कितनी कारगर कवायदें?

उत्तराखंड में पतझड़ का मौसम शुरू हो चुका है, विधानसभा चुनाव आते-आते बसंत आ चुका होगा. प्रकृति के इस बदलाव की तरह ही यहां चुनावी मुद्दे भी बदल रहे हैं. कुछ महीने पहले तक उत्तराखंड की चुनावी फिजा में भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी मुख्य मुद्दा था. कांग्रेस इस मुद्दे पर भाजपा सरकार को बुरी तरह पटखनी दे रही थी. सितंबर में एकाएक निशंक की कुर्सी क्या हिली, माहौल ही बदल गया.  खंडूड़ी का आना भाजपा के लिए पतझड़ के बाद बसंत आने जैसा था. पार्टी कार्यकर्ताओं में इससे नया जोश भर गया. खंडूड़ी ने भी अपने पिछले कार्यकाल की ईमानदार छवि का सहारा लेकर जल्दी-जल्दी कुछ ऐसे फैसले किए जिन्होंने भ्रष्टाचार पर भाजपा को बचाव क बजाय आक्रामक मुद्रा में पहुंचा दिया है. ये फैसले थे–जन लोकायुक्त की स्थापना, बेनामी संपत्ति की जब्ती का प्रावधान, सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों एवं लोक सेवकों के लिए संपत्ति की अनिवार्य घोषणा और सेवा के अधिकार अधिनियम को लागू करना. इसी तरह उत्तराखंड में बेनाप जमीन को रक्षित वन भूमि बना देने वाले अंग्रेजों के जमाने के कानून को खत्म करके खंडूड़ी ने एक और बड़ा काम किया है. इससे विकास योजनाओं के लिए सरकार को लगभग चार लाख हेक्टेयर जमीन उपलब्ध हो सकेगी.
लेकिन उत्तराखंड में भाजपा की डूबती नैया को पार लगाने के लिए क्या यह काफी होगा? लगता तो नहीं. राज्य में भ्रष्टाचार अब भी एक बड़ा मुद्दा है. हालांकि यह एक बड़ी उलटबांसी है कि जो कांग्रेस पूरे देश में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खुद घिरती जा रही है वही कांग्रेस उत्तराखंड में भ्रष्टाचार मुक्त शासन का वादा कर रही है और भाजपा को निशाना बना रही है. खंडूड़ी के आने के बाद इस मुद्दे की कुछ हवा भले ही निकल गई हो लेकिन यह मुद्दा अभी भी पूरी तरह मरा नहीं है क्योंकि राज्य सरकार के दामन पर अब भी भ्रष्टाचार के कई दाग साफ-साफ चमक रहे हैं.  अपने तमाम प्रयासों के बावजूद खंडूड़ी के पास इस बात का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं है कि निशंक सरकार के अनेक दागी मंत्री उनकी टीम में कैसे और क्यों बने हुए हैं. यह अगर उनकी राजनीतिक मजबूरी है तो भला जनता उनसे यह उम्मीद कैसे करे कि इस तरह की राजनीतिक मजबूरियों के चलते वे वाकई में भ्रष्टाचार मुक्त, स्वच्छ और ईमानदार सरकार चला पाएंगे? निशंक सरकार के समय के जल विद्युत परियोजनाओं के सौदे, स्टर्डिया और अन्य भूमि घोटाले, कुंभ, सैफ विंटर गेम घोटाला आदि अनेक मामलों पर भी खंडूड़ी की ओर से कोई ठोस कार्रवाई नहीं किए जाने से कांग्रेस को भी यह कहने का मौका मिल रहा है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ खंडूड़ी की कोशिश सिर्फ चुनावी तिकड़म है.समाज विज्ञानी बीके जोशी कहते हैं, ‘भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम और जन लोकायुक्त दोनों अलग-अलग बातें हैं. आम आदमी के लिए लोकायुक्त तभी महत्वपूर्ण होगा जब उसे अपने रोज-रोज के काम के लिए रिश्वत नहीं देनी पड़ेगी.’

लेकिन यह सब कुछ महीनों मंे हो पाना संभव नहीं, क्योंकि हाल के वर्षों में उत्तराखंड के प्रशासन में भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और लूट इस तरह घुस गई है कि अब वह सिस्टम का अभिन्न अंग बन चुकी है. अभी हाल ही में रुड़की की एक दवा कंपनी से 50 नए उत्पादों की अनुमति के लिए रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों धरे गए राज्य के ड्रग कंट्रोलर धर्म सिंह के पास से करोड़ों की नकदी और अवैध संपत्ति की बरामदगी बताती है कि सरकारी मशीनरी किस तरह उत्तराखंड को चर रही है. राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं में जबर्दस्त गड़बडि़यां हैं. सरकारी दवाओं की खरीद से लेकर डाॅक्टरों की तैनाती तक हर जगह रेट तय हैं. दवा व्यवसाय से जुड़े हल्द्वानी के एक बड़े व्यवसायी स्वीकार करते हैं कि ज्यादातर सरकारी डॉक्टर दवा कंपनियों से मोटी रकम लेकर मरीजों को ऐसी दवाएं लिखते हैं जिनसे या तो फायदा नहीं होता या जो बहुत महंगी होती हैं. स्वास्थ्य उत्तराखंड की एक बड़ी समस्या है, मगर लोग पैसा खर्च करके भी सही और अच्छी दवाइयों के लिए मोहताज हैं. दवा की उपलब्धता, स्तर और मूल्य यह सब एक संगठित समानांतर व्यवस्था से तय होता है. इसका सिर्फ एक लक्ष्य होता है, अधिक से अधिक कमाई. मरीज या उसके स्वास्थ्य की चिंता इसमें कहीं नहीं होती. बात सिर्फ स्वास्थ्य विभाग की नहीं है. देखा जाए तो कृषि, खाद व बीज वितरण से लेकर उद्यान, मंडी, बिजली, पेयजल, राजस्व, लोक निर्माण, परिवहन, शिक्षा तक कोई भी विभाग ऐसा नहीं जहां समानांतर वसूली सिस्टम मौजूद न हो.

