा और एपीजे अब्दुल कलाम के अलग हो जाने की खबर सार्वजनिक हुई तो चुप्पी साध ली और यह कहकर टाल गए कि यह मामला केंद्र सरकार का है, केंद्र सरकार ही जाने. वे चाणक्य, चंद्रगुप्त, आर्यभट्ट आदि नामों से शुरू हुए संस्थानों के पक्ष में तो खुलकर बोलते हैं लेकिन पटना विश्वविद्यालय, पटना कॉलेज, पटना साइंस कॉलेज, पटना आर्ट कॉलेज जैसे बिहार के प्रतिष्ठित व अहम संस्थानों की खस्ताहाली पर बोलने का जिम्मा दूसरे पर सौंप देते हैं. उपेंद्र कुशवाहा, प्रेम कुमार मणी, ललन सिंह जैसे नेता चाहे लाख खिलाफत वाले बयान देते रहें, नीतीश मौन साधे रहते हैं, जवाब नहीं देते लेकिन जो कार्रवाई होनी होती है वह हो जाती है. लखीसराय में जब चार पुलिसवाले माओवादियों द्वारा अपहृत होते हैं, तब भी नीतीश कुछ दिनों तक मौन साधे रहते हैं जब मामला पटरी पर आ जाता है, तभी बोलते हैं. विशेष राज्य दर्जा अभियान चलाते हैं तो नीतीश खूब बोलते हैं, केंद्र को निशाने पर लेते हैं, इसे ही बिहार को पटरी पर ला देने के लिए संजीवनी की तरह बताते हैं लेकिन इस पर कभी चर्चा नहीं करते कि जब वे खुद केंद्र में थे और बिहार-झारखंड का बंटवारा हो रहा था तब क्यों नहीं इसी तरह, इस मांग को लेकर सक्रिय दिखे थे. नीतीश बेगुसराय के सिमरिया में हो रहे अर्धकुंभ पर भी मौन साधे रहते हैं, उनकी ओर से किशोर कुणाल जैसे लोग बोलते रहते हैं, प्रवीण तोगडि़या जैसे लोग सिमरिया में हिंदुत्व का पाठ पढ़ाकर चले भी जाते हैं, नीतीश मौनव्रत्त में ही रहते हैं. नीतीश भ्रष्टाचार के खिलाफ आग उगलते हैं, लेकिन बियाडा और कैग रिपोर्ट से उजागर गड़बड़झाले पर मौन साधते हैं या खुलकर कुछ नहीं बोलना चाहते. एक समय में गोधरा पर मौन साध गए थे, अब अपने बिहार के फारबिसगंज पर भी लगभग मौन साधे रहे. जिस दिन बाबा रामदेव पर दिल्ली पुलिस ने रात को धावा बोला था उस दिन नीतीश ने इस मसले पर तो केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी पर जमकर निशाना साधा मगर मीडियाकर्मियों द्वारा फारबिसगंज के बारे में पूछने पर कोई भी टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.

­नीतीश कुमार सुविधानुसार मौन की राजनीति करते रहते हैं. नरसिंह राव भी मौन ही साधते थे, बाद में उनकी कितनी फजीहत हुई और कांग्रेस उनसे अब कैसे पीछा छुड़ाती हुई दिखती है, यह नीतीश भी जानते होंगे. मनमोहन भी मौनमोहन बनते रहते हैं तो उनकी कितनी आलोचना होती है, यह भी नीतीश जानते हैं. नीतीश विनम्र हैं, कम बोलते हैं, मृदुभाषी हैं यह उनकी खासियत तो है लेकिन सुविधानुसार मौन साध लेना उन्हें उधेड़बुन में रहने वाले और जरूरी मुद्दों से कन्नी काटने नेता के रूप में भी स्थापित कर रहा है.

आगे पाठ, पीछे सपाट?

पिछले कुछ सालों के दौरान मध्य प्रदेश में भाजपा ने बेहद मजबूत छवि गढ़ी है. लेकिन प्रदेश सरकार की हालिया विकास यात्रा के रद्द होने और अपनी सरकार के खिलाफ ही मंत्रियों की बयानबाजी से अब संकेत मिलने लगे हैं कि यहां पार्टी की राह उतनी आसान नहीं रही. बृजेश सिंह की रिपोर्ट

