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कीड़ा जड़ी पीड़ा सरकारी

उत्तराखंड में चमोली जिले के जोशीमठ-नीति मार्ग पर स्थित छोटे-छोटे गांवों के बाजारों में आपको मोटरसाइकिलों के महंगे से महंगे मॉडल देखने को मिल जाएंगे. ऊंचाई पर स्थित इलाकों के युवाओं ने ये बाइकें 15 दिनों से लेकर दो महीनों की कड़ी मेहनत और जबरदस्त खतरा उठा कर की गई कमाई से खरीदी हैं. ये लोग मई से लेकर जुलाई तक 3200-4000 मीटर की ऊंचाई वाले हिमालय के सब एल्पाइन क्षेत्र में पैदा होने वाली एक जड़ी निकालने जाते हैं. आकार में कीड़े जैसी होने की वजह इसे स्थानीय भाषा में कीड़ा जड़ी कहते हैं और इसका मूल्य अंतर्राष्ट्रीय बाजार में 16-20 लाख रु. प्रति किलोग्राम तक है. इसके व्यापार पर प्रतिबंध तो नहीं है पर इसके लिए दोहन व विपणन की स्पष्ट नीति का अभाव जरूर है. यही वजह है कि इस जड़ी का दोहन करने वालों के लिए ऊंचे हिमालयी क्षेत्रों के स्वाभाविक प्राकृतिक खतरे और सरकार के कई विभागों के अधिकारी-कर्मचारियों की दहशत, दोनों रहते हैं.

औसतन बाजार भाव 4 लाख रुपया प्रति किलो भी मानें तो यह मोटे तौर पर यह 600 करोड़ सालाना की आर्थिकी है

चीन, हांगकांग, कोरिया व ताईवान के अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में कीड़ा जड़ी का व्यापारिक नाम यारसा गंबू है. जड़ी-बूटी शोध एवं विकास संस्थान, गोपेश्वर में वैज्ञानिक डॉ. विजय भट्ट बताते हैं, ‘उच्च हिमालयी क्षेत्रों की एक तितली के लार्वा पर फफंूद के संक्रमण से जंतु-वनस्पति की यह साझा विशिष्ट संरचना बनती है. इसका वानस्पतिक नाम ‘कार्डिसैप्स साईनोन्सिस’ है और इसे फंगस परिवार के समूह में रखा गया है.’ पिथौरागढ़ में राजकीय महाविद्यालय के जंतु विज्ञान के प्रवक्ता सीएस नेगी के अनुसार, कीड़ा जड़ी का आधा भाग जमीन के नीचे व आधा ऊपर रहता है. आम तौर पर कीड़ा जड़ी की लंबाई 7 से 10 सेमी होती है लेकिन डॉ. भट्ट बताते हैं कि इसी साल पिथौरागढ़ जिले की जौहार घाटी में वनकटिया बुग्याल (उच्च हिमालयी घास के मैदान) में दोहन करने वालों के साथ उन्हें एक फीट लंबी यारसा गंबू भी मिली है. डॉ. भट्ट के अनुसार न निकालने पर भी यह फंगस खुद ही समाप्त हो कर मिट्टी में मिल जाता है इसलिए नियंत्रित दोहन से इसके विलुप्त होने का खतरा नहीं रहता. 

चीन की परंपरागत चिकित्सा पद्धति के अलावा यारसा गंबू का प्रयोग दवा निर्माता यौन उत्तेजक  और शक्ति वर्धक दवाओं को बनाने में भी करते हैं. स्थानीय व्यापारी बताते हैं कि चीन में आयोजित पिछले ओलंपिक खेलों से पहले यारसा गंबू के भावों में जबरदस्त उफान आया था. उस समय चीनी खिलाड़ियों द्वारा इसे शक्ति वर्धक स्टेरॉयड के रूप में प्रयोग करने की खबरें भी प्रमुखता से छपी थीं. नेगी के अनुसार जंतु-वनस्पति आधारित होने के यारसा गंबू डोपिंग जांच के दौरान पकड़ में नहीं आ पाती. 

पिथौरागढ़ जिले के भेड़ पालक व चीन युद्ध से पहले तिब्बत में व्यापार करने वाले भारत के व्यापारी यारसा गंबू के औषधीय महत्व को सदियों से जानते थे. परंतु अचानक समझ में आए व्यापारिक महत्व के बाद अब वर्ष 1991 के बाद पिथौरागढ़ जिले के धारचूला क्षेत्र के सीमांत ग्रामवासी या नेपाली बुग्यालों में कीड़ा जड़ी का दोहन व व्यापार करते हैं. उत्तराखंड में कीड़ा जड़ी के संग्रहण का कार्य मुख्यतया पिथौरागढ़, चमोली, बागेश्वर जिलों में व बहुत ही छुटपुट मात्रा में रुद्रप्रयाग व उत्तरकाशी जिलों में होता है. मोटे अनुमान के अनुसार स्थानीय निवासियों के द्वारा इन सभी जिलों में साल भर में लगभग 150 क्विंटल कीड़ा जड़ी का संग्रहण किया जाता है. यदि औसतन बाजार भाव चार लाख रुपए प्रति किलो भी माना जाए तो यह मोटे तौर पर यह 600 करोड़ सालाना की आर्थिकी है. यह पैसा राज्य के कुछ दर्जन सीमांत व दूरस्थ गांवों के ग्रामीणों के बीच बंटता है. इन गांवों में खेती ज्यादा नहीं हो पाती इसलिए यारसा गंबू इनके लिए वरदान बनकर आई है. एक दिन में एक ग्रामीण आम तौर पर 5-7 से 30-40 तक यारसा गंबू का संग्रह कर लेता है. बाजार में प्रति यारसा गंबू 150 रुपए के भाव से बिकती है. इस तरह 100 रुपए प्रतिदिन की मजदूरी करने वाला व्यक्ति एक दिन में 4500 रुपए तक कमा सकता है और एक सीजन में किसी व्यक्ति को दो से लेकर छह लाख रुपए तक की आय हो सकती है. पिछले 10-15 साल में इस पैसे से उपजी समृद्धि  को जोशीमठ, घाट, बागेश्वर, धारचूला व मुनस्यारी तहसीलों के दूरस्थ गांवों में लोगों के जीवन स्तर में आए बदलाव से महसूस किया जा सकता है. हालांकि ग्रामीणों को इस समृद्धि की कीमत भी अच्छी-खासी चुकानी पड़ती है. यारसा गंबू ढूंढ़ने के लिए स्थानीय लोग उच्च हिमालयी बर्फीले क्षेत्र में महीनों तक खुले आसमान अथवा कपड़े के तंबुओं में रहते हैं. इस दौरान या बाद में ये ग्रामीण आम तौर पर निमोनिया, फ्रॉस्टबाईट जैसी गंभीर बीमारियों के शिकार हो जाते हैं.

यारसा गंबू पर न तो आयात-निर्यात शुल्क निर्धारित है न ही इसके अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए कोई प्रक्रिया तय हुई है

लेकिन इस मुद्दे का दूसरा पक्ष यह है कि मीडिया में करीब दो दशक से चर्चित होने के बावजूद सरकार के स्तर पर यारसा गंबू के विदोहन व विपणन की कोई सुस्पष्ट नीति नहीं बन पाई है. वन विभाग द्वारा जारी राज्य में प्रतिबंधित या विदोहन होने वाली 83 जड़ी-बूटियों की सूची में यारसा गंबू को किसी भी श्रेणी में नहीं रखा गया है. मुख्य वन संरक्षक (प्रशासन) डॉ. राकेश शाह कहते हैं, ‘यारसा गंबू राज्य में प्रतिबंधित प्रजाति नहीं है. शासन  की नीतियों व राज्य स्तरीय जड़ी-बूटी विदोहन समिति के निर्णयों के अनुसार वन पंचायतें स्थानीय ग्रामीणों द्वारा वन क्षेत्रों में यारसा गंबू का नियमतः दोहन करा सकती हैं.’

राज्य बनने के बाद यारसा गंबू के विदोहन व विपणन के संबध में 10 जनवरी, 2001 को  सरकार ने एक आधा-अधूरा शासनादेश जारी किया था. इस शासनादेश में यारसा गंबू को बिना श्रेणीबद्व किए ही वन भूमि से इसके संग्रहण के अधिकार वन पंचायतों को दिए गए. वन पंचायतें अपनी सीमा के भीतर आने वाले सदस्यों द्वारा एकत्र यारसा गंबू के विक्रय मूल्य का पांच प्रतिशत बतौर रॉयल्टी वसूल कर इसकी बिक्री कर सकती थीं. आम ग्रामीण संग्रहणकर्ताओं को आंशिक अधिकार व राहत देने वाला यह शासनादेश दोहन को नियंत्रित करने के नाम पर 16 अक्टूबर, 2007 को प्रमुख सचिव व आयुक्त (वन एवं ग्राम्य विकास विभाग) द्वारा संशोधित कर दिया गया. नई प्रक्रिया में वन पंचायतों को सिर्फ संग्रहण के अधिकार दिए गए. संग्रहण के बाद यारसा गंबू के विक्रय का कार्य वन विकास निगम, भेषज संघ व कुमाऊं मंडल विकास निगम जैसी सरकारी संस्थाओं को दे दिया गया. वन विकास निगम के क्षेत्रीय प्रबंधक एसपी सुबुद्धि के अनुसार शासनादेश में वन पंचायतों को यारसा गंबू मंडी में लाते ही 45 हजार प्रति किलोग्राम का आधार मूल्य देने का प्राविधान भी रखा गया है. बाकी का धन विक्रेता वन पंचायत को यारसा गंबू की नीलामी के बाद दिया जाता है. सुबुद्वि के अनुसार पिछले साल ऋषिकेश मंडी में चमोली जिले से एकत्र कर लाया गया 1.25 किलो यारसा गंबू  1.76 लाख रु. के भाव से बेचा गया. यह बाजार मूल्य के आधे से भी कम था. 2007 में जब यह शासनादेश जारी किया गया था तो उस समय भी खुले बाजार में यारसा गंबू 2 लाख रुपए किलो बिक रहा था जो अब 4 लाख रुपए प्रति किलो तक पहुंच गया है. 

यों तो इस संशोधन में ग्रामीण संग्रहकर्ताओं को दिखाने के लिए राहत यह थी कि वे 5000 रु. प्रति किलोग्राम की रॉयल्टी अदा कर अपने द्वारा एकत्र यारसा गंबू को वन पंचायत से प्रमाणित कराने के बाद कहीं से भी बिक्री हेतु रवन्ना (माल परिवहन अधिकार पत्र) प्राप्त कर सकते थे. लेकिन रवन्ना जारी करने के अधिकार वन पंचायतों से छीनकर वापस वन विभाग को देने से यारसा गंबू के बड़े व्यापारियों, माफियाओं और इस काम में मोटी मलाई खा रहे वन व पुलिस अधिकारियों के मजे आ गए. पूरे सीजन में 100-200 ग्राम से अधिकतम एक-डेढ़ किलोग्राम तक यारसा गंबू एकत्र करने वाले सीमांत आम ग्रामीण के लिए सरकारी मशीनरी से रवन्ना हासिल करना खासा मुश्किल काम होता है. माफिया इसका फायदा उठाते हुए बाजार भाव से पांचवें हिस्से से भी कम मूल्य पर ग्रामीणों से यारसा गंबू खरीदते हैं. सरकारी संस्थाएं ग्रामीणों को यारसा गंबू का उचित मूल्य दिलवाने में असफल रही हैं. 2008 में कुमाऊं मण्डल विकास निगम ने मुनस्यारी तहसील की वन पंचायतों से जमा 16.6 किलोग्राम यारसा गम्बू की नीलामी कराई जिसमें 7.9 किलो जड़ी, 1.82 लाख प्रति किलो व 300 ग्राम 1.6 लाख प्रति किलोग्राम की दर से ही बिक सकी जबकि उस साल बाजार मूल्य 3.5 लाख रु. प्रति किलो चल रहा था. कम मूल्य मिलने व पैसा मिलने की कोई समय सीमा न होने के कारण कोई भी ग्रामीण या वन पंचायत सरकारी संस्थाओं को कीड़ा जड़ी देने को तैयार नहीं होती.  मुनस्यारी में फल्याटी वन पंचायत के सरपंच बलवंत सिंह कहते हैं, ‘जब 3.50 से 4 लाख रु. घर बैठे ही मिल रहे हों तो भला कोई नुकसान क्यों उठाएगा?’

स्पष्ट नीति न होने और सरकारी संस्थाओं द्वारा कम मूल्य मिलने और बहुमूल्य होने के कारण यारसा गंबू के पूरे कारोबार का जबर्दस्त माफियाकरण हो चुका है. सरकारी संस्थाओं को कीड़ा न देकर व्यापारियों को देने में कई ग्रामीण पकड़े जाते हैं. माफिया ग्रामीणों के हर कदम की मुखबरी करते हैं और मौका लगते ही उन्हें फंसा देते हैं. चमोली के कई गांवों में विदोहन के क्षेत्राधिकार को लेकर ग्रामीणों के बीच बुग्यालों ही में हिंसक संघर्ष भी हो चुके हैं. पिथौरागढ़ जिले के भारत-नेपाल सीमा क्षेत्र के कुछ व्यवसायियों की हत्या को भी इसके कारोबार से जोड़कर देखा जा रहा है. उत्तराखंड आपदा प्रबंधन विभाग प्रतिवर्ष औसतन 8-10 लोगों की मृत्यु को यारसा गंबू संग्रहण से जुड़ी दुर्घटनाओं से जोड़कर देखता है. 2006 में धारचूला तहसील के रांथी गांव की पांच महिलाओं व बच्चों की मौत यारसा गंबू ढंूढते हुए खाई में गिरने से हो गई. ऐसे कई उदाहरण हैं.

जहां ग्रामीण इसके संग्रहण में अपने स्वास्थ्य व जान का जोखिम ले रहे हैं वहीं छोटे-छोटे स्थानीय व्यापारी सरकारी व्यापारिक संस्थाओं व वन विभाग की जटिल प्रक्रिया से बच कर सीधे व्यापारियों को बेचने के लालच में पुलिस की गिरफ्त में पहुंच रहे हैं. डीडीहाट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष रघुनाथ सिंह चौहान कहते हैं, ‘यों तो कानूनन  यारसा गंबू किसी भी दृष्टिकोण से अवैध या प्रतिबंधित सामग्री नहीं है. परन्तु पुलिस यारसा गंबू के मामलों को वन अधिनियम की धाराओं  2 (4) व 4/26 में पंजीकृत करती है और मामले को अधिक जटिल बनाने के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 379, 411 भी लगा देती है.’ पिथौरागढ़ के तीन न्यायालयों में 17, चंपावत में सात व बागेश्वर में 5 मामले इस वक्त विचाराधीन हैं. यारसा गंबू से जुडे़ जिन तीन मामलों में अब तक न्यायालयों से निर्णय आए हैं उन सभी में यारसा गंबू के व्यवसाय को वैध मानते हुए अभियुक्तों को बाइज्जत बरी किया गया है. फिर भी पुलिस नए मामले बनाते जा रही है. हाल ही में 22 अगस्त, 2010 को पिथौरागढ़ जिले के जौलजीबी थाने की पुलिस टीम ने बरम में 8.5 किलोग्राम यारसा गंबू के साथ दो लोगों को गिरफ्तार किया. गिरफ्तार मनोज सिंह ने पुलिस पर आरोप लगाया कि पुलिस ने 13 की बजाय 8.50 किलो ही कागजों में दर्ज किया है और बाकी यारसा गंबू बिना लिखा-पढ़ी के हड़प लिया है. 26 जुलाई को एक चीनी नागरिक झा-झेन हांग को यारसा गंबू के साथ अल्मोड़ा में गिरफ्तार किया गया.

