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नटराज के नए भक्त

पैरों में घुंघरू बांधना किसी अभिजात्य शहरी पुरुष के लिए पहचान पाने का आम स्वीकार्य जरिया नहीं कहा जा सकता. फिर भी देश में युवाओं का एक छोटा-सा समूह इस मान्यता को धता बताते हुए अपने सपने पूरे करने में लगा है. इनके लिए पैरों में बंधे घुंघरू एक तरह से ज्यादा निरपेक्ष होने  और एक पुरानी परंपरा को फिर से जिंदा करने का जरिया है.

‘प्रायोजक नृत्य के लिए सुंदर लड़कियां चाहते हैं. लड़कों पर पार्टनर के साथ प्रदर्शन करने का दबाव डाला जाता है’प्रख्यात नृत्यांगना मल्लिका साराभाई के बेटे 25 वर्षीय रेवंत भी युवाओं के इसी समूह का हिस्सा हैं. दर्पण अकादमी (इसकी स्थापना मल्लिका की मां मृणालिनी ने की थी) में जन्मे रेवंत ने जब नृत्य सीखने का फैसला किया था तो उनके परिवार में किसी ने इस पर हैरानी नहीं जताई. हां, उनके स्कूल के दोस्तों को जरूर पहले-पहल यह कुछ अजीब बात लगी, लेकिन बाद में यह उनकी ‘ऑलराउंडर’ छवि में एक और आयाम जोड़ने वाली खूबी बन गई. भरतनाट्यम और कुचीपुड़ी में पारंगत रेवंत कहते हैं, ‘मैं जानता हूं कि मेरे नाम की वजह से मुझे गंभीरता से लिया जाता है. हमारे यहां कई प्रतिभावान डांसर हैं लेकिन उनके पास किसी समूह में बैकग्राउंड डांसर बनने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. खुद को साबित करने के लिए मुझे अभी और मेहनत करनी होगी लेकिन कम से कम मुझे भरोसा तो है कि मैं डांस से अपनी जिंदगी चला सकता हूं.’

ज्यादा अरसा नहीं हुआ जब भारतीय शास्त्रीय नृत्य परिदृश्य में पुरुष नर्तकों की प्रधानता थी. फिर धीरे-धीरे यह चलन बिलकुल पलट गया. लड़कों में शास्त्रीय नृत्य के प्रति घटते रुझान पर लेखक और नृत्य समालोचक आशीष खोकर मानते हैं कि उन्हें कोई प्रोत्साहित नहीं कर रहा है. वे कहते हैं, ‘प्रायोजक नृत्य के लिए सुंदर लड़कियां चाहते हैं. लड़कों पर पार्टनर के साथ प्रदर्शन करने का दबाव डाला जाता है.’ शास्त्रीय नृत्य में पुरुषों की घटती हिस्सेदारी के बीच एक तथ्य यह भी है कि भारत में श्यामक डावर और एशले लोबो की आधुनिक पश्चिमी नृत्यशैली औसत अभिजात्य तबके के बीच सहजता से स्वीकार की जाती है जबकि कथक और भरतनाट्यम के नर्तकों को यह तबका प्रतीकात्मक रूप से हेय दृष्टि से देखता है. इसी तरह के पूर्वाग्रह का सामना कथक के प्रख्यात नर्तक और गुरू बिरजू महाराज भी कर चुके हैं.  वे बताते हैं, ‘ मेरा एक लड़का डांस रियलिटी शो में भाग लेने गया था, वहां सरोज खान ने उससे कहा कि उसका कथक तो बहुत बढ़िया है लेकिन आगे बढ़ना है तो साल्सा, ब्रेक डांस, बॉलीवुड का डांस सीखना होगा… ‘ गुस्से में वे कहते हैं, ‘ उनकी हिम्मत कैसे हुई कि बंदरों की उछल-कूद की तुलना नृत्य से करें? ‘

पैरों को सीधा रखने वाली मुद्राओं वाला कथक इस मायने में दूसरे शास्त्रीय नृत्यों से काफी अलग है. छोटी लड़कियों के बीच बेहद लोकप्रिय इस नृत्य विधा में ज्यादातर गुरु होते हैं. कथक नृत्यांगना शोभना नारायण कहती हैं, ‘ पुराने जमाने में सामाजिक बाधाओं के कारण महिलाओं का घर से बाहर निकलना मुश्किल था, उन्होंने नृत्य सीखने के लिए लड़ाई लड़ी जबकि आज पुरुष शर्म की वजह से छिपे हुए हैं.’ वे आगे कहती हैं, ‘नृत्य महिला या पुरुष की पहचान से आगे की चीज है. जब महाराज (बिरजू) मंच पर एक महिला के चरित्र में होते हैं तब वे आप या मुझसे ज्यादा महिला होते हैं. लेकिन उस क्षण के बाद वे पुरुष के रूप में साक्षात शिव के समान हो जाते हैं.’ 

चौंतीस साल के  नीलोमोनी बोरा एक कथक नर्तक हैं. असमिया मूल के इस नर्तक ने लखनऊ में 11 साल तक कथक की शिक्षा ली है. उनके गुरु मुन्ना शुक्ला अब तक कई लड़कों को कथक सिखा चुके हैं. बोरा फिलहाल दिल्ली में नृत्य सिखाते हैं. वे खुद उन लोगों में से हैं जिन्हें नृत्य सीखने पर परिवार का विरोध झेलने के साथ-साथ ताने सुनने पड़े थे. परिवार के सदस्य उन्हें चेताते हुए कहते थे कि कोई भी महिला एक ‘नचनिया’ से शादी नहीं करेगी. कथक के आकर्षण ने बोरा को परिवार में ज्यादा दिन रहने नहीं दिया. वे घर से भाग गए. ‘ फिर  मैंने अपने गुरु को ढूंढ़ लिया.’ बोरा बताते हैं.

40 साल के डॉ शेषाद्री अयंगर भी उन्हीं लोगों में शामिल हैं जो अपने जुनून के लिए शर्म जैसी हर बाधा तोड़कर आगे निकल आए. डॉ अयंगर ने भरतनाट्यम सीखने के लिए होम्योपैथी की प्रैक्टिस छोड़ दी थी. वे कहते हैं, ‘ नटराज नृत्य करते हैं, शिव तांडव करते हैं, कृष्ण छह सिर वाले नाग के ऊपर नाचते हैं, ब्रह्मा के बारे में भी कहा जाता है कि वे नाचते थे तो फिर हमारे यहां किसी पुरुष के घुंघरू बांधने में क्या गलत है? ‘ भरतनाट्यम की नृत्यांगना यामिनी कृष्णमूर्ति इस बात से सहमत नहीं हैं. यामिनी कहती हैं, ‘ भरत मुनि के एक हजार पुत्र थे लेकिन वे उनकी नृत्य प्रतिभा से संतुष्ट नहीं थे. इसलिए उन्होंने अप्सराओं की रचना की जिसका आधार ही नृत्य था. हालांकि राक्षस, वीर और देवों का महत्व भी समान है.’ इसमें कोई शक नहीं कि शास्त्रीय नृत्य गिनती के युवा ही सीख रहे हैं लेकिन ये लोग अपने जुनून को एक मंजिल तक ले जाने के लिए कमर कसे हुए हैं. 

रानी की अकथ कहानी

downloadमुंबई की सीली हवा में इन दिनों रानी मुखर्जी के बारे में तरह-तरह की चर्चाएं हैं. उनके दिन लद गए, उनमें अब वह बात नहीं रही, उन्होंने आदित्य चोपड़ा के साथ शादी कर ली है, वे भी रेखा की तरह अपनी ही दुनिया में सिमट गई हैं वगैरह वगैरह.

क्या सच है और क्या झूठ इसकी थाह लेने के लिए हम रानी से मिलने की सोचते हैं. मगर वे उन अभिनेत्रियों में से नहीं जो कहीं भी आपसे टकरा जाएं और फिर आपके साथ बात करने लगें. इसलिए पहले हमें कुछ हफ्ते फोन पर खर्च करने पड़ते हैं. इधर-उधर से की गई कुछ कोशिशों और कई फोन कॉलों के बाद आखिर में मुलाकात का दिन तय हो जाता है.
इस दिन मूसलाधार बारिश हो रही है. रानी का फोन आता है कि वे तय वक्त से देर से पहुंचेंगी. मौसम का मिजाज ऐसा है कि आपके मन में वही सवाल उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं. मसलन क्या अफेयरों में लगातार मिली असफलता ने रानी को अपनी ही दुनिया में सीमित कर दिया होगा? या कहीं ऐसा तो नहीं कि बॉक्स ऑफिस पर लगातार ढेर हुई फिल्मों ने उन्हें अवसाद की तरफ धकेल दिया हो?

‘स्टार का मतलब यही है कि  आपकी जिंदगी पर हमेशा रहस्य की एक चादर लिपटी रहनी चाहिए’

लेकिन आदमकद शीशों और शानदार कालीनों से सजे जुहू के अपने भव्य फ्लैट में रानी जब हमसे मिलती हैं तो ऐसा कुछ नहीं लगता. उनकी ट्रेडमार्क 100 वॉट की मुस्कान अपनी जगह मौजूद है. हालांकि आप पर लगातार जमी उनकी हल्की भूरी आंखें आपको जब-तब असहज करती रहती हैं.

ये वही रानी हैं जिनके बारे में जानने के लिए टेबलॉयड बेकरार हैं कि कहीं से उन्हें गहरे दुख में बताती कोई खबर मिल जाए. मगर यहां तो ऐसा कुछ नहीं लगता बल्कि वे पहले से कहीं बेहतर लग रही हैं. 32 साल की इस अभिनेत्री ने योग को अपनी जीवनशैली में शामिल कर लिया है जिसकी बदौलत वे खासी छरहरी नजर आ रही हैं. उन्होंने शॉर्ट स्कर्ट पहनी हुई है और न के बराबर मेकअप के बावजूद उनकी शख्सियत का शाही अंदाज बरकरार है.

40 और 50 के दशक की मशहूर अमेरिकी फिल्म अभिनेत्री लॉरेन बकॉल ने कभी कहा था, ‘मैं बीत चुकी चीज नहीं हूं. मैं वह चीज हूं जिसे अभी घटित होना है.’ रानी ने ये लाइनें शायद ही कहीं पढ़ी हों. उन्हें पढ़ने का शौक जो नहीं. कई बड़ी हीरोइनों के उलट, जो अपनी पढ़ने की आदत के बारे में बताते नहीं अघातीं, रानी कहती हैं, ‘मैं कम ही पढ़ती हूं. मुझे किताबों की गंध से एलर्जी है. सच में!’

अब वे खुलकर बात करने लगी हैं. लेकिन यह खुलकर सवाल पूछने का आमंत्रण नहीं है. दरअसल, रानी से बात करते हुए आपको हमेशा यह महसूस होता रहता है कि उन्होंने अपने आसपास एक लक्ष्मण रेखा खींच रखी है. वे इसे पार नहीं करतीं और आपके लिए भी यही बेहतर होता है कि आप अपने सवाल इसके दायरे की सीमा में ही रखें. फिर भी आप हिम्मत जुटाते हैं और उनसे उन अफवाहों के बारे में पूछते हैं जो उनके बारे में चल रही हैं और यह भी कि आखिर क्यों उन्होंने अपने जीवन पर विरक्ति की एक चादर-सी ओढ़ ली है.

हमें हैरत होती है जब रानी इन सवालों पर नाराजगी नहीं जतातीं. वे शोहरत के स्वभाव के बारे में बात करती हैं और इस पर भी कि पिछले 15 साल के दौरान इसमें क्या बदलाव आया है. थोड़ी नाराजगी और असहायता दिखाते हुए वे कहती हैं, ‘मैं इसका सारा दोष ट्विटर को देती हूं. अब हर किसी तक पहुंचना इतना आसान है. आज स्टार खुद को बिलकुल अलग तरह से मैनेज करते हैं. उनकी जिंदगी का हर दिन एक तय शेड्यूल में बंधा हुआ है. वे मीडिया को अपने बारे में खबरें देते हैं. और दूसरे स्टार्स के बारे में भी! किसी स्टार ने नया फोन ले लिया, कोई सेट पर बेहोश हो गया…ये सब चीजें खबर कब से बन गईं? जब मैं इंडस्ट्री में आई थी तो फिल्म पत्रकारिता का मतलब टेबलॉयड में छपने वाली खबरें नहीं था. स्टार का मतलब यही है कि आप किसी खास वक्त पर कुछ खास लोगों के लिए ही उपलब्ध हों. और आपकी जिंदगी पर हमेशा रहस्य की एक चादर लिपटी रहे. यही वजह है कि मैं जरा भी नहीं बदली हूं.’

उतार-चढ़ाव

हीरोइन  या अभिनेत्री से कहीं ज्यादा रानी खुद को एक स्टार मानती हैं. जो लोग उन्हें पसंद नहीं भी करते वे भी यह बात तो मानेंगे ही कि आज वे एक स्टार हैं. उनकी शुरुआत फिल्म राजा की आएगी बारात से हुई थी जो बॉक्स ऑफिस पर डूब गई. फिर 1998 में उनकी पहली हिट फिल्म गुलाम आई जिसमें उन्होंने आमिर के साथ मुख्य भूमिका निभाई थी. इसके बाद आई वह फिल्म जिसने उन्हें  स्टारडम दिया. यह थी करन जौहर की बतौर निर्देशक पहली फिल्म कुछ कुछ होता है जिसमें वे शाहरुख खान के साथ थीं. संजय लीला भंसाली की ब्लैक और मणिरत्नम की युवा के बाद वे शिखर पर थीं. लेकिन प्रतिभा और एक आम-सी खास लड़की जैसी छवि के बावजूद वे इस शिखर पर ज्यादा दिन ठहर नहीं पाईं. फिल्में फ्लॉप होने लगीं. बाकी की कसर शादीशुदा आदित्य चोपड़ा के साथ उनके रोमांस की खबरों ने पूरी कर दी. इस सबके दौरान रानी ने चुप्पी साधे रखी. उनकी तरफ से कोई बयान नहीं आया. इससे एक और अफवाह चल पड़ी कि काफी समय से रानी को सार्वजनिक रूप से नहीं देखा गया है.

हम उनसे पूछते हैं कि क्यों उन्होंने अपनी स्थिति  स्पष्ट नहीं की. जवाब में कुछ समय तक उनके चेहरे पर एक उदासीनता का भाव रहता है और फिर थोड़ी ही देर पहले मग से निकाले गए गर्म पानी का एक घूंट भरने के बाद वे कहती हैं, ‘शायद मैं हर हफ्ते एक स्पष्टीकरण नहीं दे सकती थी. यह मेरे स्वभाव में ही नहीं है कि मैं किसी पत्रकार को फोन करूं और कहूं कि आपने मेरे बारे में यह क्यों लिखा. मैं यकीन के साथ कह सकती हूं कि इससे निर्देशक मायूस हो गए होंगे और इसीलिए शायद उन्होंने मुझे फिल्में नहीं दीं. रहा सवाल शादी का तो जब यह होगी तो मैं खुद सारी दुनिया को बता दूंगी.’ इंडस्ट्री में उनके दोस्त कौन हैं, इसके जवाब में रानी कहती हैं, ‘दोस्ती बहुत जटिल शब्द है. वास्तव में मेरे दोस्त कौन हैं इसे बारे में तो मैं आपको तभी बता सकती हूं जब मैं बूढ़ी हो जाऊंगी और मेरे बच्चे मुझे छोड़ चुके होंगे. तब जो लोग मेरे साथ होंगे वही मेरे सच्चे दोस्त होंगे.’

रानी के साथ काम कर चुके कई फिल्मकार भी बताते हैं कि वे शुरू से ही ज्यादा बातचीत से परहेज करती रही हैं. निर्देशक कुणाल कोहली की मानें तो रानी की लक्ष्मण रेखा कोई नई घटना नहीं है लेकिन चूंकि फिलहाल उनके दिन सही नहीं चल रहे इसलिए इसकी चर्चा हो रही है. रानी कहती हैं, ‘जब आप चोटी पर होते हैं तो लोग चाहते हैं कि आप गिरें और वे ऐसा करने के लिए कुछ भी कहेंगे.’ फिल्म पत्रकार खालिद मोहम्मद कहते हैं, ‘मशहूर होने के बाद वे ज्यादा ही घमंडी हो गई थीं और इसी वजह से उनका पतन हुआ. प्रसिद्धि आपके सिर पर नहीं चढ़नी चाहिए.’ हालांकि दूसरे लोग उनसे सहानुभूति जताते हैं. मसलन पत्रकार रऊफ अहमद, जिन्हें रानी ने अपना पहला इंटरव्यू दिया था, कहते हैं, ‘मीडिया क्रूर होता है. अगर आपने एक बार भी गलती की तो लोग आपको बुरी तरह धक्का दे  देते हैं. आदित्य चोपड़ा के साथ उनके अफेयर की अफवाह ने उनका काफी नुकसान किया.’

मगर रानी दुखी नहीं हैं. वे आहत जरूर हैं. उनकी आंखों में हार न मानने और लोगों को गलत साबित करने का एक दृढ़ निश्चय दिखता है, वे कहती हैं, ‘सिर्फ यह साबित करने के लिए कि मैं अभी भी वजूद में हूं, मुझे कई फिल्में साइन करने की जरूरत नहीं है, भले ही मेरे करियर का यह शायद सबसे मुश्किल दौर हो.’

सीधी बात

जेसिका लाल हत्याकांड पर आधारित राजकुमार गुप्ता की फिल्म नो वन किल्ड जेसिका में रानी एक टीवी पत्रकार की भूमिका निभा रही हैं. अगर दमदार भूमिका मिले तो क्या वे लीड के अलावा कोई और रोल भी कर सकती हैं? दूसरों के उलट वे सीधे-सीधे कहती हैं, ‘सवाल ही नहीं होता.स्टार हमेशा स्टार होता है. मैं जो भी रोल करूंगी वही लीड हो जाएगा.’
आज भले ही उनके पास सिर्फ एक फिल्म है पर उन्हें इसकी परवाह नहीं. इसकी भी नहीं कि जो वे कह रही हैं उससे कहीं किसी को बुरा न लग जाए. वे हर बात बेलागलपेट कह देती हैं और इसीलिए उनसे बात करते हुए जरा सावधान रहना पड़ता है. l

मनरेगा यानी कुछ भी चलेगा

सोनभद्र जिले के नगवां ब्लॉक में पड़ने वाले पड़री को सरकारी दस्तावेज नक्सल प्रभावित गांव बताते हैं. लेकिन यहां जाने पर पता चलता है कि गांव पर सरकारी उपेक्षा का प्रभाव भी कम नहीं. जर्जर मकान, कच्ची गलियां और उनमें नंगे बदन दौड़ते बच्चे इसकी गवाही देते हैं. इसी गांव में हमें परमल मिलते हैं. साइकिल पंचर जोड़कर जैसे-तैसे अपना परिवार पालने वाले परमल बताते हैं कि उनके एक बच्चे ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत तब मजदूरी की जब वह पेट में था.

लोगों को काम तो नहीं मिला पर उनके नाम पर मजदूरी के पैसे निकाल लिए गए

सुनकर चौंकना लाजमी है. लेकिन 2008 का एक मस्टर रोल बताता है कि परमल के पूरे परिवार, जिसमें उनका बेटा भी शामिल है, ने मनरेगा में काम किया है. उनका बेटा कोमल अब डेढ़ साल का है. उधर, परमल कहते हैं कि उनके परिवार में किसी को भी अब तक इस योजना में काम नहीं मिला. यह अकेले परमल की कहानी नहीं है. मनरेगा की पड़ताल करने जब हम उत्तर प्रदेश के सफर पर निकलते हैं तो हमें ऐसे कई किस्से मिलते हैं.