मध्य प्रदेश में पिछले कुछ समय तक ऐसा लग रहा था मानो भाजपा के सामने अब कोई चुनौती ही नहीं बची है और 2013 फतह करने में उसे कोई खास दिक्कत नहीं आएगी. ऐसा मानने की वजहों में भाजपा संगठन और सत्ता की मजबूती के साथ ही कांग्रेस की अनबूझी निष्क्रियता भी शामिल थी. लेकिन पिछले कुछ दिनों में घटनाक्रम तेजी से बदले हैं. पार्टी का मिशन 2013 अब उतना आसान नहीं दिख रहा. ऐसा नहीं है कि प्रदेश भाजपा को अपनी कमजोर होती स्थिति का अंदाजा नहीं है. हाल ही में पार्टी ने अपनी उस बहुप्रतीक्षित यात्रा को रद्द कर दिया जिसे उसने विकास यात्रा का नाम दिया था. इस यात्रा के माध्यम से पूरे प्रदेश का दौरा करके सरकार जनता को अपनी लोकप्रिय योजनाओं की जानकारी देने के साथ ही उसे यह बताने जा रही थी कि उसने राज्य की जनता के लिए अब तक कितने अच्छे-अच्छे काम किए हैं. यात्रा के साथ ही पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव के लिए औपचारिक रूप से चुनाव प्रचार भी  शुरू करने वाली थी. प्रदेश के सभी विधानसभा क्षेत्रों से गुजरने वाली इस यात्रा की तैयारियों को लेकर सत्ता और संगठन ने दिन-रात एक कर दिया था. लेकिन अचानक यात्रा दो महीने तक के लिए टाल दी गई. यात्रा को टालने के कारण पर पार्टी का कहना था कि चूंकि इसी समय चुनाव आयोग नयी वोटर लिस्ट पर काम कर रहा है इसलिए यात्रा को टाल दिया गया.

सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने के मामले सरकार के ‘सुशासन’ के दावे पर सवाल खड़े कर रहे हैं 

लेकिन सूत्रों का कहना है कि यात्रा को टालने के पीछे वोटर लिस्ट नहीं वरन कुछ और कारण है. कहा जा रहा है कि विधायकों, स्थानीय कार्यकर्ताओं के साथ ही विभिन्न जिलों के अधिकारियों ने सरकार तक यह बात पहुंचाई कि इस समय अगर यात्रा की गई तो पार्टी को किसानों की नाराजगी और गुस्से का सामना करना पड़ेगा. उल्लेखनीय है कि इस समय रबी की फसल बोने का समय चल रहा है. खाद, बीज और बिजली न मिलने की शिकायतें आम हो चुकी हैं. पूरे राज्य में किसान परेशान हैं. कहीं खाद नहीं मिल रहा है तो कहीं बिजली संकट छाया है. लगभग हर रोज प्रदेश के किसी न किसी कोने से किसानों की आत्महत्या की खबरें आती रहती हैं. इसी को ध्यान में रखकर जो रिपोर्ट भोपाल भेजी गई उसमें इस समय यात्रा से परहेज करने को कहा गया था.

विभिन्न क्षेत्रों से मिली फीडबैक में किसानों में व्याप्त रोष की बात कही गई थी. शीर्ष नेताओं तक यह बात पहुंचाई गई कि ऐसे में अगर उपलब्धियां गिनाने सरकार लोगों के बीच गई तो इससे उसे लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ेगी. लोगों पर इस यात्रा का नकारात्मक असर पड़ेगा. इधर सत्ता और संगठन तक यह फीडबैक पहुंचा और वहीं दूसरी तरफ संघ के अानुषंगिक संगठन भारतीय किसान संघ ने भी राज्य में किसानों की आत्महत्याओं और बीज, बिजली और खाद की किल्लत को लेकर सरकार को घेरना शुरू कर दिया. सरकार को भी उस समय की याद आ गई जब किसान संघ के आह्वान पर राज्य भर के किसान अपनी मांगों के साथ रातों-रात भोपाल पहुंच गए थे और उन्होंने पूरे शहर को एक तरह से अपने कब्जे में ले लिया था. कुछ उसी तरह की परिस्थितियां बनती देख सरकार ने तुरंत यात्रा को रद्द करके किसानों को कोई दिक्कत न होने देने की बात दोहरानी शुरू कर दी. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक गिरिजाशंकर यात्रा के टालने के पीछे सत्ता और संगठन के बीच तालमेल के अभाव को कारण मानते हैं. वे कहते हैं, ‘यात्रा की योजना तो संगठन ने बनाई थी लेकिन सत्ता को वह वर्तमान समय में सही नहीं लगी इसलिए उसने इससे इनकार कर दिया.’

‘रघुनंदन शर्मा जैसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई इसलिए हो रही है कि उन्हें पॉवरफुल नहीं समझा जाता’

सूत्र बताते हैं कि क्षेत्र में किसानों के आक्रोश का  आलम यह है कि पार्टी के विधायक तक अपने क्षेत्र में नहीं जा रहे हैं. इसके अलावा भी सरकार और कई मोर्चों पर घिरती जा रही है. मंत्रियों से लेकर प्रशासन के छोटे-से-छोटे अधिकारियों पर आए दिन भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं. आलम यह है कि राज्य में प्रशासनिक सेवा से जुड़े कर्मचारियों के अलावा छोटे-से- छोटे कर्मचारी के यहां पड़ रहे छापों में करोड़ों की काली कमाई उजागर हो रही है. अरविंद जोशी और टीनू जोशी के यहां छापे में निकली करोड़ों की काली कमाई तो इस कड़ी में महज एक उदाहरण है. हाल ही में प्रदेश के सागर ग्रुप पर पड़े आयकर विभाग के छापे में जब्त दस्तावेजों में जो डायरी बरामद हुई है उसमें भोपाल नगर निगम आयुक्त मनीष सिंह का भी उल्लेख है. सूत्रों की मानें तो मनीष के नाम के आगे लाखों की रकम लिखी है. आयकर विभाग पूरे मामले की जांच कर रहा है.