केंद्र सरकार ने यारसा गंबू पर आयात-निर्यात शुल्क भी निर्धारित नहीं किया है. न ही इसके अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए कोई प्रक्रिया तय हुई है. पिथौरागढ़ जिले से कैलाश मानसरोवर यात्रा मार्ग से ही भारत-चीन व्यापार भी खुला हुआ है. एक बड़ी विडम्बना यह है कि यारसा गंबू का अंतिम बाजार चीन होने के बावजूद इसको चीन-भारत व्यापार के लिए चयनित वस्तुओं की सूची में नहीं रखा गया है.  पास में यात्रा व्यापार मार्ग और बाजार होने के बावजूद भारत के व्यापारियों को अपना माल चोरी-छिपे नेपाल ले जाकर बेचना पड़ता है. पिछले वर्षों तक दिल्ली के खारी-बावली बाजार में चल रही यारसा गंबू की खरीद-फरोख्त भी इस साल वहां के व्यापारियों ने बंद कर दी है. उनका तर्क है कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की स्पष्ट नीति न होने के कारण उन्हें भी यह माल चोरी से ही नेपाल पहुंचाना होता है. हालांकि कई स्थानीय व्यापारी यह भी स्वीकारते हैं कि इस कठिनाई के बावजूद मोटे मुनाफे के चलते वे इस कारोबार को छोड़ भी नहीं सकते. 

कीड़ा जड़ी का काम करने वाले ग्रामीण कहते हैं कि राज्य व केंद्र सरकार की अदूरदर्शिता ने बहुमूल्य यारसा गंबू के व्यापार को ड्रग्स के काले कारोबार की तरह पेचीदा बना दिया है. उधर, दक्षिण-एशिया में यारसा गंबू की सबसे बड़ी अंतर्राष्ट्रीय मंडी में परिवर्तित हो चुके नेपाल में इसके व्यापार की एक स्पष्ट नीति है. वहां की सरकार ने यारसा गंबू को जड़ी-बूटियों के साथ सूचीबद्व करते हुए इस पर 20 हजार रु. प्रतिकिलो की रॉयल्टी निर्धारित की है. धारचूला (पिथौरागढ़) की सीमा से लगे नेपाल के दार्चूला के एक वनाधिकारी बताते हैं, ‘नेपाल सरकार ने चीन-हांगकांग, ताइवान व कोरिया के साथ यारसा गंबू के व्यापार की सहमति तय की है. इस पर निर्यात शुल्क भी तय किया गया है. इसलिए 1992 में 1.50 लाख नेपाली रु. के भाव पर खरीदा-बेचा जा रहा यारसा गंबू नेपाल में आज 10-12 लाख प्रति किलो व चीन-ताइवान में 16-20 लाख रु. प्रति किलो की ऊंचाइयां छू रहा है.’

लेकिन उत्तराखंड में हालात इतने अच्छे नहीं हैं. अखिल भारतीय किसान महासभा मुनस्यारी के अध्यक्ष सुरेंद्र बृजवाल का मानना है कि राज्य सरकार को केंद्र से मिलकर यारसा गंबू के संग्रहण व विपणन की एक सुस्पष्ट राष्ट्रीय नीति बनवानी चाहिए. वे कहते हैं, ‘इसके संग्रहण व व्यापार पर लगने वाले सभी करों, वन रॉयल्टी, वैट व आयात-निर्यात करों का निर्धारण कर इसे चीन-भारत व्यापार में सम्मिलित किया जाना चाहिए. तभी स्थानीय ग्रामीण शोषण व उत्पीड़न से बच सकते हंै. नहीं तो जो यारसा गंबू राज्य के सीमांत क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था के लिए कहीं बड़ा संसाधन बन सकता था वह यहां के लोगों के लिए दहशत व परेशानी का सबब बन गया है.’

(पिथौरागढ़ से जगत मर्तोलिया व हल्द्वानी से मोहन भट्ट के सहयोग के साथ)

नतीजे पर निगाह

बहुचर्चित रामजन्मभूमि/बाबरी विवाद के मालिकाना हक के मुकदमे का फैसला सितंबर में आना है. इस पर पूरे देश की निगाहें टिकी हुईं हैं. उत्तर प्रदेश और केंद्र दोनों सरकारों में इस फैसले को लेकर बेचैनी दिखाई दे रही है. लेकिन अयोध्या के बाशिंदों में इसे लेकर कोई असहजता नजर नहीं आती. कुछ दिन पहले ही खत्म हुए झूलनोत्सव के मेले और रेले में आप अगर इस फैसले पर आम आदमी की रायशुमारी करते तो सामान्यतः आपको दो ही तरह के लोग मिलते. एक वे जिनका कहना है कि यह मुद्दा बहुत लंबा खिंच चुका है और अब इसका अंत होना चाहिए. और दूसरे जो इस फैसले के आने से ही नावाकिफ हैं.

अयोध्या स्थित विश्वहिंदू परिषद की कार्यशाला में मंदिर निर्माण के लिए पत्थर तराशने का काम दो साल से बंद है

लेकिन आम आदमी के उलट उत्तर प्रदेश के ‘समझदार’ लोगों में कोई भी इस मुद्दे से नावाकिफ नहीं है. उन्हें फैसले का इंतज़ार तो है ही, इसके आगे भी सोचा जा रहा है. विवादित स्थल के मालिकाना हक के मुकदमे में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने 26 जुलाई को फैसला सुरक्षित रख लिया था. इसके बाद उच्च न्यायालय की विशेष पूर्णपीठ ने दोनों पक्षों के बीच बातचीत के जरिए सुलह कराने की कोशिश भी की थी. पीठ ने इसके लिए दोनों पक्षों को अलग-अलग बुलाकर उनसे बात की. लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला.

विवादित स्थल के मालिकाना हक़ को लेकर मुकदमेबाजी का सिलसिला 1950 में तब शुरू हुआ था जब फैजाबाद की दीवानी अदालत में गोपाल सिंह विशारद ने विवादित स्थल पर पूजा करने की अनुमति दिए जाने संबंधी याचिका दायर की थी. इसके बाद अप्रैल,1950 में दूसरा मुकदमा, जो महंत रामचंद्र परमहंस बनाम जहूर अहमद एवं अन्य का था, दाखिल किया गया (इसे बाद में वापस ले लिया गया). तीसरा दावा 1951 में निर्मोही अखाड़ा बनाम प्रियदत्त राम एवं अन्य का आया. चौथा मुकदमा 1961 में उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड बनाम गोपाल सिंह विशारद के नाम से चलना शुरू हुआ. और पांचवां दावा रामलला विराजमान की तरफ से 1989 में दायर किया गया. तब तक इन सभी मामलों की सुनवाई फैजाबाद की दीवानी अदालत में ही हो रही थी. इसी साल उत्तर प्रदेश के तत्कालीन महाधिवक्ता शांतिस्वरूप भटनागर ने राज्य सरकार की तरफ से एक अर्जी उच्च न्यायालय में दी कि चूंकि विवादित स्थल के मालिकाना हक के ये मुक़दमे अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, इसलिए इनकी सुनवाई उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच में विशेष पूर्ण पीठ के जरिए हो. इसके बाद से इन मुकदमों की सुनवाई उच्च न्यायालय में होने लगी. अंततः 26 जुलाई को साठ साल बाद कहीं जाकर यह सुनवाई पूरी हो सकी. यहां एक उल्लेखनीय तथ्य ये भी है कि रामजन्मभूमि/बाबरी विवाद से संबंधित सबसे पहला मुकदमा आजादी से पहले 19 जनवरी, 1885 को फैजाबाद की निचली अदालत में दाखिल हुआ था. तब महंत रघुबर दास ने बाबरी मस्जिद के सामने स्थित राम चबूतरे (जिसे भगवान राम का जन्म स्थान माना जाता है) पर पूजा करने का अधिकार मांगा था. मगर अदालत ने इस मामले को ख़ारिज कर दिया था.

जमाते इस्लामी-ए-हिंद उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष सैयद मोहम्मद अहमद कहते हैं कि अगर फैसला पक्ष में नहीं आता है तो सुप्रीम कोर्ट में जाया जा सकता है. लेकिन इसके खिलाफ सड़क पर उतरना ठीक नहीं

अयोध्या स्थित विश्व हिंदू परिषद् की रामजन्मभूमि कार्यशाला में मंदिर निर्माण के लिए पत्थरों को तराशने का काम पिछले दो सालों से बंद है. कार्यशाला के मुख्य व्यवस्थापक नागेंद्र उपाध्याय कहते हैं, ‘यहां का सत्तर फीसदी काम तो हो चुका है. लेकिन अब यहां जगह नहीं बची है, इसलिए पत्थर नहीं तराशा जा रहा. फैसला पक्ष में आने के बाद यहां काम फिर शुरू हो जाएगा. लेकिन मुझे इस बात पर संदेह है कि फैसला आने के बाद इस मामले पर चली आ रही लंबी लड़ाई ख़त्म हो पाएगी.’ इसी कार्यशाला के परिसर में गायत्री देवी की पूजा सामग्री की दुकान है. गायत्री के मुताबिक मस्जिद ढहाए जाने से पहले तक अयोध्या में कुछ धार्मिक पृवृत्ति के लोग और साधु-संत ही आते थे. 1992 के बाद यहां अचानक भीड़ बढ़नी शुरू हो गई. गायत्री कहती हैं, ‘पूरे देश में इस मुद्दे को हिंदू बनाम मुसलमान के रूप में देखा जाता है लेकिन यह बिलकुल गलत है. यह लड़ाई उन लोगों के बीच है जो अपने फायदे के लिए इसे ख़तम नहीं होने देना चाहते. फैसला चाहे जो हो, इस बार अयोध्या में शांति रहनी चाहिए.’

कोर्ट के फैसले के बाद उत्तर प्रदेश में शांति बनी रहे इस चिंता में प्रदेश और केंद्र सरकारों की नींद उड़ी हुई है. खासकर उत्तर प्रदेश सरकार तो कुछ ज्यादा ही बेचैन नज़र आ रही है. वह अपनी तरफ से तो शांति के इंतजाम करने में जुटी ही है साथ ही केंद्र सरकार से भी सहयोग के हरसंभव प्रयास कर रही है. उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने 10 अगस्त को प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर अयोध्या फैसले के बाद शांति बनाए रखने के लिए अर्धसैनिक बलों की 350 कंपनियों की मांग की थी. इसके बाद उन्होंने 108 और कंपनियों की मांग कर दी. उत्तर प्रदेश सरकार के इस रवैए ने केंद्र की बेचैनी को भी बढ़ा दिया है. 23 अगस्त को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अयोध्या मुद्दे पर कोर्ट के फैसले से पहले एहतियातन उठाए जा सकने वाले कदमों पर विचार के लिए कैबिनेट सदस्यों और शीर्ष अधिकारियों के साथ बैठक भी की, जिसमें वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी, रक्षामंत्री एके एंटनी, गृहमंत्री पी चिदंबरम, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन और इंटेलिजेंस ब्यूरो के मुखिया राजीव माथुर भी शामिल थे. बैठक में तय हुआ कि उत्तर प्रदेश में शांति व्यवस्था को लेकर केंद्र की तरफ से कोई लापरवाही नहीं की जाएगी. उधर उत्तर प्रदेश सरकार ने अपनी तरफ से एहतियाती कदम उठाते हुए प्रदेश की सुरक्षा व्यवस्था चाक-चौबंद करना शुरू कर दिया है. इसके तहत 19 अतिसंवेदनशील जिलों में पांच-पांच और 15 संवेदनशील जिलों में तीन-तीन और अन्य जिलों में दो-दो पीएसी की कंपनियां तैनात कर दी गईं हैं. पुलिसकर्मियों की छुट्टियों पर भी अगले आदेश तक के लिए रोक लगा दी गई है.

फैसले को लेकर मुक़दमे के दोनों पक्ष भी तैयार खड़े हैं. हाल ही में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक मोहन राव भागवत ने नागपुर में यह कहकर इस मुद्दे को और गरमा दिया है कि सहमति से बने या संघर्ष से राम मंदिर ज़रूर बनेगा. 16 जुलाई को अयोध्या के कारसेवकपुरम में समाप्त हुई विश्व हिंदू परिषद की केंद्रीय प्रबंधन समिति की बैठक में फैसला किया गया कि विश्व हिंदू परिषद की तरफ से राम मंदिर निर्माण के पक्ष में माहौल बनाने के लिए जनजागरण अभियान चलाया जाएगा. इसी के तहत 16 अगस्त से देश भर में विहिप की तरफ से हनुमत शक्ति जागरण शुरू किया गया है. यह जागरण 17 दिसंबर तक चलेगा. विश्व हिंदू परिषद के प्रांतीय मीडिया प्रभारी शरद शर्मा इसे आने वाले फैसले के साथ जोड़ते हुए कहते हैं, ‘हनुमत शक्ति जागरण से देश में मंदिर के पक्ष में माहौल तो बनेगा ही साथ ही कोर्ट का फैसला भी हमारे पक्ष में होगा. फैसला आने के बाद मंदिर निर्माण के लिए आगे की योजना पर विचार किया जाएगा.’ मंदिर आंदोलन से जुड़े रहे नयाघाट अयोध्या के महंत डॉ राघवेश दास वेदांती कहते हैं, ‘वैसे तो हमें उम्मीद है कि फैसला हमारे पक्ष में आएगा लेकिन अगर फैसला हमारे खिलाफ आया तो हम सुप्रीम कोर्ट जाएंगे.’ इस संदर्भ में जनांदोलन करने पर भी विचार किया जा रहा है. वहीं भारतीय जनता पार्टी के तेज़-तर्रार नेता विनय कटियार फैसले के बारे में पूछे जाने पर सिर्फ इतना बोलते हैं, ‘वहां मंदिर था, वहां मंदिर होना चाहिए, वहां मंदिर बनेगा.’

