कमल पर हाथ की चोट

2007 में जब गुजरात में विधानसभा चुनाव हो रहे थे और जब कांग्रेस को लग रहा था कि बाजी उसके हाथ भी लग सकती है, तो उन दिनों राज्य में भाजपा के केंद्रीय पर्यवेक्षक अरुण जेटली के पास हर शाम का एक तय कार्यक्रम हुआ करता था. इसकी शुरुआत संघ पदाधिकारी वी सतीश के साथ उनकी अनिवार्य मुलाकात से हुआ करती. चुपचाप काम करने वाले सतीश, जेटली को समूचे संघ परिवार के संगठनात्मक मामलों से जुड़ी जानकारियों से अवगत कराते. इसके बाद एक खुशनुमा और फुर्सत भरे माहौल में रात्रिभोज का आयोजन होता. इसमें जेटली के साथी वकीलों से लेकर पत्रकार और नेताओं तक हर तरह के लोग शामिल होते. इसके बाद जेटली आधे घंटे की दूरी तय करके गांधीनगर में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के सरकारी आवास तक जाते. यहां उनकी मोदी से निजी बैठक होती जो अकसर आधी रात के बाद तक चलती.
लेकिन मोदी के साथ उनकी यह बैठक एक दिन छोड़कर ही होती थी और ठीक इसी तरह एक दिन छोड़कर वे डिनर के बाद एक दूसरे शख्स से मिला करते थे. ऐसा शख्स जिसकी गुजरात की राजनीतिक नब्ज पर मोदी जैसी ही गहरी पकड़ थी. यह शख्स थे गुजरात के गृहराज्य मंत्री अमित शाह.

आरोपों का अध्ययन करने वाले और भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व में मौजूद कानूनी विशेषज्ञ कहते हैं कि फिलहाल तो शाह के खिलाफ मामला कमजोर है

ऊपर से देखा जाए तो सरखेज से विधायक और 46 वर्षीय शाह में ऐसी कोई बात नजर नहीं आती थी जिसकी बदौलत उन्हें इतनी अहमियत मिल रही थी. वे महज राज्यमंत्री थे और वह भी एक ऐसी सरकार में जहां मुख्यमंत्री के अलावा किसी और की कोई पूछ नहीं थी. जानकार बताते हैं कि अल्पभाषी अमित भाई को अपनी कार्यकुशलता और उस भरोसे के लिए जाना जाता था जो मुख्यमंत्री उनपर किया करते थे. उनका सार्वजनिक प्रोफाइल देखकर कहीं से भी नहीं कहा जा सकता था कि वे संभवत: मोदी के सबसे अहम राजनीतिक प्रबंधक हैं. वे सरकार में सिर्फ एक जूनियर मंत्री ही तो थे.

मगर उन लोगों को इसका जरूर पता रहा होगा जिन्होंने शाह के खिलाफ हत्या, वसूली और न्याय प्रक्रिया में बाधा जैसे आरोप लगाने के लिए सीबीआई को राजनीतिक रूप से निर्देशित किया.

जहां तक मोदी की बात है तो उन्हें इसमें जरा-सा भी शक नहीं था कि सीबीआई को सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले की जांच सौंपकर सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस को उनके खिलाफ राजनीतिक लड़ाई के लिए एक घातक हथियार दे दिया है. मई की शुरुआत में जब आईपीएस अधिकारी अभय चुडास्मा की गिरफ्तारी हुई थी तो तभी से मोदी भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व को सावधान कर रहे थे. उन्हें पता था कि सीबीआई जांच का असल मकसद शाह को मामले में घसीटना और उसके बाद खुद मुख्यमंत्री पर राजनीतिक और कानूनी हमला करने का रास्ता साफ करना है. जिन्हें मई और जून के दौरान ‘कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन’ पर भाजपा के लगातार हमले और फिर पार्टी द्वारा राम जेठमलानी को राज्यसभा में भेजने पर हैरत हुई होगी वे अब समझ सकते हैं कि मोदी एक लंबी और तल्ख लड़ाई के लिए अपनी क्षमताएं बढ़ाने की तैयारी कर रहे थे.