भ्रष्टाचार के अलावा नौकरशाहों की कार्यप्रणाली को लेकर भी लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं. आम आदमी तो दूर, सत्तासीन पार्टी के नेता, मंत्री और विधायक भी नौकरशाहों के व्यवहार से पीड़ित नजर आ रहे हैं. हाल ही में भाजपा के वयोवृद्ध नेता, पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर ने नौकरशाहों को लेकर अपनी पीड़ा साझा करते हुए बयान दिया था कि अधिकारी सुनते नहीं हैं. नौकरशाहों के अंदर सरकार का कोई भय नहीं है. ऐसी ही कुछ पीड़ा समय-समय पर प्रदेश के अन्य मंत्री और जनप्रतिनिधि भी जाहिर करते रहते हैं.

इन अवरोधों के अलावा पार्टी के नेताओं और मंत्रियों के वक्त-बेवक्त आने वाले बयान भी पार्टी को न सिर्फ परेशान कर रहे हैं वरन कांग्रेस को भी उस पर हमला करने के लिए पर्याप्त मौके दे रहे हैं.  हाल ही में पार्टी ने वरिष्ठ भाजपा नेता और राज्यसभा सदस्य रघुनंदन शर्मा को प्रदेश उपाध्यक्ष के पद से उनके विवादास्पद बयान के कारण हटा दिया. अपने बयान में शर्मा ने कहा था कि सरकार के मंत्री घोषणावीर हैं और हों भी क्यों नहीं जब उनके मुखिया (मुख्यमंत्री) खुद एक बड़े घोषणावीर हैं. इसके अलावा शर्मा ने प्रदेश के नौकरशाहों को नामर्द भी ठहराया था. शर्मा के इन बयानों से पार्टी इतनी नाराज हो गई कि उसने आनन-फानन में उन्हें पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष पद से हटा दिया. हालांकि पार्टी के ही कई नेता पार्टी के इस निर्णय को उचित नहीं मानते. एक नेता कहते हैं, ‘ शर्मा ने जो कुछ कहा उस पर पार्टी को चिंतन करना चाहिए था. अगर अपने ही चेहरे पर कालिख पुती है तो इसमें आईने का क्या दोष.’ राजनीतिक जानकार इस कार्रवाई को पार्टी के भीतर खत्म हो रहे आंतरिक लोकतंत्र के रूप में भी देख रहे हैं. उनका मानना है कि शर्मा ने कोई नयी बात नहीं कही है. उन्होंने सिर्फ उस सच को बोलने की हिम्मत दिखाई है जिसे भाजपा का हर नेता जानता है. लेकिन पार्टी अनुशासन के कारण कुछ बोलता नहीं. सभी जानते हैं कि घोषणाएं खूब हो रही हैं लेकिन उन पर अमल नहीं हो रहा है. योजनाओं का क्रियान्वयन कागजों पर हो रहा है.

ऐसा नहीं है कि शर्मा वे पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने सरकार की आलोचना की है. समय-समय पर अन्य भाजपा नेता भी सरकार और संगठन को घेरते रहे हैं. मंत्री बाबूलाल गौर ने तो प्रदेश के विकास पर ही प्रश्न उठा दिया था. ऐसा नहीं है कि गौर की बयानबाजी शांत हो गई है वरन हर दिन गौर के मुख से कुछ न कुछ ऐसा जरूर निकल जाता है जो पार्टी की फजीहत के लिए पर्याप्त हो गया है. एक अन्य मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने भी अपने अधिकारों में हुई कटौती को यह कहकर प्रस्तुत किया था कि मेरी स्थिति शोले के ठाकुर जैसी हो गई है क्योंकि मेरे हाथ कटे हुए हैं. इन नेताओं की लिस्ट में वित्त मंत्री राघव जी ,वन मंत्री सरताज सिंह, सहकारिता मंत्री गौरीशंकर बिसेन, कृषि मंत्री रामकृष्ण कुसमारिया समेत और कई नाम हैं जो पार्टी और संगठन के लिए आए दिन समस्या खड़ी करते रहते हैं. सबके सामने सरकार की आलोचना करने वाले भाजपा नेताओं से बहुत बड़ी संख्या उन नेताओं की है जो नाम न छापने की शर्त पर सरकार या संगठन की खुले दिल से आलोचना कर रहे हैं. गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘बयानबाजी इसलिए हो रही है कि नेताओं में असंतोष है. कुछ लोग अपनी बात खुल कर कह रहे हैं वहीं कुछ मुंह बंद किए हुए हैं.’ वहीं इस मामले पर पत्रिका के मध्य प्रदेश ब्यूरो चीफ धनंजय सिंह कुछ अलग ही राय रखते हैं. उनके मुताबिक, ‘कार्रवाई रघुनंदन शर्मा जैसे लोगों के खिलाफ हो रही है क्योंकि वे इतने पॉवरफुल नहीं हैं. अगर अनुशासन की इतनी ही चिंता है तो ये लोग कैलाश विजयवर्गीय या बाबूलाल गौर पर कार्रवाई करके बता दें.’  