दूसरा पक्ष भी फैसले का इंतजार कुछ इसी अंदाज़ में कर रहा है. विवादित स्थल के मालिकाना हक़ के सबसे पहले मुक़दमे में गवाह रहे 90 साल के हाशिम अंसारी जब इसके बारे में बात करते हैं तो उनकी आंखों में गुस्सा तैर जाता है. वे कहते हैं, ‘मैं साठ साल से सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ रहा हूं. फैसला अगर हमारे खिलाफ हुआ तो हम सड़क पर उतरने नहीं जा रहे लेकिन सुप्रीम कोर्ट ज़रूर जाएंगे.’ जमाते इस्लामी-ए-हिंद उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष सैयद मोहम्मद अहमद कहते हैं कि अगर फैसला पक्ष में नहीं आता है तो सुप्रीम कोर्ट में जाया जा सकता है. लेकिन इसके खिलाफ सड़क पर उतरना ठीक नहीं. बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी के अध्यक्ष और इस मामले के वकील ज़फरयाब जिलानी फैसले को लेकर बिलकुल साफ़ तौर पर कहते हैं, ‘इस मामले का सुप्रीम कोर्ट जाना एकदम तय है, क्योंकि फैसला जिस पक्ष के खिलाफ आएगा वह सुप्रीम कोर्ट जाएगा ही जाएगा. इसलिए ये मामला अभी और लंबा खिंचेगा.’ इस मामले के एक दूसरे गवाह हाजी महबूब बेहद नपे-तुले अंदाज़ में कहते हैं, ‘कोर्ट का जो भी फैसला हो, दोनों पक्ष उसे स्वीकार करें तो बेहतर है. क्योंकि इतने सालों के संघर्ष के बाद तो इसमें फैसले की घड़ी आई है.’ कोर्ट के  बाहर समझौते के बारे में बात करने पर वे कहते हैं, ‘मेरे पास अयोध्या में बहुत ज़मीन है मैं उसे बिना पैसे के ख़ुशी-ख़ुशी मंदिर के लिए दे सकता हूं लेकिन विवादित स्थल को लेकर पीछे नहीं हट सकता. ऐसा करना फिरकापरस्तों के सामने हार मानने जैसा है.’

फिलहाल निगाहें कोर्ट के नतीजे पर टिकी हैं – इंसान की भी और शायद भगवान की भी. 

पीपली लाइव के बाहर

हमारे सारे गंभीर या अगंभीर, स्थूल या सूक्ष्म, उदात्त या टुच्चे उपक्रम बस एक वर्ग को संबोधित और उसी वर्ग की दृष्टि से संचालित हैं

अनुषा रिजवी और महमूद फारूकी की बनाई ‘पीपली लाइव’ वाकई एक अच्छी फिल्म है. फिल्म का खरा यथार्थवाद हमारे समय के उस वक्र विद्रूप पर उंगली रखता है जिसके एक सिरे पर कर्ज और भूख के मारे किसानों की मजबूरी है तो दूसरे सिरे पर एक संवेदनहीन तंत्र की निहायत स्वार्थी मुद्रा. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के टुच्चेपन और भारतीय राजनीति के ओछेपन के घालमेल का यह स्याह-सफेद चित्रण भारतीय मध्यवर्ग का देखा-बनाया और किसानों का भोगा हुआ यथार्थ है- इतना जाना-पहचाना कि फिल्म देखकर निकलने वाले आम दर्शकों की पहली प्रतिक्रिया यही होती है कि वे फिल्म नहीं, सच्चाई देख रहे थे. इसमें शक नहीं कि फॉर्म के स्तर पर भी निर्देशकों ने इस सच्चाई में न्यूनतम कला फेंटते हुए फिर यह याद दिलाया है कि महान कला वही होती है जो जीवन के सबसे करीब होती है.

लेकिन कम से कम दो बातें इस फिल्म में खटकती हैं. दुर्भाग्य से इन दोनों का वास्ता फिल्म की मूल कथा से है. एक तो यह कि यह फिल्म भारतीय राजनीति का, भारत के नीति-निर्माताओं और नियंताओं का काफी सपाट और इकहरा चित्रण करती है. वे मतलबी हैं, वे बेईमान हैं, वे बेमानी घोषणाएं करते हैं, उन्हें किसानों की नहीं, अपने चुनावों की परवाह है- यह सब पूरी तरह सच है, और यह सच इतना प्रत्यक्ष है कि जब फिल्म में सपाटपन के साथ भी आता है तो दर्शक इसे बेहिचक स्वीकार कर लेता है.

गैस-पेट्रोल तक की कीमतें बाजार के हवाले कर देने में विश्वास रखने वाली सरकारों को यह गवारा नहीं कि किसान अपनी जमीन की कीमत खुद तय करें लेकिन इस इकहरे सच के पीछे दूसरी और कहीं ज्यादा बड़ी विडंबना छुपी रह जाती है. जो लोग इस देश में संजीदा राजनीति करते हैं, जो अपने जानते देश की तरक्की के लिए नीतियां बनाते हैं, वे भी असल में गरीबों और किसानों के विरोधी हैं. बीते 20 साल में जो अबाध उदारीकरण अपने साथ कारोबार और रोजगार की अगाध संभावनाएं और एक नई आधुनिक जीवनशैली लेकर प्रगट हुआ है, जिसने इन वर्षों में भारतीय मध्यवर्ग का चेहरा और चरित्र लगभग पूरी तरह बदल डाला है, उसका एक उपनिवेशवादी स्वरूप भी है जो नत्था जैसे किसानों की नियति में दिखता है.

यह बात फिल्म में अलक्षित रह जाती है तो इसलिए कि यह फिल्म इस विडंबना पर नहीं, उस दूसरी विडंबना पर है जो इस नए दौर का नया मीडिया बना रहा है. लेकिन यहां भी संकट वही है. नत्था की खुदकुशी के लाइव प्रसारण के लिए इकट्ठा हुए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का यह व्यावसायिक टुच्चापन इतना जाना-पहचाना है कि वह अपने अतिरेकों में भी विश्वसनीय लगता है. लेकिन इस टुच्चेपन से पैदा होने वाला और कुछ तमाशबीन और टीआरपी जुटाने के अपने इकलौते लक्ष्य के साथ बनाया और मिटाया जाने वाला यह तमाशा बेमानी चाहे जितना हो, उतना खतरनाक नहीं है जितना इस टुच्चेपन से अलग, खुद को संजीदा बताने वाला मीडिया-उपक्रम है. क्योंकि वह भी अपनी गंभीरता में, उस ज्यादा बड़ी सच्चाई को सामने लाने से बचता है जिसका वास्ता इस देश में मजबूत हो रहे नए साम्राज्यवाद से है- दुर्भाग्य से यह नव साम्राज्यवाद पहले की तरह सिर्फ अमेरिकी या पश्चिमी साम्राज्यवाद नहीं है, अब इसके ठेठ देसी एजेंट हैं जो एक बड़े और अविकसित भारत की छाती पर पांव रखकर एक छोटा-सा चमकता-दमकता भारत बना रहे हैं.

निश्चय ही यह सब न दिखा पाना ‘पीपली लाइव’ की कमजोरी नहीं है. एक माध्यम के रूप में उसकी अपनी सीमाएं हैं. फिर वह भी एक कारोबारी फिल्म है जिसमें मुनाफे का खयाल रखा जाना है, और इसलिए भले निर्देशिका इसे छोटे सिनेमाघरों की फिल्म बनाना चाहती थीं, आमिर खान ने इसे मल्टीप्लेक्स में ही उतारा, कोक पीने और पॉपकॉर्न खाने वाले दर्शक की वाहवाही लूटी और उनकी जेब खाली कर एक और बड़ी व्यावसायिक कामयाबी अपने नाम लिखी.

बहरहाल, इस टिप्पणी का मकसद फिल्म की समीक्षा नहीं है, बस यह याद दिलाने की कोशिश है कि हमारे सारे गंभीर या अगंभीर, स्थूल या सूक्ष्म, उदात्त या टुच्चे उपक्रम बस एक वर्ग को संबोधित हैं और उसी वर्ग की दृष्टि से संचालित हैं. यह अनायास नहीं है कि जिन दिनों ‘पीपली लाइव’ दर्शकों की वाहवाही लूट रही थी, उन्हीं दिनों अलीगढ़ के टप्पल नाम के गांव में किसान गोलियां खा रहे थे. ये महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के वे किसान नहीं थे जो कर्ज और मजबूरी में आत्महत्या कर रहे हों. ये पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खाते-पीते किसान थे जो विकास के नाम पर अपनी लहलहाती फसलों वाली जमीन छोड़ने को तैयार नहीं थे. सरकार ने पहले कुछ जमीन एक शानदार एक्सप्रेस हाइवे बनाने के नाम पर हथियाई और फिर बिल्डरों को देने के लिए और जमीन मांगी. इसी मुद्दे पर किसान अड़ गए. उनका कहना था कि रास्ते के नाम पर सस्ते में जमीन दे दी लेकिन बिल्डरों के लिए वे मुंहमांगे दाम लेंगे. लेकिन बाजार अर्थव्यवस्था पर भरोसा करने वाली और गैस-पेट्रोल तक की कीमतों को बाजार के हवाले कर देने में विश्वास रखने वाली सरकारों को यह गवारा नहीं हो रहा कि किसान अपने पुरखों की जमीन की कीमत खुद तय करें. मह्त्वपूर्ण बात यह है कि इन गांवों में सारे किसान जमीन बेचने को तैयार भी नहीं हैं. करोड़ों रुपए के प्रलोभन के बावजूद बहुत सारे किसानों को एहसास है कि उनकी जमीन ही उनकी जिंदगी का आधार है- इससे उजड़ेंगे तो वे हमेशा के लिए उखड़ जाएंगे. उधर सरकार को भरोसा है कि देर-सबेर, कुछ मुआवजा बढ़ाकर, कुछ डरा-धमकाकर, कुछ तरह-तरह से दबाव बनाकर- जिसकी पुष्टि अभी ही गांव वाले कर रहे हैं- वह जमीन ले लेगी और अपने मंसूबों का आशियाना बना डालेगी.

कॉमनवेल्थ खेल तो एक बीती हुई दुनिया की थकी हुई दोयम दर्जे की प्रतियोगिता का नाम है जिसकी स्मृति शायद ही किसी को रहती हो 18 दिन किसानों का आंदोलन चला, किसी ने ध्यान नहीं दिया. आखिरी तीन दिनों में मामला हिंसा तक पहुंचा तो मीडिया भी टप्पल पहुंच गया- यह बताने कि टप्पल के किसानों को नोएडा जैसा मुआवजा चाहिए. इस सुर में किसानों के लिए जितनी सहानुभूति थी, उससे ज्यादा सरलीकरण था जो यह देखने को तैयार नहीं था कि राज्य के समग्र विकास में इन इमारती मंसूबों और उनसे लगे एक्सप्रेस हाइवे पर दौड़ने वाली गाड़ियों की क्या भूमिका होगी.

फिर यह सहानुभूति उस दिन तो शत्रुता में बदल गई जब किसान दिल्ली चले आए. इसके बाद की खबर दिल्ली की मुश्किलों की खबर थी- उन कामकाजी लोगों की, जो वक्त पर दफ्तर नहीं जा पाए, उन बीमारों की जो समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाए, उन मजदूरों की, जिनकी दिहाड़ी बंद हो गई. शायद ही किसी चैनल ने यह सवाल पूछा कि आखिर अपना घर-बार, अपने खेत-खलिहान छोड़कर किसान इस तपती-बरसती दिल्ली में क्यों आए हैं. अगर पूछा भी तो इतने हल्के अंदाज में कि फर्ज भी पूरा हो जाए और किसी को फर्क भी न पड़े.

दरअसल, यह सिर्फ इकहरी या फौरी दृष्टि का मामला नहीं है, यह उस सुनियोजित उपक्रम का भी नतीजा है जिसके तहत एक ग्लोबल भारत बनाने और उसे पहचान दिलाने की कोशिश हो रही है. जब इस पहचान पर बट्टा लगता है, जब यह ग्लोबल भारतीयता शर्मसार होती है तो मीडिया अपने सबसे सख्त और तीखे रूप में दिखाई पड़ता है. इसका प्रमाण कॉमनवेल्थ खेलों की रोज ली जाने वाली खबर है. इसमें शक नहीं कि कॉमनवेल्थ खेलों की अराजक तैयारी और उसमें छुपे भ्रष्टाचार की पोल हाल के दिनों में मीडिया की सबसे बड़ी उपलब्धि है. लेकिन यह अराजकता और भ्रष्टाचार सिर्फ कॉमनवेल्थ खेलों में नहीं, हमारी सारी योजनाओं में हर जगह मौजूद है.

कॉमनवेल्थ खेलों के भ्रष्टाचार और उनकी आधी-अधूरी तैयारी के पीछे मीडिया की केंद्रीय चिंता बस यही है कि दुनिया के सामने देश की बदनामी न हो. खेल अच्छे से हो जाएं, यह चिंता मीडिया के अलावा इस देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी तक को है जिनका कहना है कि खेल निपट जाए तो फिर वे भ्रष्टाचारियों से निपटेंगे. लेकिन कम लोग यह पूछ रहे हैं- और मणिशंकर अय्यर जैसे जो लोग यह पूछ रहे हैं उनके पीछे उनका निजी स्वार्थ और उनकी सनक खोजने की कोशिश ज्यादा हो रही है कि आखिर 70,000 करोड़ की लागत से होने वाले ये कॉमनवेल्थ खेल देश को क्या देंगे.

इतना ही जरूरी सवाल यह है कि कॉमनवेल्थ खेलों की आखिर हैसियत क्या है. ओलंपिक खेलों की एक अहमियत समझ में आती है कि वे तनावों और युद्धों से भरी बीसवीं सदी की तार-तार दुनिया को हर चार साल पर जोड़ने का काम करते रहे. जब सारे पुल टूटते-से लगे, उन्होंने खेलों के पुल बनाए रखे. एशियाई खेल भी उभरती हुई एशियाई अस्मिता के अपने सपने की तरह रहे जिनके आंकड़ों में लोगों की दिलचस्पी रही. लेकिन कॉमनवेल्थ खेल तो एक बीती हुई दुनिया की थकी हुई दोयम दर्जे की प्रतियोगिता का नाम है जिसकी स्मृति शायद ही किसी को रहती हो. हमें ओलंपिक और एशियाड का इतिहास मालूम है, कॉमनवेल्थ खेलों का नहीं- इसलिए नहीं कि उसमें खेल ऊंचे दर्जे के नहीं होते, बल्कि इसलिए कि कॉमनवेल्थ इस नई दुनिया में एक अप्रासंगिक हो चुकी संज्ञा है जिसका भार हमारी तरह के दृष्टिहीन देश ही ढोने को तैयार हैं. अब धीरे-धीरे यह बात भी खुल रही है कि कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन का अधिकार लेने के सिलसिले में हैमिल्टन को मात देने के लिए दिल्ली ने झूठ भी बोले- कहा कि इन खेलों के लिए जो खेलगांव बनेगा उसे दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रावास में बदला जाएगा. यह घोषणा अब न जाने किन फाइलों में बंद है और खेलों के बाद खेलगांव के फ्लैट बेचने की तैयारी चल रही है.