अब दिल्ली सल्तनत (मोदी हल्के-फुल्के शब्दों में केंद्र सरकार को यही कहते हैं) 2007 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की किरकिरी करने वाले इस शख्स से सीधे भिड़ती है या फिर छोटे-छोटे कई घाव देकर उसे खत्म करने की रणनीति अपनाती है, यह अभी साफ नहीं है. फिलहाल तो सीबीआई के शाह के खिलाफ रुख का राजनीतिक संदेश यह है कि गुजरात सरकार राष्ट्रवाद  की आड़ में एक वसूली रैकेट चला रही थी और इसके मास्टरमाइंड शाह थे जिन्होंने पुलिस अधिकारियों का इस्तेमाल इस काम के लिए किया. यह कहा जा रहा है कि सोहराबुद्दीन शेख को इसलिए खत्म नहीं किया गया कि वह मोदी की हत्या की साजिश में शामिल था बल्कि ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि शाह ने राजस्थान के किसी मार्बल कारोबारी से सुपारी ले रखी थी. इससे भी हास्यास्पद एक बात और कही जा रही है कि भाजपा महासचिव संजय जोशी की जो कथित सेक्स सीडी चर्चा में आई थी उसमें ‘एक्टर’ असल में सोहराबुद्दीन था और उसे इसीलिए खत्म कर दिया गया ताकि भाजपा के आंतरिक झगड़ों के गंदे सच बाहर न आ सकें.

मोदी जानते हैं कि एक धड़ा है जो मानता है कि सिर्फ वे ही एक हतोत्साहित पार्टी में फिर से जान फूंककर उसे दिल्ली की सत्ता तक फिर पहुंचा सकते हैं

गुजरात में पार्टी के बड़े पदाधिकारी बताते हैं कि सीबीआई ने शाह का संबंध हवाला कारोबार और बेनामी संपत्ति की खरीद से जोड़ने के लिए पूरा जोर लगाया. बताया जाता है कि शाह या उनके परिवार के किसी सदस्य ने जमीन की खरीद की है, यह पता लगाने के लिए सीबीआई ने 1,000 पटवारियों से पूछताछ की. चर्चा है कि इसके चलते मोदी ने यह तक कह दिया था कि इसकी बजाय सीबीआई अगर भू-अभिलेखों का कंप्यूटराइज्ड रिकॉर्ड खंगाल लेती तो उसका यह काम बेहतर तरीके से हो जाता. इस शीर्ष जांच एजेंसी ने तो उस गिरफ्तार पुलिसकर्मी के जरिए खुद एक स्टिंग ऑपरेशन भी कर डाला जो यह दर्शाने के लिए कथित तौर पर सरकारी गवाह बन गया था कि ‘एनकाउंटर विशेषज्ञ’ डीजी वंजारा ने टेलीफोन पर मिले शाह के निर्देशों पर कार्रवाई की.

सीबीआई के आरोपों का अध्ययन करने वाले और भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व में मौजूद कानूनी विशेषज्ञ कहते हैं कि फिलहाल तो शाह के खिलाफ मामला कमजोर है और इसका आधार उन लोगों के बयान हैं जिनकी खुद की पृष्ठभूमि पर कई सवाल खड़े होते हैं. यह सही है कि शाह ने ऐसे कई पुलिसकर्मियों से फोन पर बात की जिनपर हत्या का आरोप लगाया गया है मगर दिलचस्प है कि ऐसे कोई रिकॉर्ड नहीं हैं जो यह दिखाते हों जिस दिन सोहराबुद्दीन या उसका साथी तुलसीराम प्रजापति मारे गए, उस दिन शाह की इन पुलिसकर्मियों से कोई बात हुई थी. इस खामी की पूर्ति जबानी बयानों या फिर स्टिंग ऑपरेशनों के जरिए की जा रही है. भाजपा के एक नेता के शब्दों में सीबीआई का तरीका यह था कि ‘पहले गिरफ्तार कर लो और फिर सबूत खोजो.’

भाजपा का मानना है कि आने वाले हफ्तों में कांग्रेस का मकसद यह है कि गुजरात में मोदी की स्थिति कमजोर होने का शोर मचाया जाए. उसे उम्मीद है कि इससे नौकरशाही घबरा जाएगी, कई और अधिकारी मोदी के खिलाफ हो जाएंगे और वे सीबीआई को कई शर्मसार करने वाले सच या फिर झूठ बताएंगे जिनसे शाह पर शिकंजा कस जाएगा और जरूरत पड़ी तो मोदी पर भी.

