बहिष्कार की बुनियाद पर…

उमा भारती पिछली बार भोपाल या मध्य प्रदेश कब आई थीं? वे मध्य प्रदेश आती भी हैं या नहीं? अगर आती हैं तो किससे मिलती हैं? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब उमा के दो-चार करीबी लोगों को छोड़ दें तो किसी के पास नहीं है. सबसे दिलचस्प बात  यह है कि ये सवाल उन उमा भारती पर हैं जिन्हें कभी भाजपा में अटल-आडवाणी के अलावा सबसे बड़ा भीड़ जुटाऊ नेता माना जाता था. लेकिन आज वे जब प्रदेश में आती हैं तो बमुश्किल दर्जन भर लोग ही उनके आसपास दिखाई देते हैं. इनमें भी सक्रिय रूप से भाजपा से जुड़ा शायद ही कोई व्यक्ति उनके साथ दिखाई देता हो.

राजनीतिक समीक्षकों की मानें तो उमा भारती को मध्य प्रदेश की राजनीति से दूर रहने की जो नसीहत दी गई है वह पार्टी के लिए भविष्य में हानिकारक साबित होगीतो क्या यह बदली हुई हवा इस बात का संकेत है कि भाजपा को प्रदेश में सत्ता दिलाने वाली उमा भारती अब अपने ही घर (मध्य प्रदेश) में बहिष्कृत हो चुकी हैं? मध्य प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश भाजपा संगठन की आपत्तियों के बावजूद केंद्रीय नेतृत्व ने उमा की पार्टी में वापसी इसी शर्त पर की थी कि वे प्रदेश भाजपा में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगी. लेकिन हस्तक्षेप तो दूर की बात है, उमा भारती प्रदेश के पटल से बिलकुल अदृश्य हो गई हैं. वे प्रदेश में आती हैं, लेकिन इसकी खबर किसी को नहीं होती. असल में उनके प्रदेश में होने की खबर सबको पता चले इसकी पहली शर्त है कि भाजपा के नेता या कार्यकर्ता उनसे मिलने जाएं. लेकिन इसे चाहे प्रदेश भाजपा की अघोषित आचारसंहिता कहा जाए या खुद उमा भारती की इच्छा, फिलहाल उनकी प्रदेश भाजपा इकाई और सरकार से दूरी बनी हुई है. इसकी एक बानगी हाल ही में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के दौरान भी देखने को मिली. उमा उत्तर प्रदेश में लगातार उनके साथ घूम रही थी, लेकिन जैसे ही आडवाणी का रथ मध्य प्रदेश की सीमा पर पहुंचा वे वहां से वापस हो गईं. इस घटना से ऐसा आभास मिला जैसे सीमा रेखा उमा भारती के लिए लक्ष्मण रेखा बन गई है.

भाजपा से जुड़े कुछ नेता कहते हैं कि उमा खुद मध्य प्रदेश की सीमा से वापस लौट गईं तो कुछ का कहना है कि किसी ने उन्हें प्रदेश में भी यात्रा के साथ चलने के लिए नहीं कहा क्योंकि प्रदेश संगठन नहीं चाहता कि वे मध्य प्रदेश में राजनीतिक कदम रखें.
मध्य प्रदेश भाजपा के लिए यह विडंबना ही है कि रथयात्रा के प्रदेश में पहुंचने पर पार्टी के जो नेता आडवाणी के साथ थे तथा प्रदेश की राजधानी में हुई सभा में उनके आसपास बैठे थे उनमें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को छोड़ दें तो शायद ही कोई ऐसा था जिसका प्रदेश में कोई व्यापक जनाधार तथा लोकप्रियता हो. पार्टी में वापस आए उमा को चार महीने से अधिक का समय हो गया,लेकिन मध्य प्रदेश में पार्टी की किसी बैठक या कार्यक्रम में वे नहीं दिखीं. हमेशा मीडिया में अपने बयानों से चर्चा में रहने वाली उमा ने अपने मूल व्यवहार के विपरीत पत्रकारों से भी बातचीत करने से किनारा कर लिया है. पिछले चार महीनों के दौरान उनके जो दो-एक इंटरव्यू मीडिया में आए उनमें भी वे उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा को जीत दिलाने संबंधी अपनी रणनीति का ही बखान करती नजर आईं. राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो पार्टी में वापस आने के बाद से इस पूर्व मुख्यमंत्री ने जिस तरह चुप्पी साध रखी है वह उनके मूल व्यवहार के विपरीत है. उमा के व्यवहार में आए इस बदलाव को जहां कुछ लोग भाजपा में उनकी कमजोर और दयनीय स्थिति की उपज मानते हैं वहीं कुछ अन्य इसे एक गहरी और दूरगामी रणनीति के तौर पर देख रहे हैं.

