Home Blog Page 152

'कोई भी कहीं भी अल्पसंख्यक हो सकता है'

खोसला का घोंसला और चक दे इंडिया लिखने वाले जयदीप साहनी अलग-अलग भारत के बीच का पुल बनना चाहते हैं और उन ‘छोटेलालों’ को उनके हिस्से का सम्मान देना चाहते हैं जो शायद कभी हीरो नहीं बनेंगे, गौरव सोलंकी से उनकी बातचीत के अंश

इंजीनियरिंग छोड़कर ऐडवरटाइजिंग में आए. तब परिवार की कैसी प्रतिक्रिया थी?

वैसे तब मैंने एमबीए के लिए छोड़ा था. मुझे मुंबई के कई कॉलेजों से कॉल भी आ गई थी. मैं जाने की सोच ही रहा था कि मेरा एक कजिन जो एमबीए करके आया था, वह ऐड में जा रहा था. मुझे बचपन से ही ऐड बहुत मजेदार लगते थे. मैं उसके साथ चला गया. मेरे भाई का तो सेलेक्शन नहीं हुआ लेकिन मेरा हो गया. साढ़े छह सौ वाली वह नौकरी थी. मैं तो एमबीए-वैमबीए छोड़कर खुश कि ऐड बनाऊंगा. आईटी में जबकि दस- बारह हजार मिलते थ,े इसलिए पापा मम्मी कुछ परेशान भी थे कि यह क्या कर रहा है. मगर उन्होंने कोई रोक नहीं लगाई कभी.

फिर छह साल लंबा उसका अच्छा-खासा करियर छोड़कर फिल्मों की तरफ आना कैसे हुआ?

जब हम ऐड कर रहे थे, उसमें बहुत पैसा भी था. सरकारी नौकरी में काम करने वाले मां-बाप के बच्चे के लिए तो वे वाकई बहुत थे. लेकिन वो मोनोटोनस हो रहा था. मुझे लगा कि इसमें फंस गया तो फंस ही जाऊंगा. मुझमें बस उसे छोड़ने की हिम्मत आ गई और मैंने छोड़ दिया. फिर मैं इंडिपेंडेंट कम्युनिकेशन कंसल्टेंट बन गया. बस लैपटॉप वाला एक बंदा. कोई कॉर्पोरेट या एनजीओ या ऐड एजेंसी आपको हायर कर ले कम्युनिकेशन स्ट्रेटेजी के लिए. उसमें एक-दो बार महीने में काम करने से अच्छा पैसा मिल जाता था. उम्मीद से कहीं ज्यादा. तब फुर्सत बहुत होती थी और मैं पढ़ता रहता था. उन्हीं दिनों साउथ एक्सटेंशन की एक दुकान में किताबें पलटते हुए गांधी की पटकथा मेरे हाथ लग गई. मुझे लगा कि यह तो कंप्यूटर प्रोग्रामिंग जैसा है, बस इसमें भावनाएं वेरिएबल बन गई हैं.

उससे पहले क्या-क्या पढ़ते थे?

मैं नेशनल बुक ट्रस्ट और गीता प्रेस की किताबें पढ़ते हुए बड़ा हुआ. मेरी मम्मी गर्मियों की छुट्टियों में साठ दिन के लिए साठ किताबें ले आती थीं. उनके विषय बिल्कुल अलग-अलग होते थे. किसी वैज्ञानिक की आत्मकथा भी और अर्थशास्त्र भी. और मैं बाल भवन में जाकर पढ़ता था. बहादुर बेला, राजन इकबाल और शेक्सपियर…सब किताबें चाट लीं.

फिल्मी गीतकार होना कितना मुश्किल व चुनौती भरा काम है? 

स्टंटमैन के बाद सबसे मुश्किल काम गीतकार का है. आप अभिमन्यु हैं, आपके हाथ इतने बंधे हैं कि आपको ज्यादातर ट्यून पहले दी जाती हैं, टैम्पो 148 बीट्स प्रति मिनट, उसमें ये शाम मस्तानी आप नहीं लिख सकते. म्यूजिक कंपनियों की सारी आमदनी रिंगटोन से होती है, वे वैसे ही गीत चाहते हैं. गीतकार के पास कोई चॉइस नहीं होती. मेरा चल गया क्योंकि मैंने बहुत कम गाने लिखे हैं और ज्यादातर अपनी फिल्मों के लिए लिखे हैं और अपनी पसंद के लोगों के साथ काम किया है. लेकिन यह सब कम काम करने की कीमत पर होता है. मैंने बारह साल में सात फिल्में लिखी हैं, लोग एक साल में सात लिखते हैं. जिसपर घर चलाने का दबाव हो, वह तो मजबूरी में ज्यादा लिखेगा ही. कई संगीतकार बोलते हैं गीतकारों को कि चाय-रसगुल्ला या समोसा पर कुछ लिखो. कोई आदमी अपने घर से, जबलपुर से भागकर आया है, दस साल से लिख रहा है, एक कमरे में चार लड़के रहते हैं. अब तुम उसे चाय-समोसे पर गाना लिखने को बोल रहे हो. अब क्या करेगा वो? उसकी तासीर वैसी नहीं है पर उसे भी तो अपनी चाय और खाने का इंतजाम करना है ना? जब से कॉर्पोरेट आए हैं, फिल्में एफएमसीजी बन गई हैं, सर्फ और टॉफी की तरह और गाने जिंगल बन गए हैं, उनके विज्ञापन.

मल्टीप्लेक्स क्या नई तरह की फिल्मों के लिए भगवान बनकर आए हैं, जैसा उनके बारे में कहा जा रहा है?

मल्टीप्लेक्स मुझे बांद्रा के सीलिंक की तरह लगते हैं जिसमें स्कूटर- साइकिल-रिक्शावाले अलाउड नहीं हैं. फिर बनाया किसके लिए है? उनका एक फायदा है कि छोटे बजट की और अलग थीम वाली फिल्मों को एक प्लेटफॉर्म मिला है, लेकिन असली भारतीय के लिए अब फिल्म बनाने की जरूरत नहीं रही क्योंकि सत्तर-अस्सी पर्सेंट पैसा मल्टीप्लेक्स से ही आता है. एक लेखक के रूप में मुझे ये अच्छा नहीं लगता कि कल को मुझे कोई कॉर्पोरेट कहे कि उन लोगों के लिए फिल्म लिखो जो महंगे रेस्तरां और नाइट क्लबों में जाते हैं. दस में से एक तो लिख दूंगा लेकिन हर फिल्म उनपर थोड़े ही लिख सकता हूं. मल्टीप्लेक्स की ऑडियंस को आप दो बीघा जमीन दिखाकर दिखा दो. पांच मिनट में नींद आ जाएगी. छत्तीसगढ़ पर एक फिल्म बनाओ, एक पैसा नहीं आएगा. पीवीआर के दर्शकों को बस यही पता है कि माओवादियों को मार दो. वे देखने ही नहीं आएंगे. मुझे कई बार लगता है कि मल्टीप्लेक्स का ज्यादा दर्शक वर्ग वही फ्रंट बेंचर ऑडियंस है जिसे हम पहले दोष देते थे. अब वह इंग्लिश बोलने वाला फ्रंट बेंचर है. इस देश की बहुत बड़ी गलतफहमी है कि अंग्रेजी बोलने वाला आदमी सुसंस्कृत भी हो गया है. यह ऐसा समझना ही है कि बड़ी गाड़ी वाला आदमी केला खाकर सड़क पर छिलका नहीं फेंकेगा.

लिखते हुए किस तरह की प्रेरणा रहती है? कौन-से किरदार हैं जिनकी कहानियां कहने का मन करता है?

कई बार आपकी जिंदगी आपको कई तरह के भारत की झलक दिखा देती है और जब ऐसा हो जाता है तब आप दिखावा नहीं कर सकते कि यह नहीं होता. मैं उन लोगों को अपनी कहानी में जगह देना चाहता हूं जो कभी कहानियों में नहीं आएंगे. ऐसा लगता है कभी कि इस आदमी का चेहरा किसी चैनल या अखबार में कभी नहीं आएगा, जब तक इसके घर में बम ही न फट जाए. जैसे भोंपू होता है न, ये मीडियम मुझे वैसा ही लगता है जिससे कोई बात मैं सबको बता सकूं.
ऐसे ही मुझे समझ नहीं आता कि एक बंटवारा हुआ होगा. मेरी फेमिली के भी बहुत लोग खोए हैं उसमें, बीदर में दंगे हुए थे, सबसे पहला घर मेरा जला था, मैं जब मुआवजा लेने थाने गया तो पुलिसवाले ने मुझसे रिश्वत मांगी थी, फिर मुझे थप्पड़ मारकर बाहर निकाला था. ऐसा नहीं है कि मैंने देखा नहीं है. लेकिन पार्टीशन में एक आदमी ने कहा कि मैं इसी मिट्टी में जिया हूं, बड़ा हुआ हूं. वह नहीं गया और आपके साथ रह गया. उस आदमी को आज आप शक से देखोगे. मैं उसे फिल्म में लो एंगल से देखना चाहता हूं न कि ऐसे कि साथ वाले घर में मुसलमान रहते हैं. ये बस बच्चे पैदा करते हैं ताकि इनकी संख्या बढ़ जाए और एक दिन सारा भारत मुसलमान बन जाए. मैं उसे उस तरह नहीं देख सकता. मेरा घर जला क्योंकि उस समय उस कस्बे में मैं अल्पसंख्यक था. दिल्ली में रात के दो बजे बस स्टॉप पर खड़ी लड़की अल्पसंख्यक होती है. एक पिक्चर हॉल के अंदर एक विकलांग आदमी अल्पसंख्यक है. कोई भी कहीं भी अल्पसंख्यक हो सकता है. आप सोचते हैं कि आप अल्पसंख्यक नहीं हैं और मैं आपको एक मिनट में अल्पसंख्यक बना सकता हूं.