सीबीआई और मीडिया के जरिए शाह की छवि धूमिल करने की कोशिश मोदी के उस आभामंडल को नष्ट करने के लिए बनाई गई रणनीति का हिस्सा लगती है जो उन्होंने अच्छा प्रशासन देने वाले नेता के तौर पर अपने इर्द-गिर्द बुना है. यह छोटी-सी मगर नोट करने वाली बात है कि गुजरात दंगों का खलनायक बताकर मोदी पर हमला करने का अभियान फिलहाल रोक दिया गया है. यह देखा जा रहा था कि इसके आशानुरूप परिणाम नहीं मिल रहे हैं. अब फोकस मोदी को तानाशाह साबित करने पर है.

पिछले पखवाड़े ‘हिंदू आतंकवाद’ की वह बहस फिर जिंदा हुई जिसका मुंबई हमले के बाद अचानक पटाक्षेप हो गया था. उसके बाद कर्नाटक के बेल्लारी में रेड्डी बंधुओं के कथित अवैध खनन पर विरोध प्रदर्शन और आखिर में अमित शाह की गिरफ्तारी को देखें तो लगता है कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस ने भाजपा पर पूरी ताकत से राजनीतिक हमला बोल दिया है.
यह भी संयोग है कि इनमें से कुछ चीजें उस दौरान घटी हैं जब विपक्ष असाधारण एकता का परिचय दे रहा है. छह जुलाई को भारत बंद के दौरान विपक्ष द्वारा दिखाई गई एकता को तोड़ने की भी कोशिश हो रही है. संभव है कि कांग्रेस अपनी इस कोशिश में आंशिक तौर पर सफल हो जाए. लेकिन इसमें शक है कि भाजपा की छवि धूमिल करने से महंगाई पर बढ़ रहा असंतोष खत्म हो जाएगा बल्कि इससे उलट सरकार को नुकसान हो सकता है. माना जा रहा है कि प्रधानमंत्री इससे चिंतित हैं कि परमाणु जवाबदेही विधेयक पर सहयोग के लिए भाजपा से अपील का कोई फायदा नहीं होगा. नवंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आ रहे हैं और उससे पहले सरकार इस विधेयक को पास कर इस यात्रा के लिए अच्छा माहौल तैयार करना चाह रही है. आरोपपत्र पर सीबीआई की फुर्ती से सरकार के भीतर उपजा तनाव मुश्किलों से जूझ रहे शाह को भी एक ‘लाइफलाइन’ दे सकता है.

सीबीआई शाह को दोषी साबित कर पाती है या नहीं, यह मुद्दा छोड़ भी दें तो भी मोदी के धुर समर्थक इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि पिछले हफ्ते की घटनाओं ने गुजरात के मुख्यमंत्री को एक बड़ा झटका दिया है. भाजपा भले ही माने कि शाह निर्दोष हैं, जो मोदी सार्वजनिक रूप से कह भी रहे हैं, लेकिन अदालत में यह साबित होने में अभी समय लगना है. शाह की गिरफ्तारी तो हो ही गई है और मीडिया में उन्हें ‘फंसाने वाले सबूत’ भी दिख रहे हैं, ऐसे में सीबीआई को इस मामले में आगे बढ़ने की कोई जल्दबाजी नहीं होगी. कांग्रेस के नजरिए से देखें तो जब तक उसे शाह का अपराध जल्दी साबित होने का भरोसा न हो तब तक उसके लिए यह सोचना स्वाभाविक है कि केस धीरे चले और अगले कुछ समय और कम से कम 2012 विधानसभा तक तो शाह की सुनवाई ही शुरू न हो और वे विचाराधीन कैदी के रूप में जेल के भीतर रहें.

भारत में किसी के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल हो जाए तो इसका ठप्पा अपराधी साबित होने से कम घातक नहीं होता. चूंकि जटिल मामले निपटने में कई बार दशक या इससे ज्यादा का भी समय लग जाता है इसलिए ऐसे मामलों में आरोपितों की छवि अपराधी जैसी ही बन जाती है. इसलिए ऐसा लगता है कि मीडिया के शोर-शराबे और दो दिन तक गायब रहने से शाह की छवि एक खलनायक की बनी है और इससे मध्यवर्ग की भावनाएं मोदी और भाजपा, दोनों के खिलाफ झुकी हैं. ऐसा माहौल कुछ समय तक रहने की संभावना है.