पार्टी अभी इन मामलों से जूझ ही रही थी कि उसे सबसे बड़ा झटका हरदा नगरपालिका चुनाव हारने से लगा. हरदा नगरपालिका में कांग्रेस की जीत के साथ ही भाजपा का लंबे समय से चल रहा चुनावी रथ जीत की पटरी से उतर गया. हाल में हुए विधानसभा के सभी उपचुनाव और नगरीय निकायों के सभी चुनाव भाजपा ने जीते. कुक्षी, सोनकच्छ और जबेरा जैसे कांग्रेसी गढ़ों में भगवा फहराने के साथ ही भाजपा ने मंडीदीप जैसे नगरीय निकाय के चुनाव में जीतने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी. पार्टी हर चुनाव में जीतती आ रही थी, लेकिन जीत की यह यात्रा हरदा नगरपालिका चुनाव में आकर रुक गई. हालांकि नगरपालिका चुनाव परिणाम के प्रभाव को बहुत बड़े स्तर पर नहीं देखा जा सकता है. कोई और राज्य होता तो शायद इसकी चर्चा भी नहीं होती, लेकिन पिछले कुछ समय से मध्य प्रदेश में नगरपालिका चुनाव भी कुछ इस अंदाज में हो रहे हैं मानो लोकसभा का चुनाव हो रहा है.

इन नगरीय निकाय चुनावों तक में भाजपा मुख्यमंत्री से लेकर लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज समेत तमाम मंत्रियों और विधायकों को झोंक रही है. जब नगरपालिका जीतने के लिए इस तरह से युद्धस्तर की तैयारी की जा रही हो तो फिर परिणाम महत्वपूर्ण हो जाता है. कुछ ऐसी ही तैयारी से भाजपा ने मंडीदीप नगरपालिका पर अपना परचम फहराया. लेकिन इस बार हरदा में उसे अनपेक्षित रूप से हार का सामना करना पड़ा. भाजपा का हरदा नगरपालिका का चुनाव हारना उसके लिए जहां एक बड़ा झटका है वहीं कांग्रेस जो राज्य में लंबे समय से मरणासन्न पड़ी हुई है उसके लिए किसी संजीवनी से कम नहीं है.

खैर, अभी विधानसभा चुनाव होने में दो साल का वक्त है और इन दो साल में काफी कुछ बन-बिगड़ सकता है. ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा अपनी आंतरिक कमियों, नौकरशाही की गड़बड़ियों और पिछले आठ साल में पार्टी और सत्ता विरोधी लहर से किस तरह निपटती है. 

‘वजन कम करने के चमत्कारी दावों से सावधान रहें’

हमारी तरफ मोटे को मोटा नहीं कहते. कहते हैं यार तुम ‘हेल्दी’ हो रहे हो. ऐसा हम ‘हेल्दी’ शब्द का अर्थ न जानने के कारण करते हैं या कि अपनी उस सांस्कृतिक विरासत के कारण जहां ‘अंधे को अंधा’ न कहकर ‘सूरदास’ कहने का रिवाज है.  बहरहाल, वास्तविकता, बल्कि कटु वास्तविकता यही है कि समाज में ऐसे ‘हेल्दी’ (मोटे) लोग बढ़ रहे हैं. मोटे आदमी (इसमें औरतें भी शामिल हैं और खास तौर पर शामिल हैं) की हार्दिक तमन्ना होती है कि वे छरहरे बदन के हो जाएं और यह भी कि यह सब काम खटिया पर पड़े-पड़े हो. वे भोजन की मात्रा या उसके ‘गिजा वाले तत्व’ को कम करना अपने पेट पर लात मारना मानते हैं. ये लोग पूड़ी, परांठे, अंडा, मुर्गा इत्यादि भकोसते हुए वजन कम कर सकने वाले चमत्कारी फॉर्मूले की तलाश में रहते हैं.

