Home Blog Page 96

प्रकाश प्रदूषण भी बन रहा मुसीबत

तेज़ कृत्रिम प्रकाश के चलते रतौंधी समेत पनप रहीं कई गम्भीर बीमारियाँ

जगमगाती रोशनी और जगमगाते शहरों की चकाचौंध भले ही सबको अच्छी लगती हो; लेकिन इसे प्रकाश प्रदूषण यानी लुमिनस पॉल्यूशन कहते हैं। इसका एक नाम फोटो पॉल्यूशन भी है। यह प्रदूषण इंसानों द्वारा निर्मित कृत्रिम प्रकाश से फैलता है। यह कृत्रिम प्रकाश इंसानों से लेकर दूसरे जीव-जंतुओं तक की आँखों के लिए बहुत ज़्यादा हानिकारक और आँखों की क़ुदरती दृश्यता को कम करने वाला होता है, जिससे इंसानों से लेकर दूसरे जीव-जन्तुओं, ख़ासकर रात्रिचर जीव-जन्तुओं के लिए हानिकारक होता है। आजकल प्रकाश प्रदूषण से अनेक बीमारियाँ भी हो रही हैं। लेकिन कुछ जानकारों के अलावा पूरी दुनिया इससे अनजान है।

अंतरराष्ट्रीय डार्क-स्काई एसोसिएशन (आईडीए) ने प्रकाश प्रदूषण को आसमान की दृश्यता के लिए सबसे बड़ा बाधक माना है। आईडीए की एक रिपोर्ट के मुताबिक, कृत्रिम प्रकाश के बढ़ते प्रदूषण से प्राकृतिक प्रकाश अव्यवस्थित हो रहा है और रात की दृश्यता कम हो रही है। इसके अलावा कृत्रिम प्रकाश से ऊर्जा की बर्बादी भी हो रही है। प्रकाश प्रदूषण भी ध्वनि प्रदूषण और वायु प्रदूषण की तरह ही नुक़सानदायक है, जिससे आज ज़्यादातर दुनिया अनजान है और लगातार इसके घातक साइड इफेक्ट देखे बग़ैर इसका उपयोग कर रही है। प्रकाश प्रदूषण के चलते ही अब रात में न आसमान साफ़ दिखता है और न ही आसमान में टिमटिमाने वाले तारे ही साफ़ नज़र आते हैं।

खगोलीय वेधशालाओं के काम में भी कृत्रिम प्रकाश हस्तक्षेप करता है। लेकिन खगोलीय वेधशालाओं के मिशन के काम करने के लिए भी कृत्रिम प्रकाश की ज़रूरत भी पड़ती है, जो ख़ुद में भी प्रकाश प्रदूषण ही है। वैज्ञानिक बहुत पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि कृत्रिम प्रकाश से पैदा होने वाला प्रदूषण इंसानों के साथ-साथ धरती पर मौज़ूद सभी प्रकार के जीव-जन्तुओं से लेकर पेड़-पौधों को भी प्रभावित कर रहा है। इस कृत्रिम प्रकाश से फैलने वाले प्रदूषण से धरती का पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित और बाधित हो रहा है, जिसका सभी के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। वैज्ञानिकों और खगोलविदों ने कृत्रिम प्रकाश से फैलने वाले प्रदूषण को मुख्य रूप से दो भागों में बाँटा है, जिनमें से पहला है- कष्टप्रद प्रकाश, जिसके प्रभाव को जल्दी महसूस नहीं किया जा सकता है और यह इंसानों से लेकर धरती पर मौज़ूद सभी प्रकार के जीव-जन्तुओं और प्राकृतिक चीज़ों की हल्की प्रकाश व्यवस्था में दख़लंदाज़ी करता है यानी धीरे-धीरे नुक़सान पहुँचाता है। दूसरा ज़्यादा घातक है, जिसके चलते किसी को भी तेज़ी से नुक़सान होता है और इस प्रकार का कृत्रिम प्रकाश आमतौर जल्दी ही नुक़सानदायक परिणाम दिखाना लगता है। उदाहरण के लिए तेज़ प्रकाश से आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है या आँखों से जलन के साथ आँसू निकलने लगते हैं। दूसरी प्रकार का कृत्रिम प्रकाश स्वास्थ्य पर जल्दी और ज़्यादा प्रतिकूल असर डालता है।

सबसे बड़ी समस्या यह है कि जो लोग यह जानते हैं कि कृत्रिम प्रकाश से निकला प्रदूषण बहुत नुक़सानदायक साबित हो रहा है, वही कृत्रिम प्रकाश की और अधिक दृश्यता यानी प्रकाश की तेज़ किरणों की खोज में लगे हैं, जिससे वे गहरे से गहरे अंधकार में भी आसानी से देख सकें। इसके अलावा सदियों से आसमान के रहस्यों को जानने की कोशिशों में लगे वैज्ञानिक भी ऐसे कृत्रिम प्रकाश को खोजने की कोशिश में लगे हैं, जिसकी मदद से अपने सौरमंडल के अलावा दूसरे सौर मंडलों का पता लगा सकें और ब्रह्मांड में बने ब्लैक होल्स में आसानी से झाँककर पता लगा सकें कि वहाँ क्या चल रहा है? इसके अलावा हर दिन ईजाद की जा रही ज़्यादा दृश्यता वाली ट्यूब लाइट्स और ज़्यादा रोशनी पैदा करने वाले रंग-बिरंगे बल्बों की खोज हो रही है, जिससे धरती पर और ज़्यादा तथा आकर्षक रोशनी की जा सके। आजकल तो गाड़ियों में इतनी तेज़ लाइट्स आ गयी हैं, जिनकी तरफ़ देखने भर से आँखों में परेशानी होने लगती है। जब तक इस तरह की खोजों पर रोक नहीं लगेगी और कृत्रिम प्रकाश की दृश्यता की एक सीमा निर्धारित नहीं की जाएगी, प्रकाश प्रदूषण रोकना तो दूर, उलटा यह बढ़ता ही रहेगा।

कृत्रिम प्रकाश के नुक़सानों को देखते हुए सन् 1980 के दशक की शुरुआत से दुनिया भर के कुछ जागरूक लोगों ने एक वैश्विक डार्क स्काई मूवमेंट चलाया, जिसे काला आसमान आन्दोलन भी कहते हैं। इस आन्दोलन का मक़सद दुनिया भर की सरकारों से कृत्रिम प्रकाश से फैलने वाले प्रदूषण को रोकने की अपील करना रहा है। लेकिन आज तक इस आन्दोलन का किसी पर कोई असर नहीं पड़ा और दुनिया भर के शहर आज पहले से भी ज़्यादा कृत्रिम प्रकाश में जगमगाते दिखते हैं। आज शहरों से लेकर गाँवों तक देर तक लोगों का कृत्रिम रोशनी में जागना, देर रात तक काम करना या मोबाइल देखना बहुत घातक होता जा रहा है।

आज दफ़्तरों में दिन भर जो लोग कृत्रिम प्रकाश में बैठकर कम्प्यूटर पर लगातार काम करते हैं, उन्हें इसके सबसे ज़्यादा नुक़सान होते हैं। इसलिए डॉक्टर सलाह देते हैं कि कम्प्यूटर पर लगातार काम करने वालों को हर 20-25 मिनट में उठकर टहल लेना चाहिए, वर्ना उन्हें इसके कई नुक़सान उठाने पड़ सकते हैं। अक्सर देखा गया है कि ज़्यादा देर तक कम्प्यूटर पर काम करने वालों को कई परेशानियाँ होने लगती हैं, जिनमें सबसे पहली परेशानी आँखों की रोशनी कम होना है। इसके अलावा ऐसे लोगों को रतौंधी, कमर दर्द, बीपी, शुगर, थायराइड के अलावा पेट में इंफेक्शन और जोड़ों में दर्द की शिकायत भी रहती है। ज़्यादा कृत्रिम प्रकाश यानी प्रकाश कोलाहल से सड़क से लेकर हवाई पर्यावरण को भी ख़तरा होता है, जिसकी वजह से दुर्घटना होने का ख़तरा ज़्यादा रहता है। आज दुनिया भर में होने वाली सड़क दुर्घटनाओं में से क़रीब 70 फ़ीसदी सड़क दुर्घटनाएँ रात में ही होती हैं, जिनकी ज़्यादातर वजह दृश्यता की कमी है और इसके लिए 80 फ़ीसदी तेज़ कृत्रिम प्रकाश ही ज़िम्मेदार है। इसलिए अगर बहुत ज़रूरी हो, तभी कम-से-कम दृश्यता वाले ही कृत्रिम प्रकाश का इस्तेमाल करें। उदाहरण के लिए अगर बल्ब जलाना पड़ता है, तो कम रोशनी करने वाले बल्ब का इस्तेमाल करें।

इसमें दो-राय नहीं कि आज कृत्रिम प्रकाश के बिना काम नहीं चल सकता। लेकिन इसका एक सीमा से ज़्यादा उपयोग और ज़्यादा दृश्यता वाले प्रकाश में काम करने की लत से लोग अपनी आँखों की रोशनी खो रहे हैं। डॉक्टरों के मुताबिक, कृत्रिम प्रकाश में अगर किसी को काम करना भी पड़े, तो उसे आँखों पर ऐसा चश्मा लगाना चाहिए, जो तेज़ रोशनी के प्रभाव को कम कर सके। ठीक वैसे ही, जैसे कोई वेल्डिंग करने वाला वेल्डिंग करते समय अपनी आँखों पर काला चश्मा लगाता है या अपनी आँखों के आगे एक काला गिलास लेकर काम काम करता है। समस्या यह है कि आज की औद्योगिक सभ्यता में कृत्रिम प्रकाश के बिना काम ही नहीं चल सकता। आज कोई भी काम हो और कोई भी जगह हो, कृत्रिम प्रकाश एक ऐसी ज़रूरत बन गया है, जिसके बिना काम ही नहीं चल सकता। लेकिन इससे फैलने वाला प्रकाश प्रदूषण इंसानों से लेकर दूसरे जीव-जन्तुओं और धरती के पर्यावरण को जितना नुक़सान पहुँचाता है, उससे भी हर किसी को वाक़िफ़ होना चाहिए; जिससे लोग ज़रूरत के मुताबिक ही कृत्रिम प्रकाश का उपयोग करें।

यूके स्थित इंस्टीट्यूशन ऑफ लाइटिंग इंजीनियर्स नाम का संस्थान काफ़ी पहले से ही अपने कर्मचारियों को प्रकाश प्रदूषण और इससे पैदा होने वाली समस्याओं के बारे में जानकारी देने के अलावा यह भी बताता रहा है कि इससे होने वाले नुक़सानों से कैसे बचा जा सकता है। इंस्टीट्यूशन ऑफ लाइटिंग इंजीनियर्स ने बहुत पहले ही अपने कर्मचारियों को कम रोशनी में काम करने के लिए कहा था और जहाँ ज़्यादा रोशनी की ज़रूरत है, वहाँ आँखों पर ख़ास तरह के चश्मे लगाने की सलाह दी थी। लेकिन भारत में लोगों की समस्या यह है कि अगर उन्हें धुँधला दिखता है, तो वे आँखों की सेफ्टी करने की जगह कृत्रिम प्रकाश बढ़ाने के बारे में सोचते हैं। उदाहरण के लिए अगर किसी को मोबाइल में कम दिखता है, तो वह उसकी स्क्रीन लाइट बढ़ा देता है। जबकि मोबाइल को पहले ही कम स्क्रीन लाइट में देखना चाहिए और वह भी जितना कम-से-कम हो सके, उतना ही देखना चाहिए। हो सके, तो आँखों पर प्रकाश-रोधी लेंस वाला चश्मा लगाकर ही मोबाइल देखना चाहिए। लेकिन भारत में ज़्यादातर लोग इसके उलट करते हैं।

आज प्रकाश प्रदूषण एक वैश्विक चिन्ता का कारण बनता जा रहा है; लेकिन इसके बावजूद न तो सभी देशों की सरकारें कृत्रिम प्रकाश की दृश्यता की सीमा तय कर रही हैं और न ही कोई संस्थान इसके लिए ख़ास काम कर रहा है। जो लोग इसे लेकर चेतावनी दे रहे हैं, उनकी कोई सुनने वाला नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक, अगर कृत्रिम प्रकाश की दृश्यता लगातार बढ़ती रही और लोग दिन-रात तेज़ कृत्रिम प्रकाश में काम करने से बाज़ नहीं आये, तो आने वाले 50 वर्षों में दुनिया के 60 फ़ीसदी लोगों को चश्मा लगाना होगा और हो सकता है कि 15 फ़ीसदी लोग 20 साल की उम्र तक ही अंधे हो जाएँ। आज मेड्रिड के आसपास के क्षेत्र में एक एकल विशाल समूह से उत्पन्न कृत्रिम प्रकाश के प्रदूषण का प्रभाव इसके केंद्र बिन्दु से चारो तरफ़ 100 किलोमीटर यानी क़रीब 3,28,084 फुट दूर तक महसूस किया जा सकता है। यह चिन्ता का विषय है और दुनिया के हर देश को इस पर विचार करना चाहिए।

