फैसले की फांस

उत्तराखंड  सरकार ने भले ही 56 लघु जलविद्युत परियोजनाओं का आवंटन रद्द कर दिया हो पर इस मसले से जुड़े विवाद थमने का नाम नहीं ले रहे. निरस्त करने के साथ इन अनियमित आंवटनों की ‘जिम्मेदारी का ठीकरा’ अब एक-दूसरे के सर पर फोड़ने की कोशिशें भी हो रही हैं.

दरअसल, 4 फरवरी, 2010 को गुपचुप तरीके से आवंटित कर दी गई इन परियोजनाओं के ‘लेटर आफ अवार्ड’ को राज्य सरकार ने 15 जुलाई, 2010 को तकनीकी रूप से निष्प्रभावी घोषित किया था. अगले दिन इन परियोजनाओं के आवंटन को निरस्त करने तथा आवंटन प्रक्रिया में हुई धांधलियों की जांच सीबीआई से कराने के लिए दायर याचिका पर उच्च न्यायालय, नैनीताल में सुनवाई होनी थी. सरकार ने सुनवाई के एक दिन पहले आवंटनों को रद्द करने का अप्रत्याशित निर्णय लेकर भले ही किसी संभावित जांच से मुक्ति पा ली हो मगर आवंटन से जुड़े मामले जिस तरह लगातार नए मोड़ ले रहे हैं उससे लगता नहीं कि यह मामला जल्दी शांत होगा. उच्च न्यायालय ने इस मामले से जुड़ी दो जनहित याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा कि जब सरकार ने आवंटन रद्द कर दिए हैं तो जांच की जरूरत नहीं है. परंतु अदालत ने याचिकाकर्ताओं को यह छूट भी दी कि यदि मामले में नए तथ्य सामने आते हैं तो वे पुनः याचिका दायर करने के लिए स्वतंत्र हैं.
मामला सामने आने के बाद कांग्रेस मार्च के महीने से आवंटन में हुई गड़बड़ियों की जांच सीबीआई से कराने की मांग को लेकर आंदोलनरत थी. विपक्ष ने इस मामले में विधानसभा का बजट सत्र भी चलने नहीं दिया था. तहलका ने मार्च के अंतिम सप्ताह में ‘बांट पर बवाल’ शीर्षक से इस अनियमित आवंटन के कई विवादास्पद पहलुओं को उजागर किया था.

राज्य सरकार तथा भाजपा इस मामले में कई बार बैक फुट पर आई है. सरकार के निर्णय से छह दिन पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने निशंक सरकार को क्लीन चिट दे दी थी 16 जुलाई, 2010 को आवंटन रद्द करने की सूचना की विज्ञप्ति में सरकार ने बताया कि 25 जुलाई, 2008 को बनी सरकार की नवीकरणीय ऊर्जा नीति 2008 के कुछ अंश इन स्वचिह्नित लघु जलविद्युत परियोजनाओं के आवंटन के लिए प्रकाशित विज्ञापन में सम्मिलित नहीं हुए या आंशिक रूप से परिवर्तित हो गए थे इसलिए आवंटन निष्प्रभावी हैं. विज्ञप्ति और संबंधित प्रकाशित खबरों में आवंटन की गड़बड़ियों के लिए पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी के कार्यकाल में जारी विज्ञापन को दोषी बताया गया. आवंटन निरस्त करने की वजह बताते हुए मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव डीके कोटिया ने भी कहा कि आवंटन प्रक्रिया में गड़बड़ी नहीं थी बल्कि विज्ञापन में खामी रह गई थी.’

