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जड़ मांगे पानी, कवायद सिर्फ जुबानी

सरकारें विश्वविद्यालय प्रशासनों पर ठीकरा फोड़ देती हैं और वे सरकारों पर. इसी खींचातानी में पिछले 27 साल से बिहार के विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ चुनाव नहीं हुए हैं. एक समय में राज्य और देश की दिशा तय करने वाले छात्र आंदोलन यहां दम तोड़ चुके हैं. इसके कारण और असर की पड़ताल करती इर्शादुल हक की रिपोर्ट

बीती नौ जनवरी को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब पटना कॉलेज की 150वीं वर्षगांठ समारोह में शिरकत करने पहुंचे तो उन्हें कुछ ऐसे माहौल का सामना करना पड़ा जिसकी उन्हें उम्मीद नहीं थी. उनके सामने  छात्र संघ चुनाव न होने के मुद्दे पर अपना विरोध जताते विश्वविद्यालय के छात्र थे. माहौल भले ही 1974 के छात्र आंदोलन जैसा न रहा हो मगर इसे देख कर निश्चित रूप से मुख्यमंत्री को अपने छात्र जीवन के आंदोलनों की याद ताजा हो गई होगी जब उन जैसे दर्जनों छात्र नेता पटना विश्वविद्यालय के इन्हीं परिसरों में तत्कालीन सरकार के खिलाफ आंदोलन का बिगुल फूंका करते थे. शायद इसीलिए उन्होंने न सिर्फ छात्रों पर लाठी बरसाने पर आमादा पुलिस को नरमी बरतने को कहा बल्कि इस बात की भी पुरजोर वकालत की कि विश्वविद्यालय छात्र संघों के चुनाव जरूर होने चाहिए. यही मांग आंदोलनकारी छात्र पिछले 27 साल से करते रहे हैं और उस दिन भी उनके आंदोलन का यही मकसद था.

20 जनवरी को नीतीश एक बार फिर पटना विश्वविद्यालय परिसर में थे. इस बार वे यहां एक सौ साल पुराना इतिहास दोहराने आए थे. इसी दिन यानी 20 जनवरी, 1912 को बिहार विधान परिषद की पहली बैठक पटना विश्वविद्यालय में ही हुई थी. उसी इतिहास को ताजा करने के लिए विधान परिषद के तमाम सदस्य सभापति ताराकांत झा के साथ यहां मौजूद थे. विधान परिषद की इस ऐतिहासिक बैठक को छात्रों ने अपने लिए बेहतरीन अवसर समझा और छात्रसंघों के चुनावों के लिए विश्वविद्यालयों को अधिसूचना जारी करने की मांग को लेकर वे सड़कों पर उतर आए. लेकिन इस बार पुलिस पूरी तरह तैयार थी. उसने छात्रों पर लाठियां बरसाईं और कइयों को गिरफ्तार कर लिया.

व्यवस्था के इसी रुख के चलते पिछले ढाई दशक से बिहार के विश्वविद्यालयों में एक सवाल पर चर्चा आम है. सवाल यह कि क्या छात्र आंदोलनों से निकल कर राष्ट्रीय स्तर के नेता बनने की परिपाटी अब समाप्त हो गई है या कर दी गई है. क्या अब उच्च शिक्षा के इन केंद्रों से नीतीश कुमार, लालू प्रसाद, सुशील मोदी और रविशंकर प्रसाद सरीखे नेताओं के उदित होने का दौर खत्म हो गया है? सन 74 के आंदोलन में छात्रों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था. इस आंदोलन ने देश की राजनीति की नई दिशा गढ़ी थी और तत्कालीन कांग्रेस सरकार को सत्ता से बाहर करने में अहम भूमिका तक निभाई थी. पर आज छात्र संघों का वजूद तक नहीं बचा है. विश्वविद्यालय, जिन्हें आम तौर पर लोकतांत्रिक राजनीति की पाठशाला भी कहा जाता है, पिछले 27 साल से मरणासन्न पड़े हैं. यहां छात्रसंघों के चुनाव नहीं होने के कारण छात्र राजनीति के रास्ते मुख्यधारा की राजनीति में, नई पीढ़ी के उच्च शिक्षा प्राप्त वर्ग के प्रवेश के रास्ते एक हद तक बंद होकर रह गए हैं.

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक श्रीकांत कहते हैं, ‘लगभग 20 साल तक बिहार में पंचायती चुनाव नहीं हुए जिसके कारण लोकतंत्र की पहली सीढ़ी के रास्ते शीर्ष राजनीति की तरफ बढ़ने की परंपरा मिट-सी गई थी. लेकिन जब वर्ष 2000-01 के बाद से पंचायतें फिर से वजूद में आईं तो अब राजनीति में एक नए वर्ग का प्रवेश शुरू हुआ है. इसमें बड़ी संख्या में महिलाएं और कमजोर समाज के लोग भी शामिल हैं. पर जब हम उच्च शिक्षा प्राप्त युवा वर्ग की तरफ देखते हैं तो ऐसा साफ महसूस होता है कि उसका राजनीति में दखल कम होता जा रहा है. इसका असर मौजूदा राजनीति में देखा जा सकता है. इसकी असल वजह विश्वविद्यालयों में छात्रसंघों का चुनाव न कराया जाना ही है.’ अपनी बातों में एक और महत्वपूर्ण मुद्दे का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं, ‘राजनीति जैसे-तैसे गतिशील रहती ही है. पर उच्च शिक्षा प्राप्त वर्ग के राजनीति में आगे न आने के कारण बदलते समय में नई विचारधारा के सृजन की संभावना भी धूमिल होने लगती है. इससे राजनीति में जड़ता भी आती है. इससे कुल मिला कर राजनीति और समाज का नुकसान ही होता है.’

श्रीकांत की तरह खुद उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भी इस मामले को लेकर खासे चिंतित हैं. तहलका से बातचीत में वे कहते हैं, ‘निश्चित तौर पर यह गंभीर चिंता की बात है कि विश्वविद्यालयों के रास्ते राजनीतिक पटल पर चिंतनशील युवाओं का आना अब लगभग समाप्त-सा हो गया है.’ पर मोदी इसके लिए बदलते समय और हालात को जिम्मेदार बताते हुए आगे कहते हैं, ‘मौजूदा दौर में छात्रों के लिए उच्च शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण व्यावसायिक शिक्षा हो गई है. उनका राजनीति से मोह भंग होता जा रहा है. पर किसी भी क्षेत्र में हमेशा स्पेस खाली नहीं रहता. पहले सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों के केंद्र में छात्र राजनीति रहती थी, अब ये जगह एनजीओ लेने लगे हैं. अन्ना के आंदोलन में युवा शक्तियों ने यह उदाहरण सामने रखा है.’

80 के दशक में छात्र राजनीति से उभरे नेता सामाजिक न्याय और न्याय के साथ विकास जैसी नई धाराओं के साथ राजनीतिक पटल पर उभरे थे. तो सवाल उठता है कि उन्हीं नेताओं के शासनकाल में छात्र राजनीति की धारा कुंद क्यों हो गई. उन्हीं नेताओं ने छात्र राजनीति को फलने-फूलने क्यों नहीं दिया? मुजफ्फरपुर स्थित बीआर अंबेडकर विश्वविद्यालय के छात्र और ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन के नेता आशुतोष कुमार, ‘1990 में लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बने. 2005 में नीतीश आए. ये दोनों छात्र राजनीति से ही आगे बढ़े ये छात्र शक्ति की हकीकत बखूबी जानते हैं. उन्हें भय है कि यही छात्र उनके लिए चुनौती बन जाएंगे.’ और लोकजनशक्ति पार्टी के छात्र संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष रोहित कुमार बात आगे बढ़ाते हैं, ‘इसलिए ये नेता छात्रसंघों का चुनाव नहीं कराते. 2005 में छात्र न्याय सम्मेलन में शरीक होते हुए नीतीश ने कहा था कि अगर उनकी सरकार बनी तो तीन महीने के अंदर छात्रसंघों के चुनाव करा दिए जाएंगे. नीतीश पिछले छह साल से मुख्यमंत्री हैं. अब तो उन्हें अपनी बात याद तक नहीं.’ ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अभ्युदय मौजूदा नेताओं को तानाशाह प्रवृत्ति का बताते हुए कहते हैं, ‘उनमें कोई लोकतांत्रिक विचार नहीं है. उन्हें इस बात का खतरा रहता है कि विश्वविद्यालय में लोकतंत्र मजबूत हुआ तो उनका सिंहासन खतरे में पड़ जाएगा.’
हालांकि इन आरोपों को उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी सिरे से खारिज करते हैं. वे कहते हैं, ‘सरकार विश्वविद्यालयों को चुनाव कराने से कब रोकती है? वे इसके लिए स्वतंत्र हैं. चाहें तो चुनाव करा सकते हैं.’

पर बात इतनी सरल है नहीं, यह पटना विश्वविद्यालय के कुलपति शंभूनाथ सिंह की बातों से स्पष्ट हो जाता है. शंभूनाथ कहते हैं, ‘सरकार का काम है शिगूफा छोड़ देना और अपना रास्ता लेना. छात्रसंघों के चुनाव से पहले हमारे सामने कानून-व्यवस्था की चुनौती काफी गंभीर है. परिसरों में असामाजिक तत्व खुल्लमखुल्ला अराजकता फैलाते हैं, दफ्तरों में ऐसे लोग कट्टा लेकर घुस जाते हैं पर पुलिस खामोश रहती है.’ कमोबेश शंभूनाथ जैसा जवाब बीआर अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय और ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के उपकुलपतियों के भी हैं. वहीं इस मामले में शंभूनाथ सिंह एक और बात कहते हैं, ‘हम लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों के आधार पर चुनाव कराने के पक्ष में हैं, क्योंकि ऐसा निर्देश राजभवन की तरफ से भी आया है.’

वहीं शंभूनाथ के इस प्रस्ताव पर छात्र संगठन आपस में बंटे हुए हैं. कुछ का तर्क है कि लिंगदोह कमेटी (देखें बाक्स) चुनाव के साथ-साथ मनोनयन का भी विकल्प देती है जो लोकतांत्रिक नहीं है. छात्र नेता फिरोज अहमद मेहर कहते हैं, ‘लिंगदोह कमेटी की सिफारिशें छात्रसंघों को कमजोर करने का षड्यंत्र हैं जो निजी विश्वविद्यालयों के हितों का समर्थन करती हैं.’ वहीं रोहित कहते हैं, ‘कमेटी की सिफारिशों पर देश के कई विश्वविद्यालयों में चुनाव होते हैं. ये सिफारिशें उतनी बुरी नहीं हैं जितना कुछ लोग उन्हें बताते हैं. पर सवाल यह है कि उन सिफारिशों पर भी तो बिहार में चुनाव नहीं कराए जाते.’ रोहित कहते हैं, ‘राजभवन, राज्य सरकार और विश्वविद्यालय दरअसल यह नहीं चाहते कि विश्वविद्यालयों से सेकंड लाइन की लीडरशिप उभरे क्योंकि यह उनके लिए ही खतरा है.’

विश्वविद्यालयों में छात्रसंघों के चुनाव पुराने पैटर्न पर हों या लिंगदोह कमेटी की सिफारिशों के आधार पर, यह विवाद उतना गहरा नहीं है. लेकिन सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन जिस तरह से एक-दूसरे के नाम पर बहाने बना कर चुनाव रोकते हैं इससे दोनों की मंशा झलकती है कि वे चुनावों के पक्ष में नहीं हैं. इसका खामियाजा छात्र राजनीति को भुगतना पड़ रहा है.

सुब्रमण्यम सुनामी

सुब्रमण्यम स्वामी के बारे में यह कहानी सच्ची है  या मनगढ़ंत, यह तो पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना पक्का है कि यह लुटियन की दिल्ली में कई बार सुनने को मिल जाती है. बताते हैं कि एक बार एक रसूखदार संपादक ब्लैकमेलिंग के इरादे से स्वामी के घर गए. दक्षिण दिल्ली में बने इस घर के बेसमेंट में स्वामी का दफ्तर भी था. संपादक साहब भीतर घुसे और मेज पर कागजों का एक पुलिंदा पटकते हुए डराने वाले अंदाज में बोले, ‘डॉ. स्वामी, मेरे पास आपके खिलाफ एक फाइल है.’

स्वामी की सहजता पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. उन्होंने आराम से मेज की दराज खोली, उसमें से एक फोल्डर निकाला, उसे मेज पर रखा और बोले, ‘संपादक जी, मेरे पास भी आपके खिलाफ एक फाइल है.’

कुछ साल पहले स्वामी से किसी ने पूछा था कि क्या यह किस्सा सच है. तब वे सिर्फ हंस दिए थे. किस्सा हो सकता है सच्चा न हो मगर फिर भी इससे जो रोब पड़ता है उससे भला कौन इनकार करना चाहेगा. इस कहानी से स्वामी की इस ख्याति में चार चांद ही लग रहे थे कि वे एक ऐसे शख्स हैं जिसके पास हर किसी के खिलाफ एक फाइल रहती है. हैरानी की बात नहीं कि दोस्तों और मुरीदों को वे नायक लगते हैं और दुश्मनों को सबसे बड़ा दुस्वप्न.

पिछले कुछ समय से स्वामी लगातार चर्चा में रहे हैं. 2जी स्पेक्ट्रम मामले में चिदंबरम को मुश्किलों में डालना हो या अपने एक विवादास्पद लेख के कारण हार्वर्ड विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के विजिटिंग प्रोफेसर की अपनी कुर्सी गंवाना, उन्होंने अपने आप को लगातार प्रासंगिक बनाए रखा है. एक तरह से देखा जाए तो पिछला कुछ समय उनकी वापसी का समय रहा है. संसद से उनकी विदाई 1999 में ही हो गई थी. इसी साल उन्होंने एनडीए की पहली सरकार गिरने में अहम भूमिका निभाई थी. उनकी यह सबसे दुस्साहसिक उपलब्धि ही उनके लिए मुश्किल बन गई. जो सरकार पांच साल चलने की उम्मीद कर रही थी वह उनकी वजह से एक साल में गिर गई थी. इसके बाद मुख्यधारा की पार्टियों ने एक लंबे समय तक उनसे अछूत जैसा बर्ताव किया. उन्हें स्वामी जरूरत से ज्यादा ही चतुर लगते थे.

स्वामी भारतीय राजनीति की उन अजीब विडंबनाओं में से एक का प्रतिनिधित्व करते हैं जो कड़वी भी हैं और मीठी भी

लेकिन लंबे समय तक अलग-थलग रहने के बाद स्वामी फिर से सुर्खियों में आ गए हैं. उन्होंने विश्व हिंदू परिषद और संघ परिवार के दक्षिणपंथ की सहानुभूति बटोरी है जो भाजपा द्वारा अयोध्या का मुद्दा पीछे छोड़ने के बाद बेसहारा महसूस कर रहा था. इसके साथ ही 2जी घोटाले में जिस तरह से उन्होंने अपनी चिरपरिचित शैली में गृहमंत्री चिदंबरम को मुसीबत में डाला है उससे उन्होंने खुद की छवि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले एक योद्धा जैसी बना ली है.

यह एक तरह से स्वामी का पुनर्जीवन है. हिंदू राष्ट्रवाद और कांग्रेस का विरोध उनकी पहचान बन गया है. कम से कम आज की पीढ़ी उन्हें इसी रूप में जानती है. वे उन दुर्लभ नेताओं में से हैं जो अपने राजनीतिक प्रचार के लिए ट्विटर का बखूबी इस्तेमाल करते हैं. सोशल मीडिया में उनकी मौजूदगी का आलम यह है कि ट्विटर पर उनके 40,000 प्रशंसक हैं जिन्हें लगता है कि स्वामी भारत के सबसे अच्छे प्रधानमंत्री साबित हो सकते थे. एक नजर में यह प्रभावशाली आंकड़ा है. 1998 से लेकर आज तक स्वामी ने एक भी चुनाव नहीं जीता है. 2004 में जब वे तमिलनाडु के मदुरै से लड़े थे तो पूरा जोर लगाने के बावजूद उन्हें सिर्फ 12,000 वोट मिले थे और वे चौथे स्थान पर रहे थे. इसके बावजूद उन्होंने इंटरनेट की दुनिया पर अपने लिए प्रशंसकों की खासी बड़ी फौज खड़ी कर ली है. वे अकेले ऐसे गंभीर राजनेता होंगे जिसके पास वोटरों से ज्यादा ट्विटर के फॉलोअर हैं.

स्वामी भारतीय राजनीति की उन अजीब विडंबनाओं में से एक का प्रतिनिधित्व करते हैं जो कड़वी भी हैं और मीठी भी. कइयों को लगता है कि उनकी कुशाग्र बुद्धि, प्रतिभा, दृढ़ता और दुनिया भर में उनके संपर्कों को देखते हुए उनके पास एक ऐसी जगह होनी चाहिए थी जहां वे देश की आर्थिक और कूटनीतिक रणनीति में अपना कोई योगदान देते. इसकी बजाय वे हमेशा इस तंत्र के लिए एक बाहरी आदमी रहे जिसकी छवि झमेला खड़े करने वाले व्यक्ति की रही. एक तरह से यह भारतीय राजनीति की असफलता भी है. इस मायने में कि हार्वर्ड जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में अर्थशास्त्र पढ़ाने वाले अकेले सांसद का वह कोई रचनात्मक इस्तेमाल नहीं कर पाई. और दूसरी नजर से देखें तो यह स्वामी और जीवन के अलग-अलग पड़ावों पर उनके द्वारा लिए गए फैसलों के बारे में भी काफी कुछ बताता है.

सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हर व्यक्ति के पीछे एक दिलचस्प कहानी होती है. स्वामी की तो अनेक कहानियां हैं. वे दिल्ली के उस वर्ग से ताल्लुक रखते हैं जिसे समाज की सबसे ऊपरी और ऊंची परत कहा जा सकता है. उनके गणितज्ञ पिता सीताराम सुब्रमण्यन सेंट्रल स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यूट के निदेशक थे. उस दौर में एक दूसरे गणितज्ञ भी थे जिन्हें सीताराम सुब्रमण्यन का कट्टर प्रतिद्वंदी कहा जाता था. वे थे योजना आयोग के जनक पीसी महालनोबिस. अपने पिता की तरह स्वामी का झुकाव भी गणित की तरफ हुआ. वे हिंदू कॉलेज में पढ़े. दाखिला तो उन्हें सेंट स्टीफेंस में भी मिल सकता था मगर उन्होंने इसे छोड़ दिया क्योंकि उन्हीं के शब्दों में, ‘मुझे वहां ऐसा लगता था जैसे मैं कहीं बाहर से आया हूं.’ स्नातक की पढ़ाई पूरी हुई तो दिल्ली विश्वविद्यालय में सबसे ज्यादा अंक पाने वाले छात्रों की सूची में वे तीसरे स्थान पर थे. मास्टर डिग्री के लिए उन्होंने कोलकाता (तब कलकत्ता)स्थित इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यूट में दाखिला लिया. इसके मुखिया महालनोबिस थे.

स्वामी बताते हैं, ‘वहीं मुझे सबसे पहले भेदभाव महसूस हुआ. महालनोबिस को पता चल गया था कि मेरे पिता कौन हैं और इस वजह से मुझे मेरी योग्यता से कम अंक मिलने लगे.’ इसके बाद स्वामी ने वह दांव खेला जिसकी महालनोबिस कल्पना भी नहीं कर सकते थे. दरअसल महालनोबिस ने एक अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के लिए डेरिवेटिव पर एक पेपर लिखा था. पोस्ट ग्रैजुएट छात्र के रूप में स्वामी ने इसकी समीक्षा की और एक पेपर लिखा जिसमें कहा गया था कि महालनोबिस का काम मौलिक नहीं था बल्कि उन्होंने एक दूसरे गणितज्ञ की नकल की थी जिसने इसी विषय पर एक सदी पहले काम किया था. यह पेपर स्वीकार कर लिया गया और इसे उसी अंतरराष्ट्रीय पत्रिका में प्रकाशित किया गया. अपने संस्थान में तो स्वामी का इससे कोई भला नहीं हुआ पर हार्वर्ड के एक प्रोफेसर की नजर उन पर पड़ी और उन्होंने इस छात्र को एक फेलोशिप की पेशकश कर दी.

कोई नहीं जानता कि स्वामी और वाजपेयी की दुश्मनी क्यों हुई मगर यह कहा जा सकता है कि इसके परिणाम भारतीय लोकतंत्र को महंगे पड़े

हार्वर्ड में 24 साल का होते-होते स्वामी ने अपनी पीएचडी पूरी कर ली और अध्यापन के क्षेत्र में आ गए. तब तक वे चीन की अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञ के रूप में मशहूर हो गए थे. 1969 में जब वे एसोसिएट प्रोफेसर थे तो अमर्त्य सेन ने उन्हें दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अपनी सेवाएं देने के लिए बुलाया. उन्हें चीन मामलों के अध्ययन वाले विभाग के मुखिया की कुर्सी संभालनी थी. स्वामी ने सामान पैक किया और अपने देश वापस आ गए.

लेकिन इस बीच इस संस्थान को अपनी सेवाएं देने वाले दूसरे व्यक्तियों को लगा कि स्वामी कुछ ज्यादा ही बाजारसमर्थक और बेलागलपेट बोलने वाले आदमी हैं. यहां आने पर उन्हें रीडर का पद दिया गया. यह साफ अन्याय था. छात्र स्वामी के समर्थन में आवाज उठाने लगे. उस दौर के गवाह रहे लोग आज भी याद करते हैं कि आज प. बंगाल के वित्त मंत्री अमित मित्रा ने एक सभा में स्वामी को कंधों पर उठा लिया था. आज भी वे स्वामी के करीब हैं. यह दर्शाता है कि स्वामी के संपर्कों का दायरा कितना लंबा-चौड़ा है.

इस अध्याय के बाद स्वामी आईआईटी में आ गए. यहां वे छात्रों को अर्थशास्त्र पढ़ाते थे. वे छात्रों के हॉस्टलों में भी चले जाते और उनसे राजनीति और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर बतियाते. जल्द ही छात्रों के बीच वे मशहूर हो गए. उन्होंने स्वदेशी प्लान नामक एक पुस्तक भी प्रकाशित की जिसमें उनका कहना था कि भारत को विदेशी मदद की जरूरत नहीं है. इसमें उन्होंने पंचवर्षीय योजना का एक विकल्प भी सुझाया था जो बाजारोन्मुखी था. उनका कहना था कि इसके बूते 10 फीसदी विकास दर हासिल की जा सकती है. मार्च, 1970 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बजट पर संसदीय चर्चा के दौरान बोलते हुए स्वामी का नाम लिया और उनके विचारों को अव्यावहारिक बताकर खारिज कर दिया.

1972 में दिसंबर की एक शाम स्वामी को एक पत्र मिला. पत्र उन्हें सवा पांच बजे दिया गया था और इसमें लिखा गया था कि उन्हें आईआईटी से हटाया जाता है. बर्खास्तगी का समय लिखा था पांच बजे. गणित पढ़ाने वाली उनकी पत्नी को भी हटा दिया गया था. स्वामी आईआईटी को अदालत में ले गए. 1991 में आखिरकार उन्होंने मामला जीत भी लिया. उन्होंने बतौर प्रोफेसर एक दिन के लिए ज्वाइन किया और फिर त्यागपत्र दे दिया.1972 से लेकर 1991 तक की सैलरी एरियर के लिए आईआईटी के खिलाफ उनका मामला अब भी चल रहा है जिस पर वे 18 फीसदी ब्याज चाहते हैं.

सत्ताधारी पार्टी की तरफ से दुत्कारे जाने के बाद स्वामी को जनसंघ के रूप में एक स्वाभाविक साझीदार मिल गया. इसने 1974 में स्वामी को राज्यसभा भेज दिया. जून, 1975 में आपातकाल लागू हो गया और उनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी हुआ. सिख का भेस बनाकर स्वामी चेन्नई निकल गए. वहां से उन्होंने श्रीलंका और फिर अमेरिका की फ्लाइट पकड़ ली. वहां उन्होंने खुद को भारत की विपक्षी पार्टियों के प्रवक्ता के रूप में स्थापित किया और साथ ही हार्वर्ड में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में भी.

10 अगस्त, 1976 को हुई एक घटना शायद आपातकाल की सबसे नाटकीय घटना होगी. संसद के मानसून सत्र का पहला दिन था. स्वामी बताते हैं,  ‘मैं छह महीने से संसद नहीं पहुंचा था. अनुपस्थिति के कारण मेरी सदस्यता समाप्त हो सकती थी. मेरे ऊपर आरोप लग रहे थे कि मेरे सहयोगी जेल में पड़े हैं जबकि मैं अमेरिका में जिंदगी के मजे लूट रहा हूं.’

स्वामी वापस भारत लौटे. संसद भवन पहुंचे और चुपचाप अपनी सीट पर जा बैठे. राज्यसभा अध्यक्ष (तत्कालीन उपराष्ट्रपति बीडी जत्ती) हाल में दिवंगत हुए सदस्यों को श्रद्धांजलि दे रहे थे. स्वामी अपनी जगह पर खड़े होकर बोले, ‘मुझे एक दिक्कत है. आपकी श्रद्धांजलि में लोकतंत्र का जिक्र नहीं आया. इसकी भी मौत हो चुकी है.’ जत्ती को सांप सूंघ गया. वे बुदबुदाए, ‘कोई दिक्कत नहीं है.’ इसके बाद उन्होंने सदस्यों से मृतक आत्माओं की शांति के लिए दो मिनट का मौन रखने का आग्रह किया. स्वामी बताते हैं, ‘उन्हें मार्शल को मुझे पकड़ने का आदेश देना चाहिए था क्योंकि मेरे खिलाफ वारंट जारी था.’ इसी गफलत में जब पूरा सदन मृतक आत्माओं की शांति के लिए मौन खड़ा था, स्वामी गायब हो गए.

आगे की कहानी और भी दिलचस्प है. उस समय तक संसद में नाममात्र की सुरक्षा हुआ करती थी. स्वामी अपनी कार में बैठे और बिड़ला मंदिर की तरफ चल पड़े. यहां उन्होंने अपनी गाड़ी खड़ी की और कपड़े बदल लिए. वे बताते हैं, ‘मैंने कुर्ता और कड़ा पहन लिया ताकी यूथ कांग्रेस के लड़कों की तरह दिख सकूं.’ संजय गांधी की एक जनसभा उसी समय खत्म हुई थी. स्वामी उसी भीड़ में शामिल हो गए जो रेलवे स्टेशन की तरफ जा रही थी. वहां से उन्होंने मथुरा की ट्रेन पकड़ ली. वहां से नागपुर फिर मुंबई पहुंच गए. अंतत: उन्होंने सीमा पार की और नेपाल जा पहुंचे. वहां से बैंकॉक और फिर अमेरिका जा पहुंचे. संघ के नेटवर्क ने उनकी पूरी यात्रा का प्रबंध किया था और विदेशी सरकारों ने उनके निरस्त पासपोर्ट का भी सम्मान किया था. इस घटना ने उन्हें आपातकाल के विरोधियों का नायक बना दिया था.

इसी दौर में उन्होंने एक और बड़ा दुश्मन बनाया- अटल बिहारी वाजपेयी. किसी को नहीं पता कि वाजपेयी और उनकी दुश्मनी कैसे शुरू हुई थी. कुछ लोग बताते हैं कि वाजपेयी उनसे खतरा महसूस करते थे. खुद स्वामी इसे व्यक्तित्वों का टकराव मानते हैं. वे कहते हैं, ‘मैं नानाजी देशमुख का चेला था. और नानाजी और वाजपेयी के बीच अलगाव हो चुका था.’

