महंगाई,सरकार और सच्चाई

जम्मू-कश्मीर के सोपोर के रहने वाले अब्दुल हामिद और उनके परिवार की आमदनी का मुख्य जरिया उनका सेब का बागान है जिसमें सेब के तकरीबन 300 पेड़ हैं. हर साल वे बड़ी शिद्दत से पेड़ों में फल लगने का इंतजार करते हैं फिर उन्हें पेटियों में बड़ी सावधानी से भरकर ट्रक के जरिए दिल्ली की आजादपुर मंडी पहुंचाते हैं. हामिद के बागान में इतने सेब नहीं होते कि पूरा ट्रक भर जाए, इसलिए वे अपने जैसे दूसरे किसानों को भी इसी ट्रक से सेब भेजने के लिए तैयार करते हैं. 42 साल के हामिद पिछले 26 साल से एशिया की सबसे बड़ी सब्जी और फल मंडी  में अपने बागों के सेब लेकर आते रहे हैं.

इस साल जब हामिद सेबों की 1200 पेटियों के साथ छह दिसंबर को दिल्ली की आजादपुर मंडी पहुंचे तो उन्हें पिछले साल के मुकाबले अच्छा भाव मिला. पिछले साल जहां उनके सेब की एक पेटी 500 रुपये में बिकी वहीं इस साल उन्हें 600 रुपये का भाव मिला. एक पेटी में तकरीबन 14 किलो सेब होते हैं. सेब उपजाने से लेकर उसे बाजार तक लाने के खर्च के बारे में पूछे जाने पर हामिद तहलका को बताते हैं, ‘अगर मोटा-मोटी खर्च निकालें तो प्रतिपेटी 100 रुपये का खर्च सिर्फ कीटनाशकों और अन्य दवाओं के सही समय पर इस्तेमाल में हो जाता है. जब फसल पक जाती है तो उसे पेड़ से उतारने में 20 रुपये प्रतिपेटी का खर्च होता है. मंडी तक लाने के लिए इसे लकड़ी की पेटी में अच्छे से पैक करना होता है. इस पेटी और पैकिंग में इस्तेमाल होने वाली दूसरी चीजों को मिलाकर तकरीबन 60 रुपये खर्च हो जाते हैं. इसके अलावा सोपोर से दिल्ली तक लाने में प्रतिपेटी 60 रुपये ट्रक का किराया भी देना होता है. हम आजादपुर मंडी के आढ़तियों को 12 फीसदी कमीशन देते हंै. अगर 600 रुपये का भाव मिलता है तो इस पर 72 रुपये कमीशन देना होता है. सोपोर से मेरे दिल्ली आने-जाने का खर्च भी जोड़ लें तो प्रति पेटी 10 रुपये यह भी बैठता है.’ हामिद के बताए खर्च को जोड़ें तो सोपोर के बागान से आजादपुर मंडी तक पहुंचने में सेब की हर पेटी पर 322 रुपये खर्च हुए और इसके बदले हामिद को 600 रुपये मिले. यानी उन्हें 14 किलो की पेटी में 272 रुपये का फायदा हुआ और हामिद की जेब में एक किलो सेब के लिए महज 19 रुपये गए.

