लोकपाल और पांच सवाल

समय का पहिया पिता से घूमकर पुत्र तक पहुंच चुका है. 1963 में एलएम सिंघवी ने जिस लोकपाल को शब्दरूप दिया था उसे कानूनी रूप देने का जिम्मा उनके बेटे अभिषेक मनु सिंघवी के सिर पर था. पार्टीगत प्रतिबद्धता की बात करें तो लोकपाल के मुद्दे ने आज कांग्रेस की जो हालत कर रखी है उससे एलएम सिंघवी को जहां अपार प्रसन्नता होती वहीं अभिषेक और उनकी पार्टी के लिए यह दुख का कारण बना हुआ है. अभिषेक मानते हैं कि इस विषय से जुड़ा इतिहास उनके ऊपर कुछ हद तक भावनात्मक बोझ जैसा है, लेकिन वे यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि सरकारी लोकपाल, जनलोकपाल, या किसी ए, बी, या सी प्रस्ताव का प्रतिरूप नहीं हो सकता.

अभिषेक का यह विचार ही आने वाले दिनों में विवाद के एक नए चरण की लगभग सुनिश्चित शुरुआत करने वाला है. जनलोकपाल की लड़ाई के अगले चरण की भूमिका लिखी जा चुकी है. यह भूमिका संसद में पेश लोकपाल बिल के मसौदे के रूप में देश के सामने है. प्रस्तावित ड्राफ्ट की कुछ बातें ऐसी हैं जिन पर टीम अन्ना को गुस्सा आना तय है. सरकार और टीम अन्ना के  अलावा इस लड़ाई का तीसरा पक्ष है अरुणा रॉय और निखिल डे की संस्था एनसीपीआरआई. मसौदे में सरकार ने अपने पक्ष को जहां पूरी तवज्जो दी है वहीं एनसीपीआरआई को पर्याप्त जगह देकर टीम अन्ना को इशारों ही इशारों में यह संदेश दिया है कि आप ही क्यों दावेदार और भी हैं. दो बातें और, पिछले दिसंबर का सरकारी मसौदा पढ़ने वाले इस बात से मुतमइन होंगे कि मौजूदा ड्राफ्ट काफी सुधरा हुआ है. बकौल अभिषेक मनु सिंघवी ‘मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि ऐसा मजबूत कानून अब तक नहीं बना है. इसके कुछ प्रावधान बेहद क्रांतिकारी हैं.’ टीम अन्ना को साधने के लिए एनसीपीआरआई को तरजीह जरूर दी गई है लेकिन उनके लिए भी सारा जहां हसीं नहीं है. बकौल शेखर सिंह, ‘मोटे तौर पर हम ड्राफ्ट का स्वागत करते हैं लेकिन सीबीआई को लोकपाल के दायरे में लाना ही चाहिए.’
बिल आगे भी बहुत-सी बातें कहता है. इसकी पांच बातें ऐसी हैं जिन पर रार ठनने की संभावना है. आगे बिंदुवार उसके ऊंच-नीच की चर्चा है-

प्रधानमंत्री

इस एक मुद्दे पर टीम अन्ना और सरकारी नुमाइंदों के बीच सबसे ज्यादा सिर खुजौव्वल मची थी लिहाजा यह जानने की बेचैनी सबको थी कि लोकपाल का अंतिम मसौदा इस पर क्या रुख अपनाता है. यहां सबको निराशा हाथ लगी है. स्थायी समिति ने इस मसले पर चतुराई बरतते हुए गेंद संसद के पाले में डाल दी है और तीन सूत्रीय फाॅर्मूले की मदद से अपना पिंड छुड़ाने की कोशिश की है.
l प्रधानमंत्री को पूरी तरह लोकपाल के दायरे से बाहर रखा जाए.
l प्रधानमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में सिर्फ उनके पद से हटने के बाद ही जांच की जाए.
l प्रधानमंत्री को पद पर रहने के दौरान जांच का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन उसके पहले राष्ट्रीय सुरक्षा और देशहित से जुड़े तमाम सुरक्षात्मक उपाय करने होंगे.
स्थायी समिति ने भले ही अपना पिंड छुड़ा लिया है लेकिन टीम अन्ना के अहम सदस्य प्रशांत भूषण ने स्पष्ट किया है कि वे प्रधानमंत्री को हर हाल में लोकपाल के दायरे में लाने की लड़ाई लड़ रहे हैं.