हालांकि शाह एक बड़े खेल के बीच में फंस गए जिसकी वजह से उनके साथ ऐसा हुआ. दरअसल, कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण निशाना मोदी ही हैं. उनसे नफरत करने के अपने फायदे हैं. मुसलमानों और दूसरे अल्पसंख्यकों, जो मोदी को गुजरात दंगों का खलनायक मानते हैं, की संतुष्टि के अलावा इससे कांग्रेस उन उदार हिंदुओं के बीच में धर्मनिरपेक्षता के रक्षक के रूप में स्थापित होती है जो हिंदुत्व के राजनीतिक रूप को पसंद नहीं करते. उदार हिंदुओं का प्रभावक्षेत्र उनकी संख्या के अनुपात में कहीं ज्यादा है और वे शिक्षा और मीडिया क्षेत्र के कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों में बहुमत में हैं. ऐसे में मोदी के खिलाफ पोजिशन लेने के अपने राजनीतिक फायदे हैं जो संकीर्ण चुनावी राजनीति के फायदों से कहीं आगे जाते हैं.

जैसा कि अतीत में बार-बार देखा जा चुका है, गुजरात में मोदी को निशाना बना लेने से ही कोई फायदा नहीं होता. 2002 और 2007 के विधानसभा चुनावों में मोदी ने क्षेत्रीय और हिंदू अस्मिता का प्रखर मिश्रण तैयार किया और गुजरात की जनता उनके साथ हो गई. जब तक कांग्रेस में ऐसे स्थानीय नेता नहीं आएंगे जो मोदी को टक्कर दे सकें और जब तक भाजपा सरकार बड़ी हद तक अच्छा शासन देती रहेगी, तब तक मोदी दिल्ली से उनके खिलाफ चलाए गए राजनीतिक हमले की काट आराम से जनता के समर्थन के रूप में ढूंढ़ सकते हैं.

फिर भी भाजपा में यह सभी जानते हैं कि मोदी सारी उम्र गुजरात में ही नहीं रहने वाले. गुजरात में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाले मुख्यमंत्री तो वे हो ही चुके हैं. अब उनकी नजर राष्ट्रीय राजनीति पर है. भाजपा के समर्पित समर्थकों में वे बहुत लोकप्रिय हैं. मोदी जानते हैं कि एक धड़ा है जो मानता है कि सिर्फ वे ही एक हतोत्साहित पार्टी में फिर से जान फूंककर उसे दिल्ली की सत्ता तक फिर पहुंचा सकते हैं. लेकिन दुर्भाग्य से सबको ऐसा नहीं लगता, यहां तक कि उनको भी नहीं जो गुजरात के इस नेता के प्रशंसक हैं और मानते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर उनमें एक बड़ी भूमिका निभाने की क्षमता है. यह संदेह वर्तमान चुनावी राजनीति के तर्क पर आधारित है.

बिहार में मोदी के पोस्टरों पर हाल में राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की तीखी प्रतिक्रिया ने एक बार फिर गुजरात के बाहर मोदी की राजनीतिक अस्पृश्यता के मुद्दे पर ध्यान खींचा है. नीतिश की इस तल्खी की वजह उनके कैंप के वे लोग हो सकते हैं जिन्हें लगता है कि कांग्रेस विरोधी ‘धर्मनिरपेक्ष’ वोट पर जद(यू) कब्जा कर इसका लाभ उठा सकता है, ठीक वैसे ही जैसे लालू ने 90 के दशक में उठाया था. हालांकि नीतीश यह भी जानते हैं कि इस तरह का कदम इस समय पर नुकसानदेह साबित हो सकता है क्योंकि राज्य में अगड़ी जातियों के वोट के लिए उन्हें भाजपा की जरूरत है. लेकिन उन्हें उतनी ही चिंता इस बात की भी है कि अगले चुनाव में वहां मोदी की मौजूदगी राज्य के 15 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं को एनडीए के खिलाफ कर सकती है जैसा कि 2004 के आम चुनाव में हुआ था. हालांकि पिछले हफ्ते भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी और नीतीश के बीच रात्रिभोज के साथ भाजपा-जद (यू) के बीच का तनाव फिलहाल खत्म हो गया लगता है मगर इस प्रकरण से उन समस्याओं का अंदाजा तो लग ही जाता है जो मोदी के सामने तब आ सकती हैं जब वे अपनी राजनीति की सरहद गुजरात के बाहर फैलाने की कोशिश करेंगे.