2005 में अस्तित्व में आई मनरेगा का मकसद ग्रामीण इलाकों के अर्धकुशल या अकुशल लोगों को साल में कम से कम 100 दिन का रोजगार देना था ताकि उनकी क्रयशक्ति बढ़े, गांवों से शहरों की ओर पलायन पर अंकुश लगे और अमीर-गरीब के बीच की खाई मिटे. योजना सरल और अच्छी थी. पंजीकरण करवाइए, जॉब कार्ड पाइए, काम मांगिए और 15 दिन के भीतर मजदूरी पाइए. लेकिन योजना कागजों से जमीन पर उतरी तो धीरे-धीरे इसका भी वही हाल होने लगा जो इस देश में तमाम दूसरी योजनाओं का होता है. नतीजा यह है कि आज मनरेगा में भ्रष्टाचार और शोषण का जबर्दस्त घुन लग गया है. नाम न छापने की शर्त पर एक कांग्रेसी नेता कहते हैं, ‘पहले गांवों में लोग मनरेगा को सराहते थे. लेकिन अब उल्टा होने लगा है. घोटाले सामने आने लगे हैं और लोगों में यह धारणा बनने लगी है कि योजना गरीबों के लिए नहीं बल्कि अधिकारियों व दबंग जनप्रतिनिधियों के खाने-कमाने के लिए बनी है.’

ऐसा सोचने के वाजिब कारण हैं. नक्सल प्रभावित सोनभद्र जिले के पड़री जैसे गांवों में विकास के नाम पर करोड़ों रुपए आए तो लेकिन लोगों को काम नहीं मिला. परमल भी ऐसे लोगों में से एक हैं. ऊपर से उन्हें पता चला कि डेढ़  साल के कोमल, चार साल की बेटी दीना, पत्नी राजकुमारी व पिता सूरज को मनरेगा मजदूर दिखाकर ग्राम प्रधान ने हजारों रुपए निकलवा लिए. मस्टर रोल के मुताबिक परमल के परिवार ने 2008 में नरेगा के तहत मजदूरी की है. लेकिन परमल इससे इनकार करते हैं. वे बताते हैं, ‘हमने प्रधान से कई बार काम मांगा लेकिन हर बार उसने यह कहकर टाल दिया कि बाद में काम देंगे.’

कई चेक डैम ऐसी जगहों पर बनाए गए जहां उनकी कोई उपयोगिता ही नहीं थी

लोगों को बिना काम दिए उनके नाम पर पैसा खाने का खेल सिर्फ परमल के साथ नहीं हुआ. गांव के रमाशंकर भी इसका शिकार बने. खेती-बारी कर परिवार का पेट पाल रहे रमाशंकर, उनकी पत्नी सुशील, बेटे बेचन व बेटी नीलू को भी मनरेगा मजदूर दिखाकर रुपए निकाले गए. रमाशंकर बताते हैं कि 2007 और 2008 में जब उनके बेटे बेचन व बेटी नीलू को मनरेगा मजदूर दिखाया गया तो उनकी उम्र क्रमशः सात और 12 साल थी. कागजों पर रमाशंकर के परिवार को 200 दिन का काम दिया गया. 100 रुपए एक दिन के हिसाब से प्रधान ने गरीब रमाशंकर के परिवार के नाम पर 200 दिन के 20,000 रुपए हजम कर लिए. अब वे डरे हुए हैं. वे कहते हैं, ‘रुपया सरकारी था. ऐसे में अगर जांच हुई और पता चला कि मैंने काम किया ही नहीं है तो कहीं सरकार मुझी से जबरन वसूली न करे.’ ऐसे एक-दो नहीं, सैकड़ों लोग हैं.
और कई लोग ऐसे भी हैं जिन्हें काम तो मिला पर मजदूरी नहीं दी गई. सोनभद्र के ही एक और गांव कड़िया के निवासी सहादुर और दुलेसरी अपना जॉब कार्ड दिखाते हुए बताते हैं कि 2009 में उन्होंने मनरेगा में 20 दिन का काम किया लेकिन मजदूरी का भुगतान अब तक नहीं हुआ है. गांव की ही सिमित्री देवी बताती हैं, ’22 दिन चेकडैम में काम करने के बाद भी एक पैसा नहीं मिला. ठेकेदार से पूछा तो जवाब मिला कि कहीं दूसरी जगह काम चलेगा तो मजदूरी करना, वहीं पर इसे भी बराबर कर देंगे.’ कड़िया में अधिकांश गरीब किसानों के जॉब कार्ड कोरे ही पड़े हैं. उन पर न तो मजदूरी की तारीख चढ़ाई गई और न ही रुपए का लेन देन. बीडीसी (क्षेत्र पंचायत सदस्य) एसोसिएशन के पूर्व जिला अध्यक्ष श्रीकांत त्रिपाठी कहते हैं, ‘मनरेगा का उद्देश्य था कि काम से गरीब ग्रामीणों को लाभ मिले. लेकिन यह बिलकुल भी पूरा नहीं हो रहा. सच्चाई यह है कि मनरेगा के धन से सिर्फ चंद लोगों को ही आर्थिक लाभ पहुंच रहा है.’ त्रिपाठी के मुताबिक मनरेगा की जांच के नाम पर हर माह कोई अधिकारी सोनभद्र पहुंचता है और जांच कर वापस चला जाता है.  इतने भ्रष्टाचार उजागर हुए लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई.  इसलिए जांच के बाद भी भ्रष्टाचार का ग्राफ बढ़ता गया.
सोनभद्र के डीएम पंधारी यादव हर सवाल पर यही कहते हैं कि जांच चल रही है. लेकिन जांच के बावजूद कार्रवाई क्यों नहीं हो रही इसका जवाब वे नहीं दे पाते.

मनरेगा में शारीरिक रूप से अक्षम जॉब कार्ड धारकों को भी काम देने का प्रावधान है. ऐसे लोगों को मेट या फिर मजदूरों के बच्चों की देखभाल का काम दिया जाता है. लेकिन पड़री गांव के निवासी और पैर से विकलांग दलित ऋषि गौतम बताते हैं, ‘प्रधान से काम मांगा तो यह कहकर मना कर दिया गया कि विकलांग हो, कुछ कर नहीं पाओगे.’ आर्थिक तंगी के चलते बीए की पढ़ाई बीच में ही छोड़ चुके और अपने परिवार के अकेले सहारे ऋषि का आरोप है कि प्रधान ने मेट का काम अपने एक रिश्तेदार को दे दिया है.

बात सिर्फ गरीबों का हक मारने तक ही सीमित नहीं है. इसका विरोध करने वालों को प्रताड़ित भी किया जा रहा है. अब्दुल कादिर पड़री मेंे रोजगार सेवक हैं. उनका काम है मस्टर रोल पर मजदूरों की हाजिरी और उनके काम का विवरण चढ़ाना. कादिर ने एक बार गलत काम में प्रधान का साथ न देने की बात कही तो जून के अंतिम सप्ताह में उन्हें जमकर पीटा गया. जिला अस्पताल में भर्ती कादिर बताते हैं, ‘सुबह करीब साढे़ पांच बजे शौच के लिए निकला था. उसी समय प्रधान चंद्रावती के पति व कुछ अन्य लोगों ने मेरा अपहरण कर लिया और अपने घर ले गए. घर के भीतर मुझ पर कुल्हाड़ी व लाठी से हमला किया गया. मेरे पैर, हाथ और सिर में गंभीर चोटें आईं. परिवार के लोगों ने थाने पर सूचना दी तो पुलिस ने किसी तरह मुझे छुड़ाया और बेहोशी की हालत में अस्पताल में भर्ती कराया.’ लेकिन प्रधान की दबंगई के चलते पुलिस.ने इस मामले में कोई खास कार्रवाई नहीं की. कादिर के वकील टीएन द्विवेदी कहते हैं, ‘पुलिस ने एफआईआर में प्रधान चंद्रावती, उनके पति लक्ष्मीकांत सहित कुछ लोगों के खिलाफ मामूली धाराओं में ही मामला दर्ज किया. आरोपितों पर न तो अपहरण की धाराएं लगाई गईं न ही प्राणघातक हमले की.’  कादिर बताते हैं कि उन्होंने बीडीओ से मिलकर उन्हें प्रधान की पूरी करतूत बताई थी लेकिन उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया. उल्टे शिकायत का परिणाम यह हुआ कि प्रधान व उसके पति निडर हो गए और उन्होंने कादिर पर हमला कर दिया. खबर लिखे जाने तक कादिर अस्पताल में ही थे. गांव के एक अन्य युवक अंगद पासवान को भी प्रधान व उसके गुर्गों की ओर से धमकी मिली है.  अंगद बताते हैं कि उन्होंने पूरे फर्जीवाड़े की शिकायत बीडीओ से लेकर जिलाधिकारी तक से लिखित रूप में की लेकिन कादिर के मामले में पुलिस व प्रशासन के ढुलमुल रवैए से आरोपितों के हौसले बुलंद हैं.  वे कहते हैं,  ‘प्रधान व उसका पति अब मुझे जान से मारने की धमकी दे रहे हैं.’ उधर, प्रधान ने कई कोशिशों के बावजूद तहलका से बात करने से इनकार कर दिया.

कई जगह ऐसा भी हुआ कि मनरेगा के तहत जो काम गरीब मजदूरों को करना था, दबंगों ने वह काम जेसीबी मशीन और ट्रैक्टर से करवा दिया. बुलंदशहर जिले के शिकारपुर ब्लॉक के गांव याकूबपुर में मनरेगा के तहत मई के अंतिम सप्ताह में एक तालाब की खुदाई शुरू हुई. आदर्श जलाशय योजना के तहत तालाब का निर्माण गांव के मजदूरों द्वारा कराया जाना था. लेकिन तालाब की खुदाई में जॉब कार्ड धारक मजदूरों की बजाय जेसीबी मशीन और ट्रैक्टर लगा दिए गए. ठेकेदार और अधिकारियों का गठजोड़ कितना मजबूत है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मजदूरों के बदले जेसीबी से तालाब की खुदाई उस समय हो रही थी जब केंद्रीय रोजगार गारंटी परिषद के सदस्य जिले में मौजूद थे. तीस बीघा जमीन पर तालाब की खुदाई करीब चार दिनों से चल रही थी. परिषद के सदस्य संजय दीक्षित कहते हैं, ‘शिकायत मिलने पर हम जब रात को गांव में पहुंचे तो करीब एक दर्जन हथियारबंद लोग आकर खड़े हो गए. उनका कहना था कि जिस जगह की खुदाई हो रही है वह उनकी निजी संपत्ति है. मौके पर मौजूद बीडीओ व कुछ अन्य अधिकारियों को भी इस बात की जानकारी नहीं थी कि जिस स्थान की खुदाई हो रही है वह कार्य मनरेगा के तहत हो रहा है या निजी कार्य है.’ दीक्षित आगे बताते हैं कि मौके पर मौजूद कुछ ग्रामीणों ने हिम्मत कर बताया कि जिसे दबंग अपना निजी कार्य बता रहे हैं वह मनरेगा के तहत हो रहा है. इसके बाद प्रशासनिक अधिकारियों ने भी अपनी फाइल पलटना शुरू किया तब जाकर पता चला कि सच्चाई क्या है. पोल खुलती देख हथियारबंद दबंग मौके से खिसक गए. पुलिस की मदद से स्थानीय अधिकारियों ने तालाब से मिट्टी निकाल रहे दो ट्रैक्टरों को जब्त किया.

यह तो हुई लोगों की बात. अब काम की बात करें तो उसका हाल यह है कि कई जगहों पर मनरेगा के तहत काम तो हुआ मगर उसका कोई फायदा हुआ, ऐसा नजर नहीं आता. हम सोनभद्र जिला मुख्यालय से करीब 50 किलोमीटर दूर मध्य प्रदेश की सीमा से जुड़ने वाले घोरावल ब्लॉक में पहुंचते हैं. सरकारी दस्तावेजों में नक्सल प्रभावित बताए जाने वाला यह इलाका गरीबी और अशिक्षा का अभिशाप भी झेल रहा है. ऐसे में किसानों के लिए मनरेगा आशा की एक किरण लेकर आई. इसके तहत पूरे क्षेत्र में सिंचाई के लिए चेकडैम का जाल बिछाने की योजना बनी. लेकिन लोगों की मानें तो 25 से 30 लाख रुपए तक की लागत वाले चेकडैम जंगलों व ऐसे स्थानों पर बना दिए गए जहां पर न तो खेत हैं और न ही कोई नाला जिससे बारिश का पानी रुक सके. जो चेकडैम ठीक जगहों पर बने भी उनकी हालत 12-13 महीने में ही इतनी जर्जर हो गई है कि उनमें बारिश का पानी रुकता ही नहीं.

आदिवासी व दलित बहुल पलहवां गांव में पानी की समस्या को दूर करने के लिए मनरेगा के तहत साढ़े पांच लाख रुपए की लागत से कुआं खोदा गया. ग्रामीण बताते हैं कि 20 फीट तक खुदाई हुई. उसके बाद काम बंद कर दिया गया. जहां खुदाई बंद हुई उस स्तर पर कुएं में हल्का-सा पानी का रिसाव दिखने लगा था. गांव की निवासी प्रेमा बताती हैं, ‘जब कुएं की खुदाई अधिकारी बंद करवाने लगे तो उनसे कहा गया कि पानी जमीन से रिसने लगा है, यदि थोड़ी और खुदाई हो जाए तो पानी निकल सकता है. लेकिन किसी ने भी गांव वालों की बात नहीं सुनी.’ पानी के नाम पर ग्रामीणों के साथ यह छल पहली बार नहीं हुआ है. इससे पहले 2002-03 में भी किसी योजना के तहत गांव में लाखों रुपए खर्च कर एक कुआं खोदा गया था. बेला बताती हैं, ‘उसमें भी पानी नहीं निकला. बिना पानी के कुएं में ही दिखाने के लिए एक हैंडपंप लगाकर नल की पाइप कुएं में लटका दी गई जो अभी भी हवा में लटक रही है.’  गांव में ही दस बीघे जमीन के काश्तकार अशोक कुमार कहते हैं, ‘नक्सलवाद के नाम पर गरीब किसानों के लिए करोड़ों रुपए आए. चेकडैम बने. मगर उनमें पानी नहीं भरा. हां, अधिकारियों की जेबें जरूर भर गईं.’ अशोक कहते हैं कि जो घटिया चेकडैम बनाए गए उनका निरीक्षण करने वाला कोई नहीं है क्योंकि बाहर इस बात का हौव्वा बनाया गया है कि यहां के गांव नक्सल प्रभावित है और गांवों में नक्सली रहते हैं. लिहाजा कोई देखने वाला नहीं कि चेकडैम कहां और कैसे बन रहे हैं .’

हम यहां से कुछ दूरी पर सुअरहवां गांव की सीमा पर पहुंचते हैं जहां एक चेकडैम पिछले ही साल तैयार किया गया था. लेकिन पहली नजर में देखने से लगता है कि डैम काफी पुराना हो गया है. इसकी दीवारें दरकने लगी हैं. किसान रवींद्र प्रताप बताते हैं,  ‘पिछले साल बारिश से पहले डैम तैयार हुआ लेकिन बारिश का पूरा पानी डैम में रिसाव के कारण बह गया जिससे सिंचाई नहीं हो सकी.’ रवींद्र एक और सनसनीखेज बात बताते हैं. वे कहते हैं कि जिस जगह पर डैम बनाया गया है वहां वर्षों पहले एक पुराना डैम था जिसे तोड़कर नया तैयार किया गया है. वे कहते हैं, ‘ नए डैम को बनाने में पुराने डैम का ही पत्थर आदि प्रयोग किया गया है.’  पलहवां गांव से कुछ पहले घुआस ग्राम सभा में घेड़वा नाले के पास जंगल में दो-दो सौ मीटर की दूरी पर करीब आधा दर्जन चेकडैम बनाए गए. नाले के पास दो चेकडैम ऐसी जगह पर हैं जहां दूर-दूर तक कोई खेत नहीं दिखाई देता. ये चेकडैम भी 2009 की गर्मियों में तैयार हुए लेकिन अब ये जर्जर हालत में हैं. 

ऐसा नहीं है कि चेकडैम के नाम पर करोड़ों के घोटाले से राजधानी में बैठे अधिकारी अनभिज्ञ हैं लेकिन वे चाहकर दबंग प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं के आगे कुछ नहीं कर पा रहे. पिछले वर्ष तत्कालीन ग्राम विकास आयुक्त मनोज कुमार सिंह ने चेकडैमों की शिकायत के बाद सोनभद्र का निरीक्षण किया था. निरीक्षण के दौरान विकास खंड म्योरपुर के ग्राम पंचायत वेलवादह में उन्हें दो ऐसे चेकडैम मिले जिनका कोई औचित्य ही नहीं था. निरीक्षण के बाद आयुक्त ने जो रिपोर्ट बनाई उसमें स्पष्ट लिखा है कि दोनों ही चेकडैम नितांत ही गलत स्थान पर बनाए गए हैं तथा चेकडैम की जो उपयोगिता होती है उसका एक छोटा हिस्सा भी उपर्युक्त निर्माण से पूर्ण नहीं होगा. रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि ब्लॉक प्रमुख व खंड विकास अधिकारी, जिनके संयुक्त हस्ताक्षर से चेकडैम के निर्माण की धनराशि का भुगतान किया गया है, सरकारी धनराशि के दुरुपयोग के लिए पूर्ण रूप से जिम्मेदार हैं. जांच के बाद आयुक्त ने बीडीओ, म्योरपुर, अवर अभियंता, ग्रामीण अभियंत्रण सेवा तथा अधिशासी अभियंता को निलंबित कर विभागीय कार्रवाई की संस्तुति भी की. लेकिन इसके बावजूद कोई कार्रवाई नहीं हुई.

बुलंदशहर जिले के याकूबपुर बैलोट में एक नाले का निर्माण जेसीबी मशीन से हो गया जबकि योजना में मशीनों का प्रयोग प्रतिबंधित है. गरीबों का हक मारा गया सो अलग, निर्माण सामग्री भी घटिया प्रयोग की गई. पूरे मामले में एसडीएम शिकारपुर ने जो रिपोर्ट जिलाधिकारी को भेजी उसमें स्पष्ट लिखा है कि याकूबपुर बैलोट में नाला निर्माण जेसीबी मशीन द्वारा कराया गया है. इसके साथ ही एसडीएम ने नाले की खुदाई कर उसमें प्रयोग किए ईटों को उखाड़ कर देखा तो वे सन्न रह गए. ठेकेदार ने जिन ईंटों का प्रयोग किया था. वे चटकी हुई व घटिया थीं. एसडीएम ने अधिकारियों को बताया कि नाले की चिनाई में जो मसाला प्रयोग किया गया है वह भी घटिया स्तर का है. रिपोर्ट में कहा गया है कि नाले के निर्माण में सरकारी धन का खुलकर दुरुपयोग किया गया है.मनरेगा के तहत बीपीएल श्रेणी के लोगों को साग- सब्जी उगाने में भी मदद दी जा रही है. यानी गरीबी की रेखा से नीचे के किसान अपनी कृषि योग्य भूमि पर बिना किसी खर्च के भिंडी, टमाटर व अन्य सब्जियां उगा सकते हैं. इसके लिए मनरेगा के तहत बीज, खाद, सिंचाई, दवा आदि नि:शुल्क मिलते हैं.

लेकिन कानपुर देहात जिले में कई जगहों पर ऐसा नहीं हुआ. सरवन खेड़ा ब्लॉक के गांव मुसईपुर निवासी शंकर दयाल बताते हैं कि टमाटर का बीज पाने के लिए उन्होंने प्रधान से लेकर ब्लॉक तक कई चक्कर लगाए लेकिन बीज नहीं मिला. किसी तरह रुपए की व्यवस्था कर शंकर ने खेत में टमाटर तो बो दिया. उसके बाद उन्होंने खाद के लिए कई चक्कर लगाए. लेकिन वह भी नहीं मिली. गांव के ही बृजेंद्र  बताते हैं, ‘परिवार का पेट पालने के लिए मैंने  दो बीघा खेत 14 हजार रुपए में बटाई पर लिए थे. ब्लॉक के सेक्रेटरी से पता चला कि मनरेगा के तहत बीज फ्री में मिलेगा. दिसंबर में बीज मिला और बो दिया. लेकिन वह उगा ही नहीं. खेत बटाई का था लिहाजा जिसका खेत था उसे 14 हजार रुपए देने पड़े.’

