रासायनिक खेती करने से लोगों की सेहत ख़राब हुई है। खेती की ज़मीन ख़राब हुई है। 06 अगस्त को चंडीगढ़ प्रेस क्लब में मीडिया से रूबरू होते हुए गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने बताया कि एक बार कुरुक्षेत्र के गुरुकुल में अपने खेतों में मज़दूरों से पेस्टिसाइड डलवाते समय एक मज़दूर बेहोश हो गया। तत्काल अस्पताल ले जाने के बावजूद उसे दो-तीन दिन बचाया जा सके। उसी समय मैंने सोचा कि कीटनाशक छिड़काव करने वाले की जान तक ले सकते हैं और मैं यह ज़हर फ़सलों में डलवा रहा हूँ। ज़हरीला अनाज, साग-सब्ज़ियाँ गुरुकुल में पढ़ने वाले मासूम बच्चों को खिला रहा हूँ। यह ठीक नहीं है। तब कभी रासायनिक खेती न करने का संकल्प लेकर मैंने कृषि वैज्ञानिकों की सलाह ली और उनके बताये अनुसार जैविक खेती शुरू की। पहले साल खेत से मुझे कुछ नहीं मिला। दूसरे साल जैविक कृषि से 50 फ़ीसदी तथा तीसरे साल 80 फ़ीसदी उत्पादन मिला। लेकिन खेती का ख़र्च कम नहीं हुआ। उस व$क्त विचार आया कि गुरुकुल की 180 एकड़ ज़मीन है, जिन किसानों के पास कुल दो-ढाई एकड़ ज़मीन है, यदि वे इस खेती को करेंगे और उनका उत्पादन नहीं होगा, तो वे गुज़ारा कैसे करेंगे? फिर मेहनत से सुधार करके जैविक खेती को सफल बनाया।
क़ुदरती खेती के बारे में विस्तार से बताया कि कैसे उन्होंने इसमें सफलता हासिल की। राज्यपाल का कहना है कि रासायनिक व जैविक खेती ग्लोबल वार्मिंग को जन्म देती है, जबकि क़ुदरती खेती उसे समाप्त करने का काम करती है। इसमें पानी की खपत 50 फ़ीसदी कम होती है तथा भूमिगत जल स्तर बढ़ता है। प्राकृतिक खेती से भूमि की उपजाऊ शक्ति बढ़ेगी। आने वाली पीढ़ियाँ को उपजाऊ भूमि मिलेगी। वह कहते हैं कि जब 50 साल पहले रासायनिक खेती नहीं होती थी तो कोई कैंसर, डायबिटीज, हार्ट अटैक और हाइपरटेंशन जैसे असाध्य रोगों को नहीं जानता था। इन रोगों के निदान के लिए अरबों-ख़रबों रुपये के मेडिकल संस्थान बनाये जा रहे हैं। भारत सरकार सवा लाख करोड़ रुपये वार्षिक यूरिया, डीएपी पर सब्सिडी देती है। यदि क़ुदरती खेती पर फोकस किया जाए, तो ये पैसा देश के अन्य विकास कार्यों के काम में आएगा। हम अगर अच्छा स्वस्थ खाना खाएँगे, तो बीमारियों से भी बचेंगे। हिमाचल के राज्यपाल रहते हुए उन्होंने क़ुदरती खेती के जो प्रयोग किये, उसके बारे में बताया कि वहाँ इस खेती से किसानों की 27 फ़ीसदी आय बढ़ी और 56 फ़ीसदी खेती की लागत कम हो गयी।
उन्होंने बताया कि चार वर्ष तक मैं हिमाचल का गवर्नर रहा। मैंने सोचा राज भवन में बैठकर क्या करूँगा। मैंने गाँव-गाँव घूमना शुरू किया। दो साल में मैंने लगभग 50,000 किसान इस खेती से जोड़ दिये। आज भी हिमाचल प्रदेश की सरकार इस अभियान को चलाए हुए है। लाखों किसान इससे अपनी आमदनी बढ़ा रहे हैं।
आचार्य देवव्रत ने कहा कि आज देश की अवस्था क्या है? देश को आगे कैसे बढ़ाया जाए? इस पर चिंतन होना चाहिए। जब मैं हिमाचल में राज्यपाल नियुक्त हुआ, तब वहाँ 15 अगस्त ऐट होम कार्यक्रम हुआ। फिर हिमाचल में नशा मुक्ति अभियान, पौधरोपण अभियान लंबे समय तक चलाकर 26 जनवरी ऐट होम का मैंने स्वरूप ही बदल दिया। मेरे क़ाफ़िले में तसला, फाबड़ा साथ रहते थे। रास्ते में जहाँ गंदगी दिखी, वहीं सफ़ाई करने में जुट जाता था। बाद में हमारा यह स्वच्छता अभियान काफ़ी लोकप्रिय हुआ। पिछले दिनों दिल्ली में राष्ट्रपति भवन में देश के सभी राज्यपालों के एक सम्मेलन में मैंने अपना प्रस्ताव रखा। अब यह स्वरूप सारे राष्ट्र में बदलने जा रहा है।
जैविक खेती में घाटा क्यों ?
भारत के खाद्यान्न भंडार को भरने के लिए मुख्य रूप से दो फ़सलें गेहूँ और धान का उत्पादन प्राप्त करने के लिए एक एकड़ भूमि में 60 किलो नाइट्रोजन की ज़रूरत पड़ती है। इसकी पूर्ति के लिए एक एकड़ में 300 कुंतल गोबर की खाद चाहिए। यदि किसान के पास एक एकड़ ज़मीन है, तो उसे इस खाद के लिए 15 से 20 पशु पालने होंगे। यदि ये खाद नहीं डाल सकते, तो वर्मी कंपोस्ट से भी इसकी पूर्ति हो सकती है। लेकिन जैविक कृषि में वर्मी कंपोस्ट बनाने वाला केंचुआ विदेश से आयात किया जाता है, जो मिट्टी नहीं खाता। केवल गोबर व काष्ठ ही खाता है। 16 डिग्री से नीचे और 28 डिग्री के ऊपर के तापमान में जीवित नहीं रहता। यह वर्मी कंपोस्ट खेत में डालने से खरपतवार बहुत पैदा होता है और उसे निकालने के लिए लेबर बहुत पड़ती है। तीसरा यदि 300 कुंतल गोबर की खाद एक एकड़ में डालेंगे, तो उसमें से निकलने वाली गैसें वायुमंडल में जाकर ग्लोबल वार्मिंग का कारण बनेंगी।
वैज्ञानिक आधार
कृषि विश्वविद्यालय, हिसार के माइक्रोबायोलॉजी के वैज्ञानिक डॉ. बलजीत सिंह सहारण और उनकी टीम ने गुरुकुल के खेतों में इस खेती का वैज्ञानिक ढंग से प्रयोग किया। रिसर्च के बाद पाया कि भैंस, बैल, हॉस्टन व जर्सी गाय के गोबर की अपेक्षा भारतीय नस्ल की देसी गाय के एक ग्राम गोबर में 300 करोड़ से भी ज़्यादा बैक्टीरिया हैं। उस टीम ने कुरुक्षेत्र ज़िले की पाँच तहसीलों के रासायनिक खेती करने वाले किसानों के खेतों से मिट्टी के सैंपल लेकर जाँच करवायी गयी, तो एक ग्राम मिट्टी में 30,05,000 सूक्ष्म जीवाणु पाये गये। इसी तरह वैज्ञानिकों ने गुरुकुल कुरुक्षेत्र के फार्म से पाँच जगह से मिट्टी के सैंपल लिए और उनका भी निरीक्षण करवाया, तो एक ग्राम मिट्टी में 181 करोड़ जीवाणु पाये गये। अत: रासायनिक खेती की अपेक्षा क़ुदरती खेती में सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या ज़्यादा पायी गयी।
भारत में सिर्फ़ 10 प्रतिशत लोग ही ऐसे होंगे, जिनके पास अथाह पैसा है। ज़ेहन में एक ही सवाल उठता है कि इन चंद अमीरों के पास इतना पैसा आया कहाँ से? इस बात का ही एक प्रतिशत ख़ुलासा विदेशी रिचर्स कम्पनी हिंडनबर्ग की हाल ही में आयी रिपोर्ट करती है, जिसमें अडानी समूह के द्वारा सेबी की चेयरपर्सन माधवी बुच से मिलीभगत करके अरबों रुपये के हेरफेर की घटना सामने आयी है। हिंडनबर्ग की रिपोर्ट इतनी चौंकाने वाली है कि केंद्र सरकार पर भी इसकी आँच आने लगी है। प्रधानमंत्री इस मामले में पहले ही बदनाम हैं कि अडानी उनके मित्र हैं और वह उन्हीं के लिए काम करते हैं। ऐसे आरोपों के बीच कोई सफ़ाई भी नहीं आती। अडानी भी कुछ नहीं बोलते और प्रधानमंत्री भी कुछ नहीं बोलते।
पिछले साल की ही बात है, हिंडनबर्ग कम्पनी ने एक रिपोर्ट जारी करके कहा था कि फेक कम्पनियों के ज़रिये करोड़ों रुपये का घोटाला-घपला हुआ है। इसके बाद अडानी ग्रुप की कम्पनियों को क़रीब 150 अरब डॉलर का नुक़सान हो गया था। अडानी ग्रुप के शेयर तीन महीने तक बुरी तरह लुड़कते रहे थे और 10 दिन के अंदर अडानी दुनिया के 20 टॉप अमीरों की लिस्ट से बाहर हो गये थे। हिंडनबर्ग की रिपोर्ट आते ही पहले ही महीने में अडानी ग्रुप को क़रीब 80 बिलियन डॉलर से ज़्यादा का नुक़सान हो गया था। अभी इसकी जाँच का मामला साफ़ नहीं हुआ था कि हिंडनबर्ग की एक और रिपोर्ट आ गयी, और अब एक सप्ताह से पहले एक और रिपोर्ट सामने आ गयी है।
हैरानी की बात है कि 03 जनवरी, 2024 को देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने अडानी ग्रुप पर लगे आरोपों की जाँच के लिए सेबी को इसकी जाँच तीन महीने में करके रिपोर्ट पेश करने का निर्देश दिया था। लेकिन अब हिंडनबर्ग का आरोप है कि अडानी और सेबी की प्रमुख माधवी बुच ही मिलकर खेल कर रहे हैं और शेयर मार्केट में लगा लोगों का पैसा लूटने का ये काम सेबी के ज़रिये चल रहा था; जो कि छोटी-छोटी बचत करके वो कुछ फ़ायदा कमाने के लिए लगाते हैं। ऐसा लगता है कि सेबी प्रमुख ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को भी गंभीरता से नहीं लिया। सेबी ख़ुद अडानी ग्रुप के घपले के 26 मामलों की जाँच कर रहा था, जिसमें 24 मामलों की जाँच हो चुकी है; लेकिन दो मामलों पर अभी जाँच रिपोर्ट आनी है। इसे सुप्रीम कोर्ट की अवमानना और सेबी प्रमुख के पद का दुरुपयोग करना ही कहा जाना चाहिए।
अब 10 अगस्त को हिंडनबर्ग ने अपनी ताज़ा रिपोर्ट में सेबी प्रमुख माधबी पुरी बुच के पास अडानी की ओर से इस्तेमाल किये जाने वाले ऑफशोर फंडों में हिस्सेदारी का आरोप लगाया है। हालाँकि सेबी प्रमुख माधवी बुच ने हिंडनबर्ग के आरोपों को नकार दिया है। अडानी ग्रुप ने भी अपने ख़िलाफ़ हिंडनबर्ग के आरोपों को पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया है। लेकिन अब यह मामला एक गहरी निष्पक्ष जाँच का हिस्सा बन चुका है। हिंडनबर्ग के आरोप दुर्भावनापूर्ण और शरारती हैं। लेकिन हिंडनबर्ग कम्पनी ने दावा किया है कि इस घोटाले के उसके पास बहुत सारे सुबूत हैं, जिन्हें वो बारी-बारी से जारी करेगी। हिंडनबर्ग ने इस रिपोर्ट में खुला चैलेंजिंग दावा किया है कि अडानी ग्रुप के द्वारा इस्तेमाल विदेशी फंडों में सेबी प्रमुख माधबी बुच की भी हिस्सेदारी है। अब अडानी ग्रुप को लेकर अमेरिकी शॉर्ट सेलर कम्पनी हिंडनबर्ग रिसर्च के आरोपों का मामला एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया है। देखना होगा कि इस बार सुप्रीम कोर्ट का इस मामले पर क्या फ़ैसला आता है?