‘सालों में बढ़ाए वजन को हफ्तों में कम करने के दावे जानलेवा साबित हो सकते हैं’

यही लोग हैं जो रातोंरात मोटे आदमी को दुबला बनाने का दावा करने वाली दुुकानों के चक्कर में फंसते हैं. क्या चार सप्ताह में ‌दस किलो वजन कम करने की कोई जादुई डाइट या प्रोग्राम हो सकता है? यदि ऐसा हो भी जाए तो क्या यह सुरक्षित है? और क्या ऐसा करने वाले का वजन यह ‘विशेष डाइट’ छोड़ने पर वापस ‘अपनी पुरानी वाली’ पर नहीं आ जाएगा? क्या यह संभव है कि जो वजन आपने वर्षों तक ठूंस कर, अल्लम-गल्लम खाकर तथा आरामतलबी का एक अपनी तरह का सुनहरा जीवन बिताकर हासिल किया है, उसे रातोंरात कम किया जा सके? इन सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर है जो आप भी खूब जानते हैं. ऐसी कुछ भी जादुई चीज नहीं है और जो बताई जाती है उसका आज तक कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. वैसे भी जो बात स्वयंसिद्घ है उसके लिए वैज्ञानिक क्यों समय खराब करें? दूसरी बात यह कि दुबला करने, तेजी से छरहरा बनाने और इसी तरह के चमत्कारिक परिणाम देने वाली एक बड़ी ‘हेल्थ इंडस्ट्री’ खड़ी हो गई है. यह धंधे के सारे हथकंडे अपनाकर अपने ग्राहकों को यह भ्रम देती रहती है कि वे एक सिद्घ वैज्ञानिक गणित पर चलते हुए गोलमटोल को सरल रेखा में तब्दील कर देंगे. अच्छी तरह जान लें कि रातोंरात वजन कम नहीं किया जाता. करने की कोशिश भी नहीं की जानी चाहिए. वे सटीक, आकर्षक विज्ञापन जिनमें एक तरफ एक थुलथुल भद्दी-सी मोटी महिला की तसवीर होती है और दूसरी ओर चार सप्ताह का कोर्स लेने के बाद इसी महिला की छरहरी सुंदर काया वाली कामिनी की तसवीर होती है – कृपया इनके चक्कर में न पड़ें. हमें ये प्रस्ताव लुभाते अवश्य हैं क्योंकि आदमी की मानसिकता शार्टकट्स तलाशने और चोर रास्तों पर चलने की बन गई है. मैं इन चोर रास्तों से आपको आगाह करने के लिए ही यह लेख लिख रहा हूं.

आपका वजन हड्डियों, फैट (वसा), प्रोटीन (मांसपेशियां) तथा पानी से बनता है. जब आप वजन बढ़ा लेते हैं तो यह मूलतः फैट अर्थात् चर्बी के कारण ही बढ़ता है. शरीर को चर्बी का गोदाम बना लेना न केवल शरीर को यहां-वहां से बेडौल बनाता है वरन कैंसर, डायबिटीज, हार्ट-अटैक तथा आर्थराइटिस आदि बीमारियों को न्योता भी देता है.  अब यदि आप आज अपना वजन कम करना चाहेंगे तो कायदे से इसी चर्बी को कम करने की कोशिश करनी होगी. वजन भी कम होगा और आप उक्त बीमारियों से भी बचेंगे. परंतु चर्बी कम करना, वह भी रातोंरात, लगभग असंभव बात है. तो ये लोग जो रातोंरात वजन कम कर देते हैं वह कहां से कम होता है? वह कितना सुरक्षित है? यह जान लें कि आधा किलो चर्बी का मतलब है चार हजार पांच सौ कैलोरी जबकि आधा किलो प्रोटीन का मतलब है मात्र दो सौ कैलोरी. तो जो तुरंत वजन कम कर देने वाले फॉर्मूले हैं वे शरीर की मांसपेशियों और पानी को कम करके वजन कम करते हैं. चर्बी पर उनका प्रभाव बहुत कम होता है. यह नुकसानदायक है. कुछ ऐसे फॉर्मूलों में ‘हाई प्रोटीन डाइट’ दी जाती है जो लिवर तथा किडनी पर इतना लोड डाल सकती है कि गॉल ब्लेडर की पथरी से लगाकर, पोटैशियम में तब्दीली लाकर दिमाग तथा दिल पर जानलेवा प्रभाव पड़ सकता है. मार्च, 1990 में अमेरिकी संसद की सब-कमेटी ने इस तरह के डाइट प्रोग्रामों को ‘अवैज्ञानिक’ तथा ‘खतरनाक’ बताया था. उस कमेटी में 48 वर्षीय एक कॉलेज प्रोफेसर का केस भी प्रस्तुत हुआ था जिसका मस्तिष्क प्रोटीन तथा पोटैशियम की कमी के कारण हमेशा के लिए डैमेज हो गया था – वे ऐसे ही ‘रातोंरात वजन कम करने’ की किसी क्लीनिक में ऐसा करते हुए कोमा में चले गए थे और फिर स्थायी रूप से मानसिक विकलांग हो गए. ऐसे ही अनगिन केस गॉल ब्लेडर में पथरी के भी हुए थे. जिसके लिए ‘कोर्ट के बाहर’ लाखों रुपयों की क्षतिपूर्ति भी हुई थी.