मुसईपुर के देशराज की कहानी भी ऐसी ही है. उन्हें भी टमाटर का बीज तो मिला लेकिन बोने के बाद वह उगा ही नहीं. एक और गांव राना इटहा के दलित किसान नन्हें राम बाबू, शिव चरण, राजेंद्र कुमार आदि के साथ भी ऐसा ही हुआ. शिवचरण बताते हैं, ‘परिवार में सात सदस्य हैं जबकि जमीन आधे बीघे से भी कम है. सोचा था प्याज उगाकर कुछ कमाई हो जाएगी. लेकिन जो बीज मिला था वह उगा ही नहीं.’ नन्हें कहते हैं, ‘शुरू में इस बात का किसी को पता ही नहीं था कि बीज के साथ मजदूरी व खाद भी मिलना है. इसका फायदा प्रधान व ब्लॉक के अधिकारियों ने उठाते हुए किसी को बीज दिया तो खाद नहीं और किसी को खाद व बीज दिया तो मजदूरी का रुपया हजम कर गए.’

गांव के प्रधान व अधिकारियों को जहां मौका मिला वे गरीबों के साथ खेल करने से बाज नहीं आए. राना इटहा गांव के दलित प्रभुदयाल को कागजों में टमाटर का बीज व मजदूरी लेने वाला किसान दिखा दिया गया. कागजों में दिखाया गया कि उन्हें दस ग्राम टमाटर का बीज व मजदूरी का 2,800 रुपए दिए गए हैं. प्रभुदयाल बताते हैं कि उनकी जिस जमीन पर टमाटर बोना बताया गया उस जमीन पर बेझर व गन्ना उगाया गया था. अनपढ़ प्रभुदयाल को जब से मालूम हुआ है कि उसके नाम पर 2,800 रुपए मजदूरी व बीज निकाला गया है, वे डरे हुए हैं कि सरकारी रुपए की वसूली कहीं उनसे न हो.

मनरेगा के तहत सिर्फ बीज वितरण में ही नहीं  बल्कि आदर्श तालाब योजना में भी कई गड़बड़ियां हुई हैं.  आदर्श तालाब के किनारे ग्रामीणों को बैठने के लिए सीमेंट की बेंच बनाए जाने का निर्देश है. सीमेंट की यह बेंच भी मनरेगा मजदूरों द्वारा ही बनाई जानी है. हर तालाब पर सात या आठ बेंचें लगनी थीं. इसके बावजूद जिले के कई गांवों में अधिकारियों ने कानपुर की एक कंपनी से लोहे की बेंच सप्लाई कर लगवा दी. सप्लाई हुई एक लोहे की बेंच की कीमत कंपनी ने करीब छह हजार रुपए वसूल की है. क्षेत्र के एक प्रधान बताते हैं कि कंपनी से अधिकारियों ने एक-एक तालाब पर 48-48 हजार की बेंच सप्लाई करवा दी हैं जबकि सीमेंट से बनने वाली आठ बेंचों की कीमत करीब साढ़े छह हजार रुपए बैठ रही है. नाम न छापने की शर्त पर एक प्रधान बताते हैं कि जो प्रधान कुछ सक्षम थे उन्होंने अधिकारियों से विरोध कर लोहे की बेंच की सप्लाई नहीं ली और सीमेंटे की बेंचें ही बनवाईं ताकि भविष्य में कोई जांच हो तो फंसने का डर न रहे. लेकिन अधिकांश प्रधानों को डरा-धमकाकर अधिकारियों ने लोहे की बेंच लगवाने पर मजबूर कर दिया. 

मनरेगा की रकम में सेंधमारी का एक और तरीका निकाला गया. मनरेगा का प्रचार-प्रसार नुक्कड़ नाटक के माध्यम से कराने की योजना बनाते हुए पूरा काम सोनभद्र जिले की एक समिति को दिया गया था. अधिकारियों ने समिति को भुगतान के नाम पर प्रत्येक ग्राम प्रधान से 1600-1600 रुपए के चेक लिए. लेकिन काफी इंतजार के बाद भी नुक्कड़ नाटक कुछेक गांव तक ही सीमित रहे. सरवन खेड़ा ब्लॉक के ग्रामीण जितेंद्र, सोहन, रामपाल आदि कहते हैं कि उनके यहां कोई नुक्कड़ नाटक नहीं हुआ.
उधर, महोबा में टेंट के नाम पर ही लाखों का घोटाला हुआ. दरअसल, मनरेगा के तहत काम कर रहे लोगों को काम के दौरान धूप आदि से बचाने के लिए आवश्यकता पड़ने पर अधिकारी टेंट की खरीद भी कर सकते हैं. अधिकारियों ने जिले की 255 ग्राम पंचायतों के लिए टेंट की खरीद दिखा दी. टेंट के लिए ग्राम प्रधानों से अधिकारियों ने मनरेगा के तहत करीब 19-19 हजार रुपए के चेक भी ले लिए लेकिन अधिकांश ग्राम पंचायतों तक टेंट पहुंचा ही नहीं. नियमों के अनुसार स्थानीय स्तर पर ही टेंट की खरीद-फरोख्त होनी थी लेकिन अधिकारियों ने ऐसा न कर लखनऊ की एक फर्म से टेंट मंगवाकर महोबा में उसकी सप्लाई करवा दी. गरीबों के साथ ऐसा खेल उस बुंदेलखंड में हो रहा है जहां बेरोजगारी और भुखमरी के कारण किसान आत्महत्या या पलायन करने पर मजबूर होते हैं. गोंडा जिले के अधिकारी तो दो कदम और आगे निकले. उन्होंने काम करने वाले मजदूरों के बच्चों के नाम पर लाखों रुपए के खिलौनों की खरीद दिखा दी. मनरेगा के तहत मजदूरी करने वाली महिलाओं के बच्चों के लिए क्रेच की व्यवस्था करने का नियम है जिसका फायदा अधिकारियों ने उठाया. सुल्तानपुर में अधिकारियों ने बिना काम के ही एक ब्लैक लिस्टेड संस्था के नाम पर लाखों रुपए जारी कर दिए. पहले तो मामले पर लीपापोती होती रही लेकिन जब शोर हुआ तो जांच के आदेश दे दिए गए. ऐसे में कैसे सफल होगी मनरेगा? 

एक बार सोचकर देखें

स्त्री रचनाकारों पर बेमौजूं टिप्पणी देने की हिंदी साहित्य में ख़ासी लंबी परंपरा रही है. इस बार हुआ यह कि अमर्यादित अशिष्टता का जवाब भी अमर्यादित अशिष्टता से दिया गया. इतने बेतुकेपन के साथ कि आमजन असमंजस में पड़ गया कि भद्र जनों की अभद्रता पर रोए कि तर्कहीनता पर हंसे. मुद्दा बना, नया ज्ञानोदय पत्रिका के बेवफ़ाई विशेषांक में छपे साक्षात्कार में महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय का यह कहना कि "लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिए कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है." लगे हाथों उन्होंने यह भी जोड़ दिया, "एक बहु प्रोमोटेड और ओवर रेटेड लेखिका की आत्मकथात्मक पुस्तक का शीर्षक ’कितने बिस्तरों पर कितनी बार’ हो सकता था. इस तरह के उदाहरण बहुत-सी लेखिकाओं में मिल जाएंगे."

राय का साक्षात्कार विमर्श का अनर्थ है. विमर्श किसी खास विषय पर खास लोगों द्वारा नहीं किया जाता

ज़ाहिर है कि छिनाल शब्द पर, जिसका अंग्रेज़ी पर्याय प्रॉिस्टट्यूट नहीं स्लट है, और जो दोनों भाषाओं में गाली की तरह प्रयुक्त होता है, लेखिकाओं को घोर आपत्ति हुई और उन्होंने उसे ज़ोरदार शब्दों में व्यक्त किया. साथ ही सभी प्रबुद्ध जनों ने महसूस किया कि जिस तरह राय साहब ने सभी लेखिकाओं की रचनात्मकता को नकारा था, वह ग़ैर ज़िम्मेदाराना और असाहित्यिक था. पर इससे पहले कि दूसरे मसले पर बहस होती, टीवी चैनलों ने गाली का मुद्दा झपट लिया और उसे रियल्टी शो में तब्दील कर दिया.  दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि विभूति नारायण राय बराबर उसमें आहुति डालते रहे.

इस बहस पर कुछ कहने से पहले मैं यह कहना ज़रूरी समझती हूं कि बेवफ़ाई का ताल्लुक सिर्फ़ देह से नहीं होता. पति या पत्नी के इतर किसी से दैहिक संबंध बनाना भर ही बेवफ़ाई नहीं है. बेवफ़ाई के अनेक अन्य हृदय विदारक रूप हैं. अगर पति, बीमारी या कष्ट में पत्नी की देखभाल नहीं करता; परिवार की आमदनी को दारू आदि के अपने शौक़ पर खर्च करके पत्नी-बच्चों को अभाव में रखता है तो वह संगीन बेवफ़ाई है. अगर कोई व्यक्ति बिला स्नेह, मित्रता, करुणा, संवेदना रखे, पति या पत्नी के साथ उसके पैसे, पदवी या सुविधा की खातिर रह कर उसे कष्ट पहुंचाता है तो यह पीड़क बेवफ़ाई है. ठीक उस तरह जैसे राजनेता का नागरिकों से धोखाधड़ी करना राष्ट्र से बेवफ़ाई है. दरअसल इनसान सिर्फ़ अंतःप्रज्ञा से नहीं, विवेक और विश्वास के साथ वफ़ा करता है. इसलिए बेवफ़ाई पर अंक निकालना कोई ग़लत काम नहीं माना जा सकता, जैसा कि आज कुछ लोग कह रहे हैं.

मुद्दा यह है कि क्या अपमानजनक अपशब्दों का संपादन न करने के लिए संपादक को खेद प्रकट नहीं करना चाहिए? मैं समझती हूं कि करना चाहिए. लेखक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अपनी जगह है पर संपादक का कर्तव्य है कि उसे मानहानि का दायरा न तोड़ने दे. एक प्रबुद्ध स्तंभकार का कहना है कि इन ग़ैर ज़िम्मेदार शब्दों का प्रयोग राय ने साक्षात्कार के बहाव में किया है. काश ऐसा हुआ होता! अगर होता तो राय साहब पहले ही दिन उसके लिए खेद प्रकट कर माफ़ी मांग लेते. मुझे याद आ रहे हैं एक और राय, सत्यजित नाम था उनका. फ़िल्म के एक प्रसंग पर कोलकाता का नर्स समुदाय आहत हुआ तो एक दिन बर्बाद किए बिना, उन्होंने खेद प्रकट कर दिया. और एक यह राय साहब थे जो तीन दिन तक, छिनाल शब्द की उत्पत्ति पर भाषण देकर यह दुहराते रहे कि प्रेमचंद ने इसका क़रीब सौ बार इस्तेमाल किया है. बेचारे प्रेमचंद!  गलत शब्द का इस्तेमाल हो गया, परवाह नहीं,  प्रेमचंद का नाम लो और गंगा नहा लो. सब पाप धुल जाएंगे. हाल में एक प्रकाशन संस्थान से जब मैंने कहा कि सही पद  ‘यादगारी कहानियां’ नहीं ‘यादगार कहानियां’ होगा तो उनका भी यही तर्क था कि ‘यादगारी’ शब्द का प्रयोग प्रेमचंद ने किया था.

इस प्रकरण का एक दुखद पहलू यह था कि लेखक बिरादरी ने एक मंत्री से हस्तक्षेप करने की मांग की और राय साहब ने अंततः मंत्री के कहने पर माफ़ी मांगी. दोनों ने विश्वविद्यालय की स्वायत्त गरिमा को ठेस पहुंचाई. माफ़ी मांगने का उनका अंदाज़ ख़ासा पुरलुत्फ़ था. उन्होंने कहा कि अधिकतर लेखिकाएं जिन्हें उनके बयान पर आपत्ति थी, उनकी मित्र थीं. हम तो यही समझे बैठे थे कि स्त्री की पुरुष से मैत्री है या नहीं, यह तय करने का अधिकार स्त्री का होता है, पुरुष का नहीं. अपनी कहूं तो मुझे राय साहब के शब्दों पर ही नहीं, उनके बाद के व्यवहार पर भी आपत्ति है और मैं उनकी मित्र छोड़, परिचित भी नहीं हूं. कोई पुरुष नारी-द्वेषी है या नारी-अनुरागी, यह उसका निजी मसला है और उससे हमें कुछ लेना-देना नहीं है. हमें मतलब है उस दृष्टि से, जिससे वह स्त्रियों के लेखन को देखता-पढ़ता है. राय साहब ने कहा िक वे लेखक हैं इसलिए उन्हें हर किसी के लेखन पर टिप्पणी करने का अधिकार है. ज़रूर है. लेखन पर, लेखक के व्यक्तित्व या उसकी नीयत पर नहीं. दुर्भाग्य से हिंदी टिप्पणी/समीक्षा/आलोचना की आधुनिक परंपरा यह बन गई है कि रचना अगर स्त्री करे तो रचना को दरकिनार कर चर्चा स्त्री विमर्श पर केंद्रित कर दो और उसकी मन मुताबिक व्याख्या करके लेखिका को बतलाओ कि वह क्या लिखे, क्या नहीं.

हमारी आलोचना की दुर्गति का एक कारण विमर्श को खांचों में बांटना रहा है. राय का साक्षात्कार भी विमर्श का अनर्थ है. विमर्श किसी खास विषय पर खास लोगों द्वारा नहीं किया जाता. विचार-विमर्श के दौरान विषय उत्पन्न होते हैं, जिन्हें हम अनेक कोणों से परखते हैं. विमर्श को खांचों में बांटने का मतलब है कि स्त्री(वादी) विमर्श करने का अधिकार केवल स्त्री का है. ज़ाहिर है हर स्त्री उसकी व्याख्या अपने तरीके से करेगी. वैसे भी रचना हो या विमर्श, हर  साहित्यकार उसे स्वायत्त करता है. लिखे हुए को श्रेष्ठ या निकृष्ट बतलाने का अधिकार हर आलोचक-पाठक को है पर यह  बतलाना कि लेखक (स्त्री) को क्या लिखना या सोचना चाहिए, किसी हिसाब  से स्तरीय आलोचना या टिप्पणी नहीं मानी जा सकती. रचना पहले होती है, विमर्श का उसके भीतर से अनुसंधान किया जाता है. इसके उलट तथाकथित स्त्री(वादी) विमर्श के नाम पर लेखक को गरियाना  कि वह उसके मनोनुकूल लिखे, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और साहित्य के मर्म को खारिज करता है.  

फैसले की फांस

उत्तराखंड  सरकार ने भले ही 56 लघु जलविद्युत परियोजनाओं का आवंटन रद्द कर दिया हो पर इस मसले से जुड़े विवाद थमने का नाम नहीं ले रहे. निरस्त करने के साथ इन अनियमित आंवटनों की ‘जिम्मेदारी का ठीकरा’ अब एक-दूसरे के सर पर फोड़ने की कोशिशें भी हो रही हैं.

दरअसल, 4 फरवरी, 2010 को गुपचुप तरीके से आवंटित कर दी गई इन परियोजनाओं के ‘लेटर आफ अवार्ड’ को राज्य सरकार ने 15 जुलाई, 2010 को तकनीकी रूप से निष्प्रभावी घोषित किया था. अगले दिन इन परियोजनाओं के आवंटन को निरस्त करने तथा आवंटन प्रक्रिया में हुई धांधलियों की जांच सीबीआई से कराने के लिए दायर याचिका पर उच्च न्यायालय, नैनीताल में सुनवाई होनी थी. सरकार ने सुनवाई के एक दिन पहले आवंटनों को रद्द करने का अप्रत्याशित निर्णय लेकर भले ही किसी संभावित जांच से मुक्ति पा ली हो मगर आवंटन से जुड़े मामले जिस तरह लगातार नए मोड़ ले रहे हैं उससे लगता नहीं कि यह मामला जल्दी शांत होगा. उच्च न्यायालय ने इस मामले से जुड़ी दो जनहित याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा कि जब सरकार ने आवंटन रद्द कर दिए हैं तो जांच की जरूरत नहीं है. परंतु अदालत ने याचिकाकर्ताओं को यह छूट भी दी कि यदि मामले में नए तथ्य सामने आते हैं तो वे पुनः याचिका दायर करने के लिए स्वतंत्र हैं.
मामला सामने आने के बाद कांग्रेस मार्च के महीने से आवंटन में हुई गड़बड़ियों की जांच सीबीआई से कराने की मांग को लेकर आंदोलनरत थी. विपक्ष ने इस मामले में विधानसभा का बजट सत्र भी चलने नहीं दिया था. तहलका ने मार्च के अंतिम सप्ताह में ‘बांट पर बवाल’ शीर्षक से इस अनियमित आवंटन के कई विवादास्पद पहलुओं को उजागर किया था.

राज्य सरकार तथा भाजपा इस मामले में कई बार बैक फुट पर आई है. सरकार के निर्णय से छह दिन पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने निशंक सरकार को क्लीन चिट दे दी थी 16 जुलाई, 2010 को आवंटन रद्द करने की सूचना की विज्ञप्ति में सरकार ने बताया कि 25 जुलाई, 2008 को बनी सरकार की नवीकरणीय ऊर्जा नीति 2008 के कुछ अंश इन स्वचिह्नित लघु जलविद्युत परियोजनाओं के आवंटन के लिए प्रकाशित विज्ञापन में सम्मिलित नहीं हुए या आंशिक रूप से परिवर्तित हो गए थे इसलिए आवंटन निष्प्रभावी हैं. विज्ञप्ति और संबंधित प्रकाशित खबरों में आवंटन की गड़बड़ियों के लिए पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी के कार्यकाल में जारी विज्ञापन को दोषी बताया गया. आवंटन निरस्त करने की वजह बताते हुए मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव डीके कोटिया ने भी कहा कि आवंटन प्रक्रिया में गड़बड़ी नहीं थी बल्कि विज्ञापन में खामी रह गई थी.’

मगर यह तर्क कइयों को हजम नहीं हो रहा. आवंटन रद्द करने के अगले दिन 16 जुलाई को  मुख्यमंत्री निशंक देहरादून में पूर्व मुख्यमंत्री खंडूड़ी से मिलने उनके आवास गए. सूत्रों के अनुसार डॉ. निशंक ने जब खंडूड़ी को विज्ञापन की कमियां बताने की कोशिश की तो खंडूड़ी भड़क गए और उन्होंने निशंक से कहा कि जब विज्ञापन की गलती है तो वे सीबीआई जांच क्यों नहीं करा रहे. अपरोक्ष रूप से सार्वजनिक तोहमत लगने के बाद भी खंडूड़ी ने इस मामले में कोई बयान नहीं दिया. सूत्रों के अनुसार पहले ही इस मामले में पार्टी की भद्द पिटने के बाद भाजपा आला कमान ने उन्हें चुप रहने की सलाह दी है.

जलविद्युत परियोजनाओं के आवंटन के बाद राज्य सरकार तथा भाजपा इस मामले में कई बार बैक फुट पर आई है. परियोजनाओं को रद्द करने के सरकार के निर्णय से छह दिन पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने देहरादून में निशंक सरकार को क्लीन चिट देते हुए दावा किया था कि उन्होंने सारे दस्तावेज देखे हैं और कहीं कोई गड़बड़ी नहीं हुई है. राज्य सरकार भी विधानसभा में अपने को पाक-साफ बताते हुए दावा कर चुकी थी कि अभी परियोजनाओं का अंतिम आवंटन नहीं हुआ है जबकि तहलका उसी समय इस तथ्य को सामने लाया था कि सरकार ने जब थ्रेशहोल्ड प्रीमियम की राशि विकासकर्ताओं से ले ली है तो आवंटन स्वतः ही माना जाएगा.