मगर यह तर्क कइयों को हजम नहीं हो रहा. आवंटन रद्द करने के अगले दिन 16 जुलाई को  मुख्यमंत्री निशंक देहरादून में पूर्व मुख्यमंत्री खंडूड़ी से मिलने उनके आवास गए. सूत्रों के अनुसार डॉ. निशंक ने जब खंडूड़ी को विज्ञापन की कमियां बताने की कोशिश की तो खंडूड़ी भड़क गए और उन्होंने निशंक से कहा कि जब विज्ञापन की गलती है तो वे सीबीआई जांच क्यों नहीं करा रहे. अपरोक्ष रूप से सार्वजनिक तोहमत लगने के बाद भी खंडूड़ी ने इस मामले में कोई बयान नहीं दिया. सूत्रों के अनुसार पहले ही इस मामले में पार्टी की भद्द पिटने के बाद भाजपा आला कमान ने उन्हें चुप रहने की सलाह दी है.

जलविद्युत परियोजनाओं के आवंटन के बाद राज्य सरकार तथा भाजपा इस मामले में कई बार बैक फुट पर आई है. परियोजनाओं को रद्द करने के सरकार के निर्णय से छह दिन पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने देहरादून में निशंक सरकार को क्लीन चिट देते हुए दावा किया था कि उन्होंने सारे दस्तावेज देखे हैं और कहीं कोई गड़बड़ी नहीं हुई है. राज्य सरकार भी विधानसभा में अपने को पाक-साफ बताते हुए दावा कर चुकी थी कि अभी परियोजनाओं का अंतिम आवंटन नहीं हुआ है जबकि तहलका उसी समय इस तथ्य को सामने लाया था कि सरकार ने जब थ्रेशहोल्ड प्रीमियम की राशि विकासकर्ताओं से ले ली है तो आवंटन स्वतः ही माना जाएगा.

ऐसे में सवाल उठता है कि गड़बड़ी नीति में थी या विज्ञापन में. अरुणाचल प्रदेश में मुख्य अभियंता तथा विभागाध्यक्ष रह चुके आनंद सिंह कनेरी बताते हैं, ‘हमने अरुणाचल में कई जलविद्युत परियोजनाएं बनवाई हैं. आज अरुणाचल जलविद्युत परियोजनाओं को विकसित करने में देश में सबसे आगे है. विज्ञापन में त्रुटियों की बात गले नहीं उतरती. यूजेवीएन ने 25 जुलाई, 2008 का विज्ञापन प्रकाशित करने के बाद परियोजनाओं के लिए जो निविदा पत्र निर्गत किए थे उसके साथ ऊर्जा नीति भी जोड़कर दी थी इसलिए निविदा में उर्जा नीति स्वतः ही सम्मिलित मानी जानी चाहिए.’ कनेरी उत्तराखंड लोकायुक्त कार्यालय की ओर से राज्य की कई विवादित परियोजनाओं की जांच कर चुके हैं.

सूत्रों के मुताबिक करोड़ों रु. खर्च कर चुकी कंपनियां सरकार के निर्णय को चुनौती देने के लिए अदालत जा सकती हैं उत्तराखंड जलविद्युत निगम (यूजेवीएन) ने विज्ञापन प्रकाशन के बाद कंपनियों की वित्तीय व तकनीकी जांच तथा आवेदन पत्रों की छंटाई तक की प्रक्रिया में पूरी सावधानी बरती थी. इसके बाद निविदा में निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार प्रस्तावित परियोजनाओं का संयुक्त निरीक्षण यूजेवीएन, उरेडा तथा कंपनियों के प्रतिनिधियों को करना था ताकि परियोजनाओं के स्थलों व कंपनियों के दावों की जांच की जा सके. यूजेवीएन के सूत्र बताते हैं कि देहरादून जिले में प्रस्तावित लगभग 10 परियोजनाओं का संयुक्त निरीक्षण हो भी गया था. कनेरी बताते हैं कि इसके बाद नीति के अनुसार पारदर्शिता से चल रही प्रक्रिया अचानक गोपनीय हो गई. परियोजनाओं का निरीक्षण भी बंद कर दिया गया. साथ ही नोडल एजेंसी यूजेवीएन की भूमिका शून्य कर दी गई और सब-कुछ शासन के हाथों में चला गया.