लेकिन हिंडनवर्ग की ख़ुफ़िया जाँच न सिर्फ़ अडानी ग्रुप द्वारा शेयर मार्केट में किये जा रहे घोटालों की हक़ीक़त बताती है, बल्कि दूसरी कई बड़ी कम्पनियों की तरफ़ भी शक की सुई घुमाती है। सेंसेक्स में कम्पनियों को पता होता है कि उनके शेयर कैसे बढ़ाये जाएँगे और कैसे कमज़ोर किये जाएँगे। जब अचानक शेयर बाज़ार उछलता है, तब भी कुछ बड़े पूँजीपतियों के शेयर महँगे करने होते हैं। जब शेयर बाज़ार गिरता है, तब भी इसका फ़ायदा पूँजीपति ही उठाते हैं और घाटा होता है उसे, जो शेयर होल्डर थोड़ी-सी बचत को पैसा बढ़ने की उम्मीद लेकर ख़ून-पसीने की कमायी को शेयर बाज़ार में लगा देते हैं। इस तरह के जनता और सरकार को फँसाकर धनवान बने कई पूँजीपतियों पर हमने अपनी गहरी नज़र रखी हुई है, जिनमें से ज़्यादातर मुम्बई, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गोवा, दिल्ली और गुजरात के धनी व्यापारी हैं।
हिंदुस्तान में शिक्षा की जितनी कालाबाज़ारी होती है, शायद ही किसी दूसरे देश में होती हो। यहाँ शिक्षा को कुछ पूँजीपतियों और नेताओं ने कमायी का धंधा बना लिया है। हिंदुस्तान में ज़्यादातर प्राइवेट स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी माफ़िया के क़ब्ज़े में हैं, जिनमें ज़्यादातर नेता हैं। सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में ही क़रीब 60 फ़ीसदी प्राइवेट शिक्षा संस्थानों के मालिक नेता हैं। वहीं यहाँ के सरकारी शिक्षा संस्थानों की हालत उतनी अच्छी नहीं है। सरकार ने शिक्षा में सुधार करने की जगह उसे राम भरोसे छोड़ रखा है। कहीं अध्यापक कम हैं। कहीं बिल्डिंग जर्जर है। कहीं उचित टॉयलेट की सुविधा नहीं है। कहीं-कहीं तो बिल्डिंग इतनी जर्जर है कि स्कूल के बाहर छात्र-छात्राएँ खुले में पढ़ाई करने को मजबूर हैं। बहुत-से स्कूलों में एक-एक कमरे में क्षमता से ज़्यादा बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं। इन सरकारी शिक्षा संस्थानों में शिक्षा से लेकर व्यवस्था तक में सुधार करने की ज़िम्मेदारी भी सरकार, उसके मंत्रियों, विधायकों और सांसदों की ही है। लेकिन ये सरकारी शिक्षा संस्थानों में कभी कोई सुधार या काम नहीं करना चाहते; क्योंकि अगर सरकारी शिक्षा व्यवस्था अच्छी होगी, तो फिर इनका शिक्षा की कालाबाज़ारी का धंधा तो चौपट ही हो जाएगा। इसलिए आज सरकारी स्कूलों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटी में अव्यवस्था बढ़ रही है। या फिर उन्हें धीरे-धीरे बंद करने की साज़िशें चल रही हैं, जिससे इन नेताओं के अपने प्राइवेट शिक्षा संस्थान चल सकें।
बहरहाल उत्तर प्रदेश के प्राइवेट स्कूलों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज के मालिक मोटी फीस और तमाम तरह के ख़र्चे अच्छी पढ़ाई के नाम पर छात्रों से वसूलने के साथ-साथ ड्रेस से लेकर पूरी स्टेशनरी उन्हें बेचकर लाखों से करोड़ों रुपये महीने की कमायी कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के ज़्यादातर पार्टियों के नेता कई-कई स्कूलों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज के मालिक हैं। ऐसा भी नहीं है कि इनके शिक्षा संस्थानों में बच्चों के भविष्य यानी करियर की बहुत अच्छी संभावनाएँ हों।
दरअसल इन नेताओं को स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी चलाने का लाइसेंस काफ़ी आसानी से मिल जाता है। ग़रीब की तो बात ही इस मामले में नहीं कर सकते; लेकिन किसी मध्यम वर्गीय आम आदमी के लिए लाइसेंस लेना तक़रीबन नामुमकिन है। क्योंकि पहली बात तो यह है कि अब स्कूलों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटी को खोलना ही बहुत महँगा है; और दूसरी बात यह है कि सरकारी शिक्षा विभाग की इन संस्थानों को चलाने के लिए लाइसेंस देने की प्रक्रिया बहुत कठिन है। इसलिए अगर लाइसेंस लेने की चाहत रखने वाले की किसी नेता या शिक्षा मंत्रालय तक अच्छी पकड़ न हो, तो उसे लाइसेंस शायद न मिले। लेकिन वहीं नेताओं के पास न सिर्फ़ भरपूर पैसे हैं, बल्कि पहुँच भी है। जो नेता सीधे सरकार में ही हैं, उनके लिए किसी स्कूल या कॉलेज या यूनिवर्सिटी का लाइसेंस लेना बाएँ हाथ का खेल है। या यह कहें कि ऐसे नेताओं की फाइल कहीं नहीं अटकती। इसलिए उत्तर प्रदेश में प्राइवेट स्कूलों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज की संख्या पिछले कुछ ही वर्षों में तेज़ी से बढ़ी है।
बहरहाल, अकेले उत्तर प्रदेश में 74,000 से ज़्यादा प्राइवेट स्कूल हैं। इसमें 50,000 स्कूलों के मालिक नेता हैं, जिसमें लगभग सभी पार्टियों के नेता हैं। इसके अलावा 20,000 प्राइवेट इंटर कॉलेज और 7,000 से ज़्यादा प्राइवेट डिग्री कॉलेज और 35 प्राइवेट यूनिवर्सिटीज भी हैं। कई नेताओं के तो 50 से 100 स्कूल और कॉलेज तक हैं। 35 प्राइवेट यूनिवर्सिटीज में पाँच भाजपा और तीन सपा नेताओं की हैं, जबकि एक यूनिवर्सिटी बसपा नेता के पास है। इसी प्रकार से फ़िरोज़ाबाद के शिकोहाबाद में जेएफ यूनिवर्सिटी के प्रमुख डॉ. सुकेश यादव हैं। एफएफ यूनिवर्सिटी के मालिक डॉ. दिलीप यादव हैं। जौहर यूनिवर्सिटी के मालिक आज़म ख़ान हैं, जिसे बनाने के बाद उन पर ज़मीन क़ब्ज़ाने के गंभीर मामले दर्ज हुए। आज भी यह मामला कोर्ट में चल रहा है। देश की 35 यूनिवर्सिटीज में से तीन यूनिवर्सिटी मथुरा में ही हैं। गोरखपुर की महायोगी गोरखनाथ यूनिवर्सिटी है, जो गोरक्षा पीठ ट्रस्ट के अधीन है। अगर सरकारी शिक्षा संस्थानों की बात करें, तो उत्तर प्रदेश में कुल 172 राजकीय कॉलेज हैं। इसके अलावा सहायता प्राप्त कॉलेजों की संख्या 331 है। लेकिन प्राइवेट कॉलेजों की संख्या 7,372 है। इसी प्रकार से सरकारी यूनिवर्सिटीज में छ: सेंट्रल यूनिवर्सिटी, 34 स्टेट यूनिवर्सिटी, 35 प्राइवेट यूनिवर्सिटी, आठ डीम्ड यूनिवर्सिटी हैं। इस प्रकार से उत्तर प्रदेश में कुल यूनिवर्सिटीज की संख्या 83 हैं, जबकि कुल डिग्री कॉलेजों की संख्या 7,875 है। उत्तर प्रदेश में 22 ऐसी यूनिवर्सिटीज हैं, जिनके प्रमुख या तो व्यवसायी हैं या फिर शिक्षा क्षेत्र से ही जुड़े हुए हैं। ये सभी लोग पैसे वाले हैं और नेताओं के काफ़ी क़रीबी हैं। हालाँकि बताया जाता है कि ये फ़ौरी तौर पर सीधे-सीधे किसी भी पार्टी से नहीं जुड़े हैं।
नेताओं के स्कूलों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज की संख्या की बात करें, तो महिला पहलवानों से छेड़छाड़ और अन्य के आरोपों से घिरे भाजपा नेता और पूर्व सांसद बृजभूषण शरण सिंह के गोंडा और बहराइच में 54 स्कूल और कॉलेज चल रहे हैं। भाजपा नेता और इसी पार्टी के पूर्व विधायक जय चौबे के संतकबीरनगर में 50 से ज़्यादा स्कूल और कॉलेज हैं। फ़तेहपुर के ज़िला पंचायत अध्यक्ष और भाजपा नेता अजय प्रताप सिंह के निजी स्कूल और कॉलेज 18 से ज़्यादा हैं। अमेठी के भाजपा नेता और पूर्व कैबिनेट मंत्री संजय सिंह के पास क़रीब 13 स्कूल और कॉलेज हैं। भाजपा नेता मनोज सिंह नौ कॉलेजों के मालिक हैं, जिनमें से उनके पास आठ निजी डिग्री कॉलेज, दो इंटर कॉलेज और एक आईटीआई कॉलेज है। हरदोई के भाजपा नेता और एमएलसी अवनीश प्रताप सिंह के पास भी हरदोई ज़िले में ही 10 से ज़्यादा स्कूल और कॉलेज हैं। भाजपा विधायक अनुराग सिंह के पास भी मिर्जापुर में पाँच डिग्री कॉलेज हैं। भाजपा नेता अजय कपूर फैमिली के पास भी कानपुर में केडीएमए चेन में 10 से ज़्यादा स्कूलों और कॉलेजों का मालिकाना हक़ है। भाजपा के ही एक अन्य नेता और मिर्जापुर से ज़िला सहकारी बैंक के चेयरमैन जगदीश सिंह पटेल के पास मिर्जापुर में सात स्कूलों और कॉलेजों का मालिकाना हक़ है। आगरा से विधायक भाजपा नेता छोटे लाल वर्मा पाँच स्कूलों और कॉलेजों के मालिक हैं। मिर्जापुर से विधायक और भाजपा नेता अनुराग सिंह पाँच निजी कॉलेज मिर्जापुर में चला रहे हैं। भाजपा नेता और पूर्व एमएलसी संजयन त्रिपाठी गोरखपुर में 10 से ज़्यादा स्कूलों और कॉलेजों के मालिक बने बैठे हैं। भाजपा नेता और पूर्व विधायक संजय गुप्ता के पास कौशांबी में चार इंटर कॉलेज हैं, एक डिग्री कॉलेज है और बोर्डिंग स्कूल भी है। भाजपा नेता और सुल्तानपुर से विधायक विनोद सिंह के पाँच स्कूलों और कॉलेजों के मालिक हैं। भाजपा नेता अरविंद बंसल के शामली में चार से ज़्यादा स्कूल और कॉलेज हैं। भाजपा नेता और सिद्धार्थनगर से सांसद जगदंबिका पाल के सूर्य ग्रुप ऑफ़ इंस्टीट्यूशन्स के नाम से कई स्कूल और कॉलेज हैं, जिनमें डिग्री कॉलेज और इंजीनियरिंग कॉलेज तक शामिल हैं। भाजपा नेता और जालौन से ज़िला पंचायत अध्यक्ष घनश्याम अनुरागी के जालौन में तीन कॉलेज हैं और इनका एक स्कूल भी है। संभल के भाजपा नेता अजीत यादव भी पास चार स्कूलों और कॉलेजों के मालिक हैं।
इसी प्रकार से बसपा नेता और पूर्व सांसद प्रत्याशी शिव प्रसाद यादव के पास मैनपुरी और इटावा ज़िलों में 100 से ज़्यादा स्कूल और कॉलेज हैं। शिव प्रसाद ने 2024 के लोकसभा चुनाव में बसपा के टिकट पर मैनपुरी से चुनाव लड़ा था। इसके अलावा बसपा के पूर्व विधायक लखीमपुर ज़िले के राजेश गौतम के पास चार स्कूल और कॉलेज हैं। सहारनपुर में बसपा नेता हाजी इक़बाल भी द ग्लोकल यूनिवर्सिटी के मालिक हैं। इसके अलावा सपा के प्रदेश सचिव डॉक्टर जितेंद्र यादव के पास 20 से ज़्यादा स्कूलों और चार कॉलेजों का मालिकाना हक़ है। उनके ज़्यादातर स्कूल फ़र्रुख़ाबाद में हैं। वहीं प्रतापगढ़ के सपा सांसद एस.पी. सिंह पटेल भी 13 स्कूलों और कॉलेजों के मालिक हैं। एलपीएस ग्रुप इन्हीं का है। एसपी सिंह पटेल लखनऊ में भी एक पब्लिक स्कूल के मालिक हैं।
सपा सरकार में मंत्री रहे सिद्धार्थनगर के माता प्रसाद पांडेय के पास भी पाँच स्कूल और कॉलेज हैं। सपा के दिग्गज नेता आज़म ख़ान के पास भी तीन स्कूल और एक यूनिवर्सिटी है। सपा विधायक राकेश प्रताप सिंह के अमेठी में तीन स्कूल-कॉलेज चल रहे हैं। सपा नेता और पूर्व ब्लॉक प्रमुख चंद्रमणि यादव के मऊ में चार स्कूल-कॉलेज चल रहे हैं। इसी प्रकार से प्रतापगढ़ से कांग्रेस सांसद प्रमोद तिवारी के प्रतापगढ़ में छ: से ज़्यादा स्कूल और कॉलेज हैं। वाराणसी के कांग्रेस नेता राजेश्वर पटेल के पास भी पाँच से ज़्यादा स्कूल-कॉलेज हैं। कानपुर के कांग्रेस नेता आलोक मिश्रा के कानपुर में ही डीपीएस ग्रुप के चार स्कूल चल रहे हैं। प्रयागराज की बारा सीट से अपना दल के विधायक वाचस्पति के 15 से ज़्यादा स्कूल-कॉलेज चल रहे हैं। बदायूँ के डीपी यादव के पास आठ स्कूल-कॉलेज हैं। वह सपा, बसपा और भाजपा समेत कई पार्टियों में रह चुके हैं। अभी उन्होंने राष्ट्रीय परिवर्तन दल बना लिया है। इसके अलावा जनसत्ता दल के प्रतापगढ़ के रहने वाले एमएलसी अक्षय प्रताप सिंह भी तीन स्कूलों के मालिक हैं।
हैरत की बात यह है कि स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी खोलने के नियम बहुत सख़्त हैं। लेकिन जिनकी पहुँच अच्छी है या जो ख़ुद ही सीधे सरकार में दख़ल रखते हैं, उन्हें लाइसेंस आसानी से मिल जाता है। इन लोगों के स्कूलों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज में भी नियमों को ताक पर रखकर बहुत कुछ होता है; लेकिन फिर भी उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती। क्योंकि इन शिक्षा संस्थानों से होने वाली अंधी कमायी में हिस्सेदारी भी होती ही होगी।
दरअसल, स्कूल या कॉलेज खोलने के लिए क़रीब 17 तरह के दस्तावेज़ ज़रूरी होते हैं, जिनमें ज़मीन की ख़रीद का एफिडेविट, बिल्डिंग का फिटनेस सर्टिफिकेट, कंप्लीशन सर्टिफिकेट, जल बोर्ड से जल परीक्षण रिपोर्ट, बिल्डिंग का साइट प्लान, बैंक से बनवाया गया एफडी के बदले में नो-लोन सर्टिफिकेट के साथ-साथ कई और दस्तावेज़ चाहिए होते हैं। इसके अलावा प्राइवेट स्कूल या कॉलेज या यूनिवर्सिटी चलाने के लिए शिक्षा विभाग के द्वारा जारी सख़्त दिशा-निर्देश और कई सख़्त नियमों का पालन करना होता है। मसलन अगर किसी को शहरी क्षेत्र में 5वीं तक का स्कूल खोलना है, तो उसके लिए स्कूल की बिल्डिंग के अलावा 500 वर्ग गज़ का खेल का मैदान होना ही चाहिए। इसी प्रकार से गाँव में स्कूल खोलना है, तो स्कूल की बिल्डिंग के अलावा 1,000 वर्ग गज़ का खेल का मैदान होना चाहिए। दोनों ही जगह पर कम से कम 270 वर्ग फुट के तीन क्लासरूम, 150 वर्ग फुट का एक स्टाफ रूम और 150 वर्ग फुट का एक प्रिंसिपल रूम होना चाहिए। इसी प्रकार से 8वीं तक के स्कूल में इन सबसे अलग 600 वर्ग फुट की एक विज्ञान प्रयोगशाला भी अनिवार्य है। इसके अलावा इन दोनों प्रकार के स्कूलों में एक 400 वर्ग फुट का अलग कमरा होना चाहिए। इसी प्रकार से शहर में कॉलेज खोलने के लिए 3,000 वर्ग मीटर और गाँव में कॉलेज खोलने के लिए मालिक या ट्रस्ट या कम्पनी या सामाजिक संगठन के पास कम-से-कम 6,000 वर्ग मीटर ज़मीन होनी चाहिए। सभी प्रकार के स्कूलों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज में बड़ी पार्किंग, बच्चों की सुरक्षा के पूरे इंतज़ाम होने चाहिए। प्री मेडिकल की व्यवस्था होनी चाहिए। लेकिन खेल के मैदान तो दूर की बात, उत्तर प्रदेश में ज़्यादातर स्कूल-कॉलेज छोटी-छोटी बिल्डिंगों में चल रहे हैं, जहाँ न कोई सुरक्षा इंतज़ाम है और न ही पार्किंग की ही व्यवस्था। कई स्कूल और कॉलेज तो भीड़भाड़ वाले इलाक़ों में बिलकुल सड़क पर बने हैं, जहाँ से तेज़ रफ़्तार से दिन भर वाहन गुज़रते हैं। उत्तर प्रदेश में क़रीब 80 फ़ीसदी से ज़्यादा स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटीज में सरकारी मानकों पर खरे नहीं उतर रहे है; लेकिन फिर भी धड़ल्ले से चल रहे हैं।