कानून है, पर नहीं रुक रहे बाल-विवाह

भारत 145 करोड़ की आबादी वाला देश है, जो अनुमानित तौर पर दुनिया की पाँचवीं अर्थ-व्यवस्था है। लेकिन सरकारी दावा यह किया जा रहा है कि जल्द ही भारत तीसरी अर्थ-व्यवस्था बन जाएगा। भारत की आर्थिक प्रगति के संदर्भ में सरकारी आँकड़े चाहे कुछ भी बोलें; लेकिन क्या इस प्रगति ने सामाजिक प्रगति में अपेक्षित योगदान दिया है? यहाँ पर सवाल भारतीय समाज में होने वाले बाल-विवाह के संदर्भ में सरकार से पूछा जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त सवाल यह भी है कि लड़कियों के सशक्तिकरण सम्बन्धित सरकारी योजनाएँ भी ऐसे ग़ैर-क़ानूनी बाल-विवाह रोकने की दिशा में कारगर नतीजों को लाने में अधिक सफल होती नज़र क्यों नहीं आतीं? बाल-विवाह के संदर्भ में यह आँकड़ा काफ़ी चौंकाने वाला है कि भारत में आज भी हर मिनट में तीन नाबालिग़ लड़कियों की शादी हो रही है। बाल-विवाह मुक्त भारत नामक सिविल सोसायटी संगठनों के नेटवर्क की एक रिपोर्ट के अनुसार, बाल-विवाह की संख्या प्रति वर्ष 16 लाख पहुँच जाती है। इस नेटवर्क से जुड़े शोध दल ‘भारत बाल संरक्षण’ ने 2011 की जनगणना से जुड़े आँकड़ों के साथ राष्ट्रीय अपराध शाखा और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 (2019-21) की सूचनाओं को मिलाकर उनका विश्लेषण किया और बताया कि भारत में हर साल 16 लाख बाल-विवाह होते हैं। लेकिन हैरानी तब होती है, जब देश में होने वाले अपराधों के रिकॉर्ड को सार्वजनिक करने वाली सरकारी संस्था राष्ट्रीय अपराध शाखा कहती है कि सन् 2018 से सन् 2022 के दरमियान देश में 3,863 बाल-विवाह हुए थे। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 बताता है कि इस दरमियान देश में 20-24 आयु वर्ग की 23.3 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 वर्ष की आयु से पहले हो गयी थी।

ग़ौरतलब है कि भारत में विवाह के लिए लड़कियों की न्यूनतम आयु 18 साल और लड़कों के लिए 21 वर्ष क़ानूनन तय की गयी है। बाल-विवाह निषेध अधिनियम के बावजूद हक़ीक़त यह है कि बाल-विवाह का दाग़ भारत पर आज़ादी के 77 साल होने पर भी लगा हुआ है। यही नहीं, 21वीं सदी का 24वाँ साल चल रहा है और अगले साल 2025 के समाप्त होते ही इस सदी का एक-चौथाई वक़्त बीत जाएगा और अगर बाल-विवाह को बिलकुल नहीं रोका गया, तो दुनिया की सबसे बड़ी पाँचवीं अर्थ-व्यवस्था वाले इस देश के समक्ष बाल-विवाह तब भी एक बहुत बड़ी चुनौती होगी। बाल-विवाह के लिए जहाँ आर्थिक व सामाजिक कारणों की एक लंबी $फेहरिस्त गिना दी जाती है; वहीं इस कुप्रथा पर रोक नहीं लगती। लेकिन ऐसे बाल-विवाहों की आड़ में होने वाले अपराधों का अदालतों में क्या हश्र होता है? इस पहलू को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

इस रिपोर्ट के अनुसार, बाल-विवाह निषेध अधिनियम के तहत 2022 में विभिन्न अदालतों में सुनवाई के लिए सूचीबद्व कुल 3,563 बाल-विवाह मामलों में से केवल 181 मामलों में ही सुनवाई पूरी हुई। मामलों को निपटाने की धीमी गति चिन्ता का विषय है। क्योंकि इस मामले में लंबित मामलों का अंबार लगा हुआ है। ऐसा अनुमान है कि देश की न्याय व्यवस्था को 2022 तक लंबित मामलों को निपटाने में क़रीब 19 साल लग सकते हैं। ध्यान देने वाला बिंदु यह भी है कि शीर्ष अदालत कई मर्तबा अदालतों में सभी अपराधों के लंबित मामलों के प्रति अपनी चिन्ता ज़ाहिर कर चुकी है। यही नहीं, बाल-विवाह निषेध अधिनियम के तहत दर्ज मामलों में दोषसिद्धि दर पर नज़र डालें, तो यह भी चिन्ता का कारण है। वर्ष 2022 में इनमें से मात्र 11 प्रतिशत मामलों में ही सज़ा सुनायी गयी; जबकि उसी साल बच्चों के ख़िलाफ़ किये गये सभी अपराधों के लिए कुल दोषसिद्धि दर 34 प्रतिशत है।

सवाल यह भी उठता है कि आख़िर सज़ा दर इतनी कम क्यों है? अदालतों के समक्ष ऐसे मामलों की सुनवाई के दौरान कौन-सी ऐसी दलीलें अरोपी पक्षों की तरफ़ से पेश की जाती हैं कि मामले कमज़ोर पड़ जाते हैं? ऐसी कमियों को दूर करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा, जो बाल-विवाह निषेध क़ानून को पूरी तरह से सफल होने में रुकावट डालते हैं। यह भी सच है कि बाल-विवाह सरीखी सामाजिक बुराई के उन्मूलन के लिए एक साथ कई मोर्चों पर गंभीरता के साथ प्रयास जारी रहने चाहिए। जहाँ ख़ामियाँ हैं, वहाँ त्वरित कार्रवाई की दरकार है।

बाल अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था यूनिसेफ का मानना है कि बाल-विवाह मानवाधिकारों का उल्लघंन है; क्योंकि इसके लड़कियों और लड़कों, दोनों के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं। यही नहीं, स्थायी विकास लक्ष्य कहता है कि बाल-विवाह उन्मूलन स्थायी विकास का लक्ष्य हासिल करने के लिए अहम है, जिसका मक़सद 2030 तक लैंगिक समानता और महिलाओं और अविवाहित लड़कियों के सशक्तिकरण को हासिल करना है।

किसानों को कम ही लाभ पहुँचाएगा बजट

योगेश

किसानों को जिस तरह मूर्ख बनाने की कोशिश सरकारों ने की है, वो ठीक नहीं है। किसान इतने नासमझ नहीं हैं। लेकिन उन्हें खाद सब्सिडी के नाम पर, न्यूनतम समर्थन मूल्य के नाम पर, फ़सल बीमा के नाम पर ख़ूब ठगा और मूर्ख बनाया गया है। न्यूनतम समर्थन मूल्य भी उनको नहीं मिल रहा है। इस बार केंद्र सरकार में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वित्त वर्ष 2024-25 के लिए आम बजट में जिस तरह का कृषि बजट पेश किया है, उसकी भले ही कुछ लोग तारीफ़ कर रहे हों; लेकिन किसानों को इस बजट में भी झाँसा ही दिया गया है। इस बजट से किसानों को बमुश्किल बहुत-ही कम लाभ पहुँचेगा। क्योंकि कृषि क्षेत्र के लिए जो 1.52 लाख करोड़ रुपये का बजट इस वर्ष के लिए दिया गया है, पहले तो बहुत कम है और इस बजट का सीधा फ़ायदा भी किसी भी हाल में किसानों को नहीं मिलने वाला। इसके साथ ही लागत मूल्य, फ़सलों का कम भाव और महँगाई के हिसाब से इस बार का कृषि बजट बहुत कम है।

इससे पिछले वित्त वर्ष 2023-24 का कृषि बजट 1.25 लाख 36 हज़ार करोड़ रुपये रखा गया था। लेकिन पिछले साल किसानों को कुछ नहीं मिला। आन्दोलन करने वाले किसानों को लाठियाँ और कई तरह की यातनाएँ ज़रूर मिलीं। लेकिन ये दोनों बजट पिछले कृषि बजट से काफ़ी कम हैं। वित्त वर्ष 2020-21 में कृषि बजट 2.83 लाख करोड़ रुपये रखा था। इसमें कृषि संबंधित 16 सूत्री योजनाओं को शामिल किया गया था। इस बजट में 1.6 लाख करोड़ रुपये विशेष रूप से कृषि, सिंचाई और कृषि संबद्ध गतिविधियों के लिए रखे गये थे। अब पूरा कृषि बजट ही 1.52 लाख करोड़ का है, जो कि इस बार कम-से-कम तीन लाख करोड़ से ज़्यादा होना चाहिए था।

इस बार के बजट में जिस तरह से केंद्रीय वित्त मंत्री ने किसानों को जितना मूर्ख बनाने की कोशिश की है, उसका उतना ही ज़्यादा महिमामंडन सरकारी समर्थक और केंद्रीय मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री योगी ने किया है। मगर किसानों का समझने की कोशिश कोई नहीं कर रहा है और न ही कोई किसानों का भला चाहता है। अगर केंद्र सरकार किसानों का भला चाहती, तो संसद में किसानों का स्वागत करती और उनकी समस्याओं को सुनती। केंद्र सरकार को किसानों की समस्याओं का समाधान करना चाहिए, जिससे उन्हें होने वाला घाटा रुक सके और वे भी ख़ुशहाल जीवन जी सकें। वित्त मंत्री ने कहा है कि केंद्र सरकार 32 फ़सलों की 109 नयी क़िस्में लाएगी। बाज़ार में हर फ़सल की नयी क़िस्में तो ऐसे ही आती रहती हैं। किसानों को नयी क़िस्मों के नाम पर हर फ़सल बुवाई के समय में ठगा जाता है। फ़सलों को बीज लगातार महँगे होते जा रहे हैं। फर्टिलाइजर बीजों के चलते ही तो किसानों की फ़सलें ख़राब होती हैं, जिन्हें ख़राब होने से बचाने के लिए किसानों को मजबूरी में कीटनाशकों का प्रयोग करना पड़ता है। इससे किसानों का पैसा तो बर्बाद होता ही है, फ़सलों की गुणवत्ता भी नष्ट हो जाती है।

इसके अलावा केंद्रीय वित्त मंत्री ने कहा कि सरकार एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती यानी जैविक खेती कराएगी। लेकिन सरकार जैविक फ़सलों का सही भाव तय नहीं कर रही है। अगर किसानों को जैविक फ़सलों का उचित मूल्य मिलेगा, तो किसान जैविक खेती करने के लिए ख़ुद ही प्रोत्साहित होंगे और वे पहले की तरह दोबारा जैविक खेती करने लगेंगे। वित्त मंत्री कह रही हैं कि प्राकृतिक खेती के लिए सरकार ने पिछले बजट से इस बार 21.6 प्रतिशत बजट बढ़ाया है; लेकिन यह नहीं कह रही हैं कि यह बजट पिछले 10 वर्षों में बढ़ती महँगाई और बढ़ती कृषि लागत के हिसाब से नहीं बढ़ा है। बीते 10 वर्षों में खाद, बीज, बिजली और दूसरी कृषि लागत में तीन से चार गुना बढ़ोतरी हुई है, जबकि किसानों को न तो फ़सलों का मूल्य बीते 10 वर्षों के हिसाब से तीन से चार गुना मिला है और न ही कृषि बजट तीन से चार गुना बढ़ा है।

केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से एक सवाल है कि इस बजट में किसानों को सीधे तौर पर कितनी सौगातें दी गयी हैं? ख़ाली बजट को ऐसे बोल देने से जैसे दुनिया का सबसे बढ़ा बजट हो, काम नहीं चलेगा। कृषि प्रधान देश होने के बाद भी हमारे किसानों को सरकारी फ़ायदा सबसे कम मिलता है। बीमा कम्पनियाँ किसानों का मुआवज़ा हड़प जाती हैं, तो दलाल किसानों का लाभ हड़प जाते हैं। किसानों से हर जगह पर ठगी होती है। उन्हें ऐसे दुत्कारा जाता है। जैसे वे लोगों का पेट भराकर कोई गुनाह कर रहे हों। वित्त मंत्री ने कहा कि सरकार कृषि क्षेत्र के प्रोत्साहन के लिए एग्रीकल्चरल रिसर्च सेटअप करेगी। इससे किसानों को क्या लाभ होगा? कृषि कार्यक्रमों को बंद करके, कृषि विश्वविद्यालयों व कृषि सम्बन्धी विभागों की दशा बिगाड़कर एग्रीकल्चरल रिसर्च सेटअप से किसानों को लाभ कैसे मिलेगा? क्योंकि किसानों को लाभ तब मिलेगा, जब उनके लिए गाँव-गाँव में कार्यक्रम आयोजित किये जाएँगे और उन्हें सीधे बेहतर कृषि तकनीक की ट्रेनिंग दी जाएगी।

ठीक से समझें, तो इस बजट से न तो किसानों का क़ज़र् माफ़ किया जा रहा है और न ही उनकी फ़सलों को उचित न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का प्रावधान किया गया है। पाँच राज्यों के किसानों को क्रेडिट कार्ड देने और क्रेडिट कार्ड की संख्या बढ़ाने की केंद्र सरकार ने घोषणा की है, जिससे किसानों पर क़ज़र् ही बढ़ेगा। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने यह भी नहीं बताया कि इस वित्त वर्ष के बजट के 1.52 लाख करोड़ रुपये में से किस मद में कितने रुपये रखे जाएँगे? क्या क्रेडिट कार्ड के मद में इसी बजट में से रुपये डाले जाएँगे? अगर केंद्र सरकार ऐसा कर रही है, तो यह किसानों के साथ सीधे तौर पर धोखा होगा; क्योंकि सरकार एक तरफ़ किसानों को क़ज़र् दे रही है और उसका हिसाब रख रही है बजट में। इससे बड़ा धोखा क्या होगा?