सरकार इस बात को नहीं जानती होगी यह सोचना तो बेमानी है, लेकिन वह इस पर नकेल क्यों नहीं कसती? इसलिए कि कहीं-न-कहीं इस व्यवसाय से हो रहा अंधा मुनाफा सरकार के विभिन्न अंगों तक भी पहुंचता ही है. ऐसे में सिर्फ लोकायुक्त की वाहवाही ही जन भावनाओं पर मरहम लगाने के लिए पर्याप्त होगी ऐसा नहीं लगता. लेकिन बहुत कड़े कदम उठाने की स्थिति में अभी खंडूड़ी हैं भी नहीं. राजधानी के एक वरिष्ठ  पत्रकार कहते हैं, ‘दरअसल खंडूड़ी को उत्तराखंड में पुनर्स्थापित करने वालों की भी मंशा यह नहीं है कि राज्य से भ्रष्टाचार पूरी तरह मिट जाए. उनके लिए भी तो यह महत्वपूर्ण है कि उत्तराखंड के पानी की तरह भ्रष्टाचार की गंगा का माल भी कहीं-न-कहीं दिल्ली तक भी पहुंचता ही रहे.’

उत्तराखंड की हवा से दिल्ली का मौसम बदलता है और दिल्ली की राजनीति से उत्तराखंड के समीकरण बदलते हैं

गंगोत्री से भाजपा विधायक गोपाल सिंह रावत बताते हैं, ‘मीडिया के कारण अन्ना की आवाज दूर-दराज के गांवों तक भी पहुंची है और लोग उत्तराखंड में लोकायुक्त की स्थापना को अन्ना के प्रभाव का ही नतीजा मान रहे हैं. इससे खंडूड़ी के प्रति जनसमर्थन बढ़ा है, वोट प्रतिशत भी इससे जरूर बढ़ेगा. लेकिन जनता इस बार पार्टी से ज्यादा उम्मीदवार की छवि का भी ध्यान रखेगी.’ उम्मीदवारों के चयन में उनकी भ्रष्टाचार मुक्त छवि को भाजपा कितनी प्राथमिकता देती है यह तो टिकट घोषित होने के बाद ही स्पष्ट होगा, मगर फिलहाल पार्टी को यह विश्वास है कि भ्रष्टाचार से लड़ते हुए दिखना ही उसे चुनावी वैतरणी पार करवा देगा. इसकी वजह साफ है. कांग्रेस भाजपा पर निशंक सरकार के कार्यकाल के दौरान हुए एक दर्जन बड़े घोटालों का आरोप लगा कर उसे घेरने का प्रयास कर रही है मगर वह खुद अपने शासन के दौर के 68 से ज्यादा घोटालों के घेरे में है. खंडूड़ी ने अपने पहले कार्यकाल में कांग्रेस राज के 68 घोटालों की जांच के लिए एक आयोग का गठन किया था. आयोग ने 60 मामलों की जांच पूरी करके सरकार को रिपोर्ट सौंपी है और नवंबर में ही खंडूड़ी ने इनमें से 17 मामले विजिलेंस जांच के लिए भी भेज दिए हैं. इन मामलों की जांच में कांग्रेस सरकार के कई मंत्रियों के फंसने की भी संभावना है. यदि ऐसा होता है तो यह भ्रष्टाचार से लड़ाई में कांग्रेस के लिए एक और बड़ा झटका होगा. वैसे भी इस लड़ाई में पहले ही कांग्रेस को पसीने छूट रहे हैं क्योंकि केंद्र सरकार खुद ही भ्रष्टाचार पर घिरी हुई है.

लेकिन बड़ा सवाल फिर वही है. भाजपा भ्रष्टाचार मुक्त राज्य की बात तो करती है मगर भ्रष्टाचार से निपट नहीं पा रही. विपक्ष के तमाम आरोपों के बावजूद संसदीय कार्य मंत्री प्रकाश पंत सफाई देते हैं कि लोकायुक्त विधेयक चुनावी मुद्दे के रूप में नहीं लाया गया है. वे कहते हैं, ‘यह तो हमारे 2007 के चुनाव घोषणा पत्र का ही एक वादा था. पारदर्शी और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन की स्थापना का वादा जिसे हमने लोकायुक्त के रूप में पूरा किया है.’ हालांकि वे यह मानते हैं कि लोकायुक्त की स्थापना जन आकांक्षाओं और वक्त की मांग के मुताबिक ही की गई है.