– भारत में बच्चों की जान जोखिम में डालकर चल रहे कई कोचिंग सेंटर्स
इंट्रो- भारत के सभी शहरों, क़स्बों और गाँवों में चलने वाले कोचिंग सेंटर्स में से ज़्यादातर सरकार के दिशा-निर्देशों को ताक पर रखकर चलाये जा रहे हैं। इसकी पड़ताल ‘तहलका’ रिपोर्टर ने ख़ुद एक कोचिंग सेंटर के मालिक से जानकारी लेकर की। हाल ही में दिल्ली में एक कोचिंग सेंटर में पानी भरने से आईएएस की तैयारी करने वाले तीन अभ्यर्थियों की डूबकर दु:खद मौत और छात्रों की आत्महत्या के बढ़ते मामलों के मद्देनज़र ‘तहलका’ द्वारा की गयी पड़ताल से पता चलता है कि कैसे ये कोचिंग सेंटर छात्रों की सुरक्षा और कल्याण सुनिश्चित न करके सरकारी दिशा-निर्देशों की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। तहलका एसआईटी की रिपोर्ट :-
‘कोचिंग सेंटर मृत्यु कक्ष बन गये हैं और छात्रों के जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।’ सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के ओल्ड राजिंदर नगर में एक कोचिंग संस्थान के बेसमेंट में आईएएस की तैयारी करने वाले तीन अभ्यर्थियों के डूबने की घटना के सम्बन्ध में केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार को समन जारी किया। मामले पर स्वत: संज्ञान लेते हुए न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने कहा कि यह घटना सभी के लिए आँखें खोलने वाली थी। पीठ ने कहा कि ‘यह भयानक है, जो हम पढ़ रहे हैं। अगर ज़रूरत पड़ी, तो हम इन कोचिंग सेंटर्स को भी बंद कर देंगे। फ़िलहाल कोचिंग ऑनलाइन होनी चाहिए, जब तक कि भवन नियमों और अन्य सुरक्षा मानदंडों का सावधानीपूर्वक पालन न हो। ये स्थान (कोचिंग सेंटर) मौत के घर बन गये हैं। कोचिंग सेंटर इन अभ्यर्थियों के जीवन से खेल रहे हैं, जो देश के विभिन्न हिस्सों से सपने लेकर आते हैं और कड़ी मेहनत कर रहे हैं।’
‘सरकारी अधिकारी सुबह 11:00 बजे, 12:30 बजे या अधिकतम 1:30 बजे तक औचक निरीक्षण के लिए आते हैं। उसके बाद वे जाँच के लिए नहीं आते। इसलिए मैं 16 साल से कम उम्र के नाबालिग़ छात्रों को अपने कोचिंग सेंटर में प्रवेश दूँगा और उनकी कक्षाएँ दोपहर 3:00 बजे आयोजित करूँगा; जिस समय कोई सरकारी अधिकारी जाँच के लिए नहीं आता है। एक दिन कुछ सरकारी अधिकारी निरीक्षण के लिए मेरे कोचिंग सेंटर में आये; लेकिन मैंने अपने सेंटर के ख़िलाफ़ किसी भी कार्रवाई को रोकने के लिए उन्हें रिश्वत दी।’ दिल्ली-एनसीआर में एकलव्य नाम के कई कोचिंग सेंटर्स के मालिक प्रशांत (उनके पहले नाम से जाना जाता है) ने ‘तहलका’ के अंडरकवर रिपोर्टर से यह बात कही।
रिपोर्टर ने अपने दोस्त के 16 साल से कम उम्र के (काल्पनिक) बच्चों को नीट की तैयारी के लिए दाख़िला दिलाने के बहाने नोएडा के सेक्टर-15, एकलव्य की शाखा में प्रशांत से मुलाक़ात की। प्रशांत ने शिक्षा मंत्रालय के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करते हुए उन्हें प्रवेश देने पर सहमति व्यक्त की, जो पूरे भारत में किसी भी कोचिंग संस्थान में 16 वर्ष से कम उम्र के छात्रों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाता है। छात्रों की आत्महत्या के बढ़ते मामलों, आग की घटनाओं, कोचिंग सेंटर्स में सुविधाओं की कमी और उनके द्वारा अपनायी जाने वाली शिक्षण पद्धतियों की शिकायतों के बाद इस साल जनवरी में दिशा-निर्देश जारी किये गये थे। केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों के अनुसार, कोचिंग सेंटर 16 वर्ष से कम उम्र के छात्रों का नामांकन नहीं कर सकते, भ्रामक वादे नहीं कर सकते, या रैंक या अच्छे अंकों की गारंटी नहीं दे सकते। कोचिंग संस्थानों को विनियमित करने के लिए दिशा-निर्देश एक क़ानूनी ढाँचे के आवश्यक और निजी कोचिंग सेंटर्स की अनियमितताओं को प्रबंधित करने के लिए तैयार किये गये थे। इन दिशा-निर्देशों के बाद ‘तहलका’ ने यह देखने के लिए एक जाँच की कि कितने कोचिंग सेंटर सरकारी दिशा-निर्देशों का पालन कर रहे हैं। हमें आश्चर्य हुआ कि इस जाँच के दौरान ‘तहलका’ रिपोर्टर न जिन भी कोचिंग सेंटर्स से संपर्क किया, उनमें से किसी ने भी सरकारी दिशा-निर्देशों का पालन करने की ज़हमत नहीं उठायी। इनमें से लगभग सभी खुलेआम सरकारी नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं।
प्रशांत ने न केवल सरकारी दिशा-निर्देशों का उल्लंघन किया, बल्कि यह भी बताया कि कैसे उन्होंने अपने कोचिंग सेंटर को गुप्त रूप से संचालित करके सीओवीआईडी-19 लॉकडाउन के दौरान अधिकारियों को चकमा दिया। प्रशांत ने ‘तहलका’ रिपोर्टर से बात करते हुए कहा- ‘कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान मैं गुप्त रूप से अपना कोचिंग सेंटर चला रहा था। मैंने गेट पर एक आदमी को तैनात कर दिया, ताकि अगर कोई पुलिसकर्मी आये, तो मुझे सूचित कर सकूँ। अधिकारियों को गुमराह करने के लिए मैं अपने सेंटर की सभी लाइटें बंद कर देता था, ताकि उन्हें लगे कि मेरा कोचिंग सेंटर बंद हो गया है। लेकिन मैं सभी कक्षाएँ अपने केंद्र पर ले रहा था। मैंने छात्रों से कहा कि वे बैग नहीं, बल्कि कॉपी और पेन लेकर आएँ। इस तरह मैं लॉकडाउन के दौरान अधिकारियों की आँखों में धूल झोंकने में कामयाब रहा।’
नई दिल्ली के पुराने राजिंदर नगर में एक कोचिंग सेंटर में बाढ़ के कारण तीन यूपीएससी अभ्यर्थियों की मौत की दु:खद घटना को टाला जा सकता था, अगर प्रभारी अधिकारी शहर भर के कई कोचिंग सेंटर्स द्वारा किये गये सुरक्षा उल्लंघनों के बारे में सतर्क रहते। घटना के बाद ख़बरें आ रही हैं कि नोएडा और गुरुग्राम के कई अनियमित कोचिंग संस्थान जाँच के दायरे में हैं। यह पता चला है कि गुरुग्राम में 300 से अधिक कोचिंग सेंटर अग्निशमन विभाग से अनिवार्य अनापत्ति प्रमाण-पत्र (एनओसी) के बिना चल रहे हैं।
यह उजागर करने के लिए कि कोचिंग सेंटर किस तरह से सरकारी दिशा-निर्देशों का उल्लंघन कर रहे हैं; ‘तहलका’ रिपोर्टर ने प्रशांत से नोएडा के सेक्टर-15 में उनके एकलव्य कोचिंग सेंटर में मुलाक़ात की। ‘तहलका’ रिपोर्टर न उनके सामने एक काल्पनिक सौदे का प्रस्ताव रखा कि हमारे मित्र के बच्चे, जो 16 वर्ष से कम उम्र के हैं, नीट की तैयारी के लिए उनके कोचिंग सेंटर में दाख़िला लेना चाहते हैं। प्रशांत बच्चों का नामांकन करने के लिए सहमत हो गये, जो कि सरकारी दिशा-निर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन है कि कोई भी कोचिंग सेंटर 16 वर्ष से कम उम्र के बच्चों का नामांकन नहीं कर सकता है।
रिपोर्टर : ठीक है, …क्यूँकि उनको थोड़ा ये था कि गाइडलाइंस आयी हैं ना!
प्रशांत : कितने स्टूडेंट हैं?
रिपोर्टर : कम से कम 8-10 मिल जाएँगे।
प्रशांत : ले आइए, …विजिट करा दीजिए।
रिपोर्टर : दिखा देता हूँ बच्चों को भी, …पैरेंट्स को भी। हैं सब 14-15 साल के…।
प्रशांत : कहो तो मैं अपने टीचर्स से कहूँ, काउंसलिंग कर आए। ऐसी कोई जगह है, जहाँ सारे पैरेंट्स बैठ जाएँ?
रिपोर्टर : नहीं, ऐसी तो नहीं है। कहो तो पार्क में…?
प्रशांत : हाँ; पार्क भी चलेगा। हम खड़े होकर स्पीच दे सकते हैं।
रिपोर्टर : थोड़ा-सा वो यही सोच रहे थे, …जबसे सरकार की गाइडलाइन आयी हैं ना! …16 साल से कम एज के कोचिंग सेंटर में एडमिशन नहीं ले सकते। कहीं ऐसा न हो दिक़्क़त-परेशानी हो जाए? …ये है।
प्रशांत : 3:00 बजे के बाद हम कर सकते हैं। …आप उनको बता दीजिए। …अवेयर कर दीजिए।
रिपोर्टर : कन्फर्म कर दूँ?
प्रशांत : एक दम कर दीजिए सर!
जब प्रशांत 16 वर्ष से कम उम्र के बच्चों का नामांकन करने के लिए सहमत हो गये, तो उन्होंने अपने केंद्र में उन छात्रों के प्रबंधन के लिए अपनी योजना हमारे संवाददाता के साथ साझा की। उन्होंने बताया कि सरकारी अधिकारी आमतौर पर दोपहर 2:00 बजे से पहले औचक निरीक्षण करते हैं। इसलिए पहचान से बचने के लिए वह इन कक्षाओं को दोपहर 3:00 बजे निर्धारित करेंगे।
रिपोर्टर : अच्छा, हमारी सोसायटी में कई बच्चे हैं, जिनको नीट और जेईई की कोचिंग चाहिए; पर हैं वो नाइंथ में। …एज है उनकी कम, 15 साल से। …नाइंथ के हैं, 16 साल से कम, तो कैसे करोगे फिर आप?
प्रशांत : एक बार पूछ लेता हूँ XXXX सर से।
रिपोर्टर : xxxxx कौन?
प्रशांत : xxxxx सर अथॉर्टी में xxxx हैं। वो कह रहे थे ऐसा होगा, तो मेरे को बताना। बात कर लूँगा। यहाँ नोएडा अथॉरिटी में हैं। हो सकता है…।
रिपोर्टर : ठीक।
प्रशांत : स्कूल से बच्चा कै बजे आता है?
रिपोर्टर : स्कूल से आता है 1:00-1:30 पीएम।
प्रशांत : तो हम 3:00 बजे के बाद ही क्लास कर सकते हैं।
रिपोर्टर : ठीक है। …3:00 पीएम के बाद रख लेंगे।
प्रशांत : रख लेंगे। क्यूँकि 3:00 बजे तक जनरली सारे ऑफिसर्स घूमकर चले जाते हैं। विजिट तो होती हैं ना ऑफिसर की, वो 11:00 बजे, 12:00 बजे, मोस्टली ज़्यादा-से-ज़्यादा 1:30 पीएम से पहले…।
रिपोर्टर : अच्छा; इसका मतलब शाम को नहीं आते? शाम को कोई डर नहीं है?
प्रशांत : डर नहीं है।
रिपोर्टर : ओके, शाम को रखते हैं। …3:00 बजे के बाद।
प्रशांत : डन सर!
रिपोर्टर : फाइनल करूँ?
प्रशांत : हाँ, सर!
प्रशांत ने उल्लेख किया कि उनकी एक कक्षा शाम 4:00 बजे के बाद ख़ाली रहती है, जिससे रिपोर्टर ने परिसर के निरीक्षण के लिए ज़िम्मेदार अधिकारियों के बारे में पूछा। उन्होंने बताया कि ये निरीक्षण बेसिक शिक्षा कार्यालय (बीओ) के अधिकारियों द्वारा किये जाते हैं, जो ज़िला शिक्षा अधिकारी (डीओ) के आदेश पर कार्य करते हैं।
प्रशांत : और मेरा एक रूम ख़ाली भी रहता है अभी। …4:00 बजे से पूरी क्लास ख़ाली है।
रिपोर्टर : ये चेक करने वाले कहाँ से आते हैं?
प्रशांत : सर! ये बीओ से आते हैं।
रिपोर्टर : बीओ मतलब?
प्रशांत : बेसिक एजुकेशन ऑफिसर। …ये ब्लॉक लेबल पर होता है, और डीओ उसको ऑर्डर देता है। डिस्ट्रिक्ट एजुकेशन ऑफिसर…डीओ।
प्रशांत ने अब हमारे रिपोर्टर के सामने स्वीकार किया कि वह अपनी अवैध गतिविधियों को छुपाने के लिए सिस्टम में किस हद तक हेरफेर करता है। उन्होंने एक विशेष उदाहरण का ज़िक्र किया, जहाँ उन्होंने अपने कोचिंग सेंटर में औचक निरीक्षण के दौरान सरकारी अधिकारियों को रिश्वत दी थी, इस तथ्य को छुपाते हुए कि वह 16 साल से कम उम्र के छात्रों को निर्देश दे रहे थे। उन्होंने ख़ुलासा किया कि कैसे उन्होंने औचक निरीक्षण के दौरान माता-पिता के रूप में प्रस्तुत अधिकारियों की पहचान की थी, और कैसे उन्होंने जानकारी छिपाकर और बाद में बेसिक शिक्षा अधिकारी (बीएसओ) को रिश्वत देकर स्थिति को नियंत्रित किया था।
रिपोर्टर : वो (जाँच अधिकारी) आ चुके हैं, …वहाँ आपके इंस्टीट्यूट में?
प्रशांत : हाँ; एक बार आये थे बीओ और दो पुलिस ऑफिसर।
रिपोर्टर : आजकल बच्चों को देखकर एज ही पता नहीं चलती। बच्चों की फिजिक्यू ही ऐसी है, …सब बच्चे नहीं लगते।
प्रशांत : जब आये, तो मुझे बताया नहीं। जैसे आप कैसे पैरेंट्स बनके आये हो। पैरेंट्स ही हो?…हाहाहा (हँसते हुए)… वो पैरेंट्स बनके आये थे। हाँ; असल में तीनों बंदे, …एक यहाँ बैठे और दो यहाँ सोफे पर। अच्छा बाद में बताया- मैं बेसिक एजुकेशन का अधिकारी हूँ। …बहुत बाद में बताया। पूरा जायज़ा ले लिया मेरे से। वो तो अच्छा हुआ मैंने बताया नहीं, मैं पढ़ाता भी हूँ स्कूल के…, ये नाइंथ -टैंथ के बच्चों को।
रिपोर्टर : आपने नहीं बताया?
प्रशांत : हाँ; नहीं बताया। बोले आप पढ़ाते हो? मैंने कहा नहीं सर! फिर बोले- आप रजिस्ट्रेशन दिखाइए। मैंने बोला- ऐज अ पैरेंट आप रजिस्ट्रेशन कैसे देख सकते हो? आप मेरे वेबसाइट पर जाओ, सारा उसमें दिया हुआ है; आप देखो सर! उन्होंने कहा- अच्छा; बताइए आपने एमसीआर में रजिस्टर करवाया है? मैंने कहा- मैंने लोकल अथॉरिटी में कराया हुआ है। और एमसीआर के लिए फाइल दिया हुआ है सर! वहाँ भी सर हो जाएगी। मैंने सीए से बात कर ली है। बोले- लोकल अथॉरिटी में कराया है? मैंने कहा- कराया है सर! मैंने कहा- लोकल अथॉरिटी तो छोड़ो, मैंने भारत सरकार का अति शूक्ष्म लघु उद्योग होता है, उसमें भी कराया है। बोले- अच्छा, दिखाइए उसकी कॉपी। ड्राउर खोला, निकाला दिखा दिया। अच्छा; कोर्स का कुछ पूछ ही नहीं रहा है। जैसे आप पूछ रहे हो। मैं भई सोचूँ, बंदा कोर्स नहीं पूछ रहा है। ऊल-जुलूल पूछ रहा है। ये नहीं कराया, वो नहीं; …इधर-उधर का पूछ रहा है।
रिपोर्टर : आपको डाउट नहीं हुआ?
प्रशांत : मेरे को डाउट हुआ।
रिपोर्टर : ये भी तो पैसे उगाही के साथन हैं?