1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी. मोरारजी ने स्वामी को वित्त राज्य मंत्री बनाने का प्रस्ताव किया, वाजपेयी इसके विरोध में थे. 1980 में भाजपा के गठन के वक्त वाजपेयी ने स्वामी को पार्टी में शामिल करने से मना कर दिया. इसकी प्रतिक्रिया में उन्होंने वाजपेयी की निजी जिंदगी पर सवाल उठाए और आरोप लगाया कि वे इंदिरा गांधी से मिले हुए हैं. इसके दो दशक बाद वाजपेयी और स्वामी के बीच निर्णायक मुठभेड़ हुई. 1998 में भाजपा को केंद्र में सरकार बनाने के लिए एआएडीएमके (जयललिता) के समर्थन की दरकार थी. मदुरै के सांसद और दिल्ली में जयललिता के दूत के तौर पर तैनात स्वामी ने बातचीत शुरू की. सुबह के नाश्ते पर हुई मीटिंग के दौरान डील तय हो गई. स्वामी बताते हैं, ‘वाजपेयी ने मुझे वित्त मंत्री बनाने का वादा किया था, लेकिन जैसे ही उन्हें जयललिता का पत्र मिला वे अपने वादे से मुकर गए.’

एक अर्थशास्त्री के तौर पर उनकी कई भविष्यवाणियां  सही साबित हुईं. चीन के बारे में उनकी समझ का तो दुनिया लोहा मानती है

उस दिन नाश्ते की टेबल पर चार लोग मौजूद थे. बाकी तीन में से एक ने तहलका से इसकी पुष्टि की कि स्वामी ने वित्त या विदेश मंत्रालय की शर्त रखी थी और वाजपेयी ने स्पष्ट वादा करने की बजाय कुछ बुदबुदाया था. साल भर बाद ही स्वामी सोनिया गांधी के दफ्तर में थे. बताया जाता है कि सोनिया ने उनसे कहा, ‘मेरे ख्याल से आप इस सरकार को गिराना चाहते हैं. हम भी यही चाहते हैं.’

फिर स्वामी ने दिल्ली के एक होटल में एक बहुचर्चित चाय पार्टी का आयोजन किया. इसमें सोनिया और जयललिता दोनों आमंत्रित थीं. इसके बाद एआईएडीएमके ने वाजपेयी सरकार से समर्थन वापस ले लिया. अप्रैल 1999 में भाजपा सत्ता से बेदखल हो गई. स्वामी का दावा है कि सोनिया गांधी ने उनसे वादा किया था कि वे एक गैरकांग्रेसी, गैरभाजपाई सरकार बनाने में सहयोग करेंगी जिसमें वे खुद प्रधानमंत्री बनेंगे. वे बताते हैं, ‘चंद्रशेखर और देवेगौड़ा के नाम पर भी चर्चा हुई थी.’ इसकी बजाय सोनिया ने खुद की सरकार बनाने की कोशिश की. लेकिन वे इसके लिए जरूरी समर्थन नहीं जुटा सकीं.

इसके बाद मध्यावधि चुनाव हुए और भाजपा फिर से सत्ता में आई. वाजपेयी सत्ता में थे. कांग्रेस और जयललिता के बीच चुनावी दोस्ती हुई, पर इसमें स्वामी नहीं थे. उन्हें अपनी लोकसभा सीट भी गंवानी पड़ी. तब से शुरू हुआ संसद से उनका निर्वासन आज भी जारी है.तो क्या उनके निर्वासन को उनके राजनीतिक जीवन का अंत माना जाए? लगता तो नहीं. भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने हाल ही में अपने सहयोगियों से कहा कि वे स्वामी से काफी प्रभावित हैं और उन्हें राज्यसभा भेजने की इच्छा रखते हैं. स्वामी आडवाणी का मन जीत चुके हैं. वे संघ और विहिप को भी भा चुके हैं. पूर्व सरसंघचालक केएस सुदर्शन, विहिप अध्यक्ष अशोक सिंहल और आडवाणी के करीबी एस गुरुमूर्ति उनके समर्थक हैं. लेकिन भाजपा की कथित दूसरी पीढ़ी उनका विरोध कर रही है. बताते हैं कि 2005 में पार्टी की एक बैठक में आडवाणी ने जब स्वामी को पार्टी में लाने का विचार रखा था तो स्वर्गीय प्रमोद महाजन ने कहा था, ‘आडवाणी जी, पहले से क्या कम सुब्रमण्यम स्वामी पार्टी में हैं जो आप असली स्वामी को भी लाना चाहते हैं?’

राजनीतिक रूप से स्वामी की लोकप्रियता का बड़ा हिस्सा उनके सोनिया विरोध से आता है. वे आरोप लगाते रहे हैं कि सोनिया ने विदेशों में पैसा जमा कर रखा है. उनका मानना है कि बोफोर्स की दलाली का पैसा उनके परिवार के पास पहुंचा है न कि राजीव गांधी के पास. वे कहते हैं, ‘पी चिदंबरम के बाद अगला निशाना रॉबर्ट बाड्रा होंगे. मेरे पास उनके खिलाफ दस्तावेज हैं. लेकिन मैं अपने हिसाब से कार्रवाई करूंगा.’ कई बार तो उनके पास अपने आरोपों के पक्ष में पुख्ता सबूत भी नहीं होते. वे अपनी बात के समर्थन में केजीबी अधिकारियों की आत्मकथाओं के अनुवादित संस्करणों का हवाला देते हैं. अनाम अखबारों में प्रकाशित खबरों का जिक्र करते हैं जिनका सबूत के तौर पर इस्तेमाल तक नहीं किया जा सकता.

राजीव से स्वामी की निकटता 1989 में हुई. तब चंद्रशेखर चार महीने की सरकार के प्रधानमंत्री थे और कांग्रेस बाहर से इसे समर्थन दे रही थी. स्वामी वाणिज्य और कानून विभाग के मंत्री थे. क्या उन दोनों के बीच एक अच्छा रिश्ता बन गया था या फिर दोनों एक-दूसरे का इस्तेमाल कर रहे थे?

यह सवाल इसलिए खड़ा होता है क्योंकि राजीव उस वक्त बोफोर्स के साये में थे. तो ऐसे में स्वामी ने अपनी भ्रष्टाचार विरोधी छवि के साथ कैसे तालमेल बैठाया? वे कहते हैं कि और भी तमाम लोग बोफोर्स घोटाले में शामिल थे. इनमें वीपी सिंह और अरुण नेहरू भी शामिल थे. नेहरू इस आरोप को हंसी में उड़ा देते हैं. उधर, स्वामी कहते हैं, ‘मैं सीबीआई को बोफोर्स के साथ डील करने के लिए तैयार कर रहा था कि कंपनी उन नामों का खुलासा कर दे तो हम कंपनी के ऊपर लागू प्रतिबंधों को हटा देंगे.’ सीबीआई के पुराने अधिकारी अलग बात कहते हैं. वे बताते हैं कि कानून मंत्री के तौर पर स्वामी ने अभियोजन पक्ष को प्रभावित करने और मामले को उलझाने की कोशिश की.’

इन छल-प्रपंचों और षड्यंत्रकारी कहानियों के बीच स्वामी के व्यक्तित्व का एक नया पहलू उद्घटित होता है. वह यह कि मौका पड़ने पर वे एक शानदार बौद्धिक क्षमता वाले व्यक्ति के रूप में सामने आते हैं. अमेरिका और इजराइल के साथ बेहतर संबंधों का समर्थन उन्होंने काफी पहले ही कर दिया था. वित्तीय सुधारों का सुझाव उन्होंने तब दे दिया था जब बहुतों की सोच वहां तक नहीं गई थी. चीन के प्रति उनका रणनीतिक विरोध भले हो लेकिन इसके बारे में उनकी समझ को कोई नहीं नकारता. चीन के बारे में उनकी कई बातें बात में सही साबित हुई हैं. अब उनकी भविष्यवाणी है कि चीन अगले दो सालों में गंभीर आर्थिक संकट की चपेट में होगा क्योंकि उसकी बैंकिंग और वित्तीय व्यवस्था लड़खड़ा रही है.

हार्वर्ड में विजिटिंग प्रोफेसर के तौर पर स्वामी के तीन कार्यकाल रहे हैं. 70 के मध्य में, 80 के मध्य में और फिर 2001 से लेकर पिछली गर्मियों तक. हर साल वे दो महीने के लिए अमेरिका चले जाते हैं. विश्वविद्यालय में वे दो विषय पढ़ाते हैं- पहला मैथमैटिक्स फॉर इकोनॉमिस्ट और दूसरा इकोनॉमिक डेवलपमेंट ऑफ चाइना ऐंड इंडिया. डीएनए अखबार में प्रकाशित उनके विवादास्पद लेख के बाद हार्वर्ड के वरिष्ठ प्रोफेसरों के एक समूह ने उनके साथ करार रद्द करने और उन्हें 2012 में न बुलाने का फैसला किया है. गुस्साए स्वामी कहते हैं, ‘मेरे एक भी छात्र ने मेरे खिलाफ या लेख के विरोध में शिकायत नहीं की है.’

उन्हें आज नहीं तो कल हर साल अमेरिका जाना छोड़ना ही था. अब वे कह सकते हैं कि उन्होंने हिंदू हित के लिए हार्वर्ड की नौकरी छोड़ दी

हालांकि अपनी चिरपरिचित चतुराई से स्वामी इस झटके का इस्तेमाल भी अपने फायदे के लिए कर सकते हैं. उनकी 72 साल की उम्र को देखा जाए तो उन्हें आज नहीं तो कल हर साल अमेरिका जाना छोड़ना ही था. अब वे यह भी कह सकते हैं कि उन्होंने हिंदू हित के लिए मोटी तनख्वाह वाली हार्वर्ड की नौकरी छोड़ दी.

स्वामी के व्यक्तित्व की कई परतें हैं. उनका हिदुत्व प्रेम भी कई मायनों में अवसरवाद जैसा लग सकता है. उनके बेसमेंट वाले दफ्तर की दीवार कुछ साल पहले तक उनके ही चित्रों से पटी पड़ी रहती थी- देंग से लेकर मोरारजी तक के साथ. उसमें अब कुछ नए कैलेंडर जुड़ गए हैं- हिंदू देवी देवताओं के कलात्मक कैलेंडर. यह बदलाव कब हुआ? इसके जवाब में वे उसी सहज भाव के साथ कहते हैं, ‘जब कांची के शंकराचार्य को गिरफ्तार किया गया. मुझे लगा कि हिंदुत्व को निशाना बनाया जा रहा है. हिंदू भी आतंकवाद के पीड़ित हैं..’

जोड़-तोड़ और गुटबाजी के आरोपों से स्वामी भी बचे नहीं हैं. 2जी घोटाले में उन्होंने पी चिंदबरम को तो निशाना बनाया पर मनमोहन सिंह को परे रखा. फोन टैपिंग के मामले में जब उन्होंने रामकृष्ण हेगड़े को निशाना बनाया तब कहा गया कि वे कर्नाटक में हेगड़े के विरोधियों के इशारे पर काम कर रहे थे. हेगड़े को इस्तीफा देना पड़ा. संयोग की बात है कि जब उन्होंने करुणानिधि को निशाना बनाया तो इसका फायदा जयललिता को हुआ और जब जयललिता पर हमला बोला तो इसका लाभ करुणानिधि को हुआ.

बेंगलुरु में जयललिता पर भ्रष्टाचार का जो मामला चल रहा है उसकी जड़ स्वामी की याचिका में ही है. शायद इसी का नतीजा है कि स्वामी के बारे में यह भी कहा जाता है कि किसी से भी उनकी दोस्ती लंबे समय तक नहीं निभती. हालांकि वे इस आरोप को सिरे से नकारते हैं और जोर देते हैं कि उन्होंने कभी किसी को धोखा नहीं दिया. वे कहते हैं,  ‘चंद्रास्वामी, नरसिम्हा राव… मैं उनके साथ तब भी रहा जब सारे लोगों ने उनका साथ छोड़ दिया था.’ 1990 की शुरुआत में राव ने उन्हें एक आयोग का अध्यक्ष बनाया था. इसका काम था एक समान मजदूरी मानकों पर एक योजना बनाना. राव ने उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया. यह आयोग उस समय वाणिज्य मंत्रालय के तहत आता था. जिसके मुखिया उस समय पी चिदंबरम थे. पर वे राज्य मंत्री थे. उस समय वे स्वामी के नीचे थे, आज वे स्वामी के निशाने पर हैं.

स्वामी पर कम ही लोग विश्वास करते हैं. लेकिन यह भी सच है कि उन्हें नजरअंदाज कर पाने वालों की संख्या उससे भी कम है. फिलहाल वे खुद के लिए राज्य सभा के सपने देख रहे हैं और पी चिदंबरम को डरावने सपने दिखा रहे हैं.

नई धारा का समाजवादी

समाजवादी पार्टी इस समय संक्रमण के दौर से गुजर रही है. सपा के अस्तित्व के लिए सबसे जरूरी सूबा उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष अखिलेश इसे इस तरह स्वीकारते हैं, ‘चौधरी साहब (राजेंद्र चौधरी) कहां बदले हैं. हमने तो सिर्फ नए और पुराने को मिला दिया है. आप ही आरोप लगाते हैं कि हम पुरातनपंथी हंै. और बदलाव को स्वीकार नहीं कर रहे हैं.’

पार्टी के लिहाज से यह उथल-पुथल अब तक सकारात्मक रही है, लेकिन कुछेक गांठें भी हैं. मुलायम सिंह ने अपनी विरासत एक प्रकार से तय कर दी है. चुनाव से तीन साल पहले साल 2009 में भाई शिवपाल यादव की जगह पुत्र अखिलेश को उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी सौंपे जाने के वक्त कई लोगों की त्यौरियां चढ़ी थीं. लेकिन मुलायम सिंह की चतुर सियासी समझ ने वक्त रहते एक सही फैसला किया था. उनके मन में यह अवश्य रहा होगा कि कांग्रेस ने राहुल गांधी के निवेश का 2009 में जो रिटर्न प्राप्त किया उसका जवाब सपा के पास सिर्फ अखिलेश हैं. हालांकि नतीजों से पहले किसी निष्कर्ष पर पहुंचना उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के मामले में ठीक नहीं है, लेकिन जानकार इस ओर इशारा करते हैं कि सपा अपने दम पर प्रदेश की अगली सरकार भले न बनाए लेकिन 2007 के 97 सीट के आंकड़े को पीछे छोड़ने से उसे कोई नहीं रोक सकता.

सपा में बदलाव की गंध विक्रमादित्य मार्ग स्थित सपा के केंद्रीय कार्यालय के मुख्य द्वार से ही आने लगती है. दो बड़ी-बड़ी इलेक्ट्रॉनिक स्क्रीन पर पार्टी के दिग्गज नेताओं और पुराने समाजवादियों के चित्र और उनके विचार लगातार स्क्रोल होते रहते हैं. अंदर प्रवेश के साथ ही दो दुनियाओं का मेल साफ दिखने लगता है. हालांकि यह मजबूरी का तालमेल भी है. इसके अभाव में पार्टी के भीतर कई तरह की मुसीबतें सिर उठा सकती हैं. मसलन पुराने सपाई खुद को अलग-थलग महसूस कर सकते हैं, परिवार के भीतर सिरफुटौव्वल सतह पर आ सकती है और मुसलिम राजनीति की मजबूरियां भी परेशान कर सकती हैं. इन सबके बीच अखिलेश यादव सावधानी से आगे बढ़ रहे हैं.

मुलायम की दरबारी शैली और ताजी बयार अखिलेश

मुलायम सिंह सुबह-सुबह ही कार्यालय पहुंच चुके हैं. रविवार का दिन होने के बावजूद आज उनकी कोई सभा नहीं है, इसलिए उन्होंने अपना समय कार्यकर्ताओं को देने का फैसला किया है. ग्राउंड जीरो के असली हालात का अंदाजा लगाने का यह मुलायम सिंह का अपना तरीका है. वे एक-एक कार्यकर्ता से मिलते हैं, बात करते हैं और चरण छुआ कर नमस्ते कहते हैं. मगर जनता से जुड़ने और हालात पर नजर रखने के उनके इस तरीके की कुछ सीमाएं भी हैं. इस तरीके की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि जानकारी देने वाला खुद कितनी ईमानदारी से ऐसा कर रहा है. यहीं मुलायम सिंह कई बार गच्चा खा जाते हैं. वे लोगों पर अंधविश्वास के लिए जाने जाते हैं जिसका खामियाजा प्रदेश और उन्हें उत्तर प्रदेश की अराजक कानून व्यवस्था से लेकर निठारी न जाने जैसे फैसलों के रूप में बार-बार उठाना पड़ा है.इसके उलट अखिलेश के बारे में माना जाता है कि उन्हें बरगलाना आसान नहीं है. वरिष्ठ पत्रकार फैसल बताते हैं, ‘इसके लिए उनका अपना एक नेटवर्क है जिसमें उनके द्वारा चुने राजनीतिक महत्वाकांक्षा वाले ऐसे विश्वासी कार्यकर्ता हैं जो छात्र राजनीति से उभर कर आए हैं.

मुलायम सिंह की दरबारी शैली के उलट अखिलेश के बारे में आम राय यह है कि वे किसी भी सूचना की क्रॉस चेकिंग करके ही आगे बढ़ते हैं

पार्टी की युवा शाखा के आठ में से छह युवा नेता ऐसे ही हैं. इनकी अपनी कोई राजनीतिक विरासत नहीं है. धरातल पर ये नेता अखिलेश के आंख-कान-नाक हैं.’ समाजवादी छात्र सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष सुनील यादव बड़े उत्साह से बताते हैं, ‘भैया ने 42 युवाओं को टिकट दिया है. संग्राम यादव को छोड़कर इनमें से किसी की कोई राजनीतिक विरासत नहीं है. जबकि राहुल गांधी ने जगदंबिका पाल और बेनी प्रसाद वर्मा के बेटों को युवाओं के नाम पर टिकट दिया है.’ भुक्कल नवाब का उदाहरण यहां जरूरी होगा. एक जमाने से वे लखनऊ उत्तरी सीट हारते रहे हैं लेकिन मुलायम सिंह निजी संबंधों के चलते उन्हें टिकट देते रहे. इस बार भी ऐसा ही होना था, पर अखिलेश के चर्चित युवा चेहरे अभिषेक मिश्रा की कीमत पर मुलायम सिंह को भुक्कल नवाब की बलि देनी पड़ी.

अपराधियों से तौबा करते दिखने की कोशिश

सपा की एक महिला कार्यकर्ता मजाक-मजाक में कहती हैं, ‘जब तक सपाई किसी दरोगा को दो-चार तमाचे नहीं मार लेता तब तक उसे यह सकून और विश्वास नहीं होता कि सूबे में उसकी सरकार है.’ यह मजाक ही मुलायम सिंह की सबसे बड़ी कमजोरी रहा है. 2007 में सपा की बत्ती गुल करवाने में अराजक कानून व्यवस्था की भूमिका मायावती के दलित-ब्राह्मण समीकरण से कहीं ज्यादा थी. पूरे देश ने देखा कि किस तरह से सपाइयों ने एक पुलिस अधिकारी को जीप के बोनेट पर बैठाकर हजरतगंज की सड़कों पर घुमाया था. कुछ समय पहले तक यह आम धारणा रही है कि सपा गुंडों-बदमाशों की पार्टी है. लेकिन अखिलेश अपनी पार्टी की इस छवि को तोड़ने की कोशिश करते दिखते हैं. ‘इस बात की 200 प्रतिशत गारंटी है कि सपा में किसी गुंडे-बदमाश के प्रवेश का जैसे मैं आज विरोध कर रहा हूं वैसे ही चुनावों के बाद भी करूंगा. कानून व्यवस्था के लिए हमारे पास एक योजना है. अगर हमारी सरकार बनती है तो चाचा रामगोपाल जी के नेतृत्व में एक कमेटी गठित की जाएगी. इसका काम होगा पूरे प्रदेश में एक नेटवर्क के माध्यम से जनता की छोटी से छोटी शिकायत को संज्ञान में लेकर उस पर कार्रवाई करना. लोगों की हम तक पहुंच आसान रहेगी ये मेरा वादा है,’ अखिलेश दावा करते हैं.

बाहुबली डीपी यादव को सपा में लेने की शिवपाल यादव और आजम खान की घोषणा पर अखिलेश ने ब्रेक लगा दिया. इसके अलावा भी सपा कार्यकर्ता तमाम घटनाओं का जिक्र करते हैं जिससे साबित हो सके कि अखिलेश वास्तव में अराजक तत्वों के खिलाफ हंै. एक नेता कहते हैं, ‘बहुत कम लोगों को पता है कि मुख्तार अंसारी सिर्फ अपनी सीटों पर मुलायम सिंह के साथ गठजोड़ करना चाहते थे लेकिन भैया ने हामी नहीं भरी. अतीक अहमद के लोगों की नेताजी के साथ मीटिंग भी हो चुकी थी. अतीक की पत्नी को सपा के टिकट पर नेताजी की सहमति भी थी. पर भैया ने सीधे मना कर दिया.’ परसेप्शन के स्तर पर जो बातें मुलायम के खिलाफ जाती हैं वही जानकारों के अनुसार आज अखिलेश की छवि निखार रही हैं. हालांकि सपा दागियों से पूरी तरह मुक्त हो गई हो, ऐसा नहीं है. गुड्डू पंडित से लेकर कुख्यात डकैत ददुआ के बेटे का टिकट इसका नमूना है. मगर सपा के लोग इसके लिए अखिलेश को जिम्मेदार नहीं ठहराना चाहते.

विरासत और आंतरिक टकराव

लंभुआ का टिकट सात बार क्यों बदला? यह सवाल पूरा होने से पहले ही अखिलेश बोल पड़ते हैं, ‘हमारे बीच लट्ठ चल रहे हैं. मेरी और चाचा जी की पटती नहीं है. ये सब बातें आप ही लोगों की चलाई हुई हैं. लंभुआ में पार्टी कार्यकर्ता बार-बार जनता के बीच जाकर ये साबित कर रहे थे कि वे चुनाव जीत सकते हैं और किसी न किसी माध्यम से वे अपनी बात हमारे पास पहुंचा रहे थे. तो हम क्या करते? बेहतर प्रत्याशी चुनना हमारी मजबूरी है.’ अखिलेश की यह हड़बड़ी चुगली करती है कि स्थितियां इतनी सपाट नहीं हैं. उनके चाचा शिवपाल यादव फिलहाल पार्टी में तीसरे पायदान पर चले गए हैं. 2009 से पहले तक वे प्रदेश सपा के मुखिया थे. जाती विधानसभा में वे नेता प्रतिपक्ष भी हैं. टिकटों के वितरण से लेकर छोटे-मोटे काम-काज के लिए लोगों का जमघट उनके इर्द-गिर्द लगा रहता था.

2009 के बाद से इसमें लगातार कमी आई है. मौजूदा चुनाव के लिए लगभग 100 नामों की सिफारिश शिवपाल यादव ने की थी. पर एक भी नाम फाइनल सूची में जगह नहीं बना सका. यह अखिलेश का प्रताप था. एक मामला हसनुद्दीन सिद्दीकी का है. ये बसपा सरकार में लोक निर्माण मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी के भाई हैं. एक शाम शिवपाल यादव ने उनके पार्टी में शामिल होने की घोषणा की और अगली ही सुबह अखिलेश ने इस पर वीटो लगा दिया. एक समय में शिवपाल यादव खुद को मुख्यमंत्री पद का स्वाभाविक दावेदार मानते थे. आज उनकी निराशा उनके बयानों से झलकती है, ‘सपा में सिर्फ एक ही नेता हैं मुलायम सिंह यादव. अखिलेश केंद्र की राजनीति करेंगे.’ मौजूदा हालात में यदि सपा सरकार बनाने की स्थिति में पहुंचती है तो स्थितियों को संभालने के लिए मुलायम सिंह फिर से नेतृत्व संभाल सकते हैं.लेकिन यह व्यवस्था अस्थायी होगी. मुलायम सिंह के निकट सहयोगी भी मानते हैं कि वे अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला कर चुके हैं.

अखिलेश को खतरा बाहर और भीतर दोनों जगहों से है. चाचा शिवपाल नाराज बताए जाते हैं तो आजम खान भी नए नेतृत्व को पचा नहीं पा रहे हैं

यही वह फिसलन भरी जमीन है जहां अखिलेश को बहुत संभल कर चलना है. परिवार के बाहर से भी खतरे तमाम हैं. आजम खान भी हैं जो भले ही तामझाम के साथ वापस सपा में लौट आए हों लेकिन उनकी पुरानी खुशी लौटी हो, ऐसा नहीं है. डीपी यादव को सपा में लेने के मसले पर अखिलेश के आगे शिवपाल और मोहन सिंह के अलावा आजम खान को भी घुटने टेकने पड़े थे. इसका सकारात्मक प्रभाव जनता के बीच जरूर गया होगा.

आजम खान के मामले में अखिलेश के लिए सुकून की एक वजह है. परिसीमन के बाद उत्तर प्रदेश में यह पहला विधानसभा चुनाव है. इसकी वजह से 130 विधानसभा सीटों का पुराना स्वरूप और समीकरण बिलकुल बदल गए हैं. आजम खान के गढ़ रामपुर में भी अचानक ही करीब बीस हजार लोध वोट बढ़ गए हैं. नतीजतन वे अपने ही किले को बचाने में लगे हैं. अमर सिंह भी उनकी नाक काटने के फिराक में पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं. लेकिन चुनावों के बाद अखिलेश को इनसे निपटना पड़ेगा. एक और बात, आजम खान को आखिरी बार पार्टी के किसी कार्यक्रम में आधिकारिक रूप से पिछले साल नवंबर में एटा में आमंत्रित किया गया था.

हाईटेक सपा

पहली बार सपा कार्यालय में एक वाररूम काम कर रहा है. एक कॉल सेंटर चल रहा है. एक-एक बूथ का हिसाब-किताब आपको दफ्तर में मिल सकता है. फेसबुक पर समाजवादी पार्टी का अपना पन्ना है. पार्टी की आधिकारिक वेबसाइट भी लोगों की जानकारी समाजवाद के प्रति बढ़ा रही है. ये वे बदलाव हैं जिनसे मुलायम सिंह अब तक पिंड छुड़ाते रहे थे. अखिलेश का यह बदलाव पार्टी में सबको स्वीकार्य हो चला है. अब श्रीराम सिंह यादव उर्फ एसआरएसजी (मुलायम सिंह के पुराने सहयोगी और उनकी ही तरह कंप्यूटर और अंग्रेजी से बिदकने वाले) भी कंप्यूटर की महिमा को पहचान गए हैं.

यहां पर अखिलेश की दूसरी टीम परिदृश्य में उभरती है. राजनीति से उसे कोई लेना-देना नहीं, पर उसे यह जरूर पता है कि आजमगढ़ जिले की अतरौलिया सीट के फलां ब्लॉक के फलां बूथ पर सपा का प्वाइंट परसन कौन है. वहां कितने बैनर-पंफलेट पहुंचाए गए हैं, प्रत्याशी को क्या-क्या दिक्कतें हैं. इनमें अखिलेश के बचपन के दोस्त हैं, ऑस्ट्रेलिया में उनके साथ इंजीनियरिंग कर चुके विजय चौहान जैसे युवक हैं. पार्टी की छोटी से छोटी गतिविधि की जानकारी देने वाला एक मीडिया सेंटर भी है. बूथ से लेकर एक-एक कार्यकर्ता और उम्मीदवार की समस्या का निराकरण खुद अखिलेश यादव करते हैं. लेकिन अपने पिता जी की दरबारी शैली के उलट उनके हाथ में हाईटेक टैब होता है और साथ में कुछेक समर्पित कार्यकर्ता. कहने का अर्थ है कि सपा ने समाजवाद का पुरातन चोला उतार फेंका है और अखिलेश के सिर इस बदलाव का सेहरा है.

