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खुदरा खैर करे

जाकी रही भावना जैसी
एफडीआई देखी तिन तैसी

खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) पर छिड़ी राजनीतिक रस्साकशी ने तुलसीदास की इन पंक्तियों को पुनः सार्थक किया है. एकल ब्रांड कारोबार में 51 और मल्टी-ब्रांड कारोबार में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश ने जनमानस को आशा व आशंका के दायरे में उलझा दिया है. राजनीति से प्रेरित बहसों में तथ्यों व तर्कों का खुल कर संहार हुआ है. जानना कठिन हो गया है कि इसका सही स्वरूप आखिर है क्या?

मनमोहन सिंह की मानें तो एफडीआई से प्रगति की दर को प्रोत्साहन मिलेगा. ममता बनर्जी की सुनें तो रिटेल में विदेशी निवेश से स्वरोजगार पर विपरीत असर होगा. शरद पवार का मानना है कि किसानों को उनके उत्पाद की बेहतर कीमत मिलेगी. क्या इस हाथी को ठीक से देखा-समझा भी जा सकता है या उन अंधों की तरह ही जो इसे छूकर ही समझना चाहते हैं?

आखिर क्यों?

‘महंगाई की मार’ और ‘रोजगार की कमी’ में भारतीय अर्थव्यवस्था की अच्छी भूमिका नहीं रही है. बढ़ती आर्थिक दर महंगाई रोकने में अक्षम रही है वहीं रोजगार के अवसरों में भी कमी आई है. वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से तीन वर्ष में एक करोड़ नए रोजगार पैदा होंगे. प्रणब मुखर्जी विकास की दर बढ़ाने की बात कर रहे हैं. और भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार इससे मुद्रास्फीति कम होने की बात कर रहे हैं. तर्क यह भी दिया जा रहा है कि इससे खाद्य पद्धार्थों के भंडारण की सुविधा में भी अत्यधिक सुधार होगा.  शरद पवार का तर्क हम ऊपर पढ़ ही चुके हैं. तो प्रत्यक्ष तौर पर सरकार इन वजहों से खुदरा क्षेत्र में एफडीआई की हामी है. उधर आर्थिक मंदी के इस विश्वव्यापी दौर में भारतीय खुदरा व्यवसाय की प्रतिवर्ष 40 फीसदी की बढ़ोतरी पर विदेशी निवेशकों की नजर भला क्यों न पड़े. इस पर आलम यह कि मध्यवर्ग की प्रतिमाह खर्च करने की क्षमता में भी बढ़ोतरी हुई है. आखिर इससे बढ़िया बाजार और कहां मिलेगा?

शहरी उपभोक्ता भी मानता है कि जब विर्निमाण, कृषि सेवा और वित्तीय क्षेत्र में विदेशी निवेश काे मंजूरी मिली है तो खुदरा व्यापार भी इसका लाभ क्यों न उठाए? यह सोचना उनका काम नहीं कि इससे देसी बाजार का संतुलन पूरी तरह बिगड़ जाएगा और भविष्य में इस घुसपैठ की मार से वह भी नहीं बच पाएगा.

रोजगार का अनर्थशास्त्र

वर्तमान में देश का खुदरा बाजार करीब 450 अरब डॉलर का है जिससे  चार करोड़ लोगों को रोजगार मिलता है. यदि यह मान लें कि करीब आधा खुदरा व्यापार विदेशी कंपनियों के हाथ में हो तो सच्चाई यह है कि रोजगार बढ़ने की बजाय लगभग 1.6 करोड़ लोग बेरोजगार हो जाएंगे. अगर इसे समझने में कठिनाई हो रही है तो किसी ‘मॉल’ में कार्यरत कर्मचारियों की संख्या की तुलना   मिलकर उतना ही व्यापार करने वाले किराना स्टोरों के कर्मचारियों से करने की कोशिश करें. सारा दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा.

अमेरिका के नॉर्थ-वेस्टर्न विश्वविद्यालय में अतिथि शिक्षक शेखर स्वामी का अध्ययन दर्शाता है कि बड़े रिटेल के विस्तार से पिछले 32 वर्षों में अमेरिका में 77 लाख रोजगारों का नुकसान हुआ है. ऐसा इसलिए कि बड़े रिटेल स्टोर ‘वॉलमार्ट’ या ‘टार्गेट’, ज्यादातर सामान अमेरिका के बाहर से सस्ते दामों पर लेते हैं. इससे न सिर्फ अमेरिकी कारखाने बंद हुए हैं बल्कि लाखों लोग बेरोजगार भी हुए हैं. इसके अलावा वॉलमार्ट स्टोर के अधिकांश कर्मचारी अस्थायी होते हैं ताकि कंपनी पर कम आर्थिक बोझ पड़े और इनकी संख्या भी काफी कम होती है.  आज यह आलम है कि वॉलमार्ट के विश्व भर में केवल 13 लाख कर्मचारी ही हैं जो कंपनी के लिए हर साल 400 अरब डॉलर का कारोबार करते हैं.

बड़े रिटेलर ने न सिर्फ स्थानीय व्यवसाय को कमजोर किया है बल्कि सामाजिक जीवन को भी अस्त-व्यस्त किया है

मिसूरी विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री एमिक वॉस्कर ने अध्ययन में पाया कि वॉलमार्ट द्वारा प्रति 100 लोगों को रोजगार देने से छोटे स्टोरों के 50 और थोक बाजार के 20 लोगों का रोजगार चला जाता है. ऐसा इसलिए होता है कि वॉलमार्ट अपनी लागत में कमी लाने के लिए सप्लाई चेन पर भी आधिपत्य स्थापित करता है. हमारे यहां के शहरी उपभोक्ताओं को इन तथ्यों का गहनता से अध्ययन करना होगा.

अक्षमता के सरकारी भंडार

यह तथ्य किसी भी दृष्टि से तर्कसंगत नहीं है कि एफडीआई से ही देश में ‘कोल्ड स्टोर’ खुलेंगे और ग्रामीण इलाकों से उत्पाद उठाने में निपुणता आएगी. क्या सरकार इतनी कमजोर है कि वह किसानों के लिए भंडारण की उचित सुविधाओं का विकास नहीं कर सकती? जबकि वह जानती है कि ‘सप्लाई चेन’ में ढिलाई की वजह से करीब 60 प्रतिशत खाद्य सामग्री नष्ट हो जाती है. सरकार खेत से बाजार के बीच  की व्यवस्था को खुद दुरुस्त करने की बजाय इस बहाने को खुदरा बाजार खोलने के लिए इस्तेमाल कर रही है. ऐसा लगता है कि विश्व व्यापार संगठन की शर्तों के मुताबिक वह विश्व बाजार में उपजी असमताओं को समाप्त करने के लिए ही कृतसंकल्प है. फिर चाहे इसमें अपना ही नुकसान क्यों न हो.

कम कीमत के पीछे के खेल

जब वॉलमार्ट और केयरफोर जैसे स्टोर बाजार में उतरते हैं तो कीमतों में कमी का वादा करते हैं. ऐसा करते हुए वे स्थानीय स्पर्धा को पूरी तरह ध्वस्त कर देते हैं. आखिर कीमत में भारी कटौती की कीमत किसी को तो चुकानी ही होगी. जब सैम वॉल्टन ने वॉलमार्ट की स्थापना 1962 में की थी तो उन्होंने यही सोचा था कि वे अपने 16,000 वर्ग फुट के स्टोर के लिए कम-से-कम कीमत पर सामान खरीदेंगे ताकि अधिक से अधिक उपभोक्ता इसका लाभ उठा सकें. इसके लिए यह जरूरी हो जाता है कि थोक कीमतों पर नियंत्रण रखा जाए ताकि वॉलमार्ट के लाभ में कोई कमी न हो.

इसलिए सरकार की यह दलील भ्रामक है कि बड़े रिटेलर किसानों से प्रचलित मूल्यों से अधिक कीमतों पर सामान खरीदेंगे. इसके विपरीत बड़े रिटेलर किसानों की मंडी में जाएंगे और कुछ ही समय में एकाधिकार जमाकर वहां की स्पर्धा को समाप्त कर देंगे. फिर किसान अपना उत्पाद बेचने के लिए उनके रहमोकरम पर रह जाएंगे. केवल थोड़े बड़े किसानों को ही बड़े रिटेलर के आने से लाभ हो सकता है. सरकार का यह कहना कि बड़े रिटेलर को 30 प्रतिशत सामान छोटे किसानों से लेना होगा सिर्फ सुनने में अच्छा लगता है. सरकार के पास ऐसा कौन सा जादू का चिराग है जिससे वह यह सुनिश्चित कर सकती है.

कम कीमत के खेल में छोटे खिलाड़ी की हार निश्चित है. जब तक बिक्री दर नियंत्रित नहीं होगी तब तक बड़े रिटेलर लाभ में रहेंगे. यह तब ही संभव है जब भारत में भी अमेरिका की तरह एक रॉबिन्सन पाटमेन ऐक्ट बनाया जाए जो कीमतों पर नजर रखता है और प्रयास करता है कि छोटे, मझोले और बड़े रिटेलर को बाजार में प्रतिस्पर्धा के लिए एकसमान अधिकार हों.

प्रश्न समाज का

एक ओर जहां अमेरिका बड़े रिटेलरों का गढ़ रहा है वहीं दूसरी ओर ‘बिग बॉक्स’ के नाम से पहचाने जाने वाले इन रिटेलरों का विरोध भी अमेरिकी समाज में जमकर हो रहा है. अमेरिका में चल रहे ऐसे ही अनेक प्रयासों को शोधकर्ता स्टेसी मिशेल ने अपनी पुस्तक ‘बिग बॉक्स स्विंडल’ में समाहित किया है. स्टेसी कहती हैं कि बड़े रिटेलरों ने न सिर्फ मध्यवर्ग को निचोड़ा है बल्कि स्थानीय व्यवसाय को कमजोर करने के साथ वहां के सामाजिक जीवन को भी अस्त-व्यस्त किया है. वे तो यह भी कहने से नहीं चूकतीं कि अमेरिका में बढ़ती सामाजिक, पर्यावरणीय और आर्थिक समस्याओं के पीछे भी इनका बहुत बड़ा हाथ है. वे इस नतीजे पर पहुंची हैं कि जहां-जहां स्थानीय स्टोर हैं वहां गरीबी और अपराध में कमी देखी गई है. इसका मुख्य कारण स्थानीय बैंकों, कारोबार और अन्य संस्थाओं में स्थानीय लोगों की भागीदारी है.

समाजशास्त्रियों का मानना है कि आधुनिक अर्थव्यवस्था में बाजार ने व्यापारी और खरीददार के बीच के जीवंत रिश्ते की आहुति दी है. उसके स्थान पर ऐसा बाजार खड़ा किया गया जिसका अपना कोई चेहरा नहीं होता. बड़े रिटेल को एक नए उपेनिवेशवाद के द्योतक के रूप में ही देखा जा रहा है जिसके विस्तार से न केवल सामुदायिक ताना-बाना टूटता है बल्कि लोकतंत्र की जड़ें भी कमजोर होती हैं. पर आर्थिक बिसात पर हो रही एफडीआई की बहस में समुदाय और लोकतंत्र का शायद कोई स्थान नहीं है. बड़े रिटेल से स्थानीय रोजगार के अवसरों में कमी से सामाजिक संतुलन तो बिगड़ता ही है, अराजकता की संभावनाएं भी बढ़ने लगती हैं.
बाजार में बड़े रिटेल के एकाधिकार से उपभोक्ता क्या खरीदेंगे और क्या खाएंगे यह भी बड़ा रिटेलर ही तय करेगा. इसका बड़ा असर देश की जैव-विविधता पर भी पड़ेगा क्योंकि बाजार ही तय करेगा कि किस उत्पाद को खरीदा जाएगा. किसान वही उगाएगा जिसका बाजार होगा. इसका स्वास्थ्य और पोषण पर सीधा प्रभाव पड़ेगा. मगर आर्थिक समीकरण में समाज की स्वीकृति या अस्वीकृति मायने नहीं रखती. बड़े रिटेल स्टोर को टिकाए रखने के लिए सरकार जो कानून बनाती है उसके क्रियान्वयन के लिए वह बल प्रयोग से भी परहेज नहीं करती.

रुकेगा कब तक

खुदरा कारोबार में एफडीआई अभी टला है? चूंकि तथ्य ताक पर हैं और राजनीति हावी, इसलिए यह कहना सही होगा कि हर बुरे सपने की तरह एफडीआई भी जरूर लौटेगा. इसका स्वरूप इस बात पर निर्भर करेगा कि जनमानस बड़े रिटेलर के पूरे चक्रव्यूह को किस गहराई से समझ पाता है. गौरतलब है कि एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी ऐक्ट में संशोधन के बाद किसान अपने उत्पाद को सीधे बाजार में बेच सकता है. हालांकि, संशोधन पर सभी राज्यों ने हरी झंडी नहीं दी है. मगर इसका यह अर्थ तो निकाला ही जा सकता है कि सरकार ने बड़े रिटेल को लाने की तैयारी में पहला कदम उठा लिया है. इसके क्रियान्वयन में अच्छी सड़कों की कमी और भंडारण क्षमता आड़े आ रही है.थोड़ा और ध्यान से देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि नई राजमार्ग परियोजनाएं बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए द्रुत गति से माल आवाजाही के लिए ही बनाई जा रही हैं. कुल मिलाकर तो ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार की विदेशी निवेश की पूरी तैयारी है. एक मौका यह सरकार चूक गई है मगर दूसरा शायद नहीं चूकना चाहेगी.

सिर्फ जागरूक जनमानस ही सरकारी मंशा को रोक पाएगा.

‘वजन कम करने के भोजन-सूत्र’

हमने अभी तक मोटापे को खूब कोसा, रातोंरात मोटापा कम करने का दावा करने वालों को भी हमने फटकारा. परंतु यह नहीं बताया कि फिर आखिर इस मोटापे का करें क्या. कैसे अपना वजन कम किया जाए. एक छोटे-से लेख में सारी बातें समेटना तो बेहद कठिन है. मैं मात्र सूत्रों में वजन कम करने के कुछ सिद्धांत बताने की कोशिश करूंगा. इसीलिए ‘कम लिखा, खूब जानियो’ की भावना से इन सूत्रों को हृदयंगम कीजिएगा.

सूत्र एक उतना ही खाइए, जितना आपके शरीर को चाहिए :  अब यह बात कहना तो सरल है पर मैं समझूं कैसे कि मुझे कितना खाना चाहिए? खाने बैठता हूं तो मन खूब खाने को करता है. फिर? यहां हम मन की मानते हैं, शरीर भूल जाते हैं. कैलोरी उतनी ही खानी है, जितनी आपके शरीर को चाहिए. एकदम आरामपसंद को 1800 कैलोरी, ऑफिस में बैठकर काम करने वाले को इसका 30% और अर्थात् 2300 कैलोरी चाहिए. तो क्या करें? वैसे शुरू यों करें कि वजन ही न बढ़े. उपरोक्त अनुसार कैलोरी तथा खाना तय करें तो वजन ही न बढ़ेगा. अब अपने खाने की कैलोरी कैसे पता करें? यह समझने के लिए अगला सूत्र देखें.

सूत्र दो- यथार्थ की जमीन पर खड़े होकर वास्तविक उद्देश्य ही तय करें:  वजन कम करने के लिए किसी तरह के हवाई किले न बांधें. देखना बेट्टा, मैं छह महीने में बीस किलो कम करके बताता हूं – ऐसा न कहें. वजन धीरे-धीरे ही कम होगा. मान लें कि साल भर में छह-सात किलो तक होगा. रोज-रोज वजन नापने की मशीन पर न चढ़ें. चढ़कर, पचास-सौ ग्राम का हिसाब लगाकर निराश न हों जाएं.

सूत्र तीन- बहुत गणित न लगाएं:  कागज-पेन लेकर रोज का रसोईघर का मीनू बनाने न बैठ जाएं. इसकी जगह एक सरल फाॅर्मूला अपनाएं. अपने पूरे खाने की मात्रा से एक चौथाई कम कर दें. मीठी, तली चीजें न लें. मक्खन-मलाई बंद कर दें. दूध डबल टोंड ही लें. गणित लगाएं – यदि आप दिन भर में दो कप दूध लेते हैं तो मलाईदार दूध की जगह उतना ही डबल टोंड दूध लें. सिर्फ इस एक कदम द्वारा ही साल भर में आप अपनी 46,200 कैलोरी कम करेंगे जो आपका लगभग साढ़े पांच किलो वजन कम कर देगा. बैठे बिठाए ही पांच-छः किलो वजन कम कर लेंगे आप.