ऐसे में सवाल उठता है कि गड़बड़ी नीति में थी या विज्ञापन में. अरुणाचल प्रदेश में मुख्य अभियंता तथा विभागाध्यक्ष रह चुके आनंद सिंह कनेरी बताते हैं, ‘हमने अरुणाचल में कई जलविद्युत परियोजनाएं बनवाई हैं. आज अरुणाचल जलविद्युत परियोजनाओं को विकसित करने में देश में सबसे आगे है. विज्ञापन में त्रुटियों की बात गले नहीं उतरती. यूजेवीएन ने 25 जुलाई, 2008 का विज्ञापन प्रकाशित करने के बाद परियोजनाओं के लिए जो निविदा पत्र निर्गत किए थे उसके साथ ऊर्जा नीति भी जोड़कर दी थी इसलिए निविदा में उर्जा नीति स्वतः ही सम्मिलित मानी जानी चाहिए.’ कनेरी उत्तराखंड लोकायुक्त कार्यालय की ओर से राज्य की कई विवादित परियोजनाओं की जांच कर चुके हैं.

सूत्रों के मुताबिक करोड़ों रु. खर्च कर चुकी कंपनियां सरकार के निर्णय को चुनौती देने के लिए अदालत जा सकती हैं उत्तराखंड जलविद्युत निगम (यूजेवीएन) ने विज्ञापन प्रकाशन के बाद कंपनियों की वित्तीय व तकनीकी जांच तथा आवेदन पत्रों की छंटाई तक की प्रक्रिया में पूरी सावधानी बरती थी. इसके बाद निविदा में निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार प्रस्तावित परियोजनाओं का संयुक्त निरीक्षण यूजेवीएन, उरेडा तथा कंपनियों के प्रतिनिधियों को करना था ताकि परियोजनाओं के स्थलों व कंपनियों के दावों की जांच की जा सके. यूजेवीएन के सूत्र बताते हैं कि देहरादून जिले में प्रस्तावित लगभग 10 परियोजनाओं का संयुक्त निरीक्षण हो भी गया था. कनेरी बताते हैं कि इसके बाद नीति के अनुसार पारदर्शिता से चल रही प्रक्रिया अचानक गोपनीय हो गई. परियोजनाओं का निरीक्षण भी बंद कर दिया गया. साथ ही नोडल एजेंसी यूजेवीएन की भूमिका शून्य कर दी गई और सब-कुछ शासन के हाथों में चला गया.

टेंडर प्रपत्र में वर्णित प्रोसेसिंग  शुल्क, थ्रैशहोल्ड धन राशि, सिक्योरिटी राशि आिद आवंटित कंपनियों से किस स्तर पर ली गई, इस पर अभी तक अस्पष्टता की धुंध चढ़ी हुई है.  आवंटन के लिए कम से कम पांच लाख रु. प्रति मेगावाट का  ‘थ्रेशहोल्ड प्रीमियम’ रखा गया था – यानी जो कंपनी किसी नियत परियोजना के लिए इससे अधिक प्रीमियम देती उसे ही प्रोजेक्ट आवंटित किए जाने थे. बाद में सरकार ने कंपनियों से पांच लाख रु. प्रति मेगावाट का ही प्रीमियम जमा कराया.
टेंडर प्रपत्र के अनुसार आवेदन पत्र में कंपनी को तकनीकी व वित्तीय क्षमता सिद्व करने के साथ-साथ प्रस्तावित परियोजना की क्षमता का खुलासा भी करना था. कंपनियों को वन व पर्यावरण मंत्रालय के प्रावधानों की अवहेलना न होने का शपथ पत्र भी देना था. लेकिन कई कंपनियों ने प्रोजेक्ट हथियाने के लिए कागजी आंकड़ों के सहारे अधिक क्षमता के प्रोजेक्ट बनाने का दावा किया, जबकि मौके पर उस क्षमता के बिजली उत्पादन की संभावनाएं दूर-दूर तक नहीं थीं.पूर्व ऊर्जा राज्य मंत्री तथा कांग्रेस विधायिका अमृता रावत कहती हैं, ‘इन कंपनियों को जमीनी हकीकतों से कोई मतलब नहीं था,सब काम कागजों पर हो रहा था’.
संयुक्त स्थलीय निरीक्षण न होने के कारण आवंटित 56 परियोजनाओं में से कई पहले से बन रही परियोजनाओं को ओवरलैप कर रही हैं. इसका उदाहरण देते हुए कनेरी बताते हैं, ‘नंदाकिनी नदी पर इन परियोजनाओं के साथ स्वीकृत प्रोएक्टिव इंनफ्रास्ट्रकचरल लिमिटेड की सितेल परियोजना पहले से बनाई जा रही गुलाड़ी परियोजना को ओवरलैप कर रही है.’ जल्दबाजी में कई कंपनियों ने आवंटन तो ले लिए पर विवाद होने पर जब कंपनियों को पता चला कि मौके पर तो यह उत्पादन क्षमता है ही नहीं  तो कंपनियों ने काफी प्रोजेक्ट वापस भी किए.

‘तहलका’ ने भी मार्च के अंतिम सप्ताह में ही लिख दिया था कि परियोजनाओं के आवंटन में खंडूड़ी सरकार फूंक-फूंककर कदम रख रही थी. राज्य सरकार में महत्वपूर्ण पद पर आसीन एक भाजपा नेता  नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं,  ‘उस समय राज्य में बिजली संकट चल रहा था, संबंधित अधिकारियों ने ऊर्जा प्रदेश बनाने के लक्ष्य को दिखाकर प्रक्रिया के कई चरणों से सरकार को अंधेरे में रखा. बाद में शासन के कुछ कनिष्ठ अधिकारियों और यूजेवीएन के भरोसेमंद अधिकारियों का यह ‘अनौपचारिक समूह’ परियोजनाओं के अंतिम आवंटन की प्रक्रिया का सर्वे-सर्वा बन गया था.’  हाल में जारी एक चर्चित सीडी (देखें अगला पृष्ठ) के कथित वार्तालाप से भी यह सिद्ध होता है कि प्रक्रिया में अचानक महत्वपूर्ण हो गए इन कनिष्ठ अधिकारियों के सामने ऊर्जा नीति के अनुसार आंवटन के लिए गठित ‘सक्षम समिति’ में शामिल शासन के बड़े अधिकारियों और विशेषज्ञों की भूमिका गौण हो गई थी. रावत कहती हैं, ‘आवंटन के प्रस्ताव कैबिनेट से पास कराने चाहिए थे इसलिए चूक नीति की नहीं बल्कि नीयत की है.’

बताया जाता है कि मीडिया और विधानसभा में अपने निर्णय को सही कहने वाली सरकार भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व में शामिल धुरंधर वकीलों को ‘जल्दबाजी में लिए अपने निर्णयों के औचित्यों’ को नहीं समझा पाई. सूत्रों के अनुसार अरुण जेटली की सलाह पर सरकार ने सुनवाई से एक दिन पहले अपना निर्णय वापस लेते हुए अपना चेहरा बचाने की कोशिश की. 

अब आवंटन रद्द करने के निर्णय की व्याख्या भी सत्ता पक्ष और विपक्ष अपने-अपने ढंग से कर रहे हैं. भाजपा नेता व राज्य मीडिया सलाहकार समिति के उपाध्यक्ष अजेंद्र अजय बताते हैं, ‘आपत्तियों की सुनवाई के लिए बनाई गई कमेटी की रिपोर्ट आते ही सरकार ने आवंटन को निष्प्रभावी घोषित कर सिद्ध किया है कि सरकार पारदर्शिता से चल रही है.’ उधर, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल आर्य कहते हैं, ‘कांग्रेस के सड़क से लेकर विधानसभा तक के संघर्ष के बाद ही सरकार परियोजनाओं  का आवंटन रद्द करने के लिए मजबूर हुई.’ नेता प्रतिपक्ष हरक सिंह रावत आवंटन को रद्द करना ही पर्याप्त नहीं मानते. वे कहते हैं कि हर स्तर पर भ्रष्टाचार में सने इस मामले की सीबीआई जांच तो होनी ही चाहिए.

सूत्र बताते हैं कि दरअसल जिन कंपनियों को परियोजनाएं आवंटित की गईं उनमें से अधिकतर परियोजना बनाने से अधिक परियोजनाओं की ट्रेडिंग (बिक्री) करने के लिए  इच्छुक थी. फरवरी में भी स्वीकृत परियोजनाओं में से कई की बोली 50 लाख रुपए प्रति मेगावाट तक की लग गई थी. केंद्र सरकार 25 मेगावाट तक की परियोजनाओं को बनाने के लिए 9.5 करोड़ रुपए तक की सब्सिडी देती है. फिर ये कंपनियां वित्तीय संस्थाओं से बड़ी प्रोजेक्ट रिपोर्टें बनावाकर अरबों का ऋण सस्ती दरों पर लेती हैं. बताया जाता है कि ये कंपनियां इन सभी सुविधाओं का फायदा उठाना चाहती थीं.

सूत्रों के मुताबिक करोड़ों रु. खर्च कर चुकी कंपनियां अब आवंटन रद्द होने के बाद  सरकार के निर्णय को चुनौती देने के लिए न्यायालय जाने का मन बना रही हैं. न्यायालय में यूजेवीएन के पूर्व चैयरमैन योगेंद्र प्रसाद ने भी अपने निष्कासन को नियम विरद्ध तथा द्वेषपूर्ण भावना से लिया गया निर्णय बताते हुए अपनी बहाली के लिए याचिका दायर की है. चर्चा चल रही है कि सरकार ने योगेंद्र प्रसाद की प्रारंभिक विजिलेंस जांच शुरू करा दी है. आवंटन प्रक्रिया में शासन के 6 बड़े अधिकारियों के नाम सामने आ रहे हैं जबकि इनमें से अधिकांश की भूमिका मात्र हस्ताक्षर करने की थी. इससे नौकरशाही में भी निराशा है.

963 मेगावाट की इन आवंटित परियोजनाओं में से उत्तराखंड निवासियों को मात्र 5 मेगावाट की परियोजनाएं आवंटित हुई थीं. साफ है कि परियोजनाओं के आवंटन और उसके बाद हर स्तर पर खेले जा रहे ‘शह और मात’ के खेल में वे उत्तराखंड निवासी कहीं भी नहीं हैं जिनकी जमीनें और प्राकृतिक संसाधन बेचकर ये परियोजनाएं बनाई जा रही थीं.    

देश नहीं भगवान को प्यारे

बच्चों की मौत बिना नागा जारी है. वे विकलांग भी हो रहे है. 2-4-6-8 साल के नन्हे-मुन्ने और मुन्नियां. कुछ दुधमुंहे भी हैं. रोने क्या कुनमुनाने तक से लाचार. एक-दो नहीं सैकड़ों-हजारों मासूम. पिछले 2 या 4 साल से नहीं पूरे 32 साल से. सरकारें भी अपने-अपने कामों में लगी हैं. मगर केंद्र सरकार राज्य सरकार की वजह से कुछ नहीं कर पा रही है और राज्य सरकार केंद्र सरकार की वजह से. बच्चे मर रहे हैं. आगे ऐसा नहीं होगा इसकी उम्मीद न के बराबर है.
बात हो रही है पूर्वांचल की महामारी मानी जाने वाली बीमारी इंसेफलाइटिस यानी दिमागी बुखार और उसके इर्द-गिर्द फैली एक अजीबोगरीब किस्म की आपराधिक लापरवाही. पूर्वी उत्तर प्रदेश के आधा दर्जन से अधिक जिलों में पिछले 32 साल में इंसेफलाइटिस से हजारों बच्चे मौत की भेंट चढ़ चुके हैं. जो किसी तरह से बच गए उनमें से ज्यादातर ताजिंदगी विकलांगता का अभिशाप झेलने को मजबूर हैं. अगर विशुद्ध आंकड़ों की बात की जाए तो अकेले गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में ही इंसेफलाइटिस से मरने वाले बच्चों की संख्या 7,000 और विकलांग हुए बच्चों की संख्या 5,000 हजार को पार कर चुकी है.  इसके बावजूद 2008 से अब तक दिमागी बुखार के टीकाकरण के लिए आए टीकों की लाखों खुराकें बच्चों को लगाए जाने के स्थान पर एक-एक कर कूड़ेदान की भेंट चढ़ाई जा रही हैं.

अकेले गोरखपुर मेडीकल कॉलेज में ही इंसेफलाइटिस से मरने वाले बच्चों का संख्या 7000 और विकलांग हुए बच्चों की संख्या 5000 हजार को पार कर चुकी है

दिमागी बुखार से सिर्फ पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिले ही नहीं बल्कि देश के अन्य कई राज्य भी प्रभावित हैं. अगर इसके इतिहास पर नजर डालें तो जानकारों के मुताबिक गोरखपुर स्थित बीआरडी मेडिकल कॉलेज में 1977-78 में सबसे पहले दिमागी बुखार से पीिड़त बच्चे आना शुरू हुए थे. इंसेफलाइटिस उन्मूलन अभियान नाम की एक स्वयंसेवी पहल से जुड़े गोरखपुर के एक प्रमुख बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. आरएन सिंह बताते हैं, ‘उस समय आसपास के जिलों से बच्चे सुबह-सुबह तेज बुखार में मेडिकल कॉलेज आते थे और शाम तक उनकी मौत हो जाती थी. तब मेडिकल कॉलेज में किसी को भी यह समझ नहीं आता था कि ये बीमारी आखिर है क्या? 1978 में मेडिकल कॉलेज में 274 बच्चे भर्ती हुए जिनमें से 58 की मौत हो गई. केवल 85 बच्चे ही पूरी तरह से ठीक हो पाए.’ वे आगे बताते हैं कि आने वाले सालों में बारिश का मौसम आते ही बच्चों को यह बीमारी और इससे उनकी मृत्यु होने का आंकड़ा बढ़ता चला गया. लेकिन सरकार व स्वास्थ्य विभाग को इस बुखार के कारणों का पता लगाकर इस पर रोकथाम लगाने में 28 साल लग गए.

2005 में दिमागी बुखार पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, महाराजगंज, कुशीनगर, बस्ती, देवरिया, सिद्धार्थनगर, संतकबीरनगर आदि जिलों में महामारी बनकर आया. उस साल 5,000 से अधिक बच्चे दिमागी बुखार की चपेट में आए जिनमें से 1,200 से ज्यादा की मृत्यु हो गई. जो बचे उनमें से सैकड़ों बच्चे उम्र भर के लिए विकलांग हो गए. एक साथ हजारों की संख्या में बच्चों के मरने व विकलांग होने से काफी शोर-शराबा हुआ, तब कहीं जाकर सरकारी नींद टूटी. 2006 में सरकार ने चीन के चेंगडू इंस्टिट्यूट ऑफ बायोलॉजिकल प्रोडक्ट्स से दिमागी बुखार की वैक्सीन मंगवाकर बड़े पैमाने पर टीकाकरण करवाया. लेकिन 2008 से राज्य व केंद्र सरकार के बीच सामंजस्य न बन पाने के कारण बच्चों का टीकाकरण संभव ही नहीं हो सका है.

अगर शुरू से चलें तो मेडिकल कॉलेज गोरखपुर के एक वरिष्ठ डॉक्टर बताते हैं कि 2008 के सितंबर महीने में 4.6 लाख वैक्सीन के डोज बच्चों को लगाने के लिए भेजे गए थे जबकि दिमागी बुखार का सीजन जुलाई से ही प्रारंभ हो जाता है. इसके अलावा वैक्सीन का डोज चार से छह सप्ताह पहले ही बच्चों को मिल जाना चाहिए तभी वह कारगर साबित होता है. वैक्सीन आने के बाद दोनों सरकारों के बीच एक अलग ही विवाद शुरू हो गया. गवर्नमेंट मेडिकल स्टोर करनाल से आए वैक्सीन को राज्य सरकार ने यह कहकर प्रयोग करने से मना कर दिया कि जो डोज आए हैं वह थर्ड स्टेज की अर्थात खराब होने के बिल्कुल कगार पर हैं और उनके प्रयोग से कोई फायदा नहीं है. राज्य सरकार को केंद्र का जवाब था कि वैक्सीन थर्ड यानी आखिरी नहीं बल्कि सेकंड स्टेज की है और इसका प्रयोग किया जा सकता है. इसपर राज्य सरकार का तर्क था कि वैक्सीन जब तक गांवों में पहुंचेगी तब तक खराब हो जाएगी. दोनों सरकारों के बीच इस मसले पर विवाद इतना बढ़ गया कि राज्य के स्वास्थ्य मंत्री अनंत मिश्र ने 16 सितंबर, 2008 को विधिवत घोषणा कर दी कि केंद्र ने राज्य को खराब वैक्सीन भेज दी है. दोनों सरकारों के बीच यह वाक्युद्ध उस समय हो रहा था जब प्रदेश के हजारों नन्हे-मुन्ने जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे थे क्योंकि इस समय दिमागी बुखार का चक्र अपने चरम पर होता है.

दोनों सरकारों के बीच यह वाक्युद्ध उस समय हो रहा था जब प्रदेश के हजारों नन्हे-मुन्ने जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे थे क्योंकि इस समय दिमागी बुखार का चक्र अपने चरम पर होता है सरकारों की यह लड़ाई पूरे साल चलती रही और अंत में जनवरी, 2009 को 4.6 लाख डोज वैक्सीन का समूचा स्टॉक खराब घोषित कर दिया गया. आलम यह रहा कि उत्तर प्रदेश के साथ पश्चिम बंगाल को 1.44 लाख, बिहार को 1.3 लाख, तमिलनाडु को 85  तथा असम को जो 72 हजार वैक्सीन के डोज मिले थे, उन्हें भी खराब बताते हुए प्रयोग में नहीं लाया गया. यानी वर्ष 2008 पर्याप्त टीके होते हुए भी बिना टीकाकरण के ही निकल गया.
वर्ष 2009 में एक बार फिर से कुछ ऐसा ही हुआ. सूत्रों के मुताबिक बच्चों को टीका लगाने के लिए 16 लाख डोज सितंबर के अंत में तब भेजे गए जब बारिश के खत्म होने के बाद दिमागी बुखार फिर से अपने पूरे चरम पर था. इस बार भी राज्य सरकार को इन टीकों में कुछ खामियां नजर आ गईं और उसने बच्चों का टीकाकरण करने से साफ मना कर दिया.

हालांकि इस साल केंद्र सरकार की नींद थोड़ी जल्दी टूट गई मगर इस बार भी बच्चों को अब तक तो टीके लगाए नहीं जा सके हैं और आगे भी ऐसा नहीं होगा इसे लगभग तय माना जा सकता है. आपराधिक लापरवाही के इस भयावह नमूने पर एक नजर डालते हैंः 21 जनवरी को केंद्र सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग को एक पत्र भेजा गया (केंद्र और राज्य सरकार के बीच के इन सभी पत्र-व्यवहारों की प्रतियां तहलका के पास हैं) जिसमें विशेष अभियान चलाकर बच्चों का जैपनीज इंसेफलाइटिस के लिए टीकाकरण करने की जरूरत बताने के साथ-साथ  प्रदेश सरकार से इसके लिए जरूरी तैयारियां करने का अनुरोध किया गया था. इसके जवाब में 26 फरवरी, 2010 को यानी पूरे एक महीना पांच दिन बाद राज्य सरकार ने केंद्र को जवाब दिया कि वह विशेष टीकाकरण अभियान चलाने की इच्छुक है और इसके लिए उसे टीकों के करीब 20 लाख डोजों की आवश्यकता है. इस पत्र में राज्य सरकार ने केंद्र से यह भी कहा कि वह ‘जेइ’ (जैपनीज एंसेफ्लाइटिस) की वैक्सीन के बारे में जानकारी (जैसे बैच नंबर और एक्सपायरी डेट) भी उसे भेज दें. राज्य सरकार को केंद्र की ओर से 10 मार्च, 2010 को इसका जवाब यह आया कि जो दवाएं भेजी जा रही हैं उनकी एक्सपायरी जुलाई, 2010 या उसके बाद की है. केंद्र ने इस पत्र में राज्य सरकार से उन ताऱीखों का भी विवरण मांगा जब वह टीकाकरण कराना
चाहती है.