बहरहाल, बात पीपली लाइव से शुरू हुई थी. अपनी सीमाओं के बावजूद यह एक बड़ी फिल्म है- क्योंकि यह बताती है कि तंत्र की मजबूरी और मीडिया के तमाशे के बीच नत्था अपनी जमीन से उजड़कर आखिरकार गुड़गांव में मजदूरी करने को मजबूर है- शायद वह भी किसी कॉमनवेल्थ परियोजना का हिस्सा हो जिसे किसी तरह पूरा कर हमारा यह तंत्र दुनिया की वाहवाही लूटने को बेताब है- और भीतर-भीतर इस बात से खुश कि कॉमनवेल्थ के नाम पर मची लूट का एक बड़ा हिस्सा उसके गुमनाम खातों में पहुंच चुका है. समझने की जरूरत यह है कि भारत अब भी उपनिवेशवादी ताकतों का शिकार है- पहले ये ताकतें इंग्लैंड की नुमाइंदगी करती थीं, अब इंडिया का प्रतिनिधित्व करती हैं.

उतावलेपन के चश्मे से संतुलित

कई संशोधनों के बाद अब परमाणु उत्तरदायित्व बिल काफी हद तक संतुलित है. फिर भी इसमें कई अनावश्यक जटिलताएं और कमियां हैं

परमाणु उत्तरदायित्य विधेयक कई दिनों की खींचतान के बाद 25 अगस्त को लोकसभा और 30 अगस्त को राज्यसभा में पारित होकर तमाम सवाल पीछे छोड़ गया है. विधेयक का घोषित उद्देश्य किसी परमाणु प्रतिष्ठान में दुर्घटना की स्थिति में पीड़ितों को उचित मुआवजा और इसका तालमेल कुछ अंतर्राष्ट्रीय करारों के साथ सुनिश्चित करना था. इसके मूल विधेयक को मई में लोकसभा में पेश किया गया था. तब इसके कई प्रावधानों पर काफी हो-हल्ला मचा था जिसके बाद इसे संसदीय समिति के हवाले कर दिया गया था.

विपक्ष को मूल विधेयक की मुख्यतः दो बातों पर एतराज था. एक, अधिकतम मुआवजा कितना और कैसे दिया जाए और दूसरा परमाणु संयंत्र चलाने वाले (संचालक) का यदि दोष न हो तो ऐसे में अपने नुकसान की भरपाई परमाणु उपकरण बेचने वाली संस्था (आपूर्तिकर्ता) से वह कैसे कर सकता है?

मूल बिल में अधिकतम मुआवजे की सीमा करीब 2,100 करोड़ रुपए रखी गई थी जिसमें से संचालक का हिस्सा सिर्फ 500 करोड़ रुपए ही था. बाकी 1600 करोड़, यदि जरूरी हो तो, सरकार को देना था. बिल में यह स्पष्ट नहीं था कि संचालक पीड़ितों के नुकसान को पहले ही भर देगा या आपूर्तिकर्ता से उसे मुआवजा मिलने या न मिलने के फैसले के बाद ऐसा करेगा.

1986 में युक्रेन के चेर्नोबिल में विश्व की अब तक की सबसे बड़ी परमाणु दुर्घटना हुई थी. इसमें कम से कम साढ़े तीन लाख लोग विस्थापित हुए थे और प्रभावित लोगों की कुल संख्या छह लाख पार कर गई थी. भोपाल गैस त्रासदी में मारे गए कुल लोगों की संख्या करीब 20 हजार बताई जाती है और इससे प्रभावित लोगों की संख्या पांच लाख से ज्यादा. भोपाल त्रासदी के बाद यूनियन कार्बाइड से मिला मुआवजा – जिसे बहुत कम माना जाता है – भी मूल परमाणु उत्तरदायित्व बिल में ऑपरेटरों के लिए निर्धारित मुआवजे की राशि के चार गुने से ज्यादा था. इसके अलावा यह कौन-सा तरीका है कि करे कोई और भरे कोई. यानी मान लिया जाए कि गलती परमाणु संयंत्र चलाने वाले की हो तो दुर्घटना की हालत में वह तो केवल 500 करोड़  देगा और इसके ऊपर के 1,600 करोड़ जनता के पैसे से ही जनता को दे दिए जाएंगे. जाहिर सी बात है विपक्ष तो क्या किसी को भी इन बातों पर एतराज हो सकता था.

सवाल यह भी है कि विधेयक में सरकार ने ऑपरेटर और सरकार को अलग-अलग क्यों बताया है जबकि हमारे देश में सारे परमाणु संयंत्र परमाणु ऊर्जा कानून, 1962 के मुताबिक सरकारी ही हैं. तो क्या उत्तरदायित्व विधेयक परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में निजी कंपनियों की घुसपैठ की दिशा में एक छोटा-सा कदम था?

चारों दिशाओं से उठे हल्ले के बाद संसद में पारित विधेयक में ऑपरेटरों के उत्तरदायित्व की अधिकतम सीमा 500 की बजाय 1,500 करोड़ रुपए कर दी गई है. हालांकि विधेयक में कुल क्षतिपूर्ति की सीमा अभी भी 2,100 करोड़ ही है लेकिन यह सरकार को इसे बढ़ाने के अधिकार भी देता है. पारित विधेयक की दो और महत्वपूर्ण बातें ये हैं कि एक तो अब यह केवल सरकारी संस्थानों पर ही लागू होता है और दूसरा ऑपरेटर को दुर्घटना की हालत में अपनी ओर से ही बिना आपूर्तिकर्ता को बीच में लाए मुआवजे की राशि दे देनी होगी.

दूसरे बड़े एतराज की बात करें तो मई में पेश हुए मूल विधेयक के मुताबिक संचालक को केवल उस हालत में ही ‘परमाणु सामग्री, उपकरणों या सेवाओं के आपूर्तिकर्ता’ से क्षतिपूर्ति का अधिकार था जब दुर्घटना उसके ‘जान-बूझकर किए गए कृत्यों या भयंकर लापरवाही’ की वजह से हुई हो. यह बड़ा अजीब था, गड़बड़ी तो गड़बड़ी ही है. आखिर यह कौन और कैसे तय करेगा कि गड़बड़ी जानबूझकर की गई थी. जब संसदीय समिति ने काफी विचार-विमर्श के बाद इस प्रावधान को हटाने की सिफारिश कर दी तो सरकार ने एक अलग ही शगूफा छोड़ दिया. उसने ‘जान-बूझकर’ किए गए कृत्यों को ‘क्षति पहुंचाने की नीयत’ से अंजाम दिए कृत्य में तब्दील कर दिया. मानो किसी की नीयत सही है या खराब इसका फैसला करना बेहद आसान हो. इस परिवर्तन ने सरकार की नीयत पर ही तमाम सवाल खड़े कर दिए. बाद में सरकार को एक बार फिर से झुकना पड़ा. अब आपूर्तिकर्ता के किसी भी कृत्य से हुई परमाणु दुर्घटना की हालत में संचालक हर्जाने का दावा कर सकता है.

हालांकि अब यह बिल काफी हद तक संतुलित है फिर भी इसमें कई अनावश्यक जटिलताएं और कमियां हैं. मसलन यदि केंद्र सरकार किसी प्रक्रिया से गुजरकर ज्यादा मुआवजे का प्रावधान कर सकती है तो फिर इस विधेयक में इसकी अधिकतम सीमा निर्धारित ही क्यों की गई है ? अमेरिका की बात करें तो यहां ऑपरेटरों के लिए क्षतिपूर्ति की सीमा करीब 50 हजार करोड़ रुपए (भारत की करीब 25 गुनी) और सरकार के लिए असीमित है. जापान में ऑपरेटरों और सरकार दोनों के ही उत्तरदायित्व की सीमा असीमित है.

विधेयक में एक ओर तो लिखा है कि यह केवल सरकारी संस्थानों पर लागू होगा मगर इसमें सरकार और संचालकों को अलग करके रखा गया है.
विधेयक  मुआवजा, उत्तरदायित्व और इसकी प्रक्रिया की बात तो करता है. लेकिन दुर्घटना की स्थिति में इलाज आदि की व्यवस्था पर कुछ नहीं कहता.

यह कहना कि हमारे देश में चाहे संचालक मुआवजा दे या सरकार बात तो एक ही है, सही नहीं है. चूंकि परमाणु उपकरणों के आपूर्तिकर्ता से मुआवजा केवल संचालक ही मांग सकता है, इसलिए विदेशी आपूर्तिकर्ता कंपनी के मुआवजे की सीमा संचालक की 1,500 करोड़ रुपए की सीमा तक ही सिमट जाती है.

परमाणु ऊर्जा के मसले पर जिस तरह की जल्दबाजी और कुछ भी दांव पर लगा देने का उतावलापन सरकार ने अब तक दिखाया है, यदि उसको ध्यान में रखा जाए तो इस विधेयक को संतुलित कहा जा सकता है.

संजय दुबे, वरिष्ठ संपादक

आत्महत्या पर उतारू चैनल

समाचार चैनलों के आलोचकों का दायरा लगातार बढ़ रहा है और हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए  यह शुभ संकेत नहीं

समाचार चैनलों के लिए खतरे की घंटी तो काफी समय से बज रही है लेकिन अब लगता है कि पगली घंटी भी बज गई है. चैनल न सिर्फ सार्वजनिक मजाक और आलोचना के विषय बन गए हैं बल्कि उनकी कारगुजारियों को लेकर भी लोगों में गुस्सा बढ़ता जा रहा है. यह आलोचना, उपहास और आक्रोश कई रूपों में सामने आ रहा है. चैनलों के कर्ता-धर्ता अपने शीशे के चैंबरों से बाहर झांकें और अपनी ही बनाई ‘मेक बिलीव’ दुनिया से बाहर देखें कि अब यह सिर्फ कुछ ‘कुंठित, असफल और अज्ञानी’ मीडिया आलोचकों की राय नहीं है बल्कि आलोचकों का दायरा और उनकी तादाद लगातार बढ़ती जा रही है.

सरकार चैनलों के कंटेंट रेगुलेशन का जाल बिछाकर बैठी है. अपनी आदत से मजबूर चैनल इसमें फंसने के लिए लगभग प्रस्तुत हैंकुछ हालिया उदाहरण सामने हैं. समाचार चैनलों की भेड़चाल, हमेशा सनसनी की तलाश, अंधी होड़ और असंवेदनशीलता की खिल्ली उड़ाती फिल्म ‘पीपली लाइव’ को ही लीजिए. मानना पड़ेगा कि आमिर खान को वक्त और जनता की नब्ज की सही समझ है. उनकी फिल्म बिलकुल सही समय पर आई है. ऐसे समय में जब समाचार मीडिया खासकर समाचार चैनल मजाक के विषय बन गए हैं और दर्शकों में उनकी कारगुजारियों को लेकर गुस्सा बढ़ता जा रहा है, इस फिल्म के आने के कई मायने हैं. इससे पहले रामगोपाल वर्मा की फिल्म ‘रण’ ने भी चैनलों के बीच और उनके अंदर चलने वाली गलाकाट होड़,  खबरों के साथ खिलवाड़ और तोड़-मरोड़ को सामने लाने की कोशिश की थी.

असल में, ‘पीपली लाइव’ ने समाचार चैनलों की लगातार बदतर, बदरंग और बेमानी होती पत्रकारिता और उनकी नीचे गिरने की सामूहिक होड़ को एक बड़े दर्शक वर्ग के सामने उघाड़कर रख दिया है. अगली बार इस फिल्म को देखने वाला कोई दर्शक समाचार चैनलों की किसी खबर के साथ ऐसे ही खेल को देखेगा तो हैरान-परेशान होने की बजाय शायद वह हंसेगा.

इसमें कोई शक नहीं कि यह फिल्म समाचार चैनलों और उनके कामकाज के तरीकों का खूब मजाक उड़ाती है लेकिन उससे अधिक यह एक दुखांतिका है. सच पूछिए तो ‘पीपली लाइव’ किसानों की आत्महत्या से ज्यादा चैनलों की आत्महत्या की कहानी है.
कहते हैं कि विज्ञापन निर्माताओं की भी उपभोक्ताओं के मनोविज्ञान पर जबरदस्त पकड़ होती है. अगर आपने समाचार चैनलों की ब सिर-पैर पत्रकारिता का मजाक उड़ाता ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ का एक टीवी विज्ञापन देखा हो तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि लोग समाचार चैनलों और उनकी पत्रकारिता को कैसे देखते हैं? विज्ञापन में नकली दवा के शिकार मृतक की शोकसंतप्त पत्नी के आगे माइक लगाकर एक टीवी रिपोर्टर पूछती है कि उसे कैसा लग रहा है. इस सवाल पर रिपोर्टर के सिर पर पीछे से अखबार की थाप पड़ती है और संदेश आता है: ‘इट्स टाइम फॉर बेटर जर्नलिज्म.’ साफ है कि अखबार अपने को समाचार चैनलों की पत्रकारिता से अलग दिखाने की कोशिश कर रहे हैं.

बात फिल्म और विज्ञापन तक ही सीमित नहीं. पिछले पखवाड़े ही सुप्रीम कोर्ट ने आरुषि मामले में कुछ चैनलों और अखबारों की निहायत ही गैर जिम्मेदार, सनसनीखेज और चरित्र हत्या करने वाली रिपोर्टिंग को गंभीरता से लेते हुए इस तरह की रिपोर्टिंग पर प्रतिबंध लगा दिया है. यह सामान्य निर्देश नहीं है. लेकिन इक्का-दुक्का आवाजों को छोड़कर इसके विरोध में कोई सामने नहीं आया. उधर, केंद्र सरकार चैनलों के कंटेंट रेगुलेशन का जाल बिछाकर बैठी हुई है. अपनी आदत से मजबूर चैनल उस जाल में फंसने के लिए लगभग प्रस्तुत हैं.