युवा खून अखिलेश

विरासत का हस्तांतरण कहीं न कहीं सपा के लिए अस्तित्व से जुड़ा प्रश्न भी रहा है. मुलायम सिंह यादव को भी इस बात का भान था कि 2012 का उत्तर प्रदेश नया है. इसके 45 फीसदी मतदाता तीस साल से कम  उम्र के हैं. यह भी बिहार की तर्ज पर कसमसा रहा है. 2007 की अराजक सपाई छवि को लेकर जनता के एक हिस्से में आज भी आशंका व्याप्त है और मुलायम सिंह उसका प्रतिनिधि चेहरा हैं. मायावती ने इन पांच सालों के दौरान भ्रष्टाचार को चाहे भले संस्थागत स्वरूप दे दिया हो लेकिन आम आदमी गुंडों-बदमाशों से महफूज रहा है. ऐसे में चेहरा बदल कर जनता के बीच जाने का मुलायम सिंह का निर्णय समझदारी भरा कहा जाएगा. अखिलेश अपने प्रयासों और वादों से काफी विश्वसनीय लगते हैं. पत्रकारों का सामना करते वक्त उनका आत्मविश्वास भी देखने लायक होता है. यह बात कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के खिलाफ जाती है जिनसे बातचीत से पहले ही उनके प्रबंधक सबको ऑफ द रिकॉर्ड ताकीद कर देते हैं कि इसे राहुल जी का इंटरव्यू या प्रेस कॉन्फ्रेंस न माना जाए. यह हिचक अखिलेश में नहीं दिखती.

पिता-पुत्र के बीच महीन रेखा

मुलायम सिंह अभी भी सपा के लिए सबसे भीड़ जुटाऊ चेहरा हैं, लेकिन फैसलों और काम-काज के स्तर पर संदेश साफ है कि अखिलेश ही सर्वेसर्वा हैं. गली-कूचे और खलिहान खंगालने का काम अखिलेश कर रहे हैं. साइकिल, रथ और पैदल यात्रा के जरिए अब तक उन्होंने 250 से अधिक विधानसभा क्षेत्रों का दौरा किया है. चुनावी मजबूरी और प्रगतिशील छवि को लेकर पिता-पुत्र के बीच एक अद्भुत और चतुराई भरा समझौता दिखता है. अभी भी इमाम बुखारी को पाले में लाने से लेकर मुसलिम आरक्षण या फिर अयोध्या विवाद पर टिप्पणी जैसे काम मुलायम सिंह के जिम्मे हैं. जबकि अखिलेश ने खुद को एक उदार और प्रगतिशील नेता के रूप में ही अब तक पेश किया है. धार्मिक और जातीय पहचानों से परे रहते हुए वे अपनी अलग छवि गढ़ रहे हैं.

इस मसले पर अखिलेश राहुल की खिंचाई भी करते हैं, ‘कांग्रेस का घोषणापत्र लोगों को बांटने वाला है. पहले ओबीसी फिर ओबीसी में महाओबीसी. हमारा कहना है कि हम प्रदेश स्तर पर रंगनाथ मिश्रा और सच्चर कमेटी की सिफारिशें लागू करेंगे. सैम पित्रोदा किस जाति के हैं हमें क्या पता. ये तो खुद कांग्रेस और राहुल ने ही दुनिया भर में ढिंढोरा पीटा कि वे बढ़ई हैं, ओबीसी हैं. उनके मन में हमेशा जाति और धर्म रहा है.’

इमाम बुखारी, मुसलिम आरक्षण, अयोध्या जैसे मसले मुलायम सिंह के जिम्मे है जबकि अखिलेश ने अपनी छवि एक प्रगतिशील नेता की बनाई है

जात-पांत की तरह ही उत्तर प्रदेश में बदले की राजनीति भी खूब होती है. हर नई सरकार पुरानी सरकार के कार्यक्रमों और निर्माण पर बुलडोजर चलवाती आई है. पर अखिलेश एक मंजे हुए राजनेता की तरह खुद को इससे अलग करते हैं. उनके चाचा शिवपाल यादव खुलेआम मायावती को गाली देते रहते हैं जबकि अखिलेश कहते हैं, ‘जो मूर्तियां लगी हैं उन्हें तो हटाया नहीं जा सकता, पर उनका इस्तेमाल सार्वजनिक हित में किया जा सकता है. हमने मूर्तियों पर बुलडोजर चलाने की बात कभी नहीं कही. अगर उसमें दलितों के लिए अस्पताल और स्कूल बन सकते हैं तो क्या बुराई है. मूर्तियां भी लगी रहेंगी और अस्पताल भी चलेंगे.’

ये चर्चाएं आम हैं कि सपा और  कांग्रेस के बीच नरमी का भाव है, लेकिन हाल के दिनों में कांग्रेस ने एकाएक सपा के खिलाफ सारे घोड़े खोल दिए हैं. पहले पहल तो अखिलेश कांग्रेस पर कोई भी वार करने से बचते हैं, लेकिन यह पूछने पर कि खुद राहुल ने सपा को गुंडों-बदमाशों की पार्टी कहा है, उनका रवैया बस जरा सा बदलता है, ‘उनको लगता है उधार के प्रत्याशियों से वे सरकार बना लेंगे. कन्नौज, एटा, फिरोजाबाद में सब जगह उन्होंने हमारे ही उधार के प्रत्याशी उतारे हैं. चुनाव के बाद पता चल जाएगा.’ मगर वे राहुल का नाम लेने से फिर भी परहेज करते हैं. यह वही रणनीति है जिसकी चर्चा पत्रकारों से लेकर नेताओं के बीच चल रही है. इसके मुताबिक अखिलेश ने पार्टी के लिए रणनीति तय की है कि वे व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप की बजाय मुद्दों के आधार पर विरोधियों को निशाना बनाएंगे.

पुरातन मुलायम की तुलना में आधुनिक अखिलेश काफी संभावनाएं जगाने वाले लगते हैं. उन्होंने सपा का चेहरा तो बदल दिया है लेकिन चाल और चरित्र का सही पता चुनाव के बाद और सरकार बनने की सूरत में ही साफ होगा. गुंडों-बदमाशों से बचे रहना जितना चुनाव से पहले जरूरी है उतना  ही जरूरी है चुनाव बाद की स्थितियों में उनसे दूरी बनाए रखना. माया इसमें सफल रही हैं और मुलायम बार-बार असफल. नई सपा गढ़ने वाले अखिलेश के सामने नया उत्तर प्रदेश गढ़ने की चुनौती होगी.

शशिकला की कलाकारी

राजनीतिक मित्रताएं अचानक नहीं टूटतीं. वे भी ऐसी मित्रताएं जिनकी जड़ें बहुत गहरी हों. लेकिन तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता और दो दशक से भी ज्यादा वक्त से उनकी सबसे करीबी मित्र रही शशिकला नटराजन के बीच अचानक उतनी ही गाढ़ी दुश्मनी देखने को मिल रही है. करीब डेढ़ महीने पहले 17 दिसंबर, 2011 को अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जयललिता ने अचानक शशिकला और उनके रिश्तेदारों की फौज को अपने घर, 36 पॉस गार्डन हाउस से बाहर निकाल दिया था. इसके बाद से जो हो रहा है और जो जानकारियां सामने आ रही हैं उनसे एक ऐसी तस्वीर उभर रही है जिसमें नाकाम दोस्ती, असीमित महत्वाकांक्षा और राजनीतिक प्रतिशोध जैसे कई रंग हैं.

1987 में तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री और अपने गुरु एमजी रामचंद्रन (एमजीआर) की मृत्यु के बाद से कोई भी जयललिता के उतना करीब नहीं रहा है जितना शशिकला रहीं. वे जयललिता की सब कुछ थीं- घर का जिम्मा संभालने वाली, आत्मीय साथी और राजनीतिक विश्वासपात्र भी. दूसरे शब्दों में वे एक ऐसा सत्ताकेंद्र थीं जिसे जनता ने नहीं, सिर्फ जयललिता ने चुना था.

इन दोनों हस्तियों की दोस्ती के दौरान शशिकला का परिवार बहुत विवादास्पद और प्रभावशाली बन चुका है.  इस परिवार को तमिलनाडु में मन्नारगुड़ी माफिया कहा जाता है. मन्नारगुड़ी तिरुवरुर जिले में स्थित एक छोटा-सा कस्बा है जहां से शशिकला ताल्लुक रखती हैं और माफिया शब्द इस परिवार के साथ उसके कारनामों की वजह से जुड़ा है. इस परिवार में शशिकला के पति एम नटराजन, शशिकला के भाई, भतीजे-भतीजियां और देवर-जेठ हैं. जयललिता और शशिकला की दोस्ती का सबसे बड़ा प्रदर्शन 1995 में शशिकला के भतीजे वी सुधाकरन की भव्य शादी थी जिसमें जयललिता खास मेहमान थीं.  पानी की तरह पैसा बहाकर किया गया शादी का यह आयोजन अगले साल चुनावी मुद्दा भी बना. उस चुनाव में जयललिता हार गई थीं. लेकिन शशिकला से उनकी दोस्ती ऐसी हर हार के बावजूद बरकरार रही. 2011 में जयललिता फिर सत्ता में आईं तो लगा कि शशिकला और उनके परिवार के सुहाने दिन लौट आए हैं. लेकिन छह महीने में ही स्थिति बिल्कुल उलट गई. स्वाभाविक है कि कई लोग इससे हैरान हैं. उन्हें इस अटूट दोस्ती में अचानक आई इस दरार का ठीक-ठाक कारण समझ में नहीं आ रहा.

फिर भी चेन्नई के राजनीतिक गलियारों में कुछ लोग हैं जो कहानी या कम से कम इसकी कुछ लाइनें जानते हैं. तहलका ने उनसे बात करके इस कहानी की कड़ियां जोड़ने की कोशिश की. नतीजा सच, कल्पना, षड्यंत्र, अपुष्ट तथ्यों और राजनीतिक अफवाहों के एक रोमांचक मेल के रूप में सामने आया.

जयललिता द्वारा 17 दिसंबर को निकाले जाने के बाद से शशिकला – जो कभी वफादारों के बीच चिनम्मा या छोटी मां के नाम से जानी जाती थीं – के दरवाजे पर पुलिस खड़ी है. उनके भाई वीके दिवाकरन उर्फ दि बॉस के खिलाफ एक केस दर्ज हो गया है और गिरफ्तारी से बचने के लिए वह फरार है. लेकिन ऐसी अफवाहें भी हैं कि वह गैरकानूनी रूप से पुलिस की हिरासत में है. बताया जा रहा है कि भ्रष्टाचार निरोधक जांच-पड़ताल में पुलिस ने शशिकला की चचेरी बहन के पति रावनन आरपी को भी प्रताड़नाएं दी हैं. तमिलनाडु सतर्कता निदेशालय शशिकला के खानदान के कई सदस्यों के खिलाफ कार्रवाई करने को तैयार बताया जा रहा है. यानी जयललिता अब मन्नारगुड़ी माफिया को रौंदने पर आमादा हैं.

लेकिन सवाल उठता है कि यह सब हुआ क्यों. जानकारों के मुताबिक वजहें बहुत सारी हैं. एक चर्चा यह है कि 55 वर्षीया शशिकला और उनका मन्नारगुड़ी माफिया अम्मा (जयललिता) की कुर्सी पर चिनम्मा को बिठाने का षड्यंत्र रच रहे थे. कहा जा रहा है कि जयललिता पर बेंगलुरु विशेष ट्रायल कोर्ट में चल रहे आय से अधिक संपत्ति वाले मामले ने मन्नारगुड़ी माफिया को सपने दिखाने शुरू किए. यह तय किया गया कि यदि अदालत कोई प्रतिकूल फैसला दे दे या जयललिता के खिलाफ अप्रत्यक्ष रूप से कोई राजनीतिक अभियान चलवाया जाए तो जयललिता कुर्सी छोड़ने पर मजबूर हो जाएंगी और तब वे अपनी गद्दी पर किसी ऐसे व्यक्ति को ही बैठाएंगी जिस पर वे सबसे ज्यादा भरोसा करती हों.

दवाओं के जरिए जयललिता को नशीला पदार्थ और धीमा जहर दिया जा रहा था. जो नर्स ये दवाइयां दे रही थी उसे शशिकला ने रखा था

यह सब काफी नाटकीय लगता है, लेकिन तमिलनाडु की राजनीति में इससे भी ज्यादा नाटकीय चीजें हो चुकी हैं. पिछले कई वर्षों से जयललिता शशिकला पर बहुत निर्भर रही हैं. एक महीने पहले तक उनका पॉस गार्डन घर शशिकला के आदमियों से भरा हुआ था. 1989 में जब शशिकला उनके साथ रहने आई थीं, तब वे जयललिता का घर चलाने के लिए मन्नारगुड़ी से 40 नौकर लाई थीं. जयललिता के घर की नौकरानियां, रसोइये, चौकीदार, ड्राइवर सब उनके ही चुने हुए लोग थे.

हालत  यह थी कि जयललिता से कोई भी शशिकला की अनुमति के बिना नहीं मिल सकता था. मंत्री सरकार की नीतियों की चर्चा भी शशिकला से करते और नौकरशाह जब मुख्यमंत्री से मुलाकात करते तो इस दौरान शशिकला भी वहां मौजूद होतीं. शशिकला के शब्द जयललिता के आदेश की तरह समझे जाते थे. अप्रत्यक्ष रूप से वे उपमुख्यमंत्री थीं. पार्टी पर भी उनका नियंत्रण था. अन्नाद्रमुक का संगठन क्षेत्रों में विभाजित है और अधिकतर क्षेत्रीय मुखिया शशिकला के रिश्तेदार ही थे. विधायक या तो मन्नारगुड़ी माफिया चुनता था या विधायक उनके कृपापात्र होने की कोशिश करते थे.

दरअसल शशिकला को भस्मासुर जयललिता ने ही बनाया. उन्होंने ही शुरू में पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा था कि अपनी बात उन तक पहुंचाने के लिए वे शशिकला से मिलें. शशिकला ने इसी मौके का फायदा उठाया. वे मुख्यमंत्री तक अपनी सुविधा के हिसाब से सूचनाएं भेजने लगीं. और इस तरह जयललिता एक तरह से शशिकला की कैद में रहने लगीं.

अब सवाल उठता है इसके बावजूद जयललिता को पूरे मामले की भनक कैसे लगी. अन्नाद्रमुक के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक इसमें पहली भूमिका गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की रही. उन्होंने ही जयललिता को मन्नारगुड़ी माफिया के बारे में सावधान किया किया. सूत्रों के मुताबिक मोदी ने जयललिता से कहा कि वे अपने करीबी लोगों पर निगाह रखें. उन्होंने कहा कि शशिकला और उनके परिवार द्वारा की जा रही वसूली की भारी मांगों की वजह से बड़े निवेशक तमिलनाडु में पैसा लगाने से कतराने लगे हैं. जयललिता के लिए यह थोड़ा बड़ा झटका था. मन्नारगुड़ी माफिया तबादलों और नियुक्तियों के लिए और स्थानीय औद्योगिक समूहों से पैसा लेता है, इसकी खबर तो उन्हें रही ही होगी, लेकिन मोदी ने जिस दर्जे के भ्रष्टाचार के बारे में जयललिता को बताया उसका अंदाजा उन्हें दूर-दूर तक नहीं था.

दूसरी चेतावनी उन्हें चेन्नई मोनोरेल प्रोजेक्ट ने दी. दरअसल वे चाहती थीं कि इसका काम सिंगापुर की एक अच्छी कंपनी को दिया जाए. उन्होंने मुख्य सचिव देवेंद्रनाथ सारंगी से कागजी काम शुरू करने को कहा. प्रक्रिया के अंत में जब फाइल उन तक पहुंची तो मलेशिया की एक कंपनी सबसे ऊपर थी और सिंगापुर वाली कंपनी नीचे. उन्होंने सारंगी को बुलाया और जवाब मांगा. अब चौंकने की बारी सारंगी की थी. उन्होंने कहा कि उन्हें तो फाइल के साथ मुख्यमंत्री का लिखा एक नोट मिला था, जिसमें लिखा था कि मलेशिया की कंपनी ही सबसे अच्छी है. जयललिता ने इस प्रोजेक्ट से जुड़ा अपना सारा पत्र-व्यवहार मंगवाया. इसमें उन्हें मलेशिया की कंपनी को बेहतर बताने वाला एक नोट मिला. इस पर उनके दस्तखत थे मगर जाली. गुस्साई जयललिता ने शशिकला को बुलवाया, लेकिन उन्होंने इस बारे में किसी भी जानकारी से इनकार कर दिया.

जयललिता को पहली चेतावनी गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने दी थी. सूत्रों के मुताबिक मोदी ने जयललिता से कहा कि वे अपने करीबी लोगों से सावधान रहें

तीसरी चेतावनी ने तो जयललिता के पांवों तले जमीन खिसका दी. बताया जाता है कि वे शशिकला को बताए बिना एक नामी डॉक्टर से मिलने गईं. जो दवाइयां वे ले रही थीं, उन पर वे उस डॉक्टर की राय जानना चाहती थीं. सूत्रों के मुताबिक डॉक्टर से उन्हें पता चला कि दवाओं के जरिए उन्हें नशीला पदार्थ और धीमा जहर दिया जा रहा था. घर में जो नर्स उन्हें नियमित अंतराल पर फल और दवाएं देती थी उसे शशिकला ने काम पर रखा था.

अब जयललिता समझ गई थीं कि सब कुछ बहुत जल्दी करना होगा. वे नौकरशाही में मन्नारगुड़ी माफिया के प्रति पनप रहे गुस्से को भी समझ रही थीं. उदाहरण के लिए, चुनाव के बाद वे जमीन अधिग्रहण के मामलों में द्रमुक के वरिष्ठ नेताओं की गिरफ्तारियां चाहती थीं. कई वरिष्ठ द्रमुक नेताओं की गिरफ्तारियां हुईं भी और पूर्व मुख्यमंत्री एम करुणानिधि के बेटे एमके स्टालिन पर भी एक मामला दर्ज किया गया. जयललिता ने सतर्कता और भ्रष्टाचार निरोधक निदेशक से कह रखा था कि करुणानिधि परिवार को तभी लपेटा जाए जब पुख्ता सबूत हों. इसके बावजूद स्टालिन वाला मुकदमा बहुत कमजोर था. जब जयललिता ने तत्कालीन आईजी पॉन मैनिकवेल से पूछा तो उन्होंने कहा कि यह केस शशिकला की सहमति के बाद दर्ज किया गया था. अब जयललिता को मन्नारगुड़ी माफिया और द्रमुक परिवार के बीच चल रहे किसी षड्यंत्र की बू आने लगी.

और बची-खुची कसर तमिलनाडु के पुलिस महानिदेशक के रामानुजम ने पूरी कर दी. रामानुजम को कर्नाटक के पुलिस महानिदेशक शंकर बिदारी ने आगाह किया था कि दिसंबर के पहले हफ्ते में शशिकला परिवार की बेंगलुरु में कोई गुप्त बैठक होने जा रही है. कहा जाता है कि जहां यह बैठक होनी थी वहां कर्नाटक पुलिस के खुफिया अधिकारियों ने माइक्रोफोन लगा दिए. बैठक की रिकॉर्डिंग के टेप पहले बेंगलुरु में पुलिस मुख्यालय पहुंचे और फिर चेन्नई में रामानुजम के पास. पुलिस सूत्र बताते हैं कि उन टेपों से जयललिता के खिलाफ चल रही साजिश पर से परदा उठा. सूत्रों की मानें तो उस बैठक में शशिकला, उनके पति नटराजन, शशिकला की चचेरी बहन के पति सुधाकरन, शशिकला का भतीजा टीटीवी दिनकरन और नटराजन का भाई एम रामचंद्रन मौजूद थे. उस बैठक में आय से अधिक संपत्ति वाले मामले में जयललिता की परेशानियों की चर्चा की गई और सब उनके बाद बनने वाले संभावित मुख्यमंत्रियों के नाम सुझाते रहे.

टेप सुनने के बाद कुछ बाकी नहीं बचा था. पांच दिन तक राज्य पुलिस मन्नारगुड़ी माफिया के सभी सदस्यों की निगरानी करती रही. रावनन का सिंगापुर में भी पीछा किया गया जहां वह एक बिजनेस मीटिंग के लिए गया था. पुलिस महानिदेशक को शशिकला और उनके रिश्तेदारों के खिलाफ सबूत जुटाने का काम दिया गया. एक प्राइवेट जासूस एजेंसी की भी मदद ली गई. शशिकला के परिवार के सदस्यों और उनके नजदीकी सहायकों की फोन कॉलें टेप की गईं. इस सब की रिपोर्ट रोजाना मुख्यमंत्री को भेजी गई.

इस कवायद के आखिर में जयललिता के पास मन्नारगुड़ी माफिया की करतूतों का पूरा ग्रंथ था. लेकिन उन्हें यह भी पता चल गया था कि इस माफिया की दीमक उनकी पार्टी और सरकार के भीतर तक घुसी हुई है और उसके पास इतना पैसा और संसाधन हैं कि उन्हें सीधी चुनौती भी मिल सकती है. इस दीमक को खत्म करना आसान नहीं था. इसके लिए राज्य पुलिस की खुफिया शाखा में बड़े बदलाव किए गए क्योंकि उसमें शशिकला के विश्वासपात्र भरे पड़े थे. जयललिता ने थमाराई कानन को खुफिया शाखा का आईजी बनाया क्योंकि वे इस पद पर ऐसा व्यक्ति चाहती थीं जिसका मन्नारगुड़ी माफिया से कोई संबंध न हो.

इसके बाद मुख्यमंत्री ने अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा में बदलाव किए. तिरुमलाई स्वामी 2001 से उनके व्यक्तिगत सुरक्षा अधिकारी थे. यह माना जा रहा है कि शशिकला स्वामी का इस्तेमाल मुख्यमंत्री की गतिविधियों पर निगरानी रखने के लिए कर रही थीं. स्वामी का भी तबादला कर दिया गया.

और आखिर में, एक कैबिनेट मीटिंग में जयललिता ने मंत्रियों से साफ कहा कि वे सीधे उनके द्वारा कही गई बातें ही सुनें, शशिकला या किसी और द्वारा पहुंचाई गई बातें नहीं. बहुत-से मंत्रियों ने इसे हल्के में ही लिया. उन्हें लगा कि शशिकला और जयललिता में कोई छोटी-मोटी अनबन हुई होगी. हालांकि मन्नारगुड़ी माफिया इससे सतर्क हो गया. उसे अहसास हो गया था कि हालात बदल रहे हैं. हालांकि फिर भी शशिकला को अपनी इमोशनल ब्लैकमेलिंग की प्रतिभा पर पूरा भरोसा था. उन्हें लग रहा था कि बस उनके पॉस गार्डन के घर में पहुंचने की देर है और मुख्यमंत्री फिर से उनकी हो जाएंगी. लेकिन उनका यही अनुमान उनके लिए खतरनाक साबित हुआ. हालात वाकई स्थायी रूप से बदल गए थे.

तमिलनाडु में दो मंत्री होते हैं, एक धोती वाला और एक पैंट वाला यानी उसका सहायक. और पैंट वाला मंत्री पहले वाले मंत्री से ज्यादा ताकतवर होता है

इसकी आखिरी पुष्टि 17 दिसंबर को तब हो गई जब जयललिता ने शशिकला और उनके लोगों की फौज को घर से दफा होने को कहा. इनमें से कुछ 1989 से ही पॉस गार्डन में रह रहे थे, जब जयललिता विपक्ष की नेता बनी थीं. किसी के भी गिड़गिड़ाने का जयललिता पर कोई असर नहीं हुआ. इसी बीच पुलिस, कानूनी टीमों और चार्टेड अकाउंटेंटों ने शशिकला परिवार के निवेशों का हिसाब लगाना और पैसा वसूलना शुरू कर दिया था.

सिंगापुर से लौटते ही रावनन को धर लिया गया. उसके घर पर छापे में 50 करोड़ की नकदी मिली. रावनन कोयंबटूर स्थित मिडास गोल्डन डिस्टलरीज का मालिक है जो राज्य विपणन निगम को शराब की आपूर्ति करती है. शशिकला ने यह संयंत्र 2002 में तब स्थापित किया था जब जयललिता सत्ता में थीं, लेकिन माना जाता है कि द्रमुक की सत्ता में भी कंपनी को अच्छे कॉंट्रेक्ट मिलते रहे हैं.

रावनन के पास शशिकला के व्यापारिक साम्राज्य की चाबी है. यह साम्राज्य लगभग 5000 करोड़ रुपये का है. एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘असल में मुख्यमंत्री के पास ज्यादा पैसा नहीं है. उनका घर, सरकार और पार्टी तो मन्नारगुड़ी समूह ही चला रहा था.’ और तो और, 2011 के विधानसभा चुनावों के टिकट भी बेचे गए और तथाकथित रूप से शशिकला ने इस पूरी प्रक्रिया से 300 करोड़ रुपये कमाए. खास बात यह भी थी कि ये टिकट मन्नारगुड़ी समूह के चहेतों को ही बेचे गए.

अन्नाद्रमुक के शासन के इन छह महीनों में मन्नारगुड़ी माफिया बहुत व्यस्त रहा है. कुछ जानकारों की मानें तो अब तक उसने कम से कम 1000 करोड़ रुपये तो कमा ही लिए होंगे. इसमें बड़ी कमाई बसों के किरायों में बढ़ोतरी और शराब के दामों में बढ़ोतरी से आई है. शराब के दाम बढ़ने से खुद शशिकला की कंपनियों को फायदा पहुंचा और बसों के किराये बढ़ने से प्राइवेट ऑपरेटरों को, जिन्होंने मन्नारगुड़ी माफिया को मोटा कमीशन दिया.

अन्नाद्रमुक के एक कार्यकर्ता कहते हैं, ‘मन्नारगुड़ी माफिया बहुत अच्छी तरह से संगठित था. उन्होंने मंत्रियों और महत्वपूर्ण अधिकारियों की निगरानी के लिए आदमी रखे हुए थे. हर मंत्री के साथ एक निजी सहायक रहता था. तमिलनाडु में कहा जाता है कि मंत्री दो होते हैं, एक धोती वाला (असल मंत्री) और दूसरा पैंट वाला (उसका सहायक). और पैंट वाला मंत्री अक्सर धोती वाले मंत्री से ज्यादा शक्तिशाली होता है.’

18 दिसंबर को जयललिता ने मन्नारगुड़ी माफिया के मुख्य सदस्यों को पार्टी से निकाल दिया. उन्होंने मंत्रियों के 38 निजी सुरक्षा अधिकारियों के तबादले भी किए. निकाले गए लोगों में शशिकला और उनके पति नटराजन, दिवाकरन, शशिकला की भतीजी और जया टीवी की प्रबंध निदेशक एस अनुराधा, रावनन और कभी जयललिता का दत्तक पुत्र कहा जाने वाला सुधाकरन शामिल हैं. हालांकि जयललिता ने अभी अपने कैबिनेट मंत्रियों को नहीं छुआ है. उन्हें भी नहीं, जो शशिकला और उनके भाई के करीबी समझे जाते हैं. लेकिन बताया जाता है कि वे उन्हें यूं ही छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं. बताते हैं कि दिसंबर में जब पीडब्ल्यूडी मंत्री केवी रामालिंगम जयललिता से मिले तो वे उन्हें देखकर शांत ढंग से मुस्कुराईं और बोलीं, ‘तमिलनाडु के भावी मुख्यमंत्री का स्वागत है.’ सूत्रों के मुताबिक यह सुनते ही रामालिंगम का चेहरा पीला पड़ गया था.