इसके बाद बहुमूल्य समय बीतता रहा और एक महीने से ज्यादा समय तक उत्तर प्रदेश सरकार चुप्पी धरे रही. फिर 13 अप्रैल को उसने केंद्र सरकार को लिखा कि चूंकि उसे इस टीकाकरण अभियान के लिए कम-से-कम ‘6-8 सप्ताह’ की जरूरत होगी, इसलिए टीकाकरण मई/ जून से पहले संभव नहीं होगा और यह ताजा स्टॉक के पहुंचने पर निर्भर करेगा. उसी दिन केंद्र ने राज्य सरकार को फैक्स से अवगत कराया कि ’17 लाख वैक्सीन के डोज रिलीज कर दिए गए हैं जो शीघ्र ही उत्तर प्रदेश पहुंच जाएंगे.’ पत्र में राज्य के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग के महानिदेशक से 1 मई से टीकाकरण अभियान शुरू करने का अनुरोध किया गया था और यह भी लिखा था कि इसके लिए ‘जरूरी बजट राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन से निकाला जा सकता है’ जिसका भुगतान राज्य सरकार को कर दिया जाएगा.

किंतु आनन-फानन में 13 अप्रैल को ही राज्य सरकार की ओर से फिर केंद्र को एक फैक्स भेजा गया कि उसे सेेकेंड या थर्ड स्टेज वाली के साथ-साथ वह वैक्सीन भी नहीं चाहिए जिसकी एक्सपायरी जून या जुलाई में हो. पत्र में साफ-साफ कहा गया कि टीकाकरण तभी होगा जब फ्रेश दवाइयां आएंगी. इस पत्र में राज्य के स्वास्थ्य महानिदेशक आरआर भारती ने केंद्र सरकार द्वारा बजट संबंधी आश्वासन मिलने के बाद भी केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय से मुहिम
शुरू होने के कम-से-कम एक महीने पहले ही ताजा टीकों के साथ आवश्यक धन देने की भी मांग कर डाली.

राज्य सरकार के मना करने के बावजूद केंद्र सरकार ने 15.47 लाख डोज गोरखपुर व बस्ती मंडल के लिए भिजवा दे. वैक्सीन आने के बाद भी दोनों सरकारों के बीच खींचतान चलती रही जिसका नतीजा यह हुआ कि इस वर्ष भी बच्चों को समय पर टीका लगने की सारी संभावनाएं खत्म हो गईं. आज हालत यह है कि पूर्वांचल में दिमागी बुखार की शुरुआत हुए करीब एक महीना हो चुका है और इसके चलते सौ से ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है.

उत्तर प्रदेश में जैपनीज इंसेफलाइटिस से संबंधित विभाग के ज्वाइंट डायरेक्टर डॉ. वीएस निगम कहते हैं, ‘केंद्र सरकार की ओर से काफी पत्र व्यवहार के बाद वैक्सीन के 15.47 लाख डोज मई माह के मध्य में भेजे गए, जिनमें से 50 प्रतिशत से अधिक खराब थे. इनका वीवीएम(वैक्सीन वायल मॉनीटर जो वैक्सीन की स्थिति बताता है) सेकेंड या थर्ड स्टेज में था. जो कुछ ठीक भी थीं उनकी एक्सपायरी डेट जून में 7, 14 व 21 तारीख थी. ऐसे में जब तक इन्हें सुदूर गांवों में भेजा जाता, ये भी खराब हो जातीं. पूरी वैक्सीन में सिर्फ 15 हजार वायल (75 हजार डोज) ही ठीक थे, जिनका प्रयोग किया जा रहा है.’ उधर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की टीकाकरण इकाई के उपायुक्त नवनीत कुमार मखीजा का कहना है कि केंद्र द्वारा उत्तर प्रदेश को भेजे गए सारे टीके सही थे और ये उत्तर प्रदेश सरकार की लापरवाही के चलते बच्चों को नहीं लगाए जा सके

भारत सरकार को जेइ पर तकनीकी मदद देने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्था पाथ के डायरेक्टर प्रीतू ढलेरिया भी टीकाकरण न हो पाने के पीछे कहीं न कहीं राज्य सरकार को ही दोषी मानते हैं. उनका तर्क है कि यदि वैक्सीन का तापमान मानक के अनुसार रखा जाए तो एक्सपायरी डेट तक उसके वायरस प्रभावी होते हैं. इतना ही नहीं यदि वायरस की संख्या वायल में 50 प्रतिशत से अधिक है तब भी उसकी खुराक प्रभावी होगी. ऐसे में प्रदेश के अधिकारियों ने आंख से ही देखकर इस बात का अंदाजा कैसे लगा लिया कि वैक्सीन खराब हो गई है. सेकेंड या थर्ड स्टेज में भी वैक्सीन यदि ठीक तापमान में रखी जाए तो प्रयोग की जा सकती है.
अगर दोनों सरकारों के पत्र व्यवहार  पर ध्यान दें तो राज्य सरकार की भूमिका पर और भी सवाल खड़े हो जाते हैंैं. सवाल यह उठता है कि जब इतने सारे बच्चों की जान पर खतरा मंडरा रहा था तब भी उत्तर प्रदेश सरकार केंद्र सरकार के साथ पत्रों का व्यवहार करने में ही अपना कीमती समय क्यों नष्ट करती रही. अगर वह केंद्रीय अधिकारियों के पत्रों का जवाब देने में महीनों न लेती तो कोई कारण नहीं था कि उसके ही मुताबिक जून के आसपास की एक्सपायरी डेट वाली वैक्सीन बच्चों को सही समय पर नहीं लगाई जा सकती. मगर राज्य सरकार कभी लेटरबाजी करके तो कभी धन तो कभी टीकों के सही-खराब होने को आधार बनाकर इतने महत्वपूर्ण मसले पर सरकारी दांवपेंच और मासूमों की जिंदगी से खेलने में ही लगी रही.

सवाल केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की भूमिका पर भी उठाए जा सकते हैं. एक वैक्सीन की एक्सपायरी डेट करीब दो साल की होती है, यदि उसे सही तापमान पर रखा जाए तो. तो फिर क्या वजह रही कि उसने इन वैक्सीनों को बिल्कुल आखिरी समय पर ही बांटने का फैसला किया? गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ कहते हैं, ‘सरकार दिमागी बुखार से मरने वाले बच्चों का जो आंकड़ा पेश करती है वह काफी कम होता है. क्योंकि यह आंकड़ा सिर्फ गोरखपुर मेडिकल कॉलेज का है. जबकि इस बीमारी से पूर्वांचल के सभी जिलों के सरकारी अस्पतालों व निजी अस्पतालों में मरने वाले गरीब बच्चों का कोई आंकड़ा ही नहीं रखा जाता.’
आंकड़ा चाहे 10 हजार का हो या 30 का, गलती चाहे केंद्र की हो या राज्य सरकार की. सच्चाई यह है कि यह एक जानलेवा बीमारी है और उससे बचने का टीका है. टीका हमारे पास है. हम उसे अपने बच्चों को लगाने की बजाय बर्बाद होने दे रहे हैं. बच्चे मर रहे हैं. इसके आगे कुछ भी कहने की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है.    

दाने-दाने की राजनीति

 

अब तो मजहब कोई ऐसा भी चलाया जाए जिसमें इंसान को बस इंसान बनाया जाए

84 वर्षीय गीतकार गोपालदास नीरज ने अभी हाल में लखनऊ में अपने एक सम्मान समारोह में जब यह पक्तियाँ गाईं तो समूचा सभागार तालियों से गूंज उठा. लगभग उसी समय लखनऊ तक मध्य उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों से उठी एक और गूंज भी पहुंच रही थी और वह गूंज थी घृणा की गूंज मनुष्यता से नफरत की गूंज और इंसान को इंसान न मानने की गूंज. कन्नौज, फर्रूखाबाद, औरैया, शाहजहांपुर और रमाबाईनगर (कानपुर देहात) आदि जिलों में दलित रसोइयों के हाथों पका मिड डे मील न खाने को लेकर उठे विवाद की यह गूंज अब कुछ थमती इसलिए दिखाई दे रही है कि राज्य सरकार ने फिलहाल स्कूलों में मिड डे मील पकाने के लिए 24 अप्रैल से लागू रोस्टर प्रणाली समाप्त कर दी है. हम रोस्टर प्रणाली में 25 तक की छात्र संख्या पर एक और इसके बाद बढ़ती छात्र संख्या के आधार पर अधिक से अधिक 7 रसोइयों की नियुक्ति की व्यवस्था की. रोस्टर प्रणाली में पहला स्थान अनुसूचित जाति, दूसरा अनारक्षित, तीसरा अन्य पिछड़ा वर्ग,चौथा अनारक्षित] पाचवां अनुसूचित जाति] छठा सामान्य व सातवां अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित था. इसके आधार पर रसोइयों की नियुक्ति होने पर मध्य उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में एक के बाद एक कई स्कूलों में छात्रों ने दलित रसोइयों के हाथों पका मिड डे मील खाने से इनकार कर दिया. कुछ जगहों पर तो अभिभावक भी विरोध पर उतारू हो गए. कुछ जगहों पर पुलिस को भी हस्तक्षेप करना पड़ा. कई जगहों पर अभिभावकों ने बच्चों को स्कूल भेजना ही बन्द कर दिया.

 

मिड डे मील ने सांझे चूल्हे की भावना को जो चोट पहुंचाई है सरकार ने उसकी गम्भीरता को समझते हुए कुछ फौरी कदम जरूर उठाए हैं. लेकिन यह भी दुर्भाग्य ही है कि मिड डे मील को लेकर जिन मुद्दों पर विवाद उठा उनके खिलाफ हमारे दूसरे राजनीतिक दल भी कहीं खड़े नहीं दिखाई दिए इसे बेहद अफसोसजनक ही कहा जाना चाहिए कि आजादी के इतने साल बाद भी हमारे ग्रामीण समाज में रूढ़ियों की जंजीरें इस कदर जकड़ी हुई हैं कि वह इंसानी बराबरी को अब भी स्वीकार नहीं कर पा रही हैं. अफसोस इस बात पर भी होता है कि यह सब उन जगहों में शिक्षा के उन मन्दिरों में हो रहा है जहां से हम समानता और समरसता का पहला पाठ सीखते हैं . इंसान और इंसान के बीच भेदभाव न करने की सीख पढ़ते हैं. पहली नजर में हम इसके लिए ग्रामीण सामाजिक मानसिकता को दोषी ठहरा सकते हैं लेकिन क्या यह सही होगा, राज्य सरकार इसके पीछे विरोधी दलों का हाथ होने की आशंका जता रही है और कहा जा रहा है कि यह सब राज्य में होने जा रहे पंचायती चुनावों से पहले ग्रामीण समाज को गुमराह करने की साजिश के तहत किया जा रहा है. अगर इस आरोप को सही मान लिया जाए तो क्या यह खुद राज्य सरकार की विफलता की दास्तान नहीं है.

     गौरतलब है कि जिन जिलों में यह आग लगी है वे वही जिले हैं जहां बीएसपी ने सबसे पहले सर्वजन का नारा दिया था. दलित ब्राह्मण एकता की पहली बड़ी रैली बीएसपी के नेता नम्बर दो यानी सतीश मिश्र की ससुराल कन्नौज में ही हुई थी. तो क्या यह मान लिया जाए कि सवा तीन साल सरकार चलाने के बाद आज सर्वसमाज के नारे की हकीकत ऐसी हो गई है कि वह आदमी और आदमी में इतना अधिक फर्क करने लगी है. क्या विधानसभा चुनाव के वक्त का जातीय गठजोड़ महज एक चुनावी तिकड़म था या फिर यह कि जिस भावना और लाभ के लिए यह गठजोड़ हुआ था, समाज के निचले स्तर तक उसका कोई असर हुआ ही नहीं. क्या यह मान लिया जाए कि इस बेमेल गठजोड़ की यह एक स्वाभाविक पराकाष्ठा है. दरसल यह इतना जटिल मामला है कि इसे किसी एक कारण से जोड़कर देखा ही नही जा सकता. लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि यह मामला जितना सामाजिक है उससे कहीं अधिक सियासी है और यह भी सच है कि विधानसभा चुनावों से पहले राज्य की जनता को अभी ऐसे कई और चक्रव्यूहों से गुजरना पड़ेगा. अभी ऐसे कई और जातीय और धार्मिक मुद्दे उठेंगे जो जनता के बीच दरार पैदा करने की हर सम्भव कोशिश करेंगे. जनता को अभी और बहुत कुछ झेलने को तैयार रहना चाहिए.

मिड डे मील यानी स्कूलों में दोपहर का खाना, इस विचार को सबसे पहले तमिलनाडु में के. कामराज ने 1960 मsa अपनाया था. राष्ट्रीय स्तर पर इसे 15 अगस्त 1995 से शुरू किया गया था. लेकिन कई वर्षो तक काम चलाऊ ढंग से चलते रहने के बाद 28 नवम्बर 2001 को एक जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश ने इसमें फिर से जान फूंक दी. सुप्रीम कोर्ट ने सभी सरकारी प्राइमरी स्कूलों में पढ़ने वालों को साल में कम से कम 200 दिन दोपहर का खाना देने का निर्देश दिया था. उत्तर प्रदेश में यह योजना सितम्बर 2004 से सुचारू रूप से क्रियान्वित हुई. शुरू में इसमें छात्रों को प्रतिमाह 3 किलों गेंहू या चावल बांटा जाता था लेकिन इसमें धांधली की शिकायतों के बाद पका पकाया भोजन दिया जाने लगा. वर्तमान में यह योजना उत्तर प्रदेश के 10,5500 प्राइमरी स्कूलों और 45299 जूनियर हाईस्कूलों में चल रही है. इसके तहत बच्चों को सप्ताह के 6 दिन अलग-अलग प्रकार का भोजन दिया जाता है. जिसमें प्राइमरी के बच्चों को कम से कम 100 ग्राम तथा जूनियर हाईस्कूल के बच्चों के 150 ग्राम अनाज से बना भोजन दिया जाता हैं। मसाला, तेल, सब्जी आदि के लिए सरकार की ओर से प्राइमरी स्कूलों के लिए 2.69 रूपए और जूनियर हाईस्कूलों के लिए 4.03 रूपए प्रति छात्र प्रतिदिन दिए जाते हैं. इस भोजन की व्यवस्था को चलाने के लिए ग्राम प्रधानों का भी सहयोग लिया जाता है.

उत्तर प्रदेश की ताजा घटनाएं बताती हैं कि इस योजना से बच्चों के पेट में जितना अनाज भर रहा है दिमागों में उतनी ही नफरत भी भर रही है.छूआछूत का जो सवाल सामान्य सार्वजनिक जीवन में धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा था. उसको इस विवाद ने फिर नया उभार दे दिया है.

 इस योजना को जिन उद्देश्यों से शुरू किया गया था उसमें सबसे पहला तो यही था कि बच्चों को स्कूली शिक्षा की ओर अधिक से अधिक आकृष्ट किया जा सके और बच्चे स्कूल में पूरे समय तक रूके रहें. दूसरा कारण यह था कि इसके जरिए निर्धन भारत के भूखे बच्चों का कम से कम एक वक्त का पेट भरा जा सके. इसका तीसरा मकसद यह था कि ग्रामीण स्तर पर विभिन्न जाति-धर्मो के बच्चे एक साथ बैठकर भोजन करें ताकि उनमें आपसी समझ और भाईचारा बढ़ सके. लेकिन उत्तर प्रदेश की ताजा घटनाएं बताती हैं कि इस योजना से बच्चों के पेट में जितना अनाज भर रहा है दिमागों में उतनी ही नफरत भी भर रही है.छूआछूत का जो सवाल सामान्य सार्वजनिक जीवन में धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा था. उसको इस विवाद ने फिर नया उभार दे दिया है. यह विडम्बना ही है कि यह सब उस सरकार के राज में हो रहा है जो सर्वजन के एजेंडे पर चुनाव जीती थी और जो यह बताते नहीं अघा रही थी कि सर्वसमाज के नारे से किस तरह गरीबों की दुनिया बदली जा सकती है . तो क्या इसका अर्थ यह न निकाला जाए कि बीएसपी ने विधानसभा की सीटें भले ही इस नारे के बूते जीत ली हों, लोगों के दिल वो नहीं जीत पायी है. सरकार की नीतियां और कार्यप्रणाली ऐसी नहीं रही हैं कि वह सर्वसमाज की सरकार होने का कोई ईमानदार दावा कर सके . क्या यह न माना जाए कि लोगों के मन में भरी नफरत को खत्म करने या कम करने की दिशा में कुछ कर पाने के बजाय इस सरकार के कामों से लोगों के दिलों में नफरत और ज्यादा बढ़ गई है.

मिड डे मील ने सांझे चूल्हे की भावना को जो चोट पहुंचाई है सरकार ने उसकी गम्भीरता को समझते हुए कुछ फौरी कदम जरूर उठाए हैं. लेकिन यह भी दुर्भाग्य ही है कि मिड डे मील को लेकर जिन मुद्दों पर विवाद उठा उनके खिलाफ हमारे दूसरे राजनीतिक दल भी कहीं खड़े नहीं दिखाई दिए. जातीय नफरत के सवाल उठाने वालों के खिलाफ किसी भी राजनेता की जुबान तक नही खुल पायी. जबकि मिड डे मील एक ऐसा मामला है कि जिस पर सवाल उठाने के लिए राजनीतिक दलों के पास मुद्दों की कमी नहीं. यह भी दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि दलित रसोइये के सवाल पर तो विवाद और विरोध मुखर हुआ लेकिन मिड डे मील में छिपकली मिलने, मिड डे मील में कीड़े पडे़ होने और अनाज का स्तर बेहद घटिया होने जैसे सवालों पर किसी कौम को गुस्सा नहीं आया. हमारे ग्रामीण स्कूलों की जो हालत है उनमें जब पीने को पानी तक नहीं मिल पाता तो वहां खाना पकाने में कितनी साफ-सफाई रहती होगी इसे सहज ही समझा जा सकता है. लेकिन इस सवाल पर किसी अभिभावक को गुस्सा नहीं आता, कोई इस सवाल को नहीं उठाता. किसी भी स्कूल के छात्र गंदगी मे पकाए जा रहे भोजन के खिलाफ विरोध पर उतरे हों, ऐसी कोई खबर भी कहीं से सुनाई नही देती.

इण्डिया और भारत के बीच की गहरी खाई में दो रोटियों के लिए स्कूल पहुंचने वाले बच्चों को पकाने वाले की जाति पर गुस्सा आ जाए यह बात अपने आप में चौंकाने वाली है. क्या प्रेमचन्द की गुल्लीडंडा कहानी का ग्रामीण समाज आज इतना बदल गया है, इतना असहिष्णु हो गया है या फिर यह मायावती के राजकाज की स्वाभाविक प्रतिक्रिया हैं. दरअसल इस योजना को बनाने वालों की तमाम सदेच्छाओं के बावजूद यह योजना भी देश में चल रही है दूसरी कल्याणकारी योजनाओं की तरह ही भ्रष्टाचार का शिकार हो गई है. जिस एफसीआई की कृपा से देश में ग्यारह हजार सात सौ टन से ज्यादा अनाज सड़ गया है, वही एफ सी आई इस योजना के लिए भी राशन सप्लाई करती है. इसी से यह समझा जा सकता है कि मिड डे मील में बच्चों को किस तरह का अनाज खिलाया जा रहा होगा.मिड डे मील योजना करोड़ों रूपये की योजना है और भ्रष्टाचार के लिए नए-नए तरीके ढूंढ़ने में माहिर हमारी व्यवस्था के नुमाइन्दा ने इसमें भी इतनी तरह से छेद कर डाले हैं कि असल योजना ही उसमें कहीं गुम हो गई है. लेकिन इन सवालों को भी कोई नहीं उठाता .

