फिर गूंजा जीवन का कलरव

जुलाई 2008 : पांच साल से सूखे की मार ङोल रहे भरतपुर पक्षी अभ्यारण्य में उम्मीदें भी लगभग सूख चुकी थीं. मानसून के बादल दिखाई दिए तो हर साल की तरह उम्मीदभरी आंखों ने आसमान की तरफ देखा. इस बार इंद्र देवता ने उन्हें निराश नहीं किया और सूखी धरती को बारिश की फुहारों ने मानो नई जिंदगी दे दी. सबसे पहले भूरे बगुले पहुंचे. कुछ ही दिनों में कदंब के पेड़ों पर उनके हजारों बसेरे आबाद हो गए. उनका आना इस बात का संकेत था कि दूसरे मेहमान भी जल्द ही पहुंचने वाले हैं. यही हुआ भी और एक लंबे अंतराल के बाद केवलादेव घाना अभ्यारण्य जिसे आमतौर पर भरतपुर बर्ड सेंचुरी के नाम से जाना जाता है, पुराने रंग में लौट आया. जलकौवे, सारस, जलसिंघे, लकलक बगुले और ऐसे ही दूसरे भांति-भांति के पक्षियों के कलरव से यहां का माहौल जीवंत हो उठा. अब सर्दियों की दस्तक के साथ भरतपुर में प्रवासी पक्षियों का आना भी शुरू हो चुका है और उम्मीद की जा रही है कि पिछले कुछ सालों के सूनेपन को खत्म करते हुए साइबेरियाई सारस जसे मेहमान फिर से भारी संख्या में अपने इस दूसरे घर की तरफ आएंगे. 

आने वाले बुरे वक्त का संकेत तो 2002 की सर्दियों में ही मिल गया था जब अभ्यारण्य की पहचान साइबेरियाई सारस यहां नहीं पहुंचे. कई पक्षी विज्ञानियों की नजर में ये एक अपशकुन था.

पिछले कुछ साल इस अभ्यारण्य के लिए अच्छे नहीं रहे. वैसे आने वाले बुरे वक्त का संकेत तो 2002 की सर्दियों में ही मिल गया था जब अभ्यारण्य की पहचान साइबेरियाई सारस यहां नहीं पहुंचे. इससे पहले के सालों में उनकी संख्या लगातार घटकर इक्का-दुक्का ही रह गई थी. कई पक्षी विज्ञानियों की नजर में ये एक अपशकुन था. उनका डर सही साबित हुआ और 2004 के बाद से ये इलाका भयंकर सूखे की चपेट में आ गया. भरतपुर के जल स्रोतों का पानी सूखने लगा. इससे भी बुरा ये हुआ कि किसानों के विरोध और पानी पर हो रही राजनीति के चलते इस अभ्यारण्य को जरूरत के वक्त अजान बांध से मिलने वाला पानी भी बंद हो गया. इसके पीछे कारण ये था कि पिछले चार साल से बारिश कम हो रही थी और किसान अपने खेतों के लिए पानी की मांग कर रहे थे. 2005 में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने कहा कि उनकी प्राथमिकता अभ्यारण्य नहीं बल्कि लोग हैं. शायद वो इस बात को समझ नहीं पाईं कि अभ्यारण्य के दलदली इलाकों में आने वाला पानी भूमिगत जल के स्रोतों को रिचार्ज करता जिससे आस-पास के किसानों का ही फायदा होता. मगर राजनीतिक दबाव में ऐसा नहीं किया गया.

इसका नतीजा ये हुआ कि दलदली इलाके सूख गए. पानी नहीं रहा तो पक्षी भी अभ्यारण्य में नहीं आए. साइबेरियाई सारसों का आना तो बंद हो ही चुका था. बगुलों के घोंसले और बत्तखों के झुंड दिखने भी बंद हो गए. कभी यहां पक्षियों की 400 प्रजातियां बसेरा करतीं थीं मगर अब ये आंकड़ा सिमटकर पिछले साल 48 पर आ चुका था. जिस अभ्यारण्य में कभी अनगिनत पक्षी नजर आते थे वहां अब पक्षियों को उंगलियों पर गिना जा सकता था. दूसरी प्रजातियों का हाल भी बुरा था. खतरे में पड़ी शिकारी बिल्ली की संख्या भी बहुत कम हो गई थी और कछुओं को कीचड़ से भरे छोटे-छोटे गड्ढों में अपना अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद करते देखा जा सकता था. कभी जिंदगी से भरा-पूरा भरतपुर अब किसी कब्रगाह सरीखा दिखने लगा. बरसों से इस जगह को देखने वाले भोलू अबरार खान कहते हैं, ‘यहां बिल्कुल भी प्रजनन नहीं हो रहा था, ऐसे हालात में होता भी तो कैसे? न पानी था, न घास, न मछलियां.’

इन हालात के चलते पार्क पर आश्रित अर्थव्यवस्था ने दम तोड़ दिया. पर्यटकों को अभ्यारण्य के इर्दगिर्द घुमाने वाले रिक्शाचालकों में से एक रतन सिंह कहते हैं, ‘गिनती के पर्यटक रह गए थे. और जो आते भी थे निराश होकर लौटते थे. होटलों में कमरे खाली पड़े रहते थे.’