सूत्र चार- कैलोरी के गणित को समझें और तदनुसार, स्वादानुसार, बदल-बदल कर खाना लें :  जो खाना आप प्रायः खाते रहते हैं उसके बारे में पता करें कि इसमें कितनी कैलोरी होती है. कई किताबों में यह सब मिल जाएगा. कुछ मोटी बातें बताऊंगा तो इसमें आपकी रुचि जगेगी. एक आम चपाती में 100 कैलोरी के लगभग मिलेंगी. एक कटोरी पके चावल में 200 कैलोरी. अब आप अन्य खाद्य पदार्थों को रोटियों से मापें. सौ ग्राम मूंगफली = 184 कैलोरी =  लगभग दो चपाती, चार कुकीज = 245 कैलोरी = ढाई चपाती, सौ ग्राम आलू चिप्स = 147 कैलोरी = डेढ़ चपाती, एक पिन्नी (मिठाई) = लगभग 700 कैलोरी = सात चपाती, एक कप वनीला आइसक्रीम = 349 कैलोरी = साढ़े तीन चपाती, एक गुलाब जामुन = 250 कैलोरी = ढाई चपाती. ऐसे ही अपनी पसंद के सारे खाद्य पदार्थों की कैलोरी को रोटियों में तब्दील करके गणना कीजिए तो पता चलेगा कि दिन भर में कितनी चपातियां खा गए. जिन छोटी चीजों को आप खाना मानते ही नहीं वही सब मिलकर वजन बढ़ा रहे हैं. तो क्या इन्हें न खाएं? जरूर खाएं. पर एक्सचेंज मानकर. यदि यहां कोई चीज 200 कैलोरी की अतिरिक्त खा ली तो खाने में 200 कैलोरी के बराबर की कोई चीज कम कर दें.
सूत्र पांच- आराम से, समय देकर, धीरे-धीरे, चबा-चबाकर खाएं : आप खाते हैं तो मस्तिष्क के तृप्ति केंद्र तक खबर लगने में पंद्रह मिनट तक लग जाते हैं. पांच मिनट में ही ठूंसकर खा जाएंगे तब आपका दिमाग तो आपको भूखे होने के संकेत भेजता रहेगा जबकि आप पांच मिनट में ही खूब खा चुके हैं. इस तरह आज ज्यादा खा जाएंगे.

सूत्र छह- बीच-बीच में खाना बंद करें :  अक्सर मेरे पास ऐसी मोटी महिलाएं आती हैं जो कहती हैं कि हम तो खाने में बए एक चपाती ही लेती हैं पर डाक्टर साहब, वजन है कि… पति भी उनकी बात की पुष्टि करते हैं. ये वे भोले लोग हैं जो दिन भर चाय, नमकीन, समोसे, चिवड़ा आदि चरते रहते हैं और उसे खाने की गणना मेंे जोड़ते ही नहीं. वजन कम करना है तो यह बीच का खाना बंद कर दें.

सूत्र सात- बीच में भूख लगे तो भूख मिटाने के लिए ऐसा खाएं जो तुरंत पच जाए : दुर्भाग्यवश हम ऐसा नहीं करते. भूख लगे तो ऐसी चीज खाएं जो पेट भरे भी, और तुरंत पचकर खून में ग्लूकोज बढ़ाकर तृप्ति भी दे. जैसे कि सेब, केला, कोई और फल आदि. ये पेट भी भरते हैं, पंद्रह-बीस मिनट में पच भी जाते हैं. पर हम क्या करते हैं? हम पकोड़े खा लेंगे, समोसा भकसेेंगे, मूंगफली खाएंगे. ये तुरंत पचने वाली चीजें नहीं हैं. हम खाए चले जाते हैं. 100 कैलोरी का बड़ा केला खाकर जो तृप्ति मिलती वही भूख आप तीन सौ कैलोरी के प्लेट भर पकौड़े खाकर पूरी कर पाते हैं. इससे बचें.

सूत्र आठ – वास्तविक तथा जमीनी लक्ष्य रखें :  गोल मटोल से सीधे जीरो फिगर का लक्ष्य न रखें. पहले ठीक-ठाक सा वजन ही कम कर लें बस. वर्ना निराश होंगे. जीरो फिगर प्राप्त करने का जुनून एक तरह से बीमारी ही बन सकता है.

ये सारे सूत्र मैंने भोजन के ही बताए. कहीं भी व्यायाम की बात नहीं की. वह विषय ही अलग है. व्यायाम से वजन कम नहीं होता. इससे आपकी कार्यक्षमता, हृदय की ताकत आदि बढ़ती हैं. पर वे बातें फिर कभी.  

वीरू का अपना व्याकरण है

वीरेंद्र सहवाग मेरे प्रिय बल्लेबाज नहीं हैं, लेकिन उन्हें बल्लेबाजी करते देखना हमेशा मुझे रास आता रहा. क्रिकेट में जिसको अनिश्चितता का तत्व कहते हैं वह उनकी बल्लेबाजी में बिल्कुल अनूठे रूप में दिखाई पड़ता है. वे कभी भी बहुत कमजोर गेंद पर बहुत लापरवाह शॉट लगाकर आउट हो सकते हैं. लेकिन वे कभी भी किसी बहुत अच्छी गेंद को छह रन के लिए ऐसे कोने में भेज सकते हैं जिसके बारे में गेंदबाज ने सोचा भी न हो, और वह भी ऐसे मौके पर, जब कोई दूसरा बल्लेबाज यह दुस्साहस न करे. 80 रन पार करने के बाद बल्लेबाज ठिठक जाते हैं. 90 के बाद तो वे बिल्कुल क्रीज से चिपके रहना चाहते हैं और गेंद को किसी तरह इधर-उधर ठेल कर शतक पूरा करने की कोशिश करते हैं. लेकिन अक्सर इसके आसपास वीरेंद्र सहवाग की बल्लेबाजी में पंख लग जाते हैं. वे 80 से 100 तक या फिर दोहरे और तिहरे शतक तक इस अंदाज में पहुंचते हैं जैसे बिजली पर सवार हों. मुल्तान में अपना पहला तिहरा शतक उन्होंने छक्का लगाकर पूरा किया था तो लाहौर में 183 रन पर पहुंचने के बाद लगातार चार गेंदों पर चार चौके जड़े और पांचवीं गेंद पर एक रन लेकर अपना दोहरा शतक पूरा किया.

हालांकि इस दुस्साहस ने कई बार सहवाग को झटका भी दिया है. एक बार वे दोहरे शतक के बिल्कुल करीब, 195 रन बनाकर आउट हो चुके हैं तो एक बार तिहरे शतक तक पहुंच कर अटक गए हैं. वे उस पारी में 293 रन पर आउट हुए. अगर वह तिहरा शतक लग गया होता तो विश्व क्रिकेट में वीरेंद्र सहवाग अकेले बल्लेबाज होते जिनके पास तीन तिहरे शतक होते. फिलहाल ब्रैडमैन, लारा और क्रिस गेल के साथ वे चौथे बल्लेबाज हैं जिनके खाते में दो तिहरे शतक हैं.

उनमें विवियन रिचर्ड्स वाला दबदबा है, एडम गिलक्रिस्ट वाला बेलौसपन, जावेद मियांदाद वाली दादागीरी और सचिन तेंदुलकर वाला स्ट्रोक प्ले

तो क्या यह शतक पूरा करने की बेताबी है जो सहवाग को ताबड़तोड़ रन बनाने की प्रेरणा देती है और इसीलिए वे कई बार शतक के करीब पहुंच कर भी आउट हो जाते हैं? लेकिन आंकड़े इसकी तस्दीक नहीं करते. वे बताते हैं कि दूसरे खिलाड़ी शतक के पास पहुंच कर ज्यादा लड़खड़ाते रहे हैं. सहवाग वनडे और टेस्ट मैच दोनों में 90 से 100 के बीच पांच-पांच बार आउट हो चुके हैं. जबकि द्रविड़ और तेंदुलकर टेस्ट पारियों में 10-10 बार 90 से 100 के बीच आउट हुए हैं, और लारा और पॉन्टिंग छह बार नर्वस नाइंटीज के शिकार हुए हैं. ठीक है कि इन लोगों ने ज्यादा टेस्ट खेले हैं, लेकिन इस मामले में सहवाग का औसत फिर भी इनसे बेहतर ठहरता है. सहवाग की ही तरह, गैरी सोबर्स, सुनील गावसकर और जाक कैलिस भी पांच-पांच बार टेस्ट मैचों में शून्य पर आउट हुए हैं. वनडे में भी सहवाग दूसरों के मुकाबले इस मुकाम पर कहीं ज्यादा स्थिर नजर आते हैं.

कहने का मतलब यह कि 90 से 100 के बीच का दबाव सतर्क रहकर खेलने वाले बड़े बल्लेबाजों को ज्यादा तोड़ता रहा है, बेलौस और लापरवाह सहवाग के किले को भेदने के मौके उसे कम मिले हैं. इसलिए कि सहवाग की बल्लेबाजी में एक तरह की उन्मुक्तता दिखती है, उल्लास दिखता है. वे रिकाॅर्ड बनाने के दबाव में बल्लेबाजी नहीं करते हैं, वे कला और कौशल दिखाने के लिए बल्लेबाजी नहीं करते हैं, वे बस स्ट्रोक लगाने और रन बनाने के लिए बल्लेबाजी करते हैं. जैसे-जैसे उनकी पारी आगे बढ़ती है, वैसे-वैसे उनकी आंख जमती जाती है और गेंद के साथ उनका व्यवहार और निर्मम होता जाता है. यही वजह है कि सहवाग के खाते में लंबी पारियां अपने दूसरे साथियों के मुकाबले कहीं ज्यादा हैं. 

दरअसल सहवाग की खूबी यह है कि वे एक बार रन बनाना शुरू करते हैं तो फिर रुकते ही नहीं. शायद ब्रैडमैन के अलावा वे अकेले दूसरे बल्लेबाज हैं जिनके पास इतनी तेज रफ्तार से और इतनी देर तक रन बनाने का हुनर हो. वे जैसे सौ मीटर की रेस वाली रफ्तार से मैराथन दौड़ते हैं. दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ उन्होंने सिर्फ 278 गेंदों पर 300 रन बना डाले. यह रफ्तार वनडे ही नहीं, ट्वेंटी-20 मुकाबलों में भी किसी के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकती है, लेकिन यह सहवाग का स्वाभाविक खेल है. टेस्ट मैचों में जो सबसे तेज दस दोहरे शतक हैं, उनमें से पांच सहवाग के हैं और शुरुआती चार सबसे तेज दोहरे शतकों में तीन सहवाग के हैं. इन तीनों दोहरे शतकों के लिए सहवाग ने 200 से भी कम गेंदें खेली हैं. वनडे मैचों में से भी सहवाग ने छह शतक 60 से 77 गेंदों के बीच बनाए हैं.

आखिर वह कौन-सी चीज है जो सहवाग को यह रफ्तार भी देती है और टिकाऊपन भी? इस सवाल के जवाब के लिए हमें एक और चीज समझनी होगी. हर विधा का- चाहे वह खेल हो, कविता हो, कला हो या भाषा हो- अपना एक व्याकरण होता है, अपने कुछ नियम होते हैं. लेकिन हर व्याकरण का आखिरी नियम यही होता है कि उसका कोई नियम नहीं होता. किसी भी विधा पर अंतिम पकड़ का यही मतलब होता है कि आप उसके व्याकरण को तोड़कर अपना व्याकरण बनाते हैं.

वीरेंद्र सहवाग ठीक यही काम करते हैं. वे सिर्फ गेंदबाजों की धज्जियां नहीं उड़ाते, क्रिकेट के व्याकरण के भी चीथड़े-चीथड़े कर देते हैं. जिसे कॉपी बुक क्रिकेट कहते हैं, वह उनके खेल में कहीं नहीं है. जिसे शास्त्रीयता कहते हैं, उसकी सहवाग को जैसे जरूरत नहीं पड़ती. जिसे नफासत और कलात्मकता कहते हैं, उससे भी वे कोसों दूर हैं. उनके फुटवर्क की बहुत आलोचना की जाती है, लेकिन वे जैसे अंगद की तरह क्रीज पर होते हैं. उनकी निगाह गेंद पर होती है और पकड़ बल्ले पर, जिसके सहारे वे किसी भी गेंद को पूरी निर्ममता से सीमा पार भेज देते हैं. जहां यह संतुलन टूटता है, सहवाग पैवेलियन जाते दिखते हैं, लेकिन ऐसे मौके वे कम आने देते हैं. वे अपनी तरह से अपनी बल्लेबाजी शैली विकसित करते हैं. बल्कि विकसित करने जैसी कोशिश भी उनके यहां नहीं दिखती, वहां सब कुछ स्वाभाविक है, सब कुछ कुदरती.

टीएस इलियट ने कविता के संदर्भ में परंपरा और प्रतिभा पर जो लेख लिखा है, सहवाग के संदर्भ में उसकी याद आती है. निश्चय ही क्रिकेट की या बल्लेबाजी की परंपरा से सहवाग ने बहुत कुछ हासिल किया होगा, लेकिन उनकी अपनी प्रतिभा ने उस परंपरा की बिल्कुल अलग लकीर बना दी है. जिन लोगों ने सहवाग को बहुत शुरू से खेलते देखा है, उन्हें याद होगा कि वे एक दौर में बल्लेबाजी करते हुए सचिन की तरह दिखते थे, लेकिन अब वे मुकम्मिल सहवाग हैं जिनकी बल्लेबाजी का रंग बिल्कुल अलग है, जिसमें कई रंग पहचाने जा सकते हैं- उसमें विवियन रिचर्ड्स वाला दबदबा है, गिलक्रिस्ट वाला बेलौसपन, जावेद मियांदाद वाली दादागीरी और सचिन तेंदुलकर वाला स्ट्रोक प्ले.

इंदौर वनडे में जो 219 रनों की पारी सहवाग ने खेली उसमें यह सहवागी अंदाज खूब पहचाना जा सकता था. वे अपनी मर्जी से स्ट्रोक लगा रहे थे- बिल्कुल सहज और बिल्कुल अप्रत्याशित. 50 ओवर खेलने का धीरज उन्होंने यहां भी नहीं दिखाया. लेकिन उनकी तूफानी रफ्तार ने वेस्टइंडीज के गेंदबाजों के छक्के छुड़ा दिए. बाद में सहवाग ने कहा भी कि वे जहां चाह रहे थे वहां छक्के लगा रहे थे.

यहां दो बातें और ध्यान देने लायक हैं. सहवाग की यह पारी किसी शून्य से नहीं निकली थी. इसके पीछे पिछली कुछ पारियों की नाकामी से उपजी खीझ भी रही होगी. कहीं अपनी कप्तानी में अपनी बल्लेबाजी के न खिल पाने का गुस्सा रहा होगा. अपनी छिटपुट आलोचनाओं के बीच कहीं न कहीं यह साबित करने की इच्छा रही होगी कि अब भी उनका कोई सानी नहीं. दरअसल ऐसी विराट पारियां सिर्फ प्रतिभा से नहीं, एक तरह की इच्छाशक्ति से भी खेली जाती हैं. सहवाग ने यही किया और एक ऐसा रिकाॅर्ड बना डाला जिसके पार जाना आसान नहीं.

दूसरी बात यह कि भारतीय क्रिकेट बहुत दूर तक बाजार का खेल बन गया है. आईपीएल संस्करण इस बाजारूकरण का ही एक रूप है, जिसने क्रिकेट को बड़ी पूंजी की गोद में ला बैठाया है और  क्रिकेटरों को विज्ञापनबाज सितारों में बदल डाला है. सहवाग भी इस प्रक्रिया के शिकार हुए हैं. लेकिन ध्यान से देखें तो वीरेंद्र सहवाग के पूरे व्यक्तित्व में एक तरह का देशज अनगढ़पन है- वे न सचिन की तरह कुलीन लगते हैं, न धोनी और युवराज की तरह स्ट्रीट स्मार्ट. इस लिहाज से वे बाज़ार के सामने कहीं ज़्यादा मुश्किल खड़ी करते हैं. उनसे काम लेने के लिए बाजार को अपनी कसौटियां बदलनी पड़ती हैं. अगर वे इतने कामयाब बल्लेबाज न होते तो शायद बाजार उन्हें अब तक धूल में मिला चुका होता. बस दो-तीन साल पहले ही सहवाग को खराब प्रदर्शन की वजह से टीम से बाहर बैठने की नौबत झेलनी ही पड़ी थी.