प्रशांत : फिर डाउट तब हुआ, जब दूसरा जो है ना! कोचिंग वाला, करियर लाउंचर, उसका फोन आया मेरे पास। ऐसा है, हम लोग की कोचिंग की एक टीम है, मीटिंग होती है ना हमारी सैटर्डे-संडे को, या तो सप्ताह में एक दिन, …या 15 दिन में। हम लोग आपस में मिलते हैं एक जगह कोचिंग संचालक होते हैं। उनका फोन आया, प्रशांत सर! वो चेक करने वाला आपके यहाँ आया क्या? मैंने पूछा, कौन? कितने बच्चें हैं? कि सर तीन बच्चे हैं। दो सर प्रिंसिपल और एक सर चेक शर्ट में, पीला-पीला शर्ट में, वो हैं बीएसओ साहब। वही थे। मैंने कहा सर! बीएसओ साहब आपको जो-जो पूछना है, डायरेक्ट पूछो। मैं सर पहचान गया आपको।
रिपोर्टर : अब तो चेहरा पहचान गये आप, …अब तो आ ही नहीं सकता कोई?
प्रशांत : मैंने कहा- आपको मैंने पहचान लिया अब बताओ क्या लोगे, …चाय-कॉफी? वो सर- कुछ नहीं, मैं बात कर लूँगा। उसको सर पैसा भी दिया था।
रिपोर्टर : किसको दिया?
प्रशांत : बीएसओ को, कुछ दे दिया मैंने. …मैनेज कर लो।
रिपोर्टर : मैंने यही तो बोला आपको, ये साधन हैं पैसा उगाही के….।
प्रशांत : हाँ।
प्रशांत ने उन युक्तियों पर भी प्रकाश डाला, जिनका उपयोग उन्होंने सरकारी अधिकारियों को औचक निरीक्षण के दौरान अपने केंद्र में 16 वर्ष से कम उम्र के छात्रों को खोजने से रोकने के लिए किया था। उदाहरण के लिए, उन्होंने आख़िरी केबिन में कक्षाएँ संचालित करने का उल्लेख किया, एक ऐसा स्थान जहाँ निरीक्षण दल शायद ही कभी पहुँचते हैं।
रिपोर्टर : नाइंथ-टैंथ की क्लास आप कैसे करते हो?
प्रशांत : क्लास सर अंदर होती हैं। लास्ट केबिन में। अगर नाइंथ का बच्चा होगा, उसका क्लास अलग लूँगा। टैंथ का होगा, उसका अलग लूँगा। एक साथ मर्ज नहीं किया जाएगा।
रिपोर्टर : हाँ; तो नाइंथ-टैंथ की एज होगी 15-16 साल।
प्रशांत : हाँ; उसको अलग-अलग क्लास में करवाएँगे।
रिपोर्टर : तो आप नाइंथ और टैंथ की यही कराते हैं क्लास?
प्रशांत : हाँ; अंदर है। थोड़ा ठीक रहेगा।
यह ख़ुलासा करते हुए कि कैसे वह 16 साल से कम उम्र के छात्रों का नामांकन करके सरकारी दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करते हैं; प्रशांत ने यह भी बताया कि कैसे उन्होंने कोरोना-काल में लगे लॉकडाउन के दौरान भी नियमों का उल्लंघन किया था। उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने अपने केंद्र में लाइटें बंद करके कक्षाएँ संचालित कीं और किसी भी पुलिस के आगमन के बारे में पहले से जानकारी देने के लिए गेट पर किसी को तैनात किया।
प्रशांत : कोरोना में तीन बार चेक करने आया। मैं ढीठ हूँ, अंदर से बंद करके पढ़ा रहा था बच्चों को।
रिपोर्टर : कोरोना में?
प्रशांत : जी सर! वो बड़े वाले रूम में, मतलब यहाँ पर सब लाइट ऑफ कर दिया, एक ऑफिस बॉय गेट पर रख दिया मैंने, …मैंने बोला- सायरन बजता देखे, तो मुझे बोलना आकर। मैं बच्चों को बोलता था, एक कॉपी लेकर आना, कोई बेग-वैग नहीं। कॉपी बच्चा लाता था, …लड़के भी लड़कियाँ भी। ख़ाली एक कॉपी, वो भी छुपाके, शक न हो।
अब, प्रशांत कोटा में छात्रों पर पड़ने वाले भारी दबाव पर प्रकाश डालते हैं, जो अपनी गहन कोचिंग संस्कृति के लिए जाना जाता है। वह बताते हैं कि पढ़ाई के लंबे और कठिन घंटे, माता-पिता और शिक्षकों दोनों की उच्च अपेक्षाओं के साथ मिलकर, छात्रों के लिए मानसिक रूप से तनावपूर्ण माहौल बनाते हैं। उनका सुझाव है कि यह छात्रों को कगार पर धकेल सकता है, जिससे गंभीर तनाव हो सकता है और कुछ मामलों में तो आत्महत्या भी हो सकती है। प्रशांत छात्रों को इस चुनौतीपूर्ण परिदृश्य से निपटने में मदद करने के लिए व्यक्तिगत परामर्श की पेशकश के महत्त्व पर भी बात करते हैं।
रिपोर्टर : कोटा में इतना दबाव क्यूँ बना देते हैं बच्चों पर?
प्रशांत : सर! चार घंटे कौन क्लास लेता है? लगातार 4:00-4:30 घंटे, …चार घंटा-पाँच घंटा, पैरेंट्स का ऊपर से भी दबाव रहता है। इस बार टेस्ट में अच्छे नंबर नहीं लाया ना! मैं बताऊँगा अभी। और टीचर भी दबाव में, टीचर इसलिए दबाव करता है, टीचर को रिजल्ट चाहिए। बच्चों पर मेंटली प्रेशर आ जाता है। … सुसाइड करेगा, क्या करे? अब मैं इस लड़की को बार-बार बोलूँ- अरे तू फेल होगी, मैं इसलिए बैठा हूँ क्या? मैं तो कहूँगा ना! आप अच्छा करोगे, बहुत अच्छा करोगे। …इस तरह से बोलूँगा। इसलिए हम अपने बुक में लिखते हैं, पर्सनल मेंटर्शिप, पर्सनल लेवल पर भी गाइडेंस देते रहते हैं।
इसके बाद प्रशांत ने नाबालिग़ों को कोचिंग प्रदान करने के लिए विभिन्न कोचिंग शुल्कों का हवाला दिया। शुरुआत में एनईईटी कोचिंग के एक वर्ष के लिए 82,000 रुपये की माँग की। कुछ बातचीत के बाद उन्होंने नामांकन सुरक्षित करने के लिए छूट की पेशकश करते हुए क़ीमत घटाकर 71,500 रुपये कर दी। बातचीत से प्रशांत के अपने संकाय के साथ सावधानीपूर्वक समन्वय का भी पता चलता है, जो प्रतिशत के आधार पर काम करते हैं, और उनका आश्वासन है कि कक्षाओं के समय-निर्धारण में कोई समस्या नहीं होगी।
रिपोर्टर : चार्जेज कितना होगा सर?
प्रशांत : चार्जेज…, सर! एक बार मैं बात कर लेता हूँ अपनी फैकल्टी से, क्यूँकि वो पर्सेंटेज बेस पर हमारे यहाँ काम करते हैं।
रिपोर्टर : फिर भी, एक आइडिया टेंटेटिव?
प्रशांत : सर! दो मिनट का समय दीजिए, पूछ लेता हूँ। …सर! बच्चा नाइंथ से, टैंथ में जाएगा?
रिपोर्टर : हाँ, सर!
प्रशांत : इसमें सर ये ही है, …82 थाउजेंट लेते हैं। 82 के (हज़ार) पर ईयर।
रिपोर्टर : अच्छा; 82 के? …इसकी ज़्यादा है।
प्रशांत : बता रहा हूँ कैसे ज़्यादा है। और अभी सर हम उसका ले लेंगे 71,500 में। …डिस्काउंट दे रहे हैं।
रिपोर्टर : तो 72 के में बोल दूँ?
प्रशांत : हाँ; ईयरली, …रुपीज 71,500, ऊपर-नीचे हम देख लेंगे।
रिपोर्टर : डन कर दूँ फिर?
प्रशांत : हाँ; कर दीजिए। देख लेंगे अभी कैमिस्ट्री वाले को भी बुला लेंगे, …फिजिक्स वाले की क्लास चल रही है।
रिपोर्टर : आपके कोचिंग सेंटर में कोई दिक़्क़त तो नहीं होगी?
प्रशांत : नहीं, कोई दिक़्क़त नहीं है।
प्रशांत : 3:30 पीएम बजे के बाद कभी भी उसको ले सकते हैं।
पता चला है कि इस साल अकेले कोटा में नीट-जेईई की तैयारी कर रहे 15 छात्रों की आत्महत्या से मौत हो गयी है, जबकि पिछले साल शहर में ऐसी 27 मौतें हुई थीं। अधिकारी कोचिंग सेंटर्स के उच्च दबाव वाले माहौल से उत्पन्न होने वाले मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी मुद्दों के समाधान के लिए काम कर रहे हैं। 27 जुलाई को पास के नाले के फटने से कथित तौर पर तीन छात्रों की मौत हो गयी और कई अन्य फँस गये, जिससे दिल्ली के ओल्ड राजिंदर नगर में यूपीएससी उम्मीदवारों के लिए एक कोचिंग संस्थान के बेसमेंट में बाढ़ आ गयी। चौंकाने वाली घटना पर प्रतिक्रिया करते हुए, छात्रों ने कोचिंग सेंटर के बाहर विरोध-प्रदर्शन और नारे लगाये और मौतों के लिए जवाबदेही की माँग की।
देश भर में कोचिंग सेंटर्स को विनियमित करने के प्रयास में शिक्षा मंत्रालय ने इस साल जनवरी में 16 वर्ष से कम उम्र के छात्रों के नामांकन पर रोक लगाने के लिए दिशा-निर्देश पेश किये थे। हालाँकि हमारी जाँच से पता चला है कि कैसे कोचिंग सेंटर इन दिशा-निर्देशों का खुलेआम उल्लंघन करते हैं, यहाँ तक कि राजधानी दिल्ली में भी। इससे 500 किलोमीटर से अधिक दूर स्थित कोटा जैसे शहरों की स्थिति के बारे में चिन्ता पैदा होती है। पुराने राजिंदर नगर में दु:खद मौतों और कोटा में आत्महत्या की चल रही ख़बरों ने राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित किया है।
सरकार द्वारा इन मुद्दों को संबोधित करने और कोचिंग सेंटर्स पर प्रतिबंध लगाने के उद्देश्य से नियम लागू करने के बावजूद कोचिंग सेंटर्स ने आँखें मूँद ली हैं। कई अधिकारी भी दिशा-निर्देशों को सख़्ती से लागू करने में अनिच्छुक दिखायी देते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इन कोचिंग सेंटर्स को छात्रों के जीवन को ख़तरे में डालने वाला ‘मृत्यु कक्ष’ बताया है। क्या ‘तहलका’ की जाँच सरकार को दिशा-निर्देशों का पालन न करने वाले इन सेंटर्स के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई करने के लिए प्रेरित करेगी?
– तमाम दावों के बावजूद भारत में क्यों नहीं थम रहा है ट्रेन दुर्घटनाओं का सिलसिला?
हाल ही में मानसून सत्र के दौरान रेल मंत्री पीयूष गोयल ने लगातार हो रहीं ट्रेन दुर्घटनाओं को छोटी-मोटी घटनाएँ बताया। 12 फरवरी, 2021 को भी उन्होंने कहा था कि लगभग 22 महीनों में ट्रेन दुर्घटनाओं के कारण भारत में एक भी यात्री की मौत नहीं हुई है। साल 2019 में भी उन्होंने कहा था कि भारतीय रेल यात्रा को पहले से ज़्यादा सुरक्षित किया गया है। साल 2018 में भी उन्होंने कहा था कि रेल यात्रा को पहले से ज़्यादा सुरक्षित बनाया जा रहा है। तत्कालीन रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव संसद में दिए गये बयान के मुताबिक, साल 2022 में रेलवे ने क़रीब 5,200 किलोमीटर लंबी नयी पटरियाँ बिछायीं। मंत्री ने कहा था कि मोदी सरकार में हर साल क़रीब 8,000 किलोमीटर ट्रैक को अपग्रेड किया जा रहा है। 100 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ़्तार से चलने वाली ट्रेनों को समायोजित करने के लिए अधिकांश पटरियों को अपग्रेड किया जा रहा था। पटरियों के एक बड़े हिस्से को 130 किलोमीटर प्रति घंटा तक की गति के लिए बढ़ाया जा रहा था, और एक महत्त्वपूर्ण खंड को अपग्रेड किया जा रहा है। इन पटरियों को 160 किलोमीटर प्रति घंटा तक की हाई स्पीड के लिए तैयार किया जा रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पिछले पाँच-छ: वर्षों में तमाम ट्रेनों का, रेलवे स्टोशनों का उद्घाटन करने का रिकॉर्ड तोड़ा है। लेकिन रेलवे में सुधार के नाम पर वो नहीं हुआ, जिसकी उम्मीद थी। ट्रेन दुर्घटनाओं को लेकर उन्होंने भी आश्वासन दिया था। लेकिन किराया बढ़ गया, टिकट कैंसिलेशन चार्जेज भी ख़ूब बढ़ गये, लेकिन ट्रेन दुर्घटनाएँ नहीं रुकीं। वंदे भारत ट्रेन के पशुओं से टकराने पर डैमेज हो जाना और बारिश में इन ट्रेनों की छत का टपकना रेलवे के कामों की पोल खोलती है।
देश में लगातार ट्रेन दुर्घटनाएँ हो रही हैं। कुछ दिन पहले झारखण्ड के टाटानगर के पास चक्रधरपुर में दूसरी बार ट्रेन दुर्घटना हो गयी। इस दुर्घटना में हावड़ा से मुंबई जा रही हावड़ा-सीएसएमटी मेल के 18 डिब्बे पटरी से उतर गये है। इस हादसे में कम-से-कम दो यात्रियों की मौत हो गयी, जबकि 50 लोग घायल हो गये। इस दुर्घटना से दो दिन पहले ही इसी रूट पर एक मालगाड़ी पटरी से उतर गयी थी; लेकिन रेलवे ने इस दुर्घटना को नज़रअंदाज़ कर दिया और दो दिन बाद दूसरी दुर्घटना यात्री ट्रेन की हो गयी। 10 अगस्त के बाद दो ट्रेन दुर्घटनाएँ और हो गयीं। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, पिछले 14 महीने में देश में चार बड़ी ट्रेन दुर्घटनाएँ हुईं, जिनमें 320 से ज़्यादा रेल यात्रियों की जान चली गयी, जबकि इससे ज़्यादा लोग घायल हुए।
बता दें कि भारतीय रेलवे का रूट क़रीब एक लाख किमी से ज़्यादा लंबा है, जिस पर दौड़ती यात्री ट्रेनों में हर रोज़ ढाई करोड़ से ज़्यादा यात्री सफ़र करते हैं। इस लंबे रूट पर बिछी पटरियों की हर दिन जाँच होनी चाहिए; लेकिन ऐसा नहीं होता। पटरियों का टूटना, ट्रैक ख़राब होना और उनमें लगी लोहे की कीलों की चोरी होना ट्रेन दुर्घटनाओं की सबसे बड़ी वजह है। साल 2019-20 की रेलवे सुरक्षा रिपोर्ट में सरकार ने माना है कि इस साल 70 फ़ीसदी ट्रेन दुर्घटनाएँ ट्रेनों के पटरी से उतरने से हुईं। इतनी ट्रेन दुर्घटनाएँ साल 2018-19 की दुर्घटनाओं से ज़्यादा थीं। 22 फ़ीसदी ट्रेन दुर्घटनाओं ट्रेनों में 14 फ़ीसदी दुर्घटनाएँ आग लगने से और आठ फ़ीसदी दुर्घटनाएँ ट्रेनों में टक्कर होने से हुईं। बाक़ी आठ फ़ीसदी दुर्घटनाएँ दूसरी वजहों से हुईं। रिपोर्ट के मुताबिक, इस साल कुल 33 यात्री ट्रेनें और 40 मालगाड़ियाँ पटरी से उतरीं। इनमें से 17 ट्रेनें ख़राब ट्रैक होने के चलते पटरी से उतरीं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की साल 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2022 के मुक़ाबले साल 2021 में 38.2 फ़ीसदी ज़्यादा ट्रेन दुर्घटनाएँ हुईं। इस साल कुल 17,993 ट्रेन दुर्घटनाएँ हुईं, जिनमें से अकेले महाराष्ट्र में 19.4 फ़ीसदी ट्रेन दुर्घटनाएँ हुईं। पिछले दिनों की अगर बात करें, तो 14 जून को पश्चिम बंगाल के न्यू जलपाईगुड़ी में कंजनजंगा एक्सप्रेस टुर्घटनाग्रस्त हुई। इस दुर्घटना में कंचनजंगा एक्सप्रेस पटरी पर खड़ी थी और इसी ट्रेक पर एक मालगाड़ी आकर कंचनजंगा एक्सप्रेस के आखिरी तीन कोच बुरी तरह कुचलते हुए उस पर चढ़ गयी। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, इस दुर्घटना में 8 लोगों की मौत हुई और 40 से ज़्यादा लोग घायल हुए। हालाँकि स्थानीय लोगों के दावे कुछ और कह रहे थे। पिछले साल भी इस राज्य में एक भीषण ट्रेन दुर्घटना में दो ट्रेनों के टकराने 233 लोग मारे गये थे और कई घायल हो गये थे।