यह सचमुच बहुत अफसोस और चिंता की बात है कि चैनल सब-कुछ जानते-समझते हुए भी आत्महत्या पर उतारू हैं. अगर कोई चैनल रक्षाबंधन पर ‘जहरीली बहना’ शीर्षक से मिठाइयों में मिलावट पर कार्यक्रम दिखाता है तो उसे क्या कहा जाए? साफ है पानी सिर से ऊपर बहने लगा है. मुझे खुद भी अकसर इसका अनुभव होता रहता है. अभी पिछले सप्ताह एनसीईआरटी में दिल्ली के जाने-माने स्कूलों की शिक्षिकाओं के एक मीडिया प्रशिक्षण कार्यक्रम में समाचार चैनलों को लेकर उनके तीखे सवालों के बीच मेरे लिए लोकतंत्र में पत्रकारिता की भूमिका और उसकी जरूरत का बचाव करना मुश्किल होने लगा. उनसे बात करते हुए लगा कि वे सिर्फ समाचार चैनलों ही नहीं, पूरी पत्रकारिता से चिढ़ी हुई हैं.

यह स्थिति हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं. एक स्वतंत्र, निष्पक्ष, ताकतवर और सक्रिय समाचार मीडिया और उसकी बेहतर पत्रकारिता के बिना लोकतंत्र की जड़ें सूखने लगती हैं. समाचार मीडिया की आज़ादी और उसकी ताकत दर्शकों, पाठकों और श्रोताओं के भरोसे पर टिकी होती है. पर समाचार चैनल अपनी कारगुजारियों से दर्शकों का विश्वास खो रहे हैं. पता नहीं क्यों वे यह नहीं समझ पा रहे कि यह विश्वास खोकर वे कहीं के नहीं रहेंगे? यह और बात है कि इसका सबसे अधिक नुकसान आम लोगों और लोकतंत्र को ही होगा. पगली घंटी जोर-जोर से बज रही है. लेकिन क्या आत्महत्या पर उतारू चैनल उसे सुन पा रहे हैं?

कलमाड़ी की दाढ़ी में…

लगभग छह फीट लंबे और 66 साल के सुरेश  कलमाड़ी का फलसफा है कि आदमी की जिंदगी में छोटी-मोटी चीजों के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए. वे कहते हैं, ‘छोटे आयोजनों के लिए मेरे पास न वक्त है और न ही उनमें मेरी दिलचस्पी, सिर्फ विशाल और विराट चीजें ही मेरा ध्यान खींचती हैं.’

आयोजन में अनियमितताओं के पीछे कलमाड़ी और उनके ‘वफादारों’ की एक पूरी टीम हैलेकिन आज एक विराट आयोजन ही उनके गले की फांस बन गया है. 16 साल से भारतीय ओलंपिक संघ (आईओए) का यह निर्विवाद बादशाह राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में अब तक हुए 28,000 करोड़ रुपए के खर्च के तरीकों को लेकर विवादों के घेरे में है.

हालांकि कलमाड़ी को नहीं लगता कि कोई  उनका कुछ बिगाड़ सकता है. सूत्रों के अनुसार अपने करीबियों के साथ हाल ही में हुई एक बैठक में उनका कहना था, ‘चिंता की कोई बात नहीं है. हम जनता को सब-कुछ समझा देंगे.’ कलमाड़ी का मानना है कि एक बार खेलों का आयोजन सफलतापूर्वक हो गया तो सारी देरियां, अक्षमताएं और वित्तीय गड़बड़झाले भुला दिए जाएंगे.

कहते हैं कि 80 के दशक में राजीव गांधी और अरुण सिंह से नजदीकियों के चलते कलमाड़ी के करिअर को तेज रफ्तार मिली. इसके बाद तो उन्होंने खेल प्रशासन के क्षेत्र में अपना साम्राज्य खड़ा कर डाला. विवाद के बाद भी वे कहीं से विचलित नहीं दिखते. कुछ दिनों पहले जेडी(यू) नेता शरद यादव ने उन्हें मोटी चमड़ी तक कह डाला था. इससे लगता है कि आज भी उनके संरक्षकों की कमी नहीं. हाल में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा भी था कि जब तक उन्हें मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी का भरोसा हासिल है, वे इस्तीफा नहीं देंगे.

पुणे के रहने वाले कलमाड़ी यहां से सांसद भी हैं. फर्ग्यूसन कॉलेज से स्नातक करने के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा अकादमी, खड़कवासला में उन्होंने एयरफोर्स पायलट की ट्रेनिंग ली और 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्ध में लड़ाक विमान भी उड़ाए. 1977 तक वे युवा कांग्रेस में पहुंच चुके थे. पांच साल बाद ही वे शरद पवार की मदद से राज्यसभा पहुंच गए. तीन बार लोकसभा चुनाव जीत चुके कलमाड़ी ने पुणे को कभी नजरअंदाज नहीं किया. उन्हीं की वजह से हर साल पुणे फेस्टिवल और महंगे अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों में से एक पुणे मैराथन करवाया जाता है.

कलमाड़ी की अकूत निजी संपत्ति का राज है ‘साई मोटर्स’ : देश में मारुति की सबसे बड़ी डीलरशिप चेन. उनके पास पुणे में बजाज के कई टू-व्हीलर शो-रूम और पेट्रोल-पंप भी हैं. पुणे के रिहायशी इलाके में डॉ केतकर रोड पर बने भव्य बंगले में रहने वाले कलमाड़ी शहर के सबसे महंगे कमर्शियल कॉम्पलेक्स के मालिक भी हैं. समृद्धि के इतने संकेतों के बावजूद, 2009 के लोकसभा चुनाव में संपत्ति के नाम पर कलमाड़ी ने महज 10 करोड़ रु दिखाए थे.

केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) ने 29 जुलाई को जब राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी में हुई धांधलियों का खुलासा किया था तो ऐसा नहीं लग रहा था कि आंच कलमाड़ी तक पहुंचेगी. लेकिन देखते ही देखते यह चिंगारी आग बन गई.  नतीजा यह हुआ कि खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कलमाड़ी के पर कतरने पड़े. 14 अगस्त को प्रधानमंत्री ने ओलंपिक समिति (ओसी) से आयोजन की जिम्मेदारी शहरी विकास मंत्री एस जयपाल रेड्डी की अध्यक्षता में बने एक मंत्रियों के समूह को दे दी. इतना ही नहीं, सचिवों की एक समिति को इस समूह से संबद्ध कर दिया गया और इस समिति को खेलों से जुड़ी तैयारियों की निगरानी और उसके मुताबिक फैसले लेने की छूट दी गई. प्रधानमंत्री को खेलों के आयोजन में लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों पर यह बयान भी देना पड़ा कि यदि कोई दोषी पाया जाता है तो उसके खिलाफ सरकार कड़ी कार्रवाई करेगी. ताजा हालात में कलमाड़ी के पास कोई अधिकार नहीं है. अब खेल शुरू होने तक उन्हें हर दिन सचिवों की समिति को रोजाना के कामों की रिपोर्ट देनी होगी.

सालों से खेल प्रशासन से जुड़े कलमाड़ी और विवादों का नाता काफी पुराना है. भारतीय हॉकी टीम के पूर्व कप्तान परगट सिंह ने उन्हें हाल ही में ‘खेल माफिया’ बताया था. हालांकि ऐसे ढेरों आरोपों के बावजूद कलमाड़ी को आईओए के अध्यक्ष पद से आज तक कोई हिला नहीं पाया. इसकी एक बहुत बड़ी वजह भारत में बने वे 35 खेल संघ हैं जिन्हें कलमाड़ी ने मान्यता दी है. आईओए के अध्यक्ष पद के चुनावों के दौरान ये संघ उनके साथ पूरी वफादारी निभाते हैं. सबसे ताज्जुब की बात यह है कि ये खेल संघ जिन खेलों के विकास के लिए बने हैं उनका नाम आपने शायद ही कभी सुना होगा. अट्या-पट्या (कर्नाटक में खेला जाने वाला एक खेल), बॉबस्लेड, बाईथालॉन, टग ऑफ वॉर, क्रोकेट, म्यूय थाई, रोल बॉल, सिपैक टाक्रॉ, टेनीकॉयट, ट्रेंपोलिन, थांग टा और साइकिल पोलो जैसे ये खेल ओलंपिक का हिस्सा भले न हों मगर कलमाड़ी ने इन्हें प्रोत्साहित करने वाली फेडरेशनों को मान्यता दे रखी है. हर फेडरेशन के पास तीन वोट भी होते हैं जिनका वे चुनाव में इस्तेमाल करती हैं. भारत में आने वाले दिनों में फॉर्मूला-1 ग्रांप्री रेस भी आयोजित किए जाने की योजना है, कलमाड़ी इससे भी जुड़े हैं. जेपीएसके नाम की एक फर्म ने भारत में फॉर्मूला-1 ग्रांप्री आयोजित करने के लिए इंग्लैंड की आयोजनकर्ता कंपनी के साथ 1,600 करोड़ रुपए का करार किया है. इस कंपनी में उनके बेटे सुमीर की हिस्सेदारी है.

राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी में हो रही देरी की एक वजह कलमाड़ी यह भी बताते हैं कि वे 2008 में युवा ओलंपिक खेलों में व्यस्त थे. लेकिन इन्होंने ही इन खेलों को भारत में आयोजित करवाने पर जोर दिया था

विवादों से कलमाड़ी का राजनीतिक करिअर भी अछूता नहीं रहा है. 1998 के चुनावों में कांग्रेस ने पुणे से उन्हें टिकट नहीं दिया तो उन्होंने भाजपा-शिवसेना के समर्थन से चुनाव लड़ा. इन चुनावों में उन्हें शिवसेना का समर्थन मिलना काफी आश्चर्यजनक था क्योंकि बाल ठाकरे उन्हें खुलेआम रंगबदलू कहा करते थे. 2009 में भी जब भाजपा कलमाड़ी की उम्मीदवारी पर विचार कर रही थी तो ठाकरे ने ऐतराज जताते हुए  साफ कहा था कि पुणे की सीट भाजपा को दी गई है, यदि उस पर भाजपा उम्मीदवार की जगह कलमाड़ी चुनाव लड़ेंगे तो शिवसेना अपना उम्मीदवार उतारेगी.

आईओए द्वारा जनता की गाढ़ी कमाई उड़ाने का यह पहला मामला नहीं है. एशियन गेम्स, 2014 की मेजबानी के लिए बोली से संबंधित खर्चों के लिए आईओए को दो करोड़ रुपए मिले थे. भारत यह मेजबानी लेने में नाकाम रहा. इसके बाद आईओए के बेतुके और अवास्तविक से लगने वाले खर्चे प्रकाश में आए. 20 दिसंबर, 2006 को एक इवेंट मैनेजमेंट कंपनी विजक्राफ्ट के नाम से बनी एक रसीद तहलका के पास है जो 4.33 लाख की है. इसमें कलमाड़ी के घर पर आयोजित रात्रि-भोज का लेखा-जोखा है. दूसरा भोज आईओए के महासचिव रणधीर सिंह के घर पर आयोजित हुआ जिसका खर्च था 2 लाख रुपए. सवाल यह है कि आखिर किसी के निजी आवास पर हो रहे आयोजन के लिए एक इवेंट मैनेजमेंट कंपनी को ठेका देने का क्या मतलब है? इसके अलावा एशियन गेम्स 2014 की मेजबानी के लिए आखिरी बोली लगाने के लिए और 1.24 करोड़ रुपए खर्च हुए.

पिछली 17 अगस्त को ही रणधीर सिंह ने 2019 में होने वाले एशियन गेम्स के आयोजन के लिए सरकार से अपील की है जबकि खेल मंत्री एमएस गिल ने महीने की शुरुआत में ही साफ कर दिया था कि भारत इस बोली का हिस्सा नहीं बनेगा. ऐसा लगता है कि बोली लगाने का उतना संबंध इसे जीतने या हारने से नहीं है जो ऊपर दिए गए उदाहरण भी बताते हैं. जितनी बार बोली लगाई जाएगी, उसकी आड़ में पैसे के गोलमाल की संभावना भी बढ़ जाएगी. एक बड़ा सवाल यह भी पूछा जाना चाहिए कि सरकार  भारतीय ओलंपिक संघ की सभी आर्थिक जरूरतें पूरी करती है लेकिन यह तय क्यों नहीं करती कि यह संघ किसी न किसी के प्रति जवाबदेह हो.

नियंत्रक एवं लेखा महानिरीक्षक (कैग) की रिपोर्ट बताती है कि राष्ट्रमंडल खेलों के लिए खरीदे गए 53 एयर कंडीशनरों में से 52 जस के तस रखे हैं. पिछले साल कलमाड़ी ने 6.24 लाख रुपए 1,000 तोहफों पर खर्च किए थे लेकिन इनमें से दिए गए सिर्फ 500. आईओए भवन की उन्होंने चार करोड़ रुपए में मरम्मत करवाई थी. लेकिन बाद में वे कहने लगे कि वहां पर्याप्त जगह नहीं है. इस आधार पर नई दिल्ली नगर पालिका परिषद (एनडीएमसी) से जगह किराए पर लेने का फैसला किया गया. मई, 2008 में एनडीएमसी को किराए के रुप में 9.2 करोड़ रुपए का अग्रिम भुगतान कर दिया गया जबकि जगह का इस्तेमाल होना शुरू हुआ अक्टूबर में. ऐसे और भी आरोप हैं. कैग की प्रारंभिक रिपोर्ट के मुताबिक कलमाड़ी ने खेलों के अंतर्राष्ट्रीय प्रसारण के लिए बतौर कंसल्टेंट फास्ट ट्रैक सेल्स का चयन सिर्फ इस आधार पर किया था कि उसकी पैरवी राष्ट्रमंडल खेल परिषद के अध्यक्ष माइक फैनेल और सीईओ माइक हूपर ने की थी. कहा जा रहा है कि फास्ट ट्रैक सेल्स की वजह से परियोजना को 24.6 करोड़ रुपए का घाटा होने की आशंका है.

तहलका की पड़ताल बताती है कि आयोजन में अनियमितताओं के पीछे कलमाड़ी और उनके ‘ वफादारों’ की एक पूरी टीम है. कलमाड़ी के इन करीबी लोगों में से ज्यादातर उनके गृहनगर पुणे के हैं. कलमाड़ी के खासमखास लोगों में सीडब्ल्यूजी के ज्वाइंट डायरेक्टर राजकुमार सचेती, असिस्टेंट डायरेक्टर जनरल संगीता वलेंका, ज्वाइंट डायरेक्टर जनरल वीके वर्मा, ज्वाइंट डायरेक्टर जनरल टीएस दरबारी और ट्रेजरर एम जयचंद्रन शामिल हैं. इनमें से दरबारी और जयचंद्रन को क्वींस बैटन रिले से जुड़े एएम फिल्म मामले में फंसने के बाद निलंबित कर दिया गया है. सचेती पहले दिल्ली के एक आम-से इलाके देवनगर में रहने वाले छोटे-मोटे एकाउंटेंट हुआ करते थे.आजकल उनके दिल्ली के पॉश इलाके ग्रीनपार्क में दो घर हैं. सचेती और उनके सहायक आरके कौशिक भी प्रवर्तन निदेशालय की जांच के दायरे में हैं.