बहरहाल, मैंने टीवी पर ग्वालियर में सचिन का लगाया दोहरा शतक भी देखा है. वह दोहरा शतक क्रिकेट के जीनियस का अद्भुत प्रमाण है. सचिन ने उस पारी में बिल्कुल कलाकार की तरह स्ट्रोक लगाए. काफी नपे-तुले ढंग से गढ़ी गई वह पारी बताती थी कि कायदे से सचिन को ही वनडे का पहला दोहरा शतक लगाना चाहिए था जो उन्होंने लगाया. मुझे सचिन की वह पारी सहवाग के 219 रनों की पारी से ज्यादा सुंदर और संपूर्ण लगती है. लेकिन सचिन ने कसौटी बनाई तो सहवाग उस कसौटी के पार गए. सहवाग ने याद दिलाया कि कुदरती तौर पर वही वनडे मैचों में दोहरा शतक लगाने के हकदार हैं. सच तो यह है कि सचिन से हम वनडे के दूसरे दोहरे शतक की उम्मीद नहीं कर सकते- अब उम्र भी उनके साथ नहीं है और मिजाज भी उनका ऐसा नहीं है. लेकिन वीरेंद्र सहवाग वह बल्लेबाज हैं जो फिर से दोहरा शतक लगा सकते हैं, अपना रिकार्ड बेहतर कर सकते हैं.  

कपिल सिब्बल को गुस्सा क्यों आता है?

संचार मंत्री कपिल सिब्बल फेसबुक, गूगल और याहू जैसे इंटरनेट और सोशल नेटवर्किंग साइटों से खासे नाराज हैं. उनके मुताबिक इन साइटों पर ऐसा ‘बहुत कुछ आपत्तिजनक’ है जो न सिर्फ ‘भारतीय लोगों की संवेदनाओं और धार्मिक भावनाओं को चोट’ पहुंचा सकता है बल्कि दंगे-फसाद की वजह बन सकता है. इसलिए सिब्बल साहब चाहते हैं कि ये साइटें न सिर्फ ऐसे ‘आपत्तिजनक’ कंटेंट को तुरंत हटाएं बल्कि ऐसी व्यवस्था करें कि इस तरह का ‘आपत्तिजनक’ कंटेंट इन साइटों पर अपलोड होने से पहले फिल्टर किया जाए. लेकिन सिब्बल ने यह कहकर जैसे बर्र के छत्ते को छेड़ दिया. इंटरनेट और खासकर सोशल नेटवर्किंग साइटों की आभासी दुनिया से लेकर न्यूज चैनलों के स्टूडियो तक में  हंगामा और बहसें शुरू हो गईं. माना गया कि सिब्बल इंटरनेट खासकर सोशल नेटवर्किंग साइटों पर अपनी सरकार और नेताओं की आलोचनाओं से बौखलाए हुए हैं. यह भी कि सिब्बल सरकार विरोधी आंदोलनों में लोगों को जोड़ने और सक्रिय करने में इन साइटों की उल्लेखनीय भूमिका से भी घबराए हुए हैं. इसी नाराजगी और घबराहट में वे इन साइटों पर सेंसरशिप आयद करने और उन्हें काबू में करने की कोशिश कर रहे हैं.

भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के कपिल सिब्बल एकजुट हो रहे हैं और इन नए माध्यमों को काबू करने की कोशिशें कर रहे हैं

इन तीखी आलोचनाओं ने सिब्बल को सफाई पेश करने के लिए मजबूर कर दिया. वे अब दावा कर रहे हैं कि इंटरनेट पर सेंसरशिप थोपने का उनका कोई इरादा नहीं है. वे तो सिर्फ इतना चाहते हैं कि ये साइटें ‘आपत्तिजनक’ कंटेंट के मामले में आत्मनियमन (सेल्फ-रेगुलेशन) का पालन करें. लेकिन सिब्बल अपनी तलवार जितनी छिपाने की कोशिश करें, वह छिप नहीं पा रही. वे एक ओर अभिव्यक्ति की आजादी के प्रति अपनी वचनबद्धता की दुहाइयां भी दे रहे हैं लेकिन दूसरी ही सांस में इन साइटों को चेताने से भी बाज नहीं आ रहे हैं कि उन्हें ‘भारतीय संवेदनशीलताओं’ का ध्यान रखना होगा. सिब्बल के मुताबिक, वे इन साइटों पर धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने वाले ‘आपत्तिजनक’ कंटेंट को बर्दाश्त नहीं करेंगे. साफ है कि सिब्बल पीछे हटने के लिए तैयार नहीं और वे पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतरे हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि इस तैयारी के तहत ही वे इन साइटों पर धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाले कंटेंट पर अंकुश लगाने की आड़ ले रहे हैं. अन्यथा किसे पता नहीं है कि उनके गुस्से और घबराहट की असली वजह क्या है? सिब्बल साहब मानें या न मानें लेकिन सच यह है कि वे मध्यवर्ग खासकर युवाओं के बीच सूचना, संवाद, चर्चा और संगठन के नए, ज्यादा खुले और वैकल्पिक मंच के बतौर उभरे इन साइटों की बढ़ती लोकप्रियता से घबराए हुए हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि सरकार और व्यवस्था विरोधी रैडिकल समूहों और व्यक्तियों के लिए ये साइटें मुख्यधारा के काॅरपोरेट मीडिया की तुलना में ज्यादा सुलभ और खुली हुई हैं. इन समूहों की उपस्थिति ने इन साइटों को अभिव्यक्ति का वैकल्पिक मंच बना दिया है.

इन साइटों के प्रति सिब्बल साहब के गुस्से की बड़ी वजह यही है. उनकी बौखलाहट इस खीज से निकली है कि अभी तक वे इस मंच को कॉरपोरेट मीडिया की तरह ‘मैनेज’ करने के तरीके नहीं खोज पाए हैं. इन मंचों पर उनकी घुसपैठ अभी सीमित है, उसे काबू में करने की तो बात ही दूर है. लेकिन यह सिर्फ सिब्बल की खीज और गुस्सा नहीं है. सिब्बल सिर्फ एक प्रतीक हैं. असल में, सत्ता और व्यवस्था विरोधी समूहों ने दुनिया भर में जिस तरह से इंटरनेट और उस पर मौजूद ब्लॉग, सोशल नेटवर्किंग साइट जैसे नए माध्यमों को लोगों तक सूचनाएं पहुंचाने, महत्वपूर्ण मुद्दों पर खुली चर्चाएं छेड़ने और लोगों को संगठित करने के लिए इस्तेमाल किया है, उससे इस नए खतरे को लेकर सरकारों और शासक वर्गों की नींद खुल गई है. नतीजा, भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के कपिल सिब्बल एकजुट हो रहे हैं. इसके साथ ही, इन नए माध्यमों को काबू करने, उनमें घुसपैठ करने, उन्हें मैनेज करने और उनकी निगरानी की कोशिशें बड़े पैमाने पर शुरू हो गई हैं. कहीं आतंकवाद से निपटने के नाम पर, कहीं धार्मिक भावनाओं की हिफाजत के बहाने और कहीं समाज को ‘आपत्तिजनक’ कंटेंट से बचाने के नाम पर. कहने की जरूरत नहीं है कि जब तक ये नए माध्यम लोगों के मनोरंजन, सतही चैट और सस्ती पोर्नोग्राफी के माध्यम थे, सत्ता और शासक वर्गों को कोई शिकायत नहीं थी.

लेकिन जैसे ही इन माध्यमों को सत्ता की पोल खोलने, वैकल्पिक विमर्शों और आंदोलनों को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा, सरकारों को उनमें देश-समाज-समुदायों के लिए खतरा दिखने लगा है. वे इन माध्यमों खासकर इन्हें इस्तेमाल करने वाले समूहों/व्यक्तियों के खिलाफ टूट पड़ी हैं. इस मायने में, आज जूलियन असांजे और विकिलीक्स के साथ जो हो रहा है वह सिर्फ ट्रेलर है. हैरानी नहीं होगी, अगर आने वाले दिनों में इन साइटों और उनसे ज्यादा इनका इस्तेमाल करने वाले रैडिकल समूहों और व्यक्तियों पर सिब्बलों और उन जैसों की गाज गिरे.  

महंगाई,सरकार और सच्चाई

जम्मू-कश्मीर के सोपोर के रहने वाले अब्दुल हामिद और उनके परिवार की आमदनी का मुख्य जरिया उनका सेब का बागान है जिसमें सेब के तकरीबन 300 पेड़ हैं. हर साल वे बड़ी शिद्दत से पेड़ों में फल लगने का इंतजार करते हैं फिर उन्हें पेटियों में बड़ी सावधानी से भरकर ट्रक के जरिए दिल्ली की आजादपुर मंडी पहुंचाते हैं. हामिद के बागान में इतने सेब नहीं होते कि पूरा ट्रक भर जाए, इसलिए वे अपने जैसे दूसरे किसानों को भी इसी ट्रक से सेब भेजने के लिए तैयार करते हैं. 42 साल के हामिद पिछले 26 साल से एशिया की सबसे बड़ी सब्जी और फल मंडी  में अपने बागों के सेब लेकर आते रहे हैं.

इस साल जब हामिद सेबों की 1200 पेटियों के साथ छह दिसंबर को दिल्ली की आजादपुर मंडी पहुंचे तो उन्हें पिछले साल के मुकाबले अच्छा भाव मिला. पिछले साल जहां उनके सेब की एक पेटी 500 रुपये में बिकी वहीं इस साल उन्हें 600 रुपये का भाव मिला. एक पेटी में तकरीबन 14 किलो सेब होते हैं. सेब उपजाने से लेकर उसे बाजार तक लाने के खर्च के बारे में पूछे जाने पर हामिद तहलका को बताते हैं, ‘अगर मोटा-मोटी खर्च निकालें तो प्रतिपेटी 100 रुपये का खर्च सिर्फ कीटनाशकों और अन्य दवाओं के सही समय पर इस्तेमाल में हो जाता है. जब फसल पक जाती है तो उसे पेड़ से उतारने में 20 रुपये प्रतिपेटी का खर्च होता है. मंडी तक लाने के लिए इसे लकड़ी की पेटी में अच्छे से पैक करना होता है. इस पेटी और पैकिंग में इस्तेमाल होने वाली दूसरी चीजों को मिलाकर तकरीबन 60 रुपये खर्च हो जाते हैं. इसके अलावा सोपोर से दिल्ली तक लाने में प्रतिपेटी 60 रुपये ट्रक का किराया भी देना होता है. हम आजादपुर मंडी के आढ़तियों को 12 फीसदी कमीशन देते हंै. अगर 600 रुपये का भाव मिलता है तो इस पर 72 रुपये कमीशन देना होता है. सोपोर से मेरे दिल्ली आने-जाने का खर्च भी जोड़ लें तो प्रति पेटी 10 रुपये यह भी बैठता है.’ हामिद के बताए खर्च को जोड़ें तो सोपोर के बागान से आजादपुर मंडी तक पहुंचने में सेब की हर पेटी पर 322 रुपये खर्च हुए और इसके बदले हामिद को 600 रुपये मिले. यानी उन्हें 14 किलो की पेटी में 272 रुपये का फायदा हुआ और हामिद की जेब में एक किलो सेब के लिए महज 19 रुपये गए.

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर अजमेरी गेट के पास ठेले पर फल बेचने वाले रहमान आजादपुर मंडी से आम तौर पर हर रोज चार पेटी सेब खरीदते हैं. हामिद के सेबों की पेटियों में से ही रहमान ने चार पेटी सेब खरीदे. 600 रुपये की पेटी के लिए रहमान ने 612 रुपये प्रतिपेटी चुकाए. इसमें से एक फीसदी यानी 6 रुपये आढ़तिये की जेब में जाएंगे और 6 रुपये आजादपुर की एग्रो प्रोडक्ट मार्केटिंग कमेटी (एपीएमसी) के खाते में जाएंगे. यहां यह बताते चलें कि नियमों के मुताबिक माल लाने वाले से आढ़तिये अधिकतम छह फीसदी कमीशन ले सकते हैं और खरीदने वाला एक फीसदी कमीशन एपीएमसी को देता है. इस एक फीसदी का इस्तेमाल ही मंडी को चलाने और इसके विकास में होता है. आजादपुर मंडी में इस नियम को ठेंगा दिखाकर आढ़तिये न सिर्फ खरीददारों से एक फीसदी कमीशन ले रहे हैं बल्कि बेचने वालों से भी दोगुना कमीशन यानी छह फीसदी के बदले 12 फीसदी कमीशन वसूल रहे हैं. ऐसा नहीं है कि बेचने और खरीदने वाले नियमों से गाफिल हैं, लेकिन उनका कहना है कि यहां की व्यवस्था ही ऐसी बन गई है इसलिए हम क्या कर सकते हैं. बातचीत में हामिद एक और वजह की ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं, ‘जब हमारे सेब बागान में फल लगते हैं तो उन पर कीटनाशक और अन्य दवाओं के छिड़काव के लिए हम यहां के आढ़तिये से पैसे लेते हैं. इसके अलावा ये आढ़तिये हमें जरूरत के हिसाब से अन्य मौकों पर भी पैसे देते रहते हैं.’ हालांकि हामिद यह स्वीकार तो नहीं करते कि इस वजह से ही आढ़तिये को छह की बजाय 12 फीसदी कमीशन देते हैं, लेकिन उनकी बातों से वजह साफ है. कमीशन वसूली के मामले में सरकारी स्तर पर की जा रही इस अनदेखी की वजह से इस मंडी से होकर देश के कई हिस्सों में जाने वाले फल और सब्जियों की कीमतों में बेवजह बढ़ोतरी हो रही है क्योंकि हर विक्रेता गैरकानूनी कमीशन भुगतान को लागत में जोड़ता है और फिर वह उसमें अपना मुनाफा जोड़कर खुदरा बाजार में बेचता है.

बहरहाल, अब यह समझना जरूरी है कि 612 रुपये प्रतिपेटी की दर पर बिकने वाले सेब का भाव खुदरा बाजार में पहुंचते-पहुंचते कितना हो जाता है. आजादपुर मंडी में एक तांगे पर अपनी सेब की पेटियों को लाद रहे रहमान कहते हैं, ‘तांगे वाला प्रतिपेटी 25 रुपया किराया लेता है. अजमेरी गेट से मैं यहां आया हूं और मेरा यहां आने-जाने का खर्च 50 रुपये है. हर महीने पुलिसवाले को 450 रुपये और दिल्ली नगर निगम के कर्मचारी 600 रुपये ले जाते हैं. इसके अलावा लाइट आदि का खर्च भी हर महीने तकरीबन 1,200 रुपये है. किराया और दूसरे खर्चे जोड़ दें तो हर पेटी पर तकरीबन 40 रुपये खर्च हो जाते हैं.’ इस तरह से अजमेरी गेट पहुंचते-पहुंचते सेब की पेटी की कीमत हो गई 652 रुपये. इस हिसाब से देखें तो एक किलो सेब की कीमत हुई 47 रुपये प्रतिकिलो. लेकिन रहमान खुद बताते हैं कि वे वहां सेब 75 रुपये किलो की दर से बेचेंगे. वजह पूछने पर वे कहते हैं, ‘कई तरह के खर्चे हैं. महंगाई काफी बढ़ गई है. इससे कम में बेचने पर खर्चा निकालना मुश्किल हो जाता है.’ आजादपुर मंडी के बिलकुल बाहर आदर्श नगर मेट्रो स्टेशन के नीचे फलों के ठेलों पर वही सेब 80 रुपये किलो बिक रहा था जो अंदर थोक में 600 रुपये प्रतिपेटी की दर से बिक रहा था. यानी थोक में 43 रुपये प्रतिकिलो वाला सेब 80 रुपये प्रतिकिलो में. उसी दिन लक्ष्मी नगर के रिलायंस फ्रेश में भी इस क्वालिटी के सेब का भाव 80 रुपये किलो था. इसका मतलब यह हुआ कि जिस एक किलो सेब के लिए उसे उपजाने वाले किसान हामिद को 19 रुपये मिले उसी एक किलो सेब को जब आप एक सामान्य से बाजार में खरीदने जाएंगे तो आपको 80 रुपये चुकाने होंगे. इस व्यापार में आढ़तिये को बिना ज्यादा कुछ किए करीब 6 रुपये प्रतिकिलो और खुदरा विक्रेता यानी रहमान को 33 रुपये का शुद्ध फायदा होगा.