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर अजमेरी गेट के पास ठेले पर फल बेचने वाले रहमान आजादपुर मंडी से आम तौर पर हर रोज चार पेटी सेब खरीदते हैं. हामिद के सेबों की पेटियों में से ही रहमान ने चार पेटी सेब खरीदे. 600 रुपये की पेटी के लिए रहमान ने 612 रुपये प्रतिपेटी चुकाए. इसमें से एक फीसदी यानी 6 रुपये आढ़तिये की जेब में जाएंगे और 6 रुपये आजादपुर की एग्रो प्रोडक्ट मार्केटिंग कमेटी (एपीएमसी) के खाते में जाएंगे. यहां यह बताते चलें कि नियमों के मुताबिक माल लाने वाले से आढ़तिये अधिकतम छह फीसदी कमीशन ले सकते हैं और खरीदने वाला एक फीसदी कमीशन एपीएमसी को देता है. इस एक फीसदी का इस्तेमाल ही मंडी को चलाने और इसके विकास में होता है. आजादपुर मंडी में इस नियम को ठेंगा दिखाकर आढ़तिये न सिर्फ खरीददारों से एक फीसदी कमीशन ले रहे हैं बल्कि बेचने वालों से भी दोगुना कमीशन यानी छह फीसदी के बदले 12 फीसदी कमीशन वसूल रहे हैं. ऐसा नहीं है कि बेचने और खरीदने वाले नियमों से गाफिल हैं, लेकिन उनका कहना है कि यहां की व्यवस्था ही ऐसी बन गई है इसलिए हम क्या कर सकते हैं. बातचीत में हामिद एक और वजह की ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं, ‘जब हमारे सेब बागान में फल लगते हैं तो उन पर कीटनाशक और अन्य दवाओं के छिड़काव के लिए हम यहां के आढ़तिये से पैसे लेते हैं. इसके अलावा ये आढ़तिये हमें जरूरत के हिसाब से अन्य मौकों पर भी पैसे देते रहते हैं.’ हालांकि हामिद यह स्वीकार तो नहीं करते कि इस वजह से ही आढ़तिये को छह की बजाय 12 फीसदी कमीशन देते हैं, लेकिन उनकी बातों से वजह साफ है. कमीशन वसूली के मामले में सरकारी स्तर पर की जा रही इस अनदेखी की वजह से इस मंडी से होकर देश के कई हिस्सों में जाने वाले फल और सब्जियों की कीमतों में बेवजह बढ़ोतरी हो रही है क्योंकि हर विक्रेता गैरकानूनी कमीशन भुगतान को लागत में जोड़ता है और फिर वह उसमें अपना मुनाफा जोड़कर खुदरा बाजार में बेचता है.

बहरहाल, अब यह समझना जरूरी है कि 612 रुपये प्रतिपेटी की दर पर बिकने वाले सेब का भाव खुदरा बाजार में पहुंचते-पहुंचते कितना हो जाता है. आजादपुर मंडी में एक तांगे पर अपनी सेब की पेटियों को लाद रहे रहमान कहते हैं, ‘तांगे वाला प्रतिपेटी 25 रुपया किराया लेता है. अजमेरी गेट से मैं यहां आया हूं और मेरा यहां आने-जाने का खर्च 50 रुपये है. हर महीने पुलिसवाले को 450 रुपये और दिल्ली नगर निगम के कर्मचारी 600 रुपये ले जाते हैं. इसके अलावा लाइट आदि का खर्च भी हर महीने तकरीबन 1,200 रुपये है. किराया और दूसरे खर्चे जोड़ दें तो हर पेटी पर तकरीबन 40 रुपये खर्च हो जाते हैं.’ इस तरह से अजमेरी गेट पहुंचते-पहुंचते सेब की पेटी की कीमत हो गई 652 रुपये. इस हिसाब से देखें तो एक किलो सेब की कीमत हुई 47 रुपये प्रतिकिलो. लेकिन रहमान खुद बताते हैं कि वे वहां सेब 75 रुपये किलो की दर से बेचेंगे. वजह पूछने पर वे कहते हैं, ‘कई तरह के खर्चे हैं. महंगाई काफी बढ़ गई है. इससे कम में बेचने पर खर्चा निकालना मुश्किल हो जाता है.’ आजादपुर मंडी के बिलकुल बाहर आदर्श नगर मेट्रो स्टेशन के नीचे फलों के ठेलों पर वही सेब 80 रुपये किलो बिक रहा था जो अंदर थोक में 600 रुपये प्रतिपेटी की दर से बिक रहा था. यानी थोक में 43 रुपये प्रतिकिलो वाला सेब 80 रुपये प्रतिकिलो में. उसी दिन लक्ष्मी नगर के रिलायंस फ्रेश में भी इस क्वालिटी के सेब का भाव 80 रुपये किलो था. इसका मतलब यह हुआ कि जिस एक किलो सेब के लिए उसे उपजाने वाले किसान हामिद को 19 रुपये मिले उसी एक किलो सेब को जब आप एक सामान्य से बाजार में खरीदने जाएंगे तो आपको 80 रुपये चुकाने होंगे. इस व्यापार में आढ़तिये को बिना ज्यादा कुछ किए करीब 6 रुपये प्रतिकिलो और खुदरा विक्रेता यानी रहमान को 33 रुपये का शुद्ध फायदा होगा.

