सरकार और चैनलों की नूराकुश्ती

हर सरकार पालतू मीडिया पसंद करती है. अगर पालतू न भी हो तो भौंकने वाला नहीं होना चाहिए. भौंकने वाले न्यूज मीडिया को कोई सरकार बर्दाश्त नहीं कर पाती. यूपीए सरकार भी अपवाद नहीं है. वह न्यूज चैनलों खासकर अंग्रेजी और हिंदी के कुछ चैनलों की भ्रष्टाचार विरोधी अति उत्साही रिपोर्टिंग से खासी नाराज है. उसे लगता है कि भ्रष्टाचार खासकर 2जी से लेकर कॉमनवेल्थ घोटाले जैसे मामलों में न्यूज चैनलों की वजह से न सिर्फ उसकी काफी फजीहत हुई है बल्कि सरकार की साख को झटका लगने से गवर्नेंस पर भी बुरा असर पड़ा है. नतीजा, नाराज सरकार मीडिया खासकर न्यूज चैनलों पर नियंत्रण की कोशिश में है. यह भी कोई नयी बात नहीं. ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब मीडिया के खुलासों से नाराज सरकारों ने उसे नियंत्रित करने की कोशिश की है. इस रणनीति के तहत सरकार ने चैनलों की लगाम अपने हाथ में रखने के लिए उनके लाइसेंस की शर्तें कड़ी करने के साथ-साथ उनके लाइसेंस का दस साल में पुनर्नवीनीकरण जरूरी कर दिया है. इस पुनर्नवीनीकरण के लिए यह शर्त होगी कि उन पर केबल टीवी नेटवर्क्स रेगुलेशन कानून के प्रोग्राम और विज्ञापन कोड में उल्लिखित प्रावधानों का पांच या उससे अधिक बार उल्लंघन करने के मामलों में कार्रवाई नहीं हुई हो.

आश्चर्य नहीं कि सरकार के ताजा फैसलों का विरोध करने वाले न्यूज चैनल स्वतंत्र नियामक की मांग नहीं कर रहेकहने की जरूरत नहीं है कि न्यूज चैनलों ने प्रोग्राम और विज्ञापन कोड के किस प्रावधान का और कब उल्लंघन किया और उन पर क्या कार्रवाई होनी चाहिए, इसका फैसला पूरी तरह से सरकार का होगा. मतलब यह कि मीडिया पर ‘आरोपकर्ता, अभियोगकर्ता और जज’ तीनों की भूमिका खुद निभाने का आरोप लगाने वाली सरकार न्यूज चैनलों के साथ जैसे को तैसा की तर्ज पर वही करने जा रही है. इस कारण स्वाभाविक तौर पर सरकार की असली मंशा को लेकर आशंका पैदा होती है. यह आशंका इस तथ्य से और बढ़ जाती है कि जिस प्रोग्राम और विज्ञापन कोड को चैनलों की लक्ष्मण रेखा बताया जा रहा है उसमें बहुत कुछ ऐसा है जिसकी मनमानी व्याख्या की जा सकती है. उसका दायरा बहुत व्यापक है और अगर मंत्रालयों में बैठे बाबुओं ने चैनलों को काबू में करने के इरादे से उसकी उदार व्याख्या शुरू कर दी तो न्यूज चैनलों के दफ्तरों में नोटिसों की भरमार लग जाएगी.

संदेश साफ है. सरकार को भौंकने वाले न्यूज चैनल पसंद नहीं हैं. लेकिन मुश्किल यह है कि जनतंत्र भौंकने वाले न्यूज मीडिया और चैनलों के बिना चल नहीं सकता. असल में, जनतंत्र को जीवंत, गतिशील और भागीदारीपूर्ण बनाने के लिए जरूरी है कि न्यूज मीडिया और चैनल सक्रिय पहरेदार की भूमिका निभाएं. लेकिन अगर पहरेदार चोर को देखकर शोर न मचाए तो ऐसे पहरेदार का क्या फायदा? उससे चोर भले खुश हो लेकिन पहरेदार के मालिकों का नुकसान तय है. लेकिन मुश्किल सिर्फ यह नहीं है कि सरकार भौंकने वाले चैनलों से नाराज है और उन्हें काबू में करने के बहाने और तरीके खोज रही है बल्कि यह भी है कि आजादी के नाम पर अधिकांश चैनल असली चोरों के खिलाफ कम और ज्यादातर समय बेमतलब भौंकते रहते हैं.

इस अहर्निश नौटंकी से दर्शकों का ध्यान बंट रहा है जिसका फायदा चोर उठा रहे हैं. इससे दर्शकों में भी खासी नाराजगी है. सरकार को यह पता है. वह इस नाराजगी का फायदा उठाकर चैनलों का मुंह बंद करना चाहती है. लेकिन सच यह है कि खुद सरकार को न्यूज चैनलों की इस नौटंकी से कोई शिकायत नहीं रही है. इसका सबूत यह है कि गाहे-बगाहे चैनलों के रेगुलेशन की बात करने के बावजूद सरकार ने कभी भी गंभीरता से यह प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ाया. असल में, वह चैनलों को नियंत्रित करने का अधिकार छोड़ना नहीं चाहती. दूसरे, वह नहीं चाहती है कि पांच ‘सी’ (सिनेमा, क्रिकेट, क्राइम, कॉमेडी और सेलेब्रिटी) में उलझे न्यूज चैनल वास्तविक खबरों और सरकार की खबर लेने की ओर लौटें और उसकी नींद हराम करें. सरकार और चैनलों के बीच एक अलिखित-सी सहमति रही है कि दोनों एक-दूसरे को एक सीमा से अधिक परेशान नहीं करेंगे.

लेकिन ऐसा लगता है कि पिछले कुछ महीनों में कुछ चैनलों के आक्रामक भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के कारण यह सहमति टूट गई है. इससे सरकार को एक बार फिर न्यूज चैनलों के रेगुलेशन की जरूरत महसूस होने लगी है. लेकिन रेगुलेशन को लेकर वह कतई गंभीर नहीं है. अगर होती तो एक स्वतंत्र, स्वायत्त और प्रभावी प्रसारण नियामक के गठन के लिए ईमानदारी से प्रयास करती. ऐसे नियामक की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही है जो सरकार और मीडिया उद्योग दोनों से स्वतंत्र और स्वायत्त हो और जिसमें आम दर्शकों की भी निश्चित और महत्वपूर्ण भूमिका हो. लेकिन सरकार सिर्फ रेगुलेशन के डंडे का भय दिखाकर चैनलों को साधना चाहती है. इसीलिए वह रेगुलेशन का अधिकार अपने पास रखना चाहती है. न्यूज चैनल भी स्वतंत्र और स्वायत्त नियामक के पक्ष में नहीं हैं. उन्हें मालूम है कि ऐसे नियामक से निपटना मुश्किल होगा. उन्हें पता है कि सरकार से लेन-देन और डील संभव है लेकिन स्वतंत्र नियामक को झांसा देना आसान नहीं होगा.