आगे वित्त मंत्री ने कहा कि प्राकृतिक खेती का सर्टिफिकेशन किया जाएगा। सर्टिफिकेशन से किसानों को कौन-सा भारत रत्न मिल जाएगा? इस पागलपन की जगह सरकार प्राकृतिक खेती करने वाले किसानों को सम्मानित करे, तो उनमें उत्साह बढ़े। वित्त मंत्री कह रही हैं कि देश में 10,000 बायो रिसर्च सेंटर बनाये जाएँगे। बायो रिसर्च सेंटर बनाने का क्या लाभ, जब तक कि बायोगैस को पुनर्जीवित नहीं किया गया है? सरकार को किसानों को बायो गैस और जैविक ईंधन, जैविक खाद के उपयोग को प्रोत्साहित करना चाहिए। यह तो पुराने और सफल प्रयोग हैं, इन्हें सिर्फ़ पुनर्जीवित करने की ज़रूरत है। लेकिन इसे बढ़ाने के लिए सरकार को पशुपालन बढ़ाने पर ज़ोर देना चाहिए, जिससे बायोगैस, बायो ईंधन और जैविक खाद में बढ़ोतरी हो। लेकिन एक तरफ़ केंद्र सरकार किसानों को पुरानी तकनीक नये लिफ़ा$फे में रखकर परोसना चाहती है और दूसरी ओर सरकार उर्वरक खाद, फर्टिलाइजर बीज और कीटनाशक बनाने वाली कम्पनियों को लाभ पहुँचा रही है। उन्हें बहुत बड़ी सब्सिडी दे रही है। इसके बदले में कम्पनियाँ ईमानदारी का चोला ओढ़े मंत्रियों को क्या लाभ पहुँचाती हैं? इसकी जाँच हो, तो घोटाले ही निकलकर सामने आएँगे।

वित्त मंत्री ने कहा कि सरकार एक करोड़ किसानों को प्राकृतिक खेती के लिए मदद देगी, जिसे ग्राम पंचायतों के ज़रिये लागू किया जाएगा। क्या यह मदद किसानों को सीधे धन देकर की जाएगी? क्या किसानों को इस मदद के लिए जैविक खाद, जैविक बीज आदि मुफ़्त में बाँटे जाएँगे? ऐसा कुछ नहीं है, तो किसानों को क्या दिया जाएगा? प्राकृतिक खेती करने की बात रही, तो किसान इसमें सक्षम हैं। वित्त मंत्री ने कहा कि सब्ज़ियों की सप्लाई चेन पर ज़ोर दिया जाएगा। लेकिन उन्होंने यह नहीं कहा कि किसानों को सब्ज़ियों का उचित मूल्य दिया जाएगा। किसानों के हाथों से सस्ते में छीनी जाने वाली सब्ज़ियाँ बाज़ार में आठ से 15 गुनी महँगी बिकती हैं। टमाटर का उदाहरण लें, तो किसानों को इस समय टमाटर का अधिकतम मूल्य सात-आठ रुपये किलो का मिल रहा है। बहुत अच्छा टमाटर किसानों से 10-12 रुपये किलो लिया जा रहा है। लेकिन बाज़ार में यही टमाटर 80 से 120 रुपये किलो बिक रहा है। इसमें किसानों को क्या मिल रहा है? क्या वित्त मंत्री को किसानों को सब्ज़ियों का उचित मूल्य दिलाने की बात नहीं करनी चाहिए थी? केंद्रीय वित्त मंत्री ने कहा कि केंद्र सरकार 400 ज़िलों में फ़सलों का डिजिटल सर्वे कराएगी। इससे क्या लाभ होगा और किसानों को क्या मिलेगा? करोड़ों रुपये डिजिटल सर्वे में ख़र्च कर दिये जाएँगे और उसके बाद किसानों को कुछ नहीं मिलेगा। इससे अच्छा होता कि इतने रुपये से सरकार किसानों का क़ज़र् माफ़ करती।

वित्त मंत्री ने कहा कि सरकार जलवायु के अनुकूल बीज विकसित करने के लिए निजी क्षेत्र, विशेषज्ञों को बजट देगी। क्या किसानों को बीज सँभालना नहीं आता? ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार बीज संरक्षण के नाम पर बजट में से काफ़ी बड़ा हिस्सा अपने चहेते लोगों को बाँटना चाहती है। अगर किसानों को ही उसे लाभ पहुँचाना है, तो किसानों को सीधे लाभ क्यों नहीं देती? सरकार किसानों को दिये गये क्रेडिट कार्ड पर तीन लाख तक का क़ज़र् चार प्रतिशत ब्याज दर पर देती है। सरकार को क्रेडिट कार्ड पर एक प्रतिशत वार्षिक ब्याज लेना चाहिए और एक साल के लिए बिना ब्याज के 3,00,000 रुपये देने चाहिए, जिससे ग़रीब और मध्यम वर्गीय किसान इसका सदुपयोग करके अपनी हालत सुधार सकें। वित्त मंत्री ने कहा कि कृषि बजट में कृषि क्षेत्र के विकास के लिए कोई योजना नहीं है। वित्त मंत्री बताएँगी कि क्या इस बार का कृषि बजट निराशाजनक और दिशाहीन नहीं है? जिस बजट से किसानों को सीधे कोई लाभ नहीं मिलेगा, वो बजट किसानों के किस काम का?

ट्रम्प बनाम कमला

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प पर एक सभा के दौरान हुए हमले के कुछ ही दिन के भीतर राष्ट्रपति जो बाइडेन ने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए इस साल के आख़िर में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से अपना नाम वापस ले लिया है। इससे उप राष्ट्रपति कमला हैरिस के डेमोक्रेटिक पार्टी का उम्मीदवार होने का रास्ता खुल गया है। लम्बी ख़ामोशी के बाद आख़िर पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा और उनकी पत्नी मिशेल ओबामा ने हैरिस की उम्मीदवारी के लिए अपना समर्थन दे दिया। क्या ओबामा की ख़ामोशी के पीछे कारण यह था कि बाइडेन को रेस से बाहर कर वह अपनी पत्नी मिशेल ओबामा को राष्ट्रपति पद के लिए डेमोक्रेट उम्मीदवार बनाना चाहते थे? परदे के पीछे ऐसी चर्चा ख़ूब रही थी। अगले महीने डेमोक्रेटिक पार्टी की सभा में कमला हैरिस की उम्मीदवारी पर आधिकारिक मुहर लगने की अब पक्की संभावना है।

पेंसिल्वेनिया में एक रैली को संबोधित करते हुए जब एक हमलावर की गोली ट्रम्प के कान को छूने के बाद उनके चेहरे पर ख़ून की एक लकीर छोड़ते हुए निकल गयी, तो भले यह ट्रम्प के जीवन को संकट में डालने वाला क्षण था; लेकिन ट्रम्प ने इसे राजनीतिक रूप से भुनाने में देर नहीं की। चेहरे पर ख़ून की इस लकीर के साथ भिंची हुई मुट्ठी जब उन्होंने अपने समर्थकों की तरफ़ लहरायी, उस समय सीक्रेट सर्विस के अधिकारी ढाल बनाकर उन्हें सुरक्षित स्थान की तरफ़ ले जा रहे थे। ट्रम्प की यह तस्वीर दुनिया भर के अख़बारों और टीवी चैनलों ने बार-बार दिखायी। कोई शक नहीं कि सिर्फ़ इस एक तस्वीर ने ट्रम्प के प्रति अमेरिका में समर्थन का जबरदस्त माहौल बना दिया। लेकिन क्या यह माहौल स्थायी है? शायद नहीं।

जो बाइडेन के डिबेट्स में कमज़ोर प्रदर्शन और उनकी भूलने की आदत ने ट्रम्प को बढ़त के पायदान पर लाकर खड़ा कर दिया। चिन्तित डेमोक्रेट्स यह चर्चा करने लगे कि क्या बाइडेन के साथ वह ट्रम्प को हराने की कल्पना कर सकते हैं? अधिकतर का जवाब न में था। बाइडेन को मैदान से बाहर करने की मुहिम के सबसे बड़े पैरोकार पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा थे। भले वह ट्रम्प की मज़बूती को देखते हुए बाइडेन को उम्मीदवारी से हटाने की मुहिम चला रहे थे; इसके पीछे एक मक़सद पत्नी मिशेल ओबामा के लिए पद की उम्मीदवारी की संभावना बनाना भी था। मिशेल का नाम पहले भी दो बार डेमोक्रेटिक पार्टी में राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के लिए चर्चा में रहा है। लिहाज़ा ओबामा की कोशिश आश्चर्यजनक नहीं थी। लेकिन इस बीच बाइडेन ने अचानक अपना नाम राष्ट्रपति की उम्मीदवारी से वापस ले लिया। यही नहीं, उन्होंने पद के लिए कमला हैरिस की उम्मीदवारी का समर्थन कर दिया। बाइडेन ख़ेमे में ओबामा के प्रति नाराज़गी थी। लिहाज़ा ऐसा करने से ओबामा की कोशिशों को धक्का लगा। इसके बावजूद एक हफ़्ते तक ओबामा ने हैरिस के नाम का समर्थन नहीं किया, जबकि तब तक पार्टी के ज़्यादातर बड़े नेता हैरिस के समर्थन की घोषणा कर चुके थे। लेकिन अब यह तय हो गया है कि कमला हैरिस ही डेमोक्रेटिक पार्टी से राष्ट्रपति पद की उमीदवार होंगी; भले इसका अंतिम फ़ैसला आधिकारिक रूप से अगस्त के पहले हफ़्ते होने वाली पार्टी की कन्वेंशन में होगा।

A voter casts her ballot at a polling station on Election Day in Falls Church, Virginia, U.S., November 7, 2023. REUTERS/Kevin Lamarque/ File photo

कमला हैरिस को मतदान के पहले दौर में नामांकन जीतने के लिए ज़रूरी 1,976 प्रतिनिधियों से ज़्यादा का समर्थन हासिल हुआ जिससे साफ़ दिख रहा है कि हैरिस नवंबर के राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन डोनाल्ड ट्रम्प को चुनौती देने के लिए तैयार हैं। वास्तव में यह रोल कॉल वोट कहलाता है। हैरिस को अगस्त में शिकागो में होने वाली डेमोक्रेटिक नेशनल कन्वेंशन में अब पूरा समर्थन मिलने की पक्की संभावना दिख रही है। राष्ट्रपति पद के लिए कमला हैरिस के विरोधी के रूप में सामने आने से डोनाल्ड ट्रम्प के पक्ष में जो माहौल बना था, उसमें कमी आयी है। उम्मीदवारी लगभग पक्की होने के बाद इजरायल के गाज़ा में हमलों में मरने वाले बेक़सूर लोगों को लेकर जिस तरह कमला हैरिस ने कड़ा रुख़ दिखाया है, उससे अमेरिका में उनका समर्थन बढ़ सकता है। ट्रम्प जिस तरह जो बाइडेन की उम्र (83 साल) को लेकर सवाल उठा रहे थे, अब केवल 59 साल की हैरिस यही सवाल ट्रम्प (79) की उम्र को लेकर उठा रही हैं। ट्रम्प के कोर्ट में चल रहे मामले भी हैरिस के लिए एक मुद्दा हैं। अमेरिका में यह सवाल उठाया जा रहा है कि यदि इन मामलों में दोषी पाये जाने पर ट्रम्प को सज़ा मिलती है, तो क्या होगा? कमला के राष्ट्रपति उम्मीदवार होने से बड़ी संख्या में भारतीय भी उनके साथ जा सकते हैं।