जिस एक किलो सेब के लिए उसे उपजाने वाले किसान हामिद को 19 रुपये मिले उसी एक किलो सेब को जब आप एक सामान्य से बाजार में खरीदने जाएंगे तो आपको 80 रुपये चुकाने होंगे

खेत से लेकर मंडी और वहां से बरास्ता खुदरा विक्रेता घर तक पहुंचने में कीमतों में इस तरह की अतार्किक बढ़ोतरी सिर्फ सेबों के मामले में ही नहीं हो रही है. बल्कि यही कहानी तकरीबन हर फल और सब्जी की है. छह दिसंबर को मंडी और दिल्ली के लक्ष्मीनगर में कीमतों की तुलना करने पर महंगाई की तसवीर और साफ हो जाती है (देखें बॉक्स). लक्ष्मीनगर के तकरीबन यही भाव संगठित क्षेत्र की खुदरा दुकानों में भी उस दिन थे.

मंडी और खुदरा दुकानों के बीच भाव का यह अंतर महंगाई से संबंधित कई परतों को खोलता है. पहली बात तो यह कि खुदरा बाजार की कीमतों पर निगरानी रखने का कोई तंत्र हमारे यहां नहीं है और इसका फायदा खुदरा कारोबारी उठा रहे हैं. सरकार भी यही कह रही है. लेकिन पूरा सच नहीं बता रही. सरकार यह नहीं बता रही कि इस तरह से ग्राहकों का शोषण करने के मामले में संगठित क्षेत्र की खुदरा दुकानें भी पीछे नहीं हैं. संगठित क्षेत्र ने शुरुआती दिनों में पारंपरिक दुकानों की तुलना में कम कीमत पर भले ही फल और सब्जियों की बिक्री की हो लेकिन अब ये बराबर और कुछ मामलों में तो ज्यादा कीमतें भी वसूल रही हैं. लेकिन सरकार को यह नहीं दिखता. वजह कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा बताते हैं. वे कहते हैं, ‘सरकार पारंपरिक खुदरा दुकानों को जान-बूझकर खलनायक बना रही है क्योंकि ऐसा करके वह खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के पक्ष में माहौल बनाना चाहती है.’ यह पूछे जाने पर कि पारंपरिक खुदरा दुकानें भी तो ग्राहकों को लूट रही हैं, शर्मा कहते हैं, ‘मैं उन्हें सही नहीं ठहरा रहा लेकिन अगर वे कोई गलती कर रहे हैं तो इसका मतलब यह थोड़े न हुआ कि इस पूरे क्षेत्र को तबाह कर दिया जाए. यह तो कुछ उसी तरह हुआ कि किसी के हाथ में कोई घाव हुआ तो इलाज करने की बजाए उसे काटकर फेंकने की कोशिश की जाए. जरूरत इस बात की है कि थोक और खुदरा बाजार की कीमतों में संतुलन बनाने के लिए सरकार कोई तंत्र विकसित करे ताकि ग्राहकों का शोषण बंद हो और करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी भी चलती रहे.’

इससे साफ है कि महंगाई रोकने को लेकर सरकार की नीयत साफ नहीं है और महंगाई की व्यावहारिक वजहों को सरकार नजरअंदाज कर रही है. इन वजहों पर आने से पहले इस बात को परखना जरूरी है कि महंगाई के लिए सरकार जो वजहें गिनाती है उनमें कितना दम है. सरकार बार-बार यह कहती है कि महंगाई बढ़ने की वजह यह है कि अनाज, फल और सब्जियों की खपत बढ़ गई है. दूसरे शब्दों में कहें तो सरकार यह मानती है कि लोग ज्यादा खा रहे हैं इसलिए महंगाई बढ़ रही है. लेकिन सरकार के इस दावे को खुद सरकारी आंकड़े ही खोखले साबित कर रहे हैं. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण का अध्ययन बताता है कि जैसे-जैसे आर्थिक विकास हुआ है वैसे-वैसे प्रतिव्यक्ति दालों और पोषक अनाज की खपत में कमी आई है. शर्मा कहते हैं, ‘यह बात बड़ी आसानी से किसी की भी समझ में आ सकती है कि महंगाई बढ़ने पर लोगों के खाने की थाली की विविधता घट जाती है. जिस घर में दो सब्जियां बनती रही हैं, हो सकता है कि वहां एक ही सब्जी से काम चलने लगे.’

सरकार महंगाई को सही ठहराने के लिए यह तर्क देती है कि तरक्की और महंगाई साथ-साथ चलती है. लेकिन उसके इस दावे की पोल खोलने का काम भी खुद सरकारी आंकड़े कर रहे हैं. सत्ता में बैठे लोग जीडीपी की बात कर रहे हैं, लेकिन यह दर भी घटती हुई 6.9 फीसदी पर पहुंच गई है. अगर सरकार शेयर बाजार की तेजी को तरक्की मानती है तो सेंसेक्स भी आजकल गोते लगा रहा है. डॉलर के मुकाबले रुपया भी हर रोज कमजोर हो रहा है. इसलिए तरक्की के वास्तविक और सरकारी दोनों आधार विकास के दावे को खारिज कर रहे हैं.

एशियाई विकास बैंक की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में पिछले 20 महीने में महंगाई बढ़ने के चलते देश के तकरीबन पांच करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गए हैं

महंगाई के लिए सरकार किसानों को अनाज के बदले मिल रहे न्यूनतम समर्थन मूल्य में की गई बढ़ोतरी को भी जिम्मेदार ठहराती है. लेकिन क्या इसका फायदा किसानों को मिल रहा है? इसका जवाब भी सरकारी आंकड़े ही दे रहे हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 2010 में देश भर में कुल 15,964 किसानों ने आत्महत्या की. 2011 के नवंबर महीने तक महाराष्ट्र के विदर्भ में 571 किसानों ने खुदकुशी की है. इससे साफ है कि सरकार जिस बढ़े न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात कर रही है उसका फायदा किसानों को नहीं मिल रहा है. शर्मा कहते हैं, ‘सरकार को यह तो दिखता है कि उसने न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ा दिए लेकिन यह नहीं कि खेती की लागत कितनी बढ़ गई है. जिस अनुपात में खेती की लागत बढ़ रही है उस अनुपात में किसानों की आमदनी नहीं बढ़ रही है. यही वजह है कि आज ज्यादातर किसान खेती छोड़कर बाहर निकलना चाह रहे हैं.’
सरकार यह तर्क देती है कि लोगों की आमदनी बढ़ रही है इसलिए महंगाई दर भी ऊंची है. तथ्य सरकार के इस दावे का समर्थन नहीं करते. इस बारे में लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेत्री सुषमा स्वराज ने महंगाई पर बहस के दौरान संसद में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के सामने यह सवाल रखा कि आखिर वे बताएं कि किस वर्ग की आमदनी बढ़ रही है. उन्होंने कहा कि मुट्ठी भर लोगों की आमदनी बढ़ रही है लेकिन आम लोगों की आमदनी में कोई बढ़ोतरी नहीं हो रही. एशियाई विकास बैंक की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में पिछले 20 महीने में जितनी महंगाई बढ़ी है उसके चलते देश के तकरीबन पांच करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गए हैं. इस साल फरवरी में आम बजट से पहले प्रणव मुखर्जी ने जो आर्थिक सर्वेक्षण संसद में रखा था उसके मुताबिक देश की आबादी में सबसे नीचे की 20 फीसदी आबादी अपनी आमदनी का 67 फीसदी हिस्सा खाने-पीने पर खर्च करती है. अंदाजा लगाया जा सकता है कि बढ़ती महंगाई से यह तबका कितनी मुश्किलें झेल रहा है.

वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी का चार अगस्त को लोकसभा में भी कहना था, ‘कृषि उत्पादों के मामले में मांग और आपूर्ति में गंभीर अंतर का सामना हमें करना पड़ा है.’ यही बात उन्हाेंने लोकसभा में नौ दिसंबर, 2011 को एक बार फिर दोहराई. मगर सरकार के आंकड़े ही वित्त मंत्री के इस सरकारी दावे को खारिज कर रहे हैं. 2010-11 में भारत में 24.1 करोड़ टन का रिकॉर्ड अनाज उत्पादन हुआ. जबकि 2009-10 में भारत में अनाज उत्पादन 23 करोड़ टन ही था.

महंगाई की समस्या से अपना पल्ला झाड़ने के लिए मौजूदा सरकार यह भी कहती है कि वैश्विक स्तर पर पेट्रोलियम उत्पादों की बढ़ती कीमतों की वजह से भी ऐसा हो रहा है क्योंकि इस वजह से परिवहन खर्च बढ़ता है जिसका असर महंगाई पर दिखता है. लेकिन सरकार का यह तर्क भी तथ्यों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता. 31 दिसंबर, 2010 को वैश्विक बाजार में एक बैरल कच्चे तेल की कीमत 91.36 डॉलर थी और अभी यह 98 डॉलर के स्तर पर है. इसका मतलब यह हुआ कि पिछले एक साल में कच्चे तेल की कीमतों में तकरीबन सात फीसदी बढ़ोतरी हुई. लेकिन इस दौरान देश में पेट्रोल की कीमतों में 20 फीसदी की बढ़ोतरी की गई. अजीब बात यह है कि जिस दौर में महंगाई सबसे तेजी से बढ़ रही थी उसी दौर में सरकार ने पेट्रोल की कीमतों को तय करने का काम बाजार के हवाले कर दिया.

महंगाई रोकने के लिए अब तक सरकार ने दो काम किए हैं. पहला यह कि समय-समय पर उसने ब्याज दरों को बढ़ाया है. दूसरा मंत्री और अधिकारी यह बयान देते रहे हैं कि अगले चार-छह महीने में महंगाई घट जाएगी. सरकार ने न सिर्फ ब्याज दरों को बढ़ाया है बल्कि रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट को भी कई दफा बढ़ाया. लेकिन महंगाई पर इसका उलटा असर हुआ. पहली बात तो यह कि बैंक कर्ज महंगे हुए और जिन लोगों ने पहले से कर्ज ले रखे थे उनकी मासिक किस्त बढ़ गई. दूसरा नुकसान यह हुआ कि हाउसिंग सेक्टर में मांग घट गई. इस वजह से आर्थिक गतिविधियां प्रभावित हुईं. सीमेंट और अन्य वस्तुओं की मांग घटी और मजदूरों की मांग भी. इसका नतीजा यह हुआ कि बेरोजगारों की संख्या घटने की बजाय बढ़ी. इससे न तो महंगाई थमी और न ही आर्थिक विकास की गति बनी रही.

अब सवाल यह उठता है कि अगर महंगाई बढ़ने के लिए सरकार द्वारा गिनाई जा रही वजहें सही नहीं हैं तो महंगाई बढ़ने के असली कारण क्या हैं और इस पर काबू पाने का रास्ता क्या है. कीमतों के लिए कोई निगरानी तंत्र नहीं होने की वजह से थोक और खुदरा कीमतों में किस तरह काफी अंतर है और इसका खामियाजा किस तरह से आम लोगों को भुगतना पड़ रहा है, इसकी चर्चा पहले हो गई है. असल में महंगाई बढ़ने की सबसे बड़ी वजह यही है. दूसरी वजहों को गिनाते हुए दिल्ली ग्रेन मर्चेंट एसोसिएशन के अध्यक्ष ओमप्रकाश जैन कहते हैं, ‘खास तौर पर अनाज को महंगा बनाने के लिए काफी हद तक वायदा कारोबार जिम्मेदार है. डिलीवरी की बाध्यता नहीं होने की वजह से इस सट्टा बाजार में उत्पादन से भी ज्यादा अनाज का वायदा कारोबार हो रहा है. इसमें आम उपभोक्ता और आम कारोबारी दोनों परेशान हैं. अगर सरकार चाहती है कि अनाजों की कीमतों में कमी आए तो इनके वायदा कारोबार को प्रतिबंधित करना होगा.’ बताते चलें कि 2003 में 54 प्रतिबंधित वस्तुओं को वायदा कारोबार के लिए खोला गया था और अभी यह कारोबार मुख्यतः देश के दो मुख्य एक्सचेंजों के जरिए हो रहा है. इनमें एक है मुंबई कमोडिटी एक्सचेंज और दूसरा है नैशनल कमोडिटी एक्सचेंज. एक अनुमान के मुताबिक हर साल 15 लाख करोड़ रुपये मूल्य के कृषि उत्पादों का कारोबार हो रहा है. जब 2005 में महंगाई बेलगाम बढ़ रही थी तो कांग्रेस अध्यक्ष  सोनिया गांधी ने कहा था कि ऐसा वायदा कारोबार की वजह से है. उस बात को छह साल हो गए, लेकिन उनकी सरकार ने इस संबंध में कुछ नहीं किया.

अनाज को महंगा बनाने के लिए काफी हद तक वायदा कारोबार जिम्मेदार है. अगर सरकार चाहती है कि अनाजों की कीमतों में कमी आए तो इनके वायदा कारोबार को प्रतिबंधित करना होगा

महंगाई की वजहों को गिनाते हुए आजादपुर मंडी में टमाटर का कारोबार करने वाले सुभाष चुग कहते हैं, ‘खेती के तकनीकी पक्ष से देश का किसान अनजान है. इस वजह से लागत बढ़ रही है, लेकिन उत्पादन में अपेक्षित बढ़ोतरी नहीं हो रही है. दूसरी तरफ परिवहन और भंडारण की उचित व्यवस्था नहीं है. इससे भारी मात्रा में फल और सब्जियां बाजार आने से पहले ही सड़ जा रहे हैं.’ इसका मतलब यह हुआ कि सरकार अगर महंगाई पर रोक लगाना चाहती है तो किसानों को खेती की बेहतर तकनीकों का प्रशिक्षण देने का बंदोबस्त किया जाए और भंडारण व परिवहन की व्यवस्था दुरुस्त की जाए. परिवहन और भंडारण की उचित व्यवस्था नहीं होने से एक तरफ तो पंजाब में आलू सड़ रहा है दूसरी ओर दिल्ली में यह दस रुपये किलो बिक रहा है. ‘सरकार का अनाज भंडार तकरीबन 6.5 करोड़ टन है. गोदामों में इसके सड़ने की खबरें आती रहती हैं. लेकिन फिर भी महंगाई कम करने के लिए सरकार अपने गोदामों से अनाज बाजार में नहीं उतार रही. अगर सरकार महंगाई रोकना चाहती है तो उसे सरकारी गोदामों का अनाज बाजार में उतारना पड़ेगा. साथ ही भंडारण की व्यवस्था को मजबूत करना होगा ताकि अनाज सड़े नहीं’, देविंदर शर्मा कहते हैं.

जानकारों की मानें तो महंगाई बढ़ने की एक प्रमुख वजह गैरजिम्मेदाराना बयानबाजी भी है. मसलन, 2009 के अगस्त महीने में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह बयान दे डाला था कि अभी महंगाई और बढ़ेगी, इसका सामना करने के लिए देश के नागरिकों को तैयार रहना चाहिए. प्रधानमंत्री के सुर में सुर मिलाते हुए दो दिन के बाद ही रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव ने भी यह कह डाला कि लोेग और अधिक महंगाई झेलने के लिए तैयार रहें. इसके पहले कृषि मंत्री शरद पवार ने भी ऐसा ही बयान दिया था. इन बयानों ने जमाखोरों और कालाबाजारी करने वालों को महंगाई के पक्ष में माहौल बनाने का मौका उपलब्ध कराया. आम लोगों के बीच भी यह संदेश गया कि जब प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री खुद ही महंगाई बढ़ने की बात कह रहे हैं तो बात में कुछ दम है और महंगाई इस समय का सच है. इसका फायदा जमाखोरों ने उठाया और आम लोगों को खूब शोषण हुआ.

विपक्षी दलों का कहना है कि अगर सरकार वाकई महंगाई पर काबू पाना चाहती है तो उसे जमाखोरों और कालाबाजारियों से निपटने के लिए इच्छाशक्ति दिखानी होगी. महंगाई पर लोकसभा में हुई चर्चा में भाकपा नेता गुरुदास दासगुप्ता का कहना था, ‘सरकार में महंगाई रोकने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है. अगर महंगाई रोकने के लिए सरकार जमाखोरों, कालाबाजारियों और मुनाफाखोरों से टकराने को तैयार है तो सरकार आगे बढ़े विपक्षी दल सरकार का साथ देंगे.’