कलमाड़ी और उनकी टीम के काम करने का एक निश्चित तरीका था. पहले एक विदेशी फर्म ढूंढ़ो, फिर नियमों को इस तरह तोड़-मरोड़ दो कि कोई भी घरेलू कंपनी मुकाबले में खड़ी न रह पाए. मसलन हर टेंडर में एक शर्त जरूर होती थी कि फर्म को किसी खेल आयोजन के साथ संबंधित काम करने का अनुभव हो. इसी आधार पर जेनरेटर बनाने वाली एक घरेलू कंपनी को अयोग्य ठहरा दिया जाता था क्योंकि उसने कभी किसी खेल आयोजन के लिए जेनरेटर सप्लाई नहीं किए होते थे. बाद में जेनरेटर लगाने का ठेका विदेशी कंपनी को दे दिया गया. इसी तरह फर्नीचर, ट्रेडमिल, टॉयलेट पेपर और सेनिटरी नैपकिन जैसी चीजों के लिए भी विदेशी फर्मों को बुलाया गया. कलमाड़ी ने एक बहुराष्ट्रीय कंपनी पिको और उसके भारतीय साझीदार दीपाली डिजाइंस एंड एक्जिबिट को जेनरेटर की आपूर्ति के लिए चुना है. इनके मार्फत मिलने वाले जेनरेटरों की कीमत भारत में बनने वाले जेनरेटरों से दस गुना ज्यादा है. दिलचस्प बात यह है कि हरेक विदेशी फर्म ने अपने-अपने ठेके भारतीय कंपनियों में बांट दिए हैं. सूत्र बताते हैं कि आखिर में आयोजन के लिए सभी वस्तुएं भारत से ही बाहर भेजी जाएंगी, फिर वहां से विदेशी कंपनियां उसे अपना माल बताकर दिल्ली भेज देंगी.

इस बीच सबसे ज्यादा हैरान करने वाली बात यह रही कि जब सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने फरवरी में स्टेडियमों में प्रसारण के लिए जरूरी उपकरण लगाने की निविदाएं जारी कीं (इनकी लागत 50 करोड़ रुपए थी) तो कलमाड़ी के कार्यालय से इस ठेके के लिए दीपाली टेंट हाउस की जोरदार पैरवी की गई. गौर करने वाली बात यह है कि दीपाली टेंट हाउस के मालिक, भाजपा नेता सुधांशु मित्तल के भतीजे हैं. कलमाड़ी के दबाव के बाद मंत्रालय ने दीपाली को बाकी दो कंपनियों के साथ शॉर्टलिस्ट कर लिया. हालांकि बाद में इन तीनों कंपनियों में से किसी को भी यह ठेका नहीं मिल पाया, पर कलमाड़ी ने तब भी इस कंपनी पर मेहरबान होते हुए उसे आईओए से 230 करोड़ रुपए का एक सौदा दिलवा ही दिया.

आयोजन से जुड़ा एक और घपला इसके प्रायोजकों की व्यवस्था करने वाली ऑस्ट्रेलिया की कंपनी स्मैम से जुड़ा है. 2008 में जब युवा ओलंपिक पुणे में हुए थे, तब इस कंपनी को प्रायोजकों से मिलने वाली कुल अनुमानित राशि तीन करोड़ डॉलर का 15 फीसदी हिस्सा दिया गया था. उस आयोजन के दौरान स्मैम ने सिर्फ एक प्रायोजक-कोकाकोला ढूंढ़ा था, फिर भी उसे सार्वजनिक कंपनियां जैसे बीएसएनएल और सेल से मिले पैसे में भी हिस्सेदारी दी गई थी. स्मैम को इस बार सीडब्ल्यूजी आयोजन के दौरान घरेलू कंपनियों के माध्यम से तकरीबन 23 फीसदी कमीशन मिलने की उम्मीद थी, लेकिन यह मसला सुर्खियों में आने के बाद कलमाड़ी ने कंपनी के साथ करार खत्म कर दिया.

राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में मुख्य साझीदार बनी भारतीय रेलवे और दूसरी सरकारी संस्थाएं  भी अब नाक-भौं सिकोड़ रही हैं. इस आयोजन की बोली जीतने के बाद जो आंकड़े इन साझीदारों को दिखाए गए थे वे अब काफी ऊपर जा चुके हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बारे में भी कपोल कल्पनाएं की गई थीं कि खेलों के आयोजन में वे बढ़-चढ़कर हिस्सा लेंगी, पर ऐसा होता हुआ नहीं दिख रहा. नतीजतन सरकारी संस्थाओं को बतौर प्रायोजक बजट से ज्यादा पैसा लगाना पड़ रहा है. इन्हीं सरकारी पैसों से राष्ट्रमंडल खेलों की साख थोड़ी-बहुत बची हुई है.

तथ्य बताते हैं कि किस तरह बड़े-बड़े दावों के बावजूद कलमाड़ी ने आयोजन को लेकर लापरवाही भरा रवैया अपनाया. राष्ट्रमंडल खेलों के लिए नई दिल्ली का चयन 2003 में ही हो गया था लेकिन कैग की रिपोर्ट बताती है कि आयोजन की रूपरेखा अगस्त, 2007 में बन पाई. मार्च, 2008 में जाकर प्रोजेक्ट और रिस्क मैनेजमेंट विशेषज्ञों की नियुक्ति की गई. नवंबर, 2008 में आयोजन की रूपरेखा को अंतिम रूप दिया गया. कुल मिलाकर पांच साल बर्बाद किए गए. जुलाई, 2009 तक आईओए इस बात पर विचार कर रही थी कि नेहरू स्टेडियम जैसे मुख्य खेल स्थलों को कैसे संवारा जाए. इसी लेट-लतीफी का नतीजा है कि इस समय तैयारी को लेकर आपाधापी का माहौल है.

राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी में हो रही देरी की एक वजह कलमाड़ी यह भी बताते हैं कि वे 2008 में युवा ओलंपिक खेलों में व्यस्त थे. लेकिन इन्होंने ही इन खेलों को भारत में आयोजित करवाने पर जोर दिया था. ये जानते हुए कि इनकी कोई खास अहमियत नहीं है और राष्ट्रमंडल के 108 साल के इतिहास में ये बस तीन बार ही हुए हैं. दरअसल, पुणे में आयोजित ये खेल कलमाड़ी की चुनावी रणनीति का हिस्सा थे. इनमें पुणे को सजाने-संवारने में कुल 1,118 करोड़ रुपए खर्च हुए थे. तहलका ने पुणे के उस बलेवड़ी स्टेडियम का दौरा किया जहां यह आयोजन हुआ था. यह फिलहाल 114 कांग्रेस कार्यकर्ताओं का घर बन चुका है. पुणे प्रशासन ने 500 करोड़ रुपए में बलेवड़ी स्टेडियम का निर्माण कराया था. कलमाड़ी ने इसकी मरम्मत के लिए ही 318 करोड़ रुपए खर्च करवा दिए. इसका ठेका उनके एक करीबी अजय शिर्के को मिला था. स्टेडियम के नजदीक एक होस्टल भी बनाया जा रहा था, लेकिन आयोजन तक यह तैयार नहीं हो पाया. अब यह चार-सितारा होटल बन चुका है जबकि ग्रीन बेल्ट में होने कारण इसका व्यावसायिक इस्तेमाल नहीं हो सकता था. इसे विठल कामथ (जिनकी होटलों की श्रृंखला है) को 1.57 करोड़ रुपए की लीज पर दे दिया गया है जबकि इसका बाजार मूल्य 1,000 करोड़ रुपए है.

कलमाड़ी ने अपने लिए जो जगह चुनी है वह खेल का मैदान है. यहां जब किसी की जीत होती है तो इसका मतलब है किसी की हार. गलतियां करने वाले को मैदान से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है. फिलहाल प्रधानमंत्री, कलमाड़ी को रेडकार्ड दिखा चुके हैं यानी उन्हें चेतावनी मिल चुकी है कि वे इस ‘खेल’ के नियमों का ध्यान रखें वरना सीडब्ल्यूजी का आयोजन उनके खेल साम्राज्य की अंतिम घटना हो सकती है.

(पुणे से पुष्प शर्मा और नई दिल्ली से बृजेश पांडे और वैभव वत्स के योगदान के साथ)

' नए निर्देशकों में आग है लेकिन वे कितने जिम्मेदार हैं, कहना मुश्किल है '

उम्र की 66वीं दहलीज पर खड़े हिंदुस्तान के मशहूर फिल्मकार राजा सईद मुजफ्फर अली आज भी उत्साह, ऊर्जा और नए विचारों से लबरेज ‘जूनी’ जैसे अपने कुछ अधूरे ख्वाबों को हकीकत में बदलने की कोशिश में जुटे हैं. फिल्मकार, चित्रकार, शायर, फैशन डिजाइनर और सामाजिक कार्यकर्ता मुजफ्फर अली का रचनात्मक सफर  आज भी कला के अनछुए आयामों की खोज में लगा हुआ है. कुछ दिन पहले भोपाल आए  मुजफ्फर अली की  प्रियंका दुबे से बातचीत

 

फिल्म ‘जूनी’ पर

‘जूनी’ हब्बा खातून से प्रेरित एक कश्मीरी किरदार है जो ख्वाबों में जीने वाली एक शायरा थीं. आज कश्मीरियों की सबसे बड़ी शिकायत है कि कोई उन्हें समझता नहीं है. जूनी कश्मीरियों और बाकी हिंदुस्तान के बीच एक पुल का काम करेगी. राजनीतिक जड़ों से शुरू होकर बाद में फिल्म एक भावनात्मक मोड़ ले लेती है. इसकी शूटिंग के दौरान मैं 2 साल तक कश्मीर में रहा और मैंने उनकी संस्कृति, तहजीब और उनके जज्बातों को पर्दे पर उतारने की कोशिश की है. जूनी मेरा अधूरा ख्वाब है जो जल्दी पूरा होगा.

फिल्मों में शायरी के अहम किरदार पर

दरअसल देखा जाए तो गीत और शायरी किसी भी फिल्म का महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं. हर शायर अपनी शायरी में अपने वक्त की तसवीर दिखाता है. शहरयार की नज्मों ने उमराव जान के किरदार को निखारने में अहम भूमिका निभाई थी. इसी तरह ‘गमन’, ‘अंजुमन’ और ‘जूनी’ में भी मैंने अपने किरदारों को शायरी के जरिये स्थापित करने की पूरी कोशिश की है.

अपनी आने वाली फिल्मों पर

‘रूमी’ और ‘नूरजहां’ आने वाली फिल्में हैं. अभी इन दो स्क्रिप्टों पर काम कर रहा हूं. नू्रजहां एक बेहद मामूली मुहाजिर खानदान की लड़की के हिंदुस्तान की सबसे शक्तिशाली औरत बनने के सफर की कहानी है. मैं भोपाल से जुड़ी एक स्क्रिप्ट पर भी काम कर रहा हूं.
यह एक ऐसी फिल्म होगी जो गैस त्रासदी के बाद के भोपाल को दिखाएगी. यह दुनिया की सबसे दर्दनाक त्रासदियों में से एक से गुजरने, उसे सहने,  उससे लड़ने और उबरने की भोपाल वासियों की सकारात्मक कोशिशों और उनके जज्बे को एक सलाम होगा.

फिल्मों के विकास में डीडी की भूमिका पर

प्रसार भारती बोर्ड का सदस्य बनने के बाद मैंने महसूस किया कि दूरदर्शन की क्षमता के उचित दोहन के लिए  बड़े स्तर पर डीडी के गुणात्मक और तकनीकी विकास की जरुरत है. मैं चाहता हूं कि हम लखनऊ और कश्मीर में एक-एक फिल्म ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट बनाएं.
किसी भी देश का राष्ट्रीय चैनल उसकी सोच को जाहिर करता है. इस लिहाज से हमें डीडी से बहुत उम्मीद है. हमने अपने इतिहास का ठीक से दस्तावेजीकरण नहीं किया है. विभाजन, 1857 का विद्रोह और भोपाल गैस त्रासदी जैसे विषयों को अलग-अलग आयामों से देखकर सैकड़ों फिल्में बनाई जानी चाहिए थीं. पर हम तो बनी हुई कई महान  फिल्मों के प्रिंट तक संभालकर नहीं रख पाए. मेरा मानना है कि डीडी को इस तरह के प्रोजेक्टों को उत्साहित करना चाहिए.

दिल्ली में ‘ले फकीर दे बनारस’ नाटक की सफलता पर

संगीत के साथ नाटक खेलने की विधा कम होती जा रही है, इसलिए मैंने इस तरह के नाटक का निर्देशन किया. दिल्ली में दर्शकों ने इसे बहुत सराहा भी. देश के दूसरे हिस्सों में भी इस तरह के प्रयोग किए जाने चाहिए. हमें अपने सांस्कृतिक पुनर्जागरण और मुक्ति की प्रक्रिया को फिर से जगाना चाहिए. हमारे पास जबर्दस्त सांस्कृतिक विरासत है, बस उसे सहेजने की जरूरत है.

सिनेमा और रंगमंच के रिश्ते पर

रंगमंच हमेशा की तरह सिनेमा को बेहतर अभिनेता देता रहेगा, पर रंगमंच को अपने वजूद को मजबूत करना होगा. इसके लिए सामाजिक संबल की भी जरूरत है. बंगाल और महाराष्ट्र की तरह सारे देश में रंगमंच को सांस्कृतिक समृद्धि का सूचक माना जाना चाहिए.

डिजाइनर कपड़ों की रेंज ‘कोटवारा’ पर

अपने पैतृक गांव कोटवारा के नाम पर मैनें कपड़ों की यह डिजाइन शुरू की. कोटवारा लखनवी विरासत के नवाबी दौर को आज के दौर के हिसाब से वैश्विक स्तर पर पेश करने की
कोशिश है.

नई पीढ़ी के निर्देशकों पर

तकनीकी स्तर पर आज के फिल्मकार बेहतर हैं, पर विषय, कंटेंट और कलात्मक पक्षों में हम खोखले होते जा रहे हैं. कुछ लोगो में आग है पर वो कितने जिम्मेदार हैं, कह पाना मुश्किल है. आज हमारी फिल्मों में कंटेंट और अच्छी स्क्रिप्टों की बहुत कमी है. असल में सन 1970 से हम लोग भटक गए. साहित्य से दूरी और दृष्टि की कमी की वजह से ऐसा हो रहा है. मैं ‘तुरंत सफलता’ और चीजों को सनसनीखेज करके पेश करने के खिलाफ नहीं हूं पर इसका समाज पर क्या प्रभाव पड़ सकता है, देखना जरूरी है.