जिस एक किलो सेब के लिए उसे उपजाने वाले किसान हामिद को 19 रुपये मिले उसी एक किलो सेब को जब आप एक सामान्य से बाजार में खरीदने जाएंगे तो आपको 80 रुपये चुकाने होंगे

खेत से लेकर मंडी और वहां से बरास्ता खुदरा विक्रेता घर तक पहुंचने में कीमतों में इस तरह की अतार्किक बढ़ोतरी सिर्फ सेबों के मामले में ही नहीं हो रही है. बल्कि यही कहानी तकरीबन हर फल और सब्जी की है. छह दिसंबर को मंडी और दिल्ली के लक्ष्मीनगर में कीमतों की तुलना करने पर महंगाई की तसवीर और साफ हो जाती है (देखें बॉक्स). लक्ष्मीनगर के तकरीबन यही भाव संगठित क्षेत्र की खुदरा दुकानों में भी उस दिन थे.

मंडी और खुदरा दुकानों के बीच भाव का यह अंतर महंगाई से संबंधित कई परतों को खोलता है. पहली बात तो यह कि खुदरा बाजार की कीमतों पर निगरानी रखने का कोई तंत्र हमारे यहां नहीं है और इसका फायदा खुदरा कारोबारी उठा रहे हैं. सरकार भी यही कह रही है. लेकिन पूरा सच नहीं बता रही. सरकार यह नहीं बता रही कि इस तरह से ग्राहकों का शोषण करने के मामले में संगठित क्षेत्र की खुदरा दुकानें भी पीछे नहीं हैं. संगठित क्षेत्र ने शुरुआती दिनों में पारंपरिक दुकानों की तुलना में कम कीमत पर भले ही फल और सब्जियों की बिक्री की हो लेकिन अब ये बराबर और कुछ मामलों में तो ज्यादा कीमतें भी वसूल रही हैं. लेकिन सरकार को यह नहीं दिखता. वजह कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा बताते हैं. वे कहते हैं, ‘सरकार पारंपरिक खुदरा दुकानों को जान-बूझकर खलनायक बना रही है क्योंकि ऐसा करके वह खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के पक्ष में माहौल बनाना चाहती है.’ यह पूछे जाने पर कि पारंपरिक खुदरा दुकानें भी तो ग्राहकों को लूट रही हैं, शर्मा कहते हैं, ‘मैं उन्हें सही नहीं ठहरा रहा लेकिन अगर वे कोई गलती कर रहे हैं तो इसका मतलब यह थोड़े न हुआ कि इस पूरे क्षेत्र को तबाह कर दिया जाए. यह तो कुछ उसी तरह हुआ कि किसी के हाथ में कोई घाव हुआ तो इलाज करने की बजाए उसे काटकर फेंकने की कोशिश की जाए. जरूरत इस बात की है कि थोक और खुदरा बाजार की कीमतों में संतुलन बनाने के लिए सरकार कोई तंत्र विकसित करे ताकि ग्राहकों का शोषण बंद हो और करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी भी चलती रहे.’