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से महज कुछ किलोमीटर दूर बसे गांवों में आज भी लोग दाने-दाने को मोहताज हैं. गांवो में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत बंटने वाला अनाज या तो पहुंचता ही नहीं या पहुंचता भी है तो समर्थ लोगों में ही बंट जाता है. उत्तर प्रदेश में हजारों करोड़ का खाद्यान्न घोटाला कई वर्ष पहले पकड़ा गया था. इसकी सीबीआई जांच हुई थी. मामला अब भी चल रहा है. इसमें एफ सी आई के कर्मचारी-अधिकारी राज्य की सार्वजनिक वितरण व्यवस्था से जुड़े कर्मचारी-अधिकारी, विभिन्न दलों के नेता और ग्रामीण स्तर के दलाल आदि शामिल थे. गरीबों के हिस्से के करोड़ों रूपए के अनाज को बांग्लादेश, नेपाल और अन्य बाजारों में बेच दिया गया था और ऐसा कमोबेश राज्य के आधे से ज्यादा जिलों में हुआ था.लेकिन इस अंधेर के खिलाफ भी कहीं आवाज नहीं उठी और यह मामला भी धीरे-धीरे ठण्डे बस्ते की ओर जाता जा रहा है और गरीबों के नाम पर आने वाले अनाज का घोटाला आज भी बदस्तूर जारी है.

     इस बार तो हजारों टन अनाज सरकारी मशीनरी की लापरवाही के चलते सड़ ही गया है. बाजार में बीस रूपए किलो से ज्यादा मंहगा बिकने वाला गेहूं गोदामों में रख रखाव के बिना सड़ गया, बर्बाद हो गया और देश का कृषि विभाग चलाने वाले शरद पवार बेशर्मी से कहते हैं कि हमारे पास गोदामों की कमी है इसलिए गेहूं सड़ गया. शायद पवार यह नहीं मालूम कि उनके पास भूखे पेटों की भी कोई कमी नहीं है. इस गेंहू से उन पेटों को कुछ निवाले मिल जाते तो उसका सड़ने से कई गुना बेहतर इस्तेमाल हो जाता. लेकिन देश की सरकार चलाने वालों को न तो भूख का मतलब पता है और न ही उनके लिए रोटी के कोई मायने ही हैं. फ्रांस में लुई सोलहवें के जमाने में जब भूखी जनता ने पेरिस राजमहल पर धावा बोलकर रोटी का सवाल उठाया था तो रानी मैरी एन्त्वाएनेत ने कहा था ये लोग ब्रेड क्यों नहीं खाते. कुछ ऐसा ही हाल लोकतंत्र के नाम पर भेड़  की खाल ओढ़ कर   हम पर राज कर रहें भेड़ियों का भी है. किसी को इस बात पर जरा भी अफसोस नहीं कि अनाज के एक-एक दाने की कीमत क्या होती है. क्या करोड़ों लोगों का पेट भरने लायक अनाज को इस तरह बर्बाद कर देना जायज है. क्या यह मानवता के खिलाफ एक बड़ा अपराध नही हैं. क्या जाति के नाम पर निवाला ठुकरा देने वालों और गैर जिम्मेदाराना रूख के कारण लाखों लोगों का निवाला बर्बाद कर देने वालों के अपराध एक दूसरे से कमतर हैं. और क्या गरीब के लिए अनाज की भी कोई जाति होती है. इसका जवाब मायावती को भी देना चाहिए और शरद पवार की संरक्षक सोनिया गांधी को भी. लोकतंत्र में सवाल पूछने का सबसे बड़ा हक जनता को है और यह सवाल उसी जनता के हैं .यह सवाल उन सभी भूखें पेटों के हैं जो आज भी दाने-दाने को  तरस रहे हैं.

गोविन्द पंत राजू  

क्या शाह पर लगे आरोपों से मोदी अछूते रह सकते हैं?

भारतीय राजनीति में गुजरात के जूनियर गृहमंत्री अमित शाह की गिरफ्तारी का अपना ही महत्व है. केवल इसलिए नहीं कि आजाद भारत के इतिहास में शायद वे पहले ऐसे मंत्री होंगे जिसे हत्या, वसूली, सबूतों को नष्ट करने और साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है. बल्कि इसलिए भी कि वे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे खासुलखास लोगों में से हैं – उनके पास गुजरात सरकार के 10 मंत्रालयों की जिम्मेदारी है और जिस गृहमंत्रालय के वे राज्यमंत्री हैं उसके मुखिया खुद मोदी हैं. इसलिए बतौर गृहमंत्री उनपर जो इलजाम आज लग रहे हैं उनका ज़रा भी कीचड़ मोदी पर न पड़े ऐसा होना
असंभव ही है.

इस मामले से जुड़े तमाम आदेश सीधे गृह मंत्रालय से आए थे इसलिए इनके प्रति मोदी की जवाबदेही से कैसे इनकार किया जा सकता है? भाजपा सीबीआई को कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेशन और कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इंटिमिडेशन कह कर अमित शाह की गिरफ्तारी का जबर्दस्त विरोध कर रही है. जिस तरह की भूमिका क्वात्रोकी, मायावती और मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद आदि के मामले में सीबीआई की रही है उसे देखते हुए यह बात बिल्कुल गलत भी नहीं लगती. लेकिन सच यही है कि शाह की तमाम अपराधों में संलिप्तता के सबूतों वाला पलड़ा उनके निर्दोष होने की दलीलों वाले पलड़े से कहीं ज्यादा भारी है.
‘इसमें कोई शक नहीं कि शाह की गिरफ्तारी एक बड़ी चुनौती है लेकिन हम इससे कानूनी तौर पर निपटेंगे. आप इसे सबूत कैसे ठहरा सकते हैं’ एक वरिष्ठ भाजपा नेता कहते हैं, ‘स्टिंग ऑपरेशनों की भी अदालत में कोई अहमियत होती है?’

इन सवालों का जवाब देने के लिए संक्षेप में अब तक की कहानी जान लेते हैः 26 नवंबर, 2005 को वसूली करने वाले सोहराबुद्दीन को गुजरात पुलिस द्वारा मार गिराया गया. सोहराबुद्दीन की पत्नी कौसर बी के साथ बलात्कार किया गया और उसे बेहोशी की हालत में कुछ दिन रखने के बाद आग के हवाले कर दिया गया. सोहराबुद्दीन को लश्कर-ए-तैयबा का आतंकवादी बताया गया जो मोदी की हत्या के मिशन पर था और ‘एनकाउंटर’ को एक बहुत बड़ी उपलब्धि के बतौर पेश किया गया. इसके एक साल बाद 2006 के दिसंबर महीने में इसके एकमात्र चश्मदीद गवाह और सोहराबुद्दीन के साथी तुलसी प्रजापति को भी मार दिया गया.

एक और ऐसे ही पुलिस अधिकारी सीआईडी के महानिदेशक रजनीश राय हैं जिन्होंने हत्या के आरोपित पुलिस अधिकारी डीजी वंजारा, राजकुमार पांड्यान और दिनेश एमएन को गिरफ्तार किया था. जब उन्होंने इन आरोपितों का नार्को एनालिसिस करने की कोशिश की तो उन्हें किनारे कर दिया गया. वे अभी अध्ययन अवकाश पर हैं इसके बाद इन कुकृत्यों को ढकने का दौर शुरू हुआ. मामले को गृहमंत्रालय यानी शाह और मोदी के सीधे नियंत्रण में काम करने वाली सीआईडी को सौंप दिया गया. सीआईडी की जांच से निराश होकर सोहराबुद्दीन के भाई रुबाबुद्दीन ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की जिसने जनवरी, 2010 में ‘बड़ी साजिश की संभावना’ का पर्दाफाश करने के निर्देश के साथ मामले को सीबीआई के सुपुर्द कर दिया.

और उसके बाद से ही मामले में हर रोज़ कुछ नया आना शुरू हो गया. 29 अप्रैल को सीबीआई ने गुजरात की अपराध शाखा के उपायुक्त अजय चूडास्मा को गिरफ्तार कर लिया जिसके खिलाफ अवैध धनवसूली और प्रताड़ित करने के 197 मामले दर्ज हैं. चूडास्मा की गिरफ्तारी से सन्नाटे में आई सीआईडी ने आनन-फानन में कई अन्य पुलिस अधिकारियों को गिरफ्तार कर लिया जिससे सीबीआई उन्हें गिरफ्तार न कर सके. लेकिन इससे सच्चाई को सामने आने से रोका नहीं जा सका.

अब हम जानने की कोशिश करते हैं कि शाह और मोदी के खिलाफ किस तरह के सबूत हैं. सबसे पहले तो कई ऐसे पुलिस अधिकारी ही हैं जो या तो इस मामले में अपनी ईमानदारी के लिए परेशान किए जाते रहे हैं या फिर जो अपराध में शामिल होने के बाद अब बचने का कोई रास्ता न देख सरकारी गवाह बनने की फिराक में हैं. पुलिस महानिरीक्षक गीता जौहरी इन्हीं में से एक हैं. दो बार इस केस को अपने हाथों में लेने वाली जौहरी इस बात का उदाहरण हैं कि सही तरह से काम करने वालों को किस-किस तरह की जटिलताओं से दो-चार होना पड़ सकता है. जौहरी को मजबूर होकर शाह के कॉल रिकॉर्डों के साथ छेड़छाड़ करने में पूर्व सीआईडी प्रमुख ओपी माथुर का साथ देना पड़ा. उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय को एक गुप्त पत्र लिखकर ‘राजनीतिक दबाव’ की शिकायत भी की थी. बाद में जौहरी को ‘जांच को निष्पक्ष तरीके न करने के लिए’ उच्चतम न्यायालय की फटकार भी सुननी पड़ी. अब सीबीआई उन्हे अपना गवाह बनाने की तैयारी कर रही है. इसमें कोई शक ही नहीं कि जौहरी के पास बताने के लिए बहुत-कुछ है. उदाहरण के लिए जब वे और अपने साथी अधिकारी वीएल सोलंकी के साथ सीआईडी के उपमहानिदेशक जीसी रैगर के पास दिसंबर 2006 में प्रजापति से पूछताछ की अनुमति मांगने गईं तो उन्हें तब तक टाला जाता
रहा जब तक कुछ दिनों बाद प्रजापति की हत्या नहीं हो गई.

एक और ऐसे ही पुलिस अधिकारी सीआईडी के महानिदेशक रजनीश राय हैं जिन्होंने हत्या के आरोपित पुलिस अधिकारी डीजी वंजारा, राजकुमार पांड्यान और दिनेश एमएन को गिरफ्तार किया था. जब उन्होंने इन आरोपितों का नार्को एनालिसिस करने की कोशिश की तो उन्हें किनारे कर दिया गया. वे अभी अध्ययन अवकाश पर हैं.

सीबीआई के पास एक सीआईडी नोट है जो अधिकारियों के रास्ते में डाली गई गैरज़रूरी अड़चनों के बारे में बताने के साथ-साथ यह भी बताता है कि कैसे जांच की प्रगति के बारे में आरोपितों को बता दिया जाता था जिससे उन्हें गवाहों को प्रभावित करने का मौका मिल जाए. नोट में यह भी लिखा है कि कैसे राय द्वारा की गई गिरफ्तारियों से प्रदेश का राजनीतिक नेतृत्व नाराज था जिसकी वजह से सरकार ने 27 मार्च, 2007 को एक आदेश के जरिए रैगर को इस मामले का प्रभारी बना दिया. इस नोट में सीबीआई से इस बात पर ध्यान देने के लिए भी कहा गया है कि जौहरी के आईएफएस पति अनिल जौहरी के खिलाफ भ्रष्टाचार जैसे संगीन मामले में चल रही विभागीय जांच को अक्टूबर में हल्का क्यों कर दिया गया. शायद यही वह वजह रही कि बहुत ही जोश के साथ अपना काम शुरू करने वाली गीता जौहरी को बाद में अपनी जांच को लेकर न्यायालय तक की फटकार सुननी पड़ी.

महत्वपूर्ण बात यह है कि रैगर अब खुद ही अभियोजन पक्ष के गवाह बनने जा रहे हैं. अब वे खुद भी सीबीआई को अपनी और गीता जौहरी की शाह से उस मुलाकात के बारे में बताएंगे (तहलका ने जनवरी में सबसे पहले इससे संबंधित खबर छापी थी) जिसमें शाह ने उनसे जांच पर असर डालने वाली बातें कही थीं.

इसके अलावा और भी कई सबूत हैं जो मामले में राजनीतिक हस्तक्षेप के आरोपों को पुख्ता कर देते हैं. मसलनः

1. राय के लिखित तौर पर यह कहने के बाद कि उन्हें वंजारा और पांड्यान के साथ काम करने वाला कोई भी अधिकारी अपनी मदद के लिए नहीं चाहिए, एनके अमीन को क्यों उनके साथ काम करने के लिए लाया गया.

2. वंजारा को प्रजापति के एनकाउंटर से ठीक पहले डीआईजी बॉर्डर रेंज (इसी इलाके में प्रजापति का एनकाउंटर हुआ था) बना कर क्यों भेज दिया गया?

3. पूर्व सीआईडी प्रमुख ओपी माथुर – जिन्हें सीबीआई गिरफ्तार करने वाली है – को अहमदाबाद का पुलिस आयुक्त क्यों बनाया गया? क्यों उनके खिलाफ चल रही विभागीय जांच को सितंबर में खत्म कर उन्हें फरवरी, 2009 में प्रोन्नति दे दी गई?
जिस क्षण सीबीआई प्रजापति की हत्या के मामले को अपने हाथ में लेती है, वह उन परिस्थितियों पर भी ध्यान देगी जिनकी वजह से उसका एनकाउंटर हुआ और जांच को प्रभावित करने के लिए किस-किस तरीके के प्रयास किए गए. चूंकि इस मामले से जुड़े तमाम आदेश सीधे गृहमंत्रालय से आए थे इसलिए इनके प्रति मोदी की भी जवाबदेही है, इस बात से कैसे इनकार किया जा सकता है? पुलिसवालों की गवाही और और उनसे जुड़ी अन्य बातें तो शाह को फंसाने और राष्ट्रीय स्तर पर मोदी की इज्जत में जबर्दस्त बट्टा लगा सकने लायक चीजों की सिर्फ एक कड़ी है.

4. तहलका (राष्ट्रीय संस्करण) ने हाल ही में शाह और सोहराबुद्दीन तथा प्रजापति की हत्या के मामलों में फंसे पुलिस अधिकारियों के बीच प्रजापति की हत्या के समय के आसपास हुई बातचीत के कॉल रिकॉर्ड और उनका आकलन छापा था. ये कॉलें एक दूसरे केस में पुलिस द्वारा मॉनिटर की जा रही थीं. इस मामले की केस डायरी में साफ-साफ लिखा था कि ये कॉलें जितनी बार की गई थीं वह बड़ा अजीब था और ‘ऑफिशियल डेकोरम’ के मुताबिक भी नहीं था. मगर इस मामले को 2009 में अचानक ही बंद कर दिया गया. मोदी ने इन जानकारियों पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं की?

5. अब भाजपा का कहना है कि कॉल रिकॉर्ड ये नहीं दिखाते कि शाह ने प्रजापति के एनकाउंटर वाले दिन (28 दिसंबर, 2006) और उससे एक दिन आगे-पीछे आरोपित पुलिस अधिकारियों से बात की थी. इसका जवाब है कॉल रिकॉर्ड के साथ ओपी माथुर द्वारा की गई छेड़छाड़. सीबीआई के पास इन रिकॉर्डों की मूल कॉपी है जिसमें ऐसी कई कॉलें हैं.

6. तहलका के पास शाह और गुजरात पुलिस के डीएसपी एनके अमीन के बीच के बहुत ही चौंकाने वाले कॉल रिकॉर्ड भी मौजूद है. सोहराबुद्दीन का ‘एनकाउंटर’ 26 नवंबर, 2005 को हुआ था और अमीन ही वह पुलिस अधिकारी है जिसने कौसर बी को बेहोशी की दवाएं दी थीं. ये कॉल रिकॉर्ड दिखाते हैं कि शाह और अमीन सोहराबुद्दीन की हत्या के आसपास लगातार एक-दूसरे के संपर्क में थे. बड़ी अजीब-सी बात है. राज्य का गृहमंत्री एक अदना-से पुलिस अधिकारी से ऐसी और इतनी क्या बातें कर सकता है? अमीन अब सरकारी गवाह बनने वाला है और यह बात शाह और मोदी दोनों के लिए बेहद परेशानी वाली है. अमीन का हिरासत में ही मौतों का एक अलग ही इतिहास है और वह इशरत जहां के एनकाउंटर में भी शामिल था. सीबीआई को अब पता लगा है कि एनकाउंटर से पहले इशरत को उसी फार्म हाउस में रखा गया था जिसमें कौसर बी के साथ बलात्कार और उसे जलाया गया था. इस फार्म हाउस के मालिक को भी गिरफ्तार कर लिया गया है.

7. गिरफ्तार पुलिस अधिकारियों में से एक बालकृष्ण चौबे है जिसने कथित तौर पर कौसर बी के साथ बलात्कार किया था और वंजारा ने उसे आग के हवाले किया था. मगर ऐसा करने के आदेश किसने दिए? अब अमीन के पास एक सहअभियुक्त एनवी चौहान का स्टिंग ऑपरेशन भी है जिसमें वह कह रहा है कि कौसर बी जब उनके कब्जे में थी तो वंजारा के पास बार-बार शाह के फोन आ रहे थे और शाह ने ही उसे मारने के आदेश दिए थे. कानून के जानकारों के मुताबिक भारतीय साक्ष्य कानून में बदलाव के बाद धारा 29(ए) के तहत यह सबूत के रूप में मान्य हो सकता है, विशेषकर तब जब इसकी सत्यता साबित करने वाली मजिस्ट्रेट के सामने दी गई और भी गवाहियां हों.

8.  हालांकि गुजरात के दंगे मोदी के ऊपर एक कभी न मिटने वाला दाग लगा चुके हैं, जैसाकि हाल ही में नीतीश कुमार के साथ उनकी उठापटक में देखने को मिला था, लेकिन बाकी मामलों में अब तक उनपर कभी कोई उंगली नहीं उठी थी. मगर अब ऐसा नहीं है. अब हिंदुत्व के बड़े-बड़े दावे करने वाला उनका एक सबसे करीबी अपने रसूख का फायदा उठाकर तमाम पुलिसवालों और सोहराबुद्दीन और प्रजापति जैसे लोगों से धनवसूली करवा रहा था. जैसा कि अब सबको ही पता है, सोहराबुद्दीन को राजस्थान की नाराज़ मार्बल लॉबी के कहने पर, जिनसे वह अतिरिक्त पैसे की मांग कर रहा था, मार दिया गया.

9.  इसके अलावा मामले को उलझाने वाली गुजरात के दो बिल्डर भाइयों रमन और दशरथ पटेल की शिकायतें भी हैं. इनके ऑफिस पर कथित तौर पर प्रजापति और उसके एक साथी ने सोहराबुद्दीन को फंसाने के लिए गोलियां चलाई थीं. इन लोगों का आरोप है कि शाह ने अजय पटेल, जो अहमदाबाद जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष हैं, के जरिए उनसे 70 लाख रुपए मांगे थे. इन लोगों ने अजय पटेल के ऊपर एक स्टिंग भी किया है जिसमें शाह को फंसाने वाली बातचीत है. मगर यह कितने काम आ सकेगी यह कहना मुश्किल है.

मोदी को जानने वाला हर व्यक्ति यह जानता है कि गुजरात उनकी महत्वाकांक्षाओं के लिए अब कितना छोटा पड़ने लगा है, कि अब उन्हें एक नए ज्यादा बड़े आसमान की जरूरत है. मगर जैसे-जैसे गुजरात की नई-नई कहानियां सामने आ रही हैं, यह आसमान उनकी पहुंच से दूर होता जा रहा है. एक वरिष्ठ भाजपा नेता के मुताबिक पार्टी शाह और अगर थोड़ा खुलकर कहा जाए तो मोदी का इस मामले में एक हद तक साथ देने को तैयार है. मगर मोदी की महत्वाकांक्षाओं की तस्वीर अब थोड़ी और धुंधली पड़ गई है.