एक जमाने में मोटापा पश्चिमी जगत की समस्या थी, खासकर अमेरिका वालों की. अब यह हमारी भी समस्या बन गई है. ‘मोटापा कम करना’  एक बड़े बाजार की संभावना भी बनी है. तभी तो भोपाल, ग्वालियर और रायपुर जैसे शहरों तक ‘रातोंरात वजन घटाने’ की दुकानें खुल गई हैं. तरह-तरह के विज्ञापन हैं. बिना हिले-डुले, बिना खाना कम किए ही वजन कम करने के दावे हैं. पढ़कर अच्छा भी लगता है. विश्वास करने का मन भी करता है. लोग करते भी हैं. पैसे भी फूंकते हैं. जबकि कौन नहीं जानता कि ठीक से भोजन की मात्रा, मीठे व्यंजनों तथा तेल-घी की मात्रा पर समझदारी से नियंत्रण किया जाए और बीस-पच्चीस मिनट का व्यायाम हो तो प्राय: केसों में मोटापा कम किया जा सकता है. इनके बारे में मैं आगे आपको बताऊंगा. अभी तो बस यह संदेश पर्याप्त है कि रातोंरात  दुबला कर देने वाले मायावी झांसों में न आएं.  

सावधान, उनके हाथ में नश्तर नहीं खंजर है

टीवी पत्रकारों के बारे में जस्टिस मार्कंडेय काटजू की राय पर हो रहा बवाल बताता है कि टीवी पत्रकारिता सच दिखाने को ही नहीं, सच सुनने को भी तैयार नहीं है. जस्टिस काटजू का लहजा जैसा भी हो, लेकिन उन्होंने जो बातें कही हैं उनमें ज्यादातर – दुर्भाग्य से सत्य हैं. जस्टिस काटजू की मूलतः तीन शिकायतें हैं- एक तो यह कि मीडिया अक्सर वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाता है. दूसरी यह कि मीडिया मनोरंजन के नाम पर परोसे जा रहे कूड़े को सबसे ज्यादा जगह देता है. और तीसरी यह कि मीडिया अंधविश्वास को बढ़ावा देता है. इन सबके बीच एक बड़ी शिकायत की अंतर्ध्वनि यह निकलती है कि मीडिया कई तरह के गर्हित गठजोड़ों और समझौतों का शिकार है जिसके तहत खबरों को तोड़ा-मरोड़ा और मनमाने ढंग से पेश किया जाता है.
इसके अलावा काटजू ने पत्रकारों के सामान्य ज्ञान पर भी कुछ टिप्पणियां की हैं- यह भी जोड़ा है कि टीवी पत्रकारों को न साहित्य की समझ है न इतिहास की और न दर्शन शास्त्र या किन्हीं दूसरे विषयों की. लेकिन काटजू टीवी पत्रकार से इतना पढ़ा-लिखा होने की अपेक्षा क्यों करते हैं?

यह अयोग्यता मीडिया को जैसे टीआरपी की होड़ में ले जाती है, उसी तरह उसे दूसरे दबावों का आसान शिकार बना डालती है

जाहिर है, इसलिए कि काटजू शायद खबर को साबुन-तेल और टीवी-फ्रिज की तरह महज एक उत्पाद नहीं, उससे ज्यादा कुछ समझते हैं. इसीलिए वे किसी दुकानदार से पढ़ने-लिखने की, इतिहास-साहित्य और दर्शन की समझ होने की अपेक्षा नहीं रखते, पत्रकार से रखते हैं. वे पत्रकारिता को एक गंभीर काम मानते हैं. लेकिन पत्रकार हैं जो इसी अपेक्षा पर सवाल उठा रहे हैं. जाहिर है, अपनी खबर या पेशे की गुरुता और गंभीरता का एहसास उनके भीतर उतना नहीं है जितना जस्टिस मार्कंडेय काटजू के भीतर है. शायद इसलिए भी पत्रकारिता की मौजूदा सूरत काटजू को इस कदर नाराज करती है कि वे बहुत निर्मम लहजे में पत्रकारिता की आलोचना करते हैं और इसके विरुद्ध सख्त कानून का प्रस्ताव कर डालते हैं.

लेकिन काटजू जज रहे हैं पत्रकार नहीं, इसलिए वे कुछ व्याधियों को ठीक से पहचानते तो हैं लेकिन उनके समाजशास्त्रीय संदर्भ को समझने की जगह उनका कानूनी उपचार खोजने या करने में जुट जाते हैं. वे जैसे तथ्यों को बिलकुल ठोस और उपलब्ध सबूतों के आधार पर जांचते हुए फैसला सुनाते हैं और उन परिस्थितिजन्य साक्ष्यों को समझने की कोशिश नहीं करते जिनकी वजह से पत्रकारिता का यह हाल हुआ है.  