मगर विपक्ष जब भाजपा से निशंक सरकार के दिनों की बात करता है तो भाजपा के पास बगलें झांकने के सिवा दूसरा कोई चारा नहीं रह जाता. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल आर्य कहते हैं, ‘अगर मंशा भ्रष्टाचार से लड़ने की है तो भाजपा अपने ही पूर्व मुख्यमंत्री पर स्टर्डिंया, जल विद्युत परियोजनाओं, काशीपुर और कोटद्वार में जमीन बिक्री और कैग रिपोर्ट में पकड़ी गई अनियमितताओं जैसे मुद्दों पर कोई ठोस कार्रवाई क्यों नहीं करती?’ वे यह भी पूछते हैं कि जिस लोकायुक्त की चयन समिति की अध्यक्षता स्वयं मुख्यमंत्री करें वह लोकायुक्त मुख्यमंत्री के विरुद्ध कैसे कार्रवाई कर पाएगा. कांग्रेस मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक या सचिव से उच्च स्तर के अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए लोकायुक्त की पूरी पीठ की सहमति जरूरी बनाए जाने के विरोध में है. वह चाहती है कि यह कार्रवाई पूरी पीठ की सहमति की बजाय बहुमत के आधार पर हो.

बहरहाल खंडूड़ी की पारी ने उत्तराखंड का चुनावी गणित गड़बड़ा दिया है. कांग्रेस अब केंद्रीय धन के दुरुपयोग, कमजोर सरकार, आपदा राहत में चूक, विकास योजनाओं में गड़बड़ी आदि मुद्दों को भी उठाना चाहती है ताकि भ्रष्टाचार का दांव खुद पर ही भारी पड़ने की स्थिति में भी कुछ ‘फेससेविंग’ की जा सके.

उधर, बसपा को यह सुखद स्थिति लगती है कि दोनांे दल एक-दूसरे की ही टांग खींचने में मशगूल हैं इसलिए वह चुपके से सांप्रदायिक व धार्मिक आधार पर लोगों का बंटवारा चाहती है ताकि उसे अधिक से अधिक लाभ मिल सके और वह स्पष्ट बहुमत न होने की स्थिति में सरकार बनाने में अपनी शर्तों पर हिस्सेदारी कर सके. दूसरी ओर, उत्तराखंड की कई प्रगतिशील ताकतों से बना उत्तराखंड रक्षा मोर्चा भी इस प्रयास में है कि भ्रष्टाचार समेत तमाम स्थानीय मुद्दों पर लोगों के आक्रोश को राजनीतिक रूप देकर चुनाव में भुनाया जाए. उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के पीसी तिवारी कहते हैं, ‘लोग यह समझने लगे हैं कि जनसमस्याओं का समाधान राजनीतिक लड़ाई के बिना हो ही नहीं सकता. इसलिए इस बार जनता के सवालों को लेकर जनता के बीच जाने वाले उम्मीदवारों को अधिक जन विश्वास प्राप्त होगा.’ वे कहते हैं कि जब पूरी व्यवस्था ही भ्रष्टाचार की पोषक हो तो सिर्फ एक लोकायुक्त से क्या होगा.
राज्य के ग्रामीण इलाकों तक भ्रष्टाचार का प्रभाव तो खूब है मगर लोकायुक्त या भ्रष्टाचार से निपटने की खंडूड़ी सरकार की कोशिशों का उतना अधिक नहीं. जबकि शहरी इलाकों में बुद्धिजीवियों, मध्यवर्गीय लोगों और आम नागरिकों को इसमें अच्छाइयों के साथ-साथ बुराइयां भी नजर आ रही हैं. ऐसे में यह भाजपा के लिए विरोधियों को पटखनी देने वाला सुदर्शन चक्र तो नहीं हो सकता लेकिन इसका असर पार्टी को दो-चार सीटों पर लाभ जरूर दिला सकता है. यानी खंडूड़ी सरकार को जो परीक्षा देनी होगी वह उस तैयारी के आधार पर देनी होगी जो उन्होंने नहीं, उनके पूर्ववर्ती ने की थी.

फिर भी भाजपा के लिए उम्मीद की किरण इस बात में है कि उत्तराखंड के लोग हमेशा दिल्ली की तरफ देखते हैं, दाएं-बाएं नहीं. यहां स्थानीय मुद्दों की अपेक्षा दिल्ली का मुद्दा ज्यादा महत्वपूर्ण होता है. यहां की हवा से दिल्ली का मौसम बदल जाता है औैर दिल्ली की राजनीति से उत्तराखंड के समीकरण भी बदल जाते हैं. समीकरण बनने-बिगड़ने का दौर शुरू हो चुका है.तमाम राजनीतिक लड़ाकों की तरह उत्तराखंड की जनता को भी अब आतुरता से मौसम के बदलने और बसंत के आगमन का इंतजार है.