पुरानी हवेलियां बूढ़ी औरतों सी होती हैं. इठलाते बचपन की तरह किसी ने उन्हें प्यार से उठाया. जवान अल्हड़ नक्काशियां की. उनकी चुनरी पर धानी, नीले, लाल और चटख रंग भरे. फिर इन नशीली हवेलियों ने बुढ़ापे का वो दौर भी देखा जब उनकी ड्योढ़ी की रौनक धीरे-धीरे कर खत्म होने लगी. कभी-कभी राजस्थान के राजपूताना किले, हवेलियां, शाही छतरियां और बावड़ियां, इतिहास की गाढ़ी मोटी जिल्द में लिपटी किसी किताब की कहानियों सरीखे भी लगते हैं, जिन्हें आज भी पढ़ा-सुना जा सकता है. और इन कहानियों के पात्र जैसे अब भी वहीं मौजूद हों…दीवारों पर बने भित्ति चित्रों की शक्ल में. दीवारों पर उकरे रंग. छतरियों पर छितरे रंग. छज्जों में छिपते रंग. आलों में खोए रंग. राजा रंग. दासी रंग. सैनिक रंग. सेठिया रंग. अगर मुझे कोई दोबारा व्याकरण गढ़ने की इज़ाजत दे दे तो इन हवेलियों में बैठकर मैं रंगों को यही नाम दे सकूंगा.
राजस्थान की जमीन पर कई जगह प्रकृति ने उजास रंग नहीं भरे तो यहां की आवारगी ने सतरंगी रंगों में सराबोर ‘सवा सेर सूत’ हर सिर पर बांध लिया. रंगों की इसी चाह ने रेतीले मटीले राजस्थान के हर घर को हवेली बना दिया और हर दीवार को आर्ट गैलेरी.
राजस्थान का शेखावाटी ‘ओपन आर्ट गैलेरी’ कहा जाता है. चुरू, झुंझनू और सीकर जिलों को मिलाकर एक शब्द में ‘शेखावाटी’ कहने का रिवाज है. इसी शेखावाटी में झुंझनू जिले का नवलगढ़ हर सुबह सूरज से रंगों की तश्तरी लेकर हर घर को हवेली बना देता है. नवलगढ़ में तकरीबन 700 छोटी-बड़ी हवेलियां हैं. हर हवेली की देहरी और उसके पार का चौबारा बातें करता है. अगर सिर्फ भव्य और बड़ी हवेलियों की बात करें तो भी 200 का आंकड़ा तो पार हो ही जाएगा. नवलगढ़ की हवेलियों के बारे में सुना था. पर जब देखने पहुंच गया तो लगा कि सावन का अंधा हो गया हूं. हर तरफ सिर्फ रंग ही रंग दिख रहे हैं. दीवारों पर उकरे रंग. छतरियों पर छितरे रंग. छज्जों में छिपते रंग. आलों में खोए रंग. राजा रंग. दासी रंग. सैनिक रंग. सेठिया रंग. अगर मुझे कोई दोबारा व्याकरण गढ़ने की इज़ाजत दे दे तो इन हवेलियों में बैठकर मैं रंगों को यही नाम दे सकूंगा. जितने रंग उतनी हवेलियां. जितनी हवेलियां उतनी कलाकारी. और जितनी कलाकारी उतनी कहानियां. ‘जित देखूं, तित तूं’ हर गली में हवेली. हर घर हवेली. मोरारका की हवेली… पोद्दार की हवेली… सिंघानिया की हवेली… गोयनका की हवेली… जबलपुर वालों की हवेली… जोधपुर वालों की हवेली… कलकत्ता वालों की हवेली… सेठ जी की हवेली… सूबेदार की हवेली… राजा की हवेली… हर मौसम की हवेली… जैसे पुराना रोम जूलियस सीजर जैसे उपन्यासों से झटके से बाहर उतर पड़ा है और हर काला हर्फ एक हवेली बन गया है.