54 वर्षीय रामालिंगम भूतपूर्व राज्यसभा सदस्य हैं. 2011 के विधानसभा चुनावों में उन्हें शशिकला के जोर देने पर इरोड पश्चिम विधानसभा क्षेत्र से टिकट दिया गया था. रामालिंगम को अपने ज्योतिष के ज्ञान और तंत्र-मंत्र के लिए जाना जाता है. कहा जाता है कि 2011 की शुरूआत में उन्होंने विधानसभा चुनावों में अन्नाद्रमुक की जीत के लिए कर्मकांड किए थे. जयललिता का मानना है कि पिछले कुछ महीनों से शशिकला के कहने पर रामालिंगम केरल के एक ज्योतिषी से तांत्रिक साधना करवा रहे थे जिससे जयललिता को हटाकर शशिकला के मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ हो जाए. बताया जाता है कि रामालिंगम ने शशिकला के साथ भी धोखा किया और सारी पूजा और कर्मकांड अपने मुख्यमंत्री बनने के लिए किए. अब रामालिंगम पर किसी को भरोसा नहीं है और संभावना है कि जल्दी ही वे अपनी कैबिनेट की कुर्सी खोकर तंत्र-मंत्र करने के लिए लंबी छुट्टी पा सकते हैं.

बताया जा रहा है कि 13 मंत्रियों पर भी गाज गिरने वाली है. पहले ही व्यावसायिक कर मंत्री एसएस कृष्णमूर्ति को हटाकर उन्हें स्कूली शिक्षा विभाग दे दिया भी जा चुका है. इसके बाद उद्योग, बिजली, परिवहन, लोकनिर्माण, राजस्व, उत्पाद शुल्क और वन विभाग के मंत्रियों के जाने की भी बात कही जा रही है. भूतपूर्व मुख्यमंत्री, वयोवृद्ध नेता और वर्तमान वित्तमंत्री ओ पनीरसेल्वम भी घबराए हुए हैं.  राजस्व, अन्य महत्वपूर्ण आर्थिक विभागों और पुलिस स्तर में शीर्ष स्तर पर फेरबदल का काम शुरू भी हो चुका है. सूत्रों के मुताबिक मुख्यमंत्री कानून विभाग में भी बड़े बदलाव लाने वाली हैं.

साफ है कि मन्नारगुड़ी माफिया के सिर पर अब मुसीबतों का पहाड़ है. कोयंबटूर जमीन अधिग्रहण मामले में शशिकला की भी गिरफ्तारी कभी भी हो सकती है. जया टीवी में बहुत अनियमितताएं मिली हैं और इस मामले में अनुराधा भी गिरफ्तार की जा सकती हैं. शशिकला की भाभी इलावरासी जयरमन को तमिलनाडु पुलिस पहले ही गिरफ्तार कर चुकी है और उनसे पूछताछ कर रही है.

लेकिन मन्नारगुड़ी माफिया का निवेश सिर्फ तमिलनाडु और पड़ोसी राज्यों में ही नहीं बल्कि सिंगापुर, मलेशिया और दुबई तक है. शायद इसीलिए एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘मन्नारगुड़ी माफिया ने जो पैसा लूटा था वह वसूलना टेढी खीर हो सकता है.’ बताया जा रहा है कि शशिकला के परिवार के कुछ लोग करुणानिधि परिवार की शरण में भी चले गए हैं.

शशिकला और जयललिता की दोस्ती की कहानी भी दिलचस्प है. शशिकला एक गरीब परिवार से ताल्लुक रखती थीं और वह भी एक ऐसा परिवार जिसका झुकाव डीएमके की तरफ था. आज तंजावुर से 34 किलोमीटर दूर स्थित एक छोटा-सा कस्बा तिरुवरूर शशिकला के घर के रूप में प्रसिद्ध है. हालांकि शशिकला वहां नहीं जन्मी थीं. उनका परिवार मन्नारगुड़ी से 28 किलोमीटर दूर स्थित तिरुतुरईपुंडी से आया था जहां शशिकला के दादा चंद्रशेखरन का मेडिकल स्टोर हुआ करता था. फिर वह स्टोर उनके बेटे विवेकानंदन का हुआ. 1950 के दशक में विवेकानंदन के बड़े बेटे और बैंक कर्मचारी सुंदरवदनम का तबादला मन्नारगुड़ी में हुआ. उसने वहां एक घर बनवाया और अपने भाई-बहनों की बेहतर शिक्षा के लिए उन्हें अपने साथ ले आया. शशिकला अपने भाई-बहनों में पांचवें नंबर पर थीं. पूरे परिवार का झुकाव द्रमुक की तरफ था, लेकिन यह तब खत्म हो गया जब सुंदरवदनम को गरीब परिवारों के लिए आने वाले लोन को अपनी मां के खाते में डालते हुए पकड़ा गया.

1974 में एक द्रमुक युवा नेता नटराजन ने शशिकला से शादी करने की इच्छा जताई. सुंदरवदनम को आपत्ति थी क्योंकि नटराजन की सरकारी नौकरी राजनीतिक और अस्थायी थी. अब नटराजन ने शशिकला के जीजा विवेकानंदन को मनाया और आखिर में अनुमति मिल ही गई. विडंबना देखिए कि शशिकला को उनकी शादी में द्रमुक अध्यक्ष करुणानिधि से आशीर्वाद मिला जो युवा नटराजन की भाषणकला से बहुत प्रभावित थे. तब कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था कि यही शशिकला एक दिन करुणानिधि की सबसे बड़ी राजनीतिक दुश्मन की सबसे भरोसेमंद साथी बनेंगी.

आपातकाल के दौरान नटराजन बेरोजगार हो गए. वे अपने निलंबन के मामले को अदालत में ले गए. इस दौरान शशिकला ने वकीलों की फीस भरने के लिए अपने गहने तक बेच दिए. वे मुश्किल दिन थे. घर चलाने के लिए शशिकला ने चेन्नई में एक वीडियो किराये पर देने की दुकान खोली. उन्होंने एक वीडियो कैमरा खरीदा और सामाजिक समारोहों और स्थानीय शादियों के वीडियो बनाने लगीं. उन दिनों तक जयललिता सत्ताधारी अन्नाद्रमुक में काफी शक्तिशाली स्थिति में पहुंच गई थीं. अर्कोट की जिला कलेक्टर वी चंद्रलेखा को नटराजन जानते थे. उन्होंने चंद्रलेखा से प्रार्थना की कि वे उनकी पत्नी को जयललिता से मिलवा दें ताकि वह उनके सार्वजनिक समारोहों के वीडियो बना सके. चंद्रलेखा ने बात मान ली. इस परिचय ने शशिकला और उनके खानदान की किस्मत पलट दी. जयललिता शशिकला के काम से प्रभावित हुईं. चंद्रलेखा शशिकला को एक ‘चतुर, परिश्रमी और दृढ़’ महिला के रूप में याद करती हैं. वे ऐसी ही थीं भी.

शशिकला को उनकी शादी में आशीर्वाद देते हुए करुणानिधि ने सोचा भी नहीं होगा कि वे एक दिन उनकी राजनीतिक दुश्मन की सबसे विश्वासपात्र होंगी

80 के दशक के आखिर में एमजीआर कमजोर होने लगे और फिर गुजर गए. तब अन्नाद्रमुक में सत्ता का संघर्ष चला. जयललिता के साथ तत्कालीन मुख्यमंत्री आरएम वीरप्पन का व्यवहार अच्छा नहीं रहा. जयललिता गहरे एकांत में चली गईं. उसी दौर में शशिकला उनके करीब आईं और फिर उनके घर में दाखिल हो गईं. शशिकला ने जयललिता को भावनात्मक और प्रबंधकीय सहारा दिया. नटराजन राजनीति के पुराने खिलाड़ी थे और उन्होंने जयललिता की वापसी की स्क्रिप्ट लिखी. बाकी तो इतिहास है.

हालांकि मन्नारगुड़ी माफिया ने अभी पूरी तरह से घुटने नहीं टेके हैं. 17 जनवरी को तंजावुर में एक पोंगल समारोह को संबोधित करते हुए जयललिता को चेतावनी देते हुए नटराजन का कहना था, ‘अब मैं पूरा नेता बन गया हूं. मुझ पर कोई बंधन नहीं रहा. कुछ लोग किसी निर्णायक घोषणा की उम्मीद में मुझे सुनने आए हैं, लेकिन मैं सही वक्त पर ही फैसला लूंगा. मैंने ही तमिलनाडु की सरकार बदली थी और अब बहुत-से लोगों का मानना है कि उसकी फसल कोई और काट रहा है. मैं चुप हूं क्योंकि मैं तमिलनाडु की शांति और सौहार्द्र को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता.’ उन्होंने श्रीलंका के ‘तमिल ईलम युद्ध के शहीदों’ के लिए एक स्मारक बनवाने की घोषणा करते हुए उसी सभा में 50 लाख रु भी इकट्ठा किए.

साफ है कि वित्तीय संसाधनों, राजनीतिक ताकत, सामुदायिक एकजुटता और ईलम कार्ड (द्रमुक के साथ  स्पष्ट तालमेल का संकेत) के साथ नटराजन ने जयललिता को इशारों ही इशारों में काफी चेतावनियां दे दी हैं. देखना दिलचस्प होगा कि वे इनका जवाब कैसे देंगी.

जिंदगी की पिराई

‘बहेलिया आता है
जाल फैलाता है
दाने का लोभ दिखाता है
हमें जाल में फंसना नहीं चाहिए.’

मगर महाराष्ट्र के मराठवाड़ा में शोषण का जाल फैला ही नहीं है, उसे इतनी चालाकी से कसा भी गया है कि चिड़िया नहीं जानती कि वह जाल के भीतर है या बाहर. सभी शिकारियों ने हाथ मिला लिया है. इसलिए उनका शिकार अपने आप खेतों तक आने के लिए मजबूर है. सरकारी आंकड़ों के हिसाब से मराठवाड़ा में गन्ना ज्यादा होता है. मगर उससे कहीं ज्यादा खेतों में शोषण की फसल उगती है. यह और बात है कि उसकी पैदावार का आंकड़ा किसी के पास नहीं.

सुबह-सुबह एक ट्रैक्टर से जुड़ी दो ट्रॉलियों में दर्जन भर मजदूर परिवार बैठे हैं. इन्होंने अपने साथ अनाज, कपड़े, बिस्तर और रोजमर्रा का जरूरी सामान बांध रखा है. बहुत छोटे बच्चे अपनी मांओं की गोद में हैं तो उनसे थोड़े बड़े अपनी बहनों के कंधों पर सोए हुए हैं. एक कोने में बकरियों के गले की रस्सियां ढीली करता एक बुजुर्ग भी है. ट्रॉलियों से बाहर पैर लटकाए सारे मर्दों के चेहरों पर एक जैसा रुखापन है और उनके पीछे बैठी महिलाओं के होठों पर चुप्पी. हम पूछते हैं, ‘कहां जाना होगा?’ एक का जवाब आता है, ‘बहुत दूर’, ‘कर्नाटक’, ‘बिदर के कारखाने के लिए गन्ना काटने’. हम फिर सवाल करते हैं, ‘लौटना कब होगा?’ जवाब आता है, ‘लौटना? बारिश के दिनों तक होगा.

उस्मानाबाद जिले से करीब 100 किलोमीटर दूर कलंब विकासखंड की इस सड़क पर दौड़ती इतनी सारी ट्रॉलियों का मतलब यह है कि यहां की बहुत सारी बस्तियां खाली हो रही हैं. वजह, मजदूर जोड़े (पति-पत्नी) चीनी कारखानों के लिए गन्ना काटने जा रहे हैं. यहां जोड़े का मतलब उन दलित, बंजारा और पारदी जनजातियों के बंधुआ मजदूरों से हैं जिनके पास खेती लायक जमीन नहीं है. यहां की बस्तियां सर्दी से बारिश तक खाली रहेंगी. यानी छह महीने तक पंचायती योजनाओं और विकास के सभी बदलावों से अछूती. इसका सबसे ज्यादा हर्जाना स्कूल में पढ़ने वाले उन बच्चों को भुगतना है जो घरवालों के साथ गन्ने के खेतों में गन्ना काटने जा रहे हैं.

मराठवाड़ा का उस्मानाबाद चीनी उत्पादन का केंद्र है. 1982 में यहीं सबसे पहले चीनी कारखाना लगा था. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मराठवाड़ा के 30 कारखानों में से सात उस्मानाबाद में ही हंै. तेरणा चीनी कारखाना समिति के सदस्य शिवाजी गोंडबोले बताते हैं कि यहां का हर कारखाना आसपास के 50 किलोमीटर तक के खेतों से गन्ना उठाना चाहता है. इसके लिए वह दलालों की मदद लेता है. हर दलाल पांच से 10 लाख रुपये लेकर कारखाना समिति से करार करता है. बदले में वह 12 से 20 जोड़ों को छह से आठ महीनों तक बंधुआ मजदूरी करवाने की गारंटी देता है. इस तरह, एक कारखाने से तकरीबन 250 दलाल और उनसे 3,500 से ज्यादा जोड़े जुड़ जाते हैं.

दलित कार्यकर्ता बजरंग टाटे के मुताबिक यहां दलाल का मतलब ऊंची जाति के ताकतवर आदमी से है. दलाल जोड़ों को 25 से 30 हजार रुपये देकर छह से 10 महीनों तक बंधुआ मजदूरी पर चलने के लिए राजी करता है. कई दलालों के करार बहुत दूर के कारखानों से भी होते हैं, लिहाजा यहां के जोड़े अहमदनगर (200 किमी), पुणे (300 किमी), कोल्हापुर (500 किमी) और कर्नाटक के बेलगाम (700 किमी) तक जाते हैं. कोई भी दलाल अपने जोड़े लाने और उन्हें काम पर लगाते समय किसी तरह की रियायत नहीं बरतता. डोराला गांव के भारत सोनटके को दलाल से 20 हजार रुपये लेते समय नहीं पता था कि ऐन मौके पर उन्हें टीबी जैसी बीमारी हो जाएगी. वे पुणे में इलाज करवा रहे हैं. यह खबर पाते ही दलाल सोनटके के घर आया और उसकी पत्नी सहित बूढ़े माता-पिता को भी बंधुआ मजदूर बनाकर कोल्हापुर ले गया.

मनरेगा है मगर उसे निष्क्रिय अवस्था में रखा गया है ताकि ये लोग बंधुआ मजदूरी के इस नरक में पिसते रहें

तेरणा चीनी कारखाने के आसपास मजदूर जोड़े जमा हो रहे हैं. इन्होंने कुछ दिनों तक रुकने के लिए अस्थायी बस्तियां बना ली हैं. यहां से इन्हें छोटी-छोटी टुकडि़यों में बांटकर गन्ने के खेतों में भेजा जाएगा और उसके बाद खेतों में बस्तियां बनती जाएंगी. धाराशिव चीनी कारखाने से तकरीबन 25 किलोमीटर दूर के एक ऊबड़-खाबड़ खेत में ऐसी बस्ती बन भी चुकी है. यह 12 आशियानों की ऐसी अस्थायी बस्ती है जिसका हर आशियाना पन्नी, कपड़े और कुछ लकडि़यों की मदद से किसी तरह खड़ा है. यहां आशियाने का मतलब उस एक कमरे से है जिसमें पैर पसारने भर की जगह है. काम से पहले बच्चों को पानी के लिए काफी दूर जाना पड़ता है और औरतों को खुले में नहाना होता है. कारखानों से ट्रॉलियों का आना-जाना देर रात तक चलता है.

14 साल से छोटी उम्र के लड़के जहां गन्ना कटाई से लेकर ढुलाई के कामों में शामिल होते हैं वहीं लड़कियां खाना बनाने से लेकर सफाई का काम करती हैं. इशाका गोरे तीसरी में है और उसकी सुनें तो यहां से जाने के बाद वह चौथी में बैठेगी. उसे नहीं पता कि जब तक वह स्कूल पहुंचेगी तब तक परीक्षाएं खत्म हो जाएंगी. इशाका का परिवार सांगली जिले के कराठ गांव से आया है. उसके पिता याविक गोरे के पास अपनी बेटी से जुड़ी भविष्य की सिर्फ एक योजना है, ‘यह पढ़े तो ठीक, नहीं तो पांच-छह साल में शादी करनी ही है. फिर जोड़ा बनाकर काम करेगी.’ यहां के परिवार अपने बच्चों की शादियां कम उम्र में ही करते हैं. इनकी राय में परिवार में जितने ज्यादा जोड़े रहेंगे उतनी ज्यादा आमदनी होगी. ज्यादातर रिश्तेदारियां काम की जगहों पर हो जाती हैं. इस तरह, बाल विवाह की प्रथा यहां नये रूप में उजागर होती है.

शरणार्थी कैंपों से भी बदतर यहां की बस्तियों में बच्चों सहित बड़ों को भी खासी परेशानियां झेलनी पड़ती हैं. मसलन खाने का बंदोबस्त न हो पाना, सर्दी में बीमार पड़ना, गन्ना काटते समय धारदार हथियार लगना, सांप का काटना या बावडि़यों में गिरना आदि जानलेवा घटनाएं अब यहां आम बात हैं. इन खेतों से सरकारी अस्पताल 15 से 20 किलोमीटर दूर होता है. बीड़ जिले के राक्षसबाड़ी निवासी सुभाष मोहते बताते हैं, ‘दो साल पहले जब मेरी पत्नी पेट से थी तब कुछ औरतों ने खेत में ही पर्दा लगाकर गर्भपात कराना चाहा. अचानक उसकी तबीयत बिगड़ गई और वह मर गई.’ शंभु महाराज चीनी कारखाने के लिए गन्ना काटने वाली शोभायनी कस्बे अपने बच्चों को लेकर चिंतित हैं. उनके मुताबिक उनके बच्चे पास होकर भी उनसे दूर हैं. खेलने की उम्र में बहुत काम करते हैं. कभी चिड़चिड़ाते हैं तो कभी चुपचाप हो जाते हैं. वे कहती हैं, ‘गांव के बच्चों से बहुत अलग हैं यहां के बच्चे. गांव लौटकर और बच्चों के साथ घुलते-मिलते भी नहीं.’

मुद्रिका गोरे को चुनाव का साल राहत देता है. तब वोट की खातिर कोई भी उम्मीदवार उन्हें घर ले जाने के लिए तत्पर रहता है. मुद्रिका कहती हैं, ‘वोट डलवाने के बाद वापिस यहीं छोड़ दिया जाता है. उसके बाद सुध लेने वाला कोई नहीं होता.’ ज्यादातर मजदूर जोड़े बताते हैं कि दलाल दिए गए रुपयों के मुकाबले बहुत काम लेता है. परवानी जिले के मल्लिकार्जन मूले कहते हैं, ‘बीते साल गन्ने की पैदावार ज्यादा हुई तो दलालों ने मियाद पूरी होने के बाद भी काम लिया. हमने एक रात टेंपो से भागना भी चाहा. मगर उन्होंने बीच रास्ते में ही पकड़ लिया और खूब मारा-पीटा.’

हालांकि सरकार ने गांव में ही हर हाथ को काम और काम का पूरा दाम देने के लिए मनरेगा चलाई है. मगर मराठवाड़ा में मनरेगा का सच जानने के लिए कलंब विकासखंड का कार्यालय काफी है. यहां 89 गांवों में से सात में ही काम चालू है. कुल 35 कामों में से एक ही पूरा हुआ है. 50 हजार से ज्यादा मजदूरों में से 50 प्रतिशत से भी कम को काम मिला है और जिन्हें मिला है उनका भुगतान होना शेष है. पंचायत विभाग के विस्तार अधिकारी बसंत बाग्मारे इसे ‘योजना की कागजी औपचारिकता’ से जोड़ते हैं. मगर सामाजिक कार्यकर्ता माया शिंदे कहती हैं, ‘पंचायतों में सवर्णों का राज है. उन्हें अपने खेतों में काम करने के लिए मजदूर चाहिए. अगर मजदूरों को मनरेगा का पता लग गया तो उनका काम बंद हो जाएगा. जाहिर है मनरेगा को निष्क्रिय बनाए बिना उनका काम नहीं चल सकता है.’

जाहिर है जब इलाके में स्थानीय प्रतिनिधि ही शिकार के इस खेल का एक हिस्सा बन गए हों तो यहां के ‘बंधुआ’ मजदूरों के लिए इस जाल से निकलना नामुमकिन-सा होगा ही.

जरूरत या चुनौती

राहुल गांधी आधिकारिक तौर पर पिछले आठ सालों से राजनीति में सक्रिय हैं. 2004 से अमेठी संसदीय क्षेत्र का यह सांसद हर किसी की नजर में भारत का अगला (अगला नहीं तो अगले से अगला) प्रधानमंत्री है.  अमेठी के लोगों की जिंदगी में जब से राहुल यहां से सांसद बने हैं कुछ बदलाव आया हो या नहीं, आखिर में उन्हें ही यहां से जीतना है. पत्रकार अपने लेखों और बहसों में राहुल का परिचय ‘देश का अगला प्रधानमंत्री’, ‘भविष्य में देश का नेतृत्व करने वाला’ जैसे भारी शब्दों द्वारा देते रहे हैं. फिर कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ता भी हैं ही जो राहुल गांधी की इस छवि को वक्त-बेवक्त बुलंद करने की जुगत में लगे रहते हैं. सार यही है कि भारत में विपक्षी पार्टियों को छोड़कर तकरीबन हर व्यक्ति यह मान चुका है कि आने वाले वक्त में राहुल गांधी ही इस देश के नेता होंगे.

ऐसे में कुछ सवाल उठते हैं: क्या राहुल गांधी वास्तव में देश की बागडोर संभालने के काबिल हैं? क्या उनमें वह समझ और काबिलियत है जिसकी तस्वीर इस देश के लोगों को उनके मातहत अक्सर दिखाने की कोशिश करते हैं? क्या नेहरू परिवार का यह वारिस बिना किसी सहारे के इस देश का नेता चुना जा सकता है? क्या कांग्रेस पार्टी का भविष्य उनके युवा हाथों में सुरक्षित है? और अगर ऐसा नहीं है तो क्या इसके लिए उनको अपने ही परिवार के एक अन्य करिश्माई व्यक्तित्व का सहारा लेने की जरूरत है?

हाल ही में कांग्रेस के दिवंगत नेता वसंत साठे और पूर्व केंद्रीय मंत्री सीके जाफर शरीफ ने अपने बयानों से दबी-छुपी बातों को आवाज दे दी थी. इन दोनों ही वरिष्ठ नेताओं का कहना था कि राहुल गांधी की छोटी बहन प्रियंका गांधी को अब सक्रिय राजनीति में आना चाहिए. 23 सितंबर को अपनी मृत्यु से कुछ ही दिन पहले वसंत साठे का कहना था कि ‘अगर कांग्रेस को फिर से सत्ता में आना है तो उसको इंदिरा जी की तरह आम लोगों के बीच जाकर उनको अपनी तरफ आकर्षित करने का हुनर रखने वाला नेता चाहिए. आज के समय में वह नेता सिर्फ प्रियंका गांधी हैं.’ वहीं जाफर शरीफ का मानना था, ‘प्रियंका राजनीति में तो हैं ही वह अपने भाई और मां के निर्वाचन क्षेत्रों अमेठी और रायबरेली का ख्याल भी रखती हैं. अब जबकि उनमें मास अपील और असर ज्यादा है तो उन्हें क्यों कोई केंद्रीय भूमिका नहीं मिलनी चाहिए? इस वक्त कांग्रेस को करिश्माई और ऊर्जावान नेताओं की सख्त जरूरत है.’ वहीं इमेज गुरू दिलीप चैरियन के मुताबिक, ‘किसी भी जन-नेता की छवि को बनाने के लिए पांच महत्वपूर्ण विशेषताएं जरूरी होती हैं. करिश्माई होना, दृढ़ विश्वासी होना, लोगों से संवाद स्थापित करने की प्रतिभा होना, हौसला होना और आखिर में मौलिकता का होना. ये सारी विशेषताएं प्रियंका गांधी में हैं जिसकी वजह से वे एक लोकप्रिय जन-नेता बनेंगी.’

इन नेताओं के अलावा भी प्रियंका के राजनीति में आने को लेकर कई आवाजें बीच-बीच में उठती रहती हैं. लेकिन हाईकमान के डर और कांग्रेस पार्टी में चापलूसी की परंपरा के चलते कोई भी कांग्रेसी इस मसले पर बात करके सोनिया जी और राहुल जी को नाराज नहीं करना चाहता. उनमें से कई तो प्रियंका के सक्रिय राजनीति में आने को मीडिया गॉसिप और बेवजह ऊंची पतंग उड़ाने जैसा बताकर दरकिनार कर देते हैं. लेकिन यदि कुछ पीछे जाकर सक्रिय राजनीति में राहुल के शुरुआती दिनों से लेकर हाल के घटनाक्रमों पर नजर डालें तो राहुल की राजनीतिक तस्वीर उतनी आशाजनक नहीं बन पाती. इसलिए अब तमाम राजनीतिक विश्लेषक राहुल की अकेले कांग्रेस की नैया पार लगाने की क्षमता पर सवाल उठाने लगे हैं. कइयों का मानना है कि ऐसा करने के लिए उन्हें प्रियंका गांधी के रूप में एक मजबूत सहारे की आवश्यकता पड़ेगी. मगर क्या वे और उनकी मां सोनिया गांधी इस सहारे का एक सीमा से परे जाकर इस्तेमाल करना चाहेंगे ऐसे सवाल भी इन जानकारों के मन में उठ रहे हैं.

25 मई, 1991 की गर्म दोपहरी को पूरे हिंदुस्तान का ध्यान नई दिल्ली के शक्ति स्थल में 19 साल की एक लड़की ने अपनी ओर खींचा. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की अंत्येष्टि के वक्त लोगों ने पहली बार प्रियंका गांधी को एक ऐसी भूमिका में देखा जिसमें वे त्रासदी के बाद के संवेदनशील वक्त में अपने परिवार, राहुल और सोनिया को संभाल रही थीं. कभी हाथ राहुल के कंधे पर था तो कभी वे सोनिया को ढाढस बंधा रही थीं. उन तस्वीरों और नेहरू-गांधी परिवार के प्रति हमारी अंध-श्रद्धा ने कई बातों को जन्म दे डालाः बिलकुल इंदिरा जैसी दिखती हैं. इतनी-सी उम्र में भी कितनी समझदार हैं. साड़ी में इंदिरा गांधी जैसा ही प्रभाव पैदा करती हैं. इसके कुछ साल बाद कांग्रेस की प्रेस कांफ्रेंस में तकरीबन हर बार ही एक मानक सवाल की तरह यह पूछा जाने लगा – क्या प्रियंका सक्रिय राजनीति में आएंगी?

प्रियंका से जुड़े इस सवाल से सोनिया को भी अक्सर गुजरना पड़ता था. हाल ही में कांग्रेस पार्टी पर आई किताब ’24 अकबर रोड’ के लेखक और द टेलीग्राफ के एसोसिएट एडीटर राशिद किदवई याद करते हैं, ‘जब भी सोनिया से प्रियंका के राजनीति में आने से जुड़ा कोई सवाल पार्टी फोरम या मीडिया में किया जाता तो वे हमेशा कहतीं – मेरे बच्चों राहुल और प्रियंका को ही यह फैसला करना है कि वे कब राजनीति में आना चाहते हैं. उस वक्त तक कोई भी यह नहीं पकड़ पाया कि प्रियंका से जुड़े सवाल पर सोनिया हमेशा राहुल को क्यों बीच में ले आती हैं…मतलब साफ था कि वे हमेशा से चाहती थीं कि राहुल ही राजनीति में आएं. फिर जब 2004 में राहुल सक्रिय राजनीति में आए तो इस पर तमाम कांग्रेसी नेता हैरान रह गए क्योंकि उन्हें भी मीडिया और आम लोगों की तरह यह उम्मीद थी कि प्रियंका राजनीति में आएंगी.’