उमा भारती की भाजपा में वापसी के समय इस बात की चर्चा जोरों पर थी कि भले ही उन्हें मध्य प्रदेश में राजनीतिक हस्तक्षेप न करने की शर्त पर वापस लाया जा रहा है लेकिन उनका अतीत और व्यक्तित्व इस बात की पुष्टि नहीं करता कि वे इस शर्त को निभा पाएंगी. हालांकि पिछले चार महीने में उमा ने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे प्रदेश भाजपा संगठन को कोई शिकायत हो. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जिन परिस्थितियों में उमा की पार्टी में वापसी हुई वे उनके राजनीतिक व्यवहार में आए परिवर्तन का मूल कारण हैं. प्रदेश भाजपा में उमा के समर्थक एक वरिष्ठ नेता नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, ‘प्रदेश इकाई ने एक तरह से उमा जी का राजनीतिक वनवास कर रखा है. वे न तो मध्य प्रदेश बीजेपी के मामले में कुछ बोल सकती हैं और न ही अपने समर्थकों से यहां मिल सकती हैं. लोग पता नहीं इस तथ्य को क्यों भूल जाते हैं कि वे प्रदेश की मुख्यमंत्री रही हैं और भाजपा से अलग होने के बाद उन्होंने एक पार्टी बनाई थी जिसके न सिर्फ मध्य प्रदेश में विधायक थे वरन बड़ी संख्या में लोग उस पार्टी से जुड़े थे. ऐसे में कोई उमा को कब तक प्रदेश से काटकर रख सकता है.’

‘हाईकमान प्रायः  एक विकल्प लेकर जरूर चलता है. मध्य प्रदेश में आज शिवराज सिंह चौहान चल रहे हैं, लेकिन 2013 तक क्या स्थिति होगी ये कोई नहीं कह सकता’

मुख्यमंत्री पद छिनने की पीड़ा और 2005 में पार्टी से निकाले जाने के बाद उमा ने लालकृष्ण आडवाणी से लेकर पार्टी के छोटे-बड़े सभी नेताओं को वह सब कुछ कहा जो शायद उन नेताओं के विरोधी भी नहीं कहते होंगे. अपनी लोकप्रियता के कारण उपजे अति आत्मविश्वास के कारण या यह कहें विकल्पहीनता के, उमा ने अपनी एक अलग पार्टी बनाई. पार्टी ने चुनाव भी लड़ा लेकिन उसे चुनावों में बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा. 2014 में भारत का प्रधानमंत्री अपनी पार्टी से बनवाने का सपना देखने वाली उमा भारती खुद चुनावों में हार गईं. अंततः जब कोई विकल्प नहीं बचा तो उमा ने भाजपा का फिर से दरवाजा खटखटाया. संघ के चौखट पर खूब मत्था टेका तब जाकर तमाम विरोधों के बावजूद संघ के दबाव में उनकी पार्टी में वापसी हुई. जानकार कहते हैं अपने इसी दुखद इतिहास और कमजोर वर्तमान के कारण उमा पार्टी के दिशानिर्देशों का अक्षरशः पालन कर रही हैं. उन्हें पता है कि उनके पास अब कोई विकल्प नहीं है. अगर इस बार कोई गड़बड़ी हुई तो उनके राजनीतिक देहावसान को कोई रोक नहीं सकता.

