जब वह अंधा युग अवतरित हुआ

‘उस भविष्य में /  धर्म-अर्थ ह्रासोन्मुख होंगे / क्षय होगा धीरे-धीरे सारी धरती का /  सत्ता होगी उनकी / जिनकी पूंजी होगी / जिनके नकली चेहरे होंगे / केवल उन्हें महत्त्व मिलेगा / राज्यशक्तियां लोलुप होंगी /  जनता उनसे पीड़ित होकर / गहन गुफ़ाओं में छिप-छिप कर दिन काटेगी.’

धर्मवीर भारती का काव्य नाटक ‘अंधा युग’ न जाने कब रचे गए विष्णु पुराण की इन्हीं पंक्तियों से शुरू होता है. इस डरावनी भविष्यवाणी को धर्मवीर भारती जैसे हमारे समय पर बिल्कुल प्रत्यारोपित कर डालते हैं. देशकाल और परंपरा की अचूक और विलक्षण पहचान के साथ वे महाभारत का पूरा महाकाव्य फलांग कर उसके बिल्कुल आखिरी सिरे तक पहुंचते हैं जहां युद्ध खत्म हो चुका है, थकी-हारी, घायल और आर्तनाद करती लुंज-पुंज, बची-खुची सेनाएं नगर लौट रही हैं, दुर्योधन एक सरोवर के तल में दम साधे बैठा है, धृतराष्ट्र को पहली बार आशंका व्याप रही है और गांधारी पहली बार क्रोध और अनास्था की विह्वलता में जल रही है.

युद्ध से अठारहवें और आखिरी दिन से लेकर कृष्ण की मृत्यु तक की यह कथा धर्मवीर भारती के काव्य नाटक में इतनी सारी द्वंद्वात्मकताओं के साथ खुलती है कि उसमें एक पूरा सभ्यता विमर्श पढ़ा जा सकता है. नाटक में युधिष्ठिर के अर्धसत्य को प्रतिशोध के अपने सत्य में बदलने को उद्धत पशुवत अश्वत्थामा है, अपनी दिव्य दृष्टि खोने से पहले उसकी व्यर्थता समझता संजय है, दुर्योधन की जय बोलता याचक की तरह झूठा भविष्य है, सत्य का साथ देने के अपराध में अपनों की भर्त्सना झेलता युयुत्सु है और वे कृष्ण हैं जिनके आगे सितारों की गति झूठी पड़ जाती है. आस्था और अनास्था का, नैतिकता और व्यावहारिकता का, मूल्यों और स्वार्थ का, चरित्रों का जैसा तीखा और नाटकीय टकराव और तनाव इस नाटक में उपस्थित है वह अन्यत्र दुर्लभ है.

जिस कृति के भीतर पाठ की इतनी जटिल और संश्लिष्ट तहें मौजूद हों, उसका मंचन आसान नहीं

जिस कृति के भीतर पाठ की इतनी जटिल और संश्लिष्ट तहें मौजूद हों, उसका मंचन आसान नहीं. इसी कौंधती हुई जटिलता की वजह से यह नाटक अभिनेताओं और निर्देशकों को बार-बार अपनी तरफ खींचता है. वे जैसे इसमें अपने हिस्से का महाभारत खोजने आते हैं, कभी पाते हैं, कभी गंवाते हैं और कभी-कभी नए सिरे से समझते और सिरजते भी हैं.

लेकिन बड़ी कृतियों के तनाव मंच पर नहीं, मन के भीतर घटित होते हैं. जिन गहन गुफाओं के जिक्र से नाटक शुरू होता है, वे हमारे भीतर होती हैं जिनमें हमारी पशुता भी सोती है, हमारी मनुष्यता भी. क्या इन गह्वर गुफाओं को, क्या इस अंदरूनी तनाव को मंच पर प्राप्त और संप्रेषित किया जा सकता है? क्या अपने अंधेपन की सीमाओं के आत्मस्वीकार में लीन कोई धृतराष्ट्र बिल्कुल हाड़-मांस का होकर हमारे भीतर उतर सकता है? क्या अश्वत्थामा की बर्बरता या संजय की बेबसी या गांधारी का द्वंद्व ऐसे अभिनेय हिस्से हैं जिन्हें ज्यों का त्यों उनके तनाव और उनकी विह्वलता के बीच पकड़ा और प्रस्तुत किया जा सके? 