कमला हैरिस की विदेश मामलों में जानकारी को लेकर रिपब्लिकन सवाल उठा रहे हैं। यदि व्हाइट हाउस की वेबसाइट पर कमला हैरिस के पेज को देखा जाए, तो पता चलता है कि एक उपराष्ट्रपति के तौर पर कमला हैरिस ने पिछले साढ़े तीन साल के कार्यकाल के दौरान डेढ़ दज़र्न देशों का दौरा किया। इस दौरान कमला ने 150 से ज़्यादा विदेशी नेताओं से मुलाक़ात / बैठकें कीं। रिपब्लिक के विरोध के बावजूद अमेरिका में कई लोग मानते हैं कि राष्ट्रपति के उम्मीदवार के रूप में कमला हैरिस की नीतियाँ वास्तव में अब सामने आएँगी। इनमें से कई जानकार कहते हैं कि उप राष्ट्रपति के रूप में भूमिका के विपरीत अब कमला की छवि कहीं ज़्यादा मज़बूत नेता के रूप में सामने आ सकती है। अमेरिकी चुनाव पर बाहरी देशों- रूस, चीन और भारत की नज़र है। यह माना जाता है कि रूस की प्राथमिकता अपने हित देखने की रहेगी। डोनाल्ड ट्रम्प के पिछले कार्यकाल को लेकर रूस में निराशा ही अनुभव की गयी थी। यूक्रेन में रूस के हमले के बाद ट्रम्प लगभग ख़ामोश रहे। कारण था- जो बाइडेन का राष्ट्रपति पुतिन को किलर कहना।

उधर ट्रम्प ने तो एक मौक़े पर यूक्रेन को अमेरिकी मिलिट्री मदद पर सवाल खड़े किये थे। जहाँ तक चीन की बात है, ताइवान दोनों देशों के बीच तनाव का एक बड़ा कारण रहा है। ट्रम्प जहाँ ताइवान को निशाने पर रखते रहे हैं, वहीं बाइडेन ने राष्ट्रपति के रूप में ताइवान के साथ खड़े रहने की क़सम खायी थी। हैरिस चीनी नेता शी जिनपिंग के साथ 2022 में बैंकॉक में एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग शिखर सम्मेलन में मिल चुकी हैं।

बाइडेन की तरह हैरिस ताइवान के पक्ष में समर्थन जता चुकी हैं। एक गवर्नर के रूप में कमला हैरिस हॉन्गकॉन्ग और उइगर में मानवाधिकारों की मुखर समर्थक रही हैं। नहीं भूलना चाहिए कि 2019 में हैरिस ने रिपब्लिकन सीनेटर मार्को रुबियो के पेश किये हॉन्गकॉन्ग मानवाधिकार और लोकतंत्र अधिनियम को सह-प्रायोजित किया था। इसका मक़सद हॉन्गकॉन्ग में मानवाधिकारों को बढ़ावा देना था। बाद में उस समय के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने इस विधेयक पर हस्ताक्षर करके इसे क़ानून बना दिया था। उसी साल कमला ने उइगर मानवाधिकार नीति अधिनियम को पारित करने में मदद की। यह 2020 में क़ानून बन गया और इसने अमेरिका को शिनजियांग में मानवाधिकारों के उल्लंघन में शामिल व्यक्तियों या संस्थाओं पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार दिया।

जहाँ तक भारत की बात है, यह सर्वविदित है कि बाइडेन के कार्यकाल के दौरान अमेरिका-भारत के सम्बन्धों में कोई ख़ास गर्माहट नहीं दिखी है। इसका एक कारण जानकार डोनाल्ड ट्रम्प के प्रति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के झुकाव को मानते हैं। हाल में जब ट्रम्प पर हमला हुआ था, तो मोदी ने इस हमले की निंदा करते हुए उनके लिए दोस्त शब्द का इस्तेमाल किया था। यही कारण है कि भारत की नज़र अमेरिका के चुनाव पर लगी है। हाल के वर्षों में बाइडेन प्रशासन भारत में अल्पसंख्यकों, ख़ासकर मुसलमानों के प्रति मोदी प्रशासन की नीतियों को लेकर सवाल उठाता रहा है। कमला हैरिस को मानवाधिकारों के प्रति बहुत संवेदनशील नेता माना जाता है। ऐसे में जानकार मानते हैं कि ट्रम्प की जीत मोदी प्रशासन को ज़्यादा रास आएगी, बनिस्बत हैरिस के। जहाँ तक कमला के साथ डेमोक्रेटिक पार्टी में उप राष्ट्रपति पद के संभावितों की बात है, इनमें जोश शापिरो (पेंसिल्वेनिया के गवर्नर), मार्क केली (एरिजोना के सीनेटर), रॉय कूपर (उत्तरी कैरोलिना गवर्नर), एंडी बेशर (केंटकी के गवर्नर) जेबी प्रिटजकर (इलिनोइस के गवर्नर), ग्रेचेन व्हिटमर (मिशिगन के गवर्नर), परिवहन सचिव पीट बटिगिएग, टिम वाल्ज़ (मिनेसोटा के गवर्नर), सेवानिवृत्त एडमिरल विलियम मैकरेवन के अलावा मैरीलैंड के गवर्नर वेस मूर, सीनेटर एमी क्लोबुचर, कोरी बुकर और जॉर्जिया के सीनेटर राफेल वारनॉक के नाम चर्चा में हैं।

पूरी दुनिया की अमेरिकी के राष्ट्रपति चुनाव पर नज़र लगी हुई है। लेकिन सबसे शक्तिशाली और सभ्य होने का दावा करने वाले अमेरिका के चेहरे पर वहाँ चार राष्ट्रपतियों की हत्या के दाग़ भी हैं। इनमें अब्राहम लिंकन को 14 अप्रैल, 1865 को गोली मारी गयी, जिससे उनकी मृत्यु हो गयी। जेम्स गारफील्ड को भी 02 जुलाई, 1881 को गोली मारी गयी और 19 सितंबर को उनकी मौत हो गयी। विलियम मैककिनले को 06 सितंबर, 1901 को गोली मारी गयी और 14 सितंबर को उनकी मौत हो गयी। और जॉन एफ. कैनेडी को 22 नवंबर, 1963 को गोली मारी, जिससे उनकी मौत हो गयी। इसके अलावा चुनाव के दौरान कई बार गोलीबारी की घटनाएँ हुई हैं, जिनमें सबसे ताज़ा घटना ट्रम्प पर गोली चलने की है। क्या दुनिया में लोकतंत्र भी बन्दूक के बंधक हो चुके हैं?

पुजारियों ने किया आस्था को शर्मसार

के. रवि (दादा)

किसी समय में महिलाओं का सम्मान करने में महाराष्ट्र का कोई सानी नहीं था। आज भी बहुत-से लोग महिलाओं के सम्मान के लिए अपनी जान की बाज़ी लगा देते हैं, पर कितने ही दरिंदे अब महाराष्ट्र में भी फल-फूल रहे हैं। उन्हें महिलाओं के साथ दुराचार करना किसी खेल से ज़्यादा नहीं है। 06 जुलाई, 2024 को तो दिल दहला देने वाले मामले ने लोगों की आस्था को भी झकझोरकर रख दिया।

महाराष्ट्र के ठाणे ज़िले के डोंबिवली के पास शील-डायघर में बलात्कार की ऐसी घटना घटी कि सभी हैरान-परेशान हैं। किसी ने नहीं सोचा था कि मंदिर के ही तीन पुजारी इतने दरिंदे निकलेंगे कि घर से पीड़ित महिला, जो कि भगवान की शरण में अपना दुखड़ा लेकर फ़रियादी बनकर आयी, उसी के साथ सामूहिक दरिंदगी करके उसकी हत्या कर देंगे। पुलिस रिपोर्ट के मुताबिक, 06 जुलाई 2024 को शील-डायघर के मंदिर में बेलापुर निवासी एक 30 वर्षीय महिला से कथित रूप से सामूहिक दरिंदगी हुई और उसके बाद उसकी हत्या कर दी गयी।

स्थानीय सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक, शील-डायघर थाना क्षेत्र की एक महिला अपने घर के कलह से तंग आकर यहाँ के प्रसिद्ध घोल गणेश मंदिर में शान्ति तलाशने और भगवान को अपनी फ़रियाद सुनाने पहुँची। महिला घर नहीं जाना चाहती थी और भूखी भी थी, इसलिए दोपहर में जब कोई मंदिर में नहीं था, तब वहाँ पूजा करने वाले तीन पुजारियों ने उसे खाना खिलाया। महिला को पुजारियों पर भरोसा हुआ, तो वह वहीं रुकी रही। पर उसे क्या पता था कि पुजारियों के मन में खोंट है और वे उसके जिस्म को देखकर दरिंदगी का प्लान बना चुके हैं। शाम को पुजारियों ने महिला को चाय पीने को दी, जिसे पीकर महिला बेहोश हो गयी। रात भर मंदिर के अंदर ही उसके साथ तीनों दरिंदों ने दरिंदगी की। सुबह जब महिला को होश आया और उसे अपने साथ किसी अनहोनी की आशंका हुई, तो वह पुजारियों से इस बारे में ग़ुस्से से पूछने लगी। पकड़े जाने के डर से तीनों दरिंदे पुजारियों ने बेरहमी से पीट-पीटकर उसकी हत्या कर दी और शव पास के जंगल में फेंक दिया। तीन दिन बाद किसी भले मानुष ने शव देख लिया और पुलिस को सूचित कर दिया।

डायघर शील पुलिस थाने के वरिष्ठ पुलिस इंस्पेक्टर संदीपान शिंदे के मुताबिक, महिला का उसके पति से झगड़ा हुआ था, जिसके कारण वह घर से चली गयी। उसके पति ने अपनी ससुराल कोपरखैराने में पूछा कि वहाँ तो नहीं पहुँची है? जब अगले दिन भी महिला नहीं मिली, तो उसके माँ-बाप ने नवी मुंबई के एनआरआई पुलिस स्टेशन में गुमशुदगी का मामला दर्ज करा दिया। 09 जुलाई को जब पुलिस को मंदिर के पास पहाड़ी इलाक़े में एक महिला का शव होने की जानकारी मिली, तो पुलिस ने शव बरामद कर तहक़ीक़ात की। सीसीटीवी फुटेज से पता चला महिला को आख़िरी बार घोल गणेश मंदिर में जाते देखा गया। जब पुजारियों से स$ख्ती से पूछताछ की, तो मामले की पोल खुल गयी। पुलिस ने कथित सामूहिक बलात्कार और हत्या के आरोप में तीनों पुजारियों राजस्थान निवासी श्याम सुंदर शर्मा (62 वर्ष), राजस्थान निवासी संतोष कुमार मिश्रा (45 वर्ष) और उत्तर प्रदेश निवासी राजकुमार पांडे (52 वर्ष) को गिरफ़्तार कर लिया है और महिला के पति पर भी दहेज प्रताड़ना का मामला दर्ज किया है। पुलिस के मुताबिक, मंदिर का असली पुजारी उत्तर प्रदेश में अपने गाँव गया हुआ था। उसने अपनी अनुपस्थिति में इन पुजारियों को बुलाकर मंदिर की सेवा में लगा दिया; पर इन तीनों ने दिल दहला देने वाली दरिंदगी को अंजाम दे दिया।