ग्रुप सी और डी

यह झगड़े की एक और बड़ी वजह है. पेश मसौदे में कहा गया है कि लोकपाल सिर्फ मुख्यमंत्री, सांसद, विधायक और ढाई लाख ग्रुप ए और बी के कर्मचारियों की जांच करेगा. जबकि लगभग 57 लाख ग्रुप सी और डी कर्मचारियों को यह कहकर बाहर रखा गया है कि इतनी विशाल संख्या को लोकपाल अकेले नहीं संभाल सकता. इन पर नजर रखने का काम सीवीसी (केंद्रीय सतर्कता आयोग) करेगा. इसके लिए सीवीसी को और उन्नत और सक्षम बनाना होगा. अरुणा रॉय की एनसीपीआरआई स्थायी समिति के इस विचार से पूरी तरह सहमत है, लेकिन टीम अन्ना के गुस्से के अपने तर्क हैं. उसके मुताबिक सीवीसी के पास न तो इतनी ताकत है न ही संसाधन. उसके पास पुलिस की शक्तियां भी नहीं हैं. अगर सरकार सीवीसी की शक्तियों को बढ़ाती है तो एकसाथ हर जगह दो-दो जांच संस्थाएं स्थापित करना कहां की समझदारी है? एक लोकपाल, दूसरा सीवीसी. वहीं, सरकार और उसके समर्थकों का तर्क है कि ताकत का विकेंद्रीकरण जरूरी है और इतने लोगों की जिम्मेदारी अकेले लोकपाल को देना उचित नहीं है.

शिकायत निपटारा तंत्र

नए ड्राफ्ट में पृथक ग्रीवांस रिड्रेसल मेकैनिज्म स्थापित करने का सुझाव है. यहां फिर से सरकार का  झुकाव अरुणा रॉय और एनसीपीआरआई की तरफ है. इसके तहत सभी सरकारी विभागों को अपना एक सिटिजन चार्टर बनाना होगा जिसमें उनके द्वारा जनता को एक निश्चित समय के भीतर सुविधाएं उपलब्ध करवानी होंगी. अगर संबंधित विभाग ऐसा करने में नाकाम रहता है तो व्यक्ति अपने नजदीकी ग्रीवांस रिड्रेसल अधिकारी के पास शिकायत कर सकता है. अकारण होने वाली देरी को भ्रष्टाचार माना जाएगा. यहां भी टीम अन्ना का विचार अरुणा रॉय और सरकार के रुख के उलट है. वह ग्रीवांस रिड्रेसल को पूरी तरह से लोकपाल में समाहित करने की पक्षधर है. लिहाजा यहां भी झांय-झांय होनी तय है. प्रशांत भूषण कहते हैं, ‘हम पृथक ग्रीवांस रिड्रेसल मेकैनिज्म बनाने के लिए तैयार थे, लेकिन पृथक संस्था से हमारा तात्पर्य था पूरी तरह से सक्षम और सरकारी संरक्षण से मुक्त संस्थान. हम बोगस बॉडी बनाने का समर्थन नहीं कर सकते. हम इस बात पर कायम हैं कि इसे लोकपाल के दायरे में लाया जाए.’

न्यायिक जवाबदेही अधिनियम

यहां भी झुकाव एनसीपीआरआई की तरफ दिखता है. उसके मॉडल में जजों का भ्रष्टाचार लोकपाल के दायरे से बाहर है. इसके लिए उन्होंने जूडीशियल एकाउंटबिलिटी बिल का प्रावधान किया था. सरकारी  ड्राफ्ट में एक नेशनल जूडीशियल कमीशन स्थापित करने का प्रस्ताव है. यही संस्था जजों की नियुक्ति का काम-काज करेगी. प्रस्ताव में इस बात की भी ताकीद है कि अगर जरूरत हो तो इसके लिए संविधान में भी संशोधन किया जाए. इसे लेकर प्रशांत भूषण का विरोध मुखर है, ‘हमें सरकार की नीयत पर कतई भरोसा नहीं है. सरकार के अंदर स्वतंत्र न्यायिक आयोग बनाने की इच्छाशक्ति ही नहीं है. ड्राफ्ट के प्रारूप से यह बात साबित हो जाती है.’