इच्छाशक्ति की कमी के आरोपों को खुद सरकार अपने रवैये से मजबूती दे रही है. 2004 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संप्रग की सरकार केंद्र में बनी थी और तब से लेकर अब तक महंगाई पर लोकसभा में 13 बार चर्चा हुई है, लेकिन आम लोगों को महंगाई से अब तक राहत नहीं मिली. 2009 के दिसंबर में यानी तकरीबन दो साल पहले वित्तीय मामलों पर संसद की स्थायी समिति ने बढ़ती महंगाई पर काबू पाने के लिए सुझाव देते हुए कहा था, ‘वित्त मंत्रालय महंगाई रोकने के लिए समय पर हस्तक्षेप करने में नाकाम रहा है. यदि सरकार इस पर काबू पाना चाहती है तो उसे खाने-पीने की चीजों की कीमतों के निर्धारण और प्रबंधन के लिए एक व्यापक नीति तैयार करनी चाहिए.’ दो साल बीत गए, पर सरकार ने इस मोर्चे पर कुछ नहीं किया है.

पूर्व वित्त मंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने तीन अगस्त, 2011 को लोकसभा में भाषण देते हुए कहा था, ‘अर्थशास्त्र में महंगाई को गरीबों के ऊपर सबसे घटिया किस्म का टैक्स कहा गया है. पिछले तीन साल में महंगाई की वजह से देश के नागरिकों को छह लाख करोड़ रुपये अतिरिक्त खर्च करने पड़े. सरकार कहती है कि विकास की वजह से महंगाई बढ़ रही है. अगर विकास का मतलब महंगाई है तो आम लोगों की कीमत पर हमें नहीं चाहिए ऐसा विकास.’ खाने-पीने की चीजों की महंगाई के खतरों से आगाह करते हुए उन्होंने यह भी कहा, ‘अगर इनकी कीमतें बढ़ेंगी तो दूसरे क्षेत्रों को भी आप बचा नहीं सकते. इससे मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र पर नकारात्मक असर पड़ने लगा है.’ ध्यान रखना चाहिए कि रोजगार देने के मामले में खेती के बाद दूसरा नंबर मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र का ही आता है. पश्चिम देशों में मंदी का असर पड़ने से वहां से मिलने वाले ऑर्डर पहले से कम हो रहे हैं और ऊपर से महंगाई ने इस क्षेत्र के सामने अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है.

लोकपाल और पांच सवाल

समय का पहिया पिता से घूमकर पुत्र तक पहुंच चुका है. 1963 में एलएम सिंघवी ने जिस लोकपाल को शब्दरूप दिया था उसे कानूनी रूप देने का जिम्मा उनके बेटे अभिषेक मनु सिंघवी के सिर पर था. पार्टीगत प्रतिबद्धता की बात करें तो लोकपाल के मुद्दे ने आज कांग्रेस की जो हालत कर रखी है उससे एलएम सिंघवी को जहां अपार प्रसन्नता होती वहीं अभिषेक और उनकी पार्टी के लिए यह दुख का कारण बना हुआ है. अभिषेक मानते हैं कि इस विषय से जुड़ा इतिहास उनके ऊपर कुछ हद तक भावनात्मक बोझ जैसा है, लेकिन वे यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि सरकारी लोकपाल, जनलोकपाल, या किसी ए, बी, या सी प्रस्ताव का प्रतिरूप नहीं हो सकता.

अभिषेक का यह विचार ही आने वाले दिनों में विवाद के एक नए चरण की लगभग सुनिश्चित शुरुआत करने वाला है. जनलोकपाल की लड़ाई के अगले चरण की भूमिका लिखी जा चुकी है. यह भूमिका संसद में पेश लोकपाल बिल के मसौदे के रूप में देश के सामने है. प्रस्तावित ड्राफ्ट की कुछ बातें ऐसी हैं जिन पर टीम अन्ना को गुस्सा आना तय है. सरकार और टीम अन्ना के  अलावा इस लड़ाई का तीसरा पक्ष है अरुणा रॉय और निखिल डे की संस्था एनसीपीआरआई. मसौदे में सरकार ने अपने पक्ष को जहां पूरी तवज्जो दी है वहीं एनसीपीआरआई को पर्याप्त जगह देकर टीम अन्ना को इशारों ही इशारों में यह संदेश दिया है कि आप ही क्यों दावेदार और भी हैं. दो बातें और, पिछले दिसंबर का सरकारी मसौदा पढ़ने वाले इस बात से मुतमइन होंगे कि मौजूदा ड्राफ्ट काफी सुधरा हुआ है. बकौल अभिषेक मनु सिंघवी ‘मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि ऐसा मजबूत कानून अब तक नहीं बना है. इसके कुछ प्रावधान बेहद क्रांतिकारी हैं.’ टीम अन्ना को साधने के लिए एनसीपीआरआई को तरजीह जरूर दी गई है लेकिन उनके लिए भी सारा जहां हसीं नहीं है. बकौल शेखर सिंह, ‘मोटे तौर पर हम ड्राफ्ट का स्वागत करते हैं लेकिन सीबीआई को लोकपाल के दायरे में लाना ही चाहिए.’
बिल आगे भी बहुत-सी बातें कहता है. इसकी पांच बातें ऐसी हैं जिन पर रार ठनने की संभावना है. आगे बिंदुवार उसके ऊंच-नीच की चर्चा है-

प्रधानमंत्री

इस एक मुद्दे पर टीम अन्ना और सरकारी नुमाइंदों के बीच सबसे ज्यादा सिर खुजौव्वल मची थी लिहाजा यह जानने की बेचैनी सबको थी कि लोकपाल का अंतिम मसौदा इस पर क्या रुख अपनाता है. यहां सबको निराशा हाथ लगी है. स्थायी समिति ने इस मसले पर चतुराई बरतते हुए गेंद संसद के पाले में डाल दी है और तीन सूत्रीय फाॅर्मूले की मदद से अपना पिंड छुड़ाने की कोशिश की है.
l प्रधानमंत्री को पूरी तरह लोकपाल के दायरे से बाहर रखा जाए.
l प्रधानमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में सिर्फ उनके पद से हटने के बाद ही जांच की जाए.
l प्रधानमंत्री को पद पर रहने के दौरान जांच का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन उसके पहले राष्ट्रीय सुरक्षा और देशहित से जुड़े तमाम सुरक्षात्मक उपाय करने होंगे.
स्थायी समिति ने भले ही अपना पिंड छुड़ा लिया है लेकिन टीम अन्ना के अहम सदस्य प्रशांत भूषण ने स्पष्ट किया है कि वे प्रधानमंत्री को हर हाल में लोकपाल के दायरे में लाने की लड़ाई लड़ रहे हैं.

ग्रुप सी और डी

यह झगड़े की एक और बड़ी वजह है. पेश मसौदे में कहा गया है कि लोकपाल सिर्फ मुख्यमंत्री, सांसद, विधायक और ढाई लाख ग्रुप ए और बी के कर्मचारियों की जांच करेगा. जबकि लगभग 57 लाख ग्रुप सी और डी कर्मचारियों को यह कहकर बाहर रखा गया है कि इतनी विशाल संख्या को लोकपाल अकेले नहीं संभाल सकता. इन पर नजर रखने का काम सीवीसी (केंद्रीय सतर्कता आयोग) करेगा. इसके लिए सीवीसी को और उन्नत और सक्षम बनाना होगा. अरुणा रॉय की एनसीपीआरआई स्थायी समिति के इस विचार से पूरी तरह सहमत है, लेकिन टीम अन्ना के गुस्से के अपने तर्क हैं. उसके मुताबिक सीवीसी के पास न तो इतनी ताकत है न ही संसाधन. उसके पास पुलिस की शक्तियां भी नहीं हैं. अगर सरकार सीवीसी की शक्तियों को बढ़ाती है तो एकसाथ हर जगह दो-दो जांच संस्थाएं स्थापित करना कहां की समझदारी है? एक लोकपाल, दूसरा सीवीसी. वहीं, सरकार और उसके समर्थकों का तर्क है कि ताकत का विकेंद्रीकरण जरूरी है और इतने लोगों की जिम्मेदारी अकेले लोकपाल को देना उचित नहीं है.

शिकायत निपटारा तंत्र

नए ड्राफ्ट में पृथक ग्रीवांस रिड्रेसल मेकैनिज्म स्थापित करने का सुझाव है. यहां फिर से सरकार का  झुकाव अरुणा रॉय और एनसीपीआरआई की तरफ है. इसके तहत सभी सरकारी विभागों को अपना एक सिटिजन चार्टर बनाना होगा जिसमें उनके द्वारा जनता को एक निश्चित समय के भीतर सुविधाएं उपलब्ध करवानी होंगी. अगर संबंधित विभाग ऐसा करने में नाकाम रहता है तो व्यक्ति अपने नजदीकी ग्रीवांस रिड्रेसल अधिकारी के पास शिकायत कर सकता है. अकारण होने वाली देरी को भ्रष्टाचार माना जाएगा. यहां भी टीम अन्ना का विचार अरुणा रॉय और सरकार के रुख के उलट है. वह ग्रीवांस रिड्रेसल को पूरी तरह से लोकपाल में समाहित करने की पक्षधर है. लिहाजा यहां भी झांय-झांय होनी तय है. प्रशांत भूषण कहते हैं, ‘हम पृथक ग्रीवांस रिड्रेसल मेकैनिज्म बनाने के लिए तैयार थे, लेकिन पृथक संस्था से हमारा तात्पर्य था पूरी तरह से सक्षम और सरकारी संरक्षण से मुक्त संस्थान. हम बोगस बॉडी बनाने का समर्थन नहीं कर सकते. हम इस बात पर कायम हैं कि इसे लोकपाल के दायरे में लाया जाए.’

न्यायिक जवाबदेही अधिनियम

यहां भी झुकाव एनसीपीआरआई की तरफ दिखता है. उसके मॉडल में जजों का भ्रष्टाचार लोकपाल के दायरे से बाहर है. इसके लिए उन्होंने जूडीशियल एकाउंटबिलिटी बिल का प्रावधान किया था. सरकारी  ड्राफ्ट में एक नेशनल जूडीशियल कमीशन स्थापित करने का प्रस्ताव है. यही संस्था जजों की नियुक्ति का काम-काज करेगी. प्रस्ताव में इस बात की भी ताकीद है कि अगर जरूरत हो तो इसके लिए संविधान में भी संशोधन किया जाए. इसे लेकर प्रशांत भूषण का विरोध मुखर है, ‘हमें सरकार की नीयत पर कतई भरोसा नहीं है. सरकार के अंदर स्वतंत्र न्यायिक आयोग बनाने की इच्छाशक्ति ही नहीं है. ड्राफ्ट के प्रारूप से यह बात साबित हो जाती है.’

सीबीआई

स्थायी समिति के ड्राफ्ट में सीबीआई और लोकपाल का रिश्ता थोड़ा पेचीदा है. इसका सरल रूप कुछ यूं है- लोकपाल के पास अपनी खुद की जांच टीम होगी. भ्रष्टाचार की शिकायत मिलने पर प्राथमिक जांच यही टीम करेगी. शिकायत पुख्ता पाए जाने पर विस्तृत जांच का जिम्मा सीबीआई को सौंपा जाएगा. जांच के बाद सीबीआई अपनी रिपोर्ट लोकपाल को देगी. इसके आधार पर विशेष लोकपाल जज अभियोजन की कार्रवाई करेगा. इस ‘एक बार दे एक बार ले’ वाले रिश्ते के पेंचोखम पर सरकार का तर्क है कि वह लोकपाल को रक्तबीज टाइप असुर नहीं बना सकती. विरोधियों का कहना है कि इस तरह लोकपाल के पास सीबीआई को सिर्फ संस्तुति देने का अधिकार होगा, बाकी जिस तरह से अभी यह काम करती है उसी तरह से काम करेगी. अरविंद केजरीवाल सीधे शब्दों में इस व्यवस्था की पोल खोलते हुए कहते हैं, ‘सबको पता है सरकार कैसे सीबीआई का दुरुपयोग करती है. सरकार ने विपक्षी पार्टियों को काबू में करने के लिए इसे सरकारी चाबुक बना लिया है.’ टीम अन्ना और सरकार के अलावा इस पर एक तटस्थ नजरिया भी है- लोकपाल और सीबीआई के बीच इस तीन तरफा लेन-देन से भ्रष्टाचार की जांच में तेजी कैसे आएगी? सरकारी कामकाज की जो गति हमारे देश में है वह सबको पता है. इससे तो जांच की गति में ही बाधा आनी है.

विरोधाभास

अपने मसौदे को सिघंवी भले ही क्रांतिकारी बताते फिरें पर इसमें कुछ खामियां तो हैं ही. एक तो इसने सदन की भावना के तीन में से दो मुद्दों (लोअर ब्यूरोक्रेसी और सिटिजन चार्टर तंत्र लोकपाल के दायरे में होगा) को नजरअंदाज किया है. इस पर टीम अन्ना के साथ विपक्षी पार्टियां भी तल्ख हैं. खैर, बड़े विरोधाभास की बात करें तो संसदीय समिति का एक तर्क है कि लोकपाल अकेले सरकारी कर्मचारियों की बड़ी संख्या का भ्रष्टाचार नहीं संभाल सकता इसलिए ग्रुप सी और डी को इसमें शामिल नहीं किया जा सकता. इसके लिए परिष्कृत सीवीसी का विचार है. लेकिन लगे हाथ सरकार ने साढ़े चार लाख से ज्यादा एनजीओ, हजारों कॉरपोरेट कंपनियों और तमाम मीडिया कंपनियों को भी इसमें लपेट लिया है. अब किस तरह से लोकपाल इन लोगों का भ्रष्टाचार संभाल सकता है और ग्रुप सी और डी का नहीं इसकी कोई सफाई न तो सिंघवी देते हैं न ही ड्राफ्ट. और अगर सीवीसी को परिष्कृत करना ही है तो लोकपाल को ही क्यों नहीं?

निष्कर्ष

यह बात साफ हो चुकी है कि टीम अन्ना और सरकार के बीच लोकपाल को लेकर शुरू लड़ाई मूंछ की लड़ाई बन गई है. एक को जनता की आड़ मिली हुई है तो दूसरा संसदीय सर्वोच्चता की ओट ले रहा है. ‘बड़ा कौन’ की जद्दोजहद संसदीय समिति के मसौदे से साफ झलकती है. सदन की भावना के कुल तीन में से दो सुझावों को दरकिनार करना हो या जनलोकपाल के मसौदे में शामिल सिटिजन चार्टर, सीबीआई, प्रधानमंत्री, लोवर ब्यूरोक्रेसी को इनसे अलग रखने का मामला- वे कहीं से भी यह संकेत नहीं देना चाहते कि सरकारी लोकपाल टीम अन्ना के सुझावों की कॉपी है. करीब महीने भर पहले स्टैंडिंग कमेटी के साथ अपनी बैठक के बाद अरविंद केजरीवाल ने यह कहकर अपनी यह चिंता जता दी थी, ‘वे लोकपाल को हलका करना चाहते हैं. इसके हर हिस्से को छिन्न-भिन्न करके एक बेमतलब का लोकपाल खड़ा करने की नीयत है सरकार की.’
जंतर-मंतर पर 11 दिसंबर को फिर से उमड़ा जनसमूह इस बात का गवाह है कि एक और सनसनीखेज लड़ाई की जमीन तैयार है. और हां, इस बार सरकार पहले से ज्यादा दबाव में है क्योंकि ज्यादातर विपक्ष अन्ना के साथ मंच पर है.(रेवती लॉल के सहयोग के साथ)

अवसरवादी सहयात्री

चार दिसंबर को देश के छह राज्यों में आठ विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव का परिणाम आने के एक दिन पहले ही बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने आवास पर बातचीत के क्रम में एक टिप्पणी करते हैं, ’झारखंड में भाजपा ने ठीक नहीं किया. हमारी पार्टी को छोड़ झारखंड मुक्ति मोर्चा का साथ देने का फैसला लिया. मैं इससे बेहद दुखी हूं.’ चार को चुनाव परिणाम आया. बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस के लिए इसने ऑक्सीजन-सा काम किया. आठ में से दो सीटें जीतकर राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस ने राहत की सांस ली. बिहार के स्तर पर जदयू की स्वीकार्यता पर मुहर लगी. यह पहले से ही तय था कि अपनी पुरानी सीट लौकहा पर जदयू को जीत मिलेगी. हालांकि इस सीट पर मुसलिम-यादव समीकरण के पुनर्प्रयोग के साथ लालू प्रसाद यादव ने अपने साथी रामविलास पासवान के साथ पूरी ऊर्जा झोंक दी थी. फिर भी बिहार में लालू प्रसाद को ऑक्सीजन न मिल सकी.