पिछले आठ साल से मोदी एक बढ़िया प्रशासक के तौर पर खुद को पुनर्परिभाषित करने की कोशिश कर रहे हैं. कॉरपोरेट जगत से उनको तारीफें मिलती रही हैं और गुजरात आर्थिक तरक्की के आंकड़ों में लगातार शीर्ष पर आता रहा है. सोहराबुद्दीन मामले को 2007 में मोदी ने आखिरी वक्त पर भले ही अपने पक्ष में भुना लिया हो मगर ज्यादातर जानकार मानते हैं कि अगर उनके पास गुजरात की उपलब्धियां नहीं होतीं तो भाजपा को इतनी असरदार जीत नहीं मिलती.

मोदी की सबसे बड़ी राजनीतिक असफलता यह रही है कि 2002 के दंगों के बाद उनपर सांप्रदायिक होने का जो ठप्पा लगा उससे वे मुक्त नहीं हो पाए. उनकी छवि हिंदू हृदयसम्राट की हो गई है. दुर्भाग्य से ऐसी छवि आज की चुनावी राजनीति की प्राथमिकताओं में फिट नहीं बैठती. वरुण गांधी के बयान और कंधमाल प्रकरण पर इससे हुए नुकसान के बाद भाजपा को यह अहसास हो चुका है. इसके अलावा शिवसेना को छोड़कर एनडीए के ज्यादातर घटक मोदी को लेकर सहज नहीं हैं और इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि अगर भाजपा की कमान मोदी के हाथ में आती है तो एनडीए का आकार और नहीं घटेगा. अगर मोदी अपने साथ भाजपा को मिलने वाले वोट में एक बड़ी बढ़ोतरी ले आएं, जैसे अटल बिहारी वाजपेयी ने 1996 में किया था, तो हो सकता है कि इन नुकसानों में से कुछ की पूर्ति हो जाए. जनभावनाओं के आगे धर्मनिरपेक्षता की जिद नहीं टिक पाती, ऐसा कई बार देखा गया है. दुर्भाग्य से 2010 की भाजपा 1996 की भाजपा नहीं है जब उसके पीछे भावनात्मक हिंदू उभार था. लेकिन यह भी सच है कि जनता की भावनाएं अचानक बदल भी सकती हैं और मोदी की लहर पैदा कर सकती हैं. इसकी गैरमौजूदगी में उन्हें 2002 के बोझ से पीछा छुड़ाकर खुद को लोगों के सामने एक अलग व्यक्ति के रूप में पेश करना होगा. यही उनकी त्रासदी रही है कि जब भी वे इस दिशा में कोई कोशिश करते हैं तो यह 2002 के इर्द-गिर्द बुने गए एक  हमले के द्वारा नाकाम कर दी जाती है. हो सकता है कि शाह निर्दोष साबित हो जाएं मगर इस प्रकरण ने मोदी पर एक बार फिर वही ठप्पा तो लगा ही दिया है.

जहां तक पार्टी अध्यक्ष गडकरी की बात है तो उनके लिए यह दुविधा अभी काफी दूर है कि वे मोदी का क्या करें. अब तक उनकी प्राथमिकता आडवाणी के बाद की पीढ़ी के नेताओं में तालमेल बैठाने और भाजपा को एकजुट रखना रही है. 90 के दशक में भाजपा जबर्दस्त छलांग लगाते हुए राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र तक पहुंची थी. इसलिए कि इसके पास एक बड़ा मुद्दा था. हिंदू राष्ट्रवाद का मुद्दा. लेकिन यह मुद्दा अब न सिर्फ पुराना पड़ चुका है बल्कि उससे पार्टी को नुकसान भी हो रहा है.

कर्नाटक को छोड़ दिया जाए तो 2004 के बाद भाजपा बढ़ी नहीं है. इसे नेता की तलाश है और एक बड़े मुद्दे की भी. आगे के लिए पार्टी को जिन नामों से उम्मीद बंधती है उनमें सबसे ऊपर मोदी ही हैं. भाजपा नेताओं में वे अकेले हैं जिनमें प्रेरित करने की क्षमता है. यही वजह है कि भाजपा उनसे किनारा नहीं करेगी और उनकी लड़ाइयां लड़ेगी. और यही वह वजह भी है जिसके चलते कांग्रेस उन्हें जनता की नजर में गिराने के लिए अपना पूरा जोर लगा देगी.

स्वपन दासगुप्ता