इससे साफ है कि महंगाई रोकने को लेकर सरकार की नीयत साफ नहीं है और महंगाई की व्यावहारिक वजहों को सरकार नजरअंदाज कर रही है. इन वजहों पर आने से पहले इस बात को परखना जरूरी है कि महंगाई के लिए सरकार जो वजहें गिनाती है उनमें कितना दम है. सरकार बार-बार यह कहती है कि महंगाई बढ़ने की वजह यह है कि अनाज, फल और सब्जियों की खपत बढ़ गई है. दूसरे शब्दों में कहें तो सरकार यह मानती है कि लोग ज्यादा खा रहे हैं इसलिए महंगाई बढ़ रही है. लेकिन सरकार के इस दावे को खुद सरकारी आंकड़े ही खोखले साबित कर रहे हैं. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण का अध्ययन बताता है कि जैसे-जैसे आर्थिक विकास हुआ है वैसे-वैसे प्रतिव्यक्ति दालों और पोषक अनाज की खपत में कमी आई है. शर्मा कहते हैं, ‘यह बात बड़ी आसानी से किसी की भी समझ में आ सकती है कि महंगाई बढ़ने पर लोगों के खाने की थाली की विविधता घट जाती है. जिस घर में दो सब्जियां बनती रही हैं, हो सकता है कि वहां एक ही सब्जी से काम चलने लगे.’

सरकार महंगाई को सही ठहराने के लिए यह तर्क देती है कि तरक्की और महंगाई साथ-साथ चलती है. लेकिन उसके इस दावे की पोल खोलने का काम भी खुद सरकारी आंकड़े कर रहे हैं. सत्ता में बैठे लोग जीडीपी की बात कर रहे हैं, लेकिन यह दर भी घटती हुई 6.9 फीसदी पर पहुंच गई है. अगर सरकार शेयर बाजार की तेजी को तरक्की मानती है तो सेंसेक्स भी आजकल गोते लगा रहा है. डॉलर के मुकाबले रुपया भी हर रोज कमजोर हो रहा है. इसलिए तरक्की के वास्तविक और सरकारी दोनों आधार विकास के दावे को खारिज कर रहे हैं.

एशियाई विकास बैंक की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में पिछले 20 महीने में महंगाई बढ़ने के चलते देश के तकरीबन पांच करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गए हैं

महंगाई के लिए सरकार किसानों को अनाज के बदले मिल रहे न्यूनतम समर्थन मूल्य में की गई बढ़ोतरी को भी जिम्मेदार ठहराती है. लेकिन क्या इसका फायदा किसानों को मिल रहा है? इसका जवाब भी सरकारी आंकड़े ही दे रहे हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि 2010 में देश भर में कुल 15,964 किसानों ने आत्महत्या की. 2011 के नवंबर महीने तक महाराष्ट्र के विदर्भ में 571 किसानों ने खुदकुशी की है. इससे साफ है कि सरकार जिस बढ़े न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात कर रही है उसका फायदा किसानों को नहीं मिल रहा है. शर्मा कहते हैं, ‘सरकार को यह तो दिखता है कि उसने न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ा दिए लेकिन यह नहीं कि खेती की लागत कितनी बढ़ गई है. जिस अनुपात में खेती की लागत बढ़ रही है उस अनुपात में किसानों की आमदनी नहीं बढ़ रही है. यही वजह है कि आज ज्यादातर किसान खेती छोड़कर बाहर निकलना चाह रहे हैं.’
सरकार यह तर्क देती है कि लोगों की आमदनी बढ़ रही है इसलिए महंगाई दर भी ऊंची है. तथ्य सरकार के इस दावे का समर्थन नहीं करते. इस बारे में लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेत्री सुषमा स्वराज ने महंगाई पर बहस के दौरान संसद में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के सामने यह सवाल रखा कि आखिर वे बताएं कि किस वर्ग की आमदनी बढ़ रही है. उन्होंने कहा कि मुट्ठी भर लोगों की आमदनी बढ़ रही है लेकिन आम लोगों की आमदनी में कोई बढ़ोतरी नहीं हो रही. एशियाई विकास बैंक की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में पिछले 20 महीने में जितनी महंगाई बढ़ी है उसके चलते देश के तकरीबन पांच करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गए हैं. इस साल फरवरी में आम बजट से पहले प्रणव मुखर्जी ने जो आर्थिक सर्वेक्षण संसद में रखा था उसके मुताबिक देश की आबादी में सबसे नीचे की 20 फीसदी आबादी अपनी आमदनी का 67 फीसदी हिस्सा खाने-पीने पर खर्च करती है. अंदाजा लगाया जा सकता है कि बढ़ती महंगाई से यह तबका कितनी मुश्किलें झेल रहा है.

वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी का चार अगस्त को लोकसभा में भी कहना था, ‘कृषि उत्पादों के मामले में मांग और आपूर्ति में गंभीर अंतर का सामना हमें करना पड़ा है.’ यही बात उन्हाेंने लोकसभा में नौ दिसंबर, 2011 को एक बार फिर दोहराई. मगर सरकार के आंकड़े ही वित्त मंत्री के इस सरकारी दावे को खारिज कर रहे हैं. 2010-11 में भारत में 24.1 करोड़ टन का रिकॉर्ड अनाज उत्पादन हुआ. जबकि 2009-10 में भारत में अनाज उत्पादन 23 करोड़ टन ही था.

महंगाई की समस्या से अपना पल्ला झाड़ने के लिए मौजूदा सरकार यह भी कहती है कि वैश्विक स्तर पर पेट्रोलियम उत्पादों की बढ़ती कीमतों की वजह से भी ऐसा हो रहा है क्योंकि इस वजह से परिवहन खर्च बढ़ता है जिसका असर महंगाई पर दिखता है. लेकिन सरकार का यह तर्क भी तथ्यों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता. 31 दिसंबर, 2010 को वैश्विक बाजार में एक बैरल कच्चे तेल की कीमत 91.36 डॉलर थी और अभी यह 98 डॉलर के स्तर पर है. इसका मतलब यह हुआ कि पिछले एक साल में कच्चे तेल की कीमतों में तकरीबन सात फीसदी बढ़ोतरी हुई. लेकिन इस दौरान देश में पेट्रोल की कीमतों में 20 फीसदी की बढ़ोतरी की गई. अजीब बात यह है कि जिस दौर में महंगाई सबसे तेजी से बढ़ रही थी उसी दौर में सरकार ने पेट्रोल की कीमतों को तय करने का काम बाजार के हवाले कर दिया.

महंगाई रोकने के लिए अब तक सरकार ने दो काम किए हैं. पहला यह कि समय-समय पर उसने ब्याज दरों को बढ़ाया है. दूसरा मंत्री और अधिकारी यह बयान देते रहे हैं कि अगले चार-छह महीने में महंगाई घट जाएगी. सरकार ने न सिर्फ ब्याज दरों को बढ़ाया है बल्कि रेपो रेट और रिवर्स रेपो रेट को भी कई दफा बढ़ाया. लेकिन महंगाई पर इसका उलटा असर हुआ. पहली बात तो यह कि बैंक कर्ज महंगे हुए और जिन लोगों ने पहले से कर्ज ले रखे थे उनकी मासिक किस्त बढ़ गई. दूसरा नुकसान यह हुआ कि हाउसिंग सेक्टर में मांग घट गई. इस वजह से आर्थिक गतिविधियां प्रभावित हुईं. सीमेंट और अन्य वस्तुओं की मांग घटी और मजदूरों की मांग भी. इसका नतीजा यह हुआ कि बेरोजगारों की संख्या घटने की बजाय बढ़ी. इससे न तो महंगाई थमी और न ही आर्थिक विकास की गति बनी रही.