आपकी ज्यादातर फिल्में सुखांत ही हैं…

मुझे समझ में नहीं आता. रॉकेट सिंह मुझे हैप्पी एंडिंग लगती है पर लोगों को वो भी सैड लगती है. वैसे प्लान करके कुछ नहीं होता, हो जाता है. मुझे लगता है कि जैसे चक दे में साड़ी में सारी लड़कियां आती हैं शान से ऑस्ट्रेलिया में, मैं उन्हें वाकई वैसे देखना चाहता हूं. या छोटेलाल है रॉकेटसिंह में, मैं चाहता हूं कि इन सब लोगों को वह इज्जत मिले जिसके वे हकदार हैं. चाहे वह चपरासी है, चाहे टेक्नीशियन है, मैं उन सबको वही सम्मान देना चाहता हूं जिन्हें हमारा समाज कभी हीरो नहीं मान सकता. छोटेलाल ने छह बच्चे बड़े किए हैं, चार लड़कियों की शादी की है, एक घर बना लिया और उसे वे नीची निगाह से देखते हैं जो किसी उपलब्धि के नाम पर बस बरिस्ता जाकर वापस आ जाते हैं. असली हीरो कौन है? यही असंतुलन मुझे बहुत खाता है. मेरे लिए हैप्पी एंडिंग कोई सिनेमाई नियम नहीं है पर मुझे लगता है कि नॉर्थ इस्ट की इस लड़की को लोग साउथ एक्स में वेश्या समझते हैं, मैं चाहता हूं कि मेरी फिल्म के बाद जब वह साउथ एक्स में दिखे तो लोग उसे दूसरी नजर से देखें. तो जो हैप्पी एंडिंग आप कह रहे हैं वह उन लोगों को इज्जत देने के लिए ही होती है. ऐसी वाली तो नहीं होती ना कि सब गले लगकर रो रहे हैं और पुलिस आ जाती है? मैं उस आम आदमी को जितवाना चाहता हूं बस. 

पुराने चने और प्रवचन : वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई

फिल्‍म वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई
निर्देशक मिलन लूथरिया
कलाकार अजय देवगन, कंगना, प्राची देसाई

अब आप अंडरवर्ल्ड पर फिल्म बना रहे हैं तो इसका यह मतलब तो नहीं कि आपके सारे डायलॉग भी बारूद की तरह हों जो देखने वालों के सर पर फूटें. हां-हां, हम जानते हैं कि आपको फिल्म के जरिए बहुत बड़ी बातें कहनी हैं, हमें जिंदगी का दर्शन सिखाना है, लेकिन फिर भी जब फिल्मों में सब-कुछ ज्यादा वास्तविक होता जा रहा है, मिलन लूथरिया जी, आपके बेपढ़े भाई लोग हर बात में ‘लहरों से टकराकर ही किनारा मिलता है’ जैसे ब्रह्मवाक्य ही क्यों बोलते हैं? कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि उन्होंने किसी शायर या उपदेशक से तालीम हासिल की है और गलती से इस धंधे में आ गए हैं.

पुराने के सब बुरे अर्थों में यह पुरानी तरह की फिल्म है. एक भी चीज अनपेक्षित नहीं, एक भी किरदार विश्वसनीय नहीं. एक भला डॉन, एक बुरा डॉन और लाचार पुलिस. भला डॉन फिल्म का नायक है और फिल्म बेशर्मी से उसे मसीहा बताती रहती है. ऐसा करते हुए फिल्म इतनी गलत है कि अपने फर्ज के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार पुलिस अफसर आपको खलनायक लगने लगता है. यह भी बॉलीवुड का एक पुराना चलन है जिसपर करोड़ों तालियां पीटी जा चुकी हैं.

अजय और कंगना के बीच के कुछ अच्छे दृश्यों के बावजूद कंगना के हिस्से में ज्यादा कुछ नहीं आया है. हां, कंगना फिल्म का सबसे आकर्षक हिस्सा हैं और पंचलाइननुमा डायलॉगों से बचने के लिए आप चाहते हैं कि वे जल्दी जल्दी परदे पर आएं. प्राची का किरदार सिर पीटने की हद तक बेवकूफ है और उससे आप जुड़ते ही नहीं तो सहानुभूति कैसे होगी? बाकी बहुत सी चीजें हैं जो आदर्श मुंबइया फिल्मों की तरह हैं. हीरो (जिसे विलेन होना चाहिए था लेकिन चूंकि वह अजय देवगन है, इसलिए…) देश के गृहमंत्री के शयनकक्ष में कभी भी पहुंचकर उन्हें डरा सकता है. इमरान हाशमी कभी प्यार में और कभी गुस्से में बेचारी मासूम-सी प्राची को नोचकर खा जाने को आतुर हों, फिर भी प्राची उनकी पूजा करने जैसा प्यार करेंगी. चूंकि फिल्म नायकप्रधान है और निर्देशक जी को डर है कि बोरिंग न हो जाए इसलिए कुछ महत्वपूर्ण दृश्यों में कंगना और प्राची अपने प्रेमियों के साथ खड़ी होकर गर्व से मुस्कुराती भी रहती हैं.

अच्छी पीरियड फिल्म की खासियत होती है कि उसका पीरियड होना उसकी कहानी की भीतरी परत में घुला रहता है और उसपर अलग से आपका ध्यान नहीं जाता. यह बताने के लिए कि यह सत्तर के दशक की कहानी है, उसे बॉबी के पोस्टर नहीं दिखाने पड़ते और मोनिका माई डार्लिंग नहीं बजाना पड़ता. उसके किरदारों के कपड़े ही नहीं, भाषा और सोच भी बदलती है. यह भूल भी जाएं तो भी किसी भी दौर के अपराधी इतने दार्शनिक तो कम से कम नहीं होते.

गौरव सोलंकी

गैरसैंण का सच

जब भी चुनाव नजदीक आते हैं तो उत्तराखंड क्रांति दल (उक्रांद) गैरसैंण का ढोल बजाना शुरू कर देता है. इस शोरगुल से उसे कितना लाभ मिला यह किसी से छुपा नहीं. लेकिन देखा जाए तो गैरसैंण की लड़ाई को उक्रांद ने तभी पीछे धकेल दिया था जब 1993 में उसने उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार को समर्थन दिया. वह अपनी समर्थित सरकार से गैरसैंण में भाजपा सरकार द्वारा पूर्व में स्वीकृत सरकारी भवनों का निर्माण नहीं करा सका.
1991-92 में उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार थी. पार्टी उत्तराखंड राज्य और गैरसैंण को इसकी  राजधानी बनाने के पक्ष में थी. इस प्रक्रिया की शुरुआत के लिए उसने गैरसैंण में कुछ सरकारी भवनों का निर्माण करने की कार्रवाई प्रारंभ की. योजना के तहत गैरसैंण में शिक्षा विभाग की ओर से जमीन खरीदी गई जिसपर अपर शिक्षा निदेशालय एवं डाइट के दो बड़े भवनों के निर्माण की स्वीकृति पर्वतीय विकास विभाग से दी जा चुकी थी.

राजधानी के लिए देहरादून का चयन राजनैतिक न होकर प्रशासनिक निर्णय था19 नवंबर 1991 को गैरसैंण में एक विशाल जनसभा का आयोजन किया गया. इसमें अनेक विधायक शामिल हुए. मैं भी एक काबीना मंत्री की हैसियत से वहां था. धूमधाम से दोनों भवनों का शिलान्यास हुआ. लक्ष्य यही था कि गैरसैंण में भवनों का निर्माण कराते हुए इस स्थान को राजधानी के योग्य बनाया जाए. हम लोग वहां तुरंत कुछ अन्य विभागों जैसे राजस्व, पर्यटन, खेल, आदि के लिए भी भवनों के निर्माण की योजना बना रहे थे. काम शुरू करने की औपचारिकताएं पूरी की जा रही थीं कि 6 दिसंबर 1992 को भाजपा की सरकार गिर गई.

उसके बाद छह महीने के राष्ट्रपति शासन काल में रोमेश भंडारी राज्यपाल रहे. उनके समय में भी कांग्रेसियों ने भवन निर्माण के काम में कोई रुचि नहीं दिखाई. 1993 में मुलायम सिंह की सरकार बनी और उक्रांद ने उसे समर्थन दिया. लेकिन न मुलायम ने भवनों के निर्माण की कार्रवाई की न उक्रांद ने इसके लिए दबाव बनाया. उस समय अगर उन भवनों का निर्माण हो जाता तो कुछ अन्य भवन भी बन जाते और राजधानी बनाने में कठिनाई नहीं होती. जिस दिन उत्तरांचल राज्य बना उस दिन गैरसैंण को राजधानी बनाने के तर्क को इसी कारण बल नहीं मिला कि गैरसैंण में कार्यालयों के लिए कोई शासकीय भवन नहीं था.

राज्य बन जाने के बाद भाजपा सरकार द्वारा 2000 में राजधानी आयोग का गठन किया गया. इसे छह माह का समय दिया गया था. लेकिन जब छह माह के बाद भी इसकी कोई रिपोर्ट नहीं आई तो तत्कालीन मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी ने आयोग की निरर्थकता भांपकर इसे भंग कर दिया. 2002 में जब कांग्रेस की सरकार बनी तो सर की बला टालने के लिए उसने फिर आयोग को जीवित किया और अपने पूरे कार्यकाल में उसे पालते रहे. तीन-चार महीनों के काम को पांच साल तक खींचते रहे. आखिर बहाना अच्छा था कि राजधानी का प्रश्न आयोग के सम्मुख है. दूसरी ओर देहरादून को ही स्थायी राजधानी बनाने के उद्देश्य से अनेक भवनों का निर्माण करके जनता की आंखों में धूल झोंकी जाती रही. जब 2007 में भाजपा की सरकार बनी तो उसने स्पष्ट कर दिया था कि रिपोर्ट प्रस्तुत हो या ना हो आयोग का बोझ और अधिक नहीं ढोया जाएगा. आयोग ने भी भांप लिया था कि अनुत्तर होकर भी और जिंदगी नहीं मिल पाएगी इसलिए उसने उसी कांग्रेस के पक्ष की रिपोर्ट बनाई जिससे उसे लंबा जीवनदान मिला था.