लेकिन उपचुनाव परिणामों का सबसे ज्यादा तमाशाई असर झारखंड में दिखा. चुनाव के पहले भी, बाद में भी. राज्य की मांडु विधानसभा सीट पर झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) ने जीत हासिल की. यह सीट झामुमो से पांच बार विधायक रहे टेकलाल महतो की मृत्यु के बाद खाली हुई थी. यहां जीत टेकलाल के बेटे जयप्रकाश पटेल की हुई. भाजपा ने सरकार में साझेधारी के धर्म को तरजीह देते हुए झामुमो को ही समर्थन दिया था. यहां दूसरे नंबर पर कांग्रेस रही.

गठबंधन के साथी को छोड़कर झामुमो का साथ देने के भाजपा के रुख से नीतीश तो दुखी भर हैं लेकिन झारखंड के जदयू नेता आर-पार के मूड में हैं. इस सीट पर जदयू के झारखंड प्रदेश अध्यक्ष खिरू महतो चुनाव लड़ रहे थे. उनकी जमानत जब्त हो गई. खिरू महतो को दुख इस बात का नहीं कि वे हार गए. वे इस बात से दुखी हैं कि लंबे गठबंधन के बावजूद सत्ता के लिए भाजपा ने अवसरवादिता दिखाई. खिरू कहते हैं, ‘हम पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व को कह चुके हैं कि हम झारखंड में अलग रहना चाहते हैं. यहां हमें भाजपा दोयम क्या, उससे भी निचले स्तर पर मानती है.’

हालांकि झारखंड भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिनेशानंद गोस्वामी इस बात को खारिज करते हुए कहते हैं, ‘सरकार की जरूरत थी कि हम झारखंड मुक्ति मोर्चा का समर्थन करें, सो हमने किया. रही बात जदयू की तो उनके उम्मीदवार को तो पार्टी का चुनाव चिह्न भी नहीं मिल पाया था, हम क्या साथ देते.’राजग के नाम पर भाजपा और जदयू सबसे लंबे समय से साथ हैं. झारखंड के पड़ोस बिहार में दोनों साथ मिलकर ही राज की दूसरी पारी खेल रहे हैं. राष्ट्रीय स्तर पर राज करने का सपना भी दोनों साथ मिलकर देख रहे हैं. खिरू महतो का आरोप है कि बिहार में बी टीम की तरह रहने वाली भाजपा झारखंड में जदयू को सी टीम की तरह रखती है. वे कहते हैं, ‘भाजपा हमें 81 में से 10-15 सीटों पर चुनाव लड़ने देती है. हमारा वोट प्रतिशत छह से कम पर सिमट गया था तो पार्टी का चुनाव चिह्न कैसे मिलता?’इस एक सीट पर झामुमो को जीत मिल जाने के बाद भाजपा को भले ही सरकार चलाने में सहूलियत हो लेकिन लगता नहीं कि उसे मिली यह राहत ज्यादा समय तक स्थायी रहेगी.

जीत के बाद झारखंड मुक्ति मोर्चा के मुखिया शिबू सोरेन ने कहा भी कि इस जीत में भाजपा की कोई भूमिका नहीं है. यह टेकलाल बाबू और उनकी पार्टी के नाम पर हुई जीत है. शिबू ने लगे हाथ एलान भी किया कि वे अब आगे सभी सीटों पर अकेले चुनाव लड़ेंगे. यानी भाजपा ने अपने विश्वस्त सहयोगी को किनारे करके सहयोग भी किया तो भी उसकी अहमियत झामुमो सुप्रीमो ने नकार दी. हालांकि इस सीट के लिए भाजपा से समर्थन मांगने शिबू सोरेन के बेटे और राज्य के उपमुख्यमंत्री हेमंत सोरेन खुद भाजपा कार्यालय पहुंचे थे. हेमंत कहते हैं, ‘यह सरकार के गठबंधन की जीत है.’हेमंत अपने पिता शिबू से अलग बयान देते हैं. मजबूरी है क्योंकि राज्य की राजनीति में इन दिनों झारखंड के पहले मुख्यमंत्री व झारखंड विकास मोर्चा के प्रमुख बाबूलाल मरांडी बाकी सबके साझा राजनीतिक दुश्मन बने हुए हैं. भाजपा द्वारा जदयू को परे करके झामुमो को समर्थन देने के पीछे भी एक वजह बाबूलाल की बढ़ती ताकत ही रही. हालांकि मांडु में बाबूलाल का करिश्मा काम नहीं कर पाया. उनका उम्मीदवार भी जमानत नहीं बचा पाया.

मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा के गढ़ सरायकेला में कड़ी चुनौती देने और अर्जुन मुंडा द्वारा जमशेदपुर लोकसभा सीट खाली करने के बाद उस पर जीत हासिल कर लेने के बाद बाबूलाल मरांडी की पार्टी की बढ़त पर मांडु में अचानक ब्रेक लगा है. इससे सत्ताधारी गठबंधन के साथ कांग्रेस भी खुश है. कांग्रेसी नेता राजेंद्र सिंह कहते हैं, ‘बाबूलाल का मन बढ़ गया था, मांडु में उन्हें असलियत का पता चला.’ कांग्रेस हारकर भी बाबूलाल की पार्टी के हाशिये पर जाने से खुश है, लेकिन झारखंड विकास मोर्चा के संगठन मंत्री हीरालाल यादव कहते हैं, ‘दो उपमुख्यमंत्री, एक मुख्यमंत्री, सहानुभूति की लहर के बावजूद हम मांडु में पहली बार चुनाव लड़कर करीब 24 हजार वोट लाए हैं. हम वहां हारकर भी जीते हैं.’

सबके अपने-अपने तर्क हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या भाजपा और जदयू इसी अंदाज में सहसवारी करेंगे जिसमें साथ रहकर भी सुविधा के हिसाब से अलग-अलग राह का राही बना जा सकता हो.

नई बोतल,पुराना कॉकटेल

छह दिसंबर को हिंदू विजय दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए.उमा भारती, भाजपा नेत्री

हमें कुछ शत्रुओं से सचेत रहने की जरूरत है. जेहादियों से, हिंसक चर्च से, कम्युनिस्ट विचारधारा से, सेक्युलर हिंदू से और कुछ मीडियावालों से भी.
अशोक सिंहल, अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष, विश्व हिंदू परिषद

अहिंसक होना ही हिंदुओं की सबसे बड़ी कमजोरी है. वेदों ने चूड़ियां पहनकर बैठे रहने को नहीं कहा है. एक हाथ में माला तो दूसरे में भाला भी रखना होगा.स्वामी नरेंद्रानंद सरस्वती, शंकाराचार्य, सुमेरू पीठ, काशी

अपने ही मुल्क में हिंदू बकरी की तरह हो गए हैं, जो संख्याबल में ज्यादा रहने के बावजूद शेर की एक दहाड़ से छिपते हैं. सुब्रमण्यम स्वामी, अध्यक्ष, जनता पार्टी

बीते नवंबर की 29 और 30 तारीख को जब गिरते तापमान के साथ पटना में ठंड दस्तक दे रही थी तो शहर के ही एक प्रतिष्ठित सरकारी संस्थान के सभागार में ऐसे ही कई वक्तव्यों की गूंज माहौल में गर्मी पैदा कर रही थी. कई बार ये वक्तव्य उग्रता और उन्माद की पराकाष्ठा तक पहुंचते रहे. मौका था ‘संस्कृति बचाओ महासम्मेलन’ नामक एक आयोजन का जिसे नई दिल्ली की एक संस्था ‘सांस्कृतिक गौरव संस्थान’ ने आयोजित किया था.संस्कृति को ढाल बनाकर हुए इस दो दिनी आयोजन से एक बार फिर संकेत मिला कि बिहार हिंदुत्व की राजनीति का नया अखाड़ा बनने की राह पर अग्रसर है. संकेत तो पहले भी मिले थे लेकिन स्पष्टता और अस्पष्टता के बीच के. बेगूसराय के सिमरिया में अर्धकुंभ हुआ तो उसे धार्मिक आयोजन की परिधि में बांधा गया था. लेकिन इस पर अच्छी-खासी राजनीति हो गई. उस धार्मिक आयोजन में भी विहिप नेता प्रवीण तोगडि़या धार्मिक गर्जना की बजाय कुछ और भी बोलकर निकले थे. अच्छे संकेत नहीं थे वे. फिर हाल ही में आडवाणी की यात्रा की शुरुआत भी बिहार से हुई थी जिसमें उन्होंने बार-बार रामरथ यात्रा पर गौरवान्वित होते हुए उसका बखान किया था.

बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता राष्ट्रीय जनता दल के अब्दुल बारी सिद्दिकी कहते हैं, ‘एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट में जो आयोजन हुआ, उसमें अचरज जैसी कोई बात नहीं. यहां जब से एनडीए सरकार बनी है, तोगडि़या, सिंहल आदि आते रहते हैं, अपनी बात बोलते रहते हैं. राजगीर में ही संघ ने अपना राष्ट्रीय सम्मेलन भी किया.’अब सवाल यह है कि क्या पिछले चुनाव में तुलनात्मक रूप से नीतीश कुमार से भी ज्यादा बड़ी जीत हासिल करने वाली भाजपा एक नई रणनीति पर काम कर रही है. क्या हिंदुत्व को उभारकर लालू प्रसाद को फिर से मजबूत करके भाजपा बनाम लालू का राजनीतिक खेल खेलने की तैयारी चल रही है?राज्य भाजपा के वरिष्ठ नेता और प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री अश्विनी चौबे तर्क देते हैं कि हिंदुत्व की बात करने में बुराई क्या है. वे कहते हैं, ‘हिंदुत्व कोई धर्म या संप्रदाय नहीं बल्कि एक संस्कृति है. वे कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि इस तरह की बातें जो करते हैं वे अपने ही पूर्वजों को गाली देते हैं.’ उधर, सामाजिक कार्यकर्ता अरशद अजमल कहते हैं, ‘पिछले चुनाव में मतों के ध्रुवीकरण के बाद भाजपा अब दूसरे तरीके से ध्रुवीकरण की कोशिश में है.’ वे आगे कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब तक यह समझ पाएंगे तब तक शायद काफी देर हो चुकी होगी. फिर वे पीएम तो क्या, सीएम बने रहने की स्थिति में भी नहीं रहेंगे.’

हाल के दिनों में बिहार में घटित कुछ नए राजनीतिक घटनाक्रम से अजमल की बातों को बल मिलता है. एक तरफ नीतीश कुमार पार्टी का आधार मजबूत करने के लिए लगातार अभियान चला रहे हैं, तो दूसरी तरफ बिहार में भाजपा के आला नेता बिना ज्यादा शोर किए राज्य में जगह-जगह धार्मिक सम्मेलनों के जरिए एक नई रणनीति बनाने के क्रम में प्रयासरत हैं.

‘मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब तक यह समझ पाएंगे तब तक शायद काफी देर हो चुकी होगी’

विपक्षी आरोप लगाते हैं कि इस रणनीति को नीतीश जान-बूझकर अनदेखा कर रहे हैं. सिद्दिकी कहते हैं, ‘फारबिसगंज प्रकरण पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मौन साधे रहे. वे मुख्यमंत्री की कुर्सी बचाए रखने और भविष्य में प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देख रहे हैं. यह उनका मौन नहीं, मुखर समर्थन है, तभी यह सब संभव हो रहा है.’ वहीं अश्विनी चौबे सिद्दिकी के इस आरोप को खारिज करते हैं. वे कहते हैं, ‘विपक्ष के पास कोई मुद्दा नहीं बचा है. नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार फल-फूल रहा है. मुसलिम इनसे दूर भाग गए. बहुसंख्यक इनसे डरते हैं. इस तरह की बात करने वाले लोग दरअसल मानसिक दिवालिएपन के शिकार हैं.’

चौबे जो भी कहें यह तो साफ दिखता ही है कि विपक्ष बिहार में लगभग लाचार है. वरना संस्कृति महासम्मेलन के नाम पर पटना में जिस तरह दो दिन तक यह खास आयोजन हुआ, एक सरकारी संस्थान में प्रस्तावित राम मंदिर की तसवीरें टांगने के साथ-साथ उग्र साहित्य की बिक्री हुई और गरमागरम भाषण होते रहे, उसके बाद भी विपक्ष की लगभग निष्क्रियता उसकी बेबसी को ही दिखाती है. राजनीतिक कार्यकर्ता महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘ऐसे आयोजन पर सिर्फ नीतीश या सरकार पर निशाना साधने की बजाय धर्मनिरपेक्ष पार्टियों व विपक्षी दलों को खुद के बारे में सोचना होगा कि वे क्यों नहीं विरोध की ताकत जुटा रहे. मौन व्रत में क्यों चल रहे हैं!’

प्रधानमंत्री पद के लिए ‘एक अनार, सौ बीमार’ के दौर से गुजर रही भाजपा के लिए इस आयोजन में छोड़ा गया एक नया शगूफा बड़े सिरदर्द की तरह उभरा. यहां गंगा की सांस्कृतिक महत्ता पर बोलने पहुंची भाजपा नेत्री उमा भारती ने जनता पार्टी के अध्यक्ष डॉ सुब्रमण्यम स्वामी प्रधानमंत्री पद से जोड़कर एक नया जुमला उछाल दिया. उनके इस नए जुमले पर विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक सिंहल मौन साधे रहे. उमा ने सोच-समझकर यह नया शगूफा छोड़ा या फिर बोलते-बोलते अनायास ही यह कह गईं. यह सवाल पूछने पर वे कहती हैं, ‘मैंने कोई फैसला नहीं सुनाया है लेकिन दिल में जो बातें है उन्हें कहीं तो साझा करूंगी न! मैं तो सिर्फ यह कह रही हूं कि देश एक बार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व से चूक गया, अब स्वामी से भी चूक रहा है.’

उमा परिपक्व नेत्री हैं. खुद कहती हैं कि 27 की उम्र में ही संसद पहुंची थीं. हिंदुत्व की फायर ब्रांड नेत्री मानी जाती रही हैं. अब तक की उनकी राजनीतिक यात्रा में यह नहीं दिखता कि फितरतन वे दिल की बातें सार्वजनिक तौर पर साझा करें. ऐसा करतीं तो राजनीतिक प्रेम का एक अहम अध्याय अपनी मौत न मरा होता. यानी साफ है कि उन्होंने कुछ सोच-समझकर ही बोला होगा. उनके बोले का आगे के दिनों में जो असर पड़े, फिलहाल उसका अनुमान ही लगाया जा सकता है लेकिन महासम्मेलन के दौरान उसका असर दिखा. महासम्मेलन में पूर्व केंद्रीय मंत्री मुरली मनोहर जोशी को भी आना था. वे नहीं आए. कारण पारंपरिक बताए गए. सभा परिसर में बिहार के उपमुख्यमंत्री व भाजपाई नेता सुशील कुमार मोदी की भी तसवीरें टंगी हुई थीं. उनके आने के बारे में भी संभावना जताई गई थी. वे भी नहीं आए. नाम न छापने की शर्त पर एक भाजपा नेता कहते हैं, ‘अशोक सिंहल की उपस्थिति में प्रधानमंत्री पद के लिए उमा भारती दूसरा ही राग छेड़कर चली गईं, ऐसे में कोई भाजपाई यहां आकर क्या अपनी फजीहत करवाएगा?’ सुब्रमण्यम स्वामी खुद इस सवाल पर कुछ नहीं बोलते. सिर्फ इतना कहते हैं, ‘मैं भारत के भविष्य की लड़ाई लड़ रहा हूं.’