राजनीतिक समीक्षकों की मानें तो उमा भारती को मध्य प्रदेश की राजनीति से दूर रहने की जो नसीहत दी गई है वह पार्टी के लिए भविष्य में हानिकारक साबित होगी. वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं, ‘उमा इस प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री रही हैं. उनका अपना एक जनाधार तो है ही इस प्रदेश में. ऐसे में उस नेता के प्रवेश को प्रदेश में बैन करने से पार्टी को नुकसान ही होना है.’ उमा के प्रदेश की राजनीति से दूरी बरतने के सवाल पर भाजश विधायक दल के नेता रहे विधायक लक्ष्मण तिवारी कहते हैं, ‘उमा जी प्रदेश की राजनीति में इसलिए दखल नहीं दे रही हैं ताकि किसी को यह न लगे कि वे यहां कोई तोड़-फोड़ या गुटबाजी कर रही हैं. उन पर कोई प्रतिबंध नहीं है. वे किसी भी तरह के विवाद से दूर रहना चाहती है इसलिए उन्होंने खुद अपने आप को सीमित कर लिया है.’
उमा के एक बेहद करीबी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि उमा दिल्ली स्थित मध्य प्रदेश भवन में भी प्रदेश के नेताओं से मिलने से परहेज करती हैं. वे कहते हैं, ‘जब उन्हें प्रदेश से दूर रहने को कहा गया है तो वे पूरी तरह मध्य प्रदेश से दूर रहना चाहती हैं.’ 

इस नेता से यह पूछने पर कि क्या प्रदेश भाजपा संगठन ने उमा के प्रदेश में राजनीतिक प्रवेश पर प्रतिबंध लगा रखा है. वे आगे कहते हैं, ‘ये सही है कि लोग नहीं चाहते हैं कि उमा प्रदेश की राजनीति से किसी तरह जुड़ें. लेकिन मध्य प्रदेश उमा जी का घर है तो कोई उन्हें वहां जाने से कैसे रोक सकता है?’ राजनीति के जानकारों का एक बड़ा वर्ग उमा के प्रदेश से दूरी बरतने के पीछे उनकी एक चतुर रणनीति को भी देख रहा है. उमा को जानने वाले बताते हैं कि आप उन्हें किसी शर्त और सीमा में नहीं बांध सकते हैं. अगर वे कहीं सीमित होती दिख रही हैं तो उसमें उनकी अपनी रणनीति जरुर होगी.

सूत्रों का कहना है कि उमा को अब अच्छी तरह पता चल गया है कि उनके अड़ियल, गुस्सैल, तुनकमिजाजी तथा धमकी भरे व्यवहार और राजनीति को सहन करने वाले लोग अब भाजपा में नहीं बचे. ऐसे में वे अपने व्यवहार पर हावी इस पहलू को पीछे छोड़ना चाहती हैं. प्रदेश भाजपा के एक नेता कहते हैं, ‘जो दो लोग उनको थोड़ा-बहुत सहा करते थे, उनमें से एक अटल जी राजनीतिक संन्यास ले चुके हैं और दूसरे लालकृष्ण आडवाणी की भूमिका धीरे-धीरे पार्टी में सीमित होती जा रही है. इसीलिए उमा भारती ने अब अपने व्यवहार में क्रांतिकारी बदलाव किया है.’ इस बदले व्यवहार का लाभ उन्हें मिलने भी लगा है. ऐसा माना जा रहा है कि पार्टी में वापस आने के बाद से अब तक उमा ने जिस अनुशासन, परिपक्वता और सकारात्मक व्यवहार का परिचय दिया है उसी के इनाम स्वरूप उन्हें पार्टी की कार्यकारिणी में शामिल किया गया है. इस बात की पुष्टि करते हुए वरिष्ठ पत्रकार गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘ जिस तरह दूध का जला, छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है, उसी तरह उमा भी बहुत इत्मीनान से अपने पत्ते चल रही हैं. पार्टी से छह साल बाहर रहने के बाद उनके व्यक्तित्व में काफी परिवर्तन आया है और इस परिवर्तन के फायदे भी उनको मिलने लगे हैं.’