संसद में उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक पारित होने के बाद केंद्र ने उत्तर प्रदेश सरकार को राजधानी पर  फौरन निर्णय करने को कहा था. इस पर तत्कालीन मुख्यमंत्री रामप्रकाश गुप्त द्वारा 9 सितंबर 1999 को बैठक बुलाई गई जिसमें उत्तराखंड के सभी सांसद, विधायक, मुख्य सचिव आदि उपस्थित थे. चूंकि मात्र दो माह बाद 9 नवंबर 1999 को राज्य का गठन होना था इसलिए एक प्रशासनिक निर्णय लिया गया कि देहरादून, हरिद्वार और रामनगर में जहां भी सबसे अधिक सरकारी कार्यालयों  और  आवास की व्यवस्था उपलब्ध हो वहीं अस्थायी राजधानी बनाई जाए. इस प्रकार देहरादून का चयन राजनीतिक न होकर प्रशासनिक निर्णय था.

जब अस्थायी राजधानी देहरादून बन गई तो नारायण दत्त तिवारी सरकार द्वारा राजधानी आयोग को लंबा जीवन देकर स्थायी राजधानी के प्रश्न को टालने जैसा वातावरण बनाया गया. सवाल उठता है कि देहरादून अस्थायी राजधानी है तो सरकार द्वारा स्थायी राजधानी का निर्णय स्वयं विधानसभा के माध्यम से क्यों नही लिया गया और देहरादून में इतने भारी-भरकम भवनों का निर्माण क्यों कराया गया? स्पष्ट है कि उस समय सत्ता में हर किसी द्वारा इस तथ्य को स्वीकारा जा चुका था कि अब राजधानी देहरादून में ही रहेगी और यही आज सच भी लग रहा है. इस तरह 1992 में गैरसैंण के प्रति जो उत्साह था उसे उक्रांद और कांग्रेस ने लगभग समाप्त कर दिया है. उत्तराखंडी भी समझ चुके हैं कि 2012 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले गैरसैंण को राजधानी बनाने के लिए उक्रांद का हल्ला उठेगा, संभवतः कांग्रेसी भी इस खेल में अपनी ताल ठोकेंगे और चुनाव के बाद यह मुद्दा शायद हमेशा के लिए लुप्त हो जाएगा. 

केदार सिंह फोनिया

(भाजपा नेता और बदरीनाथ से विधायक)

गैरसैंण पर गैर हुए सब

राज्य आंदोलन के दौरान और उसके बाद के कुछ सालों तक भी हर उत्तराखंडी गैरसैंण को अपनी राजधानी मान चुका था. लेकिन राज्य बनने के बाद निहित स्वार्थों के चलते यह एक बार जो उपेक्षित हुआ तो फिर होता ही चला गया. अब एक बार फिर गैरसैंण को राजधानी बनाने का मुद्दा सुर्खियों में है.  मनोज रावत की रिपोर्ट

तुम भी सूणा, मिन सूणयाली

गढ़वालै ना कुमौ जाली

उत्तराखंडे राजधानी

बल देरादूणे मा राली

लोकप्रिय गढ़वाली गायक नरेंद्र सिंह नेगी के इस हालिया चर्चित गीत का मतलब यह है कि उत्तराखंड की राजधानी न गढ़वाल में बनेगी और न कुमायूं में, बल्कि देहरादून में ही रहेगी. नेगी ने यह गीत उत्तराखंड की स्थायी राजधानी के चयन के लिए गठित दीक्षित आयोग की रिपोर्ट आने के बाद लिखा और गाया था.

1994 में गठित कौशिक समिति की रिपोर्ट के अनुसार तब 69.21 फीसदी लोग गैरसैंण को राजधानी बनाने के पक्षधर थे

संयोग देखिए कि इस गीत का वीडियो संस्करण पिछले दिनों तभी बाजार में आया है जब उत्तराखंड की राजधानी का मुद्दा एक बार फिर गरमा रहा है. दरअसल, हाल ही में केंद्र सरकार के योजना व संसदीय कार्य राज्य मंत्री वी नारायण सामी ने गढ़वाल के सांसद सतपाल महाराज को उनके द्वारा संसद में पूछे गए प्रश्न के जवाब में बताया कि केंद्र सरकार के 13वें वित्त आयोग ने उत्तराखंड राज्य को विधानसभा के निर्माण के लिए 88 करोड़ रुपये की धनराशि स्वीकृत की है. महाराज ने केंद्र से उत्तराखंड में विधानसभा निर्माण के लिए धन की मांग की थी. अभी विधानसभा अस्थायी राजधानी देहरादून में कामचलाऊ भवन पर चलाई जा रही है. केंद्रीय मंत्री ने यह भी कहा था कि स्थायी विधानसभा का निर्माण गैरसैंण में हो या देहरादून में यह राज्य सरकार को तय करना है. 88 करोड़ रुपए स्वीकृत होने और महाराज द्वारा देहरादून के साथ ‘गैरसैंण में भी’ विधानसभा बनाए जाने की मांग ने एक बार फिर से गैरसैंण मुद्दे को हवा दे दी. विडंबना देखिए कि राज्य आंदोलन के दिनों में और उसके बाद के कुछ सालों तक भी हर उत्तराखंडी चमोली जिले के कस्बे गैरसैंण को अपनी राजधानी मान चुका था. लेकिन लंबे समय से इस मुद्दे की अनदेखी के चलते खुद गैरसैंण क्षेत्र के लोगों ने भी इसे राज्य की स्थायी राजधानी के रूप में देखने के सपने पालना छोड़ दिया है.

गैरसैंण के सफर में हमें एक बुजुर्ग मिलते हैं जो एक स्थानीय कहावत कहते हुए यहां के लोगों की मनोदशा बताते हैं जिसका अर्थ यह है कि ‘लोग रो-रोकर, थक-हारकर सो गए हैं.’ उत्तराखंड आंदोलन में सक्रिय रहे स्थानीय पत्रकार पुरुषोत्तम असनोड़ा पूछते हैं, ‘वर्ष 1990 से आंदोलनरत गैरसैंणवासियों को राजनीतिक दलों से छल के अलावा और क्या मिला?’ उनका कहना गलत नहीं है. राज्य बनने के बाद भाजपा हो या कांग्रेस या फिर उत्तराखंड क्रांति दल (उक्रांद), सभी पार्टियों ने गैरसैंण के मुद्दे पर उदासीनता दिखाई है. इस अनदेखी की एक झलक आदिबदरी से गैरसैंण तक बांज-बुरांस के खूबसूरत जंगलों के बीच से गुजरती हुई सड़क की खस्ता हालत भी देती है.

आंदोलनकारियों को राजधानी के रूप में गैरसैंण क्यों पसंद था, पूछने पर असनोड़ा एक दिलचस्प किस्सा बताते हैं. उनके मुताबिक उक्रांद के जन्म के बाद 1989 में एक बार पूर्व विधायक विपिन त्रिपाठी गैरसैंण से गुजर रहे थे. बातों-बातों में उनके मुंह से निकल गया कि गैरसैंण ही उत्तराखंड की राजधानी होगी. उसी यात्रा में त्रिपाठी के साथी और उक्रांद के संस्थापक अध्यक्ष डीडी पंत ने तत्काल त्रिपाठी की इस अनायास वाणी को समर्थन दे दिया. इसके साथ ही गढ़वाल व कुमायूं की इस हृदयस्थली का नाम प्रस्तावित राज्य उत्तराखंड की राजधानी के लिए चल पड़ा. 1990 से तो गैरसैंण राज्य निर्माण आंदोलन की जनअभिव्यक्तियों का केंद्र ही बन गया. 1990 में राम मंदिर आंदोलन के दौरान उत्तराखंड की 19 में से 17 विधानसभा सीटें जीतने वाली भाजपा को उत्तराखंड में ऐसे किसी स्थायी भावनात्मक मुद्दे की तलाश थी जिसके द्वारा भविष्य के चुनावों में भी इसी तरह की सफलता को दोहराया जा सके. अलग राज्य के लिए प्रबल उत्कंठा और राजधानी के रूप में गैरसैंण से पहाड़वासियों के भावनात्मक लगाव को भांपते हुए भाजपा ने 19 नवंबर 1991 को गैरसैंण में तीन मंत्रियों और कई विधायकों की मौजूदगी में भारी जनसभा की और उसी दिन शिक्षा विभाग के संयुक्त निदेशक (पर्वतीय), डाइट सहित अन्य कार्यालयों का उद्घाटन करके गैरसैंणवासियों के सपनों को पंख लगा दिए. लेकिन सपने सपने ही रहे. क्षेत्र प्रमुख जानकी रावत बताती हैं, ‘उस दिन की गई तीन घोषणाओं में से केवल एक पूरी की गई है. गैरसैंण में कन्या हाईस्कूल खोलने की. यह काम भी घोषणा के दस साल बाद हुआ है.’

भाजपा की अप्रत्याशित पहल के बाद अलग राज्य का झंडाबरदार, क्षेत्रीय दल उक्रांद भला कैसे पीछे रहता. उसने भी 25 जुलाई 1992 को गैरसैंण में एक महाअधिवेशन किया. इसमें कस्बे के आसपास के 50 किमी लंबे व 30 किमी चौड़े क्षेत्र का नाम, वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के नाम पर ‘चंद्रनगर’ रखकर इसे प्रस्तावित उत्तराखंड की राजधानी घोषित किया गया. 
15 मार्च 1994 से गैरसैंण में इस मुद्दे पर 167 दिन लंबा क्रमिक अनशन चला. इसमें हजारों लोगों ने हिस्सा लिया. उत्तराखंड लोक वाहिनी के शमशेर सिंह बिष्ट बताते हैं, ‘संभवतया विश्व में पहली बार हुआ होगा कि राज्य बनने से पहले ही वहां के जनमानस ने किसी स्थान को राजधानी स्वीकार कर लिया हो.’ उसके बाद तो गैरसैंण राज्य निर्माण आंदोलन की धुरी बन गया. मुजफ्फरनगर कांड के बाद 1994 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने राजधानी के चयन के लिए कौशिक समिति बनाई. इसकी रिपोर्ट के अनुसार उस समय 69.21 प्रतिशत लोग गैरसैंण को राजधानी बनाने के पक्षधर थे. 1995 में राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्यपाल मोती लाल बोरा ने पूर्व में घोषित देहरादून और श्रीनगर में मिनी सचिवालयों की स्थापना का विरोध होने पर गैरसैंण में मिनी सचिवालय के सर्वे के लिए सात लाख रुपए दिए थे. 