आयोजन में वरिष्ठ बुजुर्ग भाजपाई कैलाशपति मिश्र व अयोध्या में रामशिला पूजा से चर्चा में आए भाजपाई विधानपार्षद कामेश्वर चौपाल प्रमुखता से मौजूद रहे. उक्त दोनों भाजपा नेताओं की पहचान संघी पृष्ठभूमि से रही है. उनका उपस्थित होना स्वाभाविक भी था. बहुत हद तक प्रत्यक्ष तौर पर संघ परिवार के इस आयोजन में प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा की एक जिम्मेदार नेत्री द्वारा गैरभाजपाई का नाम उछालना ‘जंगल में मोर के नाचने’ की घटना की तरह हुआ, जिसे कुछ ही सुन-देख सके, लेकिन इसके अपने गहरे निहितार्थ हैं. सुब्रमण्यम स्वामी का नाम उछालने के बाद मंच से पूछा जाता रहा कि क्या भारत में फिलहाल कोई ऐसी राजनीतिक पार्टी है जो हिंदू हितों का ध्यान रखती हो. यह सवाल उछालकर जय श्रीराम के उद्घोष के साथ उपस्थित समूह से ‘नहीं’ पर सहमति ली गई. सम्मेलन में आए विश्व हिंदू परिषद के एक नेता कहते हैं कि हम यह संकेत तो बार-बार देते रहे हैं कि भाजपा हमारी बात नहीं सुनती और हमारी राह भी नहीं चलती इसलिए उसके मुगालते को तोड़ने के लिए नई पार्टी बना लेने और अपने स्तर से नेता चुन लेने की भभकी वाला प्रेशर गेम तो जरूरी है.

पता नहीं, पटना के इस छोटे-से सभागार से उठी आवाज की धमक कहां तक पहुंचेगी, लेकिन इस महासम्मेलन में यह घोषणा भी की गई है कि ऐसे आयोजन हर जिले में होंगे.

कितनी कारगर कवायदें?

उत्तराखंड में पतझड़ का मौसम शुरू हो चुका है, विधानसभा चुनाव आते-आते बसंत आ चुका होगा. प्रकृति के इस बदलाव की तरह ही यहां चुनावी मुद्दे भी बदल रहे हैं. कुछ महीने पहले तक उत्तराखंड की चुनावी फिजा में भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी मुख्य मुद्दा था. कांग्रेस इस मुद्दे पर भाजपा सरकार को बुरी तरह पटखनी दे रही थी. सितंबर में एकाएक निशंक की कुर्सी क्या हिली, माहौल ही बदल गया.  खंडूड़ी का आना भाजपा के लिए पतझड़ के बाद बसंत आने जैसा था. पार्टी कार्यकर्ताओं में इससे नया जोश भर गया. खंडूड़ी ने भी अपने पिछले कार्यकाल की ईमानदार छवि का सहारा लेकर जल्दी-जल्दी कुछ ऐसे फैसले किए जिन्होंने भ्रष्टाचार पर भाजपा को बचाव क बजाय आक्रामक मुद्रा में पहुंचा दिया है. ये फैसले थे–जन लोकायुक्त की स्थापना, बेनामी संपत्ति की जब्ती का प्रावधान, सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों एवं लोक सेवकों के लिए संपत्ति की अनिवार्य घोषणा और सेवा के अधिकार अधिनियम को लागू करना. इसी तरह उत्तराखंड में बेनाप जमीन को रक्षित वन भूमि बना देने वाले अंग्रेजों के जमाने के कानून को खत्म करके खंडूड़ी ने एक और बड़ा काम किया है. इससे विकास योजनाओं के लिए सरकार को लगभग चार लाख हेक्टेयर जमीन उपलब्ध हो सकेगी.
लेकिन उत्तराखंड में भाजपा की डूबती नैया को पार लगाने के लिए क्या यह काफी होगा? लगता तो नहीं. राज्य में भ्रष्टाचार अब भी एक बड़ा मुद्दा है. हालांकि यह एक बड़ी उलटबांसी है कि जो कांग्रेस पूरे देश में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खुद घिरती जा रही है वही कांग्रेस उत्तराखंड में भ्रष्टाचार मुक्त शासन का वादा कर रही है और भाजपा को निशाना बना रही है. खंडूड़ी के आने के बाद इस मुद्दे की कुछ हवा भले ही निकल गई हो लेकिन यह मुद्दा अभी भी पूरी तरह मरा नहीं है क्योंकि राज्य सरकार के दामन पर अब भी भ्रष्टाचार के कई दाग साफ-साफ चमक रहे हैं.  अपने तमाम प्रयासों के बावजूद खंडूड़ी के पास इस बात का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं है कि निशंक सरकार के अनेक दागी मंत्री उनकी टीम में कैसे और क्यों बने हुए हैं. यह अगर उनकी राजनीतिक मजबूरी है तो भला जनता उनसे यह उम्मीद कैसे करे कि इस तरह की राजनीतिक मजबूरियों के चलते वे वाकई में भ्रष्टाचार मुक्त, स्वच्छ और ईमानदार सरकार चला पाएंगे? निशंक सरकार के समय के जल विद्युत परियोजनाओं के सौदे, स्टर्डिया और अन्य भूमि घोटाले, कुंभ, सैफ विंटर गेम घोटाला आदि अनेक मामलों पर भी खंडूड़ी की ओर से कोई ठोस कार्रवाई नहीं किए जाने से कांग्रेस को भी यह कहने का मौका मिल रहा है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ खंडूड़ी की कोशिश सिर्फ चुनावी तिकड़म है.समाज विज्ञानी बीके जोशी कहते हैं, ‘भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम और जन लोकायुक्त दोनों अलग-अलग बातें हैं. आम आदमी के लिए लोकायुक्त तभी महत्वपूर्ण होगा जब उसे अपने रोज-रोज के काम के लिए रिश्वत नहीं देनी पड़ेगी.’

लेकिन यह सब कुछ महीनों मंे हो पाना संभव नहीं, क्योंकि हाल के वर्षों में उत्तराखंड के प्रशासन में भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और लूट इस तरह घुस गई है कि अब वह सिस्टम का अभिन्न अंग बन चुकी है. अभी हाल ही में रुड़की की एक दवा कंपनी से 50 नए उत्पादों की अनुमति के लिए रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों धरे गए राज्य के ड्रग कंट्रोलर धर्म सिंह के पास से करोड़ों की नकदी और अवैध संपत्ति की बरामदगी बताती है कि सरकारी मशीनरी किस तरह उत्तराखंड को चर रही है. राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं में जबर्दस्त गड़बडि़यां हैं. सरकारी दवाओं की खरीद से लेकर डाॅक्टरों की तैनाती तक हर जगह रेट तय हैं. दवा व्यवसाय से जुड़े हल्द्वानी के एक बड़े व्यवसायी स्वीकार करते हैं कि ज्यादातर सरकारी डॉक्टर दवा कंपनियों से मोटी रकम लेकर मरीजों को ऐसी दवाएं लिखते हैं जिनसे या तो फायदा नहीं होता या जो बहुत महंगी होती हैं. स्वास्थ्य उत्तराखंड की एक बड़ी समस्या है, मगर लोग पैसा खर्च करके भी सही और अच्छी दवाइयों के लिए मोहताज हैं. दवा की उपलब्धता, स्तर और मूल्य यह सब एक संगठित समानांतर व्यवस्था से तय होता है. इसका सिर्फ एक लक्ष्य होता है, अधिक से अधिक कमाई. मरीज या उसके स्वास्थ्य की चिंता इसमें कहीं नहीं होती. बात सिर्फ स्वास्थ्य विभाग की नहीं है. देखा जाए तो कृषि, खाद व बीज वितरण से लेकर उद्यान, मंडी, बिजली, पेयजल, राजस्व, लोक निर्माण, परिवहन, शिक्षा तक कोई भी विभाग ऐसा नहीं जहां समानांतर वसूली सिस्टम मौजूद न हो.

सरकार इस बात को नहीं जानती होगी यह सोचना तो बेमानी है, लेकिन वह इस पर नकेल क्यों नहीं कसती? इसलिए कि कहीं-न-कहीं इस व्यवसाय से हो रहा अंधा मुनाफा सरकार के विभिन्न अंगों तक भी पहुंचता ही है. ऐसे में सिर्फ लोकायुक्त की वाहवाही ही जन भावनाओं पर मरहम लगाने के लिए पर्याप्त होगी ऐसा नहीं लगता. लेकिन बहुत कड़े कदम उठाने की स्थिति में अभी खंडूड़ी हैं भी नहीं. राजधानी के एक वरिष्ठ  पत्रकार कहते हैं, ‘दरअसल खंडूड़ी को उत्तराखंड में पुनर्स्थापित करने वालों की भी मंशा यह नहीं है कि राज्य से भ्रष्टाचार पूरी तरह मिट जाए. उनके लिए भी तो यह महत्वपूर्ण है कि उत्तराखंड के पानी की तरह भ्रष्टाचार की गंगा का माल भी कहीं-न-कहीं दिल्ली तक भी पहुंचता ही रहे.’

उत्तराखंड की हवा से दिल्ली का मौसम बदलता है और दिल्ली की राजनीति से उत्तराखंड के समीकरण बदलते हैं

गंगोत्री से भाजपा विधायक गोपाल सिंह रावत बताते हैं, ‘मीडिया के कारण अन्ना की आवाज दूर-दराज के गांवों तक भी पहुंची है और लोग उत्तराखंड में लोकायुक्त की स्थापना को अन्ना के प्रभाव का ही नतीजा मान रहे हैं. इससे खंडूड़ी के प्रति जनसमर्थन बढ़ा है, वोट प्रतिशत भी इससे जरूर बढ़ेगा. लेकिन जनता इस बार पार्टी से ज्यादा उम्मीदवार की छवि का भी ध्यान रखेगी.’ उम्मीदवारों के चयन में उनकी भ्रष्टाचार मुक्त छवि को भाजपा कितनी प्राथमिकता देती है यह तो टिकट घोषित होने के बाद ही स्पष्ट होगा, मगर फिलहाल पार्टी को यह विश्वास है कि भ्रष्टाचार से लड़ते हुए दिखना ही उसे चुनावी वैतरणी पार करवा देगा. इसकी वजह साफ है. कांग्रेस भाजपा पर निशंक सरकार के कार्यकाल के दौरान हुए एक दर्जन बड़े घोटालों का आरोप लगा कर उसे घेरने का प्रयास कर रही है मगर वह खुद अपने शासन के दौर के 68 से ज्यादा घोटालों के घेरे में है. खंडूड़ी ने अपने पहले कार्यकाल में कांग्रेस राज के 68 घोटालों की जांच के लिए एक आयोग का गठन किया था. आयोग ने 60 मामलों की जांच पूरी करके सरकार को रिपोर्ट सौंपी है और नवंबर में ही खंडूड़ी ने इनमें से 17 मामले विजिलेंस जांच के लिए भी भेज दिए हैं. इन मामलों की जांच में कांग्रेस सरकार के कई मंत्रियों के फंसने की भी संभावना है. यदि ऐसा होता है तो यह भ्रष्टाचार से लड़ाई में कांग्रेस के लिए एक और बड़ा झटका होगा. वैसे भी इस लड़ाई में पहले ही कांग्रेस को पसीने छूट रहे हैं क्योंकि केंद्र सरकार खुद ही भ्रष्टाचार पर घिरी हुई है.

लेकिन बड़ा सवाल फिर वही है. भाजपा भ्रष्टाचार मुक्त राज्य की बात तो करती है मगर भ्रष्टाचार से निपट नहीं पा रही. विपक्ष के तमाम आरोपों के बावजूद संसदीय कार्य मंत्री प्रकाश पंत सफाई देते हैं कि लोकायुक्त विधेयक चुनावी मुद्दे के रूप में नहीं लाया गया है. वे कहते हैं, ‘यह तो हमारे 2007 के चुनाव घोषणा पत्र का ही एक वादा था. पारदर्शी और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन की स्थापना का वादा जिसे हमने लोकायुक्त के रूप में पूरा किया है.’ हालांकि वे यह मानते हैं कि लोकायुक्त की स्थापना जन आकांक्षाओं और वक्त की मांग के मुताबिक ही की गई है.

मगर विपक्ष जब भाजपा से निशंक सरकार के दिनों की बात करता है तो भाजपा के पास बगलें झांकने के सिवा दूसरा कोई चारा नहीं रह जाता. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल आर्य कहते हैं, ‘अगर मंशा भ्रष्टाचार से लड़ने की है तो भाजपा अपने ही पूर्व मुख्यमंत्री पर स्टर्डिंया, जल विद्युत परियोजनाओं, काशीपुर और कोटद्वार में जमीन बिक्री और कैग रिपोर्ट में पकड़ी गई अनियमितताओं जैसे मुद्दों पर कोई ठोस कार्रवाई क्यों नहीं करती?’ वे यह भी पूछते हैं कि जिस लोकायुक्त की चयन समिति की अध्यक्षता स्वयं मुख्यमंत्री करें वह लोकायुक्त मुख्यमंत्री के विरुद्ध कैसे कार्रवाई कर पाएगा. कांग्रेस मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक या सचिव से उच्च स्तर के अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए लोकायुक्त की पूरी पीठ की सहमति जरूरी बनाए जाने के विरोध में है. वह चाहती है कि यह कार्रवाई पूरी पीठ की सहमति की बजाय बहुमत के आधार पर हो.

बहरहाल खंडूड़ी की पारी ने उत्तराखंड का चुनावी गणित गड़बड़ा दिया है. कांग्रेस अब केंद्रीय धन के दुरुपयोग, कमजोर सरकार, आपदा राहत में चूक, विकास योजनाओं में गड़बड़ी आदि मुद्दों को भी उठाना चाहती है ताकि भ्रष्टाचार का दांव खुद पर ही भारी पड़ने की स्थिति में भी कुछ ‘फेससेविंग’ की जा सके.

उधर, बसपा को यह सुखद स्थिति लगती है कि दोनांे दल एक-दूसरे की ही टांग खींचने में मशगूल हैं इसलिए वह चुपके से सांप्रदायिक व धार्मिक आधार पर लोगों का बंटवारा चाहती है ताकि उसे अधिक से अधिक लाभ मिल सके और वह स्पष्ट बहुमत न होने की स्थिति में सरकार बनाने में अपनी शर्तों पर हिस्सेदारी कर सके. दूसरी ओर, उत्तराखंड की कई प्रगतिशील ताकतों से बना उत्तराखंड रक्षा मोर्चा भी इस प्रयास में है कि भ्रष्टाचार समेत तमाम स्थानीय मुद्दों पर लोगों के आक्रोश को राजनीतिक रूप देकर चुनाव में भुनाया जाए. उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के पीसी तिवारी कहते हैं, ‘लोग यह समझने लगे हैं कि जनसमस्याओं का समाधान राजनीतिक लड़ाई के बिना हो ही नहीं सकता. इसलिए इस बार जनता के सवालों को लेकर जनता के बीच जाने वाले उम्मीदवारों को अधिक जन विश्वास प्राप्त होगा.’ वे कहते हैं कि जब पूरी व्यवस्था ही भ्रष्टाचार की पोषक हो तो सिर्फ एक लोकायुक्त से क्या होगा.
राज्य के ग्रामीण इलाकों तक भ्रष्टाचार का प्रभाव तो खूब है मगर लोकायुक्त या भ्रष्टाचार से निपटने की खंडूड़ी सरकार की कोशिशों का उतना अधिक नहीं. जबकि शहरी इलाकों में बुद्धिजीवियों, मध्यवर्गीय लोगों और आम नागरिकों को इसमें अच्छाइयों के साथ-साथ बुराइयां भी नजर आ रही हैं. ऐसे में यह भाजपा के लिए विरोधियों को पटखनी देने वाला सुदर्शन चक्र तो नहीं हो सकता लेकिन इसका असर पार्टी को दो-चार सीटों पर लाभ जरूर दिला सकता है. यानी खंडूड़ी सरकार को जो परीक्षा देनी होगी वह उस तैयारी के आधार पर देनी होगी जो उन्होंने नहीं, उनके पूर्ववर्ती ने की थी.

फिर भी भाजपा के लिए उम्मीद की किरण इस बात में है कि उत्तराखंड के लोग हमेशा दिल्ली की तरफ देखते हैं, दाएं-बाएं नहीं. यहां स्थानीय मुद्दों की अपेक्षा दिल्ली का मुद्दा ज्यादा महत्वपूर्ण होता है. यहां की हवा से दिल्ली का मौसम बदल जाता है औैर दिल्ली की राजनीति से उत्तराखंड के समीकरण भी बदल जाते हैं. समीकरण बनने-बिगड़ने का दौर शुरू हो चुका है.तमाम राजनीतिक लड़ाकों की तरह उत्तराखंड की जनता को भी अब आतुरता से मौसम के बदलने और बसंत के आगमन का इंतजार है.