महाराष्ट्र के ठाणे ज़िले में ही जुलाई के पहले सप्ताह में एक नाबालिग़ बच्ची से दरिंदगी की घटना को अंजाम देकर एक दरिंदे ने उसकी गला दबाकर हत्या कर दी। वहीं बीड ज़िले के माजलगांव में एक 14 साल की छात्रा से भी एक दरिंदे ने दरिंदगी की। आज महाराष्ट्र में हर रोज़ कहीं हत्या, तो कहीं दरिंदगी की घटनाएँ सामने आ रही हैं। साल 2022 में दंगों के सबसे अधिक मामले भी महाराष्ट्र में ही हुए। इस साल राज्य में 8,218 दंगे हुए। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने ये आँकड़े जारी किये और ये भी बताया महाराष्ट्र में 2022 में बलात्कार के 2,904 मामले दर्ज हुए। ताज्जुब है 2022 में महाराष्ट्र में आईपीसी की धाराओं के तहत 3,74,038 आपराधिक मामले दर्ज हुए। इसके बाद के आँकड़े सामने नहीं आये हैं। पर हैरानी यह है कि महाराष्ट्र के कई नेताओं के ख़िलाफ़ भी बलात्कार के साथ महिला पीड़ितों के मामले दर्ज हैं। क़ानून के रखवाले ही जहाँ ऐसा चरित्र रखते हों, वहाँ अबला महिलाएँ कैसे सुरक्षित रह सकती हैं? इस घटना के बाद महाराष्ट्र की मराठी अवाम माँग कर रही है कि वर्षों से मुंबई के मंदिरों में परप्रांतीय पुजारियों की सरकारी निगरानी होनी चाहिए। सिर्फ़ चैरिटी कमिश्नर के पास मंदिर के पुजारियों की सूची होने से ही मंदिर में दर्शन करने आने वाली महिलाएँ सुरक्षित नहीं मानी जा सकतीं। डायघर के शील गणपति मंदिर में पुजारियों द्वारा की गयी दरिंदगी से साबित होता है कि सभी पुजारी अच्छे नहीं हैं।

जनसमस्याओं से दूर की राजनीति

उत्तर प्रदेश राजनीति का सबसे बड़ा अखाड़ा है। देश की सबसे अधिक लोकसभा सीटों एवं सबसे अधिक विधानसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में हर स्तर पर राजनीति होती है, जिसका रंग इतना गहरा है कि कोई भी आमजन इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता। मगर उत्तर प्रदेश में जनसमस्याओं से अधिक जाति एवं धर्म की राजनीति होती है। वर्ष 2017 में रामज़ादे एवं हरामज़ादे से आरंभ हुई उत्तर प्रदेश की राजनीति राम राज्य, मंदिर, अपराधियों के अंत एवं बुलडोज़र के बाद अब दुकानों एवं रेहड़ी पटरी वालों के नाम की प्लेट तक आ गयी है।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के कांवड़ियों की धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाले आदेश के उपरांत प्रदेश में कहीं-कहीं धार्मिकता हावी हो चुकी है, तो कहीं-कहीं मानवता के उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं। मेरठ में आदेश के उपरांत जो हुआ, उसकी निंदा की जानी चाहिए। कुछ लोग कई जगह अभी तक धर्म एवं जाति के आधार पर जनता में फूट डालने के प्रयासों में लगे हैं। मगर कई मानवतावादी उदाहरण भी लोग प्रस्तुत कर रहे हैं।

अध्यापक बलवंत सिंह कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में राजनीति उपद्रव एवं विध्वंस लेकर चलती है। किसी भी पार्टी की सरकार हो, उसे स्वयं के गिरने का डर जब-जब सताता है, तब-तब वो धर्मों एवं जातियों में टकराव कराने का षड्यंत्र रचती है। मगर इस बार धर्म से ऊपर उठकर लोग अपने जीवन की समस्याओं को आगे लेकर चल रहे हैं, जिसके चलते प्रदेश में शान्ति बनी हुई है। मेरठ में धर्म की आग भड़काने के प्रयास हुए; मगर कुछ समझदार लोगों ने उसे सँभाल लिया। सभी प्रदेशवासी प्यार एवं भाईचारे की मशाल जलाना चाहते हैं। आठवीं बार कांवड़ लेकर जाने वाले विक्रम कहते हैं कि उन्हें आज तक किसी ने कभी तंग नहीं किया। न ही कभी किसी ने उन्हें भ्रष्ट करने का प्रयास किया। विक्रम कहते हैं कि उनके साथ कांवड़ लाने वालों की संख्या अत्यधिक होती है; मगर कभी किसी मुस्लिम ने उनकी पवित्रता समाप्त करने का कोई प्रयास नहीं किया। कई बार तो मुस्लिम समाज के लोगों ने उनकी सहायता की है। उत्तर प्रदेश में कांवड़ियों वाले मार्गों पर दुकानदारों एवं रेहड़ी लगाने वालों को अपना नाम लिखकर लगाना अनिवार्य करने के प्रदेश सरकार के कथित आदेश को सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिबंधित कर दिया है।

बिजली आपूर्ति का संकट

उत्तर प्रदेश में इन दिनों बिजली आपूर्ति एक बड़ी समस्या बनी हुई है। विकट गर्मी एवं उमस के बीच कई-कई घंटे के कट लगने से लोग बेचैन हैं। हालाँकि प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने आम जनता की समस्याओं के तत्काल निपटान के अतिरिक्त बिजली आपूर्ति बढ़ाने के निर्देश दिये हैं। सभी डिस्कॉम के प्रबंध निदेशकों को निर्देशित किया गया है कि तय समय सारणी के अनुरूप बिजली आपूर्ति को सुनिश्चित करें, जिससे बिजली के कट न लगें एवं जनता को समस्याओं का सामना न करना पड़े।

नगर विकास और ऊर्जा मंत्री ए.के. शर्मा ने निर्देश दिये हैं कि ग्रामीण क्षेत्र में 18 घंटे, तहसील मुख्यालय स्तर पर 21:30 घंटे एवं जनपदों में 24 घंटे बिजली आपूर्ति सुनिश्चित की जाए। हालाँकि बिजली के कट लगने से हलकान जनता को न दिन में ही चैन मिल रहा है एवं न ही रातों को चैन की नींद ही आ रही है। उत्तर प्रदेश में महँगी बिजली होने एवं बहुत अधिक बिजली बिल आने के उपरांत भी बिजली आपूर्ति न हो पाना एक गंभीर समस्या बन चुकी। इस समस्या ने व्यापारियों, किसानों, विद्यार्थियों, छोटे बच्चों एवं बुजुर्गों को सबसे अधिक रुला रखा है। लोग गर्मी के चलते रोग ग्रस्त हो रहे हैं। नगर विकास और ऊर्जा मंत्री ए.के. शर्मा ने कहा है कि आपूर्ति के दौरान यदि कोई स्थानीय गड़बड़ी के कारण कुछ समय के लिए बिजली आपूर्ति बाधित होती है, तो उसकी भरपाई कटौती के दौरान अतिरिक्त बिजली आपूर्ति करके की जाएगी। यही व्यवस्था कृषि क्षेत्र में बिजली आपूर्ति को लेकर की जाएगी।

ग्रामीणों की तहसीलों में समस्याओं की भी भरमार है। किसानों की समस्याओं का जल्दी निपटान नहीं हो पाता है। भूमि-विवादों के निपटान में भी बहुत अधिक समय लगता है। पिछले दिनों एक किसान की समस्या का निपटान न होने पर झगड़ा भी हो गया था। तहसील दिवस पर इतनी अधिक समस्याएँ होती हैं कि उनका निपटान नहीं हो पाता।

गर्मी से कई विद्यार्थी बेहोश

उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में बारिश हो रही है; मगर अधिकांश क्षेत्रों में गर्मी एवं उमस ने जनता को रुला रखा है। विद्यालयों में कहीं गर्मी से बचने की व्यवस्था में ही कमी है, तो कहीं बिजली कटौती के कारण अध्यापकों से लेकर विद्यार्थी तक सब बेचैन हैं। 30 जुलाई को को प्रदेश के कई विद्यालयों में कुछ अध्यापकों एवं 62 विद्यार्थियों के गर्मी से बेहोश होने के समाचार मिले। अकेले एटा जनपद में 33 विद्यार्थियों के बेहोश होने के समाचार मिले। एटा के के अतिरिक्त 30 जुलाई को गोंडा जनपद में 12 छात्राएँ एवं शिक्षिकाएँ गर्मी के चलते बेहोश हो गयीं। रामपुर में गर्मी के चलते सात विद्यार्थी बेहोश हो गये। इसके अतिरिक्त संभल एवं मथुरा में चार-चार, वहीं सीतापुर, रायबरेली एवं प्रयागराज में एक-एक विद्यार्थी के बेहोश होने के समाचार मिले। भीषण गर्मी से परिषदीय विद्यालयों में लगातार शिक्षकाएँ एवं विद्यार्थियों की बेहोश होने की घटनाओं के उपरांत उत्तर प्रदेशीय प्राथमिक शिक्षक संघ ने विद्यालयों को सुबह 07:30 से 12:30 बजे तक खोलने के लिए बेसिक शिक्षा विभाग से अनुरोध किया गया है।

भाजपा में असमंजस

उत्तर प्रदेश में 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने हैं। सभी 10 सीटों को जीतने के प्रयास में लगी भारतीय जनता पार्टी में अंतर्कलह मचा हुआ है, जिसके चलते पार्टी के प्रमुख प्रचारक अभी अपने प्रचार-प्रसार की रणनीति नहीं बना पा रहे हैं। बहुजन समाज पार्टी एवं आज़ाद समाज पार्टी ने इस चुनाव में सभी 10 सीटों पर अपने अपने प्रत्याशी उतारने का मन बना लिया है, जिससे भारतीय जनता पार्टी की चिन्ता बढ़ गयी है। इसके अतिरिक्त एनडीए की सहयोगी पार्टियों के नेता संजय निषाद एवं ओमप्रकाश राजभर दो-दो टिकट माँग रहे हैं, जिससे भारतीय जनता पार्टी की समस्या बढ़ गयी है। इंडिया गठबंधन के आधार पर समाजवादी पार्टी एवं कांग्रेस में सीटों के बँटवारे को लेकर कुछ उलझन है। पहले समाचार आये कि 7-3 के अनुपात में बँटवारा होगा। मगर अब कुछ सूत्र कह रहे हैं कि कांग्रेस आधी सीटें चाहती है।

भारतीय जनता पार्टी में फूट एवं असंतोष की स्थिति है, जो भले ही बाहर नहीं दिख रहा है; मगर अंदर अंदर इसने विकराल रूप ले लिया है। सूत्रों की मानें, तो उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य केंद्र सरकार को रिझाने में लगे हैं एवं उन्हें विश्वास है कि एक-न-एक दिन वह प्रदेश के मुख्यमंत्री बनेंगे। भारतीय जनता पार्टी में इस इस असंतोष का लाभ उठाने का प्रयास करते हुए ही विदके हुए उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की ओर संकेत करते हुए समाजवादी पार्टी प्रमुख एवं प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री ने कह दिया कि 100 विधायक लाओ, मुख्यमंत्री बन जाओ। उत्तर प्रदेश की राजनीति को समझने वाले राजेंद्र सिंह कहते हैं कि अखिलेश यादव द्वारा फेंका गया चारा प्रलोभन का जाल है, जिसमें कभी न कभी कोई-न-कोई भारतीय जनता पार्टी का नेता फँसेगा अवश्य। अभी तो भारतीय जनता पार्टी के नेता 10 सीटों पर उपचुनाव का परिणाम देखने के लिए शान्त हैं। अगर चुनाव परिणाम सही नहीं आये, तो भारतीय जनता पार्टी में भगदड़ मच सकती है।

पौधरोपण से अधिक कटान

05 जून को विश्व पर्यावरण दिवस पर देशवासियों से एक पेड़ मां के नाम लगाने के प्रधानमंत्री मोदी के आह्वान के उपरांत उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पौधरोपण महाअभियान आरंभ कर दिया है। उत्तर प्रदेश के कई मंत्री, विधायक पौधे लगाने की मुहिम में लगे हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में 20 जुलाई से प्रदेश में 36.50 करोड़ पौधे रोपे जाने वाले अभियान का शुभारंभ हुआ है। मुख्यमंत्री योगी पेड़ बचाओ जन अभियान-2024 के तहत पौधरोपण को बढ़ावा दे रहे हैं। मगर वहीं दूसरी ओर उत्तर प्रदेश में सरकार ने ही वृक्षों के कटान की अति कर दी है।

कांवड़ियों के मार्ग को अवरोध रहित करने के नाम पर ही राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण को अवगत कराते हुए जुलाई में योगी सरकार ने 33,000 हरे-भरे वृक्ष काटने की योजना बना डाली। लगभग 111 किलोमीटर लंबे कांवड़ यात्रा मार्ग के दोनों ओर लगे ये वृक्ष कांवड़ यात्रा में अवरोध थे भी या नहीं, यह सरकार ने नहीं सोचा। पहले भी योगी सरकार ने प्रदेश भर में लाखों वृक्ष कटवा दिये हैं। केंद्र सरकार की अनुमति पर ही प्रदेश में 1,10,000 वृक्ष काटे जा चुके हैं। अब मुख्यमंत्री योगी कह रहे हैं कि जितने वृक्ष काटे जाएँगे, उससे 10 गुना पौधे लगाये जाएँगे। यह तर्क तो अटपटा है। पौधों को वृक्ष बनने में कई वर्ष लगेंगे? इसके अतिरिक्त इसकी क्या गारंटी है कि सरकार आगे से वृक्ष नहीं काटेगी? पौधों की समुचित देखभाल भी करेगी कि नहीं?