इसके बाद गैरसैंण में 8 फरवरी 1996 से शुरू हुए 45 दिन लंबे आमरण अनशन को पुलिस ने पांच किस्तों में तोड़कर अनशनकारियों को उठाया. राज्य बनने से ठीक पहले 23 सितंबर 2000 को उत्तराखंड महिला मंच ने गैरसैंण में जोरदार रैली की थी जिसमें हजारों लोगों की भीड़ उमड़ी थी. प्रसिद्ध आंदोलनकारी बाबा मोहन ‘उत्तराखंडी’ ने राज्य निर्माण तथा गैरसैंण को राजधानी बनाने के मुद्दे पर 13 बार अनशन किया. अलग राज्य के बाद गैरसैंण में राजधानी बनाने की मांग के लिए आमरण अनशन करते बाबा को अनशन के 38वें दिन, 8 अगस्त 2004 को गैरसैंण के पास बेनीताल से जबरन उठाया गया. 9 अगस्त 2004 को ‘बाबा उत्तराखंडी’ पुलिस हिरासत में मृत पाए गए. एक बार फिर पहाड़ आंदोलन की आग में जलने लगे. अक्टूबर 2004 से स्थायी राजधानी के निर्माण के लिए ‘उत्तराखंड महिला मंच’ने गैरसैंण में 67 दिन लंबा आमरण अनशन किया. उस समय प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी. कुछ दिनों पहले बाबा की शहादत के बाद उपजे जनाक्रोश से घबराए प्रशासन ने 8-9 अक्टूबर को अनशनकारियों पर जमकर लाठी चार्ज किया. इस दौरान गिरफ्तार हुई स्थानीय निवासी धूमा देवी बताती हैं, ‘राज्य आंदोलन के दौरान गैरसैंण में उत्तर प्रदेश पुलिस और प्रशासन ने भी इतना अत्याचार नहीं किया था.’ इसके बाद भी विभिन्न संगठनों ने यहां राजधानी बनाने को लेकर 2004 व 2005 में देहरादून से गैरसैंण तथा देहरादून से बागेश्वर तक पदयात्राएं कीं.

लेकिन फिर आग ठंडी पड़ने लगी और राजधानी बनाने को लेकर शुरू हुआ यह जनांदोलन छिटपुट प्रदर्शनों तक सीमित रह गया. अब चमोली में हर जिला पंचायत व गैरसैंण में क्षेत्र समिति की बैठकों में गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाए जाने का रस्मी प्रस्ताव हर बार पास हो जाता है. उधर, गैरसैंण के आम ग्रामीणों को डर है कि राजधानी बनने के बाद उनकी खेती की जमीनें राजधानी निर्माण के लिए छिन जाएंगी. इस बारे में बात करने पर स्थानीय भाजपा नेता रामचंद्र गौड़ बताते हैं, ‘यह देहरादून में अरबों रुपए लगा चुकी प्रॉपर्टी डीलर लाबी द्वारा फैलाया भ्रम है.’ वैसे भी आंदोलन से लेकर राज्य निर्माण तक राजधानी बनने की आस में गैरसैंण में भी सड़क किनारे की सारी जमीन बिक चुकी थी.

विधानसभा बनाने और स्थायी राजधानी जैसे मुद्दों पर भविष्य में जमकर राजनीति होने की संभावना है. नए परिसीमन के बाद मैदानी क्षेत्रों की विधानसभा सीटों की बढ़ी संख्या को देखते हुए इस मुद्दे पर राष्ट्रीय दलों में असमंजस है. कांग्रेस के पांच सांसदों में से सतपाल महाराज के अलावा अल्मोड़ा से कांग्रेसी सांसद प्रदीप टम्टा ही गैरसैंण के पक्षधर हैं. पर्वतीय क्षेत्र की वकालत करते हुए वे कहते हैं, ‘गैरसैंण को तो उत्तराखंडवासियों ने पहले ही राजधानी मान लिया था. अब इसे राजधानी स्वीकार करने में देर नहीं की जानी चाहिए.’ टम्टा आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहते हैं, ‘राज्य औद्योगिक पैकेज तथा अन्य सुविधाएं तो पर्वतीय क्षेत्र के नाम पर लेता है परंतु इस पर्वतीय प्रदेश की राजधानी पर्वतीय कस्बे गैरसैंण में घोषित करने पर हीला-हवाली की जा रही है.’ टम्टा के दावे की पुष्टि इस बात से भी होती है कि इस साल मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने वार्षिक योजना की बैठक में योजना आयोग के सामने राज्य के 77 प्रतिशत भूभाग को पर्वतीय बताया था और विकास के लिए अतिरिक्त धन की मांग की थी. विधानसभा गैरसैंण में बनाने पर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विशन सिंह चुफाल बताते हैं, ‘जल्दी ही दीक्षित आयोग की रिपोर्ट विधानसभा में रखी जाएगी, फिर सरकार कोई निर्णय लेगी.’ वैसे निजी रूप से चुफाल राज्य के केंद्र स्थल में राजधानी बनाने के पक्ष में हैं.

राज्य के लिए आंदोलनरत रही ताकतों में अब जबर्दस्त वैचारिक बिखराव है. उक्रांद में पुष्पेश त्रिपाठी के अलावा अन्य नेता अब खुलकर उन मुद्दों पर खुद बोलते नहीं दिखते जिनपर वे कभी राज्य भर में बवाल करते रहते थे. उक्रांद के बाद अब पीसी तिवारी की अध्यक्षता में वर्ष 2008 में गैरसैंण में ‘उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी’ के प्रथम अधिवेशन के साथ नए क्षेत्रीय दल का जन्म हुआ है. पार्टी के महासचिव प्रभात ध्यानी बताते कि उनका दल भी गैरसैंण को राजधानी के रूप में मान्यता देता है.

राज्य के मुख्यमंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ कर्णप्रयाग से 3 बार विधायक रहे हैं. गैरसैंण कर्णप्रयाग विधानसभा का ही हिस्सा है. राज्य भर में जमकर दौरे करने वाले ‘निशंक’ मुख्यमंत्री बनने के बाद अभी तक गैरसैंण नहीं पहुंचे हैं. यह भी गौरतलब है कि पिछले 20 सालों से कर्णप्रयाग विधानसभा से लगातार भाजपा के विधायक जीतते आए हैं.

जिस गीत का जिक्र शुरु में आया है उसकी निर्णायक पंक्ति में नेगी कहते हैं- ‘या भी लडै़ लगीं राली’, यानी गैरसैंण को राजधानी बनाने की लड़ाई जारी रहेगी. वे सही लगते हैं. पर्वतीय राज्य और राजधानी का सपना देखने वाली जनता के मन में अब सब कुछ उल्टा होते देख असंतोष पनप रहा है. इसे समय रहते न पहचाना गया तो हो सकता है कि उत्तराखंड में एक और जनांदोलन छिड़ जाए. 

'हर चुनाव में भाजपा का नक्सलवादियों से सौदा हो जाता है'

नितिन गडकरी ने आजमगढ़ यात्रा के लिए आपको औरंगजेब की औलाद कह डाला. आप उन्हें क्या जवाब देंगे?

देखिए मैं गडकरी जी की बातों को कोई महत्व नहीं देता. जिस तरह की भाषा वो इस्तेमाल करते हैं किसी सभ्य व्यक्ति से उसकी उम्मीद नहीं की जा सकती. उन्होंने तो एक और बयान दे दिया है कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में सरकार ने नक्सलवादियों को शामिल किया है. उन्हें शायद ये भी नहीं पता है या शायद उनकी शिक्षा दीक्षा ऐसी है कि नागरिक समाज के लोग, सामाजिक कार्यकर्ता, आहिंसा में विश्वास करने वाले, आम जनता के बीच रहकर उनकी रहनुमाई करने वाले उन्हें नक्सलवादी नज़र आते हैं. नक्सलवादी तो हिंसक लोग हैं, जबकि ये अंहिंसक, गांदीवादी कार्यकर्ता है जो बिना किसी पद के जनता के बीच काम करते हैं. गडकरी जी के बयान को मैं तरजीह नहीं देता. भारतीय जनता पार्टी को नितिन गडकरी के असंतुलित बयानों का खामियाजा भविष्य में भुगतना पड़ेगा.

‘ जिस तरह की भाषा वे इस्तेमाल करते हैं किसी सभ्य व्यक्ति से उसकी उम्मीद नहीं की जा सकती ‘

आजमगढ़ की ही बात करें, जब आपकी सरकार और मानवाधिकार आयोग ने बटला हाउस एनकाउंटर को सही कह दिया था तो फिर आज़मगढ़ जाने की जरूरत क्या थी? क्या यह सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए उठाया गया कदम था?

देखिए पुलिस ने सिर्फ इस आधार पर आज़मगढ़ के तमाम लड़कों को गिरफ्तार किया था कि उन्होंने बटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए लड़कों से बातचीत की थी. सिर्फ बातचीत के आधार पर उनके ऊपर 50-60 मामले थोपकर गिरप्तार कर लिया गया है. छह जगहों पर चार राज्यों में सभी मामले फैले हुए हैं. अगर इसी गति से जांच प्रक्रिया चलती रही तो ये लड़के जीवन भर जेल से बाहर ही नहीं निकल पाएंगे. मेरा मकसद सिर्फ वहां जाकर देखना था कि जो आज़मगढ़ हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक हुआ करता था वहां आखिर ऐसा क्या हो गया है, वहां तो बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद भी कोई दंगा नहीं हुआ था. पर वहां एक तरफ उलेमा काउंसिल ने मेरा विरोध किया और दूसरी तरफ आएएसएस वालों ने. उलेमा काउंसिल इन 26 परिवारों से धन उगाही कर रही थी. उनका शोषण कर रही थी.

पर आप बाकी लड़कों की बजाय मुख्य आरोपी शादाब के घर गए थे.

मैं ये नहीं कह रहा कि शादाब निर्दोष है या दोषी है. मेरी बस इतनी सी मांग है कि जांच तेज गति से हो वरना ये लड़के तो जीवन भर जेल में ही सड़ते रहेंगे.

क्या ये आतंकवाद के मुद्दे पर आपका और कांग्रेस का दोहरा रुख नहीं है? आजमगढ़ के आरोपियों के लिए जल्द से जल्द सुनवाई की मांग और अफजल गुरू की फांसी की फाइल दो साल तक आपके मुख्यमंत्री की टेबल से आगे नहीं बढ़ पाती.

