' अरब बहार और अमेरिका की वॉल स्ट्रीट '

20 अक्टूबर की शाम को गद्दाफी की मौत का दृश्य देखकर यूनानी त्रासदी की वह नायिका याद आई जब वह राजा के आदेश के खिलाफ अपने मरे भाई की लाश को दफनाने के लिए ले जाती है. नायिका को जब दंडित करने के लिए राजा के सामने पेश किया जाता है तो वह राजा से कहती है कि हे राजा! राज्य का कानून जिंदा लोगों पर लागू होता है, लाशों पर नहीं. गद्दाफी की मौत के बाद लीबियाई क्रांतिकारी उसकी लाश को दंडित करते हैं – पता नहीं यह किस लीबियाई त्रासदी का संकेत है. सत्य की गति सूक्ष्म हुआ करती है. महाभारत में असत्य का पक्ष यानी कौरव स्वर्ग प्राप्त करते हैं जबकि पांडव जो कि सत्य के साथ थे और कृष्ण का भी साथ था वे नरक में जाते हैं एक युधिष्ठिर को छोड़कर.  कर्नल गद्दाफी को स्वर्ग मिलेगा या नरक यह तो बस राम जाने! लेकिन यह वही राम थे जिन्होंने दुश्मन के मरने पर जश्न नहीं मनाया बल्कि उससे नसीहत लेने की सीख दी.

किसी बच्चे को यदि आप हिंदुस्तान का मानचित्र बनाने के लिए कहेंगे तो बस उसे एक पेंसिल की ही जरूरत पड़ेगी, लेकिन क्रांति की लहर से प्रभावित अरब देशों के मानचित्र को यदि आप देखें तो इनकी सीमाएं सीधी-सपाट कुछ-कुछ ऐसी जैसे किसी ने जश्न के तहत किसी केक को चाकू से सीधे-सीधे टुकड़ों में बांट दिया हो. अरब समाजों को जब देशों में बांटा जा रहा था तो उस समय भी केक और चाकू की घटना घटी. केक अरब समाज था और चाकू पश्चिमी देशों के हाथ.

सोवियत संघ के अंतिम राष्ट्राध्यक्ष मिखाइल गोर्बाचोव का मानना है कि वॉल स्ट्रीट आंदोलन पूंजीवाद की समाप्ति का संकेत है

ऐसा क्या है कि अरब समाजों में क्रांति की लहर इस तेजी से बढ़ी? इस बदलाव को समझने के लिए हमें इनके इतिहास पर एक नजर डालनी चाहिए. इस्लाम के उदय के बाद इन देशों में सत्ता की धुरी इस्लाम के इर्द-गिर्द घूमा करती थी और एक संक्षिप्त काल को छोड़ इसका नेतृत्व सऊदी अरब नाम के देश ने ही किया.  लेकिन 1908 में ईरान, और 1938 में सऊदी अरब में तेल के भंडार मिलने पर सत्ता के समीकरण बदले और साथ ही पश्चिमी देशों का रुझान भी. ऐसा नहीं है कि प्रत्येक अरब देश में यह प्राकृतिक संपदा मिली, लेकिन इसका प्रभाव अवश्य समस्त अरब राष्ट्रों पर पड़ा. विश्व का लगभग 20 प्रतिशत तेल सऊदी अरब और इसके पश्चात पश्चिम एशिया में ही स्थित एक गैरअरब देश ईरान के पास है.  यूरोप जो कि औद्योगीकीकरण को अपने वर्चस्व का हथियार बनाए हुए था, इस प्राकृतिक ऊर्जा को अपने नियंत्रण में लेने के प्रयास करने लगा.  पश्चिमी एशिया के पास तेल तो था लेकिन तकनीक पश्चिमी देशों के पास थी इसी पारस्परिक जरूरत के तहत लेन-देन का रिश्ता पनपा, लेकिन यह रिश्ता बराबरी पर आधारित नहीं था और इसी गैरबराबरी के खिलाफ अरब देशों में पश्चिमी देशों के विरुद्ध संघर्ष भी हुए. ऐसा नहीं है कि यह संघर्ष सत्तासीन राजघरानों ने किया हो बल्कि अरब समाजों ने अपने देश की सत्ता को पश्चिमी राष्ट्रों की जी-हुजूरी के खिलाफ प्रेरित किया. इस संघर्ष के परिणामस्वरूप मिस्र, सीरिया और लीबिया में अब्दुल जमाल नासिर, हाफिज असद और मुअम्मर गद्दाफी सरीखा नेतृत्व उभर कर सामने आया.  लेकिन समय के साथ-साथ इस नेतृत्व में भी शिथिलता आई और इसने भी अपने समाज की नजरअंदाजी की और रेगिस्तान से महलों में जा बसा.. शायद वे यह भूल गए थे कि रेगिस्तानी महल उम्रदराज नहीं होते.  