आतंकवाद के शिकार

भारत को आज़ाद हुए 77 साल हो चुके हैं। लेकिन कई तरह की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समस्याओं से देश आज भी जूझ रहा है। इनमें से सबसे बड़ी समस्या आतंकवाद की है। आतंकवाद के चलते भारत का स्वर्ग कहे जाने वाले जम्मू-कश्मीर और लद्दाख़ जैसे महत्त्वपूर्ण इलाक़े में दहशत बनी रहती है। हाल की आतंकी घटनाओं ने एक बार फिर प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर भारत की इस घाटी को दहला दिया है। केंद्र में एनडीए की तीसरी बार सरकार बनने के बाद से 78 दिनों में ही 11 आतंकी हमले तो सिर्फ़ जम्मू में हुए। इसके बाद कई और आतंकी हमले हुए हैं।

भले ही पाकिस्तान की सीमा पर जम्मू-कश्मीर में तैनात भारतीय सैनिक आतंकवादियों का सफ़ाया कर रहे हैं; लेकिन कई भारतीय सैनिक इन आतंकी हमलों में शहीद हो चुके हैं और कई नागरिक निशाना बन चुके हैं। इसके बाद भी केंद्र सरकार इन हमलों पर चिन्तित होने से ज़्यादा अपने 10 साल के शासन-काल की आंतकी घटनाओं की तुलना यूपीए सरकार के 10 साल के शासन-काल की आतंकी घटनाओं से कर रही है। राज्यसभा में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने बड़ी बेशर्मी से कहा कि उनकी सरकार के 10 साल के कार्यकाल में यूपीए सरकार के 10 साल के कार्यकाल की अपेक्षा 68 प्रतिशत कम आतंकी हमले हुए हैं। इससे यह ज़ाहिर होता है कि मौज़ूदा केंद्र सरकार अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए अपनी पूर्ववर्ती सरकारों को कोसने से बाज़ नहीं आने वाली। राज्यसभा में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद ने कितने गर्व से कहा कि मोदी सरकार आने के बाद साल 2014 से 21 जुलाई, 2024 के बीच जम्मू-कश्मीर में आतंकी घटनाएँ घटकर 2,259 रह गयीं। यूपीए सरकार के मुक़ाबले मोदी सरकार में आतंकी घटनाओं में 68 प्रतिशत कमी आयी है। उन्हें सोचना चाहिए कि कई बार आतंकवाद को ख़त्म करने का दावा और वादा करने वाली भाजपा तीसरी बार केंद्र में आने पर भी आतंकवाद ख़त्म नहीं कर सकी। फिर किस मुँह से अपनी प्रशंसा कर रही है? क्या नोटबंदी के दौरान, सर्जिकल स्ट्राइक के दौरान, अनुच्छेद-370 हटाने का दावा करने के दौरान और चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दूसरे बड़े भाजपा नेताओं ने आंतकवाद को जड़ से ख़त्म करने के दावे नहीं किये थे? क्या उनके दावों और वादों के बाद जम्मू-कश्मीर में आतंकी हमले रुके?

अगर प्रधानमंत्री मोदी के अब तक के कार्यकाल के दौरान की बालाकोट और पुलवामा जैसी बड़ी आतंकी घटनाओं को ही देखें, तो इनकी संख्या लगभग तीन दज़र्न है। ख़ुद गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय भी यह मान चुके हैं कि प्रधानमंत्री मोदी के 10 साल के शासन-काल में 21 जुलाई, 2024 तक 2,259 आतंकी हमले हुए। फिर यह बेशर्मी कैसी कि हमारी सरकार में आतंकी घटनाएँ कम हुई हैं?

देश की जनता एक तरफ़ पाकिस्तान नियोजित आतंकवाद से पीड़ित है, तो दूसरी तरफ़ आंतरिक आतंक से परेशान है। पाकिस्तानी आतंकवाद कुछ देशद्रोहियों की देन है, तो आंतरिक आतंक भी भ्रष्टाचारियों और अपराधियों की देन है। बाहरी आतंकवाद से निपटने के लिए अपनी जान हथेली पर रखकर देश-सेवा में लगे भारतीय जवान अपने घरों से दूर रहकर रात-दिन देश और देशवासियों की सुरक्षा में तैनात रहते हैं। लेकिन आंतरिक आतंक से जनता को बचाने के लिए ले-देकर पुलिस ही है, जिसके हाथ ज़्यादातर मौ$कों पर बँधे रहते हैं। ज़्यादातर मामलों में पुलिस अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के बारे में सब कुछ जानते हुए भी कुछ नहीं कर पाती। यही वजह है कि पुलिस में भी भ्रष्टाचारियों की संख्या काफ़ी है। राजनीतिक और पूँजीवाद के दबाव में काम करने को मजबूर पुलिस के कई जवान ऊपर के भ्रष्टाचार को सींचने के लिए इतने मजबूर किये जाते हैं कि अगर वे उन ग़ैर-क़ानूनी आदेशों को न मानें, तो उनकी नौकरी नहीं बचेगी। यह भी हो सकता है कि ईमानदारी का नतीजा उन्हें सज़ा के रूप में भुगतना पड़े। आज़ाद भारत में कई ईमानदार पुलिकर्मियों का अंजाम काफ़ी बुरा देखा भी गया है। फिर भी लाखों पुलिसकर्मी आज भी अपने ज़मीर का सौदा नहीं करते हैं और ज़िन्दगी भर ईमानदारी से जन-सेवा करते हैं। यह अलग बात है कि इसके बदले उन्हें बार-बार तंग किया जाता है। उनकी उन्नति रोक दी जाती है। कई बार उन्हें ईमानदारी के इनाम में अवनति मिलती है।

लेकिन जनता क्या करे? उसे कभी कोई भ्रष्टाचारी अपने लालच का शिकार बनाता है, तो कभी कोई अपराधी अपने ग़ुस्से का शिकार बना डालता है। कभी राजनीतिक बहकावे में आकर मूर्खों की भीड़ किसी को पीट देती है; किसी की हत्या कर देती है; तो कभी क़ानून के रखवाले ही उसे अपना शिकार बना लेते हैं। सबसे ज़्यादा शिकार निर्धन और मध्यम वर्ग का होता है। इन वर्गों में भी महिलाएँ सबसे आसान शिकार हैं। यह आंतरिक आतंकवाद हर दिन देश में लाखों लोगों की ज़िन्दगी बर्बाद कर रहा है। दज़र्नों समस्याएँ इस आंतरिक आतंकवाद की देन हैं। इस आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले इतने मज़बूत हैं कि चाहकर भी उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। सरकार इन दोनों तरह के आतंकवाद से आख़िर कब निपटेगी?

जमाअत-ए-इस्लामी हिंद ने बांग्लादेश में शांति की बहाली और हिंसा समाप्त करने की अपील की

नई दिल्ली : जमाअत -ए-इस्लामी हिंद के अमीर (अध्यक्ष) सैयद सआदतुल्लाह हुसैनी ने बांग्लादेश की वर्तमान स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए इस आपातकालीन स्थिति से निपटने के लिए जिम्मेदार अधिकारियों से देश में शांति और स्थिरता बहाल करने एवं तत्काल और निर्णायक कार्रवाई की अपील की है।
मीडिया को जारी एक बयान में सैयद सआदतुल्लाह हुसैनी ने कहा, “जमाअत-ए-इस्लामी हिंद बांग्लादेश की मौजूदा स्थिति और क्षेत्र पर इसके दूरगामी परिणामों पर गहरी चिंता व्यक्त करती है। बांग्लादेश में वर्तमान अशांति शेख हसीना सरकार की तानाशाही और शासन के प्रति कठोर दृष्टिकोण का प्रत्यक्ष परिणाम है। जनवरी 2024 में बांग्लादेश का चुनाव अनुचित प्रथाओं के व्यापक आरोपों से प्रभावित था, जिसके कारण संपूर्ण विपक्ष ने चुनावी प्रक्रिया का बहिष्कार किया था। इससे लोकतंत्र की बुनियाद कमजोर हुई और राजनीतिक व्यवस्था में जनता का विश्वास खत्म हुआ। इसके अतिरिक्त, प्रतिशोध की राजनीति द्वारा असहमति की आवाजों को दबाने के लिए पिछली सरकार के प्रयास बेहद परेशान करने वाले थे। प्रमुख विपक्षी नेताओं को अन्यायपूर्ण तरीके से जेल में डाला गया जिससे लोकतांत्रिक संवाद बाधित हुआ और राजनीतिक तनाव बढ़ा।
जमाअत के अमीर ने आगे कहा, “प्रदर्शनकारी छात्रों के प्रति शेख हसीना सरकार की प्रतिक्रिया युद्ध जैसी स्थिति में इस्तेमाल किए जाने वाले उपायों के समान अत्यधिक हिंसक और दमनकारी थी। जमाअत-ए-इस्लामी हिंद बांग्लादेश के शीर्षस्थ अधिकारियों से आग्रह करती है कि वे देश में शांति और स्थिरता बहाल करने के लिए तत्काल और निर्णायक कार्रवाई करें तथा तत्काल एक अंतरिम सरकार का गठन करें, जिस पर लोगों का विश्वास हो। इस अवधि के दौरान सभी पीड़ित लोगों को न्याय मिलना चाहिए और इसके लिए जिम्मेदार लोगों को दंडित किया जाना चाहिए। अंतरिम सरकार को बिना किसी देरी के लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हो सकें, तथा एक सच्ची प्रतिनिधिक और लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार की स्थापना हो जो बांग्लादेशी लोगों की आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करे। मीडिया में आई खबरों से पता चलता है कि उपद्रवी तत्व इस अशांति का फायदा उठाकर संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहे हैं तथा निर्दोष नागरिकों, विशेषकर अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों पर अत्याचार कर रहे हैं। हम इन हिंसक कृत्यों की स्पष्ट रूप से निंदा करते हैं तथा अल्पसंख्यकों एवं अन्य कमजोर समूहों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए तत्काल उपाय किए जाने की मांग करते हैं। यह जानकर प्रसन्नता होती है कि बड़ी संख्या में नागरिक और नागरिक समाज के सदस्य अल्पसंख्यक समुदायों के धार्मिक स्थलों और संपत्तियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आगे आ रहे हैं।“
उन्होंने कहा “यह सुनिश्चित करने के लिए भी उपाय किए जाने चाहिए कि बांग्लादेश की आंतरिक स्थिति क्षेत्र और पड़ोसी देशों के लिए सुरक्षा खतरे का रूप न ले ले। हम प्रदर्शनकारियों और आम जनता से भी अपील करते हैं कि वे देश में शांति और व्यवस्था बहाली को प्राथमिकता दें। सामाजिक सद्भाव बनाए रखने के लिए अल्पसंख्यकों और कमजोर समूहों के जीवन और संपत्तियों की सुरक्षा करना अनिवार्य है। जमाअत -ए-इस्लामी हिंद इस चुनौतीपूर्ण समय में बांग्लादेश के लोगों के साथ एकजुटता से खड़ी है और संकट के शीघ्र समाधान की आशा करती है, ताकि सभी के लिए शांतिपूर्ण और समृद्ध भविष्य का मार्ग प्रशस्त हो।”

हिन्दुओं के कथित रक्षक

शिवेन्द्र राणा

पिछले दिनों अम्बानी परिवार में शादी थी। हालाँकि यह उनके परिवार का निजी मामला था; लेकिन मीडिया ने उसे राष्ट्रीय उत्सव बना दिया। ख़ैर! इसी बीच एक आश्चर्यजनक ख़बर दिखी कि एक तथाकथित महंत ने वधु राधिका मर्चेंट के घाघरे पर भगवान श्रीकृष्ण का छपा चित्र सोशल मीडिया पर पोस्ट करके हिन्दू समाज को आक्रोशित करने का प्रयास करके अंबानी परिवार के विरोध का आह्वान किया।