अब सवाल यह उठता है कि अगर महंगाई बढ़ने के लिए सरकार द्वारा गिनाई जा रही वजहें सही नहीं हैं तो महंगाई बढ़ने के असली कारण क्या हैं और इस पर काबू पाने का रास्ता क्या है. कीमतों के लिए कोई निगरानी तंत्र नहीं होने की वजह से थोक और खुदरा कीमतों में किस तरह काफी अंतर है और इसका खामियाजा किस तरह से आम लोगों को भुगतना पड़ रहा है, इसकी चर्चा पहले हो गई है. असल में महंगाई बढ़ने की सबसे बड़ी वजह यही है. दूसरी वजहों को गिनाते हुए दिल्ली ग्रेन मर्चेंट एसोसिएशन के अध्यक्ष ओमप्रकाश जैन कहते हैं, ‘खास तौर पर अनाज को महंगा बनाने के लिए काफी हद तक वायदा कारोबार जिम्मेदार है. डिलीवरी की बाध्यता नहीं होने की वजह से इस सट्टा बाजार में उत्पादन से भी ज्यादा अनाज का वायदा कारोबार हो रहा है. इसमें आम उपभोक्ता और आम कारोबारी दोनों परेशान हैं. अगर सरकार चाहती है कि अनाजों की कीमतों में कमी आए तो इनके वायदा कारोबार को प्रतिबंधित करना होगा.’ बताते चलें कि 2003 में 54 प्रतिबंधित वस्तुओं को वायदा कारोबार के लिए खोला गया था और अभी यह कारोबार मुख्यतः देश के दो मुख्य एक्सचेंजों के जरिए हो रहा है. इनमें एक है मुंबई कमोडिटी एक्सचेंज और दूसरा है नैशनल कमोडिटी एक्सचेंज. एक अनुमान के मुताबिक हर साल 15 लाख करोड़ रुपये मूल्य के कृषि उत्पादों का कारोबार हो रहा है. जब 2005 में महंगाई बेलगाम बढ़ रही थी तो कांग्रेस अध्यक्ष  सोनिया गांधी ने कहा था कि ऐसा वायदा कारोबार की वजह से है. उस बात को छह साल हो गए, लेकिन उनकी सरकार ने इस संबंध में कुछ नहीं किया.

अनाज को महंगा बनाने के लिए काफी हद तक वायदा कारोबार जिम्मेदार है. अगर सरकार चाहती है कि अनाजों की कीमतों में कमी आए तो इनके वायदा कारोबार को प्रतिबंधित करना होगा

महंगाई की वजहों को गिनाते हुए आजादपुर मंडी में टमाटर का कारोबार करने वाले सुभाष चुग कहते हैं, ‘खेती के तकनीकी पक्ष से देश का किसान अनजान है. इस वजह से लागत बढ़ रही है, लेकिन उत्पादन में अपेक्षित बढ़ोतरी नहीं हो रही है. दूसरी तरफ परिवहन और भंडारण की उचित व्यवस्था नहीं है. इससे भारी मात्रा में फल और सब्जियां बाजार आने से पहले ही सड़ जा रहे हैं.’ इसका मतलब यह हुआ कि सरकार अगर महंगाई पर रोक लगाना चाहती है तो किसानों को खेती की बेहतर तकनीकों का प्रशिक्षण देने का बंदोबस्त किया जाए और भंडारण व परिवहन की व्यवस्था दुरुस्त की जाए. परिवहन और भंडारण की उचित व्यवस्था नहीं होने से एक तरफ तो पंजाब में आलू सड़ रहा है दूसरी ओर दिल्ली में यह दस रुपये किलो बिक रहा है. ‘सरकार का अनाज भंडार तकरीबन 6.5 करोड़ टन है. गोदामों में इसके सड़ने की खबरें आती रहती हैं. लेकिन फिर भी महंगाई कम करने के लिए सरकार अपने गोदामों से अनाज बाजार में नहीं उतार रही. अगर सरकार महंगाई रोकना चाहती है तो उसे सरकारी गोदामों का अनाज बाजार में उतारना पड़ेगा. साथ ही भंडारण की व्यवस्था को मजबूत करना होगा ताकि अनाज सड़े नहीं’, देविंदर शर्मा कहते हैं.