राहुल पर लीडरशिप थोपी गई है और प्रियंका जन्मजात लीडर हैं. करिश्माई व्यक्तित्व अभी सिर्फ प्रियंका के पास है :वसंत साठे, दिवंगत कांग्रेस नेता

राहुल का सक्रिय राजनीति में आना 1998 में ही तब तय हो गया था जब सोनिया ने प्रियंका और राहुल से सलाह-मशवरा करके सक्रिय राजनीति में आने का फैसला किया था. सोनिया को इस नए वातावरण से तालमेल बैठाने के लिए अपने सबसे करीबी सलाहकारों राहुल और प्रियंका की जरूरत थी. उस वक्त राहुल लंदन में थे और प्रियंका की फरवरी 1997 में ही शादी हो चुकी थी. तब गांधी परिवार ने मिल कर एक फैसला किया और राहुल लंदन स्थित कंपनी मॉनिटर की कंसलटेंसी वाली नौकरी छोड़ भारत चले आए. इस फैसले के वक्त ही राहुल के राजनीति में आने की नींव पड़ चुकी थी जो सभी को 2004 में मूर्तरूप लेती दिखी. इस दौरान परदे के पीछे राहुल का राजनीतिक प्रशिक्षण जारी रहा जिसमें वे सोनिया गांधी को सलाह भी देते और पार्टी की कार्यप्रणाली को समझने की कोशिश भी करते थे. जनवरी 2004 आते-आते राहुल राजनीतिक मसलों पर ज्यादा खुल कर काम करने लगे और आने वाले लोकसभा चुनावों में ज्यादा दिलचस्पी दिखाने लगे.

मगर राहुल गांधी का यह राजनीतिक प्रशिक्षण पिछले आठ साल से जारी है. आज तक इसने कोई खास परिणाम हमारे सामने नहीं रखा है. सक्रिय राजनीति का हिस्सा रहा यह राजकुमार आज भी अपनी जमीन खोज रहा है और इस प्रक्रिया में मजबूत जमीन की जगह अक्सर रपटीली या पोली जमीन पर पैर रख देता है फिर उठकर संभलने की कोशिश करता है और एक नयी जमीन पर अपना तंबू गाड़ने की कोशिश में लग जाता है. शायद यही वह सतत समझ है जो राहुल इतने सालों में हासिल कर पाए हैं. दिल्ली से निकलने वाले अंग्रेजी के एक राष्ट्रीय दैनिक के राजनीतिक संपादक राहुल को सलाह देते हैं, ‘राहुल को यह समझना होगा कि राजनीति में गैरहाजिर रहने वालों की कोई जगह नहीं होती है. आपने 3-4 महीने काम किया और फिर आप सुप्तावस्था में चले गए. इस तरह की कार्यप्रणाली भारतीय राजनीति में नहीं हो सकती है.’

पिछले साल सितंबर माह में दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर हुए धमाकों के पीड़ितों से मिलने अस्पताल पहुंचे राहुल गांधी को जिस तरह पीड़ितों के परिजनों ने हूट किया वह भले ही आवेश में किया गया विरोध हो मगर एक इशारा भी है कि अब लोग केवल उनकी बातों से प्रभावित होने को तैयार नहीं.
हालांकि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में राहुल गांधी की तमाम जनसभाएं बेहद सफल रही हैं, मगर इसी साल जनवरी में जब राहुल गांधी आजमगढ़ के प्रतिष्ठित मुसलिम संस्थान शिब्ली कॉलेज में एक जनसभा को संबोधित करने पहुंचे तो उन्हें वहां भारी विरोध का सामना करना पड़ा. यहां लोगों ने राहुल का पुतला तक फूंक डाला. बाद में कन्वेंशन हॉल में केवल लड़कियों की मौजूदगी में ही उन्हें अपनी बात रखनी पड़ी. यहां का विरोध इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि दिग्विजय सिंह ने मात्र एक दिन पहले प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की भूमिका पर सवाल उठाते हुए बटला हाउस एनकाउंटर को फर्जी बताया था जिसके ज्यादातर आरोपित आजमगढ़ के ही हैं.

राहुल की बातों से मोहभंग की एक मिसाल बुंदेलखंड में भी दिखी. हमीरपुर में बाहरी लोगों को टिकट दिए जाने से नाराज करीब 500 कांग्रेसियों ने बदलाव की राजनीति की बातें करते रहने वाले राहुल गांधी के दौरे के दौरान इस्तीफा दे दिया. बुंदेलखंड में राहुल की कई सभाओं में अपेक्षित से काफी कम भीड़ जुटना भी उनके प्रबंधकों के लिए चिंता का विषय बना रहा. बुंदेलखंड के एक पुराने कांग्रेसी कहते हैं कि किसी हादसे आदि के बाद वहां जाकर लोगों की दुख भरी बातें सुन भर के आ जाना राहुल की पीआर टीम का एक अनोखा प्रयोग जैसा बन चुका है.

अमेठी में प्रियंका गांधीराहुल और उनकी पीआर टीम ने राहुल के लिए यह छवि खुद गढ़ी है. जहां आज की युवा पीढ़ी उभरते और चमकते अर्बन इंडिया का हिस्सा बनना चाहती है, वहीं यह छवि राहुल को गरीबों की आवाज बनाने वाली छवि है. हालांकि 2004 के आम चुनाव में उतरने से पहले के राहुल गांधी इस छवि से अलग थे. हार्वर्ड में पढ़ा यह नौजवान वहां अनुपस्थिति के लिए जाना जाता था, सुपर बाइक के प्रति उसकी दीवानगी जगजाहिर थी और एक स्पैनिश गर्लफ्रेंड के साथ रिश्ते की बात भी. अब उनकी एक अलग ही छवि गढ़ी गई है. अब सुजुकी क्रूजर सुपरबाइक (राहुल द्वारा खरीदी आखिरी सुपरबाइक) की जगह किसानों की आम मोटरसाइिकल ने ले ली है जिसकी पिछली सीट पर सवार हो वे कभी उत्तर प्रदेश, कभी हरियाणा तो कभी महाराष्ट्र के गांवों में पाए जाते हैं. उनके निजी जीवन के बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं है. हालांकि हार्वर्ड में पड़ी अनुपस्थित रहने की आदत अभी भी कायम है. 15वी लोकसभा में अभी तक राहुल गांधी की उपस्थिति 40 फीसदी से कुछ कम ही है.

जब प्रियंका गांधी में मास अपील और उनका असर ज्यादा है तो उन्हें क्यों कोई केंद्रीय भूमिका नहीं मिलनी चाहिए? : सीके जाफर शरीफ, वरिष्ठ कांग्रेस नेता

2009 के लोकसभा चुनावों के बाद का वक्त भी राहुल के लिए कुछ खास नहीं रहा है. 2010 के बिहार विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी का अकेले चुनावों में जाने का फैसला कांग्रेस को बहुत भारी पड़ा और वह सिर्फ 4 सीटें ही जीत पाई. यहां तक कि राहुल के करीबी बिहार प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष चौधरी महबूब अली कैसर तक अपनी सीट नहीं बचा पाए. हार के बाद यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी तक को कहना पड़ा कि पार्टी को बिहार में फिर से शुरुआत करनी पड़ेगी.

इसके अलावा भट्टा-पारसोल की घटना ने भी राहुल की छवि को बहुत नुकसान पहुंचाया. 16 मई को प्रधानमंत्री से मिलने के बाद राहुल गांधी ने प्रेस के सामने दावा कर दिया, ‘काफी अमानवीय और क्रूरता पूर्ण हरकतें हुईं हैं भट्टा परसौल में…वहां राख के 74 बड़े-बड़े ढेर हैं जिनके अंदर शव पड़े हुए हैं. गांव में हर कोई इसके बारे में जानता है…औरतों के साथ बलात्कार हुआ है, लोगों को बुरी तरह से पीटा गया है.’ मगर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भट्टा-पारसोल में पुलिस द्वारा बलात्कार के आरोपों को खारिज कर दिया जिससे राहुल और उनके सलाहकारों की खासी किरकिरी हुई.

इस सारे प्रकरण के पीछे सुजान लोग राहुल के करीबी सलाहकारों खासकर कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की भूमिका को जिम्मेदार ठहराते हैं. अपनी मृत्यु से मात्र तीन दिन पहले तहलका के साथ बातचीत में (इसकी रिकॉर्डिंग तहलका के पास है) दिवंगत वसंत साठे ने राहुल को कुछ इस तरह की सलाह दी थी, ‘राहुल को अपने सलाहकारों से थोड़ा संभल कर रहना चाहिए…उन्हें भट्टा परसौल जैसी गलतियों से बचना चाहिए.’ वहीं प्रतिष्ठित पत्रकार सईद नकवी कहते हैं, ‘देखिए कोई चमचा सलाहकार नहीं हो सकता है…सलाहकार वह होता है जो आपको मना करे कि आप गलत कर रहे हैं… और यहां ऐसा कोई आदमी मुझे दिखाई नहीं देता.’

राहुल के पास कई ऐसे मौके थे जब वे खुद को ‘भविष्य का नेता’ या ‘जन-नेता’ साबित कर सकते थे. मगर वे ज्यादातर ऐसे मौकों पर ज्यादा कुछ करते नजर नहीं आए. सोनिया गांधी ने ऑपरेशन के लिए अमेरिका जाते वक्त जनार्दन दिवेदी, अहमद पटेल और एके एंटनी के साथ राहुल गांधी को मिलाकर बनाई समिति को पार्टी का काम-काज देखने की जिम्मेदारी सौंपी थी. यह पहला बड़ा इशारा था कि आने वाले वक्त में पार्टी का नेतृत्व राहुल गांधी को स्थानांतरित किए जाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. मगर लोकपाल मुद्दे पर जिस तरह पार्टी और सरकार के आला मंत्रियों ने फैसले लिए उसके लिए एक तबका राहुल को भी जिम्मेदार मान रहा है. पार्टी मीटिंग में अन्ना हजारे वाले मसले पर कोई दूरदर्शिता नहीं दिखाना, सही निर्णय न ले पाने की अक्षमता, आला मंत्रियों के सामने कोई ठोस समाधान न रख पाने के लिए राहुल को जबर्दस्त आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा था. जैसा कि वसंत साठे का कहना था, ‘देखिए, जिन लोगों में राजनीतिक सूझ-बूझ नहीं है अगर आप उन लोगों से सलाह लेंगे और उस पर अमल भी करेंगे तो मामला तो गड़बड़ होगा ही. आप भले ही बहुत अच्छे तर्क और दलीलें दे सकते हों लेकिन राजनीतिक सूझ-बूझ होना बहुत जरूरी है.’

लोकपाल मसले पर कांग्रेस के आखिरी हथियार की तरह सामने आया राहुल का संसद में दिया भाषण भी लोगों को प्रभावित करने में नाकाम रहा. 26 अगस्त, 2011 को राहुल पहली बार 15वीं लोकसभा में किसी मसले पर बोले थे. शून्य काल के दौरान राहुल ने बोलने की इजाजत मांगी और 15 मिनट तक लिखा हुआ भाषण पढ़ते रहे. जबकि शून्यकाल में कोई भी सदस्य किसी भी मुद्दे पर तीन से पांच मिनिट से ज्यादा नहीं बोल सकता है. सईद नकवी कहते हैं, ‘उस भाषण को देख कर लगा जैसे राहुल ने कभी पब्लिक स्पीच दी ही नहीं हो. आप कैसे सोच सकते हो कि हड़बड़ाई हुई तेज आवाज में लिखे हुए कागज को पढ़ देने भर से आप लोकपाल जैसे मसले पर लोगों का दिल जीत लोगे या कोई विशेष प्रभाव डाल पाओगे.’ उस भाषण के बाद अगले दिन जब पूरा विपक्ष उन्हें सवालों से घेरने के लिए तैयार था, राहुल अमेरिका जा चुके थे.

प्रियंका से बहुत लोग आकर्षित होते हैं, यह एक बड़ी खूबी है. देखकर लगता भी है कि उनमें राजनीतिक समझ ज्यादा है : मणिशंकर अय्यर, कांग्रेस नेता

राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक आज के दौर की राजनीति में जब लोगों ने चुनावों के बाद और उनसे कुछ समय पहले तक जनता का मुंह तक देखना बंद कर दिया हो जनता के बीच समय-समय पर जाते रहने की अपनी अहमियत है. लेकिन यह भी सच है कि प्रधानमंत्री बनने से पहले इंदिरा गांधी लाल बहादुर शास्त्री के कैबिनेट में एक साल के करीब ही जूनियर मंत्री रही थीं. और राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से पहले सिर्फ तीन साल का समय राजनीति में गुजारा था. वहीं राहुल गांधी पिछले दस से ज्यादा साल से राजनीति का ककहरा ही पढ़ रहे हैं. सईद नकवी चुटकी लेते हुए याद दिलाते हैं, ‘बच्चे को जब सालों तक तैरना सिखा कर समंदर के पास ले जाया जाता है कि जाओ बेटा तैरो, यह तुम्हारा देश है तो राहुल साहब अमेठी हो कर वापस आ जाते हैं.’

मगर अब शायद राहुल का अमेठी तक तैरना भी कम ही हो पाता है. पिछले से पिछले साल नवंबर में आखिरी बार दौरा करने अमेठी आए राहुल तकरीबन एक साल से वहां के दौरे पर नहीं गए. सुबह जाकर शाम को वापस लौट आना दौरे की परिभाषा में नहीं गिना जाता है. चुनावों की अधिसूचना जारी होने से कुछ समय पहले अमेठी में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं से लेकर वहां आम वोटरों तक की यही शिकायत थी कि राहुल किसी से मुलाकात ही नहीं करते हैं. आम दिनों में दिल्ली के अपने सरकारी आवास 12 तुगलक रोड पर अमेठी की जनता के लिए राहुल ने मंगलवार का समय निर्धारित कर रखा है. मगर यहां भी राहुल का अमेठी की जनता से मिलना न के बराबर ही रहा है.

पिछले सात साल से राहुल गांधी का संसदीय क्षेत्र होने के बावजूद अमेठी आज भी मूलभूत सुविधाओं के लिए तरसता है. किसानों को खेती के लिए खाद नहीं है, बिजली की आपूर्ति नहीं है, हैंडपंपों की कमी है, अमेठी कस्बे को छोड़ दें तो आस-पास के गांवों में सड़क नहीं है, प्राथमिक शिक्षा का स्तर काफी खराब है, नौकरियां नहीं हैं. यहां के एक क्षेत्र पंचायत सदस्य के अनुसार, ‘राहुल जी खाद, बिजली, नौकरी जैसी मूलभूत समस्याओं के बारे में तो सुनते ही नहीं है. बस कह देते हैं कि विकास होगा और लोग नौकरियां पाएंगे. मगर सात साल हो गए हैं, किसी को कोई नौकरी नहीं मिली.’ एक कांग्रेस कार्यकर्ता के अनुसार, ‘यहां पर सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोई समस्या सुनने वाला नहीं है. यहां के विधायक राज परिवार से हैं, राजा हैं. और फिर राहुल गांधी तो देश के नेता है, तो वह सबसे बड़े राजा हुए. इसलिए न तो हम कार्यकर्ताओं की और न ही आम जनता की यहां कोई सुनता है.’

कहने के लिए तो अमेठी में राहुल ने आईआईआईटी और एनआईएफटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थान खुलवाए हैं. सर्व-सुविधा संपन्न संजय गांधी अस्पताल है जिसे फॉर्टिस संचालित करता है. कुछ नई फैक्टरियां भी हैं. लेकिन विकास के इन मॉडलों के पीछे की कहानी यह है कि ये सभी बड़े-बड़े नाम अमेठी की जनता के ज्यादा काम नहीं आए हैं. अमेठी में कई सालों से कांग्रेस को कवर करते रहे दैनिक जागरण के पत्रकार अमित मिश्रा बताते हैं, ‘आईआईआईटी खुलने से अमेठी के लोगों को कौन-सा फायदा हो गया. अमेठी का एक भी छात्र नहीं है इसमें. उत्तर प्रदेश का ही मिल जाए तो बहुत है. यहां के लोगों को रोजगार भी नहीं देते हैं ये संस्थान. देंगे भी तो चपरासी या चाय पिलाने या झाडू लगाने वाले जैसे कामों के लिए ही रखे जाते हैं.’ वहीं फॉर्टिस द्वारा संचालित संजय गांधी अस्पताल सर्व सुविधा संपन्न तो है मगर जब से यह प्राइवेट हाथों में गया है अमेठी के लोगों के लिए यहां इलाज करवाना मुश्किल हो गया है.

अमेठी के रहवासी अनिल पांडे के अनुसार, ‘अमेठी के लोगों को यहां पर 2-3 हजार में नौकरी दी जाती है और बाहर से बुला कर लाए गए लोगों को उसी काम के लिए 8 से 10 हजार तक दिए जाते हैं.’ अमेठी में तकरीबन सभी लोग इस बात से नाराज हैं कि अमेठी में विकास और नौकरी के नाम पर खोले जा रहे ऐसे कई संस्थान और फैक्टरियों में खुद अमेठी के लोगों को रोजगार नहीं दिया जा रहा है.राहुल लोगों से मिलते हुए

अमेठी कस्बे से 15 किलोमीटर दूर मटमैले छप्परों से पटे पड़े पुरी जवाहर गांव की दलित बस्ती में सुनीता रहती है जिसके घर के आगे तब पीपली लाइव के नत्था की तरह ही मीडिया का हुजुम उमड़ पड़ा था जब पहली बार राहुल गांधी ने पास के संसदीय क्षेत्र सुल्तानपुर की एक रैली में सुनीता के बच्चों का जिक्र किया था. राहुल सुनीता के यहां 26 जनवरी, 2008 को रात भर ठहरे थे और खाना भी खाया था. राहुल के आने के बाद जिंदगी में किस तरह का सुधार आया इस सवाल पर सुनीता गुस्से में कहती हैं, ‘आप खुद ही देख सकते हैं कि हमारी हालत क्या है. कुछ भी नहीं बदला है.

किसी योजना का लाभ नहीं दिया गया, न राशन कार्ड है न जाब कार्ड. जो काम पहले करते थे वही अभी भी कर रहे हैं.’ चार बच्चों की मां सुनीता की इस दलित बस्ती में बिजली नहीं है और न ही सड़क है. साल भर पहले पूरे जवाहर गांव में बिजली आ चुकी है मगर दलितों की इस बस्ती को बाहर रखा गया. ‘बिजलीवालों का कहना था कि हम लोगों को बिजली की कोई जरूरत नहीं है. बिजली के लिए राहुल गांधी हमारी मदद क्यों नहीं करते हैं?’ हालांकि यहां ज्यादातर बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराना प्रदेश सरकार का काम है, मगर स्थानीय निवासी इस बात से ज्यादा आहत हैं कि राहुल उनके लिए भूले-भटके मुंहजबानी की बजाय जमीन पर कभी कोई संघर्ष क्यों नहीं छेड़ते.

राहुल गांधी स्वदेश फिल्म के नायक शाहरुख खान की तरह दलित के यहां रात तो बिताते हैं मगर उस नायक की तरह शायद उनकी पीड़ा नहीं समझ पाते. नहीं तो क्या वजह हो सकती है कि तकरीबन चार साल बाद भी सुनीता के यहां न तो बिजली है, न सड़क, न पक्का घर, न बीपीएल/एपीएल कार्ड, न नरेगा का जॉब कार्ड और न ही पानी. 18 घरों के बीच सिर्फ एक हैंडपंप वाली इस बस्ती में राहुल तालाब का वादा करके जा चुके हैं. ‘राहुल जी की गाड़ी ठीक वहीं रुकी थी जहां हैंडपंप लगा है. हम लोगों ने उन से तालाब खुदवाने की विनती की थी. राहुल जी ने कहा था कि मनरेगा के तहत यहां तालाब खुदवाया जाएगा. मगर अभी तक तो कुछ नहीं हुआ है.’ सुनीता राजीव गांधी महिला विकास परियोजना यानी समूह की सदस्य हैं और हर महीने 30 रुपये जमा करवाती हैं. ‘समूह का सदस्य होने से मुसीबत के वक्त पैसे के लिए हमें साहूकारों के पास नहीं जाना पड़ता है.’ अपने बच्चों को निहारते हुए कहती है, ‘राहुल के जाने के बाद आस-पास के गांवों में लोगों को लगा कि सुनीता का घर पक्का हो गया है, घर में बिजली आ गई है, उसके घर के बाहर गाड़ी खड़ी है. मगर कुछ भी नहीं बदला. बस आप पत्रकार लोगों का आना-जाना बढ़ गया है.’ सुनीता के पड़ोस में रहने वाले श्रवण कुमार के अनुसार, ‘यहां न नौकरी है न कोई धंधा है. बस दिहाड़ी के भरोसे रहते हैं. नरेगा में तीन-छह महीने में एक बार 10 दिन के लिए काम मिलता है जिसके पैसों के लिए फिर एक-दो महीने इंतजार करो. जब राहुल जी आए थे तो लगा था भगवान श्रीराम आ गए हैं हमारे घर, अब तो कुछ बदलेगा. लेकिन कुछ नहीं बदला. जैसे फटे कपड़े में जगह-जगह चीथड़े लगा देते हैं न, वैसे ही थोड़े-बहुत काम किए हैं राहुल जी ने यहां बस.’

सुनीता से भी बुरी स्थिति में शिवकुमारी हैं. अमेठी से 20 किलोमीटर दूर सेमरा गांव की इस दलित विधवा के यहां 2009 के जनवरी माह में राहुल ब्रिटेन के विदेश मंत्री डेविड मिलीबैंड के साथ रुके थे. छप्परों की छत वाले दो छोटे कमरों को देख कर आश्चर्य होता है कि शिवकुमारी ने राहुल और मिलीबैंड के रात भर रुकने का इंतजाम यहां कैसे किया होगा. एक वरिष्ठ पत्रकार जो राहुल गांधी के दौरों को कवर करते हैं, बताते हैं, ‘राहुल के आने के एक हफ्ते बाद जब मैं शिवकुमारी से मिलने गया था तो उसके पांचों बच्चे चावल के लिए आपस में लड़ रहे थे. पता नहीं शिवकुमारी ने राहुल और मिलीबैंड को कैसे खिलाया होगा.’ यह पूछने पर कि राहुल की खातिरदारी कैसे की, शिवकुमारी कहती हैं.’मेरे पास घर में कुछ भी नहीं था. सब बंदोबस्त कांग्रेसियों ने ही किया था.’ राहुल के आने के बाद क्या कुछ बदला के सवाल पर मुंह फेरते हुए कहती हैं, ‘मैं क्या कह सकती हूं. आप खुद ही देख सकते हैं.’ हम भी राहुल की ही तरह उसकी खराब हालत को देख वापस चले आए. सेमरा गांव के ही कालिका प्रसाद के अनुसार, ‘राहुल जी ने सिर्फ समूह की महिलाओं के लिए ही कुछ काम किया है. हमारे लिए तो कुछ भी नहीं किया. अभी भी हम लोग मजदूरी ही कर रहे हैं. सेमरा गांव की प्रधान रामपति के बेटे बाबूलाल के अनुसार, ‘राहुल के आने के बाद न तो कोई योजना ही आई न ही कोई काम हुआ. वैसा ही चल रहा है जैसा चलता था.’

राहुल गांधी से जुड़े ऐसे कई उदाहरण अमेठी के पत्रकार आपको सुना सकते हैं जिसमें वे वादा करके उन वादों और गरीबों को भूल गए. वहीं आम लोग और कांग्रेस कार्यकर्ता प्रियंका गांधी का जिक्र आने पर कहते हैं कि भले ही प्रियंका सिर्फ चुनावों के दौरान अमेठी में दिखती हों मगर उस दौरान उनके द्वारा किए गए काम आज भी उन्हें याद हैं. 2004 में चुनावी दौरे पर अमेठी आई प्रियंका का ध्यान एक कांग्रेसी कार्यकर्ता ने दलित रामभजन की तरफ दिलाया जिसका घर दबंगों ने जला दिया था और उससे उसकी जमीन भी छीन ली थी. पुलिस ने भी केस दर्ज करने से मना कर दिया था. प्रियंका पता चलते ही रामभजन को लेकर पुलिस के पास गईं और उसका केस दर्ज करवाया.

शायद यह पहली बार होगा जब नेहरू परिवार का कोई सदस्य आजादी के बाद थाना गया होगा. उसके बाद प्रियंका ने रामभजन के घर को दोबारा बनाने के लिए सभी कांग्रेस कार्यकर्ताओं से चंदा करवाया और अलग से जमीन खरीदकर उसका घर फिर से बनवाया. साथ ही घर में आय का स्रोत बना रहे इसके लिए प्रियंका ने बाद में रामभजन के लड़के शंभु को नौकरी के लिए दुबई भी भेजा. अमेठी में इस तरह के उदाहरण राहुल से जुड़े हुए नहीं मिलते. एक कांग्रेस कार्यकर्ता के अनुसार, ‘प्रियंका कभी राहुल की तरह किसी दलित के घर नहीं रुकीं मगर उनकी तकलीफों का अंदाजा रखती हैं. वहीं राहुल दलितों के छप्पर वाले बिना बिजली के घरों में रात गुजारने के बाद भी उनकी तकलीफों को नहीं समझ पाते और बस सभाओं में और मीडिया में दलितों और गरीबों का जिक्र भर करते रहते हैं.’

अमेठी में कांग्रेस कार्यकर्ताओं और जनता से बात करने पर यह भी साफ होता है कि यहां राहुल से ज्यादा लोकप्रिय प्रियंका हैं. जैसा कि कांग्रेस से जुड़े एक कार्यकर्ता बताते हैं जिनके पिता राजीव गांधी के करीबी रहे थे, ‘प्रियंका कार्यकर्ताओं से अच्छे संबंध बना कर चलती हैं. जिससे भी मिलती हैं अपनेपन से मिलती हैं. लोगों को उनके काम करने का तरीका भी पसंद आता है. वे हमेशा चाहती हैं कि कुछ ऐसा किया जाए जिससे लोगों को फायदा मिले.’ एक पुराने कांग्रेसी कार्यकर्ता उत्साह से बताते हैं, ‘1999 में जब प्रियंका सोनिया जी के साथ आई थी यहां तब अमेठी में कांग्रेस की स्थिति बहुत खराब थी. यहां के राजा संजय सिंह तब भाजपा में थे और भाजपा के दिग्गज नेता यहां आकर सोनिया जी के विदेशी मूल के मुद्दे को उछाल रहे थे. ऐसे में प्रियंका ने वह चुनाव सोनिया जी को जितवाने में बहुत योगदान दिया था.’ एक बुजुर्ग कार्यकर्ता कहते हैं, ‘प्रियंका बहुत मिलनसार महिला हैं. सब को नाम से याद रखती हैं और मिलकर हमेशा आपका हाल-चाल पूछती हैं, आपकी परेशानियां के बारे में बात करती हैं. प्रियंका जी कांग्रेस को एक पारिवारिक संगठन की तरह मान कर चलती हैं. वहीं राहुल लोगों को जानते हैं मगर आप सामने से निकलें तो आप पर ध्यान ही नहीं देंगें.’