मोदी सरकार के पिछले 10 वर्षों में हुए बड़े ट्रेन हादसों की बात करें, तो केंद्र सरकार के रेल यात्रा को सुरक्षित बनाने की हकीकत समझ में आ जाएगी। 20 नवंबर 2016 को उत्तर प्रदेश के कानपुर में इंदौर-पटना एक्सप्रेस के पटरी से उतरने सें 150 लोगों की मौत हो गयी थी, जबकि सैकड़ों लोग इस दुर्घटना में घायल हुए। 21 जनवरी, 2017 को आंध्र प्रदेश के कुनेरू स्टेशन के नज़दीक जगदलपुर-भुवनेश्वर हीराखण्ड एक्सप्रेस केपटरी से उतरने पर 41 लोग मारे गये, जबकि इससे कहीं ज़्यादा घायल हुए। 19 अगस्त 2017 को उत्तर प्रदेश कें कथौली रेलवे स्टेशन के पास ट्रैक ख़राब होने के चलते कलिंगा-उत्कल एक्सप्रेस पटरी से उतर गयी थी। इस रेल दुर्घटना में 23 लोगों की मौत हो गयी थी और दज़र्नों लोग घायल हो गये थे। 16 अक्टूबर, 2020 को महाराष्ट्र के करमाड के पास हैदराबाद-मुंबई छत्रपति शिवाजी टर्मिनस एक्सप्रेस और हजूर साहिब नानदेड़-मुंबई छत्रपति शिवाजी टर्मिनस राजधानी स्पेशल के टकराने से हुई दुर्घटना में क़रीब 16 लोग मारे गये, जबकि दज़र्नों घायल हुए। 13 जनवरी, 2022 को पश्चिम बंगाल के अलीपुरद्वार में बिकानेर-गुवाहाटी एक्सप्रेस के 12 डिब्बे पटरी से उतरने सें नौ लोग मर गये थे और 36 घायल हुए थे। 02 जून, 2023 को ओडिशा के बालासोर में तीन ट्रेनें एक साथ टकराई थीं, जिससे 296 लोगों की मौत हो गयी थी और 1,200 से ज़्यादा घायल हुए थे। इस ट्रेन दुर्घटना में स्टाफ की ग़लती थी। क्योंकि इस ट्रेक पर पहले से ही एक मालगाड़ी खड़ी थी। कोरोमंडल एक्सप्रेस को पहले अप मेन लाइन पर जाना था, लेकिन ग़लती से इसे बगल की अप लूप लाइन पर ट्रेक दिखाकर भेज दिया। इससे यह यात्री ट्रेन वह पहले से वहां खड़ी मालगाड़ी से टकरा गयी और इसके 21 डिब्बे पटरी से उतर गये, जिसमें से तीन डिब्बे बग़ल की पटरी पर चल रही एक और ट्रेन एसएमवीटी बेंगलूरु-हावड़ा एक्सप्रेस के पिछले हिस्से से टकरा गये।
इसके अलावा 26 अगस्त, 2023 को तमिलनाडु के मदुरै रेलवे स्टेशन के पास लखनऊ से रामेश्वरम् जा रही ट्रेन में आग लगने से 10 लोगों की जलकर मौत हो गयी, जबकि दज़र्नों लोग झुलस गये। रेलवे रिपोर्ट के मुताबिक, आग निजी डिब्बे में गैस सिलेंडर होने के चलते लगी थी, जिसने बाद में कई डिब्बों को चपेट में ले लिय़ा था। 11 अक्टूबर, 2023 को बिहार के बक्सर में रघुनाथपुर स्टेशन के पास दिल्ली से कामाख्या जा रही नॉर्थ ईस्ट एक्सप्रेस के डिब्बे पटरी से उतर गये, जिससे 4 लोग मर गये और 100 से ज़्यादा घायल हो गये। कुछ ही दिन बाद 29 अक्टूबर, 2023 को कोथावलसा मंडल के अलमंदा-कंटाकापल्ली में विशाखा से पलासा जा रही एक विशेष यात्री ट्रेन सिग्नल न मिल पाने से पटरी पर रुक गयी कुछ ही देर में पीछे आ रही एक पैसेंजर ट्रेन ने इसे पीछे से टक्कर मार दी, जिससे आठ लोगों की मौत हो गयी और दज़र्नों घायल हो गये।
भारत में यह पहली बार नहीं है, जब ट्रेन दुर्घटनाएँ हुई हों, इससे पहले भी कई भीषण ट्रेन दुर्घटनाएँ हुई हैं; लेकिन हर साल दज़र्नों ट्रेन दुर्घटनाएँ होने के बावजूद केंद्र सरकार और रेल मंत्रालय दुर्घटनाओं को रोकने में नाकाम हैं। भारत में पिछले 42 वर्षों में 31 से ज़्यादा ट्रेन दुर्घटनाएँ हुई हैं। वहीं चीन, जापान और दूसरे कई देशों में ट्रेनों की स्पीड 150 किलोमीटर प्रति घंटे से 350 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार होने के बावजूद ट्रेन दुर्घटनाएँ नहीं होती हैं। जापान की बुलेट ट्रेन से प्रभावित होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ साल पहले भारत में बुलेट ट्रेन लाने का ऐलान किया था; लेकिन अभी तक बुलेट ट्रेन का कुछ अता-पता नहीं है।
साल 2016 में भारत के पूर्वोत्तर राज्य में आधी रात को 14 ट्रेन के डिब्बे पटरी से उतर गये। इस हादसे में 140 से ज़्यादा यात्री मारे गये, जबकि 200 यात्री घायल हो गये। उस समय के ज़िम्मेदार अधिकारियों ने कहा था कि पटरियों में फ्रेक्चर की वजह से हादसा हुआ। साल 2017 में दक्षिण भारत में देर रात ट्रेन के पटरी से उतरने से कम-से-कम 36 यात्रियों की मौत हो गयी थी और 40 अन्य घायल हो गये थे। पुरानी ट्रेन दुर्घटनाओं की बात करें, तो भारतीय रेल के इतिहास में सबसे ख़तरनाक दुर्घटना 1981 में हुई थी, जिसमें बिहार के पुल से गुज़रते हुए एक यात्री ट्रेन पटरी से उतरकर बागमती नदी में डूब गयीं। हादसे में 800 यात्री मर गये थे। कई लोगों की तो लाशें तक नहीं मिली थीं।
पिछले दिनों रेलवे बोर्ड के एक पूर्व अधिकारी ने ट्रेनों के पटरी से उतरने को रेलवे की सबसे बड़ी परेशानी माना था। उन्होंने कहा था कि पटरी से ट्रेन उतरने की कई वजह हैं। सबसे बड़ी वजह रेलवे ट्रैक पर मैकेनिकल फॉल्ट यानी रेलवे ट्रैक पर लगने वाले उपकरण का ख़राब हो जाना है। इसके अलावा ट्रैक का रखरखाव न होने, कोच ख़राब होने, और गाड़ी चलाने में ग़लती करने से भी ट्रेन दुर्घटनाएँ होती हैं। उन्होंने कहा कि ट्रेन दुर्घटनाएँ रोकने के लिए पटरियों की नियमित मरम्मत होती रहनी चाहिए। क्योंकि लोहे से बनी ट्रेन की पटरियाँ गर्मियों में फैलती हैं और सर्दियों में सिकुड़ती जाती हैं। इसलिए पटरियों का रखरखाव नियमित होना चाहिए। ढीले ट्रैक को कसा जाना चाहिए। स्लीपर बदलना चाहिए। ट्रैक का नियमित निरीक्षण पैदल चलकर या ट्रॉली और लोकोमोटिव से या ख़ाली इंजन से किया जाता रहना चाहिए, क्योंकि ज़रा-सी लापरवाही किसी बड़े हादसे की वजह बन सकती है। इसके अलावा पटरियों पर दरार पड़ने, ट्रेन के डिब्बों को जोड़ने वाले उपकरण के ढीला होने, ट्रेन की बोगी रखने वाले एक्सेल के टूटने से भी ट्रेन दुर्घटनाएँ होती हैं। सभी तरह की कमियाँ दूर करने का एक ही तरीक़ा है कि रेलवे लाइन पर मरम्मत काम हर दिन चलता रहे और थोड़ी भी गड़बड़ी नज़र आते ही उसे तुरंत ठीक किया जाए।
रेलवे के मुताबिक, भारत में हर दिन 12 करोड़ से ज़्यादा लोग 14,000 ट्रेनों से सफ़र करते हैं। रेल सुरक्षा में सुधार के दावों और कई प्रयासों के बावजूद हर साल दज़र्नों दुर्घटनाएँ होती हैं, जिनमें ज़्यादातर दुर्घटनाओं के बाद फिर से ग़लतियाँ दोहराने की बात सामने आती है। रेलवे स्टाफ की ग़लतियों और पुराने सिग्नलिंग उपकरणों के इस्तेमाल से दुर्घटनाओं का सिलसिला नहीं रुक पाता है। भारत में ट्रेन दुर्घटनाओं की वजह से नेहरू सरकार के दौरान रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने दुर्घटना को अपनी नैतिक ज़िम्मेदारी निभाने में कमी बताते हुए इस्तीफ़ा दे दिया था। इसके बाद अटल बिहारी की सरकार में रेल मंत्री रहे नीतीश कुमार ने भी एक ट्रेन दुर्घटना के बाद इस्तीफ़ा दे दिया था। लेकिन अब तो न रेल मंत्री इस्तीफ़ा देते हैं और न ही किसी ट्रेन दुर्घटना की ज़िम्मेदारी अपने सिर पर लेते हैं। पिछले नौ साल में मोदी सरकार ने चार रेल मंत्री बदले; लेकिन ट्रेन दुर्घटनाएँ नहीं रुकीं। साल 1947 में स्वतंत्रता के बाद बँटवारे में क़रीब 40 प्रतिशत रेलवे ट्रैक पाकिस्तान के हिस्से में चले जाने से भारत सरकार ने रेलवे लाइन बिछाने से लेकर ट्रेनों की संख्या बढ़ाने पर अरबों रुपये ख़र्च किये; लेकिन सुरक्षा के लिहाज़ से भारतीय रेलवे आज भी सवालों के घेरे में ही है।
सिर्फ़ छ: महीने पहले केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय देश भर में कोचिंग सेंटर्स को विनियमित करने के लिए बुनियादी ढाँचे की आवश्यकताओं, अग्नि शमन, भवन सुरक्षा कोड और अन्य मानकों पर दिशा-निर्देश लेकर आया था। हालाँकि ‘तहलका’ की जाँच से पता चला है कि कोई भी राज्य और केंद्र शासित प्रदेश इन मानदंडों को गंभीरता से नहीं ले रहा है। ‘तहलका’ के विशेष जाँच दल के लिए विचार करने के लिए यह पर्याप्त है कि कैसे कोचिंग सेंटर नियमों का घोर उल्लंघन करते हुए चल रहे हैं। कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय ने समान रूप से केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार को समन जारी करते समय यह टिप्पणी थी कि कोचिंग सेंटर ‘मृत्यु कक्ष’ बन गये हैं। बीते दिनों राज्यसभा में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी ज़ोर देकर कहा था कि ये केंद्र (कोचिंग सेंटर) गैस चैंबर से कम नहीं हैं।
हाल ही में दिल्ली के एक कोचिंग सेंटर में आईएएस की तैयारी कर रहे तीन अभ्यर्थियों की डूबने से हुई दर्दनाक मौत और छात्र आत्महत्याओं के बढ़ते मामलों के मद्देनज़र इस अंक की ‘तहलका’ की आवरण कथा ‘असुरक्षित कोचिंग सेंटर’ यह उजागर करती है कि कैसे ये कोचिंग सेंटर छात्र-छात्राओं की सुरक्षा और कल्याण को सुनिश्चित न करते हुए सरकारी दिशा-निर्देशों का मज़ाक़ उड़ा रहे हैं। शिक्षा राज्य मंत्री डॉ. सुकांत मजूमदार द्वारा संसद में दी गयी जानकारी से कोचिंग सेंटर्स के कारोबार में भारी वृद्धि का पता चला कि 2023-24 में कोचिंग व्यवसाय इससे पिछले वर्ष 2022-23 की तुलना में 149 गुना बढ़ गया था। नयी शिक्षा नीति में कोचिंग सेंटर्स पर निर्भरता कम करने वाली प्रणालियाँ पेश करने का दावा किया गया था; लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत।
‘तहलका’ के अंडरकवर रिपोर्टर को कई कोचिंग सेंटर्स के एक मालिक ने बताया कि कैसे सरकारी अधिकारी एक विशेष समय पर औचक निरीक्षण के लिए आते हैं और उसके बाद कोई चेकिंग नहीं होती। अगर कोई निरीक्षण होता भी है, तो कोचिंग मालिक किसी भी कार्रवाई से पहले ही बच निकलने में कामयाब हो जाते हैं। किसी भी कोचिंग सेंटर में 16 वर्ष से कम उम्र के छात्रों के प्रवेश पर रोक लगाने वाले दिशा-निर्देशों का पूर्ण उल्लंघन करने वाले इन कोचिंग सेंटर्स में इस आयु वर्ग के छात्रों की एक बड़ी संख्या देखी जा सकती है। छात्रों की आत्महत्या के बढ़ते मामलों, आग की घटनाओं, कोचिंग सेंटर्स में सुविधाओं की कमी और उनके द्वारा अपनायी जाने वाली शिक्षण पद्धतियों की शिकायतों के बाद इस साल जनवरी में दिशा-निर्देश जारी किये गये थे। आरोप है कि गुरुग्राम में 300 से ज़्यादा कोचिंग सेंटर अग्निशमन विभाग की एनओसी के बिना चल रहे हैं।
जब हमारी टीम आवरण कथा पर काम कर रही थी, कोलकाता में एक सरकारी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में स्नातकोत्तर प्रशिक्षु डॉक्टर की बलात्कार के बाद की गयी हत्या ने देश को झकझोरकर रख दिया। इस घटना से आक्रोशित डॉक्टर्स और मेडिकल छात्रों ने देशव्यापी विरोध-प्रदर्शन शुरू कर दिया। चौंकाने वाली बात यह है कि अनगिनत डॉक्टर्स मरीज़ों को बचाने के लिए अपनी जान की बाज़ी लगाते हैं; फिर भी चिकित्सा समुदाय असुरक्षित है। इसी दौरान एक और ख़बर सामने आयी कि हिंडनबर्ग रिसर्च ने सेबी की चेयरपर्सन माधबी बुच और उनके पति पर निशाना साधा है। हिंडनबर्ग एक अमेरिकी निवेश अनुसंधान फर्म है, जिसका फोकस शॉर्ट-सेलिंग पर है। हो सकता है कि वह पूरी तरह से बोर्ड से ऊपर न हो; लेकिन कोई भी आरोपों से आँखें नहीं मूँद सकता।
आइए, इंतज़ार करें और देखें कि ‘तहलका’ की पड़ताल और आसपास के अन्य घटनाक्रमों के बाद सरकार क्या प्रतिक्रिया देती है? आख़िरकार सीज़र की पत्नी संदेह से ऊपर होनी चाहिए। क्या बहुत ज़रूरी सुधार होंगे?
