सही और ग़लत के पार : रॉकस्टार

फिल्म रॉकस्टार 

निर्देशक इम्तियाज अली

कलाकार रणबीर कपूर, नरगिस फाखरी, पीयूष मिश्रा, अदिति राव हैदरी, शम्मी कपूर

जनार्दन जाखड़ पागल है और उसे इस पर गर्व है. वह लड़की, जिसके लिए उसे लगता है कि जो क्लास बंक करके गोलगप्पे खाने को पागलपन समझती है, उससे वह आंखों में आंखें डालकर कहता है कि गर्लफ्रेंड बन जा मेरी. उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसके अक्खड़ लहजे और एक्स्ट्रा टाइट जींस पर आसपास के लोग हंस रहे हैं. इसी तरह उसे बाद में अपने दीवानों की भीड़ से कोई फ़र्क नहीं पड़ता और वह उन्हें मिडल फिंगर दिखाता है. वह किसी भी क्षण आपकी महफिल छोड़कर जा सकता है, गाना पूरा होने से पहले ही स्टेज छोड़कर आ सकता है और उस लड़की को चूम सकता है जिससे उसने रूमी के शब्दों में वादा किया है कि सही और गलत के पार जो मैदान है, उससे वो एक दिन वहाँ मिलेगा. वह शराब की कुछ बूंदें अपने चेहरे पर छिड़ककर अपने दोस्तों को तसल्ली करवा देता है कि उसने पी ली है. और नशा तो उसकी आत्मा में है ही.

वह कलाकार है और इम्तियाज उसके बनने और होने की कहानी बिना स्टीरियोटाइप चक्करों में पड़े कहते हैं. रॉकस्टार बनने के लिए जनार्दन जाखड़ को अंग्रेजी बोलने और गांजा पीने की ज़रूरत नहीं है. उसे बस इश्क की ज़रूरत महसूस होती है और उसमें दिल के टूटने की. और यहीं नरगिस फाखरी फिल्म में आती हैं और उनके बर्बाद किए हुए दृश्यों को बचाने के लिए रणबीर कपूर अपनी एक्टिंग में दुगुनी जान फूंकते हैं.

रणबीर कपूर ऐसा काम करते हैं, जिसके लिए आप उन्हें बार बार उसी तरह सीने से लगाना चाहते हैं जैसे फिल्म की हीरोइन हीर चाहती है. इम्तियाज की बाकी फिल्मों की तरह उनकी पहचान, उनके डायलॉग इस फिल्म में उभरकर नहीं आते (शायद यह जानबूझकर ही किया गया है और कुछ जगहों को छोड़ दें तो इससे फिल्म अलग भी दिखती है और अच्छी भी) और हर जगह उस जगह को भरने के लिए रणबीर आते हैं. अपने जुनून से लेकर बेपरवाही और अपने अन्दर लगी आग तक वे हूबहू वही हैं, जो जनार्दन जाखड़ होता. वे ऐसे इक्का दुक्का स्टारपुत्रों में से हैं जिनके मुंह की चम्मच ही सोने की नहीं है, वह सोना उनके काम में भी है. मोहित चौहान इस फिल्म के लिए बिल्कुल मुफ़ीद आवाज़ हैं और उनकी आवाज़ के लिए रणबीर बिल्कुल मुफ़ीद अभिनेता. इरशाद कामिल और ए आर रहमान के गाने फिल्म की जान हैं और शायद यह इम्तियाज की पहली फ़िल्म है, जिसमें वे ख़ुद उभरकर सामने नहीं आते बल्कि परतों के पीछे खड़े रहते हैं.

यह इम्तियाज की अब तक की सबसे अमूर्त फ़िल्म है. बहुत सारी बातों और घटनाओं से बचती हुई, दरगाह और स्टेज पर एक सी शिद्दत से वक्त बिताती हुई, बार बार अपने गहरे दृश्यों पर लौटती हुई, अपने अंत पर चौंकाने से बचती हुई और शाश्वत सन्नाटे को अपने परदे पर दिखाने की हर संभव कोशिश करती हुई जिसमें वह कहीं कहीं नाकाम होती है.

रॉकस्टार इम्तियाज़ की पिछली फ़िल्मों से मुश्किल फ़िल्म है और उन पर यह ज़िम्मेदारी भी है कि उन्हें अपने आपको दोहराना नहीं है. हालांकि अपनी प्रेमकहानी में वे पूरी तरह इससे बच नहीं पाते, लेकिन फिर भी वे अपने स्त्री किरदार को थोड़ा अलग बनाते हैं. मगर नरगिस की खराब एक्टिंग उसे सपाट बना देती है. कमियाँ आरती बजाज की लापरवाह लगती एडिटिंग की वज़ह से भी हैं और आखिरी एक तिहाई हिस्से में स्क्रिप्ट में भी, लेकिन फिर भी रॉकस्टार ईमानदार है, पागल है और प्यारी भी. वह भागती नहीं और न ही लोकप्रिय हिन्दी फिल्मों की तरह आपके सामने हाथ जोड़कर खड़ी होती है. अर्जियों की सब परंपराओं को फाड़ती हुई वह अपनी मर्जी की जगह पहुंचती है जहां कॉंन्ट्रेक्ट के कागज, जानलेवा बीमारियाँ और मुझ जैसे समीक्षक नहीं हैं. जहां दुनिया अच्छी है.

– गौरव सोलंकी