अमेठी में प्रियंका की लोकप्रियता से राशिद किदवई भी इतेफाक रखते हैंं, ‘जो कार्यकर्ता उनके साथ काम करते हैं उनको प्रियंका आदर्श और प्रेरित करने वाली नेता लगती हैं. लोग प्रियंका के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहते हैं. मुझे लगता है प्रियंका में उनके चाचा संजय गांधी की खूबियां आई है. संजय गांधी बहुत ही अच्छे प्रबंधक थे.’

राहुल गांधी बच्चों के साथ प्रियंका के बारे में कुछ इसी तरह की सोच यूथ कांग्रेस के पूर्व प्रदेश महासचिव धर्मेंद्र शुक्ला की है जो अपनी राजनीतिक समझ को प्रियंका गांधी की देन बताते हैं. ‘प्रियंका गांधी की वजह से अमेठी में आपको एक-दो नहीं कम से कम 500 ऐसे कार्यकर्ता मिल जाएंगे जो यूथ कांग्रेस से सक्रिय रूप से जुड़े हुए हैं. वे सभी प्रियंका को अपना आदर्श नेता मानते हैं.’ अमेठी में प्रियंका की लोकप्रियता से जुड़ी एक घटना शुक्ला बताते हैं, ‘एक बार प्रियंका रात में रोड से अमेठी आ रही थीं. लोगों को पता चला तो सड़क के किनारे बीसियों किलोमीटर तक इतनी भीड़ इकट्ठा हो गई कि एसपीजी और यूपी पुलिस सड़क के दोनों तरफ रस्सा लगा-लगा के परेशान हो गई. लोग अंधेरे में हाथों में लालटेन लेकर खड़े हुए थे और गाड़ी गुजरने पर हाथ हिला कर खुश हो जाते थे. इतना आकर्षण है अमेठी में प्रियंका जी को लेकर.’

प्रियंका सिर्फ अमेठी में ही लोकप्रिय हों ऐसा नहीं है. कांग्रेस के पुराने नेताओं से लेकर विपक्ष के नेताओं तक सभी प्रियंका की लोकप्रियता और उनके करिश्माई व्यक्तित्व से वाकिफ हैं. दिवंगत नेता वसंत साठे का इस बारे में कहना था, ’प्रियंका की सबसे बड़ी खूबी है उनका व्यक्तित्व, जो इंदिरा गांधी के जैसा है. वे आज के वक्त की इंदिरा बन सकती हैं. उनमें दूसरा सबसे बड़ा गुण हैं कि वे लोगों को आकर्षित कर सकती हैं. तो अगर वे रायबरेली और अमेठी के अलावा देश के दूसरे हिस्सों में भी निकल पड़ती हैं, तो सोचिए क्या होगा.’ साठे की इस बात से मणि शंकर अय्यर भी इतेफाक रखते हैं कि प्रियंका को सक्रिय राजनीति में आकर सोनिया का हाथ बंटाना चाहिए. उनके अनुसार, ‘उनमें काफी करिश्मा है. कभी-कभी बाहर निकलती हैं मगर बहुत लोग आकर्षित होते हैं, यह एक बड़ी खूबी है. उनको देख कर लगता भी है कि उनमें राजनीतिक समझ ज्यादा है.’

सुषमा स्वराज और उमा भारती ने मुझसे कहा था कि अगर प्रियंका राजनीति में आ गईं तो हमें आसानी से हरा देंगी. : राशिद किदवई, वरिष्ठ पत्रकार

वहीं राशिद किदवई प्रियंका को लेकर विपक्ष की मानसिकता के बारे में बताते हैं, ‘भाजपा की सुषमा स्वराज और उमा भारती ने बातचीत के दौरान मुझसे कहा था कि अगर प्रियंका सही में सक्रिय राजनीति में आ गईंं तो हमें चुनावों में आसानी से हरा देंगी. साफ है कि विपक्ष के अंदर प्रियंका को लेकर डर बैठा हुआ है.’ सुषमा स्वराज शायद अपने खुद के अनुभव के आधार पर यह स्वीकार कर रही थीं क्योंकि वे 1999 में सोनिया के खिलाफ बेल्लारी सीट जीतने के बारे में तब तक आश्वस्त थीं जब तक प्रियंका मैदान में नहीं उतरी थीं. राशिद किदवई उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, ‘उस चुनाव में सोनिया दो जगह से लड़ी थी. राय बरेली और बेल्लारी. बेल्लारी का चुनाव बहुत करीबी था. आखिरी दिन के चुनाव प्रचार में कांग्रेस ने एक मार्च निकाला था. उस रैली में आश्चर्यजनक रूप से पूरा बेल्लारी शहर सड़कों पर उतर आया था. सोनिया गांधी की वजह से नहीं, प्रियंका की वजह से. प्रियंका ने उस चुनाव को पूरी तरह अपनी मां के पक्ष में कर दिया था. इस बात का पता उसी दिन लग गया था कि यहां से कौन जीतने वाला है.’

वसंत साठे का कहना था कि कांग्रेस के पास गठबंधन की राजनीति से बचने के लिए एक जननेता प्रियंका गांधी के रूप में मौजूद है. उनके मुताबिक, ‘कांग्रेस आखिर कब तक गठबंधन की राजनीति करती रहेगी. कांग्रेस की लीडरशिप को यह इरादा करना चाहिए कि वह 2014 के चुनाव में 300 से ज्यादा सीटें जीत कर सिंगल पार्टी में लोकसभा में आए. मगर यह होगा कैसे? कांग्रेस के पास प्रियंका गांधी के रूप में एक ऐसा नेता है जो देश भर में घूम कर लोगों को कांग्रेस की तरफ मोबिलाइज कर सकता है. प्रियंका की छवि आम लोगों के बीच भी अच्छी है और पार्टी के कार्यकर्ता भी उन्हें बहुत पसंद करते हैं. यकीन न हो तो अमेठी जा कर देख लें.’ बीबीसी में काम कर चुके एक वरिष्ठ पत्रकार के अनुसार, ‘प्रियंका में स्वाभाविक नेत्री वाले गुण हैं. उनका पूरा व्यक्तित्व राजनीतिक जीवन के लिए ही बना है. ऐसे में अगर वह सक्रिय राजनीति में नहीं आती हैं तो यह बहुत निराशा की बात होगी.’

प्रियंका में जनसभाओं में जनता को खुद से जोड़ने का भी हुनर है. वह वक्ता भी अच्छी हैं और हिंदी में प्रवाह के साथ लोगों से संवाद स्थापित कर लेती हैं. साथ ही उनमें यह समझ भी है कि भारत की जनता भावुक होने के साथ-साथ दिल से वोट करती है न कि दिमाग से. अपनी राजनीतिक समझ का एक उदाहरण प्रियंका ने अपने शुरुआती दौर में ही दे दिया था. 1999 में रायबरेली से पारिवारिक मित्र कैप्टन सतीश शर्मा के खिलाफ राजीव गांधी के भाई और भाजपा में शामिल हो चुके अरुण नेहरू खड़े हुए थे. भाजपा प्रत्याशी अरुण नेहरू तब तक आगे थे जब तक प्रियंका मैदान में उतरी नहीं थी. रायबरेली में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए प्रियंका ने खरी हिंदी में सीधे आम लोगों से सवाल किया, ‘मुझे आप लोगों से शिकायत है. मेरे पिता के मंत्रिमंडल में रहते हुए जिस शख्स ने गद्दारी की, अपने ही भाई की पीठ में छुरा मारा, जवाब दीजिए, ऐसे आदमी को आपने यहां घुसने कैसे दिया? उनकी यहां आने की हिम्मत कैसे हुई? यहां आने से पहले मैंने अपनी मां से बात की थी. मां ने कहा किसी की बुराई मत करना. मगर मैं जवान हूं, दिल की बात आपसे न कहूं, तो किससे कहूं.’ राशिद किदवई याद करते हुए बताते हैं, ‘युवा प्रियंका की भावुकता इतनी जबर्दस्त थी कि भीड़ स्तब्ध होकर सुनती रह गई.’ उस इलाके के मतदाता प्रियंका के भाषण के बाद ही अपना मन बना चुके थे. अरुण नेहरू की चुनाव परिणाम आने पर जमानत तक जब्त हो गई थी.

प्रियंका गांधी के पास इंदिरा की छवि होने का भी फायदा है. जैसा कि सईद नकवी कहते हैं, ‘उनकी शक्ल तो इंदिरा से मिलती है ही वे इंदिरा से ज्यादा खूबसूरत भी हैं. उनके बाल बिलकुल इंदिरा जैसे हैं. इंदिरा गांधी की इस छवि का उन्हें फायदा अभी भी मिल रहा है और आगे भी मिलता रहेगा.’ इमेज गुरू दिलीप चैरियन भी मानते हैं कि प्रियंका के पास लोगों को आकर्षित करने की असाधारण प्रतिभा है. प्रियंका के करिश्माई व्यक्तित्व की वजह से अभी से ही उनके समर्थन में भारी जनाधार है, लेकिन इसकी चर्चा पार्टी सर्किट में नहीं होती है. पुराने नेताओं से लेकर आज के समर्थक तक उनमें इंदिरा गांधी की छवि देखते हैं. नेहरू परिवार और उनकी प्रभावशाली छवि का मिलाप प्रियंका को असाधारण नेता बनाता है.’

लेकिन आश्चर्य की बात है कि पुराने नेताओं के लगातार सुझाव देने, विपक्ष के प्रियंका की लोकप्रियता से घबराए हुए होने और अमेठी-रायबरेली-बेल्लारी में लोगों के बीच प्रियंका को लेकर उत्साह को देखने के बाद भी आखिर क्यों प्रियंका को सक्रिय राजनीति से दूर रखा जा रहा है. साल 2009 में जब प्रियंका अमेठी में अपने भाई के पक्ष में लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार कर रही थीं तो उस समय पत्रकारों के साथ बातचीत में उनके पति रॉबर्ट वाड्रा का कहना था, ‘उन्हें (राजनीति में) अवश्य आना चाहिए… जब समय सही होगा तो वे ऐसा करेंगी.’ समय सही कब होगा इस बारे में पूछने पर वाड्रा का कहना था, ‘जब भी उन्हें लगेगा कि बच्चे बड़े हो गए हैं.’

इस बात को तीन साल गुजर चुके हैं. उनके बच्चे भी अब खासे बड़े हो चुके हैं. तो फिर वे राजनीति में प्रवेश क्यों नहीं कर रहीं? वसंत साठे भी यही सवाल करते हुए कहते हैं, ‘पहले प्रियंका का कहना था कि वे बच्चों से अपना ध्यान नहीं हटाना चाहतीं मगर अब तो उनके बच्चे भी बड़े हो गए हैं. मुझे दुख इस बात का है कि सोनिया जी के जो वर्तमान राजनीतिक सलाहकार हैं उनका जमीन से कोई जुड़ाव कभी रहा ही नहीं, इसी वजह से कभी सोनिया जी को वह सलाह नहीं दे पाते जो पार्टी के हित में है.’

राशिद किदवई के अनुसार, ‘प्रियंका अपने निजी जीवन में काफी खुश हैं. उन्होनें हाल ही में रणथंभौर के शेरों पर एक कॉफी टेबल किताब लिखने में सहयोग किया है. उनकी वन्य जीवन और फोटोग्राफी में दिलचस्पी है. बच्चों का पालन-पोषण करने में खुश हैं. प्रियंका के लिए शायद राजनीति में आना या कैबिनेट मिनिस्टर बनना लक्ष्य नहीं है. यह परिवार इस मामले में दुनिया के दूसरे राजनीतिक परिवारों से अलग है. साथ ही अभी परिवार के दो सदस्य राजनीति में हैं ही. राहुल के सक्रिय राजनीति में आगे बढ़ने का फैसला सोनिया, राहुल और प्रियंका तीनों ने मिल कर लिया था. और प्रियंका इस फैसले से खुश हैं. ज्यादातर राजनीतिक परिवार में भाई-बहनों के बीच होड़ होती है. लेकिन यह परिवार एक-दूसरे के बहुत करीब है. इसलिए राहुल अपने काम से खुश हैं और प्रियंका अपने काम से.’

वहीं सईद नकवी एक पारंपरिक वजह की तरफ इशारा करते हैं, ‘मेरे ख्याल से हिंदुस्तानी मां बेटों को ज्यादा आगे बढ़ाती है और बेटियों को कम. और हिंदुस्तानी मां की ही तरह इटालियन माएं भी बेटे को ही ज्यादा चाहती हैं. और अगर बेटा कमजोर है, तो मां उसकी ज्यादा फिक्र करेगी ही.’ लेकिन अमेठी में यूथ कांग्रेस के लोकसभा उपाध्यक्ष धर्मेंद्र शुक्ला प्रियंका से उनके घर पर ही निजी बातचीत का हवाला देकर कहते हैं, ‘साल भर पहले हमने प्रियंका जी से कहा था कि दीदी आप को देश के लिए बाहर निकलने की जरूरत है. तब उन्होंने कहा था कि अभी समय है, समय का इंतजार करो. और वैसे भी प्रियंका कोई जमीन लेकर खेती तो करेंगी नहीं, राजनीति से जुड़े परिवार से हैं तो जरूर राजनीति में आएंगी. बस सही समय का इंतजार है.’

मगर क्या यह सही समय नहीं है? कांग्रेस की हर तरफ गिरती साख, सोनिया का बीमार और उम्रदराज होना और राहुल गांधी पर भी कई सवाल खड़े होना क्या प्रियंका के राजनीति में आने को पार्टी के लिए जरूरी नहीं बनाते? क्या राहुल गांधी को आने वाले वक्त में प्रियंका की मदद की जरूरत नहीं पड़ेगी? इस पर वसंत साठे का कहना था, ‘कुछ लोग जन्मजात लीडर होते हैं और कुछ पर लीडरशिप थोपी जाती है. तो राहुल के ऊपर लीडरशिप थोपी गई है और प्रियंका जन्मजात लीडर हैं. भले ही राहुल अच्छा काम करने की कोशिश करते हों लेकिन अब करिश्माई व्यक्तित्व कहां से लाएं. वो अभी सिर्फ प्रियंका के पास है.’ राहुल की इन कमियों से सईद नकवी भी इतेफाक रखते हैं. देखिए राहुल गांधी ने आज तक कोई बड़ा इंटरव्यू नहीं दिया है. बस दो-चार लाइन बोल कर चले जाते हैं. तो हम कैसे मान लें कि प्रधानमंत्री बनने के बाद वे बात कर सकेंगे. राहुल ने पिछले आठ सालों में आपसे बात की है क्या? उन्हें इतना लंबा वक्त मिला, प्लेटफार्म मिला, परिवार का सपोर्ट मिला. उसके बावजूद अपने आपको अभी तक साबित नहीं कर पाए हैं. कांग्रेस अभी नेतृत्व के गंभीर संकट से गुजर रही है.’

कांग्रेस के भीतर यही गंभीर नेतृत्व संकट प्रियंका के सक्रिय राजनीति में आने को लेकर छिट-पुट आवाजों को सही ठहरा रहा है. हालांकि राशिद किदवई के अनुसार राजनीति लिखी-लिखाई स्क्रिप्ट के मुताबिक नहीं चलती, ‘इस तरह की अटकल लगाने से पहले हमें सोनिया गांधी के जीवन पर नजर डाल लेनी चाहिए. सिर्फ राजीव की पत्नी बनने का ख्वाब देखने वाली इस महिला को न चाहते हुए भी कांग्रेस पार्टी को चलाने के लिए तैयार होना पड़ा. इसलिए मैं कहता हूं कि राजनीति में कुछ भी पूर्व नियोजित नहीं है.’ मगर वही वसंत साठे का तर्क था कि क्यों किसी आपदा का इंतजार किया जाए, ‘अगर सोनिया जी के पद छोड़ने के बाद या किसी अप्रिय घटना के बाद प्रियंका को राजनीति में लाया जाता है तो उसका क्या फायदा. यह तो वही बात हुई न कि बाप मरेगा तभी बैल बंटेगा. यही सही वक्त है उन्हें राजनीति में लाने का.’

कुछ ही दिन पहले प्रियंका ने राजनीति में वे ज्यादा बड़ी भूमिका निभाने की इच्छुक हैं इसका एक संकेत जरूर दिया था. उनका कहना था कि राहुल चाहें तो वे पूरे उत्तर प्रदेश में भी पार्टी के लिए चुनाव प्रचार कर सकती हैं. मगर उनके इस सार्वजनिक प्रस्ताव पर न तो राहुल ने कोई प्रतिक्रिया दी और न ही पार्टी ने. जिस देश में राजनीतिक दल फिल्मी सितारों से लेकर तमाम अन्य आकर्षणों से मतदाताओं को लुभाने के प्रयास में लगे रहते हैं वहां प्रियंका गांधी वाड्रा के इस प्रस्ताव पर जरा भी हलचल नहीं मचना तमाम सवाल खड़े करता है.

कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक भले ही राजनीति में प्रियंका खुद राहुल के लिए कभी चुनौती न बनना चाहें मगर यदि वे राजनीति में आती हैं तो ऐसा होना लाजिमी है. कांग्रेस और भारतीय राजनीति का भी इतिहास रहा है कि यहां वही बिकता है जो वोट दिलाता है. ऐसे हालात में सक्रिय राजनीति में आने पर प्रियंका राहुल से इक्कीस साबित हो सकती हैं. कुछ विश्लेषक यह भी मानते हैं कि हो सकता है राजनीति में राहुल के मुकाबले प्रियंका के ज्यादा सशक्त होने की बात सही नहीं हो मगर अभी तक वे काफी हद तक पूरे देश के लिए एक रहस्यमयी शख्सियत बनी हुई हैं. इसके विपरीत राहुल को काफी हद तक लोग जानने-समझने लगे हैं. इसलिए कुछ समय तक प्रियंका आकर्षण के पैमाने पर राहुल से इक्कीस लगकर कांग्रेस में एक और सत्ताकेंद्र बन सकती हैं. यह गांधी परिवार नहीं चाहता है और इसलिए प्रियंका को अमेठी और रायबरेली की राजनीति तक सीमित रखा जा रहा है.

एक आकलन यह भी है कि राहुल को अपनी असल लड़ाई 2014 में लोकसभा चुनाव के वक्त लड़नी है. उस वक्त शायद सोनिया राजनीति में उतनी सक्रिय न रहना चाहें. तब प्रियंका राहुल की सबसे बड़ी ताकत साबित हो सकती हैं. उस समय नई-नई राजनीति में उतरी प्रियंका कांग्रेस को जबर्दस्त मजबूती तो देंगी मगर इतने कम समय में देश की निगाह में अपने भाई के लिए कोई बड़ी चुनौती नहीं बन सकेंगी.

अब अगर इन सभी बातों का लब्बोलुबाब निकालें तो प्रियंका गांधी जब भी सक्रिय राजनीति में आएंगी कांग्रेस के लिए तुरुप का इक्का साबित हो सकती हैं. लेकिन उनका राजनीति में आना खुद उन पर नहीं बल्कि काफी हद तक उनके भाई पर इससे पड़ने वाले प्रभाव पर निर्भर करेगा. इस संबंध में एक घटना याद करना जरूरी हैः पिछले आम चुनाव में उत्तर प्रदेश में जबर्दस्त सफलता के बाद राहुल और प्रियंका इकट्ठे मीडिया के सामने आए थे. उस वक्त पत्रकारों ने राहुल से पूछा था कि प्रदेश में अपनी सफलता का कितना श्रेय वे प्रियंका को देते हैं. सवाल पूरा होने से पहले ही प्रियंका का कहना था कि ‘इसका सारा श्रेय राहुल को जाता है.’ जबकि राहुल ने सफलता का श्रेय पूरी टीम को देकर इस सवाल को हवा में उड़ा दिया था.

अ ‘सुरक्षा’ के घेरे में

यह 26 सितंबर, 2009  की बात है. उस दिन दुर्गा अष्टमी थी और श्रद्धालु छत्तीसगढ़ में भानपुरी इलाके के बेड़ागुड़ा में पूजा-अर्चना के लिए पहुंच रहे थे. इस मौके पर इन लोगों के लिए यह आम बात ही थी कि इलाके का एक अति विशिष्ट व्यक्ति भी यहां पूजा करने आया है. हालांकि पूजन के बाद जो हुआ वह इतना भयावह था कि उसकी स्मृति यहां के लोगों सहित तब पूजा में शामिल होने आए दिनेश कश्यप को आज भी सिहरा देती है. अपने दबंग अंदाज की वजह से ‘टाइगर’ के रूप में चर्चित बलीराम कश्यप बेटे और बस्तर के सांसद दिनेश उस दिन यहां अपने भाई के साथ आए थे और उन पर नक्सलियों ने घात लगाकर हमला किया था. इस घटना में दिनेश के भाई तानसेन की मौत हो गई थी. उस घटना को याद करते हुए वे बताते हैं, ‘हमले से मैं बुरी तरह हिल गया.’ जेड सुरक्षा प्राप्त दिनेश को अब पुलिस की सुरक्षा पर कई तरह के संदेह हैं. उनके मुताबिक, ‘नक्सली गतिविधियों की टोह लेने के मामले में पुलिस का सूचना तंत्र हमेशा कमजोर साबित हुआ है. जहां तक  सर्चिंग का सवाल है तो पुलिस ने अब इस काम को दिखावा बना लिया है.’

2009 की इस बहुचर्चित घटना के बाद से पिछले महीनों के दौरान ऐसी कई घटनाएं हुई हैं जिनमें नक्सलवादियों ने राज्य के जनप्रतिनिधियों को निशाना बनाने की कोशिश की है. जाहिर है जब ऐसा होगा तो लोकतंत्र की एक बुनियादी प्रक्रिया – जनप्रतिनिधियों का लोगों से मिलने और उनकी समस्याओं को सुनकर उनका निराकरण करने की प्रक्रिया पर भी असर पड़ेगा. लचर सुरक्षा व्यवस्था के बीच आज राज्य में ऐसे कई इलाके और उसके जनप्रतिनिधि हैं जिनका आमना-सामना महीनों से नहीं हुआ है.

छत्तीसगढ़ का बड़ा भू-भाग कुछ समय पहले तक राजस्व के 15 और तीन पुलिस जिलों में ही सिमटा हुआ था, लेकिन एक जनवरी, 2012 को नौ नए जिलों के अस्तित्व में आने के साथ ही अब जिलों की संख्या 27 हो गई है. इन जिलों में बिलासपुर, कोरबा, जांजगीर-चांपा, बलौदाबाजार, बालोद, बेमेतरा और मुंगेली को छोड़ दें तो बाकी बचे 20 जिलों में नक्सलियों की जोरदार धमक देखने को मिलती है. पुलिस के आला अफसर यह मानते हैं कि अकेले बस्तर क्षेत्र में ही दस हजार से ज्यादा नक्सली सक्रिय हैं. सुरक्षा बलों का भी यह अनुमान है कि बस्तर के माओवादियों में से दो हजार आदिवासी महिलाएं ऐसी हैं जो कठिन सैन्य प्रशिक्षण के चलते खूनी छापामार दस्ते का अहम हिस्सा बनी हुई हैं. गृहमंत्री ननकीराम कंवर भी यह मानते हैं कि प्रदेश के 370 थाना क्षेत्रों में से 176 माओवादी हलचल से प्रभावित हैं. गृहविभाग के सूत्रों से मिली जानकारी बताती है कि गत एक दशक में नक्सलियों ने छोटी-बड़ी चार हजार से ज्यादा हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया है. इन घटनाओं के चलते सुरक्षा कर्मियों, नागरिकों समेत लगभग ढाई हजार लोग मारे गए हैं.

हिंसा की इन घटनाओं में बीते सालों के दौरान एक खास बदलाव भी देखा गया है. सरपंच, जनपद अध्यक्ष और राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता तो पहले से नक्सलवादियों के निशाने पर थे अब सांसदों और विधायकों के अलावा बड़े नेताओं के नाम भी इनकी हिटलिस्ट में आ गए हैं. कुछ समय पहले सीआरपीएफ और पुलिस बल की एक संयुक्त टीम ने जब एक नक्सली कैंप में धावा बोला था तब उन्हें मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी, केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम, उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल, विधायक राजकमल सिंघानिया समेत केंद्र और राज्य के करीब डेढ़ दर्जन नेताओं की तसवीरें मिली थीं. पुलिस को ये तसवीरें नक्सलियों की बैठकों और कार्रवाई के मामले में लगभग अछूते समझे जाने वाले एक नए क्षेत्र मैनपुर-गरियाबंद के वनग्राम पेंड्रा में छापामार कार्रवाई के दौरान हाथ लगी थीं. कैंप से बरामद की गई डायरियों और अन्य सामग्रियों की तफ्तीश के बाद टीम ने यह माना था कि ‘तसवीरें’ नक्सली सदस्यों को हिटलिस्ट से अवगत कराने के लिहाज से ही रखी गई थीं.

वैसे बस्तर के ज्यादातर जनप्रतिनिधि पहले से ही नक्सलियों की हिटलिस्ट में हैं. बस्तर में विधानसभा की 12 सीटों में से 11 पर सत्तारूढ़ दल का कब्जा है जबकि कांकेर और बस्तर के सांसद भी भाजपा से ही हैं. इन इलाकों के ज्यादातर जनप्रतिनिधियों को या तो नक्सलियों की ओर से धमकी मिल चुकी है या फिर वे उनके हमले का शिकार होते-होते बचे हैं. अंतागढ़ के विधायक विक्रम उसेंडी पर नक्सलियों ने 11 नवंबर, 2005 को तब हमला बोल दिया था जब वे कोयलीबेड़ा के जनसमस्या निवारण शिविर से लौट रहे थे.

धुर नक्सल प्रभावित इलाके दंतेवाड़ा के धाकड़ कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा के काफिले पर तो नक्सली कई मर्तबा हमला कर चुके हैं. विधानसभा के गत चुनाव में कर्मा को पराजित करने वाले भाजपा विधायक भीमा मंडावी भी यह मानते हैं कि उनकी जान पर खतरा मंडरा रहा है. इसी साल 12 जनवरी को नक्सलियों ने जब ग्राम गामावाड़ा के निकट उनके काफिले पर हमला किया तो एक बार फिर उन्होंने यह आरोप लगाया कि पुलिस प्रशासन सुरक्षा को लेकर घनघोर किस्म की लापरवाही बरत रहा है. ज्ञात हो कि एक आश्रम की अधीक्षिका सोनी सोढ़ी को बेहद वीभत्स तरीके से प्रताड़ना देने के मामले में चर्चा में आए पुलिस अधीक्षक अंकित गर्ग ने कुछ समय पहले उनकी सुरक्षा में कटौती कर दी है.

सुरक्षा कटौती से नाराज मंडावी ने बगैर फाॅलोगार्ड के कटेकल्याण और गाटम जैसे बेहद संवेदनशील इलाके का दौरा मोटर बाइक से ही किया था. हाल के हमले में मंडावी के साथ चल रहे दस्ते को किसी तरह का कोई नुकसान तो नहीं हुआ लेकिन उनके वाहन को क्षति जरूर पहुंची. सत्तारूढ़ दल के एक विधायक डमरूधर पुजारी का संबंध बस्तर से नहीं है, लेकिन वे जिस इलाके (बिंद्रानवागढ़)  का प्रतिनिधित्व करते हैं वहां भी अब नक्सलियों की धमक देखने को मिलने लगी है. मैनपुर तहसील के मुनगापदर गांव में रहने वाले पुजारी पिछले साल 11 अक्टूबर को गांववालों से मेल-मुलाकात करने के बाद अपने घर पर विश्राम कर रहे थे तभी पचास से ज्यादा सशस्त्र नक्सलियों ने उनके आवास पर धावा बोल दिया था. इस हमले में उन्हें शारीरिक तौर पर तो कोई क्षति नहीं पहुंची लेकिन नक्सली उनकी सुरक्षा में तैनात किए गए पुलिस कर्मियों की सर्विस रिवाल्वर व कारतूस लूट कर ले गए.