ये सारे सवाल मेरे भीतर इस महीने भानु भारती का अंधा युग देखते हुए उठते रहे. इस नाटक में उत्तरा बावकर और मोहन महर्षि जैसे समर्थ अभिनेताओं ने अभिनय किया है. नाटक के मंचन के लिए भानु भारती ने फिरोजशाह कोटला के किले की भग्न प्राचीरों के बीच की जगह चुनी – वही जगह जहां 1963 में अब्राहिम अल्काजी ने इस नाटक का भव्य मंचन किया था. निश्चय ही यह सब कुछ बहुत उदात्त था. किले के बगल में फिरोजशाह स्टेडियम में लगे टावरों से आ रही, बहुत हल्का व्यवधान डालती रोशनी के बावजूद, दिल्ली के शोर-शराबे से दूर, नाटक देखने के लिए पुरानी दीवारों और पुराने मेहराबों को पार करके बनाए गए मंच तक पहुंचना सुखद था. मुख्य मंच से कुछ ऊपर दाईं तरफ एक कतार में खडे़ गायक वृंद के गायन से नाटक शुरू हुआ, मुख्य मंच पर बैठे धृतराष्ट्र की व्याकुलता और गांधारी की हताशा को छूता हुआ, दाईं तरफ दूर बनी उन गुफ़ाओं तक जा पहुंचा जहां कौरव सेना के आखिरी तीन सैनिक अश्वत्थामा, कृत वर्मा और कृपाचार्य अपने-अपने द्वंद्व और अनिश्चय के बीच उलझे हुए थे. इस दौरान और इसके बाद अंधा युग के वे सारे प्रसंग आते-जाते रहे जो हमारे भीतर अलग-अलग अवसरों पर घुमड़ा करते हैं. अश्वत्थामा के भीतर जो कुछ भी कोमल और शुभ्र था, उसकी भ्रूण हत्या युधिष्ठिर के अर्धसत्य ने कर दी है, और अपना धनुष तोड़कर विक्षिप्त-सा घूमता अश्वत्थामा अपने सत्य और अपनी नियति की तलाश में है. जिधर सत्य होगा, उधर जीत होगी, यह मानने और बताने वाली गांधारी यह देखकर हतप्रभ है कि सत्य किसी भी तरफ नहीं था और जिसे दुनिया प्रभु कहती है वह भी प्रवंचक निकला. युद्ध से ठीक पहले सत्य का पक्ष समझ कर पांडवों के साथ लड़ने वाला गांधारीपुत्र युयुत्सु पा रहा है कि वह नितांत अकेला और अपनों की ही घृणा और डर का पात्र है.

किसी निर्देशक की एक चुनौती यह भी होती है कि वह अपना एक ऐसा पाठ तैयार करे जो देखने वालों के भीतर किसी नव्यता, किसी उपलब्धि का बोध कराए

लेकिन क्या सारा नाटक, इससे पैदा होने वाला सारा तनाव लगभग उसी तरह घटित हो रहा था जैसा वह मेरे भीतर न जाने कितने वर्षों से मौजूद है? क्या वह उस तरह घटित हो सकता था? हम सबके भीतर शब्दों और भावों की अपनी-अपनी छवियां होती हैं जो अपनी तरह की अभिव्यक्ति चाहती हैं. मेरी गांधारी  विक्षोभ और करुणा के ऐसे रसायन से बनती है जिसमें ऊपर भले क्रोध हो, लेकिन जिसके अतल में बहुत गहरा दुख हो, और उससे भी गहरे एक भरोसा कि जो कुछ घटा है, अंततः सत्य को उसी से बनना है.
ऐसी गांधारी मुझे नहीं मिली. जो मिली उससे निराशा नहीं है, क्योंकि भानु भारती और उत्तरा बावकर की गांधारी भी अपनी तरह से एक पाठ बनाती है. बल्कि कृष्ण के शाप स्वीकार कर लेने के बाद तो फूट-फूट कर रोती गांधारी बिल्कुल वही थी जो मेरे भीतर थी. इसी तरह मेरे भीतर मौजूद धृतराष्ट्र की विडंबना कहीं ज्यादा गहरी है- मोहन महर्षि के धृतराष्ट्र का रंग कुछ अलग-सा है .