नवलगढ़ के इन रंगमहलों को देखकर मन में सवाल हर घर हवेली. मोरारका की हवेली… पोद्दार की हवेली… सिंघानिया की हवेली… गोयनका की हवेली… जबलपुर वालों की हवेली… जोधपुर वालों की हवेली… कलकत्ता वालों की हवेली… सेठ जी की हवेली… सूबेदार की हवेली… राजा की हवेली… हर मौसम की हवेली…उमड़ने-घुमड़ने लगे- किसने बनवाईं इतनी हवेलियां? एक साथ… एक जैसी… और यहीं क्यों… इतनी सारी…
वहां के लोगों से पूछा- जितने मुंह उतनी कहानियां… हर कहानी की अलग वजहें… और हर वजह के अपने-अपने सवाल…मन नहीं माना तो किताबें कुरेदनी शुरू कीं. किसी ने बताया कि यहां से सिल्क रूट गुजरता था. दो सदी पहले तक यहां 36 करोड़पतियों के घराने थे. एक हवेली बनी. दूसरी बनी. तीसरी… चौथी और फिर पूरा शहर बस गया. खाटी हवेलियों का शहर. शेखावाटी के लिखित-अलिखित इतिहास के जानकारों के मुताबिक पन्द्रहवीं शताब्दी(1443) से अठारहवीं शताब्दी के मध्य यानी 1750 तक शेखावाटी इलाके में शेखावत राजपूतों का आधिपत्य था. तब इनका साम्राज्य सीकरवाटी और झुंझनूवाटी तक था. शेखावत राजपूतों के आधिपत्य वाला इलाका शेखावाटी कहलाया. लेकिन भाषा-बोली, रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा और सामाजिक-सांस्कृतिक एकरूपता होने के नाते चुरू जिला भी शेखावटी का हिस्सा माना जाने लगा. इतिहासकार सुरजन सिंह शेखावत ने अपनी किताब ‘नवलगढ़ का संक्षिप्त इतिहास’ की भूमिका में लिखा है कि राजपूत राव शेखा ने 1433 से 1488 तक यहां शासन किया. इसी किताब में एक जगह लिखा है कि उदयपुरवाटी(शेखावाटी) के शासक ठाकुर टोडरमल ने अपने किसी एक पुत्र को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने के स्थान पर ‘भाई बंट प्रथा’ (सभी बेटों में राज्य का बंटवारा) लागू कर दी. नतीजतन एक-एक गांव तक चार-पांच शेखावतों में बंट गया. इस प्रथा ने शेखावतों को राजा से भौमिया(एक भूमि का मालिक) बना दिया. ऐसा ही कुछ झुंझनू के उस वक्त के शासक ठाकुर शार्दूल सिंह ने किया और झुंझनू उनके पांच पुत्रों- जोरावर सिंह, किशन सिंह, अखैसिंह, नवल सिंह और केशर सिंह की भूमियों में बंट गया. नवल सिंह का नवलगढ़ उसी भाई बंट प्रथा का ही एक नमूना है. केन्द्रीय सत्ता के अभाव ने सेठ-साहूकारों और उद्योगपतियों को खूब फलने-फूलने का मौका दिया. हवेलियों के रंग पहले संपन्नता के प्रतीक बने, और फिर परंपरा बन गये. खेती करते हुए किसान से लेकर युद्ध करते सेनानी तक. रामायण की कथाओं से लेकर महाभारत के विनाश तक. देवी-देवताओं से लेकर ऋषि-मुनियों तक… पीर बाबा के इलाज से लेकर रेलगाड़ी तक… हवेली की हर चौखट, हर आला रंगा-पुता. इंसान की कल्पना जितनी उड़ान भर सकती है, इन हवेली की दीवारों पर उड़ी. जो कहानी चितेरे के दिमाग पर असर कर गई वो दीवार पर आ गई. जो बात दिल में दबी रह गई, उससे भी हवेली की दीवारों को रंगीन कर दिया गया…
आज़ादी के बाद हवेलियों के संपन्न मालिकों ने देश-विदेश के बड़े-बड़े शहरों का रुख किया और जितनी तेजी से एक हवेली को देखकर दूसरी बनी थी उसी तरह एक पर ताला जड़ा तो दूसरी हवेलियों के दरवाजे भी धड़ाधड़ बंद होने लगे. शेखावाटी की हवेलियों के रंग फीके पड़ने लगे हैं. अचानक जैसे इठलाती हवेलियां बूढ़ी हो गई हैं. इन बूढ़ी मांओं को सहारे की ज़रूरत है. जो इन्हें देखे… इनकी देखभाल करे.
देवेश वशिष्ठ खबरी