दरअसल यह देखना और कहना बहुत आसान है कि टीवी पत्रकारिता असली मुद्दों से ध्यान भटकाती है, मनोरंजन को तमाशे की तरह बेचती है और अंधविश्वासों पर यकीन करती है. इतनी भर टिप्पणी के लिए जस्टिस काटजू होने की जरूरत भी नहीं. सैकड़ों की संख्या में टीवी चैनल 24 घंटे ये काम करते हैं और इन आरोपों के प्रमाण सुलभ कराते रहते हैं.

सवाल है, वे ऐसा क्यों करते हैं? इस सवाल के कई जवाब हैं. पहला जवाब तो पत्रकारिता की तरफ से ही आना चाहिए. 24 घंटे के टीवी चैनलों की यह जरूरत और मांग है कि उसकी खपत के लिए खबर को नये सिरे से परिभाषित किया जाए. लेकिन यह काम कौन करेगा? मीडिया में ऐसे बड़े संपादक नहीं दिखते जिनकी अभिरुचियों का दायरा समाज, संस्कृति, शिक्षा, भाषा और संप्रेषण के बारीक रेशों तक जाता हो. वे राजनीति की मोटी खबरों के बाद सिनेमा, क्रिकेट या दूसरे तमाशों की तरफ मुड़ जाते हैं. यह काम भी वे इतने सतही ढंग से करते हैं कि मीडिया अचानक अपनी उपयोगिता जैसे खो देता है.

लोग मीडिया को नियंत्रित करने के लिए नये कानून चाहते हैं. इसकी प्रस्तावना इस झूठ के साथ लिखी जा रही है कि मीडिया को रोकने के लिए कोई कानून ही नहीं है

एक लिहाज से यह अपनी नाकाबिली है जिसे छिपाने के लिए मीडिया टीआरपी की होड़ की दलील देता है. निश्चय ही टीआरपी की एक होड़ है और हर बुधवार टीवी चैनलों के भीतर अलग-अलग कार्यक्रमों के जिम्मेदार लोग ऐसे बच्चों की तरह सहमे बैठे होते हैं जिनका रिजल्ट निकलना हो. लेकिन यह दबाव दरअसल इसलिए बड़ा हो गया है कि माध्यम में वह संजीदगी नहीं बची है जो अपने प्रतिबद्ध दर्शक बनाए या दूसरों को बताए कि असली खबर असल में दिखाए जाने वाले तमाशों से बाहर है.

लेकिन यह मीडिया के ट्रिवियलाइजेशन- क्षुद्रीकरण- की पहली वजह है, अंतिम नहीं. दरअसल यह अयोग्यता मीडिया को जिस तरह टीआरपी की होड़ में ले जाती है, उसी तरह उसे दूसरे दबावों का आसान शिकार बना डालती है. अचानक इसी मोड़ पर ऐसे बिचौलिए सक्रिय हो जाते हैं जो पूंजी और सत्ता के हितों के रखवालों की तरह काम करते हैं. सत्ता और पूंजी को भी यह खेल रास आता है इसलिए वह अपने चैनल शुरू करने से लेकर दूसरों के चैनलों में घुसपैठ करने तक का काम बड़ी आसानी से करती है. इसी के बाद मीडिया अचानक गैरजिम्मेदार भी दिखने लगता है, गैरभरोसेमंद भी- वह किसी की तरफ से खेलता नजर आता है और किसी की तरफ से बोलता, वह किसी को बचाता और किसी को पीटता दिखाई पड़ता है. जब इन सबका वक्त नहीं रहता तो वह फिर सिनेमा, क्रिकेट और अंधविश्वास के अपने जाने-पहचाने शगल में लग जाता है और जस्टिस काटजू जैसे विद्वतजनों की फटकार सुनता है.

लेकिन जस्टिस काटजू फटकार कर संतुष्ट नहीं हैं, उन्हें कानून का चाबुक भी चाहिए. वे मानते हैं कि मीडिया पर कोई नियंत्रण नहीं है और वह अपने विशेषाधिकारों का दुरुपयोग कर रहा है. मगर क्या ये दोनों बातें सच हैं? हकीकत इसके ठीक उलट है. देश में मीडिया के लिए अलग से कोई कानून नहीं है, न उसे कोई अलग अधिकार हासिल है. अभिव्यक्ति की आजादी का जो और जितना अधिकार इस देश के किसी भी नागरिक को हासिल है, उतना ही मीडिया को भी है. यह अधिकार भी बिल्कुल निरंकुश नहीं है. मीडिया को नियंत्रण में रखने के लिए मानहानि से लेकर अपशब्द कहने के खिलाफ और अश्लीलता विरोधी कई कानून हैं. सरकारी गोपनीयता कानून भी इसी मीडिया नियंत्रण का हिस्सा है. इन कानूनों का इस्तेमाल भी खूब होता रहा है.  