दुनिया में किसी भी सत्ता की ऊँचाई पर पहुँचे अयोग्य लोग कभी न्याय नहीं करते। ऐसे किंकर्तव्यविमूढ़ लोगों का अहंकार चरम पर रहता है। किसी पद पर पहुँचने वाले ऐसे लोगों ने अब तक न जाने कितने ही होनहार लोगों का जीवन तबाह कर दिया, और लगातार कर रहे हैं। संस्कृत में नये तरीक़े से कहा जा सकता है- अभिमानी कस्यचित् हानिं कर्तुं न संकोचयति अर्थात् अहंकारी व्यक्ति किसी का नुक़सान करने से भी नहीं चूकता है। असल में अहंकारी लोग साज़िश करते हैं और इस तरह से करते हैं कि अधिकांश लोगों को उनकी साज़िश का पता ही नहीं चलता। लेकिन समझदार और ईमानदार लोग ऐसे किसी भी चेहरे पर चढ़े हुए हर मुखौटों को उतार फेंकते हैं। इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन करने वाली भारतीय महिला पहलवान विनेश फोगाट के साथ जो हुआ, उसकी निंदा पूरे देश में हो रही है। सोशल मीडिया पर टिप्पणियों की बाढ़-सी आ गयी है। ऐसी साज़िशों की निंदा की भी जानी चाहिए। यह साज़िश सिर्फ़ विनेश के साथ ही नहीं हुई, पूरे भारत के साथ हुई है। भारत के नाम एक और स्वर्ण पदक जीतने की उम्मीद जगाने वाली विनेश का 100 ग्राम वज़न बढ़ा दिखाकर उन्हें अयोग्य खिलाड़ी साबित करने के षड्यंत्र ने पिछले साल की उनकी आशंका को सच साबित कर दिया। सेमीफाइलन में विनेश को जीत की बधाई न देना और बाहर होने पर षड्यंत्र पक्ष के लोगों का विनेश में ही दोष निकालना इसके प्रमाण हैं। कई अन्य विनेश-विरोधी गतिविधियों से विश्वास हो गया है कि उनके ख़िलाफ़ षड्यंत्र किया गया। षड्यंत्र होने का विश्वास इसलिए भी होता है कि जो खिलाड़ी अपनी एक दिन पहले की प्रतिस्पर्था में 50 किलो की थी और जिसने विश्व की सबसे बड़ी विजेता को हराया, वह जीतने के अगले दिन भी पहले 50 किलो की ही रहती हैं; लेकिन अंतत: 50 किलो 100 ग्राम की कहकर निकाल दी जाती हैं। उन्हें नंबर नहीं दिये जा रहे थे। साज़िश यहाँ तक हो रही है कि विनेश को रजत पदक देने से इनकार किया जा रहा है। लेकिन विनेश खेल से बाहर होकर भी जीत गयीं और दिलों में उन्हें जो जगह मिली है, वह स्वर्ण पदक से कहीं ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है।
पेरिस ओलंपिक-2024 के महिला फ्री स्टाइल 50 किलोग्राम की तीन प्रतिस्पर्धाओं में हिस्सा लिया। इसमें उन्होंने प्री-क्वार्टर फाइनल में 14 साल से लगातार जीतने वाली टोक्यो ओलंपिक की चैंपियन यूई सुसाकी को हराया। इसके बाद सेमीफाइनल में क्यूबा की युस्नेलिस गुजमैन लोपेज को 5-0 से हराया, जिसके बाद भारतीय पहलवान विनेश फोगाट फाइनल में पहुँचीं। लेकिन यहाँ 100 ग्राम वज़न के बहाने उन्हें प्रतिस्पर्धा से बाहर कर दिया गया। सार्वजनिक चर्चा है कि अब तक देश के लिए कई पदक जीतने वाली विनेश के साथ यौन उत्पीड़न के आरोपी बृजभूषण शरण सिंह के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के अंजाम में जो हुआ, वह ठीक नहीं है। 28 मई को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकतंत्र के मंदिर कहे जाने वाले 1,200 करोड़ रुपये की लागत से बने नये संसद भवन का उद्घाटन कर रहे थे, उससे पहले आधी रात को विनेश के साथ अपराधियों जैसा बर्ताव किया जा रहा था। विनेश को जूतों तले रौंदा जा रहा था और उनके साथ उस तिरंगे को भी जूतों तले रौंदा जा रहा था, जिसे लेकर वह धरने पर बैठी थीं। उस समय न केंद्र सरकार ने देश का मान बढ़ाने वाली इस पीड़ित बेटी की मदद की और न ही किसी न्यायिक संस्था ने ही न्याय किया। विनेश के ख़िलाफ़ उनका करियर चौपट करने के षड्यंत्र रचे गये। आरोपी बृजभूषण ने तो यहाँ तक कह दिया कि 15-15 रुपये में मेडल मिलते हैं। महिला पहलवानों को मेडल और इनाम की राशि लौटाने की हूल भी बृजभूषण ने दी। लेकिन ख़ुद सत्ता नहीं छोड़ी। जब हर तरफ़ से दबाव बना और न्यायालय ने पुलिस को मामले की जाँच के आदेश दिये, तब केवल भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दिया। इस सबका सही जवाब विनेश ने जब अपनी प्रतिभा से दिया है, जिससे कई लोगों के अहं को गहरा धक्का लगा है। लेकिन अफ़सोस कि विनेश की तरह ही देश की कई प्रतिभाओं का करियर चौपट करने वाले लोग आज ऊँचे ओहदों पर बैठे हैं। ऐसे क्रूर लोगों का कोई विरोध कर दे, तो उसी के ख़िलाफ़ झूठी एफआईआर और कार्रवाई की जाती है। इस बार की मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए की केंद्र्र सरकार ने आपातकाल लागू करने के दिन 25 जून को संविधान हत्या दिवस घोषित किया है। जबकि लोकतंत्र की हत्या के कई उदाहरण इसी सरकार के पहले से लेकर तीसरे कार्यकाल में अब तक सामने आये हैं; लेकिन इस पर चर्चा भी नहीं की जाती।
दु:खद यह है कि विनेश फोगाट अपने साथ हुए इस अन्याय का सदमा सहन नहीं कर सकीं और उन्होंने खेल-जगत से संन्यास ले लिया। सोचिए, उन्होंने अपना पूरा करियर दाँव पर लगाते हुए अब तक की सारी मेहनत और अपने सपनों का ख़ून करते हुए किस भारी मन से सोशल मीडिया अकाउंट पर लिखा होगा- ‘माँ! कुश्ती मेरे से जीत गयी, मैं हार गयी। माफ़ करना आपका सपना मेरी हिम्मत सब टूट चुके। इससे ज़्यादा ताक़त नहीं रही अब। अलविदा कुश्ती 2001-2024, आप सबकी हमेशा ऋणी रहूँगी। माफ़ी!’ इसके जवाब में यही कहना होगा- ‘तुमने दिल जीत लिये विनेश!‘
इस बार जाति की लड़ाई से संसद हलकान रही। ऐसा लगा कि राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श का एक ही और सबसे प्रमुख मुद्दा शेष है- जाति। जाति जनगणना, जाति आधारित आरक्षण, जाति आधारित प्रतिनिधित्व इत्यादि। एक देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए जातिवाद से अधिक शर्मनाक स्थिति नहीं हो सकती। कोई राहुल गाँधी की जाति पूछ रहा है, तो कोई सरकारी सचिव की। जबसे मोबाइल का डेटा सर्वसुलभ हुआ है, तबसे सड़कछाप इतिहासकारों की एक ऐसी प्रजाति पैदा हो गयी है, जो प्राचीन राजवंशों, सम्राटों की ही नहीं, बल्कि स्वतंत्रता आन्दोलन के क्रांतिकारियों की भी जाति निर्धारित कर रही है।
ख़ैर, मूल राजनीतिक विवाद का केंद्र बिन्दु है- जाति आधारित जनगणना। 2024 के आम चुनावों में कांग्रेस-सपा गठबंधन के अप्रत्याशित सफलता के बाद दोनों ही दलों ने जाति जनगणना को आधार बनाकर आक्रामक रूप से सरकार पर दबाव बनाने का प्रयास किया है, जबकि सरकार इस मुद्दे पर नकारात्मक दृष्टिकोण रखती है। लेकिन इसमें कोई दो-राय नहीं कि भाजपा ने भी जातिवाद का खेल कम नहीं खेलती है। विपक्ष से जनता को ढेरों उम्मीदें हैं कि वह एक सकारात्मक भूमिका निभाएगा; लेकिन उसके पास सरकार की कमियों और नाकामियों पर पूछने के लिए सैकड़ों सवाल होते हुए भी सवाल नहीं हैं। मेक इन इंडिया, मेड इन इंडिया, स्मार्ट सिटी, स्मार्ट गाँव, दो करोड़ रोज़गार, बढ़ती ग़रीबी, बढ़ती भुखमरी, चीन की घुसपैठ, आत्महत्या के बढ़ते मामले, सरकारी पदों को ख़त्म करने, सरकारी संपत्तियों की नीलामी, हर ज़िले में भाजपा के फाइव और सेवन स्टार होटलनुमा आलीशान कार्यालय, देश से पैसा लेकर भागने वालों की लंबी लिस्ट, देश पर बढ़ता क़र्ज़, ख़ाली होते बैंक, पूँजीपतियों की क़ज़र्माफ़ी, संसद की छत टपकना, किसानों पर अत्याचार, पेपरलीक, बढ़ती नशा$खोरी, शिक्षा क्षेत्र का महँगा होना, कम होते सरकारी स्कूल, शिक्षा पर जीएसटी, मणिपुर, चुनाव में गड़बड़ी, विपक्षी नेताओं को जेल भेजने से लेकर न जाने कितने ही ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर विपक्ष सवाल पूछ सकता है। लेकिन उसे अपने वोट बैंक की चिन्ता है और इसी के चलते वह जातिवाद पर अड़ा हुआ है। असल में विरासत में मिली राजनीति सत्ता प्राप्ति का हमेशा आसान विकल्प तलाशती है, जहाँ ज़मीन पर उतरकर ग़रीबी, अभाव, अवसंरचना, शिक्षा, स्वास्थ्य के मुद्दे पर संघर्ष के बजाय जाति, धर्म के आसान ज़हरीले वाचिक बातों से सत्ता का मार्ग तलाशा जाता है। इस समय कांग्रेस-सपा गठबंधन के नेतृत्व की भी यही स्थिति है। इसलिए सत्ता पक्ष के एक नेता ने नेता प्रतिपक्ष की जाति पूछी, तो सपा अध्यक्ष उत्तेजित हो गये कि आप उनकी जाति कैसे पूछ सकते हो? लेकिन यह महानुभाव देश के नागरिकों की जाति पूछने का कार्य संवैधानिक रूप से करना चाहते हैं।
हालाँकि इसमें कोई शक नहीं कि भारत के सार्वजनिक जीवन में एक दौर ऐसा रहा है, जब समाज के एक बड़े वर्ग को जन्मना सार्वजनिक जीवन में भेदभाव सहना पड़ा, उसे विकास के लाभ से वंचित रखा गया। लेकिन आज जो लोग रुदाली बने हुए हैं, वे न इसके भुक्तभोगी हैं और न जिन पर आरोप लगाये जा रहे हैं, वे इसके आरोपी हैं। हालाँकि कुछ उदाहरण हो सकते हैं, जिसमें उनके साथ अन्याय हुआ है और कई पिछड़े इलाक़ों में आज भी हो रहा है। लेकिन ज़्यादातर मामलों में वे अपने पूर्वजों की भूलों का परिमार्जन करते हुए, अपनी योग्यता और मैरिट को अपमानित करते हुए, आरक्षण के दावों को स्वीकार करते हुए सामाजिक समरसता में योगदान कर रहे हैं। लेकिन तब भी कुछ घटनाओं के लिए समूचे सवर्ण समाज दोषी क़रार देना भी तो ग़लत है। ज़रा सोचिए, आज आप जब सड़क पर गोलगप्पे, चाट खाने जाते हैं, किसी होटल में जाते हैं, तो क्या यह जानने का प्रयास करते हैं कि इसे बनाने और परोसने वाला कौन हैं? या कि आपकी बग़ल में खा रहा शख़्स कौन हैं? क्या स्कूल, कॉलेज, सिनेमा हॉल या किसी सार्वजनिक स्थल पर जाति परिचय के आधार पर प्रवेश दिया जाता है? असल में ऐसा नहीं होता। लेकिन आज जब जातिवाद काफ़ी हद तक ख़त्म होने की स्थिति में दिखायी देता है और केवल रिश्ता करने तक ज़्यादातर सीमित है, तब भी छुआछूत की भ्रामक दुष्प्रचार के आख्यान चरम पर सुनाये जाते हैं।
दुनिया विकास की राह पर दौड़ रही है, सभ्यता आधुनिकता के नये प्रतिमान गढ़ रही है; लेकिन भारत में पिछड़ा, अति पिछड़ा और दलित बनने की होड़ लगी है। कई सामान्य वर्ग के लोग भी आरक्षण के चक्कर में उनमें शामिल हो रहे हैं। हालाँकि अब तो सरकार ने सवर्ण ग़रीबों को भी ईडब्ल्यूएस के तहत 10 फ़ीसदी आरक्षण दिया हुआ है, जिसकी ग़रीबी का मानक निचले तबक़ों की अमीरी के मानक से तक़रीबन मेल खाता है। यानी यहाँ भी असमानता का एक पैमाना साफ़ दिखायी देता है। इसका मतलब यह है कि भारत में सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों ही जातिवाद के भेदभाव की राजनीति से अछूते नहीं हैं।
संभवत: भारतीय समाज दुनिया में इकलौता ऐसा समाज है, जहाँ पिछड़ेपन, वंचना को ग्लोरिफाइड एवं ग्लैमराइज किया जाता है। उस जातिवाद में भी धर्म का तड़का अलग ही है। अयोध्या बलात्कार कांड में आरोपी सपा का नेता मुसलमान है, इसलिए न कोई कांग्रेस-सपा का पिछड़ा नेता पहुँचा और न ही भीम आर्मी के दलित मसीहा। क्यों? क्योंकि यहाँ आरोपी कोई सवर्ण नहीं है। इसी तरह जब कोई सवर्ण अपराध करता है, तो भाजपा नेताओं में ख़ामोशी छा जाती है। यानी दोनों ही तरफ़ जातिवाद का समर्थन है। इसलिए भारत में जातिवाद छोड़कर एकता और एकतरफ़ा आपराधिक विद्रोह की कोई संभावना नहीं है। न ही पिछड़ा-अल्पसंख्यक राजनीतिक लामबंदी या दलित-पिछड़ा जातियों के ध्रुवीकरण की संभावना है। इसके साथ ही सभी पार्टियों को ज़्यादा जाति वाले गढ़ में उनकी नाराज़गी का डर रहता है, इसलिए कोई नहीं बोलता। मुसलमानों की नाराज़गी का भी ख़तरा किसी को कम नहीं है; ख़ासकर विपक्ष को ज़्यादा है।
वास्तव में देश में आरक्षण की सुविधा और सामाजिक न्याय को लेकर राजनीतिक दोमुहापन सदैव चरम पर रहा है। उदाहरणस्वरूप, अभी पिछले दिनों हुआ जब एससी / एसटी वर्ग के आरक्षण को संपन्न और सुविधा भोगियों (क्रीमिलेयर) द्वारा हड़पे जाने के विरुद्ध निर्णय देते हुआ सर्वोच्च न्यायलय ने 01 अगस्त 2024 को अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग के अंतर्गत वर्गीकरण को उचित माना। लेकिन उसके बाद सत्ता पक्ष और विपक्ष, सभी इस निर्णय के विरोध में खड़े हो गये और सबका साथ, सबका विकास के नारे वाली सरकार ने घोषणा कर दी कि वह इसे लागू नहीं होने देगी। क्या यह सामाजिक समानता के दावों का अपमान नहीं है? सरकार और विपक्ष समेत यह पूरी राजनीतिक जमात किस मुँह से बाबा साहेब अंबेडकर के सपने और सामाजिक उत्थान और समरसता के दावे करते हैं? लगातार कई पीढ़ियों से सुविधाभोगी अपने ही वर्ग के ग़रीबों की संवैधानिक सुविधाएँ छीन रहे हैं। वे इस क्रीमीलेयर को छोड़ना नहीं चाहते। यही कारण है कि पिछली कई पीढ़ियों से निचले तबक़ों के ग़रीब आज भी ग़रीब हैं। यह सिर्फ़ निचले तबक़ों में ही नहीं है, बल्कि सवर्णों में भी है। यहाँ भी अमीर सवर्ण ग़रीब सवर्णों का हक़ मारने में ज़रा भी संकोच नहीं करते। और ग़रीब सवर्णों से उसी तरह घृणापूर्ण व्यवहार तरते हैं, जैसा व्यवहार वे निचले तबक़े के ग़रीबों से करते हैं। इसी वजह से करोड़ों के संपत्तिधारी, जो उच्च शिक्षा लेने के अलावा विदेश से प्राप्त डिग्रियाँ होने के बावजूद पिछड़ा, दलित बनने में लगे हुए हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि अमीर होने पर कोई भेदभाव नहीं रहता और जातिवाद के बंधन से लगभग सभी मुक्त हो जाते हैं।