अरब समाज में यूं तो यदा-कदा विद्रोह के स्वर सुनाई देते थे लेकिन जनवरी, 2011 की शुरुआत में ट्यूनीशियाई युवक के आत्मदाह से जो चिंगारी सुलगी उसमें ट्यूनीशिया, मिस्र, लीबिया, सीरिया, बहरीन और यमन पूरी तरह से झुलसने लगे और इसकी आंच जॉर्डन, मोरोक्को और सऊदी अरब तक जा पहुंची. दुनिया ने इसे अरब बहार का नाम दिया. सुना था कि बहार निष्पक्ष हुआ करती है वह पेड़-पौधों की जात और उम्र नहीं देखा करती हालांकि यह बहार कुछ देशों में बदलाव तो लाई, लेकिन बाकी देश अब भी इसकी बाट जोह रहे हैं. क्यों कुछ देशों में सत्ता परिवर्तन जल्दी हुए और कुछ देशों में क्रांतिकारी अब भी सफल नहीं हुए हैं? यह कोई पेचीदा समीकरण नहीं है. इसे समझने के लिए इतना भर जरूरी है कि अरब देशों की सत्ता या तो राजे-रजवाड़ों के कब्जे में है या फिर किसी करिश्माई अरब व्यक्तित्व पर केंद्रित है. जॉर्डन, बहरीन, मोरोक्को और सऊदी अरब की सत्ता की बागडोर राजा और सुल्तानों के हाथ में है लेकिन ट्यूनीशिया, मिस्र, लीबिया, सीरिया और में यमन लोकतंत्र की आड़ में वंशवाद का एकछत्र शासन. लेकिन ऐसा क्यों हुआ कि राजघराने अब तक सुरक्षित हैं जबकि बाकी अरब राष्ट्रों में क्रांति ने सत्ता को या तो गिरा दिया अथवा उसकी नींव हिला दी? शायद पश्चिमी लोकतंत्र को अरब राष्ट्रों का राजतंत्र अपने हितों के लिए अधिक कारगर महसूस होता है, इसीलिए वह बहरीन में क्रांतिकारियों के समर्थन में और इस देश के सुल्तान के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोलता जहां क्रांतिकारियों का दमन न सिर्फ इस देश की सेनाएं करती हैं बल्कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के टैंक भी इस दमन में शरीक हो जाते हैं.  इसके विपरीत बहरीन जैसे हालात से गुजर रहे देश सीरिया पर पश्चिमी देशों का दबाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है.  हालांकि रूस, चीन और हिंदुस्तान ने सीरिया के खिलाफ पश्चिमी दखलंदाजी पर कुछ मायनों में लगाम लगा दी. 

कुछ पश्चिम एशियाई देशों के अपने निहित स्वार्थ भी इस क्रांति को अपने अपने अर्थों में व्याख्यायित कर रहे हैं. एक ओर सऊदी अरब, यमन और बहरीन की क्रांति को ईरान की शिया दखलंदाजी मानता है लेकिन  इस बहाने के जरिए वह अपने खिलाफ उभर रहे आतंरिक असंतोष को दबाने की कोशिश में लगा है. इसी तर्ज पर सीरिया की सत्ता को बचाने में ईरान ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है. उसका यह मानना है कि यदि सीरिया का सिंहासन डोलता है तो उसका इजराइल विरोध का स्वर कुंद पड़ जाएगा और लेबनान में हिजबुल्लाह संगठन को सहायता पहुंचाना भी कठिन हो जाएगा.

वैसे इस पूरे प्रकरण में ऐसा नहीं है कि अरब देश ही प्रभावित हुए हों. अमेरिका और यूरोप में भी इसका गहरा असर इन देशों में गैरबराबरी के खिलाफ चल रहे अभियानों पर साफ-साफ दिखाई देता है. यूं तो अमेरिका दुनिया का सबसे ताकतवर देश माना जाता है लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि यह देश आर्थिक दृष्टि से इतना कमजोर हो चुका है कि वहां की सरकार अपना कर्जा चुकाने के लिए भी कौड़ी-कौड़ी की मोहताज हो गई है. सैनिक अभियानों एवं सेना के रख रखाव में अत्यधिक खर्च इसकी एक वजह है जिसकी खातिर जनता पर करों का बोझ दिन-प्रतिदिन बढ़ाया जा रहा है. वहां की सरकार के अमीर और गरीब के बीच सौतेले व्यवहार के कारण अमेरिकी जनता ने 17 सितंबर से एक अभियान चलाया जिसे हम वॉल स्ट्रीट आंदोलन के नाम से जानने लगे हैं. इस आंदोलन के नेतृत्व का कहना है कि उनका प्रेरणास्रोत मिस्र का अल-तहरीर मैदान है जिसने शांति और अहिंसा का मार्ग अपनाकर अपने अधिकारों को प्राप्त किया और तानाशाही के अंत का सबब बना. वॉल स्ट्रीट आंदोलन अब तक अमेरिका के 70 शहरों में फैल चुका है और बहुत-से यूरोपीय देशों में इसी आंदोलन की तर्ज पर संघर्ष शुरू हो चुके हैं.

कुछ दिन पहले सोवियत संघ के अंतिम राष्ट्राध्यक्ष मिखाइल गोर्बाचोव ने अमेरिका के पेंसिलवानिया में एक भाषण में कहा कि वॉल स्ट्रीट आंदोलन पूंजीवादी व्यवस्था के ताबूत पर आखिरी कील साबित होगा और जिस तरह से सोवियत संघ का खात्मा हुआ, यह व्यवस्था भी खत्म होगी. जनवरी, 2011 में एक सब्जी बेचता हुआ मुहम्मद बुअजीजी नाम का ट्यूनीशियाई युवक उस देश की संसद के सामने आत्मदाह करता है और इससे पहले कि उसका बलिदान मात्र उसके परिवार के शोक का कारण बने वह तब्दील हो जाता है उस हवा में जो क्रांतिकारियों के लिए बहार बनकर आई और तानाशाहों के लिए भय, शर्म और मृत्यु की आंधी. इस बहार का रुख अब पश्चिम के देशों की तरफ है. काश कोई चिट्ठी लिखे इस बहार के नाम इस संदेश के साथ कि ऐ हवा! पूरब में बसे हिंदुस्तान में अब तक ढाई लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं तुझे देखने की खातिर. पूरब की ओर कब रुख करोगी?