शुरुआती उपाय तात्कालिक थे. पार्क में ट्यूबवेल लगाए गए मगर उनके द्वारा उड़ेले गए पानी का ज्यादातर हिस्सा पार्क में घुस गए आवारा जानवरों के पेट में जाने लगा. चंबल से एक पाइपलाइन द्वारा पानी पहुंचाने के लिए राज्य सरकार द्वारा सुझई गई 100 करोड़ रुपये की खर्चीली योजना को विशेषज्ञों ने ठुकरा दिया. भारत में वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर के वेटलैंड्स प्रोग्राम के निदेशक डा परीक्षित गौतम कहते हैं, ‘भरतपुर को ताजे पानी की जरूरत है जो घास और चिड़ियों के भोजन यानी मछलियों का पोषण करता है. सुदूर चंबल से आने वाले पानी में ये खूबी नहीं होगी.’

एक गंभीर समस्या विलायती कीकर की थी. बहुत तेजी से फैलने वाला ये झड़ असल में दूसरे पेड़-पौधों को ठीक से पनपने नहीं देता. 2002 से 2005 के दौरान ही इसने अपना इलाका दोगुना कर लिया. मेसवाक जसे उपयोगी स्थानीय पेड़ों, जिन पर कई चिड़ियों का बसेरा होता है, पर इसका काफी बुरा असर हुआ. द भरतपुर इनहेरिटेंस  नामक किताब के लेखक विक्रम ग्रेवाल कहते हैं, ‘हालात इतने खराब थे कि लग रहा था जैसे ये इलाका विश्व धरोहर के अपने दर्जे को खो ही बैठेगा.’ राजस्थान के प्रमुख वन्यजीव वार्डन कहते हैं, ‘हम ऐसा कैसे होने देते.’

इसलिए अभ्यारण्य को फिर से उसके पुराने स्वरूप में लाने की लड़ाई शुरू हुई. पहला कदम था विलायती कीकर से मुक्ति पाना. इस दिशा में अनुभवहीनता को देखते हुए ये बहुत चुनौतीपूर्ण काम था. वन विभाग ने इसके लिए एक नया तरीका खोज निकाला जिससे स्थानीय गांववालों को काफी फायदा हुआ. अभ्यारण्य के आसपास के गांवों में आर्थिक विकास समितियां बनाई गईं. परिवारों को जमीन के निश्चित टुकड़े आवंटित किए गए जिनसे उन्हें विलायती कीकर हटाना था. इसके बदले में उन्हें लकड़ी दी गई. इस अभियान के द्वारा आठ किलोमीटर का इलाका साफ किया गया और इससे करीब एक लाख क्विंटल लकड़ी इकट्ठी की गई. कई स्थानीय लोगों ने इस अनपेक्षित लाभ का इस्तेमाल अपने पुराने कर्ज से छुटकारा पाने में किया. उदाहरण के लिए जटोली गांव के तुकीराम ने न सिर्फ कर्ज से मुक्ति पाई बल्कि अपना घर भी बना लिया.

हालांकि भरतपुर के पुराने दिन अभी भी कोसों दूर हैं मगर राहत की बात ये है कि इसके संकट से उबरने की शुरुआत तो हो ही चुकी है.

अब बची थी पानी की समस्या जो कहीं जटिल थी. इस साल वरुण देवता की मेहरबानी से ये संकट कम तो हुआ है मगर पूरी तरह से खत्म नहीं. जीवंत रहने के लिए भरतपुर को 550 एमसीएफ पानी की जरूरत होती है. इसका ज्यादातर हिस्सा अजन बांध से आता है. फिलहाल तीन चरणों में बांध से 450 एमसीएफ पानी छोड़ तो दिया गया है मगर पानी पर हो रही राजनीति को देखते हुए इस बांध अब ज्यादा दिन निर्भर नहीं रहा जा सकता. एक समाधान छिकसाना नहर है जिसका इस्तेमाल अजन बांध का अतिरिक्त पानी निकालने के लिए होता है. इसे अभ्यारण्य की तरफ मोड़ दिया गया जिसने 80 एमसीएफ पानी की पूर्ति कर दी. डा गौतम बताते हैं, ‘बाढ़ का पानी निकालने के लिए बनी एक ऐसी ही दूसरी नहर का भी इस्तेमाल करने की योजना है जिसके पानी पर कोई दावा नहीं करता. इसके लिए 17 किलोमीटर लंबे पाइप के जरिये उसका पानी पार्क तक लाना होगा. मुश्किल के समय में ये दोनों नहरें भरतपुर के काम आ सकती हैं.’ मेहरोत्रा कहते हैं, ‘सरकार ने इस योजना के लिए 12.46 करोड़ रुपये मंजूर कर दिए हैं. इसकी लागत करीब 65 करोड़ होगी और योजना आयोग बाकी की राशि देने पर सहमत हो गया है. हम काम शुरू कर चुके हैं और उम्मीद है कि अगले मानसून से पहले नहर तैयार हो जाएगी. भरतपुर को अब कभी भी प्यासा रहने की जरूरत नहीं होगी.’

हालांकि भरतपुर के पुराने दिन अभी भी कोसों दूर हैं मगर राहत की बात ये है कि इसके संकट से उबरने की शुरुआत तो हो ही चुकी है. विलायती कीकर के हटने और पानी के आने से भरतपुर में हजारों पक्षियों का कलरव फिर से गूंजने लगा है. भोलू सारस के एक घोंसले की तरफ इशारा करते हैं जिसमें मां अभी-अभी मछली लेकर लौटी है और उसके चार चूजे खाने के लिए शोर मचा रहे हैं. वो कहते हैं, ‘चार चूजे पैदा हुए और सारे जिंदा रह गए. इसका मतलब है कि पार्क में पर्याप्त खाना मौजूद है.’और भविष्य के लिए पर्याप्त उम्मीद भी.