सवाल है, फिर नया कानून क्यों चाहिए और किसे चाहिए? मीडिया ऐसे कौन-से नये अपराध कर रहा है जिसे पुराने कानूनों के तहत रोका न जा सकता हो?  अगर सरकार को लगता है कि समाचार चैनल समाचार का लाइसेंस लेकर कुछ और दिखा रहे हैं तो उसे पूरा हक है कि वह इन चैनलों के लाइसेंस रद्द कर दे. लेकिन वह ऐसा नहीं करती क्योंकि उसे कुछ और दिखाने वाले चैनलों से नहीं, असल में समाचार दिखाने वाले चैनलों से परेशानी है.

दरअसल मीडिया को कानून से कोई छूट या रियायत सबसे ज्यादा वे लोग देते या देना चाहते हैं जो मीडिया का सम्मान नहीं, उसका इस्तेमाल करना चाहते हैं. मीडिया में जो भ्रष्टाचार आता है वह भ्रष्ट राजनीति और भ्रष्ट पूंजी के गठजोड़ से आता है. हम सबको मालूम है कि इस पूंजी ने अपनी तरफ से मीडिया का वर्ग चरित्र बदलने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है. कुछ इस वजह से भी सत्ता, पूंजी और मीडिया का यह गठजोड़ पहले से आसान हुआ है. लेकिन मुश्किल यह है कि हर दूसरे माध्यम की तरह मीडिया भी अपना एक स्वायत्त ‘स्पेस’ बनाता है जहां उसके अपने नियम और दबाव काम करते हैं. इसलिए कोई गठजोड़ एक सीमा से आगे नहीं चलता. यह भारत में लोकतांत्रिक चेतना के विकास का नतीजा है कि अंततः असली खबर लोगों तक पहुंच जाती है- चाहे वह छत्तीसगढ़ में पिट रहे नक्सलियों की तकलीफ हो या जंतर-मंतर पर चल रहा अण्णा का आंदोलन. मीडिया चाहे जितने तमाशे करे, जब खबर की घड़ी आती है तो वह खबर के साथ खड़ा हो जाता है- यह उसे उसकी परंपरा ने सिखाया है जिसमें यह समझ भी शामिल है कि लोगों को इस असली खबर का इंतजार होगा.  

दिलचस्प यह है कि ऐसे ही मौकों पर सत्ता और पूंजी को मीडिया का गैरजिम्मेदार चेहरा याद आता है. सरकार को हाल के दिनों में मीडिया को नियंत्रित करने वाले कानून की याद तब आई जब अण्णा हज़ारे के आंदोलन को मीडिया की मदद मिली. जाहिर है, मीडिया के खिलाफ अगर कोई कानून बनेगा तो उसका इस्तेमाल असली गुनहगारों के खिलाफ नहीं, बल्कि उस पत्रकारिता पर शिकंजा कसने के लिए होगा जो व्यवस्था को आईना दिखा रही होगी, उसके लिए असुविधाजनक स्थितियां और सवाल खड़े कर रही होगी.

जस्टिस काटजू की अदालत में मीडिया की बेईमानी तो पहुंचती है, उसके पहले सत्ता के अंतःकक्षों में चलने और पलने वाला वह गठजोड़ नहीं दिखता जो दरअसल मीडिया के मूल और प्रतिरोधमूलक चरित्र को बदलना चाहता है. निश्चय ही यह गठजोड़ टूटना चाहिए, लेकिन वह कड़े कानूनों से नहीं तोड़ा जा सकता- उसकी लड़ाई और बड़ी है. दरअसल यह अनुभव बहुत स्पष्ट हो चुका है कि कड़े कानून ज्यादातर सत्ता को निरंकुश बनाते हैं. एएफएसपीए यानी सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून कश्मीर में आतंकियों को नहीं, आम लोगों को डराता है. टाडा और पोटा से आतंकवाद नहीं मिटा, उनकी वजह से पकड़े गए बेकसूर लोगों से भरी जेलें आतंकवाद की नयी पौधशालाओं में बदल गईं.

लेकिन अब लोग मीडिया को नियंत्रित करने के लिए नये कानून चाहते हैं और इसकी प्रस्तावना इस झूठ के साथ लिखी जा रही है कि मीडिया को रोकने के लिए तो कोई कानून ही नहीं है. जाहिर है, यह झूठ मीडिया को कमजोर करने के लिए बोला जा रहा है. जहां तक मीडिया की अपनी गलतियों का सवाल है, वे काफी बड़ी हैं, लेकिन उन्हें अंततः अंदर से ही साफ करने का रास्ता निकालना होगा. कानून के नाम पर इसकी शल्य क्रिया करने वाले असल में हाथ में नश्तर नहीं, खंजर लेकर खड़े हैं और उनकी निगाह शरीर में पल रहे किसी जख्म पर नहीं, उस गर्दन पर है जो सारे घावों के बाद फिर भी तनी हुई है. लेकिन यह गर्दन तनी रहे और पत्रकारिता सबसे आंख मिलाने लायक बनी रहे, इसके लिए हमें कुछ काटजू को भी सुनना होगा, और वे जैसा सोचते हैं वैसा पत्रकार बनना होगा.