जल की जमींदारी

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 40 किलोमीटर दूर दुर्ग जिले के गांव महमरा के बाशिंदे आज भी इस बात को सहजता से स्वीकार नहीं कर पाते कि सदियों से उनकी जीवनरेखा रही शिवनाथ नदी पर अब उनका पहले जैसा अधिकार नहीं रहा. यहां के एक ग्रामीण साधुराम बताते हैं, ‘हमें तो अब नदी की तरफ जाने में ही डर लगता है कि कोई कुछ कह न दे.’ दरअसल शिवनाथ छत्तीसगढ़ की वह पहली नदी है जिसे निजी हाथों में सौंपकर उसके सामुदायिक अधिकार को खत्म करने की शुरुआत हुई थी. गांव के पूर्व सरपंच शिवकुमार निषाद बताते हैं, ‘लगभग दो-ढाई साल पहले मोटरबोट में सवार होकर कुछ लोग  उनके गांव की ओर आते थे और नदी के पानी का इस्तेमाल न करने की मुनादी करते हुए मछुआरों का जाल और किसानों का पंप जब्त कर लिया करते थे. पहले- पहल तो गांववालों को  यह समझ में ही नहीं आया लेकिन बाद में पता चला कि सरकार ने राजनांदगांव जिले के एक व्यापारी कैलाश सोनी को नदी बेच दी है.’  नदी पर व्यापारी के कब्जे के बाद गांववालों के जनजीवन पर क्या फर्क पड़ा,  पूछने पर गांव के साधुराम, इंशाराम और शिवशंकर लगभग एक जैसी बात दोहराते हुए कहते हैं,  ‘जैसे-जैसे लोगों को यह पता चलता गया कि वे अब पानी का इस्तेमाल नहीं कर सकते वैसे-वैसे झगड़ा बढ़ता गया. नदी से पानी लेने वाले लोगों को पानी चोर साबित किया जाने लगा. किसानों के पंपों को जब्त करने पर मामला थाने पहुंचा तो मछुआरों ने डर के मारे मछली मारना बंद कर दिया. कई दिनों तक धरना- प्रदर्शन चला तब जाकर पानी के इस्तेमाल की रोक-टोक खत्म हुई.’ महमरा के किसान रमऊ कहते हैं, ‘काफी हील-हुज्जत के बाद रोक-टोक खत्म तो हो गई लेकिन गांववालों की मुसीबतें अब भी बरकरार हैं.’ रमऊ आगे कहते हैं, ‘कैलाश सोनी की कंपनी ने इलाके के उद्योगों को पानी देने के लिए खुद का बांध बनवा लिया है लेकिन जब- जब बांध के जरिए पानी रोकने का काम चलता है तो नदी के किनारे खेती करने वाले लोगों की जमीन का कटाव बढ़ जाता है.’ रमऊ ने तहलका को बताया कि कभी वह तीन एकड़ जमीन का मालिक था. लेकिन लगातार कटाव से अब उसकी जमीन खत्म होने के कगार पर है.

छत्तीसगढ़ में शिवनाथ, महानदी और इंद्रावती, जोंक, केलो, अरपा, शबरी, हसदेव, खारून और मांड ऐसी नदियां हैं जिन्हें जीवनदायिनी माना जाता है. लेकिन 1998 में शिवनाथ के पानी को निजी हाथों में सौंपने के साथ राज्य में नदियों के जीवनदायिनी स्वरूप को खत्म करने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह अब काफी विकराल स्थिति में जा पहुंचा है.

छत्तीसगढ़ जब अविभाजित मध्य प्रदेश का हिस्सा था तब 26 जून, 1996 को दुर्ग जिले के औद्योगिक क्षेत्र बोरई में स्थित एक कंपनी एचईजी स्पंज आयरन ने मध्य प्रदेश औद्योगिक विकास केंद्र की रायपुर शाखा को पत्र लिखकर यह अवगत कराया था कि उसे अपने उद्योग चलाने के लिए हर रोज 24 लाख लीटर पानी की जरूरत होगी. औद्योगिक विकास निगम ने एचईजी को पानी की आपूर्ति का आश्वासन तो दिया लेकिन साथ ही उद्योग के समक्ष शिवनाथ नदी पर एक एनीकट बनाने का प्रस्ताव भी रखा. एचईजी एनीकट के निर्माण के लिए सहमत हो गया था लेकिन इस बीच अफसरों में इस बात को लेकर मतभेद उभरा कि एचईजी के आर्थिक सहयोग से एनीकट का निर्माण उचित होगा या नहीं. अफसरों ने यह माना कि यदि एचईजी एनीकट के निर्माण का पार्टनर बनेगा तो पानी को समय-असमय लेने के लिए उसका दबाव भी झेलना होगा.अततः औद्योगिक विकास निगम ने यह तय किया कि नदी पर इलेक्ट्रॉनिक तरीके से खुलने और बंद होने वाला गेट लगाया जाए. 14 अक्टूबर, 1997 को राजनांदगांव जिले के कैलाश इंजीनियरिंग कॉर्पोरेशन के कर्ताधर्ता कैलाश सोनी ने औद्योगिक विकास केंद्र, रायपुर को एक पत्र के जरिए यह अवगत कराया कि उनके द्वारा आटोमेटिक टिल्टिंग गेट तैयार किया गया है और इसका पेटेंट केवल उनके पास है. पांच अक्टूबर, 1998 को औद्योगिक विकास निगम और कैलाश सोनी की कंपनी जिसका नाम रेडियस वाटर लिमिटेड रखा गया, के बीच बिल्ड, ओन, ऑपरेट ऐंड ट्रांसफर (बूट) पद्धति से एक अनुबंध हुआ. प्रशासनिक हलकों में बूट का शाब्दिक अर्थ है- निर्माण करो, मालिक बनो, काम शुरू करो और फिर एक समयावधि के बाद निर्माण सरकार को सौंप दो. निगम से अनुबंध हो जाने के बाद रेडियस वाटर गांववालों को नदी का पानी इस्तेमाल करने पर धमकाने लगी. महमरा के छोटे से डैम पर जब तब कैलाश सोनी की मोटरबोट तेजी से आती तो गांववाले भाग खड़े होते. हालांकि अब वैसी पाबंदी नहीं है लेकिन कंपनी के कर्ताधर्ता कैलाश सोनी के गुर्गों का खौफ गांववालों के चेहरों से गायब नहीं हुआ है. गांववाले चाहते हैं कि सरकार नदी को वापस उन्हें ही सौंप दे लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो पाया है. दरअसल रेडियस वाटर और औद्योगिक विकास निगम के बीच अनुबंध की अवधि कुल 22 साल के लिए है. इस हिसाब से  अनुबंध चार अक्टूबर, 2020 को खत्म होगा. औद्योगिक विकास निगम से जुड़े सूत्र बताते हैं कि कंपनी को पानी बेचने के एवज में अब तक 28 करोड़ से अधिक का भुगतान किया जा चुका है.

रेडियस वाटर कंपनी ने शिवनाथ नदी के पानी के साथ-साथ कई एकड़ जमीन पर भी कब्जा कर लिया है

एक निजी कंपनी को नदी सौंपे जाने के मामले में जब खूब हो-हल्ला मचा तब तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने रेडियस वाटर के साथ किए गए अनुबंध को समाप्त करने की घोषणा कर दी. हालांकि उनकी घोषणा मात्र घोषणा रह गई. जोगी के सत्ता से हटते ही भाजपा ने भी मामले में कार्रवाई का आश्वासन दिया, लेकिन वह भी इस मसले पर आगे नहीं बढ़ पाई. 16 मार्च, 2007 को विधानसभा की लोकलेखा समिति ने रेडियस वाटर और औद्योगिक विकास निगम ( वर्तमान में छत्तीसगढ़ राज्य औद्योगिक विकास निगम अर्थात सीएसआईडीसी ) के बीच हुए करार को निरस्त करने की सिफारिश की. सरकार ने सिफारिश पर कार्रवाई के लिए विधि, वित्त और उद्योग विभाग के सचिवों की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन कर दिया. यह कमेटी भी अब तक यह तय नहीं कर पाई है कि उसे करना क्या है. इस बीच कंपनी ने नदी किनारे की 176 एकड़ जमीन पर अवैध कब्जा कर लिया है. यहां इतनी तगड़ी घेराबंदी है कि कोई आम आदमी यहां नहीं जा सकता.

नदियों को निजी हाथों में सौंपने की यह कोई इकलौती कहानी नहीं है. रायपुर से 17 किलोमीटर दूर  एक गांव सिलतरा में जब उद्योग लगने की शुरुआत हुई तब भी निजी कंपनियों ने सरकार को पानी की लंबी-चौड़ी जरूरतें बताकर खारून नदी में इंटेकवेल स्थापित करने का काम प्रारंभ किया. बेंद्री और मुरेठी गांवों के निकट से बहने वाली नदी खारून में हाल-फिलहाल निजी कंपनी बजरंग इस्पात, मोनेट, रायपुर एलायंस और निको जायसवाल सीएसआईडीसी का इंटेकवेल मौजूद है. गांववालों के लिए उद्योगों की यह जलापूर्ति व्यवस्था उत्पीड़क साबित हो रही है. मुरेठी के पूर्व सरपंच हरिशंकर फैक्ट्री वालों पर जरूरत से ज्यादा पानी इस्तेमाल करने का आरोप लगाते हैं. वे कहते हैं, ‘भले ही सीएसआईडीसी ने मोनेट, रायपुर एलायंस और निको जायसवाल जैसी कंपनियों को पानी देने का अनुबंध कर रखा है लेकिन सब जानते हैं कि पंपों से किस बेतरतीब तरीके से पानी खींचा जाता है.’ हरिशंकर बताते हैं कि फैक्ट्री वालों के पानी हासिल करने के तौर-तरीकों के चलते गांववालों को प्राय- निस्तारी के लिए दिक्कतों का सामना करना ही  पड़ता है. एक ग्रामीण खिलावन का कहना है कि फैक्ट्री द्वारा लगाए गए पंपों के कारण नदी और जमीन के भीतर मौजूद पानी पूरी तरह से प्रदूषित हो चुका है. वे बताते हैं, ‘ गांव के ज्यादातर लोग हैंडपंपों से पानी लेते हैं लेकिन अब हमारे हैंडपंपों के पानी से लोहे के बारीक कण निकलने लगे हैं.’ मुरेठी गांव की सीमा दुर्ग जिले के गांव खुड़मुड़ी को छूती है. खुड़मुड़ी के घनश्याम, विजय निषाद, डोमन और बसंत वर्मा बारिश में गांव में आने वाली बाढ़ के लिए कंपनियों द्वारा स्थापित किए गए इंटेकवेल को जिम्मेदार मानते हैं. वे कहते हैं, ‘ कंपनीवालों ने नदी का रास्ता रोक दिया है तो वह तटों को तोड़कर बाहर निकलेगी ही. इन लोगों ने यह भी कभी नहीं सोचा कि नदी के पानी पर निर्भर रहने वाले किसान अब  अपना जीवनयापन कैसे करेंगे.’ ग्रामीण मानते हैं कि खारून नदी का पानी जहर हो चुका है. वे कहते हैं, ‘कई उद्योगों में इस्तेमाल होने के बाद थोड़ा-बहुत पानी जिस ढंग से नदी में लौटता है वह न तो पीने योग्य रहता है और न ही खेतों में उपयोग के लायक.’

जलसंसाधन विभाग ने औद्योगिक प्रयोजन के लिए मोटे तौर पर जो नीति निर्धारित की है उसमें यह साफ तौर पर उल्लिखित है कि किसी भी जल संरचना पर किसी संस्थान का स्वामित्व, अधिकार या प्रबंधन अधिकार नहीं होगा लेकिन छत्तीसगढ़ में इस नीति की धज्जियां उड़ती दिखती है. प्रदेश की छोटी-बड़ी नदियों में उद्योगपतियों ने या तो इंटेकवेल स्थापित कर लिए हैं या फिर स्वयं के खर्च पर बांध का निर्माण कर लिया है. रायगढ़ में केलो नदी से पानी लेने और राबो गांव में बांध बनवाने को लेकर काफी बड़ा आंदोलन हो चुका है. आंदोलन में सैकड़ों ग्रामीणों पर पुलिसिया कहर टूटा है तो सत्यभामा सौंरा नाम की एक आदिवासी महिला को अपनी जान भी गंवानी पड़ी है. दरअसल वर्ष 1996 में जब जिंदल पावर लिमिटेड ने अपने पावर प्लांट के लिए शासन के समक्ष केलो नदी से पानी लेने का प्रस्ताव रखा तो पहले सरकार ने यह कहकर उसे नामंजूर कर दिया था कि इससे इलाके के रहवासियों के समक्ष पेयजल का संकट उत्पन्न हो जाएगा. लेकिन थोड़े ही दिनों में जिंदल को नदी से पानी लेने की इजाजत दे गई. नदी से पानी देने की बात सार्वजनिक होते ही बोंदा टिकरा, गुड़गहन सहित कई इलाकों के किसान विरोध में उठ खड़े हुए. क्षेत्र में कई दिनों तक आंदोलन चला. यहीं की एक ग्रामीण सत्यभामा फैक्ट्री को पानी देने के विरोध में अनशन पर बैठीं और 26 जनवरी, 1998 को अनशन करते हुए उनका निधन हो गया. पानी के लिए शहीद होने वाली सत्यभामा की स्मृति को जिंदा रखने के लिए सामाजिक कार्यकर्ताओं ने केलो नदी के किनारे एक समाधि स्थल का निर्माण किया है लेकिन आज भी इस समाधि स्थल के सामने से बहने वाली केलो नदी का पानी पावर प्लांट में जाना बंद नहीं हुआ है. इतना ही नहीं जिंदल अपने तमनार और तराईमाल इलाके में स्थापित संयंत्रों के लिए भूमिगत स्रोतों के अलावा महानदी और कुरकुट नदी के पानी का इस्तेमाल भी कर रहा है. कुरकुट नदी से पानी लेने के लिए घरघोड़ा तहसील के राबो गांव में एक बांध का निर्माण भी किया गया है.

पहले-पहल लोगों ने इस बांध का भी विरोध किया लेकिन कुछ समय के बाद उनकी हिम्मत जवाब दे गई. नदियों के पानी और पर्यावरण को प्रदूषित करने के खिलाफ मुखर रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता रमेश अग्रवाल को जिंदल की विस्तारित योजनाओं का विरोध करने की वजह से जेल की सजा काट चुके हैं. तहलका से चर्चा में अग्रवाल कहते हैं, ‘जिंदल ने कभी भी नियम- कानून का पालन नहीं किया. यदि पानी लेने के मामले को ही देखें तो नदियों पर सबसे पहला हक खेतों में अन्न उपजाने वाले किसानों का होता है. उसके बाद उन नागरिकों का जिन्हें पीने के लिए पानी चाहिए, लेकिन जिंदल ने सरकारी नुमाइंदों के साथ मिलीभगत कर प्राथमिकताओं को बदलने का काम किया, जिसका परिणाम यह है कि गांवों के हैंडपंपों से पानी का निकलना बंद हो गया है. गर्मी के आगमन से पहले ही रायगढ़ के बचे-खुचे तालाब सूख जाते हैं और नदियां पानी के बगैर बेवा नजर आने लगती हैं सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की मीडिया फेलोशिप के तहत जल के मुद्दे पर काम करने वाले पत्रकार आलोक प्रकाश पुतुल भी यह मानते हैं कि छत्तीसगढ़ में जल उपयोग की प्राथमिकताएं बड़ी निर्ममता से बदली गई हैं. पुतुल कहते हैं, ‘पहले नदी में बांध बनाने के पीछे एकमात्र कारण होता था फसलों की सिंचाई, लेकिन अब राज्य की हर छोटी-बड़ी नदी पर बांध निर्माण का उद्देश्य रह गया है औद्योगिक घरानों को लाभ पहुंचाना.’ प्रदेश की जलउपयोगिता समिति की कई बैठकों में किसानों को ग्रीष्मकालीन फसल के लिए पानी देने के मुद्दे पर असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो चुकी है. 19 फरवरी, 2010 को विधानसभा में विधायक नंदकुमार पटेल के एक प्रश्न के उत्तर में सिंचाई मंत्री ने यह स्वीकारा भी है कि हसदेव बांगो बांध में पानी की कमी के चलते किसानों को ग्रीष्मकालीन फसल के लिए पानी नहीं देने का फैसला किया गया था.

धान का कटोरा कहे जाने वाले  छत्तीसगढ़ में पानी से जुड़ी सरकारी प्राथमिकताओं का बदलाव फिलहाल नदियों के किनारे बसे गांवों को ही प्रभावित कर रहा है लेकिन स्थिति न बदलने पर इसका असर बड़े फलक पर जल्दी ही दिखने लगेगा.