यह भानु भारती निर्देशित या उत्तरा बावकर और मोहन महर्षि अभिनीत नाट्य प्रस्तुति की समीक्षा या आलोचना नहीं है. यह उस द्वंद्व को समझने की कोशिश है जो लेखन और मंचन के बीच पैदा होता है.धर्मवीर भारती ने यह नाटक मूलतः रेडियो के लिए लिखा था जिसकी नाट्य संभावनाओं ने कई निर्देशकों को लुभाया कि वे इसका मंचन करें. रेडियो पर पता नहीं, आखिरी बार इसका प्रसारण कब हुआ, लेकिन मंच पर न जाने किन-किन शहरों में, किन-किन निर्देशकों ने इसे अपने ढंग से मंचित करने की कोशिश की. इब्राहिम अल्काजी और भानु भारती के बीत सत्यदेव दुबे से लेकर एमके रैना और ढेर सारे दूसरे रंग निर्देशकों के मंचन हैं जिनकी प्रशंसा और आलोचना में न जाने कितना कुछ कहा गया.

लेकिन शिल्प के स्तर पर देखें तो अंधा युग की असली चुनौती क्या है? इस नाटक में जो तनाव है, जो नाटकीयता है, वह अभिनय की नहीं, स्थितियों की है. यही बात इसकी भव्यता या उदात्तता के बारे में कही जा सकती है. नाटक युद्धभूमि या महल या नगर में घटित होता है- लेकिन वे बस उपादान हैं- जो घटित हो रहा है उसकी पृष्ठभूमि मात्र. फिर दुहराना होगा कि इस नाटक का वास्तविक उदात्त तत्व उस युद्ध में है जो चरित्रों के भीतर और हमारे भीतर लगभग साथ-साथ घटित हो रहा होता है.

शायद यह भी वजह है कि इस नाटक की कोई भी प्रस्तुति हमें पूरी तरह संतुष्ट नहीं छोड़ती. दूसरी बात यह कि धर्मवीर भारती ने इस नाटक में जितने तनाव पैदा किए हैं, जितने प्रश्न खड़े किए हैं, उतने उत्तर नहीं खोजे हैं. वे आस्था और अनास्था के द्वंद्व में आखिरकार आस्था का हाथ पकड़ कर खड़े हो गए हैं- कृष्ण की मृत्यु जैसे अश्वत्थामा का भी निर्वाण है- उसकी भी अपने जख्मों से मुक्ति है.लेकिन शायद इसी वजह से अचानक आखिरी सिरे पर आकर यह नाटक हमें कुछ अनिश्चय में छोड़ जाता है. मगर क्या ज्यादातर बड़ी कृतियां यही काम नहीं करतीं? वे प्रश्न खड़े करती है, उनके निर्णायक या अंतिम उत्तर नहीं देतीं. यही वजह है कि हर निर्देशक इस नाटक की अपनी तरह से व्याख्या करने की कोशिश करता है. भानु भारती ने भी इस नाटक का भरपूर संपादन किया है. उन्होंने कई प्रसंग छोड़ दिए हैं जो अंधा युग के किसी प्रतिबद्ध पाठक को खल सकते हैं. फिर ऐसा भी लगता है कि इस संपादन के पीछे नाटक की व्याख्या से ज्यादा दबाव प्रस्तुति की सुविधा और सीमाओं का है.

निश्चय ही रचना और मंचन के बीच- पाठ और प्रस्तुति के बीच- हमेशा एक फांक रह जाती है और हर पाठक या दर्शक का अपना एक पाठ, अपना एक मंचन होता है, लेकिन किसी निर्देशक की एक चुनौती यह भी होती है कि वह अपना एक ऐसा पाठ तैयार करे जो देखने वालों के भीतर किसी नव्यता, किसी उपलब्धि का बोध कराए. भानु भारती इस प्रस्तुति की बहुत सारी विशेषताओं के बावजूद इस स्तर पर हमें कुछ निराश करते हैं. बहरहाल, ऐसा नहीं कि दिल्ली में अंधा युग का नए सिरे से मंचन कोई बड़ी सांस्कृतिक परिघटना हो. दिल्ली एक तरह से संस्कृतिकर्म की भी राजधानी है- वहां लगभग रोजाना संगीत, नृत्य, साहित्य और रंगमंच से जुड़ी गतिविधियां किसी भी दूसरे शहर के मुकाबले कहीं ज्यादा घटित होती हैं. यह अलग बात है कि इन सब पर भी एक तरह की सांस्थानिक जड़ता हावी है, जो इस वजह से कुछ और बड़ी हो जाती है कि बाकी दिल्ली इसे देखने, सुनने, इसका आस्वाद लेने को तैयार नहीं. यह एक तरह से संजय की ही पीड़ा रह जाती है- उन अंधों के सामने सत्य कहने की मजबूरी जो इसे देखने और महसूस करने लायक नहीं. देखें, यह अंधा युग कब तक चलता रहता है.