टेंडर प्रपत्र में वर्णित प्रोसेसिंग  शुल्क, थ्रैशहोल्ड धन राशि, सिक्योरिटी राशि आिद आवंटित कंपनियों से किस स्तर पर ली गई, इस पर अभी तक अस्पष्टता की धुंध चढ़ी हुई है.  आवंटन के लिए कम से कम पांच लाख रु. प्रति मेगावाट का  ‘थ्रेशहोल्ड प्रीमियम’ रखा गया था – यानी जो कंपनी किसी नियत परियोजना के लिए इससे अधिक प्रीमियम देती उसे ही प्रोजेक्ट आवंटित किए जाने थे. बाद में सरकार ने कंपनियों से पांच लाख रु. प्रति मेगावाट का ही प्रीमियम जमा कराया.
टेंडर प्रपत्र के अनुसार आवेदन पत्र में कंपनी को तकनीकी व वित्तीय क्षमता सिद्व करने के साथ-साथ प्रस्तावित परियोजना की क्षमता का खुलासा भी करना था. कंपनियों को वन व पर्यावरण मंत्रालय के प्रावधानों की अवहेलना न होने का शपथ पत्र भी देना था. लेकिन कई कंपनियों ने प्रोजेक्ट हथियाने के लिए कागजी आंकड़ों के सहारे अधिक क्षमता के प्रोजेक्ट बनाने का दावा किया, जबकि मौके पर उस क्षमता के बिजली उत्पादन की संभावनाएं दूर-दूर तक नहीं थीं.पूर्व ऊर्जा राज्य मंत्री तथा कांग्रेस विधायिका अमृता रावत कहती हैं, ‘इन कंपनियों को जमीनी हकीकतों से कोई मतलब नहीं था,सब काम कागजों पर हो रहा था’.
संयुक्त स्थलीय निरीक्षण न होने के कारण आवंटित 56 परियोजनाओं में से कई पहले से बन रही परियोजनाओं को ओवरलैप कर रही हैं. इसका उदाहरण देते हुए कनेरी बताते हैं, ‘नंदाकिनी नदी पर इन परियोजनाओं के साथ स्वीकृत प्रोएक्टिव इंनफ्रास्ट्रकचरल लिमिटेड की सितेल परियोजना पहले से बनाई जा रही गुलाड़ी परियोजना को ओवरलैप कर रही है.’ जल्दबाजी में कई कंपनियों ने आवंटन तो ले लिए पर विवाद होने पर जब कंपनियों को पता चला कि मौके पर तो यह उत्पादन क्षमता है ही नहीं  तो कंपनियों ने काफी प्रोजेक्ट वापस भी किए.

‘तहलका’ ने भी मार्च के अंतिम सप्ताह में ही लिख दिया था कि परियोजनाओं के आवंटन में खंडूड़ी सरकार फूंक-फूंककर कदम रख रही थी. राज्य सरकार में महत्वपूर्ण पद पर आसीन एक भाजपा नेता  नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं,  ‘उस समय राज्य में बिजली संकट चल रहा था, संबंधित अधिकारियों ने ऊर्जा प्रदेश बनाने के लक्ष्य को दिखाकर प्रक्रिया के कई चरणों से सरकार को अंधेरे में रखा. बाद में शासन के कुछ कनिष्ठ अधिकारियों और यूजेवीएन के भरोसेमंद अधिकारियों का यह ‘अनौपचारिक समूह’ परियोजनाओं के अंतिम आवंटन की प्रक्रिया का सर्वे-सर्वा बन गया था.’  हाल में जारी एक चर्चित सीडी (देखें अगला पृष्ठ) के कथित वार्तालाप से भी यह सिद्ध होता है कि प्रक्रिया में अचानक महत्वपूर्ण हो गए इन कनिष्ठ अधिकारियों के सामने ऊर्जा नीति के अनुसार आंवटन के लिए गठित ‘सक्षम समिति’ में शामिल शासन के बड़े अधिकारियों और विशेषज्ञों की भूमिका गौण हो गई थी. रावत कहती हैं, ‘आवंटन के प्रस्ताव कैबिनेट से पास कराने चाहिए थे इसलिए चूक नीति की नहीं बल्कि नीयत की है.’