हाल ही में उनकी विश्वस्त मंत्रिमंडलीय सहयोगी माया कोडनानी को गिरफ्तार कर लिया गया और वे कुछ नहीं कर सके और अब शाह और इससे पहले कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारी. मोदी की मुसीबत यह है कि वे अगर इससे थोड़ा भी मज़बूती से निपटने के प्रयास करते हैं तो उनके अछूतपन में कुछ और वृद््धि के साथ बड़ा वाला आसमान उनसे और भी दूर होता चला जाएगा

 

राना अय्यूब  

चुनौती से ज्यादा उपेक्षा के मारे

बारिश लगातार हो रही है. कभी हल्की तो कभी तेज बौछार के साथ. संभल-संभलकर चलते हुए  हमें तीन घंटे हो गए हैं. यहां-वहां देखते हुए, दुश्मन की तलाश करते हुए. दुनिया के सबसे बड़े अर्धसैनिक बलों में से एक सीआरपीएफ में लंबे समय से काम कर रहे रमेश कुमार सिंह (बदला हुआ नाम) ने तीन घंटों से कुछ नहीं कहा है. मैं कई बार उनसे बात करने की कोशिश कर चुका हूं और थक-हारकर अब उनके पीछे चल रहा हूं.

‘ कई बार मजबूरी में हमें ऐसे तालाब का पानी भी पीना पड़ता है जिसका इस्तेमाल जानवर भी करते हैं. आधे वक्त तो जवान उल्टियां ही करते रहते हैं.’

हम छत्तीसगढ़ में हैं, माओवादियों के इलाके में जहां उग्र माओवादी दस्ते कई सीआरपीएफ जवानों की हत्या कर चुके हैं. रमेश की टुकड़ी में 16 लोग हैं. कीचड़ से लथपथ रास्ते पर हम 15 किमी चल चुके हैं और तेज होती बारिश में ओट लेने के लिए अब एक पेड़ की ओर बढ़ रहे हैं. अचानक रमेश मुझसे कहते हैं, ’आप खुद इस इलाके को देखिए. अचानक एक आदिवासी हमारी तरफ आता है और हम नहीं जानते कि वह नक्सली है. अगर हम गोली चलाते हैं और एक निर्दोष मारा जाता है तो जान को आफत है और अगर हम गोली नहीं चलाते और उस आदमी को जाने देते हैं तो हो सकता है कि वह एक बड़ा नक्सली नेता हो जो कुछ देर बाद ही हमारी मौत की योजना बना डाले. तब भी हमारे लिए मुसीबत है. हमें मौत का डर नहीं लेकिन उस व्यवहार का दुख है जो हमारी मौत के बाद होता है. एक नक्सली की मौत पर खबरें बनती हैं और लोग चाहते हैं कि एक भी नक्सली न मारा जाए. लेकिन हमारा क्या? हम तो 25-50 पैसे के सिक्के हैं जिनकी कोई अहमियत नहीं. हमारी कोई गिनती नहीं है, कम से कम दिल्ली में तो नहीं.’

ये वे पहले शब्द हैं जिनसे मुझे पहली झलक मिलती है कि सीआरपीएफ के भीतर क्या चल रहा है. रमेश बताते हैं कि वे कश्मीर में भी रह चुके हैं जो सेवाओं के लिए एक मानक की तरह है. उनकी एक पत्नी है, एक बेटा शुभ और डेढ़ साल की बेटी जानकी है. बेटी का जिक्र करते ही उनके चेहरे पर मुसकान आ जाती है. कई साल पहले उन्होंने सीआरपीएफ के लिए इसलिए अप्लाई किया था कि उनका सबसे अच्छा दोस्त सेना में चला गया था. वे भी देश की सेवा करना चाहते थे.
रमेश कहते हैं, ’कश्मीर में हालात काफी विस्फोटक थे, लेकिन हम जानते थे कि हम किससे लड़ रहे हैं और सबसे बड़ी बात यह थी कि हम जानते थे कि नई दिल्ली हमारे साथ है. यहां छत्तीसगढ़ में इससे अलग हालात हैं. हमें यहां पटक दिया गया है. हमारे साथ इस तरह का व्यवहार हो रहा है मानो हम नक्सलियों के साथ कोई निजी लड़ाई लड़ रहे हों.’
अनुमानों के मुताबिक घाटी में एक हजार चरमपंथी हो सकते हैं. माओवादियों के असर वाले इलाकों में उनकी संख्या इससे कई गुना अधिक है. कश्मीर में सीआरपीएफ की 70 यूनिटें कानून व्यवस्था की बहाली के लिए तैनात हैं और छत्तीसगढ़ में 18. इसका मतलब यह है कि छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ के 18,000 जवान माओवादियों से लड़ रहे हैं जबकि कश्मीर में शांति बरकरार रखने के लिए 70,000 जवान तैनात हैं.

जवान जानते हैं कि उनके नियंत्रण से इतर कई चीजें हैं जिन्हें आधिकारिक रूप से स्वीकार नहीं किया जाता. जैसे स्थानीय प्रशासन और नक्सलियों में सांठगांठ

रमेश को लगभग हमेशा ही पैदल चलना होता है. यहां पैदल चलना जोखिम भरा हो सकता है. लेकिन वाहनों का इस्तेमाल तो जानलेवा है. माओवादियों ने सीआरपीएफ के कई वाहन उड़ाए हैं. बार-बार कही जा रही कहानियों में माओवादियों की कामयाबियों और असर का मिथक बड़ा होता जाता है जबकि सीआरपीएफ के पास सुनाने के लिए कामयाबी की बहुत थोड़ी-सी कहानियां हैं. नाम नहीं बताने की शर्त पर एक अधिकारी कहते हैं, ’माओवादी अपनी लड़ाई अधूरी नहीं छोड़ते. एक बार जब लड़ाई शुरू हो जाती है तो वे कभी पीछे नहीं हटते.’

अब हम एक कैंप में लौट आए हैं क्योंकि बारिश बहुत तेज हो गई है जिससे लंबी गश्त नहीं हो सकती.  अंधेरा हो गया है. कैंप की कंटीले तारों से घेरेबंदी की गई है. प्रवेश द्वार पर एक चेक पोस्ट है, जहां चार कमांडो तैनात हैं. उनके हाथ में असॉल्ट राइफलें हैं और उंगलियां ट्रिगर पर हैं. 32 साल का एक जवान बताता है, ’ यहां बस्तर के जंगलों में हम लाचार महसूस कर रहे हैं.’

सीआरपीएफ के पास तीन लाख जवान हैं लेकिन इस जवान के आगे के शब्द सुनकर यह बड़ी संख्या उतना बड़ा भरोसा नहीं जगाती. वह कहता है, ’आप बताइए कि मुझे किस चीज पर ध्यान लगाना चाहिए. मैं तिरंगे के लिए लडूं़ या या खाने और पानी के लिए. मैं नहीं जानता कि कब मुझे गोली लग जाएगी. मैं जानता हूं कि फोर्स से मेरी रोजी-रोटी चलती है और मुझे ऐसी बात नहीं करनी चाहिए, लेकिन मुझे बताइए कि मैं अपनी बीवी को क्या बताऊं जो दंतेवाड़ा हत्याकांड के बाद पागल-सी हो गई है. जब भी उसे पता लगता है कि मैं गश्त या एरिया डोमिनेशन पर जा रहा हूं तो वह बेकाबू हो जाती है.’

वह आगे कहता है, ’62वीं यूनिट के 76 लोग मर गए और हमने बस यह सुना कि हम कितने अक्षम हैं, कि कैसे हमें ठीक से प्रशिक्षण नहीं दिया गया, कि कैसे हम रास्ता खुलवाने के लिए ड्रिलों जैसी चीजों के बारे में नहीं जानते, और कैसे हमने नियमों का उल्लंघन किया. क्या दिल्ली में बैठे ऊंचे अधिकारी जानते हैं कि वे क्या कह रहे हैं? क्या उन्हें पता भी है कि जमीन पर क्या हो रहा है? देश हमारे साथ नहीं है.’

अब उसकी आवाज ऊंची हो गई है. वह बताता है कि बल के पास इतनी यूनिटें नहीं हैं कि एक बार रास्ता खुलवाने के बाद वे उस हिस्से को सुरक्षित रख सकें. जवानों ने बीएसएफ के पूर्व महानिदेशक ईएन राममोहन द्वारा ’नेतृत्व की नाकामी’ और ’सीआरपीएफ और राज्य पुलिस के बीच तालमेल के अभाव’ के कारण हुई दंतेवाड़ा घटना पर सौंपी गई रिपोर्ट के बारे में सुना है. वे कहते हैं, ’हम यहां प्रशासन की मदद करने के लिए आए हैं, लेकिन हमारे साथ सहयोग नहीं होता.’
राकेश चौबे (बदला हुआ नाम) को सीआरपीएफ में छह साल हो गए हैं. इसके पहले वे पूर्वोत्तर में तैनात थे. राकेश 14 साल के ही थे जब उनके पिता चल बसे. तब से उनके ऊपर अपनी मां और दो छोटे भाइयों का जिम्मा  है. वे कहते हैं कि उनपर अगर अपने परिवार की जिम्मेदारी नहीं होती तो वे एक साल पहले ही नौकरी छोड़ चुके होते. वे कहते हैं, ‘कई बार मजबूरी में हमें पीने के लिए ऐसे तालाब का पानी इस्तेमाल करना पड़ता है जहां जानवर भी पानी पी रहे होते हैं. हमारा बस चले तो हम ऐसा पानी किसी को न पीने दें. आधे वक्त तो हमारे जवान उल्टियां ही करते रहते हैं.’ वे आगे कहते हैं, ‘क्या आपने कभी देखा है कि कोई युद्ध इस तरह भी लड़ा जाता है? हम नहीं जानते कि हम यहां राज्य पुलिस की कानून व्यवस्था के लिए मदद करने के लिए हैं या नक्सलियों के खात्मे के लिए या फिर महज समस्याग्रस्त इलाकों के बीच झूलते रहने के लिए, जिसमें कई बार जवान बिना किसी वजह के ही मर रहे हैं. अगर यह युद्ध है तो पूरे बस्तर को क्यों नहीं युद्ध क्षेत्र घोषित किया जाता? अगर यह एक समस्याग्रस्त इलाका है तो फिर इसे यही कहा जाए. लेकिन अगर बस्तर यह भी नहीं है तो कृपया नक्सलवाद को देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती कहना बंद कीजिए.’

सीआरपीएफ में भय व्याप्त है. छोटे-छोटे नक्सली समूह एक पूरी यूनिट पर अचानक हमला करते हैं और जवानों के संभलने के पहले फिर से जंगल में गायब हो जाते हैं. ऐसा नहीं है कि सीआरपीएफ संघर्ष की प्रकृति से वाकिफ नहीं हैः छत्तीसगढ़ में तैनात यूनिटों को दो माह तक ऐसे विशेष प्रशिक्षण दिए गए हैं जिनमें उन्हें इलाके की बनावट और हालात, जंगल युद्ध और इलाके में रहने के तरीकों के बारे में बताया गया है.

लेकिन कितना भी प्रशिक्षण पर्याप्त बैकअप के बिना काम नहीं करता. वरिष्ठ अधिकारी गुस्से में हैं कि दंतेवाड़ा मंे पूरी यूनिट के सफाए के बावजूद महानिदेशक ने वहां एक और नियमित यूनिट की तैनाती जरूरी नहीं समझी. यह मनोबल को तो बढ़ाता ही, निचली कतारों तक यह संदेश भी जाता कि ऐसे हर हमले का मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

माओवादियों के उलट, जो इस युद्ध के राजनीतिक उद्देश्यों के बारे में बहुत साफ-साफ सोचते हैं, सीआरपीएफ के जवानों से राजनीति में न फंसने और बिना सवाल किए आदेशों को मानने की अपेक्षा की जाती है. लेकिन राजनीतिक खेल के बारे में कानाफूसियां चलने लगी हैं. जवान जानते हैं कि कई चीजें उनके नियंत्रण से बाहर हैं और उन्हें आधिकारिक रूप से स्वीकार नहीं किया जाता. जैसे स्थानीय प्रशासन और नक्सलियों के बीच सांठगांठ. वे एक घटना का जिक्र करते हैं कि एक विधायक अपनी काली स्कॉर्पियो से नक्सली असर वाले इलाके में बिना किसी सुरक्षा के आए और सुरक्षित लौट भी गए. यहां तक कि जब नक्सली पूर्ण बंद की घोषणा करते हैं तब भी वन विभाग की गाड़ियां आजादी से घूमती हैं क्योंकि बजाहिर वे जंगल के संसाधनों के दोहन में नक्सलियों की मदद करते हैं.

स्थानीय प्रशासन की कृपा पर रहना भी जवानों के मनोबल को तोड़ता है. राकेश सवाल करते हैं, ’आईजी और डीआईजी को क्यों नियमित रूप से कलेक्टर और एसपी से जवानों को बेहतर हालात देने के लिए  प्रार्थना करनी पड़ती है. हम यहां प्रशासन की मदद करने के लिए हैं लेकिन वे हमारे साथ सहयोग नहीं करते.’ इसके उलट आंध्र प्रदेश में पुलिस, अर्धसैनिक बलों और ग्रेहाउंड्स के बीच बेहतर तालमेल रहा जिससे वहां से नक्सलियों का सफाया हो गया. राकेश कहते हैं, ’एक घटना बेहतर तरीके से बता सकती है कि हमारा मनोबल कैसा है. हम चिंतलनार में तैनात थे. वहां केवल एक बस थी जो दिन में एक बार चलती थी. वही बस पूरे कैंप के लिए राशन ढोती थी. बस सुबह 6 बजे चलती थी. हमारे कैंप से महज 5 किमी पहले नक्सलियों ने चेक पोस्ट लगाया और राशन ले लिया. हमारा पूरा कैंप इस राशन पर निर्भर था लेकिन हम कुछ नहीं कर सके. जब हम अपना भोजन तक नहीं बचा सकते तो सोचिए कि तब हमारा मनोबल क्या होता होगा जब बात जान बचाने की हो.’

जवानों में यह भावना घर कर रही है कि उनके साथ भेदभाव होता है. उदाहरण के लिए, सीआरपीएफ सीधे एक विवादग्रस्त इलाके से दूसरे विवादग्रस्त इलाके में भेज दी जाती है. इसका मतलब यह है कि 90 प्रतिशत जवान अपना पूरा सेवाकाल संघर्षरत इलाकों में बिताते हैं. इसके विपरीत सेना में तीन साल की कठिन तैनाती के बाद सैनिकों को पीस पोस्टिंग मिलती है. यानी वे किसी सामान्य इलाके में अपने परिवार के साथ रह सकते हैं. इसके बाद सेना जब अपनी जगह बदलती है तो उससे पहले नई जगह पर उचित बैरकें, मेस और दूसरी सुविधाएं मुहैया करवाई जाती हैं.सेना का आपूर्ति कोर भोजन और दूसरी जरूरी चीजों का इंतजाम करता है. आंध्र प्रदेश में नक्सलियों का सफाया करने वाले ग्रेहाउंड्स के किसी जवान की अगर मौत हो जाती है तो उसके आश्रितों को राहत देने संबंधी कार्रवाई पूरी होने में महज 24 से 48 घंटे लगते हैं. इसके उलट सीआरपीएफ में हाल यह है कि दंतेवाड़ा हमले में घायल जवानों में से एक बलजीत के सोनीपत स्थित घर जब मैं पहुंचा था  तो उसके पिता का कहना था कि दो दिन हो गए, मीडियावालों सहित पूरी दुनिया आ गई मगर सीआरपीएफ से एक फोन तक नहीं आया.

शायद इसीलिए महेश प्रसाद (बदला हुआ नाम) इतने दुखी हैं कि खुद को रोक नहीं पाते. वे बड़ी कड़वाहट के साथ कहते हैं, ’पिछले डेढ़ साल से हम यहां हैं. सुविधाएं न के बराबर हैं. कई बार इमली के रस और चावल पर गुजारा करना होता है. ऐसे लड़ा जाता है युद्ध ? अगर मुझे अपने पिता की मौत की खबर मिले तो अपने कैंप से बाहर निकलने में भी घंटों लग जाएंगे और यह भी हो सकता है कि चार दिन भी लग जाएं. जब आप दंतेवाड़ा की घटना में बच गए जवानों के साथ किए गए व्यवहार के बारे में सुनते हैं तो आपको पता लगता है कि किसी को आपके जीने और मरने की परवाह नहीं है. यह जानकर दुख होता है. अगर मुझे छुट्टी पर भी जाना हो तो ऐसी कोई सुविधा नहीं है कि आपको हवाई रास्ते से सुरक्षित रायपुर में उतार दिया जाए. घर जाते हुए या वहां से आते हुए मैं उन्हीं नक्सलियों की दया पर होता हूं जिनसे मैं लड़ रहा हूं. आप किस मनोबल की बात करते हैं?

जवान खुद को इसलिए भी महत्वहीन महसूस करते हैं कि उन्हें लगता है कि नक्सली उनकी हत्या सिर्फ इसलिए कर रहे हैं ताकि वे सरकार पर उचित मात्रा में दबाव बना सकें. वे सोचते हैं कि इसीलिए नक्सली वरिष्ठ अधिकारियों जैसे आईजी, डीआईजी या डीएम को निशाना नहीं बना रहे हैं, हालांकि उनके पास हथियार हैं और वे ऐसा कर सकते हैं. प्रसाद कहते हैं, ‘ वे भी जानते हैं हमारी हत्या करने पर उन्हें करारा जवाब नहीं मिलेगा. आप आईपीएस अधिकारियों की हत्या शुरू कीजिए. फिर देखिए क्या होता है.’ एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘ पिछले डेढ़ साल में युद्ध के हालात बदल गए हैं लेकिन कोई ताजा आकलन नहीं किया गया है. कोई नहीं पूछता कि कितने अतिरिक्त बलों की जरूरत है. कोई ठोस योजना तक नहीं है.’ वे कहते हैं कि उन्हें बेहतर संचार व्यवस्था और खुफिया नेटवर्क की जरूरत है क्योंकि नक्सली दिन-ब-दिन बेहतर होते जा रहे हैं. बारिश अब भी जारी है. दिल्ली की फ्लाइट पकड़ने के लिए रायपुर आते हुए मैं बार-बार खुद को यह सोचने से रोक नहीं पाता कि सीआरपीएफ यह लड़ाई इस तरह शायद ही जीत पाए. 

कमल पर हाथ की चोट

2007 में जब गुजरात में विधानसभा चुनाव हो रहे थे और जब कांग्रेस को लग रहा था कि बाजी उसके हाथ भी लग सकती है, तो उन दिनों राज्य में भाजपा के केंद्रीय पर्यवेक्षक अरुण जेटली के पास हर शाम का एक तय कार्यक्रम हुआ करता था. इसकी शुरुआत संघ पदाधिकारी वी सतीश के साथ उनकी अनिवार्य मुलाकात से हुआ करती. चुपचाप काम करने वाले सतीश, जेटली को समूचे संघ परिवार के संगठनात्मक मामलों से जुड़ी जानकारियों से अवगत कराते. इसके बाद एक खुशनुमा और फुर्सत भरे माहौल में रात्रिभोज का आयोजन होता. इसमें जेटली के साथी वकीलों से लेकर पत्रकार और नेताओं तक हर तरह के लोग शामिल होते. इसके बाद जेटली आधे घंटे की दूरी तय करके गांधीनगर में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के सरकारी आवास तक जाते. यहां उनकी मोदी से निजी बैठक होती जो अकसर आधी रात के बाद तक चलती.
लेकिन मोदी के साथ उनकी यह बैठक एक दिन छोड़कर ही होती थी और ठीक इसी तरह एक दिन छोड़कर वे डिनर के बाद एक दूसरे शख्स से मिला करते थे. ऐसा शख्स जिसकी गुजरात की राजनीतिक नब्ज पर मोदी जैसी ही गहरी पकड़ थी. यह शख्स थे गुजरात के गृहराज्य मंत्री अमित शाह.