प्रथम दृष्टया यह किसी ओछी मानसिकता के व्यक्ति की टिप्पणी लगती है, जिसके जीवन में कोई सार्थक कार्य न बचा हो। लेकिन यह इकलौता ऐसा मामला नहीं है, जहाँ सनातन धर्म के संत समाज, इन्हें आप तथाकथित भी कह सकते हैं; की हरकतें नागवार गुज़री हैं। अजीब है कि यहाँ देश मे धर्म, संस्कृति के अधोपतन के बहुतेरे कारण हैं, जिन पर परेशान होना चाहिए था। लेकिन उसके बजाय ऐसे संत हैं, जो महिला के घाघरे पर छपी तस्वीर में धर्म की अवनति देख रहे हैं। हालाँकि ग़लत यह भी है कि कोई पैसे के नशे में सर्वपूज्य हमारे देव का अपमान करे। लेकिन कमाल है कि ऐसे मुद्दों से लाभ लेने वाले तथाकथित संत और उनके भक्त देश में बढ़ रहे धर्मांतरण, अपने ही धर्म में बढ़ रहे पाखण्ड, भेदभाव, उसके आधार पर होने वाले अत्याचार, मॉब लिंचिंग और तथाकथित धर्म-गुरुओं की बुराइयों पर कुछ नहीं बोलते हैं।

एक तरफ़ सनातन धर्म, संस्कृति पर सामी पंथों के सुनियोजित षड्यंत्रकारी हमलों से त्रस्त सनातन समाज अपने इस संत-समूह से त्राण की उम्मीद रखता है और दूसरी तरफ़ उसे देश के कथित संतों के गिरते आचरण, उनके अज्ञान, सस्ते वाद-विवाद से ख़ुश होने और फंतासियों के चक्कर में पड़ने से ही फ़ुर्सत नहीं मिल रही है। अब तो कुछ नेता भी धर्म की रक्षा का नाटक करने लगे हैं। कभी-कभी लगता है कि बाज़ारीकरण ने सनातन धर्म के संत समाज को पूरी तरह अपनी गिरफ़्त में ले लिया है। इन्हें भी नेताओं की तरह ऐश-मौज़ से रहने और सेक्युलर दिखने का नशा चढ़ा है। सारे समाज को धर्म में आस्था की सीख देने वाले एक संत पिछले दिनों सड़कछाप ड्रामेबाज़ी करते हुए मुहर्रम के जुलूस में पीठ पर कोड़े लगाते दिखे।

संभव है कि सामी पंथीय षड्यंत्र से सनातन समाज की एकता खंडित हुई हो; लेकिन उसे एकजुट रखने से आपको किसने रोका है? हो सकता है कि सामी पंथीय मौलानाओं और पादरियों में चारित्रिक दोष हो, और है भी; जैसा कि विभिन्न मीडिया सूत्रों से ख़बर मिलती है। लेकिन आपको चरित्रवान बनने से किसने रोका है? हर बार प्रतिपक्षी या विरोधियों की कमियाँ गिनाकर ख़ुद की महानता नहीं साबित की जा सकती। सनातन धर्म का पथ-भ्रष्ट कु-संत समाज आध्यात्मिक-सामाजिक चेतना के प्रसार से इतर राजनीति एवं भौतिकता में धँसा है।

ग़रीब, अभावों से जूझते, अपने लिए सांत्वना तलाशते हिन्दुओं के चंदे पर प्राइवेट जेट और लग्जरी गाड़ियाँ लेकर क़ाफ़िले बनाकर घूमते ये सांसारिक मोह में फँसे निर्लज्ज कथित हिन्दू रक्षक कु-संत भौतिकतापूर्ण जीवन जी रहे हैं। बड़े-बड़े फार्महाउस बनाकर धंधा कर रहे हैं। आज देश की एक बड़ी आबादी को विभिन्न प्रलोभनों के द्वारा ईसाई मिशनरियों ने धर्मान्तरित कर डाला है; लेकिन दुनिया भर में अमीरी से जी रहे कथित संत और धार्मिक संस्थाएँ दिखावे और राजनीतिक टकराव मे उलझी हैं। सनातन धर्म अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है और इन्हें राजनीति मे ही सने रहना है।

हाथरस का बाबा कोई अपवाद नहीं है। सत्ता के दुर्योग से पैदा ऐसे कई कालनेमी यानी संत के भेष में दानव हैं, जो धर्म की आस्था के दोहन से अपना इहलोक सुधारने में लगे रहते हैं। ऐसे बाबाओं को सत्ता संरक्षण मिलना बंद नहीं होगा, और न ही ऐसे सामूहिक भगदड़ में मौतें बंद होंगी; जब तक लोग इन कालनेमियों के चक्कर से बाहर नहीं निकलेंगे। वैसे भी ख़ामोशी से बिना आडम्बर के धर्म, समाज, संस्कृति की नि:स्वार्थ सेवा और रक्षा करने वाले कुछ संतों को छोड़ दें, तो ज़रा याद करिए कि अधिकांश तथाकथित संत-समाज ने राष्ट्रीय निर्माण में कौन-सा उल्लेखनीय योगदान किया है?

वैसे इन्हें बहुत बुरा लगता है, जब कुछ अति पिछड़े और दलित तबक़े के लोग या किसी भी समाज के जागरूक लोग ब्राह्मणवादी व्यवस्था के नाम पर सनातन धर्म की कु-मान्यताओं को कोसते हैं। परन्तु ये संतत्व के गुणों से हीन अधकचरे ज्ञानी धन कमाने, अपने महिमामण्डन और धार्मिक विरुदावलियाँ गाने से ही ख़ुश रहते हैं। इन्हें इसकी फ़ुर्सत नहीं कि उन लोगों के बीच जाकर उन सैकड़ों वर्षों के भेदभाव, कुरीतियों, पाखण्डवाद, सामाजिक असमानता एवं जातिगत हीनता, शोषण पर बात करें। उनकी सुनें और अपनी सही राय बताएँ। दलितों, पिछड़ों को भी मुख्यधारा में जोड़ें और समाज को समरस बनाएँ। लेकिन नहीं; इसके बजाय देश में चुनावी राजनीति, कौन-सा मठ किसे मिले? कौन-सी गद्दी किसके पास हो? सिनेमा के प्रीमियर में जाने; न्यूज चैनल पर राजनीतिक विश्लेषक बनने; विभिन्न मंत्रियों, नेताओं, पार्टी प्रमुखों के साथ मिलने-जुलने और फोटो खिंचवाने; व्यास पीठ पर ड्रामेबाज़ी के अंदाज़ में कथा सुनाने; उस कथा में नये-नये मनगढ़त तथ्य जोड़ने; अंधविश्वास के उपाय बताने जैसे कामों से इन्हें फ़ुर्सत ही कहा हैं? यदि ये तथाकथित संत अपने इन प्रदर्शनकारी कृत्यों के बजाय 10 फ़ीसदी भी संतत्व धर्म का निर्वहन कर रहे होते, तो सनातन समाज का बड़ा कल्याण हो जाता।

अब जन-कल्याण के बजाय स्व-भौतिक कल्याण इस कथित संत समाज के लिए प्रमुख बन चुका है। पिछले कई दशकों से अखाड़ों के बीच मठ-मंदिरों पर क़ब्ज़े और शिष्य परंपरा सिद्ध करने हेतु चलने वाले हिंसक एवं अदालती संघर्षों से संत-परंपरा कलंकित हुई है। रही-सही कसर उन पंडे-पुजारियों ने पूरी कर दी है, जो धर्म की आड़ में मंदिरों में बैठकर न सिर्फ़ धंधा कर रहे हैं, बल्कि मंदिरों में ही बलात्कार और हत्या करने तक से नहीं चूकते हैं। कहीं देवदासी प्रथा के नाम पर बलात्कार हो रहे हैं, तो कहीं महिलाओं की मंडली के बीच रसिया बनकर घिनौने कुकृत्य करने वाले पाखण्डियों ने धर्म को अधोपतन की ओर ले जाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। कुछ वर्ष पूर्व प्रयागराज की बाघंबरी गद्दी पर वर्चस्व स्थापना के संघर्ष में षड्यंत्र, आत्महत्या हत्या और गिरफ़्तारियों का जो दौर चला, वो सर्वविदित है। और ऐसे मामले देश भर की अदालतों में चल रहे हैं, जिसमें कहीं मठ-मंदिर की प्रॉपर्टी का विवाद है, तो कही पद का। कई तथाकथित पंडे, पुजारी और कु-संत तो अपनी जवानी और चेहरे की चमक बरक़रार रखने के लिए न सिर्फ़ मांस-मदिरा का उपयोग छुपकर करते हैं, बल्कि बच्चियों पर भी गंदी नज़र रखते हैं। और रोना रोते हैं कि हिन्दू उनका सम्मान नहीं करते। व्यास पीठ की वर्तमान परंपरा पर ग़ौर करिए। धार्मिकता से इतर मेकअप से लदे ये स्त्रैण हावभाव प्रदर्शित करते कथावाचक हिन्दुओं की कोमल भावनाओं का दोहन करने का नया चलन बना चुके हैं। ग़रीब और आम लोगों से मिलने में सेलिब्रिटी जैसा व्यवहार करने वाले इन्हीं तथाकथित संत समाज के अग्रणियों को धन्नासेठों की चाटुकारिता करने में बड़ा गर्व का अनुभव होता है।

एक वो दौर भी रहा है, जब ब्रिटिश सत्ता भारत को लूटकर जनता का दमन करके उसका धर्मांतरण कर रही थी। तब रजवाड़ों की मौन कायरता को पीछे धकेल अनेक संन्यासियों ने धर्म-दण्ड को छोड़कर हथियार उठाये और आततायी सत्ता का मुक़ाबला किया (संन्यासी विद्रोह : 1770-1800)। और एक आज का तथाकथित संत समाज है, जो घुँघरू बाँधकर श्रोताओं के समक्ष नृत्य करने में ही आह्लादित है। ये नैतिक रूप से पतनशील कथित संत क्या सनातन धर्म की युवा पीढ़ी को वीर भोग्य वसुंधरा की शिक्षा देंगे? अब हो सकता है कि आपके पास तर्क हो कि ये बुराइयाँ तो सभी धर्मों और पंथों के वाहक वर्ग (धार्मिक गुरुओं) में आम हो चुकी हैं। तो समझना होगा कि दूसरों की कमियाँ गिनाकर अपना आचरण और चरित्र शुद्ध नहीं किया जा सकता। यदि स्वर्ग आपको चाहिए, तो इसके लिए पवित्र भी आपको ही होना होगा। उनके कुसंस्कारों की परिणति उनको भुगतनी है। आपकी ज़िम्मेदारी अपने धर्म, संस्कृति की है, जिनकी पवित्रता, मज़बूती, संस्कारों से हिन्दू समाज की सुरक्षा होगी। लेकिन प्रश्न और भी हैं। क्या सिर्फ़ संत समाज अकेला इस दुर्योग का दोषी है? संभवत: नहीं। इसके लिए सरकार भी उतनी ही जवाबदेह है। केवल भारत के मंदिर, मठ, उनकी परंपराएँ एवं वेद-वेदांग का ज्ञानी विद्वत् समाज सुरक्षित रहे, तो हिन्दू धर्म की सुरक्षा हो जाएगी। लेकिन आज भी मंदिरों का धन ख़ुद भी पचाया जा रहा है और मदिरों को टैक्स के दायरे में लाकर उनकी स्थिति व्यवसायिक संस्थान जैसी कर दी गयी है। वहीं चर्च, मस्जिदें और दरगाह इससे मुक्त हैं। सरकार किसी अन्य धर्मावलंबियों के उपासना स्थलों से टैक्स के रूप में धन वसूली क्यों नहीं करती? यह पंथनिरपेक्षता नहीं, बल्कि हिन्दुओं के धार्मिक अधिकारों का हनन है।

पिछले दिनों ज्योतिर्मय मठ के शंकराचार्य स्वामी अवमुक्तेश्वरानंद द्वारा सरकार पर केदारनाथ धाम, काशी विश्वनाथ मंदिर समेत अन्य कई मंदिरों का सोना उठवाने तथा उसे अन्य धातु से बदलने का आरोप लगाया है। क़ायदे से इस आरोप की जाँच होनी चाहिए थी; क्योंकि यह अत्यंत गंभीर आरोप है। यदि स्वामी अवमुक्तेश्वरानंद के आरोप मिथ्या है, तो ऐसे अनर्गल आरोपों के लिए उनकी जवाबदेही तय होनी चाहिए। लेकिन यदि उनके आरोपों में रत्ती भर भी सच्चाई है, तो सरकार के इस कृत्य को सनातन समाज और भारतीय लोकतंत्र द्वारा बिलकुल सहन नहीं किया जाना चाहिए।

भारत में सनातन धर्म का पतन हो रहा है। हर बार हम सामी पंथीय षड्यंत्रों पर इसका दोषारोपण करके अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकते। पूरा सनातन समाज नैतिक पतनशीलता से पीड़ित नज़र आ रहा है, जहाँ वह राष्ट्रधर्म के प्रति आग्रह और संस्कृति, संस्कारों के प्रति चिन्तन-शून्य होता जा रहा है। इसकी एक मुख्य वजह धर्म ध्वजवाहक कथित संत समाज का स्वयं कर्तव्यच्युत होना है। इसे ही अधोपतन कहते हैं। सॉल बेलो लिखते हैं- ‘किसी व्यक्ति को अपने बारे में सबसे बुरा सुनने और सहने में सक्षम होना चाहिए।’ यह भावना आत्मशुद्धि का एक बेहतरीन मार्ग प्रशस्त करेगी। उम्मीद है सनातन धर्म के ध्वज वाहक, और विशेष रूप से कथित संत एक बार स्वमूल्यांकन करने का प्रयास करेंगे; ताकि उनके बीच पसरे नैराश्य, कुंठा, भौतिकतावाद जैसे विभिन्न दुराग्रहों से संत परंपरा की शुद्धि हो सके।

भाजपा में विरोध के स्वर क्यों होने लगे मुखर ?