जहां नायिका, नायक है… : अंतर्द्वंद्व

फिल्म अंतर्द्वंद्व

निर्देशक सुशील राजपाल

कलाकार राज सिंह चौधरी, विनय पाठक, स्वाति सेन

रंगीन समय में ‘अंतर्द्वंद्व’ ब्लैक ऐंड व्हाइट नाम है और शहरी दर्शकों की बहुतायत (और छोटे शहरी, ग्रामीण भी) ऐसे नाम वाली फिल्म से कन्नी काटना ही पसंद करेगी, लेकिन आपको अपनी सीमाओं से थोड़ा बाहर जाकर फिल्में देखना और अच्छा पाने पर आनंदित होना अच्छा लगता हो तो यह फिल्म आपके लिए है.

यह वह कहानी है जिसके आसपास की कहानियां भी इन दिनों नहीं दिखतीं. अपने परिवेश और भाषा के साथ यह एक नया विषय हिंदी सिनेमा को थमाती है. बिहार का एक लड़का जो दिल्ली में आईएएस की तैयारी कर रहा है, साथ ही एक शिद्दत वाला प्रेम भी और जिसके पिता किसी रसूखदार अमीर की बेटी से उसके कीमती ब्याह के सपने संजोए हुए हैं, उसे एक दूसरा अमीर (या रसूखदार गुंडा) अपनी बेटी से शादी करवाने के लिए उठवा लेता है. सब अंतर्द्वंद्व इसी अनोखी और भयानक शादी से
जुड़े हैं.

निर्देशक सुशील राजपाल सिनेमेटोग्राफर हैं, इसलिए अंधेरे-उजाले को मिलाकर खूबसूरत दृश्य रचते हैं. स्क्रिप्ट अच्छी है लेकिन थोड़ी और तेज, थोड़ी और गहरी हो सकती थी. डायलॉग थोड़े और तीखे, थोड़े और परेशान करने वाले हो सकते थे.

यह सामाजिक मुद्दे वाली श्रेणी में राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुकी है, लेकिन मेरी शिकायत दिल्ली और दिल्ली की प्रेम कहानी को फिल्मी ढंग से दिखाने से है. दिल्ली में नायक के अपनी प्रेमिका के साथ नोक-झोंक या प्रेम के दृश्य वैसे ही हैं, जैसा किसी भी आम फिल्म में आप देखेंगे. मगर ऐसी कमियों को राज सिंह चौधरी, विनय पाठक और स्वाति सेन अपनी विश्वास दिलाने वाली एक्टिंग से काफी हद तक ढंक लेते हैं.

असल जिंदगी में ऐसी शादियां जितनी क्रूर हैं, फिल्म उससे थोड़ी कम ही क्रूर होती है, इसलिए ज्यादा परेशान नहीं करती. हां, उसकी सफलता यह है कि वह उस शादी से जुड़े हर पहलू को आपको सीधा दिखा देती है. वह विनय पाठक के रूप में ऐसा बहुसंख्यक मध्यवर्गीय पिता दिखाती है जो अपने बेटे के सब फैसले करना चाहता है और वह अगर दिल्ली में किसी पंजाबिन से प्रेम रचा रहा है तो यह उसके आईएएस बनने की तमाम संभावनाओं के बावजूद घोर चारित्रिक पतन है. हालांकि भीतर की परत में अपनी मर्जी का रिश्ता करवाने में उसके सामाजिक स्वार्थ हैं.

फिल्म दिल्ली की प्रेम कहानी की भी नब्ज टटोलती है और उसे शुरू के दृश्यों की तरह उतना फिल्मी नहीं रहने देती. लेकिन असली अंतर्द्वंद्व उस लड़के और लड़की के भीतर छिड़ा है जिन्हें जबरन बलि पर चढ़ा दिया गया है. यहां लड़के के भीतर उतरना आसान और पारंपरिक है, लेकिन फिल्म लड़की के मन के भीतर गहरे उतरती है और उसे नायक बनाकर जीत जाती है.

गौरव सोलंकी 

जिन पाया तिन मारयां

21 अप्रैल, 2002 को आधी रात में अचानक ही सोनभद्र जिले के म्योरपुर ब्लॉक स्थित करहियां गांव के जंगलों में गोलियां तड़तड़ाने लगीं. जंगलों के बीच जहां-तहां बसे आदिवासी पुरवे- जो 2002 तक आते-आते इस तरह की घटनाओं के आदी हो चुके थे- एक बार फिर से किसी अनिष्ट की आशंका के बीच झूलने लगे. सुबह हुई तो बस इतना पता चला कि पिछली रात पुलिस के साथ मुठभेड़ में जो चार ‘खूंखार नक्सली’ मारे गए थे, दुद्धी थाने में उनकी शिनाख्त का काम चल रहा है.

पुलिसवालों ने पहले से जल रही चिता पर चारो लाशों को डालने को कहा. मजबूरन सूरजमन लाशों को उसी चिता पर ले जाकर डाल आए

अगले दिन यानी 22 तारीख को दिन भर ऊहापोह की स्थिति बनी रही जो शाम के धुंधलके के साथ और स्याह होती जा रही थी. जिन लोगों के परिजन घरों से बाहर थे उनकी चिंता कुछ ज्यादा ही गहरी थी. लेकिन बभनडीहा के भलुही टोले में रहने वाले सूरजमन गोंड़ निश्चिंत थे क्योंकि उनके तीनों बेटों के साथ कुछ भी बुरा घटने की आशंका न के बराबर थी. उनका सबसे बड़ा बेटा रामनरेश और मझला बेटा सुरेश शाम होते ही घर चले गए थे जो कि म्योरपुर-मुर्धवा मार्ग के किनारे स्थित उनकी चाय-पकौड़ी की दुकान से करीब एक किलोमीटर अंदर जंगल में स्थित है. सूरजमन अपने छोटे बेटे राजेश कुमार और पत्नी के साथ दुकान में ही सो रहे थे. आधी रात से कुछ पहले अचानक ही दुकान के दरवाजे पर हुई दस्तक ने सूरजमन की नींद तोड़ दी. कुछ समझ आता इससे पहले ही पुलिस उन तीनों को अपने साथ दुद्धी थाने में ले गई. वहां पुलिस ने पिछली रात हुई ‘मुठभेड़’ में मारे गए चार लोगों के शव दिखाकर सूरजमन से अपने 16 वर्षीय बेटे सुरेश की शिनाख्त करने के लिए कहा. उनमें से कोई भी सूरजमन का बेटा नहीं था और यही उन्होंने पुलिस से कहा भी. मगर पुलिसवालों को यह कतई मंजूर नहीं था. वे उन शवों में से एक को सुरेश का बताकर उसकी शिनाख्त करने के लिए सूरजमन को तरह-तरह से धमकाने लगे. सूरजमन जितना इनकार करते पुलिस का दबाव भी उतना ही बढ़ता जाता. आखिरकार पुलिस ने बेतरह दबाव डालकर सूरजमन और उनके बेटे को वहां पड़ी लाशों का अंतिम संस्कार करने के लिए मजबूर कर दिया.

पुलिस के क्रूर चरित्र का पटाक्षेप यहीं नहीं हुआ. एक गाड़ी में लाशों को लादकर वे पास के श्मशान घाट पर ले गए. वहां पहले से ही एक लाश जल रही थी. पुलिस वालों के पास चारों शवों के अंतिम संस्कार का कोई भी सामान मौजूद नहीं था. बकौल सूरजमन, ‘पुलिसवालों ने मुझसे कहा कि पहले से जल रही उसी चिता पर इन लाशों को भी डाल दो. मजबूरन हम बाप-बेटे मिलकर लाशों को उसी चिता पर ले जाकर डाल आए. वहां से लौटकर हमने तुरंत अपने बेटे को छत्तीसगढ़ एक रिश्तेदार के यहां भेज दिया. हमें डर लगने लगा था कि कहीं पुलिस अपनी कहानी को सच साबित करने के लिए हमारे बेटे को ही न मार दे.’

पुलिसिया आंतक का अंत यहीं नहीं हुआ. अब पुलिस सूरजमन पर जिंदा बेटे की तेरहवीं, दसवां और अन्य दूसरे संस्कार कराने के लिए दबाव डालने लगी. किंतु सूरजमन इसके लिए कभी तैयार नहीं हुए. भागे-भागे फिर रहे सुरेश पर इस दौरान अभी भी पुलिस द्वारा मारे जाने का खतरा मंडरा रहा था. दिन बीत रहे थे लेकिन पुलिस का दबाव कम नहीं हो रहा था. अब पुलिस ने एक नया पैंतरा चला. वह सूरजमन पर अपने बेटे का मृत्यु प्रमाणपत्र बनवाने का दबाव बनाने लगी. पुलिस रिकॉर्ड में मृत घोषित सुरेश बताते हैं, ‘पिता जी तो एक बार दबाव में आकर कर्मकांड के लिए तैयार भी हो गए थे. उनका कहना था कि दिखाने के लिए ही कर देते हैं, कम-से-कम जान तो छूटेगी पुलिसवालों से. लेकिन मेरी मां इसके लिए एकदम तैयार नहीं हुई. मैं कभी-कभी रात को चोरी से जंगलों के रास्ते घर आता था तब मुझे ये सारी बातें पता चलती थी.’

पुलिस सूरजमन पर जिंदा बेटे की तेरहवीं, दसवां और अन्य दूसरे संस्कार कराने के लिए दबाव डालने लगी. बाद में वह सूरजमन पर सुरेश का मृत्यु प्रमाणपत्र बनवाने का दबाव बनाने लगीसुरेश की मां द्वारा पकड़ी गई यह जिद अनजाने में ही सुरेश की जान की ढाल बन गई क्योंकि यदि सूरजमन ने सुरेश का मृत्यु प्रमाणपत्र बनवा दिया होता या उसकी तेरहवीं आदि करवा दिए होते तो इस बात की प्रबल संभावना थी कि सुरेश को किसी तरह से जाल में फंसाकर उसकी हत्या कर दी जाती. स्थानीय लोगों के मुताबिक समय बीतने के साथ शायद  पुलिस को इस बात का एहसास होता जा रहा था कि उसकी कहानी उसी पर भारी पड़ सकती है. इधर मामला थोड़ा ठंडा पड़ रहा था और उधर सुरेश को कुछ स्थानीय समाजसेवी कार्यकर्ताओं का साथ भी मिल गया. इनके सहारे सुरेश ने 2003 में सोनभद्र की  जिला अदालत में आत्मसमर्पण कर दिया. अदालत ने तुरंत ही सुरेश को पुलिस रिमांड पर भेज दिया जिसके बाद सुकृत से लेकर म्योरपुर तक अलग-अलग इलाकों में सुरेश पर अवैध हथियार रखने, नक्सलवाद फैलाने और गैंग्स्टर कानून के छह गंभीर मामले दायर कर दिए गए. पांच मामलों में सुरेश बरी हो चुका है. गैंग्स्टर एेक्ट वाला मामला अभी भी अदालत में चल रहा है.

यहां तथाकथित नक्सलवाद से निपटने के  हमारी व्यवस्था के तौर-तरीकों पर कई गंभीर सवाल खड़े किए जा सकते थे. लेकिन नक्सलवाद के कथित राक्षस से निपटने जैसे महती काम के फेर में किसी को भी व्यवस्था का यह विद्रूप चेहरा नज़र नहीं आया. इनमें पहला गंभीर सवाल यह था कि दो सालों से लगातार जिस व्यक्ति को पुलिस मृत नक्सली बता रही थी उसके आत्मसमर्पण के बाद भी किसी ने पुलिस की भूमिका पर कोई सवाल क्यों नहीं खड़ा किया. अदालत को भी इसकी सुध क्यों नहीं रही? और जब मरा हुआ व्यक्ति जिंदा सामने आ चुका था तो उसके बाद भी किसी ने पुलिस से यह पूछने की कोशिश क्यों नहीं की कि जिसे पुलिस ने सुरेश बताकर मारा था वह कौन था?

यह कहानी का सिर्फ आधा हिस्सा है इसका दूसरा हिस्सा पुलिस का इससे भी ज्यादा कुरूप चेहरा सामने लाता है. 21 अप्रैल, 2002 को करहियां में हुई मुठभेड़ के बाद पुलिस ने बाकायदा बयान जारी किया था कि मुठभेड़ में मारे गए चार ‘नक्सलियों’ में तीन चपकी गांव के थे जिनके नाम क्रमश: राजकुमार, राजू गोंड़ और बसंत लाल थे. चौथा मृत बभनडीहा के भलुही टोला का रहने वाला सुरेश गोंड़ था. पुलिस के मुताबिक मारा गया नक्सली राजकुमार, पुत्र रामसिंह चपकी गांव का रहने वाला था. उसी समय यह बात लोगों के बीच चर्चा का विषय बन गई थी क्योंकि रामसिंह नाम का कोई भी व्यक्ति चपकी गांव में रहता ही नहीं था. रामसिंह नाम से अंदाजा लगाकर पास ही के गांव बघमनवा के रहने वाले रामसिंह थाने में शिनाख्त के लिए पहुंच गए क्योंकि उनका 15 वर्षीय बेटा बद्रीनाथ दो दिनों से घर नहीं लौटा था. लेकिन थाने से पुलिस ने उन्हें यह कहकर भगा दिया कि तुम्हारा बेटा नहीं बल्कि राजकुमार मरा है. बात आई-गई हो गई और रामसिंह अपने बेटे बद्रीनाथ की खोज में मारे-मारे फिरते रहे.

रामसिंह कहते हैं, ‘डेढ़ साल तक हम सोनभद्र से लेकर मिर्जापुर तक की जेलों और पुलिस अधिकारियों के चक्कर काटते रहे. पुलिसवाले कुछ बताने को तैयार ही नहीं होते थे.’ हारकर एक दिन रामसिंह एक स्थानीय नेता के पास पहुंचे. जिसकी मदद से जब उन्होंने दुद्धी थाने में करहियां ‘मुठभेड़’ से संबंधित फाइलें देखीं तो मामला एकदम साफ हो गया. इन फाइलों में ‘मुठभेड़’ में मारे गए लड़कों की तस्वीरें थीं. फोटो देखकर रामसिंह ने अपने बेटे बद्रीनाथ को पहचान लिया. पुलिस अब तक जिसे राजकुमार कह रही थी वह बद्रीनाथ निकला. जिस बात की पुष्टि एक पल में हो सकती थी उसे पता करने में रामसिंह  के दो साल और हजारों रुपए खर्च हो गए. दर-दर की ठोकरें खानी पड़ीं सो अलग. अपने बेटे का अंतिम संस्कार भी उन्हें उसकी मौत के दो साल बाद करना पड़ा और इन सबसे ऊपर हाई स्कूल के एक निर्दोष छात्र को नक्सली बताकर मार दिया गया. गांव में एक भी ऐसा व्यक्ति तहलका को नहीं मिला जिसे बद्रीनाथ के चाल-चरित्र पर जरा भी संदेह रहा हो.