‘कई बार सुरक्षा के नाम पर ऐसे पुलिसकर्मी उपलब्ध कराए जाते हैं जिन्हें खुद सुरक्षा की जरूरत होती है’

पिछले साल 20 जनवरी को नक्सलियों ने रायपुर से मात्र एक सौ साठ किलोमीटर की दूरी पर उदंती के जंगल में प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नंदकुमार पटेल के काफिले पर भी धावा बोला था. हमले में नंदकुमार पटेल तो बच गए थे लेकिन उनके चार कार्यकर्ताओं को अपनी जान गंवानी पड़ी थी. इस मामले की गूंज विधानसभा के अमूमन हर सत्र में सुनाई देने लगी है.

नक्सली हमलों से आशंकित अपना दर्द साझा करते हुए जगदलपुर क्षेत्र से भाजपा विधायक संतोष बाफना कहते हैं, ‘विधानसभा सत्र शुरू होने पर राजधानी रायपुर का सफर तय करना ही होता है, लेकिन जगदलपुर से रायपुर आने-जाने की प्रक्रिया मानसिक तौर पर कष्ट पहुंचाने वाली साबित होती है. सब जानते हैं कि जगदलपुर से रायपुर के बीच भानपुरी, केशकाल घाटी सहित कई क्षेत्र ऐसे हैं जो बेहद संवेदनशील हैं. इधर जब से नक्सलियों ने राजधानी को बस्तर से जोड़ने वाले मार्ग को विस्फोट से उड़ाया है तब से विशेष सावधानी बरतनी पड़ रही है.

धमतरी जैसे व्यापारिक इलाके में भी नक्सलियों की मौजूदगी देखने को मिल रही है, इसलिए एहतियात के तौर पर गाड़ियां बदल-बदलकर आवाजाही करनी पड़ती है.’ बाफना पुलिस-प्रशासन द्वारा मुहैया कराई जाने वाली सुरक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से लचर बताते हुए आगे कहते हैं, ‘कहीं भी आने-जाने से पहले इलाके के थानों से अतिरिक्त सुरक्षा पाने के लिए सभी सूचना आवश्यक तौर पर दी ही जाती है लेकिन कई बार सुरक्षा के नाम पर ऐसे पुलिस कर्मी उपलब्ध करा दिए जाते हैं जिन्हें स्वयं ही सुरक्षा की जरूरत होती है.’

भानुप्रतापपुर क्षेत्र के विधायक ब्रह्मानंद मूल रूप से चारामा तहसील के ग्राम कसावाही के रहने वाले हैं. वे भी पिछले कुछ समय से दुर्गकोंदल, वीरागांव, केवटी, भेजा और बरबसपुर जैसे क्षेत्रों का दौरा नहीं कर पाए हैं. ब्रह्मानंद बताते हैं कि वे 2008 के विधानसभा चुनाव के दौरान आराम से धुर नक्सल इलाके की यात्रा कर लेते थे लेकिन इधर जब से इस बात की सूचना मिली है कि दुर्गकोंदल के एक बड़े हिस्से पर नक्सलियों ने अपना कब्जा जमा लिया है तब से उन्होंने इलाके का दौरा ही बंद कर दिया है. ब्रह्मानंद कहते हैं, ‘एक जिम्मेदार जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र के लोगों से संवाद बनाए रखने के लिए कई तरह की जुगत करता है, लेकिन नक्सलियों ने ऐसी खौफनाक परिस्थिति बना दी है कि सारी जुगत फेल हो गई है. जिस मार्ग से क्षेत्र पहुंचने की कोशिश करते हैं उस मार्ग पर खतरा दिखाई देता है. मजबूरी ऐसी है कि चाहकर भी लोगों से मिलना-जुलना नहीं हो पा रहा है.’

विधायक बैदूराम कश्यप का क्षेत्र चित्रकोट कभी केशलूर का हिस्सा था. वैसे तो केशलूर भी नक्सल प्रभावित क्षेत्र है लेकिन बैदूराम कहते हैं, ‘परिसीमन में केशलूर के अलग हो जाने के बाद बिंता, कबूनार, हर्राकोनार, बदरेगा, मारीकोडेर और बोदली जैसे अति संवेदनशील क्षेत्र शामिल हो गए हैं जहां पहुंचना कठिन हो गया है.’ बस्तर के जिला मुख्यालय पर अपनी आमद दर्ज करने के लिए केशकाल की खतरनाक घाटी को पार करना ही होता है. अब से कुछ अरसा पहले तक इस इलाके को महज घाटी की वजह से खतरनाक माना जाता था, लेकिन अब इलाके की चर्चा नक्सलियों के सर्वाधिक सक्रिय ‘केशकाल दलम’ की वजह से भी होती है. इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले सेवकराम नेताम को वैसे तो नक्सलियों की ओर से अब तक किसी तरह की धमकी नहीं मिली है, लेकिन हमले की आशंका के मद्देनजर नेताम ने भी बड़ेडोंगर पठार के निचले हिस्से में आने वाले लगभग 20 पंचायतों में आना-जाना बंद कर दिया है.

बस्तर से इतर कुछ अन्य जगहों की बात करें तो दीगर क्षेत्रों के जनप्रतिनिधियों की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है. सरगुजा के सीतापुर इलाके का प्रतिनिधित्व करने वाले  कांग्रेस विधायक अमरजीत भगत भी नक्सलियों की सक्रियता की वजह से बहुत-से क्षेत्रों का दौरा नहीं कर पा रहे हैं. भगत कहते हैं, ‘सरकार ने शायद यह मान लिया है कि सारे नक्सली केवल बस्तर में ही सक्रिय हैं. हकीकत यह है कि उनकी सक्रिय मौजूदगी अंबिकापुर, बतौली, पाइपजाम, खेरजू कुनमेरा, पाइपजाम, बड़ादमाली और छत्तीसगढ़ का तिब्बत समझे जाने वाले मैनपाट में भी देखने को मिलती है.’ दौरे के लिए सुरक्षा बढ़ाए जाने के सवाल पर भगत कहते हैं, ‘हम तो विपक्ष में हैं, भला सरकार को हमारी सुरक्षा की चिंता क्यों होगी.’ भगत बताते हैं कि ठीक-ठाक सुरक्षा व्यवस्था को लेकर उन्होंने कई मर्तबा पुलिस मुख्यालय के आला अफसरों से पत्र व्यवहार किया है लेकिन किसी ने भी उनकी मांगों पर विचार ही नहीं किया. कुछ इसी तरह की शिकायत धमतरी जिले के  सिहावा क्षेत्र की महिला विधायक अंबिका मरकाम की भी है. वे कहती हैं,  ‘मैंने अपनी और घर की सुरक्षा के लिए अतिरिक्त सुरक्षा बल की मांग की थी, लेकिन धमतरी में पदस्थ किए जाने वाले पुलिस अफसरों ने मेरी मांग को कभी भी महत्वपूर्ण नहीं माना जबकि सब जानते हैं कि नगरी-सिहावा इलाके के एक गांव रिसगांव में नक्सलियों ने बारूदी सुरंग बिछाकर 13 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था.’ आसपास के इलाकों में नक्सलियों की धुआंधार बैठकों की सूचनाओं से सतर्क रहने वाली अंबिका बताती हैं कि मारागांव, मोहेरा, बोरइ और धमतरी के आखिरी छोर गुटकेल में भी नक्सलियों के सक्रिय होने की सूचना यदा-कदा मिलती है, लेकिन पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती है.

मुख्यमंत्री रमन सिंह के विधानसभा क्षेत्र राजनांदगांव से महज 25 किलोमीटर की दूरी पर एक क्षेत्र है डोंगरगांव. इस इलाके में बहने वाली बाघनदी को पार करने के बाद महाराष्ट्र की सीमा लग जाती है. यहां के बोरतालाब, बूढ़ानछापर, पीपरखार, सीताकोटा, कारूटोला जैसे क्षेत्रों में महाराष्ट्र इलाके में सक्रिय रहने वाले नक्सलियों की आवाजाही देखने को मिलती है. इलाके के जनप्रतिनिधि खेदूराम कहते हैं,  ‘मैं वहां जाता ही नहीं जहां नक्सली रहते हैं.’ क्या इससे विकास प्रभावित नहीं होता पूछने पर खेदूराम जवाब देते हैं, ‘नक्सलियों को यह बात समझनी होगी कि यदि जनप्रतिनिधि गांव में पहुंचेंगे तो ही वहां विकास की उम्मीद की जा सकती है.’

कुल मिलाकर इस समय अपनी सुरक्षा को लेकर आशंकित जनप्रतिनिधियों के चलते छत्तीसगढ़ व्यावहारिक लोकतंत्र के कई महत्वपूर्ण कवायदों में फिसड्डी साबित हो रहा है.

चुनावी वैतरणी की गाय

इसे पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में चुनावी गहमागहमी का असर समझा जाए या विपक्ष के आक्रामक तेवरों से उपजी मजबूरी, लेकिन मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार की हाल की कवायदों से साफ हो गया है कि यहां अगले विधानसभा चुनाव की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं. इस चुनावी तैयारी का सबसे विरोधाभासी पहलू यह है कि जिस भाजपा ने आज से लगभग आठ साल पहले विकास को मुद्दा बनाकर कांग्रेस से सत्ता हथियाई थी वह अब अपने हिंदूवादी एजेंडे पर दोबारा लौटती दिख रही है.

पिछले साल अजय सिंह (कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. अर्जुन सिंह के पुत्र) की बतौर नेता प्रतिपक्ष और कांतिलाल भूरिया की कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर ताजपोशी हुई थी. उसके बाद राज्य में पार्टी विधानसभा से लेकर सड़कों तक अचानक आक्रामक हो गई. गौरतलब है कि विधानसभा के शीतकालीन सत्र में भाजपा के दोनों कार्यकालों के दौरान पहली बार कांग्रेस ने अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था. यह पहला मौका था जब सत्ताधारी भाजपा का आत्मविश्वास कुछ हिलता दिखा. लेकिन इसके बाद से मध्य प्रदेश में भाजपा कांग्रेसी आक्रामकता का जवाब देने और मूल हिंदू वोट बैंक को रिझाने के लिए प्रतीकों की राजनीति तेज करने में जुट गई है. स्कूलों में सूर्य नमस्कार को अनिवार्य करने से लेकर पिछले साल गीता सार को स्कूली पाठ्यक्रमों में शामिल करने तक के मसले राष्ट्रीय स्तर पर काफी चर्चा और विवाद का विषय रहे हैं. इसी कड़ी में ताजा विवाद राज्य की भाजपा सरकार द्वारा शुरू किए गए बछड़ा बचाओ अभियान से जुड़ा है.

इस साल की शुरुआत में ही भोपाल में ‘भारतीय गौवंश संरक्षण व संवर्धन’ के लिए एक राष्ट्रीय कार्यशाला आयोजित हुई थी. इसी कार्यक्रम में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक नए ‘बछड़ा बचाओ अभियान’ की घोषणा की. इस मौके पर मुख्यमंत्री का कहना था कि सरकार ‘मध्य प्रदेश गौवंश वध प्रतिषेध कानून’ का सख्ती से पालन करेगी और इसके क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए हर जिले में विशेष अधिकारी नियुक्त किए जाएंगे. इस कार्यक्रम के दौरान मंच से भाजपा नेताओं द्वारा गाय संरक्षण के लिए कुछ ऐसे हास्यास्पद तर्क भी दिए गए कि तुरंत ही राज्य सरकार मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस सहित मीडिया के निशाने पर आ गई. ‘1984 के भोपाल गैस कांड में सिर्फ वे लोग ही बच पाए जो गाय के गोबर से लिपे थे’, ‘ परमाणु विकिरण से सिर्फ गाय का गोबर ही हमें बचा सकता है’ और ‘मरने से बचना है तो गाय की शरण में जाना होगा’ जैसे कई विवादास्पद बयानों और पशुपालन मंत्री अजय विश्नोई द्वारा गायों की देखभाल के लिए हर जिले को दो से तीन करोड़ रुपये का फंड दिए जाने की घोषणा के बाद यह स्पष्ट हो गया कि भाजपा के लिए यह मसला अगले साल बाद होने वाले चुनावों की पृष्ठभूमि तैयार करने से जुड़ा है.

गौरतलब है कि लंबे समय से केंद्र में अटके ‘मध्य प्रदेश गौवंश वध प्रतिषेध कानून’ को 22 दिसंबर, 2011 को राष्ट्रपति से मिली स्वीकृति के बाद राज्य में लागू कर दिया गया है. इस कानून के तहत गौवंश की हत्या करने वाले या गाय का मांस खाने वाले किसी भी व्यक्ति को सात साल की कैद के साथ-साथ 5,000 रुपये का आर्थिक दंड भी भरना पड़ेगा. कानून में यह प्रावधान भी है कि हेड-कांस्टेबल या कोई भी ‘अधिकृत व्यक्ति’ मात्र गौवंश की हत्या या गाय के मांस खाए जाने की आशंका और संदेह के आधार पर ही छापा मार कर गिरफ्तारी कर सकता है. इस मामले में अदालत में अपनी बेगुनाही साबित करने का पूरा दारोमदार आरोपित पर होगा. एक ओर जहां विपक्ष इसे अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने और हिंदू वोट बैंक को मजबूत करने के लिए लाए गए कानून के तौर पर देख रहा है, वहीं जानकार कहते हैं कि राज्य में कानून को लागू करने और गौ-मांस की जांच करने के लिए जरूरी आधारभूत ढांचा ही मौजूद नहीं है. ऐसे में यह कानून बड़ी संख्या में अल्पसंख्यकों की संदेह-आधारित गिरफ्तारियों का कारण बन सकता है.

इस मसले पर भाजपा की बढ़ती आक्रामकता का एक उदाहरण तब देखने को मिला जब हाल ही में छिंदवाडा जिले के एक 25 वर्षीय व्यापारी की बजरंग दल के कार्यकर्ताओं द्वारा की गई पिटाई का मामला सामने आया. पिछले साल 31 दिसंबर की शाम को बजरंग दल के कुछ कार्यकर्ताओं ने अनीश कुरैशी नाम के एक व्यापारी का आधा सर मुंडवा दिया और उसकी आधी मूंछ भी काट दी. बजरंग दल कार्यकताओं का आरोप था कि अनीश गौ-हत्या करने जा रहा था और इसीलिए उन्होंने उसकी पिटाई की. अनीश के पिता असलम कुरैशी का कहना है कि उनका लड़का उमरानाला बाजार में पशुओं को बेचने जा रहा था जब रास्ते में बजरंग दल कार्यकर्ताओं ने खरीदी की वैधानिक रसीद फाड़ कर उसे इस नए कानून के नाम पर धमकाना शुरू कर दिया और उसके साथ मारपीट की. इस घटना की सुनवाई फिलहाल अदालत में चल रही है. पर नए मध्य प्रदेश गौ वंश वध प्रतिषेध कानून और उसके क्रियान्वयन के मद्देनजर इस घटना की प्रदेश में अभी तक चर्चा बनी हुई है.

‘चुनाव के एक साल पहले भाजपा की यह चुनावी रणनीति उसके लिए जोखिमभरी साबित हो सकती है’

भारतीय धर्म और इतिहास के विशेषज्ञ जितेंद्र सुमन मामले के धार्मिक-राजनीतिक  मंतव्यों पर बात करते हुए कहते हैं, ‘प्रतिस्पर्धी प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली में जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए अक्सर धर्म आधारित चिह्नों का प्रयोग किया जाता रहा है. गाय निस्संदेह हिंदू धर्म के पवित्र चिह्नों में से एक है और इसे किसी तरह की हानि पहुंचाने की सख्त मनाही है. ऐसे में गाय पर संकट को धर्म पर संकट के तौर पर देखा जाता है और राजनेता इसे भुनाने की कोशिश करते हैं.’

अपने नए ‘बछड़ा बचाओ अभियान’ के तहत मध्य प्रदेश सरकार गौवंश को बचाने की पुरजोर कोशिश तो कर रही है पर एक व्यापक पशु-धन और वन्य जीव संरक्षण नीति की कमी इन अभियानों को पशुधन बचाने की बजाय वोट बढ़ाने की नीयत से शुरू किए गए अभियानों में तब्दील कर रही है.  राज्य में बाघों पर काम कर रहे वन्य जीव विशेषज्ञ अजय दुबे बताते हैं, ‘ पिछले आठ वर्षों में अगर प्रदेश का कोई क्षेत्र सबसे ज़्यादा उपेक्षित रहा है तो वह वन्य-जीव संरक्षण है. प्रदेश सरकार के पास न तो कोई ठोस वन्य जीव संरक्षण नीति है और न ही पशुधन संरक्षण नीति. आज राज्य में जितनी गौशालाएं मौजूद हैं उनकी स्थिति भी कितनी दयनीय है, यह सबको पता है. पिछले कई सालों से हम वन्य जीव संरक्षण की लड़ाई लड़ रहे हैं, पर सरकार से हमेशा उपेक्षा ही मिली. हर बार सिर्फ घोषणाएं हुईं और उनके क्रियान्वयन के नाम पर भ्रष्टाचार.

सरकार बाघों और दूसरे वन्य जीवों को नहीं बचाना चाहती, यह तो साफ हो चुका है. पर बछड़ों को बचाने के लिए भी जिस ईमानदार नीयत की जरूरत है वह कम से कम इस सरकार में तो नहीं है.’ वहीं इस मामले को कृषि अर्थव्यवस्था और पोषण सुरक्षा से जोड़ते हुए भोजन के अधिकार से जुड़े कार्यकर्ता सचिन जैन कहते हैं, ‘ मौजूदा कानून पूरी तरह राजनीति से प्रेरित है. एक सर्वे के अनुसार सन 2004 से 2010 के बीच मध्य प्रदेश में गौवंश मांस की खपत कई गुना बढ़ी है. ऐसे में सरकार की गाय से जुड़ी सारी चिंताओं का चुनाव के सिर्फ एक साल पहले सामने आना भी सवाल खड़े करता है. फिलहाल तो यह कानून गौशालाओं के नाम पर प्रदेश भाजपा सरकार द्वारा विश्व हिंदू परिषद और संघ के लिए नए दफ्तर खोलने और अपनी राजनीतिक जड़ें मजबूत करने की एक कवायद तक सीमित लगता है.’

इधर विपक्षी पार्टियों ने भी राज्य-सरकार के ‘बछड़ा बचाओ अभियान’, ‘गौ अभयारण्य’ , ‘गीता सार’ और ‘सामूहिक सूर्य नमस्कार’ के जरिए अपना वोट बैंक मजबूत करने की कवायदों के खिलाफ मोर्चा तान दिया है. राज्य सरकार के इस नए अभियान के खिलाफ नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह  का बयान था, ‘मुख्यमंत्री महोदय को मेरी सलाह है कि वे बछड़ों को बचाने की बजाय राज्य में भुखमरी और कुपोषण से मर रहे हजारों बच्चों को बचाने की कोशिश करें.’

विकास के मुद्दों से उलट इस बार अचानक हिंदूवादी एजेंडों के जरिए प्रचार पाने की कोशिश पर राज्य के राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा को इससे राज्य में नुकसान हो सकता है. वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक राशिद किदवई कहते हैं,’ भाजपा की राजनीतिक रणनीति में आए इस गंभीर परिवर्तन को तर्कसंगत नहीं ठहराया जा सकता. मुझे लगता है कि यह खुद मुख्यमंत्री का निर्णय नहीं होगा क्योंकि आम तौर पर शिवराज सिंह चौहान स्पष्ट तौर पर इतने पक्षपाती और उलझे बयान देने से बचते हैं. ताजा घटनाओं और कार्यक्रमों में उनके सलाहकारों की भूमिका हो सकती है. जो भी हो लेकिन यह जोखिम भरी रणनीति है. एक ऐसे राज्य में जहां इतनी बड़ी मुसलिम आबादी रहती हो वहां इतनी आक्रामक हिंदुत्व रणनीति सरकार को भारी पड़ सकती है. ऐसे समय में जब चुनावों में सिर्फ एक साल बचा हो और सत्ता विरोधी असर पहले ही मुश्किलें बढ़ा सकता हो, तब इस तरह की रणनीति को सिर्फ ‘रिस्की’ ही कहा जा सकता है.’

बहरहाल चुनावी लोकतंत्र के इस पंचवर्षीय अनुष्ठान के संकेत मध्य प्रदेश में पार्टियों के स्तर पर मिलने लगे हैं. और विकास के मुद्दों पर सत्ता में आई भाजपा द्वारा धार्मिक प्रतीकों की राजनीति से ये संकेत भी मिल रहे हैं कि उसके लिए अगले साल का चुनावी समर आसानी से जीत पाना अब उतना भी सहज नहीं.

आग और जलते सवाल

लगभग एक सदी पुरानी आग से जूझते झरिया के सामने क्या पुनर्वास के अलावा कोई और विकल्प नहीं है? और क्या पुनर्वास से शहर के लोगों की जिंदगी वास्तव में सुधरने वाली है? सवाल यह भी कि असल मुद्दा आग है या फिर झरिया के नीचे दबा बेशकीमती कोयला. अनुपमा की रिपोर्ट

बिदवा देवी हल्की आहट से ही हड़बड़ाकर ऐसे डरते हुए उठती हैं जैसे उनके जले और ढहे हुए घर में, जहां पीने को पानी तक नहीं, वहां कोई चोरी-डकैती करने आया हो. अजनबी चेहरे को देख वे आधी नींद में ही अपनी भाषा में बड़बड़ाने लगती हैं, ‘मैं बस आराम करने आई थी यहां, लेटी तो नींद आ गई, यहां रहती नहीं हूं. बेलगढि़या में रहती हूं. यह घर छोड़ दिया है हमने.’

पिछले महीने बिदवा से हमारी मुलाकात बोकापहाड़ी के टूटे हुए घर में हुई थी. कभी आबाद रही इस बस्ती में अब बर्बादी की कहानियों के अवशेष बिखरे पड़े हैं.  बोकापहाड़ी की बसाहट झरिया शहर से कुछ ही दूरी पर है. वही झरिया जहां धरती के नीचे दुनिया की सबसे बड़ी आग पिछले नौ दशक से भी अधिक समय से धधक रही है. आग के नाम पर  यहां के लोगों को बेलगढि़या में बसा दिया गया है. बिदवा उन्हीं कई लोगों में से एक है जो पुनर्वास के नाम पर वहां से लगभग 10-12 किलोमीटर दूर बसे बेलगढि़या में तो जाकर बस गए हैं लेकिन सूरज निकलने से पहले ही बोकापहाड़ी इलाके में चले आते हैं. कोयला निकालने. कोयले के बगैर जिंदगी की कल्पना इन लोगों के लिए बेमानी है.

लेकिन अब बोकापहाड़ी ही नहीं, उसके पास का झरिया शहर भी आहिस्ते-आहिस्ते कालखंड के उस मुहाने पर पहुंच रहा है जहां कई बिदवाओं को मोह-माया-ममता छोड़कर सदा के लिए अपनी माटी को भूल जाना होगा. झारखंड के धनबाद जिले में पड़ने वाले झरिया कोयलांचल की धरती के गर्भ में मौजूद कोयला भंडार को कुदरत का बेशकीमती वरदान माना जाता रहा है. अब यही वरदान अभिशाप बन गया है. आग के चलते अंदर से खोखले हो चुके इस इलाके के बारे में कई अध्ययनों के बाद अमेरिका की पिट्सबर्ग कंपनी भविष्यवाणी कर चुकी है कि अगर दस वर्षों के अंदर इसे खाली नहीं कराया गया तो यहां कभी भी दुनिया की सबसे बड़ी भू-धंसान की घटना घट सकती है.

लेकिन झरियावाले ऐसी किसी रिपोर्ट की बजाय खुद ही बहुत अच्छे से जानते हैं कि कई कारणों से धीरे-धीरे उनका शहर वहां पहुंच चुका है जिसे आग में मिलकर खाक हो जाना है. इसकी एक वजह राजनीति भी है और उससे बड़े स्तर पर झरिया के नीचे उच्च कोटि के कोयले का होना. अलग-अलग आंकड़ों के मुताबिक इसमें से अब तक तीन करोड़ 17 लाख टन जलकर राख हो जाने के बावजूद एक अरब 86 करोड़ टन अब भी बचा हुआ है.

सबसे बड़ा सवाल झरिया के उन बाशिंदो के सामने है जिन्होंने कई पीढ़ियों पहले यहां आकर पनाह ली और इसी शहर में रहते हुए अगली कई पीढ़ियों के लिए हसीन ख्वाब भी बुन डाले. व्यवसायी नवल ओझा कहते हैं, ‘पुनर्वास के नाम पर बद से बदतर स्थिति में भेजने का इंतजाम किया जा रहा है. एक तरफ कुआं, दूसरी तरफ खाई का विकल्प है तो बेहतर है कि हम यहीं मर जाएं. कम से कम मरते वक्त अपनी जमीन पर मरने का सुकून तो रहेगा!’ ओझा आगे पूछते हैं, ‘ईमानदारी से बीसीसीएल (भारत कोकिंग कोल लिमिटेड) प्रबंधन, नेता और प्रशासन बताए कि क्या सच में हमें नहीं बचाया जा सकता था.’ देशबंधु सिनेमा हॉल के मालिक और झरिया बचाओ आंदोलन के नेता गोपाल अग्रवाल कहते हैं, ‘अब भी बचाया जा सकता है हमारे झरिया को. कोई तो उपाय होगा ही!’ उधर, इंडियन स्कूल ऑफ माइंस के प्राध्यापक रहे डॉ प्रमोद पाठक कहते हैं, ‘अब झरिया को अपना वजूद खोना ही होगा, बचाने का कोई उपाय नहीं है.’

बार-बार झरिया ऐक्शन प्लान की बात होती है.  क्या सच में इससे इतनी बड़ी चुनौती से पार पाया जा सकता है?

पांच साल बाद झरिया की आग का शताब्दी वर्ष मनाया जाएगा. 1916 में पहली बार भौंरा की एक कोयला खदान में आग लगी थी. इसके बाद एक-एक कर नये इलाके में आग का फैलाव होता गया. अब 70 जगहों पर भौंरा की तरह आग ही आग है.हाल हीं में झरिया के एक कॉलेज के बहाने आग की कथा-कहानी फिर चर्चा में आई. आग पर बसे इस शहर वालों का आग के संग खेलना, जीना-मरना नियति की तरह है. लेकिन जब यह सूचना मिली कि झरिया शहर में बसे आरएसपी कॉलेज से बस कुछ ही दूरी पर आग पहुंच गई है तो खलबली मच गई. झरिया राजा शिवप्रसाद के नाम से 65 साल पहले बने इस कॉलेज में लगभग 6500 विद्यार्थी पढ़ते हैं. बताया गया कि आग इस कॉलेज से मात्र 100 मीटर की दूरी पर पहुंच गई है. कॉलेज को हटाने की बात हुई जिसका विरोध हुआ. झरियावासी जानते हैं कि आरएसपी कॉलेज हट गया तो शहर से लोगों को हटाने की प्रक्रिया भी आसान हो जाएगी. दबाव बना तो कॉलेज को हटाने का फैसला रुका.