राजनीतिक हलकों में ऐसी चर्चा है कि अभी उमा ने अपने आप को उत्तर प्रदेश तक सीमित कर दिया है लेकिन उनकी भी नजर 2013 में मध्य प्रदेश चुनाव पर है. जानकार मानते हैं कि आगामी यूपी विधानसभा चुनाव को लेकर जिस तरह वे भाजपा के प्रचार-प्रसार के लिए कमर कस कर दिन-रात एक किए हुए हैं उसके पीछे उत्तर प्रदेश में भाजपा को जीत दिलाने के इतर कई वजहें हैं. ऐसा इसलिए भी कहा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों को लेकर जितनी तेजी और तत्परता का प्रदर्शन उमा कर रही हैं उतना तो वहां के नेता नहीं कर रहे. वे अब तक उत्तर प्रदेश के लगभग 75 जिलों का दौरा कर चुकी हैं. पिछले चार महीने में उमा भारती ने मायावती सरकार के खिलाफ जितनी सभाओं को संबोधित किया है उतना पिछले चार साल में कुल प्रदेश भाजपा नेताओं ने भी नहीं किया. वहीं इन चुनावों से जुड़ा एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की क्या हालत रहने वाली है, वहां का आम आदमी भी जानता है ऐसे में उमा भारती जैसी राजनेता को यह अंदाजा न हो, यह नहीं कहा जा सकता. तो फिर क्या कारण है कि वहां भाजपा के चुनाव प्रचार के लिए उमा ने दिन-रात एक किया हुआ है? गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘उमा भारती को पता है कि उनकी उपयोगिता चुनावों में ही है. यूपी के चुनाव होने के बाद जब 2013 में मध्य प्रदेश का चुनाव होगा तो क्या उस समय चुनाव प्रचार से उमा को भाजपा दूर रख पाएगी?’

जानकार यह संभावना जता रहे हैं कि चूंकि मध्य प्रदेश में 2013 में विधानसभा चुनाव है इसलिए उमा एक तरफ उत्तर प्रदेश में पार्टी का प्रचार बड़ी शिद्दत और मेहनत से कर रही हैं दूसरी तरफ किसी तरह के विवादों से दूर रहते हुए एक परिपक्व और अनुशासित नेता की छवि पार्टी के सामने पेश कर रही हैं. गिरिजाशंकर अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, ‘देखिए, हाईकमान प्रायः एक विकल्प लेकर जरूर चलता है. मध्य प्रदेश में आज शिवराज सिंह चौहान चल रहे हैं, लेकिन 2013 तक क्या स्थिति होगी यह कोई नहीं कह सकता. भविष्य में मध्य प्रदेश में अगर आलाकमान कभी विकल्पों के बारे में विचार करेगा तो उस समय परिपक्व, मेहनती और अनुशासित उमा के आगे भला कौन टिकेगा?’

यही कारण है कि उमा उत्तर प्रदेश के नेताओं की उन्हें नापसंद करने संबंधी बातों पर प्रतिक्रिया नहीं देतीं. उमा के एक करीबी नेता कहते हैं,  ‘दीदी को पता है कि उन्हें यूपी में नहीं रहना है. इसीलिए वे इन बातों से नाराज नहीं होतीं.’ राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि 2013 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की अंदरूनी राजनीति में उमा फैक्टर का काफी प्रभाव होगा. भाजपा की दूसरी पीढ़ी के जितने लोग केंद्र की राजनीति कर रहे हैं उनमें उमा से बड़ा कोई जननेता नहीं है. इसलिए 2013 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के साथ ही नहीं वरन उससे बढ़कर 2014 में उमा की पार्टी में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होने वाली है. उमा को यह भी पता है कि उन्हें पार्टी के अलावा कोई और भी बहुत ध्यान से देख रहा है और उसे भी वे पूरी तरह साधने में लगी हैं. पार्टी से छह साल दूर रहने के दौरान उन्होंने सबके खिलाफ कुछ न कुछ बोला सिवाय संघ के. जानकार मानते हैं कि उमा के पास सबसे बड़ा हथियार संघ का भरोसा है.

संघ से जुड़े मध्य प्रदेश तैनात एक पदाधिकारी बताते हैं, ‘उमा ने भाजपा से अलग हो जाने के बाद भी कभी संघ के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा, भले ही उन्होंने एक अलग पार्टी बनाई लेकिन वे लगातार संघ की विचारधारा से जुड़ी रहीं. भविष्य में संघ उमा के भविष्य को लेकर महत्वपूर्ण निर्णय ले सकता है.’ भाजपा की राजनीति पर बारीक नजर रखने वाले एक पत्रकार कहते हैं, ‘ जो संघ नितिन गडकरी को भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना सकता है वह उमा भारती को क्या नहीं बना सकता. इसलिए भाजपा के बाकी नेताओं के उमा से नाक-भौं सिकोड़ने से कुछ नहीं होगा. अगर संघ ने चाहा तो उमा के लिए भाजपा की राजनीति में शून्य से शिखर तक का सफर तय करना बहुत कठिन काम नहीं है.’­­