आरोपों का अध्ययन करने वाले और भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व में मौजूद कानूनी विशेषज्ञ कहते हैं कि फिलहाल तो शाह के खिलाफ मामला कमजोर है

ऊपर से देखा जाए तो सरखेज से विधायक और 46 वर्षीय शाह में ऐसी कोई बात नजर नहीं आती थी जिसकी बदौलत उन्हें इतनी अहमियत मिल रही थी. वे महज राज्यमंत्री थे और वह भी एक ऐसी सरकार में जहां मुख्यमंत्री के अलावा किसी और की कोई पूछ नहीं थी. जानकार बताते हैं कि अल्पभाषी अमित भाई को अपनी कार्यकुशलता और उस भरोसे के लिए जाना जाता था जो मुख्यमंत्री उनपर किया करते थे. उनका सार्वजनिक प्रोफाइल देखकर कहीं से भी नहीं कहा जा सकता था कि वे संभवत: मोदी के सबसे अहम राजनीतिक प्रबंधक हैं. वे सरकार में सिर्फ एक जूनियर मंत्री ही तो थे.

मगर उन लोगों को इसका जरूर पता रहा होगा जिन्होंने शाह के खिलाफ हत्या, वसूली और न्याय प्रक्रिया में बाधा जैसे आरोप लगाने के लिए सीबीआई को राजनीतिक रूप से निर्देशित किया.

जहां तक मोदी की बात है तो उन्हें इसमें जरा-सा भी शक नहीं था कि सीबीआई को सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले की जांच सौंपकर सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस को उनके खिलाफ राजनीतिक लड़ाई के लिए एक घातक हथियार दे दिया है. मई की शुरुआत में जब आईपीएस अधिकारी अभय चुडास्मा की गिरफ्तारी हुई थी तो तभी से मोदी भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व को सावधान कर रहे थे. उन्हें पता था कि सीबीआई जांच का असल मकसद शाह को मामले में घसीटना और उसके बाद खुद मुख्यमंत्री पर राजनीतिक और कानूनी हमला करने का रास्ता साफ करना है. जिन्हें मई और जून के दौरान ‘कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन’ पर भाजपा के लगातार हमले और फिर पार्टी द्वारा राम जेठमलानी को राज्यसभा में भेजने पर हैरत हुई होगी वे अब समझ सकते हैं कि मोदी एक लंबी और तल्ख लड़ाई के लिए अपनी क्षमताएं बढ़ाने की तैयारी कर रहे थे.

अब दिल्ली सल्तनत (मोदी हल्के-फुल्के शब्दों में केंद्र सरकार को यही कहते हैं) 2007 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की किरकिरी करने वाले इस शख्स से सीधे भिड़ती है या फिर छोटे-छोटे कई घाव देकर उसे खत्म करने की रणनीति अपनाती है, यह अभी साफ नहीं है. फिलहाल तो सीबीआई के शाह के खिलाफ रुख का राजनीतिक संदेश यह है कि गुजरात सरकार राष्ट्रवाद  की आड़ में एक वसूली रैकेट चला रही थी और इसके मास्टरमाइंड शाह थे जिन्होंने पुलिस अधिकारियों का इस्तेमाल इस काम के लिए किया. यह कहा जा रहा है कि सोहराबुद्दीन शेख को इसलिए खत्म नहीं किया गया कि वह मोदी की हत्या की साजिश में शामिल था बल्कि ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि शाह ने राजस्थान के किसी मार्बल कारोबारी से सुपारी ले रखी थी. इससे भी हास्यास्पद एक बात और कही जा रही है कि भाजपा महासचिव संजय जोशी की जो कथित सेक्स सीडी चर्चा में आई थी उसमें ‘एक्टर’ असल में सोहराबुद्दीन था और उसे इसीलिए खत्म कर दिया गया ताकि भाजपा के आंतरिक झगड़ों के गंदे सच बाहर न आ सकें.

मोदी जानते हैं कि एक धड़ा है जो मानता है कि सिर्फ वे ही एक हतोत्साहित पार्टी में फिर से जान फूंककर उसे दिल्ली की सत्ता तक फिर पहुंचा सकते हैं

गुजरात में पार्टी के बड़े पदाधिकारी बताते हैं कि सीबीआई ने शाह का संबंध हवाला कारोबार और बेनामी संपत्ति की खरीद से जोड़ने के लिए पूरा जोर लगाया. बताया जाता है कि शाह या उनके परिवार के किसी सदस्य ने जमीन की खरीद की है, यह पता लगाने के लिए सीबीआई ने 1,000 पटवारियों से पूछताछ की. चर्चा है कि इसके चलते मोदी ने यह तक कह दिया था कि इसकी बजाय सीबीआई अगर भू-अभिलेखों का कंप्यूटराइज्ड रिकॉर्ड खंगाल लेती तो उसका यह काम बेहतर तरीके से हो जाता. इस शीर्ष जांच एजेंसी ने तो उस गिरफ्तार पुलिसकर्मी के जरिए खुद एक स्टिंग ऑपरेशन भी कर डाला जो यह दर्शाने के लिए कथित तौर पर सरकारी गवाह बन गया था कि ‘एनकाउंटर विशेषज्ञ’ डीजी वंजारा ने टेलीफोन पर मिले शाह के निर्देशों पर कार्रवाई की.

सीबीआई के आरोपों का अध्ययन करने वाले और भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व में मौजूद कानूनी विशेषज्ञ कहते हैं कि फिलहाल तो शाह के खिलाफ मामला कमजोर है और इसका आधार उन लोगों के बयान हैं जिनकी खुद की पृष्ठभूमि पर कई सवाल खड़े होते हैं. यह सही है कि शाह ने ऐसे कई पुलिसकर्मियों से फोन पर बात की जिनपर हत्या का आरोप लगाया गया है मगर दिलचस्प है कि ऐसे कोई रिकॉर्ड नहीं हैं जो यह दिखाते हों जिस दिन सोहराबुद्दीन या उसका साथी तुलसीराम प्रजापति मारे गए, उस दिन शाह की इन पुलिसकर्मियों से कोई बात हुई थी. इस खामी की पूर्ति जबानी बयानों या फिर स्टिंग ऑपरेशनों के जरिए की जा रही है. भाजपा के एक नेता के शब्दों में सीबीआई का तरीका यह था कि ‘पहले गिरफ्तार कर लो और फिर सबूत खोजो.’

भाजपा का मानना है कि आने वाले हफ्तों में कांग्रेस का मकसद यह है कि गुजरात में मोदी की स्थिति कमजोर होने का शोर मचाया जाए. उसे उम्मीद है कि इससे नौकरशाही घबरा जाएगी, कई और अधिकारी मोदी के खिलाफ हो जाएंगे और वे सीबीआई को कई शर्मसार करने वाले सच या फिर झूठ बताएंगे जिनसे शाह पर शिकंजा कस जाएगा और जरूरत पड़ी तो मोदी पर भी.

सीबीआई और मीडिया के जरिए शाह की छवि धूमिल करने की कोशिश मोदी के उस आभामंडल को नष्ट करने के लिए बनाई गई रणनीति का हिस्सा लगती है जो उन्होंने अच्छा प्रशासन देने वाले नेता के तौर पर अपने इर्द-गिर्द बुना है. यह छोटी-सी मगर नोट करने वाली बात है कि गुजरात दंगों का खलनायक बताकर मोदी पर हमला करने का अभियान फिलहाल रोक दिया गया है. यह देखा जा रहा था कि इसके आशानुरूप परिणाम नहीं मिल रहे हैं. अब फोकस मोदी को तानाशाह साबित करने पर है.

पिछले पखवाड़े ‘हिंदू आतंकवाद’ की वह बहस फिर जिंदा हुई जिसका मुंबई हमले के बाद अचानक पटाक्षेप हो गया था. उसके बाद कर्नाटक के बेल्लारी में रेड्डी बंधुओं के कथित अवैध खनन पर विरोध प्रदर्शन और आखिर में अमित शाह की गिरफ्तारी को देखें तो लगता है कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस ने भाजपा पर पूरी ताकत से राजनीतिक हमला बोल दिया है.
यह भी संयोग है कि इनमें से कुछ चीजें उस दौरान घटी हैं जब विपक्ष असाधारण एकता का परिचय दे रहा है. छह जुलाई को भारत बंद के दौरान विपक्ष द्वारा दिखाई गई एकता को तोड़ने की भी कोशिश हो रही है. संभव है कि कांग्रेस अपनी इस कोशिश में आंशिक तौर पर सफल हो जाए. लेकिन इसमें शक है कि भाजपा की छवि धूमिल करने से महंगाई पर बढ़ रहा असंतोष खत्म हो जाएगा बल्कि इससे उलट सरकार को नुकसान हो सकता है. माना जा रहा है कि प्रधानमंत्री इससे चिंतित हैं कि परमाणु जवाबदेही विधेयक पर सहयोग के लिए भाजपा से अपील का कोई फायदा नहीं होगा. नवंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आ रहे हैं और उससे पहले सरकार इस विधेयक को पास कर इस यात्रा के लिए अच्छा माहौल तैयार करना चाह रही है. आरोपपत्र पर सीबीआई की फुर्ती से सरकार के भीतर उपजा तनाव मुश्किलों से जूझ रहे शाह को भी एक ‘लाइफलाइन’ दे सकता है.

सीबीआई शाह को दोषी साबित कर पाती है या नहीं, यह मुद्दा छोड़ भी दें तो भी मोदी के धुर समर्थक इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि पिछले हफ्ते की घटनाओं ने गुजरात के मुख्यमंत्री को एक बड़ा झटका दिया है. भाजपा भले ही माने कि शाह निर्दोष हैं, जो मोदी सार्वजनिक रूप से कह भी रहे हैं, लेकिन अदालत में यह साबित होने में अभी समय लगना है. शाह की गिरफ्तारी तो हो ही गई है और मीडिया में उन्हें ‘फंसाने वाले सबूत’ भी दिख रहे हैं, ऐसे में सीबीआई को इस मामले में आगे बढ़ने की कोई जल्दबाजी नहीं होगी. कांग्रेस के नजरिए से देखें तो जब तक उसे शाह का अपराध जल्दी साबित होने का भरोसा न हो तब तक उसके लिए यह सोचना स्वाभाविक है कि केस धीरे चले और अगले कुछ समय और कम से कम 2012 विधानसभा तक तो शाह की सुनवाई ही शुरू न हो और वे विचाराधीन कैदी के रूप में जेल के भीतर रहें.

भारत में किसी के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल हो जाए तो इसका ठप्पा अपराधी साबित होने से कम घातक नहीं होता. चूंकि जटिल मामले निपटने में कई बार दशक या इससे ज्यादा का भी समय लग जाता है इसलिए ऐसे मामलों में आरोपितों की छवि अपराधी जैसी ही बन जाती है. इसलिए ऐसा लगता है कि मीडिया के शोर-शराबे और दो दिन तक गायब रहने से शाह की छवि एक खलनायक की बनी है और इससे मध्यवर्ग की भावनाएं मोदी और भाजपा, दोनों के खिलाफ झुकी हैं. ऐसा माहौल कुछ समय तक रहने की संभावना है.

हालांकि शाह एक बड़े खेल के बीच में फंस गए जिसकी वजह से उनके साथ ऐसा हुआ. दरअसल, कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण निशाना मोदी ही हैं. उनसे नफरत करने के अपने फायदे हैं. मुसलमानों और दूसरे अल्पसंख्यकों, जो मोदी को गुजरात दंगों का खलनायक मानते हैं, की संतुष्टि के अलावा इससे कांग्रेस उन उदार हिंदुओं के बीच में धर्मनिरपेक्षता के रक्षक के रूप में स्थापित होती है जो हिंदुत्व के राजनीतिक रूप को पसंद नहीं करते. उदार हिंदुओं का प्रभावक्षेत्र उनकी संख्या के अनुपात में कहीं ज्यादा है और वे शिक्षा और मीडिया क्षेत्र के कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों में बहुमत में हैं. ऐसे में मोदी के खिलाफ पोजिशन लेने के अपने राजनीतिक फायदे हैं जो संकीर्ण चुनावी राजनीति के फायदों से कहीं आगे जाते हैं.

जैसा कि अतीत में बार-बार देखा जा चुका है, गुजरात में मोदी को निशाना बना लेने से ही कोई फायदा नहीं होता. 2002 और 2007 के विधानसभा चुनावों में मोदी ने क्षेत्रीय और हिंदू अस्मिता का प्रखर मिश्रण तैयार किया और गुजरात की जनता उनके साथ हो गई. जब तक कांग्रेस में ऐसे स्थानीय नेता नहीं आएंगे जो मोदी को टक्कर दे सकें और जब तक भाजपा सरकार बड़ी हद तक अच्छा शासन देती रहेगी, तब तक मोदी दिल्ली से उनके खिलाफ चलाए गए राजनीतिक हमले की काट आराम से जनता के समर्थन के रूप में ढूंढ़ सकते हैं.

फिर भी भाजपा में यह सभी जानते हैं कि मोदी सारी उम्र गुजरात में ही नहीं रहने वाले. गुजरात में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाले मुख्यमंत्री तो वे हो ही चुके हैं. अब उनकी नजर राष्ट्रीय राजनीति पर है. भाजपा के समर्पित समर्थकों में वे बहुत लोकप्रिय हैं. मोदी जानते हैं कि एक धड़ा है जो मानता है कि सिर्फ वे ही एक हतोत्साहित पार्टी में फिर से जान फूंककर उसे दिल्ली की सत्ता तक फिर पहुंचा सकते हैं. लेकिन दुर्भाग्य से सबको ऐसा नहीं लगता, यहां तक कि उनको भी नहीं जो गुजरात के इस नेता के प्रशंसक हैं और मानते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर उनमें एक बड़ी भूमिका निभाने की क्षमता है. यह संदेह वर्तमान चुनावी राजनीति के तर्क पर आधारित है.

बिहार में मोदी के पोस्टरों पर हाल में राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की तीखी प्रतिक्रिया ने एक बार फिर गुजरात के बाहर मोदी की राजनीतिक अस्पृश्यता के मुद्दे पर ध्यान खींचा है. नीतिश की इस तल्खी की वजह उनके कैंप के वे लोग हो सकते हैं जिन्हें लगता है कि कांग्रेस विरोधी ‘धर्मनिरपेक्ष’ वोट पर जद(यू) कब्जा कर इसका लाभ उठा सकता है, ठीक वैसे ही जैसे लालू ने 90 के दशक में उठाया था. हालांकि नीतीश यह भी जानते हैं कि इस तरह का कदम इस समय पर नुकसानदेह साबित हो सकता है क्योंकि राज्य में अगड़ी जातियों के वोट के लिए उन्हें भाजपा की जरूरत है. लेकिन उन्हें उतनी ही चिंता इस बात की भी है कि अगले चुनाव में वहां मोदी की मौजूदगी राज्य के 15 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं को एनडीए के खिलाफ कर सकती है जैसा कि 2004 के आम चुनाव में हुआ था. हालांकि पिछले हफ्ते भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी और नीतीश के बीच रात्रिभोज के साथ भाजपा-जद (यू) के बीच का तनाव फिलहाल खत्म हो गया लगता है मगर इस प्रकरण से उन समस्याओं का अंदाजा तो लग ही जाता है जो मोदी के सामने तब आ सकती हैं जब वे अपनी राजनीति की सरहद गुजरात के बाहर फैलाने की कोशिश करेंगे.

पिछले आठ साल से मोदी एक बढ़िया प्रशासक के तौर पर खुद को पुनर्परिभाषित करने की कोशिश कर रहे हैं. कॉरपोरेट जगत से उनको तारीफें मिलती रही हैं और गुजरात आर्थिक तरक्की के आंकड़ों में लगातार शीर्ष पर आता रहा है. सोहराबुद्दीन मामले को 2007 में मोदी ने आखिरी वक्त पर भले ही अपने पक्ष में भुना लिया हो मगर ज्यादातर जानकार मानते हैं कि अगर उनके पास गुजरात की उपलब्धियां नहीं होतीं तो भाजपा को इतनी असरदार जीत नहीं मिलती.

मोदी की सबसे बड़ी राजनीतिक असफलता यह रही है कि 2002 के दंगों के बाद उनपर सांप्रदायिक होने का जो ठप्पा लगा उससे वे मुक्त नहीं हो पाए. उनकी छवि हिंदू हृदयसम्राट की हो गई है. दुर्भाग्य से ऐसी छवि आज की चुनावी राजनीति की प्राथमिकताओं में फिट नहीं बैठती. वरुण गांधी के बयान और कंधमाल प्रकरण पर इससे हुए नुकसान के बाद भाजपा को यह अहसास हो चुका है. इसके अलावा शिवसेना को छोड़कर एनडीए के ज्यादातर घटक मोदी को लेकर सहज नहीं हैं और इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि अगर भाजपा की कमान मोदी के हाथ में आती है तो एनडीए का आकार और नहीं घटेगा. अगर मोदी अपने साथ भाजपा को मिलने वाले वोट में एक बड़ी बढ़ोतरी ले आएं, जैसे अटल बिहारी वाजपेयी ने 1996 में किया था, तो हो सकता है कि इन नुकसानों में से कुछ की पूर्ति हो जाए. जनभावनाओं के आगे धर्मनिरपेक्षता की जिद नहीं टिक पाती, ऐसा कई बार देखा गया है. दुर्भाग्य से 2010 की भाजपा 1996 की भाजपा नहीं है जब उसके पीछे भावनात्मक हिंदू उभार था. लेकिन यह भी सच है कि जनता की भावनाएं अचानक बदल भी सकती हैं और मोदी की लहर पैदा कर सकती हैं. इसकी गैरमौजूदगी में उन्हें 2002 के बोझ से पीछा छुड़ाकर खुद को लोगों के सामने एक अलग व्यक्ति के रूप में पेश करना होगा. यही उनकी त्रासदी रही है कि जब भी वे इस दिशा में कोई कोशिश करते हैं तो यह 2002 के इर्द-गिर्द बुने गए एक  हमले के द्वारा नाकाम कर दी जाती है. हो सकता है कि शाह निर्दोष साबित हो जाएं मगर इस प्रकरण ने मोदी पर एक बार फिर वही ठप्पा तो लगा ही दिया है.

जहां तक पार्टी अध्यक्ष गडकरी की बात है तो उनके लिए यह दुविधा अभी काफी दूर है कि वे मोदी का क्या करें. अब तक उनकी प्राथमिकता आडवाणी के बाद की पीढ़ी के नेताओं में तालमेल बैठाने और भाजपा को एकजुट रखना रही है. 90 के दशक में भाजपा जबर्दस्त छलांग लगाते हुए राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र तक पहुंची थी. इसलिए कि इसके पास एक बड़ा मुद्दा था. हिंदू राष्ट्रवाद का मुद्दा. लेकिन यह मुद्दा अब न सिर्फ पुराना पड़ चुका है बल्कि उससे पार्टी को नुकसान भी हो रहा है.

कर्नाटक को छोड़ दिया जाए तो 2004 के बाद भाजपा बढ़ी नहीं है. इसे नेता की तलाश है और एक बड़े मुद्दे की भी. आगे के लिए पार्टी को जिन नामों से उम्मीद बंधती है उनमें सबसे ऊपर मोदी ही हैं. भाजपा नेताओं में वे अकेले हैं जिनमें प्रेरित करने की क्षमता है. यही वजह है कि भाजपा उनसे किनारा नहीं करेगी और उनकी लड़ाइयां लड़ेगी. और यही वह वजह भी है जिसके चलते कांग्रेस उन्हें जनता की नजर में गिराने के लिए अपना पूरा जोर लगा देगी.

स्वपन दासगुप्ता