जाति जनगणना की ओछी सोच भले ही क्षुद्र लाभ की रणनीति में प्रभावकारी दिखती हो; लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से निकृष्ट ही है। यह मानसिकता लोगों को पिछड़ा, दलित बनाये रखने का कुत्सित षड्यंत्र है, ताकि समाज में जाति आधारित विभेद बना ही रहे। क्या किसी ने भी हासिये पर पड़े उस अन्तिम दलित, वंचित या किसी ग़रीब सवर्ण व्यक्ति से जानने की कोशिश की कि वह क्या सोचता है? क्या चाहता है? नहीं। क्योंकि इन्हें शुरू से ही अमीरों यानी कथित सम्भ्रांत वर्ग के पीछे खड़ा रहने वाला वोट बैंक माना गया है और मात्र राजनीतिक ग़ुलामी करायी गयी, जिसका चलन आज भी है।
विपक्ष की जाति जनगणना की माँग इस तर्क पर आधारित है कि इसके द्वारा प्राप्त आँकड़ों के आधार पर सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाया जाए। लेकिन जातिगत जनगणना लुप्त हो रही जाति आधारित पहचान को और पुख़्ता करेगी। इससे सामाजिक टकराव उत्पन्न होगा, जिसका नकारात्मक असर लंबे समय तक राष्ट्रीय एकता पर पड़ेगा। कहने का तात्पर्य है कि आज जब बदलते युग के साथ जाति आधारित पहचान एवं सामाजिक रूढ़ियाँ दिनोंदिन शिथिल होती जा रही हैं, तब जाति जनगणना जातीय एवं वर्गीय विभाजन को मज़बूत करेगी। इससे अगले कई दशकों तक देश का सामाजिक जीवन विषाक्त कर देगा। असल में जाति आधारित एक ऐसा ज़हरीला कुण्ड है, जिससे नफ़रत का ज़हर निकलने के सिवाय कभी भी प्यार का अमृत नहीं निकलेगा।
हालाँकि आज के उग्र जातिगत ध्रुवीकरण के राष्ट्रव्यापी माहौल में ऐसे वैचारिक तर्क देना और सुनना, दोनों ही अपराध हैं। अब राजनीति के विघटनकारी उन्मादी माहौल में सामाजिक एकता के तर्क स्वीकृत नहीं किये जाते। इसलिए जाति जनगणना हो ही जानी चाहिए। इससे पिछड़ा वर्ग के आरक्षण पर हावी यादव, कुशवाहा, कुर्मी जैसी जातियों के तथा दलित वर्ग में मीणा, जाटव जैसी सशक्त जातियों के आरक्षण पर एकाधिकार की विवेचना ज़रूर हो सकेगी। जाति जनगणना से यह पता लगाना भी संभव होगा कि आख़िर 70 वर्षों में आरक्षण का लाभ सर्वव्यापी क्यों नहीं हुआ? किन जातियों ने आरक्षण की धार को अपनी सुदृढ़ राजनीतिक और सामाजिक प्रभुता के बूते बाधित कर रखा है? वैसे भी संविधान के अनुच्छेद-340 के तहत गठित रोहिणी आयोग (2017) की रिपोर्ट भी तैयार है और इसके लागू होते ही पिछड़ावाद के ध्रुवीकरण की मुहिम हमेशा के लिए ध्वस्त हो जाएगी। उसके बाद आरक्षण के लाभ के सबसे तीव्र एवं कटु संघर्ष पिछड़ा वर्ग की जातियों का आतंरिक ही होगा। यक़ीन मानिए, इसके बाद यही जाति जनगणना के मुरीद जातिवादी नेता और बौद्धिक जमात ही अपनी राजनीतिक साख और सम्मान बचाते दिखेंगे। तब देखना होगा कि इनके पास सामाजिक समानता एवं आरक्षण को उसके वास्तविक ज़रूरतमंदों तक पहुँचाने के पक्ष में इनके पास कितना तर्क शेष है?
उत्तर प्रदेश को सुंदर एवं अपराध मुक्त बनाने के प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के प्रयासों की विवेचना की जाए तो कहीं ख़ुशी कहीं ग़म की तस्वीर देखने को मिलेगी। एक ओर प्रदेश को अपराध शून्य बनाने के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दावों की पोल हर दिन के आपराधिक समाचार खोल रहे हैं तो दूसरी ओर कुछ कार्य भी हो रहे हैं एवं कुछ कार्य अधर में लटके हैं। इस प्रकार डबल इंजन की उत्तर प्रदेश सरकार के सभी दावों में कहीं न कहीं झोल स्पष्ट दिखायी देती है। आपसी मनमुटाव से जूझ रही भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता रमेश चौधरी कहते हैं कि अब तक लोगों ने भारतीय जनता पार्टी पर जिस विश्वास के साथ उसे जो अपना महत्त्वपूर्ण मत दिया है, मुझे नहीं लगता कि प्रदेश में सत्ता मिलने के बाद पार्टी नेताओं ने अपने मतदाताओं के उस विश्वास को अडिग रखा है। आज अधिकतर लोग पूर्ववर्ती सरकारों के काम की तुलना योगी सरकार की सरकार से करने लगे हैं। लोगों को जो अपेक्षा थी, उन्हें वो नहीं मिला है। अपराधों के प्रश्न पर रमेश चौधरी कहते हैं कि अपराध पर लगाम कसने के मुख्यमंत्री योगी के प्रयासों को नकार तो नहीं सकते, मगर अपराध तो हो ही रहे हैं।
विदित हो कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रदेश में राम राज्य लाने के दावे करते हुए प्रदेश को अपराध शून्य बनाने का दावा करते रहे हैं। उन्होंने अपराधियों को चेतावनी भी कई बार देते हुए कहा है कि अपराधी सुधर जाएँ या प्रदेश छोड़कर चले जाएँ अन्यथा उन्हें छोड़ा नहीं जाएगा। अपराधियों से निपटने के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस ने कई एनकाउंटर भी किये, जिसमें कई नामचीन आपराधिक लोग मारे गये। प्रदेश के अपराध-शून्य का लक्ष्य प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार फिर भी प्राप्त नहीं कर सकी। हर दिन प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों में हर जनपद की सात-आठ आपराधिक घटनाएँ अवश्य होती हैं, जिनमें एक-दो बड़ी आपराधिक घटना भी होती है। पुलिस प्रशासन को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कड़े आदेश हैं कि अपराधियों को किसी भी स्थिति में छोड़ा नहीं जाना चाहिए। इसके उपरांत भी उत्तर प्रदेश में अपराधियों का आतंक थम नहीं रहा है।
पुलिस को चकमा दे रहे अपराधी
उत्तर प्रदेश में अपराध थम नहीं रहे हैं। इससे पूरे प्रदेश में कहीं-कहीं दहशत है। हर जनपद में अपराध की घटनाएँ तब घट रही हैं, जब प्रदेश पुलिस चप्पे चप्पे पर कड़ी निगरानी करती है। बीते एक डेढ़ महीने में कई जनपदों में जघन्य आपराधिक घटनाओं ने आमजन को डराकर रख दिया है। बरेली मंडल के पाँचों जनपदों में अपराध की नित्य नयी वारदात हो रही हैं। बीते दिनों एक ही गाँव में कई बार चोरियाँ करने वालों से पुलिस ने निपटा ही था, तब तक एक सनकी हत्यारे ने पुलिस की साँस फुला दी। यह सनकी हत्यारा महिलाओं की हत्या कर रहा है। कुछ लोग कहते हैं कि हत्यारा कोई एक नहीं कई हैं। बीते 14 महीने में बरेली में 10 महिलाओं की हत्या करने वाला सनकी हत्यारा पुलिस की गिरफ़्त से दूर है। पुलिस ने लोगों की निशानदेही पर इस सनकी हत्यारे का के स्केच छपवाकर दीवारों पर लगाये हैं। समाचार पत्रों में छपवाये हैं। बरेली दक्षिणी प्रभाग के पुलिस अधीक्षक मानुष पारीक बताते हैं कि शाही थाने के क्षेत्र में पूर्व मिले महिलाओं के शवों के सम्बन्ध में हुई छानबीन एवं आसपास के निवासियों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, तीन संदिग्धों के स्केच जारी किये गये हैं। स्केच बनवाने वाले का नाम गोपनीय रखा गया है। हत्यारों को पकड़वाने के लिए कुछ मोबाइल नंबर जारी किये गये हैं, जिनमें 9454402429, 9258256969, 9454401327, 9454403101, 9258256965 आदि हैं। पुलिस अधीक्षक ने कहा कि हत्यारों को पकड़ने के लिए पूरे जनपद में पुलिसकर्मियों को सतर्क रहने का आदेश दिया गया है।
08 अगस्त को शाहजहाँपुर के रोजा थाना क्षेत्र में गायत्री नाम की महिला ने अपने ही पति की हत्या कर दी। आरोपी महिला ने पुलिस से कहा कि उसका पति उसे हर दिन मारता था इसलिए उसने एक ही बार में उसे मार डाला। बीते वर्ष शीशगढ़ एवं शाही क्षेत्र में एक नदी के आसपास कई महिलाओं की हत्या हुई थी। अगस्त, 2024 के पहले सप्ताह में उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जनपद में एक हत्याकांड पर संज्ञान लेते हुए न्यायालय ने एक ही परिवार के पाँच लोगों को उम्रक़ैद की सज़ा सुनायी थी।
चंदौली जनपद के सैयदराजा विधानसभा के धानापुर में नया फ़ौजदारी क़ानून लागू होने के पहले ही सप्ताह में अपराधियों ने एक हत्या कर दी। आरोप है कि इस क्षेत्र में 06 जुलाई को प्रात: 6:30 बजे के लगभग भूमि विवाद को लेकर पिछड़ी जाति के अजय प्रसाद (35) की हत्या क्षत्रिय जाति के नरेंद्र सिंह एवं उसके आशीष सिंह उर्फ़ विनायक सिंह एवं अभिषेक सिंह ने सिर पर फावड़ा मारकर कर दी। पर अजय प्रसाद की हत्या करने का आरोप है। इस सम्बन्ध में मृतक के भतीजे आदर्श कुमार ने थाने में भारतीय न्याय संहिता 2023 की धारा-115(2), 352, 151(2), 109, 110, 103(1) एवं 3(5) के तहत नरेंद्र सिंह, आशीष सिंह एवं अभिषेक सिंह के विरुद्ध प्राथमिकी लिखवायी; मगर इस प्राथमिकी के एक घंटे के उपरांत पुलिस ने हत्या के एक आरोपी नरेंद्र सिंह की ओर से भी मृतक अजय प्रजापति एवं उसके बड़े भाई शम्भू प्रजापति के विरुद्ध भी भारतीय न्याय संहिता 2023 की धारा 115(2), 352, 151(2), 109, 110, 117, 103(1) एवं 3(5) के तहत प्राथमिकी लिख ली।
सक्रिय होंगे एंटी रोमियो दस्ते
उत्तर प्रदेश में महिलाओं से छेड़छाड़ की घटनाओं पर अंकुश लगाकर उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए वर्ष 2017 में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा आरंभ किये गये एंटी रोमियो पुलिस दस्तों को पुन: प्रदेश भर में तैनात किया जाएगा। कुछ दिन पूर्व अंबेडकर नगर में एक बैठक आयोजित करके मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अधिकारियों निर्देश दिया कि वे पुन: एंटी रोमियो दस्ते सक्रिय करें। इसके अतिरिक्त मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पुलिस विभाग को निर्देश दिये कि वो इस क्षेत्र के शीर्ष 10 अपराधियों की सूची सभी पुलिस स्टेशनों पर प्रदर्शित करवाएँ। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि महिलाओं की सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके लिए एंटी रोमियो स्क्वाड दलों को पुन: सक्रिय करने के अतिरिक्त जनपद स्तरीय अधिकारी जनता के बीच जनसुनवाई एवं संवाद सुनिश्चित करें।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 08 अगस्त को आगामी त्योहारों को ध्यान में रखते हुए समीक्षा बैठक की, जिसमें हर स्तर के अधिकारी उपस्थित थे। मुख्यमंत्री योगी ने अधिकारियों को निर्देश दिये कि वे स्वतंत्रता दिवस, नागपंचमी, सावन समापन के अंतिम सोमवार, काकोरी वर्षगाँठ, रक्षाबंधन, चेहल्लुम एवं जन्माष्टमी पर पुलिस एवं स्थानीय प्रशासन 24X7 सतर्क रहे एवं अपराध न होने दे।
राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आँकड़े
भारत सरकार के अधीन राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, भारत की अपराध दर 2020 में प्रति 1,00,000 लोगों पर 487.8 घटनाओं से घटकर 2021 में 445.9 हो गयी। 2024 में अब तक भारत में दर्ज कुल अपराधों की संख्या प्रति 1,00,000 व्यक्तियों पर 445.9 रही है। इसमें उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति अपराध दर 7.4 है। अपराध रिपोर्ट 2023 की तुलना में 0.56 प्रतिशत की मामूली समग्र गिरावट दिखाती है। इस अनुपात का अर्थ है कि उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक अपराध होते हैं। इसलिए यह राज्य अकेली महिलाओं के लिए यात्रा करने के हिसाब से आज भी असुरक्षित ही माना जाता है। उत्तर प्रदेश की दैवीय अवतारों वाली भूमि पर प्रदेश की महिलाओं से लेकर दूसरे राज्यों की महिलाओं एवं विदेशी महिलाओं तक से बलात्कार की घटनाएँ हुई हैं। जघन्य अपराधों को देखते हुए मुख्यमंत्री ने अपराधियों के विरुद्ध लैंगिक अपराधों से बच्चों एवं महिलाओं की सुरक्षा के लिए संरक्षण अधिनियम-2012 अर्थात् पॉक्सो अधिनियम के तहत अग्रिम जमानत प्रदान न किये जाने का प्रस्ताव रखा है। इसके अतिरिक्त मुख्यमंत्री ने हर वर्ष की तरह रक्षाबंधन पर 24 घंटे तक महिलाओं के लिए नि:शुल्क एवं सुरक्षित रोडवेज बस यात्रा के भी निर्देश उत्तर प्रदेश परिवहन विभाग को दिये हैं।
संपत्ति-बँटवारा होगा आसान