बताया जाता है कि मीडिया और विधानसभा में अपने निर्णय को सही कहने वाली सरकार भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व में शामिल धुरंधर वकीलों को ‘जल्दबाजी में लिए अपने निर्णयों के औचित्यों’ को नहीं समझा पाई. सूत्रों के अनुसार अरुण जेटली की सलाह पर सरकार ने सुनवाई से एक दिन पहले अपना निर्णय वापस लेते हुए अपना चेहरा बचाने की कोशिश की. 

अब आवंटन रद्द करने के निर्णय की व्याख्या भी सत्ता पक्ष और विपक्ष अपने-अपने ढंग से कर रहे हैं. भाजपा नेता व राज्य मीडिया सलाहकार समिति के उपाध्यक्ष अजेंद्र अजय बताते हैं, ‘आपत्तियों की सुनवाई के लिए बनाई गई कमेटी की रिपोर्ट आते ही सरकार ने आवंटन को निष्प्रभावी घोषित कर सिद्ध किया है कि सरकार पारदर्शिता से चल रही है.’ उधर, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल आर्य कहते हैं, ‘कांग्रेस के सड़क से लेकर विधानसभा तक के संघर्ष के बाद ही सरकार परियोजनाओं  का आवंटन रद्द करने के लिए मजबूर हुई.’ नेता प्रतिपक्ष हरक सिंह रावत आवंटन को रद्द करना ही पर्याप्त नहीं मानते. वे कहते हैं कि हर स्तर पर भ्रष्टाचार में सने इस मामले की सीबीआई जांच तो होनी ही चाहिए.

सूत्र बताते हैं कि दरअसल जिन कंपनियों को परियोजनाएं आवंटित की गईं उनमें से अधिकतर परियोजना बनाने से अधिक परियोजनाओं की ट्रेडिंग (बिक्री) करने के लिए  इच्छुक थी. फरवरी में भी स्वीकृत परियोजनाओं में से कई की बोली 50 लाख रुपए प्रति मेगावाट तक की लग गई थी. केंद्र सरकार 25 मेगावाट तक की परियोजनाओं को बनाने के लिए 9.5 करोड़ रुपए तक की सब्सिडी देती है. फिर ये कंपनियां वित्तीय संस्थाओं से बड़ी प्रोजेक्ट रिपोर्टें बनावाकर अरबों का ऋण सस्ती दरों पर लेती हैं. बताया जाता है कि ये कंपनियां इन सभी सुविधाओं का फायदा उठाना चाहती थीं.

सूत्रों के मुताबिक करोड़ों रु. खर्च कर चुकी कंपनियां अब आवंटन रद्द होने के बाद  सरकार के निर्णय को चुनौती देने के लिए न्यायालय जाने का मन बना रही हैं. न्यायालय में यूजेवीएन के पूर्व चैयरमैन योगेंद्र प्रसाद ने भी अपने निष्कासन को नियम विरद्ध तथा द्वेषपूर्ण भावना से लिया गया निर्णय बताते हुए अपनी बहाली के लिए याचिका दायर की है. चर्चा चल रही है कि सरकार ने योगेंद्र प्रसाद की प्रारंभिक विजिलेंस जांच शुरू करा दी है. आवंटन प्रक्रिया में शासन के 6 बड़े अधिकारियों के नाम सामने आ रहे हैं जबकि इनमें से अधिकांश की भूमिका मात्र हस्ताक्षर करने की थी. इससे नौकरशाही में भी निराशा है.

963 मेगावाट की इन आवंटित परियोजनाओं में से उत्तराखंड निवासियों को मात्र 5 मेगावाट की परियोजनाएं आवंटित हुई थीं. साफ है कि परियोजनाओं के आवंटन और उसके बाद हर स्तर पर खेले जा रहे ‘शह और मात’ के खेल में वे उत्तराखंड निवासी कहीं भी नहीं हैं जिनकी जमीनें और प्राकृतिक संसाधन बेचकर ये परियोजनाएं बनाई जा रही थीं.