सीबीआई

स्थायी समिति के ड्राफ्ट में सीबीआई और लोकपाल का रिश्ता थोड़ा पेचीदा है. इसका सरल रूप कुछ यूं है- लोकपाल के पास अपनी खुद की जांच टीम होगी. भ्रष्टाचार की शिकायत मिलने पर प्राथमिक जांच यही टीम करेगी. शिकायत पुख्ता पाए जाने पर विस्तृत जांच का जिम्मा सीबीआई को सौंपा जाएगा. जांच के बाद सीबीआई अपनी रिपोर्ट लोकपाल को देगी. इसके आधार पर विशेष लोकपाल जज अभियोजन की कार्रवाई करेगा. इस ‘एक बार दे एक बार ले’ वाले रिश्ते के पेंचोखम पर सरकार का तर्क है कि वह लोकपाल को रक्तबीज टाइप असुर नहीं बना सकती. विरोधियों का कहना है कि इस तरह लोकपाल के पास सीबीआई को सिर्फ संस्तुति देने का अधिकार होगा, बाकी जिस तरह से अभी यह काम करती है उसी तरह से काम करेगी. अरविंद केजरीवाल सीधे शब्दों में इस व्यवस्था की पोल खोलते हुए कहते हैं, ‘सबको पता है सरकार कैसे सीबीआई का दुरुपयोग करती है. सरकार ने विपक्षी पार्टियों को काबू में करने के लिए इसे सरकारी चाबुक बना लिया है.’ टीम अन्ना और सरकार के अलावा इस पर एक तटस्थ नजरिया भी है- लोकपाल और सीबीआई के बीच इस तीन तरफा लेन-देन से भ्रष्टाचार की जांच में तेजी कैसे आएगी? सरकारी कामकाज की जो गति हमारे देश में है वह सबको पता है. इससे तो जांच की गति में ही बाधा आनी है.

विरोधाभास

अपने मसौदे को सिघंवी भले ही क्रांतिकारी बताते फिरें पर इसमें कुछ खामियां तो हैं ही. एक तो इसने सदन की भावना के तीन में से दो मुद्दों (लोअर ब्यूरोक्रेसी और सिटिजन चार्टर तंत्र लोकपाल के दायरे में होगा) को नजरअंदाज किया है. इस पर टीम अन्ना के साथ विपक्षी पार्टियां भी तल्ख हैं. खैर, बड़े विरोधाभास की बात करें तो संसदीय समिति का एक तर्क है कि लोकपाल अकेले सरकारी कर्मचारियों की बड़ी संख्या का भ्रष्टाचार नहीं संभाल सकता इसलिए ग्रुप सी और डी को इसमें शामिल नहीं किया जा सकता. इसके लिए परिष्कृत सीवीसी का विचार है. लेकिन लगे हाथ सरकार ने साढ़े चार लाख से ज्यादा एनजीओ, हजारों कॉरपोरेट कंपनियों और तमाम मीडिया कंपनियों को भी इसमें लपेट लिया है. अब किस तरह से लोकपाल इन लोगों का भ्रष्टाचार संभाल सकता है और ग्रुप सी और डी का नहीं इसकी कोई सफाई न तो सिंघवी देते हैं न ही ड्राफ्ट. और अगर सीवीसी को परिष्कृत करना ही है तो लोकपाल को ही क्यों नहीं?

निष्कर्ष

यह बात साफ हो चुकी है कि टीम अन्ना और सरकार के बीच लोकपाल को लेकर शुरू लड़ाई मूंछ की लड़ाई बन गई है. एक को जनता की आड़ मिली हुई है तो दूसरा संसदीय सर्वोच्चता की ओट ले रहा है. ‘बड़ा कौन’ की जद्दोजहद संसदीय समिति के मसौदे से साफ झलकती है. सदन की भावना के कुल तीन में से दो सुझावों को दरकिनार करना हो या जनलोकपाल के मसौदे में शामिल सिटिजन चार्टर, सीबीआई, प्रधानमंत्री, लोवर ब्यूरोक्रेसी को इनसे अलग रखने का मामला- वे कहीं से भी यह संकेत नहीं देना चाहते कि सरकारी लोकपाल टीम अन्ना के सुझावों की कॉपी है. करीब महीने भर पहले स्टैंडिंग कमेटी के साथ अपनी बैठक के बाद अरविंद केजरीवाल ने यह कहकर अपनी यह चिंता जता दी थी, ‘वे लोकपाल को हलका करना चाहते हैं. इसके हर हिस्से को छिन्न-भिन्न करके एक बेमतलब का लोकपाल खड़ा करने की नीयत है सरकार की.’
जंतर-मंतर पर 11 दिसंबर को फिर से उमड़ा जनसमूह इस बात का गवाह है कि एक और सनसनीखेज लड़ाई की जमीन तैयार है. और हां, इस बार सरकार पहले से ज्यादा दबाव में है क्योंकि ज्यादातर विपक्ष अन्ना के साथ मंच पर है.(रेवती लॉल के सहयोग के साथ)