जानकारों की मानें तो महंगाई बढ़ने की एक प्रमुख वजह गैरजिम्मेदाराना बयानबाजी भी है. मसलन, 2009 के अगस्त महीने में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह बयान दे डाला था कि अभी महंगाई और बढ़ेगी, इसका सामना करने के लिए देश के नागरिकों को तैयार रहना चाहिए. प्रधानमंत्री के सुर में सुर मिलाते हुए दो दिन के बाद ही रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव ने भी यह कह डाला कि लोेग और अधिक महंगाई झेलने के लिए तैयार रहें. इसके पहले कृषि मंत्री शरद पवार ने भी ऐसा ही बयान दिया था. इन बयानों ने जमाखोरों और कालाबाजारी करने वालों को महंगाई के पक्ष में माहौल बनाने का मौका उपलब्ध कराया. आम लोगों के बीच भी यह संदेश गया कि जब प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री खुद ही महंगाई बढ़ने की बात कह रहे हैं तो बात में कुछ दम है और महंगाई इस समय का सच है. इसका फायदा जमाखोरों ने उठाया और आम लोगों को खूब शोषण हुआ.

विपक्षी दलों का कहना है कि अगर सरकार वाकई महंगाई पर काबू पाना चाहती है तो उसे जमाखोरों और कालाबाजारियों से निपटने के लिए इच्छाशक्ति दिखानी होगी. महंगाई पर लोकसभा में हुई चर्चा में भाकपा नेता गुरुदास दासगुप्ता का कहना था, ‘सरकार में महंगाई रोकने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है. अगर महंगाई रोकने के लिए सरकार जमाखोरों, कालाबाजारियों और मुनाफाखोरों से टकराने को तैयार है तो सरकार आगे बढ़े विपक्षी दल सरकार का साथ देंगे.’

इच्छाशक्ति की कमी के आरोपों को खुद सरकार अपने रवैये से मजबूती दे रही है. 2004 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संप्रग की सरकार केंद्र में बनी थी और तब से लेकर अब तक महंगाई पर लोकसभा में 13 बार चर्चा हुई है, लेकिन आम लोगों को महंगाई से अब तक राहत नहीं मिली. 2009 के दिसंबर में यानी तकरीबन दो साल पहले वित्तीय मामलों पर संसद की स्थायी समिति ने बढ़ती महंगाई पर काबू पाने के लिए सुझाव देते हुए कहा था, ‘वित्त मंत्रालय महंगाई रोकने के लिए समय पर हस्तक्षेप करने में नाकाम रहा है. यदि सरकार इस पर काबू पाना चाहती है तो उसे खाने-पीने की चीजों की कीमतों के निर्धारण और प्रबंधन के लिए एक व्यापक नीति तैयार करनी चाहिए.’ दो साल बीत गए, पर सरकार ने इस मोर्चे पर कुछ नहीं किया है.

पूर्व वित्त मंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने तीन अगस्त, 2011 को लोकसभा में भाषण देते हुए कहा था, ‘अर्थशास्त्र में महंगाई को गरीबों के ऊपर सबसे घटिया किस्म का टैक्स कहा गया है. पिछले तीन साल में महंगाई की वजह से देश के नागरिकों को छह लाख करोड़ रुपये अतिरिक्त खर्च करने पड़े. सरकार कहती है कि विकास की वजह से महंगाई बढ़ रही है. अगर विकास का मतलब महंगाई है तो आम लोगों की कीमत पर हमें नहीं चाहिए ऐसा विकास.’ खाने-पीने की चीजों की महंगाई के खतरों से आगाह करते हुए उन्होंने यह भी कहा, ‘अगर इनकी कीमतें बढ़ेंगी तो दूसरे क्षेत्रों को भी आप बचा नहीं सकते. इससे मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र पर नकारात्मक असर पड़ने लगा है.’ ध्यान रखना चाहिए कि रोजगार देने के मामले में खेती के बाद दूसरा नंबर मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र का ही आता है. पश्चिम देशों में मंदी का असर पड़ने से वहां से मिलने वाले ऑर्डर पहले से कम हो रहे हैं और ऊपर से महंगाई ने इस क्षेत्र के सामने अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है.