उत्तर प्रदेश में संपत्ति के बँटवारे और दूसरों की संपत्ति हड़पने के लिए अपराध बहुत होते हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार शीघ्र ही मंत्रिमंडल में संपत्ति बँटवारे का सुगम प्रस्ताव प्रस्तुत करेगी। इस प्रस्ताव में संपत्ति का बँटवारा 5,000 रुपये में करवाने का प्रस्ताव है। बीते दिनों स्टाम्प पंजीयन मंत्री रविंद्र जायसवाल ने कहा कि उत्तर प्रदेश में संपत्ति बँटवारे को लेकर शीघ्र ही एक ऐसा प्रस्ताव लाकर पास किया जाएगा, जिसके तहत अब पारिवारिक संपत्ति का बँटवारा मात्र 5,000 रुपये में हुआ करेगा। इस प्रस्ताव के अनुसार, एक परिवार के सदस्यों के बीच अचल संपत्ति के बँटवारे अथवा किसी जीवित व्यक्ति द्वारा अपनी संपत्ति को अपने बच्चों अथवा परिजनों में बाँटने पर देय स्टाम्प शुल्क केवल 5,000 रुपये तय करने के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने निर्देश दिये हैं। यह एक नयी पहल है। उत्तर प्रदेश देश में ऑनलाइन रजिस्ट्री करने वाला दूसरा राज्य है। संभव है कि इस नये नियम के लागू होने से संपत्ति बँटवारे को लेकर झगड़े कम हों।
झूठ फैलाने वालों पर कार्रवाई
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अधिकारियों को निर्देश दिये हैं कि वे झूठे समाचार फैलाने वालों की कड़ी निगरानी करें। उन्होंने अधिकारियों से कहा कि सोशल मीडिया झूठे समाचार फैलाने का माध्यम बन रही है। झूठे समाचार प्रसारित करने वाले लोगों की निगरानी करें, जिससे वे तथ्यों को तोड़-मरोड़कर ऐसी सूचनाएँ न फैला सकें, जो समाज में विद्वेष पैदा करती हैं। सभी जनपदों में पुलिस एवं आपराधिक शाखाओं को सतर्कतापूर्वक झूठे समाचारों के विरुद्ध कार्रवाई करने के निर्देश हैं। माना जा रहा है कि त्योहारों एवं स्वतंत्रता दिवस के समय में लोकतांत्रिक संगठनों की आड़ में कुछ राष्ट्रविरोधी संगठन भी माहौल बिगाड़ने का प्रयास कर सकते हैं। झूठे समाचार प्रसारित करने वालों की पड़ताल करकरे उन्हें पकड़कर उन पर कठोरतम कार्रवाई करने के निर्देश हैं।
अगस्त में पुलिस भर्ती परीक्षा
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रेस वार्ता में सूचना जारी की है कि अगस्त के अंतिम सप्ताह में दिनांक 23, 24, 25, 30 एवं 31 को पुलिस भर्ती परीक्षा होनी प्रस्तावित हुई है। मुख्यमंत्री ने कहा कि इस बार पुलिस भर्ती परीक्षा शांतिपूर्ण ढंग से पूरी शुचिता के साथ सकुशल संपन्न कराने की व्यवस्था की गयी है। परीक्षा में किसी भी प्रकार की धाँधली रोकने के लिए परीक्षा से सम्बन्धित अधिकारियों को सतर्क रहने को कहा गया है। वरिष्ठ अधिकारीगणों को निर्देश दिये गये हैं कि वे अपने-अपने क्षेत्रों के हर एक परीक्षा केंद्र का सूक्ष्मता से निरीक्षण करके परीक्षा की शुचिता सुनिश्चित करें।
यह 2022 के दिसंबर की बात है। उस समय बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना को एक अर्जेंट गुप्त डोजियर मिला, जिसमें बताया गया था कि अमेरिका सेंट मार्टिन द्वीप में अपना सैन्य बेस बनाना चाहता है। वह बांग्लादेश पर क्वाड (चतुर्भुज सुरक्षा संवाद) का हिस्सा बनाने का प्रस्ताव रख सकता है। इस डोजियर में बताया गया था कि ऐसा नहीं होने पर अमेरिका उनकी सरकार को अस्थिर करने का षड्यंत्र रच सकता है। शेख़ हसीना यह जानकार चिंता में पड़ गयीं और अपने बहुत विश्वस्त सहयोगियों से इसकी चर्चा की। अगले कुछ महीनों में शेख़ हसीना पर बाक़ायदा दबाव बनाया जाने लगा कि वह सेंट मार्टिन द्वीप अमेरिका को दे दें। शेख़ हसीना ने दबाव के आगे झुकने से साफ़ इनकार कर दिया। इस घटना के 12 महीने के भीतर बांग्लादेश में शेख़ हसीना का तख़्तापलट हो गया और अब वह भारत में हैं।
इससे भी बहुत पहले की बात करते हैं; साल 1971 की। इंदिरा गाँधी भारत की प्रधानमंत्री थीं। इंदिरा सेना के साथ पूर्वी पाकिस्तान के गृहयुद्ध से जूझ रहे हिस्से में सैन्य अभियान कर उसे पाकिस्तान से अलग करने की रणनीति पर काम कर रही थीं। पूर्वी पाकिस्तान के इस हिस्से में शेख़ मुजीब-उर-रहमान पाकिस्तान की सेना के ज़ुल्म के ख़िलाफ़ अभियान चला रहे गुट का नेतृत्व कर रहे थे और भारत उनकी मदद कर रहा था। जब यह ज़ाहिर हो गया कि भारत पाकिस्तान में सैन्य अभियान की तैयारी कर चुका है, तब अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर ने इंदिरा गाँधी पर दबाव बनाने की भरपूर कोशिश की कि वह ऐसा न करें। उन्हें अपनी नौसेना का सातवाँ बेड़ा बंगाल की खाड़ी में भेजने की धमकी दी और भेज भी दिया। लेकिन बिना झुके इंदिरा गाँधी ने सैन्य अभियान, जिसे 1971 के भारत-पाक युद्ध के रूप में जाना जाता है; चलाकर स्वतंत्र बांग्लादेश बनवा दिया। न तो अमेरिका और न ही पाकिस्तान ने इसे पसंद किया और एक टीस के रूप में यह हमेशा दोनों देशों के दिलों में चुभता रहा।
इंदिरा गाँधी की ही तरह ही शेख़ हसीना ने भी अमेरिका के आगे घुटने टेकने से इनकार करते हुए सेंट मार्टिन द्वीप अमेरिका को सौंपने से साफ़ इनकार कर दिया। अब शेख़ हसीना ने ख़ुद कहा है कि यदि उन्होंने द्वीप की संप्रभुता को त्यागकर अमेरिका को बंगाल की खाड़ी पर अपना प्रभुत्व क़ायम करने दिया होता, तो उनकी सत्ता नहीं जाती। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। अमेरिका द्वीप पर अपना सैन्य अड्डा बनाना चाहता है, ताकि दक्षिण एशिया में चीन और भारत पर नज़र रख सके। वैसे भी भारत के प्रति मित्र रुख़ रखने की हसीना की नीति से पाकिस्तान ही नहीं, अमेरिका भी सख़्त नाराज़ था। यहाँ तक कि चीन को भी यह ख़ास पसंद नहीं था; लेकिन हसीना ने हाल के महीनों में चीन को साधने की कोशिश की थी और वहाँ की एक अधूरी यात्रा भी हाल के महीनों में की थी।
दुर्भाग्य से चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने हसीना को तरजीह नहीं दी। हसीना की यात्रा के दौरान वह उनसे मिले भी नहीं। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नयी सरकार के शपथ ग्रहण के दौरान हसीना ने जून की यात्रा के दौरान भारत के शीर्ष नेतृत्व को बांग्लादेश में संभावित उथल-पुथल को लेकर अपनी आशंका से अवगत कराया था। यह माना जाता है कि यात्रा के दौरान जब शेख़ हसीना गाँधी परिवार से मिली थीं, तो उन्हें भी इसकी जानकारी दी थी। वह इस बात को लेकर बहुत चिंतित थीं कि यदि ऐसा कुछ हुआ, तो बांग्लादेश ने हाल में जो उन्नति की है, वह सब बर्बाद हो जाएगी। क्योंकि देश के कट्टरपंथियों और विदेशी ताक़तों के हाथ जाने का ख़तरा रहेगा। हसीना ने अप्रैल, 2023 में बांग्लादेश संसद में कहा था कि अमेरिका चाहे तो किसी भी देश में सत्ता बदल सकता है। अगर उन्होंने यहाँ (बांग्लादेश में) कोई सरकार बनवायी, तो वो लोगों की चुनी सरकार नहीं होगी। उसी दौरान ढाका के सांसद रशीद ख़ान मेनन ने ‘ढाका रिपोर्ट’ अख़बार के साथ एक इंटरव्यू में आशंका जतायी थी कि अमेरिका सेंट मार्टिन द्वीप के पीछे पड़ा है और नयी अमेरिकी वीजा नीति उसकी बांग्लादेश में शासन परिवर्तन की रणनीति का हिस्सा है। मेनन ने आरोप लगाया था कि वे (अमेरिका) मौज़ूदा सरकार को अस्थिर करने के लिए सब कर रहे हैं।
यह भी दिलचस्प है कि नोबेल पुरस्कार जीत चुके जो मोहम्मद यूनुस बांग्लादेश में अंतरिम सरकार के मुखिया बने हैं, उन्हें अमेरिकी समर्थक माना जाता है। प्रधानमंत्री रहते हुए हसीना मोहम्मद यूनुस पर विदेशी एजेंट होने का आरोप लगाती रही हैं। हाल में हसीना के तख़्तापलट के बाद सेना अध्यक्ष वकर-उज-ज़मान ने जो अंतरिम सरकार बनायी, उसका मुखिया यूनुस को बनाया। वकर-उज-ज़मान शेख़ हसीना के बहुत क़रीबी माने जाते रहे हैं और कहा जाता है कि तख़्तापलट के बाद हसीना को बांग्लादेश से सुरक्षित बाहर निकालकर भारत भेजने में उनकी ही भूमिका थी। इससे पहले 31 जुलाई को भारतीय दूतावास के एक शीर्ष अधिकारी ढाका में हसीना से मिले थे और उन्हें भारतीय एजेंसियों का यह संदेश दिया था कि बांग्लादेश में कभी भी उथल-पुथल हो सकती है। माना जाता है कि शेख़ हसीना को भारत के समर्थन का भरोसा दिलाया गया था। बांग्लादेश के सेनाध्यक्ष ने जो सेफ पैसेज शेख़ हसीना और उनके परिजनों के लिए उपलब्ध कराया, वह उसी का हिस्सा था।
बांग्लादेश में हसीना की सत्ता जाने से अमेरिका के बहुत हित सध सकते हैं। यूनुस का पश्चिमी देशों से अच्छा संपर्क रहा है, क्योंकि वह वहाँ काम कर चुके हैं। यूनुस अमेरिकी सिस्टम से गहराई से वाक़िफ़ हैं। उन्हें अमेरिकी हितों के लिए काम करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होगी। अंतरिम सरकार को समर्थन देने में अमेरिका ने एक दिन भी नहीं लगाया। यूनुस रेमन मैग्सेसे अवार्ड भी जीत चुके हैं, जिसकी फंडिंग अमेरिका की फोर्ड फाउंडेशन करती है। हसीना सरकार के समय जब यूनुस को हत्या की धमकी मिली थी, तब उन्होंने अमेरिकी दूतावास में ही शरण ली थी। जनवरी, 2007 में जब सेना ने बांग्लादेश की सत्ता पर क़ब्ज़ा कर दो पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना और ख़ालिदा ज़िया भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल में डाल दिया था, तब सेना ने मोहम्मद यूनुस को कार्यवाहक प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश की थी; लेकिन यूनुस ने इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया था। हसीना से इस साल जनवरी में एक पश्चिम देश के दूत ने कहा था कि यदि वह बांग्लादेश में उनके देश के सैन्य अड्डे को मंज़ूरी देती हैं, तो चुनाव में बिना किसी परेशानी के जीत हासिल कर पाएँगी। माना जाता है कि हसीना ने दूत के ऑफर को कोई महत्त्व नहीं दिया। चुनाव में जब हसीना को बांग्लादेश की जनता ने बड़े बहुमत से जिताया, तो अमेरिका ने चुनाव साफ़-सुथरे नहीं होने का आरोप लगाया था। इस दूत के हसीना से मिलने की बात की तस्दीक़ उनकी पार्टी अवामी लीग के बड़े नेता सदरुल ख़ान ने की थी।
सत्तापलट के बाद बांग्लादेश की स्थिति भारत के लिए अब बड़ी चुनौती बन गयी है। वहाँ जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठनों, जिनकी डोर पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के हाथ में मानी जाती है; के ताक़तवर होने की आशंका है। जमात कट्टर भारत विरोधी है। शेख़ हसीना की राजनीतिक विरोधी ख़ालिदा ज़िया, जिन्हें सत्ता पलट के बाद जेल से रिहा कर दिया गया है; भी भारत विरोधी हैं। उन्हें पाकिस्तान और चीन समर्थक माना जाता है। इसमें रत्ती भर भी आशंका नहीं कि जो ताक़तें अब बांग्लादेश की सत्ता पर क़ाबिज़ होने की कोशिश में हैं, वही ताक़तें भारत के ख़िलाफ़ भी साज़िशें रचती रही हैं। ख़ालिदा ज़िया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और जमात-ए-इस्लामी, दोनों आईएसआई के इशारे पर काम करती हैं। हसीना सरकार ने जब स्वतंत्रता सेनानियों को नौकरियों में 30 फ़ीसदी कोटा घोषित किया था और बाद में वहाँ के सुप्रीम कोर्ट ने इसे घटाकर पाँच फ़ीसदी कर दिया था, तब भी वहाँ छात्र आन्दोलन जारी रहने से ही ज़ाहिर हो गया था कि आन्दोलन के पीछे मकसद कुछ और है। छात्रों के विरोध-प्रदर्शनों के दौरान बीएनपी और जमात ने भारत के साथ दोस्ती और आर्थिक सम्बन्ध बनाने के लिए शेख़ हसीना को निशाने पर रखा था। यह ताक़तें वहाँ बाक़ायदा ‘इंडिया आउट’ कैंपेन चलाती रही हैं।
इस क्षेत्र में बालकेनाइजेशन प्लॉट के षड्यंत्र के बीच भारत की एक और बड़ी दिक़्क़त सारे पड़ोसी देश- नेपाल, श्रीलंका और मालद्वीव चीन के पाले में जा चुके हैं। अफ़$गानिस्तान में तालिबान का राज है और पाकिस्तान भारत विरोधी है ही। शेख़ हसीना के रूप में भारत के पास एक दोस्त था, उसकी सत्ता भी चली गयी। लिहाज़ा भविष्य में बांग्लादेश के भारत विरोधी गतिविधियों में शामिल होने से इनकार नहीं किया जा सकता। दिल्ली के लिए अब व्यापार और सुरक्षा की दोहरी चिन्ता है। बांग्लादेश, जहाँ हर आठवाँ व्यक्ति हिन्दू है; में हिन्दुओं पर अत्याचार की ख़बरें लगातार आ रही हैं। ख़ुद बांग्लादेश के लिए यह चिन्ता की बात है, जिसकी बेहतर होती जीडीपी हाल के वर्षों में पाकिस्तान के लिए ईर्ष्या का सबब बन गयी थी। इसमें कोई दो-राय नहीं कि हसीना को भारत का साथ देने की भी क़ीमत चुकानी पड़ी है। लिहाज़ा भारत पर उनके हित देखने का ज़िम्मा है।
तख़्तापलट के बाद ढाका में पाकिस्तान परस्त कट्टरपंथियों ने सबसे पहले देश की आज़ादी के सबसे बड़े हीरो शेख़ मुजीब-उर-रहमान की मूर्ति को तोड़ दी। इससे ज़ाहिर हो गया कि पाकिस्तान की एजेंसियाँ वहाँ हावी हो गयी हैं। क्या इन ताक़तों को हराने के लिए 75 साल की शेख़ हसीना वतन वापस लौटेंगी या निर्वासन में ही बाक़ी ज़िन्दगी काटने को मजबूर हो जाएँगी? एक बार पहले वह ऐसा कर चुकी हैं। हो सकता है, एक नयी जंग लड़ने के लिए वह जल्द ही अपने वतन वापस लौटें।