भाई वहां तो फैसला हो चुका है. उसकी दया याचिका राष्ट्रपति के पास लंबित है. आप मुझे बताइए एनडीए के कार्यकाल में कितनी दया याचिकाओं पर कार्रवाई हुई थी. राजीव गांधी के हत्यारों के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की, अफजल गुरू का मामला भी एनडीए के कार्यकाल में आया था तब उन्होंने कुछ क्यों नहीं किया. मैं यह मानता हूं कि हमसे कुछ व्यवस्थागत चूक हुई है जिसे दूर करना हमारी जिम्मेदारी है ताकि इस तरह के मामलों को जल्द से जल्द और ईमानदारी से निपटाया जा सके.

नक्सलवाद को लेकर दो तरह की बातें सामने आ रही हैं. आप कुछ कहते हैं, गृहमंत्री कुछ कहते हैं.

ऐसा कुछ नहीं है. जो बात गृहमंत्री कह रहे हैं मैं भी वहीं कह रहा हूं.

तो फिर गफलत कहां पैदा हो रही है.

हमारे बीच किसी तरह की दुविधा नहीं है. दुविधा आप मीडिया के लोग पैदा कर रहे हैं.

आप उन्हें बौद्धिक अहंकार से पीड़ित कहते हैं, फिर उन्हें अपना अच्छा दोस्त भी कहते हैं. चिदंबरमजी कहते हैं कि उन्हें खुशी होगी अगर आप उनसे बेहतर गृहमंत्रालय चला सकें.

सवाल ही नहीं उठता. 2013 तक तो मैं संसद का चुनाव ही नहीं लड़ूंगा.

तो फिर मतभेद कहां पैदा हो रहे हैं. आपके मुताबिक सरकार को नक्सलवाद से किस तरह से निपटना चाहिए?

देखिए ये पूरी तरह से राज्य का मामला है. केंद्र के पास करने को बहुत कम होता है. हां मेरा मानना है कि जिस तरह से आंध्र प्रदेश ने नक्सलवाद को खत्म किया वो तरीका सबसे बढ़िया है. पर छत्तीसगढ़ की सरकार पर मेरा हमेशा से आरोप रहा है कि वहां की सरकार नक्सलवाद से निपटने में असफल रही है, उनकी नीतियां गलत हैं. भारतीय जनता पार्टी का नक्सलवादियों से हर चुनाव में सौदा हो जाता है. आप देखें की पिछले कुछ चुनावों में नक्सलवाद से प्रभावित बूथों पर भाजपा के पक्ष में एकतरफा वोट पड़ता है. इसकी क्या वजह है

आप सरकार की नीतियों की भी आलोचना कर देते हैं, अपनी पार्टी की लाइन से भी अलग चले जाते हैं. ये कांग्रेस में एक नया चलन है. इसकी हिम्मत कहां से आती है.

मैंने नक्सलवाद की समस्या को हमेशा पार्टी की नीतियों के हिसाब से ही निपटने की हिमायत की है और आज भी मैं इस पर कायम हूं. मेरा कभी सरकार की नीतियों से मतभेद नहीं रहा. मैं तो गृहमंत्रालय की ही बात कर रहा हूं. गृह सचिव चिट्ठी लिखकर कहते हैं कि आदिवासियों की समस्याओं पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए, मैं भी यही कह रहा हूं.

आपके हिसाब से नक्सलवाद से प्रभावी तरीके से निपटने का तरीका क्या है.

आंध्र प्रदेश सरकार ने जिस तरह से नक्सलवाद को खत्म किया उसी तरह से कर दीजिए. शाति वार्ताएं हुई, आदिवासियों का विश्वास जीतने के लिए जो किया जा सकता था वो किया गया, हम लोगों ने पदयात्राएं की, कुल मिलाकर जनता को हमने साथ लिया. अगर जनता को आप साथ नहीं लेंगे तो फिर कभी सफल नहीं हो पाएंगे. बड़े लोगों ने आदिवासियों की जमीने हथिया ली थी उन्हें वापस दिलवाई गईं. 

इसके दो पहलू हैं पहला आंध्र प्रदेश में बहुत हिंसक तरीके से नक्सलवाद का खात्मा किया गया दूसरे आंध्र का तरीका अब बाकी जगहों पर लागू नहीं हो सकता. मेरी कुछ नक्सली नेताओं और उनके समर्थकों से बातचीत हुई है, उनका सीधे कहना है कि सरकार ने उनके साथ धोखा किया था. पहले शांति वार्ताओं के जरिए उनके अंडरग्राउंड नेताओं को ओवर ग्राउंड करवा लिया फिर हिंसक तरीके से उनका सफाया कर दिया.

असल बात यह है कि आंध्र प्रदेश में नक्सलवाद काबू में है या नहीं. रमन सिंह में तो इच्छाशक्ति ही नहीं है. 

आखिरी सवाल गृहमंत्रालय और विदेश मंत्रालय के बीच भी रस्साकशी चल रही है. सरकार के बीच इतनी मतभिन्नता क्यों है?

मैं इस विषय में कुछ ज्यादा नहीं कहूंगा पर इतना जरूर कहूंगा कि एसएम कृष्णा ने जो कहा है उसमें कुछ हद तक सच्चाई है. ऐसे समय पर गृह सचिव का इस तरह का बयान आना कहां तक उचित है. इस पर सोचना चाहिए.

चैनलों का ‘आजाद’ सच

अभी हाल में, यूपीए सरकार ने जब चैनलों के नियमन (रेगुलेशन) के लिए एक भारतीय राष्ट्रीय प्रसारण प्राधिकरण (एनबीएआई) के गठन का मसौदा चैनलों के पास विचार के लिए भेजा तो चैनलों ने उसे अपनी आज़ादी को कम करने की कोशिश बताते हुए उसका विरोध किया. यह विरोध बिल्कुल जायज है. निश्चय ही, चैनलों को ऐसी किसी भी कोशिश का खुलकर विरोध करना चाहिए जो उनकी आज़ादी को कम करने या उसमें हस्तक्षेप करने और सच को दबाने की कोशिश करती हो.

बात जैसे ही सत्ता संरचना और उसमें बैठे शीर्ष व्यक्तियों तक पहुंचती है, चैनलों की आज़ादी और उनका सच हकलाने लगते हैंलेकिन क्या चैनल ऐसी हर कोशिश का इसी तरह से विरोध करते हैं जो उनकी आज़ादी को कम करने या सच को दबाने की कोशिश करती है? ऊपर से देखें तो ऐसा लगता है कि ये चैनल पूरी तरह से आज़ाद हैं. लेकिन शायद यह पूरा सच नहीं है. कई मामलों में चैनलों की यह आज़ादी और सच बोलने का उनके दावे सीमित और सतही मालूम होते हैं. खासकर पाकिस्तान, कश्मीर, उत्तर पूर्व, माओवाद जैसे मसलों पर हमारे चैनलों की यह ‘आज़ादी’ और उनका ‘सच’ अकसर ‘देशभक्ति’ और ‘राष्ट्रहित’ आदि से टकराकर लड़खड़ाने लगते हैं.

अभी पिछले महीने माओवादी नेता चेरुकुरी राजकुमार (आज़ाद) और स्वतंत्र पत्रकार हेमचंद्र पाण्डेय की कथित पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने की खबर को ही लें. चैनलों ने इस मामले को न सिर्फ एक रूटीन खबर की तरह दिखाकर निपटाने की कोशिश की बल्कि पुलिस के दावे को ही सच मानकर उसकी और जांच-पड़ताल की कोई कोशिश नहीं की. आज़ाद के मामले में ‘आज़ाद’ और ‘सच’ बोलने वाले चैनलों की चुप्पी हैरान करने वाली है जबकि इस पूरे मामले में ऐसे कई तथ्य हैं जो और पहलुओं को छोड़ भी दें तो सिर्फ एक खबर के लिहाज से भी उसे बड़ी खबर बनाते हैं. ऐसा भी नहीं कि इन तथ्यों की खोज के लिए चैनलों को बहुत दौड़-भाग या खोजी पत्रकारिता करने की जरूरत थी.

लेकिन किसी भी चैनल ने इस खबर को खबर की तरह दिखाने की कोशिश नहीं की. जैसे, दिल्ली में स्वामी अग्निवेश प्रमाण सहित यह जानकारी दे रहे थे कि किस तरह माओवादी नेता आज़ाद माओवादी पार्टी और सरकार के बीच शांति वार्ता के प्रमुख सूत्रधार थे. ध्यान रहे कि अग्निवेश माओवादियों और सरकार के बीच बातचीत शुरू कराने के लिए मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे हैं. उन्होंने शांति वार्ता की यह कोशिश गृहमंत्री पी चिदंबरम की पहल पर शुरू की थी. स्वामी अग्निवेश के मुताबिक आज़ाद कथित पुलिस मुठभेड़ में मारे जाने से पहले स्वामी जी की वह चिट्ठी लेकर माओवादी नेतृत्व के पास जाने की तैयारी कर रहे थे जिसमें वार्ता शुरू करने के लिए गृहमंत्रालय की ओर से रखी गई जरूरी शर्त 72 घंटे के युद्ध विराम की तीन तारीखों का प्रस्ताव था.
आज़ाद क्यों और किन परिस्थितियों में मारे गए? उनके साथ स्वतंत्र पत्रकार हेमचंद्र पांडेय कैसे मारे गए? क्या वह मुठभेड़ वास्तविक थी? इस मुठभेड़ की न्यायिक जांच से सरकार क्यों कतरा रही है? क्या इस मुठभेड़ का मकसद शांति वार्ता की कोशिशों को आगे बढ़ने से रोकना नहीं था? आखिर सरकार और उससे बाहर वे कौन लोग हैं जो शांति वार्ता नहीं चाहते? शांति वार्ता न होने से किसे फायदा होनेवाला है? ये और ऐसे ही दर्जनों सवाल हैं जो गहराई से जांच-पड़ताल की मांग करते हैं. इसलिए भी कि गुजरात में सोहराबुद्दीन मामले की सीबीआई जांच से न सिर्फ फर्जी पुलिसिया मुठभेड़ों की आपराधिक सच्चाई सामने आ रही है बल्कि उसमें राज्य के गृहमंत्री अमित शाह तक जेल पहुंच चुके हैं.   

क्या आज़ाद की मुठभेड़ में हत्या ऐसी खबर नहीं थी जिसकी सच्चाई सामने लाने की कोशिश की जाती? क्या इस देश की जनता को सच जानने का हक नहीं है? लेकिन अफ़सोस की बात है कि इतने महत्वपूर्ण मामले को चैनलों ने गहरी छानबीन के लायक नहीं समझा जबकि माओवादी-पुलिस हिंसा-प्रतिहिंसा में सैकड़ों बेगुनाह लोग लगातार मारे जा रहे हैं. ये वही चैनल हैं जिन्होंने मॉडल विवेका बाबाजी की आत्महत्या की गुत्थी सुलझाने के लिए कई दिनों तक घंटों कीमती एयर टाइम खर्च किया. क्या फिर  यह मान लिया जाए कि चैनलों की आज़ादी का दायरा सिर्फ  विवेका या थोड़ा आगे बढ़कर जेसिका लाल या रुचिका या प्रियदर्शिनी मट्टू आदि मामलों को उठाने तक सीमित हो चुका है जहां कुछ बड़े और रसूखदार लोगों के खिलाफ बोलना ही सच की सीमा है?

लेकिन बात जैसे ही कुछ व्यक्तियों से आगे बढ़कर सत्ता संरचना और उसकी संस्थाओं और उसमें बैठे शीर्ष व्यक्तियों तक पहुंचती है, चैनलों की आज़ादी और उनका सच हकलाने लगते हैं. सच पूछिए तो आज़ाद चैनलों की आज़ादी की सीमा की जांच के लिए आज़ाद की मौत एक टेस्ट  केस  बन गई है. इस मामले में चैनलों के साथ-साथ समूचे कॉर्पोरेट मीडिया की चुप्पी या खुलकर सरकार के साथ खड़े होने से उनकी आज़ादी की सीमाएं बेपर्द हो गई हैं. साफ है, चैनलों ने खुद ही अपनी आज़ादी सरकार के सच को समर्पित कर दी है. सरकार बेवकूफ है, ऐसे समर्पित चैनलों के लिए नियमन की क्या जरूरत है?.

कोई दूसरा नहीं

प्रभाष जोशी होते तो इस स्तंभ में लिखते कि मुथैया मुरलीधरन के विदाई टेस्ट को देवता भी ऊपर से देख रहे होंगे और फूल बरसा रहे होंगे. इंद्र ने वर्षा रोकी होगी, मरुत ने हवाओं को नियंत्रित किया होगा और नियति का देवता अपने लेखे को दुरुस्त करने में जुटा होगा. यह उदात्तता उनकी शैली नहीं, सहज मानसिकता थी. जब वह ऐसा कुछ लिखते तो सपाट, और पत्रकारिता की इकहरी निगाहों से दुनिया को देखने और पढ़ने वाले लोगों को लगा करता कि प्रभाष जोशी भावनाओं में बह जाते हैं.

उन्होंने आख़िरी टेस्ट में अपने सारे संचित कौशल, अनुभव और ऊर्जा का इस्तेमाल किया और इसे अपने और टीम दोनों के लिए यादगार बना डालालेकिन यह किसी मुरली, सचिन या सुनील गावस्कर का करिश्मा नहीं था जिनकी वजह से प्रभाष जोशी नाम के पत्रकार का गला रुंध जाता था, उसकी कलम खुशी में चमकते आंसुओं की स्याही से लिखने लगती थी. यह मनुष्यता के प्रति उनकी निष्कंप आस्था थी, यह मानवीय उपलब्धियों के प्रति उनमें सहज ढंग से जगता और उमगता गौरव का भाव था जो उन्हें कभी कवि बना डालता था और कभी ऋषि. 

मुरलीधरन के विदाई टेस्ट ने एक ऐसी ही उपलब्धि का चरम क्षण बनाया जिसपर रीझा और रोया जा सके. देवताओं के फूल हमने देखे नहीं, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि मैदान से विदा हो रहे मुरलीधरन पर सारी दुनिया ने फूल बरसाए. ऐसे कई लोग थे- और इनमें शायद ख़ुद मुरली भी रहे हों- जो मानते थे कि उनमें पुरानी चमक नहीं रह गई है, कि भारत के पिछले दौरे में भारतीय बल्लेबाजों ने उनकी गेंदों की उड़ान कतर दी थी, उनके घुमाव छीलकर रख दिए थे और वे बस एक महान गेंदबाज़ की छाया भर रह गए थे. इसलिए कम लोगों को उम्मीद थी कि गॉल के अपने आख़िरी टेस्ट में आठ विकेट चटखाकर मुरली 800 विकेट हासिल करने का करिश्मा कर ही दिखाएंगे. भारतीय क्रिकेट के जानकारों के सामने तो बस कपिलदेव का उदाहरण था जो 432 विकेट की मंज़िल तक, बिल्कुल घिसटते हुए, भारतीय क्रिकेट की सदाशयता के कंधों पर टंगकर, हांफते और निचुड़ते हुए पहुंचे थे.

मुरली ने लगातार सीमित की जा रही गेंद को उसका आत्मविश्वास लौटाया और क्रिकेट को उसका आकर्षण भीमुरली को अपने लिए यह नियति मंजूर नहीं रही होगी. इसलिए जब उन्होंने देखा कि वे अपनी टीम के लिए पहले की तरह उपयोगी नहीं रह गए हैं तो उन्होंने खुद को किनारे करने का फैसला किया. लेकिन उन्होंने अपने आख़िरी टेस्ट में अपने सारे संचित कौशल, अनुभव और ऊर्जा का इस्तेमाल किया और इसे अपने और टीम दोनों के लिए यादगार बना डाला. दरअसल, इस मोड़ पर पता चलता है कि सिर्फ कौशल नहीं होता जो किसी को महान बनाता है, यह उसकी अपनी जिद, उसके भीतर का रगड़ खाता लोहा होता है जो अपने-आपको साबित करने के लिए खुद को सान पर चढ़ाता रहता है.

मुरली के 800 टेस्ट विकेट और 1,300 से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय विकेट सिर्फ गेंदबाज़ी की उपलब्धि नहीं हैं. वे ब्रैडमैन के 99.94 के बल्लेबाज़ी औसत जितने ही अविश्वसनीय लगते हैं और सचिन तेंदुलकर के अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में 100 को छू रहे टेस्ट शतकों जितने ही अभेद्य. जब भी किसी खिलाड़ी के खाते में ऐसी अविश्वसनीय लगती उपलब्धियां दिखती हैं तो वह अपने खेल के दायरे के बाहर चला जाता है. मुरलीधरन भी पेले और माराडोना की तरह, जेसी ओवंस और ध्यानचंद की तरह, रोजर फेडरर और पीट सैंप्रास की तरह, माइकल फेल्प्स और यूसेन बोल्ट की तरह अपने खेल की सरहद फलांगकर उस अप्रतिम आकाशगंगा का हिस्सा हो गए हैं जिससे खेलों की मनुष्यता बनती है, उसकी विराटता झांकती है.
मुरलीधरन के संदर्भ में इस विराटता के पहलू कई हैं. मुरलीधरन के साथ एक युग ख़त्म हो रहा है, यह क्लीशे जैसा वाक्य कहने वाले लोग अकसर अपने इस कथन की मार्मिकता से अनभिज्ञ रहते हैं. लेकिन इस विदाई के साथ वाकई एक युग ख़त्म हुआ है. शेन वॉर्न, अनिल कुंबले और मुरलीधरन की उस महान स्पिन त्रयी ने हमेशा-हमेशा के लिए गेंद रख दी है जिसने अस्सी के दशक में मृत बताई जा रही स्पिन गेंदबाज़ी को जिंदा किया, उसे नए सिरे से परिभाषित किया, उसमें नए हथियार जो़ड़े और इसके सहारे वर्षों तक अपनी टीमों को जीत दिलाई. बेदी की फ्लाइटेड और चंद्रशेखर की गुगली पीछे छूट गई और दूसरा, टॉप स्पिन, जूटर, स्लाइडर जैसे कई नए शब्द शेन वॉर्न और मुरलीधरन की गेंदबाज़ी को समझने का जरिया बन गए.

दूसरी और ज्यादा अहम बात यह है कि जिन 18 वर्षों में मुरलीधरन खेले उसमें दुनिया ने अपने कई महान क्रिकेटर देखे. बल्लेबाजी में सचिन तंेदुलकर, ब्रायन लारा, रिकी पॉन्टिंग, राहुल द्रविड़, मैथ्यू हेडेन, सनत जयसूर्या, इंजमाम उल हक़, स्टीव वॉ, सहवाग और गेंदबाज़ी में मुरली, शेन वॉर्न, अनिल कुंबले, मैकग्रा, पोलोक, कर्टनी वाल्श सब इसी दौर की देन हैं. इस दौर ने कैलिस जैसा ऑलराउंडर देखा है जिसके रिकॉर्ड महानतम ऑलराउंडर गैरी सोबर्स को चुनौती देते प्रतीत होते हैं. गिलक्रिस्ट, संगकारा और महेंद्र सिंह धोनी जैसे विकेटकीपर बल्लेबाजों की पंक्ति ने तो विकेटकीपिंग को जैसे बिल्कुल पुनर्परिभाषित कर डाला है. लेकिन यह पूरा दौर अब अपने अंतिम पड़ाव पर है. स्पिन त्रयी जा चुकी, ब्रायन लारा और मैथ्यू हेडेन अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से विदा हो चुके, 2011 तक सचिन और द्रविड़ भी बल्ला टांग चुके होंगे और रिकी पॉन्टिंग अपने हांफते हुए आखिरी कुछ टेस्ट मैचों की दहलीज पर होंगे. इस लिहाज से यह क्रिकेट का वह चरम है जहां हम एक खेल को उसकी संपूर्णता में आखिरी बार देख रहे हैं. क्योंकि इसके बाद जो दौर आ रहा है वह क्रिकेट को मूलभूत तौर पर बदलता लग रहा है. इस प्रक्रिया को समझे बिना हम मुरली और उसके दौर की विदाई के मतलब को ठीक से समझ नहीं पाएंगे.

70 और 80 के दशक तक अंग्रेज भद्रजनों की औपनिवेशिक विरासत के तौर पर थक चुका टेस्ट क्रिकेट जब काफी सुस्त और अनाकर्षक हो चला था, उसमें पुराना तेज नहीं बचा था और अतिरिक्त सुरक्षात्मकता चली आई थी, तभी उसमें एकदिवसीय मैचों के रूप में नया खून आया. इस नए खून ने खेल की आत्मा भी बदल दी. औपनिवेशिक भद्रता और उसमें निहित दंभी चरित्र की जगह एक प्रतिस्पर्द्धात्मक स्फूर्ति और उससे पैदा हुई पहचान की नई आक्रामकता ने ले ली. यह खेल शुरू गोरों ने किया था, लेकिन इसे ठीक से दक्षिण एशिया के गरीब मुल्कों ने सीखा और साधा. खेल की शैली और मिज़ाज बदले तो टेस्ट भी रोमांचक हो उठे. क्रिकेट महानगरों से उठकर छोटे शहरों तक चला आया. 21वीं सदी की भारतीय क्रिकेट टीमों में रांची से लेकर कोच्चि तक और मुरादाबाद से लेकर भड़ूच तक के खिलाड़ी दिखने लगे. वैसे देखें तो मुरलीधरन भी श्रीलंका के संकटग्रस्त समाज के उस हिस्से और तबके से आते हैं जिसने हाल के दशकों में सबसे ज्यादा चोट खाई है.

लेकिन कुलीन घरों और शहरों से मध्यवर्गीय समाजों तक पहुंचे इस क्रिकेट को अब बाज़ार अपने हिसाब से अनुकूलित कर रहा है. जाने-अनजाने वह उसके अनूठेपन पर भी हमला कर रहा है. क्रिकेट इकलौता खेल है जिसमें गेंदबाज़ी और बल्लेबाज़ी के तौर पर दो बिल्कुल अलग विधाएं एक-दूसरे से टकराती हैं. क्षेत्ररक्षण इसमें एक तीसरा आयाम जोड़ता है. यह बहुआयामिता फुटबॉल, हॉकी या बास्केटबॉल जैसे खेलों में नहीं है. लेकिन बाज़ार लगातार इस कोशिश में है कि क्रिकेट को सिर्फ बल्लेबाजों का खेल बनाकर छोड़ दिया जाए. वह बल्ले को नई हैसियत दे रहा है और गेंद के लिए नई सरहदें बांध रहा है. 50 ओवरों का मैच किसी गेंदबाज के लिए महज 10 ओवर का होता है और 20 ओवरों का मैच सिर्फ 4 ओवर का. नोबॉल फेंकने की सजा सिर्फ एक रन नहीं, अब एक अतिरिक्त गेंद भी है जिसपर बल्लेबाज आउट नहीं होता. यानी बल्ला लगातार बड़ा बनाया जा रहा है, गेंद लगातार छोटी की जा रही है. इस ढंग से देखें तो एक वास्तविक खतरा यह है कि औपनिवेशिक कुलीन विरासत से आधुनिक मध्यवर्गीय जुनून का हिस्सा बनने वाले इस खेल को एक मुनाफाखोर अल्पतंत्र अपने मुनाफे के लिए सिर्फ एक तमाशा- एक इंटरटेनमेंट शो- बना कर न छोड़ दे. आईपीएल के संस्करणों में यही होता लग रहा है.

पर यह सिर्फ क्रिकेट के बाहरी स्वरूप के लिए नहीं, उसके अंदरूनी चरित्र के लिए भी ख़तरनाक है. टी-20 के रोमांच का जो झाग है उसमें स्मृति और ठहराव के लिए कोई अवकाश नहीं है, कला और विचार के लिए भी नहीं. वह किसी ऐडवेंचर स्पोर्ट्स की तरह एक ऐसा खेल है जिसमें बल्लेबाज़ हाराकिरी के लिए आते हैं. इस नए अभ्यास की वजह से इन दिनों क्रिकेट में रन खूब बन रहे हैं. लेकिन अंततः इनमें वह कलात्मक शास्त्रीयता घट रही है जो टेस्ट मैचों का सौंदर्य बोध गढ़ती है. यानी बहुत संभव है कि क्रिकेट के संक्षिप्तीकरण के पहले पड़ाव ने अगर टेस्ट मैचों को नई संभावनाओं से जोड़ा तो दूसरा पड़ाव उस अति तक पहुंच जाए जहां क्रिकेट दूसरे खेलों की तरह इकहरी बल्लेबाजी के प्रदर्शन का तमाशा भर रह जाए, उसमें वह गहराई न दिखे जो क्रिकेट की गौरवशाली अनिश्चितता को एक बड़ा मूल्य बनाती है.

मुरलीधरन का एक मूल्य इस तथ्य में भी निहित है. वे जैसे धारा के विरुद्ध गेंद को घुमाते और मनचाहे नतीजे पैदा करते रहे. जिस दौर में क्रिकेट का प्रतिष्ठान बल्ले को ज्यादा से ज्यादा बड़ा और मारक बनाता रहा, उस दौर में मुरली की फिरकी गेंद को वह जादुई घुमाव देती रही जिसने क्रिकेट को सिर्फ बल्ले की बादशाहत का गुलाम नहीं बनने दिया. इस घुमाव पर हैरान होने वालों ने मुरली को चकर करार दिया, उनकी गेंदों को नो बॉल ठहराते रहे और अंततः उन्हें मजबूर किया कि वे अपनी बांहों के घुमाव को बिल्कुल वैज्ञानिक ढंग से सही साबित करें और इसपर आईसीसी की मुहर लगवाएं. मुरली ने यह जंग जीती और लगातार सीमित की जा रही गेंद को उसका आत्मविश्वास लौटाया और क्रिकेट को उसका आकर्षण भी.  हम सिर्फ कल्पना कर सकते हैं कि अगर गॉल टेस्ट में भारत ने भी श्रीलंका की ही तरह बल्लेबाजी की होती तो हमारे सामने बस एक नीरस और बेनतीजा मैच होता. यह नहीं हुआ तो इसलिए कि मुरलीधरन सचिन और धोनी जैसे बल्लेबाजों के विकेट ले उड़े.

ऐसे मुरली का आखिरी मैच प्रभाष जोशी ने छोड़ा नहीं होगा. वे भी कहीं ऊपर से फूल बरसा रहे होंगे. 

प्रियदर्शन 

साथ रहने का शऊर

एक हजार से अधिक की आबादी वाला अल्लाहपुर  किसी आम गांव जैसा ही है- फूस की झोंपड़ियां और पक्के मकान, गांव के बीच में तालाब और आम के पेड़ों के बीच से निकलती सड़क पर बिछी हुई लाल ईंटें. अगर आपने गांव के नाम पर ध्यान दिया हो तो आपको जानकर थोड़ी हैरानी हो सकती है कि इस गांव में सिर्फ एक मुसलिम परिवार है, बाकी सभी घर हिंदुओं के हैं. और अल्लाहपुर के पास की नहर पार करें तो एक दूसरा गांव मिलेगा, भगवानपुर. मुख्य सड़क से गांव की तरफ मुड़ते ही घर शुरू हो जाते हैं- यहां तीन सौ परिवारों में सिर्फ 30 हिंदू हैं. बाकी परिवार मुसलिमों के हैं.

70 वर्षीय बिंदेश्वरी प्रसाद उत्साह के साथ बताते हैं, ‘पर्व-त्योहार में भले शामिल नहीं हो पाएं लेकिन शादी-गमी में सब शामिल होते हैं. अल्लाहपुर में एक मुसलिम परिवार है. कभी हमारे यहां कथा भागवत हुई तो उसे सुनने वे लोग भी आते हैं, खाना-पीना भी करते हैं’

भारतीय समाज में रहते हुए आदमी जिस तरह चीजों को देखने लगता है उसमें आबादी के समीकरण के हिसाब से नामों का ऐसा मिलाप अचंभे में डाल देता है. जाने कब से ये गांव कमोबेश इस संतुलन के साथ सहजता से रहते आए हैं. समाजवादी आंदोलन से जुड़े रहे स्थानीय पत्रकार नजीर मलिक पास के ही डुमरियागंज के हैं. बचपन से उनका आना-जाना इन गांवों की तरफ रहा है. वे बताते हैं कि उन्हें कम से कम तीन पीढ़ियों से इन गांवों के बसे होने की जानकारी है.

तीन पीढ़ियां. मतलब लगभग 150 साल. कोई नहीं जानता कि इन गांवों के नाम किसने रखे होंगे. जो सब जानते हैं वह है साथ रहने का शऊर. 70 वर्षीय बिंदेश्वरी प्रसाद उत्साह के साथ बताते हैं, ‘पर्व-त्योहार में भले शामिल नहीं हो पाएं लेकिन शादी-गमी में सब शामिल होते हैं. अल्लाहपुर में एक मुसलिम परिवार है. कभी हमारे यहां कथा भागवत हुई तो उसे सुनने वे लोग भी आते हैं, खाना-पीना भी करते हैं.’

तो देश-दुनिया में इतनी घटनाएं होती रहती हैं. सांप्रदायिक तनाव पैदा होते रहते हैं. चुनाव आते रहते हैं. क्या कभी किसी तरह की फूट नहीं पड़ी? वे कहते हैं, ‘क्या कोई फूट डालेगा? जब वे हममें मिल जाएंगे और हम उनमें तो कोई क्या फूट डालेगा? यहां भाजपा वाले भी वोट मांगने आते हैं और कांग्रेस वाले भी.’ लेकिन कभी-कभी लगता है कि साथ रहने का यह शऊर शायद थोड़ा दूर रहने के कारण पैदा हुआ है. अल्लाहपुर के ही जयंत्री प्रसाद कहते हैं, ‘इस गांव में होते तो शायद कुछ खटपट होती, लेकिन वे दूसरे गांव में हैं वह भी थोड़ी दूर है. नजदीक होते तो शायद कुछ खटपट हो भी सकती थी.’

अल्लाहपुर के अकेले मुसलिम परिवार के मुखिया रुआब अली अपने घर के सामने भैंसों का चारा काट रहे हैं. खेती उनका मुख्य पेशा है, साथ में वे सिलाई का काम भी कर लेते हैं. वे अपने पुश्तैनी मकान में रहते हैं और गांव में अकेला मुसलिम परिवार होने में उन्हें कोई मुश्किल नहीं है. हालांकि उनके परिवार की एक महिला कहती हैं, ‘हम चाहते हैं कि किसी दूसरे गांव चले जाएं जहां और भी मुसलिम रहते हों. यहां अच्छा नहीं लगता.’ रुआब अली और उनके भाई हजरत अली उस महिला की बातों पर ध्यान नहीं देते. लेकिन वह महिला अपनी बात पूरी करती है, ‘हमें पर्व-त्योहारों पर दूसरे गांव जाना पड़ता है. इसीलिए अच्छा नहीं लगता. बाकी तो यहां कोई दिक्कत ही नहीं है.’

भगवानपुर से आज किसी की बरात गई है, इसलिए अधिकतर लोग गांव में नहीं हैं. बात करने के लिए गांव के आखिरी छोर पर एक घर के पास अब्दुल मजीद मिलते हैं. उनकी बातें सुनकर अल्लाहपुर के बिंदेश्वरी प्रसाद की बातें याद आ जाती हैं, ‘इस गांव में 30 हिंदू परिवार भी रहते हैं. लेकिन कभी कोई दिक्कत नहीं हुई. सब मिल-जुलकर रहते हैं.’ नजीर मलिक कहते हैं, ‘यह मिथक बना दिया गया है कि जहां मुसलमानों की आबादी ज्यादा है, वहां दंगे होते हैं. इस पूरे इलाके और खासतौर से भगवानपुर-अल्लाहपुर इलाके में मुसलिम आबादी खासी है. लेकिन यहां कभी दंगे नहीं हुए. झगड़े जरूर हुए हैं, लेकिन वे हिंदुओं-मुसलमानों के  झगड़े नहीं थे. वे जमींदारों और किसानों के बीच के संघर्ष थे, जिनमें दोनों के धर्म अलग-अलग हुआ करते थे.’ 

 

' स्पर्श करने से गंगा न निर्मल बन सकती है न अविरल '

गंगा की अविरलता और निर्मलता दोनों एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं. उत्तराखंड सरकार हेमा मालिनी और दूसरे सितारों को लेकर गंगा स्पर्श करने की बात कर रही है. लेकिन उसे समझने की जरूरत है कि स्पर्श करने से न गंगा निर्मल बन सकती है न अविरल. पिछले दिनों उत्तराखंड के कई साधुओं और सरोकारी लोगों के साथ मिलकर हमने गंगोत्री में कचरे का वैज्ञानिक प्रबंधन करने का काम शुरू किया. साधु-संन्यासियों, मंदिरों, पुजारियों, होटल मालिकों आदि से गंगोत्री में कचरा नहीं डालने के लिए बात की. पावनधाम गंगोत्री को सीवर से अलग रखने की भी लड़ाई लड़ी.

हम हैरान थे. भला कचरे से वन विभाग को क्या काम. हमने अधिकारियों से पूछा कि उनके ऐसा करने की वजह क्या हैइसी क्रम में हमने पाया कि गोमुख के पास भोजवासा में बहुत पुराना प्लास्टिक के कचरे का ढेर है. गंगोत्री से गोमुख जाने वाले लोगों का गर्मियों में तांता लगा रहता है. लेकिन पर्यावरण को लेकर उनमें से ज्यादातर में संवेदनशीलता नहीं होती जिसकी आज इस क्षेत्र को बेहद जरूरत है. यही वजह रही होगी कि  इतना सारा कचरा वहां जमा हो गया. यह गंगा में न जा सके, इसलिए हमने उस ढेर को और गोमुख से गंगोत्री के बीच पड़े कचरे को चुन-चुनकर 17 बोरों में भर दिया. मकसद यह था कि इस कचरे से क्षेत्र को मुक्त किया जाए. यह आठ जून की बात है.

अब इस कचरे को ठिकाने लगाने की बारी थी. हमने बोरों में भरे इस कचरे को छह-सात खच्चरों पर लादा और इसे ठिकाने लगाने के लिए ले जाने लगे. लेकिन रास्ते में ही उत्तराखंड वन विभाग के अधिकारियों ने वन चौकी पर हमारा रास्ता रोक लिया. उन्होंने हमसे बोरों के बारे में काफी पूछताछ की. फिर उनकी तलाशी ली. इसके बाद उन अधिकारियों ने सभी बोरों को जब्त कर लिया. हम हैरान थे. भला कचरे से वन विभाग को क्या काम. हमने अधिकारियों से पूछा कि उनके ऐसा करने की वजह क्या है. जवाब सुनकर हमारी हैरानी और भी बढ़ गई. उनका कहना था कि वह कचरा वन विभाग की संपत्ति है और हम उसे अपने साथ नहीं ले जा सकते.

हमने उन्हें समझाने की भरसक कोशिश की. लेकिन अधिकारी कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे. हमें लग चुका था कि हम प्लास्टिक को पहाड़ों से नीचे नहीं ले जा सकेंगे. तब हमने उनसे कहा कि आप भले ही बोरों को रख लें लेकिन उस कचरे को गंगा में न बहाएं. 
दरअसल हमें यह आशंका इसलिए थी कि पहले भी उत्तराखंड सरकार से प्लास्टिक निपटाने के लिए पैसा लेने के बावजूद अधिकारियों ने प्लास्टिक को गंगा में बहा दिया था, जो आगे जाकर विद्युत टर्बाइन में फंस गया था.

चूंकि अधिकारियों ने हमारी बात की ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया था, इसलिए हमें डर सताया कि कहीं प्लास्टिक से भरे ये बोरे भी गंगा में न बहा दिए जाएं. वापस आकर इस विषय में मैंने उत्तराखंड के कई उच्चाधिकारियों से बात की, लेकिन उसका कोई सार्थक नतीजा नहीं निकला. और कोई रास्ता नहीं सूझा तो  आखिर में मैंने भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के विशेष सचिव आरएच ख्वाजा से मिलकर उन्हें हालात के बारे में जानकारी दी. इसके बाद उन्होंने उत्तराखंड के पेयजल सचिव एमएच खान को हमारे गंगा स्वच्छता कार्यक्रम में मदद करने को कहा है.

समझ में नहीं आता कि उत्तराखंड सरकार एक तरफ तो गंगा को मां कहती है और दूसरी तरफ उसे कचरा और मैला ढोने वाली मालगाड़ी बनाती है. और  जब हमारे समाज के लोग अपनी प्रेरणा से गंगा की स्वच्छता को अपना जरूरी काम मानकर इसमें जुटते हैं तो इसका वन विभाग उनसे बोरों में भरा कचरा छीन लेता है, उनके साथ ठीक से पेश नहीं आता. ऐसे में सवाल उठता है कि गंगा आखिर कब तक बची रह पाएगी. इतना ही नहीं, गंगा की पवित्रता और निर्मलता के बड़े-बड़े नारे देने वाला गंगा स्पर्श अभियान चलाने वाली यह सरकार गंगा के खनन और उसके प्रवाह में बाधा डालने वाले बांध, सुरंग और झील बनाने के काम में भी जुटी हुई है. यह स्थिति बड़ी निराशाजनक है.

हम सभी के लिए एक बात समझनी बेहद जरूरी है. उत्तराखंड का विकास केवल ऊर्जा से ही नहीं होगा. केवल गंगा की हत्या करके ही उत्तराखंड समृद्धि और विकास के रास्ते आगे नहीं बढ़ सकता और ऐसी समृद्धि हमें विनाश के ही रास्ते पर ले जाएगी. जल, जंगल और जमीन को प्यारपूर्वक सहेजकर जीवन चलाने की परंपरा का रास्ता ही स्थायी और सनातन विकास का रास्ता है. 

' सहज भाषा भी कलात्मक हो सकती है '

आपकी पसंदीदा लेखन शैली क्या है?

मुझे सबसे अधिक संस्मरण और डायरी पसंद हैं. सीमोन द बोउवार की किताब सेकेंड सेक्स, विष्णु प्रभाकर की आवारा मसीहा, धर्मवीर भारती की ठेले पर हिमालय और फिल्मकार एलिया कजां की आत्मकथा बहुत पसंद हैं.

अभी क्या पढ़ रही हैं?

ममता कालिया का उपन्यास दुक्खम सुक्खम. डॉ रवींद्र कुमार पाठक की नई किताब आई है जनसंख्या समस्याः स्त्री पाठ के रास्ते. रवींद्र जी ने अच्छी किताब लिखी है.

वे रचनाएं या लेखक जो आपको बेहद पसंद हों?

पसंद तो समय-समय पर बदलती रहती है. कभी कोई ज्यादा पसंद आता है तो कभी कोई. वैसे राहुल सांकृत्यायन, रांगेय राघव, प्रेमचंद, अज्ञेय, (धर्मवीर) भारती जी, मन्नू (भंडारी) जी, कृष्णा सोबती पसंद हैं. नए लेखकों में खास तौर से नीलाक्षी सिंह पसंद हैं. इनके अलावा चंदन पांडेय, अल्पना पांडेय और (प्रेमरंजन) अनिमेष अच्छा लिख रहे हैं.

कोई जरूरी रचना जिसपर नजर नहीं गई हो?

बहुत-से लेखक बहुत अच्छा लिखकर भी गुमनाम रह जाते हैं. चंद्रकिरण सोनरेक्सा की पिंजरे की मैना, कुसुम त्रिपाठी की किताब जब स्त्रियों ने इतिहास रचा और डॉ रवींद्र की ऊपर बताई किताब  ऐसी ही किताबों में हैं.

कोई रचना जो बिना वजह मशहूर हो गई हो?

मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा गुड़िया भीतर गुड़िया ऐसी किताबों में है.

पढ़ने की परंपरा कायम रहे, इसके लिए क्या किया जाना चाहिए?

सबसे जरूरी बात तो यह है कि किताबों के दाम कम होने चाहिए. दूसरी बात यह कि लेखक बहुत बौद्धिक न लिखकर आम पाठकों को समझ में आने वाली भाषा में लिखें. सहज भाषा भी कलात्मक हो सकती है. यह धारणा कि हमेशा क्लिष्ट और गूढ़ शब्दावली ही कलात्मक होती है गलत है. सरलता में भी सौंदर्य होता है.

रेयाज उल हक