रामसिंह अपने बेटे बद्रीनाथ की खोज में मारे-मारे फिरते रहे. डेढ़ साल बाद दुद्धी थाने के रिकॉर्ड से पता चला कि पुलिस जिसे राजकुमार बता रही है दरअसल वो उनका बेटा बद्रीनाथ ही थाएक एनकाउंटर में मारे गए चार में से दो लोगों के मामलों में इतनी सारी खामियों को देखते हुए राजू गोंड़ और बसंत लाल की मौत अपने आप संदिग्ध हो जाती है. क्या वे वास्तव में नक्सली थे? दोनों के गांववाले सिरे से इस बात को खारिज कर देते हैं. तो क्या सिर्फ पुलिसवालों की बिना बारी के प्रोन्नति पाने की महत्वाकांक्षा ने चार निरीहों की जान ले ली? इन सवालों के संदर्भ में स्थानीय और जिला पुलिस प्रशासन की भूमिका और उनका पक्ष जानना जरूरी है. जब हम म्योरपुर स्थित पुलिस चौकी पर इस मुठभेड़ की जानकारी हासिल करने पहुंचे तो चौकी इंचार्ज पुष्पेंद्र प्रताप सिंह ने गेंद दुद्धी थाना होते हुए जिला पुलिस मुख्यालय स्थित नक्सल सेल और फिर वहां से जिला पुलिस कप्तान के पाले तक घुमा दी. गौरतलब है कि सुरेश के मारे जाने और राजकुमार के बद्रीनाथ होने के सबूत म्योरपुर की इसी पुलिस चौकी में तहलका के जाने से हफ्ते भर पहले तक मौजूद थे.

इलाके में आदिवासियों के बीच काम करने वाली संस्था वनवासी सेवा आश्रम के कार्यकर्ता जगत विश्वकर्मा को जब यह बात उड़ते-उड़ते पता लगी तो वे इसकी सच्चाई का पता लगाने के लिए 15 जुलाई को म्योरपुर पुलिस चौकी के मुंशी गैस लाल से मिले थे. विश्वकर्मा बताते हैं कि गैस लाल ने खुद उन्हें 2002 के अपराध रजिस्टर में दर्ज ‘मुठभेड़’ में  मारे गए सभी लोगों के नाम, पते आदि दिखाए थे, जिनमें आज भी किसी और की जगह सुरेश और बद्रीनाथ की जगह राजकुमार का नाम ही दर्ज है. लेकिन हफ्ते भर बाद जब तहलका उनसे जाकर मिला तो मुंशी गैस लाल और चौकी प्रभारी पुष्पेंद्र सिंह ने अपने यहां इस प्रकार के किसी रिकॉर्ड के होने से ही इनकार कर दिया. पुष्पेंद्र सिंह के शब्दों में, ‘चौकी में इतने पुराने रिकॉर्ड नहीं रखे जाते. ये नक्सल से जुड़ा मामला है, इसलिए आपको रॉबर्ट्सगंज स्थित पुलिस मुख्यालय के नक्सल सेल से संपर्क करना होगा. सुरेश का नाम गलती से छप गया था. उसकी जगह किरबिल गांव का रामसेवक मारा गया था.’ सिंह साहब की इस सफाई पर भी कई सवाल हैं. अगर नाम गलती से छपा था तो इसे आठ साल तक सही करने की सुध किसी को क्यों नहीं आई? किरबिल स्थित रामसेवक के घरवाले कहते हैं कि उन्हें आज तक किसी ने यह नहीं बताया है कि रामसेवक करहियां मुठभेड़ में मारे जाने वालों में शामिल था. साल भर गायब रहने के बाद उन्होंने रामसेवक को मरा हुआ मानकर उसका क्रियाकर्म आदि कर दिया. अगर रामसेवक मारा गया था तो उसके परिजनों को पुलिस ने इसकी जानकारी देना क्यों जरूरी नहीं समझा?

पुलिस की कहानी में जब इतनी खामियां हैं तो फिर यह कैसे मान लिया जाए कि मारा गया व्यक्ति वास्तव में रामसेवक ही था? और अगर पुलिस की यह नई वाली कहानी सही है तो फिर अगले दो साल तक सुरेश के परिजनों पर पुलिस कर्मकांड करवाने और मृत्यु प्रमाणपत्र बनवाने के लिए दबाव क्यों डालती रही?

अब रॉबर्ट्सगंज स्थित नक्सल सेल की कुशलता की बात कर लेते हैं. यह सेल सिर्फ नक्सल से जुड़े मसलों के लिए ही बना है जहां एक आईपीएस स्तर के अधिकारी के नेतृत्व में पूरा अमला नक्सलवाद से राष्ट्र की लड़ाई लड़ रहा है. लेकिन इस सेल के मुखिया कैलाश सिंह से फोन पर हुई बातचीत का हाल सुनिए (क्योंकि वे अपने दफ्तर में नहीं थे, न ही मिलने के लिए तैयार थे), ‘हम इस संबंध में कुछ नहीं बता सकते. हमारे पास इस मुठभेड़ से जुड़ी कोई जानकारी नहीं है. आपको एसपी साहब से बात करनी पड़ेगी. वही सारी जानकारी रखते हैं.’ यहां बताते चलें कि एसपी प्रतींदर सिंह से संपर्क की तमाम कोशिशें बेकार गईं. उन्होंने न तो फोन उठाया और न ही हमारे एसएमएस का जवाब दिया.  यहां फिर कुछ सवाल खड़े होते हैं. सिर्फ नक्सल मामले की देख-रेख के लिए बने नक्सल सेल के पास आखिर इतने बड़े एनकाउंटर से जुड़ा कोई दस्तावेज क्यों नहीं है? अगर पुलिस की कहानी सही है तो फिर जिले के आल अधिकारी बचते क्यों फिर रहे हैं? पुलिस की कहानी के फर्जी होने का एक सबूत और भी है. सोनभद्र पुलिस के वरदहस्त और कुछ स्थानीय ख्यातिनाम पत्रकारों के सहयोग से निकलने वाली पत्रिका ‘कम्युनिटी पुलिसिंग इन सोनभद्र’. इसके एक अध्याय में करहियां मुठभेड़ में मारे गए चारों कथित नक्सलियों के नाम राजकुमार, राजू गोंड़ बसंत लाल और सुरेश ही दर्ज हैं. इस पत्रिका का विमोचन 21 मई को उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बीएल जोशी ने लखनऊ में किया था और 17 मई को प्रदेश के पुलिस महानिदेशक करमवीर सिंह ने. इससे यह बात भी साबित होती है कि एक झूठ को छिपाने के लिए सोनभद्र पुलिस झूठ पर झूठ बोले जा रही है और ऐसा करने में अपने ही जाल में उलझती भी जा रही है.

यहां से एक बार फिर हम वापस 2002 में लौटते हैं. 21 अप्रैल, 2002 की रात करहियां में मुठभेड़ के बाद सोनभद्र राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो गया था. इस मुठभेड़ को अंजाम देने वाले पांच या छह पुलिसवालों को बिना बारी के (आउट ऑफ टर्न) प्रोन्नत कर दिया गया था. तमाम कोशिशों के बाद भी म्योरपुर चौकी के इंचार्ज या पुलिस के अन्य अधिकारी उस मुठभेड़ से लाभ पाने वाले पुलिसवालों के नाम बताने को तैयार नहीं हुए. अपने स्तर पर इकट्ठा की गई जानकारी के हिसाब से तत्कालीन म्योरपुर पुलिस चौकी प्रभारी अभय राय और मुंशी राम अवध यादव प्रोन्नति पाने वालों में शामिल थे. यहां एक खतरनाक प्रवृत्ति पर ध्यान देने पर कुछ और बातें साफ हो जाएंगी. 2 सितंबर, 2003 को करहियां से महज पांच-छह किलोमीटर दूर स्थित रनतोला में पुलिस ने दो निर्दोष युवाओं को फर्जी मुठभेड़ में मार गिराया था. फरवरी, 2010 में इस मामले में 14 पुलिसवालों को सोनभद्र की स्थानीय अदालत ने दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई है. गौरतलब है कि इनमें से भी कई पुलिसवाले ‘बिना बारी के’ प्रोन्नत किए जा चुके थे. इन परिस्थितियों को ध्यान में रखने पर करहियां कांड और भी संदिग्ध हो जाता है.

रॉबर्ट्सगंज के प्रतिष्ठित समाजसेवी अजय शेखर सोनघाटी की नक्सल समस्या का एक विस्तृत फलक सामने रखते हैं, ‘सोनभद्र में नक्सलवाद शेर आया शेर आया वाली कहानी की तरह है. 2002 के आसपास छिटपुट घटनाएं हुई थीं, लेकिन जिस तरह से इसका हौव्वा अब खड़ा किया जा रहा है उसके पीछे पैसा और प्रमोशन है. नक्सलवाद के नाम पर जिले में अनाप-शनाप धन आ रहा है और पुलिसवालों को नक्सिलयों को मारने पर प्रमोशन मिल जाता है. रनतोला कांड की सच्चाई सबके सामने है.’

शेखर की बात सही लगती है, वरना क्या वजह हो सकती है कि जब एडीजी उत्तर प्रदेश कहते हैं कि सोनभद्र में नक्सलवाद न के बराबर है तो अगले ही दिन यहां का स्थानीय प्रशासन ऐसे उछलने लगता है जैसे गर्म तवे पर पांव पड़ गया हो. 

बरसात की उलझन

ज़मीन पर आवाज़ गूंजी ‘ यार, ये बारिश क्यों होती है? उफ़्फ, बरसात इस शहर के लायक है ही नहीं….’ ये चुभती हुई आवाजें बरसात के कानों तक पहुंचीं. बरसात चौंकते हुए रुकी, थिरकन थामते हुए उसने नीचे देखा. दूर दूर तक गाड़ियां. ट्रैफिक जाम की वजह से हर तरफ लोग चिढ़े हुए थे. उसने तय किया कि ट्रैफिक से बात करके मामला सुलझाया जाए. उसने ट्रैफिक का दरवाज़ा खटखटाया.

‘डेवलपमेंट’ हंसी औऱ बरसात को दरवाजे के बाहर धक्का देते हुए बोली- ‘मेरे नाम पर क्या-क्या नहीं होता…. लेकिन दरअसल मैं वह हूं, जो होकर भी नहीं है….’

ट्रैफिक चौखट पर खड़ा नींद में बेसुध लग रहा था. बरसात चिढ़ कर बोली- ‘ एक बात बताओ,  तुम मेरे आने पर ठहर क्यों जाते हो? तुम्हारी वजह से कोई घर जल्दी नहीं पहुंचता और घर बैठी बीवी मेरे आने की ख़ुशी में पकौड़े नहीं तलती, बल्कि चिंता में खिड़की पर टंगी  रहती है.’ यह सुनकर ट्रैफिक अपनी बांहें फैलाता हुआ अंगडाई लेते हुए बोला- ‘देखो बरसात,  इसमें मेरी कोई गलती नहीं. मैं तो जहां मौका मिलता है, वहीं फ़ैल जाता हूं. सड़कें पतली हैं, हर जगह पानी है, गढ्ढा है तो ऐसे में मैं क्या करूं?’ बरसात ने फिर एक बार बादलों की टोह से नीचे देखा. पतली-पतली सड़कों पर दूर तक पानी भरा हुआ था. कई जगहों पर लोग कपड़ों को संभाले पानी में से गुज़र रहे थे. अब बरसात से रहा नहीं गया. काफी मशक्क़त के बाद उसने सड़क का घर ढूंढ़ निकाला.

बरसात अपनी मायूस आंखों के साथ सड़क के द्वारे जा पहुंची. सड़क आईने के सामने बैठी खुद को देख रही थी. यह देख बरसात को गुस्सा आया और वह अंदर आकर बोली- ‘अच्छा, तुम यहां खुद को निहार रही हो और मैं तुम्हारी वजह से कितना कुछ सह रही हूं. एक वक़्त था जब लोग मेरे आने की दुआएं मांगते थे. मगर तुमने सब बिगाड़ दिया. तुम मेरी छुअन बर्दाश्त नहीं कर पाती. मेरे आते ही तुम उधड़ने लगती हो, घुटने लगती हो.’ सड़क ने खामोशी से आईने की ओर इशारा किया और पूछा- ‘क्या तुम बूढ़े होने का दर्द समझती हो?’ बरसात ने कहा-नहीं. सडक उठ कर आईने के सामने से हट गई और अपना आंचल बरसात के हाथों से खींचा. बरसात ने गौर किया कि सड़क का आंचल जगह-जगह से फटा हुआ है. सड़क ने अपना आंचल फिर से ओढ़ लिया और बोली- ‘बरसात, मैं अब बूढ़ी हो चुकी हूं. कई साल से मुझपर खूब मेकअप किया जा रहा है. देखो, पानी लगने से मेकअप तो उतरता ही है. इसलिए मेरा रंग तुम्हारे आते ही बदल जाता है. लोग मुझसे डरने लगते है. मेरे चेहरे के गड्ढों को देख कर मज़ाक उड़ाते हैं. मुझे गुस्सा आ जाता है तो मैं भी अपने गड्ढों में पानी जमा होने देती हूं. अगर तुम्हें इतनी ही तकलीफ है तो जाकर  ‘ डेवलपमेंट’ से बात करो. उसी की वजह से मेरा ये हश्र हुआ है.’ बरसात जाने का इशारा समझकर बाहर आ गई. उसने सुना था कि ‘ डेवलपमेंट’ ऊंची इमारतों में रहती है.
 बहुत इंतजार करवाकर ‘डेवलपमेंट’ अपने आलीशान घर से बाहर आई. बेहद खूबसूरत चमकदार आंखें, चेहरे पर कशिश.

बरसात ने फिर अपना दुखड़ा रोना शुरू किया. डेवलपमेंट चुपचाप सुनती रही. जब बरसात रोते-रोते चुप हो गई तो ‘डेवलपमेंट’ ने बरसात का हाथ पकड़कर उसे इमारत के अंदर खींच लिया. अंदर पहुंचते ही बरसात खामोश हो गई. उसकी आंखें भौंचक्की-सी हो गईं. उसने देखा कि इमारत अंदर से खोखली है, जो बाहर से दिखता है वह अंदर से कुछ और है. ‘डेवलपमेंट’ हंसी औऱ बरसात को दरवाजे के बाहर धक्का देते हुए बोली- ‘मेरे नाम पर क्या-क्या नहीं होता…. लेकिन दरअसल मैं वह हूं, जो होकर भी नहीं है….’

बरसात डरकर बादलों में जा छिपी. उसने फिर कभी किसी से बात नहीं करने की कसम खा ली.

फौजिया रियाज