इस बार जैसे ही लोकसभा चुनाव में भाजपा अल्पमत में आयी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का न सिर्फ़ जलवा कम हो गया, बल्कि भाजपा में ही उनका विरोध शुरू हो गया है। पिछले 10 वर्षों में या यह कहें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के केंद्र सरकार में पिछले दो कार्यकालों में ऐसा कभी नहीं हुआ कि भाजपा में किसी नेता या मंत्री ने दबी ज़ुबान से भी उनकी पीठ के पीछे भी उनके ख़िलाफ़ कुछ भी बोलने, यहाँ तक कि उनके ख़िलाफ़ सोचने की भी कोशिश की हो। बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जलवा यह रहा है कि उनका फोन भी किसी मंत्री या नेता को चला जाता था, तो कुर्सी से उठ खड़ा होता था और ऐसे बात करता था, जैसे एक डरा हुआ बच्चा अपने हेड मास्टर के सामने बड़े अदब से सोच-समझकर बोलता है। प्रधानमंत्री मोदी का ही क्या, गृह मंत्री अमित शाह का भी अमूमन यही जलवा रहा है। लेकिन जैसे ही केंद्र में बैसाखियों के सहारे मोदी के नेतृत्व वाली सरकार बनी और भाजपा बहुमत से 32 सीटें कम 240 सीटों पर सिमटी, तबसे कई राज्यों से प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री के ख़िलाफ़ भाजपा के ही कई नेता, मंत्री, सांसद और विधायक बोलने लगे हैं। बोलने के अलावा बाक़ायदा वो चिट्ठियाँ लिखकर उनकी ख़िलाफ़त कर रहे हैं। इस्तीफ़ों का दौर शुरू हो गया है। झारखण्ड में गुणानंद महतो ने भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता पद से इस्तीफ़ा दे दिया, तो वहीं राजस्थान में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सी.पी. जोशी का इस्तीफ़ा हो सकता है।

दरअसल जब सरसंघचालक मोहन भागवत ने केंद्र की मोदी सरकार को, या यह कहें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जब कई मामलों को लेकर नसीहत दी, तभी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नाराज़ चल रहे उन्हीं की पार्टी के नेता उनके ख़िलाफ़ दबी ज़ुबान से बोलने लगे थे। लेकिन जैसे ही भाजपा केंद्र में पूर्ण बहुमत न लाकर कमज़ोर हुई और प्रधानमंत्री को अपने बलबूते पर कुछ बाहरी पार्टियों को एनडीए का हिस्सा बनाकर सरकार बनाने के लिए सहयोग लेना पड़ा, तो इस विरोध के दबे स्वर मुखर होकर बाहर तक सुनायी देने लगे। अब स्थिति यह है कि प्रधानमंत्री मोदी उत्तर प्रदेश में करारी हार को पचा नहीं पा रहे हैं और चाहकर भी अपने चेहरे पर लड़े गये और अपने ख़ासमख़ास गृहमंत्री अमित शाह द्वारा टिकट बँटवारे के चलते लोकसभा चुनाव में बुरी तरह पिछड़ने, जिसमें ख़ासतौर पर उत्तर प्रदेश से उम्मीदों के मुताबिक परिणाम नहीं आया, इसका ठीकरा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सिर पर नहीं फोड़ पा रहे हैं। और न ही उन्हें इस हार का ज़िम्मेदार ठहराते हुए हटा पा रहे हैं। हालाँकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को हटाने की ख़बरों को केंद्र में मोदी के नेतृत्व वाली सरकार बनते ही ख़ूब हवा मिली और यह हवा यूँ ही नहीं चली। कथित रूप से चर्चा तो यहाँ तक है कि इसके पीछे भाजपा के तथाकथित चाणक्य के इशारे के तहत बाक़ायदा उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य, उपमुख्यमंत्री बृजेश पाठक, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष चौधरी भूपेंद्र सिंह और दूसरे दलों से आयातित तमाम नेताओं, विधायकों और मंत्रियों की लॉबिंग शुरू हुई थी। इनमें से उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा से लगातार मिल रहे थे, तो वहीं उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष को बुलाकर ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बैठक की।

ज़ाहिर है कि अगर मुख्यमंत्री योगी की आज हिंदुत्ववादी छवि और राष्ट्रीय पहचान नहीं होती और उनके समर्थकों की संख्या करोड़ों में नहीं होती, तो उनका आज मुख्यमंत्री पद पर बने रहना भी नामुमकिन ही था। लेकिन जब उत्तर प्रदेश से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ विरोध की आवाज़ें आने लगीं, तो फिर केशव प्रसाद मौर्य को वापस उत्तर प्रदेश भेज दिया गया और पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा की तरफ़ से सफ़ाई दी गयी कि उत्तर प्रदेश में कोई बदलाव नहीं हो रहा है। विपक्ष इस तरह की अफ़वाहें फैलाकर भाजपा को कमज़ोर करने की कोशिश कर रहा है। लेकिन उससे पहले केशव प्रसाद मौर्य ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का नाम लिए बग़ैर यह तक कह दिया कि सरकार से संगठन बड़ा होता है।

बहरहाल, इस अंदरूनी ख़िलाफ़त और वाद-विवाद को बढ़ता देख नौबत यहाँ तक आ पहुँची कि आलाकमान को उत्तर प्रदेश के नेताओं को यह हिदायत देनी पड़ी कि वे सार्वजनिक मंचों पर पार्टी और नेताओं के ख़िलाफ़ न बोलें और अगर कुछ कहना ही है, तो पार्टी के भीतर ही अपनी समस्याओं को रखें। उत्तर प्रदेश में मुख़ालिफ़त के चलते यह भी नौबत आ गयी कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा को उत्तर प्रदेश में भाजपा की कोर कमेटी की बैठक में ख़ुद शामिल होकर नाराज़ पार्टी नेताओं को शान्त करने की कोशिश करनी पड़ी। लेकिन इसके बावजूद भी केशव प्रसाद मौर्य और योगी आदित्यनाथ यानी उप मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री के बीच रिश्ते अच्छे नहीं हो सके। अंदर की ख़बरें तो यहाँ तक हैं कि उत्तर प्रदेश में हार की समीक्षा के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जितनी भी बैठकें बुलायीं, उनमें केशव प्रसाद मौर्य नदारद रहे। न ही उन्होंने अपने लोकसभा क्षेत्र में भाजपा उम्मीदवार की हार की ज़िम्मेदारी अपने सिर पर ली। अब वह कह रहे हैं कि पूरा प्रदेश उनका है और उप चुनाव में फूलपुर सीट की ज़िम्मेदारी शायद उन्हें सौंपी जाए। माना जा रहा है कि अगर उत्तर प्रदेश की 10 विधानसभा सीटों पर उप चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहता है, तब तो उत्तर प्रदेश में बदलाव नहीं होगा; लेकिन अगर इसमें भी भाजपा पिछड़ी, तो उत्तर प्रदेश में मंत्रिमंडल में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कुछ फेरबदल करेंगे। हालाँकि यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता। लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव में अच्छा परिणाम न आने के बाद उत्तर प्रदेश में आगामी चुनावों में जीत के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कमर कस ली है और कोई बड़ी बात नहीं कि आगामी चुनावों में टिकट वितरण में उनकी बात पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को माननी पड़े। इसके संकेत यहीं से मिल रहे हैं कि हाल ही में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने 30 मंत्रियों को बुलाकर बैठक करके 10 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव को लेकर गुप्त रणनीति बनायी है। हालाँकि इस बैठक में भी उत्तर प्रदेश के दोनों उपमुख्यमंत्री यानी केशव प्रसाद मौर्य और बृजेश पाठक ने हिस्सा नहीं लिया।

बहरहाल, फ़िलहाल तो भाजपा के उत्तर प्रदेश नेतृत्व में बदलाव के कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं; लेकिन कहा जा रहा है कि आने वाले समय में संगठनात्मक स्तर पर बड़े फेरबदल हो सकते हैं। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अभी भी उत्तर प्रदेश में मिली बड़ी हार को पचा नहीं पा रहे हैं। कथित सूत्रों ने बताया कि पिछले दिनों पाँच राज्यों की 13 विधानसभा सीटों में से 11 सीटें हारने के बाद वह और भी बेचैन हो गये हैं और अपने स्तर पर उत्तर प्रदेश में होने वाले उपचुनाव पर नज़र रखे हुए हैं। हो सकता है कि उपचुनाव की तारीख़ चुनाव आयोग के घोषित करने के बाद वह इस उपचुनाव में अपने दिशा-निर्देश जारी करें या उनकी मज़ीर् के हिसाब से गृह मंत्री अमित शाह या पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा दिशा-निर्देश जारी करें। और अगर उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में भाजपा का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा, तो यह भी हो सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी यहाँ कुछ फेरबदल करने की कोशिश करें। कुछ लोगों का मानना यह है कि लोकसभा में ज़्यादातर सीटें हारने की ज़िम्मेदारी मुख्यमंत्री योगी की ही क्यों हो? जब उनके हिसाब से टिकट तक नहीं बाँटे गये और चुनाव भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़ा गया।

इतना ही नहीं, ख़ुद उत्तर प्रदेश के बनारस से तीसरी बार चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री मोदी लोकसभा पहुँचे हैं। इस प्रकार से उनकी नैतिक ज़िम्मेदारी उत्तर प्रदेश में जनाधार बनाये रखने की भी बनती है। दूसरी बात, ख़ाली उत्तर प्रदेश को लोकसभा में हार के लिए ज़िम्मेदार ही क्यों माना जाए? क्योंकि हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र समेत कई दूसरे राज्यों में भी भाजपा का प्रदर्शन कौन-सा अच्छा रहा? रही विरोध की बात, तो उत्तर प्रदेश ही नहीं, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, बिहार, उत्तराखण्ड और हिमाचल से भी पार्टी के भीतर से ही मुख़ालिफ़त होने लगी है। उसका क्या? यह मुख़ालिफ़त सिर्फ़ लोकसभा चुनाव में मनचाहा परिणाम न आने की वजह से नहीं है, बल्कि पिछले कुछ ही वर्षों में कई भाजपा नेताओं को उनके ओहदों से हटाने से लेकर बाहरियों को पार्टी में लाकर अचानक बड़े पदों पर बैठाने और कार्यकर्ताओं की अनदेखी करने से भी विरोध हो रहा है। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह समेत कई प्रमुख नेता एक्शन मोड में आ गये हैं और विधायकों, सांसदों, मंत्रियों को आदेश हुआ है कि वे कार्यकर्ताओं से सीधा संवाद करें। इससे शायद स्थिति सुधर जाए; लेकिन पार्टी के भीतर उठने वाले विरोध को कैसे शान्त किया जाएगा।

मसलन, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की बात भले ही दोनों ही उप मुख्यमंत्री नहीं सुन रहे हो; लेकिन उत्तर प्रदेश की जनता योगी को आज भी सिर-माथे पर बिठाये हुए है। मुख्यमंत्री योगी का सात साल का बेदाग़ चेहरा और प्रदेश की क़ानून व्यवस्था ही उनकी असली ताक़त है। हालाँकि भाजपा में लगातार उठ रही मुख़ालिफ़त और फूट से प्रधानमंत्री मोदी ज़रूर चिन्तित होंगे; लेकिन उन्हें इसका समाधान ढूँढना होगा और सभी को मिलकर काम करने के लिए प्रेरित करना होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)