कॉलेज को बचाने के लिए ट्रेंच कटिंग की बात हुई. हर रोज 6500 क्यूबिक मीटर मिट्टी की कटाई करके जल्द ही दक्षिणी छोर में ट्रेंच तैयार करने की बात हुई. तहलका से बातचीत में झरिया विधायक कुंती सिंह का कहना था कि आरएसपी कॉलेज को किसी हाल में नहीं उजड़ने दिया जाएगा. धनबाद के उपायुक्त सुनील कुमार वर्णवाल ने कहा, ‘बचाने की कोशिश हो रही है.’ बीसीसीएल ने कहा कि ट्रेंच कटिंग में कम से कम 20  महीने लगेंगे. उपायुक्त वर्णवाल ने कहा कि काम 10 महीने में ही पूरा कर लिया जाए. बयानबाजी ऐसे ही होती रही, जैसे कोयले में लगी हुई आग भी शासन-प्रशासन और नेताओं के फरमान से अपनी गति कम या ज्यादा कर लेगी. सेंट्रल इंस्टीट्यूट आॅफ माइनिंग फ्यूएल रिसर्च के एन सहाय कहते हैं कि आग के बढ़ने की गति लगभग पांच मीटर प्रतिमाह है.

आरएसपी कॉलेज को बचाने की जुबानी कवायद से काॅलेज के आसपास बसे लगभग 200 परिवार खुश हुए कि कॉलेज के बहाने ही सही, वे भी बच जाएंगे. लेकिन सवाल उठा कि कब तक. आज ही क्यों इतनी हड़बड़ी है? क्या आग आज ही इतनी विकराल हुई है? धनबाद के डिप्टी मेयर नीरज सिंह कहते हैं, ‘2006 से जब कॉलेज की ओर आग तेजी से बढ़ने के खतरे की चेतावनी दी जा रही थी, तब ट्रेंच कटिंग क्यों नहीं हुई? 2002 में ही डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने भी कह दिया था कि जल्दी से जल्दी इंतजाम होना चाहिए, फिर भी बीसीसीएल प्रबंधन क्यों सोया रहा?’ वरिष्ठ पत्रकार ओम प्रकाश अश्क पूछते हैं, ‘बकरे की अम्मा आखिर कब तक खैर मनाएगी. ट्रेंच से आखिर कितने दिनों तक बचाव होगा? 10 साल, 15 साल, उसके बाद क्या?’

अश्क की बातों को ही अपने तरीके से पुष्ट करते हुए साउथ इस्टर्न कोल लिमिटेड के पूर्व कार्यकारी निदेशक एनके सिंह कहते हैं, ‘यह कोई कारगर उपाय नहीं है. दूसरी दिशा से भी तो आग धधक ही रही होगी. जब तक उस दिशा से बचाव के उपाय किए जायेंगे, दूसरी ओर से आग पहुंच जाएगी.’

यह सच भी है. भूमिगत आग वाली देश भर की नौ कोयला कंपनियों के 158 क्षेत्रों में से 70 सिर्फ बीसीसीएल के झरिया कोयला क्षेत्र में हैं. झरिया इलाका चारों ओर से 17.32 वर्ग किलोमीटर में फैले 70 आग क्षेत्रों की चपेट में है. पहली बार आग का पता 1916 में ही चला था. तब निजी कंपनियों के जिम्मे सारा कारोबार था तो माना गया कि निजी कंपनियों को लोगों की परवाह क्यों होगी. उन्हें तो बस कोयले से ही मतलब है. 1971 में कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण हुआ तो आस जगी कि अब तो सब सरकारी है, लोगों के जान-माल की भी चिंता होगी लेकिन 40 साल से बीसीसीएल के लिए भी कोयला ही प्रमुख बना रहा, लोग हाशिये पर रहे.

बड़ा सवाल यह भी है कि झरिया के करीब पांच लाख लोगों की जिंदगी क्या पुनर्वास से कुछ सुधरने वाली है

अब इतनी बातों के बाद ताजा जानकारी यह है कि ट्रेंच कटिंग को लेकर जुबानी जंग के बाद जो काम शुरू हुआ और 30 फुट चौड़ाई, 60 फुट गहराई के साथ ट्रेंच काटने का जो काम शुरू हुआ था अब वह भी वर्चस्व और मूंछ की लड़ाई की भेंट चढ़ते हुए गति से दुर्गति की राह पर है. उसकी रफ्तार कम हो गई है. उधर, आग अपनी गति से बढ़ती जा रही है.

उजाड़ने और बसने के बीच का प्रश्न

झरिया बचाओ, नया झरिया बनाओ-बसाओ, इन्हीं दो अभियानों के बीच झरिया की आबादी पिस रही है. बीसीसीएल के अधिकारियों से यदि आग और पुनर्वास की स्थिति पर बात की जाती है तो एक सधा हुआ जवाब मिलता है – झरिया ऐक्शन प्लान चल रहा है, सभी समस्याओं से पार पा लिया जाएगा. लेकिन क्या सच में एक्शन प्लान के जरिए इतनी बड़ी चुनौती से पार पाया जा सकता है?

पहला सवाल तो यही है कि क्या सच में झरिया को कहीं और बसा देना ही विकल्प है. जानकार बताते हैं कि आग तो सिर्फ एक पहलू है. कई नजरें इस शहर के नीचे पड़े कोकिंग कोल पर हैं, जिसकी मांग दुनिया भर में सबसे ज्यादा है. उसी के लिए शहर को किस्तों में मारा जा रहा है. ‘झरिया में आग’ नामक पुस्तिका निकालकर इस विषय पर शोध करने वाले पत्रकार अमित राजा कहते हैं, ‘देखते रहिए कि कैसे विवश कर लोगों को झरिया छोड़ने पर मजबूर किया जाता है. एक-एक कर सारी सुविधाएं शहर से छीन ली जाएंगी. तब आज जिद पर अड़े झरियावाले मजबूरी में यहां से विदा हो जाएंगे.’

कुछ हद तक इन बातों में सच्चाई भी है. जब झरिया में रेल का परिचालन बंद हुआ था तो झरियावाले आक्रोशित हो गए थे. दशहरे में रावण के साथ तत्कालीन रेलमंत्री नीतीश कुमार और बीसीसीएल के सीएमडी का पुतला भी जलाया गया था. लेकिन इससे आगे वे कुछ कर भी नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने नियति को स्वीकार कर लिया.

पुनर्वास की हकीकत

झरिया और रानीगंज कोलफील्ड इलाके में बसे लाखों लोगों को कहीं और बसाने और भूगर्भ खदानों में लगी आग को बुझाने के साथ-साथ इस क्षेत्र के विकास को देखते झरिया एेक्शन प्लान की योजना को काफी महत्वपूर्ण बताया जा रहा है. इस योजना का प्रस्ताव 1999 में दिया गया था. सबसे पहले मंजूरी के लिए इसे कोयला मंत्रालय को भेजा गया. पिछले साल राज्य सरकार ने भी इसे मंजूरी दे दी. इस योजना के तहत बीसीसीएल और ईस्टर्न कोल लिमिटेड (ईसीएल) द्वारा पुनर्वास और बुनियादी सुविधाओं का विकास करने के साथ ही आग बुझाने के लिए लगभग 9657 करोड़ रुपये खर्च किए जाने की योजना है. यह किसी भी सरकारी कंपनी द्वारा शुरू की जाने वाली सबसे बड़ी पुनर्वास व मुआवजा योजना है जो 1999 से ही अटकी पड़ी थी. बीसीसीएल के अनुसार इसे पूरा करने में 10 वर्षों का समय लगेगा. योजना के तहत करीब 79 हजार परिवारों के पांच लाख लोगों को झरिया के खतरनाक क्षेत्र से निकालकर पुनर्वासित किया जाएगा.

पर सवाल यह है कि क्या पुनर्वास से लोगों की जिंदगी सुधरेगी. इस क्षेत्र से तकरीबन पांच लाख की आबादी को पुनर्वासित किया जाना है. इसके लिए लगभग 79,179 परिवारों के लिए मकान बनाए जाने की बात की जा रही है. इनमें से लगभग 46,000 परिवार बीसीसीएल कर्मचारी ही हैं. इस योजना के तहत लोगों को बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराए जाने की बात की गई है, लेकिन बोकापहाड़ी के लोगों को पायलट प्रोजेक्ट के तहत जिस तरह जंगल के बीच बनी एक कॉलोनी बेलगढि़या में बसाया गया है उससे पुनर्वास की सार्थकता पर सवाल खड़े होते हैं. कई घरों में न तो बिजली है, न पानी. बच्चों का नामांकन भी नहीं हुआ. कोई हाट-बाजार भी नहीं. रोजगार के लिए लोगों के पास कोई विकल्प नहीं है, इसलिए वे दिन भर कोयला निकालने कोल क्षेत्रों में आ जाते हैं और फिर शाम को घर लौट जाते हैं. झरिया से 10-12 किलोमीटर दूर बेलगढि़या में घर इनके छोटे-छोटे हैं कि पांच लोगों के परिवार को सिर्फ सोने की जगह मिल पाएगी. रसोईघर भी बनाया गया है लेकिन इतना छोटा कि वहां दो लोग भी मुश्किल से खड़े हो सकें. एक छोटा-सा टॉयलेट भी है, लेकिन पानी ही नहीं मिलता तो कई लोगों ने उसे भरकर कमरे के रूप में तब्दील कर दिया है जिसमें वे अपनी बकरियां और मुर्गियां रखते हैं. आबाद शहर झरिया में रह रहे लोगों के ऐसे ही पुनर्वास के लिए झरिया ऐक्शन प्लान के तहत  झरिया रीहैबिलिटेशन डेवलपमेंट अथॉरिटी (जेआरडीए ) का गठन किया गया है. जेआरडीए और बीसीसीएल की इस योजना को अर्बन डेवलपमेंट कॉरपोरेशन की मदद से पूरा किया जाना है.

कोयले और स्टील का रिश्ता

बीसीसीएल के सीएमडी पीके लहरी कहते हैं कि बीसीसीएल पुनर्वास योजना को मुकम्मल तरीके से लागू करने को तैयार है, बस सरकार से सही समय पर समुचित सहयोग चाहिए. अगर समय पर फंड मिले तो काम नियत समय पर पूरा हो जाएगा. बीसीसीएल जनसंपर्क अधिकारी आरआर प्रसाद भी कहते हैं कि जितनी जल्दी पुनर्वास हो उतना बेहतर.

देश में घरेलू कोयले का भंडार 93 अरब टन है जिसका 13 फीसदी भाग ही कोकिंग कोल है बाकि थर्मल कोल है

लेकिन बीसीसीएल के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि खेल सिर्फ उजाड़ने-बसाने का नहीं है, बल्कि कुछ और है. नाम गुप्त रखने की शर्त पर वे बताते हैं, ‘इस योजना की मंजूरी से कंपनी दीर्घकालिक हित देख रही है. झरिया जिस दिन खाली हो जाएगा, उस दिन कोकिंग कोल कोयले के लिए रास्ता साफ हो जाएगा, जिसके लिए इस्पात कंपनियां इंतजार कर रही हैं. यहां से आबादी हटने के बाद ही कोयले के दोहन का काम संभव हो पाएगा.’

हालांकि एक रास्ता यह भी है कि कोयला खनन हो जाने से आग बुझाना भी आसान होगा, लेकिन उसमें एक बड़ा सवाल तो यही है कि आउटसोर्सिंग में लगी बीसीसीएल क्या कभी वैज्ञानिक तरीके से खनन शुरू कराने की पहल करेगी. इसीएल के रिटायर्ड निदेशक एनके सिंह की मानें तो झरिया में बीसीसीएल कंपनी नौ ओपन कास्ट माइंस से खनन का काम शुरू करेगी, जिससे इस्पात उद्योग की जरूरतों को पूरा किया जा सकेगा. फिलहाल 2025 मिलियन टन कोकिंग कोल ऑस्ट्रेलिया से आयात करना पड़ता है. लेकिन कार्य योजना लागू कर दी जाए तो घरेलू इस्पात उद्योग की 50 फीसदी जरूरतों को आसानी से पूरा कर दिया जाएगा. इससे राजस्व में भी काफी इजाफा होगा.

एनके सिंह की बातों को आगे बढ़ाते हुए अगर आंकड़ों से इसे समझने की कोशिश करें तो इसे वर्तमान स्थिति से समझा जा सकता है. देश की सबसे बड़ी इस्पात उत्पादक कंपनी स्टील अथॉरिटी  ऑफ इंडिया लिमिटेड (सेल) के अनुमान के मुताबिक स्टील का उत्पादन इस वर्ष 6.5 करोड़ टन होने की संभावना है. इतने उत्पादन के लिए 4.5 करोड़ टन कोकिंग कोल की आवश्यकता होगी. देश में घरेलू कोयले का भंडार 93 अरब टन है जिसका 13 फीसदी भाग ही कोकिंग कोल है बाकी थर्मल कोल है. इसमें से 28 फीसदी प्राइम कोकिंग कोल और शेष मीडियम कोकिंग कोल है. भारतीय इस्पात उद्योग के विकास में सबसे बड़ी बाधा प्राइम कोकिंग कोल की अनुपलब्धता है. फिलहाल इसका उत्पादन 80 लाख टन है जिसे 2024-25 तक 1.8 करोड़ टन करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है जबकि इस्पात उद्योग की डिमांड 9.7 करोड़ टन हो जाएगी. मांग और आपूर्ति को देखते हुए भी बीसीसीएल इस ऐक्शन प्लान को महत्व दे रही है. धनबाद-पाथरडीह रेलवे लाइन को आग से प्रभावित कहकर हटा दिया गया ताकि वहां से कोयला निकाला जा सके और अब तक इस छोटी-सी जगह से 10 लाख टन से अधिक कोयला निकाला जा चुका है.

ये बातें अब झरियावाले भी जानने लगे हैं कि जिस कोयले ने उनकी जिंदगी में सारे बदलाव किए हैं, उन्हें जीने खाने का आसरा देने के साथ ही समृद्ध भी बनाया है, वही अब उनके लिए जी का जंजाल बना हुआ है. यह पूछने पर कि दुनिया के सबसे बड़े पुनर्वास के लिए इतना पैसा कहां से आएगा तो कागज का एक पुलिंदा सौंपा जाता है, जिसका सार कुछ इस तरह से है-  बीसीसीएल की होल्डिंग कंपनी कोल इंडिया लिमिटेड गत तीन वर्षों से अपनी लाभजनक इकाइयों से प्रतिटन छह रुपये वसूलती है. इससे हर साल बीसीसीएल को 400 करोड़ रुपये मिलते हैं. यह पैसा इस काम में इस्तेमाल होगा. इसके अलावा, हर तरह के कोयले  (कोकिंग और नॉन कोकिंग) पर उत्पाद शुल्क 10 रुपये  प्रतिटन किया गया है, जो पहले साढ़े तीन रुपये प्रतिटन नॉन कोकिंग कोल पर तथा सवा चार रुपये प्रतिटन कोकिंग कोल पर था. इससे प्रतिवर्ष अतिरिक्त 240 करोड़ रुपये जमा होने का अनुमान है. इसी तरह पैसा जमा करके नया झरिया बसा दिया जाएगा.

लेकिन उससे पहले कई सवालों के जवाब की हैं.

पुराने बसेरे में लौटने की आहट

एकबारगी ऐसा क्या हुआ कि माओवादियों ने बड़ी घटनाओं को अंजाम देना शुरू कर दिया? वह भी उस इलाके में जो एक समय उनका सबसे सुरक्षित बसेरा हुआ करता था, लेकिन जिससे कुछ वर्षों से उन्होंने एक हद तक दूरी बना ली थी. एक बार फिर से पलामू में ही ताबड़तोड़ हमला क्यों कर रहे हैं माओवादी, यह अब तक साफ नहीं हो पा रहा है. कुछ का कहना है कि यह झारखंड के ही निवासी मिसिर बेसरा नामक माओवादी को अहम कमान देने के पहले उसके राज्य में मजबूत उपस्थिति दर्ज करवाने की कवायद है. कुछ मानते हैं कि हाल के दिनों में लगातार कमजोर पड़ने और अपने साथियों के गिरफ्त में आने के कारण बौखलाए माओवादी दहशत फैलाकर अपनी ताकत दिखाने और बताने की कवायद में लगे हुए हैं. कुछ यह भी मानते हैं कि माओवादी अपने नेता किशनजी के मार दिए जाने के बाद बंगाल में चारा नहीं चलने के कारण उसका हिसाब-किताब आसानी से झारखंड में पुलिसवालों को मारकर कर रहे हैं.

ये अनुमान हैं, ठोस और असल वजह यही सब हों,  कहा नहीं जा सकता. लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि सारंडा जैसे बीहड़ और मालदार जोन को छोड़ अचानक से माओवादियों ने भूख, अकाल, गरीबी, सूखे और पलायन से जलते पलामू को फिर से अपना ठिकाना बनाने की कोशिश शुरू कर दी है. पलामू में पिछले साल के दिसंबर महीने में एक घटना को अंजाम देते हुए माओवादियों ने 11 पुलिसकर्मियों को मार दिया था. अभी इस साल का पहला महीना भी नहीं गुजरा कि फिर से पलामू में माओवादियों ने उतने ही पुलिसकर्मियों की निर्ममता से हत्या कर दी.

पलामू के गढ़वा जिले वाला एक हिस्सा 21 जनवरी को जोरदार आवाजों से थर्रा गया. वर्षों बाद हुई ऐसी दहल से लोग अब भी दहशत में हैं. भंडरिया के पास माओवादियों ने पहले तो पुलिस की ऐंटी लैंडमाइंस गाड़ी को निशाना बनाकर बारूदी सुरंग से विस्फोट किया और फिर सारे जवानों को घेर कर उन पर गोलियां बरसा दीं. संख्या में 40 के करीब नक्सलियों ने इसके बाद पुलिसकर्मियों के हथियार कब्जे में लिए और थाना प्रभारी राजबलि चौधरी की गाड़ी में आग लगाकर उन्हें जिंदा ही आग के हवाले कर दिया.

मारे गए सभी पुलिसकर्मी उस दिन भंडरिया इसलिए जा रहे थे कि वहां के मुखिया रामदास मिंज स्वास्थ्य उपकेंद्र को जनता की सुविधा वाले स्थान पर बनवाना चाहते थे. पर ठेकेदार और बिचौलिए इसके लिए राजी नहीं थे. कुछ ग्रामीणों को साथ लेकर मुखिया मांग पूरी करवाने के लिए धरने पर बैठ गए. प्रशासन को जब इसकी भनक लगी तो प्रखंड विकास पदाधिकारी बासुदेव प्रसाद, जिला पार्षद सुषमा मेहता, माले नेता अख्तर अंसारी तथा उनके ड्राइवर महबूब व अंगरक्षक सुनेश राम के साथ धरनास्थल के लिए रवाना हुए. इस काफिले के साथ एक ऐंटी लैंड माइंस वैन भी थी. इसी मौके का फायदा माओवादियों ने उठाया.

पलामू तीन राज्यों की सीमा से लगता है इसलिए यहां माओवादियों को गतिविधियां चलाने में आसानी होती है

इस मिशन को अंजाम देने के बाद माओवादियों ने चार लोगों को बंदी बना लिया और अपनी मांग पूरी करने की बात कही. मांग यह कि इलाके में चल रहा ऐंटी नक्सल ऑपरेशन तुरंत बंद किया जाए और पुलिस पिकेट को हटाया जाए. अपनी मांग रखकर माओवादियों ने 23 जनवरी को तीन लोगों को तो छोड़ दिया लेकिन जिला पार्षद सुषमा मेहता के अंगरक्षक सुनेश को प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए अपने पास ही रख लिया. ऐसा माना जा रहा है कि यदि सरकार पिकेट हटाने को तैयार नहीं हुई तो दबाव बनाने व दहशत फैलाने के लिए सुनेश की हत्या कर दी जाएगी क्योंकि वह सरकारी कर्मचारी होने के साथ-साथ पुलिसकर्मी भी है.

घटना के बाद राज्य के मुखिया अर्जुन मुंडा का यह बयान आया कि इस घटना के लिए केंद्र सरकार दोषी है क्योंकि वह राज्य सरकार की मदद नहीं कर रही. यह बयान अपने आप में हैरान करने वाला था क्योंकि नक्सल समस्या को लेकर हाल ही में केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम ने झारखंड का दौरा किया था और उस समय मुंडा ने केंद्र के असहयोगात्मक रवैये का मुद्दा उनके सामने नहीं उठाया था. हैरानी की बात यह भी रही कि इतनी बड़ी घटना के बाद खुद मुख्यमंत्री या फिर उनके सहयोगी किसी भी मंत्री ने एक बार भी पलामू पहुंचने की जहमत नहीं उठाई. राज्य में घटित बड़ी से बड़ी घटना पर राजधानी रांची से ही बयान देना एक परंपरा बन गई है जबकि झारखंड गठन के बाद से अब तक औसतन हर साल 40 जवानों की नक्सली हमले में मौत हो जाती  है. माले नेता विनोद सिंह पलामू जरूर पहुंचे और उन्होंने कहा भी कि पुलिस और माओवादियों का फर्क मिट गया है और दोनों की क्रूरता से आम जनता पिस रही है. बकौल विनोद, ‘धरने पर बैठे मुखिया रामदास मिंज और ग्रामीण फिदा हुसैन को इस तर्क के साथ हिरासत में ले लिया जाना कि इस घटना की साजिश में इन्हीं का हाथ है,  इसी को प्रमाणित करता है.’

पलामू प्रमंडल के तीनों जिलों पलामू, लातेहार और गढ़वा में नक्सलियों की धमक तब से रही है जब नक्सलबाड़ी से नक्सल आंदोलन की शुरुआत हुई थी. शुरुआती दिनों में माओवादियों ने जमींदारों के खिलाफ यहां झंडे गाड़े और वे तारणहार के रूप में देखे गए. उसे भुनाने के लिए माओवादियों ने राजनीति के अखाड़े में भी अपना भाग्य आजमाया. पिछली बार विधानसभा चुनाव में करीब छह माओवादी मैदान में उतरे. पलामू में तो जेल में रहते हुए पूर्व माओवादी नेता कामेश्वर बैठा सांसद ही चुन लिए गए. गत दिसंबर में भी माओवादियों ने पलामू को दहलाकर संकेत दिया था कि अब उनका नया ठिकाना फिर यही इलाका बन रहा है. बीते तीन दिसंबर को चतरा सांसद इंदरसिंह नामधारी के काफिले पर भी पलामू के ही लातेहार इलाके में गारू के पास हमला हुआ था. नामधारी तो तब बच निकले थे लेकिन 11 जवानों की जान माओवादियों ने ले ली थी. ठीक दो दिन बाद यानी पांच दिसंबर को पलामू के ही हरिहरगंज थाने पर करीब 60 माओवादियों ने हमला करके 250 राउंड गोलियां चलाकर दहशत का माहौल बनाया था. इस बीच घोषित किए गए बंद में भंडरिया थाना के ही बोरदरी गांव के हाई स्कूल को भी माओवादियों ने केन बम लगाकर उड़ा दिया था.

हाल के दिनों में पलामू में माओवादियों की बढ़ती हलचल के बारे में जानकार बताते हैं कि पलामू एक ऐसा इलाका है जो बिहार, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश की सीमा से लगता है. इसलिए माओवादियों को यहां अपनी गतिविधियां चलाने में आसानी होती है. उनके लिए घटना को अंजाम देकर भागना या छिपना आसान हो जाता है. पूरे पलामू की गरीबी और गरीबों की उपेक्षा भी इन्हें पनपने में खाद-पानी का काम करती रही है.  स्थानीय पत्रकार आशीष कहते हैं, ‘हाल के दिनों में माओवादियों के कई बड़े नेताओं को या तो मार दिया गया है या पकड़कर जेल में डाल दिया गया है जिससे वे बैकफुट पर आ गए हैं.

अब वे अपनी ताकत का अहसास कराने के लिए ऐसी दहशत वाली घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं ताकि पुलिस-प्रशासन और सरकार इनके खिलाफ चलाए जा रहे अभियानों पर विराम लगाए और आम जनता उनके खिलाफ कुछ न बोले.’ पलामू में रहने वाले राजनीतिक कार्यकर्ता शैलेंद्र कहते हैं, ‘यह सच है कि झारखंड के इलाके में पिछले कुछ समय में माओवादियों की ताकत थोड़ी घटी है. लेकिन उड़ीसा,  छत्तीसगढ़ व अन्य राज्यों में इसका विस्तार हुआ है. जहां तक पलामू जोन की बात है तो यहां की जनता हमेशा माओवादियों का साथ देती रही है. इसका मुख्य कारण है इस इलाके में उनके द्वारा बनवाए गए कई चेक डैम, स्कूल व अन्य सामाजिक व सार्वजनिक उपयोग की चीजें. उत्पीड़ित महिलाओं व दलितों को भी उन्होंने अपनी अदालत लगाकर न्याय दिलवाया है.’नक्सल मामलों के जानकार फैसल अनुराग बताते हैं कि माओवाद का मुख्य मकसद उत्पीड़ित समाज को न्याय दिलाना ही रहा है. यह अलग मसला है कि बाद में इसमें कई खामियां और भटकाव देखने को मिलने लगे हैं.

पलामू की इस हालिया घटना के बाद सबसे ज्यादा भय पुलिस के जवानों में व्याप्त है. लगातार बढ़ती घटनाओं से उनके सामने संकट है और सुविधा के नाम पर अब भी उन्हें झारखंड में वे सुविधाएं मुहैया नहीं कराई जा सकी हैं जिनकी उन्हें जरूरत  है. हालांकि राज्य पुलिस एसोसिएशन के अध्यक्ष सुनील कुमार कहते हैं कि माओवादियों की कायरतापूर्ण हरकतों से पुलिस का मनोबल नहीं टूटेगा. वे कहते हैं, ‘हम आगे भी लड़ाई जारी रखेंगे.’ सीआरपीएफ के महानिदेशक विजय कुमार तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘हम इससे डरने वाले नहीं हंै. हमने इलाके के आसपास घेरेबंदी करवा दी है और हम मुकाबला करेंगे.’

सीआरपीएफ के डीजी का इरादा हो सकता है लड़ने का हो लेकिन इस अर्धसैनिक बल के जवानों को अपनी सुरक्षा की चिंता सता रही है. एक जवान साफ कहते हैं कि उन्हें भेड़-बकरियों की तरह मरवाया जा रहा है. वे बताते हैं, ‘मेरे सारे साथी एक-एक कर मारे जा रहे हैं और हम हर पल इस डर के साथ जीते हैं कि कब बुलावा आएगा और कौन-सा दिन हमारे लिए आखिरी दिन होगा.’

इन सबके बीच झारखंड पुलिस के होश उड़े हुए हैं. झारखंड पुलिस के प्रवक्ता आरके मल्लिक कहते हैं कि यह माओवादियों की कायराना हरकत है. विडंबना यह है कि ऐसे वाक्य दोहराए जाते हैं और माओवादी बर्बर घटनाओं को अंजाम देते रहते हैं.

इस घटना के बाद उड़ीसा पुलिस ने संबलपुर इलाके से एक माओवादी गिरिश मोहंतो को पकड़ कर यह जताया है कि पुलिस सतर्क है. मोहंतो को 2007 में ही झारखंड पुलिस ने पकड़ा था, लेकिन पिछले साल वह चाईबासा जेल से फरार होने में सफल रहा था. अब इस माओवादी के पकड़े जाने से क्या होगा, यह किसी को पता नहीं. इससे पुलिस कुछ सफलता हासिल कर पाएगी या फिर गढ़वा की यह घटना भी माओवादी घटनाओं के इतिहास में एक और कड़ी की तरह दर्ज भर होकर रह जाएगी? सवाल के जवाब तो कई